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मंगलवार, 18 जुलाई 2023

राजयोग [चतुर्थ अध्याय] प्राण का आध्यात्मिक रूप

  राजयोग 

[चतुर्थ अध्याय] 

[Rajyog Chapter-4 : THE PSYCHIC PRANA]

प्राण का आध्यात्मिक रूप 

[साभार @@@https://www.khabardailyupdate.com/2023/01/rajyog-chapter-4.html]

योगियों के मतानुसार मेरुदण्ड (spinal cord) के भीतर इड़ा और पिंगला नाम के दो स्नायविक शक्तिप्रवाह और मेरुदण्डस्थ मज्जा के बीच सुषुम्ना नाम की एक शून्य नली है। इस शून्य नली के सब से नीचे कुण्डलिनी का आधारभूत पद्म अवस्थित है। योगियों का कहना है कि वह त्रिकोणाकार है। योगियों की रूपक भाषा में कुण्डलिनी शक्ति उस स्थान पर कुण्डलाकार हो विराज रही है। जब यह कुण्डलिनी शक्ति जगती है, तब वह इस शून्य नली के भीतर से मार्ग बनाकर ऊपर उठने का प्रयत्न करती है, और ज्यों ज्यों वह एक एक सोपान ऊपर उठती जाती है, त्यों त्यों मन के स्तर पर स्तर मानो खुलते जाते हैं और योगी को अनेक प्रकार के अलौकिक दर्शन होने लगते हैं तथा अद्भुत शक्तियाँ प्राप्त होने लगती हैं। जब वह कुण्डलिनी मस्तक पर चढ़ जाती है, तब योगी सम्पूर्ण रूप से शरीर और मन से पृथक् हो जाते हैं और उनकी आत्मा अपने मुक्त स्वभाव की उपलब्धि करती है। 

हमें मालूम है कि मेरुमज्जा एक विशेष प्रकार से गठित है। अंग्रेजी के है आठ अंक (8) को यदि आड़ा (∞)  कर दिया जाए, तो देखेंगे कि उसके दो अंश हैं और वे दोनों अंश बीच से जुड़े हुए हैं। इस तरह के अनेक अंकों को एक पर एक रखने पर जैसा दीख पड़ता है, मेरुमज्जा बहुत कुछ वैसी ही है। उसके बायीं ओर इड़ा है और दाहिनी ओर पिंगला; और जो शून्य नली मेरुमज्जा के ठीक बीच में से गयी है, वही सुषुम्ना है। 

कटिप्रदेशस्थ मेरुदण्ड की कुछ अस्थियों के बाद ही मेरुमज्जा समाप्त हो गयी है, परन्तु वहाँ से भी तागे के समान एक बहुत ही सूक्ष्म पदार्थ बराबर नीचे उतरता गया है। सुषुम्ना नली वहाँ भी अवस्थित है, परन्तु वहाँ बहुत सूक्ष्म हो गयी है। नीचे की ओर उस नली का मुँह बन्द रहता है। उसके निकट ही कटिप्रदेशस्थ नाडीजाल (sacral plexus) अवस्थित है, जो आजकल के शरीरशास्त्र (physiology) के मत से त्रिकोणाकार है। इन विभिन्न नाड़ीजालों के केन्द्र मेरुमंज्जा के भीतर अवस्थित हैं; वे नाड़ीजाल योगियों के भिन्न भिन्न पद्मों या चक्रों के तौर पर लिये जा सकते हैं। 

योगियों का कहना है कि सब से नीचे मूलाधार से लेकर मस्तिष्क में स्थित सहस्रार या सहस्रदल पद्म तक कुछ चक्र हैं। यदि हम उन पद्मों को पूर्वोक्त नाड़ीजाल के प्रतिरूप समझें, तो आजकल के शरीरशास्त्र के द्वारा बहुत सहज ही योगियों की बात का मर्म समझ में आ जाएगा। हमें मालूम है कि हमारे स्नायुओं के भीतर दो प्रकार के प्रवाह हैं; उनमें से एक को अन्तर्मुखी और दूसरे को बहिर्मुखी, एक को ज्ञानात्मक और दूसरे को कर्मात्मक, एक को केन्द्रगामी और दूसरे को केन्द्रापसारी कहा जा सकता है। उनमें से एक मस्तिष्क की ओर संवाद ले जाता है, और दूसरा मस्तिष्क से बाहर, समस्त अंगों में। परन्तु अन्त में ये प्रवाह मस्तिष्क से संयुक्त हो जाते हैं। आगे आनेवाले विषय को स्पष्ट रूप से समझने के लिए हमें कुछ और बातें ध्यान में रखनी होंगी। 

यह मेरुमज्जा (spinal cord) मस्तिष्क में जाकर एक प्रकार के 'बल्ब' में मेडुला (medulla oblongata medulla ~ मेडुला ऑब्लान्गेटा) नामक एक अण्डाकार पदार्थ में समाप्त हो जाती है, जो मस्तिष्क के साथ संयुक्त नहीं है, वरन् मस्तिष्क में जो एक तरल पदार्थ है, उसमें तैरता रहता है। अतः यदि सिर पर कोई आघात लगे, तो उस आघात की शक्ति उस तरल पदार्थ में बिखर जाती है, और इससे उस बल्ब को कोई चोट नहीं पहुँचती। यह एक महत्त्वपूर्ण बात है, जो हमें स्मरण रखनी चाहिए। दूसरे, हमें यह भी जान लेना होगा कि इन सब चक्रों में से सब से नीचे स्थित मूलाधार, मस्तिष्क में स्थित सहस्रार और नाभिदेश में स्थित मणिपूर– इन तीन चक्रों की बात हमें विशेष रूप से ध्यान में रखनी होगी। 

अब भौतिकविज्ञान का एक तत्त्व हमें समझना है। हम लोगों ने विद्युत् और उससे संयुक्त अन्य बहुविध शक्तियों की बातें सुनी हैं। विद्युत् क्या है, यह किसी को मालूम नहीं। हम लोग इतना ही जानते हैं कि विद्युत् एक प्रकार की गति है। जगत् में और भी अनेक प्रकार की गतियाँ हैं; विद्युत् से उनका भेद क्या है? मान लो, यह मेज चल रहा है और उसके परमाणु विभिन्न दिशाओं में जा रहे हैं। अब यदि उन परमाणुओं को एक ही दिशा में चलाया जाए, तो वह विद्युत् के माध्यम से ही किया जा सकता है। समस्त परमाणु यदि एक ओर गतिशील हों, तो उसी को विद्युत् गति कहते हैं। इस कमरे में जो वायु है, उसके सारे परमाणुओं को यदि लगातार एक ओर चलाया जाए, तो यह कमरा एक प्रचण्ड बैटरी (battery) के रूप में परिणत हो जाएगा।

प्राणायाम करने का कारण को समझना क्यों महत्वपूर्ण है ?

"शरीरशास्त्र की एक और बात हमें स्मरण रखनी होगी। वह यह है कि जो स्नायुकेन्द्र (मेडुला ऑब्लान्गेटा) मस्तिष्क में अवस्थित तो है किन्तु उससे संयुक्त नहीं है, वही  हमारे श्वास- प्रश्वास और ह्रदय के ब्लडपंपिंग यन्त्रों को नियमित करता है, एवं उसका सारे स्नायुप्रवाहों के नियमन पर भी कुछ अधिकार है।" [वि ० सा ० खंड-१, पृष्ठ ७३/ इस बात को हमें हर समय स्मरण रखना चाहिए कि यह 'बल्ब' या 'मेडुला ऑब्लान्गेटा'  हमारे मस्तिष्क का सबसे महत्त्वपूर्ण हिस्सा है; क्योंकि इसमें श्वास-प्रश्वांस यंत्र और ह्रदय के कामकाज को (दूर से ही) नियंत्रित करने वाले केंद्र होते हैं। "the medulla oblongata (मेडुला ऑब्लान्गेटा) is the most vital part of the brain because it contains centers controlling breathing and heart functioning."]

अब हम प्राणायाम करने का कारण समझ सकेंगे। पहले तो, यदि श्वास प्रश्वास की गति लयबद्ध या नियमित की जाए, तो शरीर के सारे परमाणु एक ही दिशा में गतिशील होने का प्रयत्न करेंगेजब विभिन्न दिशाओं में दौड़नेवाला मन एकमुखी होकर एक दृढ़ इच्छाशक्ति के रूप में परिणत होता है, तब सारे स्नायुप्रवाह भी परिवर्तित होकर एक प्रकार की विद्युत् प्रवाह जैसी गति प्राप्त करते हैं, क्योंकि स्नायुओं पर विद्युत् क्रिया करने पर देखा गया है कि उनके दोनों प्रान्तों में धनात्मक और ऋणात्मक, इन विपरीत शक्तिद्वय का उद्भव होता है। इसी से यह स्पष्ट है कि जब इच्छाशक्ति स्नायुप्रवाह के रूप में परिणत होती है, तब वह एक प्रकार के विद्युत् का आकार धारण कर लेती है। जब शरीर की सारी गतियाँ सम्पूर्ण रूप से एकाभिमुखी होती हैं, तब वह शरीर मानो इच्छाशक्ति का एक प्रबल विद्युदाधार बन जाता है। यह प्रबल इच्छाशक्ति *^प्राप्त करना ही योगी ... का उद्देश्य है। इस तरह, शरीरशास्त्र की सहायता से प्राणायाम क्रिया की व्याख्या की जा सकती है। वह शरीर के भीतर एक प्रकार की एकमुखी गति (विद्युत्) पैदा कर देती है और श्वास- प्रश्वास स्नायुकेन्द्र (मेडुला ऑब्लान्गेटा) पर आधिपत्य करके शरीर के अन्यान्य केन्द्रों को भी वश में लाने में सहायता पहुँचाती है। यहाँ पर प्राणायाम का लक्ष्य मूलाधार में कुण्डलाकार में अवस्थित कुण्डलिनी शक्ति (प्रबल इच्छाशक्ति ?) को उद्बुद्ध करना है। 

[प्रबल इच्छाशक्ति *^प्रत्येक सीधीरीढ़-धारी मनुष्य के शरीर में जन्म से ही एक सूक्ष्म तंत्र होता है। जिसमें तीन नाड़ियां, सात चक्र और परमात्मा की दी हुई प्रबल-इच्छाशक्ति विद्यमान है।  जिसे हम लोग सदा-शिव की शक्ति, इच्छाशक्ति या आदि शक्ति कहते हैं, जिसका प्रतिबिम्ब हमारे भीतर कुण्डलिनी के रूप में अवस्थित रहती है। परमात्मा की यही शक्ति जो कि कुंडलिनी शक्ति के नाम से जानी जाती है। यही कुंडलिनी शक्ति हमारी रीढ़ की हड्डी के सबसे निचले भाग में सुप्त अवस्था में रहती है। दुष्ट आदमी के यहाँ और किसी गलत होटल में खाना खाने से आपको बहुत तकलीफ हो सकती है, लीवर की खराबी से गुरू तत्व खराब होता है। एक तो हमारे अंदर जो चेतना है इसको संभालने वाला हमारा liver (यकृत) है, जब तक हमारा यकृत ठीक रहेगा, हमारी चेतना ठीक रहेगी और जैसे ही हमारा liver खराब हो जाता है, हमारा पित्त खराब हो जाता है। शरीररचना-विज्ञान तथा पाचन के सन्दर्भ में, पित्त (Bile या gall) गहरे हरे या पीले रंग का द्रव है जो पाचन में सहायक होता है। यह केवल कशेरुक प्राणियों के यकृत (लीवर) में बनता है। मानव के शरीर में liver द्वारा पित्त का सतत उत्पादन होता रहता है जो पित्ताशय में एकत्र होता रहता है।]

>>> महाकाश (elemental space),चित्ताकाश  (the mental space) और चिदाकाश (knowledge space) हम जो कुछ देखते हैं, कल्पना करते हैं, या जो कोई स्वप्न देखते हैं, सारे अनुभव हमें आकाश में करने पड़ते हैं। हम साधारणतः जिस परिदृश्यमान आकाश को देखते हैं उसका नाम है महाकाश। योगी जब दूसरों का मनोभाव समझने लगते हैं या अलौकिक वस्तुएँ देखने लगते हैं, तब वे सब दर्शन चित्ताकाश में होते हैं। और जब अनुभूति विषयशून्य हो जाती है (अर्थात जब चित्तवृत्ति का निरोध और योग घटित होता है?), जब आत्मा अपने स्वरूप में प्रकाशित होती है, तब उसका नाम है चिदाकाश। जब कुण्डलिनी शक्ति (प्रबल इच्छाशक्ति)  जागकर सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करती है, तब जो सब विषय अनुभूत होते हैं, वे चित्ताकाश (the mental space) में ही होते हैं। जब वह उस नाड़ी की अन्तिम सीमा मस्तिष्क के 'बल्ब' ('Medulla Oblongata') के छोर में पहुँचती है; तब चिदाकाश (knowledge space) में एक विषयशून्य ज्ञान (objectless perception -सच्चिदानन्द) अनुभूत होता है।

अब विद्युत् की उपमा (analogy of electricity) फिर से ली जाए । हम देखते हैं कि मनुष्य केवल तार के योग से एक जगह से दूसरी जगह विद्युत् प्रवाह चला सकता है , परन्तु प्रकृति अपने महान् शक्तिप्रवाहों को भेजने के लिए किसी तार का सहारा नहीं लेती । इसी से अच्छी तरह समझ में आ जाता है कि किसी प्रवाह को चलाने के लिए वास्तव में तार की कोई आवश्यकता नहीं । किन्तु हम तार के बिना काम करने में असमर्थ हैं , इसीलिए हमें उसकी आवश्यकता पड़ती है । (पाठक को याद रखना चाहिए कि यह व्याख्यान स्वामी विवेकानन्द ने  बेतार का तार (wireless telegraphy ) की खोज से पहले दिया था ।)

जैसे विद्युत् प्रवाह तार की सहायता से विभिन्न दिशाओं में प्रवाहित होता है , ठीक उसी तरह शरीर की समस्त संवेदनाएँ और गतियाँ (sensations and motions of the body) मस्तिष्क में और मस्तिष्क से स्नायुतन्तु-रूप तार ( wires of nerve fibres)  की ही सहायता से वह  बहिर्देश में प्रेषित की जाती हैं।  मेरुमज्जा-मध्यस्थ ज्ञानात्मक और कर्मात्मक स्नायुगुच्छ-स्तम्भ (sensory and motor fibres in the spinal cord ) ही योगियों की इड़ा और पिंगला नाड़ियाँ है । उन दोनों प्रधान नाड़ियों के भीतर से ही पूर्वोक्त अन्तर्मुखी और बहिर्मुखी शक्तिप्रवाह-द्वय संचारित हो रहे हैं । 

>>> How can we transcend the bondage of matter? परन्तु प्रश्न अब यह है कि इस प्रकार के 'तार' जैसे किसी पदार्थ की सहायता लिए बिना अपने मस्तिष्क से चारों दिशाओं में संवाद भेजना, तथा भिन्न भिन्न स्थानों मस्तिष्क में उठने वाले विचारों के विभिन्न संवादों को ग्रहण करना सम्भव क्यों नहीं हो सकता? जबकि प्रकृति में तो ऐसे व्यापार घटते देखे जाते हैं । योगियों का कहना है कि इसमें कृतकार्य होने पर ही भौतिक बन्धनों (bondage of matter) को लाँघा जा सकता है। तो अब इसमें कृतकार्य होने का उपाय क्या है? यदि मेरुदण्ड-मध्यस्थ सुषुम्ना के भीतर से (the canal in the middle of the spinal column) स्नायुप्रवाह चलाया जा सके, तो यह समस्या मिट जाएगी । 

हमारे मन ने ही इस  स्नायुजाल ( network of the nervous system) का निर्माण किया है, और अब उसी को इस  जाल को तोड़कर बिना किसी तंत्रिका तंतुओं के तार (wires of nerve fibres)की सहायता के अपना काम करना होगा । तभी सारा ज्ञान हमारे अधिकार में आएगा , देह का बन्धन (bondage of body)  फिर न रह जाएगा । 

>>>मनःसंयोग का दूरगामी उद्देश्य है -सुषुम्ना पर नियंत्रण: The Yogi proposes a practice by which we can have full control of Sushumna : इसीलिए सुषुम्ना नाड़ी पर विजय पाना हमारे लिए इतना आवश्यक है । यदि तुम इस शून्य नली के भीतर से , स्नायुजाल की सहायता के बिना भी मानसिक प्रवाह (mental current ) चला सको , तो बस , इस समस्या का समाधान हो गया । योगी कहते हैं कि यह सम्भव है । 

साधारण मनुष्यों में सुषुम्ना निम्नतर छोर में बन्द रहती है; उसके माध्यम से कोई कार्य नहीं होता। योगियों का कहना है कि इस सुषुम्ना का द्वार खोलकर उसके माध्यम से स्नायुप्रवाह चलाने की एक निर्दिष्ट साधना [राजयोग या मनःसंयोग] है।  बाह्य विषय के संस्पर्श से उत्पन्न संवेदना जब किसी केन्द्र में पहुँचती है, तब उस केन्द्र में एक प्रतिक्रिया होती है। स्वयंक्रिय केन्द्रों (automatic centres) में उन प्रतिक्रियाओं का फल केवल गति होता है, पर सचेतन केन्द्रों (conscious centres) में पहले अनुभव (perception) , और फिर बाद में गति (motion) होती है। 

>>>sensations are coiled up somewhere : सारी अनुभूतियाँ बाहर से आयी हुई क्रियाओं की प्रतिक्रिया मात्र है। तो फिर स्वप्न में अनुभूति किस तरह होती है? उस समय तो बाहर की कोई क्रिया नहीं रहती। अतएव स्पष्ट है कि विषयों के अभिघात से पैदा हुई स्नायविक गतियाँ शरीर के किसी न किसी स्थान पर अवश्य अव्यक्त भाव से रहती हैं। मान लो, स्वप्न में मैंने एक नगर देखा। 'नगर' नामक बाह्य वस्तु के आघात की जो प्रतिक्रिया है, उसी से उस नगर की अनुभूति होती है। अर्थात् उस नगर की बाह्य वस्तु द्वारा हमारे अन्तर्वाही स्नायुओं में जो गतिविशेष उत्पन्न हुई है, उससे मस्तिष्क के भीतर के परमाणुओं में एक गति पैदा हो गयी है। आज बहुत दिन बाद भी वह नगर मेरी स्मृति में आता है। 

इस स्मृति में भी ठीक वही व्यापार होता है, पर अपेक्षाकृत हल्के रूप में। किन्तु जो क्रिया मस्तिष्क के भीतर उस प्रकार का मृदुतर कम्पन ला देती है, वह भला कहाँ से आती है? यह तो कभी नहीं कहा जा सकता कि वह उसी पहले के विषय अभिघात से पैदा हुई है। अतः स्पष्ट है कि विषय अभिघात से उत्पन्न गतिप्रवाह या संवेदनाएँ शरीर के किसी स्थान पर कुण्डलीकृत होकर विद्यमान हैं और उनकी क्रिया के फलस्वरूप ही स्वप्न अनुभूतिरूप मृदु प्रतिक्रिया की उत्पत्ति होती है।  

जिस केन्द्र में विषय - अभिघात से उत्पन्न संवेदनाओं के अवशिष्ट अंश या संस्कार (residual sensations) मानो संचित से रहते हैं , उसे मूलाधार कहते हैं।  और उस कुण्डलीकृत क्रियाशक्ति को कुण्डलिनी “the coiled up” कहते हैं । सम्भवतः गतिशक्तियों का अवशिष्ट अंश  (residual motor energy) भी इसी जगह कुण्डलीकृत होकर संचित है ; क्योंकि हम देखते हैं कि गम्भीर अध्ययन और बाह्य वस्तुओं पर मनन के बाद शरीर के जिस स्थान पर यह मूलाधार चक्र ( सम्भवतः sacral plexus ) अवस्थित है , वह तप्त हो जाता है ।

अब यदि इस कुण्डलिनी शक्ति को जगाकर उसे ज्ञातभाव से सुषुम्ना नली में से प्रवाहित करते हुए एक केन्द्र से दूसरे केन्द्र को ऊपर लाया जाए, तो वह ज्यों ज्यों विभिन्न केन्द्रों पर क्रिया करेगी, त्यों त्यों प्रबल प्रतिक्रिया की उत्पत्ति होगी। जब कुण्डलिनी शक्ति का बिलकुल सामान्य अंश किसी स्नायुतन्तु के भीतर से प्रवाहित होकर विभिन्न केन्द्रों में प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है , तब वही स्वप्न अथवा कल्पना (dream or imagination) के नाम से अभिहित होता है । किन्तु जब मूलाधार में संचित विपुलायतन शक्ति-पुंज दीर्घकालव्यापी तीव्र ध्यान के बल से उद्बुद्ध होकर सुषुम्ना मार्ग में भ्रमण करता है और विभिन्न केन्द्रों पर आघात करता है, तो उस समय एक बड़ी प्रबल प्रतिक्रिया होती है, जो स्वप्न अथवा कल्पनाकालीन प्रतिक्रिया से तो अनन्तगुनी श्रेष्ठ है ही, पर जाग्रत् कालीन विषयज्ञान की प्रतिक्रिया से भी अनन्तगुनी प्रबल है। यही अतीन्द्रिय अनुभूति है। फिर जब वह इच्छाशक्ति-पुंज समस्त ज्ञान के, समस्त संवेदनाओं के केन्द्रस्वरूप मस्तिष्क में [ 'बल्ब' में मेडुला (medulla oblongata ~ मेडुला ऑब्लान्गेटा) नामक एक अण्डाकार पदार्थ में] पहुँचता है, तब सम्पूर्ण मस्तिष्क मानो प्रतिक्रिया करता है, और इसका फल है ज्ञान का पूर्ण प्रकाश या (full blaze of illumination-perception of the Self) आत्मसाक्षात्कार। 

कुण्डलिनी शक्ति जैसे जैसे एक केन्द्र से दूसरे केन्द्र को जाती है, वैसे ही वैसे मन का मानो एक एक परदा खुलता जाता है और तब योगी इस जगत् की सूक्ष्म या कारणरूप (causal form) में उपलब्धि करते हैं। और तभी विषयस्पर्श से उत्पन्न हुई संवेदना और उसकी प्रतिक्रियारूप जो जगत् के कारण है, उनका यथार्थ स्वरूप हमें ज्ञात हो जाता है। अतएव तब हम सारे विषयों का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं; क्योंकि कारण (cause) को जान लेने पर कार्य (effect) का ज्ञान अवश्य होगा। 

इस प्रकार हमने देखा कि कुण्डलिनी को जगा देना ही तत्त्वज्ञान, अतिचेतन अनुभूति या आत्म-साक्षात्कार (योग -realization of the spirit -चित्तवृत्ति निरोध) का एकमात्र उपाय है। कुण्डलिनी को जागृत करने के अनेक उपाय हैं। किसी की कुण्डलिनी भगवान् के प्रति प्रेम के बल से ही जागृत हो जाती है, किसी की सिद्ध महापुरुषों की कृपा से और किसी की सूक्ष्म ज्ञानविचार द्वारा। लोग जिसे अलौकिक शक्ति या ज्ञान कहते हैं, उसका जहाँ कहीं कुछ प्रकाश दीख पड़े, तो समझना होगा कि वहाँ कुछ परिमाण में यह कुण्डलिनीशक्ति सुषुम्ना के भीतर किसी तरह प्रवेश पा गयी है। तो भी इस प्रकार की अलौकिक घटनाओं में से अधिकतर स्थलों में देखा जाएगा कि उस व्यक्ति ने बिना जाने एकाएक ऐसी कोई साधना कर डाली है, जिससे उसकी कुण्डलिनी शक्ति अज्ञातभाव से कुछ परिमाण में स्वतन्त्र होकर सुषुम्ना के भीतर प्रवेश कर गयी है। 

समस्त उपासना, ज्ञातभाव से हो अथवा अज्ञातभाव से, उसी एक लक्ष्य पर पहुँचा देती है अर्थात् उससे कुण्डलिनी जागृत हो जाती है। जो सोचते हैं कि मैंने अपनी प्रार्थना का उत्तर पाया, उन्हें मालूम नहीं कि प्रार्थनारूप मनोवृत्ति के द्वारा वे अपनी ही देह में स्थित अनन्त शक्ति के एक बिन्दु को जगाने में समर्थ हुए हैं। अतएव योगी घोषणा करते हैं कि मनुष्य बिना जाने जिसकी विभिन्न नामों से, डरते डरते और कष्ट उठाकर उपासना करता है, उसके पास किस तरह अग्रसर होना होगा, यह जान लेने पर समझ में आ जाएगा कि वह प्रत्येक व्यक्ति में कुण्डलीकृत यथार्थ इच्छाशक्ति है -जो चिरन्तन सुख की जननी है। अतएव राजयोग यथार्थ धर्मविज्ञान है। वह सारी उपासना, सारी प्रार्थना, विभिन्न प्रकार की साधनपद्धति और समस्त अलौकिक घटनाओं की युक्तिसंगत व्याख्या है।

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[साभार@@@@https://sanskritdocuments.org/doc_z_misc_major_works/sAMkhyasAra.html  

साङ्ख्यसारः 

यत्र यत्र मनो देही धारयेत् सकलं धिया ।

स्नेहाद्द्वेषाद्भयाद्वाऽपि याति तत्तत्सरूपताम् ॥

घटद्रष्टा घटाद्भिन्नः सर्वथा न घटो यथा ।

देहद्रष्टा तथा देहो नाहमित्यादिरूपतः ॥

यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।

कुर्वतोऽकुर्वतो वाऽपि स जीवन्मुक्त उच्यते ॥ ११॥

निर्गच्छति जगज्जालात् पिंजरादिव केसरी ।

वाचामतीतविषमो विषयाशादृशेक्षितः ॥ २०॥

शिष्य : " महाराज,  क्या किसी को भी (प्रवृत्ति से होकर) निवृत्ति में आये बिना ब्रह्मज्ञान नहीं हो सकता ? (C-IN-C ) नवनीदा : जिसके मन में तीनो ऐषणायें- अर्थात स्त्री,  पुत्र,  धन,  मान प्राप्त करने का संकल्प बचा हुआ है,उसके मन में ब्रह्म को जानने की इच्छा कैसे होगी?  भोग-स्पृहा का त्याग न होने पर , ' वैराग्य ' न आने पर -  क्या कुछ होना सम्भव है ? - वे बच्चे के हाथ के लड्डू तो हैं नहीं जिसे भुलावा देकर छीन कर खा सकते हो ।  जो सभी उपाधियों (कामिनी -कांचन)  से अपनी आसक्ति को त्याग देने के लिये कमर -कसकर प्रस्तुत है, जो सुख, दुःख, भले-बुरे के चंचल प्रवाह में धीर-स्थिर, शान्त तथा दृढ़चित्त रहता है,  वही आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए सचेष्ट है ।  वही  'निर्गच्छति जगज्जालात् पिंजरादिव केसरी'  -  महाबल से जगत-रूपी जाल को तोड़कर माया की सीमा को लांघ सिंह की तरह बाहर निकल आता है । 

 साभार @@@@@@#$ स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना। [18 A]স্বামীজির দেওয়া আদর্শ / विवेक-जीवन ब्लॉग :शनिवार, 15 अगस्त 2020/" ब्रह्मरूपी सिंह-शावक की धुन - 'निर्गच्छति जगज्जालात् पिंजरादिव केसरी " ]





 

 


  



  












राजयोग [तृतीय अध्याय] प्राण ~ रिफ्लेक्स एक्शन क्या है? [What is reflex action? --Rajyog Chapter-3/कुण्डलिनी और आत्मा का मेल घटित होना योग (समाधि) है ~ हमारे अन्दर योग (समाधि) कैसे घटित होता है ?]

राजयोग 

[तृतीय अध्याय] 

प्राण 

[ Rajyog Chapter-3: PRANA]

[साभार @@@https://www.khabardailyupdate.com/2022/04/rajyog-tritiya-adhyay-pran.html ]

बहुतों का विचार है, प्राणायाम श्वास-प्रश्वास की कोई क्रिया है। पर असल में ऐसा नहीं है। वास्तव में तो श्वास-प्रश्वास की क्रिया के साथ इसका बहुत थोड़ा सम्बन्ध है। श्वासप्रश्वास उन क्रियाओं में से सिर्फ एक ही क्रिया है जिनके माध्यम से हम यथार्थ प्राणायाम की साधना के अधिकारी होते हैं। प्राणायाम का अर्थ है, प्राण का संयम। भारतीय दार्शनिकों के मतानुसार सारा जगत् दो पदार्थों से निर्मित है। उनमें से एक का नाम है आकाश। यह आकाश एक सर्वव्यापी, सर्वानुस्यूत सत्ता है। जिस किसी वस्तु का आकार है, जो कोई वस्तु कुछ वस्तुओं के मिश्रण से बनी है, वह इस आकाश से ही उत्पन्न हुई है। यह आकाश ही वायु में परिणत होता है; यही फिर ठोस आकार को प्राप्त होता यही तरल पदार्थ का रूप है।' यह आकाश ही सूर्य, धारण करता है, पृथ्वी, तारा, धूमकेतु आदि में परिणत होता है। 

समस्त प्राणियों के शरीर पशुओं के शरीर, उद्भिद् आदि जितने रूप हमें देखने को मिलते हैं, जिन वस्तुओं का हम इन्द्रियों द्वारा अनुभव कर सकते हैं, यहाँ तक कि, संसार में जो कुछ वस्तु है, सभी आकाश से उत्पन्न हुई हैं। इन्द्रियों द्वारा इस आकाश की उपलब्धि करने का कोई उपाय नहीं; यह इतना सूक्ष्म है कि साधारण अनुभूति के अतीत है।जब यह स्थूल होकर कोई आकार धारण करता है, तभी हम इसका अनुभव कर सकते हैं। सृष्टि के आदि में एकमात्र आकाश रहता है। फिर कल्प के अन्त में समस्त ठोस, तरल और वाष्पीय पदार्थ पुनः आकाश में लीन हो जाते हैं। बाद की सृष्टि फिर से इसी तरह आकाश से उत्पन्न होती है। 

किस शक्ति (ऊर्जा -Energy) के प्रभाव से आकाश का जगत् के रूप में परिणाम होता है? इस प्राण की शक्ति से। जिस तरह आकाश इस जगत् का कारणस्वरूप अनन्त, सर्वव्यापी भौतिक पदार्थ है, प्राण भी उसी तरह जगत् की उत्पत्ति की कारणस्वरूप अनन्त सर्वव्यापी विक्षेपकर शक्ति है। कल्प के आदि में और अन्त में सम्पूर्ण सृष्टि आकाशरूप में परिणत होती है, और जगत् की सारी शक्तियाँ प्राण में लीन हो जाती हैं। दूसरे कल्प में फिर इसी प्राण से समस्त शक्तियों का विकास होता है। यह प्राण ही गतिरूप में अभिव्यक्त हुआ है- यही गुरुत्वाकर्षण या चुम्बक शक्ति के रूप में अभिव्यक्त हो रहा है। यह प्राण ही स्नायविक शक्तिप्रवाह के रूप में, विचारशक्ति के रूप में और समस्त दैहिक क्रियाओं के रूप में अभिव्यक्त हुआ है। विचारशक्ति से लेकर अति सामान्य बाह्य शक्ति तक, सब कुछ प्राण का ही विकास है। बाह्य और अन्तर्जगत् की समस्त शक्तियाँ जब अपनी मूल अवस्था में पहुँचती हैं, तब उसी को प्राण कहते हैं

 जब अस्ति और नास्ति कुछ भी न था, जब तम से तम आवृत था, तब क्या था? यह आकाश ही गतिशून्य होकर अवस्थित था। प्राण की सभी प्रकार की बाह्य गति रुद्ध थी, परन्तु तब भी प्राण का अस्तित्व था। [नासदासीन्नो सदासीत्तदानीम् .. तम आसीत् तमसा गूढमग्रेड प्रकेतम् ॥ - ऋग्वेद संहिता , १०।१२] संसार में जितने प्रकार की शक्तियों का विकास अब हुआ है, कल्प के अन्त में वे शान्तभाव धारण करती हैं- अव्यक्त अवस्था में लीन होती हैं, और दूसरे कल्प के आदि में वे ही फिर से व्यक्त होकर आकाश पर करती रहती हैं। इसी आकाश से परिदृश्यमान साकार वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं, और आकाश के विविध परिणाम प्राप्त होने पर यह प्राण भी दृश्यमान नाना प्रकार की शक्तियों में परिणत होता रहता है। इस प्राण के यथार्थ तत्त्व को जानना और उसको संयत करने की चेष्टा करना ही प्राणायाम का प्रकृत अर्थ है। 

इस प्राणायाम में सिद्ध होने पर हमारे लिए मानो अनन्त शक्ति का द्वार खुल जाता है। मान लो,  यह प्राण का विषय किसी व्यक्ति की समझ में पूरी तरह आ गया और वह उसे वश करने में भी कृतकार्य हो गया, तो फिर संसार में ऐसी कौनसी शक्ति है, जो उसके अधिकार में न आए? उसकी आज्ञा से चन्द्र सूर्य अपनी जगह से हिलने लगते हैं, क्षुद्रतम परमाणु से बृहत्तम सूर्य तक सभी उसके वशीभूत हो जाते हैं, क्योंकि उसने प्राण को जीत लिया है

प्रकृति को वशीभूत करने की शक्ति प्राप्त करना ही प्राणायाम की साधना का लक्ष्य है। जब योगी सिद्ध हो जाते हैं, तब प्रकृति में ऐसी कोई वस्तु नहीं, जो उनके वश में न आ जाए। यदि वे देवताओं का आह्वान करेंगे, तो वे उनकी आज्ञा मात्र से आ उपस्थित होंगे; यदि मृत व्यक्तियों को आने की आज्ञा देंगे, तो वे तुरन्त हाजिर हो जाएँगे। प्रकृति की सारी शक्तियाँ उनकी आज्ञा से दासी की तरह काम करने लगेंगी। अज्ञ जन योगी के इन कार्य कलापों को अलौकिक समझते हैं। हिन्दू मन (भारतीय संस्कृति) की यह एक विशेषता है कि वह सदैव अन्तिम सम्भाव्य सामान्यीकरण के लिए अनुसन्धान करता है, और बाद में विशेष पर कार्य करता है। वेदों में यह प्रश्न पूछा गया है- "कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति?’– 'ऐसी कौनसी वस्तु है, जिसका ज्ञान होने पर सब कुछ ज्ञात हो जाता है?”

इस प्रकार, हमारे जितने शास्त्र हैं, जितने दर्शन हैं, सब के सब उसी के निर्णय में लगे हुए हैं, जिनके जानने से सब कुछ जाना जा सकता है। यदि कोई व्यक्ति जगत् का तत्त्व थोड़ा थोड़ा करके जानना चाहे, तो उसे अनन्त समय लग जाएगा; क्योंकि फिर तो उसे बालू के एक एक कण तक को भी अलग अलग रूप से जानना होगा। अतः यह स्पष्ट है कि इस प्रकार सब कुछ जानना एक प्रकार से असम्भव है। तब फिर इस प्रकार के ज्ञानलाभ की सम्भावना कहाँ है? एक एक विषय को अलग अलग रूप से जानकर मनुष्य के लिए सर्वज्ञ होने की सम्भावना कहाँ है? 

योगी कहते हैं, इन सब विशिष्ट अभिव्यक्तियों के पीछे एक सामान्य अमूर्त तत्त्व है। उसको पकड़ सकने या जान लेने पर सब कुछ जाना जा सकता है। इसी प्रकार, वेदों में सम्पूर्ण जगत् को उस एक अखण्ड निरपेक्ष सत्स्वरूप  में सामान्यीकृत किया गया है। जिन्होंने इस सत्स्वरूप (One Absolute Existence, सच्चिदानन्द ब्रह्म) को पकड़ा है, उन्होंने सम्पूर्ण विश्व को समझ लिया है। उक्त प्रणाली से ही समस्त शक्तियों को भी इस प्राण में सामान्यीकृत किया गया है। अतएव जिन्होंने प्राण को पकड़ा है, उन्होंने संसार में जितनी शारीरिक या मानसिक शक्तियाँ हैं सब को पकड़ लिया है। जिन्होंने प्राण को जीता है, उन्होंने अपने मन को ही नहीं, वरनू सब के मन को भी जीत लिया है। जिन्होंने प्राण को जीत लिया है, उन्होंने अपनी देह और दूसरी जितनी देह हैं, सब को अपने अधीन कर लिया है, क्योंकि प्राण ही सारी शक्तियों की सामान्यीकृत अभिव्यक्ति है। 

किस प्रकार इस प्राण पर विजय पायी जाए, यही प्राणायाम का एकमात्र उद्देश्य है। इस प्राणायाम के सम्बन्ध में जितनी साधनाएँ और उपदेश हैं, सब का यही एक उद्देश्य है। हर एक साधनार्थी को, उसके सब से समीप जो कुछ है, उसी से साधना शुरू करनी चाहिए उसके निकट जो कुछ है, उस सब पर विजय पाने की चेष्टा करनी चाहिए।संसार की सारी वस्तुओं में देह हमारे सब से निकट है और मन उससे भी निकटतर है। जो प्राण संसार में सर्वत्र व्याप्त है, उसका जो अंश इस शरीर और मन में कार्यशील है, वही अंश हमारे सब से निकट है। यह जो क्षुद्र प्राणतरंग है- जो हमारी शारीरिक और मानसिक शक्तियों के रूप में परिचित है, वह अनन्त प्राणसमुद्र में हमारे सब से निकटतम तरंग है. यदि हम उस क्षुद्र तरंग पर विजय पा लें, तभी हम समस्त प्राणसमुद्र को जीतने की आशा कर सकते हैं। जो योगी इस विषय में कृतकार्य होते हैं, वे सिद्धि पा लेते हैं, तब कोई भी शक्ति उन पर प्रभुत्व नहीं जमा सकती। वे एक प्रकार से सर्वशक्तिमान् और सर्वज्ञ हो जाते हैं। 

हम सभी देशों में ऐसे सम्प्रदाय देखते हैं, जो किसी न किसी उपाय से इस प्राण पर विजय प्राप्त करने की चेष्टा कर रहे हैं। इसी देश में (अमेरिका में) हम मनःशक्ति से आरोग्य करनेवाले (mind-healers), विश्वास से आरोग्य करनेवाले (faith-healers), प्रेतात्मवादी (spiritualists), ईसाई वैज्ञानिक (Christian Scientists), सम्मोहनविद्यावित् (hypnotists) आदि अनेक सम्प्रदाय देखते हैं। यदि हम इन मतों का विशेष रूप से विश्लेषण करें, तो देखेंगे कि इन सब मतों की पृष्ठभूमि में-वे फिर जानें या न जानें-प्राणायाम ही है। उन सब मतों के मूल में एक ही बात है। वे सब एक ही शक्ति को लेकर कार्य कर रहे हैं; पर हाँ, वे उसके सम्बन्ध में कुछ जानते नहीं। उन लोगों ने एकाएक मानो एक शक्ति का आविष्कार कर डाला है, परन्तु उस शक्ति के स्वरूप के सम्बन्ध में बिलकुल अज्ञ हैं। योगी जिस शक्ति का उपयोग करते हैं, ये भी बिना जाने बूझे उसी का उपयोग कर रहे हैं। और वह प्राण की ही शक्ति है।यह प्राण ही समस्त प्राणियों के भीतर जीवनीशक्ति (vital force-प्राणशक्ति) के रूप में विद्यमान है। विचारणा इसकी सूक्ष्मतम और उच्चतम अभिव्यक्ति है। फिर जिसे हम साधारणतः विचारणा की आख्या देते हैं, वही प्राण की एकमात्र वृत्ति नहीं है। 

इसके अतिरिक्त हमारा एक निम्नतम कार्यक्षेत्र भी है, जिसे हम जन्मजात प्रवृत्ति (instinct) अथवा ज्ञानरहित चित्तवृत्ति अथवा मन की अचेतन भूमि कहते हैं। मान लो, मुझे एक मच्छर ने काटा, तो मेरा हाथ अपने ही आप उसे मारने को उठ जाता है। उसे मारने के लिए हाथ को उठाते गिराते मुझे कोई विशेष सोच विचार नहीं करना पड़ता। यह भी विचारणा की एक प्रकार की अभिव्यक्ति है। शरीर के समस्त स्वाभाविक कार्य (प्रतिवर्ती कार्य : Reflex Action) इसी विचारणा के स्तर के अन्तर्गत हैं।

[>>>What is reflex action? रिफ्लेक्स एक्शन क्या है? बाहर की किसी प्रकार की उत्तेजना से शरीर का कोई यन्त्र , समय समय पर , ज्ञान की सहायता लिये बिना अपने आप जब काम करता है , तो उस क्रिया को प्रतिवर्ती क्रिया (Reflex Action) कहा जाता है। प्रतिवर्ती क्रिया का चित्त-वृत्ति से सूक्ष्म संबंध है। विचार करने योग्य बात यह है कि हम सभी की प्रवृत्ति (पुरानी आदतें)  हमारे पिछले अनुभवों और समझ (विवेक-प्रयोग शक्ति) के आधार पर अलग-अलग होती है। रिफ्लेक्स इस वृत्ति द्वारा उत्पन्न एक प्रतिक्रिया है। कई बार हमें पहले से पता नहीं होता कि तवा गर्म है या नहीं। दूसरे शब्दों में, चित्त-वृत्ति का प्रतिबिम्ब (reflection) से कोई लेना-देना नहीं है। क्रमविकास वाद (evolution) की दृष्टि से देखें तो प्रतिवर्ती क्रिया ने जीवों के अस्तित्व (survival of organisms) को सुनिश्चित करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।  क्योंकि इसने कुछ विषम परिस्थितियों में त्वरित प्रतिक्रिया (quick response) को सक्षम किया है जहां किसी जीव का जीवन खतरे में पड़ सकता है। उन प्रतिवर्ती क्रियाओं का नियंत्रण केन्द्र कहां पर है? शरीर में होने वाली प्रतिवर्ती क्रियायों  के दौरान, उद्दीपना (इन्द्रिय -संवेदना) के संकेत मस्तिष्क तक नहीं जाते हैं - इसके बजाय, शरीर में प्रतिवर्ती क्रियाओं (Reflex Actions) का नियंत्रण रीढ़ की हड्डी (Spinal Cord) में अवस्थित कशेरुक रज्जु (vertebral cord)  द्वारा होता है; इसलिए प्रतिक्रिया (Reflex Actions) लगभग तात्कालिक होती है। इसमें हम उद्दीपनों (Stimulus) को ग्रहण करते हैं तथा स्वभाव के आधार पर प्रतिवर्ती क्रिया की दो प्रमुख श्रेणियां-(1) अबन्धित (Unconditioned) तथा (2) अनुबन्धित (Conditioned) होती हैं। प्रतिवर्ती क्रिया के द्वारा ही हमारा पैर कांटे पर पड़ने पर हम पैर को तत्काल पीछे की ओर खींच लेते हैं। बाहर की किसी प्रकार की उत्तेजना से शरीर का कोई यन्त्र , समय समय पर , ज्ञान की सहायता लिये बिना अपने आप जब काम करता है , तो उस कार्य को स्वाभाविक कार्य (reflex action) कहते हैं ।

 इससे उन्नत विचारणा का एक दूसरा स्तर भी है, जिसे सज्ञान अथवा मन की चेतन भूमि कहते हैं। हम युक्ति तर्क करते हैं, विचार करते हैं, सब विषयों के पक्षापक्ष सोचते हैं, लेकिन इतना ही पर्याप्त नहीं। हमें मालूम है, युक्ति या विचार बिलकुल छोटीसी सीमा के द्वारा सीमित है। वह हम लोगों को कुछ ही दूर तक ले जा सकता है, इसके आगे उसका और अधिकार नहीं। जिस वृत्त के अन्दर वह चक्कर काटता है, वह बहुत ही सीमित, संकीर्ण है। परन्तु साथ ही हम यह भी देखते हैं कि बहुत से तथ्य बाहर से सहसा बहुत ही इस वृत्त के भीतर आ जाते हैं। (comets) पुच्छल तारा जिस प्रकार सौरजगत् के अधिकार के भीतर न होने पर भी कभी कभी उसके भीतर सहसा आ जाता है और हमें दीख पड़ता है, उसी प्रकार बहुत से तथ्य, हमारी युक्ति के अधिकार के बाहर होने पर भी, उसके भीतर आ जाते हैं। यह निश्चित है कि वे सब तथ्य इस सीमा के बाहर से आते हैं, पर हमारा तर्क या युक्ति इस सीमा के परे नहीं जा सकती।  उन तथ्यों के प्रवेश का कारण यदि हम इस छोटी सी सीमा के भीतर  खोजना चाहें, तो हमें अवश्य इस सीमा के बाहर जाना होगा। हमारे विचार, हमारी युक्तियाँ वहाँ नहीं पहुँच सकतीं। 

[भारतीय संस्कृति के सन्दर्भ में, परा विद्या से तात्पर्य स्वयं को जानने (आत्मज्ञान) या परम सत्य को जानने से है। उपनिषदों में इसे उच्चतर स्थान दिया गया है। दूसरी विद्या अपरा विद्या है। वेदान्त कहता है कि जो आत्मज्ञान पा लेते हैं उन्हें कैवल्य की प्राप्ति होती है, वे मुक्त हो जाते हैं और ब्रह्म पद को प्राप्त होते हैं। 

शौनको ह वै महाशालोऽङ्गिरसं विधिवदुपसन्नः पप्रच्छ।

कस्मिन् नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति ॥

[महाशालः शौनकः ह वै विधिवत् उपसन्नः अङ्गिरसं पप्रच्छ नु भगवः कस्मिन् विज्ञाते सर्वं इदं विज्ञातं भवति इति ॥ 

महाशालाधिपति शौनक अंगिरस के पास विधिवत् शिष्य रूप में आये और उनसे पूछाː "हे भगवन्! क्या है जिसे जान लेने के पश्चात् यह सब कुछ ज्ञात हो जाता है? शौनक ने जब अंगिरस से पूछा, – "कस्मिन्नु भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति ?" ~ महोदय, 'ऐसी कौनसी वस्तु है, जिसका ज्ञान होने पर सब कुछ ज्ञात हो जाता है?” 

तो उन्होने उत्तर दिया- " तस्मै स होवाच- द्वे विद्ये वेदितव्ये इति ह स्म यद् ब्रह्मविदो वदन्ति परा चैवापरा च  अंगिरस ने उत्तर दिया -  दो प्रकार की विद्याऐं हैं जो जानने योग्य हैं, जिनके विषय में ब्रह्मविद्-ज्ञानी बताते हैं, परा तथा अपरा। तत्र अपरा ऋग्वेदः यजुर्वेदः सामवेदः अथर्ववेदः शिक्षा कल्पः व्याकरणं निरुक्तम्ं छन्दः ज्योतिषम् इति। अथ परा यया तत् अक्षरम् अधिगम्यते ॥ "  - (मुण्डकोपनिषद्) 

अर्थात " दो प्रकार की विद्याएँ होतीं हैं जिन्हें ब्रह्मविदों ने बताया है, परा विद्या और अपरा विद्या। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद, शिक्षा, कल्प, व्याकरणं, निरुक्तं, छन्द, ज्योतिष - ये अपरा विद्या हैं। और परा विद्या वह है जिसके द्वारा उस 'अक्षर तत्त्व'  (नष्ट न होने वाला-अविनाशी ब्रह्म) को जाना जाता है ।] 

>>>The climax of our knowledge> (ब्रह्मविदों या योगियों के अनुसार मानवीय ज्ञान की चरम सीमा): योगी (=ब्रह्मविद) कहते हैं, " जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति (चेतन, अवचेतन और अचेतन) का बोध ही हमारे ज्ञान की चरम सीमा (पराकाष्ठा) नहीं है। The Yogi says - This waking, dream, and deep sleep (conscious, subconscious, and unconscious) perception is not the height of our knowledge!) : 

योगियों का कहना है कि यह सज्ञान या चेतन भूमि ही हमारे ज्ञान की चरम सीमा नहीं है। मन इन दोनों भूमियों से भी उच्चतर भूमि पर विचरण कर सकता है। उस भूमि को हम अतिचेतन भूमि कहते हैं- वही 'समाधि' नामक पूर्ण एकाग्र अवस्था है। जब मन उस अवस्था में पहुँच जाता है, तब वह युक्ति तर्क की सीमा के परे चला जाता है और ऐसे तथ्यों का प्रत्यक्ष साक्षात्कार करता है, जो जन्मजात प्रवृत्ति और युक्तितर्क द्वारा कभी प्राप्त नहीं है। [ When the mind has attained to that state, which is called Samâdhi —perfect concentration, superconsciousness — या चित्तवृत्ति निरोधः या मनःसंयोग- it goes beyond the limits of reason, and comes face to face with facts which no instinct or reason can ever know.]  शरीर की सारी सूक्ष्म से सूक्ष्म शक्तियाँ, जो प्राण की ही विभिन्न अभिव्यक्ति मात्र हैं, यदि सही रास्ते से (इड़ा-पिंगला-सुषुम्ना मार्ग से) परिचालित हों, तो वे मन पर विशेष रूप से कार्य करती हैं, और तब मन भी पहले से उच्चतर अवस्था 'superconscious' में अर्थात् अतिचेतन भूमि में चला जाता है और वहाँ से कार्य करता रहता है। 

>>> Each form (साकार नाम-रूप M/F) represents one whirlpool in the infinite ocean of matter : इस विश्व में अस्तित्व (नाम-रूप) के प्रत्येक स्तर पर एक अखण्ड वस्तुराशि दीख पड़ती है। भौतिक संसार की ओर दृष्टिपात करने पर दिखता है कि एक अखण्ड वस्तु  (one continuous substance) ही मानो नाना रूपों में विराजमान है। वास्तव में, तुममें और सूर्य में कोई भेद नहीं। वैज्ञानिक के पास जाओ, वे तुम्हें समझा देंगे कि वस्तु वस्तु में भेद केवल काल्पनिक है। इस मेज से वास्तव में मेरा कोई भेद नहीं। यह मेज अनन्त जड़राशि का मानो एक बिन्दु है और मैं उसी का एक दूसरा बिन्दु। प्रत्येक साकार वस्तु इस अनन्त जड़सागर में मानो एक भँवर है। भँवर सारे समय एकरूप नहीं रहते। मान लो, किसी वेगवती नदी में लाखों भँवर हैं: प्रत्येक भँवर में प्रतिक्षण नयी जलराशि आती है, कुछ देर घूमती है और फिर दूसरी ओर चली जाती है। उसके स्थान में एक नयी जलराशि आ जाती है। 

>>> Not one body (शरीर या Hand) is constant. यह जगत् भी इसी प्रकार सतत परिवर्तनशील एक जड़राशि (constantly changing mass of matter) मात्र है और ये सारे रूप उसके भीतर मानो छोटे छोटे भँवर हैं। कोई भूतसमष्टि किसी मनुष्यदेहरूपी भँवर में घुसती है, और वहाँ कुछ काल तक चक्कर काटने के बाद वह बदल जाती है और एक दूसरी भँवर में किसी पशुदेहरूपी (animal body) भँवर में प्रवेश करती है। फिर वहाँ कुछ वर्ष तक घूमती रहने के बाद खनिज पदार्थ (mineral) नामक दूसरे भँवर में चली जाती है। बस, सतत परिवर्तन होता रहता है। कोई भी वस्तु स्थिर नहीं है। मेरा शरीर, तुम्हारा शरीर नामक कोई वस्तु वास्तव में नहीं है। वह केवल कहने भर की बात है।  केवल एक अखण्ड जड़राशि। उसी के किसी बिन्दु का नाम है चन्द्र, किसी का सूर्य, किसी का मनुष्य, किसी का पृथ्वी, कोई बिन्दु उद्भिद् है, तो कोई खनिज पदार्थ। इनमें से कोई भी सदा एक भाव से नहीं रहता, सभी वस्तुओं का सतत परिवर्तन हो रहा है; जड का एक बार संश्लेषण होता है, फिर विश्लेषण। 

 >>>The mind (Head-the '2nd H') is also not constant :   मनोजगत् के सम्बन्ध में भी ठीक यही बात है 'ईथर' (आकाशतत्त्व) को हम सारी जड़ वस्तुओं के प्रतिनिधि के रूप में ग्रहण कर सकते हैं। प्राण की सूक्ष्मतर स्पन्दनशील अवस्था में इस ईथर को मन का भी प्रतिनिधिस्वरूप कहा जा सकता है। अतएव सम्पूर्ण मनोजगत् भी एक अखण्डस्वरूप है। जो अपने मन में यह अति सूक्ष्म कम्पन उत्पन्न कर सकते हैं (सर हम्फ्री डेवी ?), वे देखते हैं कि सारा जगत् सूक्ष्मातिसूक्ष्म कम्पनों की समष्टि मात्र है। किसी किसी औषधि में हमको इस सूक्ष्म अवस्था में पहुँचा देने की शक्ति रहती है, यद्यपि उस समय हम इन्द्रियराज्य के भीतर ही रहते हैं। 

तुममें से बहुतों को सर हम्फ्री डेवी के प्रसिद्ध प्रयोग की बात याद होगी। हास्योत्पादक गैस [Laughing Gas- रंगहीन गैस (N2O)] ने जब उनको अभिभूत कर लिया, तब वे भाषण देते समय स्तब्ध और निःस्पन्द होकर खड़े रहे। कुछ देर बाद जब होश आया, तो बोले, “सारा जगत् विचारों की समष्टि मात्र है।" कुछ समय के लिए सारे स्थूल कम्पन (gross vibrations) चले गये थे और केवल सूक्ष्म कम्पन, जिनको उन्होंने विचारराशि कहा था, बच रहे थे। उन्होंने चारों ओर केवल सूक्ष्म कम्पन देखे थे। सम्पूर्ण जगत् उनकी आँखों में मानो एक महान विचारसमुद्र में परिणत हो गया था। उस महासमुद्र में वे और जगत् का प्रत्येक व्यष्टि अहं मानो एक एक छोटा विचार भँवर (thought whirlpools) बन गयी थी। 

>>> sum total of energy (कुण्डलिनी?) exists in two forms.  इस प्रकार हम देखते हैं कि विचारजगत् (universe of thought) में भी अखण्ड एकत्व विद्यमान है। अन्त में जब हम आत्मा को प्राप्त कर लेते हैं, तब एक अखण्ड सत्ता 'Self can only be One' के अतिरिक्त और कुछ नहीं अनुभव करते। भौतिक पदार्थ के स्थूल और सूक्ष्म  स्पन्दनों के परे, सब प्रकार की गतियों के परे वही एक अखण्ड सत्ता (ब्रह्म) है। यहाँ तक कि इन गतियों की स्थूल अभिव्यक्तियों के भीतर भी केवल एकत्व विद्यमान है। इन सत्यों को अब अस्वीकार नहीं किया जा सकता। आधुनिक भौतिकी (मॉडर्न फिजिक्सने भी यह प्रमाणित कर दिया है कि ब्रह्माण्ड में ऊर्जाओं का कुल योग (sum total of the energies या शक्तिसमष्टि) सदैव समान रहता है।और यह भी सिद्ध हो चुका है कि यह शक्तिसमष्टि ( ऊर्जा का कुल योग sum total of energy)  दो रूपों में विद्यमान है। कभी स्तिमित (calmed-निश्चल, शान्त) या अव्यक्त (potential) अवस्था में और कभी व्यक्त अवस्था में। व्यक्त अवस्था (manifested state) में वह इन नानाविध शक्तियों के रूप धारण करती है। इस प्रकार वह अनन्त काल से कभी व्यक्त और कभी अव्यक्त भाव धारण करती आ रही है। इस शक्तिरूपी प्राण के संयम का नाम ही प्राणायाम है। 

मनुष्यदेह में इस प्राण की सब से स्पष्ट अभिव्यक्ति है- फेफड़े की गति। यदि यह गति रुक जाए, तो देह की सारी क्रियाएँ तुरन्त बंद हो जाएँगी, शरीर के भीतर जो अन्यान्य शक्तियाँ कार्य कर रही थीं, वे भी शान्त भाव धारण कर लेंगी। पर ऐसे भी व्यक्ति हैं, जो अपने को इस प्रकार प्रशिक्षित कर लेते हैं कि उनके फेफड़े की गति रुक जाने पर भी उनका शरीर नहीं जाता। ऐसे बहुत से व्यक्ति हैं जो बिना साँस लिये कई महीने तक जमीन के अन्दर गड़े रह सकते हैं, पर तो भी उनका देहनाश नहीं होता। सूक्ष्मतर शक्ति को प्राप्त करने के लिए हमें स्थूलतर शक्ति की सहायता लेनी पड़ती है। इस प्रकार क्रमशः सूक्ष्म से सूक्ष्मतर शक्ति में जाते हुए अन्त में हम चरम लक्ष्य पर पहुँच जाते हैं। 

प्राणायाम का यथार्थ अर्थ है फेफड़े की इस गति का रोध करना। इस गति के साथ श्वास का निकट सम्बन्ध है।  यह गति श्वास -प्रश्वास द्वारा उत्पन्न नहीं होती, वरन् वही श्वास प्रश्वास की गति को उत्पन्न कर रही है। यह गति ही, पम्प की भाँति, वायु को भीतर खींचती है। प्राण इस फेफड़े को चलाता है और फेफड़े की यह गति फिर वायु को खींचती है। इस तरह यह स्पष्ट है कि प्राणायाम श्वास प्रश्वास की क्रिया नहीं है। पेशियों की जो शक्ति फेफड़े को चलाती है, उसको वश में लाना ही प्राणयाम है

जो शक्ति स्नायुओं के भीतर से पेशियों के पास जाती है और जो फेफड़ों का संचालन करती है, वही प्राण है। प्राणायाम की साधना में हमें उसी को वश में लाना है। जब प्राण पर विजय प्राप्त हो जाएगी, तब हम तुरन्त देखेंगे कि शरीरस्थ प्राण की अन्यान्य सभी क्रियाएँ हमारे अधिकार में धीरे धीरे आ गयी हैं। मैंने स्वयं ऐसे व्यक्ति देखे हैं, जिन्होंने अपने शरीर की सारी पेशियों को वशीभूत कर लिया है अर्थात् वे उनको इच्छानुसार चला सकते हैं। 

और वे ऐसा कर भी क्यों न सकेंगे? यदि कुछ पेशियाँ हमारी इच्छा के अनुसार चलायी जा सकती हों तो दूसरी सब पेशियों और स्नायुओं को हम इच्छानुसार क्यों न चला सकेंगे? इसमें असम्भव क्या है? अब हमारी इस संयमशक्ति का लोप हो गया है, और पेशियों की गति स्वयंक्रिय हो गयी है। हम इच्छानुसार कानों को नहीं हिला सकते, परन्तु हम जानते हैं कि पशुओं में यह शक्ति है। हममें यह शक्ति इसलिए नहीं है कि हम इसे काम में नहीं लाते। इसी को क्रमअवनति अथवा पूर्वावस्था की ओर पुनरावर्तन (atavism) कहते हैं। 

फिर, हम यह भी जानते हैं कि जिस गति ने अब अव्यक्त भाव धारण किया है, उसे हम फिर से व्यक्तावस्था में ला सकते हैं। दृढ़ अभ्यास के द्वारा शरीर की कुछ गतियाँ, जो अभी हमारी इच्छा के अधीन नहीं, फिर से पूरी तरह वश में लायी जा सकती हैं। इस प्रकार विचार करने पर दीख पड़ता है कि शरीर का प्रत्येक अंश हम पूरी तरह अपनी इच्छा के अधीन कर सकते हैं। इसमें कुछ भी असम्भव नहीं, बल्कि यह तो पूर्णतया सम्भव है। योगी प्राणायाम द्वारा इसमें कृतकार्य होते हैं। 

>>>Everything is infectious in this world, good or bad.तुम लोगों ने पढ़ा होगा कि प्राणायाम में श्वास लेते समय सम्पूर्ण शरीर को प्राण से पूर्ण करना होता है। अंग्रेजी अनुवाद में प्राण शब्द का अर्थ किया गया है श्वास (breath)इससे तुम्हें सहज ही सन्देह हो सकता है कि श्वास से सम्पूर्ण शरीर को कैसे पूरा किया जाए। वास्तव में यह अनुवादक का दोष है। देह के सारे अंगों को प्राण अर्थात् इस जीवनीशक्ति (vital force) द्वारा भरा जा सकता है, और जब तुम इसमें सफल होगे, तो सम्पूर्ण शरीर तुम्हारे वश में हो जाएगा; देह की समस्त व्याधियाँ, सारे दुःख तुम्हारी इच्छा के अधीन हो जाएँगे।  इतना ही नहीं, दूसरे के शरीर पर भी अधिकार जमाने में तुम समर्थ हो जाओगे। संसार में भलाबुरा जो कुछ है, सभी संक्रामक है। यदि तुम्हारा शरीर किसी विशेष अवस्था में हो, तो उसकी प्रवृत्ति दूसरों में भी वही अवस्था उत्पन्न करने की होगी। 

यदि तुम सबल और स्वस्थकाय रहो, तो तुम्हारे समीपवर्ती व्यक्तियों में भी मानो कुछ स्वस्थ भाव, कुछ सबल भाव आएगा। और यदि तुम रुग्ण और दुर्बल रहो , तो देखोगे, तुम्हारे निकटवर्ती दूसरे व्यक्ति भी मानो कुछ रुग्ण और दुर्बल हो रहे हैं। तुम्हारी देह का कम्पन मानो दूसरे के भीतर संचारित हो जाएगा। जब एक व्यक्ति दूसरे को रोगमुक्त करने की चेष्टा करता है, तब उसका पहला प्रयत्न यह होता है कि उसका स्वास्थ्य दूसरे में संचारित हो जाए। यही आदिम चिकित्साप्रणाली है। ज्ञातभाव से हो या अज्ञातभाव से, एक व्यक्ति दूसरे की देह में स्वास्थ्य संचार कर दे सकता है। 

यदि एक बहुत बलवान् व्यक्ति किसी दुर्बल व्यक्ति के साथ सदैव रहे, तो वह दुर्बल व्यक्ति कुछ अंशों में अवश्य सबल हो जाएगा। यह बलसंचारणक्रिया ज्ञातभाव से हो सकती है तथा अज्ञातभाव से भी। जब यह क्रिया ज्ञातभाव से की जाती है, तब इसका कार्य और भी शीघ्र तथा उत्तम रूप से होता है। एक ओर दूसरे प्रकार की भी चिकित्साप्रणाली है, जिसमें आरोग्यकारी स्वयं बहुत स्वस्थकाय न होने पर भी दूसरे के शरीर में स्वास्थ्य का संचार कर दे सकता है। इन स्थलों में उस आरोग्यकारी व्यक्ति को कुछ परिमाण में प्राणजयी समझना चाहिए। वह कुछ समय के लिए अपने प्राण में मानो एक विशेष कम्पन उत्पन्न करके दूसरे के शरीर में उसका संचार कर देता है। 

अनेक स्थलों में यह कार्य बहुत दूर से भी साधित हुआ है। यदि सचमुच में दूरत्व का अर्थ खण्ड या विच्छेद (break) हो, तो दूरत्व नामक कोई चीज नहीं। ऐसा दूरत्व कहाँ है, जहाँ परस्पर कुछ भी सम्बन्ध, कुछ भी योग नहीं? सूर्य में और तुममें क्या वास्तविक कोई विच्छेद है? नहीं, यह तो समस्त एक अविच्छिन्न अखण्ड वस्तु है; तुम उसके एक अंश हो और सूर्य उसका एक दूसरा अंश। नदी के एक भाग और दूसरे भाग में क्या विच्छेद है? तो फिर शक्ति भी एक जगह से दूसरी जगह क्यों न भ्रमण कर सकेगी? इसके विरोध में तो कोई युक्ति नहीं दी जा सकती। दूर से आरोग्य करने की घटनाएँ बिलकुल सत्य हैं। इस प्राण को [जीवनीशक्ति (vital force) को ]  बहुत दूर तक संचालित किया जा सकता है। पर हाँ, इसमें धोखेबाजी बहुत है।

>>>The homeopath does not disturb his patients :यदि इसमें एक घटना सत्य हो, तो अन्य सैकड़ों असत्य और छलकपट के अतिरिक्त और कुछ नहीं। लोग इसे जितना सहज समझते हैं, यह उतना सहज नहीं। अधिकतर स्थलों में तो देखोगे कि आरोग्य करनेवाले चंगा करने के लिए मानवदेह की स्वाभाविक स्वस्थता की ही सहायता लेते हैं। एक एलोपैथ चिकित्सक आता है  हैजे के रोगियों की चिकित्सा करता है और उन्हें दवा देता है; एक होमियोपैथ चिकित्सक आता है, वह भी रोगियों को अपनी दवा देता है और शायद एलोपैथ की अपेक्षा अधिक रोगियों को चंगा कर देता है। ऐसा क्यों? इसलिए कि वह रोगी के शरीर में किसी तरह का विपर्यय न लाकर प्रकृति को अपनी चाल से काम करने देता है। और विश्वास के बल से आरोग्य करनेवाला [The Faith-healer] तो और भी अधिक रोगियों को चंगा कर देता है, क्योंकि वह अपनी इच्छाशक्ति द्वारा कार्य करके विश्वास के बल से रोगी की प्रसुप्त (dormant) प्राणशक्ति को जागृत कर देता है। 

>>> It is by the Prana that real curing comes. :परन्तु विश्वास के बल से रोगों को अच्छा करनेवालों को सदा एक भ्रम हुआ करता है, वे सोचते हैं कि साक्षात् विश्वास ही लोगों को रोगमुक्त करता है। वास्तव में यह नहीं कहा जा सकता कि केवल विश्वास इसका कारण है। ऐसे भी रोग हैं, जिसमें रोगी स्वयं नहीं समझ पाता कि उसके कोई रोग है। रोगी का अपनी नीरोगता पर अतीव विश्वास ही रोग का एक प्रधान लक्षण है, और इससे आसन्न मृत्यु की सूचना होती है। इन सब स्थलों में केवल विश्वास से रोग नहीं टलता। यदि विश्वास ही रोग की जड़ काटता हो, तो वे रोगी मौत के मुँह न गये होते। वास्तव में रोग तो इस प्राण की शक्ति से ही दूर होता है। 

प्राणजित् पवित्रात्मा पुरुष (The pure man, who has controlled the Prana) अपने प्राण को एक निर्दिष्ट कम्पन में ले जा सकते हैं और उसे दूसरे में संचारित करके , उसके भीतर भी उसी प्रकार का कम्पन पैदा कर सकते हैं। तुम प्रतिदिन की घटना से यह प्रमाण ले सकते हो। मैं व्याख्यान दे रहा हूँ। व्याख्यान देते समय मैं क्या कर रहा हूँ? मैं अपने मन को मानो कम्पन की एक विशिष्ट स्थिति में लाता हूँ। और मैं मन को इस स्थिति में लाने में जितना ही सफल होऊँगा, तुम मेरी बात सुनकर उतने ही प्रभावित होगे। तुम लोगों को मालूम है, व्याख्यान देते देते मैं जिस दिन मस्त हो जाता हूँ, उस दिन मेरा व्याख्यान तुमको बहुत अच्छा लगता है, पर जब कभी मेरा उत्साह घट जाता है, तो तुम्हें मेरे व्याख्यान में उतना आनन्द नहीं मिलता। 

>>>नेताजी सरीखे- दी जाइगैन्टिक विलपावर्स ऑफ़ दी वर्ल्ड (The gigantic will-powers of the world) जगत् को हिलाडुला देनेवाले तीव्र इच्छाशक्तिसम्पन्न महापुरुष  अपने प्राण को कम्पन की एक उच्च स्थिति में ला सकते हैं और यह प्राण इतना महान् तथा शक्तिशाली होता है कि वह दूसरे को पल भर में लपेट लेता है, हजारों मनुष्य उनकी ओर खिंच जाते हैं और संसार के आधे लोग उनके भाव से परिचालित हो जाते हैं। जगत् के सभी महान् पैगम्बरों (धर्माचार्यों, मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं का) प्राण पर अत्यन्त अद्भुत संयम था, जिसके बल से वे प्रबल इच्छाशक्ति-सम्पन्न हो गये थे। (जो नेता tremendous willpower से भरे थे) वे अपने प्राण के भीतर अति उच्च कम्पन पैदा कर सकते थे, और उसी से उन्हें समस्त संसार पर प्रभाव-विस्तार करने की क्षमता प्राप्त हुई थी। 

संसार में शक्ति के जितने विकास देखे जाते हैं, सभी प्राण के संयम से उत्पन्न होते हैं। मनुष्य को यह तथ्य भले ही मालूम न हो, पर और किसी तरह इसकी व्याख्या नहीं हो सकती। तुम्हारे शरीर में यह प्राणसंचालन कभी एक ओर अधिक और दूसरी ओर कम हो जाता है। इससे सन्तुलन भंग होता है; और जब प्राण का यह सन्तुलन नष्ट होता है, तब रोग की उत्पत्ति होती है। अतिरिक्त प्राण को हटाकर, जहाँ प्राण का अभाव है, वहाँ का अभाव भर सकने से ही रोग अच्छा हो जाता है। 

प्राण को एकाग्र करना ही ध्यान है 

>>> meditating, he is also concentrating the Prana.शरीर के किस भाग में प्राण अधिक है और किस भाग में अल्प, इसका ज्ञान प्राप्त करना भी प्राणायाम का अंग है। इस प्राणायाम के अभ्यास से अनुभवशक्ति इतनी सूक्ष्म हो जाएगी कि मन समझ जाएगा, पैर के अँगूठे में या हाथ की अँगुली में जितना प्राण आवश्यक है, उतना वहाँ नहीं है, और मन उस प्राण के अभाव को पूरा करने में भी समर्थ हो जाएगा। इस प्रकार प्राणायाम के अनेक अंग हैं। इनको धीरे धीरे, एक के बाद एक, सीखना होगा। अतएव यह स्पष्ट है कि विभिन्न रूपों में प्रकाशित प्राण का संयम सिखाना और उसको विभिन्न प्रकार से चलाना ही राजयोग का सम्पूर्ण क्षेत्र है। जब कोई अपनी समस्त शक्तियों का संयम करता है, तब वह अपनी देह के भीतर के प्राण का ही संयम करता है। जब कोई ध्यान करता है, तो भी समझना चाहिए कि वह प्राण का ही संयम कर रहा है

महासागर की ओर यदि देखो तो प्रतीत होगा कि वहाँ पर्वतकाय बड़ी बड़ी तरंगें हैं, फिर छोटी छोटी तरंगें भी हैं, और छोटे छोटे बुलबुले भी। पर इन सब के पीछे वही अनन्त महासमुद्र है। एक ओर वह छोटा बुलबुला अनन्त समुद्र से युक्त है, फिर दूसरी ओर वह बड़ी तरंग भी उसी महासमुद्र से युक्त है। इसी प्रकार, संसार में कोई महापुरुष हो सकता है, और कोई छोटे बुलबुले जैसा सामान्य व्यक्ति, परन्तु सभी उसी अनन्त महाशक्ति के समुद्र से युक्त हैं, जो सभी जीवों का जन्मसिद्ध अधिकार है। जहाँ भी जीवनीशक्ति का प्रकाश देखो, वहाँ समझना कि उसके पीछे अनन्त शक्ति का भाण्डार है

 एक छोटी सी फफूँदी (fungus) है; वह, सम्भव है, इतनी छोटी, इतनी सूक्ष्म हो कि उसे अनुवीक्षण यन्त्र द्वारा देखना पड़े; उससे आरम्भ करो। देखोगे कि वह अनन्त शक्ति के भाण्डार से क्रमशः शक्ति संग्रह करती हुई एक अन्य रूप धारण कर रही है। कालान्तर में वह उद्भिद (plant) के रूप में परिणत होती है, वही फिर एक पशु (animal) का आकार ग्रहण करती है, फिर मनुष्य (Man) का रूप लेती हुई वही अन्त में ईश्वररूप (God) में परिणत हो जाती है। हाँ, इतना अवश्य है कि प्राकृतिक नियम से इस व्यापार के घटते घटते लाखों साल पार हो जाते हैं। परन्तु यह समय है क्या? वेग साधना का वेग बढा देकर समय काफी घटाया जा सकता है। योगियों का कहना है कि साधारण प्रयत्न से जिस काम को अधिक समय लगता है, वही, वेग बढ़ा देने पर बहुत थोड़े समय में सघ सकता है। हो सकता है कोई मनुष्य इस संसार की अनन्त शक्तिराशि में से बहुत थोड़ी थोड़ी शक्ति लेकर चले। इस प्रकार चलने पर उसे देवजन्म प्राप्त करते, सम्भव है, एक लाख वर्ष लग जाएँ, फिर और भी ऊँची अवस्था प्राप्त करते शायद पाँच लाख वर्ष लगें। 

>>>इसी जीवन में पूर्णत्व को अभिव्यक्त कर de-hypnotized हो जाओ ! फिर पूर्ण सिद्ध होते और भी पाँच लाख वर्ष लगें। पर उन्नति का वेग बढ़ा देने पर यह समय कम हो जाता है। पर्याप्त प्रयत्न करने पर छह वर्ष या छह महीने में ही यह सिद्धिलाभ क्यों न हो सकेगा? युक्ति तो बताती है कि इसमें कोई निर्दिष्ट सीमाबद्ध समय नहीं है। सोचो, कोई वाष्पीय यन्त्र, निर्दिष्ट मात्रा में कोयला देने पर, प्रति घण्टा दो मील चल सकता है, तो अधिक कोयला देने पर वह और भी शीघ्र चलेगा। इसी प्रकार, यदि हम भी तीव्र वेगसम्पन्न हों, तो इसी जन्म में मुक्तिलाभ क्यों न कर सकेंगे? हाँ, हम यह जानते अवश्य हैं कि अन्त में सभी मुक्ति पाएँगे। पर इस प्रकार युग युग तक हम प्रतीक्षा क्यों करें? इसी क्षण, इस शरीर में ही, इस मनुष्यदेह में ही हम मुक्तिलाभ करने में समर्थ क्यों न होंगे? हम इसी समय वह अनन्त ज्ञान, वह अनन्त शक्ति क्यों न प्राप्त कर सकेंगे

आत्मा की उन्नति का वेग बंढ़ाकर किस प्रकार थोड़े समय में मुक्ति पायी जा सकती है, यही सारे योगशास्त्र का लक्ष्य और उद्देश्य है। जब तक सारे मनुष्य मुक्त नहीं हो जाते, तब तक प्रतीक्षा करते हुए थोड़ा थोड़ा करके अग्रसर न होकर, प्रकृति के अनन्त शक्तिभाण्डार में से शक्ति ग्रहण करने की शक्ति बढ़ाकर किस प्रकार शीघ्र मुक्तिलाभ किया जा सकता है, योगियों ने इसका उपाय खोज निकाला है। संसार के सभी पैगम्बर, साधु और सिद्ध पुरुषों ने क्या किया है? उन्होंने एक ही जन्म में मानवजाति का सम्पूर्ण जीवन बिताया और उन सब अवस्थाओं को पार कर लिया है, जिनमें से होते हुए साधारण मानव करोड़ों जन्मों में मुक्त होता है। एक जन्म में ही वे अपनी मुक्ति का मार्ग तय कर लेते हैं। वे दूसरी कोई चिन्ता नहीं करते, दूसरी बात के लिए एक क्षण भी समय नहीं देते। उनका पल भर भी व्यर्थ नहीं जाता। इस प्रकार उनकी मुक्तिप्राप्ति का समय घट जाता है। एकाग्रता का अर्थ ही है, शक्तिसंचय की क्षमता को बढ़ाकर समय को घटा लेना। राजयोग इसी एकाग्रता की शक्ति को प्राप्त करने का विज्ञान है। 

इस प्राणायाम के साथ प्रेतात्मवाद (spiritualism) का क्या सम्बन्ध है? आत्माओं से सम्पर्क करने में विश्वास या प्रेतात्मवाद भी प्राणायाम की ही एक अभिव्यक्ति है। यदि यह सत्य हो कि प्रेतात्मा का अस्तित्व है और उसे हम देख भर नहीं पाते, तो यह भी बहुत सम्भव है कि यहीं पर शायद लाखों आत्माएं हैं, जिन्हें हम न देख पाते हैं, न अनुभव कर पाते हैं, न छू पाते हैं। सम्भव है, हम सदा उनके शरीर के भीतर से आजा रहे हों। और यह भी बहुत सम्भव है कि वे भी हमें देखने या किसी प्रकार से अनुभव करने में असमर्थ हों। यह मानो एक वृत्त के भीतर एक और वृत्त है, एक जगत के भीतर एक और जगत्। 

हम पंचेन्द्रियविशिष्ट प्राणी हैं। हमारे प्राण का कम्पन एक विशेष प्रकार का है। जिनके प्राण का कम्पन हमारी तरह का है, उन्हीं को हम देख सकेंगे। परन्तु यदि कोई ऐसा प्राणी हो, जिसका प्राण अपेक्षाकृत उच्चकम्पनशील है, तो उसे हम नहीं देख पाएँगे। प्रकाश के कम्पन की तीव्रता अत्यन्त अधिक बढ़ जाने पर हम उसे नहीं देख पाते, किन्तु बहुत से प्राणियों की आँखें ऐसी शक्तियुक्त हैं कि वे उस तरह का प्रकाश देख सकती हैं। इनके विपरीत, यदि आलोक के परमाणुओं का कम्पन अत्यन्त मृदु या हल्का हो, तो भी उसे हम नहीं देख पाते, परन्तु उल्लू और बिल्ली आदि प्राणी उसे देख लेते हैं। हमारी दृष्टि इस प्राणकम्पन के एक विशेष प्रकार को ही देखने में समर्थ है। इसी प्रकार वायुराशि की बात लो। वायु मानो स्तर पर स्तर रची हुई है। पृथ्वी का निकटवर्ती स्तर अपने से ऊँचेवाले स्तर से अधिक घना है, और इस तरह हम जितने ऊँचे उठते जाएँगे, हमें यही दिखेगा कि वायु क्रमशः सूक्ष्म होती जा रही है। इसी प्रकार समुद्र की बात लो; समुद्र के जितने ही गहरे प्रदेश में जाओगे, पानी का दबाव उतना ही बढ़ेगा। जो प्राणी समुद्र के नीचे रहते हैं, वे कभी ऊपर नहीं आ सकते, क्योंकि यदि वे आएँ, तो उसी समय उनका शरीर टुकड़े टुकड़े हो जाए। 

सम्पूर्ण जगत् को ईथर (आकाशतत्त्व) के एक समुद्र के रूप में सोचो। प्राण की शक्ति से वह मानो स्पन्दित हो रहा है और विभिन्न मात्रा में स्पन्दनशील स्तरों में बँटा हुआ है। तो देखोगे, जिस केन्द्र से स्पन्दन शुरू हुआ है, उससे तुम जितनी दूर जाओगे उतना ही यह स्पन्दन मृदु रूप से अनुभूत होगा; केन्द्र के पास स्पन्दन बहुत द्रुत होता है। और भी सोचो, भिन्न भिन्न प्रकार के स्पन्दनों के अलग अलग स्तर हैं। यह सम्पूर्ण स्पन्दनक्षेत्र मानो विभिन्न स्पन्दनस्तरों में विभक्त है कई लाख मील तक एक प्रकार का स्पन्दन; फिर कई लाख मील तक एक उच्चतर किन्तु दूसरे प्रकार का स्पन्दन, आदि आदि। अतः यह सम्भव है कि जो प्राण की एक विशेष अवस्था के स्तर पर वास करते हैं, वे एक दूसरे को पहचान सकेंगे, परन्तु अपने से नीचे या ऊँचे स्तरवाले जीवों को न पहचान सकेंगे। फिर भी, जैसे हम अनुवीक्षण यन्त्र और दूरबीन की सहायता से अपनी दृष्टि का क्षेत्र बढ़ा सकते हैं, उसी प्रकार योग के द्वारा मन को विभिन्न प्रकार के स्पन्दनों से युक्त करके हम दूसरे स्तर का समाचार अर्थात् वहाँ क्या हो रहा है, यह जान सकते हैं।

समझो, इसी कमरे में ऐसे बहुत से प्राणी हैं, जिन्हें हम नहीं देख पाते। वे सब प्राण के एक प्रकार के स्पन्दन के फल हैं, और हम एक दूसरे प्रकार के मान लो कि वे प्राण के अधिक स्पन्दन से युक्त हैं और हम उनकी तुलना में कम स्पन्दन से। हम भी प्राणरूप मूल वस्तु से गढ़े हुए हैं, और वे भी वही हैं। सभी एक ही समुद्र के भिन्न भिन्न अंश मात्र हैं। विभिन्नता है केवल स्पन्दन की मात्रा में। यदि मन को मैं अधिक स्पन्दनविशिष्ट कर सका, तो मैं फिर इस स्तर पर न रहूँगा, मैं फिर तुम लोगों को न देख पाऊँगा। तुम मेरी दृष्टि से अन्तर्हित हो जाओगे और वे मेरी आँखों के सामने आ जाएँगे। तुममें से शायद बहुतों को मालूम है कि यह व्यापार सत्य है। 

>>>superconscious vibrations of the mind is called — Samadhi. 

मन को इस प्रकार स्पन्दन की उच्चतर भूमि में लाना ही योगशास्त्र की भाषा में एकमात्र 'समाधि' शब्द द्वारा अभिहित किया गया है। उच्चतर स्पन्दन की ये सब भूमियाँ, मन के सब अतिचेतन सपन्दन इस एक शब्द समाधि- में वर्गीकृत हैं। समाधि की निम्नतर भूमियों में इन अदृश्य प्राणियों को प्रत्यक्ष किया जाता है। और समाधि की सर्वोच्च अवस्था तो वह है, जब हमें सत्यस्वरूप ब्रह्म के दर्शन होते हैं। तब हम उस उपादान को जान लेते हैं, जिससे इन सब बहुविध जीवों की उत्पत्ति हुई है, जैसे एक मृत्पिण्ड (one lump of clay) को जान लेने पर ब्रह्माण्ड के समस्त मृत्पिण्ड (all the clay in the universe) ज्ञात हो जाते हैं। 

अतः हम देखते हैं कि प्रेतात्मवाद में जो कुछ सत्य है, वह भी प्राणायाम में समाविष्ट है। इसी प्रकार, जब कभी तुम देखो कि कोई दल या सम्प्रदाय किसी रहस्यात्मक या गुप्त तत्त्व के आविष्कार की चेष्टा कर रहा है, तो समझना , वह यथार्थतः किसी परिमाण में इस राजयोग की ही साधना कर रहा है, प्राणसंयम की ही चेष्टा कर रहा है। जहाँ कहीं किसी प्रकार की असाधारण शक्ति का विकास हुआ है, वहाँ प्राण की ही शक्ति का विकास समझना चाहिए। यहाँ तक कि भौतिक विज्ञान भी प्राणायाम के अन्तर्गत किये जा सकते हैं। वाष्पीय यन्त्र को कौन संचालित करता है? प्राण ही वाष्प के भीतर से उसको चलाता है। ये जो विद्युत् की अद्भुत क्रियाएँ दीख पड़ती हैं, ये सब प्राण को छोड़ भला और क्या हो सकती हैं? 

भौतिक विज्ञान है क्या? वह बाहरी उपायों द्वारा प्राणायाम का विज्ञान है। प्राण जब मानसिक शक्ति के रूप में प्रकाशित होता है, तब मानसिक उपायों द्वारा ही उसका संयम किया जा सकता है। जिस प्राणायाम में प्राण की स्थूल अभिव्यक्ति को बाह्य उपायों द्वारा जीतने की चेष्टा की जाती है, उसे भौतिक विज्ञान कहते हैं, और जिस प्राणायाम में प्राण की मानसिक अभिव्यक्तियों को मानसिक उपायों द्वारा संयत करने की चेष्टा की जाती है, उसी को राजयोग कहते हैं।

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[हमारे अन्दर योग (समाधि) कैसे घटित होता है ? हमारे अन्दर जो आत्मा है, उसको ज्ञानी लोग परमात्मा का प्रतिबिम्ब कहते हैं। उसको ही गुरु, धर्माचार्य लोग 'सदाशिव' भी कहते हैं। सदाशिव है ! अर्थात वो कभी भी अवतरण नहीं लेते हैं। उनका-, जो प्रतिबिम्ब हमारे अन्दर है वो आत्मा है। और उनकी जो शक्ति , इच्छाशक्ति है; जिसे हम आदशक्ति कहते हैं ; उनका जो प्रतिबिम्ब हमारे अन्दर है वह कुण्डलिनी है। इस कुण्डलिनी का और इस आत्मा का जब मेल घटित होता है तभी-- योग घटित होता है। ये एक घटना है, जब ये घटना घटित होती है तब आत्मा का प्रकाश आपके चित्त पर छप जाता है। यह कोई बोलने वाली बात नहीं है, सर्टिफिकेट मिलने वाली नहीं है,कि साहब मैं तो आत्मसाक्षात्कारी व्यक्ति हूँ। ---श्रीमाताजी निर्मला देवी। sahajayoga.org.in]

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सोमवार, 17 जुलाई 2023

राजयोग [द्वितीय अध्याय] *साधना के प्राथमिक सोपान * ( Rajyog Chapter - 2 )

राजयोग 

[द्वितीय अध्याय] 

* साधना के प्राथमिक सोपान *

[साभार /@@@@ https://www.khabardailyupdate.com/2023/01/rajyog-chapter-2.html/ THE FIRST STEPS]

राजयोग आठ अंगों में विभक्त है। पहला है यम-अर्थात् अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी का अभाव), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। दूसरा है नियम - अर्थात् शौच, सन्तोष, तपस्या, स्वाध्याय (अध्यात्म-शास्त्रपाठ) और ईश्वरप्रणिधान अर्थात् ईश्वर को आत्मसमर्पण। तीसरा है आसन - अर्थात् बैठने की प्रणाली । चौथा है प्राणायाम - अर्थात् प्राण का संयम। पाँचवाँ है प्रत्याहार - अर्थात् मन की विषयाभिमुखी गति को फेरकर उसे अन्तर्मुखी करना। छठाँ है धारणा - अर्थात् किसी स्थल पर मन का धारण । सातवाँ है ध्यान। और आठवाँ है समाधि (superconsciousness) -अर्थात् अतिचेतन अवस्था । 

हम देख रहे हैं, यम और नियम चरित्रनिर्माण के साधन हैं। इनको नींव बनाए बिना किसी तरह की योगसाधना सिद्ध न होगी। यम और नियम में दृढ़प्रतिष्ठ हो जाने पर योगी अपनीसाधना का फल अनुभव करना आरम्भ कर देते हैं। इनके न रहने पर साधना का कोई फल न होगा। योगी को चाहिए कि वे तन-मन-वचन से किसी के विरुद्ध हिंसाचरण न करें। दया मनुष्यजाति में ही आबद्ध न रहे, वरन् उसके परे भी वह जाए और सारे संसार का आलिंगन कर ले।

यम और नियम के बाद आसन आता है। जब तक बहुत उच्च अवस्था की प्राप्ति नहीं हो जाती, तब तक रोज नियमानुसार कुछ शारीरिक और मानसिक क्रियाएँ करनी पड़ती हैं। अतएव जिससे दीर्घ काल तक एक ढंग से बैठा जा सके, ऐसे एक आसन का अभ्यास आवश्यक है। जिनको जिस आसन से सुभीता मालूम होता हो, उनको उसी आसन पर बैठना चाहिए। एक व्यक्ति के लिए एक प्रकार से बैठकर सोचना सहज हो सकता है परन्तु दूसरे के लिए, सम्भव है, वह बहुत कठिन जान पड़े। हम बाद में देखेंगे कि योगसाधना के समय शरीर के भीतर नाना प्रकार के कार्य होते रहते हैं। स्नायविक शक्तिप्रवाह की गति को फेरकर उसे नये साधना के प्राथमिक सोपान रास्ते से दौड़ाना होगा; तब शरीर में नये प्रकार के स्पन्दन या क्रिया शुरू होगी; सारा शरीर मानो नये रूप से गठित हो जाएगा। 

इस क्रिया का अधिकांश मेरुदण्ड (spinal column) के भीतर होगा। इसलिए आसन के सम्बन्ध में इतना समझ लेना होगा कि मेरुदण्ड को सहज स्थिति में रखना आवश्यक है-ठीक सीधा बैठना होगा-वक्ष, ग्रीवा और मस्तक सीधे और समुन्नत रहें, जिससे देह का सारा भार पसलियों पर पड़े। यह तुम सहज ही समझ सकोगे कि वक्ष यदि नीचे की ओर झुका रहे, तो किसी प्रकार का उच्च चिन्तन करना सम्भव नहीं।

 राजयोग का यह भाग हठयोग से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। हठयोग केवल स्थूल देह को लेकर व्यस्त रहता है। इसका उद्देश्य केवल स्थूल देह को सबल बनाना है। हठयोग के सम्बन्ध में यहाँ कुछ कहने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि उसकी क्रियाएँ बहुत कठिन हैं। एक दिन में उसकी शिक्षा भी सम्भव नहीं। फिर, उससे कोई आध्यात्मिक उन्नति भी नहीं होती। डेलसर्ट और अन्य आचार्यों के ग्रन्थों में इन क्रियाओं के अनेक अंश देखने को मिलते है। उन लोगों ने भी शरीर को भिन्न भिन्न स्थितियों में रखने की व्यवस्था की है। हठयोग की तरह उनका भी उद्देश्य दैहिक उन्नति है, आध्यात्मिक नहीं । शरीर की ऐसी कोई पेशी नहीं, जिसे हठयोगी अपने वश में न ला सके। हृदययन्त्र उसकी इच्छा के अनुसार बंद किया या चलाया जा सकता है-शरीर के सारे अंश वह अपनी इच्छानुसार चला सकता है।

मनुष्य किस प्रकार दीर्घजीवी हो, यही हठयोग का एकमात्र उद्देश्य है। शरीर किस प्रकार पूर्ण स्वस्थ रहे, यही हठयोगियों का एकमात्र लक्ष्य है। हठयोगियों का यह दृढ़ संकल्प है कि हम अस्वस्थ न हों। और इस दृढ़ संकल्प के बल से वे कभी अस्वस्थ होते भी नहीं। वे दीर्घजीवी हो सकते हैं, सौ वर्ष तक जीवित रहना तो उनके लिए मामूली सी बात है। उनकी डेढ़ सौ वर्ष की आयु हो जाने पर भी, देखोगे, वे पूर्ण युवा और सतेज हैं, उनका एक केश भी सफेद नहीं हुआ, किन्तु इसका फल बस, यहीं तक है। वटवृक्ष भी कभी कभी पाँच हजार वर्ष जीवित रहता है, किन्तु वह वटवृक्ष का वटवृक्ष ही बना रहता है। फिर वे लोग भी यदि उसी तरह दीर्घजीवी हुए, तो उससे क्या ? वे बस, एक बडे. स्वस्थकाय जीव भर रहते हैं। हठयोगियों के दो-एक साधारण उपदेश बड़े उपकारी हैं। सिर की पीड़ा होने पर, शय्यात्याग करते ही नाक से शीतल जल पियो, इससे सारा दिन मस्तिष्क ठीक और शान्त रहेगा और कभी सर्दी न होगी। नाक से पानी पीना कोई कठिन काम नहीं, बड़ा सरल है। नाक को पानी के भीतर डुबाकर गले में पानी खींचते रहो। पानी अपने आप ही धीरे धीरे भीतर जाने लगेगा।

>>>नाड़ी-शुद्धि प्राणायाम :  Purifying of the nerves. आसन सिद्ध होने पर, किसी किसी सम्प्रदाय के मतानुसार नाड़ी शुद्धि करनी पड़ती है। बहुत से लोग यह सोचकर कि यह राजयोग के अन्तर्गत नहीं है, इसकी आवश्यकता स्वीकार नहीं करते। परन्तु जब शंकराचार्य जैसे भाष्यकार ने इसका विधान किया है, तब मेरे लिए भी इसका उल्लेख करना उचित जान पडता है। मैं श्वेताश्वतर उपनिषद् पर उनके भाष्य * से इस सम्बन्ध में उनका मत उद्धृत करूँगा - प्राणायाम के द्वारा जिस मन का मैल धुल गया है, वही मन ब्रह्म में स्थिर होता है। इसलिए शास्त्रों में प्राणायाम के विषय का उल्लेख है। पहले नाड़ीशुद्धि करनी पड़ती है तभी प्राणायाम करने की शक्ति आती है।  अँगूठे से दाहिना नथुना दबाकर बायें नथुने से यथाशक्ति वायु अंदर खींचो, फिर बीच में तनिक देर भी विश्राम किये बिना बायाँ नथुना बंद करके दाहिने नथुने से वायु निकालो। फिर दाहिने नथुने से वायु ग्रहण करके बायें से निकालो। दिन भर में चार बार अर्थात् उषा, मध्याह्न, सायाह्न और निशीथ, इन चार समय पूर्वोक्त क्रिया का तीन बार या पाँच बार अभ्यास करने पर, एक पक्ष या महीने भर में नाड़ीशुद्धि हो जाती है। उसके बाद [अनुलोम-विलोम, कपालभाति,भ्रामरी, उद्गीत आदि के बाद] प्राणायाम पर अधिकार होगा। [ प्राणायामक्षपितमनोमलस्य चित्तं ब्रह्मणि स्थितं भवतीति प्राणायामों निर्दिश्यते । प्रथमं नाडीशोधनं कर्तव्यम्। ततः प्राणायामेऽधिकारः । दक्षिणनासिकापुटमङ्गुल्यावष्टभ्य वामेन वायुं पूरयेत् यथाशक्ति। ततोऽनन्तरमुत्सृज्यैवं दक्षिणेन पुटेन समुत्सृजेत्। सव्यमपि धारयेत्। पुनर्दक्षिणेन पूरयित्वा सव्येन समुत्सृजेत् यथाशक्ति । त्रिः पंचकृत्वो वा एवं अभ्यस्यतः सवनचतुष्टयमपररात्रे मध्याह्ने पूर्वरात्रेऽर्धरात्रे च पक्षान्मासात् विशुद्धिर्भवति । श्वेताश्वतरोपनिषद्, २१८ - शांकरभाष्य

>>>Practice is absolutely necessary. इस 3H विकास के 5 अभ्यास (नाड़ी-शुद्धि प्राणायाम आदि का अभ्यास) सदा आवश्यक है। तुम रोज देर तक बैठे हुए, मेरी बात सुन सकते हो,  परन्तु अभ्यास किये बिना तुम एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते। सब कुछ साधना पर निर्भर है। प्रत्यक्ष अनुभूति बिना ये तत्त्व कुछ भी समझ में नहीं आते। स्वयं अनुभव करना होगा, केवल व्याख्या और मत सुनने से न होगा। 

>>> स्व-परामर्श (Autosuggestion)  : फिर साधना में बहुत से विघ्न भी हैं। पहला तो व्याधिग्रस्त देह है। शरीर स्वस्थ न रहे, तो साधना में बाधा पड़ती है। अतः शरीर को स्वस्थ रखना आवश्यक है। किस प्रकार का खान-पान करना होगा, किस प्रकार जीवनयापन करना होगा, इन सब बातों की ओर हमें विशेष ध्यान देना होगा। मन से सोचना होगा कि शरीर सबल हो - जैसा कि यहाँ के क्रिश्चियन-साइन्स मतावलम्बी करते हैं। [श्रीमती एडी द्वारा स्थापित संस्था के मतानुसार हमें अपने आप से कहना होगा कि -'हमें कोई रोग नहीं है !' और हम उसी समय रोगमुक्त हो जायेंगे। बस शरीर के लिए फिर और कुछ करने की जरूरत नहीं। लेकिन यह हम कभी न भूलें कि स्वास्थ्य उद्देश्य के साधन का एक उपाय मात्र है। यदि स्वास्थ्य ही उद्देश्य होता, तो हम तो पशुतुल्य हो गये होते। पशु प्रायः अस्वस्थ नहीं होते।

 [इसका 'क्रिश्चियन साइन्स' (Christian Science ) नाम पड़ने का कारण यह है कि इसके मतावलम्बी कहते हैं, "हम ईसा का ठीक ठीक पदानुसरण कर रहे हैं। ईसा ने जो अद्भुत क्रियाएँ की थीं, हम भी वैसा करने में समर्थ हैं, और सब प्रकार से दोषशून्य जीवनयापन करना हमारा उद्देश्य है।" - सं.]

दूसरा विघ्न है सन्देह । हम जो कुछ नहीं देख पाते, उसके सम्बन्ध में सन्दिग्ध हो जाते हैं। मनुष्य कितनी भी चेष्टा क्यों न करे, वह केवल बात के भरोसे नहीं रह सकता। यही कारण है कि योगशास्त्रोक्त सत्यता के सम्बन्ध में सन्देह उपस्थित हो जाता है। यह सन्देह बहुत अच्छे आदमियों में भी देखने को मिलता है। परन्तु साधना का श्रीगणेश कर देने पर बहुत थोड़े दिनों में ही कुछ कुछ अलौकिक व्यापार (भ्रूमध्य में बैंगनी रंग के गोले आदि ?) देखने को मिलेंगे, और तब साधना के लिए तुम्हारा उत्साह बढ़ जाएगा। योगशास्त्र के एक भाष्यकार ने कहा भी है, "योगशास्त्र की सत्यता के सम्बन्ध में यदि एक बिलकुल सामान्य प्रमाण भी मिल जाए, तो उतने से ही सम्पूर्ण योगशास्त्र पर विश्वास हो जाएगा"।

उदाहरणस्वरूप तुम देखोगे कि महीनों की साधना के बाद तुम दूसरों का मनोभाव समझ सक रहे हो, वे तुम्हार पास चित्र के रूप में आएँगे; यदि बहुत दूर पर कोई शब्द या बातचीत हो रही हो. तो मन एकाग्र करके सुनने की चेष्टा करने से ही तुम उसे सुन लोगे। पहले पहल अवश्य ये व्यापार बहुत थोड़ा थोड़ा करके दिखेंगे। परन्तु उसी से तुम्हारा विश्वास. बल और आशा बढ़ती रहेगी। मान लो, नासिका के अग्रभाग में तुम चित्त का संयम करने लगे, तब तो थोड़े ही दिनों में तुम्हें दिव्य सुगन्ध मिलने लगेगी; इसी से तुम समझ जाओगे कि हमारा मन कभी कभी वस्तु के प्रत्यक्ष संस्पर्श में न आकर भी उसका अनुभव कर लेता है।  

>>>We must not forget that the body is mine, and not I the body. पर यह हमें सदा याद रखना चाहिए कि इन सिद्धियों का और कोई स्वतन्त्र मूल्य नहीं; वे हमारे प्रकृत उद्देश्य के साधन में कुछ सहायता मात्र करती हैं। हमें याद रखना होगा कि इन सब साधनों का एकमात्र लक्ष्य, एकमात्र उद्देश्य ‘आत्मा की मुक्ति' है। प्रकृति को पूर्ण रूप से अपने अधीन कर लेना ही हमारा एकमात्र लक्ष्य है। इसके सिवा और कुछ भी हमारा प्रकृत लक्ष्य नहीं हो सकता। हम अवश्य ही प्रकृति के स्वामी होंगे, प्रकृति के गुलाम नहीं । शरीर या मन कुछ भी हमारे स्वामी कभी नहीं हो सकते। हम यह कभी न भूलें कि 'शरीर हमारा है-हम शरीर के नहीं'

एक बार आत्मजिज्ञासु होकर ~  एक 'देवता' और एक 'असुर' किसी महापुरुष के पास (सद्गुरु -ब्रह्माजी के पास) गये। उन्होंने उन महापुरुष के पास एक अरसे तक रहकर शिक्षा प्राप्त की। कुछ दिन बाद उन महापुरुष ने उनसे कहा, “तुम लोग जिसको खोज रहे हो, वह तो तुम्हीं हो।” उन लोगों ने सोचा, "तो देह ही आत्मा है।" फिर उन लोगों ने यह सोचकर कि जो कुछ मिलना था, मिल गया, सन्तुष्ट चित्त से अपनी अपनी जगह को प्रस्थान किया। उन लोगों ने जाकर अपने अपने आत्मीय जनों से कहा, “जो कुछ सीखना था, सब सीख आये। अब आओ, भोजन, पान और आनन्द में दिन बिताएँ-हमीं वह आत्मा हैं ; इसके सिवा और कोई वस्तु नहीं।" उस असुर का स्वभाव अज्ञान से ढका हुआ था, इसलिए इस विषय में उसने आगे अधिक अन्वेषण नहीं किया। अपने को ईश्वर समझकर वह पूर्ण रूप से सन्तुष्ट हो गया; उसने 'आत्मा' शब्द से देह समझा । 

परन्तु देवता का स्वभाव अपेक्षाकृत पवित्र था। देवता भी पहले  इस भ्रम में पड़े थे कि 'मैं' का अर्थ यह शरीर ही है; यह देह ही ब्रह्म है, इसलिए इसे स्वस्थ और सबल रखना, सुन्दर वस्त्रादि पहनना और सब प्रकार के दैहिक सुखों का भोग करना ही कर्तव्य है। परन्तु कुछ दिन जाने पर उन्हें यह बोध होने लगा कि गुरु के उपदेश का अर्थ यह नहीं हो सकता कि देह ही आत्मा है; वरन् देह से भी श्रेष्ठ कुछ अवश्य है। तब उन्होंने गुरु के निकट आकर पूछा, “गुरो, आपके वाक्य का क्या यह तात्पर्य है कि देह ही आत्मा है ? परन्तु यह कैसे हो सकता है ? सभी शरीर तो नष्ट होते हैं, पर आत्मा का तो नाश नहीं।" आचार्य ने कहा, "तुम स्वयं इसका निर्णय करो, तुम वही हो - तत्त्वमसि।" तब शिष्य ने सोचा, शरीर में क्रियाशील जो प्राण हैं, शायद उनको लक्ष्य कर गुरु ने पूर्वोक्त उपदेश दिया था। वे वापस चले गये। परन्तु फिर शीघ्र ही देखा कि भोजन करने पर प्राण तेजस्वी रहते हैं और न करने पर मुरझाने लगते हैं। तब वे पुनः गुरु के पास आये और कहा, “गुरो, आपने क्या प्राणों को आत्मा कहा है?" गुरु ने कहा, “स्वयं तुम इसका निर्णय करो, तुम वही हो।" 

उस अध्यवसायशील शिष्य ने गुरु के यहाँ से लौटकर सोचा, "तो शायद मन ही आत्मा होगा।" परन्तु वे शीघ्र ही समझ गये कि मनोवृत्तियाँ बहुत तरह की हैं; मन में कभी सद्वृत्ति, तो कभी असद्वृत्ति उठती है; अतः मन इतना परिवर्तनशील है कि वह कभी आत्मा नहीं हो सकता। तब फिर से गुरु के पास आकर उन्होंने कहा, "मन आत्मा है, ऐसा तो मुझे नहीं जान पड़ता। आपने क्या ऐसा ही उपदेश दिया है?" गुरु ने कहा, "नहीं, तुम्हीं वह हो, तुम स्वयं इसका निर्णय करो।”

 वे देवपुंगव फिर लौट गये ; तब उनको यह ज्ञान हुआ, “मैं समस्त मनोवृत्तियों के परे एकमेवाद्वितीय आत्मा हूँ। मेरा जन्म नहीं, मृत्यु नहीं, मुझे तलवार नहीं काट सकती, आग नहीं जला सकती, हवा नहीं सुखा सकती, जल नहीं गला सकता।  मैं अनादि हूँ, जन्मरहित, अचल, अस्पर्श, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् पुरुष हूँ। आत्मा शरीर, प्राण या मन नहीं है , वह तो इन सब के परे हैं।" इस प्रकार वे देवता ज्ञानप्रसूत आनन्द से तृप्त हो गये। पर उस असुर बेचारे को सत्यलाभ न हुआ, क्योंकि देह में उसकी अत्यन्त आसक्ति थी

इस जगत् में ऐसी असुर-प्रकृति के अनेक लोग हैं; फिर भी देवता- प्रकृतिवाले बिलकुल ही न हों, ऐसा नहीं। यदि कोई कहे, "आओ, तुम लोगों को मैं एक ऐसी विद्या सिखाऊँगा, जिससे तुम्हारा इन्द्रियसुख अनन्त गुना बढ़ जाएगा" तो अगणित लोग उसके पास दौड़ पड़ेंगे। परन्तु यदि कोई कहे, “आओ, मैं तुम लोगों को तुम्हारे जीवन का चरम लक्ष्य परमात्मा का विषय सिखाऊँगा" तो शायद उनकी बात की कोई परवाह भी न करेगा। ऊँचे तत्त्व की धारणा करने की शक्ति बहुत कम लोगों में देखने को मिलती है; सत्य को प्राप्त करने के लिए अध्यवसायशील लोगों की संख्या- तो और भी बिरली है। 

>>>Yet the body must be kept strong and healthy : पर संसार में ऐसे महापुरुष भी हैं, जिनकी यह निश्चित धारणा है कि शरीर चाहे हजार वर्ष रहे या लाख वर्ष, अन्त में परिणाम एक ही होगा। जिन शक्तियों के बल से देह कायम है, उनके चले जाने पर देह न रहेगी। कोई भी व्यक्ति पल भर के लिए भी शरीर का परिवर्तन रोकने में समर्थ नहीं हो सकता। आखिर शरीर है क्या ? वह कुछ सतत परिवर्तनशील परमाणुओं की समष्टि मात्र है। नदी के दृष्टान्त से यह तत्त्व सहज बोधगम्य हो सकता है। तुम अपने सामने नदी में जलराशि देख रहे हो, वह देखो, पल भर में वह चली गयी और उसकी जगह एक नयी जलराशि आ गयी। जो जलराशि आयी, वह सम्पूर्ण नयी है, परन्तु देखने में पहली ही जलराशि की तरह है। शरीर भी ठीक इसी तरह सतत परिवर्तनशील है। शरीर के इस प्रकार परिवर्तनशील होने पर भी उसे स्वस्थ और बलिष्ठ रखना आवश्यक है, क्योंकि शरीर की सहायता से ही हमें ज्ञान की प्राप्ति करनी होगी। यही हमारे पास सर्वोत्तम साधन है।

सब प्रकार के शरीरों में मानव-शरीर ही श्रेष्ठतम है; मनुष्य ही श्रेष्ठतम जीव है। मनुष्य सब प्रकार के प्राणियों से- यहाँ तक कि देवादि से भी - श्रेष्ठ है। मनुष्य से श्रेष्ठतर कोई और नहीं। देवताओं को भी ज्ञानलाभ के लिए मनुष्यदेह धारण करनी पड़ती है। एकमात्र मनुष्य ही ज्ञानलाभ का अधिकारी हैं, यहाँ तक कि देवता भी नहीं। यहूदी और मुसलमानों के मतानुसार ईश्वर ने देवदूत और अन्य समस्त सृष्टियों के बाद मनुष्य की सृष्टि की। और मनुष्य के सृजन के बाद ईश्वर ने देवदूतों से मनुष्य को प्रणाम और अभिनन्दन कर आने के लिए कहा। इबलीस को छोड़कर बाकी सब ने ऐसा किया। अतएव ईश्वर ने इबलीस को अभिशाप दे दिया। इससे वह शैतान बन गया। इस रूपक के पीछे यह महान् सत्य निहित है कि संसार में मनुष्य-जन्म ही अन्य सब जन्मों की अपेक्षा श्रेष्ठ है। पशु आदि हीन योनियाँ जड़ या मन्दबुद्धि की हैं, ये प्रधानतः तम से निर्मित हुई हैं। पशु किसी ऊँचे तत्त्व की धारणा नहीं कर सकते। देवदूत या देवता भी मनुष्य-जन्म लिये बिना मुक्तिलाभ नहीं कर सकते। 

[ महाकवि कालिदास ने अपने महाकाव्य- 'कुमारसम्भव' में एक अनुपम बात लिखी- 'शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्' अर्थात् शरीर ही धर्म का पहला और उत्तम साधन है। व शरीर ही धर्म को जानने का माध्यम है। इस मनुष्य शरीर  में ही हम अपनी वास्तविकता को समझ सकते हैं कि हम कौन हैं, कहाँ से आए हैं और कहाँ जाना है? अब भला ऐसा क्यों कहा गया है, इसे समझने का प्रयास करेंगे.. धर्म का क्या अर्थ होता है? धर्म शब्द 'धृञ्' धातु से निकला है, जिसका मतलब होता है- धारण करना। 'धारणाद् धर्मं इति आहुः' अर्थात् जिसे धारण किया जाता है, वही धर्म है। शास्त्रों में कहा गया है- मनुष्यों में और पशुओं में यदि कुछ भेद है, तो वह है धर्म का। ऐसा क्या है धर्म में? किस धर्म को धारण कर मनुष्य मनुष्य बनता है? विवेकानंद जी ने खरे शब्दों में धर्म को परिभाषित किया- 'Religion is the Realization of God- धर्म परमात्मा की प्रत्यक्षानुभूति है।' आत्मा की ब्रह्मस्वरूपता को जान लेना, उससे तद्रूप हो जाना, उसका साक्षात्कार कर लेना - यही वास्तविक धर्म है। इस शरीर के माध्यम से ही उस वास्तविक धर्म, ईश्वर व जीवन के वास्तविक लक्ष्य तक हम पहुँच सकते है। इसलिए हमारे शास्त्रों में मानव शरीर की इतनी महिमा गाई गई है।]

 इसी तरह मनुष्य-समाज में भी अत्यधिक धन अथवा अत्यधिक दरिद्रता आत्मा के उच्चतर विकास के लिए महान् बाधक है। संसार में जितने महात्मा (धर्माचार्य या मानवजाति के मार्गदर्शक नेता) पैदा हुए हैं, सभी मध्यम वर्ग के लोगों से हुए थे। मध्यम वर्गवालों में सब शक्तियाँ समान रूप से समायोजित और सन्तुलित रहती हैं।

अब हम अपने विषय पर आएँ। हमें अब प्राणायाम-श्वास-प्रश्वास के नियमन के सम्बन्ध में आलोचना करनी चाहिए। चित्तवृत्तियों के निरोध से प्राणायाम का क्या सम्बन्ध है ? श्वास-प्रश्वास मानो देहयन्त्र का गतिनियामक प्रचक्र (fly - wheel) है। एक बृहत् इंजन पर निगाह डालने पर देखोगे कि पहले प्रचक्र घूम रहा है और उस चक्र की गति क्रमशः सूक्ष्म से सूक्ष्मतर यन्त्रों में संचारित होती है। इस प्रकार उस इंजन के अत्यन्त सूक्ष्मतम यन्त्र तक गतिशील हो जाते हैं। श्वास-प्रश्वास ठीक वैसा ही एक गतिनियामक प्रचक्र है। वही इस शरीर के सब अंगों में जहाँ जिस प्रकार की शक्ति की आवश्यकता है, उसकी पूर्ति कर रहा है और उस प्रेरक-शक्ति को नियमित भी कर रहा है।

एक राजा के एक मन्त्री था। किसी कारण से राजा उस पर नाराज हो गया। राजा ने उसे एक बड़ी ऊँची मीनार की चोटी में कैद करके रखने की आज्ञा दी। राजा की आज्ञा का पालन किया गया। मन्त्री भी वहाँ कैद होकर मौत की राह देखने लगा। मन्त्री के एक पतिव्रता पत्नी थी।  रात को उस मीनार के नीचे आ उसने चोटी पर कैद हुए पति को पुकारकर पूछा,“मैं किस प्रकार तुम्हारी रक्षा करूँ?” मन्त्री ने कहा, “अगली रात को एक लम्बा मोटा रस्सा, एक मजबूत डोरी, एक बंडल सूत, रेशम का पतला सूत, एक भृंग और थोड़ा-सा शहद लेती आना।" उसकी सहधर्मिणी पति की यह बात सुनकर बहुत आश्चर्यचकित हो गयी। जो हो, वह पति की आज्ञानुसार दूसरे दिन सब वस्तुएँ ले गयी। मन्त्री ने उससे कहा, “रेशम का सूत मजबूती से भृंग के पैर में बाँध दो, उसकी मूँछों में एक बूँद शहद लगा दो और उसका सिर ऊपर की ओर करके उसे मीनार की दीवार पर छोड़ दो।" पतिव्रता ने सब आज्ञाओं का पालन किया। 

>>> lastly the rope of Prana, controlling which we reach freedom.तब उस कीडे ने अपना लम्बा रास्ता पार करना शुरू किया। सामने शहद की महक पाकर उसके लोभ से वह धीरे धीरे ऊपर चढ़ने लगा, और अन्त में मीनार की चोटी पर जा पहुँचा, मन्त्री ने झट उसे पकड़ लिया और उसके साथ रेशम के सूत को भी। इसके बाद अपनी पत्नी से कहा, "बंडल में जो सूत है, उसे रेशम के सूत के छोर से बाँध दो।" इस तरह वह भी उसके हाथ में आ गया। इसी उपाय से उसने डोरा और मोटा रस्सा भी पकड़ लिया। अब कोई कठिन काम न रह गया। रस्सा ऊपर बाँधकर वह नीचे उतरा और भाग खड़ा हुआ। हमारी इस देह में श्वास-प्रश्वास की गति मानो रेशमी सूत है। इसके धारण या संयम कर सकने पर पहले स्नायविक शक्तिप्रवाहरूप (nerve currents) सूत का बंडल, फिर मनोवृत्तिरूप डोरी और अन्त में प्राणरूप रस्से को पकड़ सकते हैं। प्राणों को जीत लेने पर मुक्ति प्राप्त होती है

हम अपने शरीर के सम्बन्ध में बड़े अज्ञ हैं, कुछ जानकारी रखना भी हमें सम्भव नहीं मालूम पड़ता। बहुत हुआ, तो हम मृत देह को चीर-फाड़कर देख सकते हैं कि उसके भीतर क्या है और क्या नहीं; और कोई कोई इसके लिए किसी जीवित पशु की देह ले सकते हैं। पर इससे हमारे अपने शरीर का कोई सम्बन्ध नहीं। हम अपने शरीर के सम्बन्ध में बहुत कम जानते हैं। इसका कारण क्या है ? यह कि हम मन को उतनी दूर तक एकाग्र नहीं कर सकते, जिससे हम शरीर के भीतर की अतिसूक्ष्म गतियों तक को समझ सकें। मन जब बाह्य विषयों का परित्याग करके देह के भीतर प्रविष्ट होता है और अत्यन्त सूक्ष्मावस्था प्राप्त करता है, तभी हम उन गतियों को जान सकते हैं। इस प्रकार सूक्ष्म अनुभूतिसम्पन्न होने के लिए हमें पहले स्थूल से आरम्भ करना होगा। देखना होगा, सारे शरीरयन्त्र को चलाता कौन है, और उसे अपने वश में लाना होगा। वह प्राण है, इसमें कोई सन्देह नहीं। श्वास-प्रश्वास ही उस प्राणशक्ति की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है। अब, श्वास-प्रश्वास के साथ धीरे धीरे शरीर के भीतर प्रवेश करना होगा। इसी हम देह के भीतर की सूक्ष्म से सूक्ष्म शक्तियों के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त कर सकेंगे और समझ सकेंगे कि स्नायविक शक्तिप्रवाह किस तरह शरीर में सर्वत्र भ्रमण कर रहे हैं।

 और जब हम मन में उनका अनुभव कर सकेंगे, तब उन्हें, और उनके साथ देह को भी हमारे अधिकार में लाने के लिए हम प्रारम्भ करेंगे। मन भी इन स्नायविक शक्तिप्रवाहों द्वारा संचालित हो रहा है। इसीलिए उन पर विजय पाने से मन और शरीर, दोनों ही हमारे अधीन हो जाते हैं, हमारे दास बन जाते हैं। ज्ञान ही शक्ति है, और यह शक्ति प्राप्त करना ही हमारा उद्देश्य है। इसलिए हमें प्राणायाम-प्राण के नियमन से प्रारम्भ करना होगा। इस प्राणायाम-तत्त्व की विशेष आलोचना के लिए दीर्घ समय की आवश्यकता है - इसको अच्छी तरह समझाते बहुत दिन लगेंगे। हम उसका एक एक अंश लेकर चर्चा करेंगे।

हम क्रमशः समझ सकेंगे कि प्राणायाम के साधन में जो क्रियाएँ की जाती हैं, उनका हेतु क्या है और प्रत्येक क्रिया से देह के भीतर किस प्रकार की शक्ति प्रवाहित होती है। क्रमशः यह सब हमें बोधगम्य हो जाएगा। परन्तु इसके लिए निरन्तर साधना आवश्यक है। साधना के द्वारा ही मेरी बात की सत्यता का प्रमाण मिलेगा। मैं इस विषय में कितनी भी युक्तियों का प्रयोग क्यों न करूँ, पर तुम्हारे लिए वे प्रमाण नहीं होंगी, जब तक तुम स्वयं प्रत्यक्ष न कर लोगे। जब देह के भीतर इन शक्तियों के प्रवाह की गति स्पष्ट अनुभव करने लगोगे, तभी सारे संशय दूर होंगे। परन्तु इसके अनुभव के लिए प्रत्यह कठोर अभ्यास आवश्यक है। 

प्रतिदिन कम से कम दो बार -प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास करना चाहिए, और उस अभ्यास का उपयुक्त समय है प्रातः और सायं। जब रात बीतती है और पौ फटती है तथा जब दिन बीतता है और रात आती है, इन दो समयों में प्रकृति अपेक्षाकृत शान्त होती है। ब्राह्ममुहूर्त और गोधूलि, ये दो समय मन की स्थिरता के लिए अनुकूल हैं। इन दोनों समयों में शरीर बहुत कुछ शान्त रहता है। इस समय साधना करने से प्रकृति हमारी काफी सहायता करेगी, इसलिए इन्हीं दो समयों में साधना करनी आवश्यक है। यह नियम बना लो कि साधना समाप्त किये बिना भोजन न करोगे। ऐसा नियम बना लेने पर भूख का प्रबल वेग ही तुम्हारा आलस्य नष्ट कर देगा। भारतवर्ष में बालक यही शिक्षा पाते हैं कि स्नान-पूजा और साधना किये बिना भोजन नहीं करना चाहिए। कालान्तर में यह उनके लिए स्वाभाविक हो जाता है ;उनकी जब तक स्नान-पूजा और साधना समाप्त नहीं हो जाती, तब तक उन्हें भूख नहीं लगती। 

तुममें से जिनको सुभीता हो, वे साधना (प्रत्याहार -धारणा ) के लिए  यदि एक स्वतन्त्र कमरा रख सकें, तो अच्छा हो। इस कमरे को सोने के काम में न लाओ। इसे पवित्र रखो। बिना स्नान किये और शरीर-मन को बिना शुद्ध किये इस कमरे में प्रवेश न करो। इस कमरे में सदा पुष्प और हृदय को आनन्द देनेवाले चित्र रखो । योगी के लिए ऐसे वातावरण में रहना बहुत उत्तम है। सुबह और शाम वहाँ धूप और चन्दनचूर्ण आदि जलाओ। उस कमरे में किसी प्रकार का क्रोध, कलह और अपवित्र चिन्तन न किया जाए। 

तुम्हारे साथ जिनके भाव मिलते हैं, केवल उन्हीं को उस कमरे में प्रवेश करने दो। [या अपना आसन बिल्कुल अलग रखो !!] ऐसा करने पर शीघ्र वह कमरा सत्त्वगुण से पूर्ण हो जाएगा; यहाँ तक कि, जब किसी प्रकार का दुःख या संशय आए अथवा मन चंचल हो, तो उस समय उस कमरे में प्रवेश करते ही तुम्हारा मन शान्त हो जाएगा। मन्दिर, गिरजाघर आदि के निर्माण का सच्चा उद्देश्य यही था। अब भी बहुत से मन्दिरों और गिरजाघरों में यह भाव देखने को मिलता है; परन्तु अधिकतर स्थलों में लोग इनका उद्देश्य भूल गये हैं। चारों ओर पवित्र चिन्तन के परमाणु सदा स्पन्दित होते रहने के कारण वह स्थान पवित्र ज्योति से भरा रहता है। जो इस प्रकार के स्वतन्त्र कमरे की व्यवस्था नहीं कर सकते, वे जहाँ इच्छा हो, वहीं बैठकर साधना कर सकते हैं । रीढ़  हड्डी को सीधा रखकर बैठो । 

संसार में पवित्र चिन्तन का एक स्रोत बहा दो । मन ही मन कहो, हे प्रभु ! संसार के सभी मनुष्य सुखी हों, सभी शान्ति और आनन्द में रहें , सभी को ईश्वर की प्राप्ति हो !" इस प्रकार पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण चारों ओर पवित्र चिन्तन की धारा बहा दो। ऐसा जितना करोगे, उतना ही तुम अपने को अच्छा अनुभव करने लगोगे। बाद में देखोगे, 'दूसरे सब लोग स्वस्थ हों, ' यह चिन्तन ही स्वास्थ्य-लाभ का सहज उपाय है। 'दूसरे लोग सुखी हों, ऐसी भावना ही अपने को सुखी करने का सहज उपाय है। इसके बाद जो लोग ईश्वर पर विश्वास करते हैं, वे ईश्वर के निकट प्रार्थना करें - अर्थ, स्वास्थ्य अथवा स्वर्ग के लिए नहीं, वरन् हृदय में ज्ञान और सत्यतत्त्व के उन्मेष के लिए। विवेक-वैराग्य, भक्ति और ज्ञान को छोड बाकी सब प्रार्थनाएँ स्वार्थभरी हैं

इसके बाद भावना करनी होगी, 'मेरा शरीर वज्रवत् दृढ़ , सबल और स्वस्थ है। यह देह ही मेरी मुक्ति में एकमात्र सहायक है। इसी की सहायता से मैं यह जीवनसमुद्र पार कर लूँगा।' जो दुर्बल है, वह कभी मुक्ति नहीं पा सकता। समस्त दुर्बलताओं का त्याग करो। देह से कहो, 'तुम खूब बलिष्ठ हो।' मन से कहो, 'तुम अनन्त शक्तिधर हो', और स्वयं पर प्रबल विश्वास और भरोसा रखो

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