भावावेश ( Emotionality) रूपी अफीम की मिलावट से परिशोधित धर्म!
भाव (brainchild-अपना विचार या दर्शन) अच्छा है, किन्तु भावुकता (emotionality या भावावेश) अच्छी नहीं। फिर भी हमलोगों में से कई व्यक्ति भावावेश में बह ही जाते हैं। हमलोग किसी भाव या आदर्श को गहराई से सोच-विचार करने के बाद ग्रहण नहीं करते। यह बात सही है, कि स्वामी विवेकानन्द ने धर्म का प्रचार किया था। यह बात भी सत्य है कि धर्म के साथ अफीम (অহিফেন) की गन्ध तरह संयुक्त भावुकता कई बार हमारी बुद्धि मोहग्रस्त कर देती है,और हम अपने कर्तव्य पथ से भटक जाते हैं। उसी प्रकार यह भी सत्य है कि धर्म ही सत्य है, अफीम (धर्म का नशा) सत्य नहीं है! स्वामी विवेकानन्द ने धर्म के सत्य को, अतिशय भावुकता रूपी अफीम के मिलावट से परिशोधित करके, विशुद्ध धर्म के रूप में -'मनुष्य बनो और बनाओ ' को मानव-समाज के समक्ष प्रस्तुत किया था। सच्चे से सच्चा धर्म भी, चाहे जिस कारण से हो - चाहे कट्टर राष्ट्रवाद के कारण हो, सामाजिक सोच या धार्मिक नासमझी के कारण हो, या चाहे जिस कारण से हो, समय के प्रवाह में दूषित हो ही जाता है। धर्म का शुद्ध रूप उसके अनुयायियों के व्यवहार या आचरण में व्यक्त होता हुआ दिखाई नहीं देता। केवल धर्म के मामले में ही ऐसा हुआ हो----सो बात नहीं है; अन्यान्य विचारों के क्षेत्र में भी हमलोग ऐसी घटनाओं को देख पाते है,और आज भी देख रहे हैं। किन्तु जिस समय धर्म के क्षेत्र में ऐसी अवस्था होती है, उस समय धर्म को फिर से नये रूप में सज्जित करके समस्त मनुष्यों के लिये ग्राह्य बनाकर, मानव-जाति के समक्ष प्रस्तुत करना पड़ता है, और उसका प्रचार करना पड़ता है।
स्वामीजी के इस नव-वेदान्त प्रचार 'बनो और बनाओ ' रूपी चरित्र-निर्माण आन्दोलन का केवल एक वैशिष्ट है, और वह वैशिष्ट भी भारतीय विचार-धारा के अनुरूप ही है। और वह है, कि अन्यान्य क्षेत्रों में जहाँ विचारकों ने एक एक विषय के भाव को लेकर ही चिन्तन किया है, और अपने चिन्तन का फल समाज को प्रदान किया है। जबकि स्वामी विवेकानन्द ने मनुष्य के समग्र पहलू (overall-aspect) के ऊपर चिंतन किया है। उनके चिन्तन में मनुष्य की समग्र सत्ता (3H), एवम उसका सम्पूर्ण समाज एक विषय के रूप दिखाई देता है। जबकि अन्यान्य विचारकों में से किसी ने केवल राष्ट्र के उपर चिन्तन किया है, किसी ने समाज के उपर, किसी ने विशेष कौम पर, किसी ने विभिन्न धर्मो के उपर, किसी ने शिक्षा के उपर, किसी ने कृषि के उपर, किसी ने कला के उपर, किसी ने साहित्य के उपर, किसी ने संगीत के उपर - या इसी प्रकार के अलग अलग कई विषयों को लेकर चिन्तन किया है।
किन्तु स्वामी जी ने - उपरोक्त समस्त क्षेत्र या त्रिज्यायें जिस केन्द्र के साथ जुड़े हुए हैं, उसी मनुष्य के उपर चिन्तन किया है। तथा मनुष्य वास्तव में क्या है - इस पर चिंतन करते करते उन्होंने ऐसे एक धागे (निःस्वार्थपरता) का अविष्कार कर लिया। जो उपरोक्त सब विचारों के भीतर से होकर गुजर सकता है, तथा उस धागे को मनुष्य के गले में पहना दिया, और उसका नाम दिया धर्म! और कहा कि यही वह धागा है, जो मनुष्य को सभी ओर से धारण किये रखेगा-अर्थात मनुष्य को मनुष्य बनाये रखेगा। इसीलिये भिन्न भिन्न नाम (ब्राण्ड) वाले जो धर्म हैं, जो समय के प्रवाह में केवल भावावेश (emotionality) मात्र प्रदान करते हैं, या अफीम की तरह नशा उत्पन्न करते हैं। स्वामी जी का धर्म, इस तरह के विभिन्न नाम वाले धर्मों से सम्पूर्णतया अलग किस्म का है। किसी ब्रांडेड धर्म का नाम सुनने से ही जिनके मन में एक प्रकार का उन्माद (delirium) उत्पन्न हो जाता हो, वे यदि चाहें तो इसके लिये और एक नये शब्द का अविष्कार कर सकते हैं, वैसा करने से उसमें वास्तव में कोई अन्तर नहीं पड़ेगा।
ऐसा कहना, कि जो लोग किसी खास निर्दिष्ट नुस्खा (Prescription) के अनुसार जीवन -यापन करते हों, वे ही धार्मिक हैं, और बाकी सभी लोग अधार्मिक हैं, इस बात में कोई दम नहीं है। जो अपने जीवन को सभी पहलुओं उसके उपयुक्त केन्द्र में धारण किये रह सकते हैं, वास्तव में वे ही धार्मिक व्यक्ति हैं। मनुष्य अपने केन्द्र से उसी समय जुड़ पाता है, जब वह दूसरे मनुष्यों के साथ युक्त होता है। यह जुड़ाव या योग
तभी साधित होता है,जब मनुष्य धर्म के उस वैश्विक- धागे को धारण कर लेता है। स्वामी जी द्वारा ' मनुष्य ' की जो परिभाषा दी गयी है, उसमें सूत्र के रूप में यही बात सन्निहित है। स्वामीजी के मतानुसार 'मनुष्य' एक ऐसा वृत्त है, जिसकी परिधि असीम है, जबकि उसका केंद्र एक स्थान में है। इस सूत्र का निहितार्थ अत्यन्त व्यापक है। जो मनुष्य स्वामीजी के धर्म में विश्वासी होता है, उसके जीवन की परिधि विश्वव्यापी हो जाती है।
यहीं पर विकास का मूल है। और स्वामी जी के धर्म की मूल बात- मनुष्य का ऐसा समग्र विकास ही है। इसी विकास के पथ पर अग्रसर रहते हुए, मनुष्य अपनी क्षूद्र सत्ता, ' मैं'-बोध (अहं भाव) को खोना सीख लेता है। मनुष्य अपनी संकीर्णता, स्वार्थपरता को त्याग करता हुआ विशालता या महिमा को प्राप्त करने की तरफ आगे बढ़ता जाता है। इस प्रकार महिमा की तरफ अग्रसर होना ही स्वामीजी के विचारों में ईश्वर के मार्ग पर आगे बढ़ना है। क्योंकि स्वामीजी के मतानुसार - ' निःस्वार्थपरता ही ईश्वर है ! ' यदि इसी उक्ति को धर्म कहा जाय, तो इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है ? क्या किसी लोक-नायक ने धर्म की ऐसी परिभाषा अन्य किसी भाषा में पहले कभी नहीं कहा है ? जिन्होंने ऐसा नहीं कहा मनुष्य उनको कभी जन-नेता के आसन पर प्रतिष्ठित भी नहीं करता है।
फिलोसफी, जप, तप, देवता-घर, दीपक-दानी, केले का थम, कुशी-घंटी-शंख इन सब को स्वामीजी ने व्यक्तिगत धर्म कहा है। किन्तु जिस धर्म को सभी लोग समझते हैं, वह है परोपकार। अपने हृदय के विश्वव्यापी परिधि के अन्तर्गत समस्त जीवों के एकत्व की उपलब्धी करना ही धर्म है। यह उपलब्धी हो जाने के बाद मनुष्य द्वारा किया गया कोई भी कर्म परोपकार होता है, और वही है धर्म। यह धर्म कायरों के लिये नहीं है, यह वीरों का धर्म है। क्योंकि कायर (डरपोक) दूसरों को मारता है, और वीर ( अर्थात सच्चा जिहादी ) अपने कच्चे ' मैं '-को (अपने तुच्छ अहं को ) मारता है। मैं साँप को मार देता हूँ, बिच्छू को मार देता हूँ, या जिस किसी को भी मैं, मेरे इस सुख-सपने के जीवन को समाप्त कर सकने वाला समझता हूँ, जो मुझे हानी पहुंचा सकता है, उस उस को मैं मार देता हूँ, क्योंकि वास्तव में मैं कायर हूँ। किन्तु जो वीर होता है, वह इस वृहत जगत (भव-सागर ) के पार जाने के लक्ष्य को ध्यान में रखकर, अपने तुच्छ स्वार्थ के छोटे से दायरे में बंधे - ' मैं और मेरा ' को मारता है।
इसीलिये धर्म कायरों के लिये नहीं वीरों के लिये है। स्वामीजी ने कहा है, ' मनुष्य में अन्तर्निहित अनन्त शक्ति का स्फुरण (या प्रस्फुटित) होना ही धर्म है।' उस धर्म की अभिव्यक्ति - बुराई को हटाने में,कल्याण
- कार्यों को सम्पादित करने में, भूखों को अन्न-दान करने, अज्ञानियों को ज्ञान देने, अत्याचार का प्रतिरोध करने, शुद्धबुद्धि को उद्घाटित करने के प्रयास से होती है। धर्म का मुख्य कार्य ही है, मनुष्य को शक्ति प्रदान करना। स्वामीजी के मतानुसार - 'जो धर्म मनुष्य को इस संसार में सुखी नहीं बना सकता, उस धर्म के द्वारा परलोक या मरने के बाद सुख देगा का आश्वासन बिलकुल झूठी बात है।'
यदि मनुष्य इसी लोक में सुख प्राप्त करना चाहता हो, तो वैसा सुख केवल अपने सुख-सुविधा के ऊपर ही दृष्टि को केंद्रित किये रहने से नहीं प्राप्त होगा। यथार्थ धर्म-बोध मनुष्य को, उसकी असीम परिधि तक सक्रीय जन-कल्याण करने की भूमिका-(गुरु-नेता के कार्य) में नियोजित कर देता है। यही बोध उसको अपना और दूसरों का दुःख दूर करने की शक्ति और साहस से भर देता है। यहीं से अंतःकरण में हित-अहित का ज्ञान, अन्तरात्मा की आवाज, या विवेक-प्रयोग करने की शक्ति का जागरण हो जाता है। धर्म मनुष्य को सम्पूर्ण जगत के साथ जोड़ देता है, और नीतिबोध (आत्मा की आवाज या Conscience) उस ईश्वर के साथ जुड़े हुए मनुष्य के कर्म की निति- परोपकार को निर्धारित करता है।
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