कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 24 नवंबर 2016

स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [5] 'स्वामीजी के प्रति-सच्ची श्रद्धांजलि ' (व्यक्ति और मन),

'क्या स्वामी विवेकानन्द के उपदेश केवल दूसरों को सुनाने के लिये हैं,
स्वयं करने के लिये नहीं?'  
प्रत्येक वर्ष के प्रथम मास (month) - जनवरी को स्वामी विवेकानन्द के आविर्भाव का महीना के रूप में जाना जाता है। इस महीने में हमलोग स्वामीजी की पूजा-अर्चना करते हैं, सभा-सम्मेलन का आयोजन करके स्वामीजी के प्रति अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हैं। एकबार फिर हम सभी लोग सर्वत्यागी परिव्राजक स्वामी विवेकानन्द के उपदेशों का स्मरण करते हैं। विश्व-महासभा में भारत के महान विचारों की वज्र-गर्जना के रोमान्च का अनुभव करते हैं। एक बार पुनः स्वीकार करते हैं कि स्वामीजी सचमुच भारत-प्रेमी थे, वे सचमुच उन लोगों- जो शताब्दियों से दबे-कुचले और पद-दलित होते आ रहे हैं, से गहरी सहानुभूति रखते थे। वैसे तो स्वामी जी मनुष्य मात्र से प्रेम करते थे, किन्तु यदि हम बंगला भाषी भी हों तो, तो इस बात पर थोड़ा गर्व भी महसूस करते हैं, कि स्वामीजी भी हमारे बंगाल के ही थे।
यदि व्यक्तिगत रूप से पूछा जाय तो भारत-भूमि पर जन्मा कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिलेगा जो स्वामीजी के प्रति श्रद्धा के दो शब्द नहीं कहता हो। किन्तु समय के पहिये की घड़घड़ाहट में हमलोगों के इस क्षणिक स्मरण-मनन से उत्पन्न उत्साह का ज्वार, शीघ्र ही विस्मृति के समुद्र में विलीन हो जाता है। हम यदि अपने व्यक्तिगत जीवन पर दृष्टि डालें, अपने पारिवारिक-जीवन के क्रियाकालापों पर दृष्टिपात करें,अपने समष्टि जीवन अर्थात सामाजिक जीवन या राष्ट्रिय-जीवन की ओर देखें, या उनकी ओर देखें जो लोग हमारे जीवन को परिचालित कर रहे हैं, जो हमारे लिये नीतियाँ और परियोजनायें बनाते हैं, तो हम पाते हैं कि इस महीने में आयोजित होने वाले सभा-सम्मेलनों में हमलोग जो कुछ भी कहते हैं, या सामयिक लेखों में हम अपने जिन विचारों का उल्लेख करते हैं, उन विचारों के साथ अपने यथार्थ जीवन में कोई सामंजस्य नहीं दिखता है। 
ऐसा प्रतीत होता है मानो (स्वामीजी के उपदेश) 'केवल बोलने के लिये हैं, करने के लिये नहीं। ' और बोलने के लिये तो केवल कुछ पुस्तकों के कुछ पन्नों को एक बार फेंट लेना ही यथेष्ट होता है। किन्तु करने में बहुत तकलीफ होती है। स्वामीजी ने हमलोगों के इस बड़े राष्ट्रिय दोष को बहुत पहले ही देखकर हमलोगों को सतर्क कर दिया था। फिर भी इस दोष को हटाने के लिये हमलोग अपने कदम आगे क्यों नहीं बढ़ा पाते हैं?

इसके पीछे दो कारण हो सकते हैं। पहला, स्वामीजी ने क्या किया था- इस बारे में थोड़ी जानकारी रखने पर भी, हमलोग इस बात पर विशेष ध्यान नहीं देते, कि वे हमसे क्या अपेक्षा रखते थे ? इसका एक कारण यह है कि हमारी शिक्षा पद्धति में बहुत निचली कक्षा के एक-दो परहितव्रती शिक्षकों से स्वामीजी की कुछ कहानियाँ सुन लेने से अधिक कुछ सिखलाने की व्यवस्था है ही नहीं। इसीलिये हमलोग केवल इतना जानते हैं कि स्वामीजी के विषय में बोलते समय उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त करना हमारा कर्तव्य है; किन्तु अपने जीवन को समर्पित करके स्वामीजी के प्रति अपनी श्रद्धा को अभिव्यक्त करना हम अपना उत्तरदायित्व नहीं समझते हैं। और दूसरा कारण यह है, कि यदि हममें से कुछ व्यक्ति (चाहे व्यक्तिगत जीवन में हो, या राष्ट्रीय जीवन में) इस बात को थोड़ा-बहुत समझ भी लेते हैं कि स्वामीजी हमसे किस बात की अपेक्षा रखते थे, तो वे भी ' समझ नहीं सके हैं ' का बहाना बनाकर उनके उपदेशों को अपने जीवन में धारण करने से बचना चाहते हैं! क्योंकि हम कहीं यह कह दें कि हमने तो यह समझ लिया की वे हमसे यथार्थ मनुष्य बनने और बनाने की अपेक्षा रखते थे। तो फिर उस उत्तरदायित्व का निर्वहन करने के लिये हमें भी अपने समस्त व्यक्तिगत स्वार्थ और लाभ के स्वप्न को त्याग देना होगा ? बस इसी बात को याद करके, हमलोग उनका सच्चा अनुयायी बनने के भय से शिहर उठते हैं, और अपने जीवन को सार्थक करने के कर्तव्य से पलायन कर जाते हैं।
भला ऐसा क्यों होता है, हमलोग स्वयं अपने जीवन को सार्थक क्यों नहीं करना चाहते हैं ? स्वामीजी ने इसका कारण भी बता दिया था। मनुष्य की ढेरों स्वाभाविक प्रवृत्तियों में से एक है- जड़ता, सदैव स्थिर-अवस्था में अचल होकर ' जड़-पिण्डों ' के समान पड़े रहने की प्रवृत्ति। जो मनुष्य अभी जैसा है,वह वैसा ही बने रहना चाहता है। किन्तु स्वामीजी का अनुयायी बनने के लिये इस भाव का बिल्कुल ही परित्याग कर देना होता है। उनके भाव से अनुप्रेरित होने के लिये - ' मैं पिछले वर्ष जैसा था, इस वर्ष भी वैसा ही रहूँगा ' के भाव को बिलकुल छोड़ देना होता है। क्योंकि उनके अनुयायी के लिये-कल तक वह जितना मनुष्य बन सका था, आज भी उतना ही (लघु) मनुष्य बना रह पाना संभव ही नहीं होता है। इतना ही नहीं, इसके पहले क्षण मैं जो था, इस क्षण भी ठीक वैसा ही बने रहना संभव नहीं रह जाता। मुझको तो प्रतिमुहूर्त उन्नततर मनुष्य बनते रहना पड़ता है। 
[इसीलिये नवनी दा कहते थे - 
आलस्यं  हि  मनुष्याणां  शरीरस्थो  महान  रिपुः |
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा Sयम् नाSवसीदति  ||
सुखार्थी  वा  त्यजेत विद्याम्   विद्यार्थी वा त्यजेत सुखम्  |
सुखार्थिनः  कुतो  विद्या  कुतो  विद्यार्थिनः  सुखम्  ||

क्योंकि (१९८५ में विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर, गुरु खोजने १९८६ में हरिद्वार कुम्भ का ज्ञान-और १६जनवरी-BH का ज्ञान, १९८७ बेलघड़ीया कैम्प, १०८८ प्रथम बिहार कैम्प) कोई सबसुख-दास मनुष्य कभी रामसुख-दास संत नहीं बन सकता ! अर्थात कोई सुखार्थी व्यक्ति कभी ब्रह्मविद मनुष्य या ब्रह्मवेत्ता मनुष्य नहीं बन सकता, क्योंकि ब्रह्म को जान विवेकज़-आनन्द (भूमा आनंद) में प्रतिष्ठित रहने की साधना, कभी ईज़ीगोइंग-प्रोसेस नहीं हो सकती -मनुष्य बनने और बनाने  के लिए ५ अभ्यास तो सभी को करना ही पड़ेगा।]  
शरीर का बड़ा होना, या बूढ़ा होकर पेंशन पाने लगना - यह कार्य तो प्रकृति द्वारा ही होता रहता है। इसके लिये मुझे स्वयं कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता है। किन्तु जब मैं अपने, शरीर को स्वस्थ और सबल तथा  मन को तेजस्वी बनाना चाहता हूँ या अपने हृदय को विशाल बनाना चाहता हूँ, उसको प्रसारित करना चाहता हूँ, तो इसमें मुझे स्वयं ही चेष्टा करनी पड़ती है; और यही मेरा कार्य है।
प्रति मुहूर्त अपने 'छोटा मैं'-बोध (या मिथ्या नाम-रूप केअहंकार) को निष्ठुरता के साथ त्याग करके 'बड़ा-मैं' (पाका आमी-ब्रह्मविद मनुष्य) बनने की चेष्टा करने को ही-स्वामीजी के भाव (आदर्श) को आचरण में उतारना कहते हैं ! जब हृदय के बन्द कपाट (अहं) को खोल कर, प्रेम-मन्दाकिनी प्रवाहित होने लगती है, तब उस निर्झर का मोह-भंग हो जाता है, उसका भ्रम चला जाता है, तब वह निर्झर मायाजाल से मुक्त हो जाता है, उसकी (कोई पराया नहीं -सभी अपने हैं, सभी में मैं ही हूँ ! के भाव में स्थित पुरुष की स्त्री-पुरुष-नपुंसक' समस्त भेदबुद्धि चली जाती है।), उसी अवस्था का चित्रण रवीन्द्रनाथ ठाकुर अपनी कविता  'निर्झरेर स्वप्नभंग' (নির্ঝরের স্বপ্নভঙ্গ) अर्थात 'निर्झर का डी-हिप्नोटाइज्ड हो जाना' में इस प्रकार करते हैं -'हेशे खोलखोल (खलखल) गेये कोलकोल (कलकल) ताले ताले दिबो ताली' (হেসে খলখল গেয়ে কলকল/তালে  তালে দিব তালি।) 
[आजि ऐ प्रभाते रविर कर/केमने पासिलो प्राणेर ‘पर /केमने पासिलो गुहार आंधारे/प्रभात पाखीर गान!/ना जानि केनोरे एतो दिन परे/जागिया उठिलो प्राण!/जागिया उठेछे प्राण, /उरे  उथलि उठेछे बारि,/उरे  प्राणेर वासना प्राणेर आवेग/रूधिया राखिते नारी।
(आज के इस प्रभात काल में सूर्य की किरणें/ प्राणों के भीतर कैसे प्रवेश कर गयीं?/ गुहा के अंधकार में प्रभात-पक्षी का गान कैसे समा गया?/ न जाने, इतने दिनों बाद प्राण क्योंकर जाग उठे हैं?/ प्राण जाग उठे हैं,/ अरे पानी उछल कर उमड़ पड़ा है। / अरे! प्राणों की वेदना, प्राणों के आवेग को रोक रखना संभव नहीं अब!)
“न जाने, आज क्या हुआ कि जाग उठे हैं प्राण
 मानो, कानों में पड़ा हो दूरस्थ महासागर का गान“।
আজি এ প্রভাতে রবির কর 
কেমনে পশিল প্রাণের পর, 
কেমনে পশিল গুহার আঁধারে প্রভাতপাখির গান! 
না জানি কেন রে এত দিন পরে জাগিয়া উঠিল প্রাণ। 
কেন রে বিধাতা পাষাণ হেন,
চারি দিকে তার বাঁধন কেন!
ভাঙ্ রে হৃদয়, ভাঙ্ রে বাঁধন,
সাধ্ রে আজিকে প্রাণের সাধন,
লহরীর 'পরে লহরী তুলিয়া
আঘাতের 'পরে আঘাত কর্।
भांग रे हृदय , भांग  रे बाँधोन 
शाध  रे ‍आजिके प्राणेर शाधोन 
लहरीर पोरे लहोरी तुलिया
अघातेर पोरे अघात कोर!
मातीया जोखोन उठेचे पोरान!
মাতিয়া যখন উঠেছে পরান
কিসের আঁধার, কিসের পাষাণ!
আজিকে করেছি মনে,
দেখিব না আর নিজেরি স্বপন
বসিয়া গুহার কোণে।
আমি       ঢালিব করুণাধারা,
আমি       ভাঙিব পাষাণকারা,
আমি       জগৎ প্লাবিয়া বেড়াব গাহিয়া
আকুল পাগল-পারা;

কেশ এলাইয়া, ফুল কুড়াইয়া,
রবির কিরণে হাসি ছড়াইয়া,
দিব রে পরান ঢালি।
शिखोर होईते शिखोरे छुटिबो
भूधोर होईते भूधोरे लुटिबो
हेशे खोलखोल गेये कोलकोल
ताले ताले दिबो ताली
শিখর হইতে শিখরে ছুটিব,
ভূধর হইতে ভূধরে লুটিব
হেসে খলখল গেয়ে কলকল
তালে  তালে দিব তালি।
इसी 'खिलखिला कर हँसते और कलकल ध्वनि' में बहती झरने की धारा में स्नान कर लेने के बाद (भेंड़त्व से डी-हिप्नोटाइज्ड होकर सिंहत्व में स्थित हो जाने के बाद) अपने छोटे छोटे सर्वस्व का त्याग करके (मैं और मेरा, या मन की चहार दिवारी को भी ट्रैन्सेन्ड 'transcend' करके हमलोग दूरस्थ महासागर या यथार्थ (शाश्वत) जीवन-समुद्र के सम्मुख खड़े हो जाते हैं ! इस मिथ्या अहं (छोटा मैं,देहाध्यास, M/F भाव ) को खो कर अपने यथार्थ स्वरूप या ब्रह्मत्व की प्राप्ति  (ससीम से असीम बनने या बून्द से सागर बनने) को हमें क्यों भयप्रद मानना चाहिए ? यह भय केवल अपनी जड़ावस्था को (आलस्य को) अचल रखने के दुराग्रहवश उत्पन्न होता है। इसीलिये स्वामीजी ने कहा था- 'गति ही जीवन है, स्थित ही मृत्यु।',  फिर कहते हैं- ' उठो, जागो ! अब और स्वप्न मत देखो ! ' (अपने को शरीर समझने की-देहाध्यास) घोर निद्रा को त्याग कर उठ खड़े होओ ! 
' चरैवेति चरैवेति '-जो आलस्य में सोया हुआ है, उसका कलिकाल चल रहा है, उठकर खड़े हो जाओ। खड़े हो गए हो, तो चलना शुरू कर दो, जो चलना शुरू कर देता है, उसके लिए सत्ययुग आ जाता है। यही स्वामीजी का संजीवनी- मन्त्र है, जो मृत जड़-पिण्डों में भी जान डाल सकता है।  स्वामीजी के आविर्भूत होने की तिथि का स्मरण करके हमलोग इस नव-जीवन प्रदायी मन्त्र ' चरैवेति चरैवेति '-में यदि दीक्षित न हो सकें, तो स्वामीजी के प्रति मौखिक श्रद्धा-सुमन चढ़ाने का कोई मोल नहीं है।
किन्तु केवल इतना ही काफी नहीं है। अपने जीवन-दीपक को प्रज्वलित करके दूसरों के जीवन को भी प्रज्वलित करा देने का प्रयत्न करना होगा। हम लोगों को ' सबों के जीवन से अपने जीवन को जोड़ कर देखना ' सीखना होगा। सभी युवाओं को व्यक्ति से पारिवारिक-जीवन में, पारिवारिक से सामाजिक-जीवन में, तथा इसी प्रकार राष्ट्रिय जीवन तक 'एक और अभिन्न ' बनते हुए आगे बढ़ने के मन्त्र में अनुप्राणित करना होगा। इस महा-जागरण की वाणी को भारत के खेतों-खलिहानों, कल-कारखानों, स्कुल-कालेजों, ऑफ़िस-अदालतों, व्यापारियों की गद्दीयों, राष्ट्र-चालकों के मसनदों (सत्ता की कुर्सी पर बैठे नेताओं ) तक, सर्वत्र फैला देना होगा। स्वामीजी सम्पूर्ण भारतवर्ष को पूर्ण रूप से जाग्रत कर देने के लिये ही आये थे। हमलोगों ने अभी तक स्वामीजी को इस रूप में देखना नहीं सीखा है। किन्तु हमलोगों को स्वयं उन्हें इसी रूप में देखना सीखना होगा और सबों को इसी दृष्टि देखने की पद्धति समझानी होगी।

स्वामीजी ने कहा था- 'भारत झोपड़ियों में वास करता है।' उसके जनसाधारण की उन्नति से ही भारत की उन्नति होगी। भारत को उठने के लिये (महान बनने के लिये) यहाँ की साधारण जनता, जो पीछे रह गए हैं, उन्हें ऊपर उठाना होगा (उन्हें वेदान्त के महावाक्यों सेअनुप्राणित करना होगा।) वे कहते थे - " माना कि तूँ  उन सबों को उपर नहीं उठा सकता, किन्तु तुम उनके कानों तक इस महा-जीवन की वाणी को पहुंचा तो अवश्य सकता है।"

 मानव-मात्र के भीतर अनन्त शक्ति अन्तर्निहित है। उस शक्ति के जाग्रत होते ही, वह किसी के भी दबाने से दबेगा नहीं, अप्रतिरोध्य बन जायेगा। तब वह अपने अधिकार को जानने के साथ साथ अपने उत्तरदायित्व को भी जान लेगा। प्रत्येक मनुष्य जब इस बोध को प्राप्त करके अपने पैरों पर खड़ा हो जायेगा, सिर उठाकर चलने लगेगा, अपने निजी सुख-भोग को तुच्छ समझ कर दूसरों के लिये अपने जीवन को भी न्योछावर कर देने में नहीं हिचकेगा, तभी भारत जाग जायेगा।
जो (प्रक्रिया-५ अभ्यास ) इस नवजीवन को जाग्रत करके उसे धारण किये रहती हो, वही है स्वामीजी का धर्म। इस धर्म को हम अफीम का नशा नहीं कह सकते। जिस आलस्य रूपी अफीम को खाकर हमलोग घोर सुषुप्ति की अचेत अवस्था में सोये पड़े हैं, उस निद्रा को त्याग कर उठ जाने के लिए ही स्वामीजी हमें पुकार रहे हैं। प्रत्येक छात्र, प्रत्येक युवक को उनका यह आह्वान पहले स्वयं समझना होगा, फिर दूसरों को भी समझाना होगा। देश की सम्पूर्ण  राष्ट्रीय-व्यवस्था को इस समझाने के दायित्व का निर्वहन करना होगा। "स्वामीजी बड़े महान थे", यह कहकर भाषण देने से, या समाचार-पत्र में छोटा सा लेख लिखकर श्रद्धांजली देने से ही देश आगे नहीं बढ़ेगा। भारतवर्ष अभी तक जितना भी सिर उठाकर खड़ा होने में समर्थ हुआ है, वह स्वामीजी के उसी मन्त्र -  ' चरैवेति चरैवेति ' से हुआ है, जिसे हमने भुला दिया है। 
उनका जो आह्वान हमलोगों के व्यक्तिगत  और सामाजिक जीवन को महाजीवन प्रदान करने में समर्थ है, उसको अस्वीकार करके, उसकी उपेक्षा करके हमलोग उनके अमर सन्देश ' Be and Make ' रूपी रतन को खो देंगे ? यदि हम इसे खोयें नहीं, यदि उनके इस सन्देश के उचित मूल्य को समझकर उन्हें प्रत्येक युवा अपना आदर्श माने तभी उनके आविर्भूत होने की तिथि पर उनको श्रद्धांजली देना सार्थक होगा। 
---------------------------------


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें