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मंगलवार, 25 जून 2019

महामण्डल आंदोलन का स्वरुप एवं कार्य : कर्म-रहस्य ( धर्म रहस्य)

 महामण्डल आंदोलन: मनुष्य निर्माण का आंदोलन है !
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था --- " मनुष्य, केवल मनुष्य भर चाहिये ! शेष सब कुछ अपने आप हो जायेगा। आवश्यकता है वीर्यवान, तेजस्वी ---'क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज' से सम्पन्न, दृढ-विश्वासी, निष्कपट- नवयुवकों की! ऐसे सौ मिल जायें तो संसार का कायाकल्प हो जाय। पहले उनके जीवन का निर्माण करना होगा। तब कहीं काम होगा।  
 " जब हमारे देश में सच्चे अर्थों में 'मनुष्य' ( चरित्रवान नागरिक ) तैयार हो जायेंगे, तो अपने देश से आकाल-बाढ़ आदि दैवी विपत्तियों तथा सर्वोपरि ' भ्रष्टाचार ' को दूर करने में -कितना समय लगेगा ?
" शिक्षा क्या है ? क्या वह पुस्तक विद्या है ? नहीं ! क्या वह नाना प्रकार का ज्ञान है ? नहीं, यह भी नहीं। जिस संयम के द्वारा (स्वार्थपरता के त्याग द्वारा) इच्छाशक्ति का प्रवाह और विकास वश में लाया जाता है, और वह फलदायक होता है - वह शिक्षा कहलाती है।  " 
" हमें ऐसी शिक्षा चाहिये जिससे चरित्र का निर्माण हो, मन की शक्ति बढ़े, बुद्धि का विकास हो, और मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा होना सीखे !"
"संसार चाहता है चरित्र ! संसार को आज ऐसे लोगों कि आवश्यकता है, जिनके ह्रदय में निःस्वार्थ प्रेम की अग्नि प्रज्वलित हो रही हो । उस प्रेम से निःसृत प्रत्येक शब्दका प्रभाव 'वज्रवत' पड़ेगा। 
" कोई भी राष्ट्र इसलिए महान या अच्छा नहीं होता कि उसकी पार्लियामेन्ट ने यह या वह बिल पासकर दिया है, बल्कि वह इसलिए महान या अच्छा होता कि उस राष्ट्र के नागरिक महान और अच्छे (अर्थात चरित्रवान ) हैं।"  
" भारत के राष्ट्रीय आदर्श हैं - 'त्याग और सेवा (आध्यात्मिकता)' आप इन दो धाराओं में तीव्रता उत्पन्न कीजिये, शेष सब अपने आप ठीक हो जायेगा।" 
" अतएव --- "Be and Make !  अर्थात तुम स्वयं ' मनुष्य बनो और दूसरों को भी मनुष्य बनने' में सहायता करो ! "
" मेरी आशा,मेरा विश्वास नविन पीढ़ी के नवयुवकों पर है। उन्हीं में से मैं अपने कार्यकर्ताओं का संग्रह करूँगा, वे सिंहविक्रम से देश कि यथार्थ उन्नति सम्बन्धी सारी समस्याओं का समाधान करेंगे।" .....वे एक केन्द्र से दुसरे केन्द्र का विस्तार करेंगे ,और इस प्रकार हम समग्र भारत में फ़ैल जायेंगे।    
स्वामी विवेकानन्द जी के ऐसे ही विचारों से प्रेरणा लेकर,१९६७ ई० में 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामंडल' की स्थापना कलकत्ते में हुई। यह मनुष्य-निर्माणकारी आन्दोलन मनुष्य के तीन प्रधान अवयवों (components 3-H's ) के विकास पर आधारित हैं:-ये हैं शारीरिक शक्ति का विकास (Hand), मानसिक शक्ति का विकास (Head), तथा आत्मिक शक्ति का  विकास (Heart)।जिन्हें हम क्रमशः अपने हाथ,मस्तिष्क और ह्रदय के द्वारा व्यक्त करते हैं।महामण्डल युवाओं के इन तीन अवयवों का समुचित विकास करने के लिए, "साप्ताहिक युवा पाठ-चक्र"  (Study Circle) तथा "वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर" आदि (Youth Training Camps) में विभिन्न प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आयोजन करता है।
[ महामण्डल आंदोलन स्वामी विवेकानन्द के व्यावहारिक वेदान्त,"The Secret of Work" या 'कर्मरहस्य' अर्थात ‘कर्मों में अनासक्ति’ या “non-attachment to work." के माध्यम से जिस अवस्था को बुद्ध ने ध्यान से, और ईसा ने प्रार्थना से प्राप्त किया था -उसी अवस्था में पहुँचे हुए  अनासक्त कान्हा (unattached'-'ख़ुदमुख़्तार- कान्हा) या शिशुवत नेताओं, शिक्षकों के निर्माण का आंदोलन है ! वस्तुतः महामण्डल आंदोलन  ("स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर अद्वैत वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा 'Be and Make'-में  प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले 'वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर' में  विभिन्न प्रशिक्षण कार्यक्रमों के माध्यम से) अनासक्त शिक्षकों (unattached-ख़ुदमुख़्तार कान्हा या शिशुवत शिक्षकों), एवं  भ्रममुक्त नेताओं (de-hypnotized, प्रधान सेवकों) के  निर्माण की निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है।  
महामण्डल का आह्वान --'अद्वैत वेदान्त से विश्वकल्याण की ओर !':  
 वैसे युवा, जो स्वामी विवेकानन्द के नेतृत्व में विश्वास रखते हैं, मनुष्य-जाती के प्रति उनके अमर संदेशों में तथा राष्ट्र के नाम उनके आत्मझंकिर्त कर देने वाली उनकी पुकार में आस्था रखते हैं; महामण्डल वैसे युवाओं का आह्वान करता है-कि वे महामण्डल से जुड़ कर " मनुष्य-निर्माणऔर चरित्र-निर्माणकारी आन्दोलन " को भारत के गाँव-गाँव तक ले जा कर , भारत का पुनर्निमाण करने के महान उद्देश्य में जुट जाएँ।
महामण्डल का---- 
उद्देश्य : भारत का कल्याण।  
                  उपाय : 'मनुष्य' निर्माण एवं चरित्र-निर्माण ! 
          आदर्श  : चिर-युवा  स्वामी विवेकानन्द !
                ध्येयमन्त्र (Motto):  " Be and Make "
         अभियान-मन्त्र : 'चरैवेति, चरैवेति"  
महामण्डल युवा प्रशिक्षण-शिविर एवं साप्ताहिक पाठचक्र का लक्ष्य है,  राष्ट्र-निर्माण के लिए युवा वर्ग में, 'निःस्वार्थ-सेवा' की भावना को जाग्रत करा कर युवाशक्ति  का अनुशासित सदुपयोग करना। जिसकी प्रेरणा हमें गीता, उपनिषद की शिक्षाओं में आधारित स्वामी विवेकानन्द के  'कर्म रहस्य'–नामक व्याख्यान से प्राप्त होती है। स्वामी विवेकानन्द कृत “कर्मयोग” पुस्तक का यह तीसरा अध्याय है। इसमें स्वामी जी समझा रहे हैं कि--किसी मानवजाति के मार्गदर्शक नेता,ब्रह्मविद जीवनमुक्त शिक्षक या पैगम्बर द्वारा किये जाने वाले अनासक्ति और निष्काम कर्म का क्या रहस्य है। हमलोग किस तरह से कर्म करें, कि कोई भी कर्म हमें  बांध न सके ?
                 अतः हमलोगों को पहले यह समझना होगा कि कार्य क्या है ? इस जगत में सर्वत्र एवं सर्वदा वभिन्न प्रकार की घटनाएँ घटित होती रहती हैं। इनमे से प्रत्येक घटना एक प्रकार का कार्य ही तो है ! जैसे हम देखते हैं कि- प्रातः काल में सूर्य उदित होता है, रात्रि के अंधकार को दूर हटा कर सूर्य की किरणें जगमगा उठतीं हैं, फूल खिल जाते हैं, नदी बहती जा रही हैं, बारिश से सूखी हुई मिट्टी गीली हो जाती है, सूर्य के प्रचण्ड ताप से मिट्टी का जल वाष्प बन कर उड़ जाता है,और इसी प्रकार के अन्य कितने ही कार्य होते रहते हैं। ये सभी कार्य प्रकृति के नियमानुसार घटित होते रहते हैं। इनमे से किसी भी कार्य के पीछे मनुष्य की कल्पना, इच्छा, प्रयत्न या उद्यम आवश्यक नहीं होता।
 फ़िर हम यहाँ कुछ ऐसे कार्यों को भी घटित होते देखते हैं जिनमें प्रत्येक के पीछे मनुष्य की इच्छा, और प्रयत्न आवश्यक होता है।मनुष्य की आकांक्षा, इच्छा, और चेष्टा आदि का आधार मनुष्य का मन ही होता है। जैसे हम देखते हैं कि - किसान खेत में हल चला रहा है, मछुआरा मछली पकड़ रहा है, श्रमिक-कारीगर लोग कितने प्रकार के कार्य कर रहे हैं, कोई खेल रहा है तो कोई पढ़ने में लगा हुआ है आदि-आदि। इन सभी प्रकार के क्रिया-कलापों का आधार मनुष्य का मन ही तो है। मन की किसी आकांक्षा, इच्छा, लक्ष्य, उद्देश्य या संकल्प को पूरा करने के लिए मनुष्य उद्यम, अध्यवसाय,चेष्टा, श्रम या प्रयत्न करता है।
              इनमे से कोई स्वेच्छा से कार्य कर रहा होता है, तो कोई दूसरे की इच्छा से प्रेरित हो कर। क्योंकि सबको जीवन यापन करना होता है और उसके लिये सबका अर्थोपार्जन करना आवश्यक है।  इसीलिये हमें अपनी या दूसरों की इच्छा से कार्य करना पड़ता है, किन्तु दोनों ही अवस्थाओं में जो कार्य कर रहा है, उसे पहले अपने मन में कार्य विषयक चिन्तन तो करना ही पड़ेगा। और जो कार्य करना है उसके विषय में योजना बनानी होगी, कार्य को पूर्ण करने का संकल्प लेना होगा, फिर उसे पूर्ण करने के लिये चेष्टा, प्रयत्न या श्रम भी करना पड़ेगा। और इस चेष्टा तथा श्रम में  थोड़ी शक्ति भी खर्च करनी पड़ेगी। कार्य विषयक संकल्प लेने, चिंतन द्वारा उसका खाका (ब्लूप्रिन्ट) तैयार करने में जिस शक्ति का क्षय होता है उसे मानसिक शक्ति कहते हैं, जबकि काम करने में जो शक्ति लगती है वह शारीरिक शक्ति कहलाती है। परन्तु यह शारीरिक शक्ति भी मन को नियोजित करने के बाद ही क्रियाशील होती है। 
               अब यदि ध्यान पूर्वक देखें तो पायेंगे कि जिस विषय या वस्तु के ऊपर कार्य किया जा रहा है, उसके रूप या स्थान में परिवर्तन हो जाता है। जैसे लकड़ी के तख्ते से कुर्सी का निर्माण हो गया, सूत से गमछा बन गया, धरती पर पड़े गोबर से जलाने वाला उपला बन गया, कोयले के चूरे से जलाऊ गोटे बन गये, हल चलाने से धरती खेती करने योग्य हो गयी आदि-आदि। इसी प्रकार मैं कोई पुस्तक पढ़ता हूँ तो पुस्तक का ज्ञान मुझे प्राप्त हो जाता है। कागज के ऊपर तूलिका घुमाने से, मन की कल्पना चित्र के रूप में साकार हो जाती है। किसी प्राकृतिक घटना पर मन को एकाग्र करके गहराई से विचार करने से, हम किसी नये नियम या नये उदाहरण का आविष्कार कर लेते हैं! ये सब भी विभिन्न प्रकार के कार्य ही हैं !  
                              जो करने से किसी वस्तु में कोई रूपान्तरण, परिवर्तन या स्थानान्तरण हो जाता है, तथा जिसमें शक्ति भी खर्च करनी पड़ती है, और जिसे करने में मनुष्य का मन अनिवार्य रूप से लगा होता है, कार्य कहलाता है। मनुष्य के मन में ही वह कल्पना-शक्ति रहती है जिसके बल पर किसी वस्तु का रूपांतरण या स्थानान्तरण होता है। मनुष्य का मन ही यह जनता है कि किस प्रकार किस प्रकार किसी वस्तु से सर्वाधिक लाभ प्राप्त किया जा सकता है, फिर उसी लाभ को प्राप्त करने के लिये वह शक्ति की खोज करता है। चेष्टा, धैर्य, अध्यवसाय, उद्यम, निष्ठा आदि प्रवृत्तियाँ मनुष्य के मन से ही संबन्धित हैं। मन की इच्छा, संकल्प आदि को पूरा करने के लिये ही उसका शरीर चेष्टा, प्रयत्न या श्रम करता है और उसके मन की कल्पना को साकार रूप दे देता है। इस प्रकार निष्कर्ष यह निकला-  कि मन की कल्पनाओं को साकार रूप देना ही 'कार्य' है; तथा किसी भी कार्य को करने का सबसे बड़ा साधन 'मन' ही है। 
           अब प्रश्न उठेगा कि' मन' क्या है ?  उसे तो देखा नहीं जा सकता, उसे मुट्ठी में पकड़ा भी नहीं जा सकता तथापि मन के विषय  में हर कोई जानता है कि 'मन' है । 'मन' नहीं है  - ऐसा कोई नहीं कहता। 'यहाँ मेरा मन नहीं लग रहा है', मन घबरा रहा है', 'मन प्रसन्न है' अथवा  'दुःखी'  है- ऐसी कितनी ही बातें मन के विषय में हमलोग निरंतर कहते रहते हैं। अर्थात हम भली-भाँति जानते हैं कि मन है ; किन्तु ये मन है क्या चीज ? मन के बारे में इतना कहने-सुनने पर भी हम मन को ठीक से समझ क्यों नहीं पाते हैं ? वास्तव में मन हमारे इतने निकट है कि हम उसे देख ही नहीं पाते, किन्तु बहुत अच्छी तरह से जानते हैं कि 'मन' है। 
         हमलोग जिसे 'मैं' कहते हैं, वह क्या है ? बिना सोंचे-समझे अकस्मात् हमारे मन में विचार कौंध जाता है कि-क्यों यह शरीर ही तो है ! परन्तु अगर शरीर ही 'मैं' होता तो, तो हमलोग 'मेरा शरीर' क्यों कहते ? हमारा स्थूल-शरीर तो जगत की कई जड़ पदार्थों (नश्वर पंचभूतों) द्वारा निर्मित है, मन भी सूक्ष्म जड़ पदार्थ (तन्मात्राओं matter) द्वारा निर्मित है और आत्मा अत्यन्त सूक्ष्म।  किन्तु आत्मा को शरीर अथवा मन के सदृश अन्य कोई  स्थूल या सूक्ष्म भौतिक (जड़) वस्तु नहीं समझना चाहिये। बहुधा हमलोग ऐसा भी कहते हैं कि आज 'मुझे' अच्छा नहीं लग रहा है- इस पर चिन्तन करने से यह स्पष्ट होता है कि मेरा मन उदास हो गया था। इस प्रकार ये शरीर भी मेरा है, और मन भी मेरा ही है। अतः  हम सोचने पर बाध्य हो जाते हैं कि- ' मैं ', शरीर और मन के अतिरिक्त कुछ और ही वस्तु है।  इसी 'मैं ' को हमारे देश में आत्मा (ब्रह्म) की संज्ञा दी गयी है। इस प्रकार विचार-विश्लेषण करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि मनुष्य तीन अनिवार्य अवयवों -शरीर, मन और आत्मा का सम्मिलित रूप है, जिसे स्वामी जी (3H) - शरीर (Hand), मन (Head) और हृदय या आत्मा (Heart) कहते थे।  इनमें से आत्मा ही हमारी वास्तविक (अविनाशी) सत्ता है। इस शरीर और आत्मा के मध्य हमारा मन एक सेतु (Bridge) की तरह कार्य करता है।  
सामान्यतः स्थूल भौतिक पदार्थ  तीन प्रकार के होते हैं- ठोस, तरल और गैस।  ठोस पदार्थ को आसानी से देखा जा सकता है एवं तरल पदार्थों को सर्वदा देखते हुए भी आसानी से पकड़ा नहीं जा सकता है।  पानी से पूरे भरे ग्लास को भी दूर से देख कर नहीं कहा जा सकता की वह भरा है कि खाली है?  वायु को तो हम देख भी नहीं सकते, फ़िर भी हम जानते है कि वह है। वायु के अस्तित्व का ज्ञान हमें उसके कार्यों को देखकर होता है। जैसे वृक्ष की पत्तियों  या जल की सतह को हिलता हुआ देखकर हम समझ जाते हैं कि वायु प्रवाहित हो रही है। उसी प्रकार मन भी सूक्ष्म है- उसको आँखों से तो नहीं देख सकते, उसके कार्यो से समझा जा सकता है कि 'मन' है । 
मन बनता कैसे है ? मन अत्यन्त सूक्ष्म वस्तु है, अतः उसके कार्यों को समझने के लिए उसकी तुलना किसी शान्त सरोवर से की जाती है। मनवस्तु (Mind Stuff ) को, जिससे मन बनता है उसको - 'चित्त' कहते हैं। जैसे किसी शान्त सरोवर में ढेला फेंकने से वह तरंगायित हो जाता है। उसी प्रकार चित्त-सरोवर में पाँच विषयों -रूप,शब्द,गंध, रस आदि के ढेले पड़ने से वह तरंगायित होकर मन बन जाता है। 'मन' का कार्य है प्रश्न करना - क्या है, क्या है ?...करना। वह कैसी आवाज ? कैसा रूप? कैसा गंध -? चित्त की गहराई में बसे उस गंध के स्मृति-कोष से विश्लेषण कर मन ने देखा, और बुद्धि ने तत्क्षण निर्णय कर लिया कि यह तो 'गुलाब' का गंध ही है ! 'बुद्धि' का कार्य है निर्णय करना , जैसे ही बुद्धि ने निर्णय किया वैसे ही 'अहंकार' या मैं-पन आ जाता है- और व्यक्ति कहता/ कहती है - मैं जान गया /गई कि यह गुलाब का गंध है। जिसको हम 'मन' कहते हैं वह हमारा 'अन्तःकरण' है, जिसके द्वारा हम कोई कार्य करते हैं या ज्ञान अर्जित करते हैं। अंतःकरण के चार पार्ट हैं, 'चित्त-मन-बुद्धि और अहंकार।' अहंकार या 'अहं' भी आत्मा का ही अभिकरण (Agency) जिसके सहारे वह जगत-व्यवहार करता है।  यहाँ प्रश्न था कि मन क्या है ? उत्तर है - जिसकी सहायता से हमें सब कुछ उपलब्ध होता है, अनुभव करते हैं तथा किसी भी वस्तु या विषय को समझ सकते हैं, उसको ही मन कहते हैं। 
यदि हमारे पास मन नहीं रहे तो किसी भी प्रकार की उपलब्धि नहीं हो सकती। हमलोग वाह्य जगत् को अपनी पंचेन्द्रिय- आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा के माध्यम से ही जान पाते हैं। यह जगत् पंचेन्द्रिय ग्राह्य है। इन्हीं इन्द्रियों के माध्यम से हम-  रूप, रस (स्वाद), गंध, शब्द एवं स्पर्श आदि विषयों का अनुभव करते हैं। हमारी इन्द्रियाँ इन्हीं पाँचों विषयों का संवाद हम तक पहुँचाने का कार्य करती हैं। लेकिन इन संवादों का विश्लेषण कर उस वस्तु या विषय को वर्गीकृत कर उनके बारे में स्पष्ट धारणा बनाने का कार्य केवल मन ही करता है।
हम जानते हैं कि किसी भी कार्य को- अविवेकपूर्ण ढंग से (indiscreetly) पहली बार अपनी इच्छा से या दूसरों की बहकावे में आकर करते हैं, और यदि हमारा भ्रमित मन (अहं) इन्द्रिय विषयों (रूप-रस आदि) को अपने लिए अच्छा समझ कर उस विषय में अपनी स्पष्ट धारणा बना लेता है; तो फिर वह उसी कार्य को पुनः पुनः करने की इच्छा करता है। और एक ही कार्य को बार बार दोहराते रहने से वह हमारी आदत बन जाती है, और परिपक्व हो जाने के बाद वही आदतें हमारी प्रवृत्ति (inherent tendency, स्वाभाविक रुझान या सहज प्रवृत्ति) बन जाती हैं। और उन्हीं सहज -प्रवृत्तियों की  एक गहरी लकीर या छाप हमारे चित्त पर पड़ जाती है, उसीको संस्कार कहते हैं। जैसे बैलगाड़ी के पहिये से जो गहरी लकीर बन जाती, बैल स्वाभाविक रुझ   से उन्हीं लकीरों से होकर जाते रहती है,  उस प्रकार मनुष्य भी अपनी गहरी आदतों या प्रवृत्तियों के अनुरूप ही व्यवहार करने को बाध्य होता है !" 
(नवनीदा द्वारा लिखित पुस्तक मनःसंयोग से)
'कर्म का रहस्य' (3/29) नामक अपने व्याख्यान में स्वामी विवेकानन्द कहते हैं--" भगवद्गीता में हमें इस बात का बारम्बार उपदेश मिलता है कि हमें निरन्तर कर्म करते रहना चाहिए। कर्म स्वभावतः ही सत्-असत् से मिश्रित होता है। हम ऐसा कोई भी कर्म नहीं कर सकते, जिससे कहीं कुछ भला न हो; और ऐसा भी कोई कर्म नहीं है, जिससे कहीं-न-कहीं कुछ हानि न हो। प्रत्येक कर्म अनिवार्य रूप से गुण-दोष से मिश्रित रहता है। परन्तु फिर भी शास्त्र हमें सतत कर्म करते रहने का ही आदेश देते हैं। सत् और असत् दोनों का अपना अलग अलग फल होगा। सत् कर्मों का फल सत् होगा और असत् कर्मों का फल असत्। परन्तु सत् और असत् दोनों ही आत्मा के लिए बन्धनस्वरूप हैं। इस सम्बन्ध में गीता का कथन है कि यदि हम अपने कर्मों में आसक्त न हों तो हमारी आत्मा पर किसी प्रकार का बन्धन नहीं पड़ सकता।
[कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47--तेरा कर्म में ही अधिकार है ज्ञान निष्ठा में नहीं। कर्म करने मात्र में तुम्हारा अधिकार है, फल में कभी नहीं। तुम कर्मफल के हेतु वाले मत होना और अकर्म में भी तुम्हारी आसक्ति न हो।  यदि कर्मफल में तेरी तृष्णा होगी तो तू कर्मफल प्राप्ति का कारण होगा। अतः इस प्रकार कर्मफल प्राप्ति का कारण तू मत बन।  क्योंकि जब मनुष्य कर्मफल की कामना से प्रेरित होकर कर्म में प्रवृत्त होता है तब वह कर्मफलरूप पुनर्जन्म का हेतु बन ही जाता है। यदि कर्मफल की इच्छा भी न करें तो फिर दुःखरूप कर्म करने की आवश्यकता भी क्या है? इस प्रकार सोंचकर ---कर्म न करने में भी तेरी आसक्ति-प्रीति नहीं होनी चाहिये।]
" गीता का मूल सूत्र- यह है कि निरन्तर कर्म करते रहो, परन्तु उसमें आसक्त मत होओ। (We shall try to understand what is meant by this “non-attachment to work)- अब हम यह समझने की चेष्टा करेंगे कि ‘कर्मों में अनासक्ति’ या “non-attachment to work."  का तात्पर्य क्या है? 
किसी व्यक्ति की जन्मजात-प्रवृत्ति (inherent tendency) को ही उस व्यक्ति का 'संस्कार' भी कहा जाता है। जिस ओर मन का विशेष झुकाव (propensity-सहजप्रवृत्ति) होता है, स्थूल रूप से उसे ही ‘संस्कार’ कह सकते हैं। यदि मन को एक सरोवर मान लिया जाय, तो उसमें उठने वाली प्रत्येक लहर जब शान्त हो जाती है तो वास्तव में वह बिलकुल नष्ट नहीं हो जाती। वरन हमारे चित्त (mind-stuff) में एक प्रकार का चिह्न (छाप) छोड़ जाती है, तथा ऐसी सम्भावना का निर्माण कर जाती है, जिससे वह लहर (40 वर्षों बाद भी ?) दुबारा फिर से उठ सके। इस चिह्न तथा इस लहर के, (40 वर्षों बाद भी) दुबारा उठने की सम्भावना को मिलाकर हम ‘संस्कार’ कह सकते हैं।(Every work that we do, every movement of the body, every thought that we think, leaves such an impression on the mind-stuff)
हमारा प्रत्येक कार्य, हमारा प्रत्येक अंग-संचालन, हमारा प्रत्येक विचार हमारे चित्त पर इसी प्रकार का एक संस्कार छोड़ जाता है; और यद्यपि ये संस्कार ऊपरी दृष्टि से स्पष्ट न हों, तथापि ये अवचेतन रूप से अन्दर-ही-अन्दर कार्य करने में पर्याप्त समर्थ होते हैं। हम प्रतिमुहूर्त जो कुछ हैं, वह सब चित्त की गहराई में (अवचेतन-अचेतन मन में) बैठे इन्ही संस्कारों की समष्टि के द्वारा ही निर्देशित होता है। ( What we are every moment is determined by the sum total of these impressions on the mind.) मैं इस मुहूर्त जो कुछ हूँ, वह मेरे अतीत जीवन के समस्त संस्कारों का प्रभाव है।  (This is really what is meant by character; each man's character is determined by the sum total of these impressions.) यथार्थतः इसे ही ‘चरित्र’ कहते हैं। और प्रत्येक मनुष्य का चरित्र इन संस्कारों की समष्टि द्वारा ही निर्देशित होता है। यदि शुभ संस्कारों का प्राबल्य रहे, तो मनुष्य का चरित्र अच्छा होता है और यदि अशुभ संस्कारों का, तो बुरा।  
 यदि कोई व्यक्ति 'विवेक-प्रयोग ' करने के बाद अपने मन में केवल अच्छे विचार रखे और केवल सत्कार्य ही करता रहे , तब सद्कर्म करने की यही आदत (Habit) परिपक्व होने के बाद उसकी प्रवृत्ति (propensity-रुझान या धुन) बन जायेगी। तथा उन सद्प्रवृत्तियों से उत्पन्न गहरी लकीर या संस्कारों का प्रभाव भी अच्छा ही होगा, और उसकी इच्छा न होते हुए भी अपने अच्छे संस्कारों की समष्टि द्वारा निर्देशित रहने के कारण,वह व्यक्ति केवल सत्कार्य (स्वाध्याय आदि 5 अभ्यास ) करने के लिए ही बाध्य हो जायेगा। जब वह व्यक्ति इतने सत्कार्य एवं सतचिन्तन कर चुकता है, तब उसकी इच्छा न होते हुए भी उसमें सत्कार्य करने की एक अप्रतिरोध्य प्रवृत्ति ( irresistible tendency) उत्पन्न हो जाती है।  तब फिर यदि वह दुष्कर्म करना भी चाहे तो इन सब संस्कारों की समष्टिस्वरूप उसका मन उसे ऐसा करने से फौरन रोक देगा।  इतना ही नहीं, वरन् उसके ये संस्कार उसे उस मार्ग पर से हटा देंगे। तब वह अपने सत्संस्कारों के हाथ एक कठपुतली-जैसा हो जायेगा। जब ऐसी स्थिति हो जाती है, तभी उस मनुष्य का चरित्र गठित कहलाता है।
जिस प्रकार कछुआ अपने सिर और पैरों को खोल (shell) के अन्दर समेट लेता है और तब उसे चाहे हम मार ही क्यों न डालें, उसके टकड़े टुकड़े ही क्यों न कर डालें, पर वह बाहर नहीं निकलता।  इसी प्रकार जिस मनुष्य ने अपने मन एवं इन्द्रियों ---(the sense-organs, the nerve-centres और मन तीनों को ) को वश में कर लिया है, उसका चरित्र भी सदैव स्थिर रहता है।  वह अपनी आभ्यन्तरिक शक्तियों को वश में रखता है और उसकी इच्छा के विरुद्ध संसार की कोई भी वस्तु (🍬-🍼) उसके मन और इन्द्रियों को बहिर्मुख होने के लिये विवश नहीं कर सकती। ....  तभी हमारा चरित्र स्थिर होता है, तभी हम सत्यलाभ के अधिकारी हो सकते हैं। 3/31 ऐसा ही मनुष्य "safe forever" सदा के लिए सुरक्षित हो जाता है ! अब उसके द्वारा चाहकर भी किसी प्रकार के बुरे कार्य नहीं नहीं हो सकते। उसको तुम कैसे भी लोगों के साथ रख दो, उसके लिये कोई खतरा नहीं रहता। इसी अवस्था में पहुँचकर सूफ़ी सन्त कबीर ने लिखा है -
" जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करी सकत कुसंग , 
चन्दन विष व्यापे नहीं, लिपटे रहत भुजंग। "
--अर्थात उत्तम प्रकृति के पुरुषों पर कुसंगति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि उनका चरित्र विकारहीन होता है। जैसे चंदन के वृक्षों पर साँप लिपटे रहते हैं, लेकिन उन पर उनके विष का कोई असर नहीं पड़ता। [जैसे देखना भी एक कार्य है, किन्तु यह दर्शनक्रिया कैसे होती है ? दर्शन-क्रिया केवल बाह्य नेत्र-गोलकों से ही नहीं होतीं-आँख, ब्रेन के पीछे स्थित ऑप्टिक नर्भ और मन-तीनों का संयुक्त होना अनिवार्य है; अन्यथा मनुष्य आँखें खोल कर सोया रहता है। कर्मेन्द्रिय, इन्द्रिय-गोलकों  (the sense-organs), तथा  उन इन्द्रियों के समतुल्य मस्तिष्क में अवस्थित स्नायु-केंद्रों ( the corresponding nerve-centres) तथा मन इन तीनों को एक ही लक्ष्य पर एकाग्र रखना पड़ता है।  जब मन, कर्मेन्द्रियाँ और उसके समतुल्य स्नायुकेन्द्र तीनों  पूरी तरह से वशीभूत हो जाती हैं; तभी कोई व्यक्ति (एथेंस का सत्यार्थी देवकुलीश) - इन्द्रियातीत सत्य (निरपेक्ष सत्य) का साक्षात्कार कर सकता है! और सत्यलाभ के बाद ही कोई व्यक्ति-- नेता/जीवनमुक्त शिक्षक के  चरित्र में प्रतिष्ठित रह सकता है। वह माँ काली का भक्त HERO बन जाता है ! Such a man is safe for ever; he cannot do any evil. When such is the case, a man's good character is said to be established. इसका तात्पर्य यह हुआ कि - ' भोग और त्याग'---अर्थात प्रवृत्ति (carnal pleasure में आसक्ति या रुझान) और  निवृत्ति (renunciation-त्याग के प्रति रुझान) में से जिस ओर मन का विशेष झुकाव (propensity) होता है उसी ‘संस्कार’ के अनुसार व्यवहार करने को मनुष्य बाध्य होता है।] 
इन शुभ संस्कारों से सम्पन्न हो जाने की इच्छा के बाद, एक और भी अधिक उच्चतर अवस्था है और वह है–'मुमुक्षुत्व'---'desire for liberation' या मुक्तिलाभ की इच्छा ! तुम्हें यह स्मरण रखना चाहिए कि -सभी योग-मार्गों का लक्ष्य आत्मा की मुक्ति है। और प्रत्येक योग समान रूप से उसी लक्ष्य की ओर ले जाता है। (freedom of the soul is the goal of all Yogas'  , 'and each one equally leads to the same result.)
 भगवान् बुद्ध ने ध्यान से, तथा ईसा मसीह ने प्रार्थना के द्वारा जिस अवस्था की प्राप्ति की थी, मनुष्य उसी अवस्था को केवल कर्म द्वारा भी प्राप्त कर सकता है। बुद्ध ज्ञानी थे और ईसा मसीह भक्त; पर वे दोनों एक ही लक्ष्य पर पहुँचे थे।
 [ उसी प्रकार महामण्डल आन्दोलन का कोई साधारण निष्काम- कर्मी भी यदि स्वयं को प्रधान-सेवक (C-in-C) समझकर, अपने आप को आध्यात्मिक चक्षु-दान यज्ञ में समर्पित कर दे, उसको भी वही अवस्था प्राप्त होगी जो बुद्ध को ध्यान से और ईसा को प्रार्थना से प्राप्त हुई थी।]  
 मुक्ति का अर्थ है सम्पूर्ण स्वाधीनता–शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के बन्धनों से छुटकारा पा जाना। इसे समझना जरा कठिन है। लोहे की जंजीर भी एक जंजीर है और सोने की जंजीर भी एक जंजीर है। यदि हमारी ऊँगली में एक काँटा चुभ जाय तो उसे निकालने के लिए हम एक दूसरा काँटा काम में लाते हैं, परन्तु जब वह निकल जाता है तो हम दोनों को ही फेंक देते हैं। हमें फिर दूसरे काँटे को रखने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती, क्योंकि दोनों आखिर काँटे ही तो हैं। 
 इसी प्रकार पुराने कुसंस्कारों (bad tendencies) का नाश-नये शुभ संस्कारों (good tendencies) के निर्माण द्वारा करना चाहिए। तथा चित्त की गहराई में बैठे हुए बुरे विचारों को अच्छे विचारों द्वारा तब तक दूर करते रहना चाहिए, जब तक कि समस्त कुविचार लगभग नष्ट न हो जाय अथवा पराजित न हो जायें या वशीभूत होकर मन में कहीं एक कोने में न पड़े रह जाय। 'but after that, the good tendencies have also to be conquered.' ----परन्तु उसके उपरान्त शुभ संस्कारों पर भी विजय प्राप्त करना आवश्यक है। इस प्रकार जो ‘आसक्त’ था, वह ‘अनासक्त’ हो जाता है। 
[Thus the "attached" becomes the "unattached". इस प्रकार स्वयं को M/F शरीर मानकर कर्म करने में कर्तापन के अभिमान में आसक्त व्यष्टि 'अहं' था, वह माँ जगदम्बा के मातृहृदय के कर्म में अनासक्त सर्वव्यापी विराट 'अहं' में रूपान्तरित हो जाता है।]  
कर्म करो, अवश्य करो, पर उस कर्म अथवा विचार को अपने मन के ऊपर कोई गहरा प्रभाव न डालने दो। लहरें आयें और जायें, माँसपेशियों और मस्तिष्क से बड़े बड़े कार्य होते रहें, पर वे आत्मा पर किसी प्रकार का गहरा प्रभाव न डालने पाएं। 
[ but let them not make any deep impression on the soul. जीवनमुक्त शिक्षक/ प्रधान सेवक/dehypnotized नेता/ (C-in-C) को कहीं bossism करने का अहंकार न हो जाय। और वह सिंह-शावक (अविनाशी आत्मा) अपने को कहीं फिर से भेंड़-शिशु या नश्वर M/F शरीर न समझने लगे। अब प्रश्न है कि हम सदैव नेता/प्रधानसेवक/जीवन्मुक्त शिक्षक के चरित्र में निरापद रूप से कैसे प्रतिष्ठित रह सकते हैं ?]  

अब प्रश्न यह है कि यह हो कैसे सकता है ? हम देखते हैं कि हम जिस किसी कर्म में लिप्त हो जाते हैं, उसका संस्कार हमारे मन में रह जाता है। मान लो, सारे दिन में मैं सैकड़ों आदमियों से मिला और उन्हीं में एक ऐसे व्यक्ति से भी मिला, जिससे मुझे प्रेम है। तब यदि रात को सोते समय मैं उन सब लोगों को स्मरण करने का प्रयत्न करूं, तो देखूंगा कि मेरे सम्मुख केवल उसी व्यक्ति का चेहरा आता है जिसे मैं प्रेम करता हूँ, भले ही उसे मैंने केवल एक ही मिनट के लिए देखा हो। उसके अतिरिक्त अन्य सब व्यक्ति अन्तर्हित हो जायेंगे। ऐसा क्यों?–इसलिए कि इस व्यक्ति के प्रति मेरी विशेष आसक्ति ने मेरे मन पर अन्य सभी लोगों की अपेक्षा एक अधिक गहरा प्रभाव डाल दिया था। शरीरविज्ञान की दृष्टि से तो सभी व्यक्तियों का प्रभाव एक-सा ही हुआ था। प्रत्येक व्यक्ति का चेहरा नेत्रपट पर उतर आया था और मस्तिष्क में उसके चित्र भी बन गये थ। परन्तु फिर भी मन पर इन सब का प्रभाव एक-समान न था। सम्भवतः अधिकतर व्यक्तियों के चेहरे एकदम नये थे, जिनके बारे में मैंने पहले कभी विचार भी न किया होगा; परन्तु वह एक चेहरा, जिसकी मुझे केवल एक झलक ही मिली थी, भीतर तक समा गया ! शायद इस चेहरे का चित्र [छाप ] मेरे मन में [40] वर्षों से रहा हो और मैं उसके बारे में सैकड़ों बातें जानता होऊँ; अत: उसकी इस एक झलक ने ही मेरे मन में उन सैकड़ों सोती हुई यादगारों को जगा दिया। और इसलिए शेष अन्य सब चेहरों को देखने के समवेत फलस्वरूप मन में जितने सब संस्कार पड़े, इस एक चेहरे को देखने से मेरे मानसपटल पर उन सब की अपेक्षा सौगुना अधिक संस्कार पड़ गया। इसी कारण उसने मन के ऊपर सहज ही इतना प्रबल प्रभाव जमा दिया। 
अतएव अनासक्त (unattached) होओ ! क्योंकि 'अनासक्त' अर्थात 'de-hypnotized' व्यक्ति को ही -"खुदमुख़्तार"- या अपने पैरों पर खड़ा मनुष्य कहा जाता है ! अतः तुम महामण्डल आंदोलन (निष्काम-कर्म) के माध्यम से स्वयं एक अनासक्त शिक्षक /नेता बनो और दूसरों को भी अनासक्त शिक्षक/नेता बनने में सहायता करो ! 'Be and Make' - Let this be our Motto ! कार्य होते रहने दो–मस्तिष्क के केन्द्र अपना अपना कार्य करते रहें–निरन्तर कार्य करते रहें, परन्तु एक लहर को भी अपने मन पर प्रभाव मत डालने दो। 
" Work as if you were a stranger in this land, a sojourner; work incessantly, but do not bind yourselves; bondage is terrible. This world (घर-गृहस्थी) is not our habitation, it is only one of the many stages through which we are passing." 
"संसार में इस प्रकार कर्म करो, मानो तुम एक विदेशी पथिक हो, दो दिन के लिए यहाँ आये हो।"3/32  /  संसार में रहते हुए भी (गृहस्थ आश्रम रहते हुए भी) महामण्डल के मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी आन्दोलन से जुड़ कर इस प्रकार कर्म करो, मानो तुम एक 'विदेशी पथिक' हो (प्रधान सेवक-CinC) हो, दो दिन के लिए यहाँ आये हो। अनासक्त-शिक्षक/नेता के चरित्र में प्रतिष्ठित होकर कर्म तो निरन्तर करते रहो, परन्तु अपने को बन्धन में मत डालो; बन्धन बड़ा भयानक है। संसार (गृहस्थी या संन्यास आश्रम भी) हमारी स्थायी निवासभूमि नहीं है; यह तो उन सोपानों में से एक है, जिनमें से होकर हम जा रहे हैं। सांख्यदर्शन के उस महावाक्य को मत भूलो, “समस्त प्रकृति आत्मा के लिए है, आत्मा प्रकृति के लिए नहीं। ”
प्रकृति (माया -माँ जगदम्बा) के अस्तित्व का प्रयोजन- 'Education of the Soul' आत्मा की शिक्षा के निमित्त ही है (अविद्या माया का अस्तित्व भी आत्मा को de -hypnotized करने के लिए ही है),इस कार्य को करने के अतिरिक्त इस प्रकृति (ignorance या माया) का और कोई प्रयोजन नहीं है। उसका (विद्या और अविद्या माया का) अस्तित्व इसीलिए है कि आत्मा को ज्ञानलाभ हो जाय तथा ज्ञान द्वारा आत्मा अपने को मुक्त कर ले। यदि हम यह बात निरन्तर ध्यान में रखें, तो हम प्रकृति में कभी आसक्त न होंगे; हमें यह ज्ञान हो जायेगा कि प्रकृति हमारे लिए एक पुस्तकसदृश है जिसका हमें अध्ययन करना है; और जब हमें उससे आवश्यक ज्ञान प्राप्त हो जायगा तो फिर वह पुस्तक हमारे लिए किसी काम की नहीं रहेगी। 
 हम देखते भी हैं कि जिन व्यक्तियों (नेता,पैगम्बर, जीवन्मुक्त शिक्षक) ने मनुष्य की आध्यात्मिक सहायता की है, वे ही वास्तव में महान् शक्तिशाली थे । आध्यात्मिक सहायता से नीचे है–बौद्धिक विकास में सहायता करना। पर साथ ही यह “ज्ञान-दान” भोजन तथा वस्त्र के दान से कहीं श्रेष्ठ है; इतना ही नहीं, वरन् प्राणदान से भी उच्च है, क्योंकि ज्ञान ही मनुष्य का प्रकृत जीवन है।  अज्ञान (माया के फन्दे में आसक्त रहना) ही मृत्यु है, और ज्ञान (भ्रममुक्त हो जाना) जीवन।
Leadership Training :   
 इस दुःख-समस्या की केवल एक ही मीमांसा है और वह है–समस्त मानवजाति को पवित्र (भ्रममुक्त)  कर देना। अपने चारों ओर हम जो दुःख-क्लेश देखते हैं, उन सब का केवल एक ही मूल कारण हैं–अज्ञान,ignorance,माया ! [अपने चारों ओर जो अशुभ तथा क्लेश देखते हैं, उन सबकी जननी माया (Ignorance अविद्या माया -जो ब्रह्म वस्तु में आवरण और विक्षेप उत्पन्न करने वाली शक्ति) है। " Ignorance is the mother of all the evil and all the misery we see." ]
तुम मनुष्य को ज्ञानालोक दो, उसे आध्यात्मिक-बलसम्पन्न करो। [अतः तुम स्वयं मानवजाति के मार्गदर्शक नेता/भ्रममुक्त या जीवनमुक्त (dehypnotized ) शिक्षक बनो, प्रकाश-स्तम्भ बनो (lighthouse-जिसमें जहाज वालों को रास्ता दिखाने के लिये ऊंचे पर रोशनी होती है) और मनुष्य को ज्ञानालोक दो, उसे आध्यात्मिक-बलसम्पन्न करो।]  
 यदि हम यह करने में समर्थ हों–यदि सभी मनुष्य पवित्र, आध्यात्मिक-बलसम्पन्न और सुशिक्षित हो जाएँ, केवल तभी संसार में से दुःख का अन्त हो सकेगा, अन्यथा नहीं। [अर्थात यदि हम पहले स्वयं अनासक्त शिक्षक या भ्रममुक्त नेता /प्रधान सेवक (C- in-C) बन जाएँ–और महामण्डल द्वारा -" विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर अद्वैत वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा"-Be and Make ' --में भावी अनासक्त नेताओं/शिक्षिकों को प्रशिक्षित किया जाय -ताकि सम्पूर्ण विश्व के सभी मनुष्य पवित्र, आध्यात्मिक-बलसम्पन्न और सुशिक्षित हो जाएँ, केवल तभी संसार में से दुःख का अन्त हो सकेगा, अन्यथा नहीं।]
 देश के प्रत्येक घर को हम सदावर्त में भले ही परिणत कर दें, देश को अस्पतालों से भले ही भर दें, परन्तु जब तक मनुष्य का चरित्र परिवर्तित नहीं होता, तब तक दुःख-क्लेश बना ही रहेगा। केवल आध्यात्मिक ज्ञान ही ऐसा है, जो हमारे दुःखों को सदा के लिए नष्ट कर दे सकता है; अन्य किसी प्रकार के ज्ञान से तो हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति केवल अल्प समय के लिए ही होती है। अतएव किसी मनुष्य की आध्यात्मिक सहायता करना ही उसकी सब से बड़ी सहायता करना है और जो कोई व्यक्ति साधारण मनुष्य को आध्यात्मिक ज्ञान (spiritual knowledge ) दे सकता है, वही अनासक्त-शिक्षक/नेता मानवसमाज का सब से बड़ा हितैषी है।
"कर्मफल की लालसा तो हमारी आध्यात्मिक उन्नति (नेता/प्रधान सेवक बनने) के मार्ग में बाधक है; इतना ही नहीं अन्त में उससे क्लेश भी उत्पन्न होता है। जिस प्रकार पानी कमल के पत्ते को नहीं भिगो सकता, उसी प्रकार कोई कर्म भी फलासक्ति उत्पन्न करके निःस्वार्थी पुरुष को बन्धन में नहीं डाल सकता।  
यदि अहं-शून्य और अनासक्त शिक्षक/नेता किसी जनपूर्ण और पापमय नगर के बीच ही क्यों न रहें, पर पाप उन्हें स्पर्श तक न कर सकेगा।"
निम्नलिखित कहानी सम्पूर्ण स्वार्थत्याग का एक दृष्टान्त है। कुरुक्षेत्र के युद्ध के बाद पाँचों पाण्डवों ने एक बड़ा भारी यज्ञ किया। उसमें निर्धनों को बहुत-सा दान दिया गया। सभी लोगों ने उस यज्ञ की महत्ता एवं ऐश्वर्य पर आश्चर्य प्रकट किया और कहा कि ऐसा यज्ञ संसार में इसके पहले कभी नहीं हुआ था। यज्ञ के बाद उस स्थान पर एक छोटा-सा नेवला आया। नेवले का आधा शरीर सुनहला था और शेष आधा भूरा। वह नेवला उस यज्ञभूमि की मिट्टी पर लोटने लगा। थोड़ी दर बाद उसने दर्शकों से कहा, “तुम सब झूठे हो। यह कोई यज्ञ नहीं है।” 
लोगों ने कहा, “क्या! तुम कहते क्या हो! यह कोई यज्ञ ही नहीं है? .... परन्तु नेवले ने कहा, “सुनो, एक छोटे-से गाँव में एक निर्धन ब्राह्मण रहता था, साथ थी उसकी स्त्री, पुत्र और पुत्र-वधू। वे लोग बड़े ग़रीब थे।  एक बार उस गाँव में तीन साल तक अकाल पड़ा,....  एक बार तो सारे कुटुम्ब को पाँच दिन तक उपवास करना पड़ा। छठे दिन वह ब्राह्मण भाग्यवश कहीं से थोड़ा-सा जौ का आटा ले आया। ज्यों ही वे उसे खाने बैठे कि किसी ने दरवाजे पर खटखटाया।बाहर एक अतिथि खड़ा है। भारतवर्ष में अतिथि बड़ा पवित्र माना जाता है। वह तो उस समय के लिए ‘नारायण’ ही समझा जाता है।  ....गृहस्थ की हैसियत से हमारा यह धर्म है कि हम उसे भोजन करायें। यह देखकर कि आप उसे अधिक नहीं दे सकते, पत्नी के नाते मेरा यह कर्तव्य है कि मैं उसे अपना भी भाग दे दूं।” ... पुत्र का यह धर्म है कि वह पिता के कर्तव्यों को पूरा करने में उन्हें सहायता दे।”...अतएव बहू ने भी उसे अपना भाग दे दिया। अब यह पर्याप्त हो गया और अतिथि ने उनको आशीर्वाद दे विदा ली।
“उसी रात वे चारों बेचारे भूख से पीड़ित हो मर गये। उस आटे के कुछ कण इधर उधर जमीन पर बिखर गये थे और जब मैंने उन पर लोट लगायी, तो मेरा आधा शरीर सुनहला हो गया, जैसा कि तुम अभी देख ही रहे हो। उस समय से मैं संसार भर में भ्रमण कर रहा हूँ और चाहता हूँ कि किसी दूसरी जगह भी मुझे ऐसा ही यज्ञ देखने को मिले; परन्तु वैसा यज्ञ मुझे कहीं देखने को नहीं मिला। मेरा शेष आधा शरीर किसी दूसरी जगह सुनहला न हो सका। इसीलिए तो कहता हूँ कि यह कोई यज्ञ ही नहीं है।”....त्याग का यह भाव भारतवर्ष से धीरे धीरे लुप्त होता जा रहा है; जीवन्मुक्त शिक्षकों की संख्या धीरे धीरे कम होती जा रही है। 
अब तुमने देखा, कर्मयोग का अर्थ क्या है। उसका अर्थ है मौत के मुंह में भी बिना तर्क-वितर्क के सब की सहायता करना। भले ही तुम लाखों बार ठगे जाओ, पर मुँह से एक बात तक न निकालो; और तुम जो कुछ भले कार्य कर रहे हो, उनके सम्बन्ध में सोचो तक नहीं निर्धन के प्रति किये गये उपकार पर गर्व मत करो और न उससे कृतज्ञता की ही आशा रखी; बल्कि उलटे तुम्हीं उसके कृतज्ञ होओ–यह सोचकर कि उसने तुम्हें दान देने का एक अवसर दिया है। अतएव यह स्पष्ट है कि एक आदर्श संन्यासी होने की अपेक्षा एक आदर्श गृहस्थ होना अधिक कठिन है। 
यथार्थ कर्ममय जीवन (प्रवृत्ति मार्ग) यथार्थ त्यागमय जीवन (निवृत्ति मार्ग) की अपेक्षा यदि अधिक कठिन नहीं, तो कम से कम उसके बराबर कठिन तो अवश्य है।
यदि तुम सदैव ऐसा ही भाव रख सको कि तुम केवल दाता ही हो, जो कुछ तुम देते हो, उससे तुम किसी प्रकार के प्रत्युपकार की आशा नहीं रखते, तो उस कर्म से तुम्हें किसी प्रकार की आसक्ति नहीं होगी। आसक्ति तभी आती है, जब हम बदले की आशा रखते हैं
99 % (९९ प्रतिशत) लोग तो दासों की तरह कार्य करते रहते हैं और उसका फल होता है दुःख; ये सब कार्य स्वार्थपर होते हैं। मुक्तभाव से कर्म करो, प्रेमसहित कर्म करो। प्रेम शब्द का यथार्थ अर्थ समझना बहुत कठिन है। जब हम संसार के लिए दासवत् कर्म करते हैं, तो उसके प्रति हमारा प्रेम नहीं रहता और इसलिए वह सच्चा कर्म नहीं हो सकता। हम अपने बन्धु-बान्धवों के लिए जो कर्म करते हैं, यहाँ तक कि हम अपने स्वयं के लिए भी जो कर्म करते हैं, उसके बारे में भी ठीक यही बात है।
उदाहरणार्थ, मान लो कोई व्यक्ति किसी  स्त्री से प्रेम करता है। वह चाहता है कि वह स्त्री केवल उसी के पास रहे; अन्य पुरुषों के प्रति उस स्त्री के प्रत्येक व्यवहार से उसमें ईर्ष्या का उद्रेक होता है। वह चाहता है कि वह स्त्री उसी के पास बैठे, उसी के पास खड़ी रहे तथा उसी की इच्छानुसार खाये-पिये और चले-फिरे। वह स्वयं उस स्त्री का गुलाम हो गया है और चाहता है कि वह स्त्री भी उसकी ग़ुलाम होकर रहे। यह तो प्रेम नहीं है। यह तो ग़ुलामी का एक प्रकार का विकृत भाव है, जो ऊपर से प्रेम-जैसा दिखायी देता है। यह प्रेम नहीं हो सकता, क्योंकि यह क्लेशदायक है; यदि वह उस मनुष्य की इच्छानुसार न चले, तो उससे उस मनुष्य को कष्ट होता है। वास्तव में सच्चे प्रेम की प्रतिक्रिया दुःखप्रद तो होती ही नहीं। उससे तो केवल आनन्द ही होता है। और यदि उससे ऐसा न होता हो, तो समझ लेना चाहिए कि वह प्रेम नहीं है, बल्कि वह और ही कोई चीज है, जिसे हम भ्रमवश प्रेम कहते हैं। जब तुम अपने पति, अपनी स्त्री, अपने बच्चों, यहाँ तक, कि समस्त विश्व को इस प्रकार प्रेम करने में सफल हो सकोगे कि उससे किसी भी प्रकार दुःख, ईर्ष्या अथवा स्वार्थपरता रूप कोई प्रतिक्रिया नहीं होगी, केवल तभी तुम ठीक ठीक अनासक्त हो सकोगे।
स्वार्थ के लिए किया गया कार्य दास का कार्य है। और कोई कार्य स्वार्थ के लिए है अथवा नहीं, इसकी पहचान यह है कि प्रेम के साथ किया हुआ प्रत्येक कार्य आनन्ददायक होता है। सच्चे प्रेम के साथ किया हुआ कोई भी कार्य ऐसा नहीं है, जिसके फलस्वरूप शान्ति और आनन्द न आये। प्रकृत सत्ता, प्रकृत ज्ञान तथा प्रकृत प्रेम–ये तीनों चिरकाल के लिए परस्पर सम्बद्ध हैं। असल में ये एक ही में तीन हैं। ये उस अद्वितीय सच्चिदानन्द के ही त्रिविध रूप हैं। जब वह सत्ता सान्त तथा सापेक्ष रूप में प्रतीत होती है, तो हम उसे विश्व के रूप में देखते हैं। वह ज्ञान भी सांसारिक वस्तु विषयक ज्ञान के रूप में परिणत हो जाता है, तथा वह आनन्द मानव-हृदय में विद्यमान समस्त प्रकृत प्रेम की नींव हो जाता है। अतएव सच्चे प्रेम से प्रेमी अथवा उसके प्रेमपात्र को भी कष्ट नहीं हो सकता
भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, “हे अर्जुन,मैं ही जगत् का एकमात्र प्रभु हूँ–फिर भी मैं कर्म क्यों करता हूँ?–इसलिए कि मुझे संसार से प्रेम है।” ईश्वर अनासक्त है। क्यों?–इसलिए कि वे सच्चे प्रेमी हैं। उस सच्चे प्रेम से ही हम अनासक्त हो सकते है। जहाँ कहीं आसक्ति है, वहाँ जान लेना चाहिए कि वह केवल भौतिक आकर्षण है–केवल कुछ जड़ कणों के प्रति आकर्षण हो रहा है–मानो कोई एक चीज दो वस्तुओं को लगातार निकटतर खींचे ला रही है; और यदि वे दोनों वस्तुएँ काफी निकट नहीं आ सकतीं, तो फिर कष्ट उत्पन्न होता है। परन्तु जहाँ सच्चा प्रेम है, वहाँ भौतिक आकर्षण बिलकुल नहीं रहता। ऐसे प्रेमी चाहे सहस्रों योजन दूर पर क्यों न रहें, उनका प्रेम सदैव वैसा ही रहता है; वह प्रेम कभी नष्ट नहीं होता, उससे कभी कोई क्लेशदायक प्रतिक्रिया नहीं होती।
इस प्रकार की अनासक्ति प्राप्त करना (निष्काम कर्म) लगभग सारे जीवन भर का कार्य (साधना) है। परन्तु इसका लाभ होते ही हमें अपनी प्रेमसाधना (निष्काम प्रेम) का लक्ष्य (साध्य -ब्रह्मत्व) प्राप्त हो जाता है और हम मुक्त हो जाते हैं। तब हम प्रकृति (माया) के बन्धन से छूट जाते हैं और उसके (अविद्या माया के) असली स्वरूप को जान लेते हैं। फिर वह हमें बन्धन में नहीं डाल सकती। तब हम बिलकुल स्वाधीन हो जाते हैं और कर्म के फलाफल की ओर ध्यान ही नहीं देते। फिर कौन परवाह करता है कि कर्मफल क्या होगा? 
 स्वाधीनता प्राप्त करने से  पहले -गाँधी, सुभाष, लाल-बाल-पाल  जैसे अनेकों अंग्रेजी पढ़ेलिखे (बुद्धिमान) युवाओं ने स्वामी विवेकानन्द के इसी  -'कर्म-रहस्य ' को समझने के बाद स्वाधीनता आंदोलन से जुड़कर भारतमाता  को स्वाधीन करने में अपने जीवन को न्योछावर कर दिया था।  
स्वाधीनता प्राप्त करने के बाद- अद्वैत वेदान्त के द्वारा केवल -'विश्व-कल्याण' करने के उद्देश्य से, भारत की  राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा (National Ambition) या भारत की विदेश नीति (Foreign Policy) है - 'भारत माता को विश्वगुरु के आसन पर प्रतिष्ठित करना !' तथा भारत के राष्ट्रीय आदर्श हैं -'त्याग और सेवा'; इन दोनों धाराओं में तीव्रता उत्पन्न करने से ही भारत को विश्व-गुरु के आसन पर प्रतिष्ठित करना सम्भव है। इसीलिये महामण्डल के युवा प्रशिक्षण शिविर या Leadership Training का लक्ष्य-  'Bossism' या साहबी करने वाले नेताओं का निर्माण करना नहीं है; बल्कि भावी युवा पीढ़ी को 'त्याग और सेवा ' का प्रशिक्षण देने में समर्थ शिक्षकों/नेताओं का निर्माण करना है। और इस कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिए, समर्पित भाव से जनता जनार्दन की और अधिक सेवा, अर्थात भावी नेताओं को सत्यलाभ में सहायता करने के लिए, ही महामण्डल को संगठित शक्ति या 'Organized power' की आवश्यकता है। इसी महान लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए  भारत की क्षेत्रीय आकांक्षा (Regional Aspiration), भारत की गृह-नीति (Domestic Policy), अंतरराज्यीय नीति (Interstate Policy) अथवा शिक्षा नीति ऐसी होनी चाहिये ----जिससे  भारत का युवा वर्ग  " रामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक (नेता) प्रशिक्षण परम्परा", अथवा महामण्डल के ---[विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर अद्वैत वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा]-- 'Be and Make Leadership Training Tradition ' में प्रशिक्षित शिक्षक (नेता या जीवन्मुक्त शिक्षक, पैगम्बर ) " बनने और बनाने " के लिए मानो ~ "as if " दीवाने (moonstruck) हो जायें !   
इसलिए  स्वामी रंगनाथानन्द जी महाराज चाहते थे कि इसी महान कार्य को (विश्वगुरु बनने की भारत की विदेशनीति को)  धरातल पर उतारने के लिए, 'विवेकानन्द युवा महामण्डल' की शाखायें विश्व के प्रत्येक देश में स्थापित हो जायें। और इसी कार्य को पूरा कर दिखाने के लिए महामण्डल भारत के प्रत्येक राज्य में -'क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज' से सम्पन्न, दृढ़ विश्वासी, निष्कपट (De-hypnotized) शिक्षकों/नेताओं का निर्माण करने के लिए वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर का आयोजन विगत 52 वर्षों से करता चला आ रहा है-तथा आगे भी हमारे लिए यही करनीय है !
[https://hindipath.com/swami-vivekananda-karma-rahasya-hindi/] 
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महामण्डल शिविर संचालन समिति का 'कर्म-रहस्य' : महामण्डल के प्रधान सेवक--- नेतावरिष्ठ (C-in-C) श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय [15अगस्त 1931 -26सितम्बर 2016 ] के नेतृत्व में विगत 52 वर्षों से प्रतिवर्ष आयोजित होने वाले 'वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर" के लिए, सर्व प्रथम एक 'शिविर आयोजन समिति' (Camp Organizing Committee) का गठन किया जाता है। महामण्डल के " विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर -'Be and Make'अद्वैत वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा" ('Vivekananda- Captain Sevier Vedanta 'Be and Make' Vedanta ~Leadership Training Tradition')  में आयोजित होने वाले इस वार्षिक युवा-प्रशिक्षण शिविर में सर्व प्रथम इस  'मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी आध्यात्मिक आन्दोलन के प्रति समर्पित वरिष्ठ कार्य-कर्ताओं के जनादेश द्वारा, जनता-जनार्दन की सेवा करने में  प्रशिक्षित होने का चपरास प्राप्त (insignia-बिल्ला, अधिचिन्ह, तमगा प्राप्त) एक प्रधान सेवक या नेतावरिष्ठ  (C-in-C) का चयन/निर्वाचन किया जाता है। फिर उसी क्रम में शिविर के कुशल संचालन हेतु कुछ अन्य प्रशिक्षित शिक्षकों /नेताओं/ सेवकों का चयन/निर्वाचन भी किया जाता है। प्रधान सेवक या नेतावरिष्ठ (C-in-C नवनीदा ) से लेकर गार्ड ड्यूटी तक तैनात जिन महामण्डल कर्मियों को पदाधिकारी होने का बिल्ला (निवेदिता वज्र -पूर्णतः निःस्वार्थी मनुष्य होने का चपरास-या डेमोक्रेटिक जनादेश) जिन व्यक्ति को प्राप्त होता है, उन्हीं के माध्यम से -ठाकुर-माँ -स्वामी जी की शक्ति इस आध्यात्मिक शिविर को संचालित करती है । 
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रविवार, 23 जून 2019

जो ब्रह्मविद वही ब्रह्म है, ताको वाणी वेद

'THE SPIRITUAL ASPIRANT AND SPIRITUAL DISCIPLINE' 
[आध्यात्मिक शिक्षण के मौलिक सिद्धांत : Fundamental Principles of Spiritual Discipline : https://aneela-daduji.blogspot.com/
'वेद वचन' 
"सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म "----- ब्रह्म सत्य है, ब्रह्म ज्ञान स्वरूप है, ब्रह्म अनन्त है । [तैत्तिरीयोपनिषत्]
"सत्यस्य सत्यं इति प्राणा: वै सत्यं तेषां एष: सत्यम्। "उसको जानो, उसके निकट जाओ, वह सत्य का भी सत्य है। प्राणादिकों का भी सत्य है, मूलभूत ऊर्जा सत्य है, परन्तु वह इसका भी सत्य है। " त्रिकाल सत्यम् ।"----जिसका तीन काल में भी नाश नहीं होता ।[बृहदारण्यक उपनिषद २-१-२०]
"आकाश पुष्पवत्, बांझपुत्रवत्, शसाश्रुंगवत् । "प्रपंचरहित परमात्मा के बीच में प्रपंच का अरोप करके, फिर निषेध करके कहते हैं कि कारण अविद्या, कार्य अन्त:करण, इनका त्याग करके पूर्ण बोधरूप आत्मा ही अवशेष रहता है ।
"मरीचिका बारिवत्" (मृग-तृष्णा का जल)/ शुक्ति-रजतवत्" (सीपी में रजत)/ "रज्जु-भुंजगवत् (रस्सी में सांप) इति शंका उत्तर : कहते हैं कि भ्रम का स्वरूप तो भ्रांति-काल में प्रतीत होता है और भ्रांति के नाश के पश्चात् उत्तरकाल में प्रतीत नहीं होता।
"यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह ।" उस ब्रह्म तक तो मन, वाणी की पहुँच नहीं है, क्योंकि निरंजन तो सर्व माया-प्रपंच से रहित है, और मन-वाणी तो माया के कार्य प्रपंच को ग्रहण कर सकती हैं, अतः जो ब्रह्म-वस्तु मन-वाणी के अगोचर है, उसको कैसे विषय करेगी अर्थात् जानेगी ?
"ब्रह्मविद ब्रह्मैव भवति" ~ अर्थात ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म ही हो जाता है ! 
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आगम-शास्त्र के अनुसार:  आगम-शास्त्रों में देवी के विभिन्न स्वरूपों (साकार एवं निराकार) का प्रतीकात्मक विवरण भी मिलता है। दश महाविद्याओं के अन्तर्गत प्रथम महाविद्या श्री आद्या(काली) के साकार स्वरूप का जो विवरण उपलब्ध है उसके अनुसार काली का रूप अत्यन्त भयंकर एवं डरावना है। उनका वर्ण काला है परन्तु शक्ति के उपासक उन्हें परम रूपवती तथा करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाशमान देखते हैं। वह दिगम्बरा हैं परन्तु भक्तों को समस्त ऐश्वर्य प्रदान करती हैं। उनका निवासस्थान श्मशान है जहां पहुंचते ही स्वतः वैराग्य उत्पन्न हो जाता है। काली मुक्तकेशी हैं। शवासना हैं। मुन्डमालावृतागी हैं। खड्ग एवं मुन्डधारिणी है। काली का यह विशिष्टरूप भक्तों के मन में वैराग्य तथा अद्वैतभावना उत्पन्न कर देता है।
मां काली अत्यन्त विशुद्ध, स्वयं प्रकाशमान्, सत्चित्आनन्दरूपा तथा समस्त संसार में व्याप्त है। श्री आद्या का पुरूषरूप ही श्री कृष्ण है। वह स्वयं महाशक्ति बताती हैं-‘ममैव पौरूषं रूपं-गोपिकाजन मोहनम्’---अर्थात गोपियों के मन को मोहने वाला मेरा पुरूष रूप श्री कृष्ण है। शक्ति- ग्रन्थों में श्री विष्णु के दश अवतारों की दश महाविद्याओं से एकरूपता सिद्ध की गई है,यथा‘‘कृष्णस्तु कालिका साक्षात्-राम मूर्तिश्च तारिणी….धूमावती वामनस्यात्-कूर्मस्तु वगुलामुखी’’।भगवती पराशक्ति पार्वती का स्वरूप॥ अर्थात् कालिका ही पुरूषरूप में श्री कृष्ण हैं।तारा-राम हैं। भुवनेश्वरी-वराहरूप हैं। त्रिपुरभैरवी-नृसिंह,धूमावती-वामन,छिन्नमस्ता-परशुराम, लक्ष्मी-मत्स्य, वगुलामुखी-कूर्म, मातंगी-बौद्ध तथा त्रिपुरसुन्दरी-कल्कि रूप में है।विभिन्न आगम-ग्रन्थों में महाशक्ति का कुण्डलिनी स्वरूप, विद्युत स्वरूप तथा प्रकाश रूप में भी गुणगान किया गया है। कुण्डलिनी रूप में उसे ‘‘शक्तिः कुण्डलिनी समस्त जननी’’ ‘‘शक्तिः कुण्डलिनी गुणत्रय वपु’’तथा ‘‘मूलोन्निद्र भुजंगराज सदृशी’’ माना गया है। 
फिर शक्ति- ग्रन्थों (देवी-अथर्वशीर्षम्-23) में देवी के स्वरूपों का विस्तारपूर्वक वर्णन करते हुए बताया गया है कि उनके वास्तविक स्वरूप को ब्रह्मादि त्रिदेव भी नहीं जानते हैं।   
 ‘यस्याः स्वरूपं ब्रह्मादयो न जानन्ति तस्मादुच्यते अज्ञेया ।
 यस्या अन्तो न लभ्यते तस्मादुच्यते अनन्ता ।
यस्या लक्ष्यं नोपलक्ष्यते तस्मादुच्यते अलक्ष्या ।
 यस्या जननं नोपलभ्यते तस्मादुच्यते अजा ।
 एकैव सर्वत्र वर्तते तस्मादुच्यते एका । 
एकैव विश्वरूपिणी तस्मादुच्यते नैका । 
अत एवोच्यते अज्ञेयानन्तालक्ष्याजैका नैकेति ॥23
 जिसका  (उसका) लक्ष्य / हेतु / प्रयोजन क्या है यह विदित नहीं होता इसलिए उसे अलक्ष्या कहा जाता है।
जिसका जन्म / आगमन कब / किससे / कैसे हुआ नहीं पता चलता इसलिए उसे अजन्मा कहा  जाता है ।
चूँकि जो (वह) एकमात्र ही सर्वत्र है, इसलिए उसे एका कहा जाता है । एक वही विश्वरूप सर्व भी है, इसलिए उसे एक-अनेक से विलक्षण कहा जाता है । अतः उसका वर्णन "अज्ञेया-अनंता-अलक्ष्या-अजन्मा (जन्मरहित)-एका-न-एका" इन शब्दों किया जाता है । अर्थात: देवी अज्ञेय है, एक है, अजा है, अलक्ष्या है। देवताओं के पूछने पर महादेवी ने बताया कि ब्रह्मस्वरूपा है तथा उनसे ही समस्त जगत की उत्पत्ति हुई है। वही विज्ञान तथा अविज्ञानरूपिणी हैं। ब्रह्म भी हैं। अब्रह्म भी हैं। वह वेद भी हैं। अवेद भी हैं। वही सम्पूर्ण जगत की ईश्वरी हैं। वह वेदों द्वारा वन्दित तथा पाप नाशिनी देवमाता अदिति या दक्षकन्या सती के रूप की हैं। वही आठवसु, एकादश रूद्र, द्वादश आदित्य,असुर, पिशाच, यक्ष और सिद्ध भी हैं। वह आत्मशक्ति हैं। विश्व को मोहित करने वाली हैं तथा श्रीविद्यास्वरूपिणी महात्रिपुरसुन्दरी है। 

वृहदारण्यक उपनिषद् (अध्याय 1, ब्रााहृण 4 श्लोक 1) में कहते हैं---“आत्मैवेदमग्र आसीत्पुरुषविद्य: सो अनुवीक्ष्य नान्यदात्मनो।" ---वह अकेला था। उसने अपने से भिन्न कोई दूसरा नहीं देखा।”फिर क्या हुआ? आगे बताते हैं--स वै नैव रेमे, तस्मादेकाकी न रमते। वह आनंदित नहीं हुआ, मन नहीं लगा। एकाकी होने के कारण रमण, मन नहीं लगा – आनंद नहीं आया।इसलिए “स द्वितीयमैच्छत” – उसने दूसरे की इच्छा की। लीला के लिए एक से दो बन गया शिव एवं पार्वती । ऐतरेयोपनिषद् (1.1.1-2) में भी यही स्थापना है, “पहले वह एकमात्र था--इदमेक एवाग्र आसीत्-----दूसरा कोई नहीं था। नान्यत्किचनेमिषत्।उसने लोकसृजन की इच्छा की स ईक्षत् लोकान्नु इति। उसने लोक रचे- स इमांल्लोकानसृजत।” ”आत्मैवेदमग्रआसीत् एक एव सो कामयत” इत्यादि बृहदारण्यकश्रुति तद इच्छत , स इच्छान चकरे।
 देवी भागवत के अनुसार वह सगुण-निर्गुण दोनों हैं, रागी (भक्त) सगुण की तथा विरागी (ज्ञानी) निर्गुण की उपासना करते हैं ।भक्तजन परमेश्वर (परब्रह्म) के इस परमतत्व की निर्गुण, सगुण, साकार, निराकार, स्त्री रूप, पुरूषरूप तथा विभिन्न अवतारों के रूप में उपासना करते हैं।
 ये पराशक्ति का ही कमाल है की भगवान शिव सदा नित्य आनंदमय रहते है , सदा आनंद का भोग करते है। गाणपत्यों के गणपति, शैवों के शिव, बैष्णवों के विष्णु तथा सौरों के सविता (सूर्य) ही शाक्तों की त्रैलोक्यसुन्दरी महाशक्ति है। जिस परम-तत्व को वेद मंत्रों ने पुलिंग शब्द से, वेदान्तियों ने नपुंसकलिंग से प्रतिपादित किया है, शाक्त-धर्म प्रेमियों ने सत्-चित्- आनन्द स्वरूपा उसी महाशक्ति पार्वती को स्त्री-लिंग मानकर प्रतिष्ठित किया है
अतः ब्रह्म और शक्ति के कथित गूढ़ रहस्यों को उपनिषद की परम्परा में प्रश्नोत्तर के माध्यम से समझने की चेष्टा की जाय, तभी ये रहस्य आसानी से हृदयंगम हो सकते हैं। क्योंकि अन्तरात्मा ही ‘सर्व भूतान्तरात्मा’ सभी की आत्मा होती है। एकत्व में सभी का समावेश रहता है। एकत्व ही अनेकत्व में अभिव्यक्त होता रहता है। इस तरह जीवन की रहस्य कथा 'नचिकेता' समझाते हुए 'यमराज' कहते हैं:
एको वशी सर्व भूतान्तरात्मा।एकं रूपं बहुधा यः करोति।
तमात्मस्थं येनु पश्यन्ति धीराःतेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम्।।
 जिनकी प्रज्ञा जागृत हो गई वे धीर मानव अन्तरात्मा का सातत्यपूर्वक दर्शन करते रहते हैं। उन्हें यह स्पष्ट दिखता है कि जीवन की अनेकता में यह एक ही आत्मा विराजती है। फिर द्वैत-दुजापन कैसे टिक सकता है? और एकत्व को मृत्यु मार नहीं सकती। वह कालातीत होता है। जो अनेकता को सत्य मानकर उसका पीछा करते हैं, सुख के लिये व्यर्थ की दौड़ लगाते हैं, उन्हें मृत्यु आकर पकड़ लेती है। यह बात भी यमराज स्पष्ट शब्दों में बता देते हैं-'मृत्योः सर्वे मृत्युं गच्छति।य इह नानेव पश्यति।'
 अपने यहाँ पुराणों में अतिभोग की व्यर्थता राजा ययाति के मुख से उद्घोषित हुई है: न जातु कामः कामनां उपभोगेन शाम्यति। हविषा कृष्णवर्त्मेय भूयेव अभिवर्धते।।  वह तो भारतीय संस्कृति का ही उद्गार है : यह चाहिए, वह भी चाहिए, यह तृष्णा, यह कामना उपभोग करने पर शमित नहीं हो तो, कभी तृप्त नहीं होती। अग्नि में आहूति देने पर अग्नि ज्वाला बुझकर शीतल नहीं होती, उल्टे, अधिक ही भड़क उठती है।  अधिक प्राप्ति की कामना, दूसरे की सम्पदा अपनी हो जाए, केवल अपनी ही होकर रहे, यह वासना मानव-मन को चिपका हुआ रोग है। यही दुःख का कारण है। भगवान बुद्ध की परिभाषा में यही तृष्णा है-जो सभी मानवी दुःखों की जड़ है। सुख की, निरामय आनन्द की कांक्षा होगी तो इस तृष्णा को बढ़ाना नहीं चाहिए। उसे क्षीण करने के लिये जीवन-भर साधना करनी आवश्यक है। उपनिषदों, वेदों और सभी धर्मों की सिखावन ने वासना-विकारों का शमन करने का मार्ग प्रशस्त किया है।
प्रश्न : एकाग्रता का अभ्यास किस प्रकार किया जाता है ? किस साधना या कौशल से सर्वाग्र और सर्वव्याप्त 'ब्रह्म' का साक्षात्कार किया जाता है ?
उत्तर : माण्डूक्योपनिषद के द्रष्टा ऋषि बता देते हैं: 'प्रणवो धनुः शरोहि आत्मा-ब्रह्म तल्लक्षमुच्यते।अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शखत्तन्मयो भवेत्।।
प्रश्न : उस निरंजन (सच्चिदानन्द या ब्रह्म) की प्राप्ति किस प्रकार से होती है ?
 उत्तर : निरंजन की प्राप्ति का हेतु गुरु उपदेश है । किन्तु जैसे समुद्र के पार जाने के साधनों में जहाज ही एक सुन्दर साधन है, वैसे ही परमात्मा को जानने के साधनों में श्रेष्ठ साधन गुरु-ज्ञान ही है ।
प्रश्न : गुरु/'नेतावरिष्ठ~(C-in-C) के लक्षण क्या हैं ?
उत्तर : *नेतावरिष्ठ के लक्षण -
इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः।।5.19।।
जिनका अन्तःकरण समता में स्थित है उन्होंने इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार को जीत लिया है क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और सम है इसलिये वे ब्रह्ममें ही स्थित हैं। जिनका अन्तःकरण समता में अर्थात् सब भूतों के अन्तर्गत ब्रह्मरूप समभाव में स्थित यानी निश्चल हो गया है। उन समदर्शी पण्डितों ने यहाँ जीवितावस्था में ही सर्ग को यानी जन्म-मृत्यु को जीत लिया है अर्थात् उसे अपने अधीन कर लिया है। क्योंकि ब्रह्म निर्दोष ( और सम ) है।[ यद्यपि मूर्ख लोगों को दोषयुक्त चाण्डालादि में उनके दोषों के कारण आत्मा दोष-युक्त सा प्रतीत होता है तो भी वास्तव में वह ( आत्मा ) उनके दोषों से निर्लिप्त ही है। ]
निर्मानमोहा जितसंगदोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामा: । 
द्वन्द्वैर्विमुक्ता: सुखदु:खसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढा: पदमव्ययं तत् ॥ 
 दूर हो गये हैं मोह और मान जिनके, जीत लिया है संग का दोष जिन्होंने, वेदान्त के श्रवण मनन विचार में सदैव लगे रहते हैं और समस्त कामनायें इस लोक परलोक की नष्ट हो चुकी हैं चित्त से जिनकी सुख दु:ख आदि द्वन्द्वों से छूटे हुए आत्मतत्व के जानने वाले ज्ञानी संत उस निर्विकार पद को प्राप्त होते हैं ।
गुकार: प्रथमो वर्णो मायादि गुणभासक: । 
रुकारोऽद्वितीयं ब्रह्म-माया भ्रान्ति विमोचक: । 
 (गु=अन्धकार, रु= विनाशक, गुरु= अज्ञानान्धकार को मिटाने वाला, जो स्वयं De-Hypnotized हो चुके
 और जो दूसरों के अज्ञानान्धकार को हटाने में सहायता करते हैं -ऐसे शास्त्र क्षोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ अनेक लक्षणयुक्त जो गुरुदेव हैं, ऐसे गुरुदेव को मेरा नमस्कार है । तत्पश्चात् सब संतों को हमारी वन्दना है। इस प्रकार हरि गुरु - सन्तों नेतावरिष्ठ नवनीदा  को साक्षात् प्रणाम करने वाले इस भवसागर से अवश्य पार होंगे।
गुरु (नेता,पैगम्बर) जीवनमुक्त शिक्षक जिनका अहंकार एवं मोह दूर हो गया है---   वैसे ही नेता बनने और बनाने का प्रशिक्षण,  भारत में निवृत्ति मार्ग के अधिकारीयों के लिये  'श्रीरामकृष्णदेव-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में आविर्भूत 'रामकृष्ण मठ और मिशन'; तथा नेतावरिष्ठ (C-in-C) नवनीदा के निर्देशन में ' स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त नेतृत्व (leadership) प्रशिक्षण परम्परा -Be and Make ' में प्रवृत्ति मार्ग के अधिकारीयों के लिए आविर्भूत -'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल' के अतिरिक्त अन्य किस तथाकतित विकसित देशों (अमेरिका, इंग्लैण्ड,कनाडा आदि) में ऐसे जीवनमुक्त शिक्षकों का निर्माण कार्य चल रहा है ?
 भारत के अतिरिक्त अन्य किस देश में 10 से लेकर 24 अवतारों अथवा असंख्य भ्रममुक्त या De-Hypnotized ब्रह्मवेत्ता ऋषियों,मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं, या पैगम्बरों  आविर्भाव हुआ है?  भारत के अतिरिक्त कौन ऐसा 'विकसित देश' (Developed Country) है जिसने दृष्टिगोचर जगत के परे क्या है? मृत्यु के परे क्या है ? अथवा अज्ञात (ईश्वर या निरपेक्ष सत्य) को जानने के लिए,  अंतरिक्ष में रॉकेट भेजने के आलावा, इस प्रकार का प्रयास किया हो ? राजपुताना के सन्त दादू से लेकर निश्चल दास के ग्रन्थ 'विचार सागर' को पढ़ो, इन समस्त विभिन्न पन्थों का मूल आधार वही 'अद्वैत मत' (सनातन मत) दिखाई देगा। दादू-पंथी सम्प्रदाय के त्यागी सन्त निश्चलदास ने अपने ग्रन्थ 'विचारसागर' में स्पष्ट रूप से घोषणा की है - 
 जो ब्रह्मविद वही ब्रह्म है, ताको वाणी वेद। 
 संस्कृत और भाषा में, करत भरम का छेद।। 
'जिसने ब्रह्म को जान लिया, वह ब्रह्म बन गया, उसकी वाणी वेद है, और उससे अज्ञान का अन्धकार दूर हट जायेगा, चाहे वह वाणी संस्कृत में हो या किसी लोक-भाषा में (मगही-भोजपुरी-मैथली -पंजाबी या गुजराती में)हो !दादू जाने ब्रह्म को, ब्रह्म सरीखा सोई ॥ 'जानत तुम्हीं तुम्हीं ह्वै जाई' (अयोध्याकाण्ड।) इस लिए ब्रह्मवेत्ता के विषय में शंका नहीं बनती ।
[http://vivek-anjan.blogspot.com/2017/05/blog-post.html/] 
.... गीता 4/7 में भगवान श्रीकृष्ण ने किसी अवतार (मानवजाति के मार्गदर्शक नेता) का आविर्भाव क्यों होता है, अथवा 'मनुष्य-निर्माण और चरित्रनिर्माण- कारी शिक्षा' को जन आंदोलन बना देने में समर्थ- 'युवा महामण्डल' जैसे किसी संगठन का आविर्भाव क्यों होता है- उसी कारण को स्पष्ट करते हुए, कहा है - 
'यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्।।' 
वह अवतार तत्व ('विष्णु' existence -consciousness-bliss) किन परिस्थितयों में साकार रूप (मानवशरीर) धारण करता है, और क्या कार्य करता है, अर्थात वह जन्म कब और किसलिये होता है ?  सो कहते हैं ~ ' हे भारत, वर्णाश्रम धर्म आदि जिसके लक्षण हैं एवं प्राणियों की उन्नति और परम कल्याण (अभ्युदय और निःश्रेयस) का जो साधन है ! उस धर्म की जब-जब हानि होती है, और अधर्म का अभ्युत्थान अर्थात् उन्नति होती है, तब-तब ही मैं माया से अपने स्वरूप को रचता हूँ !"
नेतावरिष्ठ (C-in-C) पूज्य नवनी दा (महामण्डल के संस्थापक सचिव) कहते हैं , " इसी को कहते हैं -ऐतिहासिक अनिवार्यता (Historical requirement)| जिस समय धर्म अपने स्थान से च्युत हो जाता है, इसी प्रकार के एक आविर्भाव की आवश्यकता होती है। भारतवासी यह जानते हैं कि समय-चक्र के घूर्णन-पथ की ऐतिहासिक यात्रा में इसी तरह की अनिवार्यता बार-बार दृष्टिगोचर हुई है। जिस समय धर्म ( प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों धर्म, धूर्त राजनीतिज्ञों के कारण) अपने स्थान च्युत हो जाता है, अधर्म का सिर ऊँचा उठ जाता है, उस समय धर्म को पुनः स्थापित करने के लिए एक महान आविर्भाव अनिवार्यता बन जाती है। वह चाहे फिर, किसी अवतार के द्वारा हो या किसी संगठन के द्वारा हो, एक विशिष्ट भाव ('Be and Make' या मनुष्य-निर्माण और चरित्रनिर्माणकारी शिक्षा पद्धति) अवश्य मूर्तमान होता है। 
इस युग में श्रीरामकृष्णदेव के भीतर वही भाव मूर्तमान हुआ है। हमारी दृष्टि में श्रीरामकृष्णदेव ही आधुनिक युग के ऐसे प्रथम युवा नेता हैं, जिनके जीवन में पूर्ण साम्य (harmony)प्रतिष्ठित हुआ है। तभी तो वे पृथ्वी के समस्त धर्मों और जातियों के मनुष्यों को अपने हृदय के अंतस्तल से प्रेम करते हैं।  वे आधुनिक युग के प्रथम जननेता हैं, मानवप्रेमी हैं - जो मानवमात्र को अपने हृदय की गहराई से प्रेम करते हैं। क्योंकि उनके जीवन में प्रतिष्ठित साम्य (harmony),राजनैतिक दलों के नेताओं द्वारा मंच पर खड़े होकर भाषण देने वाला साम्य नहीं है।  बल्कि उन्होंने सम्पूर्ण मनुष्यजाति, समस्त जीवों, यहाँ तक कि जड़ वस्तुओं के साथ भी अद्वैत/अभिन्नता का साक्षात्कार किया है; तथा इस साम्य (harmonyया अविरोध) को अपने आचरण में भी उतार कर दिखा दिया है।  उन्होंने जन-साधारण तथा दीन-दुःखियों के दारुण दुःख से द्रवित होकर आम जनों की मुक्ति के लिए प्रयास किया है, और इसी कार्य को सम्पन्न करने के लिए उन्होंने 'प्रबुद्ध युवाओं' को संघबद्ध करने की चेष्टा की है। " 
इस तथ्य को समझने के लिए (प्रबुद्ध युवाओं के संगठन की अनिवार्यता को समझने के लिए), में स्वामी विवेकानन्द के उद्गारों पर गहराई से विचार करना आवश्यक है। देववाणी -1 जुलाई के भाषण में स्वामी जी अपने गुरु श्रीरामकृष्णदेव के सम्बन्ध में कहते हैं -" श्रीरामकृष्णदेव ने कभी किसी के विरुद्ध कोई कड़ी बात नहीं कही। उनका हृदय अत्यन्त उदार था; वे इतने सहिष्णु थे कि, चाहे कोई किसी भी सम्प्रदाय का व्यक्ति क्यों न हो, उनसे मिलने के बाद यही सोचता था, कि ये भी मेरे ही सम्प्रदाय के कोई   सिद्ध महापुरुष हैं, जिनसे मिलकर मेरा जीवन धन्य हो गया !  वे सभी धर्म के लोगों से समानरूप में प्रेम करते थे। उनकी दृष्टि में सभी धर्म सत्य थे - वे कहते थे सभी धर्म एक ही सत्य तक पहुँचने के विभिन्न मार्ग हैं, इसलिए धर्मजगत में सभी धर्मों का समान स्थान है।  श्रीरामकृष्ण के मुक्तस्वभाव का परिचय वज्रवत कठोरता (thunder) में नहीं, अपितु सर्वसाधारण के प्रति उनके प्रेमपूर्ण शब्दों में ही प्रकट होता था। 
इस प्रकार के कोमलहृदय व्यक्ति (mild type-अवतार/नेता) ही सर्वप्रथम किसी नये भाव का सृजन करते हैं;और बाद में वज्रवत कठोरता  के साथ कर्म करने में सक्षम व्यक्ति (thundering type,  क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज से सम्पन्न स्वामी विवेकानन्द, सरदानानन्द, अभेदानन्द आदि 12 युवा)  इस भाव को चारों ओर फैला देते हैं। सन्त पॉल भी इसी दूसरी श्रेणी के नेता थे। इसलिए उन्होंने सत्य के आलोक को चारों फैला दिया था।  किन्तु अब सन्त पॉल का युग नहीं है।   अतः हमको ही आधुनिक जगत का नूतन 'आलोक-स्वरूप' (Lighthouse) होना होगा। हमारे युग की आवश्यकता है एक ऐसे संघ का निर्माण जो 'अपना समायोजन'----स्वयं कर ल
[प्रकाश-स्तंभ (Light house,दीपस्तंभ या दीपघर) सागर में या सागर के किनारे पर बनाया गया उस  स्तंभ या मीनार को कहते हैं, जिस पर रात में जहाजों के चालकों या नाविकों को खतरनाक चट्टानों या अन्य ख़तरों से बचाने के लिए या किनारे का संकेत करने हेतु , तेज़ रोशनी की जाती है। यह किसी भी प्रणाली से तेज रौशनी प्रसारित कर सकती है। पुराने समय में यह कार्य आग जला कर किया जाता था, किन्तु वर्तमान समय में विद्युत एवं अन्य कई साधन हैं। 
 अर्थात  हमें स्वयं प्रबुद्ध युवा वर्ग का प्रकाशस्तम्भ (Lighthouse के जैसा) मार्गदर्शक नेता बनना होगा और साथ ही साथ  भावी नेताओं  को भी प्रकाश-स्तम्भ तुल्य नेता बनने में सहायता भी करनी होगी।
 संसार-चक्र चलेगा ही-पर हमें उसकी सहायता करनी होगी ,बाधा देने से काम नहीं चलेगा।
 हमें 'Be and Make' परम्परा में निर्मित वैसा प्रकाशस्तम्भ 'lighthouse' स्वरुप -- गुरु (नेता,पैगम्बर) जीवनमुक्त शिक्षक जिनका अहंकार एवं मोह दूर हो गया हे,( जो भ्रम या सम्मोहन दूर कर -dehypnotized हो गए हैं , और जिसमें परार्थ (altruism) की पवित्र अग्नि सदा प्रज्ज्वलित रहती है--का निर्माण करने में सक्षम संगठन महामण्डल का प्रचार-प्रसार प्रत्येक देश में करना होगा। जब वैसा होगा, तब वही जगत का अन्तिम धर्म होगा।
  जब ऐसा आत्म-समंजक (Self-adjusting ) युवा-संगठन सर्वत्र स्थापित कर लिया जायेगा,तब 'Be and Make'  जगत का अन्तिम धर्म होगा। हमारे युग की विशेष आवश्यकता (अनिवार्यता) है एक ऐसे संघ (संगठन) का निर्माण जो स्वयं अपना समायोजन (self-adjusting करने में सक्षम हो। जब ऐसा होगा, तब वही जगत का अन्तिम धर्म होगा। बहुत बड़ी संख्या में युग के पैगम्बरों (Prophets of the period) का निर्माण करने वाले संगठन का नाम है ---'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल', और यही जगत का अन्तिम धर्म होगा ! [और बहुत से लोगों का यही मानना है कि स्वामी जी स्वयं-सन्त पॉल की श्रेणी के 'thundering type' कर्मप्रवण नेता,'योद्धा संन्यासी' नेता, लोक-शिक्षक थे।]
 हर युग में धार्मिक विचार-धाराओं की तरंगें  उठती है, गिरती है और उन सभी तरंगों के शीर्ष -प्रदेश में उसी युग के पैगम्बर  "prophet of the period" विराजते हैं !श्रीरामकृष्ण वर्तमान युग के उपयुक्त धर्म की शिक्षा देने आये थे, जो निर्माणकारी है, न कि विनाशकारी या विध्वंसक। श्रीरामकृष्ण को बिल्कुल अभिनव ढंग से प्रकृति के समीप जाकर (माँ काली के समीप जाकर) सत्य (ब्रह्म) को जानने की चेष्टा करनी पड़ी थी, फलस्वरूप उन्होंने वैज्ञानिक धर्म को प्राप्त कर लिया था। वैज्ञानिक धर्म वह धर्म है, जिसे दूसरों में सम्प्रेषित या हस्तांतरित भी किया जा सकता है! यह धर्म किसीको कुछ मानलेने को नहीं कहता, स्वयं परखकर देख लेने को कहता है।
 [He had to go afresh to Nature to ask for facts, and he got scientific religion which never says "believe", but "see"; "I see, and you too can see."] " मैं सत्य का दर्शन करता हूँ , तुम भी इच्छा करने पर उसका दर्शन कर सकते हो। मैंने जिस साधना-पद्धति का अवलम्बन किया है,म भी उसी का अवलम्बन करो , वैसा करने पर तुम भी हमारे सदृश सत्य का दर्शन करोगे। " ईश्वर सभी के समीप आएंगे - इस समत्व भाव को सभी प्राप्त कर सकेंगे। श्रीरामकृष्ण जो कुछ उपदेश दे गए हैं, वह सब हिन्दू धर्म का सार-स्वरुप है। उन्होंने अपनी ओर से कोई नयी बात नहीं कही है। और वे उन सब बातों को अपनी बतलाने का भी कभी दावा नहीं करते थे; वे नाम-यश के लिए किंचित मात्र भी आकांक्षा नहीं रखते थे। "- देववाणी, 1 जुलाई सोमवार/ 7-32]                          
"Shri Ramakrishna never spoke a harsh word against anyone. So beautifully tolerant was he that every sect thought that he belonged to them. He loved everyone. To him all religions were true. He found a place for each one. He was free, but free in love, not in "thunder". The mild type creates, the thundering type spreads. Paul was the thundering type to spread the light. (And it has been said by many that Swami Vivekananda himself was a kind of St. Paul to Shri Ramakrishna.) The age of St. Paul, however, is gone; we are to be the new lights for this day.
 A self-adjusting organisation is the great need of our time. When we can get one, that will be the last religion of the world. The wheel must turn, and we should help it, not hinder. The waves of religious thought rise and fall, and on the topmost one stands the "prophet of the period".  Ramakrishna came to teach the religion of today, constructive, not destructive. He had to go afresh to Nature to ask for facts, and he got scientific religion which never says "believe", but "see"; "I see, and you too can see." Use the same means and you will reach the same vision. God will come to everyone, harmony is within the reach of all. Shri Ramakrishna's teachings are "the gist of Hinduism"; they were not peculiar to him. Nor did he claim that they were; he cared naught for name or fame."MONDAY, July 1, 1895. (Shri Ramakrishna Deva)] 
स्वामी जी अपने भाषण में अन्यत्र कहते हैं - " मेरे गुरुदेव ने यह 'शिक्षा' मुझे सैंकड़ों बार दी, परन्तु फिर भी मैं इसे  (धर्म क्या है ?) प्रायः भूल जाता हूँ। (My Master 'Nda' taught me this lesson hundreds of times, yet I often forget it.) विचार-सम्प्रेषण की अदभुत शक्ति (power of thought-communicating) को बहुत थोड़े से लोग ही समझ पाते हैं। यदि कोई मनुष्य किसी गुफा (निर्जन-स्थान या कैम्प) में घुसकर अपने को बन्दकर किसी एक ही विचार ( प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है - 'Be and Make ') पर एकाग्रचित्त होकर निरंतर मनन करता रहे, और उसी दशा में आजन्म मनन करता हुआ यदि अपने प्राण भी त्याग दे। तो उसके विचार की तरंगें गुफा की दीवारों को भेदकर चारों ओर फ़ैल जाएँगी, और अन्त में वे विचार-तरंगें सारी मनुष्य जाति में प्रविष्ट हो जाएँगी। (If a man goes into a cave, shuts himself in, and thinks one really great thought (each soul is potentially divine-प्रत्येक 'आत्मा' संभावित परमात्मा है)  and dies, that thought will penetrate the walls of that cave, vibrate through space, and at last permeate the whole human race.)
 विचार-सम्प्रेषण की यही अदभुत शक्ति है। अतः अपने विचारों को दूसरे में सम्प्रेषित करने में, हमें जल्दी-बाजी नहीं करनी चाहिए। पहले हमारे पास कुछ (खुद की कमाई ) होना चाहिए, जिसे हम दूसरे को दे सकें। मनुष्य को शिक्षा देने का कार्य केवल वही कर सकता है, जिसके पास देने को कुछ हो। क्योंकि शिक्षा देना ( या मनःसंयोग का प्रशिक्षण देना) केवल भाषण देना नहीं है, और न बड़े-बड़े सिद्धान्तों का (संस्कृत में) बखान करना है। शिक्षा का तात्पर्य है - सम्प्रेषण ! [First have something to give. He alone teaches who has something to give, for teaching is not talking, teaching is not imparting doctrines, it is communicating.सम्प्रेषण -संचारण / Transmission of communication] आध्यात्मिकता (धर्म) को भी दूसरों में उसी तरह सम्प्रेषित (हस्तान्तरित -transmission) किया जा सकता है, जिस प्रकार मैं तुम्हें एक फूल दे सकता हूँ। और यह बात अक्षरशः सत्य है !  
[क्योंकि मैं इस बात का गवाह हूँ ,अपने अनुभव से जानता हूँ कि-" Spirituality can be communicated just as really as I can give you a flower.This is true in the most literal sense." ' ॐ त्वं सच्चिदानंदाद्वितीयोऽसि। त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि ॥ऋतम् वच्मि ॥ सत्यं वच्मि ॥ ' कहते हुए आँख में आँख डालकर भी सम्प्रेषित किया जा सकता है।] यह भाव भारतवर्ष में अति प्राचीन काल से विद्यमान है। [This idea is very old in India and finds illustration in the West in the "theory, in the belief, of Apostolic Succession.और पाश्चात्य देशों में 'पैगम्बर निर्माण की गुरु-शिष्य उत्तराधिकार परम्परा (Apostolic Succession  Tradition)*** ' का जो सिद्धान्त प्रचलित है, उसमें भी इसी भाव का दृष्टान्त पाया जाता है। अतः सर्वप्रथम हमें स्वयं चरित्रवान मनुष्य बनना चाहिए और यही सबसे बड़ा कर्तव्य है, जो हमारे सामने है। सत्य का ज्ञान पहले स्वयं को होना चाहिए, और उसके बाद तुम अनेक को सिखा सकते हो, बल्कि वे लोग स्वयं उसे सीखने आएंगे।'Be and Make' ~ यही मेरे गुरुदेव की विशिष्ट शैली थी। [७/२५८] 
 क्रिश्चियानिटी में 'Apostle' (अपॉसल में 't' silent है) *** शब्द का अर्थ होता है ईश्वर  (माँ काली, अल्ला या गॉड)  का भेजा हुआ धर्मदूत !(जैसे रामदूत अतुलित बलधामा, अथवा भगवान श्रीरामकृष्णदेव से चपरास प्राप्त सन्देश वाहक, रामकृष्ण-दूत, पैगम्बर, या मानवजाति का मार्गदर्शक नेता/भ्रममुक्त 'de-Hypnotized' कर देने में समर्थ, जीवनमुक्त शिक्षक-स्वामी विवेकानन्द ! 
श्रीरामकृष्णदेव ने भारत की प्राचीन 'गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' को पुनर्स्थापित करने के उद्देश्य से, पहले स्वयं साक्षात् माँ काली से (वक्त से ?) 'भावमुख अवस्था' रहने का मौखिक चपरास प्राप्त किया था। तत्पश्चात आश्चर्य जनक रूप से उनके पास प्रत्येक मार्ग (तन्त्र मार्ग से लेकर इस्लाम और अद्वैत वेदान्त तक) के गुरु (भैरवी ब्राह्मणी, गोविन्दराय नामक इस्लामी सूफी, और श्रीमद तोतापुरी)   स्वतः आते चले गए। जिनसे उन्होंने विधिवत दीक्षा प्राप्त की थी।  फिर उन्होंने उनके 12 युवा शिष्यों में से योग्यतम शिष्य नरेन्द्रनाथ  को चुन कर,  उस शिक्षा (धर्म) को सर्वत्र संचारित (communicating) करने का चपरास~  'नरेन शिक्षा देगा!' अपने हाथों से लिखकर और एक आवक्ष रेखाचित्र के पीछे धावित मयूर का चित्र भी अंकित करते हुए हस्तान्तरित कर दिया था। 
तदनुसार निवृत्ति मार्ग के सप्तऋषियों में एक स्वामी विवेकानन्द ने  अपने गृहस्थ (प्रवृत्ति मार्ग के ) पाश्चात्य शिष्यों में से योग्यतम शिष्य कैप्टन जेम्स हेनरी सेवियर  को चुनकर जिस प्रकार ईसाईयों  में गुरु-शिष्य 'अपोस्टोलिक उत्तराधिकार परम्परा' ('Apostolic Succession) का सिद्धान्त प्रचलित है, उसे अद्वैत आश्रम, मायावती के माध्यम से भारत के प्रबुद्ध (अंग्रेजी पढ़े-लिखे) युवाओं में प्रचार-प्रसार करने का कार्यभार सौंपा था। किन्तु अद्वैत आश्रम को मायावती में स्थापित करने के तुरन्त बाद ही, कैप्टन सेवियर का देहान्त हो गया था। उनके शरीर की अन्तयेष्टि  मायावती में एक नदी के किनारे उनकी इच्छानुसार वेदज्ञ ब्राह्मण-ऋषि के अनुरूप की गयी थी। 
किन्तु स्वामी विवेकानन्द के द्वारा सौंपा हुआ कार्य अधूरा था, इसीलिए 'Apostolic Succession' को नए रूप में ~ 'बनो और बनाओ-वेदांत नेतृत्व प्रशिक्षण परम्परा;   ''Be and Make -Vedanta Leadership Training Tradition' के रूप में प्रचारित करने उद्देश्य से  कैप्टन सेवियर को ही नवनीहरन मुखोपाध्याय के रूप में, और महामण्डल को एक प्रबुद्ध युवा -संगठन के रूप में  अवतरित होना पड़ा। इस घटना का सम्पूर्ण विवरण नवनी दा की जीवनी -" जीवन नदी के हर मोड़ पर नामक" पुस्तक में उपलब्ध है। [अभी हाल में ही रूस ने  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने देश का सर्वोच्‍च नागरिक सम्‍मान,'आर्डर ऑफ सेंट एंड्रयू द अपॉसल' [Order of St Andrew the Apostle] देने की घोषणा की है, क्या यह महज एक संयोग है ? ] 
संसार-चक्र तो चलता ही रहेगा,*** पर हमें उसकी सहायता करनी होगी, बाधा देने से काम नहीं चलेगा :  अर्थात मनुष्य स्व-प्रेरणा से भी पूर्णता (perfection-पूर्णतः निःस्वार्थी बन जाने) की ओर तरक्की (March) करता ही रहेगा; किन्तु हमें पूरे उत्साह के साथ "चरैवेति -चरैवेति" करते हुए, इस चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने वाले आंदोलन का प्रचार-प्रसार करने में सहायक बनना होगा, बाधक बनने से काम नहीं चलेगा। और जब 'Be and Make 'के आदर्श में ढले ऐसे किसी संगठन (युवा महामण्डल) को पूरे भारत में स्थापित कर लिया जायेगा,  तब 'Be and Make~ धर्म' अर्थात 'चरित्रवान मनुष्य बनो और बनाओ ' आंदोलन ही जगत का अन्तिम धर्म होगा ! 
महामण्डल पुस्तिका 'एक युवा आन्दोलन' में नवनी दा आगे लिखते हैं - " इस तथ्य को समझने के लिए श्री रामकृष्णदेव के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द के उदगारों का विशेष रूप से अध्यन करना आवश्यक है। स्वामी जी कहते हैं कि श्रीरामकृष्णदेव युवाओं को संगठित करने की चेष्टा कर रहे हैं। वैसे तो वे सभी लोगों को ही अनुप्रेरित कर रहे हैं, किन्तु विशेष रूप से युवा लोग अधिक संख्या में उनकी ओर आकर्षित हो रहे हैं। उनका लक्ष्य युवाओं को ही आकर्षित करना था।" स्वयं विवेकानन्द इस बात के प्रमाण हैं, तथा इस बात को वे स्वयं स्वीकार भी करते हैं। हमलोग भी इसे देख सकते हैं। ठाकुर ने स्पष्ट रूप से अनुभव किया था कि मेरे अति अल्प जीवनकाल में मैं जितना कर सकता था, वह कर चुका। किन्तु इसके बाद जो वास्तविक कार्य है -वह यही है कि बहुत ही अल्पसमय के भीतर कुछ युवाओं के जीवन को इस प्रकार (भ्रममुक्त/नेता/शिक्षक के रूप में ) गठित कर देना होगा कि वे इस भाव को (Be and Make Vedanta Leadership Training Tradition) का प्रचार प्रसार करने में समर्थ शिक्षकों का निर्माण) थोड़े समय में ही सारे जगत में दावानल की तरह फैला देने में सक्षम हो जाएँ। और वैसा करने के बाद उन्होंने अपने शरीर का त्याग कर दिया, तथा स्वामीजी ने भी उनके द्वारा सौंपे गए कार्य को पूरा कर दिखाया। 
स्वामी जी ने अपने जीवन के लक्ष्य के विषय में कई स्थानों पर अलग-अलग ढंग से उल्लेख किया है। एक स्थान पर वे कहते हैं -" युवाओं को संगठित करना ही मेरे जीवन का एकमात्र लक्ष्य है।' "मेरे जीवन का व्रत है, युवक दल को संगठित करना। " उसी युवक दल को स्वयं संगठित करने का प्रयास करने के बाद भी वे मुट्ठीभर युवाओं को ही श्रीरामकृष्ण पताका के नीचे एकत्रित कर सके थे। फिर भी उसी समय स्वामी जी ने भविष्यवाणी करते हुए कहा था - " A few have jumped into the breach they are only a few. A few thousands are necessary and they will come ." यही जो " they will come" की भविष्यवाणी है - वे युवा आयेंगे कहाँ से ? ये युवा दल तो रामकृष्ण मिशन के माध्यम से भी संगठित हो सकते हैं, किन्तु जो युवक रामकृष्ण-मठ मिशन में आकर अपना योगदान करेंगे, उनके जीवन का लक्ष्य होगा - व्रत और आदर्श वाक्य होगा, " आत्मनो मोक्षार्थं जगद-हिताय च। " किन्तु कितने युवक ऐसे होंगे जो इसी उम्र में सबकुछ छोड़छाड़ कर 'मोक्ष' प्राप्ति के मार्ग में अग्रसर होने की पात्रता रखते हैं ? और इसी कारण वैसे अधिकांश युवा जिन्हें स्वामी जी श्रीरामकृष्ण पताका के नीचे एकत्र करना चाहते थे, वे तो इससे बाहर ही छूट जायेंगे। 
स्वामीजी कहते थे जाति -धर्म, या गुण-दोष के आधार पर वर्गीकृत करके छोड़ देने, या वहिष्कृत कर देने के (exclusion) लायक कोई भी मनुष्य उनकी दृष्टि में है ही नहीं ! [क्योंकि उनका मानना था -प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है ! ] अतः सभी वर्ग और श्रेणी के युवाओं को श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त आंदोलन की पताका की क्षत्रछाया में संगठित करना होगा। यही जो सबों को ग्रहण करके, प्रारंभिक स्तर पर स्वामीजी की मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी शिक्षाओं को सभी युवाओं के दरवाजे -दरवाजे पर जाकर सुनाने का काम है, इस कार्य को करेगा कौन ? दावानल की तरह पृथ्वी के कोने-कोने में, सर्वत्र जा-जाकर , ग्रामों-शहरों के शिक्षितों -अशिक्षितों, छात्रों , नौकरी पेशा करने वालों, तथा बेरोजगार युवाओं के पास स्वामी जी की शिक्षाओं को लेकर जायेगा कौन ? जिन क्षेत्रों में धर्म, मंदिर, मठ तथा संन्यासी की छाया भी देखने को नहीं मिलती, उन दूर-दराज के क्षेत्रों तक उनकी मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षापद्धति को सुनाएगा कौन ? केवल सुनाएगा ही नहीं, बल्कि स्वामी जी की शिक्षाओं के अनुरूप अपने सुंदर जीवन को गठित करके, दूसरों को भी स्वामीजी के शिक्षाओं से प्रभावित करके, इस आदर्श को पूरा करने के कार्य में खींचेगा कौन? क्योंकि 'Be and Make' के कार्य में उतरने से ही तो मेरा अपना चरित्र सुंदर रूप में गठित होगा, और मेरा भारत महान बनेगा, पूरे देश की उन्नति होगी। 
इसी प्राथमिक कार्य को करने की जिम्मेदारी को महामण्डल ने स्वयं आगे बढ़कर अपने कंधों पर उठा लिया है। इसलिए यह बार बार कहा जाता है कि महामण्डल एक प्राथमिक पाठशाला है। जो लोग आध्यात्मिक साधना में अधिक उन्नत हो जायेंगे, उनके उच्च विद्यालय, महाविद्यालय, विश्वविद्यालय आदि तो हैं ही। स्वामी जी की कल्पना के अनुसार गठित 'रामकृष्ण मठ और मिशन ' इसी प्रकार का एक विश्वविद्यालय है। किन्तु उसमें प्रवेश लेने से पहले, महाविद्यालय की पढाई पूरी करनी होगी। और महाविद्यालय की डिग्री पाने के लिए जो एंट्रेन्स की परीक्षा पास करनी होती है, जिसे उच्च शिक्षा का प्रवेश-पत्र कहा जाता है। उस प्रवेश-पत्र को प्राप्त करने की योग्यता अर्जित करनी हो, तो पहले वर्णमाला को सीखना अनिवार्य होता है। और महामण्डल का उद्देश्य उसी वर्णमाला से युवाओं का परिचय करवा देना है। महामण्डल वह प्राथमिक पाठशाला है, जहाँ 'मनुष्य जीवन' को प्राप्त करने के लिए अ-आ, क-ख सीखा जाता है। 
अ-आ, क -ख को समाप्त कर लेने के बाद महामण्डल की जिम्मेवारी समाप्त हो जाती है। उसके बाद शाश्वत-जीवन, मोक्ष या अमरत्व को प्राप्त करने के अनेक मार्ग हैं।  जो जिस मार्ग से होकर शाश्वत जीवन को प्राप्त करना चाहें, वे उसी मार्ग से अपनी यात्रा पूरी कर सकते हैं। " (महामण्डल के गठन की अनिवार्यता -पृष्ठ १९-२०)               
चरित्रवान या भ्रम मुक्त 'मनुष्य' बनने के लिए इतने सारे धर्म-मार्ग क्यों बने हैं ? प्रत्येक व्यक्ति पूर्वजन्म में संचित संस्कारों के अनुरूप अपने आपमें एक भिन्न अस्तित्व होता है । प्राय: हम देखते हैं कि प्रत्येक बच्चा अपना विशेष स्वभाव (धर्म या भूतवैशिष्ट्य) लेकर जन्म लेता है, जो उसकी बाल्यावस्था में ही प्रकट हो जाता है । एक ही माता-पिता की भिन्न-भिन्न संतानों के स्वभाव भिन्न भिन्न प्रकार के देखे जाते हैं । श्रीरामकृष्णदेव कहते थे -" सत्त्व, रज और तम के तारतम्य से मनुष्य भिन्न-भिन्न स्वभाव के होते हैं। वस्तुतः सभी जीवों का यथार्थ स्वरूप एक ही है, किन्तु अवस्था-भेद के अनुसार वे चार श्रेणी के होते हैं -बद्ध, मुमुक्षु, मुक्त और नित्यमुक्त। किसी मछुए ने नदी में जाल डाला। जाल में बहुत सी मछलियाँ फँसीं। कुछ मछलियॉँ तो जाल में पड़कर भी कीचड़ में मुँह घुसाकर एकदम निश्चेष्ट और शांत पड़ी रहीं, -उन्होंने जाल से बाहर निकलने की बिल्कुल कोशिश नहीं की। कुछ ने भागने की बहुत कोशिश की, काफी उछल-कूद मचाई किन्तु वे भाग न पाईं; और कुछ किसी प्रकार कूद-फाँद करते हुए, जाल काटकर या फैलाकर भाग निकलीं। इसी प्रकार संसार में भी तीन प्रकार के जीव होते हैं- बद्ध जीव, जो कभी मुक्त होने का प्रयत्न नहीं करते; मुमुक्षु जीव, जो बन्धन में होते हुए भी मुक्त होने का प्रयत्न करते हैं। और मुक्त जीव, जिन्होंने मुक्ति प्राप्त कर ली है ! (यथा विवेकानन्द, नवनी दा)  नित्यमुक्त, अवतार, ईश्वर-दूत या मानवजाति के मार्गदर्शक नेता -यथा श्रीरामकृष्ण; वे हैं जिन्हें अपना ईश्वरत्व कभी भूलता ही नहीं है, क्योंकि वे जन्म से ही इस विषय में दूसरों की सहायता करते रहते हैं।
सदग्रन्थों में श्रवण-मनन -निदिध्यासन को ही चरित्रवान मनुष्य या भ्रम-मुक्त मनुष्य बनने का उपाय कहा गया है। गुरु (अर्थात नित्यमुक्त अवतार या पैगम्बर) के मुख से महावाक्यों का श्रवण करने, सदग्रन्थों का अध्ययन,  व साधुओं की सत्संगति से सत्य-असत्य, नित्य-अनित्य, आत्मा- अनात्मा का विश्लेषण करने की विचार शक्ति उत्पन्न होती है। और इस प्रकार किये जाने वाले विश्लेषण को मनन कहते हैं। मनन का अर्थ है सोचना, विचारना, चिंतन करना। मन को एक दिशा में ले जाने के लिए जो विचार किया जाता है उसे मनन कहते है। 
गुरु के मुख से  अथवा स्वयं के अध्यन से  ईश्वर (ठाकुर-माँ -स्वामीजी ) की कथाओं को सुनने व बारम्बार मनन करने से एकमात्र परम सत्य, अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्णदेव  के चरणों में प्रेम उत्पन्न होता है।  और समस्त विनाशशील, अनित्य एवं सांसारिक वस्तुओं से आसक्ति हट जाती है। साथ ही यह भी समझ आने लगता है कि जैसे धुँधले प्रकाश में भ्रम के कारण रस्सी -सर्प की तरह अनुभव होती है, वैसे ही अविद्या (ignorance) के कारण एक (ब्रह्म) ही अनेक नामरूप-मय जगत के रूप में भासता है। फिर विद्यामाया (माँ सारदा देवी) की कृपा से दृष्टि ज्ञानमयी (या भगवानमयी) हो जाने के बाद यह स्पष्ट रूप से समझ में आ जाता है कि वास्तव में जीवात्मा-परमात्मा आदि सब कुछ एक ही हैं। इस प्रकार इस तत्त्व को समझ लेना ही विवेक है। इस विवेक के द्वारा जब सत्य-असत्य-मिथ्या का पृथक्करण हो जाता है, तब मिथ्या (क्षणस्थायी विषयभोग) से आसक्ति हट जाती है।और साथ ही साथ लोक-परलोक के समस्त पदार्थों - "कामिनी-कांचन और कीर्ति" में आसक्ति भी नहीं रहती, इसे ही वैराग्य कहते हैं ! जब तक कोई व्यक्ति विवेक-प्रयोग करते हुए  जगत के क्षणस्थायी विषय-भोगों में अनासक्त होकर, और निषिद्ध कर्मों (शास्त्रविरुद्ध कर्मों) को पूर्णतया त्यागकर वैराग्यवान नहीं बन जाता; तब तक वह केवल मंत्रविशेष या क्रियाविशेष नाक-टीपने आदि की साधना से, जगत्कारण ईश्वर (माँ काली) की कृपा प्राप्त करने का अधिकारी नहीं बन सकता।
स्वभाव की भिन्नता का एक कारण पूर्व जन्मों के संस्कार हो सकते हैं । अर्थात पूर्व जन्म की स्मृति नष्ट होने पर भी नवीन जन्म में पूर्व जन्म के संस्कार रह जाते हैं । वैराग्यवान व्यक्ति को नवीन जन्म में (पुनर्जन्म में) समत्व बुद्धि से संबंधित संस्कार बिना किसी प्रयास के ही प्राप्त हो जाते हैं । अतः उसके कर्म करनेकी गति, उसके विचार करने की प्रक्रिया, उसके पूर्व संचित, प्रारब्ध, आनुपातिक-त्रिगुण  और अनुपातिक पंचमहाभूत, सब भिन्न होते हैं। इसलिए प्रत्येक  व्यक्ति का साधना-मार्ग भी भिन्न होता है । त्रैगुण्यविपर्ययात्-- सांख्यदर्शन के इस तर्क के अनुसार तीनो गुणो की आनुपातिक विभिन्नता के कारण ही मनुष्यों की तीन श्रेणियाँ ~ 'देवता,मानव और राक्षस' पाई जाती है।  जिसमें सत्व की प्रधानता है वह देवता, जिसमें रजो गुण की प्रधानता वह मनुष्य, जो तमोगुण प्रधान है वह राक्षस योनि का माना जाता है।  अत: तीनो गुणो की आनुपातिक भिन्नता के कारण मनुष्यो में विभेद पाया जाता है।
महाराज भर्तृहरि को राजा-कवि  या (Poet king) भी कहा जाता है, क्योंकि वे राजा होने के साथ -साथ एक कवि भी थे। कहा जाता है कि कतिपय सांसारिक स्वार्थपरता के अनुभवों के पश्चात् उनके मन में वैराग्यभाव जाग गया। और उन्होंने राजपाठ अपने छोटे भाई राजा विक्रमादित्य को सोंपकर संन्यास ग्रहण कर लिया । उनकी रचनाओं में - 'शतकत्रयम्' काफी चर्चित पुस्तक है, जिसके तीन खंड हैं: नीतिशतकम्, शृंगारशतकम् एवं वैराग्यशतकम् । कवि-महाराज भर्तृहरि कहते हैं इस विश्व में 4 प्रकार के लोग होते हैं,
एके सत्पुरुषाः परार्थघटकाः स्वार्थं परितज्य ये, 
सामान्यास्तु परार्थमुद्यमभृतः स्वार्थाऽविरोधेन ये ।
 तेऽमी मानुषराक्षसाः परहितं स्वार्थाय निघ्नन्ति ये, 
      ये तु घ्नन्ति निरर्थकं परहितं ते के न जानीमहे ।। " 
(नीतिशतकम् – 75) 
अन्वय – ये स्वार्थं परित्यज्य परार्थघटकाः, (ते) एते सत्पुरुषाः (सन्ति) । ये तु (पुनः) स्वार्थाविरोधेन परार्थम् उद्यमभृतः ते सामान्या : (जनाः) सन्ति)|  ये स्वार्थाय परहितं निघ्नंन्ति, ते अमी मानुषराक्षसाः (मन्तव्याः) | 
 (परं) तु ये निरर्थकं परहितं घ्नन्ति, ते के (इति वयं) न जानीमहे।  
भावार्थ - संसार में उत्तम कोटि के सज्जन पुरुष भी है जो नि:स्वार्थ भाव से सदैव दुसरो की भलाई में ही लगे रहते है । मध्यम श्रेणी के -कुछ सामान्यजन कुछ ऐसे भी हैं, जो अपने स्वार्थ की रक्षा करते हुए दुसरो के हित साधन में लगे रहते है।  और अधम श्रेणी के है जो अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए दुसरो को हानि पहुँचाते है, वे मनुष्य के रूप में राक्षस ही हैं। परन्तु जो , भले उनका कोई स्वार्थ पूरा नहीं होता हो, फिर भी सदैव ही दुसरो के हितों का नाश किया करते है, वे कौन है?  उनको किस नाम से पुकारू यह मैं भी नही जानता।
व्याख्या - संसार में सज्जन मनुष्यों की कमी नही है, तो दुष्ट मनुष्यों की भी कोई कमी नहीं। कवि -महाराज भर्तृहरि कहते हैं, कि सज्जन पुरुष नि:स्वार्थ भाव से दूसरों का कल्याण करते है । कुछ साधारण जन अपना स्वार्थ भी साधते है और दुसरो का भला भी चाहते है। कुछ अपने स्वार्थ के लिए दुसरो को हानि पहुँचाते है उन्हें (हानि पहुँचाने वालो को) कवि ने राक्षस की संज्ञा दी है।  किन्तु जो लोग बेवजह निर्दोष प्राणियों को हानि पहुँचाते हैं, अर्थात् ऐसा करके उन्हे कोई लाभ नही होता, उसे क्या संज्ञा दी जाए ? वे तो राक्षसो से भी गिरे हुए हैं, अतः किस नाम से पुकारे जाएँ यह प्रश्न जटिल है ।
यदि भर्तृहरि आज होते तो उन्हें 'Terrorists' या आतंकवादी के नाम से पुकार सकते थे। क्या उन कुख्यात आतंकवादियों को सुधारने के लिए भी कोई मार्ग हो सकता है ? इस्लाम में उसी मार्ग को सूफिज़्म कहा जाता है। जिस इस्लाम-धर्म के सूफी-मत की साधना करने के बाद; श्रीरामकृष्णदेव ने कहा था , ‘जतो मत, ततो पथ”, अर्थात जितने व्यक्ति, उतनी ही प्रकृतियां और उतनी ही साधना की पद्धतियां भी होती हैं। साधारणतः जब हम चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने, अथवा अपने अन्तर्निहित ब्रह्मत्व या दिव्यता को अभिव्यक्त करने के उद्देश्य से महामण्डल द्वारा निर्देशित जिन 5 अभ्यासों (प्रार्थना,मनःसंयोग,व्यायाम,
स्वाध्याय और विवेक-प्रयोग) को करते हैं, उसे ही साधना कहते हैं । जिसके द्वारा कट्टर आतंकवादियों को भी मनुष्य बनाया जा सकता है।

['जय हो' जग में जले जहाँ भी, नमन पुनीत अनल को।
 जिस नर में भी बसे, हमारा नमन तेज को, बल को।
 किसी वृन्त पर खिले विपिन में, पर, नमस्य है फूल। 
सुधी खोजते नहीं, गुणों का आदि, शक्ति का मूल।
ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है। 
दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है।
क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग, 
सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग।
तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के,
पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला के।
हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक,
वीर खींच कर ही रहते हैं इतिहासों में लीक। 
..... नहीं फूलते कुसुम मात्र राजाओं के उपवन में,
अमित बार खिलते वे पुर से दूर कुंज-कानन में। 
 समझे कौन रहस्य ? प्रकृति का बड़ा अनोखा हाल,
गुदड़ी में रखती चुन-चुन कर बड़े कीमती लाल। 
....'जाति! हाय री जाति !' कर्ण का हृदय क्षोभ से डोला,
 कुपित सूर्य की ओर देख वह वीर क्रोध से बोला। 
'जाति-जाति रटते, जिनकी पूँजी केवल पाखंड ,
मैं क्या जानूँ जाति ? जाति हैं ये मेरे भुजदंड। 
~ रश्मिरथी / प्रथम सर्ग / राष्ट्रकवि रामधारी सिंह "दिनकर"]
[महामण्डल के चरित्रनिर्माणकारी युवा प्रशिक्षण शिविर में साधकभाव  का चपरासप्राप्त/ प्रशिक्षित नेता/ पैगम्बर/भ्रममुक्त शिक्षकों का यथार्थ परिचय प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम यह समझ लेना आवश्यक है कि 'Be and Make' Vedanta Leadership Training Tradition' में साधना (5 अभ्यास) क्या हैं, और क्यों किये जाते हैं।  साधना का शाब्दिक अर्थ है अभ्यास करना या निशाना लगाना। [साध+ना= साधना। साधो मत, सधने दो !( नेता, अवतार  जिन्हें जन्म से ही अपने आविर्भूत होने का उद्देश्य ज्ञात होता है। साधना पद्धति-Be and Make vedanta Leadership Training Tradition) ]
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