शिक्षा ही समाधान
(चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा ही भारत की समस्त समस्यायों का समाधान है)
(1)
शिक्षा क्या है ?
[What is education?]
श्री रामकृष्ण के इस उपदेश - "जावत बाँची तावत सीखी" (जब तक जीना तब तक सीखना) को हमें अपने अपने जीवन के प्रत्येक मुहूर्त में स्मरण रखना आवश्यक है। शिक्षा क्या है? कुछ उच्च (पवित्र) विचारों को चरित्रगत करना या उन्हें आत्मसात कर अपने आचरण द्वारा प्रकट करना; इसीका नाम है शिक्षा। हमलोगों के भीतर जो पूर्णता (intelligence, चैतन्य) पहले से विद्यमान है, उसको अपने आचरण द्वारा प्रकट (reveal) करना, इसीका नाम है शिक्षा। हमलोगों ने स्वामी जी से सुना है (23 दिसंबर, 1898 को देवघर से श्रीमती मृणालिनी बसु को लिखा गया पत्र ।७/३५८-३५९)-- " बहुत शक्तिशाली जहाज या रेल का इंजन यंत्रचालित है इसलिए वे चलते और दौड़ते हैं, परन्तु वे जड़ हैं, उनमें बुद्धिमत्ता (intelligence) नहीं है। और रेल को आता देखकर जो नन्हा सा कीड़ा अपनी जीवनरक्षा के लिए रेल की पटरी से हट गया - क्योंकि वह चैतन्य (intelligent) है, उसमें अपनी बुद्धिमत्ता है। यंत्र में इच्छाशक्ति या संकल्प (will) का कोई प्रस्फुटन (manifestation) नहीं है। यंत्र कभी नियम का अतिक्रमण (transgress) करने की कोई इच्छा नहीं रखता। (अर्थात यंत्र कभी जन्म-मृत्यु के चक्र से परे जाने का कोई संकल्प/इच्छा नहीं रखता।) कीड़ा नियम का विरोध करना चाहता है,और नियम के विरुद्ध जाता है , चाहे अपने प्रयत्न में वह सफल हो या नहीं; इसलिए वह चेतन है। (Greater is the happiness, higher is the Jiva, in proportion as this will is more successfully manifest.) जिस अंश में संकल्प /इच्छा-शक्ति के प्रकट होने में सफलता होती है [अर्थात नचिकेता की तरह जन्म-मृत्यु के चक्र का अतिक्रमण करने में सफलता होती है], उसी अंश में आनन्द (happiness-परमानन्द) अधिक होता है जीव उतना ही ऊँचा (ब्रह्मविद'मनुष्य') होता है। परमात्मा की इच्छा-शक्ति पूर्णतया सफल होती है , इसलिए वह सर्वोच्च है। शिक्षा क्या है ? क्या वह पुस्तक विद्या है ? नहीं ! क्या वह नाना प्रकार का ज्ञान है ? नहीं, यह भी नहीं। जिस (मनःसंयोग के) प्रशिक्षण द्वारा इच्छाशक्ति (संकल्प) का प्रवाह (current) और प्रकटन (expression) वश में लाया जाता है और वह फलदायक होता है , वह शिक्षा कहलाती है। " --इसको सीखने का नाम है शिक्षा।
[ब्रह्म (अवतार वरिष्ठ) का संकल्प (will- इच्छाशक्ति'एकोहं बहुस्याम।' या 'नरेन शिक्षा देगा') पूर्णरूप से सफल होता है , इसलिए वह सर्वोच्च है। " The huge steamer, the mighty railway engine — they are non-intelligent; they move, turn, and run, but they are without intelligence. And yonder tiny worm which moved away from the railway line to save its life, why is it intelligent? There is no manifestation of will in the machine, the machine never wishes to transgress law; the worm wants to oppose law — rises against law whether it succeeds or not; therefore it is intelligent. Greater is the happiness, higher is the Jiva, in proportion as this will is more successfully manifest. The will of God is perfectly fruitful; therefore He is the highest. What is education? Is it book-learning? No. Is it diverse knowledge? Not even that. The training by which the current and expression of will are brought under control and become fruitful is called education. (Written to Shrimati Mrinalini Bose from Deoghar , on 23rd December, 1898.) ] शिक्षा का अर्थ है उपयुक्त (मनुष्योचित) चरित्र का अधिकारी होना। शिक्षा उसी को कहते हैं। स्वामीजी कहते हैं, " हमें ऐसी शिक्षा की आवश्यकता है जिससे चरित्र-निर्माण हो, मानसिक शक्ति बढ़े , बुद्धि विकसित हो और मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा होना सीखे।" ताकि हमलोग यथार्थ मनुष्य बनकर अपने कर्तव्यबोध के प्रति जागरूक हो सकें। और एक सामर्थ्यवान (competent) मनुष्य बनकर अपने कर्तव्यों का सही ढंग से निर्वहन कर सकें। इस प्रकार कर्तव्यपरायण मनुष्य बन जाना ही शिक्षा है। स्वामी जी ने कहा था , " शिक्षा का मतलब यह नहीं है की तुम्हारे दिमाग में ऐसी बहुत सी बातें इस तरह ठूँस दी जायें कि अन्तर्द्वन्द्व होने लगे और तुम्हारा दिमाग उन्हें जीवन भर पचा न सके। जिस शिक्षा से हम अपना जीवन-गठन कर सकें, मनुष्य बन सकें, चरित्र-निर्माण कर सकें और विचारों का सामंजस्य कर सकें , वही वास्तव में शिक्षा कहलाने योग्य है। यदि तुम पाँच ही भावों को पचाकर तदनुसार जीवन और चरित्र गठित कर सके हो, तो तुम्हारी शिक्षा उस आदमी की अपेक्षा बहुत अधिक है , जिसने एक पूरे पुस्तकालय को कंठस्थ कर रखा है। ... यदि बहुत तरह की जानकारियों/ खबरों का संचयन करना ही शिक्षा है , तब तो ये पुस्तकालय संसार में सर्वश्रेष्ठ मुनि और विश्वकोश (इन्साइक्लोपीडीआ) ही ऋषि हैं। " (भारत का भविष्य -५/१९५ ) ( If education is identical with information, the libraries are the greatest sages in the world, and encyclopaedias are the Rishis.)
सिर्फ इसलिए नहीं कि स्वामी जी ऐसा कहते हैं। यदि शान्तचित्त हो कर उपरोक्त सभी बातों पर हमलोग स्वयं विचार करके देखें तो इन बातों हमलोग स्वयं भी समझ सकते हैं। सचमुच ही, क्या वास्तव में इसको शिक्षा कहा जा सकता है ? क्या शिक्षा का मतलब स्कूल या कॉलेज जाना है? क्या शिक्षा का अर्थ विभिन्न विषयों के कुछ प्रमेय (theorem) आदि को रट लेना भर है ? इसको तो शिक्षा नहीं कह सकते। मैंने कुछ प्रमेयों को रटकर याद कर लिया और परीक्षा -हॉल में बैठकर उन सब को उत्तरपुस्तिकाओं में लिख दिया- क्या इसको शिक्षा कह सकते हैं। हाँ, उस प्रकार हम कुछ डिग्री- सर्टिफिकेट्स आदि अवश्य प्राप्त कर लेते हैं। उन सर्टफिकेट्स के कुछ बाजार मूल्य हैं। इन्हें बाजार में दिखाकर नौकरी पा लिये या उन्हें भुना कर और कुछ कर लिए।किन्तु इसको तो शिक्षा नहीं कह सकते। शिक्षा उसे ही कहा जाता है,जैसा पहले बताया गया,
'जिस प्रशिक्षण के द्वारा हमलोग अपनी आंतरिक शक्ति (इच्छाशक्ति -willpower)को संयमित और नियंत्रित रखते हुए उसे प्रभावकारी तरीके से कार्य में लगा सकते हों, वह शिक्षा कहलाती है। " --इसको सीखने का नाम है शिक्षा।
मेरी इच्छाशक्ति फलदायी तरीके से कार्य में लगी है या नहीं - इस बात को मैं कैसे समझूँगा ? उसकी परख इस बात से होगी कि हमारा अपना जीवन मंगलमय और कल्याणकारी प्रतीत होगा, अच्छा बन जायेगा। हम लोगों का जीवन सुन्दर होगा। असहनीय नहीं लगेगा।
हम लोग विभिन्न शिक्षा-पद्धतियों के परीक्षण के दौर से गुजर रहे हैं, और स्वयं को शिक्षित समझ रहे हैं। लेकिन क्या हमारा जीवन कई बार कष्टदायक नहीं बन जाता है ? क्या हमलोग स्वयं अपने मनोभाव, विचारों और कार्यों के द्वारा इस प्रकार के परिवेश का निर्माण नहीं कर रहे हैं, जो देखने में बहुत अच्छा प्रतीत नहीं होता है ? हमलोग आज जैसे समाज में रह रहे हैं, वहाँ जिन परस्थितियों को हम देख रहे हैं , उसके लिए कौन उत्तरदायी है ? हमलोग ही तो हैं। जो परिस्थितियाँ और सामाजिक वातावरण अक्सर हमें असहनीय लगता है , उसे भी हमने ही तो बनाया है। हमलोगों को जैसी शिक्षा मिली है, या हमने जैसी शिक्षा प्राप्त की है उसी के अनुरूप हमारे विचार बन रहे हैं, और वे विचार ही इस प्रकार से कार्यरूप में परिणत हो रहे हैं कि सामाजिक परिवेश भी वैसा ही बन रहा है।
हमलोगों के पारस्परिक सम्बन्ध कैसे हैं, हम एक दूसरे के साथ संवाद कैसे करते हैं। विचारों तथा अन्य विषयों का आदान-प्रदान किस प्रकार हो रहा है ? जब हम विभिन्न लोगों (भाई-भाई या मित्रों) के बीच विचारों का आदान-प्रदान करते हैं अथवा अन्य वस्तुओं का विनमय करने की बात करते हैं, तब हमलोग एक दूसरे पर अविश्वास या सन्देह कर रहे होते हैं। हम सभी इस प्रयत्न में लगे रहते हैं कि अपनी बुद्धि या चालाकी द्वारा कैसे दूसरों की आँखों में धूल झोंककर या दूसरों को उसके अधिकारों से वंचित करके - 'मैं' कैसे अधिक मुनाफा कमा सकता हूँ ? हमलोगों ने बचपन से जो शिक्षा प्राप्त की है, यह उसीका तो परिणाम है। क्या इस पाशविक स्वार्थपरता की तरफ गिरने को शिक्षा कहा जा सकता है ? निश्चित रूप से यह शिक्षा नहीं है।
यदि हमलोग सच्ची शिक्षा प्राप्त कर सकें, तो हमलोग अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के ऊपर उतना ही ध्यान देंगे जिससे मेरा कल्याण हो तथा मेरे और मेरे समाज के दूसरे अन्य व्यक्तियों के बीच जो कुछ भी आदान-प्रदान हो, वह दोनों के लिये समानरूप से (win- win situation में) कल्याणकारी हो। पारस्परिक श्रद्धा द्वारा प्रेरित होकर एक दूसरे की सहायता अथवा कल्याण -यही हमारा लक्ष्य होगा। ऐसा कहा जाता है कि इन दिनों अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध (या अन्तर-राजकीय सम्बन्ध) भी इसी आदर्श की बुनियाद पर गढ़े जा रहे हैं। व्यक्तिगत स्वार्थ की इच्छा द्वारा अभिप्रेरित (motivated) होकर हमलोग कभी समाज का यथोचित कल्याण नहीं कर सकते। इसलिए यदि हम सर्व समाज के हितों का ध्यान रखना चाहते हैं, तो हमें स्वयं निःस्वार्थी होना होगा। स्वार्थपरता को कम करना होगा। और इस स्वार्थपरता को कम करते हुए, स्वार्थ-शून्य बन जाना ही सीखने योग्य वस्तु (अर्थात 'शीक्षा') है। जो शिक्षा हमें स्वार्थशून्य नहीं बना सके, वह शिक्षा ही नहीं है। इसलिये पूर्णतः निःस्वार्थ बन जाने की प्रक्रिया (Unselfishness tending to hundred %) को समझना और सीखना होगा।
[ गीता में इसकी पद्धति बतलाते हुए भगवान श्री कृष्ण कहते हैं , "परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ" (३/११) -कैसे तुमलोग इस यज्ञद्वारा इन्द्रादि देवों को बढ़ाओ अर्थात् उनकी उन्नति करो। वे देव वृष्टि आदि द्वारा तुमलोगों को बढ़ावें अर्थात् उन्नत करें। इस प्रकार एक दूसरे को उन्नत करते हुए ( तुमलोग ) ज्ञानप्राप्ति द्वारा मोक्ष रूप परमश्रेय को प्राप्त करोगे। अथवा स्वर्गरूप परमश्रेय को ही प्राप्त करोगे।
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[व्याख्या : वैदिक सिद्धान्त के अनुसार सर्वशक्तिमान् ईश्वर एक है। उसकी यह सर्वशक्ति प्रकृति में अनेक प्रकार से व्यक्त होकर सदैव कार्य करती है। विभिन्न प्रकार से व्यक्त परिच्छिन्न शक्तियों के विभिन्न नियामक हैं उन्हें देवता कहते हैं। इन सबके नाम भी वेदों में बताये हैं जैसे अग्नि, वायु, इन्द्र आदि। स्वर्ग के देवता आधिकारिक रूप से ब्रह्मांड का संचालन करते हैं। देवतागण भगवान (ईश्वर या ब्रह्म) नहीं हैं अपितु वे भी हमारे जैसी आत्माएँ हैं। उन्हें संसार के संचालन से संबंधित दायित्वों का निर्वाहन करने हेतु पद सौंपे गये हैं। अपने देश की शासन व्यवस्था पर ध्यान दें जहाँ गृह मंत्री, वित्त मंत्री, रक्षा सचिव, अटॉर्नी जनरल और अन्य पद हैं। इन पदों पर जिन लोगों का चयन होता है, वे निश्चित समयावधि तक अपने पद पर बने रहते हैं। समयावधि समाप्त होने पर या सत्ता का हस्तान्तरण होने पर सभी पदों पर नियुक्त लोगों को हटा दिया जाता है।
वह देवता और कोई नहीं उस कर्म क्षेत्र की उत्पादन क्षमता ही होगी। जब हम किसी क्षेत्र विशेष में पूर्ण मनोयोग से परिश्रम करते हैं तब उस क्षेत्र की उत्पादन क्षमता प्रगट होकर हमें फल प्रदान करती है। यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है यदि हम समझने का प्रयत्न करें कि अपने देश को भारतमाता कहने का हमारा क्या तात्पर्य है। राष्ट्र की शक्ति को एक रूप देने में हमारा तात्पर्य उस राष्ट्र के सभी प्रकार के कर्मक्षेत्रों की उत्पादन क्षमता से ही होता है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि कहीं पर भी निर्माण की जो क्षमता अव्यक्त रूप में रहती है उसे व्यक्त करने के लिये आवश्यक है केवल मनुष्य का परिश्रम। इस अव्यक्त क्षमता को कहते हैं देव। इन देवों को यज्ञ कर्म से प्रसन्न कर उनका आह्वान किये जाने पर वे प्रगट होकर यज्ञकर्ता को फल प्रदान कर प्रसन्न करेंगे। इस प्रकार परस्पर उन्नति कर मनुष्य परम श्रेय को प्राप्त करेगा। इस सेवाधर्म का पालन प्रकृति में सर्वत्र होता दिखाई देता है। एक मात्र मनुष्य ही है जिसे स्वेच्छा से कर्म करने की स्वतन्त्रता दी गई है इस सार्वभौमिक सेवाधर्मयज्ञ भावना का पालन करने पर वह शुभफल प्राप्त करता है। परन्तु जिस सीमा तक अहंकार और स्वार्थ से प्रेरित हुआ वह कर्म करेगा उतना ही वह दुख पायेगा क्योंकि प्रकृति के सामंजस्य में वह विरोध उत्पन्न करता है।
पूर्वजन्म के संस्कारों, गुणों और पाप-पुण्यमय कर्मों के आधार पर जीवात्मा को इन पदों पर नियुक्त किया जाता है। ये पद दीर्घकाल के लिए निश्चित होते हैं और इन पदों पर आसीन लोग ब्रह्मांड के शासन का संचालन करते हैं। ये सब देवता हैं। जब हम अपने यज्ञ कर्म भगवान (अवतार वरिष्ठ) की संतुष्टि के लिए करते हैं तब स्वर्ग के देवता भी स्वतः संतुष्ट हो जाते हैं। जिस प्रकार जब हम किसी वृक्ष की जड़ को पानी देते है तब वह स्वतः उसके पुष्पों, फलों, पत्तियों शाखाओं और लताओं तक पहुँच जाता है।
[इस स्वार्थपरता को कैसे कम किया जाता है, " अन्तर्निहित दिव्यता अर्थात स्वार्थ शून्यता की ओर कैसे प्रवृत्त हुआ जाता है ?" (Unselfishness tending to hundred %) इसे समझ लेना ही सीखने योग्य वस्तु है।]
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(2)
🔆शिक्षा और नैतिकता🔆
[️Education and Ethics]
हमलोग यदि नैतिक बनना चाहते हैं, नैतिकता को यदि कोई महत्व देना चाहते हैं, तो हमें स्वयं नीतिपरयाण होना होगा। और शिक्षा को ऐसा करने में सक्षम होना चाहिए। नीति क्या है ? नैतिकता का आधार क्या है ? इस विषय में बहुत वाद-विवाद है, बहुत सारे सैद्धान्तिक मतभेद हैं। यहाँ तक कि 'Ethics' (नैतिकता का विज्ञान) काहै भी कहना है कि 'Absolute Morality' अपरिवर्तनशील नीति जैसी कोई चीज नहीं होती।
नैतिक या 'Moral' जिससे (Morality) शब्द बना है यह शब्द लैटिन भाषा के 'Mores' शब्द से निकला है; और Mores का अर्थ होता है-Customs and traditions' - यानि वह प्रथा या रीति-रिवाज जो प्रचलन में हो। तब तो जो प्रथा जहाँ प्रचलन में हो, जहाँ जैसी रीति-नीति प्रचलित हो, उसीको moral (नीति-संगत ) मान लेना पड़ेगा। क्योंकि यही चलता-चला आ रहा है।
उसी प्रकार Ethics शब्द ग्रीक भाषा के 'ethos' (इथॉस) शब्द से निकला है। Ethics का अर्थ है 'character' चरित्र या आचारण संहिता । इसी सिद्धान्त को कई देशों में - लगभग सार्वभौमिक रूप से, अलिखित सामाजिक दर्शन-तत्व के रूप में समाज में स्वीकार भी किया जाता रहा है। क्योंकि आपसी सम्बन्धों की रूढ़िगत व्यवस्थाओं में या नातों-रिश्तों के बीच व्यवहार का प्रचलित मानदण्ड है या -'behavioral standards ' है, अथवा mores या customs हैं, वे सभी देशों में एक समान नहीं होते, हमेशा एक जैसे नहीं होते।
दो हजार वर्ष पहले जो रीति-रिवाज और सामाजिक प्रथायें (सती प्रथा ,चोर का हाथ काटना। ....इत्यादि) प्रचलन में थीं,आज प्रचलित नहीं हैं। अथवा जो प्रथायें इस देश में प्रचलित हैं, वैसी प्रथाएं अन्य देशों में प्रचलित नहीं हैं। अतएव, अब हमलोगों ने यह भी मान लिया है कि सभी देशों की नीति एक जैसी नहीं हो सकती। हो सकता है कि अपने नातों-रिश्तों के बीच प्रचलित व्यवहार के जिस मानदण्ड को हमलोग अपने देश में moral या नीति संगत व्यवहार समझते हैं, अन्य किसी देश में उसी व्यवहार को नीतिविरुद्ध समझा जाता हो। इसी प्रकार हो सकता है कि जिस व्यवहार को (जैसे मौसेरी बहन से विवाह करने को) हमलोग अपने देश में बिल्कुल अनैतिक (unethical) समझते हैं; उसी व्यवहार को अन्य किसी देश में अनैतिक (immoral) -नहीं समझा जाता हो ! इस आधार पर नैतिकता का कोई एक सामान्य मानदण्ड होना सम्भव नहीं है।
(3)
नैतिकता की परिभाषा
[Definition of Morality]
जो कुछ स्वार्थ द्वारा प्रेरित है वह नैतिक नहीं है। और जो कुछ निःस्वार्थ होकर या परहित को ध्यान में रख कर किया जाय वही है नैतिक। जो शिक्षा हमें यह बात नहीं सिखा सके, उसे क्या शिक्षा कह सकते हैं ? क्योंकि, जो शिक्षा हमलोगों को 'नीतिपरायण' (स्वार्थहीन) न बना सके, जो नीति के प्रति हमारी आस्था को दृढ़ न कर सके, क्या वह कभी सच्ची शिक्षा हो सकती है ? कदापि नहीं , क्योंकि वह तो शिक्षा है ही नहीं।
क्योंकि शिक्षा ह्रदय को एक प्रेरक- बल (driving force) प्रदान कर, विवेक-सम्मत बनाती है। शिक्षा का कार्य भी तो यही है न ? शिक्षा हमारे चलने , बोलने, व्यवहार करने, समस्त हावभाव को एक विशेष दिशा में ले जाएगी। एक सही दिशा निर्धारित कर देगी। हम किस दिशा में जायेंगे, इसका विवेक-सम्मत निर्णय हमें स्वयं लेना होगा। क्या हम मनुष्य शरीर पाकर भी यह सोच सकते हैं कि, हम चाहे किसी भी दिशा (स्वार्थपर या निःस्वार्थपर दिशा) में जा सकते हैं, या जो कुछ भी कर सकते हैं ? मनुष्य के व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक , राष्ट्रीय , अन्तर्राष्ट्रीय, दैनंदिन जीवन के प्रत्येक क्षण में उसके विचारों , कथनों एवं कर्मों को- शिक्षा एक विशेष दिशा में- विवेक-सम्मत दिशा में परिचालित करेगी, या दिशा-निर्धारण करने में उसकी सहायता करेगी। जो वस्तु ऐसा करने में सक्षम है , उसको ही तो यथार्थ शिक्षा कहते हैं।
(4)
🔆सामाज के उपर नैतिकता का प्रभाव🔆
[The effect of morality on society]
हमलोगों को वही शिक्षा प्राप्त करने की चेष्टा करनी होगी जो हमें अपने पैरों पर खड़े होना सिखा सके, जो हमारी समस्त शक्तियों - शारीरिक, बौद्धिक, आत्मिक [3H -Hand, Head & Heart] को उचित तरीके से उपयोग करना सिखा सके। इसका अर्थ यह हुआ कि शिक्षा हम लोगों को सही और गलत की पहचान करना भी सिखायेगी ! क्या सही है इसको कैसे समझेंगे ? जो नीतिसम्मत हो उसे सही कहेंगे, और जो नीतिविरुद्ध हो हो उसे गलत कहेंगे। ठीक वही है जो नैतिकता की दृष्टि से सही है। तो फिर नैतिकता की दृष्टि से ठीक क्या है? जिसके भीतर कोई निजी स्वार्थ न जुड़ा हुआ नहीं है, वही सही है। क्योंकि, यदि मैं अपने
निजी स्वार्थों से जुड़ा रहूँगा, तो मैं देश, समाज और (परिवार) से अलग हो जाऊँगा।
मैं जब समाज में रह रहा हूँ, तो मुझे सभी लोगों के साथ मिल-जुल कर रहना ही होगा। लेकिन वहाँ मैं यदि केवल अपना ही स्वार्थ देखता रहूं, और प्रत्येक व्यक्ति केवल अपना ही स्वार्थ देखने लगे तो एक-दूसरे के बीच निरंतर प्रतिद्वंद्विता चलेगी, आपस में टकराव होता रहेगा। यदि हमलोग अपने मन में निरंतर यही सोचते रहें कि -कौन किसको हरा सकता है , कौन किसको वंचित कर सकता है, कौन किसका शोषण कर सकता है ? मन में जैसा सोचेंगे , उसी प्रकार के अभ्यास को भी प्रश्रय देते रहेंगे, तो बाद में वे आदतें ही हमारे स्वभाव में परिणत हो जायेंगी। और जब बुरी आदतें ही हमारे स्वभाव/चरित्र में परिणत हो जाएँगी तो हम वही कार्य और अधिक करते चले जायेंगे, जिसके परिणाम स्वरुप हमारा सम्पूर्ण सामाजिक जीवन संकटापन्न हो जायेगा।
क्योंकि हमलोगों ने अभी तक उपयुक्त शिक्षा प्राप्त करने की चेष्टा नहीं की है, इसी कारण आज का सामाजिक-जीवन इतना संकटग्रस्त हो गया है। यदि हमलोग उपयुक्त शिक्षा प्राप्त करने की अनिवार्यता को समझ गए तो यह एक बहुत बड़ा लाभ होगा। सबसे पहले हमलोगों को यह- समझना होगा कि - 'ऊँची डिग्री रहने या न रहने के बावजूद' - हमें उपयुक्त तरीके से (3H विकास के 5 अभ्यास) में प्रशिक्षित होने की आवश्यकता है। हमें नैतिक रूप से सबल होने की आवश्यकता है।
इसीलिये स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " हमारी आत्मा में जब प्रत्यक्षानुभूति आरम्भ होगी, तभी धर्म का प्रारम्भ होगा। तभी तुम धार्मिक होंगे एवम तभी नैतिक जीवन का भी प्रारम्भ होगा। इस समय हम पशुओं की अपेक्षा कोई अधिक नीतिपरायण नहीं हैं। केवल समाज के अनुशासन के भय से हम कुछ गड़बड़ नहीं करते। यदि समाज आज कह दे कि चोरी करने से अब दण्ड नहीं मिलेगा, तो हम इसी समय दूसरे की सम्पत्ति लूटने को दौड़ पड़ेंगे। पुलिस ही हमें सच्चरित्र बनाती है। सामाजिक प्रतिष्ठा के लोप होने की आशंका ही हमें नीतिपरायण बनाती है, और वस्तु-स्थिति तो यह है कि हम पशुओं से कुछ ही अधिक उन्नत हैं।" (अपरोक्षानुभूति- २/१६८)
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शिक्षा और चरित्र
[education and character]
अतः उचित ढंग से शिक्षित होने को कई दृष्टिकोण से देखा जा सकता है। हमलोग नीतिसंगत कार्य कर पा रहे हैं या नहीं, हम कुछ उच्च भावों (आत्मश्रद्धा, भयशून्यता, निःस्वार्थपरता, त्याग और सेवा ) को सही रूप में आत्मसात कर पा रहे हैं या नहीं, उन्हें अपना स्वभावगत गुण बना पा रहे हैं या नहीं? हमें यह समझने की जरूरत है कि हमारे भीतर जो दैहिक, मानसिक और अंदर (ह्रदय) की शक्ति विद्यमान है, उन्हें ठीक तरिके से उपयोग करने की विद्या-बुद्धि हमलोग अर्जित कर पा रहे हैं या नहीं ? हमें यह देखना होगा कि हमारे भीतर जो पूर्णता (divinity-निःस्वार्थपरता) विद्यमान है, अपने अंतर्निहित ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त करने की जो सम्भावना अभी सुप्त है, उसको हम लोग अभिव्यक्त कर पा रहे हैं या नहीं। ऐसा करने को ही उपयुक्त शिक्षा कहते हैं।
इस उपयुक्त शिक्षा को प्राप्त करने से हमारे भीतर जो क्रन्तिकारी परिवर्तन घटित होता है,
हमलोगों को जो एक नयी आकृति प्राप्त होती है ( यहाँ आकृति का अर्थ शरीर की बनावट में परिवर्तन से नहीं है।) बल्कि हमारे मन का नए प्रकार से जो गठन होता है -(हमलोग देहाध्यास या भेंड़त्व के भ्रम से मुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड हो जाते हैं।) और मन का वही नवीन गठन हमलोगों के समस्त विचारों और कार्यों को प्रेरित करेगा और लक्ष्य की दिशा में हमें आगे ले जायेगा। इसी प्रेरक शक्ति का ही नाम चरित्र है। उपयुक्त शिक्षा ही हमलोगों के चरित्र निर्माण में सहायता करती है।
(6)
शिक्षा की सबसे पहली बात है - 'मन'
[The First thing in education is 'Mind']
और चरित्र-निर्माण में जो शिक्षा सहायक होगी, उसे अर्जित के पीछे जो सबसे प्रमुख वस्तु होगी - वह है उन्नत विचार या सही सोच । यदि हम वैसा नहीं सोच सकें, जैसा हमें सोचना चाहिए, तो, उन विचारों से कुछ भी प्राप्त न होगा। इसलिए हमें मन की ओर बहुत अच्छे से ध्यान देना होगा।
यदि हम अपने मन को नियंत्रित नहीं कर सकें, मन को अपने वश में नहीं कर सकें , तो हमलोग अपने विचारों को प्रयोजनीय कार्यक्षेत्र में प्रवाहित नहीं कर पाएंगे। और हमारे विचार यदि अभिलषित कार्यक्षेत्र में प्रवाहित नहीं होंगे, तो हमारे सभी कार्य उचित दिशा में या नैतिक दिशा में सम्पादित नहीं होंगे। नैतिक दिशा में प्रवाहित नहीं होने का अर्थ यह हुआ कि स्वार्थ की ओर जायेंगे। और परार्थ, या 'दूसरों के लिए जीने का सिद्धान्त' - परोपकारिता (altruism) का पालन नहीं करने से हमारा सामाजिक जीवन संकटग्रस्त हो जायेगा। इसलिए हमें मन उठने वाले उचित या सत विचारों को बहुत अधिक महत्व देना होगा। और इसके लिए हमें स्वयं को शिक्षित करने की चेष्टा- '3H का विकास करने के लिए महामण्डल द्वारा निर्देशित 5 अभ्यास' # का नियमपूर्वक पालन करना होगा।
[# 5 daily exercises for the coordinated development of '3H' (Hand, Head and Heart: शरीर, मन और हृदय (3H) के समन्वित विकास के लिए 5 दैनिक अभ्यास: १) सभी के लिए मंगलकामना की प्रार्थना , २) शारीरिक व्यायाम, ३) मनःसंयोग का अभ्यास, ४) संकल्प -सूत्र का पाठ ५) स्वाध्याय ]
यदि हमने इस प्रकार विवेक-प्रयोग करने प्रशिक्षण लिया है, अर्थात सद्सद्विवेक-(conscience- अन्तरात्मा की आवाज के प्रति निरन्तर जागरूक रहने की शिक्षा (प्रशिक्षण) प्राप्त करके, बारम्बार अभ्यास हुए क्रमशः चरित्र गठन करते रहेंगे, तब उसके बाद ही हम समझ पाएंगे कि हमलोगों का कर्तव्य क्या है।
स्वामी जी कहते हैं-" पहले हमें गुरुगृहवास और उस जैसी अन्य शिक्षाप्रणालियों को पुनर्जीवित करना होगा। आज हमें आवश्यकता है वेदान्तयुक्त पाश्चात्य विज्ञान की। ब्रह्मचर्य के आदर्श, और श्रद्धा तथा आत्मविश्वास की। दूसरी बात जिसकी आवश्यकता है, वह है उस शिक्षा का निर्मूलन जो मार मारकर गधों को घोड़ा बनाना चाहती है। "
" मेरा विश्वास है कि गुरु के साक्षात् सम्पर्क में रहते हुए, गुरुगृह में निवास करने से ही यथार्थ शिक्षा की प्राप्ति होती है। गुरु से साक्षात् सम्पर्क हुए बिना किसी प्रकार की शिक्षा नहीं हो सकती। हमारे वर्तमान विश्वविद्यालय परीक्षा लेने वाली संस्थायें मात्र हैं। साधारण जनता की जागृति और उसके कल्याण के लिये स्वार्थ-त्याग की मनोवृत्ति का हममें थोड़ा भी विकास नहीं हुआ है। "
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अधिकार और कर्तव्य
[Rights and Duties]
हमलोग अधिकार पाने के लिए अक्सर चीत्कार करते हैं - 'हमारी माँगे पूरी करो !' किन्तु कर्तव्यबोध के लिए तो कभी चीत्कार नहीं करते। लेकिन यदि हम कर्तव्य के प्रति जागरूक नहीं रहें, तो हमें अधिकार कभी प्राप्त नहीं होगा। इस बात की धारणा हमें होनी चाहिए।जब हमलोग सही तरीके से अपने कर्तव्यों का पालन करने लगेंगे, तब हमें अपना उचित अधिकार भी प्राप्त हो जायेगा। यदि हमलोग हमेशा अपने अधिकार के विषय में ही चर्चा करते रहें, और कर्तव्य करना छोड़ दें तो अधिकार कभी प्राप्त नहीं होगा। आखिर अधिकारों की उत्पत्ति होती कहाँ से है ? हमारे कर्तव्यों के द्वारा ही तो अधिकार की उत्पत्ति होती है। हमलोग यदि अपने -अपने कर्तव्यों का पालन ही न करें, तो हमारा कोई अधिकार भी नहीं रहेगा। हमारा अधिकार आखिर होगा किस चीज पर ? हमारे कर्तव्य पालन करने से जो वस्तुएं उत्पन्न होंगी या निर्मित होंगी उनका ही तो व्यवहार किया जा सकता है।
बाह्य जगत में जैसे कुछ उपयोगी सम्पत्तियां होती हैं, उसी प्रकार मानसिक -जगत में भी हैं। अपने मानसिक जगत के प्रति जो हमारे कर्तव्य हैं, norms या आदर्श मानदण्ड हैं, जो आचारनीति (ethics), जैसे उन्नत विचार, उचित उपाय, दूसरों के कल्याण की भावना, सभी जीवों के कल्याण का विचार, निरंतर सर्वमंगल की प्रार्थना करते रहने से जिन मानसिक मान्यताओं (Values-प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है जैसी मान्यता) की उत्पत्ति होती है, उसीका सामाजिक और मानवीय-मूल्य होता है।
(8)
कर्तव्य और मान्यतायें
[Duties and values ]
मानवीय या सामाजिक कल्याण की भावना मनुष्य के मन से उत्पन्न होते हैं। मनुष्य के मन में उपजे सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना को, हम अपने कर्तव्यों के द्वारा ही समाज में स्थापित कर सकते हैं। अतएव दूसरों के कल्याण के लिए सोचना हमारा पहला कर्तव्य है। दूसरों की जरूरतों का ध्यान रखना, दूसरों को सुख पहुँचाना, दूसरों की बाधाओं को दूर हटा देना , ये सभी बहुत उत्कृष्ट कर्तव्य हैं ! इन्हीं कर्तव्यों का पालन करने से हमारे भीतर विभिन्न विषयों के मुलयबोध जाग्रत हो जाते हैं , और जो शिक्षा इन्हें जाग्रत कर सके, इसी शिक्षा को ग्रहण करने की विशेष आवश्यकता है। हमारे चरित्र का निर्माण इन्हीं प्रक्रियाओं से हो जाता है। इस शिक्षा को ग्रहण करने से ही हम अपने सामाजिक उत्तरदायित्व के प्रति सजग मनुष्य बनते हैं।
यदि हम अपने समाज को उन्नत करने के प्रति जागरूक नहीं हैं, तो हम अपना अधिकार माँगने किसके पास जायेंगे ? हमलोग जिस समाज के पास अपना अधिकार माँगने जायेंगे, अगर उस समाज के पास कोई पूँजी ही नहीं होगी तो वह अधिकार हमें कहाँ से प्राप्त होगा? लेकिन वह सामाजिक पूँजी केवल रूपये -पैसों से ही नहीं बनती, भाव-जगत की पूँजी सामाजिक-जीवन के लिए अपरिहार्य है। यदि समाज के पास मानवीय जीवनमूल्यों की पूँजी ही नहीं होगी, अधिकार मिलेगा कहाँ से ? यदि हमारे बचत-खाते में कुछ जमा ही न हो तो रुपया कौन देगा ? यदि समाज में मूल्यबोध स्थापित ही न हों , यदि समाज में एकदूसरे के प्रति सहानुभूति नहीं होगी , एक- दूसरे के कल्याण के लिए अपने उत्तरदायित्व का बोध ही नहीं होगा , तो मेरे अधिकार की पूर्ति कौन करेगा ? जो मेरे अधिकार की पूर्ति करेगा , वह तो मैं स्वयं हूँ। इस लिहाज से अधिकार की पूर्ति समाज करेगा , किन्तु मैं तो खुद ही समाज का एक हिस्सा हूँ।
समाज मेरे अधिकारों की पूर्ति कहाँ से करेगा ? समाज उतनी पूँजी पायेगा कहाँ से ? मैं स्वयं भी तो समाज का ही अंश हूँ। अगर मैं अपने कर्तव्यों का निर्वहन नहीं करूँगा तो समाज मेरे अधिकारों की पूर्ति कहाँ से करेगा ? यह संभव नहीं है। यदि समाज के सभी लोग मिलकर एक प्रस्ताव पारित कर दें कि 'एक दूध का तालाब बनेगा।' और सभी यह सोचने लगें कि "दूसरे सभी लोग तो उसमें दूध डाल ही रहे हैं, यदि मैं उसमें एक लोटा पानी डाल दूँ, तो उससे क्या हानि होगी ? ऐसा करने से वह तालाब दूध का नहीं बनता, पानी का ही तालाब बन जाता है। दूध का तालाब बनाने का संकल्प लेकर भी, यदि सभी लोग उसमें पानी डालने लगें, तो क्या मुझे उस तालाब से दूध प्राप्त होगा ? नहीं, दूध कभी प्राप्त नहीं होगा।
समाज के प्रति प्रत्येक व्यक्ति का जो कर्तव्य है, उसका क्रियान्वन भी प्रत्येक व्यक्ति को ही करना होगा। तभी तो बाद में हमलोगों का कुछ अधिकार उत्पन्न हो सकता है। अर्थात यदि पहले मैंने समाज के विकास और प्रगति में अपना योगदान दिया है, तभी आवश्यकता पड़ने पर मैं कुछ प्राप्त भी कर सकता हूँ।
यदि भारत माता की संतान होने के नाते, इस देश का नागरिक होने के नाते मैं कुछ अधिकार पाना चाहता हूँ, तो उसके लिए जो मेरा कर्तव्य है , दूध का तालाब बनाने केलिए - 'एक लोटा दूध डालने' का मेरा जो कर्तव्य था; उसका पालन भी तो मुझे ही करना होगा। अपने कर्तव्य का पालन किये बिना मैं कभी अधिकार का दावा नहीं कर सकता। क्योंकि वैसा होना सम्भव नहीं है। इस तथ्य को सीख लेना हम सबों के लिए अत्यन्त आवश्यक है। हमारे हमारे चरित्र में कर्तव्यपरायणता का गुण नहीं है, तो कहना पड़ेगा कि हमलोगों का चरित्र अभी गठित ही नहीं हुआ है। हमें अपने कर्तव्य के प्रति पर्याप्त रूप से जागरूक होना होगा। अपने समाज और राष्ट्र के प्रति हमलोगों का जो उत्तरदायित्व है, उसकी उपेक्षा कर देने से हमारा काम नहीं चलेगा, इसके लिए हमें अपना चरित्र भी गठित करना ही होगा। क्योंकि, हमलोगों का समाज या राष्ट्र किस उपादान से निर्मित हुआ है ? उसमें रहने वाले मनुष्यों से , अर्थात हमलोगों से। हममें से प्रत्येक व्यक्ति को मिलाकर ही हमारा यह समाज और राष्ट्र निर्मित हुआ है।
यदि हमारा लक्ष्य समाज का कल्याण करना हो, यदि 'एक भारत श्रेष्ठ भारत' का निर्माण करने, अपने देश को महान बना देने को यदि हम अपना उत्तरदायित्व समझते हों, तो हममें से प्रत्येक को व्यक्ति को अच्छा मनुष्य बनना होगा, मनुष्य के रूप में स्वयं को गढ़ना होगा। सही रूप में शिक्षित होना होगा, सद्गुणों को अर्जित करके चरित्रवान होना होगा और 'मनुष्य' (जीवनमुक्त शिक्षक या नेता) कहलाने योग्य मनुष्य बन जाना होगा। इस सीधी सी बात को समझ कर, आत्मसात कर इसकी धारणा बना लेनी होगी। अपने देश के लिए आज यही करना सर्वाधिक प्रयोजनीय है।
इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने कहा था -"अपने देश के विकास और प्रगति में अपना योगदान करना भारत के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है। क्या विश्व के इतिहास में तुम्हें 'पैगम्बरों' की शक्ति के स्रोत का पता नहीं चला ? यह शक्ति उन्हें कैसे प्राप्त हुई ? बुद्धि से ? उनमें से क्या कोई दर्शन सम्बन्धी सुंदर पुस्तक लिख कर छोड़ गया है? अथवा न्याय-दर्शन के कूट विचार के ऊपर कोई पुस्तक लिख गया है ? नहीं, किसी ने ऐसा नहीं किया। वे केवल थोड़ी सी बातें कह गये हैं। ईसा के समान सहृदय बनो, तुम भी ईसा हो जाओगे; बुद्ध के समान सहृदय बनो, तुम भी बुद्ध बन जाओगे। " ८/१८]
(9)
सामाजिक उत्तरदायित्व में नेतृत्व की अवधारणा
[ Concept of Leadership in Social Responsibility]
समाज के हर वर्ग को इन्हीं विचारों से भावित होना होगा। सभी लोग यदि इस भाव से भावित नहीं हों, और जिसका जितना कर्तव्य निर्धारित है, वह यदि उसका पालन नहीं करे, तो -
'एक भारत श्रेष्ठ भारत' का निर्माण जैसी इतनी बड़ी परियोजना को धरातल पर कैसे रूपायित किया जा सकता है ? किसी एक व्यक्ति की चेष्टा से तो सम्भव नहीं हो सकेगा। महामण्डल का उद्देश्य है- 'भारत का कल्याण!' अपने राष्ट्र का कल्याण, समाज का भला, अपने समस्त देशवासियों का मंगल और उनका कल्याण।
हममें से कई लोग भारत का कल्याण करने के लिए, तुरन्त (बंगाल से बाहर के) अन्य राज्यों की ओर दौड़ पड़ना चाहते हैं। किन्तु यह नहीं सोचते कि कहाँ जा रहे हैं? किसका कल्याण कर रहे हैं ? और किस उपाय से कल्याण कर रहे हैं ? हो सकता है कि समाजसेवा के नाम पर अन्नहीन को अन्नदान कर रहे हैं , वस्त्रहीन को वस्त्र दे रहे हैं, तूफानी महाचक्रवात, या बाढ़ और भूकम्प में जो लोग क्षतिग्रस्त हुए हैं , उनको विभन्न प्रकार से सहायता पहुँचा रहे हैं , अस्पताल जाकर मरीजों को दवा या फल वितरण कर रहे हैं, अनपढ़ लोगों को थोड़ा शिक्षित करने की चेष्टा कर रहे हैं, जो लोग बेघर हो गए हैं , उनके लिए घर बना देने की चेष्टा कर रहे हैं। ये समस्त कार्य निःसन्देह बहुत अच्छे कार्य हैं। किन्तु ये सभी कार्य आरम्भिक स्तर के कार्य हैं। थोड़ा निम्न स्तर की समाज सेवा है।
लेकिन समाज को इससे भी ऊँचे स्तर पर सहायता करने की आवश्यकता है। उससे भी ऊँचे दर्जे की और अधिक महत्व-पूर्ण सेवा है, मनुष्य को उच्च भाव प्रदान करना, उसके मन को उन्नत विचारों से भर देना। जो लोग वैचारिक-स्तर पर बिल्कुल दरिद्र हैं उनको उत्कृष्ट विचारों द्वारा समृद्ध करना। (जीवन को पूर्णता प्रदान करने वाले चार महावाक्यों से जो बिल्कुल अनभिज्ञ हैं), उनको उत्कृष्ट विचारों (गीता-उपनिषद) द्वारा समृद्ध कर देना। इस उच्च-स्तरीय समाज सेवा की आवश्यकता सबसे अधिक है। उदाहरणार्थ, जिस मनुष्य को दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं होती, जिसके भीतर ज्ञान का प्रकाश नहीं है, बुद्धि नहीं है, या अनपढ़ है, उसे यह सब प्रदान करना बहुत अच्छे कार्य हैं। किन्तु ये सब प्राथमिक स्तर की समाज सेवा है, इससे भी ऊँचे स्तर की समाजसेवा है उनको सद्बुद्धि (आत्मश्रद्धा) प्रदान करना। अर्थात 'Be and Make' वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में 3H विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण देकर उनकी आत्मश्रद्धा के भाव को जागृत कर देना।
लेकिन इससे भी उच्चतर श्रेणी की समाज सेवा है, किन्तु हम अभी उतनी दूर नहीं जा रहे हैं। क्योंकि यह कार्य थोड़ा और अधिक कठिन है। वह है मनुष्य के आध्यात्मिक दृष्टि को उन्नत करना, उसके आध्यात्मिक पहलु (spiritual aspect) को विकसित करने में सहायता प्रदान करना। उनके धर्मबोध को उन्नत करना- धर्म किसे कहते हैं; यह समझने में उनकी सहायता करना।
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अर्थात मन-वचन और कर्म में एकरूपता को प्रतिष्ठित करने में सहायता प्रदान करना, उच्चतर श्रेणी की समाज सेवा है। आध्यात्मिक शिक्षक जीवनमुक्त शिक्षक, बनने और बनाने का प्रशिक्षक बन जाना अत्यंत कठिन कार्य है। इसलिए इस कार्य को करने के लिए दौड़ पड़ने से पहले अपने जीवन को एक आध्यात्मिक आचार्य, 'नेता' (भगवान विष्णु का एक नाम- Leader) के रूप में गठित करना होगा। अर्थात मन-वचन और कर्म में एकरूपता को प्रतिष्ठित करना अनिवार्य होगा -
मनस्य एकं वचस्य एकं कर्मणि एकं महात्मनाम् ।
मनस्यान्यत् वचस्यान्यत् कर्मण्यन्यत् दुरात्मनाम्॥
अर्थात महात्मा और दुरात्मा में यही अन्तर है, मनमे जो विचार होता है जो वही बोलते हैं और वही करते हैं, वही महात्मा होते हैं तथा उसके विपरीत, जिनके मन मे कुछ और होता है, बोलते कुछ और करते कुछ और ही हैं, वही दुरात्मा कहने योग्य होते हैं।
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(10)
धर्मबोध और आध्यत्मिकता
[Religion and Spirituality]
'धर्मबोध' के विचार को थोड़ा-बहुत अवश्य समझा जा सकता है। धर्मबोध का अर्थ ही होता है -'कर्तव्यबोध। ' धर्म के जिस प्राथमिक अर्थ (Primary meaning) को समझना विशेष रूप से आवश्यक है, और वह है- कर्तव्यपरायणता। हम लोगों का धर्म क्या है? मनुष्य का धर्म क्या है? हमारा धर्म है - अपने कर्तव्य के प्रति जागरूक हो जाना, यही प्रथम पुरुषार्थ भी है। और उस प्राथमिक स्तर के धर्म से ऊपर के स्तर का जो धर्म है - वह है मनुष्यों की आध्यात्मिक दृष्टि को खोल देना। उनके हृदय की अनुभव-शक्ति को एक ऐसे उत्कृष्ट स्तर तक उठा देना, जहाँ पहुँचकर वह सम्पूर्ण मानवता के साथ एकत्व की अनुभूति, करने में समर्थ हो जायें। (अर्थात अनेकता में एकता की अनुभूति,`कोई पराया नहीं सभी अपने हैं की अनुभूति' करने में वह में समर्थ हो जाये'।) मनुष्य को आध्यात्मिक सम्पदा से या उसकी अंतर्निहित दिव्यता (Inherent Divinity) से समृद्ध करने का कार्य कोई आध्यात्मिक आचार्य, जीवनमुक्त शिक्षक या 'नेता' ही कर सकता है। यदि हमलोग यह दान, ब्रह्मविद्या का दान रूपी समाज-सेवा करने योग्य 'मनुष्य' बन सकें, तो यही सर्वोत्कृष्ट स्तर की समाज सेवा होगी। अतएव श्रेष्ठतर स्तर की समाजसेवा करने के लिए जनसाधारण में, विशेष रूप से युवाओं के मन में सकारात्मक सोच, रचनात्मक विचारों, स्फूर्तिदायी विचारों (गीता - उपनिषदों के महावाक्यों) को भर देना सबसे आवश्यक है। और उसके नीचे है प्राणों को धारण करने के लिए जो तत्काल पूरी की जाने वाली आवश्यकता है
(जैसे भोजन-वस्त्र -आवास आदि)उसको पूर्ण करने की चेष्टा करना। इस बात में कोई शक नहीं कि यह भी नितान्त आवश्यक है। क्योंकि, जब मनुष्य जीवित ही नहीं रह पायेगा, तो वह वह विवेक, बुद्धि और सहृदयता को लेकर करेगा क्या ? शरीर ही न रहे तो, वह भला आत्मा (अंतर्निहित ब्रह्मत्व) का विकास किस आधार में करेगा ? जो व्यक्ति आत्मा की शक्ति को विकसित करेगा, जो आध्यात्मिक दृष्टिकोण में उन्नत होगा,जगत को ब्रह्ममय देखकर उसकी सेवा करने की चेष्टा करेगा, वह किस साधन को लेकर वैसा करेगा ? आध्यात्मिक चेतना को वह जागृत किस आधार में करेगा ? आध्यात्मिकता को प्रस्फुटित करने के लिये उसका कोई आधार तो होना ही चाहिए। कोई ऐसा उपकरण तो चाहिए ही जिसके माध्यम से मनुष्य अपनी आध्यात्मिकता को अभिव्यक्त करने की चेष्टा करेगा ! वह आधार ही है मनुष्य की देह। इसीलिये इस शरीर की रक्षा करनी होगी। पौष्टिक आहार और नियमित व्यायाम के द्वारा शरीर को स्वस्थ बनाये रखना होगा। इसीलिए (कुमारसम्भवम् -५.३३) में कहा गया है -"शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम् ।" -क्योंकि हमलोग (चार पुरुषार्थ) – धर्म,अर्थ, काम और मोक्ष – की सिद्धि के लिए जो कुछ भी कार्य करेंगे - वह शरीर के माध्यम से ही तो करेंगे। अतः इस अनमोल शरीर की रक्षा करना, और इसे निरोगी रखना मनुष्य का प्रथम कर्तव्य है। लेकिन हमलोग शरीर नहीं हैं, शरीर तो हमारा यंत्र है। शरीर और शरीरी अलग हैं, जिस शिक्षा से ( सांख्ययोग या उपनिषद आदि से) हमें ऐसा दृष्टिकोण प्राप्त होता है, उसी को यथार्थ -शिक्षा कहते हैं।
अर्थात हमलोगों को यह समझना पड़ेगा कि वास्तव में हम कौन हैं, और हमारे प्रमुख अवयव क्या हैं? हमें अपने तीनों उपादानों का ('3H' -Head, Hand and Heart का) विश्लेषण कर उन्हें भली-भाँति जान लेना होगा। हमलोगों को उसका मूल्य समझना होगा , उसके विभिन्न हिस्सों के मूल्य को समझना पड़ेगा। क्यों समझना पड़ेगा? इसीलिये समझना होगा कि जिन विभिन्न अवयवों के द्वारा हमलोग निर्मित हुए हैं, उसका ठीक ठीक मूल्य और प्रकृति (गुण) जान लेने के बाद ही हम उनका सदु-पयोग और सदव्यवहार करने में सक्षम हो सकेंगे। हमारे पास जो बहुमूल्य संसाधन हैं, जो हमारे प्रमुख अवयव हैं, उनका यदि हम सदुपयोग नहीं करें तो वे काम करने के लायक ही नहीं रहेंगे , निरर्थक हो जायेंगे, अप्रभावी हो जायेंगे। इसीलिये हमलोग वास्तव में क्या हैं ? हम कौन हैं, हमारा यथार्थ स्वरुप क्या है - इन बातों को अच्छी तरह से जान लेना चाहिये।
अपने को देखने के लिए, जब हम दर्पण के सामने खड़े होते हैं , तो सबसे पहले शरीर दीखता है। कोई संदेह नहीं कि मेरा एक शरीर है। किन्तु, केवल इस स्थूल देह (नाम-रूप) के बारे में जान लेने के बाद ही यदि हमलोग रुक जाएँ तो इसके भीतर जो अन्य बहुमूल्य संसाधन (Resources) हैं, वे सब अप्रयुक्त और बेकार ही पड़े रह जायेंगे। हमलोगों स्थूल -परिवर्तनशील शरीर के भीतर एक सूक्ष्म शरीर या मन है, बुद्धि है, उसके और भी भीतर हमारी अपरिवर्तनशील
आत्मा है। उन सबका यदि सदुपयोग नहीं हुआ, उनका सदव्यवहार नहीं हुआ, तो वे सब व्यर्थ में नष्ट हो जाएगी। इसका तात्पर्य यह निकला कि हमारे पास जो बहुमूल्य संसाधन थे, उसका हम लाभ नहीं उठा सके और वे व्यर्थ में नष्ट हो गयीं।
किन्तु यह जो हमारी बुद्धि है, या हमारा जो विचार-जगत , मनोजगत या सूक्ष्म शरीर है -उसका भी आधार हमलोगों का यह स्थूल शरीर (अन्नमय कोश) ही है। और हमलोगों जिस आत्मा की बात कर रहे हैं, या जिस आध्यात्मिक दृष्टि का दान, आदि करने की बात कर रहे हैं,उसकी आवश्यकता केवल एकत्व (Oneness) की अनुभूति, अनेकता में एकता की अनुभूति या "कोई पराया नहीं हैं, सभी अपने हैं" --इस 'परम् सत्य' की अनुभूति को समझाने के लिए ही हो रही है।
हमलोग समाज-सेवा क्यों करेंगे ? हम अन्य दूसरे लोगों की की दुःख-दुर्दशा को दूर करने की चेष्टा क्यों करेंगे ? हमलोग क्यों कहेंगे -'सर्वे भवन्तु सुखिनः', हमलोग क्यों कहेंगे- वसुधैव कुटुम्बकम् ?" हमलोग यह क्यों चाहेंगे कि हमारे देश का मंगल हो, भारत का कल्याण हो? इसी लिये चाहेंगे कि, अनेक नाम-रूपों में दिखलाई पड़ने पर भी- हम सभी मनुष्य अलग-अलग नहीं हैं, हमारी 'सत्ता ' या आत्मा एक ही है।
और यही दृष्टि, सम्पूर्ण जगत को एकात्मभाव से देखने वाली- 'ज्ञानमयी दृष्टि' ही एक-मात्र ऐसी दृष्टि है, जो प्रतियोगी (competitive) बुद्धि (ईर्ष्या-द्वेष आदि) के कारण, हमारे भीतर प्रतिस्पर्धी तरीके से अपने -अपने स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए जो अनैतिक प्रवृत्ति उत्पन्न होती है, उससे हमारी रक्षा कर सकता है। अतएव, हमलोग यदि नीतिसंगत तरीके से व्यक्ति (व्यष्टि) और राष्ट्र (समष्टि) का कल्याण करना चाहते हों, तो हमें कुछ मात्रा में ही सही, लेकिन अपनी आध्यात्मिक दृष्टि को जागृत करने की आवश्यकता है। (दृष्टि को ज्ञानमयी बनाकर जगत को ब्रह्ममय देखने वाली दृष्टि, या जगत को सियाराममय देखने वाली दृष्टि को जागृत करने की आवश्यकता है ।) लेकिन, इसका अर्थ यह नहीं है कि हमें केवल 'तथाकथित धर्मों' (branded religions-छाप-तिलक या टोपी-दाढ़ी से धार्मिक होने की पहचान वाले धर्मों) को बहुत अधिक बढ़ाते जाना होगा। अथवा बहुत से मन्दिर, अनेकों गिरजाघर या बहुत सारे मस्जिदों का निर्माण कर देने से ही मनुष्यों की वह आध्यात्मिक दृष्टि जागृत नहीं हो जाएगी। मन्दिर, मस्जिद, गिरजा आदि उपासना-गृहों की आवश्यकता अन्य कारणों से होती है। किन्तु इस अध्यात्मिक दृष्टि को जागृत करने की आवश्यकता सभी मनुष्यों के लिये है।
क्योंकि यह आध्यात्मिक दृष्टि (ज्ञानमयी दृष्टि) ही हम लोगों के एकात्म-बोध (Oneness) को जाग्रत करती है। श्री श्री माँ सारदा देवी जैसी संवेदना, कि 'इस जगत में कोई पराया नहीं, सभी अपने हैं ' साधारण मनुष्य के भीतर, ऐसी करुणा -आध्यात्मिक दृष्टि के जागृत हुए बिना उत्पन्न ही नहीं हो सकती। थोपी हुई सहानुभूति या दूसरों के कल्याण की चिंता अधिक प्रभावकारी नहीं होती, पराया समझकर की गयी समाजसेवा दीर्घस्थायी नहीं होती, और अंततोगत्वा व्यक्तिगत स्वार्थ को भोग करने की दिशा, पशुत्व की दिशा में नीचे की ओर उतरते हुए घोरस्वार्थपरता में परिणत हो जाती है।
आध्यात्मिक दृष्टि जागरण का सूत्र देते भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - "मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव। (गीता 7.7) " : जिस प्रकार विभिन्न नाम-रूप तथा सुगंध वाले नश्वर फूलों को एक सूत्र में पिरो कर एक ऐसे माला का रूप दे दिया जाता है, कि फूलों के मुरझा कर झड़ जाने के बाद भी उसकी सत्ता या भीतर में पिरोया हुआ सूत बचा रहता है। आचार्य शंकर कहते हैं -`दृष्टिं ज्ञानमयी कृत्वा पश्येद ब्रह्ममयं जगत ।' ज्ञानमयी दृष्टि या दिव्यदृष्टि से जगत ही ब्रह्म है, देखने को कहते हैं ! इस दृष्टि से- देखने में सभी मनुष्य विभिन्न नाम-रूप वाले होने पर भी सत्ता या आत्मा की दृष्टि से एक हैं। इस चरम ज्ञान की अनुभूति हो जाने के बाद ही कोई व्यक्ति जीवनमुक्त शिक्षक (नेता) बन जा सकता है।
(11)
शिक्षा और आध्यात्मिकता
[Education and Spirituality]
यदि हमलोग भी इस अध्यात्मिक दृष्टि को विकसित करें या प्राप्त कर सकें, तो हम सभी मनुष्यों में जो आन्तरिक एकत्व (Inner unity) है, जिस आत्मिक-सूत्र में हमलोग परस्पर एक-दूसरे के साथ गुँथे हुए हैं, उस सूत्र को हमलोग भी आविष्कृत कर सकेंगे। अतएव, उसी आध्या-त्मिक दृष्टि में उन्नत होना हमलोगों के लिए अत्यंत आवश्यक है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से जगत को ब्रम्हमय देखने की दृष्टि प्राप्त करना भी यथार्थ शिक्षा (पराविद्या) के अंतर्गत समावेशित है!
यदि ऐसी शिक्षा (पराविद्या) हमलोग नहीं प्राप्त कर सके हों, तो समझना होगा कि, ऊँची डिग्री होने के बावजूद हमारी शिक्षा अभी तक अधूरी या अपर्याप्त (incomplete) है। इसलिये यथार्थ धर्म, आध्यात्मिकता और शिक्षा बहुत अलग अलग चीजें नहीं हैं। शिक्षा का जो व्यापक अर्थ है, उसमें यह आध्यात्मिकता (या पराविद्या- अथ परा यया तत् अक्षरं अधिगम्यते' और परा विद्या वह है जिससे 'अक्षर तत्त्व' का ज्ञान होता है।) भी सम्मिलित है। उसके नीचले स्तर की शिक्षा है, हमारे भीतर सदिच्छा, सद्विचार या पवित्र सोच और सद्बुद्धि के प्रयोजनीयता क्यों है की धारणा उत्पन्न कर देना । किन्तु, यह सद्बुद्धि और आध्यात्मिक ऐक्यबोध (spiritual oneness) भी
मनुष्य के देह रूपी यंत्र के माध्यम से ही कार्यकारी हो सकेगा । इसीलिये, देह रूपी यंत्र को स्वस्थ, सबल और कार्यक्षम बनाये रखना आवश्यक है। अतः नियमित व्यायाम और पौष्टिक आहार के द्वारा हमें अपने शरीर को सुंदर रूप से गढ़ लेना जरुरी है।
इसीलिये जब हमलोग चरित्र-निर्माण की चेष्टा करेंगे, तब शरीर को स्वस्थ और मजबूत बनाये रखने का अभ्यास भी उस चरित्रगठन के अभ्यास में सम्मिलित होगा। हमलोगों को स्वस्थ सबल शरीर के भीतर - एक स्वस्थ और शक्तिशाली मन का स्वामी भी बनना होगा। और हमारा वह स्वस्थ सबल मन और शरीर संचालित होगा हमलोगों के आध्यात्मिक एकत्वबोध (spiritual oneness) के द्वारा। जब हमलोग हमलोग अपने तीनों प्रमुख अवयव (3H) की शक्तियों को समान रूप से नियंत्रित करने में सक्षम हो जायेंगे, तभी हमलोग अपने को शिक्षित कह सकेंगे। और तभी कह सकेंगे कि हमलोगों का चरित्र गठित हुआ है, हमलोग ने एक सुगठित (well-built) और सुसमन्वित (Integrated) चरित्र प्राप्त कर लिया है।
तब हमलोग भली-भाँति समझ जायेंगे कि हमारे अधिकार किस लिए हैं ? और तब, यानि सुसमन्वित चरित्र गठित कर लेने के बाद हम सभी अपने कर्तव्य के प्रति भी जागरूक हो जायेंगे।
और तब (अर्थात चरित्रवान मनुष्य बन जाने के बाद) हम यह समझ जायेंगे कि हमारे समाज और देश का यथार्थ कल्याण तो 'मनुष्य ' बनने और बनाने में समर्थ आध्यात्मिक दृष्टि सम्पन्न शिक्षकों (नेता, पैगम्बरों की) संख्या पर निर्भर करता है। और तब सुसमन्वित और सुन्दर रूप से विकसित अपने शरीर, मन, आध्यात्मिक दृष्टि में विकसित उत्कृष्ट सम्पदा (resources) के रूप में जो कुछ हमलोगों के पास है, उन सबका सर्वोत्तम उपयोग हमलोग भारत के समग्र कल्याण (overall welfare) के लिए कर पायेंगे ।
हमारी अपनी सम्पत्ति (resources संसाधन) के रूप में हमारे पास तीन चीजें हैं - शरीर है, मन है, और हमलोगों के पास एक आत्मा है। किन्तु, उस शरीर, मन और आत्मा को हमलोग यदि सुसमन्वित रूप से विकसित नहीं कर सकें - उनकी 'श्रीवृद्धि' नहीं कर सके, उनके भीतर जो शक्ति अंतर्निहित है (कुण्डलीकृत है) उन सबको यदि उपयुक्त रूप से प्रस्फुटित नहीं कर सके, उनकी सुप्त शक्तियों को यदि जागृत नहीं कर सकें, अपने मन, वचन और कर्म द्वारा उन्हें समुचित तौर से हमलोग अभिव्यक्त नहीं कर सकें, तो कहना होगा कि हमलोग अभी ठीक ढंग से शिक्षित नहीं हो सके हैं।
अगर उपरोक्त गुणों को हम हृदयंगम कर सके, उसके अनुरूप अपना जीवन-गठन कर सके, तभी हम अपने एक मात्र सम्पदा शरीर , मन और आत्मा में निहित शक्तियों का सदुपयोग कर उसे अपने समाज, राष्ट्र और सम्पूर्ण मानव-जाति के कल्याण में समर्पित कर सकेंगे। मनुष्य-शरीर प्राप्त करने की सार्थकता एकमात्र इसी बात में निहित है कि हमलोग अपने शरीर, मन और आत्मा की सुसमन्वित रूप से विकसित (3H) शक्तियों के समुच्चय (collection) को सम्पूर्ण मानवजाति की सेवा सेवा में समर्पित कर पाते हैं नहीं ? और जो योग्यता (शिक्षा या धर्म ) हमलोगों को मनुष्य-जीवन सार्थकता प्रदान करने वाले मार्ग पर ले जाती है, वह है हमारी यथार्थ शिक्षा। और यही शिक्षा [3H विकास का 5 अभ्यास] हमलोगों के चरित्र का निर्माण करती है।
(12)
चरित्र क्या है ?
[What is character?]
इन सभी बातों को हमने लगभग समझ लिया। लेकिन अपने मनुष्य जीवन को सार्थक-सफल करने का जो निर्दिष्ट कार्य है, उसका प्रारम्भ हम कहाँ से करेंगे और किस प्रकार करेंगे ? जगत का कल्याण, देश का कल्याण, देशवासियों का कल्याण, हमलोगों का चरित्र गठन, कर्तव्यबोध, हमारे अधिकार किस लिए हैं, उन्हें कैसे पाया जाता है, कर्तव्य किये बिना अधिकार नहीं मिलता, चरित्र-गठन करने की क्या आवश्यकता है, शिक्षा की आवश्यकता क्यों है, शिक्षा किसे कहते हैं, हो सकता है इन सभी बातों को हमने ठीक ठीक समझ लिया है। लेकिन हमलोग इस (चरित्र-निर्माण के) कार्य को करेंगे कैसे ?
'इस कार्य को करेंगे कैसे '- इसको समझने के लिये हमलोगों को और थोड़ा भीतर, गहराई में जाने की आवश्यकता है। पहले चरित्र किसे कहते हैं, यह जान लेना आवश्यक है। बहुत संक्षेप में कहें तो चरित्र हमलोगों के ' विचार, वाणी और व्यवहार ' द्वारा प्रकाशित होता है। किसी व्यक्ति के विचार, वाणी और व्यवहार को देखकर हमलोग उसके चरित्र के बारे में थोड़ी-बहुत धारणा बना सकते हैं। हमलोगों के आचरण (behavior -व्यवहार) की समग्रता (कुल जोड़) को ही हमारा चरित्र कहा जाता है। और व्यवहार करते समय अलग-अलग व्यक्तियों में जो एक विशेष प्रकार का हाव-भाव (Posture) या बातचीत करने का जो विशेष ढंग (style) होता है, वही उसका व्यक्तित्व या चरित्र होता है।
हमारा यही चरित्र हमारे विचार,वाणी और कर्मों में परिलक्षित होता है। यह चरित्र हमलोगों की आदतों के माध्यम से निर्मित हो जाता है। इसीलिये हमलोग यदि अच्छी आदतों का निर्माण करने की चेष्टा करें तो हमलोगों का व्यक्तित्व और चरित्र अच्छा बन जायेगा। एवं एक अच्छा व्यक्तित्व, एक अच्छा चरित्र ही अपने राष्ट्र के प्रति, अपने समाज के प्रति हमारे कर्तव्य के सम्बन्ध में हमें जागरूक कर देगा। और हमलोग अपने कर्तव्य पथ पर पूर्ण सफलता के साथ आगे बढ़ सकेंगे। और तब हाथ से हाथ मिलाकर हमलोग अपनी अच्छी आदतों का निर्माण करने का कार्य प्रारम्भ कर सकते हैं।
अच्छी आदतें निर्मित कैसे होती हैं ? प्रश्न हो सकता है कि, अच्छी आदत बन जाने से ही, अच्छा चरित्र क्यों बन जायेगा ? किस चीज को हमलोग चरित्र कह रहे हैं ? क्या हम यह बात समझ पा रहे हैं कि चरित्र क्या है ? उत्तर यही है कि चरित्र के अनुसार ही तो हमलोग व्यवहार करते हैं। हमलोगों के आचरण को देखकर ही हमलोगों के चरित्र का पता चलता है। किसी विशेष परिस्थित में कोई व्यक्ति अपने विचार,वाणी और व्यवहार के द्वारा जिस प्रकार से प्रतिक्रिया करता है, उसी को देख कर यह समझ जा सकता है कि उस व्यक्ति का चरित्र कैसा है !
एक उदाहरण। किसी स्थान में एक मूल्यवान वस्तु गिरी हुई हो, और कहीं कोई दिखाई भी न देता हो। उस स्थान में आने के बाद कोई व्यक्ति उस गिरी हुई वस्तु को देखने के बाद जिस प्रकार की प्रतिक्रिया करेगा, उसे देखने से उसके चरित्र का पता चल जायेगा। हो सकता है कि कोई व्यक्ति सभी से छुपा कर,उस कीमती चीज को अपनी वस्तु बनाने के लिए, उसे उठाकर वहाँ भाग जाना चाहेगा। या कोई दूसरा व्यक्ति, जिस किसीकी वह मूल्यवान वस्तु खो गयी है, उसे वापस लौटा देने के लिये उसे ढूँढ निकालने की चेष्टा करेगा। यह जो दो प्रकार के परस्पर विरोधी अलग अलग आचरण हैं। दोनों के आचार -आचरण और व्यवहार को देखकर उनके चरित्र का पता जायेगा।
अच्छा, दोनों में से एक व्यक्ति एक प्रकार का आचरण करेगा, तो दूसरा व्यक्ति अलग प्रकार का आचरण क्यों करेगा ? एक व्यक्ति उस कीमती वस्तु को चुरा लेने की चेष्टा करेगा और दूसरा व्यक्ति जिसकी वस्तु खो गयी है उसको वापस लौटा देने की चेष्टा करेगा, और हो सकता है कि उसके लिये अपना कोई जरुरी काम छोड़ कर अपना समय भी नष्ट करे। ऐसा वह क्यों करेगा ? इसीलिये करता है कि, उसका स्वभाव ही वैसा है। दोनों व्यक्तियों ने कम उम्र से ही जिस प्रकार की आदतों का निर्माण कर रखा है, वे दोनों उसी के अनुसार कार्य करने को बाध्य हैं। दोनों की आदतें ही यह निर्धारित करेंगी कि कौन व्यक्ति इस परिस्थिति में कैसा कार्य करेगा या नहीं करेगा? एक व्यक्ति केवल उसी कार्य को करेगा जो कार्य उसे नीतिसंगत प्रतीत होगी।
किन्तु वह नीतिसंगत कार्य ही क्यों करेगा ? कोई व्यक्ति नीतिसंगत आचरण तभी करेगा, जब उसने कम उम्र से ही नीतिपरायण होने की, या (विवेक-प्रयोग करने के बाद ही) कार्य करने की आदत बना ली हो। जिस मनुष्य की आदत केवल नीतिसंगत कार्य करने की नहीं होगी, उस विशेष क्षण में वह दो प्रकार की मनोवृत्तियों से अनुप्रेरित होकर कार्य कर सकता है। यदि लालची (या स्वार्थी) मनोवृति प्रबल होगी, तो उसकी बुद्धि उससे कहेगी, "अरे इतनी कीमती वस्तु को गबन करने का मौका हाथ लगा है, तुम इसका गबन कर लो। यही तो मौका है, इसका गबन कर लो। " यदि उसके भीतर लालची मनोवृत्ति (कामिनी-कांचन के प्रति आसक्ति) प्रबल होगी, तो वह उसी के अनुसार कार्य भी करेगा। और जिस मनुष्य में ऐसी मनोवृत्ति, आदत या प्रवणता प्रबल हो कि " मैं कभी सत्य से या नीतिपरायणता से विच्युत नहीं होउँगा ! किसी की कीमती वस्तु खो गयी है, इसे तो उसी को मिलना उचित होगा"। दूसरों का कल्याण, दूसरों का हित करना ही यदि उसकी आदत बन गयी हो, तो उस समय उसका विवेक उससे कहेगा - " बच्चे, सावधान ! लोभ तुम्हें इस समय उकसा जरूर रहा है, किन्तु बिना पूछे किसी की वस्तु को उठा लेना या चोरी कर लेना, तो तुम्हारी आदत नहीं है-ऐसी तो तुम्हारी प्रवृत्ति नहीं है !" विवेक की आवाज (आत्मा की आवाज) सुनते ही आत्मश्रद्धा जाग्रत हो जाएगी, वह विचार करेगा-" मेरी तो प्रवृत्ति या आदत है,जो नीतिसंगत हो केवल उन्हीं कार्यों को करना। क्योंकि मैंने चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने का संकल्प-ग्रहण किया है; और (autosuggestion) स्व-सम्मोहन/परामर्श सूत्र बार बार अभ्यास करके मैंने अपनी आदत ली है कि मैं नीतिविरुद्ध कार्य (या निषिद्ध कार्य) कभी नहीं करूँगा।" इसीलिये अब लालची मनोवृत्ति से प्रताड़ित हो कर नीतिविरुद्ध कार्य करने की सम्भावना उसमें बिल्कुल नहीं है। उसका जाग्रत विवेक ही उसको नीतिसंगत कार्य करने के लिये बाध्य कर देगा, और वह उसकी वस्तु वापस लौटा देने का प्रयत्न करगा। इस प्रकार हम यह देख सकते हैं कि हमलोगों का जो चरित्र हमारे आचरण के द्वारा परिलक्षित होता है, उसका निर्धारण हमलोगों की आदतों के द्वारा होता है।
(13)
अभिलषित आदतों का निर्माण
[Building desired habits]
आदतों का निर्माण कैसे होता है ? एक ही कार्य को बार बार दुहराते रहने से हमलोगों को उसकी आदत पड़ जाती है। हमलोगों में एक ही कार्य को बार बार करने की एक सहज वृत्ति (innate instinct) या स्वाभाविक प्रवृत्ति (Natural Tendency) रहती है। मनुष्य जिस कार्य को एक बार कर लेता है, उसे एक बार और करने की इच्छा होती है ! इस प्रकार की इच्छा क्यों उठती है? आइये , इसी बात पर थोड़ा विचार करके देखा जाय।
मनुष्य कोई कार्य करता कैसे है ? मनुष्य अपने विचारों के द्वारा प्रेरित होकर ही कोई कार्य करता है। जैसे ही मनुष्य के मन में किसी कार्य को करने की इच्छा उत्पन्न होती है, वैसे ही वह अपने शरीर, अन्य उपकरणों या अन्य सामग्री की सहायता से अपनी इच्छा को साकार रूप देने की चेष्टा करता है।
इसी को ही कार्य करना कहते है। किन्तु उस कार्य का जनक कौन है ? कार्य का कारण कहाँ है ? कार्य का कारण मन में है- उसमें उठने वाले विचारों में है। अतः हमें अपना अच्छा चरित्र बनाने के लिए, यदि बार-बार अच्छे कार्य करना हो , तब हमें सतर्क होकर ऐसी चेष्टा (विवेक-प्रयोग) करनी होगी जिससे हमारे मन में केवल अच्छे विचार ही उठें। यहाँ पुनः हम देखते हैं कि हमलोगों को मन को अपने नियंत्रण में रखने की कोशिश करते रहना होगा। यह अत्यन्त आवश्यक कार्य है। अब प्रश्न उठता है कि क्या मन को अपने नियंत्रण में रखने का अभ्यास किया जा सकता है? मन को अपने वश में किया कैसे जाता है ?
14.
मन क्या है और कार्य कैसे करता है ?
[What is mind and how does it work?]
(चित्त -मन-बुद्धि अहंकार)
हम अच्छी तरह से समझ रहे हैं कि विचार, इच्छा या 'कार्य का कारण' मन के भीतर उत्पन्न होता है। किन्तु यह मन है क्या चीज ? मन के विषय में सोचने पर हर समय हमें केवल एक धुँधला सा आभास ही मिल पाता है। मन इतना सूक्ष्म है कि इसका कोई स्पष्ट तस्वीर हमें दीखता नहीं है। मन की बनावट ही ऐसी है।
मन की तुलना एक camera device से की जा सकती है। हमलोग कैमरा से किसी वस्तु की तस्वीर (फोटो) खींच सकते हैं। कैमरे के द्वारा तस्वीर कैसे खिंचा जाता है? कैमरे के भीतर वस्तु की छाप ग्रहण कर लेने में सक्षम एक अतिसंवेदनशील फिल्म (impressionable film) लगा हुआ है। उस फिल्म को इस प्रकार तैयार किया गया है कि उस पर जहाँ रौशनी पड़ेगी उस भाग में एक रासायनिक प्रक्रिया होगी, और उसकी तस्वीर छप जाएगी। और जितने भाग पर रौशनी नहीं पड़ी, उसकी तस्वीर नहीं निकलेगी। इसीलिये किसी वस्तु के सामने कैमरा को रखकर, जैसे ही मैं shutter दबाता हूँ, कैमरा-कपाट खुल जाता है और फ़्लैश की परावर्तित रौशनी लेन्स से होकर कैमरे के भीतर प्रविष्ट हो जाती है। जो भी वस्तु कैमरे के लेंस के सामने रहती है, उसके चारों ओर की रेखा घेरे के अंतर्गत जो कुछ भी रहता है, उस पूरे भाग से रौशनी भीतर की ओर आती है। इसलिये जब मैं फिल्म को धोता (परिष्कृत) करता हूँ, तो जिस वस्तु को सामने रख कर कैमरा के फ़्लैश की रौशनी डाली थी, उसके चित्र के जितने हिस्से से विभिन्न प्रकार की रौशनी कम या अधिक पड़ी थी, उसकी तस्वीर फिल्म के उपर छप जाती है।
मनुष्य का मन भी बिल्कुल एक camera device या कैमरा -उपकरण की तरह काम करता है। जब हमलोग बाह्य भौतिक जगत के सामने कैमरा डिवाइस रूपी मन के साथ खड़े होते हैं, उस समय हमारी सभी इन्द्रियाँ इस `body-camera-device ' (देह-कैमरा-उपकरण) के एक एक लेन्स के जैसा कार्य करने लगती हैं। जिस समय हम अपनी आखों की पलकों को गिराते हैं या आँखों की पलकों को उठाते हैं, तब हमारी पलकें (eyelids) ठीक कैमरा-कपाट या shutters के जैसा ही कार्य करती हैं। और बार बार आँखों को खोलते रहने से अलग अलग दृश्य मन (चित्त) रूपी फिल्म पर छपते रहते हैं।
किन्तु मन रूपी साधन (device) साधारण कैमरे की अपेक्षा और अधिक पेचीदा या हैरान कर देने वाला है। यह आँखों से केवल रौशनी (दृश्य या रूप) को ही ग्रहण नहीं करता, कान से ध्वनि (शब्द) सुनता है, नाक से गन्ध लेता हैं, त्वचा से स्पर्श का अनुभव लेता है, जिह्वा से स्वाद ग्रहण करता है। यह मन रूपी 'camera device' या कैमरा उपकरण पाँच प्रकार के इन्द्रियों के माध्यम से -रूप-रस-गन्ध-शब्द-स्पर्श आदि पाँच प्रकार के इन्द्रिय- दत्त संवादों (sense-data statement) को ग्रहण करता है। और देह-कैमरा-उपकरण से जुड़ी हुई एक अति-संवेदनशील अन्तरत्वचा चित्त या मनवस्तु रूपी 'hypersensitive film पर पंच इन्द्रियों से प्राप्त, बाह्य जगत के समस्त इन्द्रिय-दत्त संवाद (sense-data statement) एक ही साथ अंकित होते रहते हैं।
उदाहरण के लिए जिस प्रकार "talking motion picture" या सवाक् चलचित्र में दो प्रकार के सेंसरी डेटा - एक प्रकाश (light) और दूसरा ध्वनि (sound) को किसी वैज्ञानिक कौशल (पैचवर्क) से एक साथ जोड़ दिया जाता है। और उसी प्रकार हमलोग इस (सूक्ष्म) शरीर- कैमरा डिवाइस (मन) से ध्वनि तथा तस्वीर (audio-video) को एक साथ साथ ग्रहण कर रहे होते हैं। किन्तु इस मन-यंत्र का निर्माण हमलोगों ने अपनी मानवीय-बुद्धि की सहायता से तो किया नहीं है। इसलिए यह और भी खूबसूरत (advanced) कैमरा है। इस कैमरे की सहायता से पाँच प्रकार की इन्द्रिय-बोध सूचनाओं (data) को पाँच प्रकार की इन्द्रियों के द्वारा एक साथ ग्रहण किया जा सकता है। हमलोग पाँच प्रकार के संवादों को बाहर से एकत्र करके मन के एक प्लेट पर (अन्तर्त्वचा या चित्त) सभी को एक साथ संगृहीत कर सकते हैं। तथा मन के उस प्लेट या फिल्म को परिशोधित करके इस प्रकार संग्रहित संवादों में से कुछ विशिष्ट संवेदनाओं के चिरस्थायी छाप को अपने मन के भीतर संचित करके रख भी सकते हैं।
जैसे मैंने अभी किसी फूल की महक को सूँघ लिया। एक गुलाब का फूल। तो उस अद्भुत सुगंध की याद मेरे मन में इस प्रकार बस जायेगी कि बाद में जैसे ही मैं किसी गुलाब के फूल को दूर से देखूँगा या गुलाब के फूल के बारे सोचूंगा भी तो 'पारस्परिकता का धर्म-सिद्धान्त '-(Religion Of Reciprocity, Law of Association) के अनुसार उस गुलाब की सुगंध तुरन्त मेरे मन में पुनर्जागृत हो जाएगी; और मन ही मन मैं फिर से गुलाब के विशिष्ट सुगन्ध का आनन्द भी ले सकूँगा। यही हाल अन्य सभी इन्द्रिय -विषयों (स्पर्श या स्वाद की) का भी है। अतएव, इस प्रकार जब हम कोई भी कार्य करते हैं , तो करते करते, कुछ विशिष्ट संवेदनाओं के छाप हमलोगों के मन के भीतर लगभग चिरस्थायी बन जाते हैं।
ऐसे अद्भुत मनोयंत्र को लेकर हमलोग चल-फिर रहे हैं। इसके माध्यम से बाह्य जगत में जो कुछ भी है, उसकी प्रतिकृति (image) हमारे मन के भीतर लगातार छपती जाती है
जिस प्रकार किसी समाचारपत्र- कार्यालय में या दूसरे स्थान में teleprinter पर दुनिया भर से लगातार कितने ही खबरें आती हैं और हर पल छपती चली जाती हैं। वहाँ कोई चीफ़एडिटर यह तय करता है कि किस समाचार को मुख्य समाचार (headline) की तरह देना है, और कितना देना है।
उसी प्रकार पंचेन्द्रियों के माध्यम से ब्रह्माण्ड के सैकड़ों-हजारों समाचार (एक ही प्रकार का संवाद नहीं पाँच प्रकार के संवाद) हमारे मन-यंत्र (mind-camera) के सामने से होकर जा रहे हैं और मन के भीतर संचित होते जाते हैं। दैनन्दिन जीवन में हमलोग स्वयं भी जितने क्रिया-कलाप कर रहे हैं, वे भी कई प्रकार के कर्म हैं। हमलोग जो विचार कर रहे हैं, वह भी एक प्रकार का ऑब्जेक्ट हैं, हमलोग जो शब्द बोल रहे हैं वे भी कुछ विषय के बारे में हैं। अतः हमलोग जो कुछ विचार कर रहे हैं वह भी कितने प्रकार का ऑब्जेक्ट है, शब्द कह रहे हैं, काम कर रहे हैं , वे सभी अब इस मन-कैमरे से ली गयी तस्वीरें बन रही हैं।
हमारे समस्त विचार, वाणी और कर्म उसी 'समान पद्धति की प्रक्रिया' ( Religion Of Reciprocity, या साहचर्य का नियम) के अनुसार हमारे मानस-पटल पर एक एक निशान (Mark) डाल रहे हैं, और सभी के चित्र हमारे चित्त में कार्बन-कॉपी के रूप में जमा होते जा रहे हैं।
किन्तु मैं जिस कार्य को 'मैं कर्ता हूँ' - यह सोंच कर करूँगा, उसकी तस्वीर (प्रतिरूप) और दूसरे लोग जो कार्य कर रहे हैं उसकी तुलना में हमारे चित्त पर और अधिक गहरे दाग (pattern) बना सकती है। क्योंकि वहाँ मेरी अहंकार-बुद्धि (ego-intellect, 'मैं कर्ता हूँ' -यह भाव) बने रहने को बाध्य है। जिस कार्य का कर्ता कोई दूसरा व्यक्ति हो उसकी अपेक्षा, जिस कार्य का कर्ता मैं स्वयं हूँ उस कार्य को अधिक प्राथमिकता मैं जरूर दूँगा, बिना कहे दूँगा, बिना विचार किये भी दूंगा, क्योंकि वह 'मेरा कार्य' है-उसे 'मैंने' किया है ! प्रत्येक व्यक्ति स्वभावतः ' मैं और मेरा ' को अधिक प्यार करता है। क्योंकि 'मैं कर्ता हूँ', यह विचार हमारे भीतर सदैव बना रहता है
हमलोगों में अहंबोध रहता ही है। हम कुछ कर रहे हैं, यह विचार (एहसास) बिना सोचे हुए भी हममें बना रहता है। इसीलिये मेरे कर्म, मेरे विचार, मेरे शब्द के जितने गहरे चिन्ह मेरे मन पर पड़ेंगे- वे दूसरों के विचार, दूसरों के शब्द , दूसरों के कर्म की अपेक्षा अधिक स्पष्टतर छाप छोड़ेंगे।
मैंने एक बार कोई विचार किया, फिर उसी विचार को यदि बार बार दुहराता रहूँ, तो मेरे मन के भीतर (चित्त पर) उसी प्रकार के विचारों की एक गहरी लकीर बन जायेगी। उदाहरण के लिये गाँवों में जहाँ अच्छी सड़कें नहीं हैं, धान कट जाने के बाद जब खेतों के बीच से होकर बैलगाड़ी जाती है, तो बैलगाड़ी के जाते-जाते उसके दोनों पहियों की गहरी लकीर बन जाती है उसे लीक या 'rut' कहते हैं। जब बाद वाली बैलगाड़ी (next bullock cart) आती है, तब उस बैलगाड़ी के चालक को उसी लीक से होकर जाने के लिए न तो बैलों को छड़ी मारने की जरूरत होती है, और न रस्सी खींचने की। बैल स्वतः उस लीक को पकड़ कर घुमावदार मार्ग पर चलते रहते हैं।
ठीक उसी प्रकार हमलोगों के मन के विचार, शब्द और कर्म हमलोगों के मन पर पड़े पूर्ववर्ती विचारों, शब्दों और कर्मों के गहरी लकीर या लीक को पकड़ कर निर्बोध बैल के समान स्वतः प्रवृत्त होकर, स्वाभाविक रूप से उन्हीं का अनुसरण करते हुए जाना चाहते हैं। और इस प्रकार हमलोगों की आदतें विकसित हो जाती हैं।
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श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय के शब्दों में - " चरित्र है मेरे अभ्यासों का समाहार (समुच्चय) ! एक ही काम को बार-बार करते रहने से उसका अभ्यास (आदत) हो जाता है। चिंतन करने के बाद क्रिया होती है। आदतों का निर्माण बारम्बार क्रियायों को दुहराते रहने से होता है। चेष्टा से क्रिया होती है , चेष्टा आती है संकल्प से। संकल्प आती है इच्छा से। इच्छा मन से होती है। मन को पकड़ना (वश में करना) है। "
और मन को पकड़ने की इच्छा आत्मा में उत्पन्न होती है, यही इच्छा मुक्त करने वाली है , अन्य कोई भी इच्छा बंधन में डालने वाली है।
'आत्मजन्या भवेदिच्छा, इच्छाजन्या भवेत् कृतिः।
कृतिजन्या भवेच्चेष्टा, चेष्टाजन्या भवेद् क्रियाः।।
आत्म में इच्छा उत्पन्न होती है, इच्छा से कृति (प्रयत्न) उत्पन्न होता है, प्रयत्न करने के लिए (हमारे शरीर में या किसी एक अङ्ग में) चेष्टा उत्पन्न होती है, तथा चेष्टा से कर्म यानी क्रिया का जन्म होता है। यही क्रिया जब सिद्ध हो जाती है तब मूर्त रूप में दृष्टिगोचर होने लगती है।
(15)
चरित्र की परिभाषा से भाग्य का सम्बन्ध
[The relationship of destiny to the definition of character]
इस प्रकार वैज्ञानिक दृष्टि से (scientifically) मन का विश्लेषण करते हुए हमलोग यह समझ सकते हैं कि जिस कार्य को हम एक बार करते हैं, उसी को फिर से करने की प्रवृत्ति क्यों उत्पन्न होती है ? तथा यह भी समझ में आ जाता है कि उसी कार्य यदि बार बार करते जायें, तो मेरे मन में मेरे विचारों, मेरे शब्दों और कर्मों की लीक क्यों गहरी हो जाएगी? उसीको हमलोग आदत (habit) कहते हैं ! वही आदत जब और अधिक गहरी हो जाती हैं, तो वे हमारी 'प्रवृत्ति' (tendency) बन जाती हैं; और इसी प्रकार के विभिन्न प्रवृत्तियों का जोड़ या संकलन ( summation) ही हमलोगों का चरित्र है।
यदि ऐसा है तो, इस वैज्ञानिक विश्लेषण के द्वारा हम यह भी देख सकते हैं कि हमलोग स्वयं अपने चरित्र को अपनी इच्छानुसार गठित कर सकते हैं। हमलोगों का चरित्र हमें जन्मजात रूप में प्राप्त नहीं हो गया है! विधाता न हमारे चरित्र को हमारे ललाट पर नहीं लिख दिया है, हमलोग स्वयं अपने भाग्य के निर्माता हैं। क्योंकि, हमलोगों का चरित्र ही हमारे भविष्य को निर्मित करेगा। (Because it is our character that will shape our future.)
हमारे विचार (या चरित्रवान मनुष्य बनने का दृढ़ संकल्प) हमलोगों को तदानुसार कार्य करने के लिए प्रेरित करेंगे, और हमलोगों के द्वारा किये गए कर्म हमारी आदत में परिणत हो जायेंगे। जैसे-जैसे आदत परिपक्व होंगे, वही हमलोगों की प्रवृत्ति (tendency) बन जाएगी। और हमारा चरित्र उन प्रवृत्तियों का संकलन-फल (summation) होगा। उसी चरित्र का अनुगामी होकर आजीवन काम करते हुए हम अपने भाग्य या भविष्य का निर्माण स्वयं कर लेंगे।
अतएव, जब इस बात को मैंने जान लिया कि 'मैं स्वयं ही अपने भाग्य का निर्माता हूँ'; तब मेरी जवाबदेही (responsibility) बहुत बढ़ गयी। क्योंकि मेरे भविष्य के लिए मेरे अलावा दूसरा और कोई उत्तरदायी नहीं है। इसीलिये कम उम्र से ही, मैं अपने विचारों, अपने आचरण (चाल-चलन),अपने शब्दों, अपने कर्मों को नियंत्रित करूँगा, परिमित करूँगा और शासित करूँगा। मैं
सावधान रहूँगा, विवेक-प्रयोग द्वारा अपने विचारों को अच्छी दिशा (श्रेय) में ले जाकर एक अच्छा चरित्र निर्मित कर लूँगा! क्योंकि ऐसा नहीं करने पर मेरा भविष्य खराब हो जायेगा।
जिस प्रकार मेरा चरित्र ही मेरा भविष्य है। उसी प्रकार एक-एक 'मैं' समाज में रहता है, जिनको मिलाकर यह समाज गठित हुआ है। इसीलिये समाज का भविष्य, उसमें रहने वाले इन व्यक्तियों के भविष्य पर निर्भर करता है। इसलिये यदि हम अपने समाज का भला करना चाहते हों, तो प्रत्येक व्यक्ति के भविष्य को अच्छा बनाने के लिये, हममें से प्रत्येक को अपना अपेक्षित चरित्र अवश्य विकसित करना होगा।
यदि वास्तव में सामाजिक-क्रांति लानी हो, जैसा विवेकानन्द कहते थे,'सम्पूर्ण समाज में आमूल परिवर्तन' उसी परिवर्तन का नाम है 'सम्पूर्ण क्रांति !' यदि समाज में वैसा ही आमूल परिवर्तन लाना चाहते हों, तो हमें प्रत्येक व्यक्ति के चरित्र-निर्माण के विषय में संवेदनशील और सतर्क रहना होगा। और इसके लिये, अविच्छीन्न रूप से प्रयत्न करते रहना होगा, अथक रूप से लगातार प्रयत्न करते रहना होगा। अपने 'चरित्रवान मनुष्य' बनने के संकल्प पर अटल रहना होगा। हमें इस तर्क में प्रतिष्ठित होना होगा कि भारत के कल्याण के लिए 'Be and Make' के आलावा दूसरा कोई मार्ग (धर्म) नहीं है !
हमे इस तर्क में प्रतिष्ठित होना होगा कि "श्रीरामकृष्ण की जन्मतिथि से ही सत्ययुग का प्रादुर्भाव हो चुका है !"
अबतक हमलोगों ने कम से कम इतना तो समझ ही लिया है कि, चरित्र किसे कहते हैं, चरित्र निर्माण कैसे किया जा सकता है, चरित्र के दोष-त्रुटियों (12 ) को कैसे कम किया जा सकता है, तथा हमने यह भी समझ लिया कि हमलोगों चरित्र निर्माण के ऊपर हमारे व्यक्तिगत जीवन का भविष्य कितना अधिक निर्भर करता है, और कैसे हमारे समाज (या देश) का चरित्र और भविष्य भी, हममें से प्रत्येक व्यक्ति के भविष्य और चरित्र के ऊपर निर्भर करता है। यदि समाज और राष्ट्र के प्रति कर्तव्य की थोड़ी सी भावना (Sense of duty) भी बची रह गयी हो, तो हमलोग अपने चरित्र को गठित करने का प्रयत्न करेंगे, और चरित्र-निर्माण की पद्धति को अच्छी तरह से सीख लेने की 'शीक्षा' ही ही वास्तविक शिक्षा है - जो समस्त समस्याओं का समाधान करने में सक्षम है !
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