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शुक्रवार, 13 अप्रैल 2018

" हृदय में सोना दबा पड़ा है"ड्रिलिंग की पद्धति को मनःसंयोग कहते हैं।

 [1.5 मिनट] भारत के समस्त समस्याओं की एक दवा (Panacea) या सर्व रोग नाशक औषधी है,आत्मश्रद्धा 'Drilling पद्धति द्वारा 'विवेक-प्रयोग को ही वृत्ति (आँधी) बना लेना।     
                " हृदय में सोना दबा पड़ा है"- उसको निकालने की ड्रिलिंग प्रक्रिया (Drilling Process) या ड्रिलिंग की पद्धति को मनःसंयोग कहते हैं। अतः किसी भी प्रयोजनीय कार्य को कुशलता-पूर्वक सम्पन्न करने या किसी भी प्रयोजनीय विषय का ज्ञान अर्जित करने के लिए एकाग्रता के अभ्यास में सिद्ध  होना अर्थात ' मनः संयोग'  की 'विद्या' को सीख लेना अत्यन्त आवश्यक है। 'सा विद्या या विमुक्तये।' = वह विद्या कहाती है जो मुक्तिदायक होती है। कामिनी-कांचन में घोर आसक्ति रूपी 'वृत्ति' की 'आँधी' (सहज प्रवृत्ति या Instinct ) से पार होकर  हृदय में दबा सोना को ड्रिलिंग करके निकाल लेने के लिये 'मनः संयोग' की पद्धति (विवेक-प्रयोग शक्ति को ही वृत्ति की आँधी बना लेने की पद्धतिस्वयं सीखना और दूसरों को भी यह पद्धति सीखने में सहायता करना आधुनिक युग की सर्वोत्तम धार्मिक साधना  है। 
                  किन्तु 'गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' (लीडरशिप ट्रेनिंग) में  मानवजाति के मार्गदर्शक नेता या माँ जगदम्बा से 'चपरास' प्राप्त कोई  'धारणासिद्ध-योगी' ( 'मनः संयोग' या एकाग्रता के अभ्यास में सिद्ध प्रशिक्षक) ही 'वुड बी लीडर्स' को विवेक-प्रयोग द्वारा अपनी वृत्ति को बुद्धि में; फिर बुद्धि को 'सहज-विवेक-सामर्थ्य' में परिणत करने का प्रशिक्षण दे सकता है!  (अर्थात खुली आँखों से ध्यान करने और 'मानवमात्र को शिव ज्ञान से देखने और उसकी सेवा करने का प्रशिक्षण दे सकता है! )  
 श्रीरामकृष्णवचनामृत (२४ अगस्त १८८२ ): श्रीरामकृष्ण का मुख सहास्य है। 'मास्टर' से कह रहे हैं - " ईश्वरचन्द्र विद्यासागर से और भी दो एक बार मिलने की आवश्यकता है। मूर्तिकार को जब मूर्ति गढ़नी होती है, तो वह पहले उसका एक खाका (blueprint) तैयार कर लेता है, फिर उस पर रंग चढ़ाता रहता है। प्रतिमा गढ़ने के लिये पहले दो तीन बार मिट्टी चढ़ाई जाती है, फिर सफेद रंग चढ़ाया जाता है, फिर वह ढंग से रंगी जाती है। विद्यासागर का सब कुछ ठीक है, सिर्फ ऊपर कुछ मिट्टी पड़ी हुई है। वह कुछ अच्छे काम (शिक्षा -समाज-सेवा आदि ) तो करता है, परन्तु स्वयं अपने हृदय में क्या है, इस बात की उसे कोई खबर नहीं है। हृदय में सोना दबा पड़ा है। हृदय में ही ईश्वर हैं यह जान लेने के बाद, सब कुछ छोड़कर व्याकुल हो उन्हें पुकारने की इच्छा होती है। "
             .... श्रीरामकृष्ण मास्टर से खड़े खड़े वार्तालाप कर रहे हैं, कभी बरामदे में टहल रहे हैं।
श्रीरामकृष्ण : "हृदय (Heart) में क्या है इसका ज्ञान प्राप्त करने के लिये कुछ साधना आवश्यक है। (अन्तरे कि आछे जानबार जन्ये एकटू साधन चाई।)
मास्टर: 'साधना'  क्या बराबर करते ही रहना चाहिये ?
[अर्थात भ्रममुक्त होने या डीहिप्नोटाइज्ड होने की औषधि (विवेकदर्शन का अभ्यास और लालचत्याग) क्या ता-उम्र या आजीवन खानी पड़ेगी ?]
             श्रीरामकृष्ण : " नहीं, पहले कुछ कमर कसकर करनी चाहिये। फिर ज्यादा मेहनत नहीं उठानी पड़ती। जब तक जीवन नदी में ' हिलोरा (surge), चक्रवात (storm),आँधी चल रही होती है, और नौका नदी के तीखे मोड़ों से होकर गुजर रही होती है, तभी तक मल्लाह को मजबूती से पतवार पकड़नी पड़ती है।  उतने से पार हो जाने पर नहीं। जब वह मोड़ से बाहर हो गया और अनुकूल हवा चली तब वह आराम से बैठा रहता है, पतवार में हाथ भर लगाये रहता है। फिर तो पाल टाँगने का बंदोबस्त करके आराम से चिलम भरता है। 'कामिनी और कांचन' की आँधी (वृत्ति) से निकल (विवेक-प्रयोग-वृत्ति में)  जाने पर शान्ति मिलती है ! 
                " तराजू में किसी ओर कुछ रख देने से नीचे की सुई और ऊपर की सुई दोनों बराबर नहीं रहतीं। नीचे की सुई मन है और ऊपर की सुई ईश्वर। नीचे की सुई का ऊपर की सुई से एक होना ही योग है। (अर्थात 'मनः संयोग' है अर्थात एकाग्रता के अभ्यास में सिद्ध होना है (Proven in concentration practice !)
                "धारणा-सिद्ध योगियों का मन सदा ईश्वर में लगा रहता है --सदा आत्मस्थ रहता है। शून्य दृष्टि ( zero in on/गहराई से निशाने पर सधी हुई दृष्टि/ लक्ष्यवस्तु में तल्लीन दृष्टि/ লক্ষ্যবস্তুর দিকে তাক করা/কোনো কিছুর প্রতি মনোযোগ নিবদ্ধ করা) , देखते ही उनकी अवस्था सूचित हो जाती है । समझ में आ जाता है, कि चिड़िया अण्डे को से रही है। सारा मन अण्डे ही की ओर है, ऊपर दृष्टि तो नाममात्र की है। अच्छा, ऐसा चित्र (दी मदरबर्ड हैचिंग हर एग्स) क्या मुझे दिखा सकते हो ? " 
मणि- जैसी आज्ञा। चेष्टा करूँगा, यदि कहीं मिल जाय।"
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[2.5 मिनट:]   कार्य और ज्ञान क्या है ? 
मनः संयोग किये बिना अर्थात मन को एकाग्र किये बिना, हम न तो किसी प्रयोजनीय कार्य को अच्छी तरह कर सकते हैं, न किसी ज्ञातव्य विषय का सम्यक ज्ञान ही अर्जित कर सकते हैं। प्रातः काल में सूर्य उदित होता है,फूल खिल जाते हैं, नदी बहती जा रही हैं, बारिश से सूखी हुई मिट्टी गीली हो जाती है। ये सभी कार्य प्रकृति के नियमानुसार घटित होते रहते हैं। कुछ ऐसे कार्यों को भी घटित होते देखते हैं जिनमें प्रत्येक के पीछे मनुष्य की इच्छा, और प्रयत्न आवश्यक होता है। प्रत्येक मनुष्य को जीवन यापन करना होता है और उसके लिये सबका अर्थोपार्जन करना आवश्यक है। इसीलिये हम देखते हैं, कोई किसान खेत में हल चला रहा है, मछुआरा मछली पकड़ रहा है। कोई वैज्ञानिक किसी प्राकृतिक घटना पर मन को एकाग्र करके गहराई से विचार करने में लगा है, और न्यूटन की तरह किसी नये नियम या नये उदाहरण का आविष्कार कर रहा है! कोई खेल रहा है तो कोई पढ़ने में लगा हुआ है आदि-आदि। ये सब भी विभिन्न प्रकार के कार्य ही हैं ! 
 मन की कल्पनाओं को साकार रूप देना ही 'कार्य' है; तथा किसी भी कार्य को करने का सबसे बड़ा साधन मन ही है। जिस विषय या वस्तु के ऊपर कार्य किया जा रहा है, उसके रूप या स्थान में परिवर्तन हो जाता है। जैसे लकड़ी के तख्ते से कुर्सी का निर्माण हो गया, सूत से गमछा बन गया, धरती पर पड़े गोबर से जलाने वाला उपला बन गया, कोयले के चूरे से जलाऊ गोटे बन गये, हल चलाने से धरती खेती करने योग्य हो गयी आदि-आदि। इच्छाशक्ति , विवेक-प्रयोग द्वारा 'प्रयोजनीय कार्य' विषयक संकल्प लेने, चिंतन द्वारा उसका खाका (ब्लूप्रिन्ट) तैयार करने में जिस शक्ति का क्षय होता है उसे मानसिक शक्ति कहते हैं, जबकि काम करने में जो शक्ति लगती है वह शारीरिक शक्ति कहलाती है। 
ज्ञान क्या है ? ज्ञान का अर्थ है, (पूर्व में देखी-सुनी) वस्तुओं की साहचर्य प्राप्ति। अपनी आँखों से मैं जब कोई फूल, या कोई पक्षी,भूखे व्यक्ति, बिच्छू या बिल्ली को देखता हूँ; तो पहले साहचर्य के नियमानुसार उन्हें वगीकृत कर लेता हूँ , फिर आसानी से पहचान लेता हूँ। इस जगत में अनगिनत वस्तुएँ एवं विषय जानने योग्य हैं। अद्वैतवादी कहते हैं, ' नाम-रूप को अलग कर लेने पर क्या प्रत्येक वस्तु ब्रह्म नहीं है ? लघु (पिण्ड) से क्रमशः बृहद (ब्रह्म) का ज्ञान भी मन की शक्ति के द्वारा प्राप्त होता है। किसी विषय का ज्ञान प्राप्त करने के पहले 'मनःसंयोग' का ज्ञान प्राप्त करना ही सबसे ज्यादा जरुरी है।
[3.15 मिनट:] (i) मन क्या है (ii) बंदर का रूपक (iii) मन बनता कैसे है ? (iv) हमलोग जिसे 'मैं' कहते हैं, वह क्या है ? (v) मन का गुणस्वभाव (property, विशेष धर्म) (vi) 'अहं' को मिटा देना है, एक दाग के रूप में रखना है ? (vii) शिक्षा क्या है ?   
मन क्या है : मन एक ऐसा 'अद्भुत कम्प्यूटर' है, जो केवल सूचनाओं और संवादों को एकत्र करता है, बल्कि कई प्रकार से उनका विश्लेषण भी करता है, उन्हें वर्गीकृत कर उनकी व्याख्या करता है और उनमें से सार अर्थ ढूंढ़ निकालता है। यह एक ऐसा 'अद्भुत लेंस' है, जो एक साथ टेलिस्कोप (telescope,दूर-वीक्षणयंत्र) और माइक्रोस्कोप (Microscope,अणु -वीक्षणयंत्र) दोनों के सम्मिलित रूप जैसा कार्य करता है। फिर वही मन कल्पना करता है, इच्छा करता है, उद्यम भी करता है। वस्तुतः मन कि शक्ति के द्वारा ही हमलोग सब कुछ जानने और करने में समर्थ होते हैं। इस प्रकार मन की शक्ति अनन्त है। इतना सब कहने-सुनने पर भी हम मन को ठीक से समझ क्यों नहीं पाते हैं ? 
क्योंकि वह स्थूल नहीं एक सूक्ष्म पदार्थ है। इतना अधिक सूक्ष्म है कि उसे न तो देखा जा सकता है, और न उसे मुट्ठी में ही पकड़ा जा सकता है; तथापि मन के विषय  में हर कोई जानता है कि 'मन' है । वायु को तो हम देख भी नहीं सकते, फ़िर भी हम जानते है कि वह है। वृक्ष की पत्तियाँ या जल की सतह को हिलता हुआ देखकर हम समझ जाते हैं कि वायु प्रवाहित हो रही है। मन भी सूक्ष्म है- उसको आँखों से तो नहीं देख सकते, उसके कार्यो से समझा जा सकता है कि 'मन' है । वास्तव में मन हमारे इतने निकट है कि हम उसे देख ही नहीं पाते, किन्तु बहुत अच्छी तरह से जानते हैं कि मेरा 'मन' है। 
बन्दर का रूपक :  अत्यन्त चंचल है, प्रचण्ड गति से दौड़ता है। मन के दौड़ने/उड़ने की गति ध्वनि ही नहीं प्रकाश की गति से भी अधिक वेगवान है। सर्वदा विभिन्न प्रकार के विचारों, भावनाओ या कल्पनाओं के उधेड़-बुन में डूबा ही रहता है।   मनुष्य का मन उस बन्दर के ही सदृश्य है। मन तो स्वभावतः सतत चंचल है ही, फ़िर वह वासनारूप मदिरा से मत्त है।  इससे उसकी अथिरता बढ़ गयी है। जब वासना आकर मन पर अधिकार कर लेती है, तब सुखी लोगों को देखने पर इर्ष्या रूपी बिच्छू डंक मारता ही है, जिससे मन और तड़पने लगता है। (वह अतिरिक्त चंचल हो जाता है) उसके ऊपर भी जब अहंकार रूपी भूत मन पर सवार हो जाता है, तब तो वह अपने आगे किसी को नहीं गिनता। अहंकाररूपी भूत का क्या कहना, जो सर्वदा उस पर सवार रहता है। (मैं क्या कम हूँ? दिखा दूंगा) जरा विचार तो करो, इस प्रकार के मन वाले मनुष्य की दशा कैसी होती होगी ? और ऐसे मन को नियंत्रित करना कितना कठिन होगा ?
मन बनता कैसे है: मनवस्तु (Mind Stuff ) को, जिससे मन बनता है उसको - 'चित्त' कहते हैं ।मन की तुलना प्रायः किसी शान्त सरोवर से की जाती है। चित्त-सरोवर में पंचेंद्रियों के विषय रूपी कंकड़  गिरते रहते हैं,इसीसे वह सदैव उद्वेलित और दोलायमान बना रहता है। 'मन' का कार्य है प्रश्न करना। 'बुद्धि' का कार्य है निर्णय करना , जैसे ही बुद्धि ने निर्णय किया वैसे ही 'अहंकार' या मैं-पन आ जाता है। अंतःकरण के चार पार्ट हैं, 'चित्त-मन-बुद्धि और अहंकार'। अहंकार या 'अहं' भी आत्मा का ही अभिकरण (Agency) जिसके सहारे वह जगत-व्यवहार (नेता अथवा दैत्य विवेक? का कार्य) करता है। मन रूपी बंदर पर चढ़ा अहंकार का भूत (दैत्य )हमें कहीं खा नहीं जाय, इसके लिये कोई अन्य शिक्षा लेने के पहले मन को अपने वश में करने  की विद्या अवश्य सीखनी होगी।
हमलोग जिसे 'मैं' कहते हैं, वह क्या है ?  शरीर भी मेरा है, और मन भी मेरा ही है। अगर शरीर ही 'मैं' होता तो, तो हमलोग 'मेरा शरीर' क्यों कहते  ? अतः  हम सोचने पर बाध्य हो जाते हैं कि- ' मैं ', शरीर और मन के अतिरिक्त कुछ और ही वस्तु है। इसी 'मैं ' को हमारे देश में आत्मा  की संज्ञा दी गयी है। इनमें से आत्मा (ब्रह्म) ही हमारी वास्तविक सत्ता है। स्वामी जी (3H) - शरीर (Hand), मन (Head) और हृदय या आत्मा (Heart) कहते थे। इस शरीर और आत्मा के मध्य हमारा मन एक सेतु (Bridge) की तरह कार्य करता है।  इस स्थूल शरीर और समग्र जगत् को जानने, समझने और देखने के लिए मन मानो एक दिव्य चक्षु है जिसे हमारी आत्मा के समक्ष रख दिया गया है।  दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमैश्वरम्।।11.8।। 
मन का गुणस्वभाव (property):मन को दोष देते हुए कहा जाता है कि, यह मन बन्दर के समान चंचल है, किन्तु मनुष्यों का मन यदि चंचल नहीं होता, सर्वदा स्थिर ही रहता, तो उसे भले और कुछ संज्ञा दी जा सकती थी पर उसे मन नहीं कहा जाता। पारा यदि ठोस होता, यदि उसमें गाढ़ापन, सांद्रता (viscosity) और विशिष्ट गुरुत्व (Specific gravity) आदि गुणस्वभाव  (property-विशेष धर्म) नहीं होते तो  थर्मामीटर (Thermometer, ताप-मापक यंत्र)  या बैरोमीटर (Barometer,वायुमंडलीय-दबाव  मापी यंत्र) कैसे बनता ? मनुष्य के दैनंदिन जीवन में प्रकृति द्वारा निर्मित रासायनिक धातु पारा का उपयोग करने के लिए यह गुण उसके आपेक्षिक गुरुत्व तथा सांद्रता का रहना आवश्यक था। उसी तरह हृदय में दबे सोना को ड्रिल करके निकालने की विद्या सीखने के लिये मन का गुणस्वभाव (property) चंचल और गति का प्रचण्ड रहना भी आवश्यक था।अतः मन की स्वाभाविक चंचलता और द्रुत-गतिशीलता उसके दोष नहीं, बल्कि विशिष्ट गुण-धर्म हैं ! हमें केवल 'विवेकानन्द-सिस्टर निवेदिता वेदान्त लीडर प्रशिक्षण परम्परा' में मनःसंयोग के अभ्यास द्वारा इच्छाशक्ति के 'उभयतोवहिनी -तीव्र प्रवाह' एकोन्मुखी बनाकर, उसका मोड़ घुमा देने की विद्या सीखना आवश्यक है।
'अहं' को मिटाना नहीं, एक दाग के रूप में रखना है:  (बरही के संदीप ने पूछा है)-" अगर कोई व्यक्ति अपने अहंकार को मिटाना चाहता है, तो वह अहंकार को कैसे मिटा सकता है? यह अहंकार या 'अहं' अन्तःकरण का एक पार्ट है, यह आत्मा के एक एजेंसी के रूप में सर्वदा साथ ही लगा रहता है। क्योंकि यह अहंकार दैवी माया (ब्रह्म की शक्ति) है; इसीलिये कभी मिटता  ही नहीं। शक्ति (माँ काली-भवतारिणी) की आराधना (दे माँ निज चरणों का ज्ञान ! की प्रार्थना) के द्वारा इस 'अहं रूपी वृत्ति' की आंधी (घोर-स्वार्थपरता) को, इच्छाशक्ति का विकास करके (पूर्णतः निःस्वार्थपरता) 'माँ का भक्त', वीर या हीरो के रूप में रूपान्तरित कर लेना आवश्यक है। और इसी कार्य को कुशलतापूर्वक सम्पन्न करने के लिये 'मनः संयोग' द्वारा [ मानसिक-व्यायाम अर्थात 'प्रत्याहार-धारणा अथवा विवेक-दर्शन अभ्यास का प्रशिक्षण' और स्वाध्याय रूपी पौष्टिक आहार  के द्वारा]  चेतना की वृत्ति (आँधी) को बुद्धि में, फिर विवेक-प्रयोग क्षमता को ही सहज-वृत्ति आँधी में परिणत करके 'इच्छाशक्ति' के 'उभयतो-मुखी' प्रवाह और विकास को नियंत्रण में लाना अनिवार्य है।
शिक्षा क्या है: धारणासिद्ध योगी स्वामी विवेकानन्द जी कहते हैं, " शिक्षा क्या है ? क्या वह पुस्तक विद्या है ? नहीं ! क्या वह नाना प्रकार का ज्ञान है ? नहीं ! जिस संयम के द्वारा इच्छाशक्ति के (उभयतोवहिनी) प्रवाह और विकास को वश में लाया जाता है (अर्थात उसे एकोन्मुखी बना लिया जाता है) और वह फलदायक होता है, वह शिक्षा कहलाती है। ... शिक्षा का अर्थ है उस पूर्णता को व्यक्त करना जो सब मनुष्यों में पहले से विद्यमान है।"  मन में केवल कल्याणकारी विचार (मनुष्य-निर्माणकारी और चरित्र-निर्माणकारी विचार) भरने होंगे। पवित्रता, धैर्य और अध्यवसाय (अटलता) (3P -'Purity, Patience, Perseverance ) ये सभी मन के गुण हैं, और सर्वोपरि है- हृदय - विकसित या 'मातृहृदय-स्थित 'प्रेम' (Love) ! प्रेम में वह शक्ति है कि वह पत्थर को भी पानी बना सकती है। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने 'मन की एकाग्रता' को ही शिक्षा की आधारभूत सामग्री कहा है।
[4.5 मिनट] एकाग्रता (Convex lens) की सहायता से मन को विषयों से खींचकर हृदय में दबा सोना पर धारण करना। जीवन के खेल में हार-जीत। जीवन और जीवनपुष्प का प्रस्फुटन।   
अत्यन्त आवश्यक कार्य है प्रत्याहार: जैसे उन्नत ताल (Convex lens) की सहायता से सूर्य की किरणों को जब कागज पर केन्द्रीभूत किया जाता है, तब कागज जल जाता है। उसी तरह  मन की शक्ति की अदृश्य रश्मियों को अकारण चारों ओर बिखर कर नष्ट नहीं होने देकर, अर्थात   इन्द्रिय-विषयों से खींचकर उन्हें एकीकृत या संघटित करके अपने प्रयोजनीय विषय में नियोजित करने को ही मन की एकाग्रता (Concentration of Mind) या 'मनः संयोग' कहते है। प्रत्याहार के अभ्यास द्वारा मन की शक्ति-रश्मियों को एकोन्मुखी (Unidirectional) करके 'हृदय में दबा सोना' पर केन्द्रीभूत करते करते एक दिन १००० वर्षों से कमरे में भरा अँधेरा क्षणभर में प्रकाशित हो उठता है। अतः विवेक-प्रयोग के द्वारा प्रत्याहार के कौशल को सीखना ही सबसे आवश्यक कार्य है। 
जीवन के खेल में हार-जीत: मनुष्य जीवन की सार्थकता सबकुछ विवेक-प्रयोग और आत्मश्रद्धा को अपनी सहज प्रवृत्ति बना लेने पर ही निर्भर करता है।  अपनी यह कार्य बहुत कठिन है, किन्तु असम्भव नहीं है। मनुष्य के लिये कुछ भी करना असंभव  नहीं है, क्योंकि मनुष्य अनन्त शक्ति का अधिकारी है। हमारा पूरा जीवन भी एक महान खेल की तरह ही है। जीवन के इस खेल में विजयी होने से जिस आनन्द और गर्व की अनुभूति होती है, वैसा आनन्द क्या अन्यत्र कहीं उपलब्ध है ? जो  सही समय पर (युवा काल में ही) सही दाँव चलता है, वही विजयी होता है। यह निर्णय हमें स्वयं करना है कि क्या हम जीवन को व्यर्थ में (आहार,निद्रा,भय, मैथुन में) नष्ट होने देंगे ?  
जीवनपुष्प का प्रस्फुटन : एक अन्तर्निहित शक्ति मानो लगातार अपने स्वरूप में व्यक्त होने के लिए- अविराम चेष्टा कर रही है,और बाह्य परिवेश या परिस्थितियाँ उसको दबाये  रखने के लिए प्रयासरत है, बाहरी दबाव को हटा कर प्रस्फुटित हो जाने के इस प्रयत्न (महान-खेल) का नाम ही जीवन है। 
[5.10 मिनट] प्रारंभिक कार्य : ५ यम-५ नियम 24 X 7- " सुखार्थिनः कुतो विद्या विद्यार्थिनः कुतो सुखम्" 
कार्य मन की अतिरिक्त चंचलता को के द्वारा संयम में रखना।  कुछ गुणों (यम-नियम) को जानकर उन्हें सदैव याद रखना, तथा उन्हें अपने जीवन में (मन-वचन-कर्म)  धारण करने का अभ्यास निरंतर करते रहना आवश्यक है।  ' ईश्वर-प्रणिधान' ब्रह्म, ईश्वर, या उनके अवतार, जैसे- राम, कृष्ण, बुद्ध, यीशु, मोहम्मद, चैतन्य और श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द/ या किसी महापुरुष  में विश्वास रखते हुए उनका -स्मरण -मनन करने से मन सहजता से शांत और संयत हो जाता है।
[6.5 मिनट] चित्तवृत्ति निरोध का नुस्खा क्या है ? 
मन ही हमलोगों का सबसे अनमोल संसाधन (Most Precious Human Resources) है, ईश्वर का सबसे बड़ा वरदान है। व्यासदेव मानो  ५००० वर्ष पहले ही  जानते थे कि एक दिन स्वामी विवेकानन्द का एक मार्गदर्शक नेता आएगा ! इसलिये मन की चंचलता और द्रुत गति की वृत्ति आँधी पर विजय-प्राप्ति  का नुस्खा दिया- दो बातों पर निर्भर है :  
                   " इति उभय अधीनः चित्तवृत्तिनिरोधः"  (i) 'विवेकदर्शनाभ्यासेन' यह दवा प्रतिदिन दो बार-ब्रह्ममुहूर्त में और गोधूलि बेला में।(ii) 'वासना और धन' के प्रति घोर आसक्ति या अत्यधिक लालच का  त्याग। ('विवेकदर्शनाभ्यासेन'-यह दवा 2 बार सुबह-शाम; तथा 'विवेक-प्रयोग' या 'Lust and Lucre' में आसक्ति का त्याग/ 'How much land a man needs ?' यह दवा 24 X 7 X 365/लेनी है। )  
            "चित्तनदी नाम उभयतो वाहिनी, वहति कल्याणाय वहति पापाय च" = चित्तरूपी नदी दो दिशाओं में (उभयतः /ऊपर -नीचे) प्रवाहित होती है, कल्याण के लिए बहती है और पाप के लिए भी बहती है।  
             "विवेकविषयनिम्ना सा चित्तनदी कल्याणाय वहति' (सा=वह) 'कैवल्यप्राग्भारा': कैवल्य (मुक्ति) की ओर ले जानेवाली विवेकयुक्त वह चित्तनदी की धारा कल्याण के लिए बहती है। अर्थात चित्तनदी की धारा की तली, या इच्छाशक्ति के प्रवाह और विकास के धारा की तली जब विवेकविषय-निम्ना बन जाती है, और विवेक-प्रयोग शक्ति ही जब सहज-प्रवृत्ति (Instinct,आँधी) बन जाती है, तब बुद्धि भी सहज रूप से (नश्वर) और पुरुष (शाश्वत) के बीच के अंतर को अनुभव करने की अनुमति देती है; इसीलिये वह धारा " कैवल्य" मुक्ति की ओर (भ्रममुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड करने की ओर)  ले जानेवाली है और कल्याण-वहा है।              "अविवेकविषयनिम्ना सा पापाय वहति'-वह 'संसारप्राग्भारा" = संसार की ओर ले जाने वाली अविवेक से युक्त वह पाप के लिए बहती है। संसार या देहान्तर-गमन  (Transmigration) की ओर (अवनति की ओर) ले जाने वाली धारा पाप-वहा है।  
             "तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते "  = उस (तत्र) बाह्य वस्तुओं या 'विषयस्रोतः' अर्थात विषयस्रोत की ओर बहने वाली, इन्द्रिय विषयों (रूप, रस, गंध,शब्द,स्पर्श) की ओर बहने वाली धारा पर (वैराग्येण) वैराग्य का फाटक लगाकर, उस धारा  को मन्द बनाते हुए अर्थात 'वासना और धन में' घोर आसक्ति या लालच को कम करते हुए " खिलीक्रियते " अर्थात शक्तिहीन किया जाता है।
               "विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यते।"= और तब  विवेक-दर्शन के नियमित अभ्यास द्वारा बुद्धि या चित्त-नदी के प्रवाह कल्याण की दिशा में मोड़ने का अभ्यास  करते-करते (शाश्वत-नश्वर विवेकशील ज्ञान पर चिंतन-मनन करते-करते) एक दिन चित्तवृत्ति निरुद्ध हो जाती है और विवेकस्रोत (विवेक-प्रयोग शक्ति का श्रोत अर्थात आत्मा या अपना सच्चिदानन्द स्वरुप 'ब्रह्म-स्वरूप') उद्घाटित हो जाती है। 
               "इत्युभयाधीनश्चित्तवृत्तिनिरोधः।  इति उभय अधीनः चित्तवृत्तिनिरोधः" = इस  प्रकार  चित्तवृत्तिनिरोधः -अर्थात  चित्त की स्वाभाविक चंचलता और बहिर्मुखी वृत्ति (आँधी) पर नियंत्रण, या विवेक-प्रयोग शक्ति को ही अपनी सहज-वृत्ति [Instinct] बना लेने का सामर्थ्य, १. विवेक-दर्शन का अभ्यास सुबह-शाम दो बार और २. 'वासना और धन' के प्रति Lust and Lucre) में घोर आसक्ति या अत्यधिक लालच का  त्याग How much land a man needs ?  इस कथा के चिंतन-मनन की दवा घंटे-घंटे के अंतराल से (24 X 7 X 365) लेने पर निर्भर करता है।                  
अब हमलोग ' मनः  संयोग ' के महत्व को जानकर मन ही मन निश्चित रूप से संकल्प ले रहे होंगे कि हम 'मनः संयोग ' अवश्य सीखेंगे और इसका अभ्यास किस तरह किया जाता है, इसकी भी  जानकारी प्राप्त करेंगे। 
[7.मिनट] सम्यक आसन:[अर्धपद्मासन,मेरुदण्ड सीधा रख कर बैठने से श्वास-प्रश्वास सहज,सुगन्धित-फूल या धूपबत्ती।] 
 'अर्धपद्मासन'  में बैठने से एक सुविधा और होता है कि कमर, मेरुदण्ड और ग्रीवा (गर्दन) को एक सीध में रहता है। कमर और रीढ़ की हड्डी (मेरुदण्ड ) को सीधा रख कर बैठने से श्वास-प्रश्वास सहज रूप में चलता रहता है। ऐसा न होने पर कुछ ही देर में थकावट का अनुभव होगा, और मन उसी ओर चला जायेगा। सुगन्धित-फूल या धूपबत्ती कि भीनी-भीनी सुगन्ध यदि नासिका तक आती रहे तो अच्छा है।शब्द, गीत या बातचीत आदि सुनाई पड़ सकती है। इन्हें रोकने का कोई उपाय तो नहीं है, फिर मैं इतना कर सकता हूँ कि उस ओर मन को नहीं जाने दूंगा ! 
[8.3 मिनट] प्रत्याहार (i) 'मन को देखना'।  प्रत्याहार (ii) 'मन को आदेश देना।' 
 मन को देखना: 'मन की यह दोहरी विद्यमानता' (Double Presence of Mind) शक्ति से : अर्धपद्मासन में बैठ जाने के बाद, इसी प्रकार द्रष्टा-मन या व्यक्तिपरक मन (Subjective Mind) की सहायता से दृश्य-मन या विषयाश्रित मन (Objective Mind) की गतिविधियों को थोड़ी देर तक पर्यवेक्षण करना है। परन्तु मन के जैसी सूक्ष्म, दूसरी कोई सूक्ष्म वस्तु तो है ही नहीं।  इसीलिये मन को मन के द्वारा ही देखना पड़ता है। शुरू -शुरू में यह सुनकर विस्मय होना स्वाभाविक है कि 'मन की यह दोहरी विद्यमानता' (Double Presence of Mind) कैसे संभव है ? किन्तु जाने-अनजाने हमलोग प्रायः यही तो सदैव करते रहते हैं।  जब अकस्मात हमारी तंद्रा टूटती है, तब हम स्वयं अवाक् होकर सोचने लगते हैं कि अरे ! क्या मैं ही इतनी देर से इस विषय पर चिन्तन कर रहा था ? 
मन को आदेश देना: मन पर धीरे धीरे विवेक-अंकुश का प्रयोग करना होगा। उससे कहना होगा -  नहीं अब तुम्हें पहले जैसा इधर-उधर दौड़ने नहीं दिया जायगा। [यत्ने कृते यदि न सिध्यति कोऽत्र दोषः।-पंचतंत्र] 
[9.मिनट] मनः संयोग,'Concentration' धारणा (i) मन को एकमुखी बना कर हृदय में धारण करने के लिये पवित्र मूर्त-आदर्श का चयन। धारणा (ii)-तल्लीनता (Engrossment)  धारणा (iii) तल्लीनता-परीक्षा और परिणाम। 'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।' 'या मति सा गतिर्भवेत।'  
धारणा (i) पवित्र मूर्त-आदर्श का चयन: 'साहचर्य का नियम' (Law of Association) के अनुसार ऐसे मूर्त आदर्श पर मन को बैठना ज्यादा अच्छा होता है जिस पर हमारे मन में स्वाभाविक रूप से श्रद्धा-भक्ति हो।भारत सरकार द्वारा घोषित युवा-आदर्श स्वामी विवेकानन्द  या अन्य किसी पवित्र प्रतीक  'ॐ' (या 786/ पवित्र काबा) जिन्हें हम पवित्रता स्वरूप या प्रेम-स्वरूप मानकर 'श्रद्धा-भक्ति के साथ पूजने योग्य  या परिक्रमा करने योग्य मानते हैं। प्रत्याहार और धारणा के अभ्यास को मन का व्यायाम भी कहा जा सकता है। "धारणा सिद्ध व्यक्ति की पहचान यह है कि उसकी निगाहें स्थिर रहती है। ऐसे चित्त की शक्ति बढ़ जाती है, फिर वह जो भी सोचता है वह घटित होने लगता है।
 मन को अन्य विषयों से हटाते हुए, एक विशेष 'ध्येय-वस्तु' या विषय की ओर स्थिर करने को ही धारणा  या एकाग्रता कहते हैं।  किन्तु यह ध्येय (ध्यान का विषय) क्या हो ? मनः संयोग का अर्थ है मात्र मनमाने ढंग से किसी भी व्यक्ति या विषय के चिंतन में तल्लीन (engrossed) हो जाना (जैसे शकुंतला दुष्यंत की याद में इतनी लीन हो गयी थी कि उसे दुर्वासा ऋषि के पधारने का पता ही नहीं चला ....) नहीं है! मनोविज्ञान के 'साहचर्य का नियम' (Law of Association) के अनुसार उस आदर्श के सदगुणों (पवित्रता और प्रेम) का विचार भी हमारी कल्पना में आने लगते हैं। इसलिये किसी मूर्त-आदर्श पर मन को केन्द्रीभूत करना अधिक श्रेयस्कर होता है। किसी ऐसे मूर्त आदर्श पर मन को बैठना ज्यादा अच्छा होता है जिस पर हमारे मन में स्वाभाविक रूप से श्रद्धा-भक्ति हो। भारत सरकार द्वारा घोषित युवा-आदर्श स्वामी विवेकानन्द की मूर्ति या जीवन्त छवि हमारे लिये एक अत्यन्त प्रेरणादायी आदर्श हो सकती है। जितना उनका धारणा-ध्यान सिद्ध था वैसा ही कर्म भी था। वे चरित्र के सभी गुणों के वे मूर्तरूप लगते हैं।उनकी छवि पर मनः संयोग का अभ्यास करने से- अर्थात 'विवेक-दर्शन' का अभ्यास करने से हममें भी इसी प्रकार का आत्मविश्वास पैदा होगा। उन्होंने कहा है-" मनुष्य सब कुछ कर सकता है, मनुष्य के लिए असंभव कुछ भी नहीं है।"वे मानव-मानव के बीच जाति या धर्म के आधार पर किसी प्रकार का भेद नहीं देखते थे। कोई चाहे तो अपने मन को दीपक की लौ पर, दीवार पर वृत्त बनाकर उसके केन्द्र पर, या अन्य किसी पवित्र प्रतीक  'ॐ' (या 786/ पवित्र काबा) पर भी मन को लगाने का प्रयत्न-तल्लीन करने का प्रयत्न कर सकते हैं। किन्तु किसी ऐसे देवी-देवताओं, महापुरुष या इष्ट की मूर्ति या चित्र पर मन को केन्द्रीभूत करना अधिक सहज होता है, जिन्हें हम पवित्रता स्वरूप या प्रेम-स्वरूप मानकर श्रद्धा-भक्ति के साथ पूजने योग्य (या परिक्रमा करने योग्य) मानते हैं। 
धारणा (ii):तल्लीनता (Engrossment) किन्तु वैसी नहीं जैसे शकुंतला दुष्यंत की याद में इतनी लीन हो गयी थी कि उसे दुर्वासा ऋषि के पधारने का पता ही नहीं चला ....।  'धारणा' के अभ्यास को -अर्थात बार बार मन को इन्द्रियविषयों से खींच कर,थोड़ी देर तक पूर्व-निर्धारित मूर्त आदर्श में तल्लीन रखने की चेष्टा- प्रत्याहार और धारणा के अभ्यास को मन का व्यायाम भी कहा जा सकता है। जिस प्रकार शरीर को शक्तिशाली बनाने के लिये  पौष्टिक आहार होते हैं, उसी प्रकार मन को भी शक्तिशाली बनाने का आहार होता है। निरंतर पवित्र विचार या शुभ-संकल्प से मन को भरे रखना वह मानसिक पुष्टि है, जो  मन को हृष्ट-पुष्ट बनाये रखता है।इस प्रकार मनः संयोग का अभ्यास करने से कोई भी व्यक्ति इसी जीवन में यथार्थ सुख, शान्ति और आनन्द का अधिकारी बन सकता है। प्रतिदिन दो बार, प्रातः और संध्या में 'विवेक-दर्शन' का अभ्यास करते रहने से धीरे-धीरे अपनी इच्छानुसार मन को किसी भी वस्तु या विषय पर एकाग्र किये रखने की क्षमता बढ़ती जाती है। "धारणा सिद्ध व्यक्ति की पहचान यह है कि उसकी निगाहें स्थिर रहती है। ऐसे चित्त की शक्ति (इच्छाशक्ति) बढ़ जाती है, फिर वह जो भी सोचता है वह घटित होने लगता है।  
धारणा (iii) परीक्षा और परिणाम:  हम यह कैसे जानेंगे कि मन की दृष्टि उसी ध्येय वस्तु (आराध्य-आदर्श) पर पड़ रही है? इसकी पहचान यही है कि मन जब किसी वस्तु पर पुर्णतः एकाग्र रहता है, या तल्लीन (engrossed) हो जाता है, तो उस समय मन में अन्य कोई विचार उठता ही नहीं है।अभी आँखों से विवेक-दर्शन का अभ्यास कर रहा हूँ, या विवेकानन्द की छवि पर मनःसंयोग कर रहा हूँ। जब तक यह विचार मन में रहता है कि मैं विवेक-दर्शन कर रहा हूँ, तब तक यह समझना चाहिए कि मन अपने आराध्य-देव का दर्शन करने में ही लगा हुआ है। इसका अर्थ यह हुआ कि नेत्रों कि दृष्टि जिस वस्तु पर पड़ रही है, मन की दृष्टि भी उसी वस्तु के ऊपर केन्द्रीभूत है। 
तल्लीनता की परीक्षा यह है कि उस समय प्रयोजनीय कार्य, लक्ष्य के सिवा मन में अन्य कोई विचार उठता ही नहीं है। धारणा सिद्ध व्यक्ति की पहचान यह है कि उसकी निगाहें स्थिर रहती है। ऐसे चित्त की शक्ति (इच्छाशक्ति) बढ़ जाती है, फिर वह जो भी सोचता है वह घटित होने लगता है। 
ठाकुर कहते हैं - "धारणा-सिद्ध योगियों का मन सदा ईश्वर में लगा रहता है --सदा आत्मस्थ रहता है। शून्य दृष्टि ( zero in on/गहराई से निशाने पर सधी हुई दृष्टि/ लक्ष्यवस्तु में तल्लीन दृष्टि/ লক্ষ্যবস্তুর দিকে তাক করা/কোনো কিছুর প্রতি মনোযোগ নিবদ্ধ করা) , देखते ही उनकी अवस्था सूचित हो जाती है । समझ में आ जाता है, कि चिड़िया अण्डे को से रही है। सारा मन अण्डे ही की ओर है, ऊपर दृष्टि तो नाममात्र की है। अच्छा, ऐसा चित्र (दी मदरबर्ड हैचिंग हर एग्स) क्या मुझे दिखा सकते हो ?" "एक विचार लो, उस विचार को अपना जीवन बना लो - उसके बारे में सोचो उसके सपने देखो, उस विचार को जीओ। अपने मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों, शरीर के हर हिस्से को उस विचार में डूब जाने दो, और बाकी सभी विचार को किनारे रख दो। यही सिद्ध होने का तरीका है।
"एक विचार लो, उस विचार को अपना जीवन बना लो - उसके बारे में सोचो उसके सपने देखो, उस विचार को जीओ। अपने मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों, शरीर के हर हिस्से को उस विचार में डूब जाने दो, और बाकी सभी विचार को किनारे रख दो। यही सिद्ध होने का तरीका है।"
" जब मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते करते ऐसी एक वस्तु के साक्षात् दर्शन कर लेता है, जिसका किसी काल में नाश नहीं, जो स्वरूपतः नित्य-पूर्ण और नित्य-शुद्ध है, तब उसको फ़िर दुःख नहीं रह जाता, उसका सारा विषाद न जाने कहाँ गायब हो जाता है। भय और अपूर्ण वासना ही समस्त दुखों का मूल है। पूर्वोक्त अवस्था के प्राप्त होने पर मनुष्य समझ जाता है कि उसकी मृत्यु किसी काल में नहीं है, तब उसे फ़िर मृत्यु-भय नहीं रह जाता। अपने को पूर्ण समझ सकने पर असार वासनाएं फ़िर नहीं रहतीं। पूर्वोक्त कारणद्वय का आभाव हो जाने पर फ़िर कोई दुःख नहीं रह जाता। उसकी जगह इसी देह में परमानन्द की प्राप्ति हो जाती है।"(१:४० ) "  ---स्वामी विवेकानन्द 
[102 मिनट] सीपियों की तरह होना होगा : 'Be' like the Shells:
 विवेकानन्द जी कहते हैं - भारतवर्ष में एक सुंदर किंवदन्ती प्रचलित है। वह यह कि आकाश में स्वाति नक्षत्र के तुन्गस्थ रहते यदि पानी गिरे और उसकी एक बूंद किसी सीपी में चली जाय, तो उसका मोती बन जाता है। सीपियों को यह बात मालूम है। अतएव जब वह नक्षत्र उदित होता है, तो वे सीपियाँ पानी की ऊपरी सतह पर आ जाती हैं, और उस समय की एक अनमोल बूंद की प्रतीक्षा करती रहती है।ज्यों ही एक बूंद पानी उनके पेट में जाता है, त्यों ही उस जलकण को लेकर मुंह बन्द करके वे समुद्र के अथाह गर्भ में चली जाती हैं और  वहाँ बड़े धैर्य के साथ उनसे मोती तैयार करने के प्रयत्न में लग जाती हैं।"
हमें भी उन्हीं सीपियों की तरह होना होगा। पहले सुनना होगा, फ़िर समझना होगा, अन्त में बाहरी संसार से दृष्टि हटाकर, सब प्रकार की विक्षेपकारी बातों से दूर रहकर हमें अन्तर्निहित सत्य-तत्त्व के विकास के लिए प्रयत्न करना होगा।
[11.2 मिनट] प्रैक्टिकल-' हृदय में सोना दबा पड़ा है ' उसको निकालने की ड्रिलिंग प्रक्रिया (Drilling Process):अभी जो कुछ सुना है, उन्हीं बातों पर २ मिनट मन को एकाग्र कर के देखो। 
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'Two- Day Inter-District Youth Training Camp' of ABVYM arranged by Hazaribag Vivekananda Yuva Pathchakra, at Gautam Buddha Private ITI, Hazaribag, Jharkhand from 14 April evening to 15 April afternoon 1018 .Before the camp started Sri Ajay Pandeya conducted a meeting to distribute duties .   
: Saturday Evening to Sunday Afternoon [दो दिवसीय अन्तर्जिला युवा प्रशिक्षण कैंप: शनिवार शाम से रविवार दोपहर] 
Saturday Evening Program (शनिवार का कार्यक्रम):  
4:00                                : Reporting at Camp site 
5:45                                : Flag Hoisting (Srimat Swami Bhaveshananda,                                                 Secretary,Ramakrishna Mission Ashrama,                                                        Morabadi, Ranchi.)                                                                                                                               
6:00 - 6:10                      : Auditorium prayer (सभागार प्रार्थना-मूर्तमहेश्वर)
6:10 - 6:20                      : Welcome Address  (स्वागत सम्बोधन-Sri Ghjananda                                                                                    Pathak)
6:20 - 6:50                      : Aims and Objectives of Mahamandal                                                        (महामण्डल  का  उद्देश्य और कार्यक्रम : सर्वरोगनाशक औषधि :                                              विवेक-प्रयोग द्वारा आत्मश्रद्धा का जागरण! श्री रामचन्द्र मिश्र।,                                                  उपाध्यक्ष, झुमरीतिलैया विवेकानन्द युवा महामण्डल।)                                                         
6:50 - 7:50                       : Inaugural Speech 
                                              (3H or 4H ? विकास द्वारा मनुष्य-                                                                              निर्माणकारी शिक्षा, Swami Bhaveshananda)
7:50 - 8:10                        : Address by Central Camp Observer (Sri                                                        Arunabh Sen Gupta , Kalyani (W.B)
8:10 - 8:30                        : Patriotic and Youth Inspiring Song (Sri                                                        Subodh Dubey)
8:30 - 8:45                        : Instruction by Camp Commandant ( Sri                                                            Subodh Pnadit  शिविर कमांडेंट द्वारा निर्देश) 
9:00                                   : Dinner (रात्रिभोज )   
10:30                                  : Go to bed  
10:35                                   : switch off 
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Sunday Program

04:40                                    : Waking up /Chanting 
05:40                                    : Flag Hoisting  
05:50                                     : Prayer (सभागार प्रार्थना : विश्वस्यधाता) 
06:00 -6:58                           : Mental Concentration [Theory] (Sri Bijay                                                      Singh- मनः संयोग विद्या" )
[1.सारे रोगों की एक दवा, आत्मश्रद्धा-हृदय में सोना दबा पड़ा है, विवेक-प्रयोग ड्रिलिंग- 05 मिनट] 
2.कार्य और ज्ञान क्या है ?-05 मिनट ] 
3.(i) मन क्या है (ii) बंदर का रूपक (iii) मन बनता कैसे है ? (iv) हमलोग जिसे 'मैं' कहते हैं, वह क्या है ? (v) मन का गुणस्वभाव (property, विशेष धर्म) (vi) 'अहं' को मिटा देना है, एक दाग के रूप में रखना है ? (vii) शिक्षा क्या है ? -15 मिनट] 
4. एकाग्रता (Convex lens) की सहायता से मन को विषयों से खींचकर हृदय में दबा सोना पर धारण करना। जीवन के खेल में हार-जीत। अत्यन्त आवश्यक कार्य जीवन और जीवनपुष्प का प्रस्फुटन-05 मिनट] 
5.प्रारंभिक कार्य :यम नियम 24 X 7- " सुखार्थिनः कुतो विद्या विद्यार्थिनः कुतो सुखम्-05 मिनट ] 6. चित्तवृत्ति निरोध का नुस्खा-इति उभय अधीनः चित्तवृत्तिनिरोधः -08 मिनट ] 
7. सम्यक आसन -02 मिनट ]
8. प्रत्याहार (i) 'मन को देखना'।  प्रत्याहार (ii) 'मन को आदेश देना।' -05 मिनट ] 
9. धारणा (i) मन को एकमुखी बना कर हृदय में धारण करने के लिये पवित्र मूर्त-आदर्श का चयन। धारणा (ii) तल्लीनता (Engrossment) धारणा (iii) तल्लीनता-परीक्षा और परिणाम। 'मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।' 'या मति सा गतिर्भवेत।'05 मिनट]
10.'Be' like the Shells: 02 मिनट सीपियों की तरह होना।  
6:58 - 7:00                            : Mental Concentration [Practical :" मनः संयोग                                                   विद्या: प्रयोगात्मक-कक्षा " 
[Mental Concentration " Theory + Practical"  Total Time Required 58+2=60 मिनट।मनः संयोग विद्या : सिद्धान्त-कक्षा एवं  प्रयोगात्मक-कक्षा के लिए कुल अपेक्षित समय - 58+2 =60 मिनट।]  
07:00-7:05                            : Jay Jay Ramakrishna 
07:10 -7:40                           : Physical Fitness ( Sri Jayprakash Mehta) 
07:40 -8:30                           : Break Fast 
08:30 - 8:40                          : Mahamandal Song 
08:40- 9:20                           : Character Building [part -I]                                                                               (Sri Dharemendra  Singh)                         09:20 -10:00                          : Take up the Challenge, [Character Building                                                     part -II- Sri Apurva Das संकल्प उठाना]
10:00 - 10:05                          : Mahamandal Song 
10:05 - 10:35                         : Quiz & Quizmaster : [Sri Ajay Agarwal :on 
                                                 Atmshraddha, Vivek, Habit, Yama-Niyma                                                         Propensity, Prtyahar, Dharna.
                                                 कूटप्रश्न तथा कूटप्रश्न-कर्ता: आत्मश्रद्धा, 'जवानी क्या जो                                                       रोया नहीं बुढ़ापा क्या जो हँसा नहीं ! मन और अहं,आदत-                                                     प्रवृत्ति-चरित्र, वृत्ति-बुद्धि-विवेक,यम-नियम,प्रत्याहार,धारणा       
10:35 -10:40                            :Announcement [Camp Commandant] 
10:40                                       :Bathing and Lunch 
01:00 -01:10                            :Mahamandal Song 
01:10 -01:50                            :Character Qualities (Sri Pintu Kumar) 
01:50 -02:40                            :Question & Answer (Sri Bijay Singh)
02:40 -03:10                            :Camp Experience (Sri Jayprakash Mehta) 
03:10                                       :Flag Down 
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Two-day Vizag (Visakhapatnam) Interstate Preparatory Youth Training Camp of ABVYM:
दो दिवसीय विजाग (विशाखापत्तनम) अंतरराज्यीय तैयारी युवा प्रशिक्षण शिविर: लक्ष्मीनारायण से बात करके शिविर तिथि का निर्धारण, वेन्यू,सभी आगंतुक शिविरार्थियों तथा भावप्रचार के लोगों को भी शनिवार संध्या ४ बजे तक रेजिस्ट्रेशन करवा लेना होगा। हज़ारीबाग़ शिविर के सभी वक्ताओं को अपना अपना विषय 'मोदी -अंग्रेजी' में बोलने का अभ्यास करके जाना होगा। इन्दौर,देवास, मंगलिया, छत्तीसगढ़, नागपुर, जयपुर, दिल्ली, जामनगर,बड़ौदा तथा समस्त राज्यों के प्रतिनिधियों को निमंत्रण भेजना है ,  मुख्य अतिथि-वेंकट महाराज, से ऐड्रेस पूछकर 'आन्ध्रा, केरला, तमिलनाडु, बैंगलोर' के रामकृष्ण मिशन में कैम्प का ऐप्लिकेशन फॉर्म भेजना है। साथ झुमरीतिलैया, जानीबीघा, फुलवरिया, हजारीबाग, बरही,जमशेदपुर, बहरागोड़ा, राँची, उड़ीसा,का पूरा टीम जायेगा।           

                                                                                                                                        

                          



                                                  
















बुधवार, 24 जनवरी 2018

बच्चों का नाटक : - सारदा -रामकृष्ण

दृश्य १ :
[सारदा तालाब से एक घड़े में जल लेकर आ रही है। उसके पीछे पीछे दो अन्य लड़कियाँ घड़े को काँधे पर रखकर बातचीत कर रही हैं।]
पहली लड़की : सारदा दिनों-दिन थोड़ी उदास जैसी नहीं होती जा रही है रे ?
दूसरी लड़की : कैसे उदास न होगी ? सुना है कि उसका पति बिल्कुल पागल हो गया है। 
पहली लड़की : लेकिन,हमने तो सुना है कि उसका पति कोलकाता के दक्षिणेश्वर काली-मन्दिर में पुरोहित का कार्य करता है। 
दूसरी लड़की : हाँ, कहने को तो पुरोहित ही है ! किन्तु सुनी हूँ कि आजकल पूजा-टूजा कुछ नहीं करता है -केवल माँ -माँ करता है; कभो रोता है, कभी हँसता है ! पहनने के वस्त्र तक का होश नहीं रहता है। 
पहली लड़की : क्या तुम ठीक से जानती हो ? क्योंकि सारदा ने तो मुझे यह बतलाया था कि उसका पति एक बहुत अच्छा मनुष्य  है !
दूसरी लड़की : अच्छा मनुष्य ! यदि सचमुच अच्छा मनुष्य होता, तो क्या ८ वर्ष में एक बार भी सारदा से मिलने नहीं आता ? 
पहली लड़की : तब तो सारदा के लिए यह बड़े दुःख की बात है रे ? मैं सोंच रही हूँ कि एक बार सारदा से बात करूँ, अभी उसके मन को थोड़ा शांति देना आवश्यक है। 
दूसरी लड़की : यदि तुम्हें मेरी बात पर विश्वास न हो, तो यतिन चाचा, पिनू चाचा लोग से पूछ लो। वे लोग कोलकाता गए थे, वहीँ सब कुछ सुने हैं। 
पहली लड़की : कोशिश करुँगी कि आज ही सारदा से बात करूँ -लेकिन वो तो बड़ी शर्मीली लड़की है.
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य २ :
[ रामचन्द्र मुखर्जी रास्ते से जा रहे हैं, पीछे से सारदा की सहेली (पहली लड़की) पुकारेगी]
सहेली : ओ चाचा जी , ओ चाचा जी !
रामचन्द्र : कौन रे ?अच्छा, अवनी की बेटी हो ! बताओ क्यों बुला रही थी ?
सहेली : मैं तो सारदा की 'सखी' हूँ। उसकी तरफ से एक बात मैं आपसे कहना चाहती हूँ; उसको आपसे कहने में लाज आती है , इसीलिए !
रामचन्द्र : तो -बताओ न, लगता है कि उसने तुमसे बोलने को कहा है। 
सहेली : हाँ चाचा जी, फाल्गुन की पूर्णिमा [को श्रीचैतन्य देव का जन्म हुआ था इसलिए] को गाँव के सभी लोग गंगा स्नान करने के लिए कोलकाता जा रहे हैं। सारदा के मन में भी गंगास्नान के लिए जाने की बड़ी इच्छा है। वह गंगास्नान के लिए दक्षिणेश्वर कालीमन्दिर जाकर अपने पति का कुशल समाचार भी जानना चाहती है। 
रामचन्द्र : ठीक तो है, मैं स्वयं उसको अपने साथ ले कर जाऊँगा, और दामाद जी का समाचार भी लेता आऊंगा। 
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य ३ : 
[ सारदा घर में झाड़ू दे रही है .../ थोड़ी देर बाद झाड़ू रख कर बैठ जाएगी/ गाल पर हाथ रखकर सोचने लगेगी,  ....... फ्लैश बैक, .....विवाह के घर में बजने वाली शहनाई की धीमी-धीमी धुन बज रही है,...]
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य ४ : 
[ विवाह का घर है, बैकग्राउंड में शहनाई की धुन जोर से बज रही है, गदाई की माँ उसको पुकार रही हैं।]
चन्द्रामणि: गदाई , ओ गदाई.. सुनते हो ?
गदाई : जी माँ , आता हूँ। ... बोलो माँ , क्यों बुला रही थी? तुम को तो बड़ी चिन्ता थी कि गदाई की शादी कैसे होगी ? ..... अब तो कोई चिंता नहीं है ?
चंद्रमणि : हैं, वह तो हो गया। किन्तु इधर एक बहुत बड़ी समस्या भी आ गयी है। 
गदाई : समस्या ? अब कौन सी समस्या आ गयी ? उसको भी बता डालो !
चन्द्रमणि : अरे , शादी में गुरहत्थी के समय लहबाबू के परिवार से गहना लाकर सारदा को पहनाया गया था,.... किन्तु अभी वो छोटी बच्ची है; गहना उतारना चाहेगी न ? 
गदाई : ओ , तो अब गहना वापस करना होगा -यही तो, (सिर पर थोपी लगाकर) .... तुम उसकी चिंता मत करो माँ, उसकी जवाबदेही मेरी है। जब वो सो जाएगी ,  तब धीरे से मैं उसका एक एक गहना उतार लूँगा, और उसे पता भी नहीं चलेगा। 
चन्द्रमणि : लेकिन यदि सुबह में जागने पर रोने लगी तब ?
गदाई : हाँ, यह बात तो ठीक है ! (सिर पर थोपा देकर) उस समय तुम उसको अपनी गोद में लेकर आश्वासन देते हुए कहना कि -'बेटी चुप हो जाओ, गदाई (गदाधर) बादमें तुम्हारे लिए इन से भी सुन्दर गहने बनवा देगा !' [लीला १/२६८]
चन्द्रमणि : ठीक है, तब वैसा ही करना। 
[बत्ती बुझेगी]
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 दृश्य ५ :
 [गदाई , गहरी नींद में सोई हुई छोटी लड़की सारदा के शरीर से उन आभूषणों को इतनी कुशलतापूर्वक खोल लेगा कि उस बालिका को कुछ भी पता नहीं चलेगा , ....लेकर चला जायेगा/ .... शहनाई की धुन रुक जाएगी।]

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दृश्य ६: 
[गदाई एक मोढ़ा पर बैठा हुआ है, छोटी लड़की सारदा चरण स्पर्श करने के बाद, गमछे से पैर पोछेगी। हाँथ -पंखे से हवा करेगी, ...  ]
गदाई :" देखो, चन्दा मामा जैसे सभी शिशुओं के मामा हैं, वैसे ही ईश्वर भी सभी लोगों के लिए अपने हैं। उनको पुकारने का सभी को अधिकार है। जो कोई भी उनको प्रेम से पुकारता है, वो उसको दर्शन देते हैं , तुम अगर उन्हें पुकारोगी तो वे तुम्हें भी दर्शन देंगे।" किन्तु, .... (इसी समय एक लड़की वहाँ आकर यह दृश्य -पंखा हाँकती हुई माँ सारदा ! को देखती है। ...) 
लड़की : ओ माँ , इस छोटी सी लड़की सारदा को अपने पति (समस्त मानवजाति वुड बी लीडर या भावी मार्गदर्शक नेता) में कितनी श्रद्धा है, जरा आकर देखो तो ! 
[बत्ती बुझेगी]
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दृश्य ७ : 
[पुनः दृश्य ३ फ़्लैश बैक में आएगा, सारदा झाड़ू रखकर गाल पर हाथ रखकर बैठी हुई हैं ,.... रामचन्द्र का प्रवेश ] 
रामचन्द्र : ओ सारदा ! 
(सारदा ध्यान से चौंककर वापस लौटेगी, और झाड़ू लेकर पुनः झाड़ू देने लगेगी )
रामचन्द्र : अवनि की लड़की बोल रही थी कि तुम गंगास्नान के लिए जाना चाहती हो ? ठीक ही तो है, हमलोग भी गंगास्नान कर आएंगे, और दक्षिणेश्वर जाकर दामादजी का हालचाल भी देख लेंगे। 
सारदा : पिताजी, यदि आपके दामाद सचमुच पागल हो गए हों, तब तो मेरे लिए यहाँ और रहना उचित नहीं है, उनके समीप रहकर उनकी सेवा में नियुक्त रहना मेरा कर्तव्य है, न पिताजी ?
रामचन्द्र : तुम अधिक चिन्ता मत करो -बेटी ! जाकर ही क्यों नहीं देख लिया जाय ? मैं केवल सोच रहा था कि तुम इतनी दूर पैदल चल सकोगी की नहीं ?
सारदा : मैं तो अभी बड़ी हो चुकी हूँ पिताजी, क्यों नहीं चल सकूँगी ? उतना तो आराम से चल लूँगी !
[बत्ती बुझेगी]
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दृश्य ८ : 
[रास्ते पर चलते हुए, रामचन्द्र , सारदा , और दो साथी , सारदा पीछे बहुत कष्ट से चल पा रही हैं ... इसलिए पीछे छूट रही हैं। .... ]
रामचन्द्र : ओ सारदा , फिर से पीछे रह गयी क्या ? कहीं पैरों में छाले तो नहीं हो गए ?
सारदा : नहीं , पिताजी -वैसी कोई बात नहीं है !
रामचन्द्र : जरा अपना पैर दिखाओ तो ? अरे , यह क्या फोंका पड़ कर तो फूट भी गया है! इस प्रकार पैदल चलना मुश्किल होगा बेटी, अरे यह क्या तुम्हारा शरीर तो तप रहा है ! बहुत तेज बुखार लग रहा है , इस अवस्था में आगे बढ़ना असम्भव है। नजदीक के किसी चट्टी में विश्राम लेना आवश्यक है। इसीलिए तुम लोग आगे बढ़ो, मैं सारदा को लेकर किसी चट्टी में शरण लेता हूँ। जब शरीर में तेज बुखार है, तो पैदल चलना मुश्किल है। 
१ साथी : हाँ , यह तो बिल्कुल सही बात है !
२ साथी : तब चलो भाई, हमलोग आगे बढ़ते हैं ! (साथियों का प्रस्थान)
सारदा : (दुविधाग्रस्त हैं ) पिताजी, मुझे लगता है, मैं अब दक्षिणेश्वर नहीं जा पाऊँगी , और लगता है उनकी सेवा भी नहीं कर पाऊँगी। 
रामचन्द्र : नहीं बेटी नहीं , इतना मत सोंचो ! थोड़ा सा बुखार कम होते ही हमलोग फिर से चल पड़ेंगे। आओ बेटी आओ -(कन्धा पकड़ कर ले जायेंगे)
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य ९ : 
[ कुटिया में सारदा दरी पर सोयी हुई है, रामचन्द्र हाथ में एक ग्लास दूध लेकर प्रवेश ,.... ] 
रामचन्द्र : तुम थोड़ा ये दूध तो पीलो बेटी। 
सारदा : (बैठकर , ग्लास रखते हुए ) जानते हैं पिताजी, मैं अब पैदल चल सकती हूँ। कल रात में एक काली लड़की मेरे बिछावन पर आकर बैठ गयी थी। मैंने पूछा , तुम कौन हो ? उसने कहा मैं तुम्हारी ही बहन हूँ।  दक्षिणेश्वर में रहती हूँ। मैंने कहा, मुझे भी दक्षिणेश्वर जाने की बड़ी इच्छा थी कि उन्हें देखूंगी और उनकी सेवा करुँगी। किन्तु बुखार आ जाने के कारण मेरी इच्छा पूर्ण न हो सकी। वह बोली ,' इसमें निराश होने की क्या बात है ? बुखार ठीक हो जाय तब चली जाना,  तुम्हारे लिए ही तो मैंने उन्हें वहाँ रोक रखा है।
रामचन्द्र : अच्छा , ऐसी बात है ? (सारदा दूध का घूँट लेकर,.... ) 
सारदा : फिर बैठकर वह मेरे शरीर और सिर को सहलाने लगी, उसका स्पर्श इतना स्निग्ध और कोमल था कि, उसीके बाद से मेरा बुखार उतर गया है। 
रामचन्द्र : तो फिर चलो , हमलोग इसी समय यात्रा शुरू करते हैं; देखता हूँ कहीं से पालकी का इंतजाम हो पाता है या नहीं ? 
[बत्ती बुझेगी]
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दृश्य १० : 
[दक्षिणेश्वर में रामकृष्ण का कमरा, दो सेवक (भगना हृदय और भतीजा रामलाल), हृदय बिछावन ठीक कर रहे हैं, रामलाल झाड़ू दे रहा है। रामलाल झाड़ू दे रहा है। रामकृष्ण का प्रवेश। हाथ में गमझा है, बदना रखते हुए। .... ] 
रामकृष्ण : अरे , हृदु -ले थोड़ा गमछा निचोड़ कर पसार देना तो !
रामकृष्ण : देखो, रामনেলো,जब इस कमरे में झाड़ू देना तब , मन बहुत पवित्र रखना। अपने चाचा का काम कर दे रहा हूँ, ऐसा मत सोंचना। ऐसा सोंचना कि , यहाँ जो भक्त लोग आ रहे हैं, उनकी सेवा करके तू धन्य हो रहा है। ऐसा समझना कि यह कमरा  'भगवान का ड्राइंग रूम (स्वागत कक्ष)' है! 
(हृदय का प्रवेश )
हृदय : ओ मामा , चाँदनी घाट पर एक नाव आयी है, देखा की कुछ लोग उतर कर इधर ही आ रहे थे ,लगता था कालीमन्दिर ही आ रहे हैं । (हृदय बिछावन चादर सब ठीक-ठाक करेगा ) 
रामकृष्ण : अरे राम लाल , देखोतो -इतनी रात गए इधर कौन आ रहा है ?
(रामलाल का प्रस्थान -शीघ्र लौटना )
रामलाल : चाची जी आयी हैं, साथ में मुखर्जी महाशय भी हैं। 
रामकृष्ण : अच्छा, ये बात है ! जा जा उन लोगों को यहीं ले आ। (प्रस्थान के लिए कदम बढ़ाते ही, रामलाल से। ... ) देखो, उनलोग को सीधा इसी कमरे में ले आना! अरे हृदु देखतो शुभ घड़ी है या नहीं ? पहली बार आ रही है। 
(रामलाल के पीछे पीछे सारदा प्रवेश करेगी, रामलाल के हाथ में टीन का सूटकेश है, सारदा रामकृष्ण को भूमिष्ट होकर प्रणाम करेगी। )
रामकृष्ण : तुम आयी हो, अच्छा की हो। अरे दरी तो बिछा दो। (रामलाल दरी बिछा देगा) बैठो, तुम इतने दिनों के बाद आयी ? अब क्या मेरे 'सेजो बाबू' (मथुर बाबू) जीवित हैं, कि तुम्हारा आदरसत्कार होगा?उनके जाने से मानो मेरा दाहिना हाथ ही टूट गया है। यदि वह आज होता तो तुम्हारी कितनी सेवासत्कार  करता। वैसे , तुम्हारा शरीर तो ठीक है न ? 
सारदा : मार्ग में थोड़ा बुखार हो गया था -अभी भी है। 
रामकृष्ण : क्या बुखार है ? (लिलार पर हाथ रखेंगे, उद्विग्न होकर) अरे हृदु तुम्हारी मामी को बुखार हुआ है, जाओ जाकर दवा का इंतजाम करो। 
हृदय : ठीक है -जाता हूँ , लेकिन मामा; मामी के लिए सोने की व्यवस्था कहाँ कर दूँ ? नौबतखाने मे दीदी वाले कमरे में करने से ही ठीक रहेगा। 
रामकृष्ण : नहीं रे, ठण्ढ लगने से बुखार बढ़ सकता है। डॉक्टर -बैद्य को दिखलाना पड़ेगा। वो इसी कमरे में सोयेगी। बाद में जैसा होगा देखा जायेगा। तुम इसी कमरे में एक पृथक चौकी पर उसके सोने की व्यवस्था कर दो। 
{बत्ती बुझेगी]
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दृश्य ११ : 
[श्रीरामकृष्ण का कमरा - दरी पर ६ भक्त बैठे है / मास्टर, अधर, मारवाड़ी, चुनीलाल, योगेन युवा है, रामलाल ]
रामकृष्ण : अच्छा बताओ , नाव कहाँ रहती है ?
योगेन : नाव ! नाव पानी में रहती है। 
रामकृष्ण : नाव में पानी घुस जाने से क्या होगा ?
अधर : नाव डूब जाएगी। 
रामकृष्ण : हाँ , नाव में पानी घुस जाने से वह डूब जाती है। अब मानलो कि तुम सभी लोग एक एक नाव हो; और संसार रूपी पानी में तैर रहे हो। यदि संसार तुम लोगों के भीतर घुस जाये, तो क्या होगा ? 
अधर : महाशय , डूब जायेंगे। (सहास्य) 
रामकृष्ण : नाव पानी में रहे , किन्तु नाव पानी न घुस सके तो सब ठीक है ! तुम संसार में रहो, लेकिन संसार तुम में न घुसे तो तुम ठीक हो। 
चुनीलाल : महाशय, क्या ऐसा होना सम्भव है ? क्या गृहस्थाश्रम में भगवान लाभ हो सकता है ? (वचनामृत/ पेज/२३७)
रामकृष्ण : क्यों नहीं हो सकता ? पाँकाल मछली (ईलिश?) कहाँ रहती है ? पाँकाल मछली कीच के भीतर रहती है न ? लेकिन कीच से बाहर निकालो तो उसके शरीर पर कीचन हीं रहता। उसका शरीर एकदम साफ चमचम चमकता है। उसी तरह माँ जगदम्बा (सर्वव्यापी विराट 'अहं'-बोध)  का भक्त ही वीर या 'हीरो' होता है, जो पूणतः अनासक्त होकर संसार में रह सकता है। किन्तु वीर बनने के लिए पहले  कभी कभी संसार से दूर निर्जन में (अर्थात महामण्डल कैम्प, साप्ताहिक पाठचक्र आदि में) जाकर ईश्वरचिन्तन करने पर उनमें भक्ति होती है। तब निर्लिप्त होकर संसार में संसार में रह सकोगे। वचनामृत/३६९/  
चुनीलाल : लेकिन महाशय , ऐसा कैसे हो सकता है ?
रामकृष्ण : देखो दूध और पानी है, एक साथ मिला दो क्या होगा ?
योगेन : मिल जायेगा। 
रामकृष्ण : "थैंक यू ! यह संसार पानी है, और मन मानो दूध है। साधना करके मन में ज्ञान -भक्ति रूपी मक्खन प्राप्त करना होगा। उसके बाद जितना भी परिवार में रहो, कोई हानी नहीं। यदि वैसा नहीं किये, तो विपत्ति की आशंका, शोक, दुःख इस सब से अधीर हो जाओगे।  ज्ञान हो जाने पर संसार में रहा जा सकता है। परन्तु पहले तो ज्ञानलाभ करना चाहिये। संसाररूपी जल में मनरूपी दूध (पृथक 'अहं;-बोध) रखने पर दोनों मिल जायेंगे। इसीलिये दूध को निर्जन में (महामण्डल ऐनुअल कैम्प में) दही बनाकर उससे मक्खन निकाला जाता है। जब निर्जन में साधना करके मनरूपी दूध से 'ज्ञान-भक्ति-रूपी-मक्खन' निकल गया, तब वह मक्खन अनायास ही संसार-रूपी पानी में रखा जा सकता है। वह मक्खन कभी संसार-रूपी जल से मिल नहीं सकता -संसार के जल पर निर्लिप्त होकर उतराता रहता है ! इससे यह स्पष्ट है कि साधना  (५ अभ्यास) चाहिए। पहली अवस्था में निर्जन (कैम्प) में रहना जरुरी है।  वचनामृत- ३३८/
मारवाड़ी : जी एक बात है। 
रामकृष्ण : क्या बात ?
मारवाड़ी : आपके पास बहुत से आदमी आते हैं, रहते हैं। आपका बहुत खर्च होता है। इसलिए मैंने १०,००० रूपये एक चेक लाया है , मेहरबानी करके आप इस चेक को स्वीकार कीजिये। 
रामकृष्ण : अरे , रुपया तो हम बिल्कुल नहीं लेते। 
मारवाड़ी : लेकिन ये तो आपके लिए नहीं दे रहा हूँ, यह तो आपके भक्तों के लिए है। फिर आपकी पत्नी भी हैं न ?
रामकृष्ण : ठीक है, तो पत्नी को पूछो। योगेन , इनको थोड़ा नौबतखाने में लेकर जाओ तो। 
मारवाड़ी : हाँ , ठीक है, ये भी ठीक है (योगेन के पीछे पीछे मारवाड़ी का प्रस्थान )
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य १२ : 
[श्रीषोड़शी-पूजन के बाद श्रीमाताजी ने लगभग ५ महीने तक श्रीरामकृष्ण देव के समीप रहकर अवस्थान किया था। पहले की भाँति दिन का समय नौबतखाने में बिताकर, रात में श्रीरामकृष्णदेव की शय्या में ही शयन करती थीं। यह जानकर कि नित्यप्रति निर्विकल्प समाधि में जाने पर उनके शरीर पर मृतक के लक्षण प्रकट होने लगते थे, यह देखकर श्रीमाँ की निद्रा में विघ्न हो जाता है, उनके सोने की व्यवस्था नौबतखाने में करवा दी। ....  रामकृष्ण छोटी सी खाट के पास खड़े होकर माँ (माँ जगदम्बा  या विराट शक्ति, जो जगत रूप में प्रकट है) के साथ बातचीत कर रहे हैं। ] 
रामकृष्ण : माँ , तुमने कहा था कि 'भावमुख ' होकर रहो। [भावमुख अवस्था में रहने का तात्पर्य है-"मैं वही सर्वव्यापी विराट् 'अहं' हूँ !" लिलाप्रसंग /९५तुमने तो कहा था भक्ति और भक्त को लेकर रहो। ये सभी तो गृहस्थ भक्त हैं माँ। तुमने तो कहा था कि त्यागी युवक लोग आएंगे। अब उनलोगों को भेज न माँ। यदि वे लोग नहीं आएंगे , तो तुम्हारा काम कौन करेगा माँ ? (इसीबीच सारदा हाथ में तकिया लेकर कमरे में घुसकर बिछावन ठीक ठाक करने लगेगी। दो तकिया को आसपास रखेगी। )
रामकृष्ण : आज लक्ष्मीनारायण नामक मारवाड़ी आया था। १० हजार के चेक देना चाह रहा था। मैंने उसको तुम्हारे पास जाने को कहा था।  गया था क्या ?
सारदा : हाँ , मुझसे भी लेने के लिए बोला था, पर मैंने नहीं लिया। मैंने पूछा कि आपने क्या कहा ? जब मैंने सुना कि तुम लेना नहीं चाहते थे, तब मैंने कहा कि क्या वे और मैं अलग अलग हैं ? (इसी समय रामकृष्ण - कहेंगे बहुत अच्छा बहुत अच्छा) मेरा लेना भी तो उन्हीं का लेना हो जायेगा !
रामकृष्ण : तब उसने क्या कहा ?
सारदा : कह रहा था आपलोगों का हृदय एक है। आपलोग बहुत त्यागी मनुष्य हैं। 
रामकृष्ण : अरे समँझी ! माँ जगदम्बा हमलोगों की परीक्षा ले रही थीं। परीक्षा में तुम भी पास और मैं भी पास हो गया। 
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य १३ : 
[ रामकृष्ण भोजन कर रहे हैं , माँ भोजन करवा रही हैं, पंखा झल रही है। ]
सारदा : सब्जी तो लक्ष्मी ने बनाया है, और सूक्तो (विशेष बंगाली सब्जी) मैंने बनाया है। 
रामकृष्ण : हाँ जीभ से छुआते ही, समझ में आ गया कि कौन मधूबैद्य है और कौन श्रीनाथसेन। ....ता हाँ-गो, तुमि कि आमाय आबार संसारेर पथे टेने निते एले ना कि ?  लेकिन यह बताओ कि क्या तुम मुझे फिर से संसार के रास्ते में खींच लेने के लिए तो नहीं आयी हो ?
सारदा : नहीं ठाकुर देव, मैं आपको भला संसार के रास्ते में खींचना चाहूँगी ? मैं तो आपको आपके ईच्छित रास्ते पर आगे बढ़ने में सहायता करने के लिए आयी हूँ !
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य १४ : 
[रामकृष्ण बड़े चौकी पर बैठे हैं। लाटू जमीन पर एक 'वर्ण परिचय ' किताब -स्लेट लेकर बैठे हैं। ]
रामकृष्ण : बोलो क 
लाटू : का 
रामकृष्ण : बोलो ख 
लाटू : खा 
रामकृष्ण : अच्छा ये बताओ कि -मैं तुमको 'क' कहने के लिये कहते हूँ, तो तुम 'का' कहते हो, मैं 'ख' कहता हूँ -तुम 'खा' कहते हो ! इसके बाद जब तुमको आकार सिखाने के लिए 'का' बोलने के लिए कहूँगा -तब तुम क्या बोलोगे ? 
लाटू : जी , वो तो हमने जानते नहीं !
रामकृष्ण : तो अब ठीक से बोल - , बोलो क 
लाटू : का 
रामकृष्ण : ख 
लाटू : खा 
रामकृष्ण : ना , तुमको मैं पढ़ना लिखना नहीं सिखा पाउँगा। 
लाटू : ठाकुर, तब जिससे हमको लाभ हो , वही कर दीजिये। 
रामकृष्ण : (स्नेहपूर्वक। ... ) नजदीक आओ, जीभ बाहर निकाल। ॐ अंग अहः ! जा ! (जीभ पर मंत्र लिख देंगे) तुमको और कुछ नहीं करना पड़ेगा ! तुम केवल मेरा ध्यान करते रहना (बी ऐंड मेक करते रहो), यही करने से तुम्हारा सबकुछ हो जायेगा, मुक्त हो जाओगे ! 
(सारदा का प्रवेश )
रामकृष्ण : (सारदा को देखकर ) ओ तुम आयी हो ? बताओ क्या बात है ? 
सारदा : कुछ बोलने के लिए नहीं आयी , यह देखने के लिए आयी हूँ -कि आप किसे पढ़ा रहे हैं ?
रामकृष्ण : इसी लड़के को , देखो यह लड़का बहुत अच्छा है, इसका आधार एकदम शुद्ध है ! (जेपी मन में कोई खोंट नहीं है ?) राम दत्त के घर में काम करता है। कहता है मैं यहीं रहना चाहता हूँ। तो, अगर तुम चाहो तो अपने 'मयदा ठेसार काजे ' अर्थात आंटा सानने के काम पर रख सकती हो। -की रे लाटू, ३/४ सेर आंटार रुटी -माखते बोलते पारबि तो ? रोटी -बनाने सकेगा न ?
लाटू : वो सब हमने खूब पारबो ! 
रामकृष्ण : तब जा , तेरी नौकरी पक्की हो गयी ! 
(लाटू दौड़ कर माँ सारदा को प्रणाम करेगा !) 
सारदा : ठीक है बेटे- जीयो ! 
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य १५ :
 [रामकृष्ण चौकी पर लेटे हुए हैं -सारदा चरणसेवा कर रही हैं ]
रामकृष्ण : अच्छा , तुम ये बताओ कि इस कमरे में जो चन्द्रमा का बाजार लगता है, इतना कीर्तन -भजन होता है, तुम वह सब कुछ सुन पाती हो, या नहीं ?
सारदा : बहुत आराम से सुनती रहती हूँ। मैं और लक्ष्मी तो खड़े खड़े नहबत के दरवाजे के छेद से देखकर सब सुनते हैं। 
रामकृष्ण : इसीलिए तो मैं भी उत्तर दिशा वाले दरवाजे को खुला रखने के लिए कह देता हूँ। 
सारदा : लक्ष्मी कहती है, चाची यदि तुम्हारी इच्छा सुनने की है, तो जाकर सुनो न। 
रामकृष्ण : तब तुम क्या कहती हो ?
सारदा : मैं कहती हूँ , मेरे लिए इतना ही बहुत है !
रामकृष्ण : डरता हूँ कि नहबत के इतने छोटे से कमरे में रहते रहते कहीं तुमको गठिया न हो जाये। थोड़ा मोहल्ले में घूमने-फिरने जाओगी तो कुछ बातें सीख पाओगी। लेकिन यह याद रखना कि यह मोहल्ला गाँव नहीं है, यहाँ थोड़ा सावधान रहना चाहिये। 
सारदा : अच्छा , यह बताओ -तुम मुझे किस दृष्टि से देखते हो ?
रामकृष्ण : तुमको !!! जो माँ मन्दिर में हैं, उन्होंने ही तुम्हारे इस शरीर में जन्म लिया है,तथा इस समय वे नौबतखाने में रह रही है, और वे ही अभी मेरे पैरों को दबा रही हैं। सच कहता हूँ , मैं सर्वदा तुमको साक्षात् आनन्दमयी के रूप में देखाता हूँ ! 
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य १६ : 
[ रामकृष्ण का कमरा / रामकृष्ण श्रीषोड़शी-महाविद्या की पूजा (२५ मई १८७३ अमवस्या की रात्रि में) की तैयारी कर रहे हैं, हृदय उसका सब इंतजाम ठीक ठाक कर रहे हैं ]
हृदय : मामा , अब मैं चलता हूँ , आज मंदिर की पूजा में मुझे रहना होगा। 
रामकृष्ण : जाते समय मामी को यहाँ बुला कर ले आना।
(सारदा का प्रवेश , वेदी पर बैठेगी , पहले आँखों को खोलकर , .... धीरे धीरे ऑंखें मूँदकर ध्यानस्थ हो जाएँगी। रामकृष्ण पूजा करेंगे , शांति जल छींटते समय का मंत्रोच्चारण होगा 
रामकृष्ण : 'या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता , नमःतस्यै नमःतस्यै नमःतस्यै नमो नमः !
(तीन बार -शक्ति रूपेण , शान्तिरुपेण, मातृरूपेण)
(हाथ जोड़ कर ) " हे बाले ! हे सर्वशक्ति अधीश्वरी माते ! त्रिपुरसुंदरी !  सिद्धि द्वार खोल दो, इनके (श्री माँ के) शरीर-मन को पवित्र कर,इनके अन्दर आविर्भूत हो सर्वकल्याण साधन करो ! [दोनों ध्यानस्थ हो जायेंगे]
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य १७ :
 [रामकृष्ण अपने कमरे में चौकी पर बैठकर जगन्माता का चिन्तन कर रहे हैं। हृदय का प्रवेश,... ] 
हृदय : यह लो मामा , देखो तुम्हारा कंगना सीतादेवी के जैसा गढ़ा हुआ है , या नहीं ? (रामकृष्ण सोने के कंगन को घुमा फिरा कर देखेंगे !)
हृदय : मामा, मेरे बैंक में तुम्हारे ३०० रूपये रखे हुए थे। दोनों कंगन बनवाने में २०० रूपये खर्च हुए हैं, इस प्रकार आपके १०० रूपये बचे हुए हैं। 
रामकृष्ण : जाओ , जाकर तुम्हारी मामी को यहाँ बुला लाओ !
(हृदय का प्रस्थान , पुनः प्रवेश , पीछे पीछे सारदा का प्रवेश, रामकृष्ण अपने हाथों से कंगन पहनायेंगे, और बोलेंगे -जरा हाथ दिखाओ तो !..... )
हृदय : क्या मामी , तुमको पसन्द आया न ? लेकिन मामी -मामा इतने बड़े त्यागी मनुष्य हैं, और तुम ये सब क्या कंगन-फंगन पहन रही हो ?
रामकृष्ण : तुम रुको तो, तुम क्या समझोगे ? वो है सारदा -ज्ञान दायिनी सरस्वती , इसीलिये थोड़ा सजना भी उसको अच्छा लगता है। 
सारदा : तुम्हारे इस भगना ने एक दिन क्या किया था जानते हो ? मैं और लक्ष्मी वर्ण परिचय किताब लेकर अक्षर सीख रहे थे, तब तुम्हारे भगना ने गुस्सा करके वर्णपरिचय किताब को ही गंगाजी में फेंक दिया। 
रामकृष्ण : क्या ??
हृदय : क्यों नहीं फेंकूँगा ? अभी वर्णपरिचय पढ़ रही हो- बाद में नाटक-नॉवेल भी पड़ेगी -!
रामकृष्ण : अरे हृदय , ऐसा क्रोध फिर मत दिखाना। समझ लेना इसके भीतर (अपने को दिखाकर ) जो हैं, वह यदि नाराज हो गया , और तू उससे बचना चाहे तो बच भी सकता है; किन्तु उसके भीतर जो है, (सारदा दिखा कर) यदि कहीं वह नाराज हो गयी -तब ब्रह्मा ,विष्णु ,महेश भी तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकते! ... याद रखना इस बात को !
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य १८ : 
[चाँदनी रात है, सारदा नौबतखाने के महराब (Roach) पर बैठकर ध्यानरत हैं ; ध्यान टूटने पर हाथ जोड़कर चाँद की तरफ देख रही हैं , अँधेरे मंच पर नीले रंग की रौशनी सारदा के चेहरे पर पड़ेगी।] 
सारदा : हे ठाकुर देव, तुम अपनी इसी चाँदनी (ज्योत्स्ना) के जैसा मेरे मन को निर्मल कर दो भगवान !
मेरे भीतर ताकि कोई कामना न रहे ठाकुर। चाँद पर भी दाग  है,किन्तु मेरे मन पर कोई दाग न रहे भगवान! 
[बत्ती बुझेगी ] 
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दृश्य १९ : 
[रामकृष्ण चौकी पर बैठे हैं। जमीन पर सारदाप्रसन्न, मास्टर , अधर , बाबूराम , पूर्ण , चुनीलाल, लाटू आदि बैठे हैं ]
मास्टर : महाशय , इस समय काबुल में बड़ा युद्ध चल रहा है। एक साजिश में याकूब खां (काबुल के अमीर)का राजसिंहासन से उतार दिये गये हैं। राजपरिवार के सभी लोग अभी बड़ी आतंक में पड़े हैं। 
रामकृष्ण : अच्छा? लेकिन याकूब खां कैसा राजा था ?
मास्टर : हमलोग तो उसको एक अच्छे राजा के रूप में ही जानते हैं। सुना था कि वे बड़े भक्त मनुष्य थे। 
पूर्ण : अच्छा, उसके जैसे मनुष्य पर इतना बड़ा संकट क्यों आया ?
रामकृष्ण : बात यह है कि प्रारब्ध कर्मों का भोग होता ही है। जब तक वह है, तबतक देह धारण करना ही पड़ेगा। और सुख-दुःख देह के धर्म हैं। शरीर धारण करने पर सुख-दुःख दोनों लगे रहते हैं। कविकंकण-चण्डी में लिखा है कि -कालूबीर राजा को कैद की सजा हुई थी और उसकी छाती पर पत्थर रखा गया था। जबकि राजा कालूबीर भगवती का वरपुत्र था, फिर भी उसे दुःख भोगना पड़ा। श्रीमन्त भी तो बड़ा भक्त था । उसकी माँ खुल्लना को भगवती कितना अधिक चाहती थीं । पर देखो, उस श्रीमन्त पर कितनी विपत्ति पड़ी! यहाँ तक कि वह श्मशान में काट डालने के लिए ले जाया गया ।
(वचनामृत /पेज २८१ 1883,अगस्त 19) कृष्ण के माता-पिता कारागार में रहते हुए शंख-चक्र-गदा-पद्मधारी चतुर्भुज नारायण (भगवान विष्णु) के  दर्शन हुए, पर तो भी उनका कारावास नहीं छूटा।  
मास्टर : केवल कारावास ही क्यों ? शरीर ही तो सारे अनर्थों की मूल है, उसी को छूट जाना चाहिए था।
श्रीरामकृष्ण : देह का सुख-दुःख जो होने का है, वो हो; पर भक्त (हीरो/रीयल पर्सनैलिटी) का ऐश्वर्य कभी जाता ही नहीं है। भक्त को ज्ञान-भक्ति का ऐश्वर्य बना ही रहता है, वह ऐश्वर्य कभी नष्ट नहीं होता। देखो न स्वयं भगवान जिसके साथ हैं, उन पाण्डवों के संकट की सीमा नहीं है।  हाँ, किन्तु यह बात है कि भगवान के साथ रहने के कारण वे लोग एकबार भी 'चैतन्य' (आत्मबोध) को नहीं खोये थे ! ये सब शरीर के दुःख-सुख जो भी रहें, भक्त का ज्ञान, भक्ति का ऐश्वर्य -ये सब एकदम ठीक रहता है ! 
सारदाप्रसन्न : महाशय,अब मुझे जाना पड़ेगा। (सरदाप्रसन्न रामकृष्ण की पदधूलि लेंगे)
रामकृष्ण : ठीक है, फिर आना। जब स्कूल में छुट्टी रहे तो १/२ दिन यहाँ आकर रहो न। (सारदा जाते जाते फिर से लौटकर आयेगा) क्यों रे क्या बात है, फिर क्यों लौट आया ? ओ समझा , लगता है जाने का भाड़ा नहीं है ? (सारदा गर्दन हिलाकर सहमति जतायेगा) जाओ, नहबत में जाकर माँ ठकुरानी को पुकार कर चार पैसे माँग लेना। जाओ। (सारदा के जाने के बाद )
रामकृष्ण : अरे तुम समझे , उसके पिता उसको यहाँ आने देना नहीं चाहते हैं। यह कहने से कि दक्षिणेश्वर जाना है, वो इसको भाड़ा नहीं देता। 
(नरेन् का प्रवेश / प्रवेश करके दूर ही खड़ा रहेगा।)
रामकृष्ण : (नरेन को देखकर ) अरे बाबूराम , जाओ नहबत जाकर माँ ठकुरानी को समाचार पहुँचा दो तो, कि नरेन आया है, और रात में यहीं रुकेगा। (बाबूराम उठ कर चला जायेगा ,... ) नरेन् से --'क्या रे, वहाँ क्यों खड़ा है , इधर आओ -बैठो !
नरेन्द्र : नहीं महाशय , लोग जिसको अखाद्य कहते हैं, आज होटल में जाकर वही खा आया हूँ। 
रामकृष्ण : अरे हविष्यान्न खाकर भी जिसका मन कामिनी -कांचन में लगा रहता है, तो उसपर धिक्कार है, और यदि सूअर का मांस खाकर भी जिसका मन ईश्वर में रहता है -उसका जीवन धन्य है -रे धन्य है। अरे भगवान केवल मन देखते हैं, आओ एक बार मेरे निकट बैठो तो देखें !
(नरेन् नीचे बैठने लगेंगे , रामकृष्ण उसको पकड़ कर कहेंगे -अरे इधर मेरे पास बैठ ऊपर !)
(बाबूराम का पुनः प्रवेश)
बाबूराम : नरेनदा को आते देखकर माँ ने चने का दाल चढ़ा दिया है। आज नरेन के लिए मोटी मोटी रोटी और चने की दाल बनेगी। 
रामकृष्ण : 
अनन्त राधार माया कहले न जाय।
 कोटि कृष्ण कोटि राम होय-जाय-रय !
"অনন্ত রাধার মায়া কহনে না যায়। 
কোটি কৃষ্ণ কোটি রাম হয় যায় রয়।"
 -बोलो तो मैंने जो कहा उसका अर्थ क्या है ? (सभी लोगों को एक-दूसरे का चेहरा देखते हुए देख कर, अंत में नरेन्द्र ---)
नरेन्द्र : मैं बोलूँ ?
रामकृष्ण : जरा बोलो तो देखें ?
नरेन्द्र : आपने कहा - कृष्ण से बड़ी राधा हैं ! और आप से बड़ी माँ ठकुरानी हैं !
रामकृष्ण : (पूरे उत्साह से )-थैंक यू !! 
[बत्ती बुझेगी]
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                                                     दृश्य २० : 
[रामकृष्ण चावल खाने के लिए आसन पर बैठ रहे हैं, लोटा के जल से हाथ धोकर गिलास में ढालेंगे। एक घुँघटा काढ़े स्त्री आकर चावल की थाल रख जाएँगी। रामकृष्ण एक बार थाली की ओर और एक बार स्त्री की ओर देखते हैं। स्त्री के चले जाने पर भात को सान कर खाने की चेष्टा करेंगे, पर खाएंगे बिल्कुल नहीं, बाद में उठकर हाथ धोकर चौकी पर बैठ जायेंगे। ]
(सारदा का प्रवेश) 
सारदा : क्या हुआ , आप बिना कुछ बैठे हुए क्यों हैं ?
रामकृष्ण : (बिस्फोट के साथ ) तुमने यह क्या किया ? तुम तो जानती हो, मैं सबके हाथ का दिया खाना नहीं खा सकता ! उसके हाथों क्यों भिजवाया ? उसको क्या तुम नहीं जानती हो ? अब उसका छूआ खाना कैसे खाऊं ?
सारदा : सो तो जानती हूँ, लेकिन कोई चारा न था, आज भर खा लो। 
रामकृष्ण : आज भर खा लो '- ठीक है , तब वादा करो कि फिर किसी दिन और किसी के हाथों खाना नहीं भिजवाओगी। 
सारदा : (दृढ़ आवाज में ) मैं ऐसा कोई वचन नहीं दे सकती ठाकुर। तुम्हारा खाना मैं स्वयं लेकर आऊँगी, किन्तु कोई यदि माँ कहकर जिद कर बैठे तो मैं ना नहीं कह पाऊँगी! और तुम तो केवल मेरे ठाकुर ही नहीं हो, तुम तो सबों के ठाकुर हो !
रामकृष्ण : अच्छा, ठीक है -ठीक है, मैं सभी का ठाकुर हूँ और तुम सबकी माँ हो ! (रामकृष्ण खाने के लिए बैठेंगे , बैठकर गदगद स्वर में बोलेंगे) वाह एकदम ठीक -' मैं सबका ठाकुर , तुम सबकी माँ '! 
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य २१ : 
[रामकृष्ण का कमरा, सारदा भोजन लाकर , खाने का आसन जल तैयार कर रही है। ]
रामकृष्ण : हाँ जी, क्या थोड़ी देर पहले तुम कमरे में आयी थी ?
सारदा : हाँ , आप सो रहे थे, इसीलिए उठाया नहीं। 
रामकृष्ण: अरे देखो, मैंने तुमको लक्ष्मी समझकर तू कह दिया ? तुम उसका बुरा न मानना। 
सारदा ; नहीं नहीं , इसमें भला बुरा मानने की क्या बात है , आईये भोजन के लिए बैठिये !
रामकृष्ण : क्या तुम केवल रसोई पकाने का काम ही करती रहोगी ? और कुछ नहीं करोगी ? यही सब करती रहोगी। 
सारदा : अभी खाने के लिए बैठिये !
रामकृष्ण : देखो , कोलकाता के लोग मानो अँधेरे में रहने वाले कीड़ा-मकोड़ा जैसा बिल-बिल कर रहे हैं, तुम थोड़ा उन लोगों को भी देखो। 
सारदा : लेकिन ,वैसा कैसे होगा ?
रामकृष्ण : नहीं -अभी तक क्या की हो ? अभी तो बस यही १०-११ लड़के आये हैं, बाद में और भी कितने लड़के लड़कियाँ , सभी आएंगे। तुमको इससे बहुत अधिक काम करना होगा। 
सारदा : वह जब होगा , तब होगा। (रामकृष्ण आसन पर बैठेंगे)
रामकृष्ण : क्या सारी जिम्मेवारी अकेले मेरी ही है ? तुम्हारी भी जिम्मेदारी है।
[बत्ती बुझेगी ]
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दृश्य २२ :
 [ सारदा रामकृष्ण के कमरे में झाड़ू लगा रही हैं, रामकृष्ण लेटे अवस्था से उठकर बैठ जायेंगे] 
रामकृष्ण : हाँ सुनो , मैंने किस लड़के को कितनी रोटियाँ देने को कहा था, तुम्हें याद है ? 
सारदा : हाँ अच्छी तरह से याद है, -यही तो राखाल को ६ रोटी, लाटू को ५ रोटी, बूढ़ागोपाल और बाबूराम को ४ -४ करके ?
रामकृष्ण : लेकिन मैं तो सुन रहा हूँ कि रात में लाटू कभी ७ रोटी, कभी ८ रोटी भी खा रहा है ? इतना खाने के बाद वो सबेरे उठ सकेगा तो ? वो लोग यहाँ खाने के लिए रह रहा है, या जप-ध्यान करने के लिए रह रहा है ?
सारदा : देखो ठाकुर , तुम्हारी सब बातों को मानती ही हूँ, लड़कों को कितना करके रोटी देना है, उसके बारे में तुम्हें जो कहना था तुमने कह दिया है; अब इसके बाद मुझे अपने अनुसार जैसा करना है, करने दो। रामकृष्ण : तो इसका अर्थ यह हुआ कि तुम मेरी बात नहीं सुनोगी ? तब लड़का तो सब देर तक खर्राटे ले कर सोया रहेगा- तुम ऐसा ही चाहती हो ? यदि तुम उनकी क्षति चाहती हो, तब तुम वही चाहो। 
सारदा : उनलोगों का कोई नुकसान मैं नहीं चाहती हूँ ठाकुर, यह बात तुम अच्छी तरह से जानते हो। और यदि कोई २ रोटी अधिक खा लेगा तो उसका नुकसान होगा, तो जो भी नुकसान होगा, वह मैं खुद संभाल लूँगी। उनलोगों का भविष्य मैं अच्छी तरह से देखूंगी। उसके लिए अगर तुम नहीं सोचो तब भी चलेगा। 
(झाड़ू रखकर तेज कदमों से सारदा का प्रस्थान) 
रामकृष्ण : (हावभाव का परिवर्तन / अन्तर्मुखी भाव) उनका भविष्य मैं अच्छी तरह से देखूंगी ! उनके लिए अगर तुम कुछ न सोंचो तब भी चलेगा। ..... जय माँ जगदम्बे, .... ले लिया है, माँ तुमने बच्चों का उत्तरदायित्व स्वयं ले लिया है !! नहीं लेगी, ... माने ? क्या सारा उत्तरदायित्व मेरे अकेले का है ? जय माँ, जय माँ, ... जय माँ।  (स्ट्रोक रौशनी रहेगी )
[बत्ती बुझेगी ] 
[ बत्ती बुझने के बाद पुनः बत्ती जलेगी, मंच पर चौकी है। टेबल पर श्रीरामकृष्ण और माँ सारदा का बड़ा फ्रैंक डोरा के द्वारा बनाये चित्र पर माला पड़ा दिखेगा। नैपथ्य में संगीत 'सारदा रामकृष्णेर नामेर बान डेकेछे रे भाई ', चौकी के सामने नाटक में भाग लेने वाले सभी कलाकार दर्शकों की तरफ हाथ जोड़कर नमस्कार की मुद्रा में बैठेंगे। ] 
आलोकित मंच पर धीरे धीरे पर्दा गिरेगा !
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