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सोमवार, 6 अक्टूबर 2025

सारदा नारी संगठन द्वारा 9 अक्टूबर से 12 अक्टूबर 2025 तक आयोजित '34 वां' वार्षिक अखिल भारतीय महिला प्रशिक्षण शिविर -2025 ' के कार्यक्रम एवं समय सारणी

 सारदा नारी संगठन 

द्वारा आयोजित

 [34 वां वार्षिक अखिल भारतीय महिला प्रशिक्षण शिविर -2025 ]

तारीख - 9 अक्टूबर से 12 अक्टूबर 2025 तक 

स्थान - अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल,

 बालिभाड़ा शाखा एवं निवेदिता शिशु विहार। 

'प्रशिक्षण शिविर का उद्देश्य'  

श्रीरामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द विशेष रूप से श्रीमाँ सारदा देवी के आदर्शों के अनुरूप छात्राओं, युवतियों , गृहिणी तथा सभी श्रेणी की महिलाओं को मनुष्यत्व विकसित करने के लिए प्रेरित करना। 

'प्रशिक्षण के मुख्य विषय' 

 शारीरिक व्यायाम,  मन पर नियंत्रण (Mind control) तथा चरित्र -निर्माण (Character Building) ।

छात्राओं के प्रशिक्षण कार्यक्रम की समय-सारणी 

प्रतिदिन प्रातः 4:55 से रात्रि 10 बजे तक - ध्वजारोहण, मानसिक एकाग्रता, शारीरिक व्यायाम, विशेष-चर्चा (मानसिक एकाग्रता, चरित्र निर्माण, ठाकुर श्री रामकृष्ण, माँ सारदा देवी, स्वामी विवेकानंद एवं भगिनी निवेदिता के जीवन, सारदा नारी संगठन के उद्देश्य,आदर्श और कार्यपद्धति।) प्रश्नोत्तर, खेलकूद, संगीत अभ्यास इत्यादि ।

सार्वजनिक कार्यक्रम की समय सारणी 

गुरुवार, 9 अक्टूबर : 

शाम 4:40: शिविर का उद्घाटन।

शाम 5:00: उद्घाटन गीत, स्वागत भाषण।

5:30 अपराह्न: उद्घाटन भाषण - 

परिव्राजिका निर्भीकप्राणा माताजी, सचिव, रामकृष्ण सारदा मिशन, सिरिटी। 

शाम 6:45: संगीत कार्यक्रम। 

शुक्रवार, 10 अक्टूबर : 

6:40 PM: भाषण - 'स्वामीजी के आदर्शों पर चलकर मनुष्य बनें' - श्री अमित कुमार दत्ता, सचिव, अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामंडल।

7:30 अपराह्न: गीत नाट्य - प्रस्तुति बालिभाड़ा सारदा नारी संगठन। 

शनिवार, 11 अक्टूबर :

 शाम 6:40 बजे: भाषण - "हमारी दैनंदिन समस्याओं समाधान में ठाकुर श्री रामकृष्ण" - परिव्राजिका प्रदीप्तप्राणा माताजी, सह-अध्यक्षा, श्री सारदा मठ।

शाम 6:40 बजे: भाषण - 'वर्तमान नारी और श्रीश्रीमाँ सारदादेवी ' - डॉ. चिन्मयी नंदी, अध्यक्ष, सारदा नारी संगठन।

शाम 7:30 बजे: गीत नाट्य - प्रस्तुतकर्ता: चकदाहा सारदा नारी संगठन।

रविवार, 12 अक्टूबर : 

3:10 अपराह्न:

 भाषण - मुख्य अतिथि श्रीमत स्वामी दिव्यानंदजी महाराज, उपाध्यक्ष, रामकृष्ण मठ और रामकृष्ण मिशन, बेलूर मठ।

शाम 6:40 बजे: 

विदाई भाषण : श्री रंजीत कुमार घोष, उपाध्यक्ष, अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामंडल।

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प्रतिदिन संध्या 6:00 - बजे प्रार्थना। दोपहर 3:00 बजे से रात 8:00 बजे तक आम जनता के लिए प्रवेश निःशुल्क है। 

शिविर में श्रीरामकृष्ण -विवेकानंद साहित्य विक्रय केंद्र और प्रदर्शनियाँ भी हैं।

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गुरुवार, 2 अक्टूबर 2025

🔱भजगोविन्दं ~ "ईश्वर का अनुसन्धान करो ~ ब्रह्म ही सत्य है , बाकि सब मिथ्या है ! Session 26 | The Essence of Vivekachudamani | 🔱🔱[https://www.sadhanapath.in/2025/07/51.html] 🔱🔱https://shlokam.org/texts/vivekachudamani-472-479/

"संस्कृत में रचित 'भजगोविन्दं स्त्रोत्र' की हिन्दी व्याख्या "

(- परम् पूज्य स्वामी शुद्धिदानन्दा जी महाराज, अध्यक्ष,

अद्वैत आश्रम, मायावती , हिमालय।)   


 परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं,

 निरीहं निराकारमोङ्कारवेद्यम्।

यतो जायते पाल्यते येन विश्वं,

 तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम्॥५॥

ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु।

सह वीर्यं करवावहै।

तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥

ॐ शांति, शांति, शांतिः हरिः ॐ 

भजगोविन्दं स्त्रोत्र : 

          भूमिका -कहते हैं कि श्री शंकराचार्य जी बनारस में गंगा स्नान के बाद घाट से ऊपर आ रहे थे उन्होंने देखा , एक वृद्ध व्यक्ति घाट पर बैठकर संस्कृत के व्याकरण के नियमों को रटने का अभ्यास कर रहा है। यह देखकर उनको अत्यंत ही पीड़ा हुई। कि इस बुढ़ापे में , इस व्यक्ति का मन व्याकरण के नियमों में डूबा हुआ है। संस्कृत के व्याकरण के नियमों को जानने से क्या तुम संसार के जन्म-मृत्यु के नियमों से बच पाओगे ? यह देखकर उनको अत्यंत पीड़ा हुई , और उनके मुख से ये शब्द निकल पड़े -'न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे॥' संस्कृत के व्याकरण के नियमों का ज्ञान प्राप्त करके तुम जीवन के इन कष्टों से मुक्त नहीं होने वाले हो। तो क्या करने से तुम बंधनों से मुक्त हो सकोगे ? तो -भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्,गोविन्दं भज मूढ़मते।' तो यही है इस स्तोत्र की भूमिका। 

    हमलोग देखेंगे कि इस स्तोत्र का विषय बड़ा स्पष्ट है। हमने देखा कि विवेक चूड़ामणि ग्रंथ साधन चतुष्टय में विवेक की परिभाषा देते हुए भगवान शंकराचार्य जी कहते हैं -

 ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या इति एवं रूपों विनिश्चयः ।

 सोऽयं नित्य अनित्य वस्तु विवेकः सम उदारतः॥ २0 ॥

 [अर्थ:- 'ब्रह्म सत्य है और जगत् मिथ्या है' ऐसा जो निश्चय है यही 'नित्यानित्यवस्तु-विवेक' कहलाता है।] 

विवेक क्या है ? ब्रह्म ही सत्य है , और जो इन्द्रियों से हमें दिखाई दे रहा है यह अपने-आप में मिथ्या है, या नहीं है -इसका हमने विश्लेषण कर के देखा। यही इस पूरे स्तोत्र का मुख्य विषय है। इस स्तोत्र के प्रत्येक पंक्ति में शंकराचार्य जी हमें जगत के मिथ्यत्व को बतायेंगे, और इस मिथ्या जगत का वास्तविक स्वरुप क्या है ? मिथ्या जगत में हमारे व्यावहारिक स्तर पर क्या होता है ? जिन विषयों से हमें आसक्ति है , उन विषयों से आसक्त होने पर उनका परिणाम क्या होता है? ये हमें बता देते हैं। और दूसरी ओर यह भी कहते हैं -सत्य क्या है ? हर पंक्ति में शंकराचार्य जी एक ओर हमें बतायेंगे कि मिथ्या क्या है ? और इस मिथ्या संसार में डूबने से हमारे व्यावहारिक स्तर पर , क्या क्या होता है -ये बताते हैं , ताकि हमारी ऑंखें खुल जाएँ। आज जो हमलोग सोये हुए हैं, ताकि हमारी ऑंखें खुल जाएँ। मोह निद्रा से हम जग जाएँ। और दूसरी और यह बताते हैं कि सत्य क्या है ? तो गोविन्द ही सत्य हैईश्वर ही सत्य है , बाकि सब मिथ्या है। यही इस स्तोत्र का मूल विषय है। (5:36

    शंकराचार्यजी की दूसरी रचनाओं की तुलना में अगर देखें तो वहाँ उनके शब्द बड़े ललित और मृदु शब्द है। लेकिन भज गोविन्दं स्तोत्र में इनके शब्द बड़े तीखे हैं। उनके शब्द मानो हमारी जड़ बुद्धि पर जोर से प्रहार कर रही है। आप उनके द्वारा रचित भवानी अष्टकं या अन्नपूर्णास्तोत्र देखें, तो वहाँ पर उनके शब्दों का प्रयोग अन्य प्रकार का है। लेकिन यहाँ पर जैसे उनके शब्द हमारे हृदय का छेदन कर रही है। जैसे आघात किया जा रहा है। और हमें मोहनिद्रा से जगाने के लिए यह आघात बहुत आवश्यक है। हमलोग जो इस मिथ्या संसार में -डूबे हुए हैं , उस निद्रा से हमें जगाने के लिए इस स्तोत्र को रचा गया है। अतिसुंदर है। इसको मोहमुद्गर भी कहते हैं। मोह को तोड़ने वाला गदा या हथोड़ा। शंकराचार्यजी अपने तीखे शब्दों द्वारा बार-बार हमारी बुद्धि पर आघात करते हैं , ताकि हमारा ये मोह टूट जाये। इस भज गोविन्दम् स्तोत्र का एक दूसरा नाम है - 'चरपट पञ्जरिका' भी है पञ्जरिका का अर्थ है पिंजरा। 

     चरपट यानि चिथड़ा जैसे शरीर का पिंजरा है, और उसी पिंजरे के अंदर ये जीव फँसा हुआ है। जीव इस नश्वर शरीर रूपी पिंजरे से बाहर निकल जाना चाहता है। लेकिन मनुष्य यदि इस देवदुर्लभ मानव शरीर को पाकर भी साधना नहीं करें, जीव यदि ईश्वर का अनुसन्धान या परम् सत्य का अनुसन्धान न करके केवल इन्द्रिय-भोगों में डूबा रहे ; तो परिणाम क्या होगा ? हमने देखा कि यह स्थूल शरीर तो अंततोगत्वा तुच्छ ही है, नश्वर है यह कभी भी टूट सकता है , और इसका स्वभाव निरंतर  बदलता रहता है। इसके अंदर क्या है -हमने देखा मांस, हड्डी, रक्त है। और इसी चीथड़े जैसे शरीर में जीव फँसा हुआ है ? लेकिन यदि कोई मनुष्य उससे बाहर निकलना चाहता हो , तो वह इस बंधन से बाहर कैसे निकलें ? यही उपाय इस भज गोविन्दं स्तोत्र में बताया गया है। इस स्तोत्र के प्रत्येक छंद में बंधन से मुक्त होने के मार्ग को उसी प्रकार बताया गया है, जैसे हमने विवेक-चूड़ामणि में पढ़ा है। अतएव भजगोविन्दं स्तोत्र भी अपनेआप में एक पूरा मोक्ष शास्त्र है। शंकराचार्यजी इस स्तोत्र के हर पंक्ति में हमें वह मार्ग दिखा रहे हैं कि हम मुक्त कैसे हों? मनुष्य होकर भी जो जीव आज अविवेक में डूबा हुआ है, जो आज बंधन में है , जीव उस गड्ढे में गिरा हुआ है , जिसका कोई तल है ही नहीं। शंकराचार्य जी बड़े तीक्ष्ण शब्दों में उसे उस गड्ढे से बाहर निकलने का मार्ग दिखला रहे हैं (9:36

     हमलोग जिस मिथ्या जगत से बहुत प्रभावित हैं , इस मिथ्या जगत से आकृष्ट हैं। इस ,मिथ्या जगत से आकृष्ट कौन हो सकता है ? कोई अविवेकी ही आकृष्ट हो सकता है। जब अज्ञान के कारण हम इस मिथ्या जगत में डूब जाते हैं , तो हमारे साथ क्या होता है ? वह बताया है , और बाहर निकलने का मार्ग भी बताया गया है -अतिसुंदर। एक पंक्ति में कहो -तो ये अद्भुत रचना है। 1200 से यह रचना पूरे विश्व में घूम रही है। हम जैसे कितने ही मोह निद्रा में सोये लोगों को जगा रही है। पहले हम पाठ करते हैं -बाद में एक एक श्लोक के अर्थ को देखेंगे। इस रचना में कुल 31 श्लोक हैं , जिसके बारे में कहा जाता है कि पहले के जो 17 श्लोक हैं , वे स्वयं शंकराचार्य जी द्वारा रचित हैं। ऐसा कहते हैं कि बाकि के 14 श्लोक उनके शिष्यों के द्वारा रचित हैं। हमलोग अभी उन 17 श्लोकों का पाठ कर लेते हैं, जो स्वयं शंकराचार्यजी द्वारा रचित हैं - 

भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्,गोविन्दं भज मूढ़मते।

संप्राप्ते सन्निहिते मरने , न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे॥

दिनमपि रजनी सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायातः।

कालः क्रीडति गच्छत्यायुः तदपि न मुञ्चत्याशावायुः॥1॥

भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

अग्रे वह्निः पृष्ठे भानुः रात्रौ चिबुकसमर्पितजानुः।

करतलभिक्षा तरुतलवासः तदपि न मुञ्चत्याशापाशः॥2॥

भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

यावद्वित्तोपार्जनसक्तः तावन्निजपरिवारो रक्तः।

पश्चाद्धावति जर्जरदेहे वार्ता पृच्छति कोऽपि न गेहे॥3॥

भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

जटिलो मुण्डी लुञ्चितकेशः काषायाम्बरबहुकृतवेषः।

पश्यन्नपि च न पश्यति लोकः उदरनिमित्तं बहुकृत वेषः ॥4॥

भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

भगवद् गीता किञ्चितधीता गङ्गाजल लवकणिका पीता।

सकृदपि यस्य मुरारिसमर्चा तस्य यमः किं कुरुते चर्चा॥5॥

भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जातं तुण्डम्।

वृध्दो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम्॥6॥

भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

बालस्तावत्क्रीडासक्तः तरुणस्तावत्तरुणीरक्तः।

वृध्दस्तावच्चिन्तामग्नः परे ब्रह्मणि कोऽपि न लग्नः॥7॥

भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्।

इह संसारे खलु दुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे॥8॥

भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

पुनरपि रजनी पुनरपि दिवसः पुनरपि पक्षः पुनरपि मासः।

पुनरप्ययनं पुनरपि वर्षम् तदपि न मुञ्चत्याशामर्षम्॥9॥

भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

वयसि गते कः कामविकारः शुष्के नीरे कः कासारः।

नष्टे द्रव्ये कः परिवारः ज्ञाते तत्वे कः संसारः॥10॥

भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

नारीस्तनभरनाभिनिवेशं मिथ्यामायामोहावेशम्।

एतन्मांसवसादि विकारं मनसि विचारय बारम्बारम्॥11॥

भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः का मे जननी को मे तातः।

इति परभावय सर्वमसारम् विश्वं त्यक्ता स्वप्नविचारम्॥12॥

भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

गेयं ग‍ीतानामसह्स्रम् ध्येयं श्रीपतिरूपमजस्रम्।

नेयं सज्जनसङ्गे चित्तम् देयं दीनजनाय च वित्तम्॥13॥

भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

यावज्जीवो निवसति देहे कुशलं तावत्पृच्छति गेहे।

गतवति वायौ देहापाये भार्या विभ्यति तस्मिन्काये॥14॥

भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

सुखतः क्रियते रामाभोगः पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः।

यद्यपि लोके मरणं शरणम् तदपि न मुञ्चति पापाचरणम्॥15॥

भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

रथ्याचर्पटविरचितकन्थः पुण्यापुण्यविवर्जितपन्थः।

नाहं न त्वं नायं लोकः तदपि किमर्थं क्रियते शोकः॥16॥

भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

कुरुते गङ्गासागरगमनं व्रतपरिपालनमथवा दानम्।

ज्ञानविहीने सर्वमतेन मुक्तिर्भवति न जन्मशतेन॥17॥

भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

॥इति जगद् गुरु श्री शञ्कराचार्यविरचितम् चर्पटपञ्जरिकास्तोत्रम् संपूर्णम्॥


(29:39) अब हमलोग क्रमबद्ध तरीके से प्रत्येक श्लोक का अर्थ समझेंगे - 

श्लोक -1 : 

दिनमपि रजनी सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायातः।

कालः क्रीडति गच्छत्यायुः तदपि न मुञ्चत्याशावायुः॥1॥

    तो जैसा भूमिका में बताया गया , शंकराचार्य जी उस बूढ़े को देख रहे थे , जो संस्कृत के व्याकरण के नियमों को मुखस्थ कर रहे हैं। क्या बुढ़ापे में यह करने का समय है ? बुढ़ापा क्यों, जवानी में भी पाणिनि के व्याकरण के नियमों को स्मरण कर रहा है , तो देखकर उनको अत्यंत पीड़ा होती है। कहाँ मन ईश्वर में डूबना चाहिए। और ये व्यक्ति संस्कृत व्याकरण के नियमों को याद कर रहा है ! ह्रदय की उसी पीड़ा संवेदना से निकली यह रचना है मोहमुद्गर !

कहते हैं -दिनमपि रजनी सायं प्रातः' दिन रात में बदल जाती है। और सायं काल प्रातः काल में बदल जाती है। - शिशिरवसन्तौ पुनरायातः।- एक ऋतू दूसरे ऋतू में बदल जाती है। शिशिर ऋतू वसंत ऋतू में बदल जाती है। कालः क्रीडति- इसी प्रकार काल का यह चक्र घूम रहा है। गच्छति आयु - और आयु निकलती जा रही है। तदपि न मुंचति आशा वायु। फिर भी ह्रदय के अंदर जो काम -वासना है , कामनायें जो हैं वो खत्म नहीं हो रही हैं ? 

      काल का पहिया लगातार घूम रहा है। दिन रात में परिवर्तित हो रहा है , रात दिन में परिवर्तित हो रहा है। एक दिन चला गया ,इसी प्रकार 15 दिन में एक पक्ष आ गया। 2 पक्ष मिला करके एक महीना हो गया। कुछ महीने मिलाकर के एक ऋतू हो जाती है। 4 ऋतू मिलाकर के एक वर्ष हो जाता है। वर्ष के पीछे वर्ष -इस प्रकार काल का जो चक्र है - वो घूम रहा है। और आपकी आयु घट रही है। फिर भी ह्रदय के भीतर जो कामना है , वो खत्म नहीं हो रही है। इसीलिए करना क्या है ? "भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्,गोविन्दं भज मूढ़मते। " हे मूढ़ मति -हे मूर्ख व्यक्ति !  गोविन्द को भज , गोविन्द को भज ! यानि ईश्वर का अनुसन्धान कर ,ईश्वर का अनुसन्धान कर ! 

     गोविन्द को भज - यानि क्या ? ईश्वर का अनुसन्धान कर ! इस पूरे मिथ्या जगत के मूल में जो सत्य वस्तु है , उसका अनुसन्धान करभज गोविन्दम् भज गोविन्दम्,गोविन्दं भज मूढ़मते।- संप्राप्ते सन्निहिते मरने -मृत्यु बिल्कुल दरवाजे पर दस्तक दे रही है - न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे। संस्क्रत व्याकरण के जो नियम हैं , ये तुम्हें इस जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त कराने वाली नहीं है। मृत्यु बिल्कुल दरवाजे पर खड़ी हुई ही -कब आ जाये ? किसी को पता है ? अत्यंत गूढ़ और विचारणीय ये वास्तविकता है ! ये बुलबुला कब फुट जाये - कोई कह सकता है ? कल सवेरे तक हम सब जितने बुलबुले हैं हम सब रहेंगे ? कोई कह सकता है ? कभी भी फट सकता है। तो जब तक साँसे चल रही हैं -आप ईश्वर का अनुसंधान कीजिये। आप ईश्वर का अनुसंधान कीजिये, आप ईश्वर का अनुसंधान कीजिये-  बाकी सारी चीजों में  मन को डुबोने से कुछ भी प्राप्त होना नहीं है। (क्योंकि कामिनी, कांचन और कीर्ति ये सब मिथ्या है ! इसमें आसक्त रहने से परिणाम क्या होगा ?) पूरे स्तोत्र में मिथ्या और सत्य का विवेचन ही चलेगा यहाँ विवेक की ही बात हो रही है कि सत्य क्या है ? (ब्रह्म) मिथ्या क्या है ? (जगत) मिथ्या में मन को डुबाने से क्या होता है ? उसका परिणाम इस प्रकार से होता है। इसीलिए आप सत्य का अनुसन्धान करें , सत्य का अनुसन्धान करें। ईश्वर का अनुसन्धान करो ! सत्य का अनुसन्धान करो। (33:39

श्लोक-2 :

अग्रे वह्निः पृष्ठे भानुः रात्रौ चिबुकसमर्पितजानुः।

करतलभिक्षा तरुतलवासः तदपि न मुञ्चत्याशापाशः॥2॥

      देखिये यहाँ पर शब्द बड़े कठोर हैं , वे चुभने वाले हैं। पर वही उनका आशीर्वाद है। चुभने वाले शब्द से वे जीव को जगा रहे हैं। और इसमें शंकराचार्यजी किसी को भी नहीं छोड़ रहे हैं। वे संन्यासी को भी नहीं छोड़ रहे हैं , गृहस्थ को भी नहीं छोड़ रहे हैं। अगर आप संन्यास भी ले लो लेकिन आपका मन अगर ईश्वर में नहीं है ? तो क्या लाभ ? आप गृहस्थ आश्रम में रहो , कहीं भी रहो। मन में अगर ईश्वर अनुसन्धान नहीं हो रहा है ? तो क्या लाभ ? ये इसका भाव है। ऋषि लोग सत्य बता देते हैं -गृहस्थ या संन्यासी नहीं देखते हैं। इस दूसरे श्लोक में शीत ऋतू में संन्यासी की अवस्था पर चर्चा कर रहे हैं। यहाँ  मायावती, हिमालय में कड़ाके की ठंढ पड़ती है-4, -5 तक तापमान चला जाता है। वैसे यहाँ हर मौसम की अपनी सुंदरता है। 

      तो दूसरे श्लोक में शंकराचार्यजी कड़ाके की ठंढ में संन्यासी की अवस्था कह रहे हैं - अग्रे वह्निः पृष्ठे भानुः, रात्रौ चिबुकसमर्पितजानुः। पुराने जमाने में साधु लोग ठंढ में धुनि जलाकर बैठ जाते थे। सामने अग्नि है , पीठ पर सूर्य की गर्मी लग रही है। अधिक ठंढ में ऐसे ही आग जलाकर, गृहस्थ -संन्यासी सभी बैठते हैं। और रात में क्या करते हैं ?  रात्रौ चिबुक समर्पितजानुः -जाड़े की रात में घुटने मोड़कर, उसमें सिर घुसा कर देह को गर्म रखने की चेष्टा करते हैं। 

     करतलभिक्षा तरुतल वासः संन्यासी लोग भिक्षा मांग कर हाथ में जितना मिलता है उतना ही खाते हैं। और पेड़ के नीचे सोते थे। ये सब आप कर लीजिये पर प्रश्न यह है - अगर आपके ह्रदय में ईश्वर (अवतार वरिष्ठ) नहीं है, और वहाँ कामवासना है ; ह्रदय की काम वासना अगर शांत नहीं हुई तो क्या लाभ? तदपि न मुञ्चति आशा पाशः ! जैन मुनि का जीवन जीने के बाद भी यदि हृदय की कामना-वासना खत्म नहीं होती हो -तो क्या विडंबना है ! इसलिए हमे करना क्या है ? भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्... हे मूर्ख ! ईश्वर का अनुसन्धान कर ! ईश्वर का अनुसन्धान कर ! ईश्वर का अनुसन्धान कर ! सत्य को जान लो; मृत्यु बिल्कुल दरवाजे पर दस्तक दे रही है। और कोई चीज तुमको बचाने वाली नहीं है ! ये हुआ संन्यासी का चित्र। (38:18

 श्लोक-3 :  

यावद्वित्तोपार्जनसक्तः तावन्निजपरिवारो रक्तः।

पश्चाद्धावति जर्जरदेहे वार्ता पृच्छति कोऽपि न गेहे॥3॥

      अब एक गृहस्थ का चित्र देख लीजिये। जैसा आमतौर पर घरों में देखने को मिलता है। क्या कहते हैं- यावत वित्तोपार्जन सक्तः- तावन्निजपरिवारो रक्तः। जबतक आप पैसा कमाने के योग्य हो , तब तक घर-परिवार के लोग, या बन्धुबान्धव आपके साथ चिपक कर रहेंगे। जब तक आपकी आर्थिक उपयोगिता है - यदि उपयोगिता खत्म हो गया तो फिर आपकी कोई कीमत नहीं है। यही संसार की सच्चाई है। पश्चात् धावति जर्जर देहे - जब यह शरीर जर्जर हो जायेगा , आप धन नहीं कमा सकेंगे , तब क्या होगा ? वार्ता पृच्छति कोऽपि न गेहे - घर में कोई आपसे बात भी नहीं करेगा। कितनी बड़ी सच्चाई है ? जो बूढ़ा-बूढी 15 वर्ष पहले तक परिवार के केंद्र में थे , वे एक कमरे में सिमट जाते हैं ! आज आप युवा हैं इसलिए आपकी कीमत - आसमान छू रही है ! अब सेंटर में दूसरे लोग आए जाते हैं। कोई भी व्यक्ति सब समय केंद्र में नहीं रहेगा। ये ध्रुव सत्य है। ये युवा वस्था भी दो मिनट में ही खत्म हो जायेगा। आप इस युवा शरीर के मोह में मत रहना - ये तो देखते-देखते ऐसा वक्त आएगा -आपको सेंटर स्टेज छोड़ना पड़ेगा , वहां फिर सेंटर-स्टेज  में दूसरे लोग आ जायेंगे। अगली पीढ़ी आ जाएगी।

       इसीलिए युवा अवस्था में ही ईश्वर का अनुसन्धान कर लो। क्योंकि तुम बहुत ही जल्दी साइड में भेज दिए जाओगे। ये नहीं समझना की ये अवस्था परमानेंट है , यहाँ कुछ भी परमानेंट नहीं है। इसीलिए जब आप युवा हो , इसी अवस्था में इस सच्चाई को जान लो , ताकि आप इससे मोहित न होके - केंद्र में रहते हुए ही ईश्वर का अनुसन्धान कर लो। गुरु खोजने अकेले हिमालय निकल जाओ , और वापस आकर ठाकुर से मंत्र ले लो। क्योंकि बुढ़ापे में वह मंत्र ही काम आएगा। ये काम अगर युवा अवस्था में ही नहीं किया तो बुढ़ापे में आप किनारे कर दिए जाओगे। बुढ़ापे में सिर्फ पीड़ा होती है। होती है कि नहीं ? लेकिन जिसने युवा अवस्था में ही सत्य को खोज लिया होगा , ईश्वर का अनुसन्धान किया होगा , उसको कुछ भी फर्क नहीं पड़ेगा। उसका बुढ़ापा भी बड़े आनंद से कटेगा। क्योंकि उसका मन तो अभी ईश्वर में ही रहता है। युवा अवस्था से ही उसने ऐसा अभ्यास किया है कि बुढ़ापे में , भी वो आनंद में रहेगा। क्योंकि उसने ईश्वर का अनुसन्धान किया है ! इसलिए तुम भी ईश्वर का अनुसन्धान कर लो !  कर लो ! क्योंकि मृत्यु बिल्कुल सामने दरवाजे पर दस्तक दे रही है।   (44:22)  

     श्लोक -4 :

जटिलो मुण्डी लुञ्चितकेशः काषायाम्बरबहुकृतवेषः।

पश्यन्नपि च न पश्यति लोकः उदरनिमित्तं बहुकृत वेषः ॥4॥

         अब दुबारा एक हिन्दू और जैन संन्यासी का चित्र है। जटिलो मुण्डी लुञ्चितकेशः काषायाम्बरबहुकृतवेषः। हमारे भारत वर्ष में कितने प्रकार के संन्यासी होते हैं। कोई जटाजूट धारी साधु है ! कोई मुण्डित मस्तक है , लुञ्चित केश जैन संन्यासी होते हैं - वे अपने हाथों से बालों को लुञ्चित करते हैं , उखाड़ते हैं। ये उनकी परम्परा है। फिर कोई गेरुआ वस्त्र पहन लेते है। (या सादगी का प्रदर्शन करते हैं।) कितने रूपों के संन्यासी घूमते रहते हैं। लेकिन पश्यन्नपि च न पश्यति मूढो -आप बाहर कुछ भी पहन लीजिये , जटाधारी हो या मुण्डन किये हो ? लेकिन सामने जो सच्चाई खड़ी है उसको देखकर भी आप अनदेखा कर रहे हो। /यहाँ लोको है -मिशन की किताब में मूढ़ो है। उदरनिमित्तं बहुकृत वेशः ' पेट पोसने के बहुत तरह के वेश धारण कर लेते हैं। लेकिन ईश्वर का अनुसन्धान नहीं करते। संन्यासियों को शंकराचार्यजी ईश्वर को खोजने की सीख दे रहे हैं। मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य है -ईश्वर का अनुसन्धान। इसलिए ईश्वर का अनुसन्धान करो ! ईश्वर का अनुसन्धान करो !ईश्वर का अनुसन्धान करो ! मृत्यु सामने खड़ी है। जन्म-मृत्यु के चक्र से ईश्वर ही बचाने वाले हैं -अन्य कुछ नहीं ! हमें गृहस्थ और संन्यासी का भेद नहीं कर , यह सोचना चाहिए कि हमसब मनुष्य हैं -और सिर्फ मनुष्य के अंदर ही ईश्वर का अनुसन्धान करने की क्षमता विद्यमान है। लेकिन मनुष्य सत्य की खोज कर नहीं रहा है - यही उसकी विडंबना है। इसीलिए शंकराचार्यजी कह रहे हैं - भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...मूढ़ मते ! संप्राप्ते सन्निहिते काले न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे॥ (48:00)

श्लोक-5 :🔱🔱

भगवद् गीता किञ्चितधीता गङ्गाजल लवकणिका पीता।

सकृदपि यस्य मुरारिसमर्चा तस्य यमः किं कुरुते चर्चा॥5॥

     अब बहुत सुंदर बात कहते हैं -भगवद् गीता किञ्चित अधीता' थोड़ा सा भी भगवत गीता का चिंतन कर लो। वासुदेव श्रीकृष्ण इन शब्दों का थोड़ा सा भी ध्यान कर लो। देखोगे कितन अद्भुत परिवर्तन आता है। गङ्गाजल लवकणिका पीता -एक बून्द गंगाजल भी किसी ने श्रद्धा-भक्ति से पी लिया ,किसी ने सिर्फ एक बार पूरी श्रद्धा -भक्ति से मुरारी का ईश्वर का -श्रीकृष्ण का स्मरण किया हो, यानि ईश्वर या ईश्वर के अवतार-वरिष्ठ का स्मरण किया हो ,तस्य यमः किं कुरुते चर्चा- मृत्यु उसका क्या कर सकती है ? ईश्वर का भक्त, सत्य का खोजी - तो मृत्यु के पार चला जायेगा। इस श्लोक में शंकराचार्यजी हमलोगों का उत्साह बढ़ा रहे हैं कि भाई , तुम एक बार भी श्रद्धा पूर्वक भगवत गीता पढ़ लो , और व्याकुलता साथ अगर अवतार वरिष्ठ का एक बार भी स्मरण किया हो-यमराज उसके पास भी नहीं आ सकता। इसलिए हमें भी प्रोत्साहित कर रहे हैं - ईश्वर अनुसन्धान कर लो ,ईश्वर अनुसन्धान कर लो, ईश्वर अनुसन्धान कर लो। भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् मूढ़मते।संप्राप्ते सन्निहिते काले न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे॥ सत्यार्थी को ही यमराज को देखने का साहस होता है , और देखता है कि -ईश्वर के सिवा कुछ नहीं है , एकमेवाद्वितीय के लिए दूसरा कुछ नहीं है ! आपको ईश्वर का अनुसन्धान ही जन्म-मृत्यु के चक्र से बाहर निकालेगा(49:52)

श्लोक-6 :

अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जातं तुण्डम्।

वृध्दो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम्॥6॥

      अब वास्तविकता बता रहे हैं -अङ्गं गलितं  जिस स्थूल शरीर से हमलोग इतना मोहित हैं , दो मिनट में बुढ़ापा को प्राप्त होगा। हम भी उसी अवस्था को पहुँचने वाले हैं। पलितं मुण्डं'-सिर के ऊपर के सारे बाल उड़ गए हैं। दाँत सब नकली हो जायेंगे। आप सही सही बे-दान्त हो जाओगे। दंत रहित दशा ही बेदान्त है। एक एक अंग जा रहा है। वृध्दो याति गृहीत्वा दण्डं ' वो जो वृद्ध व्यक्ति है -स्त्री है या पुरुष है , अब सीधे चल नहीं सकता। शरीर झुक गया है -तो लकड़ी पकड़ कर चलता है। अभी धरती हिलाकर चलते हो, जैसे ही बुढ़ापा आएगा -चलने के लिए लाठी का सहारा लेंस पड़ेगा। ये हम सबके साथ होने ही वाला है। हमारे अंदर जो गर्व है -उसकी नष्ट करने की बात है। किस बात का गर्व है ? इन परिस्थितियों से कोई भी नहीं बचने वाला है। हम जब स्वस्थ हैं उस वक्त अगर ईश्वर का अनुसन्धान नहीं किये , तो बुढ़ापे में आप नहीं कर पाओगे। ईश्वर का अनुसधान करने का सही समय युवा अवस्था है। जब आपका शरीर बलशाली है। आपके अंदर शक्ति है, तो ईश्वर का अनुसन्धान कर लो। बुढ़ापे में नहीं होता है। इसको लिख के रख लीजिये। आप किसी भी वृद्ध को देखिये -बाहर से वृद्ध हो गया है। लेकिन अन्तःकरण में कामना-वासना भरी हुई हैं। कामनाएं खत्म नहीं होती। ये और भी पीड़ादायी स्थिति हैकामनाएं हैं लेकिन कामनाओं की पूर्ति अब सम्भव नहीं है ।उस वक्त जीव को बड़ा कष्ट होता है। तो करना क्या है ?भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् मूढ़मते।संप्राप्ते सन्निहिते काले न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे॥ समय बीत रहा है , समय बीत रहा है,समय बीत रहा है , इस समय को नष्ट न करें। ईश्वर का अनुसन्धान करें ,ईश्वर का अनुसन्धान करें। (55 :37)

श्लोक -7 :

बालस्तावत्क्रीडासक्तः तरुणस्तावत्तरुणीरक्तः।

वृध्दस्तावच्चिन्तामग्नः परे ब्रह्मणि कोऽपि न लग्नः॥7॥ 

      फिर इसी प्रकार बचपन में बालक खेल मेंबालस्तावत्क्रीडासक्तःबालकपन हंस-खेल गंवाया- बचपन में सारा समय खेल में ही गुजर जाता है , हम सभी उस अवस्था से गुजर चुके हैं। बचपन में बच्चा खिलौनों से खेलता है , और खेल में ही उसका समय बीत जाता है। देखिये शंकराचार्यजी यहाँ हमारा ध्यान मनुष्य का समय कैसे बीत जाता है , उस मूल बात की ओर आकृष्ट कर रहे हैं। बचपन बीता खेल में। फिर युवा हुए , यौवन तरुणी संग बिताया। जैसे ही तरुण हुए कि, हम जानते हैं तरुणावस्था से ही लैङ्गिक आकर्षण शुरू होता है। इस तरुण अवस्था में यौवन ग्रंथि विकसित होती हैं , जिसके कारण तरुण का आकर्षण तरुणी में और तरुणिओं का आकर्षण तरुण के प्रति स्वाभाविक तौर से होता है। यह जो परस्पर का लैङ्गिक आकर्षण शुरू हो जाता है, तब जीव उसी में मग्न हो जाता है। बचपन बीत गया खिलौने से खेलने में। जवानी में हमारा पूरा ध्यान लैंगिक आकर्षण में ही डूबा रहता है। इसी प्रकार युवा अवस्था चली गयी , अब वृद्धा अवस्था आ जाती है। बुढ़ापे में क्या होता है ? वृध्दस्तावच्चिन्तामग्नः- वृद्ध हुआ चिंता ने घेरा, अब वह जीव सिर्फ चिंता में ही डूबा हुआ है। लेकिन यह कितने आश्चर्य की बात है कि - यह कितने आश्चर्य की बात है पार ब्रह्म में किसी का ध्यान नहीं है ? परे ब्रह्मणि कोऽपि न लग्नः ? मनुष्य जीवन के किसी पड़ाव पर हमारा मन स्वाभाविक रूप से ईश्वर में क्यों नहीं जा रहा है ? क्या आश्चर्य है -बचपन बिता खेल में , जवानी बीत गयी -यौवन आकर्षण में , बुढ़ापा बीता चिंता में -लेकिन उम्र के किसी भी पड़ाव में हमारा मन कभी ईश्वर में क्यों नहीं गया ? कभी ईश्वर का अनुसन्धान नहीं किया ? मनुष्य की ये कैसी विडंबना है !मनुष्य के इस विडंबना को समझ कर के इस जन्म में क्या करना है ?  भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् मूढ़मते।संप्राप्ते सन्निहिते काले न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे॥ इसीलिए क्लास 9th (1964-14 वर्ष की उम्र से या 12 वर्ष की उम्र से) से ही ईश्वर के अनुसन्धान में लग जाओ, सत्य या ईश्वर इन्द्रिय गोचर नहीं है , किन्तु वेदांत सिद्धांत वाक्य से जाने जा सकते हैं !'  ऐसा मार्ग -'Be and Make' मार्ग बताने वाले नेता स्वामी विवेकानन्द या शंकराचार्यजी जैसे किसी योग्य पूजनीय गुरु और शास्त्र के अनुसन्धान में आजीवन लगे रहो ! न तो महँगे -महँगे खिलौने से खेलने वाले बड़े घर के लड़कों से दोस्ती मुझे मृत्यु के पंजों से बचाने वाली है , फिर यौवन आकर्षण तो सर्वनाश का दरवाजा है। बुढ़ापे में विभिन्न प्रकार की चिंता में मन डूबा है। लेकिन किसी का भी मन ईश्वर में नहीं जा रहा है ! तो क्या कहें इसको ? कैसे इसको समझें ? जब आप युवा अवस्था में हो , तभी ईश्वर का अनुसन्धान कर लो यही आपको बचायेगा। (58:12)

श्लोक -8 :

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्।

इह संसारे खलु दुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे॥8॥

   अगले श्लोक में है -'पुनरपि जननं पुनरपि मरणं ' -इस प्रकार उम्र के किसी भी पड़ाव पर यदि हमने ईश्वर का अनुसन्धान नहीं किया , तो उसका क्या परिणाम होगा ? फिर से जन्म-मृत्यु के चक्र में फँसना पड़ता है, फिर-फिर जनम-मरण होता रहता है। पुनरपि जननी जठरे शयनम् -बार बार हम मातृ गर्भ में प्रवेश करते हैं , कितने बार हम माँ के गर्भ में प्रवेश कर चुके हैं ? हमें स्मरण नहीं है ! कितने जन्मों में हम कैसी -कैसी परिस्थितियों में रह चुके हैं ? ऐसा नहीं है कि -इस जन्म में जो मेरे माता-पिता हैं , कितने जन्मों में हमारे कितने माता-पिता रह चुके हैं ? उसका हमें स्मरण नहीं है। और जिस जन्म में हम होते हैं , हमें वही जन्म सत्य लगता है। कहाँ गए पिछले जन्म के माता-पिता जिनमें हमलोग इसी तरह आसक्त थे ? पिछले जन्म में हमारी जो पत्नी थी या पति था , जो भी थे -कहाँ गए वे लोग ? लेकिन उस जन्म में हम उसी जन्म के सगे -संबन्धियों में आसक्त थे; इस जन्म में हम इस जन्म के सगे सम्बन्धियों में आसक्त हैं। अगले जन्म में यह चित्र भी चला जायेगा , दूसरा चित्र चलेगा ? या दूसरा चलचित्र (पिक्चर) चलेगा -दूसरा पिक्चर में दूसरा रोल करना पड़ेगा ? यह भी चला जायेगा , फिर हम उससे आसक्त हैं। इसी प्रकार जन्म-जन्मांतर से हमलोग राग के अदृश्य रस्सी से -आसक्ति के अदृश्य रस्सी से हमलोग बंधे हुए हैं। और ये चल ही रहा है। ..... पुनरपि जननं पुनरपि मरणं/ और बार बार हम माँ के गर्भ में प्रवेश कर रहे हैं। इह संसारे खलु दुस्तारे- यह जो जन्म-जन्मांतर से चली आ रही आसक्ति का बंधन है - इस जन्म के सगे सम्बन्धियों को अपना समझकर -उनमे आसक्त रहनी की जो अदृश्य रस्सी है - उस मजबूत रस्सी को तोड़ कर -संसार सागर से पार निकल जाना ईश्वर और गुरु के अनुग्रह से ही सम्भव है। संसार बना है -संसरण शब्द से। संसरण यानि जन्म-मृत्यु का चक्र -एक जन्म से दूसरे जन्म में जाने की परंपरा, भव-चक्र को ही संसार कहते हैं। ये जो बार-बार हम जन्म ले रहे हैं पुनर्जन्म Rebirth हो रहा है इसीको संसृति या संसरण कहते हैं। इस संसरण की मजबूत रस्सी को तोड़कर बाहर निकलना सचमुच ही कितना कठिन है ? इसीलिए हे मुरारी -हे अवतार वरिष्ठ कृपा करके हमें इससे बाहर निकालो ! इस चक्र से हमें बाहर निकालो-  कृपया पारे पाहि मुरारे॥8॥ हे मुरारी आप कृपा करके मुझे भारी दुस्तर संसृति सागर, करो मुरारे पार कृपा कर॥8॥ तो क्या करें ?  भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् मूढ़मते।संप्राप्ते सन्निहिते काले न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे (1:00:31)

श्लोक -9 :

पुनरपि रजनी पुनरपि दिवसः पुनरपि पक्षः पुनरपि मासः।

पुनरप्ययनं पुनरपि वर्षम् तदपि न मुञ्चत्याशामर्षम्॥9॥

अब है -पुनरपि रजनी पुनरपि दिवसः' शंकराचार्यजी बार बार हमें याद दिला रहे हैं , जैसे आघात कर रहे हैं। देखो कितने आश्चर्य की बात है न ? यहाँ निर्जन में-दुर्गा पूजा में 9 दिन बीत गए हैं -आज विजयादशमी है (2अक्टूबर, 2025) लेकिन इन दिनों को हमने अच्छी तरह से बिताया है। यहाँ भी सुबह हो रहा था , रात हो रही थी। इस बार वर्षा भी हो रही थी ? कैसे 9 दिन बीत गए ? ऐसे ही जिंदगी बीत जाती है। हमें समझ भी नहीं आता कि अभी संध्या हो गयी। देखते देखते सवेरे स्वदेश मंत्र चैंटिंग / फ्लैग हॉस्टिंग में आप जमा हो जायेंगे। हमें कल्पना नहीं है , हमलोग क्या कर रहे हैं ? अभी शाम का फ्लैग डाउन होगा। फिर-फिर रैन-दिवस हैं आते,  पुनरपि रजनी पुनरपि दिवसःजीवन-मृत्यु का चक्र चल ही रहा है -मशीन की तरह। पुनरपि पक्षः पुनरपि मासः'- 14 -15 दिनों में एक पक्ष होता है। एक महिना या 30 दिनों में दो पक्ष होता है। दिन-बदिन , दिन-बदिन दो पक्ष में एक मास हो गए।  पुनरप्ययनं पुनरपि वर्षम् - अयन माने छः महीने- 6 महीने सूर्य उत्तरायण होता है , 6 महीने दक्षिणायन होता है। वर्ष में दो अयन हो गया। फिर अयनं -फिर पुनरपि वर्षम् - तदपि न मुञ्चत्याशामर्षम्॥9॥ फिर भी ह्रदय की कामनायें खत्म नहीं होतीं। सच्चाई है कि नहीं देखो ? कामनायें खत्म हो रही हैं क्या ? हमारे ह्रदय के अंदर जो काम रूपी अग्नि है , बो वैसे ही धधक रही है , और हम उसको और भी पुष्ट करने में लगे हुए हैं। अविवेक रहने तक हम उन वासनाओं -कामनाओं को कम करने का प्रयास नहीं करते हैं , उसको हम वर्धित और पुष्ट कर रहे हैं। लेकिन यदि विवेकानंदजी के आह्वान से विवेक जग गया ? तो उल्टा होने लगता है। तब हम अपने समय का सदुपयोग करने लगते हैं। विशेष करके यौवन में बहुत सतर्क रहना पड़ता है। वैसे यौवन की अवस्था सत्य को जानने की सबसे उत्तम अवस्था है। बचपन में कोई बच्चा सत्य को जानने की कोशिश नहीं करता। कोई अलौकिक बच्चा हुआ तो शायद करे. साधारणतः बचपन में उतनी बुद्धि नहीं आती। साधना चतुष्टय करने का सर्वोत्तम समय यौवन का है। बुढ़ापे में शरीर बलहीन हो जाता है, इतना कमजोर हो जाता है कि सारा ध्यान शरीर पर ही लगा रहता है। युवा अवस्था में जब आप सबल हो, स्वस्थ हो -यही समय है हमारी सारी शक्ति और ऊर्जा को ईश्वर अनुसन्धान में लगाने का। वही हमें याद दिला रहे हैं कि देखो समय कैसे बीत रहा है, दिन रात में बदल रहा है , रात दिन में बदल रहा है। 15 रात और दिन मिलाकर एक पक्ष हो रहे हैं। दो पक्ष मिलाकर एक मास। छः मास मिलाकर एक अयन। दो अयन मिलाकर एक वर्ष। इस प्रकार आपका कितना उम्र हो गया अभी ? 20-22-25 देखते- देखते कैसे बीत गया ? आपकी जो भी उम्र हो अभी -75 -80 -85 देखते -देखते कैसे बीत गयी ? Is it not something amazing ? क्या यह आश्चर्यजनक बात नहीं है? हम सब एक समय छोटे ही थे ? मैं जब अपने जीवन को पीछे मुड़कर देखता हूँ तो आश्चर्य लगता है। सब लगता है कि जैसे 2 मिनट में चला गया। अब बस देखते देखते ये बुलबुला खत्म हो जाने वाला है। हमने सारी उम्र क्या किया ? हम इस मिथ्या जगत में ही डूबे रहे। सत्य का अनुसन्धान नहीं किया। यह बहुत ही दुर्भाग्य की बात है। इसीलिए- भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् मूढ़मते।संप्राप्ते सन्निहिते काले न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे समय बीत रहा है , लेकिन ह्रदय के अंदर की कामनायें खत्म नहीं हो रही हैं। ह्रदय के अंदर की जो वासनायें हैं , वे सांसारिक ऐषणाएँ हैं वे खत्म नहीं हो रही हैं। क्या विडंबना है ?  क्या विडंबना है ?   क्या विडंबना है ?  इसलिए ईश्वर का अनुसन्धान कर लीजिये ! माने विवेक कीजिये , विवेक कीजिये ,विवेक कीजिये ! विवेक करके मिथ्या से मन को हटाकर के सत्य में मन को लगाइये। भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...का मतलब क्या है ? विवेक करके मिथ्या से मन को हटाकर के, सत्य  में लगाइये। सत्य क्या है ? ब्रह्म ही सत्य है। जगत क्या है ? मिथ्या है ! इस मिथ्या जगत में मन को न डुबोकर, मन को वहाँ से हटाकर -सत्य में या ईश्वर में मन को लगाइये। तो इसमें ईश्वर-अनुसन्धान या सत्य के अनुसन्धान में भी विवेक-प्रयोग ही चल रहा है। इस चर्पट पंजरिका के प्रत्येक छंद में ये सब विवेक-प्रयोग ही चल रहा हैं !(1:05:07)  

     श्लोक 10

वयसि गते कः कामविकारः शुष्के नीरे कः कासारः।

नष्टे द्रव्ये कः परिवारः ज्ञाते तत्वे कः संसारः॥10॥

   वयसि गते कः कामविकारः'  (ज्ञाते तत्वे कः संसारः) एक बार आपकी उम्र चली गयी, बुढ़ापा आ गया। बुढ़ापे में काम विकार का क्या प्रयोजन ? 2nd marriage का कोई प्रयोजन हो सकता है ? अगर आपके अंदर काम हो भी, तो भी उसको आप कार्यान्वित नहीं कर सकते है। क्योंकि शरीर अब उसके लिए योग्य नहीं है। बुढ़ापे में काम-विकार क्या करेगा ? और क्या ? शुष्के नीरे कः कासारः ? वो तालाब ही क्या जिसमें जल न हो ? उस तालाब का फिर प्रयोजन क्या है ? बुढ़ापे में काम विकार का क्या प्रयोजन ? उस तालाब का क्या प्रयोजन जिसमें जल न हो। नष्टे द्रव्ये कः परिवारः' जब आपके पास धन नहीं होगा, तो परिवार कहाँ है ? कोई भी परिवार वाले आपके पास दिखाई नहीं देंगे।  ज्ञाते तत्वे कः संसारः॥10॥- जब आप ईश्वर को जान जायेंगे,तो संसार कहाँ है ? ईश्वर को जब जान जाओगे तो जगत कहाँ है ? जगत तो चला गया। जगत सिर्फ अज्ञान में था। जब ईश्वर को जान जाओगे, तो जगत कहाँ है ? इसीलिए ईश्वर की खोज में लग जाओ ! ईश्वर को जान जाओ !  ईश्वर को जान जाओ ! [वो आपकी अन्तरात्मा है!] क्योंकि आपकी जो कामवासना है, वो बुढ़ापे में किसी काम नहीं आएगी। वह तालाब जिसमें पानी नहीं है, किस काम का ?आपका पास जब धन नहीं होगा , तो आपके पास परिवार वाले भी नहीं होगें। इसलिए उनके भरोसे मत बैठिये। तो किसके भरोसे बैठना है ? ईश्वर के ! क्योंकि ईश्वर (ब्रह्म की शक्ति माँ काली -श्रीरामकृष्ण-माँ सारदा-स्वामी विवेकानन्द) को जानो तो संसार कहाँ है? जगत कहाँ है ? इसीलिए बल रहते वक्त , स्वास्थ्य रहते वक्त , आपकी सारी शक्ति को इस ईश्वर अनुसन्धान में लगाइये। क्योंकि कामवासना सिर्फ यौवन अवस्था में ही उसकी उपयोगिता है। जैसे ही शरीर जर्जर होता है , काम क्या करेगा ? जिस तालाब में पानी नहीं है , उस तालाब का क्या प्रयोजन ? इसलिए करना क्या है ? ईश्वर को खोजो।  इसीलिए- भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् मूढ़मते।संप्राप्ते सन्निहिते काले न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे। (1:07 :36)   

श्लोक -11 :

नारीस्तनभरनाभिनिवेशं मिथ्यामायामोहावेशम्।

एतन्मांसवसादि विकारं मनसि विचारय बारम्बारम्॥11॥

 ये नारी का जो शरीर है, वैसे ही नारी के लिए जो पुरुष का शरीर है; पुरुष के लिए नारी और नारी के लिए पुरुष; दोनों तरफ से यह देह का ही आकर्षण है न ? जो हमलोगों ने देखा। 2mm की हमारी जो चर्म दृष्टि है, यहीं पर तो सभी लोग फँसे हुए हैं। पुरुष नारी की आकृति में फंसा हुआ है , और नारी पुरुष की आकृति में फँसी हुई है। कोई एक तरफा निंदा नहीं है, दोनों के लिए ये जो विपरीत लिंग शरीर का आकर्षण है , वो क्या है ? शंकराचार्य जी कह रहे हैं- ये मिथ्या माया-मोह आवेशम्। ये लैंगिक आकर्षण मिथ्या, माया है -मोहावेशम्। ये सिर्फ मोह है - इसी मोह (illusion) को सारा संसार प्रेम कहता है। नारी स्तन भरनाभि निवेशं मिथ्यामाया-मोहावेशम्। सोंच कर देखिये कितना बड़ा धोखा है -छल है ! सारा संसार इसी को Love -love कहता है न -I love you ! I love you !  [illu, illuयही है सिंह शावक का भेंड़ में Hypnotized होना है कि नहीं?] यही सच्चाई है या नहीं ? ये बहुत बड़ी सच्चाई है। इसीलिए सभी पीड़ा में हैं। सभी कष्ट में हैं। इसको जब आप प्रेम समझोगे , तो मतलब हुआ जहर को अमृत समझ रहे हो आप। जहर को अगर अमृत समझकर पियोगे तो क्या होगा उसका फल? वही विवेक इस छंद में चल रहा है ! ये जो पारस्परिक देहाकर्षण है - ये क्या है ? मिथ्या, माया है -मोहावेशम् मिथ्या , माया मोह रूपी विष ! और ये शरीर है क्या ? एतन्मांस वसादि विकारं - ये केवल मांस , चर्बी और रक्त का विकार है। इसमें आकृष्ट होने के लिए क्या है ? हमने विस्तार से चर्चा किया है। इस 2mm रूपी जो चमड़ा है , इस चमड़े के पीछे कोई एक चीज बताइये जो आकर्षक है। हमने देखा था अंदर क्या गंदगी है। हमारे ऋषि लोग कहते हैं - ये शरीर क्या है ? ये तो सिर्फ गंदगी की एक गठरी है , जिसको बड़े सुंदर ढंग से पैक किया हुआ है। Packing material ये चमड़ा है। सुंदर सा दिखने वाला ये चमड़ा है , उस सुंदर चमड़े से इस गंदगी की गठरी को अच्छी तरह से पैक किया गया हैइसके प्रति सिर्फ मूर्ख ही आकृष्ट होगा। इसमें आकृष्ट होने के लिए क्या है ? एतन मांस वसादि विकारं मनसि विचारय बारम्बारम्॥11॥ बार बार इस प्रकार विवेक कीजिये कि यह जो देहाकर्षण है , इसमें भूलकर भी कभी मत पड़िये। इसमें कुछ नहीं है। ये एक ऐसा गड्ढा है , जिसमें अगर गिरोगे तो गिरते ही जाओगे , क्योंकि उसमें तल ही नहीं है। इसका अंत नहीं है। जीवन खत्म हो जायेगा,बुढ़ापा आ जायेगा। फिर भी वो गिरने की गलती करते रहोगे ? मनसि विचारय बारम्बारम्॥11॥ इसीलिए- भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् मूढ़मते।संप्राप्ते सन्निहिते काले न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे। 

छंद-12 

कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः का मे जननी को मे तातः।

इति परभावय सर्वमसारम् विश्वं त्यक्ता स्वप्नविचारम्॥12॥

 राग होती क्यों हैं :   कस्त्वं ? तुम कौन हो ? कोऽहं ?- मैं कौन हूँ ?  कुत आयातः ? -हमलोग कहाँ से आये हुए हैं ? का मे जननी ? मेरी माता कौन हैं ? को मे तातः ? मेरे पिता जी कौन हैं ? यही तो खोज है न ? आप किसी में भी खोज के देखो ! आप ईश्वर तक पहुँच जायेंगे। हमलोग यही तो कर रहे थे न ? मैं को खोजो तो मैं चला गया, ईश्वर मिल गया ! तुम को खोजो तो तुम चला गया, ईश्वर मिल गया। आप जिसको माता कह रहे हैं , माता में खोजो , तो तुमको ईश्वर मिल जायेंगे। पिता को खोजोगे तो पिता गए -ईश्वर मिल जायेंगे।  इति परभावय सर्वम् असारम् - तो फिर जितने सम्बन्धों को हम अपना मानकर बंधे हुए हैं - सब तो आसार ही हैं न ? हैं तो ईश्वर -लेकिन हम कहाँ फंसे हुए हैं ? हम एक प्रकार की भ्रान्ति में फँसे हुए हैं। हम इन्हीं रिश्तों -नातों में आसक्त होकर पड़े हैं। हम कहते हैं- ये मेरी पत्नी है , ये मेरा पति है। बच्चे हैं। सोच के देखिये किससे हम आसक्त हैं। आसक्ति की रस्सी से हम बंधे है न ? राग रूपी अदृश्य रस्सी से हम बंधे हुए हैं। राग होती क्यों हैं ? इस अविवेक के कारण , अविद्या के कारण, अज्ञान के कारण,  स्मिता के कारण ! अविवेक के कारण हम सब ऊपर ऊपर जो दिखाई देता है - माँ-बाप, भाई-बहन, विभिन्न रिश्ते -नाते , उनको अपना मानकर हम बंध जाते हैं। माता कौन है ? थोड़ा खोजकर देखो कि माता कौन है तो देखोगे , माँ है ही नहीं , ये तो ईश्वर है। पिता पति पत्नी सभी रिश्तों में लागु करो। मैं कौन हूँ ? तूँ कौन है ? कहीं भो ढूढ़ो तो ऊपर का दृश्य चला जाता है , ईश्वर प्रकट हो जाते हैं। सिर्फ ब्लड रिलेशन को अपना मानने तक अगर आपकी बुद्धि सीमित होगी , तबतक हम लोग  बुरी तरह से बंधे हुए हैं ,जकड़े हुए है। इस बंधन से बाहर निकलो , ईश्वर दृष्टि को अपनाओ। ईश्वर का अनुसंधान करो। ईश्वर का अनुसंधान करो। ईश्वर का अनुसंधान करो। ऊपर से दिखने वाला जितना संसार है -सब निस्सार है। इति परभावय सर्वम् असारम् ' ऊपर ऊपर से जो जगत दिख रहा है ; सब सार रहित है। विश्वं त्यक्ता स्वप्नविचारम्॥12॥ अरे नर, जग प्रपंच को स्वप्न समझकर तज दे।  इसके भीतर जाओ,  तो कुछ और ही आप को मिलेगा।  इसीलिए- भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् मूढ़मते।संप्राप्ते सन्निहिते काले न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे। भीतर जाओ , ईश्वर का अनुसन्धान करो , ईश्वर का अनुसन्धान करो ,  ईश्वर का अनुसन्धान करो।  

श्लोक 13

गेयं ग‍ीतानामसह्स्रम् ध्येयं श्रीपतिरूपमजस्रम्।

नेयं सज्जनसङ्गे चित्तम् देयं दीनजनाय च वित्तम्॥13॥

गेयं ग‍ीता नामसह्स्रम्' कहते हैं चाहे गीता का पाठ करें , विष्णु सहस्रनाम का नाम पाठ करें, भगवान विष्णु के सहस्र नाम हैं , उनमें से एक है -नेता ! उस पर शंकराचार्यजी की भाष्य भी है। ध्येयं श्रीपति रूपम अजस्रम् -श्रीपति यानि लक्ष्मी के पति यानि श्रीविष्णु। विष्णु के किसी भी अवतार पर ध्यान करे , अवतार वरिष्ठ पर ध्यान करे , गीता का पाठ करे , विष्णु सहस्रनाम का पाठ करे।  नेयं सज्जनसङ्गे चित्तम्' - और सत्संग करे - सज्जनो का संग करे। मतलब हमारा जीवन इस प्रकार का होना चाहिए। जिसमें नियमित 5 अभ्यास होता रहे, स्वाध्याय में गीता का पाठ सहस्रनाम आदि शास्त्र जो हमें ईश्वर का नाम स्मरण कराती हो ; मूल बात है किसी प्रकार ईश्वर पर ध्यान करें। कोई विष्णु पर ध्यान करे ,मोक्ष शास्त्रों का कुछ पाठ होता रहे। और सत्संग करे। देयं दीनजनाय च वित्तम्॥13॥ और जो गरीब लोग हैं , उनकी आर्थिक सहायता करें। धन है लेकिन आसक्ति नहीं है। आपके पास जो अधिक धन है , उसका सदुपयोग करें। जो दीन -दुखी है उसकी सहायता करें। सत्संगति में अपने जीवन को नए ढंग से गठित कर लीजिये। इसीलिए- भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् मूढ़मते।संप्राप्ते सन्निहिते काले न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे। (1:14:35) 

श्लोक -14

यावज्जीवो निवसति देहे कुशलं तावत्पृच्छति गेहे।

गतवति वायौ देहापाये भार्या विभ्यति तस्मिन्काये॥14॥

-ये गृहस्थ के लिए है - यावज्जीवो निवसति देहे -जब तक इस शरीर के अन्दर प्राण हैं, तब तक परिवार के सभी लोग -उस शरीर को पकड़ कर रहते हैं।  कुशलं तावत् पृच्छति गेहे।जब तक आपके शरीर में प्राण होगा सभी घरवाले उससे चिपक कर रहते हैं। लेकिन 'गतवति वायौ देहापाये' - एक बार उस शरीर से प्राण निकल जाये , तो भार्या का अर्थ केवल पत्नी नहीं लेकर , पति के लिए पत्नी का शरीर भी ले लीजिये आप। अब देखिये पति-पत्नी का जो आकर्षण है , वो तो शरीर आधारित आकर्षण ही है । शारीरिक आकर्षण में या तो पति पत्नी के शरीर को पकड़ कर रहता है, या पत्नी पति के शरीर को पकड़ कर रहती है। लेकिन जैसे ही प्राणवायु चली जाये ? भार्या विभ्यति तस्मिन्काये॥14॥वही पत्नी उसी पति के शरीर से भयभीत होती है, उसके निकट भी जाना नहीं चाहेगी। जिस शरीर को लेकर वो सारा जीवन रही है। पति भी उसी प्रकार अगर पत्नी के शरीर से प्राण निकल जाये तो ,वही पति जो सारा जीवन पत्नी के शरीर को लेकर रहता है ,अब प्राण निकल जाने पर कहता है -जल्दी ले जाओ भाई। इसको अभी जला दो। जैसे ही मृत्यु हो जाती है - कोई शरीर को घर में रखता है क्या ? हमारी चिंता होती है -जल्दी इसको श्मसान घाट ले जाओ। जिस शरीर से हमारी इतनी आसक्ति थी कि हम उससे चिपक कर रह रहे थे , जैसे ही प्राण वायु चली गयी -फिर क्या आप चिपक सकते हो उस पत्नी के शरीर से ? कितनी बड़ी सच्चाई है , हम किससे चिपक रहे हैं ? जीवित अवस्था में हम किससे चिपक रहे हैं ? किसी भी मृत्य शरीर का ध्यान करने का उत्तम चित्र है। एक मृत शरीर ऑंखें खोल देगी ! हम किससे मोहित हैं ? आप लोग बनारस के मणिकर्णिका घाट गए होंगे ? हमारे शास्त्र कहते हैं -ध्यान करने के लिए सबसे उत्तम स्थान श्मशान घाट है। श्मशान घाट में बैठकर जब आप ध्यान करोगे , तो आपका विवेक तुरंत जग जायेगा। आप देखोगे विशेषकर मणिकर्णिका घाट में -मृत शरीर को कतार में लाया जाता है - और ऐसे फेंक देते हैं -और लकड़ी से आग घुसा देते हैं। शरीर चिता से बाहर आता है तो लकड़ी से फिर घुसा देते हैं। मरने के बाद इस शरीर की कीमत इतनी ही है। हम जिस शरीर को आज इतना सजा सँवार  रहे हैं , जैसे ही प्राणवायु चली गयी , आप देखोगे मणिकर्णिका घाट में एक आदमी खड़ा रहता है। अगर उस मरे हुए आदमी का हाथ बाहर आ गया तो उस हाथ को डण्डे से उसको धक्का देकर आग में डाल देते हैं। जैसे ही इस शरीर से प्राण वायु चली जाएगी ? इस शरीर का क्या मूल्य रहेगा ? यही जीवन की सच्चाई है। तो यह मिथ्या शरीर से हमलोग आज जो इतने मोहित हैं , ये मोह क्यों है ? सिर्फ अविवेक के कारण है। कहते हैं -जब तक रहते प्राण देह में, तब तक घर के सभी इस शरीर से चिपकेंगे। लेकिन जैसे ही शरीर से प्राणवायु चली जाये ? तो पत्नी स्वयं उस पति के शरीर से भयभीत होती है। वो उसको स्वयं स्पर्श नहीं करती ; और स्वयं पति भार्या के शरीर को स्पर्श नहीं करता। दोनों के लिए कहा जा रहा है। ये जीवन की सबसे बड़ी सच्चाई है। इसीलिए भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् मूढ़मते।संप्राप्ते सन्निहिते काले न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे। (1:19:00

श्लोक -15

सुखतः क्रियते रामाभोगः पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः।

यद्यपि लोके मरणं शरणम् तदपि न मुञ्चति पापाचरणम्॥15॥

युवा अवस्था में जब हमारा शरीर मजबूत है, तो वह व्यक्ति स्त्री हो या पुरुष हो, सुखतः क्रियते रामाभोगः वो अपने आप को पूरी तरह से काम भोग में डुबो देता है। लेकिन बाद में उसका परिणाम क्या है ? पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः' सभी रोगों का मूल वही है। उस अवस्था में हमको ये बात समझ में नहीं आता है। इस शरीर -इन्द्रियों को जितना अधिक हम कामभोग में डुबो देते हैं , वो तो दो क्षण सुख है। लेकिन उसके कारण हमेसे गड्ढे में गिर रहे हैं , जिसका तल ही नहीं है। वो कामाग्नि ऐसी अग्नि है जो हमको जलाते ही रहती है। उसका परिणाम क्या है ? देखते देखते फिर बुढ़ापा आ गया। शरीर में रोग आ गया। 'मनुष्य शरीर' - (साधन धाम मोक्ष का द्वारा - शरीर तो मरेगा ही, लेकिन जब मैं नहीं हूँ ,ईश्वर ही है ! तो मरेगा कौन? दास अहं भक्त अहं को मुक्ति नहीं भक्ति ही चाहिए।) को प्राप्त करके जो करणीय था, उसको हमें नहीं किया ? मनुष्य शरीर को प्राप्त करके जो मुख्य काम करणीय था - उसको ना करते हुए हम कामाग्नि में डूब करके रह जाते हैं। सारा जीवन बीत गया , देखते देखते शरीर में रोग उत्पन्न हो गया। अब साधन चतुष्टय नहीं कर सकते। जबकि सभी मनुष्यों को पता है कि हमारी जो अंतिम गति है , वो तो मरण है। शरीर तो मरने ही वाला है , फिर भी हम पापाचरण करना बंद नहीं करते हैं। इस शरीर से मोहित होकरके हम बिभिन्न प्रकार के अकरणीय कार्यों को कर बैठते हैं। शरीर का अंत तो मृत्यु ही है , मैं तो अविनाशी , शुद्ध, बुद्ध , नित्य आत्मा हूँ ! फिर भी शरीर से मोहित होकर के ही पाप का आचरण होता है। कोई भी अनैतिक कार्य व्यक्ति क्यों करता है ? शरीर से मोहित होकरके। समाज में जितने भी अपराध हैं , Crime psychology  को अपराध मनोविज्ञान यदि पढोगे , या न्यूज सुनोगे तो क्या रहता है ? आज वहाँ उसने ये किया , उसने वो अपराध किया। सारे Crime अगर देखोगे। तो दो ही Category के अपराधी होते हैं। जितने भी अपराध होते हैं, या तो काम केंद्रित हैं, या धन- केंद्रित होते है - अपराधी दो ही वर्ग में आते हैं। क्या ऐसा नहीं है ? जितने अपराध होते हैं वे या तो काम के लिए है, या धन के लिए है। यही काम -कांचन में राग हमसे पापाचरण कराते हैं। ये सर्वनाश के द्वार हैं। हमें डुबो देती है। इसीलिए भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् मूढ़मते। संप्राप्ते सन्निहिते काले न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे। [ 'मनुष्य शरीर' - (साधन धाम मोक्ष का द्वारा - शरीर तो मरेगा ही, लेकिन जब मैं नहीं हूँ ,ईश्वर ही है ! तो मरेगा कौन? दास अहं भक्त अहं को मुक्ति नहीं भक्ति ही चाहिए(1:21:45 ) 

श्लोक -16

रथ्याचर्पटविरचितकन्थः पुण्यापुण्यविवर्जितपन्थः।

नाहं न त्वं नायं लोकः तदपि किमर्थं क्रियते शोकः॥16॥

अब फिर इस श्लोक में संन्यासी पर कटाक्ष है। 'रथ्याचर्पटविरचितकन्थः पुण्यापुण्यविवर्जितपन्थः।' जिस संन्यासी ने घर परिवार सब छोड़ दिया। वह कुछ भी पहन लेता है - चिथड़ों की गुदड़ी बनवा ली, उसको पहन लिया। उसने ऐसे पंथ को अपनाया है -जो कि पुण्य और अपुण्य के ऊपर है। पुण्य कर्म और अपुण्य कर्म से ऊपर का पथ है -संन्यासी का। संन्यासी पुण्य का फल भी लेना नहीं चाहता। नाहं न त्वं नायं लोकः -उसने जिस मार्ग को अपनाया है , उसके लिए तो मैं -तूँ कुछ नहीं है। संन्यासी ने ये सब छोड़ दिया है। लेकिन ये सब छोड़ देने के बाद भी - तदपि किमर्थं क्रियते शोकः॥16॥ संन्यासी होकर भी अगर आप रो रहे हो , शोक कर रहे हो , किसके लिए शोक कर रहे हो ? यह कटाक्ष संन्यासियों पर है। सबकुछ पाप-पुण्य में आसक्ति छोड़ देने के बाद भी यदि आपका मन आनन्दित और प्रफुल्लित नहीं है - तो कुछ गड़बड़ है -जो बंद करना होगा ? आप सिर्फ ईश्वर अनुसन्धान ही नहीं कर रहे हो  इसीलिए आप शोक कर रहे हो। अगर ईश्वर अनुसन्धान किया होता , तो शोक नहीं होता। इसीलिए भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् मूढ़मते। संप्राप्ते सन्निहिते काले न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे। (1:23:07)   

श्लोक -17

कुरुते गङ्गासागरगमनं व्रतपरिपालनमथवा दानम्।

ज्ञानविहीने सर्वमतेन मुक्तिर्भवति न जन्मशतेन॥17॥

   हमलोग अक्सर तीर्थाटन करने के लिए जाते रहते हैं। कई प्रकार के व्रतों का पालन करते हैं। सत्कर्म या पुण्य-कर्म किया करते हैं। तो यहाँ शंकराचार्यजी कह रहे हैं, आप तीर्थाटन करने कहीं भी चले जाइये,आप गंगासागर चले जाइये , विभिन्न प्रकार के निर्जला एकादशी आदि व्रत का पालन कीजिये। व्रत पालन करना अच्छी बात है , तीर्थाटन करना अच्छी बात है। लेकिन उतना करने मात्र से ही कुछ (आत्मज्ञान) नहीं होना है। आप सारा जीवन तीर्थाटन कर सकते हो , व्रतों का पालन कर सकते हो। अथवा दानं या अच्छे कर्म करते रहिये , दान-करते रहिये , सत्कर्म करना अच्छी बात है। लेकिन याद रख लीजिये- ज्ञानविहीने सर्वमतेन मुक्तिर्भवति न जन्मशतेन॥ कहने मतलब है आप जो चाहिए कर लीजिये , आत्मज्ञान के बिना (अन्तर्निहित दिव्यता -Inherent Divinity) के एकत्व का अनुभव किये बिना 100 जन्मों में भी कोई मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकता। [इस श्लोक के माध्यम से आदि शंकराचार्य बताते हैं कि केवल बाहरी कर्मकांड (जैसे गंगा-सागर की तीर्थयात्रा, विभिन्न व्रत रखना, या दान करना) तब तक व्यर्थ हैं जब तक व्यक्ति के पास आत्म-ज्ञान या ब्रह्म-ज्ञान नहीं है। मुक्ति का वास्तविक मार्ग आत्म-ज्ञान है, जो सभी परंपराओं और मतों द्वारा स्वीकार किया जाता है।] विवेक-चूड़ामणि के प्रारम्भ में ही ठीक इसी भाव पर आधारित  एक बड़ा सुंदर श्लोक आता है- 

वदन्तु शास्त्राणि यजन्तु देवान्

कुर्वन्तु कर्माणि भजन्तु देवताः ।

आत्मैक्यबोधेन विनापि मुक्तिः

न सिध्यति ब्रह्मशतान्तरेऽपि ॥ ६ ॥ 

     अपने को महापण्डित ज्ञानी समझने वाले लोग चाहे विभिन्न शास्त्रों का उद्धरण दें, देवताओं को बलि चढ़ाएँ, अनुष्ठान करें और देवताओं की पूजा करें, लेकिन आत्मा के साथ एकात्मबोध (Oneness )  हुए बिना, पहचान के बिना मुक्ति नहीं मिलती, यहाँ तक कि सौ ब्रह्माओं के जीवनकाल में भी नहीं। 

     वही बात यहाँ कह रहे हैं - आप गंगासागर गमन कर लीजिये , आप व्रतों का पालन कर लीजिये। आप दान कर लीजिये , सत्कर्म करते रहिये। लेकिन ज्ञान के बिना, अर्थात आत्मज्ञान के बगैर मुक्ति नहीं मिल सकती। ज्ञानविहीने सर्वमतेन मुक्तिर्भवति न जन्मशतेन॥ जन्मशतेन -शत शत जन्मों में भी आत्मज्ञान के बिना मुक्ति नहीं मिलने वाली है। आप जो चाहे कर लो , यज्ञ कर लो , विभिन्न देवताओं की पूजा कर लो , सत्कर्म कर लो, लेकिन आत्मज्ञान के बगैर , मतलब ईश्वर के ज्ञान के बगैर अनंत काल तक भी इस जन्म-मृत्यु के चक्र से निकल नहीं सकते। आप तीर्थाटन कर लीजिये व्रतों का पालन कर लीजिये। सत्कर्म कर लीजिये, दान कीजिये। लेकिन आत्मज्ञान के बगैर मुक्ति नहीं मिलने वाली-   मुक्तिर्भवति न जन्मशते। इसीलिए भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् मूढ़मते। संप्राप्ते सन्निहिते काले न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे। तो ये है अतिसुंदर चर्पट पंजरिका स्त्रोतं। 

  जैसा पहले कहा गया था , इस चर्पट पंजरिका में जिन शब्दों को कहा गया है , वे बड़े तीक्ष्ण हैं। Ruthless निर्मम शब्द हैं , गहरे आघात करते हैं। लेकिन हमारे लिए अच्छा है, हमें निद्रा से जगाने के लिए सत्य को कितनी सुंदर ढंग कहा गया है। शब्दों की चोट लगाना, यह हमलोगों पर गुरुदेव की कृपा है। हमें हमारे मोह निद्रा से जगा रहे हैं। 

देखिये हमारी जो यह शरीर केंद्रित दृष्टि है ,उसके कारण हमलोग जिव-जगत को स्त्री-पुरुष,स्त्री-पुरुष,स्त्री-पुरुष रूप में देखकर, लैङ्गिक आकर्षण को प्रेम समझ लेते हैं। और राग की अदृश्य रस्सी में बन्ध जाते हैं। और इन्द्रिय-विषय भोगों डूबे रहते हैं। सत्य की खोज नहीं करते है । तो  इस पूरे भजगोविन्दम् स्त्रोत में आपने देखा होगा, शंकराचार्यजी एक ओर जहाँ यह दिखाते हैं कि मिथ्या जगत में डूबने से क्या क्या परिणाम होता है ? दूसरी ओर कह रहे हैं कि इस मिथ्या जगत को छोडो और सत्य का अनुसन्धान करो। भज गोविन्दम् का अर्थ है - ईश्वर का अनुसंधान करो , एक ओर ब्रह्म ही सत्य है, दूसरी ओर जगत मिथ्या है। तो इस प्रकार पूरे स्त्रोत्र में विवेक करने को कहा जा रहा है। विवेक क्या है-  ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या ये विवेक ही चल रहा है। इस मिथ्या जगत में डूबने से उसका परिणाम क्या होने वाला है -मृत्यु ? और सत्य का अनुसधान करने वाले सत्यार्थी -का जैसा बुढ़ापा आनन्द पूर्ण होता है, उसमें स्पष्टता आनी चाहिए। उसको जान कर इन्द्रिय विषय भोगों डूबे रहने की आदत छोड़ दो, और ईश्वर का अनुसन्धान करो।  ईश्वर का अनुसन्धान करो।  ईश्वर का अनुसन्धान करो। ब्रह्म ही सत्य है , बाकि सब मिथ्या है !" ॐ शांति

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मंगलवार, 30 सितंबर 2025

⚜️️ भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी। बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी॥⚜️️घटना - 371⚜️️⚜️️भगवान श्रीराम द्वारा अयोध्या वासियों को मानव तन प्राप्त करने का सौभाग्य और फलाफल का उपदेश⚜️️Shri Ramcharitmanas Gayan || Episode #371 ||⚜️️

 श्रीरामचरितमानस 

सप्तम सोपान

उत्तरकाण्ड

[दोहा -44,45,46]


     श्रीराम अयोध्या वासियों को मानवतन प्राप्त करने के सौभाग्य और फलाफल का उपदेश दे रहे हैं। मनुष्य का शरीर भवसागर पार करने के लिए नौका के समान है जो मनुष्य ऐसा साधन पाकर भी भवसागर पार न कर पाये ; वो महाकृतघ्न और मूर्ख होता है। हे नगरवसीयों इहलोक और परलोक में सुख प्राप्त करना चाहते हो , तो भक्ति के सुलभ मार्ग का अनुशीलन करो। ज्ञान का मार्ग कठिन होता है , उसे सहज ही प्राप्त नहीं किया जा सकता। भक्ति का मार्ग अपेक्षाकृत सहज होता है। किन्तु संत-समागम के बिना इसकी साधना नहीं हो पाती ! बड़े पुण्य अर्जित करके संतों की सङ्गति मिलती है ! और पुण्य अर्जित करने का साधन है , कपट त्यागकर मन -वचन और कर्म से उनकी सेवा करना जो पूज्य हैं , जिनके चरण वंदनीय हैं ! प्रजाजन के सम्मुख श्रीराम हाथ जोड़कर कहते हैं - देवाधिदेव महादेव का भजन किये बिना ; मनुष्य मेरा भक्त नहीं हो सकता ! भक्ति के मार्ग में न तो यज्ञ और त्याग की आवश्यकता है , और न ही तप और उपवास की। 

दोहा :
* जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ॥44॥

भावार्थ:-जो मनुष्य ऐसे साधन पाकर भी भवसागर से न तरे, वह कृतघ्न और मंद बुद्धि है और आत्महत्या करने वाले की गति को प्राप्त होता है॥44॥

चौपाई :

* जौं परलोक इहाँ सुख चहहू। सुनि मम बचन हृदयँ दृढ़ गहहू॥
सुलभ सुखद मारग यह भाई। भगति मोरि पुरान श्रुति गाई॥1॥

भावार्थ:-यदि परलोक में और यहाँ दोनों जगह सुख चाहते हो, तो मेरे वचन सुनकर उन्हें हृदय में दृढ़ता से पकड़ रखो। हे भाई! यह मेरी भक्ति का मार्ग सुलभ और सुखदायक है, पुराणों और वेदों ने इसे गाया है॥1॥

* ग्यान अगम प्रत्यूह अनेका। साधन कठिन न मन कहुँ टेका॥
करत कष्ट बहु पावइ कोऊ। भक्ति हीन मोहि प्रिय नहिं सोऊ॥2॥

भावार्थ:-ज्ञान अगम (दुर्गम) है (और) उसकी प्राप्ति में अनेकों विघ्न हैं। उसका साधन कठिन है और उसमें मन के लिए कोई आधार नहीं है। बहुत कष्ट करने पर कोई उसे पा भी लेता है, तो वह भी भक्तिरहित होने से मुझको प्रिय नहीं होता॥2॥

* भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी। बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी॥
पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता। सतसंगति संसृति कर अंता॥3॥

भावार्थ:-भक्ति स्वतंत्र है और सब सुखों की खान है, परंतु सत्संग (संतों के संग) के बिना प्राणी इसे नहीं पा सकते और पुण्य समूह के बिना संत नहीं मिलते सत्संगति ही संसृति (जन्म-मरण के चक्र) का अंत करती है॥3॥

*पुन्य एक जग महुँ नहिं दूजा। मन क्रम बचन बिप्र पद पूजा॥
सानुकूल तेहि पर मुनि देवा। जो तजि कपटु करइ द्विज सेवा॥4॥

भावार्थ:-जगत्‌ में पुण्य एक ही है, (उसके समान) दूसरा नहीं। वह है- मन, कर्म और वचन से ब्राह्मणों के चरणों की पूजा करना। जो कपट का त्याग करके ब्राह्मणों की सेवा करता है, उस पर मुनि और देवता प्रसन्न रहते हैं॥4॥

दोहा :

* औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउँ कर जोरि।
संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि॥45॥

भावार्थ:-और भी एक गुप्त मत है, मैं उसे सबसे हाथ जोड़कर कहता हूँ कि शंकरजी के भजन बिना मनुष्य मेरी भक्ति नहीं पाता॥45॥
चौपाई :

* कहहु भगति पथ कवन प्रयासा। जोग न मख जप तप उपवासा।
सरल सुभाव न मन कुटिलाई। जथा लाभ संतोष सदाई॥1॥

भावार्थ:-कहो तो, भक्ति मार्ग में कौन-सा परिश्रम है? इसमें न योग की आवश्यकता है, न यज्ञ, जप, तप और उपवास की! (यहाँ इतना ही आवश्यक है कि) सरल स्वभाव हो, मन में कुटिलता न हो और जो कुछ मिले उसी में सदा संतोष रखे॥1॥

* मोर दास कहाइ नर आसा। करइ तौ कहहु कहा बिस्वासा॥
बहुत कहउँ का कथा बढ़ाई। एहि आचरन बस्य मैं भाई॥2॥

भावार्थ:-मेरा दास कहलाकर यदि कोई मनुष्यों की आशा करता है, तो तुम्हीं कहो, उसका क्या विश्वास है? (अर्थात्‌ उसकी मुझ पर आस्था बहुत ही निर्बल है।) बहुत बात बढ़ाकर क्या हूँ? हे भाइयों! मैं तो इसी आचरण के वश में हूँ॥2॥

* बैर न बिग्रह आस न त्रासा। सुखमय ताहि सदा सब आसा॥
अनारंभ अनिकेत अमानी। अनघ अरोष दच्छ बिग्यानी॥3॥

भावार्थ:-न किसी से वैर करे, न लड़ाई-झगड़ा करे, न आशा रखे, न भय ही करे। उसके लिए सभी दिशाएँ सदा सुखमयी हैं। जो कोई भी आरंभ (फल की इच्छा से कर्म) नहीं करता, जिसका कोई अपना घर नहीं है (जिसकी घर में ममता नहीं है), जो मानहीन, पापहीन और क्रोधहीन है, जो (भक्ति करने में) निपुण और विज्ञानवान्‌ है॥3॥

* प्रीति सदा सज्जन संसर्गा। तृन सम बिषय स्वर्ग अपबर्गा॥
भगति पच्छ हठ नहिं सठताई। दुष्ट तर्क सब दूरि बहाई॥4॥

भावार्थ:-संतजनों के संसर्ग (सत्संग) से जिसे सदा प्रेम है, जिसके मन में सब विषय यहाँ तक कि स्वर्ग और मुक्ति तक (भक्ति के सामने) तृण के समान हैं, जो भक्ति के पक्ष में हठ करता है, पर (दूसरे के मत का खण्डन करने की) मूर्खता नहीं करता तथा जिसने सब कुतर्कों को दूर बहा दिया है ॥4॥  

दोहा -

* मम गुन ग्राम नाम रत गत ममता मद मोह।
ता कर सुख सोइ जानइ परानंद संदोह॥46॥

भावार्थ:-जो मेरे गुण समूहों के और मेरे नाम के परायण है, एवं ममता, मद और मोह से रहित है, उसका सुख वही जानता है, जो (परमात्मारूप) परमानन्दराशि को प्राप्त है॥46॥

चौपाई-

* सुनत सुधा सम बचन राम के । गहे सबनि पद कृपाधाम के॥
जननि जनक गुर बंधु हमारे। कृपा निधान प्रान ते प्यारे॥1॥

भावार्थ:-श्रीरामचन्द्रजी के अमृत के समान वचन सुनकर सबने कृपाधाम के चरण पकड़ लिए (और कहा-) हे कृपानिधान! आप हमारे माता, पिता, गुरु, भाई सब कुछ हैं और प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं॥1॥

* तनु धनु धाम राम हितकारी। सब बिधि तुम्ह प्रनतारति हारी॥
असि सिख तुम्ह बिनु देइ न कोऊ। मातु पिता स्वारथ रत ओऊ॥2॥

भावार्थ:-और हे शरणागत के दुःख हरने वाले रामजी! आप ही हमारे शरीर, धन, घर-द्वार और सभी प्रकार से हित करने वाले हैं। ऐसी शिक्षा आपके अतिरिक्त कोई नहीं दे सकता। माता-पिता (हितैषी हैं और शिक्षा भी देते हैं) परन्तु वे भी स्वार्थपरायण हैं (इसलिए ऐसी परम हितकारी शिक्षा नहीं देते)॥2॥
* हेतु रहित जग जुग उपकारी। तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी॥
स्वारथ मीत सकल जग माहीं। सपनेहुँ प्रभु परमारथ नाहीं॥3॥

भावार्थ:-हे असुरों के शत्रु! जगत्‌ में बिना हेतु के (निःस्वार्थ) उपकार करने वाले तो दो ही हैं- एक आप, दूसरे आपके सेवक। जगत्‌ में (शेष) सभी स्वार्थ के मित्र हैं। हे प्रभो! उनमें स्वप्न में भी परमार्थ का भाव नहीं है॥3॥

* सब के बचन प्रेम रस साने। सुनि रघुनाथ हृदयँ हरषाने॥
निज निज गृह गए आयसु पाई। बरनत प्रभु बतकही सुहाई॥4॥

भावार्थ:-सबके प्रेम रस में सने हुए वचन सुनकर श्री रघुनाथजी हृदय में हर्षित हुए। फिर आज्ञा पाकर सब प्रभु की सुन्दर बातचीत का वर्णन करते हुए अपने-अपने घर गए॥4॥

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