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मंगलवार, 22 नवंबर 2016

स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना [3] 'स्वामीजी का मन' (স্বামীজির ভাব)

 'मैं सुधार में नहीं, बल्कि स्वाभाविक उन्नति (Evolution या उद्विकास) में विश्वास करता हूँ।'
'अनुसरण ही यथार्थ स्मरण है'- इस बात की चर्चा करते समय हमलोगों ने देखा था कि स्वामी जी को स्मरण करना तभी सार्थक होगा जब हमलोग उनके मौलिक भाव (उनके मन में चिरस्थायी रूप से बने रहने वाले मनोभाव -प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है)- को समझने की चेष्टा करें तथा स्वयं,भले ही वह कितने ही छोटे पैमाने पर क्यों न हो- उस मौलिक भाव का अनुसरण भी करें।
हमलोगों ने यह भी सुना था कि मनुष्य को यथार्थ 'मनुष्य' में रूपान्तरित कर देना, 'মানুষ কে ঠিক ঠিক মানুষ করে তোলা' - अर्थात मनुष्य को सच्चे अर्थों में मनुष्य बना देना ही स्वामी जी के मन का स्वाभाविक मनोभाव (প্রকৃত ভাব brainchild) या आदर्श था
यद्यपि मनुष्य को सच्चा 'मनुष्य बना देना' (মানুষ করে তোলা) यह " Be and Make "- मनुष्य बनने और बनाने ' का कार्य बहुत बड़ा कार्य है; तथापि बहुत छोटे पैमाने पर ही सही (छोटे से शिशु-संगठन,
युवा-संगठन या नारी-संगठन के माध्यम से बच्चों-किशोरों-युवाओं को ५ अभ्यास का प्रशिक्षण देने के लिये) स्वयं अग्रसर होकर ही उनका अनुसरण किया जा सकता है- विवेकानन्द जैसे 'गुरु-नेता' के अनुसरण करने का यही एक मात्र पथ है !  
इस विशाल जगत,विशाल समाज,असंख्य मनुष्यों की अनगिनत समस्यायें हैं और उन्हें दूर करने के लिये अनेकों मतवाद (dogma, कट्टर धर्म-सिद्धान्त) हैं,-- इन सबके सामने निर्भीकता के साथ खड़े होकर, सब कुछ को अपनी इच्छानुसार क्रमबद्ध तरीके से सजा देने (जैसे कार्ल मार्क्स की साम्यवादी व्यवस्था को सम्पूर्ण विश्व में लागु कराने के लिये) का स्वप्न देखने का भी अपना एक अलग विराटत्व (magnitude) है! तथापि इस मार्ग से जबरन (राजनैतिक सुधार या बन्दूक का भय दिखाकर) पूरे समाज को सच्चे मनुष्य में रूपान्तरित कर पाने की बहुत अधिक व्यावहारिक सम्भावना दिखाई नहीं पड़ती है।
किन्तु, यदि हममें से प्रत्येक व्यक्ति स्वयं यथार्थ मनुष्य बनने की चेष्टा करें, तथा यदि हमारी वह चेष्टा दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता कर सके, तो इस विराट कार्य को बहुत छोटे पैमाने पर भी अपने हाथों में लिया जा सकता है। स्वामीजी ने कई प्रकार से इसी पथ से अग्रसर होने का परामर्श, हमलोगों को  दिया था। स्वामीजी के जीवन-संगीत की रागिनी में बार-बार दुहराया जाने वाला आलाप था- 'BE AND MAKE' योजना अर्थात " स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को मनुष्यत्व अर्जित करने में सहायता करो।" भगिनी निवेदिता को ७ जुन, १८९६ को लिखे एक पत्र में स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " मेरा आदर्श अवश्य ही थोड़े शब्दों में कहा जा सकता है, और वह है -मनुष्य-जाति को उसके दिव्य स्वरुप का उपदेश देना, तथा जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उसे अभिव्यक्त करने का उपाय बता देना।" ४/४०७ (माई आइडियल इनडीड कैन बी  पुट इन्टु अ फ्यू वर्ड्स एंड दैट इज: टू प्रीच अन्टू मैनकाइंड देयर डिविनिटी, एंड हाउ टू मेक इट मैनिफेस्ट इन एव्री मूवमेंट ऑफ़ लाइफ.) 
यदि इस आदर्श का अनुसरण (एक उच्च स्तर की समाज-सेवा समझकर) किया जाय- तो जितने परिमाण में इस कार्य किया जायेगा, उसी परिमाण में समाज की मुखाकृति भी (पशुमानव से देवमानव में) परिवर्तित होती चली जाएगी। और यही है समाज में आमूल-चूल परिवर्तित लाने में समर्थ अध्यात्मिक क्रांति (Spiritual Revolution) या सम्पूर्ण क्रांति ! 
सभी प्राणियों की प्रथम चेष्टा है, अपने प्राणों की रक्षा करने की चेष्टा। सभी प्रकार के जीवों की यही जन्मजात प्रवृत्ति (Inborn tendency) होती है। किन्तु बिना किसी को अपने साथ लिये, अकेले ही प्रयत्न करते रहने से,जीवन के सभी क्षेत्रों में सफलता प्राप्त नहीं होती,- इसी विशेषज्ञता (expertise एक्स्पर्टीज़)  के आधार पर मनुष्यों ने अपने समाज का निर्माण किया था 
इस सत्य को स्वीकार करने के बावजूद कि -केवल अपने स्वार्थ को पूरा करे के लिये जीना कोई जीना नहीं है; ' প্রাণ রাখিতে সদাই প্রানান্ত '- अर्थात लगातार दम (साँस) रोके रहने की चेष्टा करने से दम निकल जाता है। '(केवल वही जीवित है जो दूसरों के लिए जीता है, बाकी तो मृत से भी अधम हैं। फिर भी इसी के लिये - न जाने कितने प्रयत्न किये जाते हैं। और इसीलिये मानव-समाज को पुनः अधिक उपयुक्त रूप में गढ़ने के लिये कितने ही प्रकार की परियोजनाएँ चलाई जाती हैं। और इसी कारण समय समय पर विप्लव (क्रान्ति) की आवश्यकता भी पड़ती रहती है।  
विप्लव शब्द की व्युत्पति ' प्लु ' धातु से हुई है। सम्पूर्ण समाज में किसी भाव (मौलिक विचार) को संचारित कर देना ही विप्लव की मूल बात है। किन्तु जो विचारधारा (भौतिकवाद) अपने साथ सब कुछ को (मनुष्य के चरित्र आदि को भी) को बहा कर ले जाता हो, उसको प्लावन (बाढ़) कहते हैं, विप्लव नहीं कहते। 

'अपने प्राण की रक्षा करना '- समस्त प्राणियों का पहला धर्म होने पर भी,उत्तम प्राणी का कार्य  'प्राण को विकसित करना' होता है। क्योंकि साधारण जीवों (Beasts) के क्षेत्र में जिसे अंतर्निहित प्रवृत्ति (সহজাত বৃত্তি' या Inherent Tendency) या  कहते है, मनुष्य के क्षेत्र में उसी को महत प्रवृत्ति (মহৎ প্রবৃত্তি 'Greater Tendency' महत बुद्धि-माँ) कहते हैं। (इसीलिए कहा जाता है - सर्वश्रेष्ठ योनि मनुष्य योनि है)

जीवन को पूर्ण रूप से विकसित कर लेने की सम्भावना या क्षमता (potential) एक अध्यात्मिक विषय है,तथा उस क्षमता को विकसित करने की चेष्टा ही,आध्यात्मिकता है।  इस मौलिक विचार (भाव) को समाज के सभी क्षेत्रों में संचारित कर देना ही अध्यात्मिक क्रांति (विप्लव) है। और उस (पशु मानव से देवमानव में उन्नत हो जाने की) क्षमता को भौतिकता के सैलाब में नहीं बहने देकर, उसको विकसित कर लेना ही इस आध्यात्मिक क्रांति का उद्देश्य होता है।

समाज में परिवर्तन लाने के लिये, जितनी भी चेष्टायें राजनैतिक तौर पर की जाती हैं, वे सभी एक पक्षीय होती हैं। जैसे हमलोग खादान्न उत्पादन में वृद्धि लाने के लिये कभी हरित-क्रांति करते हैं, तो दुग्ध उत्पादन में वृद्धि लाने के लिये 'श्वेत क्रांति ' की बात करते हैं, या वस्त्र, यातायात, शिक्षा,आवास-योजना आदि के लिये विप्लव करते हैं। और भी कितनी ही वस्तुओं के लिये विप्लव करते हैं। किन्तु मनुष्यों की जो सबसे अंदरूनी सत्ता है (innermost entity-आत्मा या पूर्णता है), जो सभी चीजों की नियन्ता है(controller) है- जिसके पूर्ण विकसित होने से मनुष्य सर्वशक्तिमान् बन जाता है,अपनी समस्त समस्यायों का समाधान करने में स्वयं समर्थ बन जाता है, उसी प्राणप्रद (जीवनदायी) भाव (वेदान्त के चार महावाक्यों) को सभी मनुष्यों के लिये उपलब्ध बना देने वाले आध्यात्मिक विप्लव से बचना चाहते हैं। हमलोग इस बात के उपर थोड़ा भी विचार नहीं करते कि वास्तव में यही तो है मनुष्य के विकास की क्रांति को दबाये रखना और उसके मार्ग में बाधाएँ खड़ी करना। 
इसीलिये स्वामीजी ने कहा था," गत शताब्दी में सुधार के लिये जितने भी आन्दोलन हुए हैं, उन सबका सम्बन्ध भारत के केवल उच्च वर्णों से ही रहा है, जो जनसाधारण का तिरस्कार करके स्वयं शिक्षित हुए हैं। पर यह तो सुधार नहीं कहा जा सकता। सुधार करने में हमें चीज के भीतर, उसकी जड़ तक पहुँचना होता है। इसीको मैं आमूल सुधार कहता हूँ। आग जड़ में लगाओ और उसे क्रमशः ऊपर उठने दो, एवं एक अखण्ड भारतीय राष्ट्र संगठित करो। " (५/१११ मेरी क्रान्तिकारी योजना)
समाज के सभी स्तर पर रहने वाले मनुष्यों के हृदय को इन्हीं विचारों से, इसी भाव से आप्लावित कर देना ही वेदान्तिक या आध्यात्मिक विप्लव है। कवि रामप्रसाद ने गाया था- ' মূল ধরে টান দেওয়ার' गान अर्थात - ' जड़ को ही पकड़ कर खीँच देने ' वाला गाना। स्वामी विवेकानन्द ने उसी जड़ को उखाड़ कर फिर से रोपना चाहा था। गुलाब के पौधे को जड़ को उखाड़ कर फिर से रोपने पर क्या होता है ? जो कुछ भी प्राचीन कचरा (garbage या मूल्यहीन वस्तु) है, जितनी भी जराजीर्ण विचार हैं, वे स्वतः गिर कर समाप्त हो जाते हैं। फिर उसी जड़ से नयी डालीयाँ, नये पत्ते, नयी कलियाँ, बड़े बड़े बसरा के गुलाब जैसे फूल आदि उगने लगते हैं।
वृक्ष के उपर पानी डालने से केवल पत्तों को ही चमकाया जा सकता है। किन्तु उसके जड़ में (मूल सत्ता में) रस का संचार बाहर से नहीं किया जा सकता है। उसके जड़ में पानी डालना पड़ता है। क्योंकि जड़ ही अपनी मिट्टी को मजबूती से पकड़े रहता है। वही मिटटी से रस को खीँच कर पौधे को जीवित रखता है, डालियों और पत्तों सहित सम्पूर्ण पौधे को बचाए रखता है। केवल जीवित ही नहीं रखता, सुदृढ़ बना देता है (Reinforces) है, उसको फूलों-फलों से सजा देता है। मनुष्य-वृक्ष के मूल को सींचने की बात कहकर स्वामीजी रुक नहीं गये थे, उन्होंने उसको पूर्ण रूप से भव्य बना लेने का मार्ग भी दिखला दिया है। उन सब बातों को हमें धीरे धीरे जानना होगा, उसके उपर गहराई से चिन्तन करना होगा, फिर उन भावों को अपने जीवन में रूपायित करने के साथ साथ सामाजिक जीवन में भी रूपायित करने का प्रयास करना होगा। 
स्वामीजी ने कहा था, 'मैं सुधार में नहीं स्वाभाविक उन्नति (growth) में विश्वास करता हूँ।' जिसमें वस्तु में जीवन होता है, जो सतेज (Spirited या जोशपूर्ण) होते हैं- वे स्वयं विकसित होकर परिवर्तित हो जाते हैं। उस मनुष्य-वृक्ष की जड़ (मूल सत्ता) में बाहर से कोई वस्तु डाल कर उसको ग्रहण नहीं करवाया जा सकता। आज का जीव-विज्ञान (Biology) भी जीव-कोशिकाओं के मूल को जानने की चेष्टा कर रहा है। उसके  'जीन' (Gene) या पित्रैक का अविष्कार करके, जीन उत्परिवर्तन (Gene Mutation) की प्रक्रिया द्वारा उसका रूप, प्रकृति और आचार-व्यवहार में परिवर्तन कराकर, उस जीवधारी की संघटित शरीर रचना (organism) में आमूल परिवर्तन लाने पर शोध कर रहा है। इसीको वैज्ञानिक पद्धति (Scientific method) कहते हैं। स्वामीजी ने वर्षों पहले समाज के ' जीन ' का अविष्कार करके उसका अभ्यास ( Practice) तथा समृद्ध करने का उपाय भी बतला दिया था। 
समाज का मूल मनुष्य है, इसीलिये यदि एक एक करके प्रत्येक मनुष्य को ही दोषरहित (faultless) या सच्चा मनुष्य (चरित्रवान) बना लिया जाय, तो एक परिवर्तित समाज सामने आ सकेगा। यदि हमलोग मनुष्य के समाज को एक पशु-समाज में परिवर्तित होते नहीं देखना चाहते हों, तो हमें इसी वक्त इस बात को समझ लेना होगा कि केवल आध्यात्मिक विप्लव ही  इस कार्य (मनुष्य को निर्दोष बनाने के कार्य) को धरातल पर उतारने में - समर्थ हो सकता है। अन्धे की तरह कम्युनिज्म या पाश्चात्य सभ्यता का अनुकरण करने के जिस पथ से  हमलोग चल रहे हैं, उस प्रकार हमलोग इस दुर्भाग्य से कभी बच नहीं सकेंगे। आने वाली विपत्ति की गंभीरता को हमें इसी समय समझ लेना होगा। 
कोई बाघ या सिंह,  मनुष्य की अपेक्षा बहुत अधिक शक्तिशाली होता है, किन्तु उसकी शक्ति को पाशविक शक्ति कहा जाता है। उस शक्ति का अनुशीलन करने से मनुष्य की प्रगति नहीं होती। पीछे लौटना ही पड़ता है। मनुष्य की वास्तविक शक्ति है - उसका मनुष्यत्व ! स्वामीजी के इसी सन्देश को सभी मनुष्यों तक ले जाना होगा। उन्हें इस सच्चाई को समझा देना होगा, कि कोई मनुष्यत्व-सम्पन्न मनुष्य दूसरों की किसी प्रकार की हानी पहुँचाकर, निन्दा कर, या  दूसरों का सिर फोड़ कर अपना पेट भरने की चेष्टा कभी नहीं करता। वह तो दूसरों का कल्याण करने के माध्यम से, अपना कल्याण करने के मार्ग से होकर चलता जाता है। यही भाव - आदर्श भाव है। और यही स्वामीजी के मन का भाव है। [उन्होंने कहा था -" अपने में ब्रह्मभाव को अभिव्यक्त करने का यही एक मात्र उपाय है कि इस विषय में दूसरों की सहायता करना।"]
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सर्वोत्तम पत्र : स्वामी ब्रह्मानन्द जी को १८९५ में लिखित
मनसि वचसि काये पुण्यपीयूषपूर्णा:
त्रिभुवनमुपकारश्रेणिभिः प्रीणयन्तः ।
परगुणपरमाणून् पर्वतीकृत्य नित्यं
निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्त: ॥
नीतिशतकम् (५३/२२१)
[अर्थात ---मनसि---मन में , वचसि---वाणी में, काये---शरीर में, पुण्यपीयूषपूर्णाः---पुण्यरूप अमृत से भरे हुए, त्रिभुवनम्---तीनों लोकों को, उपकारश्रेणिभिः--उपकारों की पंक्ति से,  प्रीणयन्तः---प्रसन्न रखते हुए, नित्यम्---सदा, परगुणपरमाणून्---दूसरों के छोटे-से-छोटे गुणों को भी, पर्वतीकृत्य--पर्वत के समान बढा-चढाकर, (बडाकर), निजहृदि विकसन्तः--अपने हृदय में विकसित करते हुए , सन्तः, सज्जन व्यक्ति, (संसार में), कियन्तः सन्ति---कितने हैं ? ]
भावार्थः----मन, वाणी और शरीर में सकर्मरूपी अमृत से परिपूर्ण , तीनों लोकों का अनेक प्रकार के उपकारों से कल्याण करने वाले और दूसरों के थोड़े से भी गुणों को सर्वदा पहाड़ की तरह (बहुत बडा) मानकर अपने हृदय में प्रसन्न होने वाले सत्पुरुष (संसार में) कितने हैं, अर्थात् ऐसे सज्जन बहुत कम है, दुर्लभ हैं ।
' जिसके मन में साहस तथा हृदय में प्रेम है, वही मेरा साथी बने -मुझे और किसी की आवश्यकता नहीं है। जगन्माता की कृपा से मैं अकेला ही एक लाख के बराबर हूँ, तथा स्वयं ही बीस लाख बन जाऊँगा। मेरा भारत लौटना अभी अनिश्चित है। यहाँ पर पण्डितों का संग है, वहाँ मूर्खों का-यही स्वर्ग-नरक का भेद है। यहाँ के लोग मिलजुल कर कार्य करते हैं, और हमलोगों के समस्त कार्यों में तथाकथित वैराग्य अर्थात आलस्य और ईर्ष्या का भाव रहता है, जिसके कारण सबकुछ नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है।
' स्वल्पश्च कालो बहवश्च विघ्नाः – समय अत्यन्त कम है और विघ्न अनेक हैं । '' परोपकाराय सतां जीवितं' ' परार्थे प्राज्ञ उत्सृजेत्' — 'सत्पुरुषों का जीवन (जो उसे दुबारा मिला है) परोपकार के लिए ही होता है।' 'स्थितप्रज्ञ मनुष्य को दूसरों के कल्याण के निमित्त अपना जीवन न्योछावर कर देना चाहिये।' संसार में यही एकमात्र मार्ग है ! " तुम्हारी भलाई करने में ही मेरी भी भलाई है, दूसरा कोई उपाय नहीं है, बिल्कुल नहीं है। तुम भगवान हो, मैं भगवान हूँ और सभी मनुष्य भगवान हैं। यह वही भगवान है, जो ह्यूमनिज्म या मानवता के रूप में अभिव्यक्त होकर दुनिया में सबकुछ कर रहा है, फिर क्या भगवान कहीं अन्यत्र बैठा हुआ है ? अतः कार्य -- 'BE AND MAKE' में संलग्न हो जाओ! 
'भोग करते समय ब्राह्मणेत्तर जाति का स्पर्श करने से कोई दोष नहीं होता, भोग समाप्त होते ही स्नान आवश्यक है , क्योंकि ब्राह्मणेत्तर जाति तो अपवित्र है, अन्य समय में उसे स्पर्श करने की आवश्यकता भी नहीं है। ढोंगी साधु-संन्यासी तथा ब्राह्मण दुष्टों ने देश को रसातल पहुँचाया है ! आस्तिक लोग वीर होते हैं ! जो महाशक्ति उनमें विद्यमान है, उसका विकास अवश्य होगा ! और उससे जगत आप्लावित हो जायेगा। जो लोग आस्तिक हैं, अपने-आप पर विश्वास करते हैं, वे हीरो हैं! वे अपनी जबरदस्त शक्ति को इस प्रकार प्रकट करेंगे -कि उसकी बाढ़ में सम्पूर्ण विश्व बह जायगा। 'गरीबों का उपकार करना ही दया है। ' 'मनुष्य भगवान है, नारायण है। ' 'आत्मा में स्त्री-पुरुष-नपुंसक तथा ब्राह्मण, क्षत्रियादि भेद नहीं है।
" अपने ब्रह्मस्वरूप को अभिव्यक्त करने का एकमात्र उपाय यही है, कि इस विषय में दूसरों की सहायता की जाय।" (इसी का सूत्र है -' Be and Make!')
" ब्रह्म (श्रीरामकृष्ण परमहंस)  से लेकर तृण के गुच्छे तक, सब कुछ नारायण है !" धरती पर रेंगने वाले कीड़े (बीस्ट्स)  में वह शक्ति कम प्रकट है, और परमहंस जी में वह शक्ति अधिक प्रकट है-बस अंतर केवल इतना ही है !
जिन कार्यों से (५ दैनंदिन अभ्यासों के बारे में दूसरों को बताते रहने से) क्रमशः अपने ब्रह्मभाव (पवित्रता) को अभिव्यक्त करने में जीव को सहायता मिलती हो - वे अच्छे कर्म या सत्कर्म हैं, और वैसा प्रत्येक कर्म जिसे करने से उसमें बाधा पहुँचती है-बुरे कर्म हैं। " अज्ञानी, पददलित, तथा दरिद्र- इनको अपना ईश्वर समझो ! 'अस्पृश्यता '-इज अ फॉर्म ऑफ़ मेन्टल डिजीज -उससे सावधान रहना। " ह्रदय का विस्तार ही जीवन है, और उसकी संकीर्णता ही मृत्यु!" जिस ह्रदय में परायों के लिये भी प्रेम है, वहीँ ह्रदय का विस्तार हो रहा है, और जहाँ केवल अपने शरीर से जन्मे या नाते-रिश्तेदारों के प्रति स्वार्थ होगा, वही हृदय क्रमशः संकुचित होता जाता है। अतः प्रेम ही जीवन का एकमात्र विधान है ! जो प्रेम करता है, वही जीवित है; जो स्वार्थी है, वह मृतक है। अतः केवल प्रेम के लिये प्रेम -यह जीवन का वैसा ही एकमात्र विधान है, जैसा जीने के लिये श्वास लेना। निष्काम प्रेम (भक्ति), किष्काम कर्म का यही रहस्य है। श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय अवतार में ज्ञान, भक्ति, कर्म, मनःसंयोग -चारो योग ही विद्यमान हैं ! उनमें अनन्त ज्ञान, अनन्त प्रेम, अनन्त कर्म तथा सभी प्राणियों के लिए अनन्त दया है ! अभी तक (१६ जनवरी) तुम्हें इसका अनुभव नहीं हुआ? -- श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् !
--आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन
माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्य: ।
आश्चर्यवच्चैनमन्य: श्रृणोति
 श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ।।गीता २. २९।।
कोई इस शरीरी (नवनी दा)  को आश्चर्य की तरह देखता है। वैसे ही अन्य कोई इसका आश्चर्य की तरह वर्णन करता है तथा अन्य कोई इसको आश्चर्य की तरह सुनता है,  और इसको सुन करके भी कोई नहीं जानता।४/३१० 
[जैसे एक बीज नष्ट होकर अंकुर में, अंकुर नष्ट होकर पौधे में,फिर मक्के का असंख्य बीज प्राप्त होता है। विवेकानन्द का कहना है कि " मनुष्य भ्रम से सत्य की ओर नहीं जाता,वरन सत्य से सत्य की ओर अग्रसर होता है; निम्नतर सत्य से उच्चतर सत्य की ओर जाता है।" तथा "मुक्ति का सिद्धान्त यह है कि 'मनुष्य को ईश्वर का साक्षात्कार करके ईश्वर होना है' गीता १०/४१ में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं - 'जहाँ मानव-जाति को पवित्र और उसका उन्नयन करती असामान्य पवित्रता,असामान्य शक्ति,तेरे देखने में आये,तू जान कि मैं वहाँ हूँ!'
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१. नवनी दा का अपना दर्शन था -'कोई पराया नहीं है, सभी को अपना बनाना सीखो! ' -'मैं उस प्रभु का सेवक हूँ, जिसे अज्ञानी लोग 'मनुष्य' कहते हैं' - इसीलिए उनकी शिक्षा थी-'अविरोध' ! इसीलिये नवनी दा सभी प्रकार के मनुष्यों, सभी देशों के सभी मनुष्यों को उसकी पूर्णता को अभिव्यक्त करने की दिशा में अग्रसर होने में सहायता करना चाहते थे। मैंने एक बार TV पर पार्लियामेन्ट में राष्ट्रगान होते समय 'बसपा' के एक एम्.पी द्वारा राष्ट्र-गान का वहिष्कार करते देखा था; और इस बात पर दादा के समक्ष तीव्र प्रतिवाद किया था, कुछ अन्य भाइयों ने भी स्वदेश मन्त्र के कुछ अंशों को नहीं दुहराने की बात कही थी, इसी बात पर प्यार से डाँटते हुए उन्होंने कहा था-'भूल गया ? महामण्डल आंदोलन का मूल भाव है -अविरोध!) 
२. मनुष्य का सही रूप में 'मनुष्य बन जाना' (মানুষ হয়ে ওঠা) किसे कहते हैं ? नवनी दा के मतानुसार  'यथार्थ मनुष्य'  वह है जिसे अपने सामर्थ्य में ऐसी अटूट श्रद्धा हो, इतना निर्भीक हो - कि,मैं तो शरीर नहीं हूँ, आत्मा हूँ ! देखता हूँ -  " इस क्षण के बाद आने वाले मृत्यु के क्षण में मरता कौन है- ?"  इसका साक्षात्कार करके 'विवेकज-ज्ञान' अपरोक्ष ज्ञान द्वारा अपने यथार्थ स्वरुप (ईश्वर या ब्रह्म)  को भी जान कर जो व्यक्ति 'ब्रह्मविद' मनुष्य बन जाता है, वही यथार्थ मनुष्य है !  वे कहते थे - ' क्योंकि मनुष्य की सत्ता (पूर्णता या आत्मा ) सभी देशों और सभी युग में एक ही रहती है। इसलिए उस सत्ता (पूर्णता) की अभिव्यक्ति विभिन्न देशों या विभिन्न युगों में अलग अलग रूपों में हो सकती है। अर्थात वही सत्ता (पूर्णता) ही देश-काल -पात्र के अनुसार अपने को कभी ईसा, कभी बुद्ध, कभी मोहम्मद,नानक, कबीर, राम-कृष्ण, श्रीरामकृष्ण परमहंस, विवेकानन्द, तो कभी नवनी दा आदि असंख्य रूपों में अपने को अभिव्यक्त करती है ! क्योंकि मानव-मात्र में ब्रह्म अव्यक्त रूप से विद्यमान है; अपने हृदय में स्थित उस ब्रह्म को जानकर ब्रह्म हो जाने अर्थात ब्रह्मविद मनुष्य बन जाने की सम्भावना प्रत्येक मनुष्य में विद्यमान है। किसी भी जाति, धर्म और देश में जन्मा कोई भी व्यक्ति, चाहे वह नास्तिक ही क्यों न हो, कोई भी भाषा क्यों न बोलता हो - किसी भी पैगम्बर, अवतार या भगवान को अपना आदर्श क्यों न मानता हो; अपना चरित्र-निर्माण करके 'यथार्थ मनुष्य' - ' मैन विथ कैपीटल 'म' - या ब्राह्मण बन सकता है।
३. तथा मनुष्य को सही 'मनुष्य बना देना' (মানুষ করে তোলা) की पद्धति क्या है ? पद्धति है, ५ दैनंदिन अभ्यास- १. 'अब लौं नसानी अब न नसैहों' का संकल्प ग्रहण या प्रार्थना,२. मनःसंयोग, ३. व्यायाम, ४. स्वाध्याय, ५.विवेक-प्रयोग ! 
४. इसिलिये  वनी दा ने अपने अपने क्रमानुयायियों (Successor, उत्तराधिकारी भावी नेताओं) के सामने एक अभूतपूर्व अनुरोध (appeal) रखा था। वे कहते थे - 'गरीबों को प्रकाश दो। किन्तु धनी लोगों को और अधिक प्रकाश दो, क्योंकि वे लोग उनकी अपेक्षा अधिक गहरे अंधकार में गिरे हुए हैं। अशिक्षित लोगों को प्रकाश दो, किन्तु शिक्षित लोगों को और भी अधिक प्रकाश दो, क्योंकि वर्तमान समय में उच्च शिक्षा (ब्राह्मण होने) का अहंकार बहुत अधिक बढ़ गया है। इसीलिये, जो लोग धन या विद्या (विवेकज ज्ञान को समझकर भी ब्राह्मण होने) के अहंकार 'arrogance' में चूर हैं, वे भी कम करुणा के पात्र नहीं हैं। क्योंकि वे लोग समाज के उपेक्षित मनुष्यों (दूसरे धर्म में जन्मे मनुष्यों या  शुद्र रूपी देवताओं) की सेवा करने का अवसर पा कर भी उसका सदुपयोग नहीं करते। जो लोग गरीबों के शोषण से प्राप्त धन को खर्च करके शिक्षित हुए हैं, किन्तु पढ़-लिख लेने के बाद उनके सम्बन्ध में कुछ नहीं सोचते, उनको ही स्वामीजी ने देशद्रोही के रूप में चिन्हित किया था। 
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