' कम आउट एंड स्टैंड अलोन'-- यही है स्वामीजी का नव-विप्लव !"
"फ्रीडम, ओ फ्रीडम! फ्रीडम, ओ फ्रीडम!" इज द साँग ऑफ़ द सोल. - " मुक्ति-ओ मुक्ति, मुक्ति- ओ मुक्ति!" - यही आत्मा का गीत है। किन्तु हाय! प्रकृति (माया,नाम-रूप) की सैकड़ों जंजीरों से बद्ध (हिप्नोटाइज्ड) हो जाना ही उसकी नियति है। " (२/२९४) इस बात को कहने वाले थे स्वामी विवेकानन्द !"जगत में सबके भीतर ही (धनी हो या गरीब) एक प्रकार के असन्तोष का भाव दिखाई पड़ता है। इस सार्वजनीन असन्तोष का अर्थ क्या है ? इसका अर्थ यही है कि -स्वतंत्रता ही मनुष्य का सर्वकालिक लक्ष्य है। विश्व का स्पन्दन स्वतंत्रता का ही प्रकाश है।" जिस नये क्रांतिकारी आंदोलन (BE AND MAKE) में कूद पड़ने के लिये स्वामी विवेकानन्द ने युवाओं का आह्वान किया था, उसके मूल को उन्होंने यहीं से (आत्मा के नित्य-मुक्त स्वाभाव से) प्राप्त किया था।
स्वामीजी कहते हैं,"जब तक मनुष्य मुक्ति की प्राप्ति नहीं कर लेता (अर्थात स्वयं को डी-हिप्नोटाइज्ड नहीं कर लेता) वह मुक्ति की खोज करता ही रहेगा ! उसका समग्र जीवन केवल इस स्वाधीनता-प्राप्ति की चेष्टा मात्र है। शिशु जन्म ग्रहण करते ही नियम के विरुद्ध विद्रोही हो जाता है। उसकी पहली आवाज रुदन की होती है, जो अपने बंधनों के प्रति उसका विरोध होता है। " (२/२९३-९७)
स्वामीजी के मतानुसार - " वेदान्त में संग्राम का स्थान तो है, किन्तु भय के लिए कोई स्थान नहीं है। " ये सभी --'संग्राम', 'प्रतिवाद', 'विद्रोह', 'निर्भिकता',' 'स्वाधीनता-प्राप्त करने की चेष्टा'-जैसे शब्द क्रांतिकारी मन की भाषा ही तो है। किन्तु अन्य कई शब्दों की तरह 'क्रांति' (upheaval, अप्हीवल-महापरिवर्तन) शब्द के साथ भी राजद्रोह, बगावत, विद्रोह, विध्वंश, विक्षोभ, इंकलाब -जिंदाबाद आदि धारणायें इस प्रकार घुलमिल गयी हैं, कि 'क्रांति' शब्द की जो अपनी एक गरिमा है, उसका जो एक सुंदर चरित्र है, जिस महापरिवर्तन के अनिवार्य रूप से आविर्भूत हो जाने की जो तीव्र छटपटाहट या तीव्र व्याकुलता है, उसे हमलोग बिल्कुल ही भूल चुके हैं। 'क्रांति या इंकलाब' को संस्कृत में 'विप्लव' कहते हैं। 'विप्लव' शब्द का उद्भव 'प्लू' धातु से हुआ है। 'प्लू' धातु का मूल अर्थ है- ' जाना '। विशेष तौर पर मानव-समाज प्रकृति के जिन बन्धनों में (माया-मोह में) जकड़ा हुआ है,'उन बेड़ियों का टूट जाना' या सम्पूर्ण मानवता का 'भ्रांति-मुक्त' (disillusioned-डी-हिप्नोटाइज्ड) हो जाना ; स्वामी जी के नये क्रांतिकारी आंदोलन या
नव-विप्लव से यही सूचित होता है !
स्वामीजी कहते थे- " मैं इस सिद्धान्त से सहमत नहीं हूँ कि - प्रकृति के नियमों का पालन ही मुक्ति है। मैं नहीं समझता कि इसका क्या अर्थ हो सकता है। मनुष्य की प्रगति के इतिहास को देखने से पता चलता है, कि, मनुष्य ने जो कुछ भी प्रगति की है, वह सब प्रकृति के नियमों का उल्लंघन करने से ही सम्भव हो सकी है। यह भले ही कहा जा सकता है कि मनुष्य ने प्रकृति के उच्चतर नियमों को आविष्कृत करके ही प्रकृति के निम्नतर नियमों पर विजय प्राप्त किया है। परन्तु वहाँ भी विजय की कामना करने वाला मन (गुरुत्वाकर्षण के नियम का उल्लंघन करके ऊपर उड़ जाने की व्याकुलता रखने वाला मन ) ही किसी उपाय का अन्वेषण कर रहा था। जैसे ही उसने देखा कि वह संघर्ष नियमों के कारण ही था, उसने (क्रायोजेनिक इंजन का आविष्कार करके) उस नियम को भी जीतना चाहा। इस प्रकार हम देख सकते हैं,कि वैज्ञानिक अविष्कारों के प्रत्येक क्षेत्र में-- लक्ष्य सदा ही प्राकृतिक नियमों से मुक्ति प्राप्त करना ही था। वृक्ष कभी प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन नहीं करते। मैंने कभी किसी गाय को चोरी करते हुए नहीं देखा, कोई घोंघा (सीपी या सितुहा oyster) कभी झूठ नहीं बोलता। फिर भी वे मनुष्य से बड़े नहीं हैं। स्वतन्त्रता के लिये एक उत्कट आग्रह का नाम ही जीवन है।" (2/261)
स्वामी जी कहते हैं, " इस देश में एक बात हर समय सुनता रहता हूँ कि हमारे लिये सदा प्रकृति के साथ ताल मिलाकर चलना ही उचित है। क्या तुम यह नहीं जानते कि आज तक विश्व में जितनी भी प्रगति हुई है, वह सब प्रकृति को जीत लेने से ही हुई है ? यदि हमलोग किसी भी तरह से उन्नति करना चाहते हों, तो इसके लिये हर कदम पर हमें प्रकृति का प्रतिरोध करना होगा।" इसीलिये विनय कुमार सरकार ने कहा था, यदि विवेकानन्द के विचारों को किसी मतवाद की संज्ञा देनी ही हो तो उसको ' प्रकृति के उपर- मनुष्यवाद' (मैन-ओवर-नेचर-इज्म) कहना होगा।
प्रकृति तो मनुष्य को यह शिक्षा देती है कि स्वयं जीवित बचे रहने के लिये संग्राम करते रहो। किन्तु स्वयं बचे रहने के लिये संग्राम करना तो स्वार्थपरता को साधित करने का नामान्तर मात्र है, और विवेकानन्द के अनुसार वैसी चेष्टा किसी भी सामाजिक नैतिकता का सम्पूर्ण विरोधी है। इस स्वार्थपरता की प्रवृत्ति से ही विशेषाधिकार का जन्म होता है। विवेकानन्द कहते थे," विशेषाधिकार भोग करने की धारणा मनुष्य जीवन पर कलंक स्वरुप है।" किन्तु स्वामी विवेकानन्द इस विशेषाधिकार के कलंक स्वरूप अवधारणा को केवल आर्थिक क्षेत्र तक ही सीमित रखने के पक्षधर नहीं थे।
वे कहते हैं, " प्रथम है- बाहुबल (Hand) का विशेषाधिकार, जो सबल है वह निर्बल का शोषण करके
विशेष सुविधा भोग चाहेगा, यही तो पाशविकता है। इस जगत में धनबल का विशेषाधिकार भी इसी प्रकार का है। यदि दूसरे की अपेक्षा किसी के पास अधिक धन-दौलत है, तो वह कम वालों पर थोड़ा विशेषाधिकार चाहता है, या अधिक सुविधा भोग करना चाहता है।" फिर बुद्धिबल (Head) का विशेषाधिकार, उससे कहीं अधिक सूक्ष्म और शक्तिशाली है। एक आदमी दूसरों की अपेक्षा अधिक जानकारी रखता है (वकील-डॉक्टर) इसलिये वह अधिक विशेषाधिकार का दावा करता है। और सबसे अन्तिम तथा सबसे निकृष्ट, है आध्यात्मिक-ज्ञान (Heart) से उत्पन्न विशेषाधिकार--यह सर्वाधिक अत्याचारपूर्ण है! जो (ढोंगी साधु-संन्यासी भेषधारी या दुष्ट पण्डे-पुरोहित) लोग यह सोचते हैं कि वे आध्यात्मिकता या ईश्वर के बारे में अधिक जानते हैं, इसीलिये, उनको अन्य सबकी अपेक्षा श्रेष्ठतर विशेषाधिकार मिलना ही चाहिये। वे कहते हैं, "ऐ भेड़-बकरियों! आओ और हमारी पूजा करो,हमें ऊँचा आसन दो, क्योंकि हम ईश्वर के संदेशवाहक हैं और हमारी पूजा तुम्हें करनी ही पड़ेगी।"
किन्तु जो स्वयं सच्चा वेदान्ती ('भ्रांति-मुक्त', disillusioned-डी-हिप्नोटाइज्ड नेता या पैगम्बर) होगा, वह कभी किसी के उपर शारीरिक, मानसिक अथवा आध्यात्मिक विशेषाधिकार के लिये दावा नहीं करेगा। कभी कर ही नहीं सकता, क्योंकि वह तो अपने अनुभव से जानता है कि एक ही शक्ति (महत प्रवृत्ति) तो सभी मनुष्यों में अन्तर्निहित है ! इसीलिये अद्वैत का कार्य इन सभी विशेषाधिकारों को तोड़ डालना है। वेदान्त इस विशेषाधिकार-वाद के विरुद्ध प्रचार करना चाहता है, मानव-आत्मा के उपर इस उत्पीड़न को चूर-चूर कर देना चाहता है। "
यही स्वामी विवेकानन्द के द्वारा प्रतिपादित [महामण्डल के 'रामकृष्ण -विवेकानन्द वेदान्त परम्परा ' में आधारित लीडरशिप ट्रेनिंग के माध्यम से 'BE AND MAKE' अर्थात 'भ्रान्ति-मुक्त नेता बनो और बनाओ' रूपी] वेदान्त क्रांति कार्यक्रम (वेदान्तिक रेवोलुशन प्रोग्रैम या 'বৈদান্তিক বিপ্লব কর্মসূচি') की मूल बात यही है! किन्तु वे बड़े क्षोभ के साथ कहते हैं- " इस देश में उद्देश्य तो अनेक हैं, किन्तु उसे प्राप्त करने का उपाय नहीं है। हमारे पास मस्तिष्क (Head) तो है, परन्तु हाथ (Hand) नहीं। हम लोगों के पास वेदान्त मत-(प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है !) है, लेकिन उसे कार्य में परिणत करने की क्षमता नहीं है। हमारे ग्रन्थों में सार्वभौम-साम्यवाद का सिद्धान्त है, किन्तु कार्यों में महा भेद-वृत्ति है। महा निःस्वार्थ, निष्काम कर्म भारत में ही प्रचारित हुआ, परन्तु हमारे आचरण अत्यन्त निर्मम और अत्यन्त हृदयहीन हुआ करते हैं; और मांसपिण्ड की अपनी इस काया को छोड़ कर,देह-सुख सिवा अन्य किसी उच्चतर आनन्द के विषय में हम सोचते ही नहीं। "
विवेकानन्द के मतानुसार- " भगवान और शैतान (अहुरमज्द और अहिर्मन) सुर और असुर में कुछ भेद नहीं हैं, भेद केवल स्वार्थशून्यता तथा स्वार्थपरता में है। शैतान (असुर) भी उतना जानता है जितना सुर, उसमें बस पवित्रता नहीं होती-इसीसे वह असुर बन जाता है। शैतान भी भगवान के जैसा ही शक्तिशाली है, केवल उसमें पवित्रता नहीं है- इस पवित्रता के आभाव ने ही उसको शैतान बना दिया है। इसी कसौटी पर आधुनिक संसार को परख कर देखो। पवित्रता नहीं रहने से, ज्ञान और शक्ति का अतिरेक मनुष्य को शैतान में परिणत कर देता है। " ९/१०२
इस पवित्रता का अर्जन (chastity- चैस्टिटी या इन्द्रियनिग्रह की भावना) ही 'भ्रान्ति-मुक्त नेता बनो और बनाओ' रूपी वेदान्त क्रांति कार्यक्रम (वेदान्तिक रेवोलुशन प्रोग्रैम या 'বৈদান্তিক বিপ্লব কর্মসূচি') का अधिकांश भाग (main body) है! पवित्रता अर्जन करना ही आध्यात्मिकता को अर्जित करना है, एवं यह जीवन के प्रत्येक स्तर के लिये अत्यन्त प्रभावी होता है। विवेकानन्द के मतानुसार मनुष्य जीवन में- ' धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष' (सैक्रिड और सेक्युलर) रूप से दो अलग-अलग कार्य-क्षेत्र नहीं हैं। क्योंकि जीवन एक ही वस्तु है, और हर प्रकार से अधि-आत्मिक (Hyper-spiritual,अति-आत्मिक) है। किन्तु धर्म क्या है ?
विवेकानन्द का उत्तर होगा - " धर्म का अर्थ क्या इस प्रकार प्रार्थना करना है- " हमें यह दो, वह दो" ? नहीं, धर्म के संबन्ध में ये सब धारणायें प्रमाद हैं। हमारे गुरुदेव कहा करते थे, ' गीध बहुत ऊँचे उड़ते हैं, किन्तु उनकी दृष्टि रहती है जानवरों के शव की ओर।' जो हो, तुममें धर्म के सम्बन्ध में जो सब धारणायें हैं, उनका फल क्या है, बताओ तो सही ? ..रास्ते की सफाई करना, और अच्छे अन्न-वस्त्र का संग्रह करके उनका वितरण कर देना; क्या धर्म का यही अर्थ है? ....यदि साहस हो, उनके बाहर चले आओ। सब नियमों के बाहर चले जाओ, समग्र जगत उड़ जाय - तुम अकेले आकर खड़े हो जाओ।' ८/७९ সমগ্র জগৎ উড়িয়া যাক—আপনি একলা আসিয়া দাঁড়ান।--स्वामीजी का वास्तविक क्रांतिकारी आह्वान भी यही है !
प्रसिद्द इतिहासकार एवं विचारक अर्नाल्ड टायनबी की पुस्तक 'सरवाइविंग द फ्यूचर' (Surviving the Future) में भी, स्वामी जी के इसी उक्ति की प्रतिध्वनी सुन सकते हैं। वे कहते हैं- " सच्चे और दीर्घ स्थायी शान्ति को प्राप्त करने के लिये,जो अत्यन्त आवश्यक है वह है- एक आध्यत्मिक-क्रांति !" उन्होंने क्रांति के
दो मार्गों का उल्लेख किया है -- एक में क्षोभ और (मोहजाल से ) मुक्ति की आकांक्षा, विध्वंस का विस्फोटक रूप धारण कर लेती है, और दूसरे प्रकार की आध्यात्मिक-क्रांति जिस मनुष्य के भीतर घटित हो जाती है, (जो भ्रम-मुक्त या देहाध्यास से डी-हिप्नोटाइज्ड हो जाता है), वह अधिकांशतः मूक (गूँगा) हो जाता है, और बाहर से देखने पर कम क्रियाशील प्रतीत होता है।" ठीक विवेकानन्द के शब्दों में -समग्र जगत उड़ जाय - तुम अकेले आकर खड़े हो जाओ।'" ( देहाध्यास या हिप्नोटाइज्ड स्टेट ऑफ़ माइंड से स्व यंभ्रम-मुक्त होकर बाहर निकल आओ, और दूसरों को भी भ्रम मुक्त करने के कार्य में जुट जाओ !)
"अर्नाल्ड टायनबी (Arnold Joseph Toynbee) - 'The way of the drop-outs ' की - तुलना
'सेंट फ्रांसिस ऑफ असीसी' से करते हुए कहते हैं- उनके आलावा इस प्रकार विसम्मोहित (भ्रम-मुक्त या डी-हिप्नोटाइज्ड) होकर अकेले खड़े हो जाने वाले महापुरुषों के और भी कई उदाहरण (बुद्ध,नवनीदा आदि) हैं, जिनके कारण समाज विशेष रूप से उपकृत हुआ है।"
[सेंट फ्रांसिस ऑफ़ असीसी (११८२-१२२६)" को यीशु मसीह के त्यागपूर्ण जीवन का अनुकरण करने वाले, ईसाई परंपरा में संतों में एक श्रेष्ठ उदाहरण माना जाता है। उन्होंने गरीबी और पवित्रता (इन्द्रिय-निग्रह, chastity) के जीवन को गले लगाने के लिए,अपने पूर्व-जीवन के धन और सामाजिक स्थिति का त्याग कर दिया था। सेन्ट फ्रांसिस के विद्रोह की तुलना हिप्पी आंदोलन के क्रन्तिकारी युवा से करने का कारण यही दिखाना है कि सेन्ट फ्रांसिस ऑफ़ असीसी ने अपना विप्लव एक “drop-out” की तरह ही प्रारम्भ किया था, किन्तु उनके जीवन का अन्त एक हिप्पी के रूप में नहीं, बल्कि एक मानवजाति के सच्चे नेता की तरह हुआ। जो अपने लिए धनी होने के कारण किसी भी प्रकार का विशेषाधिकार नहीं चाहते थे। उन्होंने युवावस्था में अपनी क्रांति का प्रारम्भ अपने पिता के भौतिकवादी मानसिकता का हिप्पियों की तरह नग्न होकर नकारात्मक विरोध किया था, किन्तु वे क्रमशः चरित्र-निर्माण की सकारात्मक पद्धति को सीखकर अपना आध्यात्मिक जीवन गठित कर लिया था। इसीलिए अर्नाल्ड टायनबी कहते हैं - मैं हिप्पी-आंदोलन के ऊपर अभी कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं दूंगा, मैं इस आंदोलन की परिणीति को देखने के बाद ही हिप्पी युवाओं के विषय में कुछ कहूँगा। ]
हम यह नहीं जानते कि ऐसा कहते समय उनके मन में विवेकानन्द (या नवनी दा?) का नाम था या नहीं, किन्तु हमलोग यह निश्चित रूप से जानते हैं कि हमारे युग के इस प्रकार के एक रूढ़िमुक्त वैगाबॉन्ड (बोहेमियन, खाना बदोश या घुमक्कड़) दल के मार्गदर्शक नेता थे स्वामी विवेकानन्द ! ( আমাদের যুগে এমন এক ছন্নছাড়া গোষ্ঠীর পুরোধা ছিলেন স্বামী বিবেকানন্দ' जैसे हमारे युग में, रूढ़िमुक्त
वैगाबॉन्ड दल के मार्गदर्शक नेता,आध्यात्मिक- क्रांति के अग्रदूत का नाम था- नवनी दा!) जो न केवल अपने समाज में एक क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के प्रति दृढ़ संकल्प थे, बल्कि भारत के सभी युवाओं के विचार-जगत में एक क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के लिए कृतसंकल्प थे। और यही एक नई क्रांति -चरित्र-निर्माण आंदोलन की शुरुआत भी है।
स्वामी विवेकानन्द ने भावी नेताओं अपने क्रमानुयायीओं या सक्सेसर्स का आह्वान करते हुए कहा था , " बाह्य रूपों तथा अवस्था में कभी साम्य प्राप्त नहीं हो सकता। किन्तु विशेषाधिकार के लालच को हमलोग अवश्य हटा सकते हैं। सारे संसार के समक्ष वास्तव में यही कार्य है। प्रत्येक कौम और प्रत्येक देश के सामाजिक जीवन का एकमात्र संग्राम यही है । युगों -युगों से धर्म और नैतिकता का लक्ष्य इसी विशेषाधिकार के लोभ को नष्ट करना रहा है। सृष्ट जगत की स्वाभाविक विविधताओं को नष्ट किये बिना, साम्य-प्राप्ति और एकत्वबोध की दिशा में अग्रसर होते रहना ही हमलोगों का (महामण्डल नेताओं का 'छन्न छाड़ा गोष्टी के पुरोधाओं' का) एकमात्र कार्य है । " यहीं पर अध्यात्मिक क्रांति की दृष्टि से विवेकानन्द की सकारात्मक कार्य पद्धति-'BE AND MAKE' में सृजन की खोज दिखाई देती है। जड़वादियों के इन्कलाब और अध्यात्मवादियों की क्रांति में यही अंतर है कि वे अपने लिये कोई विशेषाधिकार नहीं चाहते ! संस्कृत के कवि भास बहुत सुंदर ढंग से कहते हैं-
'प्राज्ञस्य मूर्खस्य च कार्ययोगे,
समत्वम् अभ्येति तनुः न बुद्धिः||'
स्वामी विवेकानन्द के मन में मुक्ति की परिकल्पना बहुत व्यापक थी। वे सम्पूर्ण मानव जाति के लिये राजनैतिक, सामाजिक, बौद्धिक, और आध्यात्मिक मुक्ति उपलब्ध करना चाहते थे। इसीलिये १९२९ ई ० में हुगली जिला छात्र सम्मेलन के अध्यक्षीय भाषण में नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने कहा था- "राममोहन के युग से लेकर भारत की स्वाधीनता प्राप्त करने की आकांक्षा, विभिन्न आंदोलनों के माध्यम से क्रमशः प्रकटित होती आ रही है। उन्नीसवीं शताब्दी में मुक्ति की यह आकांक्षा व्यक्ति के विचार-जगत और समाज के भीतर तो दिखाई देती थी, किन्तु उस समय भी राष्ट्रिय क्षेत्र में दिखाई नहीं देती थी - क्योंकि उस समय पराधीनता के मोहनिद्रा में निमग्न भारत-वासी, ऐसा समझते थे कि अंग्रजों का भारत पर विजय प्राप्त करना एक दैवी घटना या ईश्वरीय विधान (divine dispensation) है। स्वाधीनता के अखण्ड रूप का आभास, उन्नीसवीं शताब्दी के अंत, तथा बीसवीं शताब्दी के आरंभ में- "रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा" (के लीडरशिप ट्रेनिंग) में प्राप्त होता है। स्वामीजी का यह सन्देश - 'Freedom, freedom is the song of the soul' - जब ('निर्झरेर स्वप्नभंग' की तरह) स्वामीजी के हृदय के बन्द दरवाजे को भेदन करके प्रकट हुआ उस समय वह समग्र देशवासी को मंत्रमुग्ध और उत्साहित बना दिया था। उनकी साधना (निर्विकल्प समाधि का त्याग) के माध्यम से, आचरण के माध्यम से एवं व्याख्यानों के माध्यम से यही सत्य प्रकट हुआ था। स्वामी विवेकानन्द जहाँ एक ओर, ' मनुष्य को समस्त प्रकार के बन्धनों से स्वाधीन होकर (प्रकृति के मोहजाल से भ्रम-मुक्त या डी-हिप्नोटाइज्ड होकर) यथार्थ मनुष्य (ब्रह्मवेत्ता) बनने का आह्वान करते हैं, उसी प्रकार सर्वधर्म समन्वय (नवनी दा-अविरोध) के प्रचार द्वारा भारत की राष्ट्रीय-एकता की बुनियाद को भी स्थापित कर देते हैं। "
इसीलिये बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में ' राजद्रोह जाँच समीति ' (Sedition Committee) के रिपोर्ट में लिखा गया था कि भारत के क्रांतिकारियों के पाठ्यक्रम या सिलेबस में मैजनी, गैरीबाल्डी की जीवनी के साथ भगवद-गीता और विवेकानन्द-साहित्य भी पढ़ाये जाते थे। ढाका के जेल में क्रांतिकारी हरिकुमार से तात्कालीन बंगाल के राज्यपाल लार्ड रोनाल्डशे (१९१७ - १९२२) ने पूछा था-" क्या आप कहीं विवेकानन्द के अनुयायी और वेदान्ती तो नहीं हैं ? " विवेकानन्द को विपिन चन्द्र पाल ' राष्ट्रवाद का प्रवक्ता ' कहते थे। दूसरे लोग उनको 'भारत का रूशो ' के नाम से संबोधित करते थे। अरविन्द ने लिखा था, " दक्षिणेश्वर की मिट्टी से डायनामाईट का निर्माण हुआ था।" शायद इसीलिये,जब अरविन्द को बम बनाने के मुकदमे में 'ग्रे-स्ट्रीट' के निवास से गिरफ्तार किया गया, उस समय तलाशी में पुलिस को वहाँ से केवल एक ही सन्देहास्पद पुड़िया प्राप्त हुई,पुलिस को लगा कि उसमें कोई बिस्फोटक पदार्थ रखा हुआ है। अरविन्द ने हँसी करके बाद में लिखा था, " पुलिस का सन्देह गलत नहीं था, क्योंकि पुड़िया बांध कर ताखे में जो रखा हुआ था, वह वास्तव में बिस्फोटक पदार्थ तो था ही। क्योंकि उसमें दक्षिणेश्वर की थोड़ी सी मिट्टी रखी हुई थी।"
स्वामी विवेकानन्द के भीतर अध्यात्मिक-क्रांति का बीज था इसीलिये यह सब सम्भव हो सका था। (उनमें नेतागिरी के विशेषाधिकार उन्मूलन करने सक्षम निर्विकल्प-समाधी जन्य विवेकज ज्ञान-बीज सन्निहित था, इसीलिये ये सब संभव हो सका था।) इसीलिये विवेकानन्द ने आह्वान किया था- "लाखों स्त्री-पुरुष पवित्रता के अग्निमन्त्र से दीक्षित होकर, भगवान के प्रति अटल विश्वास से शक्तिमान बनकर और गरीबों, पतितों तथा पददलितों के प्रति सहानुभूति से सिंह के समान साहसी बनकर इस सम्पूर्ण भारत देश में सर्वत्र उद्धार के सन्देश का, सेवा के सन्देश का, सामाजिक उत्थान के सन्देश का, समानता (विशेषाधिकार उन्मूलन) के सन्देश का प्रचार करते हुए विचरण करेंगे। "उठो जागो ! क्योंकि तुम्हारी मातृभूमि इसी महाबली की प्रार्थना कर रही है। "
किन्तु इस अध्यात्मिक क्रांति का मार्ग पर चलना, छुरे की तीक्ष्ण धार पर चलने के समान दुर्गम है। यदि भारत का युवा-वर्ग व्यवस्था में परिवर्तन लाना चाहते हों, तथा समाज से गन्दगी को दूर करने के लिये दृढ़ संकल्प हों, तथा इस नई आध्यात्मिक-क्रांति से प्रेम करने का साहस (कच्चे मैं को जीतेजी मरते देखने का साहस) रखें, तब उन्हें भी अपनी मानवीय सम्भावना का विकास और अभिव्यक्ति, स्वयं भ्रम-मुक्त होने और दूसरों को भी भ्रम-मुक्त करने की आंतरिक प्रेरणा प्राप्त होगी। इस मार्ग पर चलने का एकमात्र संबल है, विवेकानन्द निर्देशित 'मनुष्यत्व -उन्मेषक और चरित्र निर्माणकारी शिक्षा।' [ नवनी दा निर्देशित ५ अभ्यास का प्रशिक्षण]
चरित्र ही इस क्रांति का एकमात्र हथियार है; और इस आध्यात्मिक-क्रन्तिकारी को पूरी निर्दयता के साथ उस क्रांति की चोट दूसरों पर नहीं अपने आप पर (विशेषाधिकार उन्मूलन हेतु ) करना होगा। यदि भारत के युवा अपने चरित्र में क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकें, तभी उनके द्वारा समाज में परिवर्तन लाना संभव होगा। अन्यथा जड़वादी इन्कलाब का भोथरा तलवार निष्फल होकर किसी न किसी दिन वापस उन्हीं के ऊपर गिरेगा । जो लोग त्याग और सेवा के माध्यम से अपना चरित्र गठन करते हैं, केवल वैसे ही लोग ' अध्यात्मिक क्रांति की पताका ' (महामण्डल का वज्रांकित ध्वज) के नीचे एकत्र हो सकते हैं।
आज भारत को जिस चीज की घोर आवश्यकता है, वह है चरित्र ! चरित्र-निर्माण आंदोलन ही समाज के पतन और वैषम्य को दूर कर सकता है। विशेषाधिकार और शोषण को समाप्त कर सकता है। समानता और न्याय तथा परस्पर सौहार्द को स्थापित कर सकता है। आज भारत की स्वाधीनता का 27 वर्षों बाद (यह लेख 1974 में प्रकाशित हुआ था) टायनबी उल्लेखित पुराने ढंग की (हिप्पी) क्रांति का प्रयोजन समाप्त हो गया है। आज आवश्यकता है एक नये ढंग की क्रांति की। अराजक विभत्सता (नक्सलवाद -आतंकवाद) में गोली खाकर मर जाने से भी कठिनतर है अपने संयमित उत्तेजनाहीन जीवन को गढ़ते हुए- देश को गढना ! ' मृत्यु हो जाने तक, यह जीवन (नवनी दा का?) दुःख की तपस्या मात्र है! इस सत्य-पथ पर चलना अत्यन्त कठिन है; किन्तु इसे समझ-बूझ कर ही, मैंने ' कठिनतर ' से प्यार किया है।"
जीवन में कर्तव्य कठोर हैं,
सुखों के पंख लग गये हैं,
मंजिल दूर, धुँधली सी झिलमिलाती है,
फिर भी अन्धकार को चीरते हुए बढ़ जाओ,
अपनी पूरी शक्ति और सामर्थ्य के साथ !
हे वीरात्मन,तुम्हारे उत्तराधिकारी अवश्य जन्मेंगे,
यह भीड़ सही बातें देर से समझती है,
तो भी चिन्ता न करो, मार्ग-प्रदर्शन करते जाओ।
तुम्हारा साथ वे देंगे, जो दूरदर्शी हैं,
तुम्हारे साथ शक्तियों का स्वामी है,
आशीषों की वर्षा होगी तुम पर,
ओ महात्मन, तुम्हारा सर्वमंगल हो !
"वेदान्ती नैतिकता का यही सारांश है-सबके प्रति साम्य । हम देख चुके हैं कि वह अन्तर्जगत है, जो बाह्य जगत पर शासन करता है। विषयी को परिवर्तित करो, विषय भी परिवर्तित हो जायेगा। स्वयं को शुद्ध कर लो और संसार का विशुद्ध होना अवश्यम्भावी है। लोग बदल जाएँ, तो जगत भी बदल जायेगा। 'हम बदलेंगे युग बदलेगा '- पहले के किसी समय से अधिक आजकल इस एक बात की शिक्षा देने की आवश्यकता है। क्योंकि हमलोग अभी अपने विषय में उतरोत्तर कम और अपने पड़ोसियों के विषय में क्रमशः अधिक व्यस्त होते जा रहे हैं। यदि हम परिवर्तित होते हैं, तो संसार परिवर्तित हो जायेगा; यदि हम निर्मल हैं, तो संसार निर्मल हो जायेगा। " ९/१०२
[मनुष्य को आध्यात्मिक मनुष्य में परिवर्तित करने वाले आध्यात्मिक क्रांति का सूत्रपात नवनीदा ने महामण्डल का लीडरशिप ट्रेनिंग द्वारा;'निर्झरेर स्वप्नभंग' (disillusioned) डी-हिप्नोटाइज्ड, भ्रम-मुक्त नेता के रूप में नवनी दा ने अपने हृदय के प्रेम मन्दाकिनी को 'जीवन के हर मोड़ पर',सभी युवाओं के जीवन-गठन का सूत्र, भारत-निर्माण का सूत्र , मनुष्य जीवन के उद्देश्य, सार्थकता का सूत्र -" BE AND MAKE " का प्रचार- प्रसार करते हुए किया था। उन्होंने आजीवन अपनी शारीरिक, मानसिक, धन-संपत्ति से परिपूर्ण, श्रेष्ठ ब्राह्मण वंश और खड़दह के श्री हर्ष के कुल और भुवन-भवन में जन्म ग्रहण करने के बावजूद, अथवा सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक ज्ञानी होने के आधार पर, कभी किसी प्रकार के विशेषाधिकार का कोई दावा नहीं किया था ! नवनी कहते थे - ’'कम आउट फ्रॉम दी हिप्नोटाइज्ड स्टेट ऑफ़ माइंड, फ्रॉम द हर्ड ऑफ़ शिप्स; एंड स्टैंड अलोन लाइक अ लॉयन! लाइक अ ट्रू लीडर ऑफ़ मैनकाइंड ! उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत ! महामण्डल के वार्षिक युवा प्रशिक्षण में भ्रम-मुक्त होकर 'भेंड़' से 'शेर' बनने के ५ अभ्यास का प्रशिक्षण देने में सक्षम कम से कम १००० मानवजाति के सच्चे मार्गदर्शक 'नेता बनो और बनाओ',उसके पहले विश्राम मत लो !--यही है नवनी दा के नव-विप्लव का आह्वान ! ]
(पूज्य नवनी दा के शरीर त्याग देने के बाद) इस नई आध्यात्मिक क्रांति की रण-गर्जना -' छन्न छाड़ा गोष्ठी- के पुरोधा बनो और बनाओ' को अपने हृदय से श्रवण (मनन -निदिध्यासन) करो!-
[শিয়রে শমন, = in extermis, काली के हाथ में सिर काटने वाली भीम-कृपाण को देखकर
মরণোন্মুখ, মুমূর্ষ, মরোমরো, মৃত্যুর দ্বারপ্রান্তে স্থিত। Extermis, = आख़िर में मरणोन्मुख होते समय, इस क्षण और मृत्यु के ठीक एक क्षण पहले, मौत के कगार पर पहुँचकर विवेकज ज्ञान का अनुभव करो ! जान लो तुम कभी मरोगे नहीं !]
'उठो उठो, महातरङ्ग आ रहा है ! निर्झर के स्वप्न को भंग करो !
[उस महातरङ्ग में इस अहं-बिन्दु के विध्वंश (extermination) को देखकर डरो मत ! ]
स्वयं को विसम्मोहित करो !
জাগো বীর, ঘুচায়ে স্বপন, শিয়রে শমন, ভয় কি তোমার সাজে?
পূজা তাঁর সংগ্রাম অপার, সদা পরাজয় তাহা না ডরাক তোমা।
' जागो वीर ! सदा ही सिर पर काट रहा है चक्कर काल।
छोड़ो अपने सपने, भय क्यों ? काटो-काटो यह भ्रमजाल ।।
फोड़ो वीणा प्रेमसुधा का पीना छोड़ो, तोड़ो वीर ।
दृढ़ आकर्षण है जिसमें उस नारी-माया की जंजीर।।
सदा घोर संग्राम छेड़ना उनकी पूजा के उपचार।
वीर ! डराये कभी न, आये पराजय सौ सौ बार।।
चूर चूर हो स्वार्थ, साध, सब मान, हृदय हो महाश्मशान।
नाचे उस पर श्यामा, लेकर घन रण में निज भीम कृपाण ।। ' 9/335
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