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गुरुवार, 22 सितंबर 2016

$$$ लीडरशिप क्लास /इक्कीसवीं शताब्दी के भण्डार में क्या है ? विश्व रंगमंच पर भारत का उत्थान

'बी ऐंड मेक रूपी अद्वैतवाद ने भौतिकवाद से भारत की रक्षा दो बार  की है'
 (पूर्वकाल में बुद्ध और आचर्य शंकर के मध्यम से)  
जगत की वर्तमान अवस्था के ऊपर जब हमलोग दृष्टिपात करते हैं, तो क्या देखते हैं ? भविष्य का कैसा परिदृश्य हमारी दृष्टि के समक्ष उभरता है- वह दृश्य निराशाजनक है, अथवा उज्ज्वल संभावनाओं से भरपूर है? क्या वह परिदृश्य पूर्णतया -हमारे अपने आप्टमिस्ट दृष्टिकोण (केवल अच्छे पक्ष को देखने का नजरिया), या पेसिमिस्ट (संसार को केवल दुःखपूर्ण समझने का) नजरिया पर निर्भर नहीं करता ? वर्तमान जगत, जीवन को किस प्रकार से देखने का नजरिया प्रदान कर रहा है या भविष्य, हमें जीवन के प्रति कैसा दृष्टिकोण प्रदान कर सकता है ? 
 मानव ने इतनी अधिक वस्तुऐं स्वयं निर्मित कर ली है, कि उन वस्तुओं ने ही उसके अस्तित्व के लिये संघर्ष को कठिनतर बना दिया है। मानव के लिये जितने आविष्कार सचमुच हितकारी हो सकते थे, उसने कहीं उससे अधिक आविष्कृत कर लिया है। जितनी भौतिक वस्तुयें उसके आधिपत्य में होने से वह उसका सही आनन्द ले सकता था, उसने उससे कहीं ज्यादा संग्रहित कर लिया है। तथा भौतिक वस्तुओं को प्राप्त करने और अधिकार में रखने की लालसा जितनी अधिक बढ़ती जा रही है, उतनी ही मात्रा में उसके मन से सुख-शांति भी विस्थापित होकर निर्वासित होती जा रही है। 
मानव ने स्वयं जिस जगत की रचना की है, उस जगत ने उसे यही विश्वास करना सिखलाया है कि - " अब भगवान का निधन हो चुका है"! इसीलिये वह कभी कभी अगोचर भगवान का भक्त होने का पाखण्ड भी कर लेता है, किन्तु उनके स्थान पर अपने हृदय में उसने "Lust and Lucre" (कामुकता और कमाई) की युगल मूर्ति को स्थापित कर रखा है। 
इसी तृष्णा में उसने प्रकृति को लूटकर भीतर तक उजाड़ कर दिया है, और प्रकृति ने भी प्रतिशोध लेते हुए मनुष्य के अभ्यंतर (हृदय) को आत्मश्रद्धा से रहित और शक्तिहीन बना दिया है। "बिरीव्ड ऑफ़ इनर पॉवर" आंतरिक शक्ति (आत्म-शक्ति) से वंचित होकर, वह स्वयं को ही (यह विश्वास करने के लिये) -हिप्नोटाइज या सम्मोहित करने लगता है कि वह " सर्वशक्तिमान आत्मा" नहीं, बल्कि " इतिहास और परिवेश" (History and Environment) की जंजीरों से बंधा एक पशु है! 
और इस प्रकार 'इंस्टेड ऑफ़ रीमेकिंग अ वर्ल्ड टू लीव इन'--इस जगत को पुनः नये सीरे से "मनुष्य" के रहने योग्य बनाने में समर्थ नेता (ब्रह्मवेत्ता-सिंह) बनने और बनाने का प्रयत्न-जब वह कर ही नहीं पाता, तब यह जगत स्वयं उस मनुष्य को ही पटक-पटक कर विकृत और बौना (भेंड़) बना देता है। और 'पदार्थ और ऊर्जा' (Matter and Energy) को अपना एक अनुकूल सेवक (good servant) बनाने के प्रयास में, (उनकी समतुल्यता, E=M अविवादित है); मनुष्य अपने को ही पदार्थ (Matter) का (लस्ट ऐंड लूकर या कामुकता और कमाई का) एक निस्सहाय दास बना लेता है।
[जो मनुष्य भोगवादी संस्कृति से प्रभावित होकर 'पदार्थ और ऊर्जा' (Matter and Energy) को, स्वामी जी की भाषा में (Matter and Force) 'पदार्थ और शक्ति' को [ श्री ठाकुर की भाषा में 'कामिनी-कांचन', श्री दादा की भाषा में 'लस्ट एंड लूकर'']  को  अपना गुड-सर्वेंट अनुकूल सेवक बना लेने के प्रयास में लगा रहता है, और  इस जगत को मनुष्यों के रहने योग्य बनाने का प्रयास, अर्थात भारत का कल्याण के माध्यम से सम्पूर्ण विश्व के कल्याण के लिए कोई प्रयास नहीं करता। क्योंकि 'पदार्थ और शक्ति'  (Mass and Energy) की समतुल्यता, (E=Mc2) अविवादित सत्य है,  इसीलिए यह जगत (अव्यक्त शक्ति) ही वैसे मनुष्यों को पटक-पटक कर, उसकी महिमा से नीचे गिरा देता है और  'विकृत और बौना मनुष्य' अर्थात भेंड़-मानव (पशु-मानव) में परिणत कर देता है! 
अर्थात जब तक मनुष्य सम्पूर्ण जगत को 'बी ऐंड मेक ' का महावाक्य सुनाकर, जगत को ब्रह्म-मय (सिंह-मय) जगत बनाने की चेष्टा नहीं करता,वह " कामुकता और कमाई " के कण्डूरोग द्वारा हिप्नोटाइज्ड होकर,मनुष्य यह भूल जाता है कि, "मैं अविनाशी आत्मा, सिंह हूँ -अहं ब्रह्मSस्मि "! और में-में, करता हुआ 'मैं तो भेंड़ (नश्वर शरीर मात्र) हूँ' यह विश्वास करने के लिये स्वयं को ही सम्मोहित करने लगता है। (जब तक नेता सिंह -गुरु विवेकानन्द नहीं मिल जाते) अर्थात जब तक वह महामण्डल द्वारा निर्देशित ५ दैनंदिन अभ्यासों का पालन नहीं करता, और 'कामुकता और कमाई' की माया (चकाचौंध) से सम्मोहित होकर स्वयं से रात-दिन कहता रहता है कि मैं " इतिहास और परिवेश" (History= पूर्व जन्म की आदतें या प्रवृत्तियाँ, एवम  Environment-जिस M/F शरीर में जन्म हुआ, उसी को 'मैं'- मानने के भ्रम) की जंजीरों से बन्धा भेंड़ हूँ !
इक्कीसवीं सदी में प्रविष्ट होने की प्रस्तुति  
यह जगत इक्कीसवीं सदी में प्रविष्ट होने के लिये स्वयं को तैयार कर रहा है, तथा संक्रमण काल की  समस्त मुसीबतों का डट कर मुकाबला करने को कृतसंकल्प है। विस्मयकारी इलेक्ट्रॉनिक गैजट्स (यंत्र-उपकरण) एवं भविष्य में अत्याधुनिक-यान में अंतरिक्ष-यात्रा के दौरान जीवन का लुत्फ़ मनुष्य के मन को इतना अधिक प्रलुब्ध कर रहा है कि वह मानसिक सन्तुलन खो देने के कागार तक जा पहुँचा है। कुछ अमेरिकी मनोवैज्ञानिक अंतरिक्ष-यात्रा के दौरान अबाधित सेक्स के मानवाधिकार (?) को संरक्षित रखने के लिये अभी से संघर्षरत हो गए हैं। सचमुच यह संस्कृति और आधुनिक मानव के सम्पूर्णता की निशानी ही तो है ! इसी समय के एक प्रख्यात वैज्ञानिक इस तर्क के आधार पर, उन कीटनाशकों पर लगे प्रतिबन्ध का विरोध कर रहे हैंकि उन कीटनाशकों - जो कीटनाशक दवाइयाँ कीटों और मनुष्यों को एक साथ मार रही हैं; को प्रतिबन्धित कर देने से, कृषि उत्पादन में भारी ह्रास होने की सम्भवना है। उसका मानना है कि यदि कीटनाशकों को प्रतिबन्धित कर देंगे तो, आने वाले दशकों में विश्व के बहुत बड़े क्षेत्र पर जो भुखमरी (famine) का खतरा मंडरायेगा उसका मुकाबला कैसे करेंगे ? 
कोयला और पेट्रोलियम के घटती हुई आरक्षित भंडारों का दोहन करने के प्रयास ने परमाणु संयत्रों को विकसित करने के प्रयास को एक मजबूत आधार दे दिया है। यहाँ तक कि भारत में भी हमलोग कुछ ही वर्षों में परमाणु ऊर्जा संयत्रों की एक श्रृंखला खड़ी करने जा रहे हैं। क्या हमारे वैज्ञानिकों को इतना पता नहीं है कि यदि किसी परमाणु संयत्र में गंभीर दुर्घटना घट गयी तो तो उससे इतनी अधिक रेडियोधर्मिता उत्पन्न होगी जो १००० हिरोशिमा टाइप परमाणु बम की तुलना में अधिक हो सकती है ?  
यहाँ तक कि यदि हम परमाणु संयत्रों की संभाव्य दुर्घटना से बच भी जायें, तब भी परमाणु कचरे (नुक्लिअर वेस्ट्स) से छुटकारा पाना एक ऐसी समस्या है, जिसने अभी तक समस्त वैज्ञानिक मस्तिष्कों को चक्कर में डाल दिया है। क्योंकि, परमाणु-कचरा मिट्टी के साथ मिलकर नदियों में भी बहने का रास्ता खोज सकता है और ऐसे हानिकारक रेडियोधर्मी विकिरण को सैकड़ों वर्षों फैला सकता है, जो किसी भी प्राणी के जीवन के लिये घातक होते हैं। चीन ने,अपने देश में अमेरिकी परमाणु संयंत्रों से उत्पन्न परमाणु कचरे की डंपिंग के लिए स्थान उपलब्ध कराने की पेशकश की है, तथा इसके लिये उसने परमाणु ईंधन के लागत मूल्य से पाँच गुणा अधिक मूल्य चार्ज करने का प्रस्ताव भेजा है !  
यहाँ तक कि केवल एक 'भोपाल त्रासदी ' के बाद आधारिक तौर से  १७५४ लोगों को मृत, ७४११ लोगों को अमाशय-अल्सर आदि उदर-सम्बन्धित रोग से ग्रस्त, ३३७२ व्यक्तियों को नेत्र-सम्बन्धी रोगों से तथा २५०० व्यक्तियों को गम्भीर श्वसन-रोग या फेफड़ों की बीमारी से ग्रस्त घोषित किया गया था। एमआईसी से प्रभावित माताओं ने कितने ही मृत बच्चों को जन्म दिया था ! क्या हमलोग इस बात की कल्पना भी कर सकते हैं कि भविष्य में परमाणु कचरे से निकलने वाले धीमे और अगोचर रेडियो धर्मी विकिरण का लोगों पर कितना गम्भीर  प्रभाव पड़ सकता है ! औद्योगिक कचरे को उनमें प्रवाहित करने से हवा, मिट्टी, और नदियों का पानी तो पहले से ही, इतना अधिक प्रदूषित हो गया है कि उसके परिणाम स्वरूप कई लोगों की मृत्यु तक हो जाती है। यहाँ तक कि नदी में रहने वाली मछलीयां भी पारा, कैडमियम, आदि अन्य बहुत सी हानिकारक धातुओं के द्वारा प्रदूषित  हो गयी हैं ।
नाजियों द्वारा ४  लाख लोगों के  मानव-निर्मित नरसंहार के बाद, शायद मानव-जीवन की सर्वाधिक हानी
जापान के परमाणु विध्वंश में वैज्ञानिक ज्ञान की सहायता से हुई थी। जिसमें एक साथ २,००,००० लोगों की जानें सीधी चली गयी थी और असंख्य लोग पीढ़ियों से कष्ट झेलते आ रहे हैं। इंगलैंड के बर्मिंघम विश्व-विद्यालय में -इस विषय पर १९४० ई० में ही 'परमाणु बम विकसित करने की व्यवहार्यता' पर एक दुर्भाग्यपूर्ण खोज हुई थी। 
दो वैज्ञानिकों ने अपने संयुक्त शोध-पत्र में ने समझाया था कि कैसे यूरेनियम -235 की एक छोटी राशि से परमाणु बम के रूप में एक ऐसा हथियार विकसित किया जा सकता है, जिसके द्वारा  द्वितीय विश्व युद्ध को भी जीता जा  सकता है। उनमें से एक रुडोल्फ पेरेल्स (जो १९०७ में बर्लिन में जन्मे थे) आज भी जीवित हैं [Sir Rudolf Peierls (1907-1995) यह निबन्ध विवेक-जीवन में १९८७ में प्रकाशित हुआ था] इस खोज के लिये उन्हें ब्रिटेन की महारानी द्वारा नाइट की उपाधि भी प्रदान की गयी थी। वे परमाणु-बम बनाने में अमेरिकी वैज्ञानिकों को सहायता करने के लिये अपने सहयोगी वैज्ञानिक के साथ संयुक्त राज्य अमेरिका चले गये थे। एवं १६ जुलाई १९४५ को हिरोशिमा और नागासाकी प्रकरण से कई सप्ताह पहले ही, यह परमाणु बम जो भयावहता ला सकता था, उसके साक्षी बने थे। वे दोनों स्वयं सेमेटिक-विरोधी नाजीवाद से पीड़ित शरणार्थि थे, और इस भय से त्रस्त थे कि कहीं जर्मनी ही परमाणु-बम का प्रथम विस्फोट नहीं कर दे। इसीलिये उन्होंने उसके डिज़ाइन तकनीक आने से पहले ही, अमेरिका को अपना डिजाइन तकनीक प्रदान करके जर्मनी से आगे कर दिया था। 

क्या-क्या हो सकता है !
 Things to Come 
अंतरिक्ष-विज्ञान के क्षेत्र में एक छोटी सी विशेषज्ञता प्राप्त करते ही, कहने को तो केवल आत्मरक्षा के लिये, किन्तु हमलोग अब 'स्टार वार्स' के लिए भी तैयारी कर रहे हैं। और न केवल संयुक्त राज्य अमरीका, बल्कि  U.S.S.R. आज का 'रशियन फ़ेडरेशन' या रूस भी गुप्त रूप से इस प्रोजेक्ट पर कार्य कर रहा है।
(Union of Soviet Socialist Republics. १९८० के दशक से यह आर्थिक रूप से क्षीण होता चला गया और १९९१ में रूस का विघटन हो गया जिसके फलस्वरूप अब 'स्टार वार्स' का खतरा टल गया है। )
हाल ही में यह पता चला कि ६० वर्षों से लागु जिनेवा प्रोटोकॉल के बावजूद विश्व के तीस देशों के पास खतरनाक रासायनिक हथियार हैं । उनके पास जैविक हथियार भी हैं। लेजर बीम की प्रयोज्यता सर्जरी के लिये बहुत उपयोगी सिद्ध हुई है, किन्तु युद्ध प्रयोजनों के लिये  उसकी अथाह शक्ति का इस्तेमाल करने की सम्भावना विश्व- शांति के लिए एक बहुत बड़ा खतरा बन गया है। 
आतंकवादियों के द्वारा विमान अपहरण, बूबी ट्रैप्स, लैंड माइंस का प्रयोग, अत्याधुनिक हथियारों से पर-मतावलम्बियों का नर-संहार कर देना  देख कर  बार-बार मन में यह सवाल उठता है कि, पता नहीं वे किस सीमा तक नीचे गिर  सकते हैं? यह चिंता खास कर तब और बढ़ जाती है जब आतंकवादी बच्चों के साथ ३२९ लोगों के साथ उड़ान भर रहे एक जम्बो जेट को भी अटलांटिक महासागर में डुबो देते हैं। हाल में ही एक बहुत परेशान कर देने वाली खबर जोर पकड़ रही है कि हमारा एक पड़ोसी देश आतंकवादियों को परमाणु हथियार भी उपलब्ध करवाने पर विचार कर रहा है ! दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद-नीति के आधार पर दंगा-फ़साद चलता रहता है, और ब्रिटेन में छिटपुट रूप से नस्लीय हिंसा होते रहना भी मानवसमाज की रुग्ण मानसिकता के लक्षण हैं।    
शोधकर्ताओं ने, यह खोज निकाला है कि पृथ्वी से २२,००० मील ऊपर सूर्य की किरणें बहुत अधिक प्रखर होती हैं, इसीलिये उस दूरी पर अवस्थित 'स्पेस-बेस्ड सोलर पैनल्स' बहुत अधिक सौर ऊर्जा को संग्रहित कर सकते हैं। अतः भविष्य में डीजल और कोयले जैसे 'फॉसिल फ्यूल्स (जीवाश्म ईंधन को जलाकर धरती के वातावरण को कार्बन डाइऑक्साइड से और अधिक प्रदूषित किये बिना, अंतरिक्ष में 'रिन्यूएबल एनर्जी' अक्षय सौर ऊर्जा संसाधन को विद्युत् शक्ति में रूपांतरित करने वाले संयत्रों को स्थापित कर पृथ्वी के प्रत्येक व्यक्ति के लिए विद्युत् शक्ति की (पेरेनियल सप्लाई-24/7 ऊर्जालगभग सार्वकालिक 
विश्वसनीय आपूर्ति को सुनिश्चित बनाया जा सकता है। 
यहाँ तक कि विभिन्न वस्तुओं का निर्माण करने के लिये अंतरिक्ष में ही कारखाने भी स्थापित किये जा सकते हैं। एवं रिहायसी मकानों को भूमि तल के नीचे बनाकर हमलोग पृथ्वी के ऊपर उपलब्ध जमीन को व्यापक तौर से केवल खेती के लिये ही उपयोग में ला सकते हैं । जो कोई भी कार्य बार बार दोहराते रहने से मनुष्य को कुंठित करने या थका देने वाला प्रतीत होता हो, उसे करने के लिये यंत्र-मानवों (रोबोट्स) का निर्माण किया जा सकता है। और इस प्रकार सभी प्रकार की सुख-सुविधाओं की प्रचुर मात्रा में आपूर्ति होने से, मनुष्य के पास इतना खाली समय होगा कि इस जीवन से जितनी इच्छा हो उतना आनंद लेने के लिये मुक्त हो जायेगा!     
इक्कीसवीं सदी में विज्ञान कहाँ तक जा पहुँचेगा, इस सहस्त्राब्दी के विचार को अनुमान के आधार पर उसकी एक रूप-रेखा मानव-मन के समक्ष पहले से ही प्रस्तुत किया जा रहा है। कुछ लोग तो ऐसी आशा भी रखते हैं कि एक दिन ऐसा आएगा जब रोबोट्स देख सकेंगे, सुन सकेंगे, विचार कर सकेंगे और न्याय भी करेंगे ! किन्तु तब मनुष्य क्या करेगा ? ऐसा सोचना क्या बेतुका नहीं है ?  
यन्त्र-मानव 
The Robot 

यह आशंका भी जतायी जा रही है कि ये रोबोट्स ' मनुष्यों को तकनीकी रूप से बेरोजगार बना देने का खतरा' भी अपने साथ लायेंगे, जिसके फल स्वरूप मनुष्यों की 'आर्थिक सुरक्षा और आत्म-सम्मान की
भावना' समाप्त हो जायेगी। इस स्थिति से बचने के लिये इसहाक असिमोव (1920 -1992) [बोस्टन विश्वविद्यालय में जैव रसायन के प्रोफेसर तथा साइंस फिक्शन के प्रसिद्द अमेरिकी लेखक] अपनी पुस्तक 'मॉडर्न मैच्यूरिटी' में सुझाव देते हैं, कि हमें जेनेटिक इंजीनियरिंग का प्रयोग करके 'होमो सेपियन्स' अर्थात मानव प्रजाति को 'होमो  सूपीरीअर्स ' या उन्नततर मानव प्रजाति में रूपांतरित करना चाहिये। ताकि जब रोबोट्स उन समस्त कार्यों को कर रहे होंगे जो केवल मनुष्य ही कर सकता है, तब मनुष्य के पास भी करने के लिये कोई कार्य तो बचा रहेगा! इस प्रकार के विचार को ही 'वैज्ञानिक अन्धविश्वास' या ख्याली पुलाव पकाना कहते हैं, जो वास्तव में मनुष्य क्या है -इस बात की जानकारी नहीं रहने के कारण उत्पन्न होती है।  

नीत्शे का सुपरमैन: [फ्रेडरिक नीत्शे (Friedrich Nietzsche : १८४४-१९०० ) एक जर्मन दार्शनिक था, जो संसार के समक्ष ढोंगी आस्तिक होकर रहने की बजाय, स्वयं को एक नास्तिक कहलाना अधिक उचित समझता था। नीत्शे का अतिमानव आसुरी लक्षणोँ से युक्त है। उसमें दया, प्रेम, करुणा, सहानुभूति जैसे कोमल भावनाओं का सर्वथा अभाव है। वह अत्यन्त पाषाणी हृदय, क्रूर निर्दयी तथा प्रचण्ड शक्तिशाली पुरुष है।] नीत्शे का अतिमानव 'दी ब्लॉन्ड बीस्ट' (सुनहरे बालों वाला पशु-मानव)- इसी श्रेणी में आता है।
(क्योंकि पाश्चात्य दार्शनिक यह नहीं जानते कि,) मनुष्य एक 'फिनिश्ड प्रोडक्ट' (पूर्ण निर्मित उत्पाद) नहीं है। यह विश्व मनुष्यों के लिये एक वर्कशॉप (कारखाने) के जैसा है, जिसमें तप कर मनुष्य 'पूर्णता' (फिनिश) को प्राप्त होता है। जब कोई व्यक्ति जगत में रहते हुए "3H निर्माण" की प्रक्रिया से गुजरता है, तब हमें 'यथार्थ मनुष्य ' रूपी वह फिनिश्ड प्रोडक्ट प्राप्त होता है। क्योंकि तब वह अपनी अनंत संभावनाओं को अभिव्यक्त करने में समर्थ होता है,[अर्थात वह ब्रह्म (पूर्ण)  को जानकर साधारण मनुष्य से 'ब्रह्मविद मनुष्य' या यथार्थ मनुष्य बन जाता है!]
मनुष्य के यथार्थ स्वरूप के विषय में हमारी अज्ञानता, अधपके केक को ही असली केक समझने जैसा है; जो हमारे मन में किसी मनुष्य के प्रति डिस्टेस्ट,वैमनस्य या घृणा का भाव उत्पन्न करता है। जब हम 'मनुष्य वास्तव में क्या है '- यह नहीं जान पाते हैं, तभी हमलोग जेनेटिक इंजीनियरिंग की सहायता से 'होमो सूपीरीअर' को निर्मित करने बात सोचने लगते हैं।
किन्तु रोबोट - एक इलेक्ट्रॉनिक कंप्यूटर के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं, और कंप्यूटर केवल गणना करने में सक्षम होता हैं - हाँ, निश्चित रूप से उसकी गति अत्यंत असाधारण होती है। यहाँ तक कि कम्प्यूटर भी अलग- अलग हस्तलिखित आलेखों या विभिन्न स्वरों में बोले गए विभिन्न प्रकार की आवाजों को समझ नहीं सकता। अपने आत्म-विश्वास और विवेक-प्रयोग करने या त्वरित-निर्णय लेने की क्षमता में कमी होने के कारण, ही हम लोग यह कल्पना करते हैं कि रोबोट विचार करने में भी सक्षम हो जायेगा। विकास के सभी मोर्चों पर तरक्की करने के साथ ही साथ हम लोग धीरे धीरे अपना 'कॉमन सेन्स' या सामान्य बुद्धि भी खोते जा रहे हैं। 
कारण बिल्कुल स्पष्ट है - और वह यह है कि " मनुष्य कभी किसी ऐसी वस्तु का निर्माण नहीं कर सकता जो स्वयं मनुष्य की तुलना में अधिक आश्चर्यजनक हो !"  क्या कोई ऐसा रोबोट कभी निर्मित किया जा सकता है जिसमें प्रेम और ममता भी हो ? क्या कोई ऐसा इलेक्ट्रॉनिक गैजिट (मशीन) निर्मित किया जा सकता है जिसके पास दूसरों के सुख-दुःख को अनुभव करने वाला एक सहानुभूति-सम्पन्न हृदय भी हो ? क्या कभी कोई ऐसा रोबोट बनाया जा सकता है, जो सौन्दर्य और कला की प्रशंसा करने या मूल्यांकन करने में भी सक्षम हो ? नहीं, कभी नहीं ! 
दूसरी ओर किसी दिन रोबोट युद्ध में समस्त प्रकार की विनाशकारी गति-विधियों को क्रियान्वित करने में सक्षम हो सकते हैं । यह रोबोट या यन्त्र-मानव इस प्रकार से प्रोग्राम्ड होगा कि वह युद्ध का प्रारम्भ करने वाले के पक्ष में मानव-जीवन को न्यूनतम नुकसान पहुँचायेगा, वहीँ दूसरे पक्ष के मानव-जीवन को भयानक तरीके से कई गुना अधिक नुकसान पहुँचायेगा। इसहाक असिमोव यह स्वीकार करते हैं कि " हमें निश्चित रूप से यह समझ लेना चाहिये कि मनुष्य ने लगभग प्रत्येक प्रकार के टेक्नोलॉजिकल एडवांस को अपनी 
विध्वंशकारी लालसा को तुष्ट करने के लिए परिवर्तित कर लिया है। 

 सही विकल्प की चयन-क्षमता ही विजडम है !  
 (The Choice from Wisdom)
इस बात में कोई शक नहीं कि वैज्ञानिक प्रगति के साथ दुनिया भी छोटी होती जा रही है, और आने वाले वर्षों में इसका और भी छोटा होते जाना जारी रहेगा। किन्तु, क्या इसके द्वारा सचमुच मानवीय एकत्वबोध को बढ़ावा मिलेगा ? कदापि नहीं ! आइये हम देखते हैं कि साइंस फिक्शन के लेखक इसहाक असिमोव इस संभावना के विषय में क्या कहते हैं :
" अगले २५ वर्षों में हमलोग यह देखेंगे कि दुनिया के सभी देश अभी जितना सम्भव प्रतीत होता है, उससे कहीं अधिक एकजुट हो जायेंगे; और एकजूटता किसी आदर्शवाद का परिणाम नहीं होगा, बल्कि सम्पूर्ण जगत में विद्युत् ऊर्जा की आपूर्ति को सुनिश्चित बनाने के एक संयुक्त प्रयास का परिणाम होगा।" वे आगे कहते हैं - " या तो हमलोग इतने बुद्धिमान हो सकते हैं,कि अपने भविष्य का निर्माण कर सकें, और हमलोग इतने मूर्ख भी हो सकते हैं कि सही विकल्प का चयन भी नहीं कर सकें। " 
किन्तु,रोबोट्स के डिजाइन में काफी सुधार होने के बावजूद, ' दिस चूजिंग कैन नॉट बी लेफ्ट टू रोबोट्स' 
यदि कम्प्यूटर की सहायता से मानव-मन को शांत और संयत कर पाना कभी सम्भव भी हो पाता, तब भी  (श्रेय-प्रेय) चयन के कार्य को किसी रोबोट के ऊपर नहीं छोड़ा जा सकता।  और जब तक मनुष्य स्वयं को पूर्ण रूप से विकसित नहीं कर लेता, तब तक वह सही विकल्प का चयन भी नहीं कर सकता।  तथा  मनुष्य के समुचित विकास  (मान- हूश 'मनुष्य' जिसे अपनी मानवोचित मर्यादा का होश बना रहता है) का कार्य केवल आध्यात्मिकता के द्वारा ही सम्भव हो सकता है।   
यह कार्य सिर्फ तथाकथित धर्मों के माध्यम से नहीं किया जा सकता है - चाहे वह हिन्दूइज्म, क्रिश्चियनिटी, इस्लाम, या कोई अन्य नाम वाला धर्म भी क्यों न हो ! इस मान्यता का एक सुस्पष्ट प्रमाण इस तथ्य में देखा जा सकता है कि मानव-कल्याण की दृष्टि से किये गए लगभग जितने भी महत्वपूर्ण वैज्ञानिक आविष्कार अभी तक किये गये हैं, अंततोगत्वा उस ज्ञान का प्रयोग मनुष्यों को प्राणघातक नुकसान पहुँचाने के लिये ही किया गया है। तथा विश्व के जिन देशों में वैज्ञानिक आविष्कारों का दुरूपयोग हुआ है उन सभी देशों में इसी प्रकार के एक तथाकथित धर्म - क्रिश्चियनिटी  का ही प्रभुत्व है। (इसीलिये कहा जाता है - बिलीव इन क्राइस्ट नॉट इन क्रिश्चियनिटी ऑर चर्चिनिटी)      
मनुष्य को मनुष्य के द्वारा मौत के घाट सुला देने की जितनी घटनायें पूर्व में हो चुकी हैं, उनको यदि छोड़ भी दें, तो अभी हाल में ही जब अफ्रीका में भूख से १० लाख लोगों की मृत्यु हो गयी थी तब उसके प्रति वैश्विक 
उदासीनता और निष्ठुरता  को देखने से हमारी (तथाकथित धर्मों की) विकल्प-चयन क्षमता की कलई खुल जाती है। यह सब इसीलिये है कि हमलोग अब विज्ञान के ऊपर बहुत अधिक निर्भर करते हैं, और 
आध्यात्मिक ज्ञान की अनिवार्यता को स्वीकार नहीं करते हैं। 
इसीलिए  सम्पूर्ण मानवता के कल्याण की चिंता न कर अपने समस्त ज्ञान का उपयोग केवल एक खास वर्ग के हितलाभ को ही ध्यान में रखकर करते हैं। 'दी राइट चॉइस आउट ऑफ विजडम' - विजडम, प्रज्ञता या विवेक-प्रयोग करने के बाद सही विकल्प चयन करने का सामर्थ्य,जिसका उल्लेख रसेल या असिमोव करते हैं - वैसी प्रज्ञता केवल वैज्ञानिक उन्नति करने भर से नहीं प्राप्त होती, भले ही हम विज्ञान के पीछे कितना ही भागते रहें। ऐसी प्रज्ञता (विवेक-प्रयोग करके श्रेय-प्रेय में सही विकल्प का चयन करने की क्षमता) केवल आध्यात्मिकता से ही प्राप्त होती है। 
हम लोगों ने ब्रिटिश दार्शनिक और नोबेल पुरस्कार विजेता बर्ट्रेंड रसेल (1872 - 1970)  द्वारा "इम्पैक्ट ऑफ़ साइंस ऑन सोसाइटी " (समाज पर विज्ञान का प्रभाव) में दी गयी उस चेतावनी पर अभी तक कोई ध्यान नहीं दिया है,जहाँ वे कहते हैं - " हमलोग इस समय ह्यूमन स्किल (मानवीय कौशल) रूपी साधन (उपाय) और मानवीय अज्ञानता (folly) की समाप्ति रूपी साध्य (मनोरथ) के बीच चलने वाली एक दौड़
के मध्य में खड़े हैं। "अनलेस मेन इनक्रीज इन विजडम ऐज मच ऐज इन नॉलेज"- मानव ने भौतिक विज्ञान (नॉलेज-अपरा विद्या) के क्षेत्र में जितनी प्रगति कर ली है, यदि उतनी ही प्रगति वह प्रज्ञता (विजडम - परा विद्या या विवेक पूर्वक त्वरित निर्णय लेने या विकल्प चयन की क्षमता) में भी नहीं कर लेता, तब तक उसके ज्ञान में वृद्धि उसके दुःख में भी वृद्धि का कारण बनेगी।" 
एक रुसी कहावत है,‘If you can’t find wisdom at home, you won’t be able to buy it abroad.’ अर्थात ' यदि आप अपने घर (हृदय) में छिपे विवेक (प्रज्ञता या विज्डम) को नहीं खोज सके, तो आप इसे विदेशों से खरीदने में भी सक्षम नहीं होंगे। " पाश्चात्य वैज्ञानिक लोग ज्ञान (नॉलेज) होने के बावजूद, प्रज्ञता (विवेक-प्रयोग क्षमता या विकल्प चयन क्षमता) में कितने दरिद्र हैं; इस सच्चाई को उस प्रख्यात वैज्ञानिक ने पर्याप्त रूप में दिखला दिया है, जो १९४० के दशक में परमाणु बम नाटक में घनिष्ट रूप से सम्बद्ध था।  
जॉन हेनरी मैनले [ ( 1907 - 1990) अमेरिकी भौतिक विज्ञानी, जिन्हें  रॉबर्ट ओपेनहाइमर ( 1904 - 1967) मैनहट्टन परियोजना के दौरान अमेरिकी भौतिक विज्ञानी और "परमाणु बम के जनक" का दाहिना हाथ कहा जाता था- ने कहा था: " हम यह अच्छी तरह से जान रहे थे कि हमलोग जिस हथियार का निर्माण कर रहे थे वह नरसंहार का  एक भयानक साधन है।  किन्तु हम लोग तब समय  के भावावेश में बह गए थे। हम वैज्ञानिक लोग भी बाकी लोगों से भिन्न नहीं हैं। हमलोग भी देश-प्रेम की अंध-भक्ति द्वारा उतने ही बंधे हुए हैं। हमलोग भी विवेक-हीनता द्वारा आसानी से ग्रस्त कर लिये जाते हैं। " 

अदभुत आध्यात्मिक घटना 
(The Spiritual Phenomenon)
आधुनिक जगत में जब इस भौतिकवाद की दौड़ के लिये 'प्रस्थान' करने का संकेत हो चुका था, जब विवेक की ज्योति (लाइट ऑफ विजडम) क्षीण होने लगी थी, जब अज्ञान का अँधेरा उत्तरोत्तर गहराता जा रहा था, जिस समय पर-मतावलम्बियों के प्रति घृणा मानवता का मुँह चिढ़ा रही थी, जब मनुष्य के मन की शांति लुप्त होती जा रही थी, जब मनुष्य की महिमा और आध्यात्मिकता के ऊपर से विश्वास का परित्याग किया जा रहा था, जब मनुष्य की चिंता का प्रमुख विषय सम्पूर्ण मानवजाति का कल्याण, नहीं प्रतीत हो रहा था, जब प्रेम की अपेक्षा ईर्ष्या और वैमनस्य का भाव अधिक तेजी से बढ़ने लगा था, स्वार्थपरता को सहानुभूति से उत्कृष्ट समझा जा रहा था, परिग्रह और भुक्ति को ईश्वर-भक्ति से श्रेष्ठ माना जा रहा था, आमोद-प्रमोद (मौज-मस्ती) ही समस्त कार्यों का उद्देश्य बन गया था, --तब, भारत के एक उपेक्षित स्थान में एक शिशु का जन्म हुआ था; जिन्हें बाद के जीवन में श्री रामकृष्ण के रूप जाना जाता है!     
आध्यात्मिकता किसे कहते हैं, यह श्रीरामकृष्ण के जीवन को देख कर समझा जा सकता है, तथा स्वामी विवेकानन्द ने उसी आध्यात्मिकता का उपदेश दिया है। श्री रामकृष्ण परमहंस देव हिन्दूइज्म का उद्धार करने, या किसी 'अमुक' नाम वाले धर्म या 'तुमुक' नाम वाले धर्म को स्थापित करने के लिये आविर्भूत नहीं हुए थे; बल्कि अपने जीवन द्वारा सभी धर्मों के सारतत्व (आध्यात्मिकता) को ही पुनर्स्थापित करने के लिये अवतरित हुए थे, ( इस बात को पूर्ण रूप से समझने में अभी और लम्बा समय लगेगा।) इसीलिये वे सभी धर्मों में निहित सत्य को देख सकते थे। 
आधुनिक विश्व को प्रज्ञता (विजडम) की आवश्यकता है, यदि आप चाहें तो इसीको दर्शन या धर्म भी कह सकते हैं ! विश्व-मानवता के कल्याण के लिये करने के विकल्प का चयन करने में- ज्ञान (अपरा विद्या) का सही उपयोग करने के लिये  यह प्रज्ञता (परा विद्या श्रेय-प्रेय विवेक क्षमता) ही मनुष्य की सहायता कर सकती है। 
जिस 'मानवीय अज्ञानता' (अविद्या) के कारण ही मनुष्य के ' दुःख में वृद्धि' होती है, उससे बचने का उपाय है, विवेक-प्रयोग। प्रज्ञता (विजडम-सही विकल्प चयन क्षमता) ही वह फिलॉसफी या धर्म है जो वैज्ञानिक-तर्क की कसौटी पर खरा उतर सकती है। "विजडम कुड नॉट ओनली सूद दी सोल बट वुड ऑल्सो सैटिस्फाई दी इंटेलेक्ट" यह विजडम (सत-असत विवेक क्षमता) सही विकल्प का चयन करने का सामर्थ्य केवल आत्मा (हर्ट) के लिये ही शांतिदायक नहीं होगा, बल्कि यह बुद्धि (हेड) को भी संतुष्ट करेगा। 
यह विजडम या प्रज्ञता (ब्रह्ममय जगत का बोध), विज्ञान को वह 'समत्व की दृष्टि' भी प्रदान कर सकता है, जिसका उसमें अभाव है, तथा विज्ञान द्वारा मानव-कल्याण के लिये जो कुछ भी प्राप्त हो सकता है (उसकी गलतियों के आलावा) उन सब को अपने प्रभाव क्षेत्र में लपेट लेगी।
'दिस  रिलिजन ऑर फिलासफी वाज लीव्ड बाइ श्री रामकृष्ण'इसी धर्म या दर्शन (विजडम) को श्री रामकृष्ण ने अपने जीवन में उतार कर दिखलाया था, और स्वामी विवेकानन्द के द्वारा इसका प्रचार किया गया था। "दिस मे बी कॉल्ड वेदान्ता, दैट  कैन सेव दी मॉडर्न वर्ल्ड फ्रॉम ए मैन-मेड कटैस्ट्रफी" -इसी को वेदान्त भी कहा जा सकता है, जो आधुनिक विश्व को मानव-निर्मित महाप्रलय (कटैस्ट्रफी) से बचा सकता है, तथा उसके इक्कीसवीं सदी में प्रवेश को बिना किसी कष्टदायक धक्का के सुरक्षित भी रख सकता है।
आधुनिक वैज्ञानिक क्रांति से उत्पन्न -'दी बैले ऑफ़ ब्लडलेस कैटगॉरी'- 'रक्तहीन श्रेणी की नृत्य-नाटिका' ने मानव-मन को सम्पूर्ण रूप से मथ कर रख दिया है। जिसके फलस्वरूप उसकी विषाक्त रुग्णता बहुत हद तक बाहर निकल चुकी है, और इसी प्रक्रिया में आध्यात्मिक क्रांति का द्वार भी खुलता जा रहा है। मनुष्य के शुष्क हृदय को शांति प्रदान करने के लिये, ' फ्रॉम दी डेप्थ्स ऑफ़ दी सेल्फ-सेम ह्यूमन माइंड'
आत्मस्वरूप मानव-मन की गहराई में स्थित निचली परतों (चित्त-सबकॉन्शस माइंड) से धीरे धीरे अमृत ऊपर की ओर आ रहा है। '  
मनोवृत्ति का मुड़ना   
 The Turn
विज्ञान (कोआर्डिनेट ज्योमेट्री) हमें बतलाता है कि यदि हम एक रेखा को  बहुत अधिक लम्बाई (अनंत) 
तक खींचते चले जायें तो  तो वह प्रारंभिक छोर से मिलने के लिये वृत्ताकार रूप धारण कर लेती है। जो लोग अभी आध्यात्मिकता से बहुत दूर चले गये हैं, और भौतिकवाद में गहराई तक डूबे हुए हैं, आध्यात्मिकता के पास,शायद वैसे ही लोग दूसरों से पहले वापस भी आयेंगे। इसीलिये यदि, आधुनिक विश्व में घोषित तौर पर जितने समाजवादी या कम्युनिस्ट देश हैं, वे इक्कीसवीं सदी में किसी दिन आध्यात्मिकता की आवश्यकता को स्वीकार कर लें,तथा मानवता की समग्र कल्याण के लिये आध्यात्म को अपनाने वाले अन्य राष्ट्रों के बीच सर्वप्रथम देश बन जायें जो, तो इसमें किसी को आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिये। इस दिशा में कुछ संकेत (सीरिया वार से ?) क्रमशः स्पष्ट भी होते जा रहे हैं।

चीन में - हरिभजन !
 In China
चीनी सरकार ने १९६६-७६ की सांस्कृतिक क्रांति दौरान में जहाँ समस्त धार्मिक प्रथाओं पर प्रतिबन्ध लगा दिया था, वहीँ १९८३ में प्रकाशित चीनी संविधान के नये संस्करण से इन शब्दों-‘दी स्टेट शैल प्रापगैट ऐथीइज़म'- 'राज्य नास्तिकता (अनीश्वरवाद) का प्रचार करेगा' को हटा दिया गया है। सरकारी चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के मुखपत्र 'पीपुल्स डेली ' ने दिसम्बर १९८४ के संपादकीय (फ्रंट-पेज एडिटोरियल)  में टिप्पणी की थी : ‘ टाइम्स आर चेंजिंग, इन टर्म्स ऑफ़ मार्क्सिज्म एंड लेनिनिज़म, वी कैन नॉट बी डागमेटिक.' -अर्थात  समय बदल रहा है, अब हम लोग मार्क्सवाद और लेनिनवाद के संदर्भ में हठधर्मी नहीं हो सकते। संपादकीय में पुराने ढर्रे को छोड़ने का परामर्श  देते हुए कहा गया था , " अन्यथा, हम लोग वास्तविकता (सत्य) के साथ संपर्क खो देंगे, और जमाने से पीछे छूट जायेंगे।" चीन की कम्युनिस्ट सरकार द्वारा संचालित 'चाइना न्यूज सर्विस' - ‘Thong GuoXin Wen He’ में  'चाइनीज़ पोलिटिकल कंसल्टेटिव कांफ्रेंस' के एक सदस्य श्री झाओ फ्यूशान को सम्मेलन के समापन सत्र (८ अप्रैल १९८५) में दिए भाषण को उद्धिर्त करते हुए कहा गया था, " किसी भी देश का साहित्य, कला, वास्तु-शिल्प, दर्शन, नैतिकता, रीति-रिवाज, और जीवन-पद्धति आदि वहाँ के धार्मिक प्रभाव के द्वारा कमो-बेश अवश्य प्रभावित होते हैं। " 
'धर्म पूरी तरह से आध्यात्मिक अफीम जैसा है'- यह दृष्टिकोण एक अवैज्ञानिक और बिल्कुल अधूरा दृष्टिकोण है। धार्मिक मूल्यों का अन्धाधुन्ध विरोध सर्वथा अनावश्यक और हानिकारक सिद्ध होता है। गीता की हजारों प्रतियाँ चीन जा रही हैं। संस्कृत शास्त्रों एवम विवेकानन्द साहित्य का चीनी भाषा में अनुवाद भी किया जा रहा है।
उसी चीनी समाचार पत्र 'पीपुल्स डेली ' ने एक महीने पहले अपने सम्पादकीय में कर्मियों को कड़ी चेतावनी देते हुए जो कुछ लिखा था, उसे न तो हल्के लेना चाहिये और न निम्नलिखित शब्दों को पढ़ते ही किसी को एकदम से निष्कर्ष पर पहुँच जाना चाहिये। उसमें कहा गया था - " कुछ संस्थानों में कार्य करने वाले लोग कह रहे हैं: ' यदि तुम मुझसे अमुक काम करवाना चाहते हो, तो बदले में मुझे क्या दोगे ? दूसरे शब्दों में यदि उन्हें प्रचूर धन प्राप्त होगा तभी वे इसे करेंगे। यदि उनके मन मुताबिक पर्याप्त धन नहीं मिला तो तुम्हारा कोई काम नहीं होगा। पूरे राज्य और इसकी जनता की कीमत पर चन्द लोगों के भौतिक लाभ के लिये, ऐसी सोच रखना तो वास्तव में स्वार्थपरता की पराकाष्ठा है। निश्चित रूप से भौतिकवाद को समाजवाद नहीं कहा जा सकता। भौतिकवाद (चार्वाक-मत) बिल्कुल असहनीय है। शायद इस बात को जान-बूझकर नहीं लिखा गया कि यह विचार,  हू-ब-हू स्वामी विवेकानन्द के विचारों की अनुगूँज है, जब वे 
'समाज ऊपर वेदान्त का प्रभाव' की व्याख्या कर रहे थे। बीजिंग रिव्यू एक अलग संदर्भ में कहता है, 'धन की लालसा अनिवार्य रूप से लोगों को पथभ्रष्ट कर देती है।' 
रूस में हरिभजन 
 (In Russia )
टॉल्स्टॉय ने स्वामी विवेकानंद के राजयोग और श्री रामकृष्ण परमहंस के उपदेशों को पढ़ने के बाद अपने हृदय के उद्गारों को व्यक्त करते हुए कहा था - ‘देयर आर नोव्हेयर सच ब्यूटीफुल आइडियाज.’ -इस तरह के सुंदर विचार और कहीं से प्राप्त नहीं होते! उनकी लाइब्रेरी में रुसी भाषा में लिखित पुस्तक 'वॉयसेज  ऑफ़ पीपल्स' भी रहती थी। उसमें स्वामी विवेकानन्द के दो निबन्ध दिये गए हैं। टॉल्सटॉय स्वयं १९०८ में स्वामी विवेकानन्द द्वारा २३ मार्च, १९०० को सैन फ्रांसिस्को में दिये व्याख्यान 'The Soul And God' विषय पर दिये व्याख्यान (हिन्दी खण्ड ८/'जीवात्मा और परमात्मा') का रुसी भाषा में अनुवाद करना चाहते थे। तथा उन्होंने स्वामी विवेकानन्द के अन्य गुरु भाई स्वामी अभेदानन्द द्वारा लिखित पुस्तक 'The Way to Blessedness' (परमानन्द की प्राप्ति का मार्ग) का रुसी भाषा में अनुवाद किया भी था।   
ईवा इल्योस्ट्र्निक के शोध से यह पता चलता है कि याकोव ए.के. पोपोव (१८४४-१९१८)  भारत आकर स्वामी विवेकानन्द से मुलाकात किये थे, तथा उनके विचारों से प्रभावित होकर १९०६ से १९१४ के बीच स्वामी जी द्वारा लिखित चार योगों की पुस्तकों का रुसी भाषा में अनुवाद किया था। हाल ही में ' सोवियत एनसायक्लोपेडिया पब्लिशर्स ऑफ़ मास्को' द्वारा रूस में एक 'फिलोसॉफिक इंसायक्लोपेडिक डिक्शनरी' प्रकाशित किया गया है। इस पुस्तक के 'इंडियन सेक्शन' में वेद-वेदान्त तथा श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं पर विशेष बल दिया गया है। बहुत पहले ही गीता और उपनिषदों का रुसी भाषा में अनुवाद हो चुका है। 
प्रख्यात भारतविद नतालिया गुसेवा ने रामायण को स्टेज पर प्रस्तुत करने के लिये एक स्क्रिप्ट लिखा था, जिसका मंचन मास्को के ' सेंट्रल चिल्ड्रन्स  थिएटर ऑफ मास्को' (केंद्रीय बाल्य नाट्य-गृह)   में लगातार २५ वर्षों तक सफलता पूर्वक होता रहा है। इस नाटक को देखने के बाद एक छोटी सी बच्ची इतनी प्रभावित हुई कि उसने अपना बदल कर सीता रखना चाहा। उसके निर्देशक (तथा राम की भूमिका निभाने वाले कलाकार)  जी. पेचनीकोव ने कहा था, ' दी रामायण एंड दी महाभारत बिलॉन्ग टू दी इन्टायर ह्यूमैनिटी.' 
-अर्थात रामायण और महाभारत तो सम्पूर्ण मानवता की संपत्ति हैं ! ये दोनों महाकाव्य सत्य-मैत्री-न्याय और शांति के प्रति मनुष्य के शाश्वत तलाश को प्रदर्शित करते हैं.... आने वाली पीढ़ी में सच्चरित्रता और साहस उत्पन्न करते हैं, तथा बुराई के विरोध में निर्भीकता के साथ खड़े होने की शक्ति प्रदान करते हैं। 
रुसी शिक्षाविदों में भारतीय चिंतन को समझने तथा विशेष तौर से श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा का अध्यन करने के प्रति रुझान तीव्रता से विकसित हो रहा है।  अभी हाल में ही कोलकाता में रूस के एकेडमी ऑफ साइंसेज, के ओरिएंटल अध्ययन संस्थान के एक वरिष्ठ रिसर्च फेलो, डॉ आर.बी. रेबाकोव ने कहा था, ' यह स्वामी विवेकानन्द के अथक  प्रयासों का ही नतीजा है कि हमारे पास बी.जी. तिलक और अरविन्दो घोष से लेकर महात्मा गाँधी और जवाहर लाल नेहरू तक उत्कृष्ट क्रांतिकारी नेताओं की प्रशंसनीय क्रिया-कलापों की एक सीधी शृंखला प्राप्त हुई थी। 
 यद्यपि विवेकानन्द को अक्सर एक गैर-राजनितिक व्यक्ति के रूप में देखा जाता है, तथापि भारत के लिये उनका प्रेम, गरीब और पददलित जनों का उत्थान करने की उनकी प्रबल इच्छा, उनके संदेशों की सार्वभौमिकता - ये सभी उनके  महान राजनितिक दृष्टि की ओर ईशारा करते हैं। इस निबन्ध में हमने जो कुछ दिखाने की चेष्टा की है, उसका समर्थन करते हुए डॉ. रेबाकोव कहते हैं - " हो सकता है कि भविष्य में हिन्दूइज्म एक धर्म के रूप में लुप्त हो जाये, किन्तु यह तब तक एक (मनुष्य -निर्माणकारी) आन्दोलन में अवश्य रूपांतरित हो जायेगा।   
निष्कर्ष 
 Conclusion
नई सदी में प्रवेश करने के बाद कहीं मनुष्य बेकार (आब्सलीट) तो नहीं हो जायेगा ? यदि हम लोग इस भय से आशंकित हों, तो भी हमें जेनेटिक इंजीनियरिंग के द्वारा किसी नई प्रजाति को उत्पादित करने की आवश्यकता नहीं होगी। 
किन्तु, इक्कीसवीं शताब्दी के ' यूनिफाइड वर्ल्ड' (एकीकृत जगत) में वास करने के लिये, अन्तःप्रकृति और बाह्यप्रकृति का स्वामी (master) बन कर, जो हम लोग वास्तव में हैं (ब्रह्म), वह बन जाने के लिये - हमें अपने दैनन्दिन जीवन में थोड़ा मानव अभियांत्रिकी का प्रयोग अवश्य करना पड़ेगा। ("वी मस्ट स्ट्राइव टु अप्लाई अ  लिटिल ह्यूमन इंजीनियरिंग- सर्वमंगल की प्रार्थना, मनःसंयोग, व्यायाम, स्वाध्याय और विवेक-प्रयोग ५ अभ्यास
अमेरिका से अपने गुरुभाई स्वामी रामकृष्णानन्द को १८९५ में लिखित एक पत्र में स्वामी विवेकानन्द ने 
 कहा था - " इस रामकृष्ण अवतार में समस्त प्रकार के नास्तिक विचार 'ज्ञान के तलवार' द्वारा नष्ट कर दिए जायेंगे, तथा सम्पूर्ण जगत भक्ति (उपासना) और प्रेम (डिवाइन लव) के द्वारा एकीकृत हो जायेंगे !" ४/३१७ 
 स्वामी विवेकानन्द ने १८९६ में ही 'दी अब्सोल्यूट एंड मैनिफेस्टेशन’ (हिन्दी -ब्रह्म एवं जगत)  विषय पर लन्दन में भाषण देते हुए कहा था - " आजकल यूरोप में भौतिकवाद की पताका फहरा रही है... यहाँ भारत में भी अद्वैतवाद का प्रचार साधारण लोगों में कभी होने नहीं दिया गया। संन्यासी लोग ही अरण्य में उसकी साधना करते थे, इसी कारण वेदान्त का एक नाम 'आरण्यक' भी हो गया। अन्त में भगवान की कृपा से बुद्धदेव ने आकर सर्वसाधारण के बीच इसी वेदान्त (अद्वैत धर्म) का  प्रचार किया, और सारा देश बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गया। फिर बहुत समय बाद जब -' नास्तिक अनीश्वरवादियों एवं अज्ञेयवादीयों ' (एथीइस्ट्स  एंड ऐग्नास्टिक्स) ने सारे देश को ध्वंस करने की चेष्टा की - इस भौतिकवाद से भारत की रक्षा करने में, अद्वैत-धर्म फिर एकमात्र उपाय सिद्ध हुआ। इस प्रकार हम देख सकते हैं कि इस अद्वैतवाद ने दो बार भौतिकवाद से भारत की रक्षा की है
पहले, बुद्धदेव के आने से पूर्व, नास्तिकता अत्यन्त प्रबल हो उठी थी- यूरोप, अमेरिका के विद्वानों में आजकल जैसी नास्तिकता है बुद्ध के देहांत के ठीक १००० वर्ष पश्चात फिर उसी प्रकार की परिस्थिति उत्पन्न हुई। भीड़ की भीड़, जनसाधारण तथा अनेक प्रकार की नस्लों ने 'बुद्धिज्म' (बौद्ध धर्म) को ग्रहण कर लिया था। अतः जनता के घोर अज्ञानी होने के कारण बौद्ध धर्म का अपक्षय होना स्वाभाविक था। बौद्ध धर्म किसी जगत के शासक ईश्वर और उसके अवतरित होने उपदेश नहीं करता, अतः जनसधारण धीरे धीरे अपने देवी-देवता, भूत-प्रेत पुनः ले आये और अंत में भारतवर्ष में बुद्धिज्म नाना प्रकार के विषयों की खिचड़ी सा हो गया।  तब फिर से भौतिकवाद के काले बादलों से भारत का आकाश ढक गया -उच्चवर्ग या धनाड्य परिवार के लोग स्वेच्छाचारी और साधारण लोग अन्धविश्वासी हो गये। ऐसे समय में शंकराचार्य ने उठकर फिर से वेदान्त की ज्योति को जगाया! .... उन्होंने उपनिषदों के सिद्धान्तों को (चार महावाक्यों को) युक्ति और विचार की कसौटी पर कसकर, प्रणाली बद्ध रूप में लोगों के समक्ष रखे। "['दस हैज अद्वैत ट्वाइस सेव्ड इंडिया फ्रॉम मटीरीअलिज़म' "इट वाज  फाउंड आउट दैट अद्वैत वाज दी ओनली वे टू सेव इंडिया फ्रॉम मटेरिअलिज्म"] (२/ ९३-९४) 


[बुद्धदेव के अवतरित होने से पहले का भौतिकवाद (नास्तिकता) असंस्कृत प्रकार की थी, जो शिक्षा देती थी - खाओ,पीओ और मौज उड़ाओ ! ईश्वर, आत्मा या स्वर्ग कुछ भी नहीं है धर्म कुछ धूर्त, दुष्ट पुरोहितों की कपोल-कल्पना मात्र है,वैसी नहीं, वरन वह नास्तिकता तो इससे भी अधिक भयंकर थी ! जो कहती है केवल एक दृष्टिगोचर वस्तु-जड़ (M) का अस्तित्व है, ब्रह्म (E) का नहीं जबकि विज्ञान ने E=M सिद्ध कर दिया है !,    ...... बुद्ध ने वेदान्त को प्रकाशित किया, और जन-साधारण में उसका प्रचार करके भारतवर्ष की रक्षा की। 
" शंकराचार्य में हम अद्भुत बौद्धिक प्रतिभा पाते हैं, उन्होंने हर विषय पर 'बुद्धि की जारक ज्योति' डाली।
[युक्ति-तर्क (विवर्त -परिणाम, देहाध्यास, रज्जु-सर्प आदि) द्वारा भ्रम को झुलसा देने वाली रौशनी] आज हमको बुद्धि के इस प्रखर सूर्य के साथ बुद्धदेव का अदभुत प्रेम और करुणा-युक्त हृदय भी चाहिये।
(दैट ब्राइट सन ऑफ़ इन्टलेक्चूऐलिटी जॉइंड विथ दी हार्ट ऑफ़ बुद्धा)। इसी सम्मिलन से हमें उच्चतम दर्शन की उपलब्धि होगी। 
[अर्थात हमे एक ऐसा सर्वोत्तम चरित्र प्राप्त होगा - जिसमें शंकराचार्य जैसी ' प्रज्ञा (इन्टलेक्चूऐलिटी) के सूर्य-प्रकाश के जैसी  उज्ज्वल और झुलसादेने वाली प्रखर बौद्धिकता  (हेड -विजडम या  विवेक- प्रयोग द्वारा सही विकल्प का चयन करने की क्षमता)  के साथ अनन्त प्रेम और करुणा से भरपूर बुद्ध के जैसा आश्चर्यजनक हृदय (हार्ट) , के साथ बाल-ब्रह्मचारी हनुमान जैसा बलवान शरीर (हैण्ड) ' भी प्राप्त होगा ]  
" अब उन्नीसवीं के इस उत्तरार्ध में भी ( या इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में भी ?),  इस प्रकार की धारणा है कि हमारे बाप-दादों आया हुआ धर्म (हिन्दूइज्म,इस्लाम या क्रिश्चनिटी) ही एकमात्र सत्य है, और अन्य स्थानों से जिन सब दूसरे धर्मों का प्रचार हो रहा है- वे सब मिथ्या हैं। (रिलिजन कमिंग फ्रॉम एनी अदर सोर्स दैन वन्स ओन हेरिडिटरी रिलिजन मस्ट बी फाल्स) --इससे यही प्रमाणित होता है कि हमारे भीतर अभी भी दुर्बलतायें हैं। हमें ये दुर्बलताएँ दूर करनी होगी !
[ देयर इज  स्टिल वीकनेस लेफ्ट- श्रीरामकृष्ण देव ही आधुनिक युग में भगवान के अवतार हैं यह जान लेने के बाद भी यदि स्वयं को उनका भक्त कहने वाले व्यक्ति के हृदय में वंशानुगत धर्म के अतिरिक्त अन्य समस्त धर्मों को गलत समझने का विचार बना ही हुआ हो ? तो समझना होगा कि अभी तक हमारा चरित्र पूरी तरह से गठित नहीं हुआ है, अभी तक चित्त-शुद्धि नहीं हुई है !! हमारे भीतर अभी भी कुसंस्कार बचे हुए हैं । 'ऐंड सच आइडियाज मस्ट बी  गिवेन अप ' और इस कुसंस्कार को हमें अवश्य त्याग देना होगा।]  
" अतएव मैं यह कहने का साहस कर सकता हूँ कि 'अद्वैत धर्म ' (E=M) ही एकमात्र ऐसा धर्म है जो आधुनिक वैज्ञानिकों के सिद्धान्तों के साथ भौतिक और आध्यात्मिक दोनों दिशाओं में केवल मेल ही नहीं खाता, वरन उनसे भी आगे चला जाता है, और इसी कारण वह आधुनिक वैज्ञानिकों को इतना भाता है। वे देखते हैं कि द्वैतवादी धर्म उनके लिए पर्याप्त नहीं है, उनसे उनकी आवश्यकता की पूर्ति नहीं होती। (बुद्धि को संतुष्टि नहीं मिलती, इसीलिए अद्वैत  धर्म आइंस्टीन और निकोला टेस्ला जैसे वैज्ञानिकों को इतना अधिक आकर्षित करता है!) ..... मनुष्य को केवल श्रद्धा ही नहीं चाहिये, बल्कि उसमें बौद्धिक श्रद्धा (सर्वं खलु इदं ब्रह्म - की भावना) भी रहनी चाहिये । .... यूरोप का उद्धार एक बुद्धिपरक धर्म पर निर्भर है,  और वह है 'अद्वैत धर्म' , दी नॉन-डुअलिटी- अर्थात कोई पराया नहीं है, सभी अपने हैं का बोध, या एकात्मबोध; और निर्गुण-निराकार  ईश्वर को प्रतिपादित करने वाला यह वेदान्त ही, एक ऐसा धर्म है -जो किसी बौद्धिक जाति को संतुष्ट कर सकता है। जब कभी धर्म लुप्त होने लगता है और अधर्म का अभ्युत्थान होता है तभी इसका (अद्वैत श्रीरामकृष्ण का) आविर्भाव होता है। 
[दी साल्वेशन ऑफ़ यूरोप डिपेंड्स ऑन अ रेशनलिस्टिक रिलिजन, एंड अद्वैत — दी नॉन-डुअलिटी, दी  वननेस ,दी आईडिया ऑफ़ दी इम्पर्सनल गॉड.... 'इट कम्स ह्वेनेवर रिलिजन सीम्स टू डिसअपीयर ऐंड इर्रिलीजन सीम्स टु  प्रीवैल '] 
इसीलिये यूरोप और अमेरिका में यह अद्वैतवाद प्रविष्ट होकर दृढ़मूल होता जा रहा है। (आज इक्कीसवीं सदी में श्री रामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त परम्परा में युवा नेतृत्व प्रशिक्षण का प्रचार-प्रसार होने से )...... विज्ञान और धर्म एक दूसरे का आलिंगन करेंगे। कविता और विज्ञान परस्पर मित्र बन जायेंगे । यही भविष्य का धर्म होगा। और यदि हम ऐसा (पाँच अभ्यासों के ह्यूमन इंजीनियरिंग द्वारा 3H निर्माण ) ठीक ठीक कर ले सकें, तो यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि वह सर्वकालिक और सार्वलौकिक धर्म होगा ! यही पथ आधुनिक विज्ञान को ग्राह्य हो सकता है, क्योंकि वह लगभग वहाँ पहुँच गया है।

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' अद्वैतवाद की मूल बात' 
आइंस्टाइन के द्वारा पदार्थ और ऊर्जा की समतुल्यता को (१९०५ में ) प्रमाणित करने के बहुत पहले, स्वामी विवेकानन्द ने १८९६ में 'दी अब्सोल्यूट एंड मैनिफेस्टेशन’ (हिन्दी -ब्रह्म एवं जगत)  विषय पर लन्दन में भाषण देते हुए कहा था - " भारत में बुद्धदेव के आने पूर्व जो अत्यन्त प्रबल नास्तिकता थी, वह यूरोप और अमेरिका के विद्वानों में आजकल जैसी नास्तिकता है, वैसी नहीं, वरन वह तो इससे भी भयंकर थी। वह नास्तिकता यह शिक्षा देती थी कि -खाओ,पीओ और मौज उड़ाओ ; ईश्वर, आत्मा या स्वर्ग कुछ भी नहीं है; धर्म कुछ धूर्त, दुष्ट पुरोहितों की कपोल-कल्पना मात्र है -यावत जीवेत सुखम जीवेत ! और यह नास्तिकता उस समय इतनी बढ़ गयी थी कि उसका नाम ही 'लोकायत दर्शन' ("पॉपुलर फिलासफी") पड़ गया था। 
 आइ ऐम अ  मटिरीअलिस्ट इन अ सर्टेन सेंस" मैं भी एक प्रकार का भौतिकवादी हूँ; क्योंकि मेरा विश्वास है कि केवल एक ही वस्तु का अस्तित्व है। आधुनिक वैज्ञानिक भौतिकवादी भी यही कहते हैं, पर वे उसे 'जड़' (Matter) के नाम से पुकारते हैं, और मैं उसे 'ब्रह्म' कहता हूँ। ये भौतिकवादी कहते हैं, कि 'आउट ऑफ़ दिस मैटर ऑल होप, एंड रिलिजन, एंड एवरीथिंग हैव कम'-इस जड़ से ही समस्त आशा, धर्म तथा सभी कुछ प्रसूत हुआ है। और मैं कहता हूँ, 'ब्रह्म' से ही सब कुछ हुआ है। २/९३] "जब विज्ञान का अध्यापक कहता है कि ' आल थिंग्स आर दी  मैनिफेस्टेशन ऑफ़ वन फ़ोर्स' - सब कुछ उस एक शक्ति का ही विकास है - (E=M) तब क्या वह तुमको उपनिषदों में वर्णित उस ब्रह्म की याद नहीं दिलाता : 
अग्निर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव।
                    एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च।। कठ /२/ २/९।।
जिस प्रकार एक ही अग्नि (तेज) जगत में प्रविष्ट होकर नाना रूपों में [उनके प्रतिरूप अथवा अनुरूप अथवा समरूप में] प्रकट होती है, उसी प्रकार सारे जीवों की अन्तरात्मा वह एक ब्रह्म ही नाना रूपों में प्रकाशित हो रहा है, फिर वह इस दृष्टिगोचर जगत के बाहर भी है ! एक ही अग्नि निराकाररूप से सारे ब्रह्मांड में व्याप्त है, उसमें कोई भेद नही है। परंतु जब वह साकार रूप से प्रज्वलित होता है, तब उन आधारभूत वस्तुओं का जैसा आकार होता है, वैसा ही आकार अग्नि का भी दृष्टिगोचर होता है। विज्ञान किस ओर जा रहा है, यह क्या तुम नहीं देख सकते ?
आज विज्ञान भी कह रहा है कि "ऑल  थिंग्स आर  बट दी मैनिफेस्टेशन ऑफ़ वन एनर्जी व्हिच इज़ दी सम  टोटल ऑफ़ एवरीथिंग व्हिच एगजिस्ट्स। " बाह्य विज्ञान के द्वारा भी हम मनस्तत्व में से होकर (मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार को वशीभूत करने का प्रयास करते हुए) हम उसी एक अनन्त सार्वभौमिक सत्ता में पहुँच रहे हैं, जो सब वस्तुओं की अन्तरात्मा है, जो सबका सार और सभी वस्तुओं का सत्य है, जो नित्य मुक्त, नित्यानन्द और नित्य सत्ता है! यह जगत-प्रपंच उसी एक 'ब्रह्म या शक्ति ' का विकास है -जगत में जो कुछ भी है, वह उस सब की समष्टि है। 
[" अद्वैत वेदान्त के इस बात की धारणा करना अत्यन्त कठिन है कि जो ब्रह्म अनन्त-असीम (Infinite) है वह  सान्त-ससीम (finite) किस प्रकार हुआ ? [ दूसरे शब्दों में पदार्थ (Matter) यूरेनियम -235 की एक छोटे से कण में  परमाणु-बम जितनी अनंत ऊर्जा (Energy) कैसे समा गयी ?] 


उपरोक्त चित्र में (a) ब्रह्म (दी ऐब्सलूट) है, और (b) है जगत (दी यूनिवर्स)। ब्रह्म ही जगत हो गया है। यहाँ पर जगत शब्द से केवल दृष्टि-गोचर जड़-जगत (शरीर-हैण्ड) ही नहीं, किन्तु सूक्ष्म (मन-माइंड) तथा आध्यात्मिक जगत (हृदय-हार्ट) स्वर्गनरक [ हृदय के सिंहासन पर 'सिंह' (ठाकुर देव) विराजमान हैं, या 'कामुकता और कमाई' रूपी लोमड़ी बैठी है ?] वास्तव में जो कुछ भी है, सबको इसके अंतर्गत लेना होगा।यह ब्रह्म (a) देश-काल-निमित्त (time, space, and causation)(c) में होकर आने से जगत (b) बन गया है।  "दिस इज  दी सेन्ट्रल आईडिया ऑफ़ अद्वैता" - अद्वैतवाद की मूल बात यही है ! [ क्या ? यह जगत ब्रह्म का विवर्त है परिणाम नहीं है !] 
हम देश-काल-निमित्त रूपी चश्मे से ब्रह्म को देख रहे हैं, और इस प्रकार नीचे की ओर से देखने पर 'ब्रह्म' 
(जो उर्ध्व मूलं अधो शाखं है) हमें जगत के रूप में दीखता है। इससे यह स्पष्ट है कि जहाँ ब्रह्म (a) है, वहाँ देश-काल-निमित्त (c) नहीं है। काल वहाँ नहीं रह सकता, क्योंकि वहाँ न मन (अहं) है, न विचार (भ्रम), -"दी आईडिया ऑफ़ स्पेस कैन नॉट बी  देयर, सीइंग दैट देयर इज  नो एक्सटर्नल चेंज." देश भी वहाँ नहीं रह सकता, क्योंकि वहाँ कोई बाह्य परिणाम (शरीर?) नहीं है। " व्हाट यू कॉल मोशन एंड कॉज़ेशन कैन नॉट एग्जिस्ट व्हेयर देयर इज ओनली वन" --जहाँ सत्ता केवल एक है, वहाँ गति (जन्म-मृत्यु) अथवा 'कॉज़ेशन' कार्य-कारण वाद भी नहीं रह सकता।
इस बात को - यानि 'कॉज़ेशन ' को - समझना और इसकी अच्छी तरह धारणा कर लेना हमारे लिये अत्यावश्यक है। क्योंकि, जिसको हम कार्य-कारणवाद या ' कॉज़ेशन' कहते हैं, वह तो;  यदि हम इन शब्दों का प्रयोग कर सकें, " दी डिजनरेशन ऑफ़ दी ऐब्सलूट इन्टु दी फेनोमेनल" - ब्रह्म के प्रपंचरूप में अधःपतित होने ('कामुकता और कमाई ' के कण्डूरोग द्वारा हिप्नोटाइज्ड हो जाने) के बाद ही होता है, उससे पहले नहीं। तथा हमारा संकल्प (कण्डूरोग से छूटने का संकल्प या चरित्रवान मनुष्य बन जाने का संकल्प -Our Will) या वासना (our desire) आदि जो कुछ है, वे सब उसके बाद ही आरम्भ होते हैं। " २/ ८५

(साभार ramakrishnavivekananda.info
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लीडरशिप क्लास 
महामण्डल पुस्तिका -" २१ वीं सदी के भण्डार में क्या है ?" तथा १९८७ में ' A NEW YOUTH MOVEMENT' दोनों पुस्तिकायें 'माइंड ब्लोइंग' हैं -अर्थात नाम-रूप के मिथ्या अहंकार को समाप्त कर देने वाली हैं। 
महामण्डल पुस्तिका ' A NEW YOUTH MOVEMENT' के दूसरे अध्याय -' उन्नततर मनुष्यों का उन्नततर समाज' (Tend individuals,Tend Society !) में "इन स्टोर फॉर दी ट्वेंटी-फर्स्ट सेंचुरी" का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि "व्यावहारिक वेदान्त- 'BE AND MAKE ' ही इक्कीसवीं सदी में एक सार्व-भौमिक धर्म का रूप धारण कर लेगा ! 
इसीलिये रामकृष्ण- विवेकानन्द अचिन्त्य-भेदाभेद वेदान्त या व्यावहारिक वेदान्त  'BE AND MAKE ' शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में आधारित चरित्र-निर्माण आंदोलन में भाग लेकर उसके निहितार्थ को, 
(या उपनिषदों के चार महावाक्यों के मर्म तथा मधुसूदन सरस्वती के अचिन्त्य-भेदाभेद की 'अद्वैत-सिद्धि' को)  समझे बिना; या 'नॉलेज और विजडम' में संतुलन बनाये रखने की तकनीक को जाने बिना, जो लोग केवल एक-दो पुस्तक पढ़ कर, " श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा में मनुष्य निर्माण की पद्धति" को समझना चाहेंगे, उन्हें सावधान करते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा था-  उनमें से ८० % लोग ठग-वैद्य, १५ % विक्षिप्त (insane) और ५ % को ही सत्य की थोड़ी सी झलक प्राप्त होगी।  
हमारे देश में  हजारों साल पहले ही हमारे ऋषि-मुनि पूर्वजों ने इस ब्रह्मविद्या (पराविद्या या विजडम)
को खोज निकालने की चेष्टा की थी, और उसे अर्जित करने की एक वैज्ञानिक पद्धति (पातंजल -योगसूत्र) का आविष्कार भी कर लिया था। वे बाह्यजगत के विज्ञान - अपराविद्या (क्षात्रवीर्यनॉलेज या अविद्या) और आंतरिक जगत के विज्ञान - पराविद्या (ब्रह्मतेजविजडम =प्रज्ञता) के बीच समन्वय स्थापित करना चाहते थे, और हमारे देश में दोनों के बीच एक आदर्श-समन्वय स्थापित भी था। किन्तु कुछ अपरिहार्य कारणों से हजार वर्षों की गुलामी के दौरान हमारे 'नेता' या (लोक-शिक्षक) लोग इन दोनों विज्ञानों- " विद्या और अविद्या " के बीच संतुलन और समन्वय बनाये रखने की ट्रिक (या चतुराई ?) को भूल गए। 
किन्तु जिनके पास तह में छुपी सच्चाई को देखने योग्य ऑंखें हैं, (रसिया में कम्युनिज्म का पतन, ब्रिटेन के यूरो जोन से निकलने के साथ अमेरिका में भौतिकवाद के अतिशीघ्र संभावित पतन एवं अन्तर्राष्ट्रीय योगदिवस, कश्मीर के उरी कैम्प पर हमले के बाद पाकिस्तान को आंतकी देश घोषित किया जाना, बलोच नेता ब्रह्मदाग बुग्ती,रोहंगिया मुसलमान आदि का भारत में शरण लेना -आदि घटनाओं के साथ विश्व रंगमंच पर भारत का उत्थान आदि) वे स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि इन दोनों विज्ञानों के बीच का यह समन्वय अतिनिकट भविष्य में सम्पूर्ण विश्व में अपनी पहचान बनाने जा रहा है। महामण्डल के द्वारा हाल में प्रकाशित पुस्तिका " इन स्टोर फॉर दी ट्वेन्टी-फर्स्ट सेंचुरी " (२१ वीं सदी के भण्डार में क्या है ?)  इस सम्भावना की एक झलक देख भी सकते हैं।" 
१. कि इक्कीसवीं सदी के दूसरे दसक में : महामण्डल के द्वारा 'रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा 
('BE AND MAKE' परम्परा) में आयोजित किये जाने वाले-"गोल्डन जुबली कैम्प" अर्थात '५० वें वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर' के बाद: भारत के ८० करोड़ युवा में से कम से कम कुछ हजार युवा तो यह अवश्य 
समझने लगेंगे कि, आधुनिक विश्व को वेदों-उपनिषदों के चार महावाक्यों द्वारा निर्देशित - प्रज्ञता (विजडम) की आवश्यकता है, यदि आप चाहें तो इसीको दर्शन या धर्म भी कह सकते हैं !
विश्व-मानवता के कल्याण के लिये करने के विकल्प का चयन करने में- ज्ञान (नॉलेज -अपरा विद्या) का सही उपयोग करने के लिये यह प्रज्ञता (विजडम- परा विद्या श्रेय-प्रेय विवेक क्षमता) ही मनुष्य की सहायता कर सकती है। जिस 'मानवीय अज्ञानता' (अविद्या) के कारण ही मनुष्य के ' दुःख में वृद्धि' होती है, उससे बचने का उपाय है, विवेक-प्रयोग। 
प्रज्ञता (विजडम-सही विकल्प चयन क्षमता) ही वह फिलॉसफी या धर्म है जो वैज्ञानिक-तर्क की कसौटी पर खरा उतर सकती है। "विजडम कुड नॉट ओनली सूद दी सोल बट वुड ऑल्सो सैटिस्फाई दी इंटेलेक्ट" यह विजडम (सत-असत विवेक क्षमता) सही विकल्प का चयन करने का सामर्थ्य केवल आत्मा (हर्ट) के लिये ही शांतिदायक नहीं होगा, बल्कि यह बुद्धि (हेड) को भी संतुष्ट करेगा। 
इसीलिए अगले दो दशकों तक (२०३७ तक) - महामण्डल के जो नेता " परा-विद्या और अपरा-विद्या" में समान रूप से सन्तुलन बनाये रखने की तकनीक सीख लेंगे। वे प्रचलित शिक्षा (अपरा-विद्या) के द्वारा आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर हो जायेंगे, और उसके साथ-साथ  'पाठचक्र और वार्षिक युवा-प्रशिक्षण शिविर 'के माध्यम से "कामुकता और धनदौलत" (लस्ट ऐंड ल्यूकर) से डी-हिप्नोटाइज्ड होने की पद्धति (पाँच दैनन्दिन अभ्यासों) को जीवन में धारण कर, अपने समय और साधन का विवेक -प्रयोग द्वारा सही विकल्प चयन करने में सक्षम एक ब्रह्मवेत्ता मनुष्य के बन जायेंगे। 
क्योंकि महामण्डल का जो नेता अपने हृदय में  आधुनिक युग के मानवजाति के सच्चे मार्गदर्शक नेता भगवान श्रीरामकृष्णदेव को स्थापित कर लेगा, उनके आते ही उसके हृदय में जमा हजारों वर्षों से जमा हुआ अँधेरा या 'लस्ट ऐंड ल्यूकर' (काम-वासना और धन-दौलत) रूपी युगल-मूर्ति स्वतः भाग   जाएगी। 
वे कभी यह विश्वास नहीं करेंगे कि-  " अब भगवान का निधन हो चुका है।" (विश्वभर में इतनी अधिक आतंकवादी घटनाओं के होने के बावजूद)  क्योंकि हमलोग जानते हैं कि स्वामी विवेकानन्द के गुरु श्रीरामकृष्ण देव ने स्वयं अपने मुख से कहा था कि, ' क्या नरेन, अभीतक अविश्वास ! जो राम हुए थे जो कृष्ण हुए थे वही इस बार रामकृष्ण हुए हैं, किन्तु तेरे वेदान्त की दृष्टि से नहीं -बिल्कुल साक्षात् ! " अर्थात महामण्डल के नेता इस बात पर हृदय से (अपने हृदय में उनकी कृपा का अनुभव करके) विश्वास करेंगे कि भगवान श्री रामकृष्ण परमहंस देव ही आधुनिक युग में " अद्वैत धर्म" के अवतार हैं, वे स्वयं अद्वैतवाद हैं - क्योंकि जो श्रीराम और श्रीकृष्ण थे वही ब्रह्म वे स्वयं थे! 
 एक सम्मान-पूर्ण ढंग से  जीवन व्यतीत करने के लिए जितनी  भौतिक सुख-सुविधा की जरुरत होती है, उतना सब कुछ प्राप्त कर लेने के बाद ; उससे अधिक भौतिक वस्तुओं को प्राप्त करने की लालच को ही भौतिकवाद से हिप्नोटाइज्ड पशु-मानव बन जाना कहते हैं। अतः हमें भी नचिकेता के जैसा इस लालच को त्याग देना चाहिये और महामण्डल द्वारा निर्धारित पाँच दैनंदिन अभ्यास के द्वारा यथार्थ मनुष्य बन जाने के लिए कठोर परिश्रम करना चाहिये। 
महामण्डल नेता के मन में यह दृढ़ विश्वास रहना चाहिये कि " जिस प्रकार पहले दो बार (बुद्धदेव और शंकराचार्य के आविर्भूत होने के बाद) अद्वैतवाद ने भौतिकवाद से भारत की रक्षा की थी"-  ठीक उसी प्रकार महामण्डल के आविर्भूत होने के बाद, वही अद्वैत-धर्म "Be and Make" पुनः एक बार भौतिकवाद से केवल भारत की रक्षा ही नहीं करेगा बल्कि विश्व में शांति स्थापित करने वाले विश्वगुरु के रूप में भारतवर्ष को प्रतिष्ठित भी करा देगा। 
इसीलिये अब हमें आध्यात्मिकता (चार महावाक्यों, परा-विद्या या विजडम) के द्वारा सम्पूर्ण भारत को आप्लावित कर देने के लिये, वे भारत के प्रत्येक राज्यों में बारी-बारी से " अन्तर्राज्य स्तरीय युवा प्रशिक्षण शिविर" " इंटर-स्टेट 'बी ऐंड मेक' यूथ ट्रेनिंग कैम्प " का आयोजन करके इस 'मनुष्य (ब्रह्मवेत्ता मनुष्य)
बनो और बनाओ' आंदोलन (एक नया युवा आंदोलन) को एक जन-आंदोलन में परिवर्तित कर देने के लिये अथक परिश्रम करते रहना चाहिए। 
२. बोस्टन विश्वविद्यालय में बायो केमिस्ट्री के प्रोफेसर तथा साइंस फिक्शन के प्रसिद्द लेखक इसहाक असिमोव का होमोसुपीरियर:
 उन्नततर मनुष्यों का निर्माण करने से ही  उन्नततर समाज या महान भारतवर्ष का निर्माण किया जा सकता है । किन्तु, जब हमलोग वैज्ञानिक दृष्टि इतने उन्नत हो जायेंगे कि हमारे सारे कार्य - देखने, सुनने,विचार करने, विवेक-प्रयोग करने - आदि ,कार्य भी रोबोट्स ही करने लगेंगे, तब मनुष्य क्या करेंगे ? 
जब मनुष्य बेरोजगार हो जायेगा, तो आर्थिक रूप से असुरक्षित महसूस करेगा, और उसकी आत्सम्मान की भावना भी चली जाएगी। इस स्थिति से बचने का उपाय बतलाते हुए बोस्टन विश्वविद्यालय में बायो केमिस्ट्री के प्रोफेसर तथा साइंस फिक्शन के प्रसिद्द लेखक इसहाक असिमोव अपनी पुस्तक 'मॉडर्न मैच्यूरिटी' में कहते हैं कि तब, उस बेरोजगारी के कारण खाली बचे समय में हमें  जेनेटिक इंजीनियरिंग का प्रयोग करके 'होमो सेपियन्स' अर्थात मानव प्रजाति को 'होमो  सूपीरीअर्स ' या 'उन्नततर मानव प्रजाति' में रूपांतरित करने का प्रयास करना चाहिये।
तभी रोबोट्स जब हमारे सभी कार्य कर रहे होंगे तो, मनुष्य के पास भी एंगेज रहने के लिए कुछ काम तो बचा रहेगा !  इस प्रकार के विचार को ही 'वैज्ञानिक अन्धविश्वास' या ख्याली पुलाव पकाना कहते हैं, जो वास्तव में मनुष्य क्या है - इस बात की जानकारी नहीं रहने के कारण उत्पन्न होती है। मनुष्य के यथार्थ स्वरूप के विषय में हमारी अज्ञानता, अधपके केक को ही असली केक समझने जैसा है; जो हमारे मन में किसी मनुष्य को अपने से तुच्छ समझने, उसके जाति, धर्म और नस्ल के आधार पर डिस्टेस्ट,वैमनस्य या घृणा का भाव उत्पन्न करता है।जब 'मनुष्य वास्तव में क्या है '- यह हम नहीं जान पाते हैं, तभी हमलोग जेनेटिक इंजीनियरिंग की सहायता से 'होमो सूपीरीअर' को निर्मित करने बात सोचने लगते हैं।
हमलोग जेनेटिक-इंजियनिरिंग या स्पेस साइंस में चाहे कितना भी तरक्की क्यों न कर लें, किन्तु  " मनुष्य कभी किसी ऐसी वस्तु का निर्माण नहीं कर सकता जो स्वयं मनुष्य की तुलना में अधिक आश्चर्यजनक हो!"  क्या कभी कोई ऐसा रोबोट निर्मित किया जा सकता है जिसमें प्रेम और ममता भी हो ? क्या कोई ऐसा इलेक्ट्रॉनिक गैजिट (मशीन) निर्मित किया जा सकता है जिसके पास दूसरों के सुख-दुःख को अनुभव करने वाला एक सहानुभूति-सम्पन्न हृदय भी हो ? क्या कभी कोई ऐसा रोबोट बनाया जा सकता है, जो सौन्दर्य और कला की प्रशंसा करने या मूल्यांकन करने में भी सक्षम हो ? नहीं, कभी नहीं ! 
फ्रेडरिक नीत्शे का सुपरमैन: (नीत्शे एक जर्मन दार्शनिक था, जो संसार के समक्ष ढोंगी आस्तिक होकर रहने की बजाय, स्वयं को एक नास्तिक कहलाना अधिक उचित समझता था।) इसीलिए नीत्शे का सुपरमैन या अतिमानव  'दी ब्लॉन्ड बीस्ट' (सुनहरे बालों वाला पशु-मानव)  आसुरी लक्षणोँ से युक्त है। उसमें दया, प्रेम, करुणा, सहानुभूति जैसे कोमल भावनाओं का सर्वथा अभाव है। वह अत्यन्त पाषाणी हृदय, क्रूर निर्दयी तथा प्रचण्ड शक्तिशाली पुरुष की कल्पना है। क्योंकि नीत्शे या पाश्चात्य दार्शनिकों को यह पता ही नहीं है कि मनुष्य कोई 'फिनिश्ड प्रोडक्ट' (पूर्ण निर्मित उत्पाद) नहीं है।
यह विश्व मनुष्यों के लिये एक वर्कशॉप (कारखाने) के जैसा है, जिसमें तप कर मनुष्य 'पूर्णता' (फिनिश) को प्राप्त होता है। जब कोई व्यक्ति जगत में रहते हुए "3H निर्माण" की प्रक्रिया से गुजरता है, तब हमें 'यथार्थ मनुष्य ' रूपी वह फिनिश्ड प्रोडक्ट प्राप्त होता है। क्योंकि तब वह अपनी अनंत संभावनाओं को अभिव्यक्त करने में समर्थ होता है,[अर्थात वह ब्रह्म (पूर्ण)  को जानकर साधारण मनुष्य से 'ब्रह्मविद मनुष्य' या यथार्थ मनुष्य बन जाता है!]
३.ब्रह्मविद मनुष्य बनें या नहीं ? ' दिस चूजिंग कैन नॉट बी लेफ्ट टू रोबोट्स' : किन्तु,रोबोट्स के डिजाइन में काफी सुधार होने के बावजूद, यदि कम्प्यूटर की सहायता से मानव-मन को शांत और संयत कर पाना कभी सम्भव हो भी गया तो भी तब भी  (श्रेय-प्रेय) चयन के कार्य को किसी रोबोट के ऊपर नहीं छोड़ा जा सकता।  
और जब तक मनुष्य स्वयं को पूर्ण रूप से विकसित नहीं कर लेता, तब तक वह सही विकल्प का चयन भी नहीं कर सकता।  तथा  मनुष्य के समुचित विकास  (मान- हूश 'मनुष्य' जिसे अपनी मानवोचित मर्यादा का होश बना रहता है) का कार्य केवल आध्यात्मिकता के द्वारा ही सम्भव हो सकता है।  क्योंकि " मैन हिप्नोटाइजेज  हिमसेल्फ टू बिलीव दैट ही इज अ क्रियेचर ऑफ हिस्ट्री एंड एनवायरनमेंट": 'कामुकता और धन' के मोह में पड़ कर, मनुष्य अपनी आंतरिक शक्ति (आत्मशक्ति) को भूल जाता है, और यह विश्वास करने के लिये स्वयं को ही सम्मोहित करने लगता है,-(मैं सिंह नहीं हूँ भेड़ हूँ!) अर्थात स्वयं से रात-दिन कहने लगता है कि, " मैं तो इतिहास (history= पूर्व जन्म की प्रवृत्तियों) और परिवेश (environment
-जिस M/F शरीर में जन्म हुआ) की जंजीरों से बन्धा एक पशु हूँ !" 
ऐसा सोचने वाले मनुष्य इस जगत को पुनः नये सीरे से मनुष्यों के रहने योग्य (ब्रह्म-मय जगत) बनाने के बजाय, स्वयं जगत के द्वारा ही धराशायी, विकृत और बौना बना दिया जाता है। तथा 'पदार्थ और ऊर्जा' को अपना एक अच्छा सेवक बनाने की चेष्टा करते करते (उनकी समतुल्यता E=M अविवादित है) वह स्वयं ही जड़ पदार्थों का एक बुरा-गुलाम बन जाता है। 

 .... यूरोप का उद्धार (या यूरोप के भौतिकवाद से ग्रस्त इंडिया का उद्धार ) एक बुद्धिपरक धर्म पर निर्भर है,  और वह है 'अद्वैत धर्म' , दी नॉन-डुअलिटी- अर्थात कोई पराया नहीं है, सभी अपने हैं का बोध, या एकात्मबोध। और निर्गुण-निराकार  ईश्वर को प्रतिपादित करने वाला यह वेदान्त ही, एक ऐसा धर्म है -जो किसी बौद्धिक जाति को संतुष्ट कर सकता है। 
जब कभी धर्म लुप्त होने लगता है और अधर्म का अभ्युत्थान होता है तभी इसका (व्यावहारिक अद्वैत-अचिन्त्य भेदाभेद वेदान्त = बी ऐंड मेक का) आविर्भाव होता है। (इसीलिए व्यावहारिक अद्वैतवाद आइंस्टीन और निकोला टेस्ला जैसे वैज्ञानिकों को इतना अधिक आकर्षित करता है!) क्योंकि  मनुष्य को केवल श्रद्धा ही नहीं चाहिये, बल्कि उसमें बौद्धिक श्रद्धा (सर्वं खलु इदं ब्रह्म - की भावना) भी रहनी चाहिये । 
जो महामण्डल नेता विवेकानन्द द्वारा आविष्कृत - 'बी ऐंड मेक ' रूपी अचिन्त्य-भेदाभेद वेदान्त के महावाक्य पर बौद्धिक-श्रद्धा रखते हुए इसके प्रचार-प्रसार आन्दोलन में कूद पड़ता है, वह ' Lust and Lucre '  के सम्मोहन से उत्पन्न ='भेंड़त्व' की मानसिकता को समाप्त करने या स्वयं को विसम्मोहित ( डी-हिप्नोटाइज) करने के लिए सर्वप्रथम ऑटोसजेशन, (स्वाध्याय) "चमत्कार जो आपकी आज्ञा का पालन करेगा" प्रपत्र का अभ्यास करके चरित्रवान मनुष्य बन जाने का संकल्प ग्रहण करता है; और  स्वयं को रात-दिन सुनाता रहता है -  अब लौं नसानी, अब न नसैहों। रामकृपा 'भव-निसा' सिरानी जागे फिर न 'डसैहौं' ॥पायो नाम चारु चिंतामनि उर करतें न खसैहौं। 
भावार्थ - जब तक महामंडल के ' बी ऐंड मेक' आंदोलन से मैं नहीं जुड़ा था, तब तक 'कामुकता और धनदौलत' के चका-चौंध से हिप्नोटाइज्ड होकर ' मैं सिंह शावक' (आत्मा)  होकर भी स्वयं को एक 'भेंड़' (शरीर) समझ रहा था, और 3H निर्माण पद्धति से अनजान होने के कारण, महामण्डल द्वारा निर्देशित ५ अभ्यासों का पालन न करके, अब तक की आयु को व्यर्थ में- में-में करता हुआ नष्ट कर रहा था। किन्तु श्री ठाकुर देव की कृपा, और विवेक-दर्शन का अभ्यास करने से मेरी 'भव-निसा' सम्मोहित-दसा (हृदय का अंधकार) समाप्त हो गया है।
 जागे=  'उत्तिष्ठत -जाग्रत' की वाणी सुनकर मैं अपने यथार्थ स्वरूप में निरन्तर जाग्रत रहता हूँ।  फीर न डसैहौं = डासना = फिर माया के लिए बिछौना या आसन बिछाना= 'कामुकता और धनदौलत' के प्रति आसक्ति के लिए अपने हृदय में बिछौना नहीं बिछाऊंगा- अर्थात ठाकुर के आसन पर अविद्या-माया को (मिथ्या नाम-रूप के अहंकार को) बैठने नहीं दूँगा !
  'पायो नाम चारु चिंतामनि' = चार महावाक्यों के सार व्यावहारिक वेदान्त  'बी ऐंड मेक' का नाम का श्रवण, जो  गुरु विवेकानन्द के मुख से प्राप्त हुआ है, उसे 'मनन और निदिध्यासन' रूपी हाथ से कभी गिरने नहीं दूंगा। अब तक का जीवन बर्बाद किया। आगे न करूंगा। और क्रमशः आत्मज्ञान (प्रज्ञता या विजडम)  प्राप्त करने के बाद 'ब्रह्मवेत्ता' मनुष्य,  देव-मानव या होमो-सुपीरियर बन जाने का यही मार्ग है।
 जैसा कि उपनिषदों में वर्णित है - द्वा सुपर्णा = दो पक्षी (सिद्धार्थ तथा बुद्ध / नरेन्द्र तथा  विवेकानन्द)
सयुजा = सदा साथ रहने वाले, (तथा) सखाया = परस्पर सख्यभाव रखने वाले, समानम् = एक ही, वृक्षम = वृक्ष (शरीर) का आश्रय लेकर रहते है, तयोः = उन दोंनो में से, अन्य = एक (सिद्धार्थ गौतम या गृहस्थ) तो, पिप्पलम् =उस वृक्ष के फलेां (कर्म फलों) को, स्वादु=स्वाद ले-लेकर, अत्ति = खाता है, अन्यः=किन्तु दूसरा (बुद्ध, वानप्रस्थी या महामण्डल नेता ), अनश्नन् = उनका उपभोग न करता हुआ, अभिचाकशीति  = केवल देखता रहता है। 
सिद्धार्थ गौतम से गौतम बुद्ध बन जाने या नरेन्द्रनाथ से विवेकानन्द के जैसा मानवजाति का सच्चा मार्गदर्शक नेता बन जाने (या  ऊपर वाला पक्षी - जो खट्टे-मीठे फलों को नहीं खाता केवल -अभिचाकशीति ! ) का यही मार्ग है। 
जो युवा महामण्डल द्वारा निर्देशित मनुष्य निर्माण पद्धति के ५ अभ्यासों का निष्ठापूर्वक पालन करेगा, वह आजीवन एक हिप्नोटाइज्ड पशु-मानव ही नहीं बना रहेगा। " कामुकता और धनदौलत " के प्रति आसक्ति को त्याग देगा और कभी अपने को (history= पूर्व जन्म की प्रवृत्तियों और environment-जिस M/F शरीर में जन्म हुआ)  के फंदे में बन्धा हुआ पशु नहीं समझेगा और भेंड़-मानव से 'मनुष्य' में और  मनुष्य से 'देव -मानव ' या होमो-सुपीरियर 'सिंह' -ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बन जायेगा। 
अर्जुन भी जब तक भगवान श्रीकृष्ण के मुख से गीता (उपनिषदों के महावाक्यों के मर्म को ) को नहीं सुना था तब तक वह गाण्डीवधारी अर्जुन होकर भी स्वयं को और अपने रिश्तेदारों को केवल नश्वर शरीर समझकर भेंड़ की तरह में में करके भय से " धाराशायी-विकृत और बौना" हुआ था। तथा 'पदार्थ और ऊर्जा' को अपना एक अच्छा सेवक बनाने की चेष्टा करते करते (उनकी समतुल्यता E=M अविवादित है) वह स्वयं ही जड़ पदार्थों का एक बुरा-गुलाम बन गया था। 
किन्तु, गीता में श्रीकृष्ण के मुख से अद्वैत-धर्म के महावाक्यों का  " श्रवण-मनन और निदिध्यासन" करने के बाद, उसके मर्म को अपनेअनुभव से समझ लेने के बाद १८ वें अध्याय के ७३ वें श्लोक में अर्जुन के मुख से निकला था - 

नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
                   स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव।।18.73।।       
[ नष्टो मोहः स्मृतिः लब्धा त्वत्प्रसादात् मया अच्युत/  स्थितः अस्मि  गतसन्देहः करिष्ये  वचनम् तव]
अर्जुन स्वीकार करता है कि उसका मोह (सम्मोहित अवस्था भेंड़त्व की अवस्था) नष्ट हो गया है। मुझे स्मृति प्राप्त हो गयी है - मैं तो वास्तव में सिंहशावक ही था ! इस वाक्य से यह दर्शाया गया है कि उसके मोह की निवृत्ति भगवान् के उपदेश (नॉलेज)  का केवल श्रवण कर लेने भर से नहीं हुई थी;  वरन् ' मनन और निदिध्यासन ' द्वारा पूर्ण विचार करके, आत्मसाक्षात्कार कर लेने के बाद जो प्रज्ञता प्राप्त होती है उस विजडम से हुई है। 
उसके अन्दर का वीरत्व जागृत हो गया है और उसकी सम्मोहावस्था समाप्त हो गयी है। जब हम गीता- दर्शन के वास्तविक अभिप्राय को पूर्णतया समझ लेते हैं,  केवल तभी हम में प्रज्ञता या विजडम जागृति होती है;  और हम अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान पाते हैं।
पूर्णत्व (ब्रह्मत्व, सिंहत्व या बुद्धत्व ) तो हमारा आत्मस्वरूप ही है। उसे किसी देशान्तर या कालान्तर में किसी बाह्य शक्ति के हस्तक्षेप की सहायता से प्राप्त नहीं करना है। केवल अज्ञान के कारण हम स्वयं को जीव (नीचे वाला पक्षी ) समझ कर दुख और कष्ट भोग रहे हैं। जीव दशा के कष्टों को भोगते समय भी वस्तुत हम पूर्ण आत्म स्वरूप ही होते हैं। अत आवश्यकता केवल सम्यक् आत्मज्ञान की ही है, 'विवेकानन्द' या विवेक-प्रयोग करके सही विकल्प का चयन करने की क्षमता तो नित्योपलब्ध ही है। मनुष्य का देवत्व (सिंहत्व)  जागृत होने से उसके अन्दर का पशुत्व (भेंड़त्व)  समाप्त हो जाता है। अपूर्ण ज्ञान की स्थिति में ही मन में शोक, मोह, भय, निराशा, दुर्बलता आदि अनेक सन्देह उत्पन्न होते हैं। अब,  अर्जुन को पूर्ण ज्ञान होने के कारण वह सन्देह रहित (गतसन्देह) भी हो गया है।
आत्मज्ञान की दृष्टि से,  आत्ममुल्यांकन तालिका को भरने के बाद जब चरित्र के चौबीसो गुण में ८० % अंक प्राप्त हो जाते हैं और प्रज्ञता स्थायी संपत्ति बन जाती है, तब इस जगत रूपी कारखाने या युद्धभूमि का पुनर्निरीक्षण एवं पुनर्मूल्यांकन करने पर उसे, अब, अपने कर्तव्य (ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बनना और बनाना या 'बी ऐंड मेक ')  को निश्चित करने में कोई कठिनाई नहीं होती है।
वह अपने (विशुद्ध बुद्धि के ) निर्णय की स्पष्ट घोषणा करता है-  'मैं आपके (महामण्डल के) आदेश (पाँच अभ्यास ) का पालन करूंगा।'  अत समस्त महामण्डल नेताओं  को अपने अहंकार का त्याग करके अपनी विशुद्ध बुद्धि के निर्णयों का सदैव पालन करना चाहिए। यही आध्यात्मिक जीवन का प्रारम्भ है, और समापान भी। यहाँ महामण्डल द्वारा प्रकाशित समस्त पुस्तिकाओं का अध्यन (श्रवण -मनन -निदिध्यासन ) की परिसमाप्ति होती है।
 [श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा में युवा नेतृत्व प्रशिक्षण द्वारा प्रशिक्षित महामण्डल का नेता  गीता समाप्ति का वह अर्जुन है जो अपनी अपरा-विद्या ( नॉलेज =शरशास्त्र प्रविद्या, सूक्ष्म बुद्धि) और परा-विद्या (श्रेष्ठ ज्ञान, विजडम या प्रज्ञता) के साथ अत्यन्त नम्रता से भगवान् श्रीकृष्ण के सामने सम्पूर्ण आत्मसमर्पण कर उन्हीं की इच्छा को अपनी इच्छा मानता है तथा ईश्वर का निमित्त मात्र होने को तैयार है। ’सर्वस्व समर्पण' करके ही ईश्वर के हाथों यंत्र बनना सम्भव है। 
और जो श्री ठाकुर देव का यंत्र बन सका उसी का जीवन सार्थक है। ऐसे जीवन में ही विकास की अनन्त संभावनाएँ सन्निहित होती हैं। यही जीवन देवत्व का पर्याय होता है। जो अपनी दिव्यता से अपने वातावरण को भी स्वर्गतुल्य बना देता है। अतः अतिमानव के इस यथार्थ को साकार करने लिए हमें अपने चरित्र, चिन्तन एवं व्यवहार को सुधारने एवं संवारने की प्रक्रिया प्रारम्भ कर देनी चाहिए। 
और इस प्रकार इक्कीसवीं सदी में महामण्डल का जो सामूहिक 'युवा- नेतृत्व' उभर कर सामने आएगा, उसके सभी नेताओं के मुख से वही वाक्य निकलेगा -"  नष्टो मोहः स्मृतिः लब्धा त्वत्प्रसादात् मया अच्युत/  स्थितः अस्मि  गतसन्देहः करिष्ये  वचनम् तव"
" अतएव मैं यह कहने का साहस कर सकता हूँ कि 'अद्वैत धर्म ' (बी ऐंड मेक ) ही एकमात्र ऐसा धर्म है जो आधुनिक वैज्ञानिकों के सिद्धान्तों के साथ भौतिक और आध्यात्मिक दोनों दिशाओं में केवल मेल ही नहीं खाता, वरन उनसे भी आगे चला जाता है। इसीलिए यह व्यावहारिक अद्वैतवाद- 'बी ऐंड मेक'; भारत के प्रत्येक राज्यों में  प्रविष्ट होकर दृढ़मूल होता जा रहा है। तथा इक्कीसवीं सदी में 'श्री रामकृष्ण -विवेकानन्द अचिन्त्य-भेदाभेद वेदान्त परम्परा में युवा नेतृत्व प्रशिक्षण' का प्रचार-प्रसार होने से,  विज्ञान और धर्म एक दूसरे का आलिंगन करेंगे। कविता और विज्ञान परस्पर मित्र बन जायेंगे । यही 'बी ऐंड मेक ' भविष्य का धर्म होगा।और यदि हम ऐसा (पाँच अभ्यासों के ह्यूमन इंजीनियरिंग द्वारा 3H निर्माण ) ठीक ठीक कर ले सकें, तो यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि वह सर्वकालिक और सार्वलौकिक धर्म होगा ! यही पथ आधुनिक विज्ञान को ग्राह्य हो सकता है, क्योंकि वह लगभग वहाँ पहुँच गया है। विज्ञान किस ओर जा रहा है, यह क्या तुम नहीं देख सकते ?" (२/ ९५) 
अग्निर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव।
Just as the fire (Energy) , though one, entering the world (Matter) assumes different forms, so also That remains as the Antarätmä in each being, and remains outside also. (कठ.उपनिषद II.2.9) This will be the religion of the future, and if we can work it out, we may be sure that it will be for all times and peoples.
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