स्वामी विवेकानन्द उद्विकास (evolution) या क्रमिक विकास में विश्वास रखते थे।
जब हमारे कुछ बुद्धिजीवी (तथाकथित) लोग स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त व्याख्यानों के कुछ शब्दों का अर्थ, सामान्य प्रचलित धारणा के अनुसार तोड़-मड़ोड़ कर व्यक्त करते हैं, तो हमलोग अक्सर उनके कथन का गलत अर्थ समझ बैठते हैं। क्योंकि,हमलोगों ने अभी तक स्वयं 'विवेकानन्द साहित्य' को गहराई से पढ़ने या समझने की चेष्टा नहीं की है, इसीलिये उनको एक महान 'Religious awe' (धार्मिक खौफ) के रूप में देखते हैं, किन्तु साथ ही साथ उनके प्रति एक आदर का भाव भी रखते हैं। परन्तु,यह आदर का भाव उनको ठीक से नहीं समझ पाने के कारण, उनके प्रति अटूट श्रद्धा में परिणत नहीं हो पाता, इसीलिये युवावस्था में तो हमलोग उनका अनुसरण करने की बात भी नहीं सोच पाते हैं।
स्वामी विवेकानन्द (१८६३-१९०२)
उनके व्याख्यानों के कुछ (उत्तिष्ठत -जाग्रत आदि) अबूझ-शब्दों को पहली बार सुनने के कारण हमलोग उनको भी कोई आम प्राचीन दुरूह धार्मिक प्रवक्ता समझ लेते हैं। क्योंकि, आज के हमलोग- जिस समय विवेकानन्द जी आविर्भूत हुए थे, उस समय से बहुत आगे निकल चुके हैं- आज हमलोग चन्द्रमा की धरती पर पैर रखने का गर्व करने वाले मानव बन चुके हैं। समय के साथ साथ हमलोग भी चलते चले जा रहे हैं। हमलोग समय के साथ कदम से कदम मिला कर चलना चाहते हैं। क्योंकि जिनके पाँव समय के साथ मिल कर चलते हैं, उनको ही आधुनिक मनुष्य कहा जाता है, नहीं तो प्राचीन युग में जीने वाला या ' पुरातन-पन्थी ' समझ लिया जाता है। किन्तु समय के साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चल पाने के- दो कारण हो सकते हैं। पहला जो मनुष्य समय से पीछे रह गया है, उसके कदम समय के साथ मिलेंगे ही नहीं। दूसरा - जो लोग मानवजाति के मार्गदर्शक नेता होते हैं वे भविष्य-द्रष्टा ऋषि होते हैं, इसीलिये वे सदैव अपने कदमों को समय से आगे बढ़ा कर चलते हैं ! अतएव समय के साथ-साथ चलने वाले व्यक्तियों के कदम भी नेता के कदमों से नहीं मिल पाते हैं। और यही कारण है कि स्वामी विवेकानन्द जैसे किसी युग-नायक के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने वाले लोग बहुत कम ही होते हैं। इसीलिये उनके जैसे नेता का तो सदैव अनुसरण ही करना पड़ता है।
प्राचीन समय में दिये गये स्वामी जी के व्याख्यानों को, कुछ लोग वर्तमान के भौतिकवादी वातावरण में अपनी बुद्धि की तराजू पर तौल कर और तर्क-वितर्क करके उतना उपयोगी नहीं मानते। किन्तु हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि - समय के साथ जिनके शब्द नहीं मिलते, वे समय से पीछे रहने वालों के शब्द भी हो सकते हैं, और समय से आगे चलने वालों के शब्द भी हो सकते हैं। स्वामीजी के शब्द समय से आगे रहने वालों में से थे। वे तो अतीत के बिल्कुल विपरीत- भविष्य के द्रष्टा थे। इसीलिये वर्तमान की निष्क्रियता और धीमी गति को देखने लिए उन्हें पीछे मुड़ कर देखना पड़ता था । वास्तव में हमलोगों के लिये उनको समझाना अपनी ही निष्क्रियता तथा धीमी गति आदि सैंकड़ो कारणों से आमतौर पर थोड़ा
कठिन प्रतीत होता है।
कठिन प्रतीत होता है।
जिस युग में स्वामी विवेकानन्द आविर्भूत हुए थे, उस समय पाश्चत्य से नव आयातित आधुनिकता या भौतिकवाद के कारण मूर्ति-पूजा के प्रति अविश्वास का भाव हमारे देश को प्लावित कर रहा था, और उनके समकालीन नवशिक्षित सम्प्रदाय उसी 'विश्वास-अविश्वास 'के प्लावन में डूब-उतरा रहे थे। किन्तु उन्हीं दिनों स्वामी विवेकानन्द ने यह भी कहा था कि ' वे इतने नौसिखुए आधुनिक भी नहीं हैं, जो ईश्वर को तड़ित (बिजली) का 'परिणाम-विशेष' के रूप में प्रमाणित करने की चेष्टा करेंगे। ' वे तो एक ऐसे नित्य-आधुनिक व्यक्ति थे- जो अपने (विवेकज ज्ञान के द्वारा) इन्द्रधनुष के समान विस्तृत अतीत में हुए सृष्टि-के क्षण से प्रारंभ करके,वर्तमान को भी पार करके, भविष्य तक की सृष्टि को' - केवल एकबार दृष्टिपात करके ही, स्पष्ट रूप से देख पाने में समर्थ थे।
इसीलिये वे अपने युग के तथाकथित ' नव-आधुनिक ' या **छद्म उदारवादियों के जैसा इस मन्त्र का जाप करने को तैयार नहीं थे, कि समय के प्रवाह में पुराने होकर जिन सनातन मूल्यों (वर्णाश्रम धर्म आदि) को
'पूराण' के नाम से पुकारा जाने लगे, जायें उन्हें बिल्कुल ही त्याग देना चाहिये। क्योंकि ' वहिष्कार ' (Exclusion ) जैसे शब्द का उनकी भाषा में कोई स्थान ही नहीं है। इसीलिये उन्होंने भविष्य को और भी अधिक महान रूप से गढ़ने की साधना में, वर्तमान के 'शिशु' को, अपने गौरव-पूर्ण अतीत से प्रेरणा प्राप्त करके, अपने पैरों पर खड़े होने तथा वीरता के साथ कदम उठाते हुए आगे बढ़ने का आह्वान किया है।
'पूराण' के नाम से पुकारा जाने लगे, जायें उन्हें बिल्कुल ही त्याग देना चाहिये। क्योंकि ' वहिष्कार ' (Exclusion ) जैसे शब्द का उनकी भाषा में कोई स्थान ही नहीं है। इसीलिये उन्होंने भविष्य को और भी अधिक महान रूप से गढ़ने की साधना में, वर्तमान के 'शिशु' को, अपने गौरव-पूर्ण अतीत से प्रेरणा प्राप्त करके, अपने पैरों पर खड़े होने तथा वीरता के साथ कदम उठाते हुए आगे बढ़ने का आह्वान किया है।
उन्होंने कामनाओं का त्याग करने को कहा है। किन्तु ऐसा कह कर उन्होंने सभी मनुष्यों को कामनाहीन,
निरुत्साही, निश्चेष्ट, बनस्पति के जैसा मनुष्य बनने के लिये नहीं कहा था। कामनाओं को त्याग करने का अर्थ है- कामनाओं का दास नहीं बनना। उन्होंने सम्पूर्ण विश्व के धार्मिक इतिहास का तुलनात्मक अध्यन करके यह दिखलाया है कि केवल भारत में ही धर्म, अर्थ और कामना के सानुपातिक (सुसमन्वित -well proportioned) व्यवहार करने की पम्परा थी। बल्कि मोक्ष को तो सभी मनुष्यों के लिये अनिवार्य भी नहीं माना गया था। केवल हमारे ही देश में ही 'चार वर्ण' (शूद्र,वैश्य, क्षत्रीय,ब्राह्मण) में क्रमविकास की जातिप्रथा थी, जो वंशानुगत नहीं थी। 'चार पुरुषार्थ ' के द्वारा चरित्र-निर्माण करके शुद्र को भी ब्राह्मण तक उन्नत होने का समान अवसर प्राप्त था।
स्वामी जी ने 'धर्म' को परिभाषित करते हुए, कहीं कहीं उसे 'भोग' भी कहा है। इहलोक में भोग तथा परलोक में भोग- सुख भोग के प्रति सभी मनुष्यों में एक स्वाभाविक लालसा रहती है। आज के भारत में उस सुख-भोग की निस्सारता को समझने के लिए पहले थोड़ा सुख-भोग करने की आवश्यकता है। इसलिए वे भारतवासियों में पहले रजोगुण की वृद्धि देखना चाहते थे। इसीलिए वे कहते थे कि -पाश्चात्य के लोग हमारी अपेक्षा धर्म का अधिक व्यवहार करते हैं। क्योंकि हमलोगों ने अभी तक उनके समान भोग-सामग्रियों का उत्पादन और उपभोग करके उनकी व्यर्थता का अनुभव करना नहीं सीखा है; इसीलिये उन्होंने यह आक्षेप हमलोगों पर लगाया है। सुख-सुविधा का भोग किये बिना, जो कुछ भाग्य से प्राप्त हो जाय उसकी अयोक्तिक बड़ाई करने को उन्होंने पाखण्ड कहते हुए उसकी निन्दा की है। भाग्य की दुहाई देते हुए,' अंगूर खट्टे हैं ' को छिपाने के लिये दरिद्रता और अभाव में ही सम्पूर्ण जीवन बिता देने को, उन्होंने सात्विकता के आवरण में छुपी हुई महान तामसिकता कहा है।
स्वामी विवेकानन्द उद्विकास (evolution) या क्रमिक विकास में विश्वास रखते थे। जिस प्रकार वे मनुष्यों को पहले रजोगुण की अभिव्यक्ति करने के माध्यम से तामसिकता को दूर हटाकर, सतोगुण (सत्व-शुद्ध-चित्त में) में लीन शान्ति का आश्रय ग्रहण करने पक्षपाती थे, ठीक उसी प्रकार वे सामाजिक जीवन के क्षेत्र में भी पहले शूद्रों की एकता, वैश्यों के आदान-प्रदान, क्षात्र-वीर्य ( क्षत्रियों की वीरता और साहस) की उपलब्धी कर लेने के बाद ही साधना के द्वारा 'ब्रह्मतेज' को प्राप्त करने के पथ पर सबों को अग्रसर करवा देने की प्रेरणा देते थे।
दरिद्रता, अशिक्षा, अज्ञानता के घने अंधकार को भूतकाल की गहरी खाई में फेंक कर, मनुष्य मात्र में अन्तर्निहित ब्रह्मत्व (शाश्वत महानता) को उद्घाटित करा देना ही स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रतिपादित कर्म-योग का रहस्य है। वे हमलोगों को केवल इतना ही याद करवा देना चाहते थे कि " कई हजार ब्रह्मा एवं इन्द्रादि देवता भी ' बुद्धत्व-प्राप्त ' नर-देवता के चरणों में शीस झुकाते हैं तथा इस बुद्धत्व-प्राप्ति पर मानव-मात्र का अधिकार है। " इस भविष्य-द्रष्टा योद्धा-सन्यासी के समक्ष आधुनिकता की राग अलापना नवजात शिशु का क्रंदन मात्र प्रतीत होता है । इसीलिये यह प्रश्न उठता है, कि स्वामीजी अतीत युग के नायक थे या भावी युग के ?
-------------------------------
खेतड़ी (राजपुताना) के महाराज 'राजा अजीत बहादुर सिंह ' द्वारा लिखित ४ मार्च १८९५ के पत्र के जवाब में स्वामी विवेकानन्द लिखते हैं -- " भारतवर्ष के प्राचीन ऋषिगण इतने दूरदर्शी थे कि उनके द्वारा निर्मित सामाजिक विधानों में प्रत्येक युग के अनुसार स्वमेव परिवर्तन होता रहता है, इसीलिये विश्व को उसके वर्णाश्रम धर्म आदि की बहुमूल्यता और गहराई को समझने में अब भी सदियों तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। किन्तु, उनके वंशधरों द्वारा भी इस महान उद्देश्य (वर्णाश्रम धर्म) को पूर्ण रूप से ग्रहण करने की अक्षमता ही भारत की अवनति का एकमात्र कारण है।
प्राचीन भारत सदियों तक ब्राह्मण और क्षत्रिय अपनी इन दो प्रमुख जातियों (classes) की महत्वाकांक्षा और स्वार्थ की पूर्ति के लिये एक युद्ध-क्षेत्र बना रहा था। निर्धन और अशिक्षित जनता पर प्रभुत्व स्थापित करने की महत्वाकांक्षा इन दोनों जातियों में वर्तमान थी। किन्तु अंत में ज्ञान की जीत हुई; कर्मकाण्ड को नीचा देखना पड़ा। यह वही क्रांति थी जिसे हम बौद्ध-सुधारवाद के नाम से जानते हैं। प्राचीन भारत ने जिन दो सर्वश्रेष्ठ पुरुषों को जन्म दिया था, वे दोनों ही क्षत्रिय हैं -वे थे कृष्ण और बुद्ध। और इन दोनों ही देव-मानवों ने लिंग और जाति-भेद को न मानकर (irrespective of birth or sex.) सबके लिए ज्ञान का द्वार उन्मुक्त कर दिया था।
क्षत्रियगण सदा से ही भारत के मेरुदण्ड रहे हैं, अतएव वे ही विज्ञान और स्वतन्त्रता के सनातन रक्षक हैं। देश से अन्धविश्वासों को हटा देने और पुरोहितों के अत्याचार से जनता की रक्षा के लिए वे स्वयं एक अभेद्द्य दीवार की भाँति खड़े रहे हैं। किन्तु जब उनमें से अधिकांश स्वयं घोर अज्ञानता में निमग्न हो गए,....... भारत-भूमि एकदम नीचे डूब गयी, --और इससे इसका उद्धार उस समय तक नहीं होगा, जब तक कि क्षत्रियगण स्वयं न जागेंगे तथा अपने को मुक्त कर शेष जाति के पैरों से जंजीरों को न खोल देंगे।
प्राचीन भारत सदियों तक ब्राह्मण और क्षत्रिय अपनी इन दो प्रमुख जातियों (classes) की महत्वाकांक्षा और स्वार्थ की पूर्ति के लिये एक युद्ध-क्षेत्र बना रहा था। निर्धन और अशिक्षित जनता पर प्रभुत्व स्थापित करने की महत्वाकांक्षा इन दोनों जातियों में वर्तमान थी। किन्तु अंत में ज्ञान की जीत हुई; कर्मकाण्ड को नीचा देखना पड़ा। यह वही क्रांति थी जिसे हम बौद्ध-सुधारवाद के नाम से जानते हैं। प्राचीन भारत ने जिन दो सर्वश्रेष्ठ पुरुषों को जन्म दिया था, वे दोनों ही क्षत्रिय हैं -वे थे कृष्ण और बुद्ध। और इन दोनों ही देव-मानवों ने लिंग और जाति-भेद को न मानकर (irrespective of birth or sex.) सबके लिए ज्ञान का द्वार उन्मुक्त कर दिया था।
खेतड़ी के महाराज 'राजा अजीत बहादुर सिंह ' (१८६१-१९०१)
पुरोहित-प्रपंच (ठग-वैद्य बाबाओं की शैतानियाँ ) ही भारत की अधोगति का मूल कारण है। मनुष्य यदि दूसरे मनुष्य का - अपने भाई का शोषण करें, तो क्या वह स्वयं शोषित होने से बच सकता है ? हे राजन, स्मरण रखिये, आपके पूर्वजों द्वारा आविष्कृत सत्यों में सर्वश्रेष्ठ सत्य है - इस ब्रह्माण्ड का एकत्व। जब प्रत्येक आत्मा ब्रह्म है- तो क्या कोई व्यक्ति स्वयं का किसी प्रकार अनिष्ट किये बिना दूसरों को हानि पहुँचा सकता है? ब्राह्मण और क्षत्रियों के ये ही अत्याचार चक्रवृद्धि ब्याज के सहित अब स्वयं उनके सिर पर पतित हुए हैं, एवं यह हजार वर्षों की पराधीनता और अवनति निश्चय ही उन्हीं के कर्मों के अनिवार्य फल का भोग है।"
भारतवर्ष में प्रचलित सनातन धर्म " बार बार यह भारतभूमि मूर्च्छापन्न अर्थात धर्मलुप्त हुई है, और बारम्बार भारत के भगवान ने अपने आविर्भाव द्वारा इसे पुनरुज्जीवित किया है।"को स्वामी विवेकानन्द 'डाइनैमिक रिलिजन' या गत्यात्मक धर्म कहते थे। इसे स्पष्ट करने के लिये उन्होंने कहा है - क्योंकि जब भारत के भगवान श्रीकृष्ण के रूप में आये थे, तब उन्होंने स्वयं हमें आश्वस्त करते हुए कहा था -
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्।।4.7।।
' जब जब धर्म की हानि होती है और अधर्म बढ़ता है, तब तब मैं पुनः धर्म की संस्थापना के लिये अवतीर्ण होता हूँ!' (ह्वेनेवर वर्चू सब्साइड्स एंड विकेडनेस्स राइजेज इट्स हेड, आइ मैनिफ़ेस्ट माइसेल्फ टु रिस्टोर दी ग्लोरी ऑफ़ रिलिजन !)
" - हे राजन, गीता का यही वाक्य इस विश्व-ब्रह्माण्ड में आध्यात्मिक ऊर्जा-प्रवाह के उत्थान और पतन के सनातन नियमों ('डाइनैमिक रिलिजन') का मूल-मंत्र है ।
भारत की जीवनी शक्ति इसी सनातन गत्यात्मक धर्म में निहित है। और जब तक हिन्दू जाति अपने पूर्वजों से प्राप्त उत्तराधिकार को नहीं भूलेगी, तब तक संसार में ऐसी कोई भी शक्ति नहीं जो उसका ध्वंश कर सके। आपके एक पूर्वज ने, जिन्हें लोग ईश्वर का अवतार समझते हैं, गीता ५.१९ में कहा था-" इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः। " - जिनका मन समत्वभाव (sameness) में स्थित है उन्होंने इसी जीवन में सर्ग (सापेक्षिक सत्य या जन्मादिरूप संसार) को जीत लिया है! ( ईवन इन दिस लाइफ, दे हैव कोन्कर्ड रिलेटिविटी, हूज माइंड इज फिक्स्ड इन सैमनेस ) जब तक कोई मनुष्य इस साम्य-ज्ञान को प्राप्त नहीं करता वह कभी मुक्त नहीं हो सकता।
इग्नोरेंस (अविद्या), भेदबुद्धि एवं वासना (सापेक्ष सत्य को निरपेक्ष सत्य समझना) ये तीनों ही मानवजाति के दुःख के कारण हैं, और उनमें एक के साथ दूसरे का अविच्छिन्न सम्बन्ध है। किसी को क्या अधिकार है कि वह स्वयं को अन्य मनुष्यों की अपेक्षा, यहाँ तक कि पशु से भी श्रेष्ठ समझे ? वास्तव में तो सर्वत्र एक ही वस्तु विराजमान है। -श्वे० उपनिषद (४- ३) में स्त्री को तो ब्रह्म का रूप ही स्वीकार किया गया है और महाशक्ति का स्तवन करते हुए कहा गया है :
त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी।
त्वं जीर्णो दण्डेन वचसि त्वं जातो भवति विश्वतोमुखः॥
"- हे माँ महामाया ! तुम स्त्री हो, तुम पुरुष हो, तुम कुमार हो एवं तुम्हीं कुमारी हो ! तुम वृद्ध होकर लाठी के सहारे चलती हो, और तू ही उत्पन्न होकर सब ओर मुख वाली (ब्रम्हा जी) हो जाती हो !"
बहुत से लोग ऐसा सोच सकते हैं,कि हम सब तो गृहस्थ हैं, 'इस प्रकार सोचना तो केवल सन्यासी को ही शोभा देता है ? पर मेरे तो स्त्री और बच्चे हैं ?
यह बात ठीक है कि गृहस्थ को स्त्री-पुत्र, घर-परिवार के प्रति अनेक कर्तव्यों का पालन करना पड़ता है, और वह इस साम्य-भाव में सर्वत्यागी संन्यासियों के जितना स्थित नहीं रह सकता। किन्तु, इस सबके बावजूद गृहस्थ लोगों का आदर्श भी यही होना उचित है। क्योंकि इस समत्व-भाव को प्राप्त करना मानव-मात्र का जन्मसिद्ध अधिकार है। पर अफ़सोस ! ('ययाति' टाइप ) लोग समझते हैं कि वैषम्य (M/F)-भोग ही समता की प्राप्ति का मार्ग है । मानो अन्याय करते करते वे न्याय के रास्ते पर आ पहुँचेंगे! परन्तु यह वैषम्य-देखना ही दैहिक, दैविक,आध्यात्मिक सर्वविध बन्धनों का मूल है।
किन्तु आजकल के तथाकथित आधुनिक (सेक्यूलर) बुद्धिजीवी लोग भारत के गौरवशाली प्राचीन सनातन मूल्यों -वर्णाश्रम धर्म के ऊपर गर्व करने वाले देशवासियों की निन्दा ही किया करते हैं। किन्तु मेरी तो यह धारणा है कि, जब तक ब्राह्मण-क्षत्रिय या वैश्य और शूद्र आदि जातियाँ अपने गौरवशाली अतीत को भूले हुए थीं, तब तक वे संज्ञाहीन अवस्था में पड़ी रहीं, और अतीत की ओर दृष्टि जाते ही चारों ओर पुनर्जीवन के लक्षण दिखाई दे रहे हैं। भविष्य को इसी अतीत के साँचे में ढालना होगा, अतीत ही भविष्य हो जायेगा।"
आप राजपूत लोग ही प्राचीन भारत के गौरवस्वरूप रहे हैं । आप लोगों की अवनति के साथ ही जातीय अवनति आरम्भ हो गयी; और भारत का उत्थान केवल तभी हो सकता है, जब क्षत्रियों के वंशज ब्राह्मणों के वंशजों के साथ समवेत प्रयत्न में कटिबद्ध होंगे, लूटे हुए वैभव और शक्ति का बटवारा करने के लिये नहीं, वरन 'टू एनलाइटेन दी इग्नोरेन्ट'- (देहाध्यास में फंसे लोगों को डी हिप्नोटाइज्ड करने के लिये) , एवं अपने पूर्वज ऋषि-मुनियों की पवित्र निवास भूमि की खोई हुई महिमा को पुनः-प्रतिष्ठित करने के लिये। कौन कह सकता है कि यह शुभ मुहूर्त नहीं है ? फिर से कालचक्र घूमकर आ रहा है, एक बार फिर भारत से वही शक्ति-प्रवाह निःसृत हो रहा है,जो शीघ्र ही समस्त जगत को प्लावित कर देगा ! [प्लैटिनम जुबली ऑफ़ रामकृष्ण मिशन और गोल्डन जुबली ऑफ़ युवा महामण्डल एक साथ बेलुड़ मठ में आयोजित हो रहा है।]
हे मेरे प्रिय राजन, आप उसी जाति के वंशधर हैं, जो सनातन धर्म का जीवन्त आधार-स्तम्भ स्वरूप है एवं जो सनातन धर्म के शपथ-बद्ध रक्षक और सहायक है; आप राम और कृष्ण के वंशधर हैं, क्या आप इस शक्ति-प्रवाह से बाहर रहेंगे ?
मैं जानता हूँ, यह कभी नहीं हो सकता। यह मेरी दृढ़ धारणा है कि आपका हाथ ही सर्वप्रथम फिर से धर्म की सहायता के लिये आगे बढ़ेगा। और जब भी, हे राजा अजीत सिंह, मैं आपके बारे में सोचता हूँ, तब यह देखकर मुझे बड़ी प्रसन्नता होती है कि आप में आपकी वंशगत सर्वपरिचित वैज्ञानिक योग्यता के साथ ही साथ सब मानवों के प्रति असीम प्रेमयुक्त ऐसे पवित्र चरित्र का सम्मिलन हुआ है, जिससे एक साधु भी गौरवान्वित हो सकता है! और जब ऐसे व्यक्ति ही सनातन धर्म के पुनर्गठन ( या 'बनो और बनाओ आंदोलन' का नेतृत्व करने) के इच्छुक हैं, तब मैं उसके महा गौरवशाली पुनर्निर्माण में विश्वास रखे बिना नहीं रह सकता।" [९/३५३-५८]
" दक्षिण भारत के सारे मनुष्य आर्यों के सिवा और कोई नहीं हैं, द्रविड़ भाषा को बोलते बोलते वे भी संस्कृत भूल गए हैं, जैसे आज उत्तर भारतीय हिन्दी या क्षेत्रीय भाषाओँ को बोलते बोलते संस्कृत भूलते जा रहे हैं। संस्कृत में पाण्डित्य होने से ही भारत में सम्मान मिलता है। संस्कृत भाषा का ज्ञान होने से ही कोई भी तुम्हारे विरुद्ध कुछ कहने का साहस नहीं करेगा। यही एकमात्र रहस्य है, अतः इसे जान लो और संस्कृत पढ़ो !" "यदि तुम 'आर्य' और 'द्राविड़' , 'ब्राह्मण' और 'अब्राह्मण' जैसे तुच्छ विषयों को लेकर 'तू तू मैं मैं ' करोगे -झगड़े और पारस्परिक विरोध भाव को बढ़ाओगे -तो समझ लो कि तुम उस शक्ति-संग्रह से दूर हटते जाओगे, जिसके द्वारा भारत का भविष्य बनने जा रहा है ! 'इच्छाशक्ति का संचय और उनका समन्वय कर उन्हें एकमुखी करना ही वह सारा रहस्य है। इसीलिये ये सब मतभेद के झगड़े बन्द हो जाने चाहिये। " " ब्राह्मणों को जो इतना सम्मान और विशेषाधिकार दिए जाते हैं, इसका कारण यह है कि उनके पास धर्म का भण्डार है। अतः यह ब्राह्मण जाति का कर्तव्य है कि भारत की दूसरी सब जातियों के उद्धार की चेष्टा करें। यदि वे वैसा करती हैं, और जब तक वैसा करतीं हैं, तभी तक वह ब्राह्मण है, अगर वह धन के चक्कर में पड़ी रहती है तो वह ब्राह्मण नहीं है। "
"भविष्य में जो सत्ययुग आ रहा है, उसमें ब्राह्मणेत्तर सभी जातियाँ फिर ब्राह्मण रूप में परिणत हो जाएँगी! यह वही प्राचीन भूमि भारत है जहाँ से उमड़ती हुई बाढ़ की तरह धर्म तथा दार्शनिक तत्वों ने समग्र संसार को बार बार प्लावित कर दिया और यही भूमि है, जहाँ से पुनः ऐसी ही तरंग उठकर निस्तेज जातियों में शक्ति और जीवन का संचार कर देंगी। "
किन्तु स्वामी विवेकानन्द के निर्देशानुसार "निःस्वार्थ नर-नारियों का निर्माण' करेगा कौन ? ब्राह्मणेत्तर सभी जातियों को चरित्र-निर्माण का प्रशिक्षण देकर, ब्राह्मण (ब्रह्मवेत्ता मनुष्य) बनने और बनाने का कार्य करेगा कौन ? - इसी को कहते हैं ऐतिहासिक अनिवार्यता। जिस समय धर्म अपने स्थान से च्युत हो जाता है, इसी प्रकार के एक आविर्भाव की आवश्यकता होती है। जिस समय धर्म अपने स्थान से च्युत हो जाता है, अधर्म का सिर ऊँचा उठ जाता है, उस समय धर्म को पुनः स्थापित करने के लिये ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य से सम्पन्न,कुछ नेताओं का निर्माण करने में समर्थ - एक महान आविर्भाव अनिवार्यता बन जाती है।
वह चाहे अवतार के द्वारा हो या जैसे भी हो, एक विशिष्ट भाव मूर्तमान होता अवश्य है! आधुनिक युग में श्री रामकृष्ण के भीतर वही भाव मूर्तमान हुआ है।
स्वामीजी कहते हैं -" तुम (आधुनिक युग के भगवान) श्री रामकृष्ण को समझ सके, यह जानकर मुझे बड़ा हर्ष है ! कारण, तुम्हें मनुष्य जाति का श्रेष्ठ मार्गदर्शक नेता (शिक्षक) होना है। समय आने पर तुम्हें वह अधिकार प्राप्त हो जायेगा, जब तुम संसार में चारों ओर उनके पवित्र नाम का प्रचार करोगे। पहले कर्म और ठाकुर की भक्ति के द्वारा अपने को पवित्र करो। श्रीरामकृष्ण के पदप्रान्त में बैठने पर ही भारत का उत्थान हो सकता है। उनकी जीवनी एवं उनकी शिक्षाओं को चारों ओर फैलाना होगा, हिन्दू समाज के अंग में - रोम रोम में उन्हें भरना होगा। यह कौन करेगा ? हू आर टु टेक अप दी फ्लैग ऑफ़ श्री रामाकृष्णा एंड मार्च फॉर दी साल्वेशन ऑफ़ दी वर्ल्ड? श्री रामकृष्ण की पताका हाथ में लेकर संसार की मुक्ति के लिये विचरण करने वाला है कोई? अपने नाम-यश, कामिनी-कांचन भोगों में आसक्ति, यहाँ तक कि इहलोक और परलोक की सारी आशाओं का त्याग करके भी अधः-पतन के ज्वार को रोकने वाला है कोई ?"
महामण्डल की दृष्टि में श्री रामकृष्ण ही आधुनिक युग के प्रथम युवा नेता हैं, जननेता हैं, मानवप्रेमी हैं -जो मानवमात्र को हृदय से प्रेम करते हैं। सम्पूर्ण विश्व के मनुष्यों को अपने हृदय के अन्तस्तल से प्रेम करते हैं। उनके जीवन में पूर्ण साम्य प्रतिष्ठित हुआ है। उन्होंने समस्त मानव जाति, समस्त जीवों तथा यहाँ तक कि जड़ वस्तुओं के साथ भी अभिन्नता का साक्षात्कार किया है। उनके जीवन में जो पूर्ण एकात्म-बोध या पूर्ण साम्य राजनैतिक दलों के मंच पर खड़े होकर साम्यवाद पर भाषण दिये जाने वाला साम्य नहीं है, अपितु उन्होंने इसे अपने आचरण में उतारकर दिखा दिया है। उन्होंने इन्हीं जनसाधारण शोषितों -पीड़ितों के दारुण दुःख से द्रवित होकर, साधारण जनता की मुक्ति के लिये प्रयत्न किया है, उन को मुक्त करने के लिये ही भावी युवा नेताओं को संगठित करने की चेष्टा की है। श्रीरामकृष्ण अब भी युवाओं को संगठित करने की चेष्टा कर रहे हैं, सभी लोगों को अनुप्रेरित कर रहे हैं, किन्तु युवाओं को अधिक संख्या में आकर्षित कर रहे हैं।
स्वामी जी ने अपने जीवन के उद्देश्य को अनेक स्थानों पर भिन्न भिन्न तरह से निरुपित किया है। एक स्थान पर वे कहते हैं -" मेरा आदर्श अवश्य ही थोड़े से शब्दों में कहा जा सकता है, और वह है, मनुष्य-जाति को उसके दिव्य स्वरुप का उपदेश देना, तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे अभिव्यक्त करने का उपाय बताना। और अपने में ब्रह्म भाव को अभिव्यक्त करने का यही एकमात्र उपाय है कि इस विषय में दूसरों की सहायता करना। तुम लोग इस काम में मेरे सहायक बनो। युवाओं को संगठित करना ही मेरे जीवन का एकमात्र लक्ष्य है।' किन्तु उन युवा-दलों को संगठित करने का प्रयास स्वयं करने के बाद भी वे मुट्ठीभर युवाओं को ही श्री रामकृष्ण देव के झण्डे तले एकत्रित कर सके थे।
किन्तु उसी समय उन्होंने भविष्यवाणी करते हुए (३० नवम्बर,१८९४ को डॉ.नंजुन्दा राव को लिखित पत्र में कहा था- " बहुत थोड़े से युवा इस देहाध्यास से सम्बन्ध-विच्छेद करके साम्यभाव में स्थित मनुष्य बनो और बनाओ आंदोलन में कूद पड़े हैं, उन्होंने अपने मिथ्या अहं का त्याग कर दिया है। परन्तु इनकी संख्या बहुत कम है, हम चाहते हैं कि ऐसे ही युवा कई हजार हो जायें, ऐंड दे विल कम !" यही जो 'They will come" की भविष्यवाणी है- वैसे युवा कहाँ से आयेंगे? ऐसे युवाओं का एक जत्था रामकृष्ण मिशन के माध्यम से भी संगठित हो सकता है, किन्तु जो युवा रामकृष्ण मिशन में अपना योगदान देंगे, उनके जीवन का लक्ष्य, व्रत और आदर्श होगा,'आत्मनो मोक्षार्थम् जगद्हिताय च।' किन्तु कितने युवा ऐसे हैं, जो अभी से मोक्ष प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं ? और इसी कारण वैसे अधिकांश युवा जिन्हें स्वामीजी श्रीरामकृष्ण देव के झण्डे तले एकत्रित करना चाहते थे, वे तो इस रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त प्रशिक्षण परम्परा के बाहर ही छूट जायेंगे।
क्या स्वामी जी ने वेदान्त की अमोघ वाणी -'उठो ! जागो ! और जब तक लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाये विश्राम मत लो' - सुनाकर सभी मनुष्यों को मोहनिद्रा से जग्रत करने की जिम्मेवारी भारत के युवाओं पर नहीं सौंपी है ? भारत के जुड़वां राष्ट्रीय आदर्श -'त्याग और सेवा' तथा उसका प्रतीकात्मक चिन्ह है- सिस्टर निवेदिता द्वारा निर्मित 'वज्रांकित-पताका', जिसे महामण्डल ने अपने ध्वज के रूप में ग्रहण किया है। उसी पताका के नीचे सभी जाति और धर्म के युवा, एक साथ संगठित और सम्मिलित होकर - अपनी अन्तर्निहित दिव्यता प्रति स्वयं जाग्रत होंगे और सबों को जाग्रत करने का प्रयास करेंगे - यह प्रयास करते जाना ही महामण्डल का कार्यक्रम है !
स्वामी जी द्वारा सौंपे गए इसी कार्य को सर्वव्यापी बना देना ही महामण्डल आंदोलन का लक्ष्य है। क्योंकि जब तक देश में चरित्रवान, सत्य-निष्ठ और निःस्वार्थी मनुष्यों का अभाव रहेगा, तब तक कोई भी परिकल्पना यथार्थ रूप में सफल नहीं हो सकेगी। इसलिये एक सार्थक मनुष्य-निर्माणकारी आंदोलन को संचालित करना ही महामण्डल का कार्य है। ऐसे युवा-आंदोलन को प्रचण्ड वेग से देश के कोने कोने में फैला देने में समर्थ समस्त सारे उद्धरण स्वामी विवेकानन्द के जीवन और संदेशों में यथेष्ट रूप से विद्यमान हैं। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ही महामण्डल के आदर्श हैं, उन्हीं को अपना नेता मानकर हम इस आंदोलन को सम्पूर्ण भारत के कोने-कोने तक पहुँचा देंगे।
किसी बड़े संघ या संगठन के द्वारा इस कार्य को सर्वत्र छोटे-छोटे ग्रामों, कस्बों और शहरों तक पहुँचा देना सम्भव नहीं है। इसीलिये महामण्डल छोटे-छोटे केन्द्रों को स्थापित करते हुए, सर्वत्र फ़ैल जाना चाहता है। इस महान कार्य को करने में हमारी भूमिका उसी छोटी सी गिलहरी के समान है, जो श्री रामचन्द्र द्वारा सेतुबंधन करते समय, अपनी छोटी सी अंजलि में बालू भर भर कर राम-सेतु के ऊपर डालती रहती थी। समान भाव रखने वाली अन्य प्रकार की बड़ी बड़ी संस्थाओं में परस्पर के बीच भावनात्मक बंधन का अभाव होता है, किन्तु महामण्डल के सभी केन्द्रों के बीच परस्पर प्रेमपूर्ण-भ्रातृत्व का एक आत्मीय बंधन रहता है, जिसके फलस्वरूप सिद्धान्त और व्यवहार के बीच समन्वय स्थापित करने का विशेष सुयोग मिलता है। जहाँ अन्य संस्थाएं विशेष रूप से युवाओं के लिये ही गठित नहीं हुई हैं, वहीं महामण्डल विशुद्ध रूप से युवाओं की ही संस्था है, जो स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा को, युवाओं की ही भाषा में उनके लिए बोधगम्य बनाकर उनके समक्ष प्रस्तुत करता है। उन्हें जीवन-गठन, मनःसंयोग, चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया आदि को इस प्रकार कही जाती हैं, जिससे उन्हें समझने में कोई कठिनाई न हो। बल्कि स्वामी जी के '3H'-विकास से सम्बंधित सारे उपदेश इतनी सरल भाषा में समझाया जाता है, कि वे उन्हें अपने दैनन्दिन जीवन में अंगीकार्य करने योग्य प्रतीत होती हैं।
इस दृष्टि से विचार किया जाय, और एक बार इसके द्वारा आयोजित छः दिवसीय 'ऐनुअल आल इंडिया यूथ ट्रेनिंग कैम्प' में स्वयं भाग लिया जाय तो यह स्पष्ट हो जायेगा कि 'रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त प्रशिक्षण परम्परा में-लीडरशिप ट्रेनिंग' द्वारा राष्ट्र के कल्याण के लिए यथार्थ देश-प्रेमी और मानवजाति का मार्गदर्शक नेता (या लोक-शिक्षक) बनने और बनाने के कार्य को एक आंदोलन का रूप देने में, बहुत अल्प ही सही किन्तु महामण्डल की भी एक भूमिका अवश्य है। इस ओस की बूँदों जैसे अदृष्ट भूमिका द्वारा प्राप्त बीज की परिणीति जब एक दिन विराट वृक्ष के रूप में दिखाई देगी, तब निश्चित रूप से महामण्डल सभी देशवासियों का आशीर्वाद प्राप्त कर सकेगा, इसमें कोई सन्देह नहीं है !
" Let the lion of Vedanta roar; the foxes will fly to their holes. "
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था -"धीरे धीरे पाश्चात्यवासी भी यह अनुभव करने लगे हैं कि उन्हें राष्ट्र (या संयुक्त परिवार) के रूप् में बने रहने के लिएआध्यात्मिकता की आवश्यकता है। वे इसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं; चाव से इसकी बाट जोह रहे हैं। उसकी पूर्ति कहाँ से होगी? वे मनुष्य कहाँ हैं, जो भारतीय महर्षियो का उपदेश जगत् के सब देशो (पहले भारत के सभी राज्यों) में पहुँचाने के लिए तैयार हों? कहाँ हैं वे लोग, जो इसलिए सब कुछ छोड़ने को तैयार हों कि ये कल्याणकर उपदेश संसार के कोने कोने तक फैल जायँ? सत्य के प्रचार के लिए ऐसे ही वीर लोगों की आवश्यकता है। वेदान्त के महासत्यों को फैलाने के लिए ऐसे वीर कर्मियों को बाहर जाना चाहिए। उठो भारत, तुम अपनी आध्यात्मिकता द्वारा जगत् पर विजय प्राप्त करो। "
[ भारतवर्ष के चार दिशाओं के लिये, चार वेदान्त-केसरी नेताओं (बुद्ध) का निर्माण करो ! कोई भी धर्म हिन्दू, मुसलमान या किसी भी जाति में जन्मे उन युवा सिंहों के जीवन का गठन इस प्रकार हो कि वे - 'ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य' से सम्पन्न मनुष्य हों ! अर्थात स्वयं भ्रममुक्त हो जाने के बाद, वेदान्त-केसरी बनकर 'भेंड़त्व' से मुक्ति दिलाने वाला मन्त्र -'बी ऐंड मेक' का प्रचार सिंह-विक्रम की दहाड़ के साथ करें -म्याऊँ- म्याउँ; करके नहीं ! भारत के चार दिशाओं में चार वेदान्त-केसरी को दहाड़ने दो, जिनका जीवन ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य से सम्पन्न मानव जाति के भावी मार्गदर्शक नेता (बुद्ध के रूप में) गठित हुआ है; सारे सियार (ढोंगी परमानन्द जैसे ठग-वैद्य) अपने अपने बिलों में छिप जायेंगे!]
" मेरी आशा, मेरा विश्वास नवीन पीढ़ी के नवयुवकों पर है। मान हो या अपमान, मैंने तो इन नवयुवकों का संगठन करने के लिये जन्म लिया है। यहीं क्या प्रत्येक नगर में सैकड़ो मेरे साथ सम्मिलित होने को तैयार हैं। उन्हीं में से मैं अपने कार्यकर्ताओं का संग्रह करूँगा। वे सिंह-विक्रम से देश की यथार्थ उन्नति सम्बन्धी सारी समस्या का समाधान करेंगे। वे एक केन्द्र से दूसरे केन्द्र का विस्तार करेंगे -और इस प्रकार हम धीरे धीरे समग्र भारत में फ़ैल जायेंगे।"
---------
' नव-आधुनिक ' या **छद्म उदारवादी'
डोनाल्ड ट्रम्प की जीत के बाद छद्म-उदारवादी मिडिया और भारत इन्टोलरेंट हो गया है पर बहस करने तथाकथित बुद्धि-जीवियों में ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में जोड़े गये नये शब्द -'पोस्ट ट्रूथ' अर्थात 'उत्तर सत्य ' को लेकर बहस चल रहा है। महाभारत में युधिष्ठिर ने 'अर्ध-सत्य' कहा था, 'अश्वस्थामा हतो -नरो वा..' विगत ७० वर्षों से कुछ छद्म उदारवादी मिडिया और राजनीतिज्ञों ने मार्क्स और मैकाले की आधुनिक सोंच का सहारा लेकर भारत के गौरवशाली अतीत पर कीचड़ उछालने का काम किया है, और भ्रष्टाचार से देश लूटने में लगे रहे हैं।
पश्चमी देशों का नकल करके राष्ट्र और समाज से अधिक महत्व व्यक्ति की निजी स्वतंत्रता को दिया जाने लगा था। राष्ट्रगान के समय अपने निजी धर्म का हवाला देकर कोई खड़ा न होना चाहे तो उसे पूरी छूट थी। व्यक्ति अपने जाति और धर्म के आधार पर स्वयं को राष्ट्र और समाज से -उसके संविधान से भी अपने को बड़ा मानने लगा था।
महान भारत बनाना है, तो क्या करना चाहिए ? दो प्रकार की सोंच दिखाई देती है - १.सच्चे मार्गदर्शक नेता की सोंच है - 'व्यक्ति का निर्माण करें, वही राष्ट्र का निर्माण करेगा ! चरित्रवान मनुष्यों का निर्माण करें, वे स्वयं एक महान राष्ट्र का निर्माण कर लेंगे!' २. दूसरा राजनीतिज्ञ नेता की सोंच जो हमेशा गाड़ी को घोड़े के आगे रखते हैं - "महान राष्ट्र का निर्माण करें, व्यक्ति स्वयं उसमें शामिल हो जायेगा! "
बिल्कुल स्वामी जी का यही भाव था।वे कहते थे कि मनुष्य एक ही जन्म में युगों का जीवन जी सकता है अर्थात् धर्म अर्थ काम और मोक्ष या ब्रह्मचर्य गृहस्थ वानप्रस्थ और सन्यास अथवा शूद्र वैश्य क्षत्रिय और ब्राह्मण सभी सोपानों को पार कर सकता है।
जवाब देंहटाएं