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गुरुवार, 1 दिसंबर 2016

*$$$सम्पादकीय-2* "नवनी दा की संक्षिप्त जीवनी तथा विवेकानन्द और हमारी सम्भावना पुस्तक का सारांश !"

'विवेकानन्द और हमारी सम्भावना' 

 ( जीवनमुक्त योगी, मानवजाति का मार्गदर्शक नेता, पैगम्बर बनो और बनाओ!) 

महामण्डल के वार्षिक युवा  प्रशिक्षण शिविर के भावी (जीवन्मुक्त) प्रशिक्षकों के लिए यह पुस्तक 'विवेकानन्द और हमारी सम्भावना' एक मार्गदर्शक पुस्तक (guide book) जैसा काम करती है। इस पुस्तक में 'विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर  'Be and Make' वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा ' में प्रशिक्षित तथा  'ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य' से समन्वित भावी पैगम्बरों ,जीवनमुक्त योगिओं, नेताओं के लिए निवृत्ति अस्तु महाफला विवेक-जागृत'  करने का पाठ्यक्रम (syllabus)' दिया हुआ है। इस ग्रन्थ में 10 अध्याय हैं, तथा परिशिष्ट या 11 वें अध्याय के रूप में महामण्डल पुस्तिका " एक युवा आन्दोलन" को भी इस पुस्तक में स्थान दिया गया है।  पूज्य नवनी दा लिखित इस पुस्तक की विषयसूची इस प्रकार है - 

1.स्वामी विवेकानन्द -'व्यक्ति और मन'-  (Swami Vivekananda - 'The Person and the Mind')  -इस अध्याय के अन्तर्गत 9 निबन्धों को रखा गया है। 
2.समस्या और समाधान' -(Problem and solution)  इस अध्याय के अन्तर्गत 6 निबन्ध हैं। 
3. स्वामी विवेकानन्द और युवाओं की दुनिया: (Swami Vivekananda and the world of youth) -इस अध्याय में 5 निबन्ध हैं। 
4. शिक्षा -समस्त रोगों की रामबाण औषधि है!' -(Education is the panacea for all diseases!') इसके अन्तर्गत 5 निबन्ध हैं।
5.धर्म और समाज-  (Religion and Society) इसके अंतर्गत 10 निबन्ध है। 
6.जीवन-गठन के साधन - (Method of Life building) इसके अंतर्गत भी 10 निबन्ध हैं।
7.व्यावहारिक जीवन में आध्यात्मिकता-(spirituality in practical lifeइसके अंतर्गत 6 निबन्ध हैं।
8.मनुष्य का मन- (human mind) इसके अंतर्गत 5 निबन्ध हैं।
9.समाज और सेवा- (Society and Service) इसके अंतर्गत 7 निबन्ध हैं। 
10.विश्व-मानवता के कल्याण में भारत की भूमिका  -(India's role in the welfare of world-humanity)  इस अध्याय के अंतर्गत 6 निबन्ध हैं ।

प्रत्येक देश के मानव-समुदाय के समक्ष कुछ न कुछ समस्यायें, प्रत्येक युग में बनी ही रहती हैं। कभी कभी तो कोई समस्या राष्ट्रिय-संकट का रूप भी धारण कर लेती है। इन दिनों अधिकांश भारतीय ऐसा मानने लगे हैं कि हमारा देश एक भारी संकट के दौर से गुजर रहा है। गरीबी, अशिक्षा,चरित्र, नैतिकता और आम-जनता के प्रति सच्ची सहानुभूति का अभाव, दूसरों को हानी पहुँचाकर अपना स्वार्थ पूरा करने का निर्लज्ज प्रयास, मानवीय मूल्यों तथा आत्मविश्वास का घोर आभाव देखकर बहुत से लोगो के मन को दुःख पहुंचता है। किन्तु हममें से अधिकांश लोग अक्सर  इसके उपर दुःख प्रकट करने या प्रमुख राजनितिक दलों के नेताओं के दोषों को देखने-दिखाने की चेष्टा में वाट्सऐप पर तरह तरह के चुटकुलों का आदान-प्रदान करके अपनी देशभक्ति का परिचय देते हैं, किन्तु भारत के पुनर्निर्माण में अपनी जिम्मेदारी के ऊपर चुप्पी साधकर बैठ जाते हैं।

हम लोग इस सच्चाई को स्वीकार नहीं करते कि - केवल देश-वासियों की आन्तरिक शक्ति और संभावनाओं को विकसित करने से ही, देश की अवस्था में परिवर्तन होना संभव है। मनुष्य के आन्तरिक सम्भावनाओं के विकास की कोई सीमा नहीं है। उन संभावनाओं को रचनात्मक विचार तथा कठोर परिश्रम की सहायता से विकसित कर प्रयोग में लाने से, हमलोग समाज में बहुत बड़ा परिवर्तन ला सकते हैं।
स्वामी विवेकानन्द असाधारण हृदयवत्तामानव-प्रेम और मनीषा के अधिकारी महापरुष थे। उन्होंने मानव-समाज विशेष रूप से भारत के जन-जीवन के असीम दुःख-दैन्य के मूल कारण को समझा था, एवं उसमें आमूल परिवर्तन लाने का उपाय भी बतलाया था। मानव-समाज की अनेकों समस्याओं में से विशेष रूप से 'युवा समस्या' को देखकर समस्त विचार-शील व्यक्तियों का हृदय अधिक व्यथित होता है। किन्तु स्वामी विवेकानन्द ने  युवा-जीवन में ही,  सम्पूर्ण समाज की सम्यक उन्नति के बीज को निहित देखा था। तथा अपने देशवासियों के सर्वांगीन उन्नति के सपने को साकार करने के उद्देश्य से,उन्होंने समस्त युवाओं को  अपने व्यक्ति-जीवन की संभावनाओं को प्रस्फुटित करने का आह्वान किया था। इस पुस्तक में संकलित रचनाओं का उद्देश्य, स्वामी विवेकानन्द के उसी आह्वान को आम जनों तक, विशेष तौर पर युवाओं के समक्ष सरल भाषा में प्रस्तुत करना है।
महामण्डल विगत ५० वर्षों से विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से यही कार्य करता चला आ रहा है। इसकी मासिक द्विभाषी पत्रिका ' विवेक-जीवन ' भी विगत ४८ वर्षों से प्रकाशित होती आ रही है। इस संकलन के अधिकांश लेख (कुछ को छोड़ कर) - ' विवेक-जीवन ' के विभिन्न अंकों में प्रकाशित सम्पादकीय के रूप में प्रकाशित हो चुके हैं। इनमें से सभी सम्पादकीय लिखित भी नहीं हैं, कक्षा में बोले गये व्याख्यान को लिख कर बाद में सम्पादकीय रूप में प्रकाशित किया गया है। इसीलिये यह संभव है कि सम्पूर्ण पुस्तक में भाषा और भाव की अभिव्यक्ति एवं एकरूपता में कहीं कहीं अंतर दिखाई दे, और यह भी स्वाभाविक है कि कहीं कहीं किसी विषय का उल्लेख दुबारा भी हो गया हो। यदि इस संकलन में प्रकशित निबन्धों के अध्यन से थोड़े भी युवा विवेकानन्द के भाव को ग्रहण करने की प्रेरणा प्राप्त कर सकें तो हम सभी की मिहनत सार्थक हो जाएगी।
हिन्दी प्रकाशन की भूमिका

यद्दपि 
झुमरीतिलैया (तब के बिहार अभी झारखण्ड ) में 14 जनवरी 1985 को ही 'विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर' (युवा चरित्र-निर्माणकारी संस्था) के माध्यम से स्वामीजी का भाव  आविर्भूत हो चूका था। किन्तु चरित्र क्या है तथा चरित्र-निर्माण की पद्धति क्या है ? इस विषय में इस पुस्तक के अनुवादक तथा झुमरीतिलैया ज्ञान मन्दिर के संस्थापक सचिव को स्वयं कुछ भी ज्ञात नहीं था। किन्तु स्वामी जी की सत्येन्द्रनाथ मजूमदार द्वारा लिखित जीवनी 'विवेकानन्द चरित' को पढ़ने के बाद वह तीव्र 440 वोल्ट के इलेक्ट्रिक शॉक का अनुभव कर रहा था।
राँची रामकृष्ण आश्रम में कार्यरत पूज्य प्रमोद दा के परामर्श पर 1987 के बेलघड़ीया में आयोजित वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में इस अनुवादक ने महामण्डल का प्रथम कैम्प किया था। वहाँ उसने जीवन्त वेद स्वरूप पूज्य नवनी दा के मुख से विवेकानन्द के जीवन-गठनकारी विचारों तथा ' Be and Make ' की अद्भुत व्याख्या के अनुसार 'भारत निर्माण की योजना' को आश्चर्यचकित होकर सुना था।
और उस शिविर से लौटने के बाद पूज्य नवनी दा के साथ पत्राचार होने के बाद 'झुमरीतिलैया विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर' का विलय 'झुमरीतिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल ' में हो गया। तथा 19988 के मई माह में, अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल का पहला बिहार राज्य-स्तरीय युवा प्रशिक्षण शिविर, झुमरीतिलैया में आयोजित हुआ। जिसमे अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल के तात्कालीन अध्यक्ष को छोड़कर,  महामण्डल केंद्रीय एग्जीक्यूटिव कमिटी के सभी सदस्य उपस्थित थे। 
किन्तु प्राचीन भारतीय संस्कृति अर्थात गुरु-परम्परा में संचालित महामण्डल के मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी भावधारा को समझकर अपना जीवन गठित करने में पूर्व संस्कार भी बाधक होते हैं, जिनके साथ संघर्ष करके मन को वशीभूत करने में काफी समय लग जाता है। इसीलिये किसी हिन्दी-भाषी महामण्डल कर्मी को पूज्य ' नवनी दा' के द्वारा बंगला भाषा में लिखे इस ग्रन्थ का हिन्दी में अनुवाद करने का सौभाग्य, प्रथम बंगला संस्करण प्रकशित होने के पूरे 28 वर्ष बाद  मिल रहा है।
स्वामी विवेकानन्द के सार्धशतक जन्म जयंती के अवसर पर जो चतुर्थ संस्करण बंगला भाषा में प्रकाशित हुआ है, उसमें संकलित आठ नये निबन्धों का हिन्दी अनुवाद भी यहाँ प्रकाशित किया जा रहा है। महामण्डल के इस मनुष्य निर्माणकारी और चरित्र-निर्माणकारी आन्दोलन से जुड़े हिन्दीभाषी युवा कार्य-कर्ताओं को अपना जीवन गठित करने की 'अद्भुत शिक्षा के अद्भुत शिक्षक श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय' की बंगला वाणी को हिन्दी में पढ़ने से स्वामी विवेकानन्द के आदर्श और उद्देश्य का अनुसरण करके अपना जीवन गठित करने में बहुत बड़ा संबल प्राप्त होगा।
इसी उद्देश्य को ध्यान में रखकर इस ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद - ' झुमरीतिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल ' के ' विवेक-अंजन ' प्रकाशन कार्यालय से पुस्तकाकार में, किन्तु लागत मूल्य को देखते हुए अलग -अलग खण्डों में प्रकाशित किया जायेगा
(बिजय कुमार सिंह ,
अनुवादक, प्रकाशक और सम्पादक,    
महामण्डल का हिन्दी प्रकाशन विभाग,
झुमरीतिलैया, कोडरमा (झारखण्ड): 
सितम्बर 2012 )
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प्रथम अध्याय :(व्यक्ति और मन):
१.नवनी दा प्रतिपादित महामण्डल का कर्म-योग आन्दोलन -' Be and Make' का रहस्य है- मनुष्य मात्र में अन्तर्निहित ब्रह्मत्व (शाश्वत महानता) को उद्घाटित करा देना। क्योंकि " कई हजार ब्रह्मा एवं इन्द्रादि देवता भी ' बुद्धत्व-प्राप्त ' नर-देवता के चरणों में शीस झुकाते हैं तथा इस बुद्धत्व-प्राप्ति पर मानव-मात्र का अधिकार है। "  
२. बुद्धत्व प्राप्ति के इच्छुक गृहस्थों के लिए कामनाओं का त्याग करने का अर्थ है -कामनाओं का दास नहीं बनना, 'लस्ट ऐंड लूकर'-में आसक्ति नहीं रखना 'तेनत्यक्तेन भुंजीथा'।   8 जुलाई 1988 को रामकृष्ण मिशन सारदापीठ बेलूर मठ के सचिव निवृत्तिमार्गी संन्यासी स्वामी सत्यरूपानन्द जी महाराज द्वारा प्रवृत्ति-मार्गी के भावी आध्यात्मिक शिक्षकों को लिखित एक प्रेरणा दायी पत्र, 
प्रिय ......,
तुम्हारा पत्र मिला। तुम्हारे पत्रों का संक्षेप में उत्तर दे रहा हूँ । यह सत्य है कि श्री ठाकुर ही अंतिम सत्य हैं -संसार नही। किन्तु बन्धन मन की बात है। संसार तो जैसा है, वैसा ही था, और भविष्य में भी वैसा ही रहेगा। मनुष्य अपने मन से संसार में बन्ध जाता है, या फिर बन्धन से मुक्त हो जाता है। - मनुष्य अपने मन के कारण,अर्थात नश्वर शरीर को ही 'मैं' मानने के कारण बन्ध जाता है। और मनःसंयोग, विवेक-प्रयोग आदि ५ अभ्यासों को करते हुए एक दिन माँ सारदा देवी की कृपा से अपने स्वरूप का साक्षात्कार करके बन्धन से या भ्रम से मुक्त  (डीहिप्नोटाइज्ड) भी हो जाता है!

प्रत्येक प्रवृत्तिमार्गी गृहस्थ व्यक्ति "संसारी" ही हो, यह आवश्यक नहीं है। सदगृहस्थ व्यक्ति गृहस्थी में रह कर भी भगवान लाभ कर सकता है। अतः अपने बंधन का कारण दूसरों को, या संसार को कभी नहीं समझना चाहिये। संसार में बंधन का कारण हमारे अपने मन की आसक्ति है। अतः अपने मन को ही ठीक करने का प्रयास (मनःसंयोग) आजीवन चलाना होगा। हमें अगर 'असाधारण गृहस्थ बनना और बनाना है', अर्थात पशुओं जैसा केवल 'आहार-निद्रा -भय-मैथुन' में जीवन को नष्ट नहीं होने देना है; तो कठिन संघर्षो का सामना करना ही पड़ेगा। 
स्वामी विवेकानंद के जीवन से यह संदेश मिलता है कि जब हम खुद पर भरोसा करेंगे, तभी परमात्मा भी हम पर भरोसा करेगा। जो लोग दूसरों की मदद के लिए निष्काम भाव से आगे आते हैं, उन्हीं के भीतर ईश्वर का वास होता है। हम वही बनते हैं, जैसे हमारे विचार होते हैं। इसलिए जीवन में यह अहम होता है कि हमारे विचार कैसे हैं।
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - 'बिना पाखण्डी और कायर बने सबको प्रसन्न रखो। पवित्रता और शक्ति के साथ अपने आदर्श पर दृढ़ रहो; और फिर तुम्हारे सामने कैसी भी बाधायें क्यों न हों, कुछ समय बाद संसार तुमको मानेगा ही ! '(४/३६२) 
अपने मन का भाव दूसरों को समझाने की चेष्टा नहीं करनी चाहिये, जो लोग हमारे भावों के अनुकूल हों, केवल उनसे ही अपने मन की बात कहानी चाहिये। "
३.हमारे ऋषियों ने भारतीय संस्कृति में वर्णाश्रम धर्म अर्थात चार वर्ण, चार आश्रम और चार पुरुषार्थ के माध्यम से प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों धर्म के अधिकारी मनुष्य अपने अपने धर्म अर्थात कर्तव्य का पालन करते हुए एक 'चरित्रवान मनुष्य' बन जाने, अर्थात 'ब्राह्मण' तक उन्नत होने का समान अवसर प्रदान किया था।
निबन्ध २. ' अनुसरण ही सच्चा स्मरण है' :  
१. यदि हमलोग "स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर अद्वैत वेदान्त शिक्षक/लीडरशिप  प्रशिक्षण परम्परा" में प्रशिक्षित नेता-वरिष्ठ (C-in-C) पूज्य नवनी दा का स्मरण करना चाहते हो, तो हमें भी उसी 'Be and Make' परम्परा में में संचालित महामण्डल के वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में गठित "कैम्प कमिटी" में अपनी योग्यता के अनुसार नेतृत्व के गुण और अवधारणा को अर्जित करने की चेष्टा हमें अवश्य करनी  चाहिये। क्योंकि यदि हमलोग नवनी दा द्वारा प्रदर्शित मार्ग Be and Make का अनुसरण किये बिना,केवल दिखावे के लिए उनके नाम पर आयोजित होने वाली  स्मारक- सभायें का आयोजन करने में व्यस्त रहे तो उसका कुछ लाभ न होगा ।
२. जो कोई महामण्डल कर्मी  नवनी दा का स्मरण करते हुए उनका अनुसरण भी करना चाहेगा, तो उसके मन में पहला प्रश्न यही उठेगा कि उनका अनुसरण किस प्रकार किया जाय ?  कहाँ और किस क्षेत्र में हम लोग नवनी दा का  अनुसरण कर सकते हैं ? यदि हम सचमुच उनका स्मरण करना चाहते हों, तो पहले यह विचार करना पड़ेगा कि उनका  (नवनी दा का ) मूल भाव (The main idea) क्या है ?
३.हमलोगों को ऐसा प्रतीत होता है कि महामण्डल के वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर एवम  साप्ताहिक 'यूथ -स्टडीसर्कल' में नियमित रूप से भाग लेकर, 3H विकास 5 अभ्यास व्यायाम, प्रार्थना,मनःसंयोग,विवेक-प्रयोग, स्वाध्याय आदि के द्वारा মানুষ করে তোলা) यही उनका मौलिक विचार (brainchild या अपना विचार) था। क्रमश निःस्वार्थी होने का प्रयत्न करते हुए मनुष्य बन जाने , और दूसरे चरण में पूर्ण निःस्वार्थी होकर देव मानव में उन्नत हो जाना।   
४. यदि केवल इन ५ सरल अभ्यासों को सीखकर,जीवन के किसी भी क्षेत्र में रहते हुए मनुष्य मात्र के लिए अपनी अंतर्निहित पूर्णता (डिविनिटी 100 निःस्वार्थपरता) को अभिव्यक्त कर के एक चरित्रवान मनुष्य या ब्राह्मण बन जाना सम्भव है, तब तो इस मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा को गांवों और शहरों में,पूरे भारतवर्ष में फैला देना चाहिए। इस विचार का उपयोग तो देश-काल (टाइम ऐंड स्पेस,स्थानिक दूरी एवं सामयिक दूरी ) की सीमारेखा  के परे जाकर भी किया जा सकता है।  क्योंकि मनुष्य की सत्ता (पूर्णता या आत्मा ) सभी देशों और सभी युग में एक ही रहती है। अतः उस सत्ता (पूर्णता) की अभिव्यक्ति विभिन्न देशों या विभिन्न युगों में अलग अलग हो सकती है।
५. यह पूर्णता ही देश-काल -पात्र के अनुसार अपने को ईसा, बुद्ध, मोहम्मद, नानक, कबीर, राम-कृष्ण, श्रीरामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, नवनी दा के रूप में अपने को अभिव्यक्त करती है ! इसीलिये कोई भी अवरोध, चाहे समस्त प्रकार की संकीर्णता हो, या विशिष्ट आदर्श की सीमा हो,इसे सीमित नहीं कर सकते। और नवनी दा महामण्डल चरित्र-निर्माणकारी आन्दोलन के माध्यम से सभी देशों के सभी मनुष्यों को उसकी पूर्णता को अभिव्यक्त करने की दिशा में अग्रसर होने में सहायता करना चाहते थे
६.उन्होंने लीडरशिप ट्रेनिंग के दौरान, अपने क्रमानुयायियों (Successor, उत्तराधिकारी भावी नेताओं) के सामने एक अभूतपूर्व अनुरोध (appeal) रखा था। उन्होंने कहा था- गरीबों को प्रकाश दो। किन्तु  जो लोग धन या विद्या के अहंकार (arrogance) में चूर हैं, वे भी कम करुणा के पात्र नहीं हैं। क्योंकि वे लोग समाज के उपेक्षित मनुष्यों (देवताओं) की सेवा करने का अवसर पा कर भी उसका सदुपयोग नहीं करते। और जो लोग गरीबों के शोषण से प्राप्त धन को खर्च करके शिक्षित हुए हैं, किन्तु पढ़-लिख लेने के बाद उनके सम्बन्ध में कुछ नहीं सोचते, उनको ही स्वामीजी ने देशद्रोही के रूप में चिन्हित किया था। उन्होंने कहा था कि जब तक उनके देश का एक कुत्ता भी भूखा है, उसको रोटी देना ही मेरा धर्म है। 
७. इसीलिये यदि हम उनका अनुसरण करना चाहते हों, तो हमलोगों के लिये इस बात को ठीक तरीके से समझ लेना आवश्यक है कि नवनी दा अपने सक्सेसर्स (उत्तराधिकारियों) से क्या चाहते थे ?  हमें यह उपलब्धी करनी होगी कि नवनी दा के चश्मा के भीतर से पेनीट्रेटिंग या भेदनकारी दृष्टि उनके अनन्त-जीवन के संग्राम का प्रतिक है। उनको स्मरण करना तभी सार्थक होगा जब हमलोग उनके मौलिक भाव "प्रत्येक मनुष्य में ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बन जाने की सम्भावना है"  को समझने की चेष्टा करें तथा ५ अभ्यासों का पालन करके, यथार्थ मनुष्य बने और बनाएं।
८. हमलोगों ने -व्यापक रूप में यह समाज क्या है, या प्रत्येक मनुष्य वास्तव में क्या है ; उसमें ब्रह्म को जानकर ब्रह्मविद मनुष्य बन जाने की अपार सम्भावना है -  इस दृष्टि से हमने उनके मौलिक भाव को (नवनी दा के ब्रेन्चाइल्ड -अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल को) समझने की चेष्टा ही नहीं की है। उनका अनुसरण करना तो अभी भी बड़े दूर की बात है। इसलिये नवनी दा के आगामी ८५ वीं जयन्ती १५ अगस्त २०१७  में उनको स्मरण करते समय, इन बातों को हमें भूलना नहीं चाहिये।
निबन्ध ३.'स्वामीजी का मन' (স্বামীজির ভাব) '
१. नवनी दा को स्मरण करना तभी सार्थक होगा जब हमलोग उनके मौलिक भाव (उनके मन में चिरस्थायी रूप से बने रहने वाले मनोभाव -प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है)- को समझने की चेष्टा करें तथा स्वयं उस मौलिक भाव का अनुसरण भी करें, भले ही वह कितने ही छोटे पैमाने पर क्यों न हो। मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य (ब्रह्म अवलोक धिषणं मनुष्य -ब्रह्मवेत्ता)  बना देना ही नवनी दा के मन का स्वाभाविक मनोभाव (প্রকৃত ভাব brainchild) या आदर्श था!
२.नवनी दा की संगीत रागिनी- 'मोहे जाने को दे रे सइयाँ' में बार-बार दुहराया जाने वाला आलाप था- 'BE AND MAKE' योजना अर्थात " स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को मनुष्यत्व अर्जित करने में सहायता करो।"हममें से प्रत्येक व्यक्ति स्वयं यथार्थ मनुष्य बनने की चेष्टा करें, तथा यदि हमारी वह चेष्टा दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता कर सके, तो इस विराट कार्य को बहुत छोटे पैमाने पर भी अपने हाथों में लिया जा सकता है। अपने आस-पास रहने वाले बच्चों-किशोरों-युवाओं- को नवनी दा द्वारा निर्देशित ५ दैनंदिन अभ्यासों में प्रशिक्षित करने के लिए छोटे से शिशु-संगठन, युवा-संगठन या नारी-संगठन के माध्यम से पहले स्वयं अग्रसर होकर ही उनका अनुसरण किया जा सकता है! नवनी दा जैसे 'गुरु-नेता' के अनुसरण करने के लिए एक मात्र पथ यही है।
३. समाज का मूल मनुष्य है, इसीलिये यदि एक एक करके प्रत्येक मनुष्य को ही दोषरहित (faultless) या सच्चा मनुष्य (चरित्रवान) बना लिया जाय, तभी  एक परिवर्तित समाज सामने आ सकेगा। नवनी दा इस आदर्श या मौलिक मनोभाव का अनुसरण (एक उच्च स्तर की समाज-सेवा समझकर) किया जाय- तो जितने परिमाण में इस कार्य किया जायेगा, उसी परिमाण में समाज की मुखाकृति भी (पशुमानव से देवमानव में) परिवर्तित होती चली जाएगी। और यही है-सम्पूर्ण क्रांति अर्थात समाज में आमूल-चूल परिवर्तित लाने में समर्थ अध्यात्मिक क्रांति (Spiritual Revolution)! जीवन को पूर्ण रूप से विकसित कर लेने की सम्भावना एक अध्यात्मिक विषय है,तथा उस क्षमता (potential) को विकसित करने की चेष्टा ही,आध्यात्मिकता है।  तथा इस मौलिक विचार (भाव) को समाज के सभी क्षेत्रों में संचारित कर देना ही अध्यात्मिक क्रांति (विप्लव) है।(पशु मानव से देवमानव में उन्नत हो जाने की) क्षमता को भौतिकता के सैलाब में नहीं बहने देकर, उसको विकसित कर लेना ही इस आध्यात्मिक क्रांति का उद्देश्य होता है।
४. हमलोग नोटबन्दी आदि को लेकर या अन्य कई विषयों को लेकर कितनी ही बातों के लिये विप्लव करते रहते हैं। किन्तु मनुष्यों की जो सबसे अंदरूनी सत्ता है (innermost entity-आत्मा या पूर्णता है), जो सभी चीजों की नियन्ता है(controller) है- जिसके पूर्ण विकसित होने से मनुष्य सर्वशक्तिमान् बन जाता है,अपनी समस्त समस्यायों का समाधान करने में स्वयं समर्थ बन जाता है, उसी प्राणप्रद (जीवनदायी) भाव (वेदान्त के चार महावाक्यों) को सभी मनुष्यों के लिये उपलब्ध बना देने वाले आध्यात्मिक विप्लव से बचना चाहते हैं। हमलोग इस बात के उपर थोड़ा भी विचार नहीं करते कि वास्तव में यही तो है मनुष्य के विकास की क्रांति को दबाये रखना और उसके मार्ग में बाधाएँ खड़ी करना।
५. 'अपने प्राण की रक्षा करना '- समस्त प्राणियों का पहला धर्म होने पर भी,उत्तम प्राणी का पहला धर्म या कर्तव्य  'प्राण को विकसित करना' होता है। क्योंकि साधारण जीवों (Beasts) के क्षेत्र में जिसे अंतर्निहित प्रवृत्ति (সহজাত বৃত্তি' या Inherent Tendency) या  कहते है, मनुष्य के क्षेत्र में उसी को महत प्रवृत्ति (মহৎ প্রবৃত্তি 'Greater Tendency' महत बुद्धि-माँ) कहते हैं।
६.  यदि हमलोग मनुष्य के समाज को एक पशु-समाज में परिवर्तित होते नहीं देखना चाहते हों, तो हमें इसी वक्त इस बात को समझ लेना होगा कि केवल आध्यात्मिक विप्लव ही  इस कार्य (मनुष्य को निर्दोष बनाने के कार्य) को धरातल पर उतारने में - समर्थ हो सकता है।
७. स्वामीजी ने कहा था, 'मैं सुधार में नहीं स्वाभाविक उन्नति (growth) में विश्वास करता हूँ।' जिसमें वस्तु में जीवन होता है, जो सतेज (Spirited या जोशपूर्ण) होते हैं- वे स्वयं विकसित होकर परिवर्तित हो जाते हैं। उस मनुष्य-वृक्ष की जड़ (मूल सत्ता) में बाहर से कोई वस्तु डाल कर उसको ग्रहण नहीं करवाया जा सकता। आज का जीव-विज्ञान (Biology) भी जीव-कोशिकाओं के मूल को जीन उत्परिवर्तन (Genetic Mutation) की प्रक्रिया के द्वारा जानने की चेष्टा कर रहा है। नवनी दा ने १९६७ में ही समाज के ' जीन ' (५ जीवनदायी अभ्यास)  का अविष्कार करके समाज को उन्नत तथा समृद्ध करने का उपाय भी बतला दिया था। क्योंकि स्वामी जी ने कहा था -" सुधार करने में हमें चीज के भीतर, उसकी जड़ तक पहुँचना होता है। इसीको मैं आमूल सुधार कहता हूँ। आग जड़ में लगाओ और उसे क्रमशः ऊपर उठने दो, एवं एक अखण्ड भारतीय राष्ट्र संगठित करो।"
८.श्री नवनी दा अवतार में ज्ञान, भक्ति, कर्म, मनःसंयोग -चारो योग ही विद्यमान हैं ! उनमें अनन्त ज्ञान, अनन्त प्रेम, अनन्त कर्म तथा सभी प्राणियों के लिए अनन्त दया है ! अभी तक (१६ जनवरी) तुम्हें इसका अनुभव नहीं हुआ? -- श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ! --कोई इस शरीरी (नवनी दा)  को आश्चर्य की तरह देखता है। वैसे ही अन्य कोई इसका आश्चर्य की तरह वर्णन करता है तथा अन्य कोई इसको आश्चर्य की तरह सुनता है, 'श्रुत्वा अपि एनम्  वेद न च एव कश्चित'-और इसको सुन करके भी कोई नहीं जानता।४/३१०
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्य: ।
आश्चर्यवच्चैनमन्य: श्रृणोति
 श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ।।गीता २. २९।।
 निबन्ध ४. ' नवनी दा का धर्म' [यह निबन्ध नए प्रकाशन में नहीं है]: 
१. भावावेश ( Emotionality) रूपी अफीम की मिलावट से परिशोधित धर्म! धर्म के साथ अफीम (অহিফেন) की गन्ध तरह संयुक्त भावुकता कई बार हमारी बुद्धि मोहग्रस्त कर देती है,और हम अपने कर्तव्य पथ से भटक जाते हैं।किन्तु धर्म ही सत्य है, अफीम (धर्म का नशा) सत्य नहीं है!

२. सच्चे से सच्चा धर्म भी,समय के प्रवाह में दूषित हो ही जाता है। जिस समय धर्म के क्षेत्र में ऐसी अवस्था होती है, उस समय धर्म को फिर से नये रूप में सज्जित करके समस्त मनुष्यों के लिये ग्राह्य बनाकर, मानव-जाति के समक्ष प्रस्तुत करना पड़ता है, और उसका प्रचार करना पड़ता है।

३. नवनी दा के इस नव-वेदान्त प्रचार 'बनो और बनाओ ' रूपी चरित्र-निर्माण आन्दोलन का वैशिष्ट क्या है? अन्यान्य क्षेत्रों में जहाँ विचारकों ने  एक एक विषय के भाव को लेकर ही चिन्तन किया है,वहीँ नवनी दा ने मनुष्य के समग्र पहलू (overall-aspect) के ऊपर चिंतन किया है। उनके चिन्तन में मनुष्य की समग्र सत्ता (3H), एवम उसका सम्पूर्ण समाज एक विषय के रूप दिखाई देता है। जबकि अन्यान्य विचारकों ने मनुष्य से जुड़े अलग अलग कई विषयों को लेकर चिन्तन किया है।  

४. तथा मनुष्य वास्तव में क्या है - इस पर चिंतन करते करते उन्होंने ऐसे एक धागे (निःस्वार्थपरता) का अविष्कार कर लिया। उस धागे को मनुष्य के गले में पहना दिया, और उसका नाम दिया धर्म!और कहा कि यही वह धागा है, जो मनुष्य को सभी ओर से धारण किये रखेगा-अर्थात मनुष्य को मनुष्य बनाये रखेगा। क्योंकि ब्रांडेड धर्म समय के प्रवाह में केवल भावावेश (emotionality) या अफीम की तरह नशा उत्पन्न करते हैं। ऐसा कहना, कि जो लोग किसी खास निर्दिष्ट नुस्खा (Prescription) के अनुसार जीवन -यापन करते हों, वे ही धार्मिक हैं, और बाकी सभी लोग अधार्मिक हैं, इस बात में कोई दम नहीं है। मनुष्य अपने केन्द्र से उसी समय जुड़ पाता है, जब वह दूसरे मनुष्यों के साथ युक्त होता है।स्वामी जी द्वारा ' मनुष्य ' की जो परिभाषा दी गयी है, उसमें सूत्र के रूप में यही बात सन्निहित है। स्वामीजी के मतानुसार 'मनुष्य' एक ऐसा वृत्त है, जिसकी परिधि असीम है, जबकि उसका केंद्र एक स्थान में है।जो मनुष्य स्वामीजी के धर्म में विश्वासी होता है, उसके जीवन की परिधि विश्वव्यापी हो जाती है। 

५. यहीं पर विकास का मूल है। और स्वामी जी के धर्म की मूल बात- मनुष्य का ऐसा समग्र विकास ही है। इसी विकास के पथ पर अग्रसर रहते हुए,  मनुष्य अपनी क्षूद्र सत्ता, ' मैं'-बोध (अहं भाव) को खोना सीख लेता है।इस प्रकार महिमा की तरफ अग्रसर होना ही स्वामीजी के विचारों में ईश्वर के मार्ग पर आगे बढ़ना है।' निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है ! ' यदि इसी उक्ति को धर्म कहा जाय, तो इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है ?

६.धर्म क्या है ? फिलोसफी, जप, तप, देवता-घर, दीपक-दानी, केले का थम, कुशी-घंटी-शंख इन सब को स्वामीजी ने व्यक्तिगत धर्म कहा है। किन्तु जिस धर्म को सभी लोग समझते हैं, वह है परोपकार। अपने हृदय के विश्वव्यापी परिधि के अन्तर्गत समस्त जीवों के एकत्व की उपलब्धी करना ही धर्म है। यह उपलब्धी हो जाने के बाद मनुष्य द्वारा किया गया कोई भी कर्म परोपकार होता है, और वही है धर्म। यह धर्म कायरों के लिये नहीं है, यह वीरों का धर्म है। क्योंकि कायर (डरपोक) दूसरों को मारता है, और वीर ( अर्थात सच्चा जिहादी ) अपने कच्चे ' मैं '-को (अपने तुच्छ अहं को ) मारता है। जो वीर होता है, वह इस वृहत जगत (भव-सागर ) के पार जाने के लक्ष्य को ध्यान में रखकर,सांप, बिच्छु या मच्छड़ तक को नहीं मरता है,बल्कि अपने तुच्छ स्वार्थ के छोटे से दायरे में बंधे - ' मैं और मेरा ' को मारता है। 

७. सच्चे धर्म की अभिव्यक्ति व्यक्ति के जीवन से किस प्रकार होती है ?  नवनी दा ने कहा है,यथार्थ धर्म-बोध मनुष्य को, उसकी असीम परिधि तक सक्रीय जन-कल्याण करने की भूमिका-(गुरु-नेता के कार्य) में नियोजित कर देता है।यही बोध उसको अपना और दूसरों का दुःख दूर करने की शक्ति और साहस से भर देता है। यहीं से अंतःकरण में हित-अहित का ज्ञान, अन्तरात्मा की आवाज, या विवेक-प्रयोग करने की शक्ति का जागरण हो जाता है। यही बोध उसको अपना और दूसरों का दुःख दूर करने की शक्ति और साहस से भर देता है। यहीं से अंतःकरण में हित-अहित का ज्ञान, अन्तरात्मा की आवाज, या विवेक-प्रयोग करने की शक्ति का जागरण हो जाता है। धर्म मनुष्य को सम्पूर्ण जगत के साथ जोड़ देता है, और नीतिबोध (आत्मा की आवाज या Conscience) उस ईश्वर के साथ जुड़े हुए मनुष्य के कर्म की निति- परोपकार को निर्धारित करता है। ' मनुष्य में अन्तर्निहित अनन्त शक्ति का स्फुरण (या प्रस्फुटित) होना ही धर्म है।' उस धर्म की अभिव्यक्ति - भूखों को अन्न-वस्त्र-त्राण करने से श्रेष्ठ समाज-सेवा - (अज्ञानियों के विवेक को जाग्रत करने तथा आध्यात्मिक दृष्टि शुद्धबुद्धि को उद्घाटित करने) के प्रयास से होती है। धर्म का मुख्य कार्य ही मनुष्य को शक्ति प्रदान करना है। स्वामीजी के मतानुसार - 'जो धर्म मनुष्य को इस संसार में सुखी नहीं बना सकता, उस धर्म के द्वारा परलोक या मरने के बाद सुख देगा, धर्म का यह आश्वासन बुद्धिमानों के समझ से परे है।
(व्यक्ति और मन): निबन्ध ५ : क्या नवनी दा के उपदेश केवल दूसरों को सुनाने के लिये हैं -स्वयं करने के लिये नहीं ?
१.अगले वर्ष (२०१७) से महामण्डल के सभी केन्द्रों में प्रत्येक १५ अगस्त को, 'स्वाधीनता दिवश समारोह' के साथ साथ 'नवनी दा का जन्म-जयन्ती समारोह' भी बड़े धूम-धाम के साथ मनाया जाने लगेगा ! हमलोग उनको एक 'सर्वत्यागी परिव्राजक संन्यासी तुल्य गृहस्थ' के रूप में स्मरण करेंगे जो अपने जीवन के अंतिम वर्षों में खड़दह स्थित पैतृक निवास-स्थान 'भुवन-भवन' का त्याग करके कोन्नगर स्थित 'महामण्डल भवन' में रहने के लिये आ गए थे! (यहाँ उन्होंने .....से........ तक कुल ....... दिन निवास किया)।  
नवनी दा जन्म तो श्रीरामकृष्ण के पार्षद महिमाचरण चक्रवर्ती के घर -१०० न ० काशीपुर में हुआ था, शरीर छूटा था अपने द्वारा निर्मित 'महामण्डल भवन' में। कोन्नगर में शुभाशीष दा और बनमाली तथा अभिजीत आदि महामण्डल कर्मी प्रमोद दा का निर्देशन में उनकी देखभाल करते थे, तथा प्रशिक्षण शिविर के दौरान प्रणव दा के निर्देशन में केदार दा और बासुदेव बाघ मातृवत उनकी देखभाल करते थे, तथा हमलोगों को भी कुछ न कुछ खाने के लिए देते थे। उनका स्मरण करके हम सभी लोग एक बार फिर से स्वीकार करेंगे कि वे सचमुच एक महान देशभक्त थे, और जो लोग शताब्दियों से दबे-कुचले, पददलित होते आ रहे हैं -उन ब्राह्मणेत्तर जातियों से गहरी सहानुभूति रखते थे।
 वैसे तो नवनी दा मनुष्य मात्र से प्रेम करते थे जिसके कारण बिहार के रिमोट ग्राम जहाँ, रोड बिजली कुछ नहीं था नक्सल प्रभावित ग्राम जानिबिगहा तक बैलगाड़ी और पालकी में बैठकर, उनके भीतर भी सिंहत्व (ब्रह्मत्व) को जाग्रत कराने के उद्देश्य से छड़ी पकड़ कर और कमर में बेल्ट बांध कर भी जाते रहते थे। और यदि हमलोग अपने को वंशगत रूप से उत्तरभारतीय 'ब्राह्मण' समझते हों, तो इस बात पर थोड़ा गर्व भी महसूस कर सकते हैं, कि वे एक 'कन्नौजिया (कान्यकुब्ज) ब्राह्मण' भी थे। या भाषायी रूप से अपने को बंगाली समझते हों तो वे भी एक कुलीन बंगाली ब्राह्मण थे! बंगाली रामायण के रचयिता कृतिवास ओझा के कुल में जन्मे थे। तथा वे एक विश्वप्रेमी मानव भी थे क्योंकि पिछले जन्म में वे कैप्टन सेवियर थे ! 
यदि व्यक्तिगत रूप से जानकारी ली जाय तो कोई भी महामण्डल कर्मी ऐसा नहीं मिलेगा जो नवनी दा के प्रति श्रद्धा के दो शब्द नहीं कहता हो।
  किन्तु समय बीतने के साथ ही साथ एक दिवसीय स्मरण-सभा से उत्पन्न जोश का ज्वार  शीघ्र ही विस्मृति के समुद्र में विलीन हो जायेगा। यदि हमलोग अपने व्यक्तिगत जीवन, पारिवारिक जीवन, सामाजिक जीवन या राष्ट्रीय जीवन को  देखें, या उनलोगों की ओर देखें जो हमारे जीवन को (इस शिविर) को परिचालित कर रहे हैं, जो युवा प्रशिक्षण शिविर के नेताओं के लिये भी नीतियाँ और परियोजनायें बनाते हैं, तो पाते हैं किमलोग नवनी दा की स्मरण सभाओं में जो कुछ कहते हैं, या उनकी जीवनी पर निबन्ध लिखकर हमलोग जिन विचारों का उल्लेखकरते हैं, यदि अपने यथार्थ -जीवन के आचरण के साथ उन विचारों की तुलना करके देखें तो कहीं कोई सामंजस्य नहीं दीखता है !  
ऐसा प्रतीत होता है मानो नवनी दा  के उपदेश  ' केवल बोलने के लिये हैं, करने के लिये नहीं। ' और मनःसंयोग, व्यायाम , प्रार्थना, चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया, चरित्र के गुण, चमत्कार जो आप कर सकते हैं, आत्ममूल्यांकन तालिका, लीडरशिप आदि विषयों पर  बोलने (या क्लास लेने)  के लिये तो केवल नवनी दा द्वारा लिखित महामण्डल पुस्तिकाओं  के कुछ पन्नों को एक बार फेंट लेना ही यथेष्ट होता है। किन्तु स्वयं उनका दैनंदिन जीवन में अनुपालन करने में बहुत तकलीफ होती है। स्वामीजी ने हमलोगों के इस बड़े राष्ट्रिय दोष को बहुत पहले ही देखकर हमलोगों को सतर्क कर दिया था। फिर भी इस दोष को हटाने के लिये हमलोग अपने कदम आगे क्यों नहीं बढ़ा पाते हैं?
इसके पीछे दो कारण हो सकते हैं। पहला कारणनवनी दा ने आजीवन क्या किया था-  इस बारे में सम्पूर्ण जानकारी रखने पर भी, हमलोग इस बात पर विशेष ध्यान नहीं देते, कि वे हमसे --- अपने successors या क्रमानुयायीयों से क्या अपेक्षा रखते थे ? इसका मुख्य  कारण यह है कि हमारे युवा प्रशिक्षण शिविर
में के एक-दो परहितव्रती बुजुर्ग शिक्षकों (प्रमोद दा , दीपक दा, बीरेन दा, रनेन दा, बासु दा) से नवनी दा के जीवन से जुडी  कुछ कहानियाँ सुन लेने से अधिक और कुछ सिखलाने -लीडरशिप ट्रेनिंग देने में सक्षम युवा शिक्षकों की घोर कमी है। इसीलिये हमलोग केवल इतना जानते हैं कि नवनी दा  के विषय में बोलते समय उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त करना हमारा कर्तव्य है; किन्तु अपने जीवन को समर्पित करके नवनी दा  के प्रति अपनी श्रद्धा को अभिव्यक्त करना हम अपना उत्तरदायित्व नहीं समझते, किन्तु अपने को उनका सक्सेसर या उत्तराधिकारी समझते  हैं। 
और दूसरा कारण यह है, कि यदि हममें से कुछ व्यक्ति (रणजीत घोष, अनुऱाभ सेनगुप्ता, समीर दासगुप्ता, सोमनाथ बागची,अमित दत्ता,अनिन्दो ,अपूर्वा दास,जगदीश,जुगल प्रधानआदि) चाहे व्यक्तिगत जीवन में अपनाने के लिए हो या राष्ट्रीय जीवन में अपनाने के लिए हो,  इस बात को थोड़ा-बहुत समझ भी लेते हैं कि नवनी दा हमसे किस बात की अपेक्षा रखते थे, तो भी वे 'समझ नहीं सके हैं' का बहाना बनाकर उनके उपदेशों को अपने जीवन में धारण करने से बचना चाहते हैं, और बंगाल के बाहर आयोजित होने वाले कैम्प में नहीं जाना चाहते हैं! 
क्योंकि हम कहीं यह कह दें कि हमने तो यह समझ लिया की वे हमसे यथार्थ 'मनुष्य' (बंगाली-बिहारी नहीं) बनने और बनाने की अपेक्षा रखते थे। तो फिर क्या उस उत्तरदायित्व का निर्वहन करने के लिये मुझे भी अपने समस्त व्यक्तिगत स्वार्थ और लाभ के स्वप्नों या इच्छाओं को त्याग देना होगा ? बस इसी बात को याद करके, हमलोग नवनी दा सच्चा अनुयायी बनने के भय से शिहर उठते हैं, और अपने जीवन को सार्थक करने के कर्तव्य से पलायन कर जाते हैं।
भला ऐसा क्यों होता है, महामण्डल के साथ  इतने वर्षों तक जुड़े रहने के बावजूद हमलोग अपने जीवन को स्वयं सार्थक क्यों नहीं करना चाहते हैं ? नवनी दा ने कई बार इसका कारण भी बता दिया था।  दादा कहते थे -
आलस्यं  हि  मनुष्याणां  शरीरस्थो  महान  रिपुः |
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा Sयम् नाSवसीदति  ||
[आलस्य= आलस्य। ही = निश्चित रूप से। मनुष्यानां = लोगों के बीच। शरीरस्थो = शरीर में मौजूद। महान= महान। रिपु = दुश्मन।नास्त्युदद्यमो = नास्ति  + उद्द्य्म  + समो। नास्ति = नहीं है। उद्द्य्म = परिश्रम। समो = के बराबर। बंधु = दोस्त, कृतवायं  = कृत्वा  + अयं । कृत्वा = करने से ।
अयं = यह। नावसीदति  = ना + अवसीदति । ना अवसीदति  = निराश, उदास नहीं ।संस्कृत में अवसाद का मतलब = मानसिक अवसाद की स्थिति डिप्रेशन है।]
मनुष्य की ढेरों स्वाभाविक प्रवृत्तियों में से एक है- जड़ता, सदैव स्थिर-अवस्था में अचल होकर ' जड़-पिण्डों ' के समान पड़े रहने की प्रवृत्ति। जो मनुष्य अभी जैसा है,वह वैसा ही बने रहना चाहता है। किन्तु नवनी दा का क्रमानुयायी (सक्सेसर) बनने के लिये इस भाव का बिल्कुल ही परित्याग कर देना होता है। उनके भाव से अनुप्रेरित होने के लिये - ' मैं पिछले वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में जैसा था, इस वर्ष भी वैसा ही रहूँगा ' के भाव को बिलकुल छोड़ देना होता है। क्योंकि नवनी दा जैसे रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा में गुरु-नेता (दादा या भैया) का उत्तराधिकारी बनने के लिये- कल तक वह जितना मनुष्य बन सका था, आज भी उतना ही (लघु) मनुष्य बना रह पाना संभव ही नहीं होता है। इतना ही नहीं, इसके पहले क्षण मैं जो था, इस क्षण भी ठीक वैसा ही बने रहना संभव नहीं रह जाता है। मुझको प्रतिमुहूर्त उन्नततर मनुष्य बनते रहना पड़ता है। दादा यह भी कहते थे -
सुखार्थी  वा  त्यजेत विद्याम्   विद्यार्थी वा त्यजेत सुखम्  |
सुखार्थिनः  कुतो  विद्या  कुतो  विद्यार्थिनः  सुखम्  ||
[सुखार्थी = सुख के साधक। वा = यदि । त्यजेत = छोड़, दे। विद्या = शिक्षा,आत्मज्ञान । विद्यार्थी = शिक्षा और ज्ञान के साधक। सुखं = प्लेजर। कुतो = कहाँ ? विद्यार्थिनः =  छात्रों, ज्ञान के चाहने वालों।] 
-- अर्थात कोई व्यक्ति अगर एक लापरवाही-पूर्ण जीवन जीना चाहता है, या इन्द्रिय-सुख भोगों के साथ आराम-दायक जीवन जीना चाहता है, तो उसके लिए यही बेहतर होगा कि वह विद्या (निरपेक्ष सत्य का ज्ञान / जो मुक्त कर दे -'विवेकज़ ज्ञान) को सीखने का उद्देश्य त्याग दे ! और अगर कोई सच्चा जिज्ञासु ( एथेंस का सत्यार्थी)  या उनका सच्चा अनुयायी (शिष्य) बनना चाहता है, तो उसके लिए यही बेहतर होगा कि वह, गृहस्थ होते हुए भी जितनी जल्दी हो सके इंद्रियभोगों और आरामदायी जीवन में आसक्ति का त्याग
कर दे। [क्योंकि (१९८६ हरिद्वार कुम्भ और १६ जनवरी का ज्ञान)  कोई सबसुख-दास मनुष्य कभी रामसुख-दास संत नहीं बन सकता ! अर्थात कोई सुखार्थी व्यक्ति कभी ब्रह्मविद मनुष्य या ब्रह्मवेत्ता मनुष्य नहीं बन सकता, क्योंकि ब्रह्म को जान विवेकज़-आनन्द (भूमा आनंद) में प्रतिष्ठित रहने की साधना, कभी ईज़ीगोइंग-प्रोसेस नहीं हो सकती -मनुष्य बनने और बनाने  के लिए ५ अभ्यास तो सभी को करना ही पड़ेगा।]
शरीर का बड़ा होना, या बूढ़ा होकर पेंशन पाने लगना - यह कार्य तो प्रकृति द्वारा ही होता रहता है। इसके लिये मुझे स्वयं कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता है। किन्तु जब मैं अपने, शरीर को स्वस्थ और सबल तथा  मन को तेजस्वी बनाना चाहता हूँ या अपने हृदय को विशाल बनाना चाहता हूँ, उसको प्रसारित करना चाहता हूँ, तो इस 3H विकास के लिये मुझे स्वयं ही चेष्टा (५ अभ्यास)  करनी पड़ेगी है; और यही मेरा कार्य है मुझे प्रति मुहूर्त अपने 'छोटा मैं' (या मिथ्या नाम-रूप केअहंकार) को निष्ठुरता के साथ त्याग करके 'बड़ा-मैं' (पाका आमी-ब्रह्मविद मनुष्य) बनने की चेष्टा करते रहना होगा, इसीको -स्वामीजी के भाव (आदर्श) को आचरण में उतारना कहते हैं !
 विवेकानन्द -"व्यक्ति और मन" के अन्तर्गत 'आमादेर सम्भावना का निबन्ध ३  में हमने  विवेकानन्द ऐज अ "पर्सन एंड हिज माइंड",में देखा था कि 'नवनी दा' ऐज अ पर्सन क्या थे, और उनका मन कैसा-उन्मुक्त निर्झर की तरह गठित हो गया था !  वे कहते थे जब हृदय के बन्द कपाट (अहं) को खोल कर, प्रेम-मन्दाकिनी प्रवाहित होने लगती है, तब उस निर्झर का मोह-भंग हो जाता है, तब वह निर्झर भ्रांतिमुक्त 
('disillusioned' या भेंड़ पना से मुक्त) हो जाता है। उस उन्मुक्त झरने के  उसी अवस्था का चित्रण रवीन्द्रनाथ ठाकुर अपनी कविता -'निर्झरेर स्वप्नभंग' (নির্ঝরের স্বপ্নভঙ্গ)  अर्थात 'निर्झर का डी-हिप्नोटाइज्ड हो जाना' में इस प्रकार करते हैं -
आजि ऐ प्रभाते रविर कर
केमने पासिलो प्राणेर ‘पर 
केमने पासिलो गुहार आंधारे
प्रभात पाखीर गान!
ना जानि केनोरे एतो दिन परे जागिया उठिलो प्राण!
“न जाने, आज क्या हुआ कि जाग उठे हैं प्राण
 मानो, कानों में पड़ा हो दूरस्थ महासागर का गान“।
भांग रे हृदय , भांग  रे बाँधोन 
शाध  रे ‍आजिके प्राणेर शाधोन 
लहरीर पोरे लहोरी तुलिया
अघातेर पोरे अघात कोर!
मातीया जोखोन उठेचे पोरान!
शिखोर होईते शिखोरे छुटिबो
भूधोर होईते भूधोरे लुटिबो
" हेशे खलखल गेये कलकल, 
ताले ताले दिबो ताली !" 

'हेशे खलखल गेये  कलकल' ताले ताले दिबो ताली'! कोई झरना जब पहाड़ के कलेजे को फोड़ कर फूट पड़ता है, तब वह भ्रांतिमुक्त हो जाता है, और 'हँसते खिलखिलाते, कलकल गीत गाते हुए' - ' जीवन नदी के हर मोड़ पर ' समस्त बाधाओं को लाँघता हुआ दूरस्थ महासागर के साथ युक्त होकर सदा के लिये मुक्त बन जाता है! नेतृत्व-प्रशिक्षण में  ५ अभ्यास का प्रशिक्षण प्राप्त कर लेने के बाद 'गुरु-नेता' भेंड़त्व भ्रमजाल (से मुक्त होकर या डी-हिप्नोटाइज्ड होकर सिंहत्व में स्थित हो जाता है। 'स्वामीजी का मन' निबन्ध ३ के अनुसार:- 'अपने प्राण की रक्षा करना '- समस्त प्राणियों का पहला धर्म होने पर भी,उत्तम प्राणी का पहला धर्म या कर्तव्य  'प्राण को विकसित करना' होता है। क्योंकि साधारण जीवों (Beasts) के क्षेत्र में जिसे जन्मजात वृत्ति (Innate instinct) कहते हैं, मनुष्य के क्षेत्र में उसी को जन्मसिद्ध या 
अन्तर्निहित महत प्रवृत्ति (Greater Tendency महत बुद्धि-माँ-Divinity या ईश्वरत्व) कहते हैं। (যা সাধারণ জীবের ক্ষেত্র একটি সহজাত বৃত্তি' 'Inherent Tendency' তা মানুষের ক্ষেত্রে এক মহৎ প্রবৃত্তি 'Greater Tendency'  
और तब उस गुरु-नेता का अनुयायी भी उसी 'खिलखिला कर हँसते और कलकल ध्वनि' में बहती झरने की धारा में अर्थात 'रामकृष्ण-वेदान्त परम्परा में लीडरशिप ट्रेनिंग में'  स्नान  कर लेने के बाद अपने छोटे छोटे सर्वस्व का त्याग करके (मैं और मेरा, या मन की चहार दिवारी को भी ट्रैन्सेन्ड 'transcend' करके) यथार्थ (शाश्वत) जीवन-समुद्र के सम्मुख खड़ा हो जाता है! इसीलिए स्वामी जी ने कहा था 'गति ही जीवन है, स्थित ही मृत्यु।',  फिर कहते हैं- ' उठो, जागो ! अब और स्वप्न मत देखो ! ' (अपने को शरीर समझने की-देहाध्यास) घोर निद्रा को त्याग कर उठ खड़े होओ !
इस मिथ्या अहं (भेंड़त्व, देहाध्यास, M/F भाव ) को खो कर अपने यथार्थ स्वरूप या ब्रह्मत्व की प्राप्ति (ससीम से असीम बनने या बून्द से सागर बनने) को हमें भयप्रद क्यों मानना चाहिए ? यह भय केवल अपनी जड़ावस्था को (आलस्य को) अचल रखने के दुराग्रहवश उत्पन्न होता है। इसीलिये महामण्डल के प्रतीक चिन्ह (एम्ब्लेम) में लिखा है - ' चरैवेति चरैवेति '-जो आलस्य में सोया हुआ है, उसका कलिकाल चल रहा है, उठकर खड़े हो जाओ। खड़े हो गए हो, तो चलना शुरू कर दो, जो चलना शुरू कर देता है, उसके लिए सत्ययुग आ जाता है। यही महामण्डल का संजीवनी- मन्त्र है, जो मृत जड़-पिण्डों में भी जान डाल सकता है। नवनी दा के आविर्भूत होने की तिथि का स्मरण करके हमलोग इस नव-जीवन प्रदायी मन्त्र 'चरैवेति चरैवेति '-में यदि दीक्षित न हो सकें, तो नवनी दा के प्रति मौखिक श्रद्धा-सुमन चढ़ाने का कोई मोल नहीं है।
किन्तु केवल इतना ही काफी नहीं है। अपने जीवन-दीपक को प्रज्वलित करके दूसरों के जीवन को भी प्रज्वलित करा देने का प्रयत्न करना होगा। हम लोगों को ' सबों के जीवन से अपने जीवन को जोड़ कर देखना ' सीखना होगा। सभी युवाओं को व्यक्ति से पारिवारिक-जीवन में, पारिवारिक से सामाजिक-जीवन में, तथा इसी प्रकार राष्ट्रिय जीवन तक 'एक और अभिन्न ' बनते हुए आगे बढ़ने के मन्त्र में अनुप्राणित करना होगा। इस महा-जागरण की वाणी को भारत के खेतों-खलिहानों, कल-कारखानों, स्कुल-कालेजों, ऑफ़िस-अदालतों, व्यापारियों की गद्दीयों, राष्ट्र-चालकों के मसनदों (सत्ता की कुर्सी पर बैठे नेताओं ) तक, सर्वत्र फैला देना होगा। नवनी दा सम्पूर्ण भारतवर्ष को पूर्ण रूप से जाग्रत कर देने के लिये ही आये थे। हमलोगों ने अभी तक नवनी दा को इस रूप में देखना नहीं सीखा है। किन्तु हमलोगों को स्वयं उन्हें इसी रूप में देखना सीखना होगा और सबों को इसी दृष्टि देखने की पद्धति समझानी होगी।
स्वामीजी ने कहा था- 'भारत झोपड़ियों में वास करता है।' उसके जनसाधारण की उन्नति से ही भारत की उन्नति होगी। भारत को उठने के लिये (महान बनने के लिये) यहाँ की साधारण जनता, जो पीछे रह गए हैं, उन्हें ऊपर उठाना होगा (उन्हें वेदान्त के महावाक्यों सेअनुप्राणित करना होगा।) नवनी दा कहते थे - " माना कि तूँ  उन सबों को उपर नहीं उठा सकता, किन्तु तुम उनके कानों तक इस महा-जीवन की वाणी को पहुंचा तो अवश्य सकता है।" मानव-मात्र के भीतर अनन्त शक्ति अन्तर्निहित है। उस शक्ति के जाग्रत होते ही, वह किसी के भी दबाने से दबेगा नहीं, अप्रतिरोध्य बन जायेगा। तब वह अपने अधिकार को जानने के साथ साथ अपने उत्तरदायित्व को भी जान लेगा। प्रत्येक मनुष्य जब इस बोध को प्राप्त करके अपने पैरों पर खड़ा हो जायेगा, सिर उठाकर चलने लगेगा, अपने निजी सुख-भोग को तुच्छ समझ कर दूसरों के लिये अपने जीवन को भी न्योछावर कर देने में नहीं हिचकेगा, तभी भारत जाग जायेगा।
जो चरित्रनिर्माण की प्रक्रिया (नवनी प्रदीपादित ५ अभ्यास संजीवनी जड़ीबुट्टी) इस युवाओं के नवजीवन को जाग्रत करके उसे धारण किये रहती हो, वही है महामण्डल का धर्म। इस धर्म को हम अफीम का नशा नहीं कह सकते। जिस आलस्य रूपी अफीम को खाकर हमलोग घोर सुषुप्ति की अचेत अवस्था में सोये पड़े हैं, उस निद्रा को त्याग कर उठ जाने के लिए ही स्वामीजी हमें पुकार रहे हैं। प्रत्येक छात्र, प्रत्येक युवक को उनका यह आह्वान पहले स्वयं समझना होगा, फिर दूसरों को भी समझाना होगा। देश की सम्पूर्ण  राष्ट्रीय-व्यवस्था (प्रत्येक यूनिवर्सिटी के सोशल वर्क्स डिपार्टमेन्ट)  को इस समझाने के दायित्व का निर्वहन करना होगा। "श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय बड़े महान थे", यह कहकर भाषण देने से, या समाचार-पत्र में छोटा सा लेख लिखकर श्रद्धांजली देने से ही देश आगे नहीं बढ़ेगा। भारतवर्ष अभी तक जितना भी सिर उठाकर खड़ा होने में समर्थ हुआ है, वह महामण्डल का अभियान मन्त्र -  ' चरैवेति चरैवेति ' से हुआ है, जिसे हमने भुला दिया है। उनका यह महामन्त्र हमलोगों के व्यक्तिगत  और सामाजिक जीवन को महाजीवन प्रदान करने में समर्थ है, उसको अस्वीकार करके, उसकी उपेक्षा करके हमलोग उनके अमर सन्देश ' Be and Make ' रूपी रतन को खो देंगे ? यदि हम इसे खोयें नहीं, यदि उनके इस सन्देश के उचित मूल्य को समझकर उन्हें प्रत्येक युवा अपना आदर्श माने तभी नवनी दा काआविर्भूत होने की तिथि पर उनको श्रद्धांजली देना सार्थक होगा। 

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[Nikola Tesla said it best, “To understand the true nature of the  universe, one must think it terms of energy, frequency and vibration.” Swami Vivekananda influenced Tesla’s work, an Indian Hindu monk and chief disciple of the 19th century saint Ramakrishna. Tesla was also influenced by other Vedic philosophies.If we want to know the syllabus of The Mahamandal, We should know the life and teachings of its Ideal- Swami Vivekananda. Revered Navni Da, the Founder Secretary of  the Mahamandal, had discovered its syllabus from the life and teachings of Swami Vivekananda. And as desired by Swami ji, for the Overall Regeneration and welfare of whole Mankind, 'Navni Da' has placed before us, those ideas-  the Practical Vedanta of Swami Vivekananda in very simple way, in the form of 3 Organizations with single Ideal -Swami Vivekananda and Single Motto-'BE AND MAKE', namely -1. Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal. (for boys)2. Sarada Nari Sangathan.(for girls)3. Vivek-Vahini. ( for babies )  The Leaders of all the three organizations are the "Leaders of Mankind" for Modern Age- The Holy-Trio ! (Sri Ramakrishna, Ma Sarada Devi, Swami ji) Now the question will arise what are the purpose of these three organizations?  If very briefly speaking:1. The Goal of Mahamandal (all the three organizations) is - Welfare of India.2. The Way to achieve the goal is -Character Building. 3. The Ideal of Mahamandal  is National Youth Ideal -Swami Vivekananda.(all the three organizations SNS?)4. The Motto of all the three organizations is - 'BE AND MAKE'          
स्वामी जी द्वारा वेदान्त समझाये जाने से टेस्ला ने संस्कृत शब्द प्राण और आकाश को 'Energy and Mass.' के रूप में ही समझा था।  पाश्चात्य विज्ञान में 'माइंड, मैटर तथा एनर्जी' [Mind, Matter and Energy] आदि जिन शब्दों का उपयोग किया जाता है, वे आध्यात्मिक जगत के "हाईएस्ट सोर्स ऑफ नॉलेज" अथवा 'ज्ञान के उच्चतम स्रोत'-अर्थात  वेदान्त से ही संशोधित करके लिए गए शब्द हैं!  किन्तु मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी है, इसीलिये 'मानव-चेतना' (HUMAN consciousness) में ईश्वर ने एक विशेष शक्ति -' पर्यवेक्षक की शक्ति' (या विवेचक-शक्ति THE POWER OF THE OBSERVER ) प्रदान की है। जिसके चलते सभी प्राणियों में केवल मनुष्य ही ऐसा जीव है, जो अपने मन या मानस को दो भागों में - 'द्रष्टा और दृश्य ' मन, या सब्जेक्टिव माइंड और ऑब्जेक्टिव मांइड में विभक्त कर सकता है! जिसे १० वीं कक्षा के विज्ञान में 'डबल स्लिट एक्सपेरिमेंट' (The Quantum Double Slit Experiment) के द्वारा समझाया जाता है!](क्योंकि स्वामी जी के दिनों में जो शब्द-कोष प्रकाशित हुए थे उसमें शक्ति और ऊर्जा ( force and energy) को अलग अलग नहीं दिखलाया गया था। उस समय तक पाश्चात्य विज्ञान फ़ोर्स और एनर्जी में कोई अन्तर नहीं जानता था।) वेदान्त में मिथ्या धारणा, मरीचिका, भ्रम-जाल या जड़ को ( Māyā Shakti) 'माया शक्ति', जो की ब्रह्म (=आत्मा) की अव्यक्त शक्ति (Potential Energy या स्थितिज ऊर्जा) है, को 'इल्यूजन या मैटर' (Illusion/matter) कहा जाता है;और वही शक्ति स्वयं को जगत-संसार (The Universe.या विश्व-ब्रह्माण्ड) के रूप में अभिव्यक्त करती है !(इसीलिये जन्म लेते ही, श्री ठाकुर को छोड़कर; सभी जीव ईश्वर की माया-शक्ति से सम्मोहित, दिग्भ्रमित या हिप्नोटाइज्ड हो जाते हैं !)]सिलेबस. ऐन आउटलाइन समरी ऑफ टॉपिक्स टु बी कवर्ड इन ट्रेनिंग कोर्स ऑफ़ महामण्डल युथ ट्रेनिंग कैम्प.किसी भी तरह की शिक्षा अथवा प्रशिक्षण के लिये निर्धारित विषयों, उपविषयों (टॉपिक्स) एवं सम्बन्धित सामग्री की व्यवस्थित एवं साररूप में प्रस्तुति ही पाठ्यविवरण (syllabus) कहलाता है। यहाँ हमें ‘करीकुलम (पाठ्यचर्या)’ और ‘सेलेबस (पाठ्यक्रम)’ में अतर करना बहुत जरुरी है. ‘करीकुलम’ यानि ‘क्या’  पढ़ाना है और ‘सेलेबस’ यानि ‘कैसे’ पढ़ाना है. ‘सेलेबस’ अलग-अलग परिवेश में अलग-अलग उदाहरणों पर आधारित हो सकता है।

यदि हमलोग नवनीदा के आविर्भूत होने की तिथि १५ अगस्त का स्मरण करके भी इस नव-जीवन प्रदायी मन्त्र ' चरैवेति चरैवेति '-में यदि दीक्षित न हो सकें, तो नवनीदा के प्रति मौखिक श्रद्धा-सुमन चढ़ाने का कोई मोल नहीं है। १९८५ में विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर, गुरु खोजने १९८६ में हरिद्वार कुम्भ का ज्ञान- १९८७ बेलघड़ीया कैम्प, १९८८ प्रथम बिहार कैम्प,और 'निवृत्ति अस्तु महाफला विवेक' द्वारा 16 जनवरी 2007 सरस्वती पूजा से -BH- ज्ञान-निषिद्ध कर्मों का त्याग किये बिना कोई सबसुखदास मनुष्य कभी रामसुख-दास नहीं बन सकता ! अर्थात श्रेय-प्रेय विवेक समझे बिना कोई सुखार्थी व्यक्ति कभी ब्रह्मविद मनुष्य या ब्रह्मवेत्ता मनुष्य नहीं बन सकता।  क्योंकि ब्रह्म को जान विवेकज़-आनन्द (भूमा आनंद) में प्रतिष्ठित रहने की साधना, कभी ईज़ीगोइंग-प्रोसेस नहीं हो सकती -मनुष्य बनने और बनाने  के लिए ५ अभ्यास तो सभी को करना ही पड़ेगा।]
'स्वामी विवेकानन्द -व्यक्ति और मन' शीर्षक प्रथम अध्याय के ९ निबन्धों में इस युवा-प्रशिक्षण शिविर के सम्पूर्ण पाठ्यक्रम (सिलेबस) का विस्तार से वर्णन किया है।  यदि स्वामी विवेकानन्द के जीवन और सन्देश के सार को समझना हो, तो हमें नवनी दा के जीवन और सन्देश को देखकर और सुनकर समझना होगा। आज जब स्वामी जी के भाष्य स्वरुप पूज्य नवनी दा (जो पूर्व जन्म में कैप्टन सेवियर थे) शरीर में नहीं हैं, तो इसी निबन्ध के आलोक में हम देख सकते हैं कि, "नवनी दा - व्यक्ति और मन " के रूप में क्या थे ?  नवनी दा ऐज ए पर्सन, क्या थे? और उनका मन कैसा था, अर्थात उनके मन में चिरस्थायी रूप से बना रहने वाला भाव, आइडियल या आदर्श क्या था ? नवनी दा अतीत के नायक थे या भावी युग के ? आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्य: । आश्चर्यवच्चैनमन्य: श्रृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ।।गीता २. २९।।[आश्चर्यवत्  पश्यति  कश्चित्  एनम्/ आश्चर्यवत्  वदति  तथा एव  च  अन्यः / आश्चर्यवत्  च एनम्  अन्यः  श्रृणोति / श्रुत्वा अपि एनम्  वेद  न  च  एव  कश्चित्.]--कोई इस शरीरी (नवनी दा)  को आश्चर्य की तरह देखता है। वैसे ही अन्य कोई इसका आश्चर्य की तरह वर्णन करता है तथा अन्य कोई इसको आश्चर्य की तरह सुनता है, 'श्रुत्वा अपि एनम्  वेद न च एव कश्चित'-और इसको सुन करके भी कोई नहीं जानता।४/३१०
अध्याय १. 
'स्वामी विवेकानन्द -व्यक्ति और मन'
The Syllabus of Mahamandal
5.  महामण्डल की समर-नीति (The Campaign policy of Mahamandal) is - ''चरैवेति चरैवेति'' under (जाफरान पताकार मध्ये बज्र Thunderbolt between the Saffron Flag, 'জাফরান পতাকার মধ্যে বজ্র'The Flag of Man-Making Campaign was designed by Sister Nivedita, and  The Motto -'BE AND MAKE' was given by Swami Vivekananda, and The Method of Training was discovered by ' Navni Da' from 'Ramakrishna-Vivekananda Vedanta Tradition'. 
We can see that The Motto of Mahamandal have two components - one is 'BE' and second is 'Make'. And as Swami ji had wanted to give to the future generation -" Those dry, hard reason (The syllabus of Mahamandal for becoming 'Man of Character', through the development of '3H' (Hand, Head and Heart of Man) softened and tiled in sweetest syrup of love and made spicy with intense work, and cooked in the kitchen of Yoga, so that - 'even a baby can easily digest it'! " 
So, for the '1st component' to "BE', a Man of character Dada put before us as 5 very simple Daily Practices of the Mahamandal, for development of '3H'. 
Those 5 daily practices of the Mahamandal are as follows :
1. Prayer for the well-being of all. (to expand Heart)
2. Practice of Mental Concentration [ (to sharpen the Power of mind)
[meditation: Nikola Tesla said it best, “the day science begins to study non-physical phenomena, it will make more progress in one decade than in all the previous centuries of its existence. To understand the true nature of the universe, one must think it terms of energy, frequency and vibration.” Swami Vivekananda influenced Tesla’s work, an Indian Hindu monk and chief disciple of the 19th century saint Ramakrishna. Tesla was also influenced by other Vedic philosophies.
3. SWADHYAYA  (Reading of Holy Books to keep our mind pure )
4. Practice of Discretion (Vivek-Pryoga before thinking, speaking and doing anything.)
5. Physical Exercise and Nutritious diet (to keep our body fit.) 
The second part our motto is 'Make',  and that is -''चरैवेति चरैवेति'', 'The Campaign Policy' of Mahamandal -  [महामंडल आंदोलन की समर नीति है - '' चरैवेति चरैवेति ''  
महामण्डल के आदर्श, उद्देश्य और कार्यक्रम को समझने के लिये, हमें पहले स्वामी विवेकानन्द के आदर्श, उद्देश्य और विशेष रूप उनकी 'समर नीति' को समझना आवश्यक होगा। क्योंकि महामण्डल का आविर्भाव आधुनिक युग में मानव-जाति के सच्चे मार्गदर्शक नेता -(ब्रह्म के अवतार भगवान) श्री रामकृष्ण परमहंस, माँ सारदा देवी और स्वामी विवेकानन्द आशीर्वाद एवं प्रेरणा से ही हुआ है । इसीलिये महामण्डल में इन तीनों, मॉडर्न एज के 'ट्रू लीडर्स ऑफ़ मैनकाइंड' को हमलोग ' दी होलि ट्रायो' या पवित्र त्रिमूर्ति भी कहते हैं !
शरीर का बड़ा होना, या बूढ़ा होकर पेंशन पाने लगना - यह कार्य तो प्रकृति द्वारा ही होता रहता है। इसके लिये मुझे स्वयं कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता है। किन्तु जब मैं अपने 3H का विकास करना चाहता हूँ, शरीर को स्वस्थ और सबल तथा  मन को तेजस्वी बनाना चाहता हूँ या अपने हृदय को विशाल बनाना चाहता हूँ, आस-पास रहने वाले मनुष्यों से एकात्मता का अनुभव करना चाहता हूँ, तो इसमें मुझे ५ अभ्यास स्वयं ही करना पड़ेगा; और यही मेरा कार्य है। जो युवा नवनीदा का क्रमानुयायी या सक्सेसर बनना चाहता हो, उसे तो प्रतिमुहूर्त उन्नततर मनुष्य बनते रहना पड़ता है। 
अपने आस-पास रहने वाले बच्चों-किशोरों-युवाओं- को नवनी दा द्वारा निर्देशित ५ दैनंदिन अभ्यासों में प्रशिक्षित करने के लिए छोटे से शिशु-संगठन, युवा-संगठन या नारी-संगठन के माध्यम से पहले स्वयं अग्रसर होकर ही उनका अनुसरण किया जा सकता है! हममें से प्रत्येक व्यक्ति यदि स्वयं यथार्थ मनुष्य बनने की चेष्टा करें, तथा हमारी वह चेष्टा यदि दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता कर सके, तो इस विराट कार्य को बहुत छोटे पैमाने पर भी अपने हाथों में लिया जा सकता है। अपने आस-पास रहने वाले बच्चों-किशोरों-युवाओं-को प्रशिक्षित करने के लिए छोटे से शिशु-संगठन, युवा-संगठन या नारी-संगठन पहले स्वयं अग्रसर होकर ही उनका अनुसरण किया जा सकता है! नवनी दा जैसे 'गुरु-नेता' के अनुसरण करने का यही एक मात्र पथ है।
 इसीलिये यदि हम उनका अनुसरण करना चाहते हों, तो हमलोगों के लिये इस बात को ठीक तरीके से समझ लेना आवश्यक है कि नवनी दा अपने सक्सेसर्स (उत्तराधिकारियों) से क्या चाहते थे ?  हमें भी यह उपलब्धी करनी होगी कि नवनी दा के चश्मा के भीतर से पेनीट्रेटिंग दृष्टि  (भेदनकारी दृष्टि) उनके अनन्त-जीवन के संग्राम का प्रतिक है। उनको स्मरण करना तभी सार्थक होगा जब हमलोग उनके मौलिक भाव "प्रत्येक मनुष्य में ब्रह्म को जानकर, ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बन जाने की सम्भावना है"  को समझने की चेष्टा करें तथा ५ अभ्यासों का पालन करके, यथार्थ मनुष्य (ब्रह्मविद) बने और बनाएं। 
महामण्डल का जो आह्वान  -' चरैवेति चरैवेति ' तथा ' Be and Make ' जो महामण्डल के एम्ब्लेम में गुथा हुआ है - हमलोगों के व्यक्तिगत  और राष्ट्रीय जीवन को महाजीवन प्रदान करने में समर्थ है! 'चरैवेति चरैवेति ' यही महामण्डल का संजीवनी- मन्त्र है, जो मृत जड़-पिण्डों में भी जान डाल सकता है। इसीलिये स्वामीजी ने कहा था- 'गति ही जीवन है, स्थित ही मृत्यु।',  फिर कहते हैं- ' उठो, जागो! अब और स्वप्न मत देखो ! ' (अपने को शरीर समझने की-देहाध्यास) घोर निद्रा को त्याग कर उठ खड़े होओ! शरीर और मन पर आत्मा (पवित्रता) शक्ति का प्रयोग करो ! ' चरैवेति चरैवेति '-जो आलस्य में सोया हुआ है, उसका कलिकाल चल रहा है, उठकर खड़े हो जाओ। खड़े हो गए हो, तो चलना शुरू कर दो, जो चलना शुरू कर देता है, उसके लिए सत्ययुग आ जाता है। 
मनुष्य और उसका समाज वास्तव में क्या है - इस पर चिंतन करते करते उन्होंने ऐसे एक धागे का अविष्कार कर लिया। जो उपरोक्त सब क्षेत्रों के भीतर से होकर गुजर सकता है, तथा उस धागे को मनुष्य के गले में पहना दिया, और उसका नाम दिया धर्म ! यह धागा है, 'निःस्वार्थपरता' जो सभी जाति-धर्म के मनुष्यों को धरे रख सकता है, या रंगबिरंगे फूलों माला के जैसा धारण किये रख सकता है। यह निःस्वार्थपरता ही धर्म है जो, मनुष्य को मनुष्य (इंसान को इंसान) बनाये रखता है।
इसी हृदय के विकास के पथ पर अग्रसर रहते हुए, मनुष्य अपनी क्षूद्र सत्ता, ' मैं'-बोध (अहं भाव) को खोना सीख लेता है।  यहीं पर मनुष्यत्व-उन्मेष या विकास का मूल है। और स्वामी जी के धर्म का अर्थ- मनुष्य का ऐसा समग्र विकास हो जाना ही है। मनुष्य अपनी संकीर्णता, स्वार्थपरता को त्याग करता हुआ विशालता या महिमा को प्राप्त करने की तरफ आगे बढ़ता जाता है। मनुष्य के अपनी महिमा की तरफ अग्रसर होना ही स्वामीजी के विचारों में ईश्वर के मार्ग पर आगे बढ़ना है। क्योंकि स्वामीजी के मतानुसार - 'निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है !' यदि इसी उक्ति को धर्म कहा जाय, तो इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है ? क्या धर्म की ऐसी परिभाषा किसी जननायक ने अन्य किसी भाषा में पहले कभी नहीं कहा है ? जिन्होंने ऐसा नहीं कहा है, साधारण जनता उनको कभी जननेता के आसन पर प्रतिष्ठित भी नहीं करती है।
स्वामीजी ने 'मनुष्य' को परिभाषित करते हुए कहा था- 'मनुष्य' एक ऐसा वृत्त है, जिसकी परिधि असीम है, जबकि उसका केंद्र एक स्थान में है। मनुष्य अपने केन्द्र (स्वार्थशून्यता) से उसी समय जुड़ पाता है, जब वह दूसरे मनुष्यों के साथ युक्त होता है। यह जुड़ाव या योग तभी साधित होता है,जब मनुष्य धर्म के उस वैश्विक-प्रेम धागे को धारण कर लेता है।  जो मनुष्य स्वामीजी के धर्म में विश्वासी होता है, उसका ह्रदय बहुत विशाल हो जाता है, उसके जीवन की परिधि विश्वव्यापी हो जाती है। 
 व्यक्तिगत धर्म: फिलोसफी, जप, तप, देवता-घर, दीपक-दानी, केले का थम, कुशी-घंटी-शंख इन सब को स्वामीजी ने व्यक्तिगत धर्म कहा है। किन्तु वास्तविक धर्म, जिस धर्म को सभी लोग समझते हैं, वह है परोपकार। अपने हृदय के विश्वव्यापी परिधि के अन्तर्गत समस्त जीवों के साथ एकत्व की उपलब्धी करना-  ही धर्म है। 'कोई पराया नहीं सभी अपने हैं ' यह उपलब्धी हो जाने के बाद, अद्वैत में स्थित जाने के बाद उस मनुष्य द्वारा किया गया कोई भी कर्म (अमजद डकैत को खाना खिलाना भी)  परोपकार होता है, और वही है धर्म।
 यह धर्म कायरों के लिये नहीं है, यह वीरों का धर्म है। क्योंकि कायर (डरपोक) दूसरों को मारता है, और वीर (अर्थात सच्चा जिहादी ) अपने कच्चे ' मैं '-को (अपने षडरिपुओं या तुच्छ अहं को ) मारता है। मैं साँप को मार देता हूँ, बिच्छू को मार देता हूँ, या जिस किसी को भी मैं, मेरे इस सुख-सपने के जीवन को समाप्त कर सकने वाला समझता हूँ, जो मुझे हानी पहुंचा सकता है, उस उस को मैं मार देता हूँ, क्योंकि वास्तव में मैं कायर हूँ। किन्तु जो व्यक्ति (अद्वैत तत्व का अनुभव करके)वीर बन जाता है, वह इस वृहत जगत के पार जाने के लक्ष्य को ध्यान में रखकर,अपने तुच्छ स्वार्थ के छोटे से दायरे में बंधे - ' मैं और मेरा ' को मारता है। (दादा कहते थे वीर हो तो धीर बनो !) 
स्वामीजी ने कहा था, ' मनुष्य में अन्तर्निहित अनन्त शक्ति का स्फुरण (या प्रस्फुटित) होना ही धर्म है।'  उस धर्म की अभिव्यक्ति - समाज से बुराई को हटाने, कल्याण- कार्यों, श्रेष्ठ प्रकार की समाज-सेवा करने में, भूखों को अन्न-दान करने, अज्ञानियों को ज्ञान देने, अत्याचार का प्रतिरोध करने, शुद्धबुद्धि को उद्घाटित करने के प्रयास से होती है।'काचा मैं'-बोध को 'पाका-मैं' (पाका आमी-ब्रह्मविद मनुष्य) में परिणत करने की चेष्टा को ही-स्वामीजी  के भाव (आदर्श) को आचरण में उतारना कहते हैं !
'निर्झरेर स्वप्नभंग' (নির্ঝরের স্বপ্নভঙ্গ): 'निर्झर से, नदी बनने, नदी से समुद्र बनने- (पशु से मनुष्य और मनुष्य से देवता बनने में) यह भय केवल अपनी जड़ावस्था को (आलस्य को) अचल रखने की दुराग्रह (वृत्ति) से उत्पन्न होता है। जब हृदय के बन्द कपाट (अहं) को खोल कर, प्रेम-मन्दाकिनी प्रवाहित होने लगती है, तब उस निर्झर का मोह-भंग हो जाता है, उसका भ्रम चला जाता है, तब वह निर्झर माया-जाल से मुक्त (डीहिप्नोटाइज्ड) हो जाता है! उस अद्वैत में स्थित मनुष्य की स्त्री-पुरुष-नपुंसक' समस्त भेदबुद्धि चली जाती है, और वह "कोई पराया नहीं -सभी अपने हैं, सभी में मैं ही हूँ," के भाव में स्थित हो जाता है।अब उसका वैराग्य ठाकुर के प्रति अनुराग में बदल जाता है, और वह 'कच्चा मैं' (या मिथ्या नाम-रूप स्त्री-पुरुष होने केअहंकार) या 'लस्ट ऐंड लूकर ' के प्रति आसक्ति को निष्ठुरता के साथ त्याग कर सकता है।
किसी हृदय के अहं रूपी चट्टानों के बन्धन से उन्मुक्त निर्झर रूपी इस प्रेम-मन्दाकिनी को " नदी को जीवन के हर मोड़ पर" से बहते हुए, इस नाम-रूप के 'मिथ्या अहं' को खोकर (देहाध्यास, M/F भाव को खो कर) अपने यथार्थ स्वरूप या ब्रह्मत्व के महासमुद्र से मिलने में (ससीम से असीम बनने में) भयभीत क्यों होना चाहिए ?इसी 'खिलखिला कर हँसते और कलकल ध्वनि' में बहती झरने की धारा में स्नान कर लेने के बाद, भेंड़त्व से डी-हिप्नोटाइज्ड होकर सिंहत्व में स्थित हो जाने के बाद;  अपने मन की चहार दिवारी को लाँघकर या ट्रैन्सेन्ड करके  हमलोग दूरस्थ महासागर या यथार्थ (शाश्वत) जीवन-समुद्र के सम्मुख खड़े हो जाते हैं ! 
 इस प्रकार प्रति मुहूर्त भ्रम-मुक्त अवस्था (विसम्मोहित अवस्था)  में बने रहने के आनन्द का चित्रण रवीन्द्रनाथ ठाकुर अपनी कविता -  'निर्झरेर स्वप्नभंग' 'निर्झर का विसम्मोहित हो जाना' (নির্ঝরের স্বপ্নভঙ্গ) में इस प्रकार करते हैं -[ आज के इस प्रभात काल में सूर्य की किरणें, मेरे प्राणों के भीतर कैसे प्रवेश कर गयीं? गुहा के अंधकार में प्रभात-पक्षी का गान कैसे समा गया? न जाने, इतने दिनों बाद प्राण क्योंकर जाग उठे हैं? प्राण जाग उठे हैं, “न जाने, आज क्या हुआ कि जाग उठे हैं प्राण मानो, कानों में पड़ा हो दूरस्थ महासागर का गान“।'हेशे खोलखोल गेये कोलकोलताले ताले दिबो ताली' 

आजी ये प्रोभाते रोबिर कोर
केमोने पोशिलो प्राणेर पोर
केमोने पोशिलो गुहार आंधारे, प्रोभात-पाकीर गान
ना जानी केनोरे अतो दिन पोरे जागिया उठिलो प्राण
भांग रे रिधोय (हृदय) , भांग  रे बाँधोन
शाध  रे ‍आजिके प्राणेर शाधोन
आमी  ढालिबो कोरुना-धारा
आमी भंगिबो पाशान-कारा
लहरीर पोरे लहोरी तुलिया
अघातेर पोरे अघात कोर!
शिखोर होईते शिखोरे छुटिबो
भूधोर होईते भूधोरे लुटिबो
'हेशे खोलखोल गेये कोलकोल
ताले ताले दिबो ताली' 

 धर्म का मुख्य कार्य ही है, मनुष्य को शक्ति प्रदान करना। स्वामीजी के मतानुसार - 'जो धर्म मनुष्य को इस संसार में, और अभी  सुखी नहीं बना सकता, उस धर्म के द्वारा परलोक या मरने के बाद सुख देगा का आश्वासन बिलकुल झूठी बात है।'  यदि मनुष्य इसी  लोक में सुख प्राप्त करना चाहता हो, तो वैसा सुख केवल अपने सुख-सुविधा के ऊपर ही दृष्टि को केंद्रित किये रहने से नहीं प्राप्त होगा।  हृदय का विस्तार -  यथार्थ धर्म-बोध मनुष्य को, उसकी असीम परिधि तक सक्रीय जन-कल्याण करने की भूमिका-(गुरु-नेता के कार्य) में नियोजित कर देता है। यही बोध उसको अपना और दूसरों का दुःख दूर करने की शक्ति और साहस से भर देता है। यहीं से अंतःकरण में हित-अहित का ज्ञान, अन्तरात्मा की आवाज, या विवेक-प्रयोग करने की शक्ति का जागरण हो जाता है। धर्म मनुष्य को सम्पूर्ण जगत के साथ जोड़ देता है, और नीतिबोध (आत्मा की आवाज या Conscience) उस ईश्वर के साथ जुड़े हुए मनुष्य के कर्म की निति- परोपकार को निर्धारित करता है।
 स्वामी जी सभी युवाओं को साम्य-भाव में अवस्थित हो जाने का आह्वान करते हुए कहते हैं - " डिजायर, इग्नोरेंस, एंड इनकुअलिटी" — दिस इज द ट्रिनिटी ऑफ़ बाँडेज. अर्थात 'लस्ट ऐंड लूकर' में आसक्ति, अज्ञान और असमानता (अपने -पराये का भेद देखना )-ये बन्धन की त्रिमूर्ति हैं! उसी प्रकार - 'डिनायल ऑफ़ द  विल टु लीव, नॉलेज, एंड सेम- साइटेडनेस'-- इज द ट्रिनिटी ऑफ़ लिबरेशन.अर्थात ('लस्ट ऐंड लूकर ' का भोग करने के लिए) जीने की इच्छा का निषेध, ज्ञान तथा समदर्शिता' - ये तीनों मुक्ति की ट्रिनिटी या त्रिविध द्वार हैं ! तथा -मुक्ति ही विश्व का लक्ष्य है! (फ्रीडम इज द गोल ऑफ़ द यूनिवर्स.' )
 स्वामीजी ने कहा था, 'मैं सुधार में नहीं स्वाभाविक उन्नति (growth) में विश्वास करता हूँ।' जिसमें वस्तु में जीवन होता है, जो सतेज (Spirited या जोशपूर्ण) होते हैं- वे स्वयं विकसित होकर परिवर्तित हो जाते हैं। उस मनुष्य-वृक्ष की जड़ (मूल सत्ता) में बाहर से कोई वस्तु डाल कर उसको ग्रहण नहीं करवाया जा सकता। आज का जीव-विज्ञान (Biology) भी जीव-कोशिकाओं के मूल को जीन उत्परिवर्तन (Genetic Mutation) की प्रक्रिया के द्वारा जानने की चेष्टा कर रहा है। नवनी दा ने १९६७ में ही समाज के ' जीन ' (५ जीवनदायी अभ्यास)  का अविष्कार करके समाज को उन्नत तथा समृद्ध करने का उपाय भी बतला दिया था। क्योंकि स्वामी जी ने कहा था -" सुधार करने में हमें चीज के भीतर, उसकी जड़ तक पहुँचना होता है। इसीको मैं आमूल सुधार कहता हूँ। आग जड़ में लगाओ और उसे क्रमशः ऊपर उठने दो, एवं एक अखण्ड भारतीय राष्ट्र संगठित करो।"
** गीता ५/१९ 'पुराणों तथा यहूदी धर्मों में धर्म साधना और जीवन का लक्ष्य स्वर्ग-प्राप्ति ही बताया गया है। किन्तु एक बुद्धिमान् एवं विचारशील (विवेकी)  पुरुष को स्वर्ग का आश्वासन एक आकर्षक माया-जाल से अधिक कुछ प्रतीत नहीं होता। ऐसे अस्पष्ट और अज्ञात लक्ष्य की प्राप्ति के लिये बुद्धिमान् पुरुष को प्रोत्साहित नहीं किया जा सकता। विवेकी पुरुषों में स्वर्ग जाने के प्रति न उत्साह रहता है, और न लगन। क्योंकि स्वर्ग प्राप्ति के आश्वासन के विपरीत यहाँ वेदान्त (गीता -उपनिषद) में स्पष्ट घोषणा की गयी है, कि मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी है,  इसी लिए वह इस शरीर और संसार में रहते हुए ही मन की चहार दीवारी को लाँघकर अपने अनन्त-स्वरूप का साक्षात् अनुभव कर सकता है। आत्मानुभूति का यह लक्ष्य मृत्यु के पश्चात् प्राप्य नहीं वरन् इसी जीवन में इसी देह में और इसी लोक में प्राप्त करने योग्य है
 'अपने प्राण की रक्षा करना '- समस्त प्राणियों का पहला धर्म होने पर भी,सर्वश्रेष्ठ प्राणी -'मनुष्य' का पहला धर्म या कर्तव्य 'प्राण को विकसित करना' होता है। क्योंकि साधारण जीवों (Beasts) के क्षेत्र में जिसे जन्मजात वृत्ति ( Inherent Tendency या সহজাত বৃত্তি) कहते हैं, मनुष्य के क्षेत्र में उसी को महत प्रवृत्ति ('Greater Tendency' মহৎ প্রবৃত্তি, महत बुद्धि-माँ) कहते हैं। 
जीव-भाव की परिच्छिन्नताओं से ऊपर उठ कर, देहाध्यास से या स्वयं को नश्वर- (नाम-रूप) शरीर मन समझने के भ्रम से मुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड होकर मनुष्य ईश्वरानु-भूति में स्थित रह सकता है। जीवत्व से ईश्वरत्व तक आरोहण करने में कौन समर्थ है,  किस उपाय से संसार बन्धनों से मुक्ति पायी जा सकती है इस श्लोक में केवल जीवन के लक्ष्य का ही नहीं बल्कि तत्प्राप्ति के लिए साधन का भी संकेत किया गया है।
 क्योंकि गीता 5/19 में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - ' सम-दर्शन रूपी पूर्णत्व' कोई ऐसी अवस्था या , दैवी आदर्श नहीं है, जिसकी प्राप्ति या अनुभूति देहत्याग के पश्चात् स्वर्ग नामक किसी विशेष लोक में होगी। भगवान् कहते हैं कि जिनका मन समत्व भाव में स्थित है वे ब्रह्म में ही स्थित हैं। पतंजलि मुनि इसी बात को दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहते हैं कि-  चित्तवृत्तियों के निरोध को ही योग कहते हैं। जैसे ही मन की वृत्तियों का पूर्ण निरोध हो जाता है, आत्मा मन की चाहार दीवारी को लाँघकर परमात्मा के साथ युक्त हो जाता है ! उसके बाद यदि प्रारब्धवश या नेता का काम करने के लिए उसे पुनः शरीर में लौटना भी पड़ता है, तो उस मानवजाति के सच्चे मार्गदर्शक नेता के लिये मन का अस्तित्व (बन्धनकारी शक्ति)  ही समाप्त समझना चाहिए। मन ही वह उपाधि है जिसमें व्यक्त चैतन्य जीव या अहंकार के रूप में प्रकट होकर स्वयं को सम्पूर्ण जगत् से भिन्न मानता है। अत मन के नष्ट होने पर अहंकार और उसके संसार का भी नाश अवश्यंभावी है। देहाध्यास से मुक्त मनुष्य  अनुभव करता है कि वह परमात्म-स्वरूप से भिन्न नहीं। इस स्वरूपानुभूति के बिना समदर्शित्व  (अर्थात सिंहत्व)  प्राप्त नहीं हो सकता।
भगवान् कहते हैं कि जिसने सर्ग (जन्मादिरूप संसार) को जीत लिया और जिसका मन समस्त परिस्थितिओं में सम-भाव में स्थित रहता है वह पुरुष निश्चय ही ब्रह्म में स्थित है।प्रथम बार में अध्ययन करने पर यह कथन अयुक्तिक प्रतीत हो सकता है। इसलिये भगवान् इसका कारण बताते हैं क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और सम है। ब्रह्म सर्वत्र समानरूप से व्याप्त है। सब घटनाएं उसमें ही घटती हैं परन्तु उसको कोई विकार प्राप्त नहीं होता। सत्य सदैव नदी के तल के समान अपरिवर्तित रहता है जबकि उसका जल प्रवाह सदैव चंचल रहता है। अधिष्ठान (रुमाल) सदा अविकारी रहता है परन्तु अध्यस्त (कल्पित-गाँठ) अथवा व्यक्त हुई सृष्टि (नाम-रूप का अहं) का स्वभाव है नित्य परिवर्तनशीलता। जीव देहादि के साथ तादात्म्य करके इन परिवर्तनों का शिकार बन जाता है जबकि अधिष्ठानरूप आत्मा नित्य अपरिवर्तनशील और एक समान रहता है। जो व्यक्ति (श्री ठाकुर) मनुष्य को विचलित कर देने वाली समस्त परिस्थितियों में अविचलित और सम-भाव रहता है उसने निश्चय ही अधिष्ठान में स्थिति प्राप्त कर ली है।
 समुद्र की लहरों पर बहता हुआ लकड़ी का पटरा इधर-उधर भटकता रह सकता है, लेकिन लाइट्हाउस ( जिसमें जहाज वालों कों रास्ता दिखलाने के लिये ऊंचे पर रोशनी होती है)  चरित्र-रूपी दृढ़-चट्टानों पर निर्मित दीप-स्तम्भ जैसा मार्गदर्शक नेता भी अविचल खड़ा रहता है। तूफान उसके चरणों से टकराकर अपना क्रोध शान्त करते हैं।इसलिए भगवान् का कथन युक्ति-युक्त ही है कि समत्वभाव में स्थित पुरुष ब्रह्म में ही स्थित है। क्योंकि (सदैव समत्व-भाव में रहने वाले मनुष्य का  नाम ही भगवान है, इसीलिये श्री ठाकुर=) ब्रह्म, पवित्र (निर्दोष) हैं और सबके लिये, समान (सम) हैं, इसलिये वे ब्रह्म में ही स्थित कहे जाते हैं।
[साभार:  https://www.gitasupersite.iitk.ac.in] 
जो (प्रक्रिया-५ अभ्यास ) इस नवजीवन को (डीहिप्नोटाइज्ड अवस्था) जाग्रत करके उसे धारण किये रहती हो, वही है स्वामीजी का धर्म। इस धर्म को हम अफीम का नशा नहीं कह सकते। जिस आलस्य रूपी अफीम को खाकर हमलोग घोर सुषुप्ति की अचेत अवस्था में सोये पड़े हैं, उस निद्रा को त्याग कर उठ जाने के लिए ही स्वामीजी हमें पुकार रहे हैं। भारतवर्ष अभी तक जितना भी सिर उठाकर खड़ा होने में समर्थ हुआ है, वह स्वामीजी के उसी मन्त्र -' चरैवेति चरैवेति ' के आह्वान को सुनकर ही हुआ है, जिसे हमने भुला दिया था। 
 नेता के कर्तव्य : समाज का मूल मनुष्य है, इसीलिये यदि एक एक करके प्रत्येक मनुष्य को ही दोषरहित (faultless) या सच्चा मनुष्य (चरित्रवान) बना लिया जाय, तभी  एक परिवर्तित समाज सामने आ सकेगा। स्वामी जी के इस आदर्श या मौलिक मनोभाव का अनुसरण (एक उच्च स्तर की समाज-सेवा समझकर) किया जाय- तो जितने परिमाण में इस कार्य किया जायेगा, उसी परिमाण में समाज की मुखाकृति भी (पशुमानव से देवमानव में) परिवर्तित होती चली जाएगी। इसी को समाज में आमूल-चूल परिवर्तित लाने में समर्थ अध्यात्मिक क्रांति (Spiritual Revolution) कहते  हैं!

जीवन को पूर्ण रूप से विकसित कर लेने की सम्भावना एक अध्यात्मिक विषय है, तथा उस क्षमता (potential) को विकसित करने की चेष्टा ही,आध्यात्मिकता है।  तथा इस मौलिक विचार (भाव) को समाज के सभी क्षेत्रों में संचारित कर देना ही 'अध्यात्मिक विप्लव' है।(पशु मानव से देवमानव में उन्नत हो जाने की) क्षमता को भौतिकता के सैलाब में नहीं बहने देकर, उसको विकसित कर लेना ही इस आध्यात्मिक क्रांति का उद्देश्य होता है।

यदि हमलोग मनुष्य के समाज को एक पशु-समाज में परिवर्तित होते नहीं देखना चाहते हों, तो हमें इसी वक्त इस बात को समझ लेना होगा कि केवल आध्यात्मिक विप्लव ही  इस कार्य (मनुष्य को निर्दोष बनाने के कार्य) को धरातल पर उतारने में - समर्थ हो सकता है।

उन्होंने लीडरशिप ट्रेनिंग के दौरान, अपने क्रमानुयायियों (Successor, उत्तराधिकारी भावी नेताओं) के सामने एक अभूतपूर्व अनुरोध (appeal) रखा था। उन्होंने कहा था- गरीबों को प्रकाश दो। किन्तु  जो लोग धन या विद्या के अहंकार (arrogance) में चूर हैं, वे भी कम करुणा के पात्र नहीं हैं। क्योंकि वे लोग समाज के उपेक्षित मनुष्यों (देवताओं) की सेवा करने का अवसर पा कर भी उसका सदुपयोग नहीं करते। और जो लोग गरीबों के शोषण से प्राप्त धन को खर्च करके शिक्षित हुए हैं, किन्तु पढ़-लिख लेने के बाद उनके सम्बन्ध में कुछ नहीं सोचते, उनको ही स्वामीजी ने देशद्रोही के रूप में चिन्हित किया था। उन्होंने कहा था कि जब तक मेरे देश का एक कुत्ता भी भूखा है, उसको रोटी देना ही मेरा धर्म है। 

क्योंकि मनुष्य की सत्ता (पूर्णता या आत्मा) सभी देशों और सभी युग में एक ही रहती है। अतः उस सत्ता (पूर्णता) की अभिव्यक्ति विभिन्न देशों या विभिन्न युगों में अलग अलग हो सकती है। अतः यह पूर्णता ही अपने को देश-काल -पात्र के अनुसार ईसा, बुद्ध, मोहम्मद, नानक, कबीर, राम-कृष्ण, श्रीरामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, नवनी दा आदि आदि असंख्य मानवजाति के सच्चे मार्गदर्शक नेता के रूप में अपने को अभिव्यक्त कर सकती है ! इसीलिये कोई भी अवरोध, चाहे वह किसी प्रकार की संकीर्णता हो, या विशिष्ट आदर्श की सीमा हो, मनुष्य की पूर्णता को अभव्यक्त करने में बाधक नहीं हो सकते। महामण्डल चरित्र-निर्माणकारी आन्दोलन के माध्यम से सभी देशों के सभी मनुष्यों को उसकी पूर्णता को अभिव्यक्त करने की दिशा में अग्रसर होने में सहायता करना चाहती है।
स्वामी विवेकानन्द  सम्पूर्ण भारतवर्ष को पूर्ण रूप से जाग्रत कर देने के लिये ही आये थे। हमलोगों ने अभी तक स्वामीजी को इस रूप में (मानवजाति के सच्चे नेता रूप में) देखना नहीं सीखा है। किन्तु हमलोगों क उन्हें इसी रूप में देखना स्वयं सीखना होगा और सभी युवाओं को उन्हें इसी दृष्टि देखने की पद्धति समझानी होगी। स्वामीजी ने कहा था- 'भारत झोपड़ियों में वास करता है।' उसके जनसाधारण की उन्नति से ही भारत की उन्नति होगी। भारत को उठने के लिये (महान बनने के लिये) यहाँ की साधारण जनता, जो पीछे रह गए हैं, उन्हें ऊपर उठाना होगा (उन्हें वेदान्त के महावाक्यों सेअनुप्राणित करना होगा।) वे कहते थे - " माना कि तूँ  उन सबों को उपर नहीं उठा सकता, किन्तु तुम उनके कानों तक इस महा-जीवन की वाणी को पहुंचा तो अवश्य सकता है।"
हमलोगों के इस बहुत बड़े राष्ट्रिय दोष - पर उपदेश कुशल बहुतेरे !  शिविर की कक्षा में हम अपने जिन विचारों का उल्लेख करते हैं, उन विचारों के साथ हमारे अपने यथार्थ जीवन में कोई सामंजस्य नहीं दिखता है।  ऐसा प्रतीत होता है मानो 'बनो और बनाओ ' - केवल बोलने के लिये हैं, 'करने के लिये नहीं।' और बोलने के लिये तो केवल कुछ महामण्डल पुस्तिकाओं के कुछ पन्नों को एक बार फेंट लेना ही यथेष्ट होता है। किन्तु महामण्डल द्वारा निर्देशित ५ अभ्यासों  का पालन करने में बहुत तकलीफ होती है। को देखकर स्वामीजी ने बहुत पहले ही हमलोगों को सतर्क कर दिया था। 'बनो और बनाओ ' कहकर भी 'मनुष्य' बनने का ५ अभ्यास हमलोग क्यों नहीं कर पाते हैं? 

इसके पीछे दो कारण हो सकते हैं। पहला कारण,  पर अंधश्रद्धा रहने से भी  हमलोग इस बात पर विशेष ध्यान नहीं देते, कि नवनी दा हमसे क्या बन जाने की अपेक्षा रखते थे ? इसका एक कारण यह है कि हमारी शिक्षा पद्धति में,  स्कूल के एक-दो पर-हितव्रती शिक्षकों द्वारा नैतिकता और महाभारत-रामायण की कुछ कहानियाँ सुन लेने से अधिक- श्रद्धा, विवेक और बुद्धि का अंतर,  मनुष्य जीवन का उद्देश्य, जीवन की सार्थकता, ब्रह्म, निरपेक्ष सत्य अपरिवर्तनशील-सत्य के सच्चे अवतार- या पैगम्बर,  बुद्ध. ईसा,मोहम्मद, नानक, रामकृष्ण परमहंस-विवेकानन्द आदि  के जीवन और सन्देश के विषय में कुछ सिखलाने की व्यवस्था है ही नहीं। इसीलिये हमलोग केवल इतना जानते हैं कि पैगम्बरों-अवतारों के विषय में बोलते समय उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त करना हमारा कर्तव्य है;  किन्तु अपने जीवन को समर्पित करके भी आधुनिक युग में ब्रह्म के अवतार होली-ट्रायो या नवनी दा जैसे नेता-गुरु-दादा के प्रति अपनी श्रद्धा को अभिव्यक्त करना अर्थात परमसत्य-असत्य-मिथ्या का साक्षात्कार कर लेना  हम अपना उत्तरदायित्व नहीं समझते हैं।

 और दूसरा कारण यह है, कि यदि हममें से कुछ व्यक्ति (चाहे व्यक्तिगत जीवन में हो, या राष्ट्रीय जीवन में) इस बात को थोड़ा-बहुत समझ भी लेते हैं कि नवनीदा हमसे किस बात की अपेक्षा रखते थे, तो वे भी ' समझ नहीं सके हैं ' का बहाना बनाकर उनके ५ अभ्यासों को अपने जीवन में धारण करने से बचना चाहते हैं! क्योंकि हम कहीं यह कह दें कि हमने तो यह समझ लिया की वे हमसे यथार्थ मनुष्य बनने और बनाने की अपेक्षा रखते थे। तो फिर उस ५ अभ्यास का निर्वहन करने के लिये हमें भी 'लस्ट और लूकर ' के प्रति आसक्ति को त्याग देना होगा ? बस इसी बात को याद करके, हमलोग उनका सच्चा अनुयायी बनने के भय से शिहर उठते हैं, और अपने जीवन को सार्थक करने के कर्तव्य से पलायन कर जाते हैं।

 भला ऐसा क्यों होता है? कि हमलोग ५ अभ्यास करके यथार्थ मनुष्य क्यों नहीं बनना चाहते हैं ? स्वामीजी ने इसका कारण भी बता दिया था। मनुष्य की ढेरों जन्मजात वृत्तियों में से एक है- जड़ता, सदैव स्थिर-अवस्था में अचल होकर ' जड़-पिण्डों ' के समान पड़े रहने की वृत्ति।  जो मनुष्य अभी जैसा है,वह वैसा ही बने रहना चाहता है। किन्तु नवनीदा का अनुयायी बनने के लिये इस भाव का बिल्कुल ही परित्याग कर देना होता है। उनके भाव से अनुप्रेरित होने के लिये - ' मैं पिछले कैम्प में जैसा था, इस वर्ष कैम्प से लौटने के बाद भी वैसा ही रहूँगा ' के आलस्य- भाव को बिलकुल छोड़ देना होता है। क्योंकि उनके अनुयायी के लिये-कल तक वह जितना मनुष्य बन सका था, आज भी उतना ही (लघु) मनुष्य बना रह पाना संभव ही नहीं होता। इतना ही नहीं, इसके पहले क्षण मैं जो था, इस क्षण भी ठीक वैसा ही बने रहना संभव नहीं रह जाता। इसीलिये दादा दो श्लोक बार बार कहते थे -

आलस्यं  हि  मनुष्याणां  शरीरस्थो  महान  रिपुः |
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा Sयम् नाSवसीदति  ॥१ 
सुखार्थी  वा  त्यजेत विद्याम्   विद्यार्थी वा त्यजेत सुखम्  |
सुखार्थिनः  कुतो  विद्या  कुतो  विद्यार्थिनः  सुखम्  ॥२


किन्तु नवनीदा के क्रमानुयायी बनने वाले महामण्डल लीडर (कर्मी गुरु-नेता) का के लिये ' चरैवेति चरैवेति ' का अर्थ केवल अपने आलस्य को त्याग कर चरित्रवान मनुष्य बन जाना ही यथेष्ट नहीं है। हमलोगों को अपने जीवन-दीपक को प्रज्वलित करके दूसरों के जीवन को भी प्रज्वलित करा देने का प्रयत्न करना होगा। हम लोगों को ' सबों के जीवन से अपने जीवन को जोड़ कर देखना ' सीखना होगा। भारत के सभी युवाओं को व्यक्ति से पारिवारिक-जीवन में, पारिवारिक से सामाजिक-जीवन में, तथा इसी प्रकार राष्ट्रिय जीवन तक 'एक और अभिन्न ' बनते हुए आगे बढ़ने के मन्त्र में अनुप्राणित करना होगा। इस महा-जागरण की वाणी (महावाक्यों) को भारत के खेतों-खलिहानों, कल-कारखानों, स्कुल-कालेजों, ऑफ़िस-अदालतों, व्यापारियों की गद्दीयों, राष्ट्र-चालकों के मसनदों (सत्ता की कुर्सी पर बैठे नेताओं ) तक, सर्वत्र फैला देना होगा। 
प्रत्येक छात्र, प्रत्येक युवक को उनका यह आह्वान पहले स्वयं समझना होगा, फिर दूसरों को भी समझाना होगा। देश की सम्पूर्ण  राष्ट्रीय-व्यवस्था को इस समझाने के दायित्व का निर्वहन करना होगा। "स्वामीजी बड़े महान थे", यह कहकर भाषण देने से, या समाचार-पत्र में छोटा सा लेख लिखकर श्रद्धांजली देने से ही देश आगे नहीं बढ़ेगा।  प्रत्येक छात्र, प्रत्येक युवक को उनका यह आह्वान पहले स्वयं समझना होगा, फिर दूसरों को भी समझाना होगा। देश की सम्पूर्ण  राष्ट्रीय-व्यवस्था को इस समझाने के दायित्व का निर्वहन करना होगा। "नवनीदा बड़े महान थे", यह कहकर भाषण देने से, या समाचार-पत्र में छोटा सा लेख लिखकर श्रद्धांजली देने से ही देश आगे नहीं बढ़ेगा। 

मानव-मात्र के भीतर जो अनन्त शक्ति अन्तर्निहित है। उस शक्ति के जाग्रत करा देने में सहायता करना ही, महामण्डल के नेता का धर्म है ! क्योंकि केवल इसी प्रकार वह दलित या पिछड़ा मनुष्य भी किसी के भी दबाने से दबेगा नहीं, अप्रतिरोध्य बन जायेगा। तब वह अपने अधिकार को जानने के साथ साथ अपने उत्तरदायित्व को भी जान लेगा। प्रत्येक मनुष्य जब इस बोध को प्राप्त करके अपने पैरों पर खड़ा हो जायेगा, सिर उठाकर चलने लगेगा, अपने निजी सुख-भोग को तुच्छ समझ कर दूसरों के लिये अपने जीवन को भी न्योछावर कर देने में नहीं हिचकेगा, तभी भारत जाग जायेगा।

But if we want to preform these 5 exercises invented by revered Navni Da based on Ramakrishna-Vivekananda Vedanta Tradition, regularly as per the training given by different Leaders for the different work-field of Mahamandal in All India Youth Training Camp, we must try to understand Sri Navniharan Mukhopadhyay's life and teachings. 
It will be necessary for us to understand that as a person, what Navni Da deed ?
Was he a Leader or teacher of the past or of the future generation ? As a person what he was, and how was his Mind ?  i.e what were the everlasting ideas in his mind and what was his Ideal ?  

निबन्ध १. 'विवेकानन्द अतीत के नायक थे या भावी युग के?' में 'युवा प्रशिक्षण का पाठ्यक्रम' या
 सिलेबस (syllabus) इस प्रकार है :बहुत संक्षेप में कहा जाय तो,
१. महामण्डल का उद्देश्य है -भारत का कल्याण
२.उपाय है -चरित्र निर्माण
३.आदर्श हैं- स्वामी विवेकाननन्द
४.आदर्श-वाक्य है - मनुष्य बनो और बनाओ !
५.महामण्डल की समर नीति या अभियान मन्त्र है - 'चरैवेति चरैवेति !' 
१.स्वामी विवेकानन्द (= नवनी दा= महामण्डल) द्वारा प्रतिपादित कर्म-योग आन्दोलन -' BE AND
MAKE' का रहस्य है- मनुष्य मात्र में अन्तर्निहित ब्रह्मत्व (महत प्रवृत्ति) को उद्घाटित करा देना। क्योंकि " कई हजार ब्रह्मा एवं इन्द्रादि देवता भी ' बुद्धत्व-प्राप्त ' नर-देवता के चरणों में शीस झुकाते हैं तथा इस बुद्धत्व-प्राप्ति पर मानव-मात्र का अधिकार है। " 
२. बुद्धत्व प्राप्ति के इच्छुक गृहस्थों के लिए कामनाओं का त्याग करने का अर्थ है - कामनाओं का दास नहीं बनना, 'लस्ट ऐंड लूकर'-में आसक्ति नहीं रखना 'तेनत्यक्तेन भुंजीथा'।  
३. केवल भारत में ही धर्म, अर्थ और कामना के सानुपातिक (well-proportioned) व्यवहार करने की व्यवस्था थी। बल्कि मोक्ष को तो सभी मनुष्यों के लिये अनिवार्य भी नहीं माना गया था। हमारे ऋषियों ने 'चार वर्णों' (शूद्र, वैश्य, क्षत्रीय, ब्राह्मण) के कर्मयोग के द्वारा सभी मनुष्यों को, (शुद्र को भी) अर्थात अपने अपने धर्म अर्थात कर्तव्य का पालन करते हुए एक 'चरित्रवान मनुष्य' बन जाने, अर्थात 'ब्राह्मण' तक उन्नत होने का समान अवसर प्राप्त था। विभिन्न धर्म अर्थात कर्तव्य के माध्यम से क्रमविकसित होने के उद्देश्य से, जातिप्रथा का निर्माण किया था, जो वंशानुगत नहीं, बल्कि गुणगत (सत-रज-तम) थी।
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निबन्ध २. 'अनुसरण ही सच्चा स्मरण है' एवं निबन्ध ३.'स्वामीजी का मन' (স্বামীজির ভাব) ' में निहित 'युवा प्रशिक्षण का पाठ्यक्रम' या सिलेबस (syllabus) इस प्रकार है :
***१. दादा को स्मरण करना .... यदि हमलोग स्वामी विवेकानन्द के भाष्यकार पूज्य नवनी दा का स्मरण करना चाहते हो, तो हमें उनका अनुसरण करना ही पड़ेगा ! अब जो महामण्डल कर्मी दादा का स्मरण करते हुए उनका अनुसरण भी करना चाहेगा, तो उसके मन में पहला प्रश्न यही उठेगा कि नवनी दा का अनुसरण किस प्रकार किया जाय? कहाँ और किस क्षेत्र में हम लोग नवनी दा का  अनुसरण कर सकते हैं ?
२.यदि हम सचमुच उनका स्मरण करना चाहते हों, तो पहले यह विचार करना पड़ेगा कि नवनी दा के मन में स्थायी रूप से रहने वाला मूल भाव (The main idea) क्या था ? क्योंकि नवनीदा को स्मरण करना तभी सार्थक होगा जब हमलोग उनके मौलिकभाव या आदर्श को (প্রকৃত-ভাব brainchild) समझने की चेष्टा करने के साथ ही साथ चाहे कितने ही छोटे स्तर पर क्यों न हो, उनके उस मौलिक भाव या आदर्श का अनुसरण भी अवश्य करें! 
३.मेरे विचार से - मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य (ब्रह्म अवलोक धिषणं मनुष्य -ब्रह्मवेत्ता)  बना देना ही नवनी दा के मन का स्वाभाविक मनोभाव था ! क्योंकि उनके मुख से मैं इसी कहानी को विगत २९ वर्षों से सुनता आ रहा हूँ - 
सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजयात्म शक्तया/ वृक्षान् सरीसृपपशून् खगदंशमत्स्यान्।
तैस्तैर अतुष्टहृदय: पुरुषं विधाय
व्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देव:॥ (11 -9 -28 श्रीमद्भागवतपुराण)
-अर्थात विश्व की मूलभूत शक्ति सृष्टि के रूप में अभिव्यक्त हुई और, इस क्रम में वृक्ष, सरीसृप (रेंगकर चलने वाले), पशु, पक्षी, दंश -या डंक मारने वाले (हिन्दी में क्या कहते हो भाई ?) क्या कीड़े-मकोड़े,मत्स्य आदि अनेक रूपों में सृजन हुआ।-परन्तु ,उस सृजन से विधाता को सन्तुष्टि नहीं हुई, क्योंकि उन प्राणियों में उस परमचैतन्य की पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं हो सकी थी। अत: अन्त में विधाता ने मनुष्य का निर्माण किया, उसकी चेतना इतनी विकसित थी कि वह- अपने बनाने वाले को भी जान सकता था ! और अपने इस रचना को देखकर ब्रह्म अत्यन्त प्रसन्न हो गये! (पुरुषं विधाय व्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देवा !) मनुष्य ही एकमात्र ऐसा जीव है जो अपने बनाने वाले को भी जान सकता है ! उन्होंने सभी देवदूतों को बुलवाकर कहा - तुम लोग इसके सामने सिर को झुकाओ, इब्लीस को छोड़ सबने वैसा किया -अल्ला ने कहा दूर हटो शैतान! और वह शैतान बन गया ! 
नवनी दा की संगीत रागिनी-में बार-बार दुहराया जाने वाला आलाप था- 'BE AND MAKE' योजना अर्थात " स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को मनुष्यत्व अर्जित करने में सहायता करो।"हमलोगों को ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य का सही रूप में 'मनुष्य बन जाना' (মানুষ হয়ে ওঠা); या मनुष्य को सही 'मनुष्य बना देना'
 (মানুষ করে তোলা) यही उनका मौलिक विचार (brainchild) या अपना विचार था। हमलोगों ने -व्यापक रूप में यह समाज क्या है, या प्रत्येक मनुष्य वास्तव में क्या है ; और  प्रत्येक मनुष्य में ब्रह्मविद मनुष्य या यथार्थ मनुष्य बन जाने की अपार सम्भावना है -  इस दृष्टि से हमने उनके मौलिक भाव को (नवनी दा के ब्रेन्चाइल्ड -अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल को) समझने की चेष्टा ही नहीं की है। उनका अनुसरण करना तो अभी भी बड़े दूर की बात है। इसलिये नवनीदा को स्मरण करते समय, इन बातों को हमें भूलना नहीं चाहिये।
४. समाज का मूल मनुष्य है, इसीलिये यदि एक एक करके प्रत्येक मनुष्य को ही दोषरहित (faultless) या सच्चा मनुष्य (चरित्रवान) बना लिया जाय, तभी  एक परिवर्तित समाज सामने आ सकेगा। नवनी दा इस आदर्श या मौलिक मनोभाव का अनुसरण (एक उच्च स्तर की समाज-सेवा समझकर) किया जाय- तो जितने परिमाण में इस कार्य किया जायेगा, उसी परिमाण में समाज की मुखाकृति भी (पशुमानव से देवमानव में) परिवर्तित होती चली जाएगी। 
५. इसी को समाज में आमूल-चूल परिवर्तित लाने में समर्थ अध्यात्मिक क्रांति (Spiritual Revolution) 
कहते हैं! जीवन को पूर्ण रूप से विकसित कर लेने की सम्भावना एक अध्यात्मिक विषय है,तथा उस क्षमता (potential) को विकसित करने की चेष्टा ही,आध्यात्मिकता है।  तथा इस मौलिक विचार (भाव) को समाज के सभी क्षेत्रों में संचारित कर देना ही अध्यात्मिक क्रांति (विप्लव) है।(पशु मानव से देवमानव में उन्नत हो जाने की) क्षमता को भौतिकता के सैलाब में नहीं बहने देकर, उसको विकसित कर लेना ही इस आध्यात्मिक क्रांति का उद्देश्य होता है।
६. हमलोग नोटबन्दी आदि कई प्रकार की मांगों को लेकर, कितने ही विषयों के लिये विप्लव करते रहते हैं। किन्तु मनुष्यों की जो सबसे अंदरूनी सत्ता है (innermost entity-आत्मा या पूर्णता है), जो सभी चीजों की नियन्ता है(controller) है- जिसके पूर्ण विकसित होने से मनुष्य सर्वशक्तिमान् बन जाता है,अपनी समस्त समस्यायों का समाधान करने में स्वयं समर्थ बन जाता है, उसी प्राणप्रद (जीवनदायी) भाव (वेदान्त के चार महावाक्यों) को सभी मनुष्यों के लिये उपलब्ध बना देने वाले आध्यात्मिक विप्लव से बचना चाहते हैं। हमलोग इस बात के उपर थोड़ा भी विचार नहीं करते कि वास्तव में यही तो है मनुष्य के विकास की क्रांति को दबाये रखना और उसके मार्ग में बाधाएँ खड़ी करना।
७. 'अपने प्राण की रक्षा करना '- समस्त प्राणियों का पहला धर्म होने पर भी,सर्वश्रेष्ठ प्राणी -'मनुष्य' का पहला धर्म या कर्तव्य 'प्राण को विकसित करना' होता है। क्योंकि साधारण जीवों (Beasts) के क्षेत्र में जिसे जन्मजात वृत्ति ( Inherent Tendency या সহজাত বৃত্তি) कहते हैं, मनुष्य के क्षेत्र में उसी को महत प्रवृत्ति ('Greater Tendency' মহৎ প্রবৃত্তি, महत बुद्धि-माँ) कहते हैं।
८.  यदि हमलोग मनुष्य के समाज को एक पशु-समाज में परिवर्तित होते नहीं देखना चाहते हों, तो हमें इसी वक्त इस बात को समझ लेना होगा कि केवल आध्यात्मिक विप्लव ही  इस कार्य (मनुष्य को निर्दोष बनाने के कार्य) को धरातल पर उतारने में - समर्थ हो सकता है।
९. स्वामीजी ने कहा था, 'मैं सुधार में नहीं स्वाभाविक उन्नति (growth) में विश्वास करता हूँ।' जिसमें वस्तु में जीवन होता है, जो सतेज (Spirited या जोशपूर्ण) होते हैं- वे स्वयं विकसित होकर परिवर्तित हो जाते हैं। उस मनुष्य-वृक्ष की जड़ (मूल सत्ता) में बाहर से कोई वस्तु डाल कर उसको ग्रहण नहीं करवाया जा सकता। आज का जीव-विज्ञान (Biology) भी जीव-कोशिकाओं के मूल को जीन उत्परिवर्तन (Genetic Mutation) की प्रक्रिया के द्वारा जानने की चेष्टा कर रहा है। नवनी दा ने १९६७ में ही समाज के ' जीन ' (५ जीवनदायी अभ्यास)  का अविष्कार करके समाज को उन्नत तथा समृद्ध करने का उपाय भी बतला दिया था। क्योंकि स्वामी जी ने कहा था -" सुधार करने में हमें चीज के भीतर, उसकी जड़ तक पहुँचना होता है। इसीको मैं आमूल सुधार कहता हूँ। आग जड़ में लगाओ और उसे क्रमशः ऊपर उठने दो, एवं एक अखण्ड भारतीय राष्ट्र संगठित करो।" 
१०.अपने आस-पास रहने वाले बच्चों-किशोरों-युवाओं- को नवनी दा द्वारा निर्देशित ५ दैनंदिन अभ्यासों में प्रशिक्षित करने के लिए छोटे से शिशु-संगठन, युवा-संगठन या नारी-संगठन के माध्यम से पहले स्वयं अग्रसर होकर ही उनका अनुसरण किया जा सकता है! क्योंकि नवनी दा जैसे 'गुरु-नेता' के अनुसरण करने के लिए एक मात्र पथ यही है। हममें से प्रत्येक व्यक्ति यदि स्वयं यथार्थ मनुष्य बनने की चेष्टा करें, तथा 
हमारी वह चेष्टा यदि दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता कर सके, तो इस विराट कार्य को बहुत छोटे पैमाने पर भी अपने हाथों में लिया जा सकता है। अपने आस-पास रहने वाले बच्चों-किशोरों-युवाओं-को 
प्रशिक्षित करने के लिए छोटे से शिशु-संगठन, युवा-संगठन या नारी-संगठन पहले स्वयं अग्रसर होकर ही उनका अनुसरण किया जा सकता है! नवनी दा जैसे 'गुरु-नेता' के अनुसरण करने के लिए एक मात्र पथ यही है। 
११.यदि नवनीदा द्वारा निर्देशित केवल ५ सरल अभ्यासों (व्यायाम,प्रार्थना,मनःसंयोग,विवेक-प्रयोग,स्वाध्याय)
को सीखकर,जीवन के किसी भी क्षेत्र में रहते हुए मनुष्य मात्र के लिए अपनी अंतर्निहित पूर्णता (डिविनिटी) को अभिव्यक्त कर के एक चरित्रवान मनुष्य (ब्राह्मण) बन जाना सम्भव है, तब तो इस मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा को गांवों और शहरों में,पूरे भारतवर्ष में फैला देना चाहिए। इतना ही नहीं इस विचार का उपयोग तो देश-काल (टाइम ऐंड स्पेस,स्थानिक दूरी एवं सामयिक दूरी ) की सीमारेखा  के परे जाकर भी किया जा सकता है। 
१२  क्योंकि मनुष्य की सत्ता (पूर्णता या आत्मा) सभी देशों और सभी युग में एक ही रहती है। अतः उस सत्ता (पूर्णता) की अभिव्यक्ति विभिन्न देशों या विभिन्न युगों में अलग अलग हो सकती है। अतः यह पूर्णता ही अपने को देश-काल -पात्र के अनुसार ईसा, बुद्ध, मोहम्मद, नानक, कबीर, राम-कृष्ण, श्रीरामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, नवनी दा आदि आदि असंख्य मानवजाति के सच्चे मार्गदर्शक नेता के रूप में अपने को अभिव्यक्त कर सकती है ! इसीलिये कोई भी अवरोध, चाहे वह किसी प्रकार की संकीर्णता हो, या विशिष्ट आदर्श की सीमा हो, मनुष्य की पूर्णता को अभव्यक्त करने में बाधक नहीं हो सकते। महामण्डल चरित्र-निर्माणकारी आन्दोलन के माध्यम से सभी देशों के सभी मनुष्यों को उसकी पूर्णता को अभिव्यक्त करने की दिशा में अग्रसर होने में सहायता करना चाहती है।
१३.उन्होंने लीडरशिप ट्रेनिंग के दौरान, अपने क्रमानुयायियों (Successor, उत्तराधिकारी भावी नेताओं) के सामने एक अभूतपूर्व अनुरोध (appeal) रखा था। उन्होंने कहा था- गरीबों को प्रकाश दो। किन्तु  जो लोग धन या विद्या के अहंकार (arrogance) में चूर हैं, वे भी कम करुणा के पात्र नहीं हैं। क्योंकि वे लोग समाज के उपेक्षित मनुष्यों (देवताओं) की सेवा करने का अवसर पा कर भी उसका सदुपयोग नहीं करते। और जो लोग गरीबों के शोषण से प्राप्त धन को खर्च करके शिक्षित हुए हैं, किन्तु पढ़-लिख लेने के बाद उनके सम्बन्ध में कुछ नहीं सोचते, उनको ही स्वामीजी ने देशद्रोही के रूप में चिन्हित किया था। उन्होंने कहा था कि जब तक मेरे देश का एक कुत्ता भी भूखा है, उसको रोटी देना ही मेरा धर्म है। 
१४. इसीलिये यदि हम उनका अनुसरण करना चाहते हों, तो हमलोगों के लिये इस बात को ठीक तरीके से समझ लेना आवश्यक है कि नवनी दा अपने सक्सेसर्स (उत्तराधिकारियों) से क्या चाहते थे ?  हमें भी यह उपलब्धी करनी होगी कि नवनी दा के चश्मा के भीतर से पेनीट्रेटिंग दृष्टि  (भेदनकारी दृष्टि) उनके अनन्त-जीवन के संग्राम का प्रतिक है। उनको स्मरण करना तभी सार्थक होगा जब हमलोग उनके मौलिक भाव "प्रत्येक मनुष्य में ब्रह्म को जानकर, ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बन जाने की सम्भावना है"  को समझने की चेष्टा करें तथा ५ अभ्यासों का पालन करके, यथार्थ मनुष्य (ब्रह्मविद) बने और बनाएं। 
१५ .श्री दादा अवतार:  में ज्ञान, भक्ति, कर्म, मनःसंयोग -चारो योग ही विद्यमान हैं ! उनमें अनन्त ज्ञान, अनन्त प्रेम, अनन्त कर्म तथा सभी प्राणियों के लिए अनन्त दया है ! अभी तक (१६ जनवरी) तुम्हें इसका अनुभव नहीं हुआ? -- श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ! --कोई इस शरीरी (नवनी दा)  को आश्चर्य की तरह देखता है। वैसे ही अन्य कोई इसका आश्चर्य की तरह वर्णन करता है तथा अन्य कोई इसको आश्चर्य की तरह सुनता है, 'श्रुत्वा अपि एनम्  वेद न च एव कश्चित'-और इसको सुन करके भी कोई नहीं जानता।४/३१०
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्य: ।
आश्चर्यवच्चैनमन्य: श्रृणोति
श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ।।गीता २. २९।।
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निबन्ध ४. ' स्वामीजी का धर्म ' में निहित 'युवा प्रशिक्षण का पाठ्यक्रम' या सिलेबस (syllabus) इस प्रकार है :
१. नवनी दा ने सैंकडों बार मुझको समझाना चाहा था कि धर्म क्या है ? किन्तु मैं हमेशा उसे याद नहीं रख पाता हूँ ! सच्चे से सच्चा धर्म भी, समय के प्रवाह में दूषित हो ही जाता है। धर्म का शुद्ध रूप उसके अनुयायियों के व्यवहार या आचरण में व्यक्त होता हुआ दिखाई नहीं देता। धर्म के साथ अफीम (অহিফেন) की गन्ध तरह संयुक्त भावुकता कई बार हमारी बुद्धि मोहग्रस्त कर देती है,और हम अपने कर्तव्य पथ से भटक जाते हैं। वे कहते थे धर्म में जब 'ভাবালুতা' इमोशनैलिटी  (Emotionality) 'अतीत की घटनाओं को याद करके भावावेश या उन्माद उत्पन्न होने लगे, तब धर्म को इस भावेश अफीम रूपी अफीम की मिलावट के गन्ध से परिशोधित करना पड़ता है। क्योंकि धर्म ही सत्य है, अफीम (धर्म का नशा) सत्य नहीं है! इसीलिये भिन्न भिन्न नाम (ब्राण्ड) वाले जो धर्म हैं, जो समय के प्रवाह में केवल भावावेश मात्र प्रदान करते हैं, या अफीम की तरह नशा उत्पन्न करते हैं। 
२. जिस समय धर्म के क्षेत्र में ऐसी अवस्था होती है, उस समय धर्म को फिर से नये रूप में सज्जित करके समस्त मनुष्यों के लिये ग्राह्य बनाकर, मानव-जाति के समक्ष प्रस्तुत करना पड़ता है, और उसका प्रचार भी करना पड़ता है। स्वामी जी का धर्म, इस तरह के विभिन्न नाम वाले धर्मों से सम्पूर्णतया अलग किस्म का है
३. स्वामी जी के इस नव-वेदान्त प्रचार का केवल एक वैशिष्ट है,और वह वैशिष्ट भी वेदों के अनुरूप ही है। और वह है, कि अन्यान्य क्षेत्रों में जहाँ विचारकों में से किसी ने ,धर्म, शिक्षा, कृषि, कला, साहित्य के उपर, किसी ने संगीत के उपर - या इसी  प्रकार के अलग अलग कई विषयों को को लेकर ही चिन्तन किया है, और अपने चिन्तन का फल समाज को प्रदान किया है। जबकि स्वामी विवेकानन्द के चिन्तन में, यह सब क्षेत्र जिस मनुष्य के लिए है, उसी मनुष्य के समग्र पहलू (overall-aspect,3H) के ऊपर चिंतन किया है। एवम सम्पूर्ण मानव-समाज को भी एक विषय के रूप दर्शन किया है।
४.  मनुष्य और उसका समाज वास्तव में क्या है - इस पर चिंतन करते करते उन्होंने ऐसे एक धागे का अविष्कार कर लिया। जो उपरोक्त सब क्षेत्रों के भीतर से होकर गुजर सकता है, तथा उस धागे को मनुष्य के गले में पहना दिया, और उसका नाम दिया धर्म ! यह धागा है, 'निःस्वार्थपरता' जो सभी जाति-धर्म के मनुष्यों को धरे रख सकता है, या रंगबिरंगे फूलों माला के जैसा धारण किये रख सकता है। यह निःस्वार्थपरता ही धर्म है जो, मनुष्य को मनुष्य (इंसान को इंसान) बनाये रखता है। 
५. यदि किसी तथाकथित सेक्युलर बुद्धिजीवी को धर्म का नाम सुनने से ही मन में एक प्रकार का उन्माद (delirium) उत्पन्न हो जाता हो, वे यदि चाहें, तो स्वामी जी के इस नव-वेदान्त (स्वार्थशून्य मनुष्य बनो और बनाओ) के  लिये किसी नये शब्द का अविष्कार कर सकते हैं, वैसा करने से भी 'धर्म के वास्तविक उद्देश्य- पशुमानव को देवमानव में उन्नत करना ' में कोई अन्तर नहीं पड़ेगा। क्योंकि, ऐसा दावा करना, कि जो लोग किसी खास ब्राण्ड के धर्म का निर्दिष्ट नुस्खा (Prescription), या पैटर्न के अनुसार जीवन -यापन करते हों, केवल वे ही धार्मिक (निःस्वार्थपर) बन सकते हैं, और बाकी सभी लोग अधार्मिक (स्वार्थी मनुष्य या 
पशु-मानव) हैं, इस बात में कोई दम नहीं है। जो व्यक्ति निःस्वार्थपरता आदि समस्त मनुष्योचित गुणों को अपने जीवन के उपयुक्त केन्द्र में, अर्थात अपने आचरण और व्यवहार में धारण किये रह सकते हैं, वास्तव में वे ही धार्मिक व्यक्ति हैं। 
६.स्वामीजी ने 'मनुष्य' को परिभाषित करते हुए कहा था- 'मनुष्य' एक ऐसा वृत्त है, जिसकी परिधि असीम है, जबकि उसका केंद्र एक स्थान में है। मनुष्य अपने केन्द्र (स्वार्थशून्यता) से उसी समय जुड़ पाता है, जब वह दूसरे मनुष्यों के साथ युक्त होता है। यह जुड़ाव या योग तभी साधित होता है,जब मनुष्य धर्म के उस वैश्विक-प्रेम धागे को धारण कर लेता है।  जो मनुष्य स्वामीजी के धर्म में विश्वासी होता है, उसका ह्रदय बहुत विशाल हो जाता है, उसके जीवन की परिधि विश्वव्यापी हो जाती है। 
७.इसी हृदय के विकास के पथ पर अग्रसर रहते हुए, मनुष्य अपनी क्षूद्र सत्ता, ' मैं'-बोध (अहं भाव) को खोना सीख लेता है।  यहीं पर मनुष्यत्व-उन्मेष या विकास का मूल है। और स्वामी जी के धर्म का अर्थ- मनुष्य का ऐसा समग्र विकास हो जाना ही है। मनुष्य अपनी संकीर्णता, स्वार्थपरता को त्याग करता हुआ विशालता या महिमा को प्राप्त करने की तरफ आगे बढ़ता जाता है। मनुष्य के अपनी महिमा की तरफ अग्रसर होना ही स्वामीजी के विचारों में ईश्वर के मार्ग पर आगे बढ़ना है। क्योंकि स्वामीजी के मतानुसार - 
'निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है !' यदि इसी उक्ति को धर्म कहा जाय, तो इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है ? क्या धर्म की ऐसी परिभाषा किसी जननायक ने अन्य किसी भाषा में पहले कभी नहीं कहा है ? जिन्होंने ऐसा नहीं कहा है, साधारण जनता उनको कभी जननेता के आसन पर प्रतिष्ठित भी नहीं करती है।
८. व्यक्तिगत धर्म: फिलोसफी, जप, तप, देवता-घर, दीपक-दानी, केले का थम, कुशी-घंटी-शंख इन सब को स्वामीजी ने व्यक्तिगत धर्म कहा है। किन्तु वास्तविक धर्म, जिस धर्म को सभी लोग समझते हैं, वह है परोपकार। अपने हृदय के विश्वव्यापी परिधि के अन्तर्गत समस्त जीवों के साथ एकत्व की उपलब्धी करना-  ही धर्म है। 'कोई पराया नहीं सभी अपने हैं ' यह उपलब्धी हो जाने के बाद, अद्वैत में स्थित जाने के बाद उस मनुष्य द्वारा किया गया कोई भी कर्म (अमजद डकैत को खाना खिलाना भी)  परोपकार होता है, और वही है धर्म।
९.  यह धर्म कायरों के लिये नहीं है, यह वीरों का धर्म है। क्योंकि कायर (डरपोक) दूसरों को मारता है, और वीर (अर्थात सच्चा जिहादी ) अपने कच्चे ' मैं '-को (अपने षडरिपुओं या तुच्छ अहं को ) मारता है। मैं साँप को मार देता हूँ, बिच्छू को मार देता हूँ, या जिस किसी को भी मैं, मेरे इस सुख-सपने के जीवन को समाप्त कर सकने वाला समझता हूँ, जो मुझे हानी पहुंचा सकता है, उस उस को मैं मार देता हूँ, क्योंकि वास्तव में मैं कायर हूँ। किन्तु जो व्यक्ति (अद्वैत तत्व का अनुभव करके)वीर बन जाता है, वह इस वृहत जगत के पार जाने के लक्ष्य को ध्यान में रखकर,अपने तुच्छ स्वार्थ के छोटे से दायरे में बंधे - ' मैं और मेरा ' को मारता है। (दादा कहते थे वीर हो तो धीर बनो !) 
१०. स्वामीजी ने कहा था , ' मनुष्य में अन्तर्निहित अनन्त शक्ति का स्फुरण (या प्रस्फुटित) होना ही धर्म है।'  उस धर्म की अभिव्यक्ति - समाज से बुराई को हटाने, कल्याण- कार्यों, श्रेष्ठ प्रकार की समाज-सेवा करने में, भूखों को अन्न-दान करने, अज्ञानियों को ज्ञान देने, अत्याचार का प्रतिरोध करने, शुद्धबुद्धि को उद्घाटित करने के प्रयास से होती है। 
११ धर्म का मुख्य कार्य ही है, मनुष्य को शक्ति प्रदान करना। स्वामीजी के मतानुसार - 'जो धर्म मनुष्य को इस संसार में, और अभी  सुखी नहीं बना सकता, उस धर्म के द्वारा परलोक या मरने के बाद सुख देगा का आश्वासन बिलकुल झूठी बात है।'  यदि मनुष्य इसी  लोक में सुख प्राप्त करना चाहता हो, तो वैसा सुख केवल अपने सुख-सुविधा के ऊपर ही दृष्टि को केंद्रित किये रहने से नहीं प्राप्त होगा।  हृदय का विस्तार -  यथार्थ धर्म-बोध मनुष्य को, उसकी असीम परिधि तक सक्रीय जन-कल्याण करने की भूमिका-(गुरु-नेता के कार्य) में नियोजित कर देता है। यही बोध उसको अपना और दूसरों का दुःख दूर करने की शक्ति और साहस से भर देता है। यहीं से अंतःकरण में हित-अहित का ज्ञान, अन्तरात्मा की आवाज, या विवेक-प्रयोग करने की शक्ति का जागरण हो जाता है। धर्म मनुष्य को सम्पूर्ण जगत के साथ जोड़ देता है, और नीतिबोध (आत्मा की आवाज या Conscience) उस ईश्वर के साथ जुड़े हुए मनुष्य के कर्म की निति- परोपकार को निर्धारित करता है। 
निबन्ध-५.'स्वामीजी के प्रति-सच्ची श्रद्धांजलि ' में निहित 'युवा प्रशिक्षण का पाठ्यक्रम' या सिलेबस (syllabus) इस प्रकार है :
१. 'क्या मानवजाति के सच्चे नेता नवनी दा के निर्देश केवल दूसरों को सुनाने के लिये हैं, स्वयं करने के लिये नहीं?' अगले वर्ष के १५ अगस्त को पूज्य नवनी दा की ८५ वीं जन्म-जयन्ती मनायी जाएगी, हमलोग उनको फूलमाला चढ़ाएंगे, स्मरण-सभा में श्रद्धा-सुमन भी अर्पित करेंगे। एक बार फिर उनके उपदेशों का स्मरण करेंगे। महामण्डल आंदोलन के ५० वर्ष पूरे होने और स्वयं इस आंदोलन के साथ जुड़े रहने पर, स्वामीजी की कविता ' नाचुक ताहाते श्यामा'  की आव्रित्ति करके रोमांचित हो जायेंगे ! एक बार पुनः स्वीकार करेंगे कि दादा सचमुच भारत-प्रेमी थे, वे जानिबिगहा के लोगों से दबे-कुचले और पद-दलित होते आ रहे हैं, से  सचमुच गहरी सहानुभूति रखते थे, तभी तो वे बैलगाड़ी और पालकी से तो कभी पैदल टनकुप्पा से जानिबिगहा जाते रहते थे। वैसे तो दादा मनुष्य मात्र से प्रेम करते थे, किन्तु यदि हम बंगला भाषी भी हों तो, तो इस बात पर थोड़ा गर्व भी महसूस करते हैं, कि स्वामीजी भी हमारे बंगाल के ही थे। यदि बंगाली ब्राह्मण जाति से हों तो थोड़ा और भी अधिक गर्वान्वित होंगे! 
२.यदि व्यक्तिगत रूप से पूछा जाय तो महामण्डल से जुड़ा कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिलेगा जो दादा के प्रति श्रद्धा के दो शब्द नहीं कहता हो। किन्तु हम यदि अपने व्यक्तिगत जीवन पर दृष्टि डालें, अपने पारिवारिक-जीवन के क्रियाकालापों पर दृष्टिपात करें, तो हम पाते हैं कि सभा-सम्मेलनों में हमलोग जो कुछ भी कहते हैं, या शिविर की कक्षा में हम अपने जिन विचारों का उल्लेख करते हैं, उन विचारों के साथ हमारे अपने यथार्थ जीवन में कोई सामंजस्य नहीं दिखता है। 
३. ऐसा प्रतीत होता है मानो 'बनो और बनाओ ' - केवल बोलने के लिये हैं, 'करने के लिये नहीं।' और बोलने के लिये तो केवल कुछ महामण्डल पुस्तिकाओं के कुछ पन्नों को एक बार फेंट लेना ही यथेष्ट होता है।
किन्तु महामण्डल द्वारा निर्देशित ५ अभ्यासों  का पालन करने में बहुत तकलीफ होती है। हमलोगों के इस बहुत बड़े राष्ट्रिय दोष - पर उपदेश कुशल बहुतेरे ! को देखकर स्वामीजी ने बहुत पहले ही हमलोगों को सतर्क कर दिया था। 'बनो और बनाओ ' कहकर भी 'मनुष्य' बनने का ५ अभ्यास हमलोग क्यों नहीं कर पाते हैं?
४.इसके पीछे दो कारण हो सकते हैं। पहला कारण, नवनिदा पर अंधश्रद्धा रहने से भी  हमलोग इस बात पर विशेष ध्यान नहीं देते, कि नवनी दा हमसे क्या बन जाने की अपेक्षा रखते थे ? इसका एक कारण यह है कि हमारी शिक्षा पद्धति में,  स्कूल के एक-दो पर-हितव्रती शिक्षकों द्वारा नैतिकता और महाभारत-रामायण की कुछ कहानियाँ सुन लेने से अधिक- श्रद्धा, विवेक और बुद्धि का अंतर,  मनुष्य जीवन का उद्देश्य, जीवन की सार्थकता,  ब्रह्म, निरपेक्ष सत्य अपरिवर्तनशील-सत्य के सच्चे अवतार- या पैगम्बर,  बुद्ध. ईसा,मोहम्मद, नानक, रामकृष्ण परमहंस-विवेकानन्द आदि  के जीवन और सन्देश के विषय में कुछ सिखलाने की व्यवस्था है ही नहीं। इसीलिये हमलोग केवल इतना जानते हैं कि पैगम्बरों-अवतारों के विषय में बोलते समय उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त करना हमारा कर्तव्य है;  किन्तु अपने जीवन को समर्पित करके भी आधुनिक युग में ब्रह्म के अवतार होली-ट्रायो या नवनी दा जैसे नेता-गुरु-दादा के प्रति अपनी श्रद्धा को अभिव्यक्त करना अर्थात परमसत्य-असत्य-मिथ्या का साक्षात्कार कर लेना  हम अपना उत्तरदायित्व नहीं समझते हैं।
५.  और दूसरा कारण यह है, कि यदि हममें से कुछ व्यक्ति (चाहे व्यक्तिगत जीवन में हो, या राष्ट्रीय जीवन में) इस बात को थोड़ा-बहुत समझ भी लेते हैं कि नवनीदा हमसे किस बात की अपेक्षा रखते थे, तो वे भी ' समझ नहीं सके हैं ' का बहाना बनाकर उनके ५ अभ्यासों को अपने जीवन में धारण करने से बचना चाहते हैं! क्योंकि हम कहीं यह कह दें कि हमने तो यह समझ लिया की वे हमसे यथार्थ मनुष्य बनने और बनाने की अपेक्षा रखते थे। तो फिर उस ५ अभ्यास का निर्वहन करने के लिये हमें भी 'लस्ट और लूकर ' के प्रति आसक्ति को त्याग देना होगा ? बस इसी बात को याद करके, हमलोग उनका सच्चा अनुयायी बनने के भय से शिहर उठते हैं, और अपने जीवन को सार्थक करने के कर्तव्य से पलायन कर जाते हैं।
६.भला ऐसा क्यों होता है कि हमलोग ५ अभ्यास करके यथार्थ मनुष्य क्यों नहीं बनना चाहते हैं ? स्वामीजी ने इसका कारण भी बता दिया था। मनुष्य की ढेरों जन्मजात वृत्तियों में से एक है- जड़ता, सदैव स्थिर-अवस्था में अचल होकर ' जड़-पिण्डों ' के समान पड़े रहने की वृत्ति।  जो मनुष्य अभी जैसा है,वह वैसा ही बने रहना चाहता है। किन्तु नवनीदा का अनुयायी बनने के लिये इस भाव का बिल्कुल ही परित्याग कर देना होता है। उनके भाव से अनुप्रेरित होने के लिये - ' मैं पिछले कैम्प में जैसा था, इस वर्ष कैम्प से लौटने के बाद भी वैसा ही रहूँगा ' के आलस्य- भाव को बिलकुल छोड़ देना होता है। क्योंकि उनके अनुयायी के लिये-कल तक वह जितना मनुष्य बन सका था, आज भी उतना ही (लघु) मनुष्य बना रह पाना संभव ही नहीं होता। इतना ही नहीं, इसके पहले क्षण मैं जो था, इस क्षण भी ठीक वैसा ही बने रहना संभव नहीं रह जाता। इसीलिये दादा दो श्लोक बार बार कहते थे -

आलस्यं  हि  मनुष्याणां  शरीरस्थो  महान  रिपुः |

नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा Sयम् नाSवसीदति  ॥१ 

सुखार्थी  वा  त्यजेत विद्याम्   विद्यार्थी वा त्यजेत सुखम्  |

सुखार्थिनः  कुतो  विद्या  कुतो  विद्यार्थिनः  सुखम्  ॥२ 

[क्योंकि उस समय ३५ वर्षीय इस सत्यार्थी को १९८५ में विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर, गुरु खोजने १९८६ में हरिद्वार कुम्भ का ज्ञान-और 16 जनवरी 2007 सरस्वती पूजा से -BH का ज्ञान, १९८७ बेलघड़ीया कैम्प, १०८८ प्रथम बिहार कैम्प) कोई सबसुख-दास (प्रवृत्ति मार्गी) मनुष्य, निवृत्ति अस्तु महाफला को समझे बिना कभी रामसुख-दास संत नहीं बन सकता ! अर्थात कोई सुखार्थी व्यक्ति कभी ब्रह्मविद मनुष्य या ब्रह्मवेत्ता मनुष्य नहीं बन सकता, क्योंकि ब्रह्म को जान विवेकज़-आनन्द (भूमा आनंद) में प्रतिष्ठित रहने की साधना, कभी ईज़ीगोइंग-प्रोसेस नहीं हो सकती -मनुष्य बनने और बनाने  के लिए ५ अभ्यास तो सभी को करना ही पड़ेगा।] 
शरीर का बड़ा होना, या बूढ़ा होकर VRS लेना पेंशन पाने लगना - यह कार्य तो प्रकृति द्वारा ही होता रहता है। इसके लिये मुझे स्वयं कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता है। किन्तु जब मैं अपने 3H का विकास करना चाहता हूँ, शरीर को स्वस्थ और सबल तथा  मन को तेजस्वी बनाना चाहता हूँ या अपने हृदय को विशाल बनाना चाहता हूँ, आस-पास रहने वाले मनुष्यों से एकात्मता का अनुभव करना चाहता हूँ, तो इसमें मुझे ५ अभ्यास स्वयं ही करना पड़ेगा; और यही मेरा कार्य है। जो युवा नवनीदा का क्रमानुयायी या सक्सेसर बनना चाहता हो, उसे तो प्रतिमुहूर्त उन्नततर मनुष्य बनते रहना पड़ता है
७. $$@$$ 'निर्झरेर स्वप्नभंग' (নির্ঝরের স্বপ্নভঙ্গ):जब हृदय के बन्द कपाट (अहं) को खोल कर, प्रेम-मन्दाकिनी प्रवाहित होने लगती है, तब उस निर्झर का मोह-भंग हो जाता है, उसका भ्रम चला जाता है, तब वह निर्झर माया-जाल से मुक्त (डीहिप्नोटाइज्ड) हो जाता है! उस अद्वैत में स्थित मनुष्य की स्त्री-पुरुष-नपुंसक' समस्त भेदबुद्धि चली जाती है, और वह "कोई पराया नहीं -सभी अपने हैं, सभी में मैं ही हूँ," के भाव में स्थित हो जाता है।अब उसका वैराग्य ठाकुर के प्रति अनुराग में बदल जाता है, और वह 'कच्चा मैं' (या मिथ्या नाम-रूप स्त्री-पुरुष होने केअहंकार) या 'लस्ट ऐंड लूकर ' के प्रति आसक्ति को निष्ठुरता के साथ त्याग कर सकता है। इस प्रकार प्रति मुहूर्त भ्रम-मुक्त अवस्था (विसम्मोहित अवस्था)  में रहते हुए
'काचा मैं'-बोध को 'पाका-मैं' (पाका आमी-ब्रह्मविद मनुष्य) में परिणत करने की चेष्टा को ही-स्वामीजी या नवनीदा के भाव (आदर्श) को आचरण में उतारना कहते हैं ! उसी अवस्था का चित्रण रवीन्द्रनाथ ठाकुर अपनी कविता -  'निर्झरेर स्वप्नभंग' 'निर्झर का विसम्मोहित हो जाना' (নির্ঝরের স্বপ্নভঙ্গ) में इस प्रकार करते हैं -'हेशे खलखल गेये  कलकल, ताले ताले दिबो ताली' : 
आजि ऐ प्रभाते रविर कर,
केमने पासिलो प्राणेर ‘पर, 
केमने पासिलो गुहार आंधारे,
प्रभात पाखीर गान!,
ना जानि केनोरे एतो दिन परे जागिया उठिलो प्राण!
[ आज के इस प्रभात काल में सूर्य की किरणें, मेरे प्राणों के भीतर कैसे प्रवेश कर गयीं? गुहा के अंधकार में प्रभात-पक्षी का गान कैसे समा गया? न जाने, इतने दिनों बाद प्राण क्योंकर जाग उठे हैं? प्राण जाग उठे हैं, अरे पानी उछल कर उमड़ पड़ा है। अरे! प्राणों की वेदना, प्राणों के आवेग को रोक रखना संभव नहीं अब!] 
“न जाने, आज क्या हुआ कि जाग उठे हैं प्राण
 मानो, कानों में पड़ा हो दूरस्थ महासागर का गान“।
भांग रे हृदय , भांग  रे बाँधोन 
शाध  रे ‍आजिके प्राणेर शाधोन 
लहरीर पोरे लहोरी तुलिया
अघातेर पोरे अघात कोर!
मातीया जोखोन उठेचे पोरान!
शिखोर होईते शिखोरे छुटिबो
भूधोर होईते भूधोरे लुटिबो
हेशे खलखल गेये कलकल
ताले ताले दिबो ताली
(হেসে খলখল গেয়ে কলকল/তালে তালে দিব তালি।) इसी 'खिलखिला कर हँसते और कलकल ध्वनि' में बहती झरने की धारा में स्नान कर लेने के बाद (अपने मन की चहार दिवारी को भी ट्रैन्सेन्ड करके भेंड़त्व से डी-हिप्नोटाइज्ड होकर सिंहत्व में स्थित हो जाने के बाद) हमलोग दूरस्थ महासागर या यथार्थ (शाश्वत) जीवन-समुद्र के सम्मुख खड़े हो जाते हैं ! किसी पहाड़ के चट्टानों के बन्धन से उन्मुक्त निर्झर रूपी इस 
प्रेम-मन्दाकिनी को " नदी को जीवन के हर मोड़ पर" से बहते हुए, इस नाम-रूप के 'मिथ्या अहं' को खोकर (देहाध्यास, M/F भाव को खो कर) अपने यथार्थ स्वरूप या ब्रह्मत्व के महासमुद्र से मिलने में (ससीम से असीम बनने में) भयभीत क्यों होना चाहिए ?
८.$$@$$ ' चरैवेति चरैवेति ' यही महामण्डल का संजीवनी- मन्त्र है, जो मृत जड़-पिण्डों में भी जान डाल सकता है। 'निर्झर से, नदी बनने, नदी से समुद्र बनने- (पशु से मनुष्य और मनुष्य से देवता परमहंस बनने में) यह भय केवल अपनी जड़ावस्था को (आलस्य को) अचल रखने की दुराग्रह (वृत्ति) से उत्पन्न होता है। इसीलिये स्वामीजी ने कहा था- 'गति ही जीवन है, स्थित ही मृत्यु।',  फिर कहते हैं- ' उठो, जागो ! अब और स्वप्न मत देखो ! ' (अपने को शरीर समझने की-देहाध्यास) घोर निद्रा को त्याग कर उठ खड़े होओ! शरीर और मन पर आत्मा (पवित्रता) शक्ति का प्रयोग करो ! ' चरैवेति चरैवेति '-जो आलस्य में सोया हुआ है, उसका कलिकाल चल रहा है, उठकर खड़े हो जाओ। खड़े हो गए हो, तो चलना शुरू कर दो, जो चलना शुरू कर देता है, उसके लिए सत्ययुग आ जाता है। यही स्वामीजी का संजीवनी- मन्त्र है, जो मृत जड़-पिण्डों में भी जान डाल सकता है। यदि हमलोग नवनीदा के आविर्भूत होने की तिथि १५ अगस्त का स्मरण करके भी इस नव-जीवन प्रदायी मन्त्र ' चरैवेति चरैवेति '-में यदि दीक्षित न हो सकें, तो नवनीदा के प्रति मौखिक श्रद्धा-सुमन चढ़ाने का कोई मोल नहीं है
९. नेता के कर्तव्य :किन्तु नवनीदा के क्रमानुयायी बनने वाले महामण्डल लीडर (कर्मी गुरु-नेता) का के लिये ' चरैवेति चरैवेति ' का अर्थ केवल अपने आलस्य को त्याग कर चरित्रवान मनुष्य बन जाना ही यथेष्ट नहीं है। हमलोगों को अपने जीवन-दीपक को प्रज्वलित करके दूसरों के जीवन को भी प्रज्वलित करा देने का प्रयत्न करना होगा। हम लोगों को ' सबों के जीवन से अपने जीवन को जोड़ कर देखना ' सीखना होगा। भारत के सभी युवाओं को व्यक्ति से पारिवारिक-जीवन में, पारिवारिक से सामाजिक-जीवन में, तथा इसी प्रकार राष्ट्रिय जीवन तक 'एक और अभिन्न ' बनते हुए आगे बढ़ने के मन्त्र में अनुप्राणित करना होगा। इस महा-जागरण की वाणी (महावाक्यों) को भारत के खेतों-खलिहानों, कल-कारखानों, स्कुल-कालेजों, ऑफ़िस
-अदालतों, व्यापारियों की गद्दीयों, राष्ट्र-चालकों के मसनदों (सत्ता की कुर्सी पर बैठे नेताओं ) तक, सर्वत्र फैला देना होगा। 
नवनीदा सम्पूर्ण भारतवर्ष को पूर्ण रूप से जाग्रत कर देने के लिये ही आये थे। हमलोगों ने अभी तक नवनीदा को इस रूप में (मानवजाति के सच्चे नेता रूप में) देखना नहीं सीखा है। किन्तु हमलोगों क उन्हें इसी रूप में देखना स्वयं सीखना होगा और सभी युवाओं को उन्हें इसी दृष्टि देखने की पद्धति समझानी होगी। स्वामीजी ने कहा था- 'भारत झोपड़ियों में वास करता है।' उसके जनसाधारण की उन्नति से ही भारत की उन्नति होगी। भारत को उठने के लिये (महान बनने के लिये) यहाँ की साधारण जनता, जो पीछे रह गए हैं, उन्हें ऊपर उठाना होगा (उन्हें वेदान्त के महावाक्यों सेअनुप्राणित करना होगा।) वे कहते थे - " माना कि तूँ  उन सबों को उपर नहीं उठा सकता, किन्तु तुम उनके कानों तक इस महा-जीवन की वाणी को पहुंचा तो अवश्य सकता है।"
मानव-मात्र के भीतर जो अनन्त शक्ति अन्तर्निहित है। उस शक्ति के जाग्रत करा देने में सहायता करना ही, महामण्डल के नेता का धर्म है ! क्योंकि केवल इसी प्रकार वह दलित या पिछड़ा मनुष्य भी किसी के भी दबाने से दबेगा नहीं, अप्रतिरोध्य बन जायेगा। तब वह अपने अधिकार को जानने के साथ साथ अपने उत्तरदायित्व को भी जान लेगा। प्रत्येक मनुष्य जब इस बोध को प्राप्त करके अपने पैरों पर खड़ा हो जायेगा, सिर उठाकर चलने लगेगा, अपने निजी सुख-भोग को तुच्छ समझ कर दूसरों के लिये अपने जीवन को भी न्योछावर कर देने में नहीं हिचकेगा, तभी भारत जाग जायेगा।
जो (प्रक्रिया-५ अभ्यास ) इस नवजीवन को (डीहिप्नोटाइज्ड अवस्था) जाग्रत करके उसे धारण किये रहती हो, वही है स्वामीजी का धर्म। इस धर्म को हम अफीम का नशा नहीं कह सकते। जिस आलस्य रूपी अफीम को खाकर हमलोग घोर सुषुप्ति की अचेत अवस्था में सोये पड़े हैं, उस निद्रा को त्याग कर उठ जाने के लिए ही स्वामीजी हमें पुकार रहे हैं। भारतवर्ष अभी तक जितना भी सिर उठाकर खड़ा होने में समर्थ हुआ है, वह स्वामीजी के उसी मन्त्र -' चरैवेति चरैवेति ' के आह्वान को सुनकर ही हुआ है, जिसे हमने भुला दिया था। 
 प्रत्येक छात्र, प्रत्येक युवक को उनका यह आह्वान पहले स्वयं समझना होगा, फिर दूसरों को भी समझाना होगा। देश की सम्पूर्ण  राष्ट्रीय-व्यवस्था को इस समझाने के दायित्व का निर्वहन करना होगा। "स्वामीजी बड़े महान थे", यह कहकर भाषण देने से, या समाचार-पत्र में छोटा सा लेख लिखकर श्रद्धांजली देने से ही देश आगे नहीं बढ़ेगा।  प्रत्येक छात्र, प्रत्येक युवक को उनका यह आह्वान पहले स्वयं समझना होगा, फिर दूसरों को भी समझाना होगा। देश की सम्पूर्ण  राष्ट्रीय-व्यवस्था को इस समझाने के दायित्व का निर्वहन करना होगा। "नवनीदा बड़े महान थे", यह कहकर भाषण देने से, या समाचार-पत्र में छोटा सा लेख लिखकर श्रद्धांजली देने से ही देश आगे नहीं बढ़ेगा। 
निबन्ध-६."नव विप्लव एवं स्वामी विवेकानन्द" में निहित 'युवा प्रशिक्षण का पाठ्यक्रम' या लीडरशिप सिलेबस (syllabus) इस प्रकार है :
१.लीडर्स वे:  इज द वे ऑफ़ द ड्राप-आउट्स, If you stand for a reason, be prepared to stand alone like a tree, and if you fall on the ground,fall like a seed that grows back to fight again.- (Anonymous,अनानमस, अज्ञातकृत)
"फ्रीडम, ओ फ्रीडम! फ्रीडम, ओ फ्रीडम!" इज द साँग ऑफ़ द सोल. - " मुक्ति-ओ मुक्ति, मुक्ति- ओ मुक्ति!" - यही आत्मा का गीत है। किन्तु हाय! प्रकृति  (माया,नाम-रूप) की सैकड़ों जंजीरों से बद्ध (हिप्नोटाइज्ड)  हो जाना ही उसकी नियति है। " 
महामण्डल जिस नये क्रांतिकारी आंदोलन " BE AND MAKE" में कूद पड़ने के लिये युवाओं का आह्वान विगत ५० वर्षों से करता चला आ रहा है, उसके आदर्श वाक्य को उसने यहीं से (आत्मा के नित्यमुक्त
स्वाभाव, अर्थात सनातन विसम्मोहित या डीहिप्नोटाइज्ड, जन्ममरण के भ्रम से मुक्त अवस्था ) प्राप्त किया था।  "जगत में सबके भीतर ही (धनी हो या गरीब) एक प्रकार के असन्तोष का भाव दिखाई पड़ता है। इस सार्वजनीन असन्तोष का अर्थ क्या है ? इसका अर्थ यही है कि -स्वतंत्रता ही मनुष्य का सर्वकालिक लक्ष्य है। विश्व का स्पन्दन स्वतंत्रता का ही प्रकाश है।" 
२. महामण्डल के मतानुसार ,"जब तक मनुष्य मुक्ति की प्राप्ति नहीं कर लेता (अर्थात स्वयं को जन्म-मरण के भय से डी-हिप्नोटाइज्ड नहीं कर लेता) वह मुक्ति की खोज करता ही रहेगा ! उसका  समग्र जीवन केवल इस स्वाधीनता-प्राप्ति की चेष्टा मात्र है।  शिशु जन्म ग्रहण करते ही नियम के विरुद्ध विद्रोही हो जाता है। उसकी पहली आवाज रुदन की होती है, जो अपने बंधनों के प्रति उसका विरोध होता है। " (२/२९३-९७)
स्वामीजी के मतानुसार - " वेदान्त में संग्राम का स्थान तो है, किन्तु भय के लिए कोई स्थान नहीं है। "  ये सभी --'संग्राम', 'प्रतिवाद', 'विद्रोह', 'निर्भिकता-अभिः',' 'स्वाधीनता-प्राप्त करने की चेष्टा'-जैसे शब्द क्रांतिकारी मन की भाषा ही तो है। किन्तु अन्य कई शब्दों की तरह 'क्रांति' (upheaval, अप्हीवल-महापरिवर्तन) शब्द के साथ भी राजद्रोह, बगावत, विद्रोह, विध्वंश, विक्षोभ, इंकलाब -जिंदाबाद आदि धारणायें इस प्रकार घुलमिल गयी हैं, कि 'क्रांति' शब्द की जो अपनी एक गरिमा है, जिस महापरिवर्तन (भ्रम-मुक्त अवस्था) में अनिवार्य रूप से पहुँच जाने की जो तीव्र छटपटाहट या तीव्र व्याकुलता है, उसे हमलोग बिल्कुल ही भूल चुके हैं।
३.'क्रांति या इंकलाब' को संस्कृत में 'विप्लव' कहते हैं। 'विप्लव' शब्द का उद्भव 'प्लू'  धातु से हुआ है। 'प्लू' धातु का मूल अर्थ है- ' जाना '। विशेष तौर पर मानव-समाज प्रकृति के जिन बन्धनों में (माया-मोह में) जकड़ा हुआ है,'उन बेड़ियों  का टूट जाना' या सम्पूर्ण मानवता का 'भ्रांति-मुक्त' (disillusioned-डी-हिप्नोटाइज्ड) हो जाना ; महामण्डल  के नये क्रांतिकारी आंदोलन या नव-विप्लव से यही सूचित होता है !
महामण्डल कहता है, " क्या तुम यह नहीं जानते कि आज तक विश्व में जितनी भी प्रगति हुई है, वह सब प्रकृति को जीत लेने से ही हुई है ? यदि हमलोग किसी भी तरह से उन्नति करना चाहते हों, तो इसके लिये हर कदम पर हमें प्रकृति का प्रतिरोध करना होगा।" इसीलिये विनय कुमार सरकार ने कहा था, यदि महामण्डल के विचारों को किसी मतवाद की संज्ञा देनी ही हो तो उसको ' प्रकृति के उपर- मनुष्यवाद' (मैन-ओवर-नेचर-इज्म) कहना होगा। प्रकृति तो मनुष्य को यह शिक्षा देती है कि स्वयं जीवित बचे रहने के लिये संग्राम करते रहो। किन्तु स्वयं बचे रहने के लिये संग्राम करना तो स्वार्थपरता को साधित करने का नामान्तर मात्र है, और महामण्डल के अनुसार वैसी चेष्टा किसी भी सामाजिक नैतिकता का सम्पूर्ण विरोधी है। इस स्वार्थपरता की वृत्ति से ही विशेषाधिकार का जन्म होता है। विवेकानन्द कहते थे," विशेषाधिकार भोग करने की धारणा मनुष्य जीवन पर कलंक स्वरुप है।"
४. महामण्डल के अनुसार, " प्रथम है- बाहुबल (Hand) का विशेषाधिकार, या धनबल का विशेषाधिकार 
जो सबल है वह निर्बल का शोषण करके विशेष सुविधा भोग चाहेगा, यही तो पाशविकता है।" फिर बुद्धिबल (Head) का विशेषाधिकार, उससे कहीं अधिक सूक्ष्म और शक्तिशाली है। एक आदमी दूसरों की अपेक्षा अधिक जानकारी रखता है (वकील-डॉक्टर) इसलिये वह अधिक विशेषाधिकार का दावा करता है। और सबसे अन्तिम तथा सबसे निकृष्ट, है गलत धार्मिक-ज्ञान से संकुचित (Heart) से उत्पन्न विशेषाधिकार--यह सर्वाधिक अत्याचारपूर्ण है! जो (ढोंगी साधु-संन्यासी भेषधारी या दुष्ट पण्डे-पुरोहित) लोग यह सोचते हैं कि वे आध्यात्मिकता या ईश्वर के बारे में अधिक जानते हैं, इसीलिये, उनको अन्य सबकी अपेक्षा श्रेष्ठतर विशेषा-धिकार मिलना ही चाहिये। वे कहते हैं, "ऐ भेड़-बकरियों! आओ और हमारी पूजा करो,हमें ऊँचा आसन दो, क्योंकि हम ईश्वर के संदेशवाहक हैं और हमारी पूजा तुम्हें करनी ही पड़ेगी।" 
५.किन्तु वेदान्त इस विशेषाधिकार-वाद के विरुद्ध प्रचार करना चाहता है, जो स्वयं सच्चा वेदान्ती नेता ('भ्रांति-मुक्त', disillusioned-डी-हिप्नोटाइज्ड नेता या पैगम्बर) होगा, वह कभी किसी के उपर शारीरिक, मानसिक अथवा आध्यात्मिक विशेषाधिकार के लिये दावा कभी कर ही नहीं सकता!  क्योंकि वह तो अपने अनुभव से जानता है कि एक ही शक्ति (महत प्रवृत्ति) तो सभी मनुष्यों में अन्तर्निहित है ! अद्वैत इन सभी विशेषाधिकारों को तोड़ डालना चाहता है। मानव-आत्मा के उपर इस उत्पीड़न को चूर-चूर कर देना चाहता है। 
६. विवेकानन्द ने बड़े क्षोभ के साथ कहा था -' हमारे देश में उद्देश्य तो अनेक हैं, किन्तु उसे प्राप्त करने का उपाय नहीं है। हमारे पास मस्तिष्क (Head) तो है, अर्थात हम लोगों के पास यह ज्ञान या 'वेदान्त मत' तो है कि प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है; परन्तु उसे कार्य में परिणत करने के लिये पर्याप्त हाथ (Hand) नहीं है। 
क्योंकि हजार वर्षों की गुलामी के कारण हमलोग अत्यन्त इर्ष्यालू या हृदयहीन (Heartless) बन गए हैं; और मांसपिण्ड की अपनी इस काया को छोड़ कर, देह-सुख सिवा अन्य किसी उच्चतर आनन्द के विषय में हम सोचते ही नहीं।
जबकि हमारे ही ग्रन्थों में सार्वभौम-साम्यवाद ' सर्वे भवन्तु सुखिनः ' का सिद्धान्त है, और महा निःस्वार्थ, निष्काम कर्म (बौद्ध धर्म) भारत से ही प्रचारित हुआ था, किन्तु कार्यों में महा भेद-वृत्ति है। अपने ही दलित और पिछड़े भाइयों के प्रति हमारे आचरण अत्यन्त निर्मम और निर्दयी हुआ करते हैं। अर्थात हमारा मन और मुख एक नहीं है। हमलोग सोचते कुछ हैं, बोलते कुछ हैं -और करते कुछ और ही हैं ! 
क्योंकि हमारे पास, मनुष्य के सच्चे स्वरूप को जानने वाले, 'वॉर्महर्टेड ऐंड कम्पैशनेट लीडर्स'
(Compassionate and Warmhearted Leaders) स्वयं भ्रममुक्त (डीहिप्नोटाइज्ड) नेताओ का अर्थात घोर अभाव हो गया था। भारत का पुनर्निर्माण करने के लिए,  पहले कमसे कम १०० भ्रम-मुक्त निर्झर जैसे शिक्षक-नेताओं का निर्माण करना आवश्यक था। और इसी ऐतिहासिक कमी को दूर करने के लिये १९६७ में कलकत्ते में महामण्डल को आविर्भूत होना पड़ा ! 
७. लीडरशिप ट्रेनिंग सिलेबस की मूल बात: तथा महामण्डल के चरित्रनिर्माण-आंदोलन या 'रामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त परम्परा' में आधारित (५ अभ्यास के प्रशिक्षण द्वारा) आध्यात्मिक मनुष्य-निर्माण की क्रांति, वेदान्तिक रेवोलुशन प्रोग्रैम-(বৈদান্তিক বিপ্লব কর্মসূচি) 'BE AND MAKE' -अर्थात लीडरशिप ट्रेनिंग सिलेबस की मूल बात--अपने और प्रत्येक मनुष्य के सच्चे स्वरूप को जानने वाले,'वॉर्महर्टेड ऐंड
कम्पैशनेट लीडर्स' या 'डीहिप्नोटाइज्ड भ्रान्ति-मुक्त नेता बनो और बनाओ' ही है! अत्यन्त इर्ष्यालू या हृदयहीन (Heartless) मनुष्य को 'वॉर्महर्टेड (Warmhearted) ऐंड कम्पैशनेट लीडर्स' में रूपांतरित करने की पद्धति है  '3H'-डेवलेपमेंट के लिए ५ अभ्यास स्वयं करो और दूसरों को भी ५ अभ्यास करने के लिए अनुप्रेरित करो ! गुरु-नेता बनो और बनाओ - 'BE AND MAKE'!  
८.महामण्डल के मतानुसार- " भगवान और शैतान (अहुरमज्द और अहिर्मन)  सुर (देवमानव) और असुर (पशुमानव) में कुछ भेद नहीं हैं, भेद केवल स्वार्थशून्यता तथा स्वार्थपरता में है। शैतान (असुर) भी उतना जानता है जितना सुर, उसमें बस पवित्रता नहीं होती-इसीसे वह असुर बन जाता है। शैतान भी भगवान के जैसा ही शक्तिशाली है, केवल उसमें पवित्रता नहीं है- इस पवित्रता के आभाव ने ही उसको शैतान बना दिया है। इसी कसौटी पर आधुनिक संसार को परख कर देखो। पवित्रता नहीं रहने से, ज्ञान और शक्ति का अतिरेक मनुष्य को शैतान में परिणत कर देता है। " ९/१०२ 
९.इसीलिये पवित्रता (चैस्टिटी या मनोनिग्रह की क्षमता) का अर्जन ही इस 'भ्रान्ति-मुक्त नेता बनो और बनाओ' के वेदान्तिक रेवोलुशन प्रोग्रैम ('বৈদান্তিক বিপ্লব কর্মসূচি') का अधिकांश भाग (main body), ग्राउंड रूल्स या मूल सिद्धान्त है! मनोनिग्रह और विवेक-प्रयोग के द्वारा पवित्रता अर्जन करना ही आध्यात्मिकता को अर्जित करना है, एवं यह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अत्यन्त प्रभावी होता है। 
किन्तु महामण्डल की लीडरशिप-ट्रेनिंग पद्धति रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा में आधारित है। इसीलिए महामण्डल भी श्रीरामकृष्ण की तरह जगत को मिथ्या मानकर उससे पलायन करने की सीख नहीं देता। बल्कि महामण्डल तो मनुष्य-जीवन से जुड़े हर क्षेत्र में- पारिवारिक, सामाजिक, शैक्षणिक, राजनैतिक, औद्योगिक, बौद्धिक आदि सभी क्षेत्रों में मानवजाति के सच्चे नेता या 'विसम्मोहित नेताओं' को प्रतिष्ठित देखना चाहता है। क्योंकि महामण्डल के मतानुसार मनुष्य जीवन में- ' धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष' (सैक्रिड और सेक्युलर) रूप से दो अलग-अलग कार्य-क्षेत्र नहीं हैं। क्योंकि जीवन एक ही वस्तु है, और हर प्रकार से अधि-आत्मिक (Diligently-spiritual,अध्यवसायी रूप से अति-आत्मिक) है। इसीलिये पवित्रता तो सभी क्षेत्र में नियुक्त नेताओं को अर्जित करनी होगी, किन्तु गृहस्थ नेताओं को भीतर से पवित्र रहना होगा, 'लस्ट ऐंड लूकर' के प्रति लालच को कम करते जाना होगा। क्योंकि महामण्डल के आदर्श स्वामी विवेकानन्द के मन में मुक्ति  की परिकल्पना बहुत व्यापक थी।
वे केवल संन्यासियों के लिये ही नहीं, सम्पूर्ण मानव जाति के लिये आध्यात्मिक मुक्ति उपलब्ध करना चाहते थे। इसिलिये, 'निर्झरेर स्वप्नभंग' के बाद या निर्विकल्प समाधि के त्याग के बाद उन्मुक्त प्रेम-मन्दाकिनी बनकर स्वामीजी ने अपना सन्देश दिया था - "फ्रीडम, ओ फ्रीडम! फ्रीडम, ओ फ्रीडम!" इज द साँग ऑफ़ द सोल।" इसीलिये उनके इस 'मुक्ति के आह्वान' ने उस समय के समग्र देशवासी को मंत्रमुग्ध और उत्साहित बना दिया था। उनकी साधना  के माध्यम से, आचरण के माध्यम से एवं व्याख्यानों के माध्यम से यही सत्य प्रकट हुआ था।
इसीलिये बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में ' राजद्रोह जाँच समीति ' (Sedition Committee) के रिपोर्ट में लिखा गया था कि भारत के क्रांतिकारियों के पाठ्यक्रम या सिलेबस में मैजनी, गैरीबाल्डी की जीवनी के साथ भगवद-गीता और विवेकानन्द-साहित्य भी पढ़ाये जाते थे। तात्कालीन बंगाल के राज्यपाल लार्ड रोनाल्डशे (१९१७ - १९२२) ने ढाका के जेल में क्रांतिकारी हरिकुमार से पूछा था-" क्या आप कहीं विवेकानन्द के अनुयायी और वेदान्ती तो नहीं हैं ? " विपिन चन्द्र पाल विवेकानन्द को 'राष्ट्रवाद का प्रवक्ता' कहते थे। दूसरे लोग उनको 'भारत का रूशो' के नाम से संबोधित करते थे। अरविन्द ने लिखा था, "उस डायनामाईट का निर्माण दक्षिणेश्वर की मिट्टी से हुआ था।"
इसीलिये, बम बनाने के मुकदमे में पुलिस ने अरविन्द को  'ग्रे-स्ट्रीट' के निवास से, जब गिरफ्तार किया, तब तलाशी में पुलिस को वहाँ से केवल एक सन्देहास्पद पुड़िया ही प्राप्त हुई थी। उस समय पुलिस को लगा था कि उसमें शायद कोई बिस्फोटक पदार्थ रखा हुआ है। बाद में अरविन्द ने मजाकिया अंदाज में  लिखा था, " पुलिस का सन्देह गलत नहीं था, क्योंकि पुड़िया बांध कर ताखे में जो रखा हुआ था, वह वास्तव में बिस्फोटक पदार्थ तो था ही। क्योंकि उस पुड़िया में दक्षिणेश्वर की थोड़ी सी मिट्टी रखी हुई थी।"
स्वामी विवेकानन्द जहाँ एक ओर, ' मनुष्य को समस्त प्रकार के बन्धनों से स्वाधीन होकर (प्रकृति के मोहजाल से भ्रम-मुक्त या डी-हिप्नोटाइज्ड होकर) यथार्थ मनुष्य (ब्रह्मवेत्ता) बनने का आह्वान करते हैं, उसी प्रकार सर्वधर्म समन्वय (नवनी दा-अविरोध) के प्रचार द्वारा भारत की राष्ट्रीय-एकता की बुनियाद को भी स्थापित कर देते हैं। "
स्वामी विवेकानन्द के भीतर अध्यात्मिक-क्रांति का बीज था इसीलिये यह सब सम्भव हो सका था। (उनमें नेतागिरी के विशेषाधिकार उन्मूलन करने सक्षम निर्विकल्प-समाधी जन्य विवेकज ज्ञान-बीज सन्निहित था, इसीलिये  ये सब संभव हो सका था।)  इसीलिये  विवेकानन्द ने आह्वान किया था- "लाखों स्त्री-पुरुष पवित्रता के अग्निमन्त्र से दीक्षित होकर, भगवान के प्रति अटल विश्वास से शक्तिमान बनकर और गरीबों, पतितों तथा पददलितों के प्रति सहानुभूति से सिंह के समान साहसी बनकर इस सम्पूर्ण भारत देश में सर्वत्र उद्धार के सन्देश का, सेवा के सन्देश का, सामाजिक उत्थान के सन्देश का, समानता (विशेषाधिकार उन्मूलन) के सन्देश का प्रचार करते हुए विचरण करेंगे। "उठो जागो ! क्योंकि तुम्हारी मातृभूमि इसी महाबली की प्रार्थना कर रही है। " 
१०. किन्तु धर्म क्या है ? विवेकानन्द का उत्तर होगा - " धर्म का अर्थ क्या इस प्रकार प्रार्थना करना है- " हमें यह दो, वह दो" ? नहीं, धर्म के संबन्ध में ये सब धारणायें प्रमाद हैं। हमारे गुरुदेव कहा करते थे, ' गीध बहुत ऊँचे उड़ते हैं, किन्तु उनकी दृष्टि रहती है जानवरों के शव की ओर।' जो हो, तुममें धर्म के सम्बन्ध में जो सब धारणायें हैं, उनका फल क्या है, बताओ तो सही ?  ..रास्ते की सफाई करना, और अच्छे अन्न-वस्त्र का संग्रह करके उनका वितरण कर देना; क्या धर्म का यही अर्थ है? ....यदि साहस हो, उनके बाहर चले आओ। सब नियमों के बाहर चले जाओ, समग्र जगत उड़ जाय - तुम अकेले आकर खड़े हो जाओ।'  ८/७९ स्वामीजी का वास्तविक क्रांतिकारी आह्वान है - ' समस्त जगत उड़िया जाक,आपनी एकला आसिया दाड़ान!' (সমগ্র জগৎ উড়িয়া যাক—আপনি একলা আসিয়া দাঁড়ান। देहाध्यास या हिप्नोटाइज्ड स्टेट ऑफ़ माइंड से स्व यंभ्रम-मुक्त होकर बाहर निकल आओ, और दूसरों को भी भ्रम मुक्त करने के कार्य में जुट जाओ ! पूरे विश्व को उस सिंह-शावक की कथा सुनाओ जो अपने को भेंड़ समझता था !)  
स्वामी जी के इसी उक्ति की प्रतिध्वनी, हमलोग  प्रसिद्द इतिहासकार एवं विचारक "अर्नाल्ड टायनबी (Arnold Joseph Toynbee) की  पुस्तक 'सरवाइविंग द फ्यूचर' (Surviving the Future) में भी सुन सकते हैं। वे भी, 'The way of the drop-outs ' की तुलना 'सेंट फ्रांसिस ऑफ असीसी' से करते हुए, ठीक विवेकानन्द के शब्दों में कहते हैं-उनके (सेंट् फ्रांसिस के) आलावा इस प्रकार विसम्मोहित (भ्रम-मुक्त या डी-हिप्नोटाइज्ड) होकर अकेले खड़े हो जाने वाले महापुरुषों के और भी कई उदाहरण (बुद्ध, विवेकानन्द, नवनीदा आदि) हैं, जिनके कारण समाज विशेष रूप से उपकृत हुआ है।" इसी विषय पर वे आगे कहते हैं- " सच्चे और दीर्घ स्थायी शान्ति को प्राप्त करने के लिये,जो अत्यन्त आवश्यक है वह है- एक आध्यत्मिक-क्रांति !" वे क्रांति के दो मार्गों का उल्लेख करते हुए कहते हैं-- एक में क्षोभ और (मोहजाल से) मुक्ति की आकांक्षा, विध्वंस का विस्फोटक रूप धारण कर लेती है, और दूसरे प्रकार की आध्यात्मिक-क्रांति (देहाध्यास से डी-हिप्नोटाइज्ड या भ्रममुक्त अवस्था की प्राप्ति) जो मनुष्य के भीतर घटित होती है वह अधिकांशतः निःशब्द (मूक) होती है,और बाहर से देखने पर कम क्रियाशील प्रतीत होती है।" [इसीलिए अर्नाल्ड टायनबी ने कहा था - मैं हिप्पी-आंदोलन के ऊपर अभी कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं दूंगा, मैं इस आंदोलन की परिणीति को देखने के बाद ही हिप्पी युवाओं के विषय में कुछ कहूँगा।
११. 'छन्नछाड़ा गोष्ठीर पुरोधा' : नवनीदा कहते थे - 'हम यह नहीं जानते कि ऐसा कहते समय टायनबी के मन में विवेकानन्द का नाम था या नहीं? किन्तु हमलोग यह निश्चित रूप से जानते हैं कि -"आमादेर युगे एमन एक 'छन्नछाड़ा गोष्ठीर पूरोधा' छिलेन स्वामी विवेकानन्द " [- अर्थात हमारे युग के इस प्रकार के एक रूढ़ि-मुक्त वैगाबॉन्ड (बोहेमियन, खाना बदोश या घुमक्कड़-दल) दल के मार्गदर्शक नेता थे स्वामी विवेकानन्द ! আমাদের যুগে এমন এক ছন্নছাড়া গোষ্ঠীর পুরোধা ছিলেন স্বামী বিবেকানন্দ!) और जो लोग महामण्डल आंदोलन के साथ वर्षों से जुड़े रहे हैं, वैसे लोग भी कह सकते हैं कि- " हमलोगों के युग के (घुमक्कड़) या घर (भुवन-भवन) छोड़ कर, भीड़ से अकेले खड़े होकर; महामण्डल भवन में रहने वाले 'परिव्राजक-दल' के-'छन्नछाड़ा गोष्ठीर पूरोधा'- थे श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय ! जो न केवल बंगाल में एक क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के प्रति दृढ़ संकल्प थे, बल्कि भारत के सभी युवाओं के विचार-जगत में एक क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के लिए कृतसंकल्प थे। और यही एक नई क्रांति -चरित्र-निर्माण आंदोलन की शुरुआत भी है।
साधारण मनुष्य को महामण्डल का लीडरशिप ट्रेनिंग द्वारा; 'निर्झरेर स्वप्नभंग' (disillusioned) डी-हिप्नोटाइज्ड, 'भ्रममुक्त आध्यात्मिक नेता' में परिवर्तित करने वाले आध्यात्मिक क्रांति का सूत्रपात नवनीदा ने नवनी दा ने अपने हृदय के प्रेम मन्दाकिनी को 'जीवन के हर मोड़ पर',सभी युवाओं के जीवन-गठन का सूत्र, भारत-निर्माण का सूत्र , मनुष्य जीवन के उद्देश्य, सार्थकता का सूत्र -" BE AND MAKE " का प्रचार- प्रसार करते हुए किया था। नवनीदा कहते थे - ’'कम आउट फ्रॉम दी हिप्नोटाइज्ड स्टेट ऑफ़ माइंड, फ्रॉम द हर्ड ऑफ़ शिप्स; एंड स्टैंड अलोन लाइक अ लॉयन! लाइक अ ट्रू लीडर ऑफ़ मैनकाइंड ! उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत !
उन्होंने आजीवन अपनी शारीरिक, मानसिक, धन-संपत्ति से परिपूर्ण, श्रेष्ठ ब्राह्मण वंश और खड़दह के श्री हर्ष के कुल और भुवन-भवन में जन्म ग्रहण करने के बावजूद, अथवा सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक ज्ञानी होने के आधार पर, कभी किसी प्रकार के विशेषाधिकार का कोई दावा नहीं किया था ! 
१२.जेनिसिस ऑफ़ लीडरशिप, ईट्स कॉन्सेप्ट ऐंड क्वालिटीज: नेतृत्व की उत्पत्ति अवधारणा तथा नेता के गुण : अपनी पुस्तक 'नेतृत्व का अर्थ एवं गुण ' में मानव-जाति के सच्चे नेता नवनीदा ने भावी नेताओं, अपने क्रमानुयायीओं या सक्सेसर्स का आह्वान करते हुए कहा था- " बाह्य रूपों तथा अवस्था में कभी साम्य प्राप्त नहीं हो सकता। किन्तु हमलोग अपने मन से विशेषाधिकार पाने के लालच को अवश्य निकाल सकते हैं। सारे संसार के समक्ष वास्तव में यही कार्य है। प्रत्येक कौम और प्रत्येक देश के सामाजिक जीवन का एकमात्र संग्राम यही है । सृष्ट जगत की स्वाभाविक विविधताओं को नष्ट किये बिना, साम्य-प्राप्ति और एकत्वबोध की दिशा में अग्रसर होते रहना ही हमलोगों का (महामण्डल  नेताओं का 'छन्न छाड़ा गोष्टी के पुरोधाओं'  का) एकमात्र कार्य है । 
और यहीं पर महामण्डल के 'रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा में आधारित लीडरशिप ट्रेनिंग में ५ अभ्यास रूपी क्रिएटिव प्रैक्टिसेज मेथड (रचनात्मक कार्य पद्धति) -'BE AND MAKE' में अध्यात्मिक क्रांति की दृष्टि से अर्थात भ्रममुक्त नेता बनने और बनाने में सृजन की खोज दिखाई देती है। जड़वादि 'ढोंगियों' के विद्रोह (केवल कपड़ा रँगवा लेना) और अध्यात्म-वादियों की क्रांति में यही सबसे बड़ा अंतर है कि वे अपने लिये कोई विशेषाधिकार नहीं चाहते! 
संस्कृत के कवि भास बहुत सुंदर ढंग से कहते हैं- 
 'प्राज्ञस्य मूर्खस्य च कार्ययोगे, 
 समत्वम् अभ्येति तनुः न बुद्धिः||' 
-अर्थात ज्ञानी और मूर्ख मनुष्य के कर्म करने में शरीर तो एक जैसा रहता है, परन्तु बुद्धि में भिन्नता रहती है। जब कोई कार्य किसी प्राज्ञ या मूर्ख व्यक्ति के द्वारा सम्पादित होता है, तो बाहर से देखने पर उसमें कोई अंतर नहीं रहता। किन्तु बुद्धि या विचार की दृष्टि से देखा जाय तो - एक विशेषाधिकार पाने या बॉसिज्म की इच्छा से कर्म करता है, और दूसरा आध्यात्मिक साम्य में स्थापित रहने की इच्छा से, दोनों के बीच बहुत अधिक अंतर होता है।[ इसी बात को स्पष्ट करते संत कबीरदास कहते हैं - 
मन ना रँगाए, रँगाए जोगी कपड़ा ।।
आसन मारि मंदिर में बैठे, ब्रम्ह-छाँड़ि पूजन लगे पथरा ।।
कनवा फड़ाय जटवा बढ़ौले, दाढ़ी बाढ़ाय जोगी होई गेलें बकरा ।।
जंगल जाये जोगी धुनिया रमौले काम जराए जोगी होए गैले हिजड़ा ।।
मथवा मुड़ाय जोगी कपड़ो रंगौले, गीता बाँच के होय गैले लबरा ।।
कहहिं कबीर सुनो भाई साधो, जम दरवजवा बाँधल जैबे पकड़ा ।।]
१३."वेदान्ती नैतिकता का यही सारांश है-सबके प्रति साम्य । हम देख चुके हैं कि वह अन्तर्जगत है, जो बाह्य जगत पर शासन करता है। विषयी को परिवर्तित करो, विषय भी परिवर्तित हो जायेगा। स्वयं को शुद्ध कर लो और संसार का विशुद्ध होना अवश्यम्भावी है। लोग बदल जाएँ, तो जगत भी बदल जायेगा। पहले के किसी समय से अधिक आजकल इस एक बात की शिक्षा देने की आवश्यकता है। क्योंकि हमलोग अभी अपने विषय में उतरोत्तर कम और अपने पड़ोसियों के विषय में क्रमशः अधिक व्यस्त होते जा रहे हैं।  यदि हम परिवर्तित होते हैं, तो संसार परिवर्तित हो जायेगा; यदि हम निर्मल हैं, तो संसार निर्मल हो जायेगा। " ९/१०२
किन्तु इस अध्यात्मिक क्रांति का मार्ग पर चलना, छुरे की तीक्ष्ण धार पर चलने के समान दुर्गम है। यदि भारत का युवा-वर्ग व्यवस्था में परिवर्तन लाना चाहते हों, तथा समाज से गन्दगी को दूर करने के लिये दृढ़ संकल्प हों, तथा इस नई आध्यात्मिक-क्रांति से प्रेम करने का साहस (कच्चे मैं को जीतेजी मरते देखने का साहस) रखें, तब उन्हें भी अपनी मानवीय सम्भावना का विकास और अभिव्यक्ति,  स्वयं भ्रम-मुक्त होने और दूसरों को भी भ्रम-मुक्त करने की आंतरिक प्रेरणा प्राप्त होगी।  इस मार्ग पर चलने का एकमात्र संबल है, विवेकानन्द निर्देशित 'मनुष्यत्व -उन्मेषक और चरित्र निर्माणकारी शिक्षा।' [ नवनी दा निर्देशित ५ अभ्यास का प्रशिक्षण]
नेता का चरित्र ही इस क्रांति  का एकमात्र हथियार है; और इस हथियार की चोट आध्यात्मिक-क्रन्तिकारी को पूरी निर्दयता के साथ दूसरों पर नहीं अपने आप पर (विशेषाधिकार उन्मूलन हेतु ) करना होगा। यदि भारत  के युवा अपने चरित्र में क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकें, तभी उनके द्वारा समाज में परिवर्तन लाना संभव होगा। अन्यथा जड़वादी इन्कलाब का भोथरा तलवार निष्फल होकर किसी न किसी दिन वापस उन्हीं के ऊपर गिरेगा । जो लोग त्याग और सेवा के माध्यम से अपना चरित्र गठन करते हैं, केवल वैसे ही लोग ' अध्यात्मिक क्रांति की पताका ' (महामण्डल का वज्रांकित ध्वज) के नीचे एकत्र हो सकते हैं। आज भारत को जिस चीज की घोर आवश्यकता है, वह है चरित्र ! चरित्र-निर्माण आंदोलन ही समाज के पतन और वैषम्य को दूर कर सकता है। विशेषाधिकार और शोषण को समाप्त कर सकता है। समानता और न्याय तथा परस्पर सौहार्द को स्थापित कर सकता है।
१४. आज भारत की स्वाधीनता के ७०  वर्षों बाद टायनबी उल्लेखित पुराने ढंग की (हिप्पी-से -सीधा संन्यासी फ्रांसिस) बन जाने की क्रांति का प्रयोजन समाप्त हो गया है। आज आवश्यकता है एक नये ढंग की क्रांति की। अपने संयमित उत्तेजनाहीन जीवन को गढ़ने के माध्यम से- देश को गढना, अराजक विभत्सता (नक्सलवाद -आतंकवाद)  में गोली खाकर मर जाने से भी कठिनतर कार्य है। कविगुरु रवीन्द्रनाथ की भाषा में -
रुपनारानेर कूले,
जेगे उठिलाम, 
जानिलाम ए जगत 
स्वप्न नय। 
सत्य जे कठिन,
कठिनेरे भालोबासिलाम, 
आमृत्यु'एर दुःखेर तपस्या ए जीबन,   
'সত্য যে কঠিন,' বল -
'কঠিনেরে ভালবাসিলাম' -
'আমৃত্যুর দুঃখের তপস্যা এ জীবন 

 मृत्यु हो जाने तक, एथेन्स के सत्यार्थी का जीवन दुःख की तपस्या मात्र है! इस सत्य-पथ पर चलना अत्यन्त कठिन है; किन्तु इसे समझ-बूझ कर ही, मैंने ' कठिनतर ' से प्यार किया है।" 
मंजिल दूर, धुँधली सी झिलमिलाती है,
फिर भी अन्धकार को चीरते हुए बढ़ जाओ,

अपनी पूरी शक्ति और सामर्थ्य के साथ !
हे वीरात्मन,तुम्हारे उत्तराधिकारी अवश्य जन्मेंगे,

यह भीड़ सही बातें देर से समझती है,
तो भी चिन्ता न करो, मार्ग-प्रदर्शन करते जाओ।

तुम्हारा साथ वे देंगे, जो दूरदर्शी हैं,
तुम्हारे साथ शक्तियों का स्वामी है,

आशीषों की वर्षा होगी तुम पर,
ओ महात्मन, तुम्हारा सर्वमंगल हो !
महामण्डल के वार्षिक युवा प्रशिक्षण में भ्रम-मुक्त होकर 'भेंड़' से 'शेर' बनने के ५ अभ्यास का प्रशिक्षण देने में सक्षम कम से कम १००० मानवजाति के सच्चे मार्गदर्शक 'नेता बनो और बनाओ',उसके पहले विश्राम मत लो !--यही है नवनी दा  के नव-विप्लव का आह्वान ! 'उठो उठो, महातरङ्ग आ रहा है ! निर्झर के स्वप्न को भंग करो ! उस महातरङ्ग में इस अहं-बिन्दु के विध्वंश (extermination) को देखकर डरो मत !   स्वयं को विसम्मोहित करो ! 
पूज्य नवनी दा के शरीर त्याग देने के बाद, इस नई आध्यात्मिक क्रांति की रण-गर्जना -' छन्न छाड़ा गोष्ठी- के पुरोधा बनो और बनाओ' को अपने हृदय से श्रवण (मनन -निदिध्यासन) करो!-[জাগো বীর, ঘুচায়ে স্বপন, শিয়রে শমন, ভয় কি তোমার সাজে? শিয়রে শমন, =মরণোন্মুখ, মুমূর্ষ, মরোমরো, মৃত্যুর দ্বারপ্রান্তে স্থিত, in extermis= काली के हाथ में सिर काटने वाली भीम-कृपाण  को देखकर -  = आख़िर में मरणोन्मुख होते समय, इस क्षण और मृत्यु के ठीक एक क्षण पहले,  मौत के कगार पर पहुँचकर विवेकज ज्ञान का अनुभव करो ! जान लो तुम कभी मरोगे नहीं !]  

जागो वीर, घुचाये स्वप्न, शियरे शमन, भय कि तोमार साजे ? 
पूजा तार संग्राम अपार, सदा पराजय ताहा ना डराक तोमा। 
 " किन्नाम रोदिसि सखे त्वयि सर्वशक्तिः !
आत्म्वैही प्रभवते न जडः कदाचित'-
"त्यागेनैके अमृतत्वमानशुः —
--अर्थात थ्रू रिनन्सीऐशन अलोन सम (रेयर वन्स) अटेंड इमॉर्टैलिटी. बुजदिली करोगे, तो हमेशा पिसते रहोगे ! आत्मा में भी कहीं लिंग भेद है ? स्त्री और पुरुष का भाव दूर करो, सब आत्मा हैं। शरीराभिमान छोड़ कर खड़े हो जाओ। ऑटो सजेशन के समय: छाती पर हाथ रखकर कहो --इट इज, इट इज -"अस्ति अस्ति",नास्ति नास्ति करके तो देश गया! कहो-  "सोऽहं सोऽहं,"चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहं"। हर एक आत्मा में अनन्त शक्ति है। 
अरे, नहीं नहीं करके क्या तुम क्या कुत्ता-बिल्ली हो जाओगे? नहीं है ? क्या नहीं है ? किसके भीतर नहीं है? नहीं नहीं सुनने पर मेरे सिर पर वज्रपात होता है। यह जो दीन -हीन भाव है, यह एक बीमारी है -क्या यही दीनता है ?-यह झूठी विनयशीलता है, गुप्त अहंकार है। 
"न लिङ्गम् धर्मकारणं, समता सर्वभूतेषु एतन्मुक्तस्य लक्षणम्—
'बाहरी चिन्ह धारण कर लेना धार्मिक होना नहीं है । सभी के प्रति साम्यभाव रखना ही मुक्त पुरुषों का लक्षण है।" 
निर्गच्छति जगज्जालात् पिञ्जरादिव केशरी—
ही  फ्रीज़ हिमसेल्फ फ्रॉम थे मेशेस ऑफ़ दिस  वर्ल्ड ऐज अ लायन फ्रॉम ईट्स  केज!"-वह, जो मनुष्य साम्य भाव में स्थित है, अपने को ठीक उसी प्रकार जगत के मोहजाल या देहाध्यास से उसी प्रकार भ्रम-मुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड कर लेता है, जैसे कोई शेर पिंजड़ा तोड़ कर मुक्त हो जाता है ! 
 "नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः" 
दुर्बल मनुष्य इस आत्मा को प्राप्त नहीं कर सकता। उद्धरेदात्मनात्मानम्- अपने ही सहारे अपना उद्धार करना पड़ेगा। कुर्मस्तारकचर्वणं- हम तारों को अपने दाँतों से पीस सकते हैं, त्रिभुवनमुत्पाटयामो बलात्,-तीनों लोकों को बलपूर्वक उखाड़ सकते हैं! किं भो न विजानास्यस्मान् रामकृष्णदासा वयम्— हमें नहीं जानते?  हम आधुनिक युग में ब्रह्म के अवतार परमहंस श्रीरामकृष्ण के दास के दास के दास-नवनीदा के दास हैं । (पत्रावली/२५ सितंबर/ १८९४)]
समस्त वेद यही शिक्षा देते हैं - निराश मत होना, मार्ग बड़ा कठिन है-छुरे की धार पर चलने के समान दुर्गम है; फिर भी निराश न होना, उठो ! जागो ! और अपने उद्देश्य को प्राप्त किये बिना विश्राम मत लो ! "

' जागो वीर ! सदा ही सिर पर काट रहा है चक्कर काल। 
छोड़ो अपने सपने, भय क्यों ? काटो-काटो यह भ्रमजाल ।।

फोड़ो वीणा प्रेमसुधा का पीना छोड़ो, तोड़ो वीर ।
दृढ़ आकर्षण है जिसमें उस नारी-माया की जंजीर।। 

 सदा घोर संग्राम छेड़ना उनकी पूजा के उपचार।
वीर ! डराये कभी न, आये पराजय सौ सौ बार।।

चूर चूर हो स्वार्थ, साध, सब मान, हृदय हो महाश्मशान।
            नाचे उस पर श्यामा, लेकर घन रण में निज भीम कृपाण ।   ' 9/335
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निबन्ध-७."हमलोग क्या मांगे?" में निहित 'युवा प्रशिक्षण का पाठ्यक्रम' या लीडरशिप सिलेबस (syllabus) इस प्रकार है : 
१. स्वामी विवेकानन्द क्या चाहते होंगे, नवनीदा 'इच्छापूर्णी माता श्रीश्री माँ सारदा देवी' से क्या मांगना चाहते होंगे? दादा की हार्दिक इच्छा क्या रही होगी ? यदि हमलोग अपनी देह-मन-सत्ता को एक करके इसी प्रश्न को समझने का प्रयास करें, तथा उनकी उस इच्छा (Burning-Desire) के साथ यदि हम अपनी चाहत को एक कर लें, तो इस बात में कोई सन्देह नहीं है कि भारतवर्ष विश्वसभा में एक दिन अवश्य गौरवशाली आसन प्राप्त कर लेगा।
२.हमारी एक मात्र लक्ष्य-वस्तु (target object) है-'मनुष्यत्व' या  इसी जीवन में पूर्णता की प्राप्ति।' स्वामीजी की जो चाहत थी, उससे बड़ी चाहत और कुछ हो ही नहीं सकती; क्योंकि उसको प्राप्त कर लेने के बाद और कुछ मांगने योग्य बचता ही नहीं है। स्वामीजी ने कहा था, " मनुष्यत्व की प्राप्ति, हमारा जन्म-सिद्ध अधिकार है; और मैं इसी श्रेष्ठ जन्म-सिद्ध अधिकार को प्राप्त करना चाहता हूँ। थोड़ा शारीरिक भोग, थोड़ी धन-सम्पत्ति, बंगला-मोटरकार, थोड़ा नाम-यश, थोड़ी सी सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त कर लेना - क्या मनुष्य जीवन इतना क्षुद्र है ? नहीं, बिलकुल नहीं। ' भूमैव सुखम ' - अल्प नहीं भूमा में जो महा आनन्द है; मैं उसी भूमा-आनन्द का अधिकारी हूँ, हम सभी उसी आत्मा के अधिकारी हैं। यदि हमलोग भी सबसे बृहद वस्तु (ब्रह्म) को पाने की चेष्टा करें, मनुष्य बनने की चेष्टा करें, और उस बृहद का साक्षात्कार कर लें; तो फिर इस जीवन में- व्यावहारिक जीवन में और कुछ प्राप्त करने योग्य वस्तु अवशिष्ट ही नहीं रह जाती।
हमारी एक मात्र लक्ष्य-वस्तु (target object) है- 'मनुष्यत्व' या  इसी जीवन में पूर्णता की प्राप्ति।हम सभी लोग उस पूर्ण-जीवन के अधिकारी बन सकते हैं। स्वामीजी के मन में यही सबसे बड़ी कामना थी। और वे इसी आकांक्षा को वे सभी मनुष्यों के मन में, विशेष रूप से युवाओं के मन में जाग्रत करा देना चाहते थे।
३.एक दिन नरेन् श्रीरामकृष्ण के पास जाकर कहते है, ' मैं इन दिनों बड़ी मुफलिसी के दौर से गुजर रहा हूँ, माँ-भाई बहनों के लायक भोजन भी नहीं जुट पाता है। आप कोई उपाय कर दीजिये। माँ काली तो आपकी सब बातों को मान लेती हैं, और वे सब कुछ कर सकती हैं, तो मेरे लिये आप उनसे कहकर इतना करवा दीजिये। मेरे परिवार के लिये धन चाहिये और अन्न चाहिये - देखूँ, आप इसकी व्यवस्था कर सकती हैं या नहीं?"श्रीरामकृष्ण ने कहा, " मैं तो माँ से यह सब चीजें नहीं माँग सकता हूँ रे; तुम स्वयं माँ से ये सभी चीजें माँग लो, तुम स्वयं उनसे जाकर क्यों नहीं कहते ? तुम स्वयं माँ के पास जाकर उनसे कहो न।" किन्तु जब नरेन माँ से माँगने गया, तो उसने महाकाली के सामने सबसे बड़ी मांग रख दी ! उसने जगत जननी से माँगा - " माँ, मुझे भक्ति दो, विवेक दो, वैराज्ञ दो, ज्ञान दो ! " नरेन् ने माँ भवतारिणी से केवल वही माँगा, जो आवश्यक सम्बल, मनुष्यत्व-प्राप्त करने, या एक ब्रह्मवेत्ता मनुष्य बनने का अधिकारी व्यक्ति बनने के लिए प्रत्येक मनुष्य में रहने चाहिये, स्वामी जी जगत-जननी से केवल वही माँग सकते थे। 
४.क्योंकि नरेन्,  म्याऊं म्याऊं करके, या मिन-मिन करके, छोटी छोटी वस्तुओं को माँगने वालों में से नहीं थे, वे बलपूर्वक वही माँगते है, जिसे प्राप्त करने के वे योग्य अधिकारी थे। क्योंकि बुद्धिमान नरेन् यह जानते थे, कि अधिक माँगने से यद्द्पि अधिक नहीं प्राप्त है, किन्तु कम मांगने से तो अधिक कभी मिल ही नहीं सकता है। किन्तु हमलोग जीवन में छोटी चीजों को ही अधिक माँगते हैं।स्वामीजी कहते हैं, " तुम लोग केवल नौकरी दो, नौकरी दो ! कह कर चिल्लाते रहते हो। क्या तुम्हें अंग्रेजों के बेंत और जूतों का प्रहार खाय बिना चैन नहीं मिलता है रे ? क्या तुम स्वयं कुछ नहीं कर सकते? क्या तुम मिट्टी भी नहीं खोद सकते हो ? आधुनिक विज्ञान और प्रद्द्योतिकी की सहयता से तुमलोग भी आधुनिक उपभोग की वस्तुओं का निर्माण क्यों नहीं कर सकते ? जापान में जाकर देखो, उन लोगों का देश-प्रेम कितना अद्भुत है !"
नवनीदा की तीव्र मनोकामना क्या थी ? वे 'सर्व-इच्छापूर्णी माता श्रीश्री माँ सारदा देवी' से क्या वर पाना चाहते थे, इस बात को पत्र-पत्रिकाओं या समाचार पत्र के पन्नों को पढ़कर नहीं जाना जा सकता है। इसको समझने के लिये अपने हृदय को विशाल बना लेना होगा। 
स्वामी जी से ठाकुर ने स्वयं ही कहा था , कि वे (श्रीरामकृष्ण) ही आधुनिक युग में ब्रह्म के अवतार हैं, वेदान्त की दृष्टि से नहीं साक्षात् !..... यह जान लेने से स्वामी जी को क्या लाभ हुआ था, सो तो मैं नहीं जानता किन्तु इतना अवश्य कह सकता हूँ कि मेरा हृदय जरुर बड़ा हो गया है। यह जो मेरा हृदय बड़ा हो गया है, -यही है असली चाहने वाली वस्तु, जिसे मैंने चाहा और प्राप्त किया है। स्वामीजी कहते हैं, कोई भी छोटी वस्तु पाने या भोगने की कामना को मन से निकाल दो, हर समय यही चेष्टा करो जिससे हम अपने हृदय को बड़ा सकें।
५. जीवन क्या है ? जीवन को विकसित करने का अर्थ है, अंतर्निहित शक्ति का प्रस्फुटित हो जाना। स्वामीजी कहते थे- ' जब मनुष्य बन कर जन्म लिया है, तो मनुष्य-जीवन की महिमा को प्रकट तो करो। जीवन क्या है ? एक अन्तर्निहित शक्ति अपने को अभिव्यक्त करना चाह रही है, और बाहरी परिस्थितियाँ और बाधाएँ उसको दबाये रखना चाहती हैं, उन समस्त बाधा-विघ्नों का अतिक्रमण करके जो प्रकट हो जाता है, उसी को जीवन कहते हैं। स्वामी जी ने जीवन को विकसित करने का निर्देश दिया है। जीवन को 
विकसित करने का अर्थ है, अन्तर्निहित शक्ति या डिविनिटी के प्रस्फुटित होने में समस्त अवरोधों को दूर कर लेना। अपनी अंतर्निहित पूर्णता को प्रस्फुटित करके मनुष्यों को दिखा दो कि जीवन में क्या पाना चाहते हो, क्या करना चाहते हो ! थोड़ा धीरज रखो, और जीवन को थोड़ा प्रस्फुटित कर लो। अपने जीवन को विकसित करके अभिव्यक्त करो। विकास और अभिव्यक्ति । एक आश्चर्यजनक रूप से महान अस्तित्व हम सबों के भीतर छुपा हुआ है, उसको आविष्कृत करना होगा,अर्थात  जानना होगा और अभिव्यक्त करना होगा। हम लोगों को अपने जीवन में प्रति मुहूर्त-चलते, बोलते एवं करते समय यह स्मरण रखना होगा, कि हमलोगों के भीतर अनन्त प्रेम, अनन्त अविरोध, अनन्त ज्ञान, अनन्त शक्ति है। मेरे भीतर है, और प्रत्येक मनुष्य के भीतर है।  किन्तु हम उसे जानते नहीं हैं, उसका सम्मान नहीं करते हैं, उसे  अभिव्यक्त नहीं करते हैं। सर्वदा शारीरिक सुख प्राप्त करने, या क्षणिक-इन्द्रिय सुख को प्राप्त करने की कामना करते रहने से क्या हो रहा है ? यही हो रहा है कि हमलोग अपने अन्तर्निहित सर्वोच्च सुन्दर और बृहद वस्तु को उपेक्षित करके, उसे गँवा देने पर उतारू हैं। 
६.मैं यह जानने की चेष्टा क्यों करूँ कि नवनीदा 'सर्व-इच्छापूर्णी माता श्रीश्री माँ सारदा देवी' क्या प्राप्त करना चाहते थे ? इसका उत्तर संक्षेप में यह है कि हमलोग एक बहुत बड़े संकट में घिर गये है, एक गंभीर परिस्थिति से घिरे हुए हैं, जिसमें पतन की सम्भावना ही अधिक है। यदि इसी उम्र (किशोरावस्था) से हमलोग यह नहीं जानें, कि हमें सचमुच वरदान में किस वस्तु को माँगने की इच्छा करनी चाहिये, तो हमलोग इतना अधिक नीचे भी गिर सकते हैं कि वहाँ से फिर हम कभी उठ ही नहीं सकेंगे। इसीलिये हमें (राजाधिराज से कोंहड़ा माँगने की अपेक्षा ) अपनी चाहत को बहुत अधिक बढ़ा लेना होगा, और सर्वोच्च वस्तु को पाने की कामना ही करनी होगी।
७. मनुष्य का जीवन त्याग और सेवा से ही सार्थक  होता है: हमलोगों का अपना जीवन किस प्रकार सफल हो सकता है? स्वामीजी उसका सूत्र देते हुए कहते हैं- ' जिसने दूसरों के लिये जीना सिख लिया हो, केवल उसी ने जीवन को जाना है।' दूसरों के हित के लिये अपने विषाधिकारों का त्याग स्वीकार करने की आवश्यकता सदा रहने वाली वस्तु है। इसीलिये ऐसा सोचना बिलकुल सुसंगत नहीं होगा, कि हमलोग राजनैतिक स्वाधीनता प्राप्त कर चुके हैं, इसीलिये अब हमें त्याग करने की आवश्यकता नहीं रह गयी है। इस त्याग से ही सब कुछ प्रारंभ हुआ है। इस त्याग के भीतर ही जीवन का विस्तार करना होगा, तथा इस त्याग के द्वारा ही जीवन को सफल करना होगा।
[मेरे मित्रो ! पहले मनुष्य बनो,तब तुम देखोगे कि वे सब बाक़ी चीजें स्वयं तुम्हारा अनुसरण करेंगी। परस्पर के प्रति घृणित द्वेषभाव को छोड़ो और सदुद्देश्य,सदुपाय,सत्यसाहस एवं सदवीर्य का अवलंबन करो। तुमने मनुष्य योनि में जन्म लिया है, तो अपनी कीर्ति यहीं छोड़ जाओ। ' कबीरा जब पैदा भये, जगत हँसे तुम रोये। ऐसी करनी कर चलो, आप हँसे जग रोये।। अगर ऐसा कर सको, तब तो मनुष्य हो,अन्यथा तुम मनुष्य किस बात के ?१०/६२"]
८. श्रीरामकृष्ण के जीवन से विशेषाधिकार त्याग और सेवा का आश्चर्यजनक उदाहरण: उनके त्याग की तो धारणा भी नहीं की जा सकती। उनके त्याग का तो कहना ही क्या? सारदा देवी के त्याग की तुलना नहीं हो सकती। श्रीरामकृष्ण की माँ चन्द्रादेवी के असाधारण त्याग की बात हमलोग जानते हैं। एक बार मथुर बाबु ने उनसे पूछा था, " माताजी, आप क्या चाहती हैं, मुझे बताइये - आप जो कुछ भी माँगेंगी मैं आपको वही लाकर दूंगा। " उत्तर में उन्होंने कहा-" मैं कुछ भी मांग नहीं है।" किन्तु मथुर बाबु बिना कुछ मांगे छोड़ने वाले नहीं थे, फिर भी वे क्या माँगू यह सोच नहीं पा रही थीं, अन्त में बोली, " देखो इस समय क्या माँगू, बहुत सोचने से भी कोई जरूरत महसूस नहीं हो रही है।" उधर मथुर बाबु की प्रतिबद्धता दृढ़ हो रही है, कहते हैं-" संकोच मत कीजियेगा, आप जो भी मांगेंगी मैं अवश्य दूंगा। यदि जमीन, मकान, रुपया चाहिये, जो भी कहेंगी वही दे दूंगा। " चन्द्रादेवी कहती हैं, ' अभी तो सोचने से मुझे कुछ भी माँगने लायक वस्तु दिखाई नहीं दे रही है, कल मैं सोच तुमको  बता दूंगी। 'दूसरे दिन बहुत सोचने के बाद बोली, " एक पैसे का दोख्ता (जर्दा पत्ता ) ला दोगे ? ' इस मांगने की घटना के पीछे जो सत्य अंतर्निहित है, उसको समझने की चेष्टा करनी होगी। 
९. नवनी दा प्रबल इच्छा यही थी कि-उनके सभी क्रमानुयायी मनुष्य (ब्रह्मविद-मनुष्य ) बन जाएँ।  स्वामीजी हमलोगों को जिस वस्तु को माँगने के लिये कहा है, उसी वस्तु को यदि कोई माँगे, और उसको प्राप्त कर ले, या प्राप्त करने की चेष्टा में लगा रहे, तभी उसको मनुष्य कहा जा सकता है। यह चेष्टा, संग्राम या प्रयत्न ही मनुष्यत्व प्राप्ति की साधना है। "मनुष्य तभी तक मनुष्य कहा जा सकता है,जब तक वह प्रकृति के उपर उठने ले लिये संघर्ष करता है।" जिस क्षण वह इस चेष्टा को बन्द करके प्रकृति के सामने अपनी पराजय स्वीकार कर लेता है, उसी क्षण वह मनुष्य की महिमा से स्वयं को गिरा लेता है। इसीलिये स्वामीजी ने चाहा था, उनकी ज्वलंत कामना  यही थी कि- हमलोग मनुष्य (ब्रह्मविद-मनुष्य ) बन जाएँ। 
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निबन्ध-८. " स्वामीजी का आदर्श -अन्तर्निहित शक्ति का उद्घाटन "  में निहित 'युवा प्रशिक्षण का पाठ्यक्रम' या लीडरशिप सिलेबस (syllabus) इस प्रकार है : 
१.नवनीदा के महान व्यक्तित्व-सम्पन्न जीवन एवं संदेशों के विशाल भण्डार के समक्ष खड़े होते ही, मन में स्वतः यह प्रश्न उठने लगता है, कि दादा ने हमलोगों के सामने कौन सा आदर्श प्रस्तुत किया था? महापुरुषों के मन, वचन एवं कर्म में सम-रूपता रहती है। अतएव नवनीदा के आदर्श को समझने के लिये हमलोगों को उनके विचारों, संदेशों तथा उनके कर्ममय-जीवन को समानरूप से देखने-समझने की चेष्टा करनी होगी।
२. 'विवेकज-ज्ञान': स्वामीजी के विचार बहु आयामी दिशा में धावित हुए थे,और उन्होंने मनुष्य-जीवन के प्रत्येक पहलु का बहुत सूक्ष्म अवलोकन किया था। जिसके फलस्वरूप उनके वास्तविक 'विवेकज-ज्ञान' के समक्ष  मनुष्य के विषय में स्पष्ट अवधारणा अनावृत (Exposed उद्घाटित) हो उठी थी।  इसिलिए उन्होंने अपनी वाणी के द्वारा मानव-मात्र के कल्याण के लिए मनुष्य-जीवन को सार्थक करने के सन्देशों का वितरण किया था। और अपने जीवन के माध्यम से उन्होंने यही दिखाने का प्रयास किया है कि कोई व्यक्ति उस पूर्णत्व की अभिव्यक्ति को कैसे संभव बना सकता है। इसीलिये उनके संदेशों के समान उनका जीवन भी हमलोगों के लिये एक आदर्श है।
३. 'बनना और बनाना' - आपस में अभिन्न और अविभाज्य (जो अलग न हो सके ) रूप से सम्बद्ध हैं।मनुष्य-जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में जैसा एकमात्र सर्वश्रष्ठ आदर्श  होना उचित है, नवनीदा ने उसी का प्रचार बिल्कुल निर्भय और निःसंकोच होकर किया था। उनका कहना था कि- कोई मौलिक आदर्श, समाज के सामने अपना सिर नहीं झुकाएगा, बल्कि समाज को ही आदर्श (Ideal) के सम्मुख अपना सिर झुकाना होगा। और समाज जितनी जल्दी वैसा करने लगेगा,समाज का उतना ही अधिक कल्याण होगा। स्वामीजी के मतानुसार - वही समाज श्रेष्ठ समाज है, जिस समाज में श्रेष्ठ आदर्श को कार्यरूप देना संभव है। 
 विवेकानन्द कहते थे ,"मेरा आदर्श अवश्य ही थोड़े से शब्दों में कहा जा सकता है और वह है- मनुष्यजाति को उसके दिव्य स्वरुप का उपदेश देना तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे प्रकट करने का उपाय बताना। " (माई आइडियल, इन्डिड, कैन बी पुट इन्टु अ फ्यू वर्ड्स, ऐंड  दैट इज टु प्रीच अन्टू मैनकाइंड देयर डिविनिटी, एंड हाउ टु मेक इट मेनिफेस्ट इन एव्री मूवमेन्ट ऑफ़ लाइफ। ) उनके इस आदर्श को उन्हीं के शब्दों में तथा बहुत संक्षेप में -'BE AND MAKE'!- अर्थात "मनुष्य बनो और मनुष्य बनाओ" के माध्यम से अभिव्यक्त किया जा सकता है। किन्तु यह 'बनना और बनाना' - आपस में अभिन्न और अविभाज्य (जो अलग न हो सके ) रूप से सम्बद्ध हैं। [अर्थात अगर दूसरों को ब्रह्मविद मनुष्य बनने में सहायता करना छोड़ दोगे, तो तुम स्वयं भी ब्रह्मविद मनुष्य नहीं बन सकोगे!]
४. ' Be and Make ' के निहितार्थ को समझने की चेष्टा करने पर, सबसे पहले जिस बात पर दृष्टि जाती है, वह यह कि - स्वामीजी ने मात्र किसी तात्विक-आदर्श की बात ही नहीं कही थी , बल्कि साथ ही साथ उस ज्ञान के व्यवहारिक उपयोग पर भी, उन्होंने अपना मन्तव्य स्पष्ट कर दिया था। क्योंकि, वैसा आदर्श जिसे अपने दैनंदिन जीवन में अपनाना ही संभव नहीं हो, तो उसे 'आदर्श' के नाम से पुकारना भी उचित नहीं है।
५. (स्मूथ प्रोग्रेस) के लिये 'एक' अभिप्रेरक आदर्श (मोटवैशनल-Motivational या Archetype-आद्यरूप आदर्श) का चयन: स्वामीजी ने जिस आदर्श- 'मनुष्य बनो और बनाओ ' को हमारे सामने प्रस्तुत किया है, वह जीवन के किसी एक क्षेत्र-विशेष का आदर्श नहीं है, बल्कि वह तो समग्र जीवन के लिए आदर्श है। यह आदर्श हमारे व्यक्ति-जीवन, सामाजिक-जीवन, राष्ट्रिय जीवन, एवं अन्तर्राष्ट्रीय जीवन --अर्थात व्यक्ति और सामाज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र के लिये व्यवहारोपयोगी है। कई बार हमलोग अपने लिये मनोरंजन, खेल, धर्म, राजनीति, अर्थनीति, न्याय-नीति, पारस्परिक सम्बन्ध (correlation) आदि भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के लिये अलग अलग आदर्शों का चयन कर लेते हैं।
एक ही व्यक्ति को अपने जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अलग अलग प्रकार की भूमिका निभानी पड़ती है
किन्तु जब किसी व्यक्ति के जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के लिए चयनित सभी आदर्श किसी एक ही  मूल अभिप्रेरक आदर्श के अनुरूप नहीं होते, उस समय उस व्यक्ति के जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के आदर्शों में समन्वय का अभाव होने के कारण, दुष्कर अन्तर्विरोध दिखाई देने लगता है, और उसका जीवन नाना संकटों में घिर जाता है।
यदि हमारा अभिप्रेरक आदर्श किसी ऐसे सत्य पर प्रतिष्ठित हो जो हमारे जीवन का केन्द्रबिन्दु है, तभी वह आदर्श जीवन का सर्वांगीन कल्याण करने में सक्षम होता है। स्वामीजी (=नवनीदा= महामण्डल) ने उसी प्रकार के एक केन्द्रीय सत्य या तत्व के प्रति हमारी दृष्टि को आकर्षित कराया है, तथा उसी को जीवन के समस्त क्षेत्र-विशेष के अभिप्रेरक आदर्श के रूप में ग्रहण करने का परामर्श दिया है। और वह केन्द्रीय सत्य है -जाति-धर्म,वर्ण-लिंग-आदि भेद होने पर भी- 'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है !' अनन्त ज्ञान, और अनन्त शक्ति, अनंत प्रेम प्रत्येक मनुष्य में अंतर्निहित है !
 किन्तु जब तक हमलोगों में मानवमात्र में अंतर्निहित इस 'डिविनिटी' (पूर्णता) के प्रति,  अटूट-विश्वास उत्पन्न नहीं हो जाता; तब तक मनमाने ढंग से किसी वैसे आदर्श को, जो स्वयं इस मौलिक तत्व में प्रतिष्ठित नहीं हुआ हो, अपना आदर्श स्वीकार कर के उसका अनुसरण करते रहने से , अ-स्थाई रूप से उस क्षेत्र-विषय में थोड़ी-बहुत प्रगति होने से भी, वह (फ़िल्मी-खिलाड़ी) आदर्श कभी भी मनुष्य को उसकी पूर्णता में या उसकी स्व-महिमा में प्रतिष्ठित नहीं करा सकता।  अर्थात तब तक हमलोग यह नहीं कह सकते कि हमने (ब्रह्मविद मनुष्य बनने के लिए) किसी सच्चे आदर्श (साँचे) का अनुसन्धन कर लिया है।
६. मनुष्य बनने और बनाने का मुख्य अभ्यास है विवेक-प्रयोग: यदि हमलोग सदैव अपनी स्व-महिमा में प्रतिष्ठित रहना चाहते हों, तो हमें क्या करना चाहिये ? यही,कि हमारे जीवन का जो मौलिक सत्य है- 'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है'; अब हमलोगों को अपने जीवन के प्रत्येक कर्म में, प्रत्येक अभिव्यक्ति में, प्रत्येक परीक्षण (Experiment) में , इसी की शक्ति को प्रकट करने के लिए -सोचने,बोलने करने के पहले श्रेय-प्रेय विवेक-प्रयोग करना अनिवार्य होगा। 
७. वेदों के अनुसार 'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है' एवं मनुष्य की सत्ता (पूर्णता या आत्मा) सभी देशों और सभी युग में एक ही रहती है। चाहे कोई व्यक्ति पश्चमी गोलार्ध का हो, या पूर्वी गोलार्ध का हो, मनुष्य की सत्ता जो पहले थी, वही आज भी है। हम इस बात को आसानी से समझ सकते हैं कि मनुष्य की महिमा उसके नश्वर शरीर पर नहीं उसकी यथार्थ सत्ता- अविनाशी 'आत्मा' के उपर ही प्रतिष्ठित हैतथा वह सत्ता किसी भी हाल में देश-काल (या नाम-रूपात्मक प्रपंच) के द्वारा परिवर्तित हो जाने वाली वस्तु नहीं हो सकती! अतः यह प्रश्न उठाना कि स्वामीजी का आदर्श -'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है' - आज के युग में उपयोगी है या नहीं, बिलकुल अप्रासंगिक है। इसीलिये यदि इसी केन्द्रीय-सत्य में प्रतिष्ठित अभिप्रेरक आदर्श (नवनिदा) के साथ संयुक्त होकर हमलोग उनका अनुसरण बहुत छोटे से छोटे संगठन के माध्यम से को क्यों न करें, उसका प्रभाव भले ही चिरस्थायी या शाश्वत न हों, किन्तु दीर्घ काल तक अवश्य बने रहेंगे। 
८. सच्चे नेता का लक्ष्य : इसलिये, देश और युग (काल) की आवश्यकता के अनुसार साधारण परिवर्तन-सापेक्ष आदर्श (बुद्ध,ईसा,मोहम्मद, रामकृष्ण, विवेकानन्द, नवनी दा आदि विभिन्न रूपों में अवतरित) होने से भी मानव-जाति के प्रत्येक सच्चे नेता के जीवन का मुख्य लक्ष्य रहेगा- मनुष्य में अन्तर्निहित 'पूर्णत्व '- अनन्त ज्ञान और शक्ति को प्रस्फुटित करने में सहायता करना। ऐसा आदर्श नेता जीवन के चाहे जिस किसी क्षेत्र में अपने कर्तव्य का निर्वहन करेगा, उसके कर्तव्य पालन तथा आदर्श में सच्ची सहमति बनी रहेगी, जिसके कारण उस कार्य का प्रभाव प्रत्येक क्षेत्र से जीवन को पूर्णत्व की दिशा में ले जायेंगे, तथा आपस में अन्तर्विरोध का भाव नहीं रहने के कारण जीवन के किसी भी क्षेत्र-विशेष का आदर्श कभी असफल नहीं होगा। इस अभिप्रेरक आदर्श (आद्यरूप या Archetype) रूपी नेता का सरल परिचय होगा - ' स्वयं मनुष्य बनने की चेष्टा करना और दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता करना।' क्योंकि सम्पूर्ण सृष्टि और मानव-समाज के बीच एक प्रकार का अंतर्निहित एकत्व (Underlying unity) रहता है, इसीलिये कोई मनुष्य अकेले (या समाज से कट कर) अपना सुधार नहीं कर सकता। (चरित्र अकेले जंगल बैठकर पकाने वाली वस्तु नहीं है
९.मनुष्य का नॉर्मल लाइफ (सामान्य जीवन) भी  महामण्डल के आदर्श 'BE AND MAKE' का अनुसरण करने से उपेक्षित नहीं होता: नवनिदा जैसा मनुष्य बनने का अर्थ है- उस अन्तर्निहित दिव्यता की अभिव्यक्ति, या उस सत्य या सत्ता के 'अनन्त ज्ञान, और अनन्त शक्ति का प्रकटीकरण जिससे जीवन में पूर्णता आती हो।  इसी लक्ष्य पर अटल रहते हुए यदि मनुष्य के व्यक्तित्व को विकसित किया जाय, उसके चरित्र का गठन किया जाय, शिक्षा अर्जित की जाय, और साथ ही साथ परिवार चलाने के लिये आवश्यक भोग-सामग्रियों का संग्रह भी किया जाय, तभी धीरे धीरे मनुष्य अपने यथार्थ आदर्श में स्थित होने की ओर अग्रसर हो सकता है। इसीलिये स्वामीजी इस 'मनुष्य बनो और बनाओ' के आदर्श को ही अभिप्रेरक आदर्श (Archetype) कहते हैं। क्योंकि इस आदर्श (नवनिदा) का अनुसरण करने से मनुष्य का सामान्य जीवन (normal life) भी उपेक्षित नहीं होता है। 
१०. धर्म वह वस्तु है जो हमारे नॉर्मल लाइफ को लक्ष्याभिमुखी बनाता है, उसे समग्र रूप से धारण करती है, उसे नियंत्रित करती हैअतः 'यथार्थ मनुष्य बनने ' के लक्ष्य तक पहुँचने के लिये, प्रत्येक व्यक्ति को अपने दैनंदिन जीवन में संयम  या यम-नियम को धारण करने की आवश्यकता है। किन्तु यदि कोई व्यक्ति सामान्य ढंग का जीवन (साधारण गृहस्थ जीवन) जी रहा हो, किन्तु उसका जीवन धर्म (कर्तव्य) के अनुसार अनुशासित और संयमित हो, यदि वह लक्ष्यहीन और असंयमित जीवन ही जीता रहे, तो उसका मनुष्य-शरीर धारण करना निष्फल हो जायेगा। क्योंकि जो वस्तु हमारे जीवन को लक्ष्याभिमुखी बनाती है, उसे समग्र रूप से धारण करती है, उसे नियंत्रित करती है- उसी का नाम तो धर्म है। 
इसीलिये मानवजाति का प्रत्येक सच्चा मार्गदर्शक नेता (स्वामीजी या दादा ) अपने क्रमानुयायीओं को धर्म क्या है, इस बारे में बहुत प्रकार से समझाने की चेष्टा जीवन के अंतिम क्षणों तक करते रहते  हैं। किन्तु वे लोग कभी व्यक्तिगत धार्मिक आचार-अनुष्ठान [ फिलोसफी, जप, तप, देवता-घर, दीपक-दानी, केले का थम, कुशी-घंटी-शंख] को ही धर्म का मूल बात नहीं कहा है।
इन सब को स्वामीजी ने व्यक्तिगत धर्म कहा है। हमलोग कहीं साम्प्रदायिकता को ही धर्म समझने की भूल न कर बैठें, और सर्वधर्म -समन्वय या अविरोध की भारतीय परम्परा (गंगाजमुनी -तहजीब) को ही न भूल जायें इसीलिये स्वामीजी अक्सर धर्म (religion) की बात न कहकर आध्यात्मिकता (spirituality) की बात करते थे।
११. आध्यात्मिकता क्या है ? जब हमलोग मनुष्य की आत्मा को, उसकी  मूल सत्ता को, उसमें अन्तर्निहित अनन्त ज्ञान और अनंत शक्ति को अभिव्यक्त करने की चेष्टा करते हैं, उसी को आध्यात्मिकता कहते हैं। इसीलिये स्वामीजी जब सम्पूर्ण राष्ट्र को जाग्रत करने, पुनरुज्जीवित करने, सम्पूर्ण राष्ट्र को उन्नत राष्ट्र में बदलने की बात हैं, तो इसके लिए कुछ और कार्य करने के पहले, भारतवर्ष को इसी आध्यात्मिकता की बाढ़ में प्लावित कर देने पर जोर देते हैं। मनुष्य-मात्र के लिये स्वामीजी के मन में यह महान आदर्श सर्वदा जाग्रत रहता था, इसीलिये अनन्त शक्ति,अनन्त ज्ञान से सम्पन्न मनुष्य को जब वे दुर्बल, असहाय, निराश,
 दुःख-कष्ट में गिरा देखते थे, तो उनको बहुत कष्ट पहुँचता था। सभी मनुष्यों के प्रति अथाह ममता और सहानुभूति से भरा हृदय रहने के कारण, उसकी दुर्बल अवस्था को देखने से उनकी आँखों से अश्रु झरते थे। किन्तु स्वामी विवेकानन्द का मानवतावाद (ह्युमैनिज्म) -किसी काल्पनिक इन्द्रिय-प्रकृति के दास-रूपी मनुष्य के भाव-मूर्ति की आराधना नहीं थी, बल्कि उनका आराध्य वह मनुष्य था -जो अपने स्वराज्य से च्यूत, और धूलि-धूसरित होने पर भी सर्वशक्तिमान, ज्ञानाधार और संभावनाओं से परिपूर्ण  जीवन्त शरीर-मन आश्रित 'सत्ता', और एक प्रभु था
१२. मोहनिद्रा में सोया मनुष्य या हिप्नोटाइज्ड मनुष्य : जो मनुष्य अपनी मूल सत्ता के सम्बन्ध में सोया हुआ है, जो अपनी गरिमा के प्रति सचेत (मान-हूँश) नहीं है, वह अंतर्निहित अनन्त सम्भावना की खोज नहीं करता, वह स्वाभाविक रूप से स्वयं को दुर्बल सोचता है, तुच्छ समझता है। तथा इस असहाय भाव का अतिक्रमण करने को कठिन समझकर स्वार्थ को ही परमार्थ समझने लगता है, और स्वयं को दिनों-दिन गहरे अंधकार में निमग्न करता चला जाता है। इस (सिंहशावक को भेंड़ बना देने वाले) स्वार्थ को त्याग करके हमलोग परमार्थ की ओर, आदर्श की ओर, पूर्णता की ओर, अनन्त शक्ति को उद्घाटित करने के मार्ग पर आगे बढ़ सकते हैं। इसीलिये स्वामीजी के मतानुसार 'निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है'
१३. त्याग क्या है ? हम लोग जिस स्वार्थपरता (नाम-रूप में आसक्ति), संकीर्णता, मैं अविनाशी आत्मा हूँ न सोचकर स्वयं को नश्वर शरीर समझना ही हीन-भावना का शिकार होना है।  इस हीनभावना या भ्रम का  त्याग कर, अपनी वृहत सत्ता की ओर, पूर्णता की ओर, सत्य के मार्ग पर अग्रसर होते जाते हैं, वही हमलोगों का यथार्थ त्याग है। और इसी प्रकार हीनभावना को त्याग कर, सत्य के मार्ग पर आगे बढ़ने में दूसरों की सहायता करना ही उच्च स्तर की समाज-सेवा है। हमलोग हीनभावना को त्याग कर जैसे-जैसे बृहत (ब्रह्म) की ओर, पूर्णता की ओर, निःस्वार्थपरता की ओर, अन्तर्निहित सत्ता की ओर, परायों को भी अपना बना लेने की दिशा में -- जितना अधिक अग्रसर होते जाते हैं, उतना ही हम निर्भय होते जाते हैं, उतना ही अधिक ज्ञानालोक पाते रहते हैं, उतने ही अधिक शक्तिशाली होते जाते हैं। और तब हमलोगों की अन्तर्निहित निष्कलंक सुन्दरता, पवित्रता, ज्ञान और शक्ति, हमलोगों के समस्त कार्यों में,उतना ही अधिक प्रस्फुटित होने लगती है। ऐसे मनुष्य के लिये कुछ भी असंभव नहीं है, कोई भी वस्तु अलभ्य नहीं रह जाती है, नैराश्य और विषाद आदि तो कभी उसके पास भी नहीं फटकते।
१४. स्वामीजी दिलोजान से क्या चाहते थे ?  कि यह सरल किन्तु सबल विचार-धारा, प्रत्येक मनुष्य तक, ग्रामों की साधारण जनता तक, उदारता के साथ, बिना ऊँच-नीच का भेद किये वितरित किया जाय। और " एक नवीन भारत निकल पड़े- निकले हल पकड़कर, किसानों की कुटी भेदकर, मछुआ, मोची, मेहतरों की झोपड़ियों से। निकल पड़े बनियों की दुकानों से, भुजवा के भाड़ के पास से, कारखाने से, हाट से, बाजार से। निकले झाड़ियों, जंगलों, पहाड़ों, पर्वतों से। "  स्वामीजी ने चाहा था, कि हमारी शिक्षानीति ऐसी बने जिससे प्रत्येक मनुष्य अपनी अनन्त सम्भावनाओं को अभिव्यक्त करने में समर्थ हो जाये। हमारी राजनीति इतनी स्वच्छ हो, जिसमें सभी मनुष्यों को अपनी अन्तर्निहित शक्ति को जाग्रत करने का अवसर प्राप्त हो सके। सामाज-सेवा की ऐसी नीति प्रचलित हो, जिसमें ऊँच-नीच, धनी-दरिद्र, विद्वान-मूर्ख के भेद एवं समस्त प्रकार के विशेषाधिकार के दावों का अवसान हो जाये। अर्थिक-नीति में ऐसा परिवर्तन हो, जिसमें शोषण-ठगी, लूट-घोटाला समाप्त हो जाय, और हमारे प्रत्येक देशवासियों के लिये कम से कम दोनों शाम का भोजन का प्रबंध अवश्य हो जाये।
 कुमारी मेरी हेल को १ नवम्बर १८९६ को लिखित एक पत्र में स्वामीजी कहते हैं, " एक ही वर्ग का व्यक्ति सदा सुख या दुःख भोगता रहे, उससे तो अच्छा है कि सुख-दुःख बारी बारी से सबों में विभक्त किया जाये। इस दुःखी संसार में सबको सुख-भोग का अवसर दो, जिससे इस तथाकथित सुख का अनुभव कर लेने के बाद,वे संसार, शासन-विधि और अन्य सब झंझटों को छोड़ कर परमात्मा के पास आ सकें। " ५/३८७  ऐसी धर्मनीति आचरित हो, जिससे कूसंस्कार दूर हो सके, धार्मिक कट्टरता समाप्त हो जाय, मनुष्य का दूसरे मनुष्य के साथ प्रेम बढ़े, भोग में संयम रहे, परार्थता में स्वार्थ-बुद्धि हो, त्याग के महत्व का प्रचार हो, मनुष्य की सच्ची सेवा के प्रति हृदय में प्रेम का उन्मेष हो, हृदय का प्रसार हो।
 स्वामीजी के आदर्श में निद्रा का स्थान नहीं है, आलस्य का स्थान नहीं है। " कायर और मूर्ख लोग ही भाग्य की दुहाई देते हैं। वीर तो सिर ऊँचा करके बोलता है- मैं स्वयं अपने भाग्य का निर्माण करूँगा। " स्वामीजी का आदर्श इसी शक्ति को उद्घाटित कर देने का आदर्श है। " शक्ति ही सुख और आनन्द है, शक्ति ही अनन्त और अविनाशी जीवन है।"  ईश्वर करें, कि हमलोगों का आदर्श दीप्तिमान हो, हमारा जीवन विकसित हो, हम लोगों की शक्ति उद्घाटित हो, और हमारी शक्ति-आराधना सार्थक हो !
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[सच्चे  मुसलमानों का कहना है कि इस्लाम तो शान्ति का मज़हब है। इसका आतंकवाद से कुछ लेना-देना नहीं है। ‘अल्लाह के लिए जिहाद करना’ प्रत्येक मुसलमान का एक अनिवार्य धार्मिक कर्त्तव्य है। यह अल्लाह के बाद सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। परन्तु फिर भी जिहाद को इस्लाम के पाँच प्रमुख स्तम्भों-‘तौहीद, नमाज, रोजा, ज़कात, हज,’ में शामिल नहीं किया गया है। आखिर क्यों ? क्योंकि ज़िहाद के सच्चे अर्थ को कुछ स्वार्थी तत्व तोड़मड़ोड़ कर सही मार्ग से भटकाने की चेष्टा कर सकते हैं। इस्लाम स्वयं ७३ फिरकों में बंटा हुआ है और प्रत्येक की अलग-अलग शरियत है। अतः जिहाद का स्वरूप भी विभिन्न है। इसीलिए शिया, सुन्नी, सूफ़ी, अहमदिया, बहावी आदि फिरकों के मुसलमान अल्लाह के नाम पर जिहाद के विषय में आपस में संघर्ष करते पाए गए हैं। मुहम्मद अमीर राना के अनुसार ‘कश्मीर में ही जिहाद के नाम पर विभिन्न जिहादी फिरकों की बीच दो हजार संघर्ष हुए हैं।”
 'जिहाद’ शब्द अरबी भाषा के ‘जुहद’ शब्द से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ है 'संघर्ष एवं लगातार कोशिश करना’, सूफ़ी-या ज्ञानी मुसलमान जिहाद को अपने भीतर की बुराईयों को खत्म करने के लिए, मन को वश में करने की एक कोशिश धार्मिक संघर्ष मानते हैं।” जिहाद का कोई पर्यायवाची या समानार्थक शब्द नहीं है। इसलिए इसका शाब्दिक अर्थ नहीं किया जा सकता है बल्कि इसकी व्याखया ही की जा सकती है। निःसंदेह  पैगम्बर मुहम्मद अन्तः प्रेरित था, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि वह अन्तः प्रेरणा मानो उस पर थोपी गयी है। आयतों का निरस्तीकरण : इस्लाम की मान्यता है कि सर्वशक्तिमान अल्लाह इस्लाम के हित में पिछली आयतों को निरस्त करके नई या उससे बेहतर आयतें भेजता है जैसे :(ii) ”अल्लाह जो चाहता है, मिटा देता है और (जो कुछ चाहता है) क़ायम रखता है और उसी के पास मूल किताब है।” । कुरान के ११४ सूराओं में से ९० सूरा मुहम्मद साहब पर मक्का में अवतरित हुए; और बाकी के २४ मदीना में। मक्का की आयतों में सहिष्णुता, सह-अस्तित्व, शान्ति और धार्मिक स्वतंत्रता की बात कही गई है जबकि मदीना की आयतों में इस्लाम न स्वीकार करने वाले दुनियां भर के लोगों के विरुद्ध अनिवार्य सशस्त्र युद्ध के आदेश सुस्पष्ट हैं। हज के समय संगे अस्वद ; संग अर्थात पत्थर, अस्वद अर्थात अश्वेत यानी काला कहकर मुसलमान उसे ही पूजते और चूमते हैं।  
मक्का और मदीना में प्रवेश करने की बुनियादी शर्त यह है कि मुख से ‘‘ला इलाहा इल्लल्लाहु, मुहम्मदुर्रसूलल्लाहि’’ कहकर मन से अल्लाह के एकमात्र होने का इकरार किया जाए और हज़रत मुहम्मद (सल्लॉ) को अल्लाह का सच्चा रसूल स्वीकार किया जाए। (कोई ईश्वर नहीं, सिवाय अल्लाह (अर्थात निर्गुण-निराकार ब्रह्म) के (और) मुहम्मद (सल्लॉ) अल्लाह के सच्चे सन्देशवाहक हैं। क्योंकि एक बार पैगम्बर मुहम्मद से पूछा गया कि सच्चा मुसलमान कौन है ? उन्होंने उत्तर में कहा था, जिसके जुबान से और हाथों से किसी को चोट न पहुँचती हो, वही सच्चा मुसलमान है! एक-साथ मिल कर शैतान को कंकड़ मारने का अर्थ मन में रहने वाले षडरिपुओं को मारना है, परमतावलम्बियों को नहीं।] 
निबन्ध-९."विवेकानन्द की विचारधारा का सम्पूर्ण रूप से परिचय "  में निहित 'युवा प्रशिक्षण का पाठ्यक्रम' या लीडरशिप सिलेबस (syllabus) इस प्रकार है :  
१. विवेकज आनन्द के अधिकारी मनुष्य बनने के लिये : या महामण्डल की विचारधारा का सम्पूर्ण परिचय प्राप्त करने के लिये 'महामण्डल-साहित्य ' को पढ़ने और समझने की चेष्टा करने के साथ साथ, ५ अभ्यासों को आचरण में उतार लेना आवश्यक है।  हमें इस बात को अवश्य समझ लेना चाहिये कि कोई भी विद्या या ज्ञान, चाहे वह कितना भी महान या सुन्दर क्यों नहो, यदि उसे कार्यरूप नहीं दिया जा सके तो उसका कोई मूल्य नहीं है।
किसी भी सिद्धान्त या विद्या का मूल्य उसका जीवन में प्रयोग करने और अच्छा फल प्राप्त करने के ऊपर निर्भर करता है। इस तरह के विचार को ही अनुभवजन्य (empirical) या प्रायोगिक (Pragmatic) कहा जाता है। प्रैग्मटिज़म, यथार्थवाद या व्यावहारिकता को तो एक दार्शनिक मतवाद के रूप में स्वीकार भी किया गया हैकिन्तु इन दिनों वास्तविक प्रैग्मैटिक या व्यावहारिक मनुष्य को सही रूप से नहीं समझ पाने के कारण, उन्हें भी 'आदर्शवादी'(idealist) मनुष्य कह देने की आदत हो गयी है इसीलिये,समय से आगे देखने वाले 'ऋषि नवनीदा' को भी कुछ लोग कहते हैं कि, वे एक आदर्शवादी अर्थात कल्पना-लोक में विचरण करने वाले मनुष्य थे। 
 किन्तु नवनीदा को कल्पनालोक या भावराज्य का मनुष्य, हमलोग तभी कह सकते हैं जब हमारे समझ में यह आ जाय; कि जिसको हमलोग 'भौतिक जगत' कहते हैं, जिसे हमलोग जीवन की वास्तविकता या जीवन का व्यावहारिक पक्ष (Practical Side) समझते हैं,जीवन के समस्त कर्म-क्षेत्र तथा यह सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड भी केवल केवल एक भाव-राशी या मनःकल्पित वस्तु ही है ! और विचरण-प्रक्रिया (मनन) और विवेक-प्रयोग ही सबसे मूल्यवान वस्तु है। 
नवनीदा के मतानुसार, कोई सिद्धान्त अथवा ज्ञान यदि इस वास्तविक या व्यावहारिक जीवन के लिये उपयोगी न हो, अथवा उस ज्ञान का प्रयोग करने से कोई शुभ फल प्राप्त नहीं होता हो, तो वैसी विद्या या सिद्धान्त का मूल्य कुछ भी नहीं है। अतः हमलोग यह निश्चित रूप से समझ सकते हैं कि महामण्डल के युवप्रशिक्षण शिविर का सम्पूर्ण पाठ्यक्रम या विचारधारा इतनी रचनात्मक है,कि उसका प्रयोग हमलोग केवल अपने व्यावहारिक जीवन में ही कर सकते हैं। यदि हमलोगों के पास किसी सत्यार्थी की सत्यान्वेषी दृष्टि हो, तो हमलोगों यह समझ पाएंगे कि,नवनीदा के जैसा व्यावहारिक और सकारात्मक सोच रखने वाले मनुष्य वास्तव में बहुत कम ही पैदा हुए हैं। 
 किन्तु महामण्डल मनुष्य निर्माण के ५ अभ्यास से स्वयं परिचित हुए बिना, केवल दूसरों के मुख से सुनकर यदि हमलोग भी कहने लगें कि नवनी दा एक आदर्शवादी व्यक्ति थे (व्यावहारिक नहीं थे ?), वे हर समय कल्पनालोक में ही विचरण करते रहते थे, तो अपने उस कथन के द्वारा हम अपनी अज्ञानता का ही परिचय देंगे। क्योंकि नवनीदा ने तो बिल्कुल यथार्थ के कठोर धरातल पर खड़े हो जाने का उपदेश दिया है; यहाँ तक कि अपने पैरों पर खड़े होने का निर्देश दिया है। भावी नेताओं के लिये उनका उपदेश था- " अपने पैरों को यथार्थ के धरातल पर स्थापित करके, अपने हाथों के सहारे दूसरों को,जो अभी तुमसे निचले सोपान पर खड़े हैं, उन्हें भी उपर खीँच लो ! " अतः इस बात में थोड़ा में भी सन्देह नहीं रहना चाहिये कि नवनीदा  उपयोग-बुद्धि या व्यावहारिक-बुद्धि से सम्पन्न महापुरुष थे।  
इसीलिये, महामण्डल से प्रत्यक्ष संपर्क में आने के बाद जो लोग जो लोग अपने को व्यावहारिक बुद्धि सम्पन्न मनुष्य या तकनीक-तंत्रवाद (Technocracy) में विश्वास रखने वाला एक टेक्नोक्रेटिक व्यक्ति समझते हैं, वास्तव में वैसे लोग ही सर्वाधिक लाभान्वित हो सकते हैं।  किन्तु महामण्डल के बारे में 'अमुक' व्यक्ति ने क्या कहा है, 'तमुक' व्यक्ति ने क्या कहा है... ?  इन सब के ऊपर चर्चा करके महामण्डल के साथ परिचय प्राप्त करने की चेष्टा करना- ' दूसरों के मुख से मिर्ची खाना ' जैसा कभी संभव नहीं होगा। हमें स्वयं महामण्डल के ५ अभ्यासों को समझने तथा उन्हें अपने आचरण में उतारने की चेष्टा करके महामण्डल के साथ प्रत्यक्ष संपर्क स्थापित करना होगा।
नवनीदा ने स्वयं जो कुछ कहा है या लिखा है, उसके अविकृत (undistorted) अनुवाद को अच्छी तरह से पढ़ कर, उसके उपर गहन चिन्तन-मनन करने से ही हमलोग उनका सही परिचय प्राप्त कर सकते हैं। और उनकी विचारधारा को समझने के लिये, ऐसा करना नितान्त आवश्यक भी है। नवनीदा ने सम्पूर्ण विश्व के कल्याण के लिया कार्य किया है। किन्तु लोग उनको एक महान देशप्रेमी के नाम से भी जानते हैं। हाँ, कुछ लोग इसी विषय को लेकर उनकी निन्दा भी किया करते हैं। परन्तु नवनीदा का देश-प्रेम वास्तव में अतुलनीय था। वे कहते हैं, चाहे वे भारत में हों या अमेरिका में उनके लिये सारे देश एक समान हैं। सही मायने में नवनीदा सम्पूर्ण मनुष्य-जाति को ही अपने हृदय के अन्तस्तल से प्रेम करने में समर्थ थे। किन्तु इतना होने पर भी, जब पहली बार विदेश से वापस लौटे, तब उन्होंने कहा था- भारतवर्ष का प्रत्येक धूलि-कण मेरे लिये और भी अधिक महान हो गया है, भारत मुझको अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय प्रतीत हो रहा है। उन्होंने ऐसा क्यों कहा होगा ? इस बात पर बोलने से -कभी अन्त नहीं होगा। 
 जिस विचार-धारा [रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त (परमहंस) परम्परा] में प्रशिक्षित होने पर किसी व्यक्ति को ऐसी उपलब्धी हो जाती है, वैसे व्यक्ति हमारे अपने व्यक्ति-जीवन के लिये,तथा समस्त मानव जाति के लिये अत्यन्त मूल्यवान होते हैं। 
इतना स्वादिष्ट, ऐसा पौष्टिक इतना सर्वजन-हितकारी विचार एक साथ अन्य किसी व्यक्ति या उनके द्वारा प्रतिष्ठित संगठन 'महामण्डल' के आलावा से मिल सकता होगा या नहीं, यह बात हम नहीं जानते। अन्य कई लोगों ने भी, अनेकों अच्छी बातें अवश्य कही हैं, किन्तु नवनीदा के मुख से उनके सम्पूर्ण जीवन में, जो भी बात निकली है, वे केवल मनुष्य के कल्याण के लिए , ही थीं ! नवनी दा के ऐसा कोई दूसरा उदाहरण (विवेकानन्द के सिवा)  दिखाई नहीं देता है। अन्य कई महापुरुषों ने भी, अनेकों अच्छी बातें अवश्य कही हैं, किन्तु नवनीदा के मुख से उनके सम्पूर्ण जीवन में, जो भी बातें निकली हैं, वे केवल मनुष्य के कल्याण के लिए ही हैं।  उनके ऐसा ही यदि कोई दूसरा उदाहरण-जीनके जीवन और संदेशों को मैंने ने देखा या समझा है, तो केवल मात्र विवेकानन्द जी ही दिखाई देते हैं !
२.  महामण्डल के आदर्श स्वामी विवेकानन्द: मानवमात्र के कल्याण या  सर्वजन के लिये कल्याणकारी  विचारों से भरे, एक ऐसे अक्षय भण्डार हैं, जो अतुलनीय है। इसलिये वे अनुपम हैं और उनका व्यक्तित्व अचम्भित कर देने वाला है, इसीलिये वे हमारे श्रद्धा के पात्र हैं। इसीलिये हमें उनको अपना आदर्श मान कर ग्रहण करना चाहिए।  सम्पूर्ण मानव-जाति के 'यूनिवर्सल  वेलफेयर' या विश्वव्यापी कल्याण  के लिये स्वामीजी ने विभिन्न प्रकार के कई विषयों पर अपने विचारों को व्यक्त किया था । जाति-प्रथा, नारी-कल्याण, शिक्षा से आरम्भ करके अन्तरराष्ट्रीय एकता इत्यादि विभिन्न विषयों पर उन्होंने बहुत कुछ कहा हैं। किन्तु एक- एक मुद्दों के उपर अलग से सोच-विचार करने बाद कुछ नहीं कहा है।  किन्तु उन्होंने जो कुछ भी कहा है, उसके भीतर सबों को जोड़ने वाली एक अद्भुत कड़ी,  एक प्रकार की तारतम्यता अवश्य, दिखाई देती है। इस सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड का सत्य -(एको अहं बहु स्याम; वन हैज बिकम दी मेनी ) क्या है, यह तथ्य उनकी आँखों के सामने सदैव बना रहता था।  उन्होंने जगत और मनुष्य-जीवन के भ्रम-रहित रूप का या इसके सच्चे स्वरुप का साक्षात् दर्शन किया था। क्योंकि वे विवेकज-ज्ञान के अधिकारी थे, और उसी अधिकार के बल पर वे ऐसा कर सके थे। 
उनका तो नाम ही था -' विवेकानन्द !', उन्होंने 'विवेकज-ज्ञान के आनन्द के अधिकार' को अपने गुरु 'परमहंसजी' के मार्गदर्शन में ५ अभ्यासों की साधना के द्वारा प्राप्त किया था। परमहंस जी कहते थे, 'मान हूँष' तो मानुष ! अर्थात जो अपने यथार्थ स्वरूप को जानता है, वही मनुष्य कहे जाने योग्य है ! और परमहंस जी जानते थे कि वे कौन हैं ; इसलिये उन्होंने अपने मुख से कहा था - ' क्या नरेन ? अभी तक अविश्वास ! जो राम जो कृष्ण वही रामकृष्ण, इस बार दोनों एक साथ -लेकिन तेरे वेदान्त की दृष्टि से नहीं, एकदम साक्षात् ! '  अतः हमलोगों को पहले यह समझ लेना होगा, कि अविवेकी-मनुष्यों की तरह केवल दूसरों से सुनकर करके हमलोग स्वामीजी का यथार्थ परिचय नहीं प्राप्त कर सकते। हमें भी महामण्डल के निर्देशन में ५ अभ्यास को सीखकर 'विवेकज-ज्ञान' के आनन्द का अधिकारी मनुष्य बनना पड़ेगा ! 
 हमलोग भी ज्ञान पाना चाहते हैं, आनन्द पाना चाहते हैं, सभी प्रकार के दुःखों से अत्यन्तिक निवृत्ति पाना चाहते हैं। किन्तु हमलोग विवेक का प्रयोग नहीं करते। विवेक क्या है, तथा इसका व्यव्हार जीवन में किस प्रकार किया जाता है, इसको सीख लेने से ही हमलोग अपने समस्त दुःखों के कारण को ही नष्ट कर सकते हैं।  स्वामी विवेकानन्द कहते हैं- " देवता, स्वर्ग और शक्तियों से बचने का फिर क्या उपाय है ? उपाय है विवेक -सदसत विचार। इस विवेक ज्ञान को दृढ़ करने के उद्देश्य से ही इस संयम का उपदेश दीया गया है-- ३.५२ क्षणतत्क्रमयोः संयमाद्विवेकजं ज्ञानम् । 3.52    क्षणतत्क्रमयोः – संयमात् –विवेकजम् –ज्ञानम् – क्षण और उसके क्रम में,संयम करने से,  विवेकजनित, ज्ञान उत्पन्न होता है। 
क्षण का अर्थ है, काल का सूक्ष्तम अंश। एक क्षण के पहले जो क्षण बीत चूका है, और उसके बाद क्षण प्रकट होगा- इस लगातार सिलसिले को ' क्रम ' कहते हैं। अतः उपर्युक्त विवेकजनित ज्ञान को दृढ़ करने के लिये क्षण और उसके क्रम में संयम करना होगा। (विवेकानन्द साहित्य खण्ड 1/80) 
[ ४.२ जात्यन्तरपरिणामः प्रकृत्यापूरात4.2   जात्यन्तरपरिणामः – एक जाति से दूसरे जाति में बदल जाना रूप जात्यान्तरपरिणाम, प्रकृत्यापूरात् – प्रकृति के पूर्ण होने से होता है। ४.३ निमित्तमप्रयोजकं प्रकृतिनां वरणभेदस्तु ततः क्षेत्रिकवत् ।4.3  निमित्तम् – निमित्त, प्रकृतीनाम् – प्रकृतियों को, अप्रयोजकम् – चलाने वाला नहीं है, ततः – उससे, तु – तो, क्षेत्रिकवत् – किसान की भाँति, वरणभेदः – रुकावट का छेदन किया जाता है। ४.२५ विशेषदर्शिन आत्मभावभावनानिवृत्तिः ।4.25    विशेषदर्शिनः – (समाधिजनित विवेकज ज्ञान के द्वारा) चित्त और आत्मा के भेद को प्रत्यक्ष कर लेने वाले योगी की, आत्मभावभावनानिवृत्तिः – आत्म भाव विषयक भावना सर्वथा निवृत्त हो जाती है।४.२६ तदा विवेकनिम्नं कैवल्यप्राग्भारं चित्तम् ।4.26    तदा – उस समय योगी का, चित्तम् – चित्त, विवेकनिम्नम् – विवेक में झुका हुआ, कैवल्यप्राग्भारम् – कैवल्य के अभिमुख हो जाता है४.३२ ततः कृतार्थानां परिणामक्रमसमाप्तिर्गुणानाम् ।4.32    ततः – उसके बाद, कृतार्थानाम् – अपने काम को पूरा कर चुकने वाले, गुणानाम् - गुणों के,  परिणामक्रमसमाप्तिः – परिणाम क्रम समाप्त हो जाते हैं।४.३३ क्षणप्रतियोगी परिणामापरान्तनिर्ग्राह्यः क्रमः । 4.33    क्षणप्रतियोगी – जो क्षणों का प्रतियोगी है और, परिणामापरान्तनिर्ग्राह्यः – जिसका स्वरूप परिणाम के अन्त में समझ में आता है, वह, क्रमः – क्रम है।]
३. हमलोग भ्रम में क्यों पड़ जाते हैं?  विवेक का अर्थ है- सत्य,असत्य और मिथ्या के अन्तर को समझने की चेष्टा करना । सद-असद विचार, कौन शाश्वत है और कौन नश्वर है-इसका परिक्षण करके अच्छे-बुरे का निर्णय करना।  इसी को सरल भाषा में या प्रचलित भाषा में शुभ-अशुभ या भला-बुरा में अन्तर करना भी कह सकते हैं। किन्तु अच्छे और बुरे का निर्णय करने के समय अक्सर हमलोग भ्रम में पड़ जाते हैं। क्योंकि हमलोगों की प्रकृति या इन्द्रियों को जो अच्छा प्रतीत होता है, हमलोग उसी को अपने लिए भी अच्छा मान कर ग्रहण करते हैं, और इन्द्रियों को जो अच्छा नहीं लगता, उसको खराब समझते हैं, और उसे त्याग देना चाहते हैं। मिठाई यदि मुख में जाता है तो अच्छा कहते हैं, किन्तु तीखा नहीं खाना चाहते हैं। विवेकानन्द के नाम का तात्पर्य को याद रखते हुए विवेक-प्रयोग करके स्वामीजी को जानने के लिये उन्हीँ के उपर मनोनिवेश करने का अभ्यास करना होगा। विवेकज-ज्ञान किसे कहते हैं? पातंजलि योगसूत्र  विभुतिपाद३/५४ में कहा गया है- ३.५४ तारकं सर्वविषयं सर्वथाविषयक्रमं चेति विवेकजं ज्ञानम् । 3.54    तारकम् –सर्वविषयम् – सर्वथाविषयम् –च –अक्रमम् – विवेकजम् –ज्ञानम् – जो संसार समुद्र से तारने वाला है,  सबको जानने वाला है,  सब प्रकार से जानने वाला है,  एवं, बिना क्रम के,  वह,  विवेकजनित,  ज्ञान है।
इस ज्ञान का नाम तारक-ज्ञान  इसीलिये है कि यह योगी को जन्म-मृत्यु के सागर से तारण करता है। इस ज्ञान में किसी प्रकार का क्रम नहीं है। यह सारी वस्तुओं को क्षण भर में एक साथ ग्रहण कर लेता है। जैसे किसी कमरे में हजार वर्ष से अँधेरा हो तो माचिस जलाने पर अँधेरा धीरे-धीरे नहीं जाता है,(बिना क्रम में गये ) एक ही बार में चला जाता है। जैसे साधारण ढंग से ज्ञान अर्जन के क्षेत्र में होता है, एक के बाद एक करके नहीं जानना पड़ता है। समस्त  प्रकृति (वाह्य प्रकृति और अन्तः प्रकृति दोनों) की सूक्ष्म और स्थूल सर्वविध अवस्थाएँ इस ज्ञान की ग्राह्य हैं।  'विवेकज-ज्ञान ' ऐसा ज्ञान है- जो हमें समस्त विषयों, समस्त अवस्थाओं, समस्याओं से मुक्ति प्रदान करने में समर्थ है। जो भूत, भविष्य और वर्तमान समस्त अवस्थाओं का ज्ञान हो उसे - ' अक्रमम ' बिना क्रम में गये, अर्थात एक ही क्षण में परिपूर्ण रूप से प्राप्त कर लिया जाय -वही है विवेकज ज्ञान। 
 अर्थात उसी विवेकज -ज्ञान को जान लेने की ज्वलन्त इच्छा लेकर, पूरी श्रद्धा रखते हुए स्वामीजी के सन्देशों को पढ़ना होगा, उसपर गहन चिन्तन करना होगा और उनका अनुसरण करना होगा - अर्थात ५ अभ्यासों का जीवन में प्रयोग करना होगा। आम तौर से जो भी ज्ञान हमलोग प्राप्त करते हैं, उसे हम केवल अपनी बुद्धि का प्रयोग करके प्राप्त करते हैं। उस लौकिक ज्ञान या बौद्धिक ज्ञान के द्वारा किसी वस्तु या विषय की जितनी जानकारी मिलती है, वह क्षणिक और सामयिक होती है, अतः वह जानकारी सापेक्षिक और परिवर्तनशील होती है। 
 ज्ञाता और ज्ञेय वस्तुओं के बीच एक स्थानिक और त्वरित प्रभावी सम्पर्क स्थापित करने की प्रक्रिया से जो ज्ञान प्राप्त होता है, उसके द्वारा जगत और मनुष्य-जीवन की अपरिमित समस्यायों के मूल कारण का परिचय नहीं मिलता है। जिस दृष्टि में, जिस अनुसन्धान से एक क्षण में समग्र जगत, समस्त विश्व- ब्रह्माण्ड भास उठता है, उसी ज्ञानप्रसूत समस्या का स्वरुप और समाधान-सूत्र हमलोग एक साथ स्वामीजी से प्राप्त करते हैं। 
 इसीलिये निश्चित रूप से विवेकानन्द एक भविष्यद्रष्टा भी हैं। अपने वैश्विक दृष्टिकोण के आधार पर ही उन्होंने भविष्य के मार्ग का संकेत दिया था। समग्र विश्व और उसकी समस्त समस्याओं के साथ उसके समाधान को उन्होंने एक साथ देख लिया था, और उसके बाद टुकड़ों टुकड़ों में करके जो कहा था, उन्हीं संदेशों में हमलोग उनसे विभिन्न प्रकार के विषयों से अवगत होते हैं, और हमें उनकी बातें इतनी मूल्यवान लगती हैं।
 जिस प्रकार गीता १०/४२ में श्रीकृष्ण ने कहा था - 
 अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन ।
  विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत् ।।गीता: 10: 42।। 

श्रीकृष्ण मुख्य-मुख्य वस्तुओं में अपनी योग शक्ति रूपी तेज़ के अंश की अभिव्यक्ति का वर्णन करके यह बतलाये थे कि, ' अथवा हे अर्जुन ! तुम अनेक को जानने की चेष्टा कर रहे हो। -यह क्या है, वह क्या है- इस प्रकार अलग अलग रूप से जानने की क्या आवश्यकता है! केवल इतना ही जान लो की मेरे एक ही अंश में यह समस्त विश्व-ब्रह्माण्ड अवस्थित है। बहुत जानने से तुम्हारा क्या प्रयोजन है मैं इस सम्पूर्ण जगत् को  मेरी योग शक्ति के  एक अंश मात्र से धारण करके स्थित हूँ।।
 स्वामीजी के विचारों का यही वैशिष्ट है। उनके समस्त संदेशों के भीतर जो मूल बात है, वह है मनुष्य को मनुष्य के रूप में गढ़ लेना। वे कहते हैं, तुमलोग समाज का पुनर्गठन करो, समाज का नवीकरण करो, समाज की सेवा करो, किन्तु यदि तुम मनुष्य को ही पूर्ण मनुष्य के रूप में नहीं गढ़ सको, उसकी अन्तर्निहित सत्ता को यदि सम्पूर्ण विकसित और प्रकाशित (अभिव्यक्त) नहीं करा सको, तो वैसे विज्ञान,  प्रयोद्द्गिकी, अर्थशास्त्र, समाज-सेवा विज्ञान, राजनीति, इतिहास, दर्शन - ये सभी किसी काम के न होंगे।
 तुम लोग राजनीती का उपयोग करो, विज्ञान का, आर्थिकनीति को उपयोग में लाओ -इन सभी चीजों की आवश्यकता है। किन्तु इतना समझ लो कि ये सभी विषय या योजनायें मनुष्यों को यथार्थ मनुष्य में रूपांतरित करने की दृष्टि से, उनके कल्याण के लिए हैं ! यदि इस इस मूल को तुम जान लो, तो बाकी सब कुछ को जान लोगे। यही है सच्चा ज्ञान। श्रीरामकृष्ण जैसा कहते थे, " एक को जानने का नाम है ज्ञान, और बहुत को जानने का नाम है अज्ञान।" स्वामीजी ने मनुष्य के स्वरुप का अन्वेषण करके, उसकी वास्तविक सत्ता का विकास करने तथा उसे अभिव्यक्त करने की साधना को ही प्राथमिक कार्य कहकर, उन्होंने इसी कार्य को करने पर बार बार जोर दिया है।  वह तत्व क्या है ? हम सभी लोगों के भीतर अनन्त शक्ति, अनन्त ज्ञान, एक अनन्त प्रेम का महासागर, प्रेम-सिन्धु ठांठे मार रहा है। उसे जानना होगा, उस सर्वग्रासी प्रेम को अभिव्यक्त करना होगा। हमलोग दीनहीन नहीं हैं, हमलोग बहुत शक्तिशाली हैं, हमारा अमित प्रताप है। हमलोग मोह-वश, महाभ्रम के कारण अपने को असहाय मरण-धर्मा शरीर मात्र (भेड़) समझ लिये हैं। इस असहनीय हीन भावना (Inferiority complex) के कारण ही हमलोगों ने स्वयं को अपने विराट स्वरुप से गिराकर एक छोटा-मनुष्य,एक पशु-मानव में परिणत कर लिया है। 
 (तभी तो जो काम पशु भी नहीं करते उसे मनुष्य कर रहा है, सत्तर साल का बूढ़ा सात साल की लड़की को छेड़ता है,उच्च पदों पर बैठकर घोटाला करता है। किन्तु इसके लिये लोकपाल बिल के लिये भूख हड़ताल करने या कोसते रहने से कुछ नहीं होगा।) बल्कि जिस मनुष्य ने भ्रम के कारण, अज्ञान के कारण अपने को संकुचित कर लिया है, उसे एक बार पुनः बिराट स्वरुप (सिंह-स्वरुप ) में प्रतिष्ठित करा देना होगा। उसको ज्ञान आलोक से शक्ति-सम्पन्न करना होगा, और उसके जीवन को प्रेम-सिन्धु के रूप में गठित करना होगा। 
 आधुनिक मनुष्य, विज्ञान की सहायता से बाह्य प्रकृति के उपर जितना अधिक नियंत्रण प्राप्त करता जा रहा है, उसी अनुपात में वह अन्तःप्रकृति के सामने मानो अपनी पराजय भी स्वीकार करता जा रहा है। मनुष्य की इस कंगाली (indigence) का चित्र स्वामीजी के मानस-चक्षुओं के समक्ष स्पष्ट रूप से उभर आया था, इसीलिये उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा था, " तुमने बाह्य प्रकृति को जीत लिया  है , इसीलिये विज्ञान की बड़ाई करते नहीं अघाते, किन्तु तुम्हारी अन्तःप्रकृति तुम्हारे साथ बिलियर्ड के बॉल के जैसा (ricochet) ठोकर-पर-ठोकर मारने का खेल, खेल रही है, और तुम्हारी महा-मूल्यवान परिसम्पत्ति रास्ते की धूल में यहाँ-वहाँ गच्चे खा रही है।
 ऐसी बेमिसाल, अनुपम वैभवशाली मूर्ति (देव-दुर्लभ मानव शरीर) वृत्तियों में उलझकर, धूल-कीचड़ से सन कर, उपेक्षित होकर, मुरझाती जा रही है ! ऐसा होते रहने नहीं दिया जा सकता है। तुमलोग आन्तरिक प्रकृति को जीत लो, वशीभूत करो, आन्तरिक शक्ति के उपर अधिकार प्राप्त करके, बाह्य जीवन में प्रकट करो। स्वयं को मोह-निद्रा से जाग्रत करो और आन्तरिक उर्जा से परिपूर्ण हो जाओ। किन्तु उस शक्ति का घमण्ड मत करना। शक्तिवान होकर, स्वयं को सबों की पूजा में, सबों की सेवा में, सबों के भीतर छूपी उसी शक्ति को जाग्रत करने के कार्य में, समर्पित कर दो। अपनी इन्द्रियों के सुख-भोग में निमग्न रहने से, भौतिक-सम्पदा को अधिकाधिक बढ़ाते जाने से, या नाम-यश स्वार्थपरता की छोटे से दायरे बंधा जीवन जीने से-वह शक्ति जाग्रत नहीं हो सकती; ऐसे जीवन को जीते रहने वाला मनुष्य अन्तः प्रकृति का (इन्द्रियों का) गुलाम बन जाता है।
 वे यह देख पाने में समर्थ थे, उन्होंने अनुभव किया था, कि समस्त जगत का कल्याण करने के लिये, जिस मौलिक तत्व (हमसभी लोग स्वरूपतः ब्रह्मवस्तु हैं ) को जानने की आवश्यकता होती है,उसका आविष्कार भारतवर्ष में ही हजारों वर्ष पूर्व यहाँ के ऋषि-मुनियों ने अकस्मात अपने मनन-लोक में, प्रत्यक्ष आत्मानुभूति के लोक में कर लिया था।  उन्होंने देख लिया था कि यदि हृदय के आलोक में उद्भासित, उस महान तत्व को, भारतवर्ष समग्र विश्व के मनुष्यों तक वहन करके पहुँचा सके, तभी जगत का यथार्थ कल्याण संभव होगा। स्वामीजी सम्पूर्ण विश्व के मनुष्यों को अपने हृदय से प्रेम करते थे, इसीलिये वे भारत वासियों से अपेक्षा करते थे कि हमलोग उस तत्व को जानने और अभिव्यक्त करने की साधना करेंगे, और स्वयं उसकी अनुभूति प्राप्त करके, एक दिन सम्पूर्ण विश्व में उस ज्ञानालोक को फैला देंगे, इसीलिये भारत की धरती उनके नेत्रों के समक्ष एक पुण्यभूमि के रूप में प्रकट हो गयी थी। 
 स्वामीजी के द्वारा कथित उस विख्यात उपदेशसे हम सभी अवगत हैं- " प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है, बाह्य एवं अन्तः प्रकृति को वशीभूत करके आत्मा के इस ब्रह्म-भाव को व्यक्त करना ही जीवन का चरम लक्ष्य है।कर्म,उपासना,मनः संयम या ज्ञान, इनमें से एक, या एक से अधिक उपायों का सहारा लेकर अपना ब्रह-भाव व्यक्त करो और मुक्त हो जाओ। बस यही धर्म का सर्वस्व है। मत, अनुष्ठान-पद्धति, शास्त्र, अथवा अन्य बाह्य कर्म-काण्ड तो उसके गौण संकेत मात्र हैं। "  
 वे कह रहे हैं, कि हम सभी लोग स्वरूपतः ब्रह्मवस्तु हैं, और हमलोगों का लक्ष्य - अपनी प्रकृति को नियंत्रित करके, उसके उपर विजय प्राप्त करके,उस ब्रह्मवस्तु को अभिव्यक्त कर लेना है। इसके लिये हमें अन्तः प्रकृति और वाह्य प्रकृति दोनों पर विजय प्राप्त करना होगा। और हमलोग अपनी अन्तर्निहित दिव्यता को, कर्म के द्वारा, मन को वशीभूत करने की साधना के द्वारा,  संयम के द्वारा, ज्ञान की चर्चा के द्वारा, सत्यानृत या सदसत विवेक-विचार द्वारा, तथा समस्त मनुष्यों की स्वार्थहीन सेवा में आत्मबलिदान के द्वारा अभिव्यक्त कर सकते हैं।
 हमलोगों की आकांक्षा यह होनी चाहिये कि हम सबकुछ को जान लेंगे, नहीं तो मूल सत्य हृदयंगम नहीं होगा। स्वामीजी के अनुसार इसी सब कुछ को जान लेने का अर्थ है- मनुष्य के (अपने) सच्चे स्वरूप को जान लेना एवं उसी ज्ञान की बुनियाद पर उससे संलग्न बाह्य विषयों को उचित रूप से अपने लिये उपयोगी बना लेना।  
लीडरशिप : स्वामीजी कहते हैं, सचमुच में वही जीवित रहता है, जो दूसरों के लिये जीता है-बाकी लोगों का जीवन तो मृतक से भी अधम है। उनके इसी सन्देश में सूत्र-रूप से सन्निहित है, शक्तिमान मनुष्य बनने का आदर्श जो 'अपने पैरोंको जमीन पर जमा कर, दूसरों को अपने हाथों का सहारा देकर उपर उठा लेने में समर्थ है। स्वामीजी ने इसी आदर्श को हमारे समक्ष रखा है। यदि हमलोग यथार्थ मनुष्य के रूप में जीना चाहते हैं, तो हमें दूसरों के लिये जीना सीखना पड़ेगा। हम लोग परस्पर एक दूसरे से प्रेम करेंगे, आलिंगन में बांध लेंगे, एक दूसरे को उपर उठाने का प्रयास करेंगे, आपस में सहयोग का भाव रखेंगे। स्वार्थ-शून्य, सेवापरायण, प्रेमी मनुष्य ही शक्तिमान होता है, और देखने में सर्वांग-सुन्दर मनुष्य प्रतीत होता है। उसीके जीवन में विकास संभव है, कल्याणकारी नव-विप्लव और प्रगति का अग्रदूत वही बन सकता है,जो वास्तव में चरित्रवान मनुष्य है।
 इसीलिये हमलोगों को अपना चरित्र गढ़ना होगा, (हिन्दू-मुसलमान-ईसाई या ब्राह्मण-क्षत्रिय,वैश्य-शूद्र,बंगाली -बिहारी नहीं) यथार्थ 'मनुष्य' बनना होगा, महाजीवन के विवेकज आनन्द का अधिकार प्राप्त करने के महान लक्ष्य (मृत्यु के भय को सदा के लिए समाप्त करके शाश्वत जीवन) पर पहुँचने के लिये अपने जीवन को महान रूप से गठित करना होगा।
इसीलिये विवेक-प्रयोग की सहायता से सत्य-असत्य-मिथ्या का परिक्षण करके निष्ठा के साथ स्वामीजी का जीवन और सन्देश की ध्यानजन्य विवेचना, एवं उनके विचारों पर मनोनिवेश का अभ्यास करना वर्तमान युग का सबसे महत्वपूर्ण कार्य है। और इसी से चरित्र गठित होगा, तथा जगत का यथार्थ कल्याण भी संभव होगा।
 जीवन की सार्थकता इसी कार्य (विवेकज ज्ञान से उत्पन्न विवेकज आनंद का अनुभव करने) पर निर्भर है, -अन्य जितने  भी सिद्धान्त या ज्ञान हैं, उनका मूल्य केवल इसी लक्ष्य को प्राप्त करने के उपाय के रूप में ही है। स्वामीजी की विचार-धारा का सम्पूर्ण रूप से परिचय प्राप्त कर लेने पर यह आधारभूत तथ्य या मूल सत्य प्रकटित हो जाता है। उसी सत्य को जानना होगा, समझना होगा और अपने जीवन में प्रयोग करना होगा।
 विदेश से वापस लौट आने के बाद स्वामीजी भारत के प्रत्येक धूल-कणों को पहले से भी अधिक पवित्र कहकर और अधिक प्रेम इसीलिये किये थे, कि सार्वभौमिक-कल्याण के महान तत्व, सार्वभौमिक साम्यवाद   (वसुधैव कुटुम्बकम) का अविष्कार पृथ्वी पर सर्वप्रथम भारतवर्ष में ही हुआ था।और इसीलिये जो तत्व प्राचीन युग में हमलोगों के लिये जटिल भाषा में लिपिबद्ध था, जो अरण्यों, पर्वत की कन्दराओं में छुपा हुआ था, जिसे केवल साधू-महात्माओं के चर्चा का विषय समझा जाता था, उसी महान तत्व को स्वामीजी ने हमलोगों के निकट अति सरल भाषा में प्रस्तुत कर दिया था। 
 नवनीदा ने अपने भावी क्रमानुयायियों से यह यह अपेक्षा की थी, कि उनकी भावी पीढ़ी उपनिषदों में वर्णित उसी महान तत्व को अरण्यों से निकालकर जनारण्य तक ले जाएगी। उस तत्व को जंगल-झाड़, पर्वत-पहाड़ से निकाल कर साधारण मनुष्यों तक, किसानों के झोपड़ियों तक, हाट-बाजार में, खेतों में, मैदानों में, कल-
कारखानों में सर्वत्र प्रचारित और प्रसारित कर देगी। और तब किसानों के हल से, कारखाने के श्रमिकों से, एक नया महान तेजस्वी भारत-एक महाशक्ति के रूप में, उठ खड़ा होगा।
 नवनी दा ने अपने विवेक-जीवन में छपे निबन्ध, युवा प्रशिक्षण शिविर के व्याख्यान,अपने क्रमानुयायीओं से पत्राचार, गुरु-शिष्य संवाद, वार्तालाप आदि के क्रम में समस्त गूढ़ विषयों के बिल्कुल जड़ में पहुंचकर, बहुत सुन्दर तरीके से और अत्यन्त स्पष्ट में रूप समझा दिया है। 
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१. राष्ट्र का आह्वान: 
स्वाधीनता प्राप्ति के पूर्व भारत की साधारण जनता यही सोचती थी कि देश अभी  ' दरिद्रता,अकाल,भुख अशिक्षा,' आदि जिन समस्याओं से जूझ रहा है, उसका मुख्य कारण केवल अंग्रेजों की पराधीनता ही है। स्वाधीनता-संग्राम के सेनानी अपने प्राणों की आहुति इसीलिये दे रहे थे कि भारत जैसे ही अंग्रेजों कि दासता से मुक्त हो कर राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त कर लेगा, वैसे ही यहाँ कि सारी समस्याएँ मिट जाएँगी और देश में समृद्धि का ज्वार आ जाएगा ! 
किन्तु जब स्वाधीनता प्राप्ति के दो दशक बीत जाने के बाद भी - दरिद्रता, अशिक्षा, अनाहार, बेरोजगारी आदि समस्याएँ समाप्त नहीं हुईं।  देश के किसान-गरीब-मजदूर अब भी भरपेट भोजन नहीं पा रहे थे, ग्रामीण तथा आदिवासी लोग अब भी भुखमरी के शिकार हो रहे थे। यह सब देखकर सारे देशवासी, विशेष रूप से पढ़ा-लिखा युवा समुदाय 'स्वप्न-भंग' कि वेदना से विक्षुब्ध हो उठा। और वह युवा असंतोष विभिन्न विनाशकारी, उग्रवाद आदि माध्यम से अपने को अभिव्यक्त करने लगा।  
उस समय युवाओं को यह समझा देना अत्यन्त आवश्यक हो गया था कि, आख़िर इतनी कुर्बानियों से प्राप्त यह राजनैतिक स्वाधीनता भी देश और देशवासियों का यथार्थ कल्याण करने में, क्यों विफल सिद्ध हो गई ? स्वाधीनता प्राप्ति के २० वर्ष बाद भी हम लोग दरिद्रता, अनाहार, अशिक्षा, बेरोजगारी जैसी समस्याओं को दूर क्योंनहीं कर सके? इस विफलता का मूल कारण क्या है? विलम्ब से भी सही, आज किस उपाय से इतने वर्षों कि विफलता को दूर कर देश को पुनः प्रगति के पथ पर आरूढ़ कराया जा सकता है ?
हमारे राष्ट्रीय जीवन में एक नई रोशनी की , एक नये मार्गदर्शक नेता की नितान्त आवश्यकता महसूस होने लगी थी, और माँ जगदम्बा ने लोक-शिक्षण के लिये स्वामी विवेकानन्द का चयन बहुत पहले ही कर लिया था। देश का वातावरण पुनः एक बार युवाओं को अपना सच्चा मार्गदर्शक नेता खोजने के लिये बाध्य करने लगा था। 
उस समय किसी ऐसे युवा मार्गदर्शक संगठन की आवश्यकता थी जो उन्हें मनुष्य जीवन की महिमा को समझाकर, इस जीवन को सुन्दर रूप से गठित करने की सरल और व्यावहारिक पद्धति प्रदान करने में सक्षम हो। जिसका प्रयोग करके युवा-वर्ग व्यक्तिगत तौर पर या सामूहिक तौर पर करके अपने चरित्र-कमल को खिला सकता हो, और योग्य नागरिक बन कर देश की सर्वोत्तम सेवा करने में समर्थ मनुष्य सकता हो। उस समय तक पूरे भारतवर्ष में ऐसा कोई संगठन  कहीं नहीं था, जो प्रत्येक युवा-जहाँ है, वहीँ पहुँचकर उनका उचित मार्गदर्शन कर सकता हो; फिर भी यही उस समय की मौलिक आवश्यकता थी। और यही वह पृष्ठभूमि थी, जिसके कारण वर्ष १९६७ के अक्टूबर महीने में महामण्डल को अविर्भूत होना पड़ा।
माँ जगदम्बा ने इस कार्य का नेतृत्व करने के लिये एक ३५ वर्षीय ऊँचे कद-काठी के युवा का चयन कर लिया जिसका जन्म बंगाल के एक सम्भ्रान्त और विद्वत्तापूर्ण परिवार में हुआ था। और विवेकानन्द अपने कार्य को पूरा करने के लिये जिस प्रकार के 'आशिष्ठ, बलिष्ठ ,मेधावी' - युवाओं का निर्माण करना चाहते थे, इस युवक का चरित्र भी, ठीक वैसे ही 'ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य' के सन्तुलित अनुपात में गठित हुआ था। उनका तेजस्वी, मधुर और उदार और व्यक्तित्व युवाओं को मंत्रमुग्ध कर देता था, तथा स्वामी विवेकानन्द के उच्च आदर्शों को जीवन में उतारने के लिये युवाओं को अनुप्रेरित कर देता था। उनका नाम था नवनीहरन मुखोपाध्याय, जिन्हें युवा लोग प्रेम से नवनी दा कहते थे।   

इस बात से भी कोई भी व्यक्ति इंकार नहीं कर सकता कि, आज से पचास वर्ष पूर्व देशवासी या युवा समुदाय स्वामी विवेकानन्द के विचारों से थोड़ा उद्दीप्त भले हो जाते हों, भले ही वे उनको  श्रद्धा भरी दृष्टि से देखते हों, किन्तु उनमे से अधिकांश लोग यही सोचा करते थे कि, सामाजिक परिवर्तन या आर्थिक उन्नति के लिए किसी न किसी 'विशिष्ट' तरह के राजनैतिक मतवाद या राजनैतिक नेता (चारु मजूमदार या कानू सान्याल) को ही अपना मसीहा स्वीकार करना पडेगा। 
अधिकांश लोगों के लिए स्वामीजी के प्रति श्रद्धा-भक्ति केवल रोमांच पैदा कर देने वाली एक विद्युत-स्पर्श के झटके जैसी ही थी। यहाँ तक कि जो लोग स्वयं को स्वामी विवेकानन्द का अनुयायी समझते थे, वे भी उनको मूलतः केवल एक 'हिन्दू' संन्यासी के रूप में ही देखते थे। वे उन्हें केवल एक 'हिन्दू पुनरुत्थानवादी' अथवा एक 'आध्यात्मिक राष्ट्रवादी सन्त' ही समझा करते थे।  
आज से ५० वर्ष पूर्व बहुत थोड़े से लोग ही यह विश्वास करते थे कि स्वामी विवेकानन्द को युवा आदर्श (Role model) के रूप में स्थापित करा कर उनके मार्गदर्शन में चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा द्वारा व्यक्ति-परिवर्तन और फिर सामाजिक परिवर्तन द्वारा एक सुखी और समृद्ध भारत का निर्माण करना संभव है। उस समय स्वामी विवेकानन्द में श्रद्धा रखने वाले बहुत कम लोग ही यह सोच पाते थे कि-'मनुष्य-निर्माण' ही उनके समग्र चिंतन का केन्द्र-बिन्दु है, और " मनुष्य बनना तथा मनुष्य बनाना " ही स्वामी जी के संदेशों का सार है। उनके इसी सूत्र- " Be & Make" के निर्देशानुसार केवल यथार्थ मनुष्य गढ़ने से ही भ्रष्टाचार को मिटाया जा सकता है और देश कि समस्त समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। विगत पाँच दशकों से चलाये जा रहे इस -'मनुष्य निर्माण और चरित्र निर्माण आन्दोलन' के फलस्वरूप अब हमलोग जन-मानस में एक विशिष्ट परिवर्तन देख पा रहे हैं।
भारत के अधिकांश लोग अब इस तथ्य को समझने तथा उस पर विश्वास करने लगे हैं कि, यथार्थ मनुष्य का निर्माण किए बिना जगत का सारा धन उडेल देने से भी पूरे देश के उन्नयन की बात तो दूर, एक गाँव को भी उन्नत कर पाना सम्भव नहीं है। पूर्व प्रधान मंत्री राजीव गाँधी भी मानते थे कि, केन्द्र से चला 'एक रुपया' गाँव तक पहुँचते-पहुँचते ८५% पाइप लाइन से चू जाता है और केवल '१५ पैसा' ही जरुरत मंदों तक पहुँच पाता है। 
आज के अधिकांश चिन्तनशील व्यक्ति इस बात पर स्वामीजी के साथ पूरी तरह से सहमत हैं कि, देश कि दुरावस्था का मूल कारण- ईमानदार, चरित्रवान या यथार्थ मनुष्यों का आभाव ही है। महामण्डल द्वारा आयोजित 'वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर' में आज के युवा स्वामीजी के महावाक्य-'Be & Make' (ब्रह्मविद मनुष्य बनो और बनाओ) की सत्यता को एक प्रयोग-गत यथार्थ के रूप में उपलब्ध कर पा रहे हैं। इसीलिये अब वे शिविर से लौटने के बाद, अपने-अपने गाँव या शहरों में केवल एक दिन स्वामी विवेकानन्द के प्रति 
आवेश-आवेग पूर्ण ढंग से श्रद्धा व्यक्त करके, उनकी जयंती मानाने के बजाय स्वेच्छा से महामण्डल कि शाखाएं स्थापित कर रहे हैं। 
पाँच दशकों के बाद युवाओं तथा देशवासियों की सोंच में ऐसा जो परिवर्तन दिखाई दें रहा है, इस परिवर्तन के पीछे- ' महामण्डल , मासिक मुखपत्र विवेक-जीवन, तथा पूज्य नवनी दा लिखित पुस्तकों की भी, 'रात्रि के निःशब्द ओस की बूंदों के समान'  एक भूमिका अवश्य है, ऐसा हमारा विश्वास है। 
२. जन्म और कुल-परम्परा : 
नवनी दा (श्री नवनिहरण मुखोपाध्याय) का जन्म १५ अगस्त १९३१ को मध्यरात्रि के बाद उनकी पितामही (दादी) श्रीमती तुषारवासिनी देवी के पैतृक निवास-स्थान, १०० न० काशीपुर रोड,  कोलकाता में हुआ था।  जिस भवन में नवनी दा का जन्म हुआ था, वह श्री महिमाचरण चक्रवर्ती का निवास स्थान था, जो श्रीरामकृष्ण देव के भक्त थे और अक्सर उनसे मिलने जाया करते थे, तथा श्री ठाकुर भी उनसे बहुत स्नेह करते थे। इसलिये वह भवन भगवान श्रीरामकृष्ण देव एवं स्वामी विवेकानन्द - दोनों के चरण-धूलि से पवित्र हो चुका था। इन्ही महिमाचरण चक्रवर्ती की कन्या, तुषारवासिनी देवी मेरी (नवनी दा की)  ' ठाकुमा ' - अर्थात दादीमा थीं !  इसलिये बाद के दिनों में नवनी दा इस बात पर बहुत गर्व का अनुभव करते थे, कि जिस पितामही की गोद में उनका लालन -पालन हुआ था, उनके माध्यम से श्री रामकृष्ण देव का स्नेह-स्पर्श भी उन्हें प्राप्त हुआ था।   
श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय का अपना परिवार उन श्री हर्ष का वंशधर था, जो उन प्राचीन पाँच ब्राह्मणों में से एक थे जो कन्नौज छोड़कर बंगाल में बसने चले आये थे। उनके वंश में एक अन्य प्रमुख व्यक्ति कृतिवास ओझा (मुखोपाध्याय) हुए थे जो प्रसिद्द बंगला रामायण के रचयिता थे। उन्हीं के वंश में पंडित कामदेव हुए थे जिन्होंने श्री नित्यानन्द एवं सन्त कवि रामप्रसाद को खरदह में रहने के लिये राजी किया था। 
उनके पितामह का नाम शिरीषचन्द्र मुखोपाध्याय था जो श्री रामकृष्ण देव के भक्त श्री महिमाचरण के जमाता (दामाद) थे। वे अपने बड़े भाई श्री यतीशचन्द्र विद्यार्णव के संयुक्त परिवार के साथ खरदह स्थित भुवन-भवन में रहते थे। दोनों भाईयों ने प्रेसिडेंसी कॉलेज, कोलकाता से अपनी पढाई पूरी की थी। छात्र अवस्था में ही, अर्थात प्रेसिडेंसी कॉलेज में पढ़ते समय ही कोलकाता और आसपास के प्रबुद्ध समाज में दोनों भाइयों का नाम फ़ैल चुका था- कि दो बड़े ही अद्भुत प्रतिभा सम्पन्न लड़के प्रेसिडेंसी कॉलेज में पढाई कर रहे हैं। कॉलेज में एकबार शेक्सपियर के प्रसिद्ध नाटक ' हैमलेट ' के मंचन कि व्यवस्था हुई थी, और उस नाटक में पितामह ने बहुत सुन्दर, यादगार अभिनय कर के दिखाया था। 
इन दोनो भाइयों की अन्तरंगता को देखकर श्री गिरीशचन्द्र घोष  उन्हें " खड़दा के राम-लक्ष्मण " कह कर बुलाया करते थे। ७ मार्च १८९७ को दक्षिणेशर में नवनी दा के पितामह ने साक्षात् स्वामी विवेकानन्द का दर्शन भी प्राप्त किया था। उस समय तक बेलुड़ मठ स्थापित नहीं हुआ था , इसीलिये ठाकुर का जन्मोत्सव दक्षिणेश्वर के भवतारिणी मन्दिर के परिशर में ही आयोजित हुआ करता था।  उस दिन दक्षिणेश्वर के मन्दिर में स्वामीजी आने वाले हैं-  शिरीषचन्द्र  को इसकी सूचना नाट्यकार महाकवि श्री गिरीशचंद्र घोष से प्राप्त हुई थी, जिनके साथ उनकी गहरी मित्रता थी।
शिरीष चंद्र १९०१ में आन्दुल मौरी के 'आन्दुल एच.सी. स्कूल ' (अभी मोहियारी कुंडू चौधरी इंस्टीट्यूशन) के हेडमास्टर बने और १९५३  तक उस पद पर कार्यरत रहे। वे विद्वान् होने के साथ साथ एक आध्यात्मिक व्यक्ति भी थे, विशेषरूप में वे एक तन्त्र मार्ग के साधक थे। इसकी दीक्षा भी उन्होंने अपनी माता से ही प्राप्त की थी।    
३. प्रारम्भिक जीवन तथा पाठशाला की शिक्षा
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शुक्रवार, 25 नवंबर 2016

स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना-6 'द वे ऑफ़ द ड्राप-आउट्स ' "नव विप्लव एवं स्वामी विवेकानन्द"

' कम आउट एंड स्टैंड अलोन'-- यही है स्वामीजी का नव-विप्लव !"
"फ्रीडम, ओ फ्रीडम! फ्रीडम, ओ फ्रीडम!" इज द साँग ऑफ़ द सोल. - " मुक्ति-ओ मुक्ति, मुक्ति- ओ मुक्ति!" - यही आत्मा का गीत है। किन्तु हाय! प्रकृति  (माया,नाम-रूप) की सैकड़ों जंजीरों से बद्ध (हिप्नोटाइज्ड)  हो जाना ही उसकी नियति है। " (२/२९४) इस बात को कहने वाले थे स्वामी विवेकानन्द !
"जगत में  सबके भीतर ही (धनी हो या गरीब) एक प्रकार के असन्तोष का भाव दिखाई पड़ता है। इस सार्वजनीन असन्तोष का अर्थ क्या है ? इसका अर्थ यही है कि -स्वतंत्रता ही मनुष्य का सर्वकालिक लक्ष्य है। विश्व का स्पन्दन स्वतंत्रता का ही प्रकाश है।" जिस नये क्रांतिकारी आंदोलन (BE AND MAKE) में कूद पड़ने के लिये स्वामी विवेकानन्द ने युवाओं का आह्वान किया था, उसके मूल को उन्होंने यहीं से (आत्मा के नित्य-मुक्त स्वाभाव से) प्राप्त किया था।
 स्वामीजी कहते हैं,"जब तक मनुष्य मुक्ति की प्राप्ति नहीं कर लेता (अर्थात स्वयं को डी-हिप्नोटाइज्ड नहीं कर लेता) वह मुक्ति की खोज करता ही रहेगा ! उसका  समग्र जीवन केवल इस स्वाधीनता-प्राप्ति की चेष्टा मात्र है।  शिशु जन्म ग्रहण करते ही नियम के विरुद्ध विद्रोही हो जाता है। उसकी पहली आवाज रुदन की होती है, जो अपने बंधनों के प्रति उसका विरोध होता है। " (२/२९३-९७)
स्वामीजी के मतानुसार - " वेदान्त में संग्राम का स्थान तो है, किन्तु भय के लिए कोई स्थान नहीं है। "  ये सभी --'संग्राम', 'प्रतिवाद', 'विद्रोह', 'निर्भिकता',' 'स्वाधीनता-प्राप्त करने की चेष्टा'-जैसे शब्द क्रांतिकारी मन की भाषा ही तो है। किन्तु अन्य कई शब्दों की तरह 'क्रांति' (upheaval, अप्हीवल-महापरिवर्तन) शब्द के साथ भी राजद्रोह, बगावत, विद्रोह, विध्वंश, विक्षोभ, इंकलाब -जिंदाबाद आदि धारणायें इस प्रकार घुलमिल गयी हैं, कि 'क्रांति' शब्द की जो अपनी एक गरिमा है, उसका जो एक सुंदर चरित्र है, जिस महापरिवर्तन के अनिवार्य रूप से आविर्भूत हो जाने की जो तीव्र छटपटाहट या तीव्र व्याकुलता है, उसे हमलोग बिल्कुल ही भूल चुके हैं। 'क्रांति या इंकलाब' को संस्कृत में 'विप्लव' कहते हैं। 'विप्लव' शब्द का उद्भव 'प्लू'  धातु से हुआ है। 'प्लू' धातु का मूल अर्थ है- ' जाना '। विशेष तौर पर मानव-समाज प्रकृति के जिन बन्धनों में (माया-मोह में) जकड़ा हुआ है,'उन बेड़ियों  का टूट जाना' या सम्पूर्ण मानवता का 'भ्रांति-मुक्त' (disillusioned-डी-हिप्नोटाइज्ड) हो जाना ; स्वामी जी के नये क्रांतिकारी आंदोलन या 
नव-विप्लव से यही सूचित होता है !

स्वामीजी कहते थे- " मैं इस सिद्धान्त से सहमत नहीं हूँ कि - प्रकृति के नियमों का पालन ही मुक्ति है। मैं नहीं समझता कि इसका क्या अर्थ हो सकता है। मनुष्य की प्रगति के इतिहास को देखने से पता चलता है, कि, मनुष्य ने जो कुछ भी प्रगति की है, वह सब प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करने से ही सम्भव हो सकी है। यह भले ही कहा जा सकता है कि मनुष्य ने प्रकृति के उच्चतर नियमों को आविष्कृत करके ही प्रकृति के निम्नतर नियमों पर विजय प्राप्त किया है। परन्तु वहाँ भी विजय की कामना करने वाला मन (गुरुत्वाकर्षण के नियम का उल्लंघन करके ऊपर उड़ जाने की व्याकुलता रखने वाला मन ) ही किसी उपाय का अन्वेषण कर रहा था। जैसे ही उसने देखा कि वह संघर्ष नियमों के कारण ही था, उसने (क्रायोजेनिक इंजन का आविष्कार करके) उस नियम को भी जीतना चाहा। इस प्रकार हम देख सकते हैं,कि वैज्ञानिक अविष्कारों के प्रत्येक क्षेत्र में-- लक्ष्य सदा ही प्राकृतिक नियमों से मुक्ति प्राप्त करना ही था। वृक्ष कभी प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन नहीं करते। मैंने कभी किसी गाय को चोरी करते हुए नहीं देखा, कोई घोंघा (सीपी या सितुहा oyster) कभी झूठ नहीं बोलता। फिर भी वे मनुष्य से बड़े नहीं हैं। स्वतन्त्रता के लिये एक उत्कट आग्रह का नाम ही जीवन है।" (2/261)

स्वामी जी कहते हैं, " इस देश में एक बात हर समय सुनता रहता हूँ कि हमारे लिये सदा प्रकृति के साथ ताल मिलाकर चलना ही उचित है। क्या तुम यह नहीं जानते कि आज तक विश्व में जितनी भी प्रगति हुई है, वह सब प्रकृति को जीत लेने से ही हुई है ? यदि हमलोग किसी भी तरह से उन्नति करना चाहते हों, तो इसके लिये हर कदम पर हमें प्रकृति का प्रतिरोध करना होगा।" इसीलिये विनय कुमार सरकार ने कहा था, यदि विवेकानन्द के विचारों को किसी मतवाद की संज्ञा देनी ही हो तो उसको ' प्रकृति के उपर- मनुष्यवाद' (मैन-ओवर-नेचर-इज्म) कहना होगा।

प्रकृति तो मनुष्य को यह शिक्षा देती है कि स्वयं जीवित बचे रहने के लिये संग्राम करते रहो। किन्तु स्वयं बचे रहने के लिये संग्राम करना तो स्वार्थपरता को साधित करने का नामान्तर मात्र है, और विवेकानन्द के अनुसार वैसी चेष्टा किसी भी सामाजिक नैतिकता का सम्पूर्ण विरोधी है। इस स्वार्थपरता की प्रवृत्ति से ही विशेषाधिकार का जन्म होता है।  विवेकानन्द कहते थे," विशेषाधिकार भोग करने की धारणा मनुष्य जीवन पर कलंक स्वरुप है।" किन्तु स्वामी विवेकानन्द इस विशेषाधिकार के कलंक स्वरूप अवधारणा को केवल आर्थिक क्षेत्र तक ही सीमित रखने के पक्षधर नहीं थे।

वे कहते हैं, " प्रथम है- बाहुबल (Hand) का विशेषाधिकार, जो सबल है वह निर्बल का शोषण करके
विशेष सुविधा भोग चाहेगा, यही तो पाशविकता है। इस जगत में धनबल का विशेषाधिकार भी इसी प्रकार का है। यदि दूसरे की अपेक्षा किसी के पास अधिक धन-दौलत है, तो वह कम वालों पर थोड़ा विशेषाधिकार चाहता है, या अधिक सुविधा भोग करना चाहता है।" फिर बुद्धिबल (Head) का विशेषाधिकार, उससे कहीं अधिक सूक्ष्म और शक्तिशाली है। एक आदमी दूसरों की अपेक्षा अधिक जानकारी रखता है (वकील-डॉक्टर) इसलिये वह अधिक विशेषाधिकार का दावा करता है। और सबसे अन्तिम तथा सबसे निकृष्ट, है आध्यात्मिक-ज्ञान (Heart) से उत्पन्न विशेषाधिकार--यह सर्वाधिक अत्याचारपूर्ण है! जो (ढोंगी साधु-संन्यासी भेषधारी या दुष्ट पण्डे-पुरोहित) लोग यह सोचते हैं कि वे आध्यात्मिकता या ईश्वर के बारे में अधिक जानते हैं, इसीलिये, उनको अन्य सबकी अपेक्षा श्रेष्ठतर विशेषाधिकार मिलना ही चाहिये। वे कहते हैं, "ऐ भेड़-बकरियों! आओ और हमारी पूजा करो,हमें ऊँचा आसन दो, क्योंकि हम ईश्वर के संदेशवाहक हैं और हमारी पूजा तुम्हें करनी ही पड़ेगी।"  

किन्तु जो स्वयं सच्चा वेदान्ती ('भ्रांति-मुक्त', disillusioned-डी-हिप्नोटाइज्ड नेता या पैगम्बर) होगा, वह कभी किसी के उपर शारीरिक, मानसिक अथवा आध्यात्मिक विशेषाधिकार के लिये दावा नहीं करेगा। कभी कर ही नहीं सकता, क्योंकि वह तो अपने अनुभव से जानता है कि एक ही शक्ति (महत प्रवृत्ति) तो सभी मनुष्यों में अन्तर्निहित है ! इसीलिये अद्वैत का कार्य इन सभी विशेषाधिकारों को तोड़ डालना है। वेदान्त इस विशेषाधिकार-वाद के विरुद्ध प्रचार करना चाहता है, मानव-आत्मा के उपर इस उत्पीड़न को चूर-चूर कर देना चाहता है। " 

यही स्वामी विवेकानन्द के द्वारा प्रतिपादित [महामण्डल के 'रामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त परम्परा ' में आधारित लीडरशिप ट्रेनिंग के माध्यम से 'BE AND MAKE' अर्थात 'भ्रान्ति-मुक्त नेता बनो और बनाओ' रूपी] वेदान्त क्रांति कार्यक्रम (वेदान्तिक रेवोलुशन प्रोग्रैम या 'বৈদান্তিক বিপ্লব কর্মসূচি')  की मूल बात यही है! किन्तु वे बड़े क्षोभ के साथ कहते हैं- " इस देश में उद्देश्य तो अनेक हैं, किन्तु उसे प्राप्त करने का उपाय नहीं है। हमारे पास मस्तिष्क (Head) तो है, परन्तु हाथ (Hand) नहीं। हम लोगों के पास वेदान्त मत-(प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है !) है, लेकिन उसे कार्य में परिणत करने की क्षमता नहीं है। हमारे ग्रन्थों में सार्वभौम-साम्यवाद का सिद्धान्त है, किन्तु कार्यों में महा भेद-वृत्ति है। महा निःस्वार्थ, निष्काम कर्म भारत में ही प्रचारित हुआ, परन्तु हमारे आचरण अत्यन्त निर्मम और अत्यन्त हृदयहीन हुआ करते हैं; और मांसपिण्ड की अपनी इस काया को छोड़ कर,देह-सुख सिवा अन्य किसी उच्चतर आनन्द के विषय में हम सोचते ही नहीं। " 
विवेकानन्द के मतानुसार- " भगवान और शैतान (अहुरमज्द और अहिर्मन)  सुर और असुर में कुछ भेद नहीं हैं, भेद केवल स्वार्थशून्यता तथा स्वार्थपरता में है। शैतान (असुर) भी उतना जानता है जितना सुर, उसमें बस पवित्रता नहीं होती-इसीसे वह असुर बन जाता है। शैतान भी भगवान के जैसा ही शक्तिशाली है, केवल उसमें पवित्रता नहीं है- इस पवित्रता के आभाव ने ही उसको शैतान बना दिया है। इसी कसौटी पर आधुनिक संसार को परख कर देखो। पवित्रता नहीं रहने से, ज्ञान और शक्ति का अतिरेक मनुष्य को शैतान में परिणत कर देता है। " ९/१०२ 

इस पवित्रता का अर्जन (chastity- चैस्टिटी या इन्द्रियनिग्रह की भावना) ही 'भ्रान्ति-मुक्त नेता बनो और बनाओ' रूपी वेदान्त क्रांति कार्यक्रम (वेदान्तिक रेवोलुशन प्रोग्रैम या 'বৈদান্তিক বিপ্লব কর্মসূচি') का अधिकांश भाग (main body) हैपवित्रता अर्जन करना ही आध्यात्मिकता को अर्जित करना है, एवं यह जीवन के प्रत्येक स्तर के लिये अत्यन्त प्रभावी होता है। विवेकानन्द के मतानुसार  मनुष्य जीवन में- ' धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष' (सैक्रिड और सेक्युलर) रूप से दो अलग-अलग कार्य-क्षेत्र नहीं हैं। क्योंकि जीवन एक ही वस्तु है, और हर प्रकार से अधि-आत्मिक (Hyper-spiritual,अति-आत्मिक) है। किन्तु धर्म क्या है ? 
विवेकानन्द का उत्तर होगा - " धर्म का अर्थ क्या इस प्रकार प्रार्थना करना है- " हमें यह दो, वह दो" ? नहीं, धर्म के संबन्ध में ये सब धारणायें प्रमाद हैं। हमारे गुरुदेव कहा करते थे, ' गीध बहुत ऊँचे उड़ते हैं, किन्तु उनकी दृष्टि रहती है जानवरों के शव की ओर।' जो हो, तुममें धर्म के सम्बन्ध में जो सब धारणायें हैं, उनका फल क्या है, बताओ तो सही ?  ..रास्ते की सफाई करना, और अच्छे अन्न-वस्त्र का संग्रह करके उनका वितरण कर देना; क्या धर्म का यही अर्थ है? ....यदि साहस हो, उनके बाहर चले आओ। सब नियमों के बाहर चले जाओ, समग्र जगत उड़ जाय - तुम अकेले आकर खड़े हो जाओ।'  ८/७९ সমগ্র জগৎ উড়িয়া যাক—আপনি একলা আসিয়া দাঁড়ান।--स्वामीजी का वास्तविक क्रांतिकारी आह्वान भी यही है !

प्रसिद्द इतिहासकार एवं विचारक अर्नाल्ड टायनबी की पुस्तक 'सरवाइविंग द फ्यूचर' (Surviving the Future) में भी, स्वामी जी के इसी उक्ति की प्रतिध्वनी सुन सकते हैं। वे कहते हैं- " सच्चे और दीर्घ स्थायी शान्ति को प्राप्त करने के लिये,जो अत्यन्त आवश्यक है वह है- एक आध्यत्मिक-क्रांति !" उन्होंने क्रांति के
दो मार्गों का उल्लेख किया है -- एक में क्षोभ और (मोहजाल से ) मुक्ति की आकांक्षा, विध्वंस का विस्फोटक रूप धारण कर लेती है, और दूसरे प्रकार की आध्यात्मिक-क्रांति जिस मनुष्य के भीतर घटित हो जाती है, (जो भ्रम-मुक्त या देहाध्यास से डी-हिप्नोटाइज्ड हो जाता है), वह अधिकांशतः मूक  (गूँगा) हो जाता है, और बाहर से देखने पर कम क्रियाशील प्रतीत होता है।" ठीक विवेकानन्द के शब्दों  में -समग्र जगत उड़ जाय - तुम अकेले आकर खड़े हो जाओ।'" ( देहाध्यास या हिप्नोटाइज्ड स्टेट ऑफ़ माइंड से स्व यंभ्रम-मुक्त होकर बाहर निकल आओ, और दूसरों को भी भ्रम मुक्त करने के कार्य में जुट जाओ !
"अर्नाल्ड टायनबी (Arnold Joseph Toynbee) - 'The way of the drop-outs ' की तुलना 
'सेंट फ्रांसिस ऑफ असीसी' से करते हुए  कहते हैं- उनके आलावा इस प्रकार विसम्मोहित (भ्रम-मुक्त या डी-हिप्नोटाइज्ड) होकर अकेले खड़े हो जाने वाले महापुरुषों के और भी कई उदाहरण (बुद्ध,नवनीदा आदि) हैं, जिनके कारण समाज विशेष रूप से उपकृत हुआ है।"
[सेंट फ्रांसिस ऑफ़ असीसी (११८२-१२२६)" को यीशु मसीह के त्यागपूर्ण जीवन का अनुकरण करने वाले, ईसाई परंपरा में संतों में एक श्रेष्ठ उदाहरण माना जाता है। उन्होंने गरीबी और पवित्रता (इन्द्रिय-निग्रह, chastity) के जीवन को गले लगाने के लिए,अपने पूर्व-जीवन के धन और सामाजिक स्थिति का त्याग कर दिया था। सेन्ट फ्रांसिस के विद्रोह की तुलना हिप्पी आंदोलन के क्रन्तिकारी युवा से करने का कारण यही दिखाना है कि सेन्ट फ्रांसिस ऑफ़ असीसी ने अपना विप्लव एक “drop-out”  की तरह ही प्रारम्भ किया था, किन्तु उनके जीवन का अन्त एक हिप्पी के रूप में नहीं, बल्कि एक मानवजाति के सच्चे नेता की तरह हुआ। जो अपने लिए धनी होने के कारण किसी भी प्रकार का विशेषाधिकार नहीं चाहते थे। उन्होंने युवावस्था में अपनी क्रांति का प्रारम्भ अपने पिता के भौतिकवादी मानसिकता का हिप्पियों की तरह नग्न होकर नकारात्मक विरोध किया था, किन्तु वे क्रमशः चरित्र-निर्माण की सकारात्मक पद्धति को सीखकर अपना आध्यात्मिक जीवन गठित कर लिया था। इसीलिए अर्नाल्ड टायनबी कहते हैं - मैं हिप्पी-आंदोलन के ऊपर अभी कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं दूंगा, मैं इस आंदोलन की परिणीति को देखने के बाद ही हिप्पी युवाओं के विषय में कुछ कहूँगा।
हम यह नहीं जानते कि ऐसा कहते समय उनके मन में विवेकानन्द (या नवनी दा?) का नाम था या नहीं, किन्तु हमलोग यह निश्चित रूप से जानते हैं कि हमारे युग के इस प्रकार के एक रूढ़िमुक्त वैगाबॉन्ड (बोहेमियन, खाना बदोश या घुमक्कड़) दल के मार्गदर्शक नेता थे स्वामी विवेकानन्द ! ( আমাদের যুগে এমন এক ছন্নছাড়া গোষ্ঠীর পুরোধা ছিলেন স্বামী বিবেকানন্দ' जैसे हमारे युग में, रूढ़िमुक्त
 वैगाबॉन्ड दल के मार्गदर्शक नेता,आध्यात्मिक- क्रांति के अग्रदूत का नाम था- नवनी दा!) जो न केवल अपने समाज में एक क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के प्रति दृढ़ संकल्प थे, बल्कि भारत के सभी युवाओं के विचार-जगत में एक क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के लिए कृतसंकल्प थे। और यही एक नई क्रांति -चरित्र-निर्माण आंदोलन की शुरुआत भी है।
स्वामी विवेकानन्द ने भावी नेताओं अपने क्रमानुयायीओं या सक्सेसर्स का आह्वान करते हुए कहा था , " बाह्य रूपों तथा अवस्था में कभी साम्य प्राप्त नहीं हो सकता। किन्तु विशेषाधिकार के लालच को हमलोग अवश्य हटा सकते हैं। सारे संसार के समक्ष वास्तव में यही कार्य है। प्रत्येक कौम और प्रत्येक देश के सामाजिक जीवन का एकमात्र संग्राम यही है । युगों -युगों से धर्म और नैतिकता का लक्ष्य इसी विशेषाधिकार के लोभ को नष्ट करना रहा है। सृष्ट जगत की स्वाभाविक विविधताओं को नष्ट किये बिना, साम्य-प्राप्ति और एकत्वबोध की दिशा में अग्रसर होते रहना ही हमलोगों का (महामण्डल  नेताओं का 'छन्न छाड़ा गोष्टी के पुरोधाओं'  का) एकमात्र कार्य है " यहीं पर अध्यात्मिक क्रांति की दृष्टि से विवेकानन्द की सकारात्मक कार्य पद्धति-'BE AND MAKE' में सृजन की  खोज दिखाई देती है। जड़वादियों के इन्कलाब और अध्यात्मवादियों की क्रांति में यही अंतर है कि वे अपने लिये कोई विशेषाधिकार नहीं चाहते ! संस्कृत के कवि भास बहुत सुंदर ढंग से कहते हैं- 
 'प्राज्ञस्य मूर्खस्य च कार्ययोगे, 
 समत्वम् अभ्येति तनुः न बुद्धिः||' 
-अर्थात ज्ञानी और मूर्ख मनुष्य के कर्म करने में शरीर तो एक जैसा रहता है, परन्तु बुद्धि में भिन्नता रहती है। जब कोई कार्य किसी प्राज्ञ या मूर्ख व्यक्ति के द्वारा सम्पादित होता है, तो बाहर से देखने पर उसमें कोई अंतर नहीं रहता। किन्तु बुद्धि या विचार की दृष्टि से देखा जाय तो - एक विशेषाधिकार पाने या बॉसिज्म की इच्छा से कर्म करता है, और दूसरा आध्यात्मिक साम्य में स्थापित रहने की इच्छा से, दोनों के बीच बहुत अधिक अंतर होता है।

स्वामी विवेकानन्द के मन में मुक्ति  की परिकल्पना बहुत व्यापक थी। वे सम्पूर्ण मानव जाति के लिये राजनैतिक, सामाजिक, बौद्धिक, और आध्यात्मिक मुक्ति उपलब्ध करना चाहते थे। इसीलिये १९२९ ई ० में हुगली जिला छात्र सम्मेलन के अध्यक्षीय भाषण में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने कहा था- "राममोहन के युग से लेकर भारत की स्वाधीनता प्राप्त करने की आकांक्षा, विभिन्न आंदोलनों के माध्यम से क्रमशः प्रकटित होती आ रही है। उन्नीसवीं शताब्दी में मुक्ति की यह आकांक्षा व्यक्ति के विचार-जगत और समाज के भीतर तो दिखाई देती थी, किन्तु उस समय भी राष्ट्रिय क्षेत्र में दिखाई नहीं देती थी - क्योंकि उस समय पराधीनता के मोहनिद्रा में निमग्न भारत-वासी, ऐसा समझते थे कि अंग्रजों का भारत पर विजय प्राप्त करना एक दैवी घटना या ईश्वरीय विधान (divine dispensation) है। स्वाधीनता के अखण्ड रूप का आभास, उन्नीसवीं शताब्दी के अंत, तथा बीसवीं शताब्दी के आरंभ में- "रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा" (के लीडरशिप ट्रेनिंग) में प्राप्त होता है। स्वामीजी का यह सन्देश - 'Freedom, freedom is the song of the soul' - जब ('निर्झरेर स्वप्नभंग' की तरह) स्वामीजी के हृदय के बन्द दरवाजे को भेदन करके प्रकट हुआ उस समय वह समग्र देशवासी को मंत्रमुग्ध और उत्साहित बना दिया था। उनकी साधना (निर्विकल्प समाधि का त्याग) के माध्यम से, आचरण के माध्यम से एवं व्याख्यानों के माध्यम से यही सत्य प्रकट हुआ था। स्वामी विवेकानन्द जहाँ एक ओर, ' मनुष्य को समस्त प्रकार के बन्धनों से स्वाधीन होकर (प्रकृति के मोहजाल से भ्रम-मुक्त या डी-हिप्नोटाइज्ड होकर) यथार्थ मनुष्य (ब्रह्मवेत्ता) बनने का आह्वान करते हैं, उसी प्रकार सर्वधर्म समन्वय (नवनी दा-अविरोध) के प्रचार द्वारा भारत की राष्ट्रीय-एकता की बुनियाद को भी स्थापित कर देते हैं। "

इसीलिये बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में ' राजद्रोह जाँच समीति ' (Sedition Committee) के रिपोर्ट में लिखा गया था कि भारत के क्रांतिकारियों के पाठ्यक्रम या सिलेबस में मैजनी, गैरीबाल्डी की जीवनी के साथ भगवद-गीता और विवेकानन्द-साहित्य भी पढ़ाये जाते थे। ढाका के जेल में क्रांतिकारी हरिकुमार से तात्कालीन बंगाल के राज्यपाल लार्ड रोनाल्डशे (१९१७ - १९२२) ने पूछा था-" क्या आप कहीं विवेकानन्द के अनुयायी और वेदान्ती तो नहीं हैं ? " विवेकानन्द को विपिन चन्द्र पाल  ' राष्ट्रवाद का प्रवक्ता ' कहते थे। दूसरे लोग उनको 'भारत का रूशो ' के नाम से संबोधित करते थे। अरविन्द ने लिखा था, " दक्षिणेश्वर की मिट्टी से डायनामाईट का निर्माण हुआ था।" शायद इसीलिये,जब अरविन्द को बम बनाने के मुकदमे में 'ग्रे-स्ट्रीट' के निवास से गिरफ्तार किया गया, उस समय तलाशी में पुलिस को वहाँ से केवल एक ही सन्देहास्पद पुड़िया प्राप्त हुई,पुलिस को लगा कि उसमें कोई बिस्फोटक पदार्थ रखा हुआ है। अरविन्द ने हँसी करके बाद में लिखा था, " पुलिस का सन्देह गलत नहीं था, क्योंकि पुड़िया बांध कर ताखे में जो रखा हुआ था, वह वास्तव में बिस्फोटक पदार्थ तो था ही। क्योंकि उसमें दक्षिणेश्वर की थोड़ी सी मिट्टी रखी हुई थी।" 
स्वामी विवेकानन्द के भीतर अध्यात्मिक-क्रांति का बीज था इसीलिये यह सब सम्भव हो सका था। (उनमें नेतागिरी के विशेषाधिकार उन्मूलन करने सक्षम निर्विकल्प-समाधी जन्य विवेकज ज्ञान-बीज सन्निहित था, इसीलिये  ये सब संभव हो सका था।)  इसीलिये  विवेकानन्द ने आह्वान किया था- "लाखों स्त्री-पुरुष पवित्रता के अग्निमन्त्र से दीक्षित होकर, भगवान के प्रति अटल विश्वास से शक्तिमान बनकर और गरीबों, पतितों तथा पददलितों के प्रति सहानुभूति से सिंह के समान साहसी बनकर इस सम्पूर्ण भारत देश में सर्वत्र उद्धार के सन्देश का, सेवा के सन्देश का, सामाजिक उत्थान के सन्देश का, समानता (विशेषाधिकार उन्मूलन) के सन्देश का प्रचार करते हुए विचरण करेंगे। "उठो जागो ! क्योंकि तुम्हारी मातृभूमि इसी महाबली की प्रार्थना कर रही है। " 
किन्तु इस अध्यात्मिक क्रांति का मार्ग पर चलना, छुरे की तीक्ष्ण धार पर चलने के समान दुर्गम है। यदि भारत का युवा-वर्ग व्यवस्था में परिवर्तन लाना चाहते हों, तथा समाज से गन्दगी को दूर करने के लिये दृढ़ संकल्प हों, तथा इस नई आध्यात्मिक-क्रांति से प्रेम करने का साहस (कच्चे मैं को जीतेजी मरते देखने का साहस) रखें, तब उन्हें भी अपनी मानवीय सम्भावना का विकास और अभिव्यक्ति,  स्वयं भ्रम-मुक्त होने और दूसरों को भी भ्रम-मुक्त करने की आंतरिक प्रेरणा प्राप्त होगी।  इस मार्ग पर चलने का एकमात्र संबल है, विवेकानन्द निर्देशित 'मनुष्यत्व -उन्मेषक और चरित्र निर्माणकारी शिक्षा।' [ नवनी दा निर्देशित ५ अभ्यास का प्रशिक्षण
चरित्र ही इस क्रांति  का एकमात्र हथियार है; और इस आध्यात्मिक-क्रन्तिकारी को पूरी निर्दयता के साथ उस क्रांति की चोट दूसरों पर नहीं अपने आप पर (विशेषाधिकार उन्मूलन हेतु ) करना होगा। यदि भारत  के युवा अपने चरित्र में क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकें, तभी उनके द्वारा समाज में परिवर्तन लाना संभव होगा। अन्यथा जड़वादी इन्कलाब का भोथरा तलवार निष्फल होकर किसी न किसी दिन वापस उन्हीं के ऊपर गिरेगा । जो लोग त्याग और सेवा के माध्यम से अपना चरित्र गठन करते हैं, केवल वैसे ही लोग ' अध्यात्मिक क्रांति की पताका ' (महामण्डल का वज्रांकित ध्वज) के नीचे एकत्र हो सकते हैं। 
आज भारत को जिस चीज की घोर आवश्यकता है, वह है चरित्र ! चरित्र-निर्माण आंदोलन ही समाज के पतन और वैषम्य को दूर कर सकता है। विशेषाधिकार और शोषण को समाप्त कर सकता है। समानता और न्याय तथा परस्पर सौहार्द को स्थापित कर सकता है। आज भारत की स्वाधीनता का 27 वर्षों बाद (यह लेख 1974 में  प्रकाशित हुआ था) टायनबी उल्लेखित पुराने ढंग की (हिप्पी) क्रांति का प्रयोजन समाप्त हो गया है। आज आवश्यकता है एक नये ढंग की क्रांति की। अराजक विभत्सता (नक्सलवाद -आतंकवाद)  में गोली खाकर मर जाने से भी कठिनतर है अपने संयमित उत्तेजनाहीन जीवन को गढ़ते हुए- देश को गढना ! ' मृत्यु हो जाने तक, यह जीवन (नवनी दा का?) दुःख की तपस्या मात्र है! इस सत्य-पथ पर चलना अत्यन्त कठिन है; किन्तु इसे समझ-बूझ कर ही, मैंने ' कठिनतर ' से प्यार किया है।" 
जीवन में कर्तव्य कठोर हैं,
सुखों के पंख लग गये हैं,

मंजिल दूर, धुँधली सी झिलमिलाती है,
फिर भी अन्धकार को चीरते हुए बढ़ जाओ,

अपनी पूरी शक्ति और सामर्थ्य के साथ !
हे वीरात्मन,तुम्हारे उत्तराधिकारी अवश्य जन्मेंगे,

यह भीड़ सही बातें देर से समझती है,
तो भी चिन्ता न करो, मार्ग-प्रदर्शन करते जाओ।

तुम्हारा साथ वे देंगे, जो दूरदर्शी हैं,
तुम्हारे साथ शक्तियों का स्वामी है,

आशीषों की वर्षा होगी तुम पर,
ओ महात्मन, तुम्हारा सर्वमंगल हो !

"वेदान्ती नैतिकता का यही सारांश है-सबके प्रति साम्य । हम देख चुके हैं कि वह अन्तर्जगत है, जो बाह्य जगत पर शासन करता है। विषयी को परिवर्तित करो, विषय भी परिवर्तित हो जायेगा। स्वयं को शुद्ध कर लो और संसार का विशुद्ध होना अवश्यम्भावी है। लोग बदल जाएँ, तो जगत भी बदल जायेगा। 'हम बदलेंगे युग बदलेगा '- पहले के किसी समय से अधिक आजकल इस एक बात की शिक्षा देने की आवश्यकता है। क्योंकि हमलोग अभी अपने विषय में उतरोत्तर कम और अपने पड़ोसियों के विषय में क्रमशः अधिक व्यस्त होते जा रहे हैं।  यदि हम परिवर्तित होते हैं, तो संसार परिवर्तित हो जायेगा; यदि हम निर्मल हैं, तो संसार निर्मल हो जायेगा। " ९/१०२ 
 [मनुष्य को आध्यात्मिक मनुष्य में परिवर्तित करने वाले आध्यात्मिक क्रांति का सूत्रपात नवनीदा ने  महामण्डल का लीडरशिप ट्रेनिंग द्वारा;'निर्झरेर स्वप्नभंग' (disillusioned) डी-हिप्नोटाइज्ड, भ्रम-मुक्त नेता के रूप में नवनी दा ने अपने हृदय के प्रेम मन्दाकिनी को 'जीवन के हर मोड़ पर',सभी युवाओं के जीवन-गठन का सूत्र, भारत-निर्माण का सूत्र , मनुष्य जीवन के उद्देश्य, सार्थकता का सूत्र -" BE AND MAKE " का प्रचार- प्रसार करते हुए किया था। उन्होंने आजीवन अपनी शारीरिक, मानसिक, धन-संपत्ति से परिपूर्ण, श्रेष्ठ ब्राह्मण वंश और खड़दह के श्री हर्ष के कुल और भुवन-भवन में जन्म ग्रहण करने के बावजूद, अथवा सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक ज्ञानी होने के आधार पर, कभी किसी प्रकार के विशेषाधिकार का कोई दावा नहीं किया था ! नवनी कहते थे - ’'कम आउट फ्रॉम दी हिप्नोटाइज्ड स्टेट ऑफ़ माइंड, फ्रॉम द हर्ड ऑफ़ शिप्स; एंड स्टैंड अलोन लाइक अ लॉयन! लाइक अ ट्रू लीडर ऑफ़ मैनकाइंड !  उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ! महामण्डल के वार्षिक युवा प्रशिक्षण में भ्रम-मुक्त होकर 'भेंड़' से 'शेर' बनने के ५ अभ्यास का प्रशिक्षण देने में सक्षम कम से कम १००० मानवजाति के सच्चे मार्गदर्शक 'नेता बनो और बनाओ',उसके पहले विश्राम मत लो !--यही है नवनी दा  के नव-विप्लव का आह्वान ! ]
(पूज्य नवनी दा के शरीर त्याग देने के बाद) इस नई आध्यात्मिक क्रांति की रण-गर्जना -' छन्न छाड़ा गोष्ठी- के पुरोधा बनो और बनाओ' को अपने हृदय से श्रवण (मनन -निदिध्यासन) करो!-
[শিয়রে শমন, = in extermis, काली के हाथ में सिर काटने वाली भीम-कृपाण  को देखकर
মরণোন্মুখ, মুমূর্ষ, মরোমরো, মৃত্যুর দ্বারপ্রান্তে স্থিত। Extermis, = आख़िर में मरणोन्मुख होते समय, इस क्षण और मृत्यु के ठीक एक क्षण पहले,  मौत के कगार पर पहुँचकर विवेकज ज्ञान का अनुभव करो ! जान लो तुम कभी मरोगे नहीं !]  
'उठो उठो, महातरङ्ग आ रहा है ! निर्झर के स्वप्न को भंग करो ! 
[उस महातरङ्ग में इस अहं-बिन्दु के विध्वंश (extermination) को देखकर डरो मत ! ]   
स्वयं को विसम्मोहित करो ! 
জাগো বীর, ঘুচায়ে স্বপন, শিয়রে শমন,  ভয় কি তোমার সাজে?
পূজা তাঁর সংগ্রাম অপার, সদা পরাজয় তাহা না ডরাক তোমা।

' जागो वीर ! सदा ही सिर पर काट रहा है चक्कर काल। 
छोड़ो अपने सपने, भय क्यों ? काटो-काटो यह भ्रमजाल ।।

फोड़ो वीणा प्रेमसुधा का पीना छोड़ो, तोड़ो वीर ।
दृढ़ आकर्षण है जिसमें उस नारी-माया की जंजीर।। 

 सदा घोर संग्राम छेड़ना उनकी पूजा के उपचार।
वीर ! डराये कभी न, आये पराजय सौ सौ बार।।

चूर चूर हो स्वार्थ, साध, सब मान, हृदय हो महाश्मशान।
            नाचे उस पर श्यामा, लेकर घन रण में निज भीम कृपाण ।।   ' 9/335
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गुरुवार, 24 नवंबर 2016

स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [5] 'स्वामीजी के प्रति-सच्ची श्रद्धांजलि ' (व्यक्ति और मन),

'क्या स्वामी विवेकानन्द के उपदेश केवल दूसरों को सुनाने के लिये हैं,
स्वयं करने के लिये नहीं?'  
प्रत्येक वर्ष के प्रथम मास (month) - जनवरी को स्वामी विवेकानन्द के आविर्भाव का महीना के रूप में जाना जाता है। इस महीने में हमलोग स्वामीजी की पूजा-अर्चना करते हैं, सभा-सम्मेलन का आयोजन करके स्वामीजी के प्रति अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हैं। एकबार फिर हम सभी लोग सर्वत्यागी परिव्राजक स्वामी विवेकानन्द के उपदेशों का स्मरण करते हैं। विश्व-महासभा में भारत के महान विचारों की वज्र-गर्जना के रोमान्च का अनुभव करते हैं। एक बार पुनः स्वीकार करते हैं कि स्वामीजी सचमुच भारत-प्रेमी थे, वे सचमुच उन लोगों- जो शताब्दियों से दबे-कुचले और पद-दलित होते आ रहे हैं, से गहरी सहानुभूति रखते थे। वैसे तो स्वामी जी मनुष्य मात्र से प्रेम करते थे, किन्तु यदि हम बंगला भाषी भी हों तो, तो इस बात पर थोड़ा गर्व भी महसूस करते हैं, कि स्वामीजी भी हमारे बंगाल के ही थे।
यदि व्यक्तिगत रूप से पूछा जाय तो भारत-भूमि पर जन्मा कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिलेगा जो स्वामीजी के प्रति श्रद्धा के दो शब्द नहीं कहता हो। किन्तु समय के पहिये की घड़घड़ाहट में हमलोगों के इस क्षणिक स्मरण-मनन से उत्पन्न उत्साह का ज्वार, शीघ्र ही विस्मृति के समुद्र में विलीन हो जाता है। हम यदि अपने व्यक्तिगत जीवन पर दृष्टि डालें, अपने पारिवारिक-जीवन के क्रियाकालापों पर दृष्टिपात करें,अपने समष्टि जीवन अर्थात सामाजिक जीवन या राष्ट्रिय-जीवन की ओर देखें, या उनकी ओर देखें जो लोग हमारे जीवन को परिचालित कर रहे हैं, जो हमारे लिये नीतियाँ और परियोजनायें बनाते हैं, तो हम पाते हैं कि इस महीने में आयोजित होने वाले सभा-सम्मेलनों में हमलोग जो कुछ भी कहते हैं, या सामयिक लेखों में हम अपने जिन विचारों का उल्लेख करते हैं, उन विचारों के साथ अपने यथार्थ जीवन में कोई सामंजस्य नहीं दिखता है। 
ऐसा प्रतीत होता है मानो (स्वामीजी के उपदेश) 'केवल बोलने के लिये हैं, करने के लिये नहीं। ' और बोलने के लिये तो केवल कुछ पुस्तकों के कुछ पन्नों को एक बार फेंट लेना ही यथेष्ट होता है। किन्तु करने में बहुत तकलीफ होती है। स्वामीजी ने हमलोगों के इस बड़े राष्ट्रिय दोष को बहुत पहले ही देखकर हमलोगों को सतर्क कर दिया था। फिर भी इस दोष को हटाने के लिये हमलोग अपने कदम आगे क्यों नहीं बढ़ा पाते हैं?

इसके पीछे दो कारण हो सकते हैं। पहला, स्वामीजी ने क्या किया था- इस बारे में थोड़ी जानकारी रखने पर भी, हमलोग इस बात पर विशेष ध्यान नहीं देते, कि वे हमसे क्या अपेक्षा रखते थे ? इसका एक कारण यह है कि हमारी शिक्षा पद्धति में बहुत निचली कक्षा के एक-दो परहितव्रती शिक्षकों से स्वामीजी की कुछ कहानियाँ सुन लेने से अधिक कुछ सिखलाने की व्यवस्था है ही नहीं। इसीलिये हमलोग केवल इतना जानते हैं कि स्वामीजी के विषय में बोलते समय उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त करना हमारा कर्तव्य है; किन्तु अपने जीवन को समर्पित करके स्वामीजी के प्रति अपनी श्रद्धा को अभिव्यक्त करना हम अपना उत्तरदायित्व नहीं समझते हैं। और दूसरा कारण यह है, कि यदि हममें से कुछ व्यक्ति (चाहे व्यक्तिगत जीवन में हो, या राष्ट्रीय जीवन में) इस बात को थोड़ा-बहुत समझ भी लेते हैं कि स्वामीजी हमसे किस बात की अपेक्षा रखते थे, तो वे भी ' समझ नहीं सके हैं ' का बहाना बनाकर उनके उपदेशों को अपने जीवन में धारण करने से बचना चाहते हैं! क्योंकि हम कहीं यह कह दें कि हमने तो यह समझ लिया की वे हमसे यथार्थ मनुष्य बनने और बनाने की अपेक्षा रखते थे। तो फिर उस उत्तरदायित्व का निर्वहन करने के लिये हमें भी अपने समस्त व्यक्तिगत स्वार्थ और लाभ के स्वप्न को त्याग देना होगा ? बस इसी बात को याद करके, हमलोग उनका सच्चा अनुयायी बनने के भय से शिहर उठते हैं, और अपने जीवन को सार्थक करने के कर्तव्य से पलायन कर जाते हैं।
भला ऐसा क्यों होता है, हमलोग स्वयं अपने जीवन को सार्थक क्यों नहीं करना चाहते हैं ? स्वामीजी ने इसका कारण भी बता दिया था। मनुष्य की ढेरों स्वाभाविक प्रवृत्तियों में से एक है- जड़ता, सदैव स्थिर-अवस्था में अचल होकर ' जड़-पिण्डों ' के समान पड़े रहने की प्रवृत्ति। जो मनुष्य अभी जैसा है,वह वैसा ही बने रहना चाहता है। किन्तु स्वामीजी का अनुयायी बनने के लिये इस भाव का बिल्कुल ही परित्याग कर देना होता है। उनके भाव से अनुप्रेरित होने के लिये - ' मैं पिछले वर्ष जैसा था, इस वर्ष भी वैसा ही रहूँगा ' के भाव को बिलकुल छोड़ देना होता है। क्योंकि उनके अनुयायी के लिये-कल तक वह जितना मनुष्य बन सका था, आज भी उतना ही (लघु) मनुष्य बना रह पाना संभव ही नहीं होता है। इतना ही नहीं, इसके पहले क्षण मैं जो था, इस क्षण भी ठीक वैसा ही बने रहना संभव नहीं रह जाता। मुझको तो प्रतिमुहूर्त उन्नततर मनुष्य बनते रहना पड़ता है। 
[इसीलिये नवनी दा कहते थे - 
आलस्यं  हि  मनुष्याणां  शरीरस्थो  महान  रिपुः |
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा Sयम् नाSवसीदति  ||
सुखार्थी  वा  त्यजेत विद्याम्   विद्यार्थी वा त्यजेत सुखम्  |
सुखार्थिनः  कुतो  विद्या  कुतो  विद्यार्थिनः  सुखम्  ||

क्योंकि (१९८५ में विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर, गुरु खोजने १९८६ में हरिद्वार कुम्भ का ज्ञान-और १६जनवरी-BH का ज्ञान, १९८७ बेलघड़ीया कैम्प, १०८८ प्रथम बिहार कैम्प) कोई सबसुख-दास मनुष्य कभी रामसुख-दास संत नहीं बन सकता ! अर्थात कोई सुखार्थी व्यक्ति कभी ब्रह्मविद मनुष्य या ब्रह्मवेत्ता मनुष्य नहीं बन सकता, क्योंकि ब्रह्म को जान विवेकज़-आनन्द (भूमा आनंद) में प्रतिष्ठित रहने की साधना, कभी ईज़ीगोइंग-प्रोसेस नहीं हो सकती -मनुष्य बनने और बनाने  के लिए ५ अभ्यास तो सभी को करना ही पड़ेगा।]  
शरीर का बड़ा होना, या बूढ़ा होकर पेंशन पाने लगना - यह कार्य तो प्रकृति द्वारा ही होता रहता है। इसके लिये मुझे स्वयं कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता है। किन्तु जब मैं अपने, शरीर को स्वस्थ और सबल तथा  मन को तेजस्वी बनाना चाहता हूँ या अपने हृदय को विशाल बनाना चाहता हूँ, उसको प्रसारित करना चाहता हूँ, तो इसमें मुझे स्वयं ही चेष्टा करनी पड़ती है; और यही मेरा कार्य है।
प्रति मुहूर्त अपने 'छोटा मैं'-बोध (या मिथ्या नाम-रूप केअहंकार) को निष्ठुरता के साथ त्याग करके 'बड़ा-मैं' (पाका आमी-ब्रह्मविद मनुष्य) बनने की चेष्टा करने को ही-स्वामीजी के भाव (आदर्श) को आचरण में उतारना कहते हैं ! जब हृदय के बन्द कपाट (अहं) को खोल कर, प्रेम-मन्दाकिनी प्रवाहित होने लगती है, तब उस निर्झर का मोह-भंग हो जाता है, उसका भ्रम चला जाता है, तब वह निर्झर मायाजाल से मुक्त हो जाता है, उसकी (कोई पराया नहीं -सभी अपने हैं, सभी में मैं ही हूँ ! के भाव में स्थित पुरुष की स्त्री-पुरुष-नपुंसक' समस्त भेदबुद्धि चली जाती है।), उसी अवस्था का चित्रण रवीन्द्रनाथ ठाकुर अपनी कविता  'निर्झरेर स्वप्नभंग' (নির্ঝরের স্বপ্নভঙ্গ) अर्थात 'निर्झर का डी-हिप्नोटाइज्ड हो जाना' में इस प्रकार करते हैं -'हेशे खोलखोल (खलखल) गेये कोलकोल (कलकल) ताले ताले दिबो ताली' (হেসে খলখল গেয়ে কলকল/তালে  তালে দিব তালি।) 
[आजि ऐ प्रभाते रविर कर/केमने पासिलो प्राणेर ‘पर /केमने पासिलो गुहार आंधारे/प्रभात पाखीर गान!/ना जानि केनोरे एतो दिन परे/जागिया उठिलो प्राण!/जागिया उठेछे प्राण, /उरे  उथलि उठेछे बारि,/उरे  प्राणेर वासना प्राणेर आवेग/रूधिया राखिते नारी।
(आज के इस प्रभात काल में सूर्य की किरणें/ प्राणों के भीतर कैसे प्रवेश कर गयीं?/ गुहा के अंधकार में प्रभात-पक्षी का गान कैसे समा गया?/ न जाने, इतने दिनों बाद प्राण क्योंकर जाग उठे हैं?/ प्राण जाग उठे हैं,/ अरे पानी उछल कर उमड़ पड़ा है। / अरे! प्राणों की वेदना, प्राणों के आवेग को रोक रखना संभव नहीं अब!)
“न जाने, आज क्या हुआ कि जाग उठे हैं प्राण
 मानो, कानों में पड़ा हो दूरस्थ महासागर का गान“।
আজি এ প্রভাতে রবির কর 
কেমনে পশিল প্রাণের পর, 
কেমনে পশিল গুহার আঁধারে প্রভাতপাখির গান! 
না জানি কেন রে এত দিন পরে জাগিয়া উঠিল প্রাণ। 
কেন রে বিধাতা পাষাণ হেন,
চারি দিকে তার বাঁধন কেন!
ভাঙ্ রে হৃদয়, ভাঙ্ রে বাঁধন,
সাধ্ রে আজিকে প্রাণের সাধন,
লহরীর 'পরে লহরী তুলিয়া
আঘাতের 'পরে আঘাত কর্।
भांग रे हृदय , भांग  रे बाँधोन 
शाध  रे ‍आजिके प्राणेर शाधोन 
लहरीर पोरे लहोरी तुलिया
अघातेर पोरे अघात कोर!
मातीया जोखोन उठेचे पोरान!
মাতিয়া যখন উঠেছে পরান
কিসের আঁধার, কিসের পাষাণ!
আজিকে করেছি মনে,
দেখিব না আর নিজেরি স্বপন
বসিয়া গুহার কোণে।
আমি       ঢালিব করুণাধারা,
আমি       ভাঙিব পাষাণকারা,
আমি       জগৎ প্লাবিয়া বেড়াব গাহিয়া
আকুল পাগল-পারা;

কেশ এলাইয়া, ফুল কুড়াইয়া,
রবির কিরণে হাসি ছড়াইয়া,
দিব রে পরান ঢালি।
शिखोर होईते शिखोरे छुटिबो
भूधोर होईते भूधोरे लुटिबो
हेशे खोलखोल गेये कोलकोल
ताले ताले दिबो ताली
শিখর হইতে শিখরে ছুটিব,
ভূধর হইতে ভূধরে লুটিব
হেসে খলখল গেয়ে কলকল
তালে  তালে দিব তালি।
इसी 'खिलखिला कर हँसते और कलकल ध्वनि' में बहती झरने की धारा में स्नान कर लेने के बाद (भेंड़त्व से डी-हिप्नोटाइज्ड होकर सिंहत्व में स्थित हो जाने के बाद) अपने छोटे छोटे सर्वस्व का त्याग करके (मैं और मेरा, या मन की चहार दिवारी को भी ट्रैन्सेन्ड 'transcend' करके हमलोग दूरस्थ महासागर या यथार्थ (शाश्वत) जीवन-समुद्र के सम्मुख खड़े हो जाते हैं ! इस मिथ्या अहं (छोटा मैं,देहाध्यास, M/F भाव ) को खो कर अपने यथार्थ स्वरूप या ब्रह्मत्व की प्राप्ति  (ससीम से असीम बनने या बून्द से सागर बनने) को हमें क्यों भयप्रद मानना चाहिए ? यह भय केवल अपनी जड़ावस्था को (आलस्य को) अचल रखने के दुराग्रहवश उत्पन्न होता है। इसीलिये स्वामीजी ने कहा था- 'गति ही जीवन है, स्थित ही मृत्यु।',  फिर कहते हैं- ' उठो, जागो ! अब और स्वप्न मत देखो ! ' (अपने को शरीर समझने की-देहाध्यास) घोर निद्रा को त्याग कर उठ खड़े होओ ! 
' चरैवेति चरैवेति '-जो आलस्य में सोया हुआ है, उसका कलिकाल चल रहा है, उठकर खड़े हो जाओ। खड़े हो गए हो, तो चलना शुरू कर दो, जो चलना शुरू कर देता है, उसके लिए सत्ययुग आ जाता है। यही स्वामीजी का संजीवनी- मन्त्र है, जो मृत जड़-पिण्डों में भी जान डाल सकता है।  स्वामीजी के आविर्भूत होने की तिथि का स्मरण करके हमलोग इस नव-जीवन प्रदायी मन्त्र ' चरैवेति चरैवेति '-में यदि दीक्षित न हो सकें, तो स्वामीजी के प्रति मौखिक श्रद्धा-सुमन चढ़ाने का कोई मोल नहीं है।
किन्तु केवल इतना ही काफी नहीं है। अपने जीवन-दीपक को प्रज्वलित करके दूसरों के जीवन को भी प्रज्वलित करा देने का प्रयत्न करना होगा। हम लोगों को ' सबों के जीवन से अपने जीवन को जोड़ कर देखना ' सीखना होगा। सभी युवाओं को व्यक्ति से पारिवारिक-जीवन में, पारिवारिक से सामाजिक-जीवन में, तथा इसी प्रकार राष्ट्रिय जीवन तक 'एक और अभिन्न ' बनते हुए आगे बढ़ने के मन्त्र में अनुप्राणित करना होगा। इस महा-जागरण की वाणी को भारत के खेतों-खलिहानों, कल-कारखानों, स्कुल-कालेजों, ऑफ़िस-अदालतों, व्यापारियों की गद्दीयों, राष्ट्र-चालकों के मसनदों (सत्ता की कुर्सी पर बैठे नेताओं ) तक, सर्वत्र फैला देना होगा। स्वामीजी सम्पूर्ण भारतवर्ष को पूर्ण रूप से जाग्रत कर देने के लिये ही आये थे। हमलोगों ने अभी तक स्वामीजी को इस रूप में देखना नहीं सीखा है। किन्तु हमलोगों को स्वयं उन्हें इसी रूप में देखना सीखना होगा और सबों को इसी दृष्टि देखने की पद्धति समझानी होगी।

स्वामीजी ने कहा था- 'भारत झोपड़ियों में वास करता है।' उसके जनसाधारण की उन्नति से ही भारत की उन्नति होगी। भारत को उठने के लिये (महान बनने के लिये) यहाँ की साधारण जनता, जो पीछे रह गए हैं, उन्हें ऊपर उठाना होगा (उन्हें वेदान्त के महावाक्यों सेअनुप्राणित करना होगा।) वे कहते थे - " माना कि तूँ  उन सबों को उपर नहीं उठा सकता, किन्तु तुम उनके कानों तक इस महा-जीवन की वाणी को पहुंचा तो अवश्य सकता है।"

 मानव-मात्र के भीतर अनन्त शक्ति अन्तर्निहित है। उस शक्ति के जाग्रत होते ही, वह किसी के भी दबाने से दबेगा नहीं, अप्रतिरोध्य बन जायेगा। तब वह अपने अधिकार को जानने के साथ साथ अपने उत्तरदायित्व को भी जान लेगा। प्रत्येक मनुष्य जब इस बोध को प्राप्त करके अपने पैरों पर खड़ा हो जायेगा, सिर उठाकर चलने लगेगा, अपने निजी सुख-भोग को तुच्छ समझ कर दूसरों के लिये अपने जीवन को भी न्योछावर कर देने में नहीं हिचकेगा, तभी भारत जाग जायेगा।
जो (प्रक्रिया-५ अभ्यास ) इस नवजीवन को जाग्रत करके उसे धारण किये रहती हो, वही है स्वामीजी का धर्म। इस धर्म को हम अफीम का नशा नहीं कह सकते। जिस आलस्य रूपी अफीम को खाकर हमलोग घोर सुषुप्ति की अचेत अवस्था में सोये पड़े हैं, उस निद्रा को त्याग कर उठ जाने के लिए ही स्वामीजी हमें पुकार रहे हैं। प्रत्येक छात्र, प्रत्येक युवक को उनका यह आह्वान पहले स्वयं समझना होगा, फिर दूसरों को भी समझाना होगा। देश की सम्पूर्ण  राष्ट्रीय-व्यवस्था को इस समझाने के दायित्व का निर्वहन करना होगा। "स्वामीजी बड़े महान थे", यह कहकर भाषण देने से, या समाचार-पत्र में छोटा सा लेख लिखकर श्रद्धांजली देने से ही देश आगे नहीं बढ़ेगा। भारतवर्ष अभी तक जितना भी सिर उठाकर खड़ा होने में समर्थ हुआ है, वह स्वामीजी के उसी मन्त्र -  ' चरैवेति चरैवेति ' से हुआ है, जिसे हमने भुला दिया है। 
उनका जो आह्वान हमलोगों के व्यक्तिगत  और सामाजिक जीवन को महाजीवन प्रदान करने में समर्थ है, उसको अस्वीकार करके, उसकी उपेक्षा करके हमलोग उनके अमर सन्देश ' Be and Make ' रूपी रतन को खो देंगे ? यदि हम इसे खोयें नहीं, यदि उनके इस सन्देश के उचित मूल्य को समझकर उन्हें प्रत्येक युवा अपना आदर्श माने तभी उनके आविर्भूत होने की तिथि पर उनको श्रद्धांजली देना सार्थक होगा। 
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