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रविवार, 29 मई 2022

🔆🙏[राजयोग (चतुर्थ अध्याय) ] `प्राण का आध्यात्मिक रूप ' - स्वामी विवेकानन्द🔆🙏🔆🙏मेरुदण्ड और मेडुला ऑब्लान्गेटा का महत्व 🔆🙏 राजयोग समस्त अलौकिक घटनाओं (miracles) की युक्तिसंगत व्याख्या है

 [राजयोग (चतुर्थ अध्याय)]

 `प्राण का आध्यात्मिक रूप ' 

CHAPTER - IV  

THE PSYCHIC PRANA

🔆🙏मेरुदण्ड और मेडुला ऑब्लान्गेटा का महत्व 🔆🙏 

योगियों के मतानुसार मेरुदण्ड के भीतर इड़ा और पिंगला नाम के दो स्नायविक शक्तिप्रवाह और मेरुदण्डस्थ मज्जा के बीच सुषुम्ना नाम की एक शून्य नली है । इस शून्य नली के सब से नीचे कुण्डलिनी का आधारभूत पद्म अवस्थित है । योगियों का कहना है कि वह त्रिकोणाकार है । योगियों की रूपक भाषा में कुण्डलिनी शक्ति उस स्थान पर कुण्डलाकार हो विराज रही है । 

जब यह कुण्डलिनी शक्ति जगती है , तब वह इस शून्य नली के भीतर से मार्ग बनाकर ऊपर उठने का प्रयत्न करती है , और ज्यों ज्यों वह एक एक सोपान ऊपर उठती जाती है , त्यों त्यों मन के स्तर पर स्तर मानो खुलते जाते हैं और योगी को अनेक प्रकार के अलौकिक दर्शन होने लगते हैं तथा अद्भुत शक्तियाँ प्राप्त होने लगती हैं । जब वह कुण्डलिनी मस्तक पर चढ़ जाती है , तब योगी सम्पूर्ण रूप से शरीर और मन से पृथक् हो जाते हैं और उनकी आत्मा अपने मुक्त स्वभाव की उपलब्धि करती है । 

हमें मालूम है कि हमारा मेरुदण्ड  (spinal cord ) एक विशेष प्रकार से गठित है । अंग्रेजी के है आठ अंक (8) को यदि आड़ा (∞) कर दिया जाए , तो देखेंगे कि उसके दो अंश हैं और वे दोनों अंश बीच से जुड़े हुए हैं । इस तरह के अनेक अंकों को एक पर एक रखने पर जैसा दीख पड़ता है , मेरुदण्ड बहुत कुछ वैसा ही है । 

उसके बायीं ओर इड़ा है और दाहिनी ओर पिंगला ; और जो शून्य नली मेरुदण्ड के ठीक बीच में से गयी है , वही सुषुम्ना है । कटिप्रदेशस्थ मेरुदण्ड की कुछ अस्थियों के बाद ही मेरुमज्जा समाप्त हो गयी है , परन्तु वहाँ से भी तागे के समान एक बहुत ही सूक्ष्म पदार्थ बराबर नीचे उतरता गया है । सुषुम्ना नली वहाँ भी अवस्थित है , परन्तु वहाँ बहुत सूक्ष्म हो गयी है । नीचे की ओर उस नली का मुँह बन्द रहता है । उसके निकट ही कटिप्रदेशस्थ नाड़ीजाल ( sacral plexus ) अवस्थित है,जो आजकल के शरीरशास्त्र ( physiology ) के मत से त्रिकोणाकार है । 

इन विभिन्न नाड़ीजालों के केन्द्र मेरुमंज्जा के भीतर अवस्थित हैं ; वे नाड़ीजाल योगियों के भिन्न भिन्न पद्मों या चक्रों के तौर पर लिये जा सकते हैं । योगियों का कहना है कि सब से नीचे मूलाधार से लेकर मस्तिष्क में स्थित सहस्रार या सहस्रदल पद्म तक कुछ चक्र हैं । यदि हम उन पद्मों को पूर्वोक्त नाड़ीजाल के प्रतिरूप समझें , तो आजकल के शरीरशास्त्र के द्वारा बहुत सहज ही योगियों की बात का मर्म समझ में आ जाएगा । 

हमें मालूम है कि हमारे स्नायुओं के भीतर दो प्रकार के (nerve currents) प्रवाह हैं ; उनमें से एक को अन्तर्मुखी और दूसरे को बहिर्मुखी , एक को ज्ञानात्मक (sensory) और दूसरे को कर्मात्मक (motor), एक को केन्द्रगामी (centripetal) और दूसरे को केन्द्रापसारी (centrifugal) कहा जा सकता है । उनमें से एक मस्तिष्क की ओर संवाद ले जाता है , और दूसरा मस्तिष्क से बाहर , समस्त अंगों में । परन्तु अन्त में ये प्रवाह मस्तिष्क के सनयायु-केंद्रों से संयुक्त हो जाते हैं। आगे आनेवाले विषय को स्पष्ट रूप से समझने के लिए हमें कुछ और बातें ध्यान में रखनी होंगी । 

यह मेरुमज्जा  (spinal cord) मस्तिष्क में जाकर एक प्रकार के ' बल्ब ' या 'medulla oblongata'  (मेडुला ऑब्लान्गेटा) नामक एक अण्डाकार पदार्थ में समाप्त हो जाती है , जो मस्तिष्क के साथ संयुक्त नहीं है , वरन् मस्तिष्क में जो एक तरल पदार्थ है , उसमें तैरता रहता है। अतः यदि सिर पर कोई आघात लगे, तो उस आघात की शक्ति उस तरल पदार्थ में बिखर जाती है , और इससे उस बल्ब को कोई चोट नहीं पहुँचती । यह हमारे मस्तिष्क का सबसे   महत्त्वपूर्ण हिस्सा है , जो हमें स्मरण रखनी चाहिए । ['बल्ब' या 'मेडुला ऑब्लान्गेटा'  मस्तिष्क का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है क्योंकि इसमें श्वास-प्रश्वांस यंत्र और ह्रदय के कामकाज को नियंत्रित करने वाले केंद्र होते हैं। "the medulla oblongata (मेडुला ऑब्लान्गेटा) is the most vital part of the brain because it contains centers controlling breathing and heart functioning."]  दूसरे , हमें यह भी जान लेना होगा कि इन सब चक्रों में से सब से नीचे स्थित मूलाधार , मस्तिष्क में स्थिर सहस्रार और नाभिदेश में स्थित मणिपूर – इन तीन चक्रों की बात हमें विशेष रूप से ध्यान में रखनी होगी।

अब भौतिकविज्ञान का एक तत्त्व हमें समझना है । हम लोगों ने विद्युत् और उससे संयुक्त अन्य बहुविध शक्तियों की बातें सुनी हैं । विद्युत् क्या है , यह किसी को मालूम नहीं । हम लोग इतना ही जानते हैं कि विद्युत् एक प्रकार की गति हैजगत् में और भी अनेक प्रकार की गतियाँ हैं ; विद्युत् से उनका क्या भेद है ? मान लो , यह मेज चल रहा है और उसके परमाणु विभिन्न दिशाओं में जा रहे हैं । अब यदि उन परमाणुओं को एक ही दिशा में चलाया जाए , तो वह विद्युत् के माध्यम से ही किया जा सकता है । समस्त परमाणु यदि एक ओर गतिशील हों , तो उसी को विद्युत् - गति कहते हैं । इस कमरे में जो वायु है , उसके सारे परमाणुओं को यदि लगातार एक ओर चलाया जाए , तो यह कमरा एक प्रचण्ड बैटरी ( battery ) के रूप में परिणत हो जाएगा शरीरशास्त्र की एक और बात हमें स्मरण रखनी होगी । वह यह है कि जो स्नायुकेन्द्र श्वासप्रश्वास-यन्त्रों ( respiratory system या  breathing system) को नियमित करता है , उसका सारे स्नायुप्रवाहों के नियमन पर भी कुछ अधिकार है ।

[राजयोग (चतुर्थ अध्याय) ] `प्राण का आध्यात्मिक रूप '

🔆🙏 प्राणायाम द्वारा चंचल मन इच्छाशक्ति में रूपान्तरित हो जाता है 🔆🙏  

अब हम प्राणायाम करने का कारण समझ सकेंगे । पहले तो , यदि श्वास प्रश्वास की गति लयबद्ध या नियमित की जाए , तो शरीर के सारे परमाणु एक ही दिशा में गतिशील होने का प्रयत्न करेंगे । जब विभिन्न दिशाओं में दौड़नेवाला मन एकमुखी होकर एक दृढ़ इच्छाशक्ति के रूप में परिणत होता है (mind changes into will), तब सारे स्नायुप्रवाह भी परिवर्तित होकर एक प्रकार की विद्युत् प्रवाह जैसी गति प्राप्त करते हैं।  क्योंकि स्नायुओं पर विद्युत् - क्रिया करने पर देखा गया है कि उनके दोनों प्रान्तों में धनात्मक और ऋणात्मक , इन विपरीत शक्तिद्वय (polarity) का उद्भव होता है । इसी से यह स्पष्ट है कि जब इच्छाशक्ति स्नायुप्रवाह के रूप में परिणत होती है , तब वह एक प्रकार के विद्युत् का आकार धारण कर लेती है । जब शरीर की सारी गतियाँ सम्पूर्ण रूप से एकाभिमुखी होती हैं , तब वह शरीर मानो इच्छाशक्ति का एक प्रबल विद्युदाधार (gigantic battery of will) बन जाता है

 यह प्रबल इच्छाशक्ति (tremendous will) प्राप्त करना ही योगी ... का उद्देश्य है । इस तरह, शरीरशास्त्र (physiology) की सहायता से प्राणायाम - क्रिया (breathing exercise)  की व्याख्या की जा सकती है । वह शरीर के भीतर एक प्रकार की एकमुखी गति पैदा कर देती है और श्वासप्रश्वास - केन्द्र (respiratory center) पर आधिपत्य करके शरीर के अन्यान्य केन्द्रों को भी वश में लाने में सहायता पहुँचाती है । यहाँ पर प्राणायाम का लक्ष्य मूलाधार में कुण्डलाकार में अवस्थित कुण्डलिनी शक्ति को जाग्रत करना है

हम जो कुछ देखते हैं , कल्पना करते हैं , या कोई स्वप्न देखते हैं , तो सारे अनुभव हमें आकाश (space) में करने पड़ते हैं । हम साधारणतः जिस परिदृश्यमान आकाश को देखते हैं उसका नाम है महाकाश (elemental space) । योगी जब दूसरों का मनोभाव समझने लगते हैं या अलौकिक वस्तुएँ (supersensuous objects, दिव्य ज्योति ) देखने लगते हैं, तब वे सब दर्शन चित्ताकाश (the mental space) में होते हैं । और जब अनुभूति स्थूल-सूक्ष्म विषयशून्य (objectless) हो जाती है , जब आत्मा अपने स्वरूप में प्रकाशित होती है , तब उसका नाम है चिदाकाश (Chidâkâsha, or knowledge space) । 

जब कुण्डलिनी शक्ति जागकर सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करती है , तब जो सब विषय अनुभूत होते हैं, वे चित्ताकाश ( mental space) में ही होते हैं । जब वह कुण्डलिनी शक्ति उस नाड़ी की अन्तिम सीमा मस्तिष्क के 'बल्ब' ('Medulla Oblongata') में पहुँचती है ; तब चिदाकाश (knowledge space) में एक विषयशून्य ज्ञान (objectless perception) अनुभूत होता है

अब विद्युत् की उपमा (analogy of electricity) फिर से ली जाए । हम देखते हैं कि मनुष्य केवल तार के योग से एक जगह से दूसरी जगह विद्युत् प्रवाह चला सकता है , परन्तु प्रकृति अपने महान् शक्तिप्रवाहों को भेजने के लिए किसी तार का सहारा नहीं लेती । इसी से अच्छी तरह समझ में आ जाता है कि किसी प्रवाह को चलाने के लिए वास्तव में तार की कोई आवश्यकता नहीं । किन्तु हम तार के बिना काम करने में असमर्थ हैं , इसीलिए हमें उसकी आवश्यकता पड़ती है । (पाठक को याद रखना चाहिए कि यह व्याख्यान स्वामी विवेकानन्द ने  बेतार का तार (wireless telegraphy ) की खोज से पहले दिया था )

जैसे विद्युत् प्रवाह तार की सहायता से विभिन्न दिशाओं में प्रवाहित होता है , ठीक उसी तरह शरीर की समस्त संवेदनाएँ और गतियाँ (sensations and motions of the body) मस्तिष्क में और मस्तिष्क से स्नायुतन्तु-रूप तार ( wires of nerve fibres)  की ही सहायता से वह  बहिर्देश में प्रेषित की जाती हैं।  मेरुमज्जा-मध्यस्थ ज्ञानात्मक और कर्मात्मक स्नायुगुच्छ-स्तम्भ (sensory and motor fibres in the spinal cord ) ही योगियों की इड़ा और पिंगला नाड़ियाँ है । उन दोनों प्रधान नाड़ियों के भीतर से ही पूर्वोक्त अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी शक्तिप्रवाह-द्वय संचारित हो रहे हैं । 

परन्तु बात अब यह है कि इस प्रकार के तार के समान किसी पदार्थ की सहायता बिना मस्तिष्क के चारों ओर विभिन्न संवाद भेजना और भिन्न भिन्न स्थानों से मस्तिष्क का विभिन्न संवाद ग्रहण करना सम्भव क्यों न होगा ? प्रकृति में तो ऐसे व्यापार घटते देखे जाते हैं । योगियों का कहना है कि इसमें कृतकार्य होने पर ही भौतिक बन्धनों (bondage of matter) को लाँघा जा सकता है । तो अब इसमें कृतकार्य होने का उपाय क्या है--- How to do it? यदि मेरुदण्ड-मध्यस्थ सुषुम्ना (Sushumna, the canal in the middle of the spinal column) के भीतर से स्नायुप्रवाह चलाया जा सके , तो यह समस्या मिट जाएगी । मन ने ही यह स्नायुजाल ( network of the nervous system) तैयार किया है , और उसी को यह जाल तोड़कर बिना किसी तंत्रिका तंतुओं के तार (wires of nerve fibres)की सहायता के अपना काम करना होगा । तभी सारा ज्ञान हमारे अधिकार में आएगा , देह का बन्धन (bondage of body)  फिर न रह जाएगा । 

इसीलिए सुषुम्ना नाड़ी पर विजय पाना (control of that Sushumna.) हमारे लिए इतना आवश्यक है । यदि तुम इस शून्य नली के भीतर से , स्नायुजाल की सहायता के बिना भी मानसिक प्रवाह (mental current ) चला सको , तो बस , इस समस्या का समाधान हो गया । योगी कहते हैं कि यह सम्भव है । साधारण मनुष्यों में सुषुम्ना निम्नतर छोर में बन्द रहती है ; उसके माध्यम से कोई कार्य नहीं होता । `The Yogi proposes a practice by which it can be opened, and the nerve currents made to travel through.' योगियों का कहना है कि इस सुषुम्ना का द्वार खोलकर उसके माध्यम से स्नायुप्रवाह चलाने की एक निर्दिष्ट साधना है जिसे 'मनःसंयोग 'कहते हैं)  । 

राजयोग (चतुर्थ अध्याय) ] `प्राण का आध्यात्मिक रूप ' 

🔆🙏स्वप्न में किसी 'नगर' की एकदम सच्ची अनुभूति कैसे होती है ?🔆🙏

(How do perceptions in dreams arise? ) 

बाह्य विषय के संस्पर्श से उत्पन्न संवेदना जब किसी स्नायु -केन्द्र में पहुँचती है , तब उस केन्द्र में एक ¨प्रतिक्रिया होती है । स्वयंक्रिय केन्द्रों ( automatic centres ) में उन प्रतिक्रियाओं का फल केवल गति होता है , पर सचेतन केन्द्रों ( conscious centres) में पहले अनुभव (perception) , और फिर बाद में गति (motion) होती है । सारी अनुभूतियाँ (perceptions) बाहर से आयी हुई क्रियाओं की प्रतिक्रिया (reaction to action from outside)  मात्र है । तो फिर स्वप्न में अनुभूति किस तरह होती है ? उस समय (स्वप्न देखते समय) तो बाहर की कोई क्रिया नहीं रहती ।

अतएव स्पष्ट है कि विषयों के अभिघात से पैदा हुई स्नायविक गतियाँ शरीर के किसी न किसी स्थान पर अवश्य अव्यक्त भाव से कुंडलित (coiled) रहती हैं । मान लो , स्वप्न में मैंने एक 'नगर' देखा । ' नगर ' नामक बाह्य वस्तु के आघात की जो प्रतिक्रिया है , उसी से उस नगर की अनुभूति होती है । अर्थात् उस नगर की बाह्य वस्तु द्वारा हमारे अन्तर्वाही स्नायुओं (incarrying nerves) में जो गतिविशेष उत्पन्न हुई है , उससे मस्तिष्क के भीतर के परमाणुओं में (brain molecules में)  एक गति पैदा हो गयी है । इसीलिए आज बहुत दिन बाद भी वह नगर मेरी स्मृति में आता है । 

इस स्मृति में भी ठीक वही व्यापार होता है , पर अपेक्षाकृत हल्के रूप में । किन्तु जो क्रिया मस्तिष्क के भीतर उस प्रकार का मृदुतर कम्पन (vibrations ) ला देती है , वह भला कहाँ से आती है ? यह तो कभी नहीं कहा जा सकता कि वह उसी पहले के विषय - अभिघात (primary sensations) से पैदा हुई है । अतः स्पष्ट है कि विषय - अभिघात से उत्पन्न गतिप्रवाह या संवेदनाएँ शरीर के किसी स्थान पर कुण्डलीकृत होकर विद्यमान हैं और उनकी क्रिया के फलस्वरूप ही स्वप्न - अनुभूतिरूप (dream perception रूपी ) मृदु प्रतिक्रिया की उत्पत्ति होती है

जिस केन्द्र में विषय - अभिघात से उत्पन्न संवेदनाओं के अवशिष्ट अंश या संस्कार (residual sensations) मानो संचित से रहते हैं , उसे मूलाधार कहते हैं।  और उस कुण्डलीकृत क्रियाशक्ति को कुण्डलिनी “the coiled up” कहते हैं । सम्भवतः गतिशक्तियों का अवशिष्ट अंश  (residual motor energy) भी इसी जगह कुण्डलीकृत होकर संचित है ; क्योंकि हम देखते हैं कि गम्भीर अध्ययन और बाह्य वस्तुओं पर मनन के बाद शरीर के जिस स्थान पर यह मूलाधार चक्र ( सम्भवतः sacral plexus ) अवस्थित है , वह तप्त हो जाता है

 अब यदि इस कुण्डलिनी शक्ति (coiled-up energy ) को जगाकर उसे ज्ञातभाव से सुषुम्ना नली में से प्रवाहित करते हुए एक केन्द्र से दूसरे केन्द्र को ऊपर लाया जाए , तो वह ज्यों ज्यों विभिन्न केन्द्रों पर क्रिया करेगी , त्यों त्यों प्रबल प्रतिक्रिया की उत्पत्ति होगी। जब शक्ति का बिलकुल सामान्य अंश किसी स्नायुतन्तु के भीतर से प्रवाहित होकर विभिन्न केन्द्रों में प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है , तब वही स्वप्न अथवा कल्पना (dream or imagination) के नाम से अभिहित होता है ।

राजयोग (चतुर्थ अध्याय) ] `प्राण का आध्यात्मिक रूप ' 

🔆🙏तीव्र ध्यान के बल से इन्द्रियातीत सत्य की अनुभूति🔆🙏  

किन्तु जब मूलाधार में संचित विपुलायतन शक्तिपुंज (the vast mass of energy) दीर्घकालव्यापी तीव्र ध्यान के बल से (by the power of long internal meditation) उद्बुद्ध होकर सुषुम्ना मार्ग में भ्रमण करता है और विभिन्न केन्द्रों पर आघात करता है , तो उस समय एक बड़ी प्रबल प्रतिक्रिया होती है , जो स्वप्न अथवा कल्पनाकालीन प्रतिक्रिया से तो अनन्तगुनी श्रेष्ठ है ही , पर जाग्रत् कालीन विषयज्ञान की प्रतिक्रिया ( reaction of sense-perception) से भी अनन्तगुनी प्रबल है । यही अतीन्द्रिय (super-sensuous )अनुभूति है ।फिर जब वह शक्तिपुंज समस्त ज्ञान के , समस्त संवेदनाओं के केन्द्रस्वरूप (metropolis of all sensation--) मस्तिष्क में पहुँचता है , तब सम्पूर्ण मस्तिष्क मानो प्रतिक्रिया करता है , और इसका फल है ज्ञान का पूर्ण प्रकाश (full blaze of illumination)  या आत्मसाक्षात्कार (perception of the Self)। 

कुण्डलिनी शक्ति जैसे जैसे एक केन्द्र से दूसरे केन्द्र को जाती है , वैसे ही वैसे मन का मानो एक एक परदा खुलता जाता है और तब योगी इस जगत् की सूक्ष्म या कारणरूप ( causal form) में उपलब्धि करते हैं । और तभी विषयस्पर्श से उत्पन्न हुई संवेदना और उसकी प्रतिक्रियारूप जो जगत् के कारण (causes of this universe) है , उनका यथार्थ स्वरूप हमें ज्ञात हो जाता है। अतएव तब हम सारे विषयों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं, क्योंकि कारण (causes) को जान लेने पर कार्य (effects)का ज्ञान भी अवश्य होगा

 इस प्रकार हमने देखा कि कुण्डलिनी को जगा देना ही तत्त्वज्ञान (Divine Wisdom) , अतिचेतन अनुभूति (superconscious perception) या आत्मसाक्षात्कार (realisation of the spirit)  का एकमात्र उपाय है । कुण्डलिनी को जागृत करने के अनेक उपाय हैं । किसी की कुण्डलिनी अवतार वरिष्ठ की भक्ति से या भगवान् श्रीरामकृष्ण के प्रति प्रेम से ही जागृत हो जाती है,  किसी की कुण्डलिनी शक्ति सिद्ध महापुरुषों (जीवन्मुक्त शिक्षकों) की कृपा-दृष्टि से और किसी की सूक्ष्म ज्ञानविचार ( analytic will -नेति,नेति)  द्वारा । लोग जिसे अलौकिक शक्ति या ज्ञान (supernatural power or wisdom) कहते हैं , उसका जहाँ कहीं कुछ प्रकाश दीख पड़े , तो समझना होगा कि वहाँ कुछ परिमाण में यह कुण्डलिनीशक्ति सुषुम्ना के भीतर किसी तरह प्रवेश पा गयी है । 

तो भी इस प्रकार की अलौकिक घटनाओं में से अधिकतर स्थलों में (vast majority of such cases में)  यही देखा जाएगा कि उस व्यक्ति ने बिना जाने ( ignorantly ) एकाएक ऐसी कोई साधना कर डाली है , जिससे उसकी कुण्डलिनी शक्ति अज्ञातभाव से कुछ परिमाण में स्वतन्त्र होकर सुषुम्ना के भीतर प्रवेश कर गयी है । समस्त उपासना , ज्ञातभाव से हो अथवा अज्ञातभाव से ( consciously or unconsciously), उसी एक लक्ष्य पर पहुँचा देती है अर्थात् उससे कुण्डलिनी जागृत हो जाती है । जो सोचते हैं कि मैंने अपनी प्रार्थना का उत्तर पाया , उन्हें मालूम नहीं कि प्रार्थनारूप मनोवृत्ति के द्वारा वे अपनी ही देह में स्थित अनन्त शक्ति (infinite power) के एक बिन्दु को जगाने में समर्थ हुए हैं । 

अतएव योगी घोषणा करते हैं कि मनुष्य बिना जाने जिसकी विभिन्न नामों से , डरते डरते और कष्ट उठाकर उपासना करता है , उसके पास किस तरह अग्रसर होना होगा , यह जान लेने पर समझ में आ जाएगा कि  प्रत्येक व्यक्ति में कुण्डलीकृत वह यथार्थ शक्ति ही - चिरन्तन सुख की जननी (the mother of eternal happiness-माँ जगदम्बा ) है । अतएव राजयोग यथार्थ धर्मविज्ञान (science of religion) है । वह सारी उपासना , सारी प्रार्थना , विभिन्न प्रकार की साधनपद्धति और समस्त अलौकिक घटनाओं (miracles) की युक्तिसंगत व्याख्या है
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शनिवार, 28 मई 2022

🔆🙏 राजयोग (पंचम अध्याय ) -स्वामी विवेकानन्द : `आध्यात्मिक प्राण का संयम ' 🔆🙏प्राणायाम की ऊँची साधना उच्च गुरु के सानिध्य में ही करनी चाहिए🔆🙏 कामशक्ति का ओजशक्ति में रूपान्तरण🔆🙏

राजयोग 

[ पंचम अध्याय ]  

 " आध्यात्मिक प्राण का संयम " 

CHAPTER- V  

THE CONTROL OF PSYCHIC PRANA

अब हम प्राणायाम की विभिन्न क्रियाओं के सम्बन्ध में चर्चा करेंगे । हमने पहले ही देखा है कि योगियों के मत में साधना का पहला अंग फेफड़े की गति (motion of the lungs) को अपने अधीन करना है । हमारा उद्देश्य है - शरीर के भीतर जो सूक्ष्म गतियाँ हो रही हैं , उनका अनुभव प्राप्त करना । हमारा मन बिलकुल बहिर्मुखी हो गया है , वह भीतर की सूक्ष्म गतियों को बिलकुल नहीं पकड़ सकता

हम जब उनका अनुभव प्राप्त करने में समर्थ होंगे , तो उन पर विजय पा लेंगे । ये स्नायविक शक्ति-प्रवाह (nerve currents) शरीर में सर्वत्र चल रहे हैं ; वे प्रत्येक पेशी में जाकर उसको जीवनी-शक्ति (life and vitality) दे रहे हैं;  किन्तु हम उनका अनुभव नहीं कर पाते । योगियों का कहना है कि प्रयत्न करने पर हम उनका अनुभव प्राप्त करना सीख जाएँगे । कैसे ? पहले फेफड़े की गति पर विजय पाने की चेष्टा करनी होगी । कुछ काल तक यह कर सकने पर हम सूक्ष्मतर गतियों को भी वश में ला सकेंगे । 

अब प्राणायाम की क्रियाओं की चर्चा की जाए । पहले तो , सीधे होकर बैठना होगा । देह को ठीक सीधी रखना होगा । यद्यपि मेरुमज्जा मेरुदण्ड से संलग्न नहीं है , फिर भी वह मेरुदण्ड के भीतर है । टेढ़ा होकर बैठने से वह अस्त - व्यस्त हो जाती है । अतएव देखना होगा कि वह स्वच्छन्द रूप से रहे । टेढ़े बैठकर ध्यान करने की चेष्टा करने से अपनी ही हानि होती है । शरीर के तीनों भाग- वक्ष , ग्रीवा और मस्तक - सदा एक रेखा में ठीक सीधे रखने होंगे । देखोगे , बहुत थोड़े अभ्यास से यह श्वास - प्रश्वास की तरह सहज हो जाएगा । 

इसके बाद स्नायु-केन्द्रों  को वशीभूत करने का प्रयत्न करना होगा । हमने पहले ही देखा है कि जो स्नायु-केन्द्र श्वासप्रश्वास- यन्त्र (respiratory organs) के कार्य को नियमित करता है , वह दूसरे स्नायुओं पर भी कुछ नियंत्रण -प्रभाव डालता है । इसीलिए साँस लेना और साँस छोड़ना लययुक्त (rhythmical -नियमित ) रूप से करना आवश्यक है । हम साधारणतः जिस प्रकार साँस लेते और छोड़ते हैं , वह श्वास - प्रश्वास नाम के ही योग्य नहीं । वह बहुत अनियमित है । फिर स्त्री और पुरुष के श्वास - प्रश्वास में कुछ स्वाभाविक भेद भी है । 

प्राणायाम-साधना की पहली क्रिया यह है : भीतर निर्दिष्ट परिमाण में साँस लो और बाहर निर्दिष्ट परिमाण में साँस छोड़ो । इससे देह सन्तुलित होगी । कुछ दिन तक यह अभ्यास करने के बाद , साँस खींचने और छोड़ने के समय ओंकार अथवा अन्य किसी पवित्र शब्द का (सद्गुरु से प्राप्त बीजमंत्र का ) मन ही मन उच्चारण करने से अच्छा होगा । भारत में , प्राणायाम करते समय हम लोग श्वास के ग्रहण और त्याग की संख्या ठहराने के लिए एक , दो , तीन , चार इस क्रम से न गिनते हुए कुछ सांकेतिक शब्दों का व्यवहार करते हैं । इसीलिए मैं तुम लोगों से प्राणायाम के समय ॐ  अथवा अन्य किसी पवित्र शब्द का व्यवहार करने के लिए कह रहा हूँ । 

चिन्तन करना कि वह शब्द श्वास के साथ लययुक्त और सन्तुलित रूप से बाहर जा रहा है ओर भीतर आ रहा है । ऐसा करने पर तुम देखोगे की सारा शरीर क्रमशः मानो लययुक्त (rhythmical) होता जा रहा है । तभी तुम समझोगे , यथार्थ विश्राम क्या है । उसकी तुलना में निद्रा तो विश्राम ही नहीं । एक बार यह विश्राम की अवस्था आने पर अतिशय थके हुए स्नायु भी शान्त हो जाएँगे और तब तुम जानोगे कि पहले तुमने कभी यथार्थ विश्राम का सुख नहीं पाया

इस साधना का पहला फल यह देखोगे कि तुम्हारे मुख की कान्ति बदलती जा रही है । मुख की शुष्कता या कठोरता का भाव प्रदर्शित करनेवाली रेखाएँ दूर हो जाएँगी । मन की शान्ति मुख से फूटकर बाहर निकलेगी । दूसरे , तुम्हारा स्वर बहुत मधुर हो जाएगा । मैंने ऐसा एक भी योगी नहीं देखा , जिसके गले का स्वर कर्कश हो । कुछ महीने के अभ्यास के बाद ही ये चिह्न प्रकट होने लगेंगे । 

 [राजयोग (पंचम अध्याय) `आध्यात्मिक प्राण का संयम ']

🔆🙏प्राणायाम की ऊँची साधना उच्च गुरु के सानिध्य में ही करनी चाहिए🔆🙏 

इस पहले प्राणायाम का कुछ दिन अभ्यास करने के बाद प्राणायाम की एक दूसरी . ऊँची साधना ग्रहण करनी होगी । वह यह है : इड़ा अर्थात् बायें नथुने द्वारा फेफड़े को धीरे धीरे वायु से पूरा करो । उसके साथ स्नायुप्रवाह में मन को एकाग्र करो , सोचो कि तुम मानो स्नायुप्रवाह को मेरुमज्जा के नीचे भेजकर कुण्डलिनी शक्ति के आधारभूत , मूलाधारस्थित त्रिकोणाकृति पद्म पर बड़े जोर से आघात कर रहे हो । 

इसके बाद इस स्नायुप्रवाह को कुछ क्षण के लिए उसी जगह धारण किये रहो । तत्पश्चात् कल्पना करो कि तुम उस स्नायविक प्रवाह को श्वास के साथ दूसरी ओर से अर्थात् पिंगला द्वारा ऊपर खींच रहे हो । फिर दाहिने नथुने से वायु धीरे धीरे बाहर फेंको । इसका अभ्यास तुम्हारे लिए कुछ कठिन प्रतीत होगा । सहज उपाय है – अँगूठे से दाहिना नथुना बन्द करके बायें नथुने से धीरे धीरे वायु भरो । फिर अँगूठे और तर्जनी से दोनों नथुने बन्द कर लो , और सोचो , मानो तुम स्नायुप्रवाह को नीचे भेज रहे हो और सुषुम्ना के मूलदेश में आघात कर रहे हो । इसके बाद अँगूठा हटाकर दाहिने नथुने द्वारा वायु बाहर निकालो । फिर बायाँ नथुना तर्जनी से बन्द करके दाहिने नथुने से धीरे धीरे वायु - पूरण करो और फिर पहले की तरह दोनों नासिकाछिद्रों को बन्द कर लो । 

हिन्दुओं के समान प्राणायाम का अभ्यास करना इस देश ( अमेरिका ) के लिए कठिन होगा , क्योंकि हिन्दू बाल्य काल से ही इसका अभ्यास करते हैं , उनके फेफडे इससे अभ्यस्त हैं । यहाँ चार सेकन्ड से आरम्भ करके धीरे धीरे बढ़ाने पर अच्छा होगा । चार सेकन्ड तक (पूरक) वायु पूरण करो , (कुम्भक ) सोलह सेकन्ड बन्द करो और फिर (रेचक) आठ सेकन्ड में वायु का रेचन करो । इससे एक प्राणायाम होगा । उस समय मूलाधारस्थ त्रिकोणाकार पद्म पर मन स्थिर करना भूल न जाना । इस प्रकार की कल्पना से तुमको साधना में बड़ी सहायता मिलेगी । 

एक तीसरे प्रकार का प्राणायाम यह है : धीरे धीरे भीतर श्वास खींचो , फिर तनिक भी देर किये बिना धीरे धीरे वायु - रेचन करके बाहर ही श्वास कुछ देर के लिए रुद्ध कर रखो , संख्या पहले की प्राणायाम की तरह है । पूर्वोक्त प्राणायाम और इसमें भेद इतना ही है कि पहले के प्राणायाम में साँस भीतर रोकनी पड़ती है और इसमें बाहर । यह प्राणायाम पहले से सीधा है । जिस प्राणायाम में साँस भीतर रोकनी पड़ती है , उसका अधिक अभ्यास अच्छा नहीं [सावधान -दिमाग बिगड़ सकता है !]  । उसका सबेरे चार बार और शाम को चार बार अभ्यास करो । अनियमित रूप से साधना करने पर तुम्हारा अनिष्ट हो सकता है । 

बाद में धीरे धीरे समय और संख्या बढ़ा सकते हो । तुम क्रमशः देखोगे कि तुम बहुत सहज ही यह कर रहे हो और इससे तुम्हें बहुत आनन्द भी मिल रहा है । अतएव जब देखो कि तुम यह बहुत सहज ही कर रहे हो , तब बड़ी सावधानी और सतर्कता के साथ संख्या चार से छह बढ़ा सकते हो । 

उपर्युक्त तीन प्रक्रियाओं में से पहली और अन्तिम क्रियाएँ कठिन भी नहीं और उनसे किसी प्रकार की विपत्ति की आशंका भी नहीं । पहली क्रिया का जितना अभ्यास करोगे , उतना ही तुम शान्त होते जाओगे । उसके साथ ओंकार जोड़कर अभ्यास करो , देखोगे , जब तुम दूसरे कार्य में लगे हो , तब भी तुम उसका अभ्यास कर सकते हो । इस क्रिया के फल से देखोगे , तुम अपने को सभी बातों में अच्छा ही महसूस कर रहे हो । 

इस तरह कठोर साधना करते करते एक दिन तुम्हारी कुण्डलिनी जग जाएगी । जो दिन में केवल एक या दो बार अभ्यास करेंगे , उनके शरीर और मन कुछ स्थिर भर हो जाएँगे और उनका स्वर मधुर हो जाएगा । परन्तु जो कमर बाँधकर साधना के लिए आगे बढ़ेंगे , उनकी कुण्डलिनी जागृत हो जाएगी , उनके लिए सारी प्रकृति एक नया रूप धारण कर लेगी , उनके लिए ज्ञान का द्वार खुल जाएगा । तब फिर ग्रन्थों में तुम्हें ज्ञान की खोज न करनी होगी । तुम्हारा मन ही तुम्हारे निकट अनन्त ज्ञानविशिष्ट पुस्तक का काम करेगा । 

मैंने मेरुदण्ड के दोनों ओर से प्रवाहित इड़ा और पिंगला नामक दो शक्तिप्रवाहों का पहले ही उल्लेख किया है , और मेरुमज्जा के बीच से जानेवाली सुषुम्ना की बात भी कही है । यह इड़ा , पिंगला और सुषुम्ना प्रत्येक प्राणी में विद्यमान है । जिनके मेरुदण्ड है , उन सभी के भीतर ये तीन प्रकार की भिन्न भिन्न क्रियाप्रणालियाँ मौजूद हैं । परन्तु योगी कहते हैं , साधारण जीव में यह सुषुम्ना बन्द रहती है , उसके भीतर किसी तरह की क्रिया का अनुभव नहीं किया जा सकता ; किन्तु इड़ा और पिंगला नाड़ियों का कार्य , अर्थात् शरीर के विभिन्न भागों में शक्तिवहन करना , सभी प्राणियों में होता रहता है । 

Verily, verily I say unto thee, except a man born be born again, he cannot see the Kingdom of God.

केवल योगी में यह सुषुम्ना खुली रहती है । यह सुषुम्नाद्वार खुलने पर उसके भीतर से स्नायविक शक्तिप्रवाह जब ऊपर चढ़ता है , तब चित्त उच्च से उच्चतर भूमि पर उठता जाता है , और अन्त में हम अतीन्द्रिय राज्य में चले जाते हैं । हमारा मन तब अतीन्द्रिय , अतिचेतन अवस्था प्राप्त कर लेता है । तब हम बुद्धि के अतीत प्रदेश में चले जाते हैं ; वहाँ तर्क नहीं पहुँच सकता

 इस सुषुम्ना को खोलना ही योगी का एकमात्र उद्देश्य है । ऊपर जिन शक्तिवहन केन्द्रों का उल्लेख किया गया है , योगियों के मत में वे सुषुम्ना में ही अवस्थित हैं । रूपक की भाषा में उन्हीं को पद्म कहते हैं । सब से नीचेवाला पद्म सुषुम्ना रीढ़ की हड्डी (spinal cord) के सब से निचले भाग में अवस्थित है । उसका नाम है मूलाधार । इसके बाद दूसरा है स्वाधिष्ठान । तीसरा मणिपूर। फिर चौथा अनाहत , पाँचवाँ विशुद्ध , छठा आज्ञा चक्र और सातवाँ है सहस्रार या सहस्रदल पद्म । यह सहस्रार  सब से ऊपर,मस्तिष्क में स्थित है।  

 [राजयोग (पंचम अध्याय) `आध्यात्मिक प्राण का संयम ']

🔆🙏कामशक्ति का ओजशक्ति में रूपान्तरण🔆🙏 

अभी इनमें से केवल दो केन्द्रों (चक्रों) की बात हम लेंगे - सब से नीचेवाले मूलाधार  की और सब से ऊपरवाले सहस्रार की। सब से नीचेवाला चक्र (Mulâdhâra) ही समस्त शक्ति का अधिष्ठान है, और उस शक्ति को उस जगह से उठाकर  मस्तिष्कस्थ सर्वोच्च चक्र ( “the thousand-petalled”) पर ले जाना होगा

 योगी दावा करते हैं कि मनुष्यदेह में जितनी शक्तियाँ हैं , उनमें ओज सब से उत्कृष्ट कोटि की शक्ति है । यह ओज मस्तिष्क में संचित रहता है । जिसके मस्तिष्क में ओज जितने अधिक परिमाण में रहता है , वह उतना ही अधिक बुद्धिमान् और आध्यात्मिक बल से बली (spiritually strong) होता है । एक व्यक्ति बड़ी सुन्दर भाषा में सुन्दर भाव व्यक्त करता है , परन्तु लोग आकृष्ट नहीं होते । और दूसरा व्यक्ति न सुन्दर भाषा बोल सकता है , न सुन्दर ढंग से भाव व्यक्त कर सकता है , परन्तु फिर भी लोग उसकी बात से मुग्ध हो जाते हैं । 

वह जो कुछ कार्य करता है , उसी में महाशक्ति का विकास देखा जाता है । ऐसी है ओज की शक्ति ! यह ओज , थोड़ी - बहुत मात्रा में , सभी मनुष्यों में विद्यमान है । शरीर में जितनी शक्तियाँ क्रियाशील हैं , उनका उच्चतम विकास यह ओज है । यह हमें सदा याद रखना चाहिए कि सवाल केवल रूपान्तरण का है - एक ही शक्ति (काम) दूसरी शक्ति (ओज ) में परिणत हो जाती है । बाहरी संसार में जो शक्ति विद्युत् अथवा चुम्बकीय शक्ति के रूप में प्रकाशित हो रही है , वही क्रमशः आभ्यन्तरिक शक्ति में परिणत हो जाएगी । आज जो शक्तियाँ पेशियों में कार्य कर रही हैं , वे ही कल ओज के रूप में परिणत हो जाएँगी । योगी कहते हैं कि मनुष्य में जो शक्ति कामक्रिया कामचिन्तन आदि रूपों में प्रकाशित हो रही है , उसका दमन करने पर वह सहज ही ओज में परिणत हो जाती है । 

और हमारे शरीर का सब से नीचेवाला केन्द्र ही इस शक्ति का नियामक होने के कारण योगी इसकी ओर विशेष रूप से ध्यान देते हैं । वे सारी कामशक्ति को ओज में परिणत करने का प्रयत्न करते हैं । कामजयी स्त्री - पुरुष ही इस ओज को मस्तिष्क में संचित कर सकते हैं । इसीलिए ब्रह्मचर्य ही सदैव सर्वश्रेष्ठ धर्म माना गया है । मनुष्य यह अनुभव करता है कि अगर वह कामुक हो , तो उसका सारा धर्मभाव चला जाता है , चरित्रबल और मानसिक तेज नष्ट हो जाता है

इसी कारण , देखोगे , संसार में जिन जिन सम्प्रदायों में बड़े बड़े धर्मवीर पैदा हुए हैं , उन सभी सम्प्रदायों ने ब्रह्मचर्य पर विशेष जोर दिया है । इसीलिए विवाहत्यागी संन्यासियों की उत्पत्ति हुई है । संन्यासियों के इस इस ब्रह्मचर्य का पूर्ण रूप से- तन - मन - वचन से पालन करना नितान्त आवश्यक है । 

ब्रह्मचर्य के बिना राजयोग की साधना बड़े खतरे की है ; क्योंकि उससे अन्त में मस्तिष्क में विषम विकार पैदा हो सकता है यदि कोई राजयोग का अभ्यास करे और साथ ही अपवित्र जीवन - यापन करे , तो वह भला किस प्रकार योगी होने की आशा कर सकता है ?

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🔆🙏राजयोग [छठा अध्याय] प्रत्याहार और धारणा - स्वामी विवेकानन्द 🔆🙏अस्वाभाविक प्रत्याहार (morbid Pratyahara)🔆🙏 मन को विभिन्न इन्द्रियों (स्नायुकेन्द्रों) के साथ संयुक्त न होने देना ही प्रत्याहार है🔆🙏मन को इन्द्रिय विषयों से खींचकर स्थानविशेष में धारण करना ही धारणा है🔆🙏आहार-शुद्धि🔆🙏शुक्ति ( pearl oyster) के समान बनो !-स्वाध्याय का महत्व- 🔆🙏ब्रह्मवेत्ता मनुष्य - 'बनो और बनाओ' 🔆🙏

 राजयोग 

षष्ठ अध्याय 

🔆🙏प्रत्याहार और धारणा 🔆🙏 

RAJA YOGA  : CHAPTER VI 

 PRATYAHARA AND DHARANA

प्राणायाम के बाद प्रत्याहार की साधना करनी पड़ती है । प्रत्याहार क्या है ? तुम सभी को ज्ञात है कि विषयानुभूति (perception) किस तरह होती है । सब से पहले , इन्द्रियों के द्वारस्वरूप ये बाहर के यन्त्र (external instruments) हैं । फिर हैं इन्द्रियाँ ( internal organs) , जो मस्तिष्क में स्थित स्नायुकेन्द्रों (brain centres) की सहायता से शरीर पर कार्य करती हैं । इसके बाद है मन । जब ये समस्त एकत्र होकर किसी बाहरी वस्तु (external object) के साथ संलग्न होते हैं , तभी हम उस वस्तु का अनुभव कर सकते हैं । किन्तु मन को एकाग्र करके केवल किसी एक ही इन्द्रिय से संयुक्त कर रखना बहुत कठिन है , क्योंकि मन ( विषयों का ) दास है । 

हम संसार में सर्वत्र देखते हैं कि सभी यह शिक्षा दे रहे हैं -'अच्छे बनो ' , ' अच्छे बनो ' , ' अच्छे बनो-“Be good”। ' संसार में शायद किसी देश में ऐसा बालक नहीं पैदा हुआ , जिसे  “Do not tell a lie,” मिथ्याभाषण न करने ,“Do not steal,” चोरी न करने-- आदि की शिक्षा नहीं मिली।  परन्तु कोई उसे यह शिक्षा नहीं देता कि वह इन अशुभ कर्मों से किस प्रकार बचे ? केवल बात करने से काम नहीं बनता । वह चोर क्यों न बने? हम तो उसको चोरी से निवृत्त होने की शिक्षा नहीं देते , उससे बस , इतना ही कह देते हैं , ' चोरी मत करो । ' [मन लगाकर पढ़ो , यदि उसे मन लगाकर पढ़ने का उपाय सिखाया जाये],  यदि उसे मनःसंयम का उपाय सिखाया जाए , तभी वह यथार्थ में शिक्षा प्राप्त कर सकता है, और वही उसकी सच्ची सहायता और उपकार है । 

जब हमारा मन इन्द्रिय नामक भिन्न भिन्न स्नायुकेन्द्रों से संलग्न रहता है , तभी समस्त बाह्य और आभ्यन्तरिक कर्म होते हैं । इच्छापूर्वक अथवा अनिच्छापूर्वक मनुष्य अपने मन को भिन्न भिन्न ( इन्द्रिय नामक ) केन्द्रों में संलग्न करने को बाध्य होता है । इसीलिए मनुष्य अनेक प्रकार के दुष्कर्म करता ( foolish deeds)  है और बाद में कष्ट पाता है । मन यदि हमारे वश में रहता , तो मनुष्य कभी अनुचित कर्म न करता । मन को संयत करने का फल क्या है ? यही कि मन संयत हो जाने पर वह फिर, मनमाने ढंग से , बिना हमारी अनुमति के (विवेक के) विषयों का अनुभव करनेवाली भिन्न भिन्न इन्द्रियों के साथ अपने को संयुक्त न करेगा । और ऐसा होने पर सब प्रकार की भावनाएँ और इच्छाएँ हमारे वश में आ जाएँगी । यहाँ तक तो बहुत स्पष्ट है । 

{राजयोग [छठा अध्याय] प्रत्याहार और धारणा } 

🔆🙏अस्वाभाविक प्रत्याहार (morbid Pratyahara)🔆🙏

अब प्रश्न यह है , क्या यह सम्भव है ? क्या मन को पूरी तरह से अपने वश में करना सम्भव है ? हाँ , यह सम्पूर्ण रूप से सम्भव है । तुम लोग वर्तमान समय में भी इसका कुछ आभास पा रहे हो, विश्वास के बल से आरोग्यलाभ करानेवाला सम्प्रदाय (faith-healers)  दुःख , कष्ट , अशुभ आदि के अस्तित्व को बिलकुल अस्वीकार कर देने (deny) की शिक्षा देता है । इसमें सन्देह नहीं कि इनके दर्शन में बहुत कुछ पेंचदार (roundabout-गोलमाल) है , तथापि यह आस्था चिकित्सा (faith-healing) भी योग का ही एक अंश है।  किसी तरह उन लोगों ने अचानक उसका ज्ञान प्राप्त कर लिया है । यदि वे दुःख - कष्ट के अस्तित्व को अस्वीकार करने की शिक्षा देकर, लोगों के दुःख दूर करने में सफल होते हैं; तो हमें यही समझना होगा कि उन्होंने वास्तव में प्रत्याहार की ही कुछ शिक्षा दी है।  क्योंकि उन्होंने उस व्यक्ति के मन को इतना अधिक सबल बना दिया हैं कि वह अब इन्द्रियों की गवाही पर भी विश्वास नहीं करता । 

[Is it possible? It is perfectly possible. You see it in modern times; the faith-healers teach people to deny misery and pain and evil. Their philosophy is rather roundabout, but it is a part of Yoga upon which they have somehow stumbled. Where they succeed in making a person throw off suffering by denying it, they really use a part of Pratyahara, as they make the mind of the person strong enough to ignore the senses. ]

सम्मोहनकारी व्यक्ति ( hypnotists ) इसी प्रकार , सम्मोहक संकेत ( hypnotyic suggestion ) द्वारा कुछ देर के लिए अपने सम्मोहित व्यक्तियों को एक प्रकार के अस्वाभाविक प्रत्याहार (morbid Pratyahara) से उद्दीप्त करते हैं । जिसे साधारणतः सम्मोहक संकेत (hypnotic suggestion) कहते हैं , वह केवल कमजोर मन पर ही अपना प्रभाव फैला सकता है । सम्मोहनकारी जब तक स्थिर दृष्टि ( हिलते हुए लॉकेट पर fixed gaze) अथवा अन्य किसी उपाय द्वारा अपने सम्मोहित व्यक्ति के मन को निष्क्रिय , जड़तुल्य अस्वाभाविक अवस्था में नहीं ले जा सकता , तब तक वह चाहे जो कुछ सोचने , सुनने या देखने का आदेश दे , उसका कोई फल न होगा । 

सम्मोहनकारी या विश्वास के बल से आरोग्य करानेवाले `आस्था चिकित्सक' (the operator of faith-healing) थोड़े समय के लिए जो अपने सम्मोहित व्यक्तियों के शरीरस्थ स्नायुकेन्द्रों  (इन्द्रियों ) को वशीभूत कर लेते हैं , वह अत्यन्त निन्दनीय कर्म है , क्योंकि वह उस पेशेन्ट को अन्त में सर्वनाश के रास्ते ले जाता है ।  यह कोई अपनी इच्छाशक्ति के बल से अपने मस्तिष्क-स्थित स्नायु -केन्द्रों का संयम तो है नहीं , यह तो दूसरे की इच्छाशक्ति के एकाएक दिए गए प्रबल आघात से सम्मोहित व्यक्ति के मन को कुछ समय के लिए मानो जड़ कर रखना है ।
इस प्रकार का अस्वाभाविक प्रत्याहार (morbid Pratyahara)  लगाम और बाहुबल की सहायता से , गाड़ी खींचनेवाले उच्छृंखल घोड़ों की उन्मत्त गति को संयत करना नहीं है , वरन् दूसरों को उन अश्वों पर तीव्र आघात करने को कहकर,  उनको कुछ समय के लिए सुन्न (stun) बना कर रखना है । 

आस्था आरोग्यक (faith healer) उस व्यक्ति (माध्यम) पर यह प्रक्रिया जितनी की जाती है , उतना ही वह अपने मन की शक्ति क्रमशः खोने लगता है।  और अन्त में , मन को पूर्ण रूप से जीतना तो दूर रहा , उसका मन बिलकुल शक्तिहीन और विचित्र जड़पिण्ड सा हो जाता है तथा पागलखाने में ही उसकी चरम गति आ ठहरती है । अपने मन को स्वयं अपने मन की सहायता से वश में लाने की चेष्टा के बदले इस प्रकार दूसरे की इच्छा से प्रेरित होकर मन का संयम करना अनिष्टकारक ही नहीं है , वरन् जिस उद्देश्य से वह कार्य किया जाता है , वह भी सिद्ध नहीं होता।

प्रत्येक जीवात्मा का चरम लक्ष्य है मन की गुलामी से मुक्ति या स्वाधीनता - जड़वस्तु और चित्तवृत्ति के दासत्व से मुक्तिलाभ करके, उन पर प्रभुत्व स्थापित करना , बाह्य और अन्तःप्रकृति पर अधिकार जमाना ।  किन्तु अपने मन पर प्रभुत्व स्थापित करने की दिशा में सहायता करने की बात तो अलग रही , दूसरे व्यक्ति द्वारा प्रयुक्त इच्छाशक्ति का प्रवाह हमारे चित्त पर लगी हुई पुराने संस्कारों और भ्रान्त धारणाओं की भारी बेड़ी में एक और कड़ी जोड़ देता है। - फिर वह इच्छाशक्ति हम पर किसी भी रूप से क्यों न प्रयुक्त हो , चाहे उससे हमारी इन्द्रियाँ प्रत्यक्ष वशीभूत हो जाएँ , चाहे वह एक प्रकार की अस्वाभाविक विकृतावस्था में लाकर हमें इन्द्रियों को संयत करने के लिए बाध्य करे । 

इसलिए सावधान ! (Therefore, beware! ) दूसरे को अपने ऊपर इच्छाशक्ति का संचालन न करने देना । अथवा दूसरे पर ऐसी इच्छाशक्ति का प्रयोग करके अनजाने में उसका सत्यानाश मत कर देना ।  यह सत्य है कि कोई कोई लोग कुछ व्यक्तियों की प्रवृत्ति (propensities) का मोड़ फेर कर कुछ दिनों के लिए तो उनका कुछ कल्याण करने में सफल हो जाते हैं। परन्तु साथ ही वे दूसरों पर इस सम्मोहनशक्ति का प्रयोग करके , बिना जाने , लाखों नर - नारियों को एक प्रकार से विकृत जड़ावस्थापन कर डालते हैं , जिसके परिणामस्वरूप उन सम्मोहित व्यक्तियों की आत्मा का अस्तित्व तक मानो लुप्त हो जाता है।

इसलिए जो कोई भी व्यक्ति किसी से किसी बातपर ऑंखें मूँदकर विश्वास करने को कहता है , अथवा अपनी श्रेष्ठतर इच्छाशक्ति के बल से लोगों को वशीभूत करके अपना अनुसरण करने के लिए बाध्य करता है , वह मनुष्यजाति का भारी अनिष्ट करता है - भले ही वह उसे इच्छापूर्वक न करता हो ।

अतएव अपने मन का संयम करने के लिए सदा अपने ही मन की सहायता लो , और यह सदा याद रखो कि तुम यदि रोगग्रस्त नहीं हो , तो कोई भी बाहरी इच्छाशक्ति तुम पर कार्य न कर सकेगी । जो व्यक्ति तुमसे अन्धे के समान विश्वास कर लेने को कहता है , उससे दूर ही रहो, वह चाहे कितना भी बड़ा आदमी या साधु क्यों न हो । संसार के सभी भागों में ऐसे बहुत से सम्प्रदाय हैं , (जैसे मतुआ सम्प्रदाय ?) जिनके धर्म के प्रधान अंग नाच - गान , उछल - कूद , चिल्लाना आदि हैं । वे जब संगीत , नृत्य और प्रचार करना आरम्भ करते हैं , तब उनके भाव मानो संक्रामक रोग की तरह लोगों के अन्दर फैल जाते हैं । वे भी एक प्रकार के सम्मोहनकारी हैं । 

वे थोड़े समय के लिए भावुक व्यक्तियों पर गजब का प्रभाव डाल देते हैं । पर हाय ! परिणाम यह होता है कि सारी जाति अधःपतित हो जाती है । इस प्रकार की अस्वाभाविक बाहरी शक्ति के बल से किसी व्यक्ति या जाति के लिए ऊपर ऊपर अच्छी होने की अपेक्षा ,अच्छी न रहना ही बेहतर है। और वह स्वास्थ्य का लक्षण है । इन धर्मोन्मत्त व्यक्तियों का उद्देश्य अच्छा भले ही हो , परन्तु इनको किसी उत्तरदायित्व का ज्ञान नहीं । 

इन लोगों द्वारा मनुष्य का जितना अनिष्ट होता है , उसका विचार करते ही हृदय स्तब्ध हो जाता है । वे नहीं जानते कि जो व्यक्ति संगीत , स्तव आदि की सहायता से - उनकी शक्ति के प्रभाव से इस तरह एकाएक भगवद्-भाव में मत्त हो जाते हैं , वे अपने को केवल जड़ , विकृतिग्रस्त और शक्तिहीन बना लेते हैं और सहज ही किसी भी भाव के वश में हो जाते हैं- फिर वह भाव कितना भी बुरा क्यों न हो । उसका प्रतिरोध करने की उनमें तनिक भी शक्ति नहीं रह जाती । इन अज्ञ , आत्मवंचित व्यक्तियों के मन में यह स्वप्न में भी नहीं आता कि वे एक ओर जहाँ यह कहकर हर्षोत्फुल्ल हो रहे हैं कि उनमें मनुष्य हृदय को परिवर्तित कर देने की अद्भुत शक्ति है -जिस शक्ति के सम्बन्ध में वे सोचते हैं कि वह बादल के ऊपर अवस्थित किसी पुरुष से उन्हें मिली है - वहाँ साथ ही वे भावी मानसिक अवनति , पाप , उन्मत्तता और मृत्यु के बीज भी बो रहे हैं । 

अतएव , जिससे तुम्हारी स्वाधीनता नष्ट होती हो , ऐसे सब प्रकार के प्रभावों से (तांत्रिकों से) सतर्क रहो। ऐरो प्रभावों को भयानक विपत्ति से भरा जानकर प्राणपण से उनसे दूर रहने की चेष्टा करो । 
 
{राजयोग [छठा अध्याय] प्रत्याहार और धारणा }
 
🔆🙏 मन को विभिन्न इन्द्रियों (स्नायुकेन्द्रों) के साथ संयुक्त न होने देना ही प्रत्याहार है🔆🙏 

जो इच्छा मात्र से अपने मन को मस्तिष्क में स्थित स्नायु केन्द्रों में संलग्न करने अथवा उनसे हटा लेने में सफल हो गया है , उसी का प्रत्याहार सिद्ध हुआ है । प्रत्याहार का अर्थ है , एक ओर आहरण करना “gathering towards,”--अर्थात् खींचना - मन की बहिर्गति को रोककर इन्द्रियों की अधीनता से मन को मुक्त करके उसे भीतर की ओर खींचना । इस प्रत्याहार में सफल होने पर ही हम यथार्थ चरित्रवान मनुष्य बन सकते हैं। और तभी समझेंगे कि हम मुक्ति के मार्ग में बहुत दूर बढ़ गये हैं । इससे पहले हम तो मशीन मात्र हैं । 

मन को संयत करना कितना कठिन है । इसकी एक सुसंगत उपमा उन्मत्त वानर (maddened monkey) से दी गयी है । कहीं एक वानर था । वह स्वभावतः चंचल था , जैसे कि वानर होते हैं । लेकिन उतने से सन्तुष्ट न हो , एक आदमी ने उसे काफी शराब पिला दी । इससे वह और भी चंचल हो गया । इसके बाद उसे एक बिच्छू ने डंक मार दिया । तुम जानते हो , किसी को बिच्छू डंक मार दे , तो वह दिन भर इधर उधर कितना तड़पता रहता है । सो उस प्रमत्त अवस्था के ऊपर बिच्छू का डंक ! इससे वह बन्दर बहुत अस्थिर हो गया । 

तत्पश्चात् मानो उसके दुःख की मात्रा को पूरी करने के लिए एक भूत उस पर सवार हो गया । यह सब मिलाकर , सोचो , बन्दर कितना चंचल हो गया होगा । यह भाषा द्वारा व्यक्त करना असम्भव है । बस , मनुष्य का मन उस वानर के सदृश है । मन तो स्वभावतः ही सतत् चंचल है , फिर वह वासनारूप मदिरा ( wine of desire) से मत्त है , इससे उसकी अस्थिरता बढ़ गयी है । जब वासना आकर मन पर अधिकार कर लेती है , तब सुखी लोगों को देखने पर ईर्ष्यारूप बिच्छू उसे डंक मारता रहता है । उसके भी ऊपर जब अहंकार का भूत उसके भीतर प्रवेश करता है , तब तो वह अपने आगे किसी को नहीं गिनता । ऐसी तो हमारे मन अवस्था है ! सोचो तो , इसका संयम करना कितना कठिन है

अतएव मन के संयम का पहला सोपान यह है कि, तुम कुछ समय के लिए चुप्पी साधकर बैठे रहो और मन को अपने अनुसार चलने दो ! तब तुम देखोगे कि तुम्हारा मन सतत चंचल है ;और वह भी बन्दर की तरह सदा कूद - फाँद कर रहा है  -` Let the monkey jump as much as he can ! '  यह मनमर्कट जितनी इच्छा हो , उछल - कूद मचाए , कोई हानि नहीं , धीरज धरकर प्रतीक्षा करो और मन की गति को देखते जाओ । लोग जो कहते हैं कि ज्ञान ही यथार्थ शक्ति है ( Knowledge is power), यह बिलकुल सत्य है ।`Until you know what the mind is doing you cannot control it. ' --जब तक  तुम यह न जान लो कि तुम्हारा मन अभी कहाँ है और क्या कर रहा है, तब तक तुम उसका संयम न कर सकोगे । अतः मन को इच्छानुसार इन्द्रिय विषयों में घूमने दो । लगाम को ढीली छोड़ दो। सम्भव है , बहुत बुरी बुरी भावनाएँ तुम्हारे मन में आएँ । 

तुम्हारे मन में इतनी असत् भावनाएँ आ सकती हैं कि तुम सोचकर आश्चर्यचकित हो जाओगे । परन्तु देखोगे , मन के ये सब खेल दिन पर दिन कम होते जा रहे हैं , दिन पर दिन मन कुछ कुछ स्थिर होता जा रहा है ।  पहले कुछ महीने देखोगे , तुम्हारे मन में हजारों विचार आएँगे , क्रमशः वह संख्या घटकर सैकड़ों तक रह जाएगी । फिर कुछ और महीने बाद वह और भी घट जाएगी , और अन्त में मन पूर्ण रूप से अपने वश में आ जाएगा । पर हाँ , हमें प्रतिदिन धैर्य के साथ अभ्यास करना होगा । 

जब तक विषय हमारे सामने हैं , तब तक हम उन्हें देखेंगे ही। जब तक इंजन के भीतर भाप रहेगी, तब तक वह चलता ही रहेगा।  (As soon as the steam is turned on ? the engine must run.) अतएव ,यह प्रमाणित करने के लिए कि " मनुष्य इंजन की तरह एक मशीन मात्र नहीं है", यह दिखाना आवश्यक है कि वह किसी इन्द्रिय-विषय  (रूप, रस, गंध , शब्द और स्पर्श) का गुलाम नहीं है । इस प्रकार मन का संयम करना और उसे विभिन्न इन्द्रियों के साथ (स्नायुकेन्द्रों के साथ) संयुक्त न होने देना ही प्रत्याहार है । इसके अभ्यास का क्या उपाय है ? यह एक - दो दिन का काम नहीं , बहुत दिनों तक लगातार इसका अभ्यास करना होगा । धीरज धरकर लगातार बहुत वर्षों तक अभ्यास करने पर तब कहीं इस विषय में सफलता मिल पाती है

{राजयोग [छठा अध्याय] प्रत्याहार और धारणा }

🔆🙏मन को इन्द्रिय विषयों से खींचकर स्थानविशेष में धारण करना ही धारणा है🔆🙏 
 
कुछ काल तक प्रत्याहार की साधना करने के बाद , उसके बाद की साधना , अर्थात् धारणा का अभ्यास करने का प्रयत्न करना होगा । धारणा का अर्थ है . -मन को देह के भीतर या उसके बाहर किसी स्थानविशेष में धारण या स्थापन करना । मन को स्थानविशेष में धारण करने का अर्थ क्या है ? इसका अर्थ यह है कि मन को शरीर के अन्य सब स्थानों से अलग करके किसी एक विशेष अंश के अनुभव में बलपूर्वक लगाए रखना । मान लो, मैंने मन को हाथ में धारण किया । तब शरीर के अन्यान्य अवयव विचार के विषय के बाहर हो जाएँगे । 

जब चित्त अर्थात् मन-वस्तु (mind-stuff , जिससे मन बनता है)  किसी निर्दिष्ट स्थान में आबद्ध होती है , तब उसे धारणा कहते हैं । यह धारणा अनेक प्रकार की है । इस धारणा के अभ्यास के समय कल्पना के खेल (play of the imagination) की सहायता लेने से काम अच्छा सधता है। मान लो , हमें हृदय में एक बिन्दु की कल्पना करके में मन को उसी बिन्दु में धारण करने की चेष्टा करनी हो । तो हम पायेंगे इसे कार्य में परिणत करना बड़ा कठिन है । अतएव सहज उपाय यह है कि हृदय में एक `अष्टदल रक्तवर्ण कमल '  की भावना करो और कल्पना करो कि वह ज्योति से पूर्ण है –चारों ओर उस ज्योति की आभा बिखर रही है। उसी जगह मन की धारणा करो । अथवा मस्तिष्क में स्थित सहस्रदल कमल को अथवा पूर्वोक्त सुषुम्ना नाड़ी में स्थित विभिन्न चक्रों के पद्म को ज्योतिर्मय रूप से सोचो । 

योगी के लिए नियमित अभ्यास आवश्यक है । योगी को अकेले रहने का (या निर्जन-वास का) प्रयत्न करना होगा । विभिन्न प्रकार के मनुष्यों के साथ रहने से चित्त विक्षिप्त हो जाता है । उनका अधिक बातचीत करना उचित नहीं ; अधिक बातचीत करने से मन चंचल हो जाता है । अधिक काम करना भी अच्छा नहीं , क्योंकि इससे भी मन डाँवाडोल रहता है ; सारे दिन की कड़ी मेहनत के बाद मन का संयम नहीं हो सकता । जो उपर्युक्त नियमों के अनुसार चलते हैं , वे ही योगी हो सकते हैं ।

योग की ऐसी अद्भुत शक्ति है कि बहुत थोड़ी मात्रा में भी उसका अभ्यास करने पर बहुत अधिक फल प्राप्त होता है । इससे किसी का अनिष्ट नहीं होता , वरन् इससे सब का उपकार ही होता है । पहले तो , स्नायविक उत्तेजना शान्त हो जाएगी , मन शान्त भाव धारण करेगा और समस्त विषयों को अत्यन्त स्पष्ट रूप से देखने और समझने की शक्ति आएगी । मिजाज अच्छा रहेगा , स्वास्थ्य भी क्रमशः उत्तम हो जाएगा । योगाभ्यास करने पर जो चिह्न योगियों में प्रकट होते हैं , देह की स्वस्थता उनमें प्रथम है । स्वर भी मधुर हो जाएगा , स्वर में जो कुछ दोष है , सब निकल जाएगा । और भी अनेक प्रकार के चिह्न प्रकट होंगे; पर ये ही प्रथम हैं ।

 
जो बहुत अधिक साधना करते हैं , उनमें और भी दूसरे लक्षण प्रकट होते हैं । कभी कभी घण्टाध्वनि की तरह की ध्वनि सुन पड़ेगी , मानो दूर बहुत से घण्टे बज रहे हैं, या बाँसुरी बज रही है,  और वे सारी ध्वनियाँ मिलकर कानों में लगातार आघात कर रही हैं । कभी कभी देखोगे , आलोक के छोटे छोटे कण हवा में तैर रहे हैं और क्रमशः कुछ कुछ बड़े होते जा रहे हैं । जब ये लक्षण प्रकट होंगे , तब समझना कि तुम द्रुतगति से साधना में उन्नति कर रहे हो । 

{राजयोग [छठा अध्याय] प्रत्याहार और धारणा }

🔆🙏आहार-शुद्धि🔆🙏
 
जो योगी होने की इच्छा करते हैं और कठोर अभ्यास करते हैं , उन्हें पहली अवस्था में आहार के सम्बन्ध में कुछ विशेष सावधानी रखनी होगी । जो शीघ्र उन्नति करने की इच्छा करते हैं , वे यदि कुछ महीने केवल दूध और अन्न आदि निरामिष भोजन पर रह सकें , तो उन्हें साधना में बड़ी सहायता मिलेगी । किन्तु जो लोग दूसरे दैनिक कामों के साथ थोड़ा - बहुत अभ्यास करना चाहते हैं , उनके लिए अधिक भोजन न करने से (ही काम बन जाएगा । उन्हें खाद्य के सम्बन्ध में उतना विचार करने की आवश्यकता नहीं , वे जो इच्छा हो , वही खा सकते हैं । जो कठोर अभ्यास करके शीघ्र उन्नति करना चाहते हैं , उन्हें आहार के सम्बन्ध में विशेष सावधान रहना चाहिए ।

देहयन्त्र धीरे धीरे जितना ही सूक्ष्म होता जाता है , उतना ही तुम देखोगे कि एक सामान्य अनियम से भी तुम अपना सन्तुलन खो बैठते हो । जब तक मन पर सम्पूर्ण अधिकार नहीं हो जाता , तब तक आहार में एक ग्रास की अल्पता या अधिकता सम्पूर्ण देहयन्त्र को बिलकुल अप्रकृतिस्थ कर देगी । 

मन के पूर्ण रूप से अपने वश में आने के बाद जो इच्छा हो , खाया जा सकता के मन को एकाग्र करना आरम्भ करने पर देखोगे कि एक सामान्य पिन गिरने से ही ऐसा मालूम होगा कि मानो तुम्हारे मस्तिष्क में से वज्र पार हो गया । इन्द्रिययन्त्र जितने सूक्ष्म होते जाते हैं , अनुभूति भी उतनी ही सूक्ष्म होती जाती है । इन्हीं सब अवस्थाओं में से होते हुए हमें क्रमशः अग्रसर होना होगा । और जो लोग अध्यवसाय के साथ अन्त तक लगे रह सकते हैं , वे ही कृतकार्य होंगे ।

{राजयोग [छठा अध्याय] प्रत्याहार और धारणा }

🔆🙏शुक्ति ( pearl oyster) के समान बनो !-स्वाध्याय का महत्व- 🔆🙏

सब प्रकार के तर्क और चित्त में विक्षेप उत्पन्न करनेवाली बातों को दूर कर देना होगा । शुष्क और निरर्थक तर्कपूर्ण प्रलाप से क्या होगा ? वह केवल मन के साम्यभाव को नष्ट करके उसे चंचल भर कर देता है । इन सब तत्त्वों की उपलब्धि की जानी चाहिए । केवल बातों से क्या होगा ? अतएव सब प्रकार की बकवास छोड़ दो । जिन्होंने प्रत्यक्ष अनुभव किया है , केवल उन्हीं के लिखे ग्रन्थ पढ़ो

शुक्ति के समान बनो ! भारतवर्ष में एक सुन्दर किंवदन्ती प्रचलित है । वह यह कि आकाश में स्वाति नक्षत्र के तुंगस्थ रहते यदि पानी गिरे और उसकी एक बूँद किसी सीपी में चली जाए , तो उसका मोती बन जाता है । सीपियों को यह मालूम है । अतएव जब वह नक्षत्र उदित होता है , तो वे सीपियाँ पानी की ऊपरी सतह पर आ जाती हैं , और उस समय की एक अनमोल बूँद की प्रतीक्षा करती रहती हैं । ज्यों ही एक बूँद पानी उनके पेट में जाता है , त्योंही उस जलकण को लेकर मुँह बन्द करके वे समुद्र के अथाह गर्भ में चली जाती हैं , और वहाँ बड़े धैर्य के साथ उनसे मोती तैयार करने के प्रयत्न में लग जाती हैं । हमें भी उन्हीं सीपियों की तरह होना होगा । 

पहले सुनना होगा , फिर समझना होगा , अन्त में बाहरी संसार से दृष्टि बिलकुल हटाकर , सब प्रकार की विक्षेपकारी बातों से दूर रहकर हमें अन्तर्निहित सत्यतत्त्व के विकास के लिए प्रयत्न करना होगा । एक भाव को नया कहकर ग्रहण करके , उसकी नवीनता चली जाने पर फिर एक दूसरे नये भाव का आश्रय लेना - इस प्रकार बारम्बार करने से तो हमारी सारी शक्ति ही इधर उधर बिखर जाएगी । एक भाव को पकड़ो , उसी को लेकर रहो । उसका अन्त देखे बिना उसे मत छोड़ो । 

जो एक भाव लेकर उसी में मत्त रह सकते हैं , उन्हीं के हृदय में सत्यतत्त्व का उन्मेष होता है। और जो यहाँ का कुछ , वहाँ का कुछ , इस तरह खटाइयाँ चखने के समान सब विषयों को मानो थोड़ा थोड़ा चखते जाते हैं , वे कभी कोई चीज नहीं पा सकते । कुछ देर के लिए नसों की उत्तेजना से उन्हें एक प्रकार का आनन्द भले ही मिल जाता हो , किन्तु इससे और कुछ फल नहीं होता । वे चिरकाल प्रकृति के दास बने रहेंगे , कभी अतीन्द्रिय राज्य में विचरण न कर सकेंगे

जो सचमुच योगी होने की इच्छा करते हैं , उन्हें इस प्रकार के थोड़ा थोड़ा हर विषय को पकड़ने की वृत्ति सदैव के लिए छोड़ देनी होगी । एक विचार लो ; उसी विचार को अपना जीवन बनाओ - उसी का चिन्तन करो , उसी का स्वप्न देखो और उसी में जीवन बिताओ । तुम्हारा मस्तिष्क , स्नायु , शरीर के सर्वांग उसी के विचार से पूर्ण रहें । दूसरे सारे विचार छोड़ दो । यही सिद्ध होने का उपाय है ; और इसी उपाय से बड़े बड़े धर्मवीरों की उत्पत्ति हुई है । शेष सब तो बातें करनेवाले मशीन मात्र हैं । 

{राजयोग [छठा अध्याय] प्रत्याहार और धारणा }

🔆🙏ब्रह्मवेत्ता मनुष्य - 'बनो और बनाओ' 🔆🙏

"Be blessed, and make others blessed " `Be and Make' let this be our motto ! If we really want to be blessed, and make others blessed, we must go deeper.]
यदि हम सचमुच स्वयं कृतार्थ होना और दूसरों का उद्धार करना चाहें , तो हमें गहराई तक जाना होगा ।  इसे कार्य में परिणत करने का पहला सोपान यह है कि मन किसी तरह चंचल न किया जाए । जिनके साथ बातचीत करने पर मन चंचल हो जाता हो , उनका साथ छोड़ दो । तुम सब को मालूम है कि तुममें से प्रत्येक का किसी स्थानविशेष , व्यक्तिविशेष और खाद्यविशेष के प्रति एक रुष्टता का भाव रहता है । उन सब का परित्याग कर देना । और जो सर्वोच्च अवस्था की प्राप्ति के अभिलाषी हैं , उन्हें तो सत् - असत् सब प्रकार के संग को त्याग देना होगा । 

पूरी लगन के साथ , कमर कसकर साधना में लग जाओ - फिर मृत्यु भी आए , तो क्या ! मन्त्रं वा साधयामि शरीरं वा पातयामि -काम सधे या प्राण ही जाएँ । फल की ओर दृष्टि रखे बिना साधना में मग्न हो जाओ । निर्भीक होकर इस प्रकार दिनरात साधना करने पर छह महीने के भीतर ही तुम एक सिद्ध योगी हो सकते हो । परन्तु दूसरे , जो थोड़ी थोड़ी साधना करते हैं , सब विषयों को जरा जरा चखते हैं , वे कभी कोई बड़ी उन्नति नहीं कर सकते । केवल उपदेश सुनने से कोई फल नहीं होता । जो लोग तमोगुण से पूर्ण हैं , अज्ञानी और आलसी हैं , जिनका मन कभी किसी वस्तु पर स्थिर नहीं रहता , जो केवल थोड़े से मजे के अन्वेषण में हैं , उनके लिए धर्म और दर्शन केवल मनोरंजन के विषय हैं । 

जो सिर्फ थोड़े से आमोद - प्रमोद के लिए धर्म करने आते हैं , वे साधना में अध्यवसायहीन हैं । वे धर्म की बातें सुनकर सोचते हैं , ' वाह ! ये तो अच्छी बातें हैं ' , पर इसके बाद घर पहुँचते ही सारी बातें भूल जाते हैं । सिद्ध होना हो , तो प्रबल अध्यवसाय चाहिए , मन का अपरिमित बल चाहिए । अध्यवसायशील साधक कहता है , " मैं चुल्लू से समुद्र पी जाऊँगा । मेरी इच्छा मात्र से पर्वत चूर चूर हो जाएँगे । ” ---इस प्रकार का तेज , इस प्रकार का दृढ़ संकल्प लेकर कठोर साधना करो , तो तुम ध्येय को अवश्य प्राप्त करोगे । 
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2022 में एकादशी की तिथियां (Ekadashi Dates in2022)
13 जनवरी-गुरुवार, पौष- पुत्रदा एकादशी
28 जनवरी- शुक्रवार, षटतिला एकादशी
12 फरवरी-शनिवार, जया एकादशी
27 फरवरी-रविवार, विजया एकादशी
14 मार्च-सोमवार, आमलकी एकादशी
28 मार्च-सोमवार, पापमोचिनी एकादशी
12 अप्रैल- मंगलवार, कामदा एकादशी
26 अप्रैल- मंगलवार, वरुथिनी एकादशी

12 मई- गुरुवार, मोहिनी एकादशी
26 मई-गुरुवार, अपरा एकादशी

11 जून-शनिवार, निर्जला एकादशी
24 जून-शुक्रवार, योगिनी एकादशी

10 जुलाई- रविवार, देवशयनी एकादशी
24 जुलाई- रविवार, कामिका एकादशी

08 अगस्त- सोमवार, श्रावण पुत्रदा एकादशी
23 अगस्त- मंगलवार, अजा एकादशी

06 सितंबर- मंगलवार, परिवर्तिनी एकादशी
21 सितंबर- बुधवार, इन्दिरा एकादशी

06 अक्तूबर- गुरुवार, पापांकुशा एकादशी
21 अक्तूबर- शुक्रवार, रमा एकादशी

04 नवंबर- शुक्रवार, देवोत्थान एकादशी
20 नवंबर- रविवार, उत्पन्ना एकादशी

03 दिसंबर- शनिवार, मोक्षदा एकादशी
19 दिसंबर- सोमवार, सफला एकादशी
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🔆🙏राजयोग [सप्तम अध्याय] ` ध्यान और समाधि ' - स्वामी विवेकानन्द

 राजयोग सप्तम अध्याय – ध्यान और समाधि

RAJA YOGA : CHAPTER VII  

[DHYANA AND SAMADHI-Swami Vivekananda]

अब तक हम राजयोग के अन्तरंग साधनों को छोड़ शेष सभी अंगों के संक्षिप्त विवरण समाप्त कर चुके हैं । इन अन्तरंग साधनों का लक्ष्य एकाग्रता की प्राप्ति है । इस एकाग्रता - शक्ति को प्राप्त करना ही राजयोग का चरम लक्ष्य हैं । हम मानव के नाते , देखते हैं कि हमारा समस्त तर्कसंगत ज्ञान अहंबोध के अधीन है । मुझे इस मेज का बोध हो रहा है , तुम्हारे अस्तित्व का बोध हो रहा है ; और इस अहंबोध के कारण ही मैं जान पा रहा हूँ कि मेज यहाँ है और तुम यहाँ हो ! यह तो हुई एक ओर की बात । फिर एक दूसरी ओर यह भी देख रहा हूँ कि मेरी 'सत्ता ' कहने से जो बोध होता है , उसका अधिकांश में अनुभव नहीं कर सकता । शरीर के भीतर के सारे यन्त्र, मस्तिष्क के विभिन्न अंश- इन सब के प्रति हम सचेत नहीं हैं । 

जब हम भोजन करते हैं , तब वह ज्ञानपूर्वक करते हैं , परन्तु जब हम उसका सारभाग भीतर ग्रहण करते हैं , तब हम वह अज्ञातरीति से करते हैं । जब वह खून के रूप में परिणत होता है , तब भी वह हमारे बिना जाने ही होता है । और जब इस खून से शरीर के भिन्न भिन्न अंश गठित होते हैं , तो वह भी हमारी जानकारी के बिना ही होता है । किन्तु यह सारा काम हमारे द्वारा ही होता है । इस शरीर के भीतर कोई अन्य दस - बीस लोग तो बैठे नहीं हैं , जो यह काम कर देते हों । पर यह किस तरह हमें मालूम हुआ कि हमीं इनको कर रहे हैं , दूसरा कोई नहीं ? इस सम्बन्ध में अनायास ही यह कहा जा सकता है कि आहार करना ही हमारा काम है और खाना पचाने और खाद्य से शरीर को पुष्ट करने का काम तो हमारे लिए दूसरा कोई कर दे रहा है

पर यह हो नहीं सकता क्योंकि यह प्रमाणित किया जा सकता है कि अभी जो काम हमारे बिना जाने हो रहे हैं , वे लगभग सभी साधना के बल से हमारे जाने साधित हो सकते हैं । ऐसा मालूम होता है कि हमारा हृदययन्त्र अपने आप ही चल रहा है , हममें से कोई उसको अपनी इच्छानुसार नहीं चला सकता , वह अपने ख्याल से आप ही चल रहा है । परन्तु  योगाभ्यास के बल से हृदय के कार्य को भी इस प्रकार इच्छाधीन किये जा  सकता है कि वह  इच्छा मात्र से शीघ्र या धीरे चलने लगे , या लगभग बन्द हो जाये ।  हमारे शरीर के प्रायः सभी अंश इसी प्रकार  वश में लाये जा सकते हैं । इससे क्या ज्ञात होता है ? यही कि इस समय जो काम हमारे बिना जाने हो रहे हैं , उन्हें भी हमीं कर रहे हैं , पर हाँ , हम उन्हें अज्ञातरीति से कर रहे हैं , बस, इतना ही । 

अतएव हम देखते हैं कि मानव - मन दो अवस्थाओं में रहकर कार्य करता है। पहली अवस्था को ( ज्ञान या चेतन भूमि ) कह सकते हैं । जिन कामों को करते समय साथ साथ , ' मैं कर रहा हूँ ' यह ज्ञान सदा विद्यमान रहता है , वे कार्य ( ज्ञान या चेतन भूमि ) से साधित हो रहे हैं , ऐसा कहा जा सकता है । दूसरी भूमि को अज्ञान या अचेतन भूमि कह सकते हैं । जो सब कार्य ज्ञान की निम्न भूमि से साधित होते हैं , जिसमें ‘ मैं ज्ञान नहीं रहता , उसे अज्ञान या अचेतन भूमि कह सकते हैं।

राजयोग [सप्तम अध्याय] ` ध्यान और समाधि '

🔆🙏चेतन क्रिया, अचेतन क्रिया और जन्मजात प्रवृत्ति 🔆🙏

🔆Conscious work, Unconscious work and Instinct🔆

अतएव हम देखते हैं कि मानव - मन दो अवस्थाओं में रहकर कार्य करता है। पहली अवस्था को ( ज्ञान या चेतन भूमि ) कह सकते हैं । जिन कामों को करते समय साथ साथ , ' मैं कर रहा हूँ ' यह ज्ञान सदा विद्यमान रहता है , वे कार्य ( ज्ञान या चेतन भूमि ) से साधित हो रहे हैं , ऐसा कहा जा सकता है । दूसरी भूमि को अज्ञान या अचेतन भूमि कह सकते हैं । जो सब कार्य ज्ञान की निम्न भूमि से साधित होते हैं , जिसमें ‘ मैं ज्ञान नहीं रहता , उसे अज्ञान या अचेतन भूमि कह सकते हैं।

हमारे जिन कार्य - कलापों में ' अहं ' मिला रहता है, उन्हें ज्ञानयुक्त या चेतन क्रिया और जिनमें 'अहं ' का लगाव नहीं , उन्हें ज्ञानरहित या अचेतन क्रिया (unconscious work) कहते हैं । निम्न श्रेणी के पशुओं (lower animals) में यह ज्ञानरहित क्रिया जन्मजात प्रवृत्ति (instinct) कहलाती है । पशुओं की अपेक्षा उच्चतर प्राणियों में और सब से उच्च कोटि का प्राणी- `मनुष्य ' में यह दूसरे प्रकार की क्रिया , जिसमें अहंबोध रहता है , अधिक दीख पड़ती है - इसी को ज्ञानयुक्त क्रिया (Conscious work) कहते हैं । 

राजयोग [सप्तम अध्याय] ` ध्यान और समाधि '

🙏सुषुप्ति और अतिचेतन अवस्था से जो कार्य होता है उसमें अहंबोध नहीं रहता🙏  

परन्तु मन के इन तीन भूमियों को समझ लेने से ही सारी भूमियों का उल्लेख नहीं हो जाता । मनुष्य का मन इन तीनों भूमियों से उच्च भूमि पर भी विचरण कर सकता है । मन ज्ञान की भी अतीत अवस्था में (beyond consciousness-अतिचेतन अवस्था में ) जा सकता है । जिस प्रकार अज्ञानभूमि से जो कार्य होता है , वह ज्ञान की निम्न भूमि का कार्य है , वैसे ही ज्ञान की उच्च भूमि से भी ज्ञानातीत भूमि से भी कार्य होता है । उसमें भी किसी प्रकार का अहंबोध नहीं रहता । यह अहंबोध केवल बीच की अवस्था में रहता है । जब मन इस रेखा के ऊपर या नीचे विचरण करता है, तब किसी प्रकार का अहंबोध नहीं रहता , किन्तु तब भी मन की क्रिया चलती रहती है । 

जब मन इस रेखा के ऊपर अर्थात् ज्ञानभूमि के अतीत प्रदेश में गमन करता है , तब उसे समाधि, अतिचेतन या ज्ञानातीत भूमि कहते हैं ।  (जन्मजात प्रवृत्ति से प्रेरित होकर कार्य करने की अवस्था और अतिचेतन अवस्था में पहुंचकर, पुनः शरीर में लौटकर कार्य करने की अवस्था) इन दोनों ही अवस्थाओं में तो अहंबोध नहीं रहता ! अब हम यह किस तरह समझें कि जो मनुष्य समाधि - अवस्था में पहुँच जाता है , वह ज्ञानभूमि के निम्न स्तर में नहीं चला जाता , बिलकुल हीन दशापन्न नहीं हो जाता , वरन् ज्ञानातीत भूमि में चला जाता है ?  इसका उत्तर यह है कि कौन ज्ञानभूमि के निम्न देश में और कौन ऊर्ध्व देश में गया , इसका निर्णय फल देखने पर ही हो सकता है । 

जब कोई गहरी नींद में सोया रहता है , तब वह ज्ञान या चेतन की निम्न भूमि में चला जाता है । तब वह अज्ञात भाव से ही शरीर की सारी क्रियाएँ , श्वास - प्रश्वास , यहाँ तक कि शरीरसंचालन - क्रिया भी करता रहता है ; उसके इन सब कामों में अहंबोध का कोई लगाव नहीं रहता ; तब वह अज्ञान से ढका रहता है । वह जब नींद से उठता है , तब वह सोने के पहले जैसा था , वैसा ही रहता है , उसमें कुछ भी परिवर्तन नहीं होता । उसके सोने से पहले उसकी जो ज्ञानसमष्टि थी , नींद टूटने के बाद भी ठीक वही रहती है , उसमें कुछ भी वृद्धि नहीं होती । उसे कोई प्रकाश (ज्ञानोदीप्ति -enlightenment ) नहीं मिलताकिन्तु जब मनुष्य समाधिस्थ होता है , तो समाधि प्राप्त करने के पहले यदि वह महामूर्ख रहा हो , अज्ञानी रहा हो , तो समाधि से वह महाज्ञानी होकर (बुद्ध बनकर) व्युत्थित होता है । 

इस भिन्नता का कारण क्या है ? एक अवस्था से , मनुष्य जैसा गया था , वैसा ही लौट आया , और दूसरी अवस्था से लौटकर मनुष्य ने ज्ञानालोक प्राप्त किया - वह एक महान् साधु , एक सिद्ध पुरुष के रूप में परिणत हो गया , उसका स्वभाव बिलकुल बदल गया , उसके जीवन ने बिलकुल दूसरा रूप धारण कर लिया । दोनों अवस्थाओं के ये दो विभिन्न फल हैं अब बात यह है कि फल अलग अलग होने पर कारण भी अवश्य अलग अलग होगा । और चूँकि समाधि - अवस्था से लब्ध यह ज्ञानालोक , अज्ञानावस्था से लौटने के बाद की अवस्था में जो ज्ञान प्राप्त होता है अथवा साधारण ज्ञानावस्था में युक्ति - विचार द्वारा जो ज्ञान उपलब्ध होता है , उन दोनों से अत्यन्त उच्चतर है , इसीलिए अवश्य वह ज्ञानातीत या अतिचेतन भूमि से आता है । इसीलिए समाधि को  ज्ञानातीत भूमि (superconscious state) के नाम से अभिहित किया जाता है । संक्षेप में समाधि का तात्पर्य यही है ।

राजयोग [सप्तम अध्याय] ` ध्यान और समाधि '

🔆🙏हमारे व्यावहारिक जीवन में समाधि की क्या उपयोगिता है ?🔆🙏

 हमारे जीवन में इस समाधि की उपयोगिता कहाँ है ? समाधि की विशेष उपयोगिता है । विचार का क्षेत्र में (field of reason ) या जिस क्षेत्र में हमारा मन ज्ञानपूर्वक कार्य करता है , वह संकीर्ण और सीमित है । मनुष्य का युक्ति - तर्क एक छोटे से वृत्त में ही भ्रमण कर सकता है , वह कभी उसके में बाहर नहीं जा सकता । हम जितना ही उसके बाहर जाने का प्रयत्न करते हैं , उतना ही वह असम्भव सा जान पड़ता है । ऐसा होते हुए भी , मनुष्य जिसे अत्यन्त कीमती और सब से प्रिय (most dear ) समझता है , वह तो उस युक्ति या तर्क के राज्य के बाहर ही है । 

कोई अविनाशी आत्मा ( immortal soul) है या नहीं , ईश्वर है या नहीं , इस जगत् के नियन्ता परम ' ज्ञानस्वरूप कोई ' (supreme intelligence guiding this universe) हैं या नहीं ? - इन सब तत्त्वों का निर्णय करने में तर्क असमर्थ है । इन सब प्रश्नों का उत्तर तर्क कभी नहीं दे सकता । तर्क क्या कहता है ? वह कहता है " मैं अज्ञेयवादी हूँ । मैं किसी विषय में ' हाँ ' भी नहीं कह सकता और ' ना ' भी नहीं । ” 

फिर भी इन सब प्रश्नों का समाधान तो हमारे लिए अत्यन्त आवश्यक है । इन प्रश्नों के ठीक ठीक उत्तर जाने बिना मानवजीवन उद्देश्यविहीन हो जाएगा । इस तर्करूप वृत्त के बाहर से प्राप्त हुए समाधान ही हमारे सारे नैतिक मत , सारे नैतिक भाव , यही नहीं , बल्कि मानव-स्वभाव में जो कुछ सुन्दर तथा महान् है , उस सब की नींव है । अतएव यह सब से आवश्यक है कि हम इन प्रश्नों के यथार्थ उत्तर पा लें । 

यदि मनुष्य-जीवन केवल पाँच मिनट की चीज हो , और जगत् कुछ परमाणुओं का आकस्मिक मिलन मात्र हो , तो फिर दूसरे का उपकार मैं क्यों करूँ ? दया , न्यायपरता या सहानुभूति दुनिया में फिर क्यों रहे ? तब तो हम लोगों का यही एकमात्र कर्तव्य हो जाता है कि जिसकी जो इच्छा हो, वही करे , सब अपना अपना देखें । तब तो यही कहावत चरितार्थ होने लगती है `यावत् जीवेत् सुखं जीवेत् , ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत् ।'  यदि हम लोगों के भविष्य अस्तित्व की आशा ही न रहे , तो मैं अपने भाई को क्यों प्यार करूँ , मैं उसका गला क्यों न काटूँ  ? यदि जगत् के परे कोई सत्ता न हो , यदि मुक्ति नामक कोई चीज न हो , यदि कुछ कठोर , अभेद्य , जड़ नियम ही सर्वस्व हों , तब तो हमें इहलोक में ही सुखी होने की प्राणपण से चेष्टा करनी चाहिए । 

आजकल बहुत से लोगों के मतानुसार उपयोगितावाद ( utility ) ही नीति की नींव है , अर्थात् जिससे अधिक लोगों को अधिक परिमाण में सुख - स्वाच्छन्द्य मिले , वही नीति की नींव है । इन लोगों से मैं पूछता हूँ , हम इस नींव पर खड़े होकर नीति का पालन क्यों करें ? क्यों ? यदि अधिक मनुष्यों का अधिक मात्रा में अनिष्ट करने से मेरा मतलब सधता हो , तो मैं वैसा क्यों न करूँ ? उपयोगितावादी इस प्रश्न का क्या जवाब देंगे ? कौन अच्छा है और कौन बुरा , यह तुम कैसे जानोगे ? मैं अपनी सुख की वासना से परिचालित होकर उसकी तृप्ति करता हूँ ; ऐसा करना मेरा स्वभाव है ; मैं उससे अधिक कुछ नहीं जानता । मेरी ये वासनाएँ हैं , और मैं उनकी तृप्ति करूँगा ही , तुम्हें उसमें आपत्ति करने का क्या अधिकार है ? मानवजीवन के ये सब महान् सत्य , जैसे- नीति , आत्मा का अमरत्व , ईश्वर , प्रेम , सहानुभूति , साधुत्व और सर्वोपरि , सब से महान् सत्य निःस्वार्थता - ये सब भाव हमें कहाँ से मिले हैं

सारा नीतिशास्त्र , मनुष्य के सारे काम , मनुष्य के सारे विचार इस निःस्वार्थता - रूप एकमात्र नींव पर आधारित हैं । मानवजीवन के सारे भाव इस निःस्वार्थता - रूप एकमात्र भाव के अन्दर डाले जा सकते हैं । मैं क्यों स्वार्थशून्य होऊँ ? निःस्वार्थी होने की आवश्यकता क्या ? और किस शक्ति के बल से मैं निःस्वार्थी होऊँ ? तुम कहते हो , " मैं युक्तिवादी हूँ , मैं उपयोगितावादी हूँ ”,  लेकिन यदि तुम मुझे इस उपयोगिता की युक्ति न दिखला सको , तो मैं तुम्हें अयौक्तिक कहूँगा। मैं क्यों निःस्वार्थी होऊँ , कारण बताओ ; क्यों न मैं बुद्धिहीन पशु के समान आचरण करूँ? निःस्वार्थता कवित्व के हिसाब से अवश्य बहुत सुन्दर हो सकती है , किन्तु कवित्व तो युक्ति नहीं है । मुझे युक्ति दिखलाओ , मैं क्यों निःस्वार्थी होऊँ ? क्यों मैं भला बनूँ ? यदि कहो , " अमुक यह बात कहते हैं , इसलिए ऐसा करो " -तो यह कोई जवाब नहीं है , मैं ऐसे किसी व्यक्तिविशेष की बात नहीं मानता । मेरे निःस्वार्थी होने से मेरा कल्याण कहाँ ? 

यदि ' कल्याण 'से अधिक परिमाण में सुख समझा जाए , तो स्वार्थी होने में ही मेरा कल्याण है । उपयोगितावादी इसका क्या उत्तर देंगे ? वे इसका कुछ भी उत्तर नहीं दे सकते । इसका यथार्थ उत्तर यह है कि यह परिदृश्यमान जगत् अनन्त समुद्र में एक छोटा सा बुलबुला है - अनन्त शृंखला की एक छोटी सी कड़ी है । जिन्होंने जगत् में निःस्वार्थता का प्रचार किया था और मानवजाति को उसकी शिक्षा दी थी , उन्होंने यह तत्त्व कहाँ से पाया ? हम जानते हैं कि यह जन्मजात प्रवृत्तियों (Instincts) द्वारा नहीं प्राप्त हो सकता । जन्मजात प्रवृत्तियों से युक्त पशु तो इसे नहीं जानते । विचार बुद्धि से भी यह नहीं मिल सकता - उससे इन सब तत्त्वों का कुछ भी नहीं जाना जाता । तो फिर वे सब तत्त्व उन्होंने कहाँ से पाये ?

इतिहास के अध्ययन से मालूम होता है , संसार के सभी धर्मशिक्षक तथा धर्मप्रचारक कह गये हैं कि हमने ये सब सत्य जगत् के अतीत प्रदेश से पाये हैं । उनमें से बहुतेरे इस सम्बन्ध में अज्ञ थे कि उन्होंने यह सत्य ठीक कहाँ से पाया । किसी ने कहा , “ एक देवदूत ने पंखयुक्त मनुष्य के रूप में मेरे पास आकर मुझसे कहा , ' हे मानव , सुनो , मैं स्वर्ग से यह शुभ समाचार लाया हूँ , ग्रहण करो । ” दूसरे ने कहा , “ तेजपुंजकाय एक देवता ने मेरे सामने आविर्भूत होकर मुझे उपदेश दिया है । ” तीसरे ने कहा , “ मैंने स्वप्न में अपने एक पूर्वज को देखा , उन्होंने मुझे इन तत्त्वों का उपदेश दिया । ” 

इतिहास के अध्ययन से मालूम होता है , संसार के सभी धर्मशिक्षक तथा धर्मप्रचारक (पैगम्बर) कह गये हैं कि हमने ये सब सत्य जगत् के अतीत प्रदेश से पाये हैं । उनमें से बहुतेरे इस सम्बन्ध में अज्ञ थे कि उन्होंने यह सत्य ठीक कहाँ से पाया । किसी ने कहा , “ एक देवदूत ने पंखयुक्त मनुष्य के रूप में मेरे पास आकर मुझसे कहा , ' हे मानव , सुनो , मैं स्वर्ग से यह शुभ समाचार लाया हूँ , ग्रहण करो । ” दूसरे ने कहा , “ तेजपुंजकाय एक देवता ने मेरे सामने आविर्भूत होकर मुझे उपदेश दिया है । ” तीसरे ने कहा , “ मैंने स्वप्न में अपने एक पूर्वज को देखा , उन्होंने मुझे इन तत्त्वों का उपदेश दिया । ” इसके आगे वे और कुछ न कह सके इस तरह विभिन्न उपायों से तत्त्वलाभ की बात कहने पर भी उन सभी का इस विषय में यही मत है कि उन्होंने यह ज्ञान युक्ति - तर्क से नहीं पाया , वरन् उसके अतीत प्रदेश से ही उसे पाया है । 

इसके बारे में योगशास्त्र ( science of Yoga) का मत क्या है ? उसका मत यह है कि वे जो कहते हैं कि युक्ति - तर्क के अतीत प्रदेश से (beyond reasoning)उन्होंने उस ज्ञान को पाया है , यह सही है ; किन्तु उनके अपने अन्तर से ही वह ज्ञान उनके पास आया है । योगी कहते हैं , इस मन की ही ऐसी एक उच्च अवस्था है , जो युक्ति तर्क के परे है , जो अतिचेतन (superconscious state)  है । उस उच्चावस्था में पहुँचने पर मनुष्य तर्क के अगम्य ज्ञान  को प्राप्त कर लेता है  ! और ऐसे मनुष्य को ही समस्त विषय - ज्ञान के अतीत पारमार्थिक ज्ञान (Metaphysical knowledgeया अतीन्द्रिय ज्ञान (transcendental knowledge)की प्राप्ति होती है। 

साधारण मानवी स्वभाव के परे , समस्त युक्ति तर्क के परे की यह अतीन्द्रिय अवस्था कभी कभी ऐसे व्यक्ति को अचानक प्राप्त हो जाती है , जो उसका विज्ञान नहीं जानता । वह मानो उस ज्ञानातीत राज्य में ढकेल दिया जाता है । और जब इस प्रकार अचानक अतीन्द्रिय ज्ञान की प्राप्ति होती है , तो वह साधारणतः सोचता है कि वह ज्ञान कहीं बाहर से आया है । 

इसी से यह स्पष्ट है कि यह पारमार्थिक ज्ञान सारे देशों में वस्तुतः एक होने पर भी , किसी देश में वह देवदूत से , किसी देश में देवविशेष से , अथवा फिर कहीं साक्षात् भगवान् से प्राप्त हुआ सुना जाता है । इसका तात्पर्य क्या है ? यही कि मन ने अपनी प्रकृति के अनुसार ही अपने भीतर से उस ज्ञान को प्राप्त किया है , किन्तु जिन्होंने उसे पाया है , उन्होंने अपनी अपनी शिक्षा और विश्वास के अनुसार इस बात का वर्णन किया है कि उन्हें वह ज्ञान कैसे मिला । असल बात तो यह है कि ये सभी उस ज्ञानातीत अवस्था (superconscious state) में अचानक जा पड़े थे । 

योगी कहते हैं कि उस ज्ञानातीत अवस्था में अचानक जा पड़ने से एक भारी खतरे की आशंका रहती है अनेक स्थलों में तो दिमाग बिगड़ जाने या मस्तिष्क के बिलकुल नष्ट हो जाने की सम्भावना रहती है। और भी देखोगे , जिन सब मनुष्यों ने अचानक इस अतीन्द्रिय ज्ञान (transcendental knowledge) को पाया है, पर उसके वैज्ञानिक तत्त्व को नहीं समझा , वे कितने भी बड़े क्यों न हों , सच पूछा जाए , तो उन्होंने अँधेरे में टटोला है , और उनके उस ज्ञान के साथ कुछ न कुछ विचित्र अन्धविश्वास तो मिला हुआ है ही

कुछ पैगम्बरों ने तो मानो अपने आपको भ्रान्तियों (hallucinations) के लिए खोल रखा था। मुहम्मद ने घोषणा की कि एक दिन देवदूत गैब्रिल (Angel Gabriel ) पर्वत की गुफा में उनके पास आया और उन्हें स्वर्गीय अश्व हैरक (Harak) पर बिठा स्वर्गराज्य के दर्शन को ले गया। किन्तु , यह सब होते हुए भी , पैगम्बर मुहम्मद ने कई आश्चर्यजनक सत्यों (wonderful truths) का उद्घाटन किया । 

यदि तुम कुरान का अध्ययन करो , तो तुम पाओगे कि उसमें आश्चर्यजनक सत्यों के साथ ही कुछ अन्धविश्वास (superstitions) भी मिले - जुले हैं । इसकी व्याख्या तुम कैसे करोगे ? वे अवश्य ही दिव्य प्रेरणा से प्रेरित थे , किन्तु यह अन्तःप्रेरणा (inspiration) उन्हें अनजान में ही अचानक मिल गयी थी । "He was not a trained Yogi " --- अर्थात वे कोई ` गुरु--शिष्य वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा' -- में प्रशिक्षित और सिद्ध योगी न थे।  इसलिए , वे अपने मन के क्रिया - कलापों को न समझ ने सके । मुहम्मद ने संसार का क्या उपकार किया और उनके अनुयायियों  की धर्मान्धता (fanaticism) ने संसार की कितनी क्षति की - जरा इस पर विचार करो । उनकी कुछ शिक्षाओं पर गलत जोर देने के कारण लाखों की हत्याएँ हुईं , लाखों माताओं ने अपनी सन्तानें खोयीं , लाखों मातृ-पितृविहीन बने और कितने ही देशों का सर्वनाश ही हो गया- इन्हें जरा सोचो तो । 

जो हो , हम मुहम्मद तथा अन्य कई पैगम्बरों के जीवन-चरित्र का अध्ययन करने पर देखते हैं कि अचानक इन्द्रियातीत राज्य में जा पड़ने से उपर्युक्त प्रकार के खतरे की आशंका रहती है । किन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि वे सभी दिव्य प्रेरणा से प्रेरित थे । जब कभी कोई पैगम्बर केवल भावुकता के बल से इस अतीन्द्रिय अवस्था में जा पड़े हैं , तो वे उस अवस्था से कुछ सत्य ही नहीं लाये , पर साथ ही अन्धविश्वास , धर्मान्धता , ये सब भी लेते आये । उनकी शिक्षा में जो उत्कृष्ट अंश है , उससे जगत् का जैसा उपकार हुआ है , उन सब धर्मान्धता और अन्धविश्वासों से वैसे ही क्षति भी हुई है । 

मानव-जीवन नाना प्रकार के विपरीत भावों से ग्रस्त होने के कारण- `incongruous' असंगत या  असामंजस्यपूर्ण है । `To get any reason out of the mass of incongruity, we have to transcend our reason, but we must do it scientifically, slowly, by regular practice, and we must cast off all superstition.' इस असामंजस्य में कुछ सामंजस्य और सत्य प्राप्त करने के लिए हमें युक्ति - तर्क के परे जाना पड़ेगा ।  पर वह धीरे धीरे करना होगा , मनःसंयोग या नियमित साधना के द्वारा ठीक वैज्ञानिक उपाय से उसमें पहुँचना होगा, और सारे अन्धविश्वास को भी हमें छोड़ देना होगा । 

अन्य कोई विज्ञान सीखने के समय जैसा हम लोग करते हैं , इस अतिचेतन अवस्था ( super-conscious state) के अध्ययन के लिए भी ठीक उसी धारा का अनुसरण करना होगा । युक्ति तर्क को ही अपनी नींव बनाना होगा युक्ति - तर्क हमें जितनी दूर ले जा सकता है , हम उतनी दूर जाएँगे और जब युक्ति - तर्क नहीं चलेगा , तब वही हमें उस सर्वोच्च अवस्था की प्राप्ति का रास्ता दिखला देगा । 

अतः यदि कोई अपने को दिव्य प्रेरणा से प्रेरित कहकर दावा करे , फिर साथ ही युक्ति के विरुद्ध भी अटपट बोलता रहे , तो उसकी बात मत सुनना ।[When you hear a man say, “I am inspired,” and then talk irrationally, reject it. -- अर्थात  यदि कोई  दावा करे- “I am inspired,” मैं भी एक पैगम्बर/ ईश्वरकोटि का नेता हूँ , क्योंकि मैं मन की चहारदीवारी को पारकर अतीन्द्रिय अवस्था को जानकर  पुनः शरीर में वापस लौट आया हूँ! , फिर साथ ही युक्ति के विरुद्ध भी अटपट बोलता रहे (मानवमात्र को प्रेम करने के बजाय काफिर/ जिहाद करने को कहता हो) , तो उसकी बात मत सुनना ।] क्यों ? इसलिए कि जिन तीन भूमियों की बात कही गयी है , जैसे - जन्मजात - प्रवृत्ति (instinct) , चेतन या तर्कजात ज्ञान (reason) और अतिचेतन या ज्ञानातीत भूमि (superconsciousness) - ये तीनों एक ही मन की विभिन्न अवस्थाएँ हैं । एक मनुष्य के तीन मन नहीं हैं , वरन् उस एक ही मन की एक अवस्था दूसरी अवस्थाओं में परिवर्तित हो जाती है । जन्मजात प्रवृत्ति (instinct) चेतन या तर्कजात ज्ञान (reason) में और तर्कजात ज्ञान अतिचेतन या जगदतीत ज्ञान (transcendental consciousness) में परिणत होता है । (Instinct develops into reason, and reason into the transcendental consciousness.)

अतः इन अवस्थाओं में से कोई भी अवस्था दूसरी अवस्थाओं की विरोधी नहीं है । `Real inspiration never contradicts reason, but fulfils it.' -- यथार्थ दिव्य प्रेरणा , कभी तर्कजात ज्ञान का खण्डन नहीं करती, बल्कि तर्कजात ज्ञान की अपूर्णता को पूर्ण मात्र करती है । पूर्वकालीन पैगम्बरों (मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं) ने जैसा कहा है ,“I come not to destroy but to fulfil,”  " हम विनाश करने नहीं आये , वरन् पूर्ण करने आये हैं " , इसी प्रकार दिव्य प्रेरणा भी तर्कजात ज्ञान का पूरक है और उसके साथ उसका पूर्ण समन्वय है ।

ठीक वैज्ञानिक उपाय से उपर्युक्त अतिचेतन या समाधि अवस्था प्राप्तः करने के लिए ही पूर्वकथित सारे योगांग उपदिष्ट हुए हैं । यह भी समझ लेना विशेष आवश्यक है कि इस दिव्य प्रेरणा को प्राप्त करने की शक्ति प्राचीन पैगम्बरों के समान प्रत्येक मनुष्य के स्वभाव में है । वे पैगम्बर कोई अद्वितीय नहीं थे , वे हमारे तुम्हारे समान ही मनुष्य थे । वे अत्यन्त उच्च कोटि के योगी थे । उन्होंने पूर्वोक्त अतिचेतन अवस्था प्राप्त कर ली थी , और प्रयत्न करने पर तुम और हम भी उसकी प्राप्ति कर ले सकते हैं । वे कोई विशेष प्रकार के अद्भुत मनुष्य नहीं हैं । यदि एक मनुष्य ने उस अवस्था की प्राप्ति की है , तो इसी से प्रमाणित होता है कि प्रत्येक मनुष्य के लिए ही इस अवस्था को प्राप्त करना सम्भव है । 

यह केवल सम्भव ही नहीं , वरन् समय आने पर सभी इस अवस्था की प्राप्ति कर लेंगे । इस अवस्था को प्राप्त करना ही धर्म है । केवल प्रत्यक्ष अनुभव के द्वारा यथार्थ शिक्षा प्राप्त होती है। हम लोग भले ही सारे जीवन भर तर्क - विचार करते रहें , पर स्वयं प्रत्यक्ष अनुभव किये बिना हम सत्य का कण मात्र भी न समझ सकेंगे । कुछ पुस्तकें पढ़ाकर तुम किसी मनुष्य से शल्यचिकित्सक (surgeon) बनने की आशा नहीं कर सकते । तुम केवल एक नक्शा दिखाकर किसी देश को देखने का मेरा कौतूहल पूरा नहीं कर सकते । स्वयं वहाँ जाकर उस देश को प्रत्यक्ष देखने पर ही मेरा कौतूहल पूरा होगा । 

नक्शा केवल इतना कर सकता है कि वह देश के बारे में और भी अधिक अच्छी तरह से जानने की इच्छा उत्पन्न कर देगा । बस , इसके अतिरिक्त उसका और कोई मूल्य नहीं । सिर्फ पुस्तकों पर निर्भर रहने से मानवमन अवनति की ओर जाता है । यह कहने की अपेक्षा और घोर ईशनिन्दा (horrible blasphemy) क्या हो सकती है कि ईश्वरीय ज्ञान केवल इस ग्रन्थ या उस शास्त्र में आबद्ध है ? मनुष्य इधर तो भगवान् को अनन्त कहता है , और उधर एक छोटे से ग्रन्थ में उन्हें आबद्ध कर रखना चाहता है । क्यों अमुक ग्रन्थ पर विश्वास नहीं किया , इसलिए लाखों आदमी मार डाले गये ! 

किसी अमुक  ग्रन्थ में ही सारा ईश्वरीय ज्ञान निबद्ध है , इस पर विश्वास न करने से सहस्रों लोग मौत के घाट उतार दिये गये । भले ही आज उस हत्या आदि का समय नहीं रहा , पर फिर भी अभी तक जगत् इस ग्रन्थनिष्ठा में प्रबल रूप से आबद्ध है ! 

राजयोग [सप्तम अध्याय] ` ध्यान और समाधि '

🔆🙏 राजयोग के वैज्ञानिक उपाय से ध्यान और समाधि 🔆🙏

ठीक वैज्ञानिक उपाय से अतिचेतन अवस्था ( superconscious state ) को प्राप्त करने के लिए , मैं तुम्हें राजयोग के जो विविध साधन बतला रहा हूँ , उनके माध्यम से तुम्हें जाना पड़ेगा । प्रत्याहार और धारणा (Pratyâhâra and Dhâranâ) के बाद अब ध्यान (meditation)  के बारे में चर्चा करूँगा । 

जब मन को देह के भीतर या उसके बाहर किसी स्थान में कुछ समय तक स्थिर रखने के निमित्त प्रशिक्षित किया जाता है , तब उसको उस दिशा में अविच्छिन्न गति से (unbroken current- तैलधारवत) -प्रवाहित होने की शक्ति प्राप्त होती है । इस अवस्था का नाम है - ध्यान । जब ध्यान - शक्ति इतनी तीव्र हो जाती है कि मन अनुभूति के बाहरी भाग को छोड़कर केवल उसके अन्तर्भाग या अर्थ की ही ओर एकाग्र हो जाता है , तब उस अवस्था को समाधि कहते हैं

 धारणा , ध्यान और समाधि , इन तीनों को एक साथ मिलाकर संयम कहते हैं । अर्थात् यदि किसी का मन पहले किसी वस्तु में एकाग्र हो सकता है , फिर उस एकाग्रतां की अवस्था में कुछ समय तक रह सकता है , और उसके बाद ऐसी दीर्घ एकाग्रता की अवस्था में वह अनुभूति के केवल आभ्यन्तरिक भाग पर , जिसका , ध्येय - वस्तु केवल कार्य है , अपने आपको लगाए रख सकता है , तो सभी कुछ ऐसे शक्तिसम्पन्न मन के वशीभूत हो जाता है । 

जीव की जितने प्रकार की अवस्थाएँ हैं , उनमें यह ध्यानावस्था (meditative state) ही सर्वोच्च है । जब तक वासना रहती है (जब तक कामिनी-कांचन में आसक्ति बनी रहती हैं)  , तब तक यथार्थ सुख नहीं आ सकता । केवल जब कोई व्यक्ति इस ध्यानावस्था से , साक्षिभाव से सारी वस्तुओं का परिशीलन कर सकता है , तभी उसे यथार्थ सुख और आनन्द प्राप्त होता है । 

पशुओं को इन्द्रिय विषय भोगों में सुख मिलता हैं , मनुष्य को बुद्धि में और देवमानव को आध्यात्मिक चिंतन में।  जो ऐसी ध्यानावस्था को (साक्षीभाव को) प्राप्त हो चुके हैं , उनके पास यह जगत् सचमुच अत्यन्त सुन्दर रूप से (ब्रह्ममय सरूप से) प्रतीयमान होता है । जिसमें वासना नहीं हैं , जो सर्व विषयों में निर्लिप्त है , उसके पास प्रकृति के ये विभिन्न परिवर्तन एक महान् सौन्दर्य और उदात्त भाव (माँ महामाया) की छवि मात्र हैं । 

इन तत्त्वों को (5 इन्द्रिय विषयों और पंचभूतों को ) ध्यान में जान लेना आवश्यक है । मान लो , मैंने एक शब्द सुना । पहले बाहर से एक कम्पन आया , उसके बाद स्नायविक गति उस कम्पन को मन के पास ले गयी , फिर मन से एक प्रतिक्रिया हुई और उसके साथ ही साथ मुझे बाह्य वस्तु का ज्ञान हुआ । यह बाह्य वस्तु ही आकाश - कम्पन से लेकर मानसिक प्रतिक्रिया तक सब भिन्न भिन्न परिवर्तनों का कारण है । 

योगशास्त्र में इन तीनों को क्रमशः शब्द , अर्थ और ज्ञान कहते हैं । भौतिक विज्ञान और शरीरशास्त्र की भाषा में उन्हें आकाश - कम्पन , स्नायु और मस्तिष्क में गति तथा मानसिक प्रतिक्रिया कहते हैं । ये तीनों प्रतिक्रियाएँ सम्पूर्ण अलग होने पर भी इस समय इस तरह मिली हुई हैं कि उनका भेद समझा नहीं जाता । हम यथार्थ में अभी उन तीनों में से किसी का भी अनुभव नहीं कर सकते ; अभी तो उनके सम्मिलन के फलस्वरूप केवल बाह्य वस्तु का अनुभव करते हैं। प्रत्येक अनुभवक्रिया में ये तीन व्यापार होते हैं । हम भला उन्हें अलग क्यों न कर सकेंगे ? 

प्रथमोक्त योगांगों के अभ्यास से मन जब दृढ़ और संयत हो जाता है । तथा सूक्ष्मतर अनुभव की शक्ति प्राप्त करता है , तब उसे ध्यान में लगाना चाहिए । पहले - पहल स्थूल वस्तु को लेकर ध्यान करना चाहिए । फिर क्रमशः सूक्ष्म से सूक्ष्मतर ध्यान में हमारा अधिकार होगा , और अन्त में हम विषयशून्य अर्थात् निर्विकल्प ध्यान सफल हो जाएँगे । मन को पहले अनुभूति के बाह्य कारण अर्थात् विषय का , फिर स्नायुओं में होनेवाली गति का और उसके बाद उसकी अपनी प्रतिक्रियाओं का अनुभव करने के लिए नियुक्त करना होगा । 

जब मन अनुभूति के बाह्य उपकरणों अर्थात् विषयों को पृथक् रूप से जान सकेगा , तब उसमें समस्त सूक्ष्म भौतिक पदार्थों , सारे सूक्ष्म शरीरों और सूक्ष्म रूपों को जानने की शक्ति आ जाएगी। जब वह भीतर होनेवाली गतियों को दूसरे सभी विषयों से अलग करके , उनके अपने स्वरूप में , जानने में समर्थ होगा , तब वह सारी चित्तवृत्तियों पर उनके भौतिक शक्ति के रूप में परिणत होने से पूर्व ही अधिकार चला सकेगा , फिर वे चित्तवृत्तियाँ चाहे स्वयं अपनी हों , चाहे दूसरों की ।

 और जब योगी केवल मानसिक प्रतिक्रिया का उसके अपने स्वरूप में अनुभव करने में समर्थ होंगे, तब वे सर्व पदार्थों का ज्ञान प्राप्त कर लेंगे , क्योंकि इन्द्रियगोचर प्रत्येक वस्तु , यहाँ तक कि प्रत्येक विचार भी इस मानसिक प्रतिक्रिया का ही फल है । ऐसी अवस्था प्राप्त होने पर योगी मानो अपने मन की नींव तक का अनुभव कर लेते हैं , और तब मन उनके सम्पूर्ण वश में आ जाता है। 

योगियों के पास तब नाना प्रकार की अलौकिक शक्तियाँ ( सिद्धियाँ ) आने लगती हैं , पर यदि वे इन सब शक्तियों को प्राप्त करने के लिए लालायित हो उठें , तो उनकी भविष्य की उन्नति का रास्ता रुक जाता है । भोग के पीछे दौड़ने से इतना अनर्थ होता है ! किन्तु यदि वे इन सब अलौकिक शक्तियों को भी छोड़ सकें , तो वे मनरूप समुद्र में उठनेवाले वृत्तिप्रवाहों को पूर्णतया रोकने में समर्थ हो सकेंगे । और यही योग का चरम लक्ष्य है । तभी , मन के नाना प्रकार के विक्षेप एवं नाना प्रकार की दैहिक गतियों से विचलित न होकर आत्मा की महिमा अपनी पूर्ण ज्योति से प्रकाशित होगी । तब योगी ज्ञानघन , अविनाशी और सर्वव्यापी रूप से अपने स्वरूप की उपलब्धि करेंगे , और जान लेंगे कि वे अनादि काल से ऐसे ही हैं । 

इस समाधि में प्रत्येक मनुष्य का , यही नहीं , प्रत्येक प्राणी का अधिकार है । सब से निम्नतर प्राणी से लेकर अत्यन्त उन्नत देवता तक सभी , कभी न कभी , इस अवस्था को अवश्य प्राप्त करेंगे , और जब किसी को यह अवस्था प्राप्त हो जाएगी , तभी और सिर्फ तभी हम कहेंगे कि उसने यथार्थ धर्म की प्राप्ति की है । इससे पहले हम उसकी ओर जाने के लिए केवल संघर्ष करते हैं । जो धर्म नहीं मानता , उसमें और हममें अभी कोई विशेष अन्तर नहीं , क्योंकि हमें आत्म-साक्षात्कार नहीं हुआ । इस आत्मसाक्षात्कार तक हमें पहुँचाने के बिना एकाग्रता का और क्या शुभ उद्देश्य है ?

इस समाधि को प्राप्त करने के प्रत्येक अंग पर गम्भीर रूप से विचार किया गया है , उसे विशेष रूप से नियमित , श्रेणीबद्ध और वैज्ञानिक प्रणाली में सम्बद्ध किया गया है । यदि साधना ठीक ठीक हो और पूर्ण निष्ठा के साथ की जाए , तो वह अवश्य हमें अभीष्ट लक्ष्य पर पहुँचा देगी । और तब सारे दुःख - कष्टों का अन्त हो जाएगा , कर्म का बीज दग्ध हो जाएगा और आत्मा चिरकाल के लिए मुक्त हो जाएगी ।

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