कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 5 अप्रैल 2018

या देवी सा सारदा -4

अमेरिका के सेंट् लुईस वेदान्त सोसाइटी के अध्यक्ष परमपूज्य स्वामी चेतनानन्द जी महाराज लिखते हैं - 'आत्म-तत्व' का निरूपण करने के लिये वेदान्तशास्त्रों में जिस प्रकार- श्रुति, युक्ति और स्वसंवेद्य तथा परसंवेद्य अनुभूति आदि विभिन्न प्रणालियों का सहारा लिया जाता है।  [अर्थात " इस  संसार में जो कुछ भी दृश्यमान है और जहाँ तक हमारी बुद्धि अनुमान कर सकती है, उन सबका (3H) का मूल स्रोत्र एक मात्र ‘परब्रह्म’ (हृदय) ही है।" इस रहस्य को समझाने के लिए, अन्नमय कोष से आनन्दमय कोष तक की उर्ध्वमुखी यात्रा करने के लिये जिस प्रकार वेदान्त शास्त्रों में -  'श्रुति,युक्ति और अनुभूति' आदि प्रणालियों का सहारा लिया जाता है।] उसी प्रकार- 'या देवी' अर्थात  'जो माँ जगदम्बा हैं', 'सा सारदा'- वे सारदा सरस्वती हैं!" इस उच्चतर सत्य का निरूपण,अथवा माँ सारदा के देवीत्व का निर्धारण करने के लिये भी, (अर्थात माँ जगदम्बा ही श्रीमाँ सारदा के रूप में अवतरित हुई हैं-का निर्धारण  करने के लिये भी) हमलोग यहाँ भगवान श्रीरामकृष्णदेव उक्तियों  का, माँ के द्वारा स्वयं अपने मुख से उच्चारित स्वरुप को प्रकाशित करने वाले कथनों का, तथा विभिन्न सन्यासियों और भक्तों के दर्शन एवं अनुभवों का संक्षेप में उल्लेख करेंगे। अब ..... ... गतांक से आगे,
१९.या देवी सर्वभूतेषु तुष्टिरूपेण संस्थिता: 
तुष्टि या सन्तुष्टि का अर्थ है सन्तोष। 'तस्मिन् तुष्टे जगत् तुष्टं प्रीणिते प्रीणितं जगत् ।'  कमल नयन भगवान विष्णु यज्ञ (=ज्ञानयज्ञ) से प्रसन्न होते हैं, उनके संतोष में जगत् संतुष्ट है उनकी प्रसन्नता में जगत् प्रसन्न होता है। एकमात्र परमात्मा ही ऐसा है कि यदि वह प्रसन्न हो गया तो  " यस्मिन् तुष्टे जगत् तुष्टं " कोई कुछ नहीं कर सकता और यदि वह प्रसन्न नहीं है तो सब मिलकर भी हमें नहीं बचा सकते। 
[ श्रीरामकृष्ण वचनामृत में कहा गया है  हाजरा श्रीरामकृष्ण की पद-रेणु ले रहे हैं। श्रीरामकृष्ण :- (संकुचित होकर) यह सब क्या है? हाजरा - जिनके पास मैं हूँ उनके श्रीचरणों की धूलि न लूँ? श्रीरामकृष्ण:- “ईश्वर को तुष्ट करो, सब तुष्ट हो जायेंगे। ‘तस्मिन् तुष्टे जगत् तुष्टम्’। ठाकुरजी ने जब द्रौपदी का शाक खाकर कहा, मैं तृप्त हो गया हूँ, तब संसार भर के जीव तृप्त हो गये थे – गले तक भर गये थे – डकार लेने लगे थे। मुनियों के खाने से क्या संसार तुष्ट हुआ था – डकारें ली थीं?" 
कुछ लोग, भौतिक पदार्थों (कामिनी -कांचन) को हम अपना इष्ट मान लेते हैं और परम् लाभकारी समझते हैं, तथा कुछ पदार्थों (श्रद्धा,धर्म, विवेक, वैराग्य आदि) को अनिष्ट मानते हैं और अहितकारी समझते हैं। इसीलिए कुछ लोग ऐसे भगवान की कल्पना करते हैं जो उनकी शुभाशुभ सभी प्रकार की इच्छाओं की पूर्ति करे। उनका मानना है कि  'खुदा मेहरबान तो गधा पहलवान' ऐसा ... हम पदार्थों में इष्ट-अनिष्ट की धारणा बनाते हैं। 
चरित्रनिर्माण के दो मार्ग हैं -प्रवृत्ति और निवृत्ति। प्रवृत्ति ही निवृत्ति की साधिका है। राग से ही वीतरागता की ओर प्रयाण होता है। अन्नमय कोष से ही आनन्दमय कोष तक की आध्यात्मिक-आध्यात्मिक यात्रा का प्रारम्भ होता है। फूल ना हो तो फल की प्राप्ति नहीं होगी। निवृत्ति पुण्य का फल है किंतु इसके  लिये पुण्य कार्य रूपी फूल (=निःस्वार्थ कर्म, बनो और बनाओ) पहले होना चाहिये।  किन्तु कुछ पौधे ऐसे भी होते हैं जिसमें पहले फल होता है, बाद में फूल निकलते हैं ! अर्थात कुछ कृपा-प्राप्त संतान ऐसे भी होते हैं जिन्हें इष्टप्राप्ति पहले हो जाती है, साधना उसके बाद होती है,जैसे स्वयं भगवान श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव। इसीलिये  श्री रामकृष्ण अपने प्रथम श्रेणी के सन्तानों को- ' ईश्वरकोटि ' का  कहा करते थे। वे कहते थे- ' ये सभी आजन्म सिद्ध हैं। इनलोगों को फल (आत्म-साक्षात्कार) पहले मिला बाद में फूल (साधना) लगा। ठीक वैसा जैसे कद्दू और कोंहड़ा के पौधों में फल पहले लगता है और फूल बाद में लगता है। वशिष्ठजी बोले,”हे रामजी! शूरवीर (अर्थात हीरो) और कोई नहीं, जो आत्मपद में स्थित हुए हैं वे ही शूरवीर-हैं और संसार-सागर से पार होना उसके लिए अति सुगम है। हीरो,और कोई नहीं हैं, जो माँ जगदम्बा की कृपा से  निर्विकल्प समाधि में पहुँचकर अपनी अनभूति से आत्मपद में स्थित हुए हैं, और समाधि उतरने के बाद, पुनः  माँ सारदा देवी या माँ जगदम्बा के पुत्र या भक्त, नेता, लोकशिक्षक या आचार्य  बने रहते हैं वे ही असली 'हीरो'-शूरवीर हैं !]
देवी (माँ जगदम्बा) तुष्टिरूपिणी हैं !  इष्टप्राप्ति (getting what one wants) अनिष्ट-निवृत्ति (getting rid of what is unwanted) हो जाने के बाद क्षणभर के लिये, जीवों के हृदय में जिस भाव का उदय होता है, वही देवी भगवती की तुष्टिमूर्ति है। रोग,शोक, ज्वाला, यंत्रणा, क्षुधा, पिपासा, आदि संसार के तापों का निवारण- 'तुष्टि' के द्वारा होता है। मनुष्य जाने अनजाने इसी तुष्टि की सेवा करता है, पूजा करता है और तुष्टि की खोज में ही दौड़ता रहता है। गीता १२ /१४ में कहा गया है, 'सन्तुष्टः सततं योगी' जो सर्वदा सन्तुष्ट रहते हैं, वे ही भगवान का श्रेष्ठ भक्त कहे जाते है।" 
माँ सारदा देवी कहती थीं -" सन्तोष के समान कोई धन नहीं है, और सहनशीलता के समान कोई गुण नहीं है।" इसी अनमोल धन और अनन्त गुण ने (सन्तोष एवं सहनशीलता ने) श्रीमाँ की प्रज्ञा (=आत्मस्वरूप की स्मृति ?) को सर्वदा अविचल रखा था। माँ के जीवन में आत्मसंयम, सहिष्णुता और सन्तुष्टि  के अनेक उदहारण ऐसे हैं जिन पर चिंतन करने से मन में अनुप्रेरणा और शान्ति प्राप्त होती है।
[वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! स्वप्नसृष्टि में अगर किसी को कोई खजाना दिखे तो वह उसको पाने के लिए पूर्ण यत्न करता है, परन्तु जब जागता है तो उसको स्वप्नमात्र जानकार पुनः उसे प्राप्त करने का प्रयास नहीं करता। इसी प्रकार आत्मबोध होने पर इस संसार में सत्य-बुद्धि नहीं रह जाती। हे रामजी! ज्ञानी महापुरुष भी भोग भोगते हैं परन्तु उनकी उसमें भोगबुद्धि नहीं होती बल्कि सहज ही जो कुछ भी प्रारब्धवश प्राप्त होता है, उसे ही भोगते हैं। वे भलीभांति जानते हैं कि गुणों में ही गुण बरत रहे हैं। वे इन्द्रियों समेत सभी प्रकार के भोगों को भ्रममात्र जानते हैं। जो अज्ञानी जीव हैं वे आसक्त होकर भोग भोगते हैं और तृष्णारूपी आग में जलते हैं। इसे ही तो बंधन कहते हैं।जैसे चक्रवात में उड़ा हुआ तिनका स्थिर नहीं हो पाता, वैसे ही देह में अभिमान करने वाले को कभी शांति नहीं मिलती। जिसको अपने आत्मस्वरूप का बोध हुआ है, उसे शारीरिक और मानसिक दुःख स्पर्श नहीं कर सकते। जिस तरह पर्वत को चूर्ण करने में चूहे समर्थ नहीं, उसी तरह बोधवान को दुःख स्पर्श नहीं कर सकता। जिसको आत्मबोध नहीं, उसको आत्मशांति की प्राप्ति भी नहीं होती। हे रामजी! आत्मस्वभाव में मन, बुद्धि, अहंकार आदि अंतःकरण और इन्द्रियाँ कल्पित हैं वास्तव में कुछ है ही नहीं। जैसे रस्सी में भ्रमवश सांप दीखता है , उसी प्रकार आत्मारूपी रस्सी के अज्ञान से ही अहंकाररूपी सांप प्रकट दिखता है और उसे दूर करने के निमित्त ही शास्त्र के उपदेश हैं जो आत्मा को क्षणमात्र में जगा देते हैं। जैसे अंजन लगाने से जब नेत्रों का मैल साफ हो जाता है तब नेत्र पूर्व की तरह ही निर्मल और स्वच्छ होते हैं, वैसे ही अज्ञानरूपी मैल गुरु और शास्त्र के उपदेशरूप अंजन से सहज ही दूर हो जाता है। हे रामजी! ज्ञानी भी इन्द्रियों और चारों अंतःकरण से युक्त दिख पड़ता है परन्तु उनमें कुछ भी सत्यता नहीं, ठीक उसी तरह जैसे भुना हुआ बीज दिखाई तो देता है परन्तु उसमें उगने की सत्यता नहीं होती।(इसलिए श्रीमाँ की  प्रज्ञा सर्वदा अचल रहती थी।) ]
श्रीमाँ की आत्मकथा है (उन्होंने अपने श्रीमुख से स्वयं कहा है)- " मेरे रामेश्वरम पहुँचने का समाचार सुनकर रामनाद के राजा ने अपने दिवान को आदेश दिया "मेरे गुरु की गुरु -परमगुरु -जा रही हैं, उनको मन्दिर के रत्नागार को खोलकर दिखाया जाये। और यदि उनको वहाँ की कोई भी वस्तु पसंद आ जाये, तो उसी समय उपहार स्वरुप उन्हें दे दी जाये। " कर्मचारी से यह सुनकर श्रीमाँ सोच ही न सकीं कि आखिर भण्डार में उनके लायक क्या हो सकता है ... वे क्या कहती ? कुछ समझ में नहीं आया तो श्रीमाँ ने कहा-'बेटे, मुझे किस चीज की आवश्यकता हो सकती है ? जो कुछ मेरे लिए आवश्यक होता है, उसकी व्यवस्था तो शशि (स्वामी सारदानन्द) ही कर देता है।' फिर मेरे मन में विचार आया कि कहीं उनको बुरा न लगे, इसीलिए बोली -' अच्छा यदि राधू को किसी चीज की आवश्यकता हो, तो वह अभी ले सकती है। ' मैंने राधू से कहा -' देखो,तुम्हें यदि किसी चीज की जरूरत हो, तो अभी ले सकती हो। ' श्रीमाँ ने शिष्टाचार के ख्याल से ऐसा कहा तो सही,पर रत्नागार के चमकते हीरे -जवाहरात पर नजर पड़ते ही उनका हृदय धड़कने लगा, और वे व्याकुल हो श्रीरामकृष्ण के श्रीचरणों में  प्रार्थना करने लगीं-" ठाकुर, राधू में कोई वासना न आये। " श्रीरामकृष्ण ने उनकी विनती सुन ली-सब देखकर राधू बोली, " यह क्या लूँ ? यह सब मुझे नहीं चाहिये। अपनी लिखने की पेन्सिल मैंने खो दी है, बस एक पेंसिल खरीद दो। " श्रीमाँ यह सुन आराम की साँस ले बाहर आयीं, और रास्ते की दुकान से उन्होंने दो पैसे की एक पेंसिल खरीद राधू को दे दी। (श्रीमाँ सारदा देवी -दक्षिण में -३०७) 
२०.या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थिता: 
मातृ का अर्थ है -माता, धात्री, देवी। असुरों का विध्वंश करते समय ब्रह्मा आदि देवताओं की अष्टशक्तियों के नाम हैं -ब्राह्मी,माहेश्वरी, ऐन्द्री, वाराही, वैष्णवी, कौमारी, चामुण्डा, चर्चिका। और फिर हैं षोड़श मातृका (एक वर्ग-विशेष) में देवियों के नाम हैं गौरी, पद्मा, शची, मेधा, सावित्री, विजया, जया, देवसेना, स्वधा, स्वाहा, माताएँ, लोक माताएँ, धृति, पुष्टि, तुष्टि तथा अपनी कुल देवी ('बंदी मइया'-बिंध्यवासिनी देवी) ; ये सोलह पूजनीया मातृकाएँ गणेश से भी अधिक वृद्धि प्रदान करने वाली हैं। देवी (माँ भगवती) माता के रूप में समस्त जीवको गर्भ में धारण करती हैं। वे ही सृष्टि करती हैं, पालन करती हैं, फिर समस्त प्राणियों को अपने भीतर खींच लेती हैं। यही है माँ की लीला-खेला। 
माँ सारदा देवी ही माँ जगदम्बा हैं ! (दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर में स्वामी विवेकानन्द ने माँ जगदम्बा को अवश्य माँ सारदा के रूप में ही देखा होगा !!) वे रामकृष्ण-संघजननि, महामण्डल-जननी या भक्त जननी हैं,लोक-जननी हैं। उनका मातृरूप सर्वदा,सर्वत्र और समस्त जीवों के प्रति प्रकाशित हुआ था। एक दिन रासबिहारी महाराज ने (स्वामी अरुपानन्द ने?) श्रीमाँ से पूछा , " तुम क्या सब की माँ हो ?" माँ ने उत्तर दिया, "हाँ।" फिर प्रश्न हुआ- "इन जीव-जन्तुओं की भी ?" माँ ने कहा - "हाँ,उन सबकी भी !" (श्रीमाँ सारदा देवी -४४८) 
माँ सारदा ने अपने मुख से कहा था, " आमी माँ, जगतेर माँ, सकलेर माँ। " -अर्थात मैं माँ हूँ, माँ जगदम्बा हूँ, मैं सभी जीवों की माँ हूँ !' (किसी बछड़ा के 'हम्बा....हम्बा' पुकार को सुनकर अधीर हो गयी )और बोली- " आती हूँ बेटे, आती हूँ - मैं इसी समय तुमको छोड़ दूँगी। " माँ के घर में गंगाराम नाम का एक तोता था। वे उसे नित्य अपने हाथों से नहलातीं और दाना-पानी देतीं, उसके पिंजरे को साफ करतीं, उसे एक जगह से हटाकर रखतीं तथा प्रेम से उससे बातें करतीं। सुबह-शाम उसके पास आकर कहतीं,"बेटा गंगराम, पढ़ो तो। " पक्षी इतना सुनते ही बोलने लगता -" हरे कृष्ण, हरे राम , कृष्ण कृष्ण, राम राम। " कभी-कभी वह चिल्ला उठता, " माँ, ओ माँ। " यह सुनते ही माँ उत्तर देतीं, "आई, बेटा, आई।" और चना, पानी ले जाकर उसे देतीं। (श्रीमाँ सारदा देवी -४६५)   
" श्रीमाँ के इस सर्वव्यापी मातृत्व, उनकी उदार दृष्टि और सप्रेम मनोभाव में देश,जाति या साम्प्रदायिकता का संकीर्ण भाव का कोई स्थान नहीं था। स्वदेशी आन्दोलन के समय जब बहुतों के हृदय में अंग्रेजों के प्रति घोर विद्वेष-भावना भरी हुई थी, उस समय भी उनके मुख से निकला करता था, "बाबा, ताराओ (विदेशिराओ) तो आमार छेले।" " वे भी (इसाई-मुस्लिम आदि भी) तो मेरी सन्तान हैं।आमि सतेरओ माँ असतेरओ माँ। ' -मैं अच्छे लोगों की भी माँ और बुरे लोगों की भी माँ हूँ। 
" पगली मामी के मुख में तो माँ के प्रति गालियाँ लगी ही रहती थी; पर माँ उसकी उपेक्षा करती थीं। एक दिन मामी कह बैठीं, "सर्वनाशी!" श्रीमाँ ने तुरन्त उन्हें सावधान कर दिया, " और जो कहती हो, सो कहो, पर मुझे सर्वनाशी न कहना; दुनिया भर में मेरे लड़के हैं। उनका अकल्याण होगा। " (" आर जा बोलिस, आमाय सर्वनाशी बोलिस ने; जगत जुड़े आमार छेलेरा रयेछे, तादेर अकल्याण होबे। सकलेर मंगलेर जोन्ने आमि ठकुरेर काछे प्रार्थना कोरछी, तीनि सकलेर मंगल करुन।" (श्रीमाँ भक्तजननी-४७८ )  
एक बार गिरीश चन्द्र ने माँ से पूछा था - " तुम कैसी माँ हो ? " माँ ने तत्क्षण उत्तर दिया -"मैं सच्ची माँ हूँ। गुरुपत्नी नहीं, मुँहबोली माँ नहीं, कहने की माँ नहीं, सत्य जननी हूँ !" ( श्रीमाँ सारदा देवी -२७१ " आमि सत्यिकारेर माँ ,गुरुपत्नी नय, पातानो माँ नय, कथार कथा माँ नय - सत्य -सत्य जननी।"

किसी भटके हुए गृहस्थ युवक-किन्तु माँ का भक्त (सत्यान्वेषी हीरो ?) के सिर पर स्नेह से हाथ फेरते हुए  माँ ने कहा था, "माँ के पास लड़का लड़का ही है ";  मायेर काछे छेले -छेले। " उस स्नेह के स्पर्श  से अभिभूत होकर युवक भक्त का हृदय पिघल गया और उसने कहा -"हाँ, माँ; पर इसलिये कि तुम्हारी इतनी कृपा मुझपर है, तुम्हारा  इतना स्नेह मुझे मिला है, यह सब याद करके कभी मैं यह न समझ बैठूँ कि तुम्हारी कृपा को प्राप्त कर लेना बहुत आसान है, तुम्हारी दया बड़ी सुगम है। " (श्रीमाँ सारदा देवी -४५१) 
माँ ने प्रफुल्लचंद्र घोष को कहा था -" जखन दुःख पाबे, आघात पाबे, विफलता आसबे तखन निश्चित जेनो आमी तोमार संगे रयेछी। भय पेयो ना। हताश हयो ना, बाबा। आमि थाकते तोमादेर भय कि ? आमि तोमादेर माँ -सात्यिकारेर माँ। जेनो, बिधातारओ साध्य नेई जे, आमार सन्तानदेर कोन क्षति करेन। आमार ऊपर भार दिये निश्चिन्त होये थाको। .... आमि तोमादेर इहकालेर माँ, तोमादेर परकालेर माँ। आमि तोमादेर जन्मजन्मान्तरेर माँ। आमि माँ थाकते तोमादेर भय कि ? "  (चिरंतनी सारदा -१८३ )
[हम सबका अस्तित्व मां के कारण ही है। मां न होती तो हम न होते। मां स्वाभाविक ही दिव्य हैं, देवी हैं, पूज्य हैं, वरेण्य हैं, नीराजन और आराधन के योग्य हैं। हम मां का विस्तार हैं इसलिए मां के निकट होना आनंददायी है। संसार के सभी सम्बन्धियों मे माता का स्थान सर्वोपरि है। विश्व का कोई भी सम्बन्धी उसकी बराबरी नहीं कर सकता है। इसीलिए माता को सर्वपूज्य माना गया है।] 
२१. या देवी सर्वभूतेषु भ्रान्तिरूपेण संस्थिता : 
भ्रान्ति का अर्थ है भ्रम- illusion, delusion : माया, मोह, प्रपंच। देवीमाहात्म्यम् - अर्थात देवी का महात्म्य ग्रंथ 'Glory of the Goddess'- में वर्णित 'मातृरूपेण और भ्रान्तिरूपेण' -ये दोनों श्लोक अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। 
चैतन्यरूपिणी मातृरुपा देवी ही इस (जड़ या पंचभौतिक) जीव -जगत को वास्तविकता (Authenticity) प्रदान करती हैं ! फिर मायरूपिणी भ्रान्तिरूपा देवी इस जीव-जगत को किसी जादू के जैसा मिथ्यात्व (Falsehood) भी प्रदान करती हैं ! ठाकुरदेव कहते थे - " बाजीकर आर तांर भेल्कि। जीवजगत, बाड़ी-घर-द्वार, छेले-पिले, एसब बाजीकरेर भेल्कि। बाजीकरई सत्य, आर सब अनित्य।" (श्रीरामकृष्ण वचनामृत-)  
वेदान्त शास्त्रों में कहा गया है -अध्यासो नाम 'अतस्मिन् तद् बुद्धिः '- जो वस्तु जो नहीं है, उसको वही समझ लेना ही भ्रान्ति [भ्रान्त या हिप्नोटाइज्ड हो जाना] या जादू को सत्य समझ लेना है। रज्जु में सर्प के भ्रम होने जैसा निर्गुण निरुपाधिक ब्रह्म में जगत की भ्रान्ति होती है। 'रजौ श्रहिः इव' जैसे रज्जु में सर्प कल्पित है (तस्मिन्) तैसे ही इस सत् रूप ब्रह्म में (निखिलं अपि जगत् कल्पितम्) संपूर्ण जगत् भी कल्पित है। 
वेदान्त शास्त्रों में असत और मिथ्या इन दो शब्दों का प्रयोग अक्सर किया जाता है। असत का अर्थ है जो नहीं है और जो दिखाई भी नहीं देता है -जैसे 'आकाशकुसुम', खरहे का सींग, बंध्यापुत्र। मिथ्या का अर्थ है जो वास्तव में नहीं है, किन्तु दिखाई देता है जैसे -मृगमरीचिका। यह जगत मरीचिका के जैसा है। परमार्थिक दृष्टि से "सर्वं खल्विदं ब्रह्म" नेह नानास्ति किंचन॥
[...अर्थ यह है कि जगत् में अस्ति, भाति, प्रिय, नाम और रूप ये पांच अंश हैं। इनमें तीन अंश ब्रह्मरूप हैं और दो अंश माया रूप हैं।रज्जु मे सर्प का भ्रम उसी को हो सकता है, जो रज्जु के साथ-साथ सर्प को भी देखा हो। इस भ्रम के लिए भ्रम-भंजक की बुद्धि को सर्प-ज्ञान से संस्कारित होना आवश्यक है। इसीलिये सच्चिदानंद स्वरूप ब्रह्मवस्तु पर अज्ञान के कारण जगद् रूपी अवस्तु का आभास होता है। वेदान्त दर्शन में सच्चिदानंदरूप ब्रह्म का निर्देश “वस्तु” शब्द से और अज्ञान तथा अज्ञानजन्य जगत् का “अवस्तु” शब्द से  होता है। अज्ञान सत् नही और असत् भी नही। वह सत् इसलिए नही की सत्य ज्ञान का उदय होने पर वह नष्ट होता है,और असत् इसलिए नही कि रज्जु पर सर्प  का आभास अज्ञान के ही कारण होता है। सत्य वस्तु पर असत्य या मिथ्या अवस्तु (जगत्) के आभास का वही प्रमुख कारण है। इस प्रकार अज्ञान या माया को  सत् एवं असत् दोनो प्रकार का न होने के कारण वह “अनिर्वचनीय ” (जिसका यथार्थ स्वरूप बताना असंभव है) माना गया है। इसी अनिर्वचनीय अज्ञान को श्री शंकराचार्य “माया” कहते है। यह अज्ञान ज्ञानविरोधी, त्रिगुणात्मक,भावरूप ,अनिर्वचनीय किन्तु स्वभावगम्य है। उसमें दो प्रकार की शक्ति होती है(१) आवरण शक्ति और (२) विक्षेप शक्ति।] 
वेदान्त के मतानुसार भ्रम (हिप्नोटाइज्ड अवस्था) भी दो प्रकार की है - “ संवादिभ्रम और विसंवादिभ्रम।' संवादीभ्रम (लाभकारी-भ्रम) वह भ्रम  है, जिस भ्रम के होने पर भी प्रवृत्ति सफल हो जाये-  अर्थात मनुष्य यदि अपने अभीष्ट वस्तु (सच्चिदानन्द -अखण्ड ज्ञान) को प्राप्त कर ले, तो उस भ्रम को संवादी कहते है। जैसे मणि की प्रभा से वहाँ मणि हो सकता है का भ्रम होने से कोई व्यक्ति मणि की खोज करे और निकट जाने से मणि को प्राप्त कर ले, तो उसका भ्रम संवादी है। दूर से झिलमिलाते हुए दीपक की ज्योति को देखकर उसे कोई मणि की ज्योति समझकर खोज करे, तो निकट जाने पर उसे दीपक मिलेगा मणि नहीं मिलेगी। दीपक में मणिका भ्रम हो तो निकट जाने पर भी मणिलाभ न होने से भ्रम विसंवादी है। वेदान्त वाक्यों में अध्यास या आरोप करके मन को एकाग्र करने से, उपासना सफल होती है, इसीलिए अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव की मूर्ति पूजा-या उपासना  को संवादिभ्रम कहा जाता  है।  
[जार-बुद्धि से भी भगवत्प्राप्ति सम्भव है। परमः आत्मा परमात्मा, परमः अंतः करणादि संबंधवर्जितः आत्मा-परमात्मा परम माने अंतःकरणादि के संबंध से रहित जो आत्मा है उसको परमात्मा बोलते हैं। जो सबका पालन-पोषण करें, सबको पुष्टि दें, उसको परमात्मा बोलते हैं। कोई कैसे गया उसके पास वह परमात्म-वस्तु सत्य यह नहीं देखता कि यह किस बुद्धि से उसके पास आया है। इसलिए जार-बुद्धि से भी गोपी जब कृष्ण के पास गयी तो कृष्णरूप हो गयी। उसका गुणमय शरीर छूट गया और बन्धनमुक्त हो गयी। पञ्चदशी में एक प्रकरण है ‘ध्यानदीप’। जैसे- संस्कृत में व्याकरण शब्द का अर्थ होता है वैसे वे ही वेदान्त में प्रकरण शब्द का अर्थ होता है। प्रक्रिया बताने वाले ग्रंथभाग को प्रकरण कहते हैं- प्रक्रियते अनेन।
तो ध्यानदीप में ऐसे बताया कि दो आदमी थे, दोनों ने देखा कि दूर से चमक आ रही है, कोई चीज झिलमिल-झिलमिल झलक रही है। दोनों को शंका हुई कि वहाँ कोई चीज झिलमिल-झिलमिल झलक रही है। दोनों को शंका हुई कि वहाँ कोई हीरा पड़ा हुआ है, निश्चय हो गया कि वहाँ कोई हीरा ही है। दोनों ने बँटवारा कर लिया कि उस हीरा को तुम ले लो और वह हीरा हम ले लें। दोनों के मन में हीरा-बुद्धि हो गयी लेकिन एक आदमी जब उस चमक के पास पहुँचा तो वहाँ दीया जल रहा था। उस दीपक की प्रभा में उसको हीरा की भ्रान्ति हो गयी थी। वहाँ हीरा नहीं मिला। दूसरा भी चमक ही देख रहा था और चमक देखकर गया लेकिन वहाँ तो दर-असल हीरा था। 
दोनों को चमक देखकर हीरा की पहले भ्रान्ति ही हुई थी परंतु एक पहुँच गया हीरे के पास और एक पहुँच गया दीपक के पास। वहाँ चमक में हीरे की भ्रान्ति होना एक के लिए लाभकारक हो गया और एक के लिए लाभकारक नहीं हुआ। जिसको हीरा मिला उसके भ्रम को वहाँ संवादी भ्रम बताया है; दूसरे को विसंवादी भ्रम के रूप में बताया गया है। 
वहाँ बात यह बतायी कि एक बिना जाने यह ध्यान करे कि आत्मा ब्रह्म है और एक जानकर ध्यान करे तो बोले- 'अनजान में भी कोई ध्यान करेगा कि आत्मा ब्रह्म है तो उसको भी वही अनुभव होगा जो जानकर ध्यान करने वाले को होगी।'   क्योंकि यह तो सत्य ही है कि आत्मा ब्रह्म है। जब ध्यान करने से झूठी चीज भी मिल जाती है तब सच्ची चीज को तो बात ही क्या है। ध्यान में (एकाग्रता के अभ्यास में) बड़ा बल है। साभार krishnakosh.org/तो उसको भी वही अनुभव होगा जो जानकर एकाग्रता का अभ्यास करेगा। क्योंकि सत्य यही है कि श्रीरामकृष्ण ही ब्रह्म हैं, और प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है,उनकी जन्मतिथि -१७ फरवरी १८३६ से सत्ययुग का प्रारम्भ हो चुका है;।  ]
ब्रह्मरूपिणी माँ सारदा देवी इस धरती पर अवतरित होकर सगुण और साकार रूप धारण करके लीला कर गयी हैं ! भ्रान्ति नहीं रहने से जगत-लीला का खेल नहीं चल सकता। माँ सारदा देवी अपने शरणागत भक्तों के भ्रान्तिज्ञान (जगत-ज्ञान, अपना-पराया भेद-ज्ञान) को दूर करके अपना यथार्थ सर्वयापी -विराट, आत्म-स्वरूप दिखला देती हैं। श्रीमाँ ने भी लीला के जगत में कई संन्यासियो द्वारा पूछे जाने पर कहा था - "निःसन्देह माया हूँ। माया नहीं रहने से मेरी यह दशा क्यों होती ? मैं बैकुण्ठ में नारायण के साथ लक्ष्मी बनकर रहती। "
२२.इन्द्रियाणामधिष्ठात्री भूतानां चाखिलेषु या: 
ब्रह्मशक्तिरूपा देवी समस्त प्राणियों में १४ इन्द्रियों की (पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, चार अंतरेन्द्रिय) अधिष्ठात्री रूप में व्याप्त रहती हैं और पंचभूतों को संचालित करती हैं। यह देवी की व्याप्ति मूर्ति हैं। पंचेन्द्रिय के माध्यम से मन का जिस किसी विषय से संयोग होता है, मनुष्य उससे प्रभावित हो जाता है। गीता (२/६७) में कहा गया है, ' जल में वायु जैसे नाव को हर लेता है वैसे ही विषयों में विरचती हुई इन्द्रियों के बीच में मन जिस किसी इन्द्रिय का अनुगमन करता है, वह इन्द्रिय ही मन की प्रज्ञा (आत्मस्वरूप की स्मृति) का हरण करके उसका नाश कर देती हैं। अली-मृग-मीन-पतंग-गज जरै एक ही आँच, तुलसी वे कैसे जियें जिन्हे जरावे पाँच। (कुरंग,मातंग, पतंग, मीन, भृंग)-हिरन गाने (शब्द)से, हाथी कामोपभोग (स्पर्श)से, पतंग 'रूप ' पर मोहित होने से, भ्रमर 'गंध' से और मछलियाँ जिह्वा के स्वाद में आसक्त होकर अपने प्राण खोते हैं। 
श्रीमाँ ने किसी भक्त से एक दिन कहा था, " जप-तप करने से क्या होता है, जानते हो ? इसके द्वारा इन्द्रियों का प्रभाव कट जाता है। " किसी सन्तान ने एक बार माँ से कहा -" माँ, मेरे मन में अब बुरे विचार नहीं उठते हैं। " माँ यह सुनकर चौंक पड़ी और तुरंत कहा - " बलो ना, बलो ना, ओ कथा बलते नेई। " एक भक्त ने माँ से कहा, " माँ, काम नहीं जा रहा है, मुझे तो शान्ति नहीं मिलती, मन हमेशा चंचल ही बना रहता है।" माँ ने कुछ नहीं कहा और एकटक दृष्टि से भक्त के चेहरे की तरफ देखते रहीं। माँ के चेहरे को देखकर भक्त को आत्मग्लानि हुई। माँ के चरणों की धूल लेकर भक्त मास्टर महाशय के पास चला आया और कहा - " आपने ठाकुर देव की अनेकों बार चरणसेवा की है, मेरे सिर पर थोड़ा हाथ घुमा दीजिये-मेरा सिर गरम लगता है।" (लगता है किसी दूसरे का सिर है ?) उन्होंने कहा - " यह क्या कहते हाँ ? आप तो माँ के बेटे हैं, माँ आपको बहुत स्नेह करती हैं। क्या माँ ने आपको एकटक दृष्टि से नहीं देखा था ? " भक्त बोला-' हाँ, बहुत देरी तक अपलक दृष्टि से देखा था। " मास्टर महाशय -" तबे आर कि ? सदानन्द सूखे भासे श्यामा यदि फिरे चाय। " इन्द्रियधिष्ठात्री सारदेश्वरी के चकित दृष्टिपात से उस भक्त के मन की  कामाग्नि सदा के लिये बुझ गयी थी।  
२३.चितिरूपेण या कृत्स्नमेतद् व्याप्य स्थिता जगत्: 
सर्वव्यापी चितशक्ति के रूप में देवी माँ भगवती ही इस सम्पूर्ण जगत में अवस्थित हैं। पूर्वोक्त दूसरे श्लोक में देवी माँ भगवती को 'चेतनारूप' में प्रणाम किया गया है। वह चेतना एक प्रकार की विशिष्ट चेतना है, जिसके माध्यम से शरीर के १४ इन्द्रियों का जो करण-समूह है वे चैतन्य जैसे प्रतीत होते हैं। और इस मंत्र में निर्गुणचैतन्य को लक्ष्य बनाकर 'चिति' शब्द का प्रयोग किया गया है। जिस प्रकार पानी ठंढ से जमकर बर्फ बन जाता है, उसी प्रकार सर्वव्यापी चितिशक्ति भी सन्तानों की भक्ति से घनीभूत होकर अवतार (या माँ सारदा) की मूर्ति धारण करती हैं। 
"देवीमाहात्म्य में कहा गया है कि देवी चण्डी समस्त देवताओं की शक्ति की समष्टिस्वरूपा हैं। इसका अर्थ यह है कि असुरों का विध्वंश करने के लिए जब समस्त देवताओं-इन्द्र,वायु,अग्नि आदि ने अपने-अपने पृथक पृथक 'नाम-रूपों' से संबन्धित व्यक्तित्व में अहंकार या अभिमान को विसर्जित कर दिया, और सभी देवता एक मन-प्राण हो गए। ...... तब  समस्त देवताओं की अलग अलग सत्वशक्ति के समष्टिभूत हो जाने से जिस शुद्ध-सत्वरूपा अभेद-दर्शनकारिणी विद्याशक्ति का आविर्भाव हुआ था -देवगणों के उसी 'संगठित शक्ति' (संघ-शक्ति) को ही- माँ जगदम्बा या चण्डी कहते हैं ! [अमूल्यपदचटोपाध्याय,अद्वैतामृतवर्षिणी-२१६); दुर्गा सप्तशती के मध्यम चरित्र में महिषासुर मर्दिनी का रूप सभी देवताओं के अलग-अलग तत्वों से आकार लेता है। शंकर का तेज मुख के प्राकट्य में काम आता है। यमराज के तेज से केश मिलते हैं। ‘बाहवो विष्णुतेजसा’ - श्री विष्णु भगवान के तेज से उसकी भुजाएँ उत्पन्न हुईं। चन्द्रमा, इन्द्र, वरुण, पृथ्वी, ब्रह्मा, सूर्य, वसु, प्रजापति, कुबेर, प्रजापति, अग्नि, संध्या, वायु सभी ने अपना अलग-अलग योगदान किया जिससे देवी ‘संभव’ हुई। यह इस बात का प्रतीक है की सज्जन या अच्छे लोग जब  'एक मन एक प्राण'  जाते हैं,तब अभेद-दर्शनकारिणी विद्याशक्ति का आविर्भाव होता है।इसीलिए वेदों में कहा है -'संगछ्ध्वं संवदध्वं'] 
माँ की की कृपा से ज्ञानचक्षु खुल जाने के बाद ही कोई व्यक्ति  मा जगदम्बा के इस विश्वव्यापी विश्वरूप को देख सकता है। (मातृहृदय के अहं-बोध को विकसित कर सकता है।) श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव के ध्याना-लोक से उद्भासिता चैतन्यमयी जगन्माता (माँ काली) ही जगत के कल्याण के लिए रक्तमांस से बनी हुई साक्षात् माँ सारदा देवी की मूर्ति बनकर आविर्भूत हुई थीं। 
अद्वैत-विज्ञान में सुप्रतिष्ठित श्रीमाँ ने अपने निकटवर्ती भक्तों से कहा था -" साधन करते करते (अर्थात महामण्डल द्वारा निर्देशित ५ साधनो का अभ्यास करते करते अपने अनुभव से) एक दिन देखोगे कि  मेरे भीतर जो हैं, तुम्हारे भीतर भी वे ही हैं; दुले बागदी डोम के भीतर भी वे ही हैं !"
('साधन करते करते देखबे आमार माझे जिनि, तोमार माझेउ तीनि, दूले बागदी डोमेर माझेउ तिनि।'शतरूपे सारदा -४२४  

वर्ष २००३ अपने आप में एक महत्वपूर्ण शुभ वर्ष था। सम्पूर्ण विश्व में श्रीमाँ सारदा देवी की १५० वीं जन्मजयंती समारोहपूर्वक मनायी गयी थी । इस निबंध में हमलोगों ने दुर्गाशप्तसती के आलोक में देवी सारदा की २३ रूपों के ऊपर मनन और ध्यान का चित्र पाठकों को उपहार स्वरुप देने का प्रयत्न किया  है।
माँ को अनेक रूप में देखने की इच्छा किसके मन में जाग्रत नहीं होती? सत्यान्वेषी श्रीरामकृष्ण ने भी माँ काली का दर्शन करने के बाद (परमसत्य सत्य का दर्शन करने के बाद ) उनको अनेक रूपों में देखने की इच्छा की थी। उन्होंने कहा था - "जो व्यक्ति समुद्र-तट पर निवास करता है, तो उसके मन में जैसे कभी कभी यह इच्छा उत्पन्न होती है कि -जरा यह देखें कि रत्नाकर के गर्भ में कितने प्रकार के रत्न (मणि) हैं ? ठीक उसी प्रकार, माँ को प्राप्त कर लेने के बाद (परमसत्य को प्राप्त कर लेने के बाद), सर्वदा माँ के निकट रहते हुए भी, उस समय मेरे मन में इच्छा होती थी कि-'अनन्तभावमयी, अनन्तरूपिणी माँ को अनेक प्रकार से और अनेक रूपों में देखूँगा। " (रत्नाकर गर्भे कत प्रकारेर रत्न आछे देखि -तेमनी माँके पेयेउ, माँर काछे सर्वदा थेकेउ आमार तखन मने हतो, अनंतभावमयी, अनन्तरूपिणी तांके नानाभावे उ नानारूपे देखबो।) (श्रीश्रीरामकृष्णलीला प्रसंग -२/१६०)
{विश्व का मूल स्रोत एक (ब्रह्म) ही है पर वह जगत-निर्माण के लिये २ रूपों में बंट जाता है, चेतन तत्त्व पुरुष है,पदार्थ रूप श्री या शक्ति है। शक्ति माता है। इसीलिए  पदार्थ को मातृ (matter) कहते हैं। } 
[" हमें यह स्मरण रखना होगा कि श्रीमाँ सारदा देवी के शरीर-मन (2H) के सहारे जो विश्वव्यापी मातृत्व-भाव (3rd'H हृदय का अनंत विस्तार) प्रकाशित होता है, वह एक ही अखंड महाशक्ति (माँ जगदम्बा या आत्मा या ब्रह्म) के विविध रूप हैं। इस अखंड शक्ति का वास्तव में विश्लेषण नहीं किया जा सकता, क्योंकि असीम को हमारी ससीम बुद्धि जान नहीं सकती है
 अपनी धारणाशक्ति की अक्षमता के कारण हम श्रीमाँ को जननी, गुरु, देवी, आदि विभिन्न रूपों में सोचने की चेष्टा करते हैं। परन्तु थोड़ा चिंतन करने से ही हम समझ जाते हैं कि इस अलौकिक जीवन में (माँ सारदा सरस्वती अवतार मूर्ति में ), 'गुरु-देवी और माता' का त्रिविध रूप एक दूसरे के साथ हिलमिल कर जुड़े हुए हैं। जैसे ही हम उनको जननी के रूप में पाते हैं, वैसे ही हमारे सामने उनकी अमोघ ज्ञानदायिनी गुरु-शक्ति फूट उठती है। और जब हम उन्हें गुरु के रूप में देखना चाहते हैं, तभी वे हमें माता के रूप में अपने अंक में खींच लेती हैं; फिर जब हम उन्हें गुरु और जननी के रूप में पकड़ने की चेष्टा करते हैं, तब देखते हैं वे इन सबसे परे 'देवीरूप' -में अपनी महिमा में प्रतिष्ठित हैं!
वास्तव में श्रीमाँ के परस्पर-सापेक्ष इस त्रिविध विकास में किस रूप का कहाँ अन्त और कहाँ आदि है, यह हम समझ नहीं पाते। हमारे लिए वे स्नेहमयी माता, ज्ञानदात्रि श्रीसारदा सरस्वती हैं, तथा अलौकिक शक्ति तथा ऐश्वर्यादि (हरिद्वार-कुम्भ, बेलघड़िया -पातिपुकुर ? -कोआलपाड़ा के दर्शन) से विभूषिता, शुद्ध-सत्वा मोक्षदात्री 'विद्यामाया-देवी-सरस्वती हैं !' (श्रीमाँ सारदा -ज्ञानदायिनी -४८३) ]           
(তিনি বলেছিলেন : "সমুদ্রের তীরে যে বাস করে, তার মনে যেমন কখন কখন বাসনার উদয় হয় - রত্নাকরের গর্ভে কত প্রকারের রত্ন আছে দেখি - তেমনি মাকে পেয়েও, মার কাছে সর্বদা থেকেও আমার তখন মনে হত, অনন্তভাবময়ী, অনন্তরূপিণী তাঁকে নানাভাবে ও নানারূপে দেখব।" 
देवीमहात्मय में देवताओं की स्तुति से सन्तुष्ट होकर देवी ने शुम्भ-निशुम्भ का वध कर दिया था। उसके बाद विपदमुक्त जाने के बाद देवताओं ने पुनः देवी से व्याकुल होकर प्रार्थना की थी -'देवी आप हमलोगों पर प्रसन्न हो। हे निखिल विश्वजननी आप प्रसन्न हो जायें। हे विश्वेश्वरि, आप प्रसन्न होकर विश्व का पालन करें। हे देवी आप चराचर जगत की अधीश्वरी हैं।' 
उन्हीं देवगणों के जैसा हमलोग भी माँ सारदा देवी को प्रणाम और प्रार्थना करते हुए इस निबंध को समाप्त करेंगे -
" जननी, हमलोगों का प्राण ब्याभिचारी है, चित्त चंचल है, बुद्धि अहंकार से आच्छन्न है।

"माँ, हमें मनुष्य बना दो, अपनी संतान बना लो ! हमलोग तुमसे बहुत कुछ पाना चाहते हैं, क्योंकि हमलोग सर्वगुण हीन जो हैं।

"माँ हमलोगों को शौर्य दो, वीर्य दो, स्थायित्व दो, ज्ञान-विवेक-वैराग्य दो ,संयम दो तपस्या दो,तथा कार्य में सफल होने तक लगे रहने का अध्यवसाय दो। 

"हमने सुना है कि तुम्हारा नाम 'कपालमोचन' है, तुम अपना आशीष देकर हमलोगों के ललाट की समस्त कूकर्म -रेखाओं को साफ करके मिटा दो। ताकि हमलोग भी विश्व के समक्ष अपना सिर उठाकर खड़े हो सकें। 
शुनेछि, तोमार नाम कपालमोचन, तुमि आशिस करे आमादेर ललाटेर सब कूकर्मरेखा मुछिया घुचाइया दाओ। आमरा विश्वेर माझे माथा तुलिया दाँड़ाई।    
*"জননীং সারদাং দেবীং রামকৃষ্ণং জগদ্‌গুরুম্।*
*পাদপদ্মে তয়ো শ্রিত্বা প্রণমামি মুহুর্মুহুঃ।।"*
(श्रोत : जन्मजन्मान्तरेर माँ, श्री सारदा मठ, दक्षिणेश्वर/"जो भी व्यक्ति इन बातों के उपर चिन्तन करता है, उसके भीतर घृणा नहीं रह सकती, वह किसी से  द्वेष नहीं करता,उसमें हिंसा नहीं रहती, स्वार्थपरता नहीं रहती, शक्तिहीनता नहीं रहती. उसके भीतर की शक्ति जाग्रत हो जाती है, उसके हृदय में ज्ञान का उन्मेष हो जाता है, एवं सर्वग्रासी प्रेम उसके अन्तर से प्रवाहित होकर सबों का आलिंगन करता है. ('प्रलय या गहरी समाधि '- Saturday, May 26, 2012) 
-------------------------
- दुर्गा सप्तशती का उत्तरचरित्र वस्तुतः स्त्री को वस्तु समझने की मानसिकता के लोगों के राक्षसीपन को उजागर करता है। दुर्गा केवल एक विशिष्ट देवी नहीं हैं वह स्त्री की प्रतिनिधि हैं. तृतीय चरित्र में देवताओं द्वारा की गई वह स्तुति में कहा गया है कि जगत् में जितनी स्त्रियाँ हैं, वे सब तुम्हारी ही मूर्तियाँ हैं - स्त्रियः समस्ताः सकला जगस्तु त्वयैकया पूरितमम्बयैतत्- इसका अर्थ यह है कि सप्तशती एक ‘स्त्रियों का एक सार्वभौम बहिन-बोध" स्थापित कर रही थी। सप्तशती का संदेश यह है कि स्त्री को सिर्फ एक शरीर या वस्तु ना समझे। साभार -https://hi.wikipedia.org/wiki/]
नरेन्द्रनाथ दत्त (स्वामी विवेकानन्द, 1836-1902 ई.) के मुख्य प्रेरक स्वामी रामकृष्ण परमहंस (1836-1886 ई.) थे।स्वामी विवेकानन्द के गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव कलकत्ता के एक मन्दिर में पुजारी थे। उन्होंने भारतीय विचार एवं संस्कृति में अपनी पूर्ण निष्ठा जताई। वे धर्मों में सत्यता के अंश को मानते थे। रामकृष्ण जी ने मूर्तिपूजा को ईश्वर प्राप्ति का साधन अवश्य माना, किन्तु उन्होंने चिह्न एवं कर्मकाण्ड की तुलना में आत्मशुद्धि पर अधिक बल दिया। रामकृष्ण की शिक्षाओं के प्रचार-प्रसार का श्रेय उनके योग्य शिष्य विवेकानन्द जी को मिला।रामकृष्ण मिशन की स्थापना स्वामी विवेकानन्द ने 1 मई, 1897 ई. में की थी।उनका उद्देश्य ऐसे साधुओं और सन्न्यासियों को संगठित करना था, जो रामकृष्ण परमहंस की शिक्षाओं में गहरी आस्था रखें, उनके उपदेशों को जनसाधारण तक पहुँचा सकें और संतप्त, दु:खी एवं पीड़ित मानव जाति की नि:स्वार्थ सेवा कर सकें। स्वामी विवेकानन्द ने 1896 ई. में न्यूयार्क वेदान्त सोसाइटी का गठन किया। अपनी दो पत्रिकाओं के माध्यम से उन्होंने अपने विचारों को प्रचारित किया। निवृत्ति मार्गी लोकशिक्षकों का निर्माण करने वाली संस्था रामकृष्ण  मठ एवं मिशन का आदर्श वाक्य है 'आत्मनॊ मोक्षार्थम् जगद्धिताय च' (अपने मोक्ष और संसार के हित के लिये) it means For one's own salvation, and for the good of the world. ] श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव ने अपने प्रमुख शिष्य नरेन्द्रनाथ दत्त को भारत की प्राचीन गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा में प्रशिक्षित कर उन्हें सम्पूर्ण विश्व में 'वेदान्त विद्या' का प्रचार-प्रसार करने के लिए 'लिखित चपरास' प्रदान करते हुए लिखा था -"जय राधे, नरेन शिक्षा देबे -जखन गहरे बाइरे हुंकार देबे, जय राधे प्रेममयी!' रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा में  ब्रह्मचर्य एवं संन्यास दीक्षा देने में समर्थ महामण्डल द्वारा आयोजित 'स्वामी विवेकानन्द -सत्यअन्वेषिका भगिनी निवेदिता भक्ति-वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन'  में प्रशिक्षित और 'चपरास प्राप्त लोकशिक्षकों का कार्य'  है - कुछ वुड बी लीडर्स  या भावी लोक-शिक्षकों को स्वामी विवेकानन्द द्वारा आविष्कृत पद्धति -'BE AND MAKE ' में  प्रशिक्षण देकर उनके आत्मस्वरूप की सम्यक-स्मृति या सुरति को वापस लौटा देना। और इसी प्रकार  भ्रममुक्त मनुष्य या डीहिप्नोटाइज्ड मनुष्य बनने और बनाने की पद्धति का प्रचार-प्रसार करना।  ताकि भारत की वर्तमान युवा पीढ़ी भी, भावी युवा पीढ़ी को  उनके 'खुद' से उनका परिचय करवा देने में सक्षम नेता बनne  और बनायें! ]
Swami Vivekananda forbade his organisation from taking part in any political movement or activity, on the basis of the idea that holy men are apolitical.[23]almost 95 per cent of the monks are forced to seek a voter ID card. But they use it only for identification purpose and not for voting. As individuals, the monks may have political opinions, but these are not meant to be discussed in public.[24]The Mission, had, however, supported the movement of Indian independence, with a section of the monks keeping close relations with freedom fighters of various camps. A number of political revolutionaries later joined the Ramakrishna Order.[25]

बुधवार, 4 अप्रैल 2018

या देवी सा सारदा -3

अमेरिका के सेंट् लुईस वेदान्त सोसाइटी के अध्यक्ष परमपूज्य स्वामी चेतनानन्द जी महाराज लिखते हैं - 'आत्म-तत्व' का निरूपण करने के लिये वेदान्तशास्त्रों में जिस प्रकार- श्रुति, युक्ति और स्वसंवेद्य तथा परसंवेद्य अनुभूति आदि विभिन्न प्रणालियों का सहारा लिया जाता है।  [अर्थात " इस  संसार में जो कुछ भी दृश्यमान है और जहाँ तक हमारी बुद्धि अनुमान कर सकती है, उन सबका (3H) का मूल स्रोत्र एक मात्र ‘परब्रह्म’ (हृदय) ही है।" इस रहस्य को समझाने के लिए जिस प्रकार वेदान्त शास्त्रों में -  'श्रुति,युक्ति और अनुभूति' आदि प्रणालियों का सहारा लिया जाता है।] उसी प्रकार- 'या देवी' अर्थात  'जो माँ जगदम्बा हैं', 'सा सारदा'- वे सारदा सरस्वती हैं!" इस उच्चतर सत्य का निरूपण,अथवा माँ सारदा के देवीत्व का निर्धारण करने के लिये भी, (अर्थात माँ जगदम्बा ही श्रीमाँ सारदा के रूप में अवतरित हुई हैं-का निर्धारण  करने के लिये भी) हमलोग यहाँ भगवान श्रीरामकृष्णदेव उक्तियों  का, माँ के द्वारा स्वयं अपने मुख से उच्चारित स्वरुप को प्रकाशित करने वाले कथनों का, तथा विभिन्न सन्यासियों और भक्तों के दर्शन एवं अनुभवों का संक्षेप में उल्लेख करेंगे। अब ..... ... गतांक से आगे,
९. या देवी सर्वभूतेषु क्षान्तिरूपेण संस्थिता : 
क्षान्ति कहते हैं -क्षमा, तितिक्षा और सहिष्णुता को। सामर्थ्य रहते हुए भी अपराधी (offender) का अहित या नुकसान करने (Harm) की अनिच्छा को क्षमा, तितिक्षा या सहिष्णुता कहते हैं! देवी जगतजननी हैं। वे साक्षात् क्षमा की मूर्ति हैं। उन्होंने अनादिकाल से इसी क्षमामयी मूर्ति के रूप में जीव-जगत को अपने हृदय में धारण कर रखा है। माँ की इस क्षमामूर्ति के प्रकट होने पर, ( अंतर्निहित क्षमाशक्ति को अभिव्यक्त करने में समर्थ होने पर) ही मनुष्य को सच्ची शान्ति प्राप्त हो सकती है। 
माँ सारदा देवी की अद्भुत महिमामय (Awesome) क्षमाशक्ति का स्मरण करते हुए बलराम बसू उनको 'क्षमारूपा तपस्वनी' कहते थे।  सारदानन्द जी ने कहा था, 'हमलोगों को तो देखते हो, पान में थोड़ा चूना कम-बेसी हो जाये तो हमलोग तुरन्त क्रोधित हो उठते हैं। किन्तु माँ को देखो -उनके भाइयों ने उनको कितना सताया, फिर भी वे जितना शांतचित्त (composed) पहले थीं, अब भी हैं। ' 
" एक दिन क्रोध में आकर राधू ने पास की टोकरी से एक बड़ा बैंगन उठा श्रीमाँ की पीठ पर दे मारा। धमाके के साथ ही श्रीमाँ की पीठ लाल हो फूल उठी। उन्होंने ठाकुर की ओर देखते हुए दोनों हाथों को जोड़ कर कहा - "ठाकुर,उसका अपराध न गिनना, वह अबोध (निर्विवेक,imprudent) है। " फिर अपने पैर की धूल उसके सिर में लगाकर कहा, " राधी, जानती है, इस शरीर को ठाकुर ने कभी जरा सा कड़ा शब्द भी नहीं कहा, और तू इतना कष्ट देती है ! तू क्या समझेगी कि मेरा स्थान कहाँ है ? तुम सबको लेकर मैं यहाँ पड़ी हूँ, इसलिए भला क्या समझती है, बता तो ? " तब राधू रो पड़ी। माँ कहती गयीं -" राधू, यदि मैं रूठ जाऊँ, तो त्रिभुवन में भी तुझे आश्रय नहीं मिलेगा।" (श्रीमाँ सारदा देवी -३७३ ) 
माँ कहती थीं -" पृथ्वी के जैसी सहनशक्ति रहनी चाहिये। धरतीमाता कितना सहती हैं ! उसपर कितने विध्वंशात्मक कार्य, उत्पीड़न होते हैं, किन्तु वे सबकुछ सहन करती रहती हैं। वैसी ही सहनशक्ति मनुष्यों में भी रहनी चाहिए। "(श्री मायेर पदप्रान्ते-३९५ )[क्षान्ति तुल्यं तपो नास्ति सन्तोषान्न सुखं परम् । क्षमा जैसा अन्य तप नहि, संतोष जैसा अन्य सुख नहि।] 
[जयरामबाटी में रहते समय 'विधि के विधान से' उनका पारिवारिक उत्तरदायित्व उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया। श्रीभगवान रामकृष्ण देव श्रीमाँ के सदा उर्ध्वगामी मन को व्यावहारिक जगत में बाँध रख अपने युगधर्म -'सत्ययुग स्थापित करने के कार्य' को सुसम्पादित करने के लिए उनके चारों ओर विचित्र 'प्रेम-बन्धनों' का निर्माण कर रहे थे। उनमें 'राधू' सबसे मजबूत कड़ी थी।" (श्रीमाँ सारदा देवी -२३८)
"देखो,श्रीकृष्ण ने ग्वाल-बालों के साथ कितना खेल, हास-परिहास किया, घूमे फिरे, उनकी जूठन खायी, किन्तु क्या वे लोग यह जान सके कि श्रीकृष्ण कौन (मानवजाति के मार्गदर्शक नेता)  थे ? (श्रीमाँ सारदा देवी २४३)
गिरीशचन्द्र घोष कहते थे -" भगवान ठीक हमलोगों की तरह मनुष्य होकर जन्म लेते हैं- इस बात पर विश्वास कर लेना मनुष्य के लिये अत्यन्त कठिन है। तुम लोग कभी सोच सकते हो कि तुम्हारे सामने अनपढ़ ग्रामीण महिला (ग्राम्यबाला) के रूप में साक्षात् माँ जगदम्बा ही खड़ी हैं ? तुम सब क्या कभी कल्पना भी कर सकते हो कि महामाई एक साधारण नारी की तरह घर-बार और सारे काम-काज सँभाल रही है ? पर वे ही जगतजननी महामाया, महाशक्ति हैं। समस्त जीवों की मुक्ति के लिये तथा मातृत्व का आदर्श स्थापित करने के लिये (अपने जीवन को ही उदाहरण स्वरूप गढ़कर पाषाण बन चुके मनुष्यों के हृदय को 'मातृ-हृदय' तक विकसित करने के आदर्श को स्थापित करने के लिये) आविर्भूत हुई हैं। " (श्रीमाँ सारदा देवी 
२७५)
गिरीश ने माँ को पहले गुरु-पत्नी और फिर माता तथा देवी भगवती के रूप में ग्रहण किया था। वे अपने हृदय में माँ जगदम्बा के प्रति संतान की नाइ निःसंकोच व्यवहार करने की शक्ति भी पाते थे। माँ की गाड़ी विष्णुपुर से हावड़ा साढ़े तीन घंटे लेट पहुँची। बहुत गर्मी पड़ रही थी। माँ को बागबाजार के निवास पर ले जाया गया। ऐसे समय पसीने से तर, बदन पर एक साधारण कुरता पहने गिरीश बाबू भी माँ का दर्शन करने वहाँ पहुँचे। यह सुनकर गोलाप-माँ बोलीं -" बलिहारी जाऊँ घोषजी की इस अपूर्व भक्ति पर। माँ अभी जलती-झुलसती आयीं, कहाँ जरा सुस्तायेंगी कि यहाँ भी आ गए उन्हें तंग करने ? " किन्तु गिरीश बाबू उनकी बातों को अनसुनी करते हुए सीधे ऊपर चले और स्वामी ब्रह्मानन्द जी एवं स्वामी प्रेमानन्द (बाबूराम) को भी पुकार कर कहा, " चलो,चलो महाराज, बाबूराम माँ को देख आयें। " 
गोलाप-माँ फिर से डांटने फटकारने शुरू कीं तो गिरीश बाबू सेविका की ओर देखकर बोले -" चिड़चिड़ी औरत कहती क्या है ?-माँ को तंग करने आये हैं ! कहाँ इतने दिनों बाद लड़कों को देखकर माँ के प्राण जुड़ायेंगे, सो नहीं; ये चली हैं बड़ा मातृस्नेह सिखाने !" वे ऊपर चले गए, और माँ ने भी सादर ग्रहण कर उनलोगों को आशीर्वाद दिया। तब तक गोलाप-माँ भी आ पहुंची। उन्होंने आँखों में आँसू भरकर शिकायत की, " आखिर गिरीश बाबू ने मुझे ऐसा कहा !" श्रीमाँ उनकी ओर देखकर बोलीं, " तुमसे मैंने कितनी बार कहा है न कि मेरे बच्चों के सम्बन्ध में मतामत प्रकाश करने मत जाना ?" गिरीश बाबू जीतकर सगर्व नीचे उतर आये। " (श्रीमाँ सारदा देवी -२७७-७८)
जब एक बार गिरीश घोष हैजे से शय्याशायी थे -माँ उनको साक्षात् जगदम्बा के रूप में दर्शन दी थीं और प्रसाद खिलाकर ठीक कर दिया था। तुम वही माँ हो या नहीं ? स्वयं उनके मुख से सुनना चाहा -" तुम कैसी माँ हो ?" माँ ने तत्क्षण उत्तर दिया, " मैं सच्ची माँ हूँ। गुरुपत्नी नहीं, मुँहबोली माँ नहीं, कहने की माँ नहीं, सत्य जननी हूँ। " 
वर्तमान काल में जो लोग (मानवजाति के भावी नेता, वुड बी लीडर्स, भावी लोकशिक्षक लोग) युग-परिवर्तन के लिये (श्रीरामकृष्ण के जन्मतिथि से सत्ययुग स्थापन के कार्य में कूद पड़ने के लिए) अवतीर्ण हुए हैं , उनके चरित्रों में जिस प्रकार वैराग्य का चरम उत्कर्ष था, उसी प्रकार उनमें सबों का कल्याण करने की शुभेच्छा भी थी। किन्तु उनके चरित्र में तितिक्षा, क्षमा और सहिष्णुता (क्षान्ति) आदि गुण पर्वत-कन्दराओं में प्रकट नहीं हुए थे, बल्कि उनके चरित्र में उन गुणों का विकास नगरों के कोलाहलपूर्ण वातावरण के बीच रहते हुए ही हुआ था। 
हमलोग देख सकते हैं कि, त्याग के मूर्त विग्रह होते हुए भी श्रीरामकृष्ण ने अपनी माँ की सेवा नहीं त्याग दी, भतीजे अक्षय की मृत्यु पर अश्रुपात किया, समीप आयी हुई बीमार सहधर्मिणी को अपने कमरे में रखकर इलाज और सेवा की व्यवस्था की, लीडरशिप ट्रेनिंग देकर श्रीमाँ को अपना उत्तराधिकारिणी (रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त परम्परा में सत्ययुग स्थापन की भावी लीडर) बनाया, तथा जीवमात्र के कल्याण के लिए अपना जीवन उत्सर्ग कर दिया। 
स्वामी विवेकानन्द ने सर्वत्यागी होने पर भी जननी,जन्मभूमि और गुरु की सेवा तथा मानवमात्र के कल्याण के लिए अपने हृदय का अंतिम रक्त-बिन्दु तक न्योछावर कर दिया। श्रीमाँ के पारिवारिक जीवन पर चर्चा करते समय भी - पहले उनकी अनासक्ति (वैराग्य) की ओर ही दृष्टि पड़ती है। ..... 
दिसम्बर १९१८ के अन्त में एक दिन श्रीमाँ जयरामबाटी के सदर दरवाजे के चबूतरे पर बैठी थीं; साधु-ब्रह्मचारी बैठक के बरामदे में थे। सामने काली मामा और वरदा मामा के खलिहान से धान आ रहा था। अपने खलिहान को काली मामा ने ऐसे घेर लिया था कि रास्ता कुछ संकरा हो गया था, जिससे वरदा मामा के धान के बोरों के लाने में असुविधा हो रही थी। इसी से दोनों भाइयों में कहा-सुनी होते-होते जब मारपीट की नौबत आई, तब श्रीमाँ चुप न रह सकीं। उनके पास पहुँचकर वे कभी एक भाई को कहतीं-"दोष तो तेरा ही है। " और कभी दूसरे भाई का हाथ पकड़ कर खींचने लगती। 
उम्र में वे उनसे बहुत बड़ी थीं। गोद में लेकर दोनों को उन्होंने पाला-पोसा था। इसलिए बड़ी बहन की मध्यस्तता से हाथपाईं तो बच गई, पर झगड़ा बन्द न हुआ। ऐसी अवस्था में माँ भी उन्हें छोड़कर नहीं जा सकती थीं। इतने में संन्यासी लोग वहाँ आ पहुँचे। उनको आते देख दोनों भाई गरजते हुए अपने-अपने घर चले गये; इधर श्रीमाँ भी क्रोध से अपने घर के बरामदे में जा पैर लटकाकर बैठ गयी। परन्तु पलभर में उनका क्रोध जाने कहाँ चला गया। जब उन्होंने साक्षीभाव से इस सम्पूर्ण लीलविलास में अपने और भाइयों आचरण (भूमिका) पर मनःसंयोग किया, तो -"क्रीड़ाभूमि के समान इस संसार के स्वार्थ-संघर्ष के पीछे जो शाश्वत शान्ति विराजमान है, वह (अपना स्वरुप) उनके सामने आ जाने से; वे मुस्कुराकर कहने लगीं -" महामाया की कैसी माया है !! यह अनन्त संसार पड़ा हुआ है; ये वस्तुयें भी यहीं पड़ी रह जायेंगी -क्या लोग इतना भी नहीं समझते ? " इतना कहकर वे हँसते-हँसते लोटपोट हो गयीं , वह हँसी रोके नहीं रूकती थी।" (श्रीमाँ -गृहिणी -३८०) 
गृहस्थ लोगों के लिए अपने परिवार का पालन-पोषण तथा उनकी सुख-समृद्धि का वर्धन करना एक प्रधान कर्तव्य है; किन्तु निरपेक्ष द्रष्टा (ब्रह्मवेत्ता,पैगम्बर, नेता, लोकशिक्षक, वुड बी लीडर्स) को इस प्रकार की चेष्टायें कई बार घोर-स्वार्थपरता से सम्मोहित (हिप्नोटाइज्ड) मनुष्यों द्वारा की गयी क्रियाऐं ही प्रतीत होती हैं। तो भी 'ब्रह्मविद मनुष्य' (पैगम्बर, नेता या लोकशिक्षक) दुर्बलचित्त मनुष्यों (मिथ्या अहं से भ्रमित व्यक्तियों) को बाधा देने में हाथ नहीं बढ़ाते; बल्कि भरसक उनका अभाव निर्लिप्त भाव से मिटाने की सदा चेष्टा करते हैं। श्रीमाँ के जीवन में ऐसे दृष्टान्त बहुत हैं। " (श्रीमाँ -३८२ अन्न-चिन्ता चमत्कारा -३८३ ) 
लीडरशिप " यदि आचार्य (आध्यात्मिक नेता, लोक-शिक्षक) के प्रति श्रद्धा-भक्ति  का भाव न हो, तो भला विद्या के प्रति श्रद्धा ही क्यों कर आएगी ? " (श्रीमाँ पेज-४९४) इसीलिये  श्रीमाँ साधु-ब्रह्मचारियों में ( या महामण्डल कर्मियों में) अटूट भ्रातृ-भाव देखना चाहती थीं। [उसके लिये महामण्डल संगठन के किसी इकाई के अध्यक्ष को पहले 'विवेकानन्द-सत्यान्वेषी भगिनी निवेदिता वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' के अटूट मातृभाव में (नेतृत्व-प्रशिक्षण में ) प्रशिक्षित करना आवश्यक होगा।]
कोआलपाड़ा आश्रम के तात्कालीन अध्यक्ष अपने सहकर्मी ब्रह्मचारियों से केवल कार्य की ही आशा रखते थे, उसके बदले में उनका स्नेह -यत्न नहीं करते थे। उनके लिए आश्रम में खाने का भी सुप्रबन्ध नहीं था। .... अध्यक्ष अपनी भूल सुधारने के बजाय उल्टे श्रीमाँ के पास शिकायत लेकर पहुँचे। ... माँ बोलीं -" अरे यह क्या ? हमलोगों का प्रेम ही तो असल है; प्रेम से ही तो ठाकुर का परिवार गढ़ उठा है। और मैं माँ हूँ, मेरे सामने बच्चों के खाने-पीने पर आपत्ति की बात भला तुमने चलाई कैसे ?
 ... किसी इकाई के अध्यक्ष के कर्तापन के अभिमान को देखकर उन्होंने असन्तोष प्रकट करते हुए कहा था, " अरे यह क्या? इतने दाँव-पेंच के साथ हुक्म करने पर भला यह 'बी ऐंड मेक' रूपी चरित्र-निर्माण आंदोलन चलेगा कैसे ? सभी तुम्हारे छात्र ही क्यों न हों ? अपने बेटे को ही यदि अधिक डाँटा जाय, तो वह भी एक दिन अलग हो जाता है। 
जो भी युवा महामण्डल के इस मनुष्य -निर्माण कारी आंदोलन या 'विवेकानन्द-सत्यान्वेषी भगिनी निवेदिता वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' के अटूट मातृभाव में लोकशिक्षक का चपरास प्राप्त करने के लिये महामण्डल के नेतृत्व-प्रशिक्षण आंदोलन से जुड़े हैं, वे मेरे बच्चे हैं, ठाकुर के पास आये हैं! वे जहाँ भी जायेंगे ठाकुर वहीँ उनकी देखभाल करेंगे।... इसलिये " सबको आपस में हिल-मिलकर रहना चाहिये। ठाकुर कहते थे -'श,ष, स। ' सब सहते जाओ -वे (भगवान श्रीरामकृष्ण) इस आंदोलन के पीछे हैं ! हमेशा संघबद्ध होकर कार्य करते रहो। " (श्रीमाँ सारदा देवी -४११)
 श्रीमाँ का (पूज्य नवनी दा का) विश्वास था कि संघ (महामण्डल) के माध्यम से श्रीरामकृष्ण अपनी नयी भावधारा 'BE AND MAKE' का प्रचार अवश्य करेंगे ! किसी मठाध्यक्ष ने (महामण्डल इकाई के पी० आर० ? ने ) उनसे एक दिन दुःखित होकर कहा कि देशवासियों के मन का प्रवाह इतना बहिर्मुखी और कामिनी-कांचन में आसक्त हो गया है कि 'चरित्रवान मनुष्य बनो और बनाओ' आंदलोन का कार्य आशानुरूप ढंग से आगे नहीं बढ़ पा रहा है, क्योंकि वे इस नए मनुष्य -निर्माण आंदोलन का काम बिगाड़ना ही जानते हैं, बनाने में मदद नहीं करते। श्रीमाँ ने आश्वासन देते हुए कहा -" बेटा, ठाकुर कहा करते थे 'मलय पवन के स्पर्श से सभी सारवान पेड़ चन्दन हो जाते हैं। ' मलय-पवन बह चुका है, (महामण्डल आन्दोलन ने भी सत्यान्वेषी सिस्टर निवेदिता के मार्गदर्शन को समझ लिया है !) अब सब चन्दन हो जायेंगे, केवल बाँस और केले को छोड़कर।" (पेज-४१४/ )"देखो उस देश से अनेक अंग्रेज भक्त आयेंगे; तुम लोग अंग्रेजी में क्लास लेना सीख लो !" ४१५ पेज/ 
पगली मामी से नलिनी दीदी का साँप-नेवले का सम्बन्ध था। पर दोनों श्रीमाँ की गृहस्थी में रहती थीं, और दोनों को मनाकर चलना श्रीमाँ ने अपना कर्तव्य समझ लिया था। वे कहा करती थीं, " चाहे कुछ भी करो, पर सभी को साथ लेकर थोड़ा स्नेहपूर्वक उनका परामर्श सुनना चाहिये। कुछ ढील देकर दूर से सभी बातों पर दृष्टि रखनी चाहिए, जिससे ज्यादा बिगड़ भी न जाये। " (पेज-३९४ )] 
१०. या देवी सर्वभूतेषु जातिरूपेण संस्थिता: 
जाति से तात्पर्य है -जन्म, उत्पत्ति, ब्रह्मसत्ता; गोत्र या मनुष्यत्व इत्यादि। देवी नित्य होकर भी बहुत से पदार्थों में व्याप्त है, यही उनकी जातिमूर्ति है। यद्यपि जब तक सृष्टि है,जीव-जगत है जाति-भेद रहेगा, तथापि देश-काल-अवस्था में अन्तर के आधार पर विभिन्न जातियों का रूपांतरण -होता रहता है।
 "श्रीमाँ को भक्तों का जूठा (Leftovers-बचा हुए खाना) साफ करते देख एक दिन नलिनी ने कहा था -"अरी मैया ! (मागो)  छत्तीस जात का जूठन उठाती है!" यह सुनकर माँ ने कहा, " सभी तो मेरे बच्चे हैं, छत्तीस कहाँ ? जो सब को अपनी संतान के समान देखती हैं, उनके पास सांसारिक (carnal या शारीरिक) जाति-पाँति का भेद कैसे रह सकता है ? उनके (सर्वव्यापी विराट मातृहृदय में विकसित ब्रह्मवेत्ता ,नेताओं या लोकशिक्षकों के) प्रेम-स्नेह के बाढ़ से सारी ऊँच-नीच भूमि डूबकर एक-सी हो जाती है। "(श्रीमाँ सारदा देवी पेज-४४३ )
दुर्गापूजा के समय श्रीमाँ द्वारा स्वजनों के लिये नये कपड़े खरीदने की आज्ञा सुनकर ईशानन्द ने कहा था-" माँ, महीन कपड़े तो सब विलायती होंगे, क्या विदेशी कपड़े लाना उचित होगा ?" माँ ने हँसकर कहा, "बेटे, वे लोग (विलायत के बुनकर) भी तो मेरे ही बच्चे हैं। मुझे सबको लेकर (वेदान्ती दृष्टि-बसुधैव कुटुंबकम की दृष्टि से) घर-बार करना पड़ता है। क्या मैं जिद्दी (एकपक्षीय) हो सकती हूँ ? " 
(परन्तु उदारता और अत्याचार का प्रतिवाद -ये भिन्न वस्तुएं हैं। सिन्धुबालाओं के प्रति अंग्रेज-पुलिस के अत्याचार को सुनकर शान्तप्रकृति माँ भी गरज उठी थीं। .... क्या वहाँ कोई माई का लाल नहीं था कि दो थप्पड़ लगाकर उन दो स्त्रियों को छुड़ा ले आता ? " क्रन्तिकारी देवेन बाबू की बहन और स्त्री दोनों का नाम सिन्धुबाला था। (श्रीमाँ सारदा देवी-दृष्टिकोण -३२२ /मातृसानिध्ये-५६) 
[भक्त-जननी : श्रीमाँ का असीम प्रेम, अपार स्नेह आगंतुक के जाति-वर्ण, दोषगुण, सांसारिक अवस्था आदि के द्वारा नियंत्रित नहीं होता था। जो उनके पास आ जाता, उसके दोष, दुर्बलता आदि को जानते हुए भी वे उसको स्नेह देतीं, औषधि, पथ्य आदि से उसकी मदद करतीं, और उसके शोक-दुःख में हार्दिक सहानुभूति दिखाती; साथ ही दूसरों को भी वैसा करने का उपदेश देतीं। उनके इस सच्चे मातृत्व के प्रभाव से दुश्चरित्रों के हृदय में भी परिवर्तन आ जाता था, डाकू भी भक्त हो जाता था। जयरामबाटी के पास ही शिरोमणिपुर गाँव में बहुत से रेशम के कीड़े पालने वाले बुनकर मुसलमान लोग रहा करते थे। पर विदेशी रेशम की होड़ में उनका रोजगार चौपट हो गया और विवश हो उनलोगों ने चोरी-डकैती शुरू की। आस-पास के गाँव वाले भयभीत होकर उन्हें 'तूंतवाले डकैत' कहने लगे। उन्होंने वहां के कई मुसलमानों को साधु-निवास बनाने के कार्य में लगाया था।]
अमजद नामक एक तूंतवाले मुसलमान ने माँ के घर की दीवार बनाई थी। एक दिन माँ ने उसे अपने बरामदे में खाने को दिया। नलिनी दीदी आँगन में खड़ी हो दूर से फेंक-फेंक कर परोस रही थीं। माँ यह देख कह उठीं , "वैसे देने से क्या कोई खाकर सन्तुष्ट हो सकता है ? यदि तू नहीं सकती है, तो मैं देती हूँ। " खाना समाप्त होने पर माँ ने जूठी जगह को स्वयं लीप-पोंछ दिया। उन्हें वैसा करते देख नलिनी दीदी -" ओ बुआ, तुम्हारी जात गयी," इत्यादि कहकर बड़ी आपत्ति करने लगीं। तब माँ ने उन्हें धमकाया,"जिस प्रकार शरत (स्वामी सारदानन्द जी) मेरा लड़का है, उसी प्रकार यह अमजद भी।" (श्रीमाँ सारदा देवी-४६०) 
इसी घटना के बाद श्रीमाँ जयरामबाटी में बीमार पड़ी थीं। बहुत लोग उन्हें आकर देख जाते थे। सेवक ब्रह्मचारी ने एक दिन देखा कि फ़टे कपड़े पहने, एक साँवला,दुबला उदास चेहरे का आदमी लाठी के सहारे बिना किसी हिचकिचाहट के भीतर जाकर चटाई के ऊपर से ही उचक कर झाँक रहा था। अचानक माँ की दृष्टि जब उस ओर पड़ी, तब उन्होंने प्रेम से धीमी आवाज में पुकारा -"कौन -बेटा अमजद हो क्या ? आओ। ' अमजद आनन्द से बरामदे में उठा और श्रीमाँ से बातें करने लगा। माँ-बेटे में सुख-दुख की बातें होते देख सेवक-ब्रह्मचारी अपने काम पर चले गए।
 ... तीसरे पहर अमजद जब घर लौट रहा था, तब ब्रह्मचारी ने देखा कि वह बड़ा प्रसन्न है, और उसका रूप बदल गया है! उसने बदन पर तेल मलकर स्नान किया है, भरपेट भोजन किया है और पान चबाते-चबाते जा रहा है। उसके हाथ में एक शीशी बैद का तेल तथा पोटली में कई चीजें थीं। पीछे श्रीमाँ ने ब्रह्मचारी को बतलाया, "गरम दवा पीकर अमजद का सिर गरम हो गया है; रात को नींद नहीं आती। बहुत दिन से घर में एक शीशी नारायण तेल रखा था, वह उसे दे दिया। यह तेल बड़ा गुणकारी है, लगाने से दिमाग ठंढा हो जाता है। " 
अमजद बड़ी जल्दी चंगा हो गया। कोई आवश्यकता पड़ने पर उसे खबर भेजते ही, वह माँ के घर आकर बड़ी ईमानदारी के साथ सब काम कर जाता था। .... अमजद को श्रीमाँ का स्नेह मिलने पर भी उसने चोरी-डकैती नहीं छोड़ी थी। ... अमजद के प्रभाव से जयरामबाटी में डकैती नहीं होती थी। एक बार जेल से छूटकर जब अमजद घर आया, तब देखा कि घिया लगी हुई है। झट से एक टोकरी घिया ले वह श्रीमाँ के पास जयरामबाटी पहुँचा। माँ ने कहा," बहुत दिन से मैं सोच रही थी कि तुम आते क्यों नहीं हो? इतने दिन कहाँ थे ? अमजद ने कहा कि गाय चोरी करने में पकड़ा गया था, इसलिए नहीं आ सका। श्रीमाँ ने उसकी बात को अनसुना करते हुए कहा, "ओहो , तभी तो सोच रही थी कि अमजद आता क्यों नहीं है। " वे जब अन्तिम बीमारी के समय कलकत्ते में थीं , तब एकदिन पत्र आया कि अमजद डकैती करने के कारण फरार था और कुछ दिन बाद ही पकड़ा गया है। यह सुनकर माँ ने कहा, " ओ, बेटा देखा ! मैं जानती थी कि वह डकैती करना जानता है।" सुना जाता है कि श्रीमाँ के देहत्याग के बाद अमजद को डकैती करते समय तलवार से चोट लगी थी। वही जख्म बाद को बढ़कर घाव हो गया, और उससे उसकी मृत्यु हुई। पेज-४६०-४६३/ ] 
[जैसी मति वैसी गति: सापेक्षिक सत्य को ही परमसत्य समझने वाले भ्रमित मनुष्यों को भ्रममुक्त करके उच्चतर सत्य में ऊपर उठाने का काम करने के लिए, या आध्यात्मिक दृष्टि से शक्ति-सामर्थ्य में अपने से निम्न स्तर के मनुष्यों को ऊपर उठाने के लिये -या 'शिव ज्ञान से जीव सेवा' करने के लिए मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं (लोकशिक्षकों) का अवतरण होता रहता है। 
किन्तु राजनितिक नेता या जाति-धर्म में बाँट कर राज करने वाले पॉलिटिशियन्सब्राह्मणेत्तर जातियों -सम्प्रदायों को अगड़े-पिछड़े में बाँटने वाले नेता केवल यही देखते हैं कि,' मुझसे इतर-जाति धर्म के लोग बड़े मन-बढ़ू हो गए हैं !' किन्तु , प्रवृत्ति-मार्गी या गृहस्थ युवाओं को भी कच्चा मैं या मिथ्या अहं को दास मैं बनाने का उपाय सिखलाने के लिए 'गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' या 'विवेकानन्द-सत्यान्वेषी भगिनी निवेदिता वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में 'मनःसंयोग,विवेक-दर्शन का अभ्यास, विवेक-प्रयोग, चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया का प्रशिक्षण देने में समर्थ मातृहृदय -आध्यात्मिक नेता (आचार्य) बनने और बनाने का 'युवा प्रशिक्षण शिविर' महामण्डल के सिवा और कौन संगठन चलाता है?)     
"स्त्री के निकट रहने पर भी जिसके त्याग,वैराग्य, विवेक-विज्ञान सदैव अक्षुण्ण बने रहें, वही ठीक ठीक ब्रह्म में प्रतिष्ठित हुआ है। स्त्री और पुरुष दोनों को ही जो समभाव से -'आत्मा' के रूप में देखता है और उसके अनुरूप व्यवहार करता है, उसी को वास्तविक ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हुई है। स्त्री-पुरुष के बीच भेद रखनेवाले व्यक्ति साधक भले ही हों, किन्तु ब्रह्मज्ञान से बहुत दूर हैं। " (श्रीमाँ पेज -४६/ लीलाप्रसंग-साधकभाव-अध्याय १७)     
"उनके विश्वव्यापी विराट मातृत्व के 'अहं' बोध द्वारा उत्पन्न स्नेह से कोई भी जीव वंचित नहीं होता था। रासबिहारी महाराज ने एक दिन श्रीमाँ से पूछा, " तुम क्या सबकी माँ हो ?" माँ ने उत्तर दिया,"हाँ।" फिर प्रश्न हुआ, "इन जीव-जन्तुओं की भी ?" माँ ने कहा, "हाँ, उन सबकी भी। " -पेज/४४८/ माँ होकर वे सन्तान को लौटा ही कैसे सकती थीं ? इसके आलावा वे किसी का दोष नहीं देख सकती थीं। .... "आप लोगों की इतनी संगति और सेवा करने पर भी 'अमुक' के मन में इतनी बुराई क्यों है ? बेटा , मैं अब किसी का दोष देख या सुन नहीं सकती। प्रारब्ध-कर्म जिसका जैसा है, वैसा फल वह पायेगा ही। हाँ, जहाँ फाल घुसने वाला था, वहाँ सुई तो जायेगी ही। पेज-४५५ /  
"आदमी कोई भी निर्दोष नहीं है, यह जानकर श्रीमाँ सभी सभी सन्तानों को समान रूप से ग्रहण करतीं थीं! बृन्दावन में बांकेबिहारी के दर्शन कर माँ ने उनसे प्रार्थना की थी , 'तुम्हारा रूप टेढ़ा है,पर मन सीधा -मेरे मन के घुमाव को सीधा कर दो। ' लोग केवल दोष ही देखते हैं, गुण देखनेवाले कितने हैं ? गुण ही देखना चाहिये। " (श्रीमाँ ४५६ पेज)
 वास्तव में उनकी बातचीत और व्यवहार में एक ऐसा सहज, सरस भाव था (मातृहृदय का प्रेम -स्नेह था) कि आये व्यक्ति को वे पलक भर में अपना लेती थीं! वे प्रत्येक सन्तान की रूचि से शीध्र परिचित हो उसके अनुरूप व्यवहार करतीं। (श्रीमाँ -४५३ पेज).... सबने यही जाना कि माँ उससे आंतरिक स्नेह करती हैं ! ४५४/ इसमें संसार-सुलभ आत्मीयता और आन्तरिकता रहने पर भी माया का बन्धन या आकर्षण न था। उसमें जैसी रुलाई और हँसी थी, वैसी ही विक्षेप-विहीन शान्ति भी थी। -४४५ पेज/ वे संन्यासियों को उनके नाम से नहीं पुकारती थीं। इसका कारण पूछने पर उन्होंने बताया था, " मैं माँ हूँ न, संन्यास-नाम से पुकारते मुझे कष्ट होता है। " किसी संन्यासी ने पूछा -"आप हम लोगों को किस तरह देखती हैं?" माँ ने जबाव दिया," नारायण के रूप में। " फिर प्रश्न हुआ,"हम सब आपकी संतान हैं। नारायण-भाव से देखने पर तो संतान-भाव से देखना नहीं होता है ?" इसके उत्तर में माँ ने कहा,"नारायण के रूप में भी देखती हूँ, सन्तान के रूप में भी। " पेज-४४६/
 ब्राह्मणेत्तर जाति के मनुष्यों को ब्राह्मण बनाने का कार्य करने में समर्थ ब्रह्मवेत्ता मनुष्य, लोकशिक्षक, पैगम्बर या मानवजाति के मार्गदर्शक नेता बनने और बनाने का युवा प्रशिक्षण शिविर आयोजित होता रहता है!
अहंता -ममता / 'मैं '- पृथक 'अहं'-बोध,बंदर है / और मेरा -तेरा बंदर की पूँछ है/कपि के ममता पूँछ पर सुन्दर काण्ड/ मेरा -पराया का भेद नहीं रखना ही माँ का व्यावहारिक वेदान्त हैं ! मेरी जाति-तेरी जाति की भेदबुद्धि (माया-शक्ति) ही मनुष्य को शरीर में बांध देती (हिप्नोटाइज्ड कर देती है-भेंड़ बना देती) है] 
[हिंदू धर्मशास्त्रों में जातियों को नहीं, वर्णों को मान्यता दी गयी है। वर्णव्यवस्था में पुरोहित तथा अध्यापक वर्ग ब्राह्मण, शासक तथा सैनिक वर्ग राजन्य या क्षत्रिय, उत्पादक वर्ग वैश्य और शिल्पी एवं सेवक वर्ग शूद्रवर्ण हैं। वर्णों में अंतर्विवाह का निषेध नहीं था। परंतु हिंदू समाज में जातियों का मौलिक महत्व है और ये वर्णो से भिन्न हैं।
जातिव्यवस्था में अंतर्जातीय विवाह सर्वथा निषिद्ध है। सजातीय विवाह जातिप्रथा की रीढ़ माना जाता है।श्रमविभाजनगत आनुवंशिक समूह भारतीय ग्राम की कृषिकेंद्रित व्यवस्था की विशेषता रही है। जातिविशेष की एक विशिष्ट आर्थिक तथा सामाजिक मर्यादा होती है जो उसके सदस्यों को, जो जन्मना होते हैं, परंपरा से प्राप्त होती है। यह जातीय मर्यादा जीवन पर्यंत बनी रहती है और जातीय धंधा छोड़कर दूसरा धंधा अपनाने से तथा आमदनी के उतार चढ़ाव से उसपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। उच्च हिंदू जातियों में गोत्रीय विभाजन भी विद्यमान हैं। गोत्रों की उपायोगिता मात्र इतनी ही है कि वे किसी जाति के बहिविवाही समूह बनाते हैं। और एक गोत्र के व्यक्ति एक ही पूर्वज के वंशज समझे जाते हैं।  विवाह में ऊँची पंक्तिवाले नीची पंक्तिवालों की लड़की ले सकते हैं किंतु अपनी लड़की उन्हें नहीं देते। 
वास्तव में जाति मनुष्यों के अंतर्विवाही समूह या समूहों का योग है जिसका एक सामान्य नाम होता है, जिसकी सदस्यता अर्जित न होकर जन्मना प्राप्त होती है। जिसके सदस्य समान या मिलते जुलते पैतृक धंधे या धंधा करते हैं और जिसकी विभिन्न शाखाएँ समाज के अन्य समूहों की अपेक्षा एक दूसरे से अधिक निकटता का अनुभव करती हैं। हिंदू धर्मं के अनुयायी जब जब इस्लाम या सिख धर्म स्वीकार करते हें तो वहाँ भी अपने जातीय समूहों को बहुत कुछ सुरक्षित रखते हैं और इस प्रकार भारत में सिखों या मुसलमानों की में एक पृथक्‌-पृथक जाति बन जाती है।]
११. या देवी सर्वभूतेषु लज्जारूपेण संस्थिता : 
न करने योग्य कार्य (अशोभनीय कार्यों) से दूर रहने को लज्जा (लाज, शर्म या हया) कहते हैं। लज्जा  का पर्यायवाची शब्द है 'ह्नी', व्रीड़ा, विनयशीलता। देवी (माँ जगदम्बा) मनुष्य के हृदय में लज्जामूर्ति बनकर अपने स्वरूप को प्रकट करती हैं, इसलिये उसके संतान कई बार निन्दित कर्म करने दूर रहते हैं। यदि  मनुष्यों के हृदय में देवी के इस लज्जामूर्ति की थोड़ी भी अभिव्यक्ति नहीं होती, तो यह जगत पशु साम्राज्य में परिणत हो गया होता। देवी (जगतजननी माँ सारदा देवी)  अपनी क्षमामूर्ति में एक ओर जहाँ मनुष्य को स्वेच्छाचारी होने का अवसर देती हैं, वहीँ अपनी लज्जामूर्ति में प्रकट होकर अनुशानहीनता को नियंत्रित (restrained) करने की शिक्षा देती हैं। 
[ यक्ष-प्रश्न में युधिष्ठिर से यक्ष पूछता है - तप का लक्षण क्या है ? दम किसको कहते हैं ? क्षमा किसे कहते हैं ? लज्जा किसे कहते हैं ? "तपः किं लक्षणं प्रोक्त्तं को दमश्र्च प्रकीर्तितः। क्षमा च का परा प्रोक्त्ता का च ह्निः परिकीर्तिता।। महाभारत २.२२.१।।" युधिष्ठिर उत्तर देते हैं - "अपने (वर्णाश्रम-चरित्र) धर्म में स्थित रहना ही तप है।अपने चित्त को विषयों में जाने से रोकना ही दम है। सर्दी - गर्मी अर्थात् तेजी तुर्षा इत्यादि को सहन करना ही क्षमा कहलाता है। जो कार्य नहीं करने योग्य है , उन्हें न करना ही लज्जा है।  ह्रीर्हता बाधते धर्मम्। नष्ट हुई लज्जा धर्म को अर्थात चरित्र को नष्ट करती है। स्कूल में शिक्षक पूछते हैं -"तुम में चरित्र या संस्कार नाम की कोई चीज है कि नहीं ? स्त्रीसहज लज्जाशीलता (Female coyness) को व्रीड़ा कहते हैं। 
माँ सारदा अत्यन्त लज्जाशीला थीं, घूँघट में रहती थीं। अधिकतर समय में वे अपने को लज्जा के आवरण से ढँक कर रखती थीं। बातचीत के क्रम में एक दिन माँ ने कहा था -" ठाकुर के सामने कीर्तनिया लोगों का नकल करते हुए,लक्ष्मी गाते गाते नृत्य करने लगती और वैसा ही अंग-विन्यास (posture) बनाकर दिखाती थी। ठाकुर ने मुझसे कहा था,' देखो, उस प्रकार से, तुम भी उसके ताल में ताल मिलाने के लिये अपनी लज्जा मत छोड़ना। ' 
एक बार जयरामबाटी में राधू, माक़ू, नलिनी आदि लड़कियाँ खेल-कूद में लाज-हया की चिंता भूलकर खूब चिल्ला रही थीं। माँ ने पूछा , " तुम लोग क्या कर रही हो ? तुम लोगों में थोड़ा भी लाज शर्म नहीं है ? लड़कियों के लिए जरूरत से ज्यादा उछलकूद करना ठीक नहीं है। लड़कियों को बहुत सँभलकर चलना पड़ता है, इज्जत का ध्यान रखकर चलना पड़ता है। " तब उनलोगों में से किसी ने प्रश्न किया, " क्यों बुआजी, ठाकुर ने तो कहा है -'लज्जा,घृणा, भय, तीन थाकते नए।' श्रीमाँ ने तुरंत उत्तर दिया, " नहीं,नहीं वे सब बातें उन लोगों के लिये हैं, जो ईश्वरप्रेम में पागल हो चुके हैं। मैं कहती हूँ -" खास तौर से स्त्रियों के लिये तो -लज्जा, घृणा, भय रखते ही होय, जिसको है भय उसीका होगा जय।" (आमी बलछि -" बिशेष करे मेयेमानुष्येर-  लज्जा,घृणा, भय तीन थाकते हय। जार आछे भय तार हय जय।")
'लज्जा ही नारी का भूषण है।' लज्जा से नारी के सतीत्व की रक्षा होती है। घृणा -पापी मनुष्य से घृणा नहीं, किन्तु पापकर्म से घृणा, गंदे कार्यों से घृणा करना चाहिए। उसी प्रकार भय - साँप का, बाघ का, या मरने का भय नहीं करना चाहिए। किन्तु मानमर्दन (derogation) का भय, बदनामी (obloquy) का भय, कलंकित (disgrace) होने का भय। इन तीनों के द्वारा स्त्रियाँ अपने जीवन को सूरक्षित रख सकती हैं। 
[" श्रीरामकृष्णदेव की भतीजी लक्ष्मी दीदी स्वभाव से वैष्णवी (चैतन्यमहाप्रभु-सम्प्रदाय) थीं। कभी कभी घर में मधुर कण्ठ से मनोहर कीर्तन गाया करती थीं। उसे सुनने के लिए लोग एकत्र हो जाते। लज्जाशीला श्रीमाँ को यह पसन्द न था। उन्हें स्मरण था कि जिस समय लक्ष्मी दीदी श्रीरामकृष्ण के सम्मुख कीर्तनियों का अनुकरण कर अभिनय करती हुई कीर्तन गातीं, उस समय श्रीरामकृष्ण प्रसन्न होने के साथ साथ श्रीमाँ को सावधान करते हुए कह देते -" देखो, लक्ष्मी का वही भाव है, पर तुम उसका अनुकरण कर लज्जा-शर्म का त्याग मत करना। " पेज-१९४/पतिगृह में/ श्रीमाँ अपने देवीत्व (यथार्थ स्वरूप) के बारे में सचेत थीं; तो भी समझ रही थीं कि दैव-निर्देश से उस प्रतिकूल अवस्था में ही रहकर उन्हें लोकशिक्षक की भूमिका निभानी होगी। पेज-२०५ / राधू के पैरों से पायल उतरवा दिया -४२८ संन्यासी की पीठ से आँचल भिड़ाती जाती हो ? ४२९/]  
१२.या देवी सर्वभूतेषु शान्तिरूपेण संस्थिता:
 शान्ति का का तात्पर्य है -शम, उपशम, निवृत्ति, सभी प्रकार दुखों से छुटकारा, कामक्रोध आदि षडरिपुओं का विध्वंश, दुर्भाग्य का शमन, मोक्ष-(देहाध्यास से विसम्मोहित हो जाना, भेंड़त्व से डीहिप्नोटाइज्ड हो जाना)कैवल्य, निर्वाण। 
विषयभोगों में मनुष्य को कभी शान्ति प्राप्त नहीं होती। उससे केवल उनकी भोगेच्छा (या तृष्णा) और अधिक भड़क जाती है। बच्चा जैसे माता के गोद में शान्ति पाता है, उसी प्रकार मातृत्व प्राप्त कर लेने से (अपने हृदय को मातृ-हृदय में विकसित कर लेने से) मनुष्य वास्तविक शान्ति (Real peace) का अधिकारी बन जाता है। 
शान्ति बाहर से प्राप्त होने वाली वस्तु नहीं है, यह तो मनुष्य के हृदय-गुहा में शान्ति रूप से वास करनेवाली माँ जगज्जननी हैं; जिनको प्रकट करने के लिए का हमें अपने अन्तस्थ परमात्मा के सर्वव्यापी विराट मातृ-हृदय से एकरूप होना पड़ेगा। [नाग महाशय ने कहा था -'बाप से माँ अधिक दयालु हैं, बाप से माँ अधिक दयालु हैं। "पेज-२१९ भक्तों के साथ /]
शान्तिरूपिणी माँ सारदा देवी की आत्मकथा है, " रात तीन बजे उठकर मेरे इस (उत्तर के) तरफ के बरामदे बैठ कर जप तो करो, देखती हूँ कि मन में शान्ति कैसे नहीं आती है ? सो तो करेगी नहीं, केवल अशान्ति अशान्ति बोलेगी- तुम्हें किस बात की अशान्ति ! बेटी, मैं तो अशान्ति कैसी होती है-यह भी नहीं जानती थी। "(श्रीश्री मायेर कथा-१-१४४/)  
माँ एकदिन श्री 'म' की स्त्री (धर्मपत्नी) श्रीमती निकुंज देवी से बोलीं, " इस संसार में सुख-दुःख, अच्छा-बुरा तो लगा ही रहता है, जिसका जब समय होता है, ठीक चला आता है, भोग भी करवा लेता है। इच्छाशक्ति को बलवती बनाना पड़ता है, और मन को ईश्वर (माँ जगदम्बा) में रखना पड़ता है। हर समय केवल अशान्ति अशान्ति बोलते नहीं रहना चाहिये। " (श्रीश्री मायेर पदप्रान्ते-२-४३१) 
इस जगत में आनन्द और शान्ति किसी बाजार से खरीदकर प्राप्त नहीं किया जाता है। जगत से विदा लेने के पहले माँ सारदा ने समस्त मानवता के प्रति अपना अंतिम उपदेश (ग्रामीण भाषा में वेदान्त का सार) देती हुई कहती हैं - " यदि शान्ति चाउ , माँ कारो दोष देखो ना। दोष देखबे निजेर। जगत के आपनार करे निते शेखो। केउ पर नय, माँ , जगत तोमार। " -अर्थात " यदि शान्ति चाहती हो, बेटी, तो किसी का दोष मत देखना। दोष केवल अपना ही देखना। संसार को अपना बनाना सीखो। कोई पराया नहीं, बेटी, संसार तुम्हारा है !" (श्रीमाँ सारदा देवी /पेज-६२१/) 
१३. या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धारूपेण संस्थिता:
श्रद्धा का अर्थ है आस्तिक्य बुद्धि, विश्वास (conviction) माँ जगदम्बा के अस्तित्व पर पूर्ण विश्वास! गीता १७/३ में भगवान कहते हैं - "श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः।" - यह पुरुष अर्थात् संसारी जीव श्रद्धामय है। क्योंकि जो जिस श्रद्धावाला है अर्थात् जैसी जिसकी श्रद्धा (स्वयं को अविनाशी आत्मा या नश्वर शरीर मानने वाला ?) वैसा ही उसका स्वरूप होता है। जिस जीव की जैसी श्रद्धा है, वह स्वयं भी वही है। अर्थात् 'श्रः सत्यम धीयते इति श्रद्धा'-जो दृढ़ विश्वास निरंतर सत्य को धारण किये रहता हो, वह है श्रद्धा। गुरु और वेदान्त (के चार महावाक्यों) पर विश्वास को ही श्रद्धा कहते हैं। 'श्रद्धावान लभते ज्ञानं।' 
[श्रद्धा वह है जिसके द्वारा हमें भगवान की प्राप्ति होती है— यया वस्तु उपलभ्यते। श्रद्धा वह है जिसके द्वारा हम सत् को धारण करने में समर्थ होते हैं- सत् धारयते यया इति श्रद्धा। श्रद्धा वह है जिसके कारण हम अपनी जीवन पद्धति, अपने कार्य कलाप निर्धारित करते हैं यानि हम वैसे होते हैं जैसी हमारी श्रद्धा होती है— योय: श्रद्धा स एव स। शास्त्रीय जटिलताओं से बचते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल भक्ति को परिभाषित करते हैं-. “श्रद्धा और प्रेम के योग का नाम भक्ति है।"
श्रत् माने आस्तिकता अर्थात् जिस (2Hको)  को तुम देख नहीं रहे हो, वह भी है। जिसका अर्थ है- 'आस्तिक्य बुद्धि।' 'सत्य धीयते यस्याम्' अर्थात् जिसमें सत्य प्रतिष्ठित है। छान्दोग्योपनिषद् 7/19 सत् को परोक्ष बनाने के लिए श्रत् कर दिया। रेफ जो उसमें मिलाया है, वह सत् को परोक्ष करने के लिए। परोक्ष में श्रद्धा होती है।  
माँ सारदा श्रद्धा की मूर्त रूप थीं। उन्होंने अपने जीवन से दिखा दिया है कि श्रद्धा किस प्रकार की जाती है।एक दिन किसी व्यक्ति ने झाड़ू देने के बाद झाड़ू को एक तरफ फेंक दिया। यह देखकर माँ बोलीं-" ओह, यह क्या करती हो? तुम्हारा काम हो गया , और तुमने उसे इतनी अश्रद्धा से फेंक दिया ? झाड़ू देते समय जैसे झाड़ू को हाथ से पकड़ कर धीरे धीरे झाड़ू देना पड़ता है, रखते समय भी उसको आस्ते से रखना चाहिए। छोटी चीज समझकर क्या क्या उसको असम्मान दिखाना उचित है ? 'जाके राखो, सेई राखे'- जिसको रखोगी वही रखेगा। फिर तो उसकी आवश्यकता होगी। इसके आलावा इस परिवार का वह झाड़ू भी तो एक अंग है। उस दृष्टि से भी तो उसका एक सम्मान है ! जिसको जितना सम्मान मिलना चहिये, उतना सम्मान उसको देना पड़ता है। झाड़ू को भी आदर के साथ रखना चाहिये। साधारण कार्यों को भी श्रद्धापूर्वक करना चाहिये। " माँ का यह उपदेश अविस्मरणीय है। 
[एक दिन जयरामबाटी में घर के कामों में नियुक्त एक स्त्री ने झाड़ू लगाने के बाद झाड़ू को एक ओर फेंक दिया, तो माँ ने कहा कि झाड़ू को भी सम्मान देना चाहिये, साधारण कार्य को भी श्रद्धापूर्वक करना चाहिये; छोटी चीज समझकर उसकी अवहेलना करना ठीक नहीं। " मानवी-५८१/] 
१४. या देवी सर्वभूतेषु कान्तिरूपेण संस्थिता: 
कान्ति का अर्थ है -शोभा, सौन्दर्य, चमक, दीप्ती, प्रभा। श्रीदुर्गासप्तशती १/८१ में कहा गया है - "सौम्या सौम्य तरा शेष सौमेभ्यस्वती सुंदरी" -देवी भवानी देवताओं के प्रति सौम्य और असुरों के प्रति उससे अधिक रुद्रा हैं, और जगत में जितने भी सुन्दर वस्तुएं हैं उन सबसे अधिक सुन्दरी हैं।
गीता १०/४१ में श्रीभगवान कहते हैं - यत् यत् विभूतिमत् सत्त्वम् श्रीमत् ऊर्जितम् एव  वा तत् तत्  एव अवगच्छ त्वम् मम तेजोंऽशसंभवम् (a manifestation of a part of My splendour.)  संसार में जो जो भी व्यक्ति विभूतिमान् -- विभूतियुक्त हैं तथा श्रीमान् और ऊर्जित ( शक्तिमान् ) अर्थात् श्री -- लक्ष्मी से युक्त और उत्साह से युक्त हैं उन-उन को तुम मेरी शक्ति के अंश से (तेज-माँ जगदम्बा के अंश से)  ही उत्पन्न हुई जानो।
समस्त वस्तुओं और समस्त प्राणियों में माँ जगदम्बा ही कान्ति रूप में व्यक्त (manifested) हैं ! कोई प्राणी चाहे कितना भी कुरूप (ugly) या दिव्यांग (malformed-अष्टावक्र) क्यों न हो, प्रत्येक के भीतर कान्ति का कुछ न कुछ विकास रहता ही है। फूलों में ऐसा टुस-टुस लाल रंग कहाँ से आता है कि वे मुस्कुराने लगती हैं ? कमल के खिलने में, चन्द्रमा में, बच्चों की मुस्कान में, कामिनी के मनमोहक चेहरे में, यहाँ तक कि वृक्ष की लताओं में, पर्वतों, कन्दराओं में, नदियों-तालतलैयों में,और ग्रह-नक्षत्रों में सर्वत्र इन्हीं माँ जगदम्बा की कान्तिमूर्ति को अभिव्यक्त होती हुई देखी जा सकती है।
श्रीमाँ के शिष्य स्वामी सारदानन्दजी माँ सारदा देवी की कान्ति का वर्णन इन शब्दों में करते हैं - "कई लोगों को देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है कि माँ की हथेली रक्ताभ (लाल रंग की) थी। उनकी कृपा से और किसी किसी के सौभाग्य से माँ के चरणकमलों का दर्शन प्राप्त हुआ था ; माँ का पैर का तलुआ भी बिल्कुल टेरकोटा (Terracotta) या पकी हुई मिट्टी की तरह लाल था।  सिर के बाल घने, रेशम के धागे के समान पतले तथा कोमल, लम्बे, काले, चमकदार और सामने के तरफ थोड़े घुँघराले थे। सुगढ़ चेहरे पर बिल्कुल  तिल के फूल जैसी लम्बी सुगढ़ नासिका थी। उनके उज्ज्वल नेत्रों की प्रशान्त स्थिर कृपादृष्टि, प्रत्येक मनुष्य के हृदय को करुणा से सिंचित कर देती थी। प्रशस्त चमकीला ललाट था -श्रीमाँ के प्रसन्न मुखड़े को देखते ही मनुष्यों का चित्त शान्त हो जाता था। श्याम-गौर रंग पहले उज्ज्वल था बाद में उम्र के अंत में थोड़ा म्लान हो गया था। लम्बी आकृति थी, दोनों करकमल भी अपेक्षाकृत लम्बे थे, श्रीमाँ थोड़ा बायीं ओर झुक कर धीरे धीरे चलती थीं। बाद में घुटनों में गठिया हो गया था।" (श्रीश्रीमायेर स्मृतिकथा -८७) 
काशी में एक बार गोलाप-माँ को भव्य और व्यस्क देख, किसी महिला ने उनको ही श्रीमाँ समझकर प्रणाम किया, तथा बातचीत करने को प्रस्तुत हुई। गोलाप-माँ इसे भाँप गयीं , उन्होंने श्रीमाँ की ओर संकेत करके कहा -" वे रहीं माँ जी - श्रीमाँ वे हैं !" माँ के प्रशान्त चेहरे से आकृष्ट न हो महिला ने सोचा कि शायद गोलाप-माँ (माँ दुर्गा की सखी जया ?) विनोद कर रही हैं। पर गोलाप-माँ के फिर से कहने पर महिला को बाध्य होकर प्रणाम करने जाना पड़ा। तब श्रीमाँ ने भी जरा विनोद के लिए हँसकर कहा -"नहीं,नहीं -वे ही माँ जी हैं !" 
अब तो महिला चकराई। (उच्चतर सत्य का निर्णय ?) सत्य के निर्णय का कोई उपाय भी नहीं था। अन्त में वह पहले के ही समान गोलाप-माँ को ही माताजी समझ उनकी ओर बढ़ी। इस बार गोलाप-माँ ने उसे डाँट कर कहा, " तुममें क्या थोड़ी भी विवेक-प्रयोग क्षमता नहीं है ? (उच्चतर सत्य और सापेक्षिक सत्य, या शाश्वत-नश्वर में विवेक करने की क्षमता नहीं है ?) देखती नहीं -मनुष्य का मुख है या देवता का ? मनुष्य का चेहरा क्या कभी वैसा (श्रीमाँ के जैसा-'कान्तियुक्त') हो सकता है ?" 
सचमुच माँ की सरल तथा प्रसन्न दृष्टि में एक ऐसी विशेषता थी, जो सात्विक-बुद्धिवालों को अपने आप अपनी असाधारणता का परिचय दे देती थी ! (विवेक-दर्शन का अभ्यास करने से जिनका विवेक-स्रोत उद्घाटित हो चुका हो -विवेकी व्यक्ति को अपने आप  खुदके ब्रह्मवेत्ता नेता,लोक-शिक्षक होने का परिचय दे देती थी !) किन्तु जिनका मन अभी तक केवल संसारिक-भोगों में ही लिपटा हो (आत्मश्रद्धा के अभाव में कामिनी-कांचन में ही लिपटा हो), अलौकिक वस्तुओं की (उच्चतर सत्य की) जिन्होंने ने कभी धारणा ही न की हो, वे भला इसे कैसे देख सकते ? (श्रीमाँ सारदा देवी -३३८  
[ न हम कुछ हँस के सीखे हैं, न हम कुछ रो के सीखे हैं- जो कुछ थोड़ा सा (विवेक-प्रयोग) सीखे हैं; 'किसी के' (पूज्य नवनीदा के) हो के सीखे हैं!!] 
१५. या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मीरूपेण संस्थिता : 
 लक्ष्मी का अर्थ है -श्री, सम्पत्ति, सम्पदा, वित्त, अभ्युदय, समृद्धि,सौभाग्य, शोभा, प्राण। मनुष्य के शरीर में जितने समय तक प्राण रहता है, वह उतने ही समय तक लक्ष्मी और श्री से युक्त रह पाता है। माँ जगदम्बा ही प्राण-रूपिणी लक्ष्मी हैं। 
ठाकुरदेव के शरीर में रहते समय ही किसी भक्त महिला की आलोचना को सुनकर जब माँ ने अपने शरीर से समस्त आभूषणों को उतार देना चाहा, तब गौरी माँ बोलीं - " तुम तो बैकुण्ठ की लक्ष्मी हो, तुम्हें क्या ऐसा वेश धारण करना चाहिये?" फिर ठाकुरदेव के शरीर त्याग कर चले जाने के बाद लोगों की आलोचना से बचने के लिए माँ ने अपने गहनों को उतार देने की चेष्टा की तब गौरी माँ ने कहा - " ठाकुर (ब्रह्म) तो सर्वदा विद्यमान हैं,और तुम स्वयं लक्ष्मी हो। तुम यदि सधवा का वेश त्याग दोगी तो जगत का अकल्याण होगा।" (शतरूपे सारदा -१३४)
 [सन्ध्या के समय श्रीमाँ अपने शरीर से सारे आभूषण एक-एक कर निकालने लगीं। जब सोने के कंकण भी निकालने चलीं, तब श्रीरामकृष्ण ने गले की बीमारी के पूर्व के रूप में प्रकट होकर उनका हाथ पकड़ लिया और कहा , " क्या मैं मर गया हूँ जो तुम स्त्रियों के सौभाग्यचिन्ह हाथों से निकाल रही हो ? श्रीमाँ ने फिर कंकण नहीं उतारा। श्रीरामकृष्ण (शक्तिमान) के नित्यलीला का विराम नहीं है, और चिर-सधवा श्रीमाँ (शक्तिमान की शक्ति) का भी उनसे यथार्थतः वियोग नहीं है।  (चिर सधवा -१७४) ]
जयरामबाटी में श्रीमाँ सारदा देवी को साधारण महिला की तरह रोटी बेलते देखकर किसी भक्त के मन में आया कि सीताराम या राधाकृष्ण जैसे अभिन्न हैं, वैसे ही श्रीरामकृष्ण और माँ भी हैं; पर सामने उनका मानवोचित व्यवहार ही दीखता है ? मन के द्वन्द्व को मिटाने के लिए उन्होंने कहा -" तब तुम्हें जो साधारण स्त्रियों की भाँति रोटी बेलता देख रहा हूँ , आखिर यह सब क्या है ? माया या और कुछ ? माँ ने कहा -" हाँ, माया ही तो है ! माया यदि न होती, तो मेरी ऐसी दशा क्यों ? मैं तो बैकुण्ठ में नारायण के बगल में लक्ष्मी होकर  रहती। लेकिन बात यह है कि भगवान नरलीला पसन्द करते हैं !" (श्रीमाँ सारदा देवी -मानवी-५५९)
१६.या देवी सर्वभूतेषु वृत्तिरूपेण संस्थिता : 
वृत्ति का अर्थ है -स्वाभाविक कर्म, आजीविका, पेशा, व्यवसाय। आमतौर से वृत्ति शब्द का अर्थ आजीविका या चित्तवृत्ति है। श्रीमाँ लड़कियों को शिक्षा के साथ साथ कढ़ाई-बुनाई का प्रशिक्षण देने को भी प्रोत्साहित करती थीं। [वृत्ति : instinct : सहज प्रवृत्ति, मूल प्रवृत्ति, अन्तःप्रेरणा, सहजवृत्ति, स्वाभाविक बुद्धि। यह तो सर्वविदित है कि जीवन निर्वाह के लिए धन नितान्त आवश्यक है।धन की प्राप्ति किसी न किसी वृत्ति के द्वारा ही संभव है।वह वृत्ति नौकरी ; व्यवसाय आदि किसी भी रूप मे हो सकती है।आजकल तो वृत्ति प्राप्ति की भारी समस्या है।प्रत्येक नौ जवान वृत्ति की खोज मे दर बदर की ठोकरें खा रहा है।फिर भी वृत्ति की प्राप्ति नहीं हो पाती है।ऐसी स्थिति मे प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि वह जगदम्बा दुर्गा जी की उपासना करे ; जिससे उन्हें वृत्ति की प्राप्ति आसानी से हो सके।]
एक भक्त-स्त्री अपनी पाँच कन्याओं के अविवाहित रहने के कारण घोर दुश्चिंता में पड़ी थी। यह सुन श्रीमाँ ने कहा -"ब्याह नहीं कर सकती, तो इतनी चिंता क्यों करती हो ? निवेदिता के स्कूल में भर्ती करा दो, पढ़ना-लिखना सीख कर अपने पैरों पर खड़ी हो जाएगी, और सुख से रहेंगी । " सुई आदि के शिल्प-कार्य को वे स्वयं जानती थीं और अपने प्रयोजन के अनेक काम स्वयं ही कर लेती थीं। कोई यदि उनके पास कार्पेट का आसन, देवताओं के चित्र, मन्दिर आदि तैयार कर के ले आता, तो उसकी बहुत प्रशंसा करती थीं। सभी विषयों में श्रीमाँ की गुणग्राहिता सचमुच एक अनुकरणीय वस्तु थी। " (श्रीमाँ सारदा देवी - मानवी ५७३ )
एक बार किसी भक्त ने माँ को पत्र में लिखा कि नौकरी के क्षेत्र में उसे कभी कभी झूठ बोलना पड़ता है, इसलिए मैं नौकरी छोड़ देना चाहता हूँ, और यह भी लिखा कि उसके भरणपोषण के लिए नौकरी के सिवा कोई दूसरा उपाय भी नहीं है। ऐसी परिस्थिति में उसे क्या करना चाहिये वह तय नहीं कर पा रहा है -अतः माँ से मार्गदर्शन चाहता है। माँ ने थोड़ा सोचविचार कर सेवक से कहा, " उसको लिख दो कि नौकरी नहीं छोड़नी है। " सेवक को वैसा लिखने में थोड़ा आनाकानी करते देखकर माँ बोली -" आज उसको थोड़ा झूठ बोलने में भी डर लग रहा है, किन्तु नौकरी छोड़ देने के बाद जब धन का अभाव हो जायेगा, तब उसको चोरी डकैती करने में भी डर नहीं लगेगा। " माँ की दूरदृष्टि और अपने सन्तानों की रक्षा करने के आग्रह को देखकर सेवक आश्चर्यचकित हो गया। (श्रीश्रीमायेर स्मृतिकथा -९६)
$$$१७.या देवी सर्वभूतेषु स्मृतिरूपेण संस्थिता: 
स्मृति (memory) का साधारण अर्थ है स्मरणशक्ति,अनुभूत विषयों का स्मरण, याददाश्त, यादगार। किसी वस्तु को देखकर सर्वप्रथम जो भाव या विचार सहज-प्रवृत्ति के रूप में मन में प्रकाशित होती है, बाद में वही विचार चित्त पर एक गहरा छाप छोड़ देती है, या संस्कार बनकर चित्त में संचित हो जाती है। यही संचित भाव जब पुनः चित्त के सतह पर बुलबुले के रूप में उठ आती है, तो उसको स्मृति कहते हैं।
छान्दोग्य उपनिषद (७.२६.२) में कहा गया है -'आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धि: सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृति:।। स्मृतिलब्धे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्ष:।।' ‘यहां सत्व का अर्थ है अन्तःकरण। आहार शुद्ध होने से चित्त की शुद्धि होती है,  चित्त की शुद्धि से अपने आत्मस्वरूप की अविचल स्मृति प्राप्त होती है।  स्मृति-लाभ या -आत्मस्वरूप की स्मृति निश्चल रहने, या चित्त की अविचलता (poise) प्राप्त होने से ,मनुष्य के चित्त की सब गाँठें खुल जाती हैं, उसे समस्त बन्धनों से छुटकारा मिल जाता है।[स्त्री -पुरुष के देहाध्यास मिथ्या 'अहं' द्वारा जनित भ्रम से मोक्ष मिल जाता है ! और अर्जुन (गीता -१८/७३ में)  बोल पड़ता है - 'नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा .... करिष्ये वचनं तव।'  'हे अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह (मैं 'सिंह-शिशु' नहीं 'भेंड़-शिशु' होने का भ्रम)  नष्ट हो गया है और स्मृति (अपने अविनाशी सच्चिदानन्द स्वरुप की स्मृति) प्राप्त हो गई है। मैं सन्देह रहित होकर स्थित हूँ। (अर्थात डीहिप्नोटाइज्ड होकर-मैं मरण-धर्मा शरीर नहीं अविनाशी आत्मा में स्थित हूँ; अब मैं आपकी आज्ञा का पालन करूँगा।' 

[किन्तु यहाँ 'स्मृति' शब्द का प्रयोग  'मेमोरी' या यादगार के अर्थों में नहीं हो रहा, क्योंकि वैसी 'मेमोरी ' (स्मृति) तो कंप्यूटर में भी होती है, उसके लिए मनुष्य  होना जरूरी नहीं है।  यहाँ बड़ा अलग अर्थ है स्मृति का। 'स्मृति' शब्द से यहाँ देखि-सुनि घटनाओं या पढ़े-सुने विषयों की रटन्त-विद्या या याददाश्त-शक्ति  का सवाल नहीं है।  ब्रह्मवेत्ता मनुष्य को ऐसी स्मृति उपलब्ध हो जाती है—जो अपरिवर्तनशील है, अविचल, चंचलता से रहित है या निश्चल है, अडिग है। सत्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृति:'। अपनी अन्तर्निहित दिव्यता (ब्रह्मत्व) या आत्मस्वरुप के स्मरण का नाम स्मृति है। 

भ्रममुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड हो जाने का सूत्र है - " स्मृतिलब्धे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्ष:" इसी सम्यक् स्मृति को मध्ययुग के संतों ने—कबीर ने, दादू ने, रैदास ने, शेख फरीद ने—'सुरति' कहा है।  और जिसको अपनी सुरति आ गयी, जिसको अपना स्मरण आ गया, उसकी सारी ग्रंथिया टूट जाती हैं। जिसको अपना स्मरण आ गया, उसकी ये सारी ग्रंथियां मिट जाती हैं। फिर उससे ऊपर कुछ भी नहीं है—न धन है, न पद है, न प्रतिष्ठा है। जिसको अपना स्मरण आ गया, उसे तो परमपद मिल गया, परमधन मिल गया। उस परमपद और परमधन का नाम -भ्रममुक्त हो जाना या डीहिप्नोटाइज्ड हो जाना ही मोक्ष है। 
और आधुनिक युग में ब्रह्म के अवतार भगवान श्रीरामकृष्ण से सम्पूर्ण मानवजाति के मार्गदर्शक नेता, ब्रह्मवेत्ता, या लोक-शिक्षक बनने और बनाने का प्रशिक्षण देने का 'चपरास-प्राप्त' गुरु विवेकानन्द ने 'मातृहीन सिंह-शावक' की कथा सुनाकर, सम्पूर्ण विश्व में  इसी 'सम्यक-स्मृति या सुरति की दुंदुभी -BE AND MAKE' बजा दी है! तथा ठाकुर -माँ के आशीर्वाद एवं स्वामी जी के प्रेरणा से  'स्वामी विवेकानन्द -सत्यअन्वेषिका भगिनी निवेदिता भक्ति-वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन' में प्रशिक्षित एवं चपरास प्राप्त आचार्य पूज्य नवनीदा द्वारा स्थापित महामण्डल, युवाओं को आत्मश्रद्धा और विवेक-प्रयोग द्वारा 3H निर्माण का प्रशिक्षण देकर उनकी खोई हुई श्रद्धा, सुरति या सम्यक-स्मृति लौटा देने का कार्य विगत ५० वर्षों से करता चला आ रहा है !
 महामण्डल द्वारा आयोजित 'स्वामी विवेकानन्द -सत्यअन्वेषिका भगिनी निवेदिता' भक्ति-वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन'  में प्रशिक्षित और 'चपरास प्राप्त लोकशिक्षकों का कार्य'  है - कुछ वुड बी लीडर्स  या भावी लोक-शिक्षकों को स्वामी विवेकानन्द द्वारा आविष्कृत पद्धति -'BE AND MAKE ' में  प्रशिक्षण देकर उनके आत्मस्वरूप की सम्यक-स्मृति या सुरति को वापस लौटा देना। और इसी प्रकार  भ्रममुक्त मनुष्य या डीहिप्नोटाइज्ड मनुष्य बनने और बनाने की पद्धति का प्रचार-प्रसार करना।  ताकि भारत की वर्तमान युवा पीढ़ी भी, भावी युवा पीढ़ी को  उनके 'खुद' से उनका परिचय करवा देने में सक्षम नेता बनने और बनाने वाले आंदोलन को अनंत काल तक जारी रख सकें! महामण्डल द्वारा आयोजित युवा-प्रशिक्षण में जो कोई हृदय से जुड़ जाता है, वह 'अमृत से भीगकर-लौटता है; अर्थात -चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने का प्रशिक्षण देने में समर्थ लोकशिक्षक,नेता या आचार्य बनकर लौटता है! 

'आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धि: सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृति:।।यहाँ 'आहार' शब्द का अर्थ केवल 'अन्न' ही नहीं समझना चाहिये, बल्कि  'सभी इंद्रियों का आहार' लेना चाहिए। जो हमारा (ब्रह्मवेत्ता मनुष्य का) आत्मस्वरूप है, वह है सत्व। और जो उस पर आच्छादित होता है, वह आहार। इसमें जो हम जिह्वा से लेते हैं—भोजन, स्वाद—वह तो अति गौण है। हम जो भीतर ले जा रहे हैं, अगर यह शुद्ध है तो हमारे भीतर जो छिपा हुआ स्वरूप है; वह ढंकेगा नहीं; उघडेगा, निखरेगा, ताजा होगा, नहाएगा—सद्य:स्नात्!
मगर नासमझों के कारण गौण प्रमुख हो गया है। कुछ पागल अपना पूरा जीवन इसी चिंता में व्यतीत करते हैं—क्या खाएं, क्या न खाएं; क्या पीए, क्या न पीए ? प्याज-लहसुन का उपयोग कैम्प में नहीं होता,तो मछली कैम्प में क्यों चलता है ? 
आहार का अर्थ है, आहरण - जो भी बाहर से भीतर लिया जाए।  हमारी पाँच इन्द्रियाँ हैं -आँख, कान,नाक, जीभ और त्वचा, और प्रत्येक इन्द्रियों का आहार (विषय) अलग अलग होता है। ये पाँच द्वार हैं जिनके माध्यम से हम रूप-रस-गन्ध-शब्द और स्पर्श आदि बाह्य जगत के विषयों को, बाह्य-जगत को अपने भीतर आहरण करते हैं, खींचते या आमन्त्रित करते हैं। आंख से रूप,कान से ध्वनि या शब्द, नाक से गंध, जीभ से स्वाद, त्वचा या हाथ से छू कर स्पर्श— प्रत्येक इंद्रिय का अलग -अलग आहार है।अस्सी प्रतिशत आहार तो हम आंख से लेते हैं, बीस प्रतिशत शेष चार इंद्रियों से। [मेरे निजी केस में - आँख (स्वाध्याय 80 %), कान (भजन-प्रवचन-न्यूज 10 %), नाक (गन्ध -0 %), जीभ (लहसुन-प्याज 5 %), त्वचा (5 %)]  हमलोग युवा अवस्था में क्या सुनते हैं ? लोग फिल्मी गाने सुन रहे हैं, व्यर्थ की बातें सुन रहे हैं। परनिन्दा -परचर्चा करने में लगे हुए हैं। एक—दूसरे की निंदा सुन रहे हैं—झूठी। और कोई संदेह नहीं उठाता। ऐसा आदमी खोजना मुश्किल है जिससे तुम किसी की निंदा करो और वह संदेह उठाए। किन्तु किसी की प्रशंसा करो तो हर एक व्यक्ति संदेह उठाएगा।  ] 
दुर्गाशप्तसती (४/११) में कहा गया है -"मेधासि देवि विदिताखिलशास्त्रसारा। " जिनकी कृपा से समस्त शास्त्रों के सार तत्व को जाना जाता है वह मेधा शक्ति रूपिणी सरस्वती आप ही हैं। श्रीमाँ सारदा देवी अपने शिष्यों और भक्तों के मन में 'भगवान की स्मृति' (नारायण ही नर रूप में अवतरित होते हैं-की स्मृति) जाग्रत रखती थीं। बाद के दिनों में श्रीमाँ की स्मृति अनगिणत भक्तों और संन्यासियों के हृदय में अविचल रूप से स्थान बनाया है, तथा निम्नलिखित ग्रंथों के रूप में प्रकाशित हुई है - 'श्रीश्री मायेर कथा', 'मातृदर्शन', 'श्रीश्री मायेर पदप्रान्ते', 'श्रीश्री मायेर स्मृतिकथा', 'श्रीश्रीमाँ और जयरामबाटी', 'मातृसानिध्ये', 'जननी श्रीसारदा देवी।' लीलाप्रसंग को लिखते समय स्वामी सारदानन्द ने माँ की कई स्मृतियों का उल्लेख किया है।        
१८.या देवी सर्वभूतेषु दयारूपेण संस्थिता : 
'पर दुःख-हरण की इच्छा' को दया, अनुकम्पा, कृपा, करुणा   कहते हैं। प्राणियों को दुःखों में गिरा देखकर, जब उस दुःख को दूर करने की इच्छा मन में जाग्रत होती है, तो उसी देवी की दयामूर्ति कहते हैं। उस दयामूर्ति देवी के विकास को प्रत्येक जीव के हृदय में थोड़ा बहुत परिमाण में देखा जा सकता है। [वस्तुतः दयाभाव ही एक ऐसा महान् गुण है ; जो दानव और मानव मे अन्तर करता है। जिसमे दयाभाव नहीं है ; वह मानव-शरीर पाते हुए भी दानव है।]
एक दिन पगलिमामी किसी लड़के को पीने के लिये एक ग्लास पानी लेकर आयीं तो कहीं से एक बिल्ली आकर उसको जूठा कर दी। तब मामी को उस बिल्ली को भगाने के लिए चिल्लाते सुनकर माँ बोली -" पानी पीते समय किसी को बाधा नहीं देनी चाहिये,और बिल्ली ने तो ग्लास मुख लगा दिया था।" पगलिमामी ने गुस्से से कहा-" तुमको बिल्ली पर उतनी दया दिखाने की क्या जरूरत है, मनुष्य के ऊपर दया करो न।" माँ ने गंभीर होकर कहा - " मेरी दया जिसके ऊपर नहीं है, वह कितना अभागा होगा ? मेरी दया किस प्राणी के ऊपर नहीं है, यह मैं समझ नहीं सकती। " वे कहती थीं - " मैं दया करके मंत्र देती हूँ। मुझे छोड़ते ही नहीं रोते हैं, देखकर दया आती है। नहीं तो मुझे क्या लाभ ? मंत्र देने से उसके पापों को ग्रहण करना पड़ता है। फिर भी यही सोंचकर दीक्षा देती हूँ कि एक दिन इस शरीर को तो जाना ही है, किन्तु इनका कल्याण तो हो जाये!"  (श्रीमाँ सारदा देवी-५११?).... शेष अगले ब्लॉग में: 
----------------------------