अपने को एक 'डायनेमो' बनाओ !
Make yourself a dynamo
[Learn to manage emotions and inspire everyone around you.]
"हिन्दू धर्म भिन्न भिन्न मत-मतान्तरों या सिद्धान्तों पर विश्वास करने के लिए संघर्ष और प्रयत्न करने में निहित नहीं है , वरन यह ईश्वर का साक्षात्कार है ; वह केवल विश्वास कर लेना नहीं है , वह (ब्रह्म) होना और बनना है ! मनुष्य को ईश्वर का साक्षात्कार करके दिव्य बनना है। मूर्तियाँ , मन्दिर , गिरजाघर या ग्रन्थ तो धर्म-जीवन की बाल्यावस्था में केवल आधार या सहायक मात्र है; पर उससे उत्तरोत्तर उन्नति ही करनी चाहिए। यदि कोई मनुष्य अपने दिव्यस्वरूप को मूर्ति की सहायता से अनुभव कर सकता है , तो क्या उसे पाप कहना ठीक होगा ? इतना ही नहीं यदि कोई मूर्तिपूजा की आवश्यकता से परे पहुँच भी गया हो, तब भी उसके लिए मूर्तिपूजा को भ्रमात्मक कहना उचित नहीं है। हिन्दू की दृष्टि में मनुष्य भ्रम से सत्य की ओर नहीं जा रहा है, वह तो सत्य से सत्य की ओर , निम्न श्रेणी के सत्य से (इन्द्रियगोचर सत्य से) उच्च श्रेणी के सत्य (इन्द्रियातीत सत्य) की ओर अग्रसर हो रहा है। हो सकता है कि हिन्दू अपनी सभी योजनाओं को कार्यान्वित करने में असफल रहा हो , पर यदि कभी कोई सार्वभौमिक धर्म होना है , तो वह किसी देश या काल से सीमाबद्ध नहीं होगा, वह असीम ईश्वर के सदृश ही असीम होगा -जिसका वह उपदेश देगा ; जिसका सूर्य श्री कृष्ण और ईसा के अनुयायियों पर , सन्तों पर और पापियों पर समान रूप से प्रकाश विकीर्ण करेगा। जो न तो ब्राह्मण होगा , न बौद्ध ,न ईसाई और न इस्लाम, वरन सबकी समष्टि होगा। जो इतना उदार होगा कि पशुओं की स्तर किंचित उन्नत निम्नतम घृणित जंगली मनुष्यों से लेकर अपने ह्रदय और मस्तिष्क के गुणों के कारण मानवता से इतना ऊपर उठ गए उच्चतम मनुष्य तक को , जिसके प्रति सारा समाज इतना श्रद्धानत हो जाता है , कि लोग जिसके मनुष्य होने में सन्देह करने लगते हैं, अपनी बहुओं में आलिंगन कर सके और उनमें सबको स्थान दे सके। वह भावी वैश्विक धर्म होगा , जिसकी नीति में उत्पीड़न या असहिष्णुता का स्थान नहीं होगा; वह प्रत्येक स्त्री-पुरुष की दिव्यता को स्वीकार करेगा और उसका सम्पूर्ण बल और सामर्थ्य मानवता को अपनी सच्ची , दिव्य प्रकृति का साक्षात्कार करने के लिए सहायता देने में ही केन्द्रित होगा ! आप ऐसा ही धर्म ---'Be and Make' सामने रखिये , और सारे राष्ट्र आपके अनुयायी बन जायेंगे। "( हिन्दू धर्म पर निबन्ध-१/१४ -१७ -१८-२०)
[ The Hindu religion does not consist in struggles and attempts to believe a certain doctrine or dogma, but in realising — not in believing, but in being and becoming.... Man is to become divine by realising the divine. Idols or temples or churches or books are only the supports, the helps, of his spiritual childhood: but on and on he must progress. If a man can realise his divine nature with the help of an image, would it be right to call that a sin? Nor even when he has passed that stage, should he call it an error. To the Hindu, man is not travelling from error to truth, but from truth to truth, from lower to higher truth..... The Hindu may have failed to carry out all his plans, but if there is ever to be a universal religion, it must be one which will have no location in place or time; which will be infinite like the God it will preach, and whose sun will shine upon the followers of Krishna and of Christ, on saints and sinners alike; which will not be Brahminic or Buddhistic, Christian or Mohammedan, but the sum total of all these, and still have infinite space for development; which in its catholicity will embrace in its infinite arms, and find a place for, every human being, from the lowest grovelling savage not far removed from the brute, to the highest man towering by the virtues of his head and heart almost above humanity, making society stand in awe of him and doubt his human nature. It will be a religion which will have no place for persecution or intolerance in its polity, which will recognise divinity in every man and woman, and whose whole scope, whose whole force, will be created in aiding humanity to realise its own true, divine nature.Offer such a religion,[-'Be and Make' ] and all the nations will follow you. [Paper on Hinduism Read at the Parliament on 19th September, 1893 ~ by Swami Vivekananda. ]
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " संसार को जो चाहिये, वह है व्यक्तियों के माध्यम से विचार शक्ति।मेरे गुरुदेव कहा करते थे, " तुम स्वयं अपने कमल के फूल (ह्रदय) को खिलने में सहायता क्यों नहीं देते ? भ्रमर तब अपने आप ही आयेंगे।" संसार को ऐसे लोग चाहिये, जो ईश्वर के प्रेम में मतवाले हों। [ जो ईश्वर के प्रेम में मतवाले जाते हैं - उनका भार ईश्वर स्वयं ढोते हैं !] तुम पहले अपने आप में विश्वास करो, तब तुम ईश्वर में विश्वास करोगे। संसार का इतिहास छः श्रद्धालु मनुष्यों का, छः गम्भीर शुद्ध चरित्रवान मनुष्यों का इतिहास है। हमें तीन वस्तुओं (3H's)- की आवश्यकता है: अनुभव करने के लिये ह्रदय (Heart) की, कल्पना करने के लिये मस्तिष्क (Head) की, और काम करने के लिये हाथ (Hand) की।
" First we must go out of the world and make ourselves fit instruments." -- अर्थात पहले हमें अपने पारिवारिक जीवन से बाहर निकल कर, किसी जीवनमुक्त मार्गदर्शक नेता [ 'CINC' नवनीदा जैसे] के सानिध्य में कुछ दिनों के लिए गुरुगृहवास करते हुए अपने 3H's को विकसित कर स्वयं को 'माँ जगदम्बा का एक उपयुक्त यंत्र' (निमित्त मात्र) बना लेना चाहिए। अपने को एक 'डायनेमो' बनाओ। [Make yourself a dynamo.^ डायनमो - एक उपकरण जो विद्युत चुंबकत्व का उपयोग करके डायरेक्ट करंट 'विद्युत शक्ति' बनाता है। पहले हमें संसार से बाहर जाकर इसके लिये 'वसुधैव कुटुंबकम' के लिए अनासक्त (भ्रममुक्त) होकर महसूस करना सीखना होगा। स्वयं भ्रममुक्त होकर दूसरों को भ्रममुक्त होने में सहायता करने की पद्धति को सीखना होगा।] पहले संसार के लिए महसूस करना सीखो। ऐसे समय में जब संसार में सब मनुष्य (एक समाज-सुधारक के रूप में) काम करने को तैयार हैं, तो भावनाशील व्यक्ति कहाँ हैं ? वह अनुभूति कहाँ है, जिसने 'इग्नेशियस लॉयला' को उत्पन्न किया था? [तथा भ्रममुक्त और भावनाशील या हृदयवान मनुष्य का लिट्मस टेस्ट बतलाते हुए कहते हैं -] अपने प्रेम और विनम्रता की परीक्षा करो। ईर्ष्यालु व्यक्ति विनम्र और प्रेममय नहीं होता। ईर्ष्या एक भयंकर, भयावह पाप है; जो मनुष्य में रहस्मय तरीके से प्रवेश कर जाती है। अपने-आप से पूछो, तुम्हारा मन घृणा अथवा ईर्ष्या की प्रतिक्रिया करता है या नहीं ? संसार में जो टनों घृणा और क्रोध उड़ेला जा रहा है , उससे भले कार्यों का निरंतर विनाश (undone) हो रहा है। यदि तुम पवित्र हो ,यदि तुम साहसी और वीर हो , तो तुम -एक व्यक्ति होकर भी समस्त संसार के बराबर हो!" (३:२७१)
[" What the world wants is thought-power through individuals. My Master used to say, "Why don't you help your own lotus flower to bloom? The bees will then come of themselves." The world needs people who are mad with love of God. You must believe in yourself, and then you will believe in God. The history of the world is that of six men of faith, six men of deep pure character. We need to have three things (3H's); the heart to feel, the brain to conceive, the hand to work. "
First we must go out of the world and make ourselves fit instruments. Make yourself a dynamo. Feel first for the world. At a time when all men are ready to work (as a Reformer) , where is the man of feeling? Where is the feeling that produced an Ignatius Loyola? (सोसाइटी ऑफ जीसस के संस्थापक सेंट इग्नाटियस लोयोला) Test your love and humility. That man is not humble or loving who is jealous. Jealousy is a terrible, horrible sin; it enters a man so mysteriously. Ask yourself, does your mind react in hatred or jealousy? Good works are continually being undone by the tons of hatred and anger which are being poured out on the world. If you are pure, if you are strong, you, one man, are equal to the whole world. (Volume -6 , page 144- Lessons On Bhakti-Yoga, The Yoga Through Devotion/ On Doing Good to the World)
'श्रेयांसि बहुविघ्नानि' अच्छे कर्मों में कितने ही विघ्न आते हैं। —प्रलय मचाना ही होगा, इससे कम में किसी तरह नहीं चल सकता। कुछ परवाह नहीं। दुनीया भर में प्रलय मच जायेगा, वाह! गुरु की फतह! अरे भाई श्रेयांसि बहुविघ्नानि, उन्ही विघ्नों की रेल पेल में आदमी तैयार होता है। मिशनरी फिशनरी का काम थोडे ही है जो यह धक्का सम्हाले! ….बडे – बडे बह गये, अब गडरिये का काम है जो थाह ले? यह सब नहीं चलने का भैया, कोई चिन्ता न करना। सभी कामों में एक दल शत्रुता ठानता है; अपना काम करते जाओ किसी की बात का जवाब देने से क्या काम? सत्यमेव जयते नानृतं, सत्येनैव पन्था विततो देवयानः (सत्य की ही विजय होती है, मिथ्या की नहीं; सत्य के ही बल से देवयानमार्ग की गति मिलती है।) …धीरे – धीरे सब होगा।
मैं चाहता हूँ कि मेरे सब बच्चे, मैं जितना उन्नत बन सकता था, उससे सौगुना उन्नत बनें। तुम लोगों में से प्रत्येक को महान शक्तिशाली बनना होगा- मैं कहता हूँ, अवश्य बनना होगा। आज्ञा-पालन, ध्येय के प्रति अनुराग तथा ध्येय को कार्यरूप में परिणत करने के लिए सदा प्रस्तुत रहना — इन तीनों के रहने पर कोई भी तुम्हे अपने मार्ग से विचलित नहीं कर सकता।
वीरता से आगे बढो। एक दिन या एक साल में सिध्दि की आशा न रखो। उच्चतम आदर्श पर दृढ रहो। स्थिर रहो। स्वार्थपरता और ईर्ष्या से बचो। आज्ञा-पालन करो। सत्य, मनुष्य — जाति और अपने देश के पक्ष पर सदा के लिए अटल रहो, और तुम संसार को हिला दोगे। याद रखो — व्यक्ति और उसका जीवन ही शक्ति का स्रोत है, इसके सिवाय अन्य कुछ भी नहीं। इस तरह का दिन क्या कभी होगा कि परोपकार के लिए जान जायेगी? दुनिया बच्चों का खिलवाड नहीं है — बडे आदमी वो हैं जो अपने हृदय-रुधिर से दूसरों का रास्ता तैयार करते हैं- यही सदा से होता आया है — एक आदमी अपना शरीर-पात करके सेतु निर्माण करता है, और हज़ारों आदमी उसके ऊपर से नदी पार करते हैं। एवमस्तु एवमस्तु, शिवोsहम् शिवोsहम् (ऐसा ही हो, ऐसा ही हो- मैं ही शिव हूँ, मैं ही शिव हूँ।)
1897 में 'भारत का भविष्य' नामक व्याख्यान में स्वामीजी ने कहा था - “ कहीं गुलाम स्वामी बन सकता है ? इसलिए गुलाम बनना छोड़ो। आगामी पचास वर्ष लिए यह जननी जन्मभूमि भारतमाता माता ही मानो आराध्य देवी बन जाये। तब तक के लिए हमारे मस्तिष्क से व्यर्थ के देवी-देवताओं के हट जाने में कुछ हानि नहीं है। अपना सारा ध्यान इसी एक ईश्वर पर लगाओ , हमारा देश ही हमारा जाग्रत देवता है। सर्वत्र उसके हाथ हैं , सर्वत्र उसके पैर हैं और सर्वत्र उसके कान हैं। समझलो कि दूसरे देवी-देवता सो रहे हैं। जिन व्यर्थ के देवी-देवताओं को हम देख नहीं पाते , उनके पीछे तो हम बेकार दौड़ें और जिस विराट देवता को हम अपने चारों ओर देख रहे हैं, उसकी पूजा ही न करें ? जब हम इस प्रत्यक्ष देवता की पूजा कर लेंगे , तभी हम दूसरे देव-देवियों की पूजा करने योग्य होंगे , अन्यथा नहीं। " (५/१९३ )
["For the next fifty years this alone shall be our keynote - this, our great Mother India. Let all other vain gods disappear for the time from our minds. This is the only god that is awake, our own race - "everywhere his hands, everywhere his feet, everywhere his ears, he covers everything." All other gods are sleeping. What vain gods shall we go after and yet cannot worship the god that we see all round us, the Virât? When we have worshiped this, we shall be able to worship all other gods." (Vol-3/300)
और जैसे 1897 में विवेकानन्द ने कहा था 'अभी से अगले 50 वर्षों के लिए हमारा एक ही ध्येय होना चाहिए - हमारी महान भारत माता।” और ठीक पचास वर्ष बाद भारत को जैसे स्वतंत्रता मिल गई थी ! उसी प्रकार दादा ( नवनीदा) ने 2016 में कहा था महामण्डल के नेता को ऐसी शिविर -योजना बनानी चाहिए जिससे अभी से 50 वर्ष बाद - 2066 में सार्वभौमिक धर्म का नाम होगा - Be and Make !
🔆🙏 'कर्म एवं वाणी की एकरूपता~'Be and Make' द्वारा चरित्र गठन 🔆🙏
दादू पंथ : दादूपंथ के शिखर संतों का निर्धारण करना कोई सरल कार्य नहीं है। क्योंकि इस पंथ में विद्वान संतों की एक लंबी परंपरा है। जिनमें जगजीवनदास की वाणी, रज्जब वाणी , निश्चल दास आदि जैसे कई महत्वपूर्ण सन्त हैं। इन संतों ने लौकिक जीवन को या इस लोक को सुखमय बनाने का कोरा उपदेश मात्र ही नहीं दिया है। इन्होंने अपने 'कर्म एवं वाणी' (Be and Make) दोनों में सामंजस्य स्थापित किया है। यह आज के समय के संतों को भी आईना दिखाता है, जो संतई को ही धंधा बना लेते हैं। दादू संत-मत परम्परा में निश्चल दास जी का महत्वपूर्ण स्थान है। ये इस पंथ के बहुत ही विद्वान संत हैं। इन्होंने जनभाषा में वेदान्त को प्रस्तुत करने का महत्वपूर्ण कार्य किया। इस कारण से उस कालखंड में इनकी बहुत ख्याति थी। संसार के अन्य धर्मों की अपेक्षा सनातन धर्म (या वेदान्त) में एक भाव विशेष है। उस भाव को प्रकट करने में ऋषियों ने संस्कृत भाषा के प्रायः समग्र शब्द समूह को निःशेष कर डाला है। वह भाव यह है कि- "मनुष्य को इसी जन्म में ईश्वर प्राप्ति करनी होगी, और अद्वैत ग्रन्थ अत्यन्त प्रमाणयुक्त तर्क के साथ उसमें यह भी जोड़ देते हैं कि - " ब्रह्मविद ब्रह्मैव भवति "- 'To know God is to become God.' ~ ईश्वर को जानना ही ईश्वर हो जाना है। 'जानत तुम्हीं तुम्हीं ह्वै जाई' (अयोध्याकाण्ड।) स्वामी विवेकानन्द ने इनके ग्रंथ ‘विचार सागर’ के एक दोहे को उद्धरित करते हुए लिखा था -
" जो ब्रह्मविद् वही ब्रह्म ताको वाणी वेद।
संस्कृत और भाषा में करत भरम का छेद।।"
'जिसने ब्रह्म को जान लिया, वह ब्रह्म बन गया, उसकी वाणी वेद है, और उससे अज्ञान का अन्धकार दूर हट जायेगा। चाहे वह वाणी संस्कृत में हो या किसी लोक-भाषा में (राजस्थानी, पंजाबी गुरमुखी लिपि (ਗੁਰਮੁਖੀ ਲਿੱਪੀ), गुजराती,मगही-भोजपुरी या मैथली) में क्यों न हो !
‘रज्जबवाणी’ : इस परंपरा के एक अन्य महत्वपूर्ण संत रज्जब हैं। संत रज्जब मुसलमान थे। पठान थे। किसी युवती के प्रेम में थे। विवाह का दिन आ गया। बारात सजी। बारात चली। रज्जब घोड़े पर सवार। मौर बाँधा हुआ सिर पर। बाराती साथ है, बैंड बाजा है इत्र का छिड़काव है, फूलों की मालाएँ है। और बीच बाजार में अपनी ससुराल के करीब पहुंचने को ही थे। दस पाँच कदम शेष रह गये थे। प्रेयसी से मिलने जा रहे था। प्रेम तो तैयार था, जरा सा रूख बदलने भर की बात थी।यह मौका ठीक मौका है। लोहा जब गर्म हो तब चोट करनी चाहिए। एक तरह से देखो तो यह मौका एक दम ठीक था। कि अचानक घोड़े के पास एक आदमी आया उसका पहनाव बड़ा अजीब था। कोई फक्कड़ दिखाई दे रहा था। बारात के सामने आ कर खड़ा हो गया। और उसने गौर से रज्जब को देखा। आँख से आँख मिली। वे चार आंखें संयुक्त हो गयी। उस क्षण में क्रांति घटी। वह आदमी रज्जब के होने वाला गुरु थे—दादू दयाल जी। और जो कहा दादू दयाल जी ने वे शब्द बड़े अद्भुत है। उन छोटे से शब्दों में सारी क्रांति छिपी है। दादू दयाल ने भर आँख रज्जब की तरफ देखा, आँख मिली ओर दादू जी ने कहा—
"रज्जब तैं गज्जब किया, सिर पर बांधा मौर।
आया था हरी भजन कुं, करे नरक की ठौर।। "
बस इतनी सी बात। देर न लगी, रज्जब घोड़े से नीचे कूद पड़ा, मौर उतार कर फेंक दिया, दादू के पैर पकड़ लिए। और कहा कि चेता दिया समय पर चेता दिया.... और सदा के लिए दादू के हो गये छाया की तरह दादू दयाल के साथ रहे रज्जब, उनकी सेवा में !!वे चरण उसके लिए सब कुछ हो गये। उन चरणों में उसने सब पा लिया। अद्भुत प्रेमी रज्जब। राघवदास के ‘भक्तमाल’ में दादूदयाल के बावन शिष्यों की सूची दी गई है, उसमें तीसरी पंक्ति में रज्जब का नाम आता है। इससे पता चलता है कि ये इस पंथ के कितने महत्वपूर्ण संत हैं। इन्होंने संत दादूदयाल के पदों को संगृहीत करने का महत्वपूर्ण कार्य किया। इनकी पहली कृति ‘अंगबंधू’ या ‘अंगबंधी’ है, जो दादूदयाल की रचनाओं का संग्रह है। रज्जब की वाणियों का विशाल संग्रह ‘रज्जबवाणी’ है। इसका संग्रह करते समय रज्जब ने सगुण और निर्गुण कवियों का भेद नहीं किया है। इसमें सगुण कवियों के साथ-साथ संस्कृत तथा अन्य भाषा के कवियों को भी स्थान दिया गया है। रज्जब उस ईश्वर की उपासना करते हैं, जो अवतार नहीं लेता है। जो जन्म-मरण के बंधन से मुक्त है, वह निर्गुण और निराकार है। वे कहते हैं कि ईश्वर की उपासना चाहे जितने प्रकारों से की जाय, वे अंततः एक ही ब्रह्म के पास पहुँचती हैं।
जब दादू दयाल अंतर्धान हो गये। जब उन्होंने शरीर छोड़ा,तो तुम चकित हो जाओगे…..शिष्य हो तो ऐसा हो।रज्जब ने आँख बंद कर लीं। तो फिर कभी आँख नहीं खोली। दादू दयाल के मरने के बाद कई वर्षों तक रज्जब जिंदा रहे ; लेकिन कभी आँख नहीं खोली। लोगों ने लाख समझाया ये बात ठीक नहीं है। लोग कहते कि आंखे क्यों नहीं खोलते ? तो रज्जब कहते देखने योग्य जो था उसे देख लिया, अब देखने को क्या है ? जो दर्शनीय था, उसका दर्शन कर लिया। उन आंखें में पूर्णता का सौंदर्य देख लिया। अब देखने योग्य क्या है इस संसार में !
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।। गीता 7.7।।
[मत्तः – मुझसे परे; पर-तरम् – श्रेष्ठ; न – नहीं; अन्यत् किञ्चित् – अन्य कुछ भी; अस्ति – है; धनञ्जय – हे धन के विजेता; मयि – मुझमें; सर्वम् – सब कुछ; इदम् – यह जो हम देखते हैं; प्रोतम् – गुँथा हुआ; सूत्रे – धागों में; मणि-गणाः – मोतियों के दाने; इव – सदृश।]
हे धनंजय ! मेरे से परे - या बढ़कर (इस जगत् का) दूसरा कोई किचिन्मात्र भी कारण नहीं है। जैसे सूत की मणियाँ सूत के धागे में पिरोयी हुई होती हैं, ऐसे ही यह सम्पूर्ण जगत् मेरे में ही ओत-प्रोत है।
O conqueror of wealth, there is no truth superior to Me. Everything rests upon Me, as pearls are strung on a thread.
एक विज्ञान सहित ज्ञान कहते है : जैसे एक मोती की माला में मोती ( मणिका या बीड् -bead) के रंग-रूप (रंग और आकृति) अलग-अलग हो सकते हैं , पर उस माला में सूत धागा या सोने का तार भी पिरोया जा सकता है। उसी प्रकार सूत की माला में सूत के धागे से बनी सूत कि ही मणियाँ भी पिरोने के बाद अलग अलग दिखती है। लेकिन सूत (cotton-कॉटन) की माला में मनका (बीड् -bead) भी सूत (cotton या रुई) की बनी हुई होती है और धागा भी (cotton या रुई) का बना होता है। इस प्रकार सूत की माला (Garland of cotton yarn) में सूत (cotton) के अलावा कुछ भी नहीं। संसार में तरह तरह के सभी प्राणी पदार्थ दीखते अलग अलग हैं पर उनमें व्याप्त चेतन तत्व वास्तव में दिव्य चेतना ही है ! गीता अध्याय ७ का श्लोक ७ में भगवान कहते है कि संसार के अस्तित्व का मेरे सिवा कोई और कारण नहीं है। मै ही सबका मूल कारण हूं। मुझे जब जान लिया तो सब कुछ जान लिया।
वास्तव में आत्मा ही इस नौ द्वार वाले इस शरीर का मालिक है। दुःख-सुख सब शरीर के होते है, आत्मा कभी भी न तो दुखी होती है और न ही सुखी। आत्मा कोई कठपुतली नहीं है जो भगवान या प्रारब्ध के हाथों नाच रहि हो। जिंदगी किसी प्रकार का खेल नहीं है। भगवान हमें नहीं वाच कर रहा है। स्वयं हमारी आत्मा ही हम को निर्लिप्त भाव से देखती है।
चित्त (अन्तःकरण) जिसके वश में है, ऐसा सांख्य योग का आचरण करने वाला पुरुष न करता हुआ और न करवाता हुआ ही नवद्वारों वाले शरीर रूप घर में सब कर्मों को मन से त्यागकर आनंदपूर्वक सच्चिदानंदघन परमात्मा के स्वरूप में स्थित रहता है। तत्व को जानने वाला सांख्य-योगी तो देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूँघता हुआ, भोजन करता हुआ, गमन करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ तथा आँखों को खोलता और मूँदता हुआ भी, सब इन्द्रियाँ अपने-अपने अर्थों में बरत रही हैं- इस प्रकार समझकर निःसंदेह ऐसा मानें कि मैं कुछ भी नहीं करता हूँ। जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके और आसक्ति को त्याग कर कर्म करता है, वह पुरुष 'जल से कमल के पत्ते की भाँति' पाप से लिप्त नहीं होता।
ममत्व-बुद्धिरहित कर्मयोगी केवल इन्द्रिय, मन, बुद्धि और शरीर द्वारा भी आसक्ति को त्याग कर अन्तःकरण की शुद्धि के लिए कर्म करते हैं। कर्मयोगी कर्मों के फल का त्याग करके भगवत्प्राप्ति रूप शान्ति को प्राप्त होता है, और सकामपुरुष कामना की प्रेरणा से फल में आसक्त होकर बँध जाता है।
परमेश्वर मनुष्यों के न तो कर्तापन की, न कर्मों की और न कर्मफल के संयोग की रचना करते हैं, किन्तु स्वभाव ही बरत रहा है, गुण ही गुणों में बरत रहा है। सर्वव्यापी परमेश्वर भी न किसी के पाप कर्म को और न किसी के शुभकर्म को ही ग्रहण करता है, किन्तु अज्ञान (रज और तम के ) द्वारा ज्ञान (शुद्ध -सत्वस्वरूप आत्मा) ढँका हुआ है, उसी से सब अज्ञानी मनुष्य मोहित हो रहे हैं।
परन्तु जिनका वह अज्ञान , माँ जगदम्बा की कृपा से परमात्मा (अवतार वरिष्ठ) के तत्व ज्ञान द्वारा नष्ट कर दिया गया है, उनका वह ज्ञान सूर्य के सदृश उस सच्चिदानन्दघन परमात्मा को प्रकाशित कर देता है। जिनका मन तद्रूप हो रहा है, जिनकी बुद्धि तद्रूप हो रही है और सच्चिदानन्दघन परमात्मा (अवतार वरिष्ठ) में ही जिनकी निरंतर एकीभाव से स्थिति है, ऐसे तत्परायण पुरुष ज्ञान द्वारा पापरहित होकर अपुनरावृत्ति को अर्थात परमगति (जन्म-मरण बंधन से मुक्त) को प्राप्त होते हैं।
सभी मार्ग सत्य हैं : पंचेंद्रियों में फँसा हुआ जीव स्वभावतः द्वैतवादी होता है। जब तक हम पंचेंद्रियों में पड़े हैं, तबतक हम सगुण ईश्वर ही देख सकते हैं। रामानुज कहते हैं, ' जब तक तुम अपने को देह, मन या जीव (M /F ) सोचोगे तबतक तुम्हारे ज्ञान की हर क्रिया में जीव, जगत और इन दोनों के कारण स्वरुप ' वस्तुविशेष ' का बोध बना रहेगा। ' परन्तु मनुष्य के जीवन में ऐसा भी समय आता है, जब शरीर-ज्ञान बिल्कुल चला जाता है, जब मन भी क्रमशः सूक्ष्मानुसूक्ष्म होता हुआ आत्मा में लीन हो जाता है (मन मर जाता है), जब देहाध्यास में डाल देने वाली भावना, मृत्यु का डर और दुर्बलता सभी मिट जाते हैं। तभी -और केवल तभी उस प्राचीन महान उपदेश की सत्यता समझ में आती है. वह उपदेश क्या है?
इहैव तैर्जित: सर्गो येषां साम्ये स्थितं मन: ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्रा तस्माद् ब्रह्राणि ते स्थिता: ।। ( गीता ५/१९ )
जिनका मन समभाव में स्थित है, उनके द्वारा इस जीवित अवस्था में ही सम्पूर्ण संसार जीत लिया गया है, क्योंकि सच्चिदानन्दघन परमात्मा निर्दोष और सम है, इससे वे सच्चिदानन्दघन परमात्मा (ब्रह्म ) में ही स्थित हैं ।।19।।
'समदर्शनरूप पूर्णत्व' की अभिव्यक्ति कोई ऐसा दैवी आदर्श नहीं जिसकी प्राप्ति या अनुभूति देहत्याग के पश्चात् स्वर्ग नामक किसी लोक विशेष में होगी। गीता में हमें जगत् की ओर देखने के दो दृष्टिकोण मिलते हैं। एक है अपर अर्थात् कार्यरूप जगत् की दृष्टि से तथा दूसरा इससे भिन्न है पर अर्थात् कारण की दृष्टि से। जैसे मिट्टी की दृष्टि से उसमें विभिन्न रूप- रंग वाले घटों का सर्वथा अभाव होता है वैसे ही चैतन्यस्वरूप पुरुष में न विषयों का स्थूल जगत् है और न विचारों का सूक्ष्म जगत्। मुझसे अन्य किञ्चिन्मात्र वस्तु नहीं है। स्वप्न से जागने के बाद जाग्रत् पुरुष के लिये स्वप्न जगत् की कोई वस्तु दृष्टिगोचर नहीं होती।
हनुमान की एक निष्ठा : समदर्शनरूप पूर्णत्व कोई ऐसा दैवी आदर्श नहीं जिसकी प्राप्ति या अनुभूति देहत्याग के पश्चात् स्वर्ग नामक किसी लोक विशेष में होगी। दो तरह के लोग होते हैं - एक जो किसी देवता में अपनी श्रद्धा रखता है, और दूसरा जो निर्गुण निराकार ब्रह्म (के अवतार वरिष्ठ) में। श्रद्धा किसी में भी हो पर मन लगना ही चाहिए। तस्मात् सर्वेषु कालेषु माम अनुस्मार – हे पार्थ मुझे हर समय याद रख पता नहीं कब अंत समय आ जाये। दो तरह के लोग होते हैं - एक जो किसी देवता में अपनी श्रद्धा रखता है, और दूसरा जो निर्गुण निराकार ब्रह्म (के अवतार वरिष्ठ) में। श्रद्धा किसी में भी हो पर मन लगना ही चाहिए। तुलसीदास ने रामचरित मानस में – साकार रूप की प्रसंशा की...तुलसी मस्तक तब झुके जब धनुष बाण लो हाथ। अर्जुन ने भी गीता अध्याय ११ के ४६ वे श्लोक में - मैं वैसे ही आपको मुकुट धारण किए हुए तथा गदा और चक्र हाथ में लिए हुए देखना चाहता हूँ। इसलिए हे विश्वस्वरूप! हे सहस्रबाहो! आप उसी चतुर्भुज रूप से प्रकट होइए।
द्वैतवाद के अनुसार जीव-जगत और ईश्वर सभी एक दूसरे से पृथक हैं। ईश्वर प्रेमस्वरूप हैं, वे ही इस जगत की सृष्टि-कर्ता, पालन-कर्ता और संहार-कर्ता हैं। विशिष्टाद्वैत में यह माना जाता है कि अस्तित्व की प्रत्येक वस्तु चाहे वह कितनी भी क्षुद्र क्यों न हो, उस पूर्ण का अंश है जो पूर्ण है या ईश्वर है। अद्वैत दर्शन दृढ़ता से यह घोषित करता है कि केवल ब्रह्म या ईश्वर का ही अस्तित्व है। श्रीरामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द ने नवीन ढंग से इनकी व्याख्या करते हुए कहा - ये सभी मार्ग सत्य हैं क्योंकि एक ही सत्य को विभीन्न दृष्टिकोण से देखते हैं, तथा पहले अपने को दूसरों से बिल्कुल पृथक समझने का जो भ्रम हम सबों में विद्यमान था, उन्हें क्रमशः दूर करते हुए, ये सभी मत हमलोगों को विश्व के एकत्व को अनुभूत करने वाले एक ही लक्ष्य तक पहुंचा देने में समर्थ हैं। अज्ञान के कारण ही हमलोग जीव और जगत को ईश्वर से भिन्न देखते हैं।
समस्त जगत को ब्रह्मस्वरूप देखने की प्रेरणा देते हुए और अपने गुरुदेव द्वारा उद्धृत सूत्र ' दया नहीं सेवा ' की व्याख्या करते हुए विवेकानन्दजी कहते हैं- सभी जीवों पर दया करो, सबको अपने समान देखो। अपने को असाम्य रूप आदिम पाप से मुक्त करो। हम सब समान हैं और हमें यह न सोचना चाहिए, मैं महान हूँ और तुम बुरे हो इसलिए मैं तुम्हारे पुनरुद्धार का प्रयत्न कर रहा हूँ। ' साम्य-भाव ' में स्थित रहना मुक्त पुरुष का लक्षण है। केवल पापी ही पाप देखता है। मनुष्य को न देखो, केवल प्रभु को देखो। शरीर के बंधन से मुक्ति प्राप्त करो। देह-बुद्धि से आसक्त न होना और भविष्य में दूसरा शरीर धारण करने की वासना को त्याग देना। उनलोगों के शरीर से भी प्रेम न करो और न उनके शरीर की इच्छा करो, जो हमें प्रिय हैं। जब तक हम शरीर-बुद्धि से मुक्त होना नहीं सीख लेते, हमें उसे रखना ही होगा। हमें शरीर से तादाम्य भाव न रखना चाहिए, अपितु उसे केवल एक साधन के रूप में देखना चाहिए, जिसका उपयोग पूर्णता प्राप्त करने में किया जाता है। श्रीराम भक्त हनुमान जी ने इन शब्दों में अपने दर्शन का सारांश कहा -
देह्बुद्ध्या तु दासोअहं जीवबुद्ध्या त्वदंशकः।
आत्मबुद्ध्या त्वमेवाहं इति मे निश्चिता मतिः।।
मैं जब देह से अपना तादात्म्य करता हूँ तो मैं आपका दास हूँ, आपसे सदैव पृथक हूँ. जब मैं अपने को जीव समझता हूँ तो मैं उसी पूर्ण ब्रह्म या दिव्य प्रकाश की चिनगारी हूँ. जो कि तू है. किन्तु जब अपने को आत्मा से तदाकार करता हूँ तो मैं और तू एक हो ही जाते हैं. " (६/२६७-६८) तब भी इष्ट-निष्ठा विशेष रूप से आवश्यक है। भक्तश्रेष्ठ हनुमान ने कहा है-
श्रीनाथे जानकीनाथे अभेदः परमात्मनि।
तथापि मम सर्वस्वः रामः कमललोचनः।।
Hanumân says, “Even though there is no difference between the Lord of Lakshmi i.e. Lord Narayana, and the Lord of Janaki Sita, Sri Rama, both are same Supreme Personality in essence, neverthless the lotus-eyed Lord Sri Rama is my everything!”
"Vishnu and Râma, I know, are one and the same, but after all, the lotus-eyed Rama is my best treasure."
परमात्म-दृष्टि से श्रीनाथ विष्णु एवं जानकीनाथ राम में भेद नहीं है। तथापि कमलनयन राम ही मेरे सर्वस्व हैं। (श्रीरामनामसंकीर्तनम्) मैं जानता हूँ, जो परमात्मा लक्ष्मीपति हैं, वे ही जानकीपति हैं, तथापि कमललोचन श्रीराम ही मेरे सर्वस्व हैं ' (५/२४९)
उसी प्रकार ईसामसीह भी ईश्वर को कभी कभी अपना स्वर्गस्थ-पिता कहते हैं, फिर कभी कहते हैं ' स्वर्ग का राज्य तुम्हारे ह्रदय मे है. ' फिर वे भी कहते हैं- ' मैं और मेरा पिता एक हैं। {" जगत दो हैं जिनमें हम बसते हैं- एक बहिर्जगत और दूसरा अंतर्जगत। खोज पहले बहिर्जगत में ही शुरू हुई. परन्तु उससे भारतीय मन को तृप्ति नहीं हुई. अनुसंधान के लिये वह और आगे बढ़ा..खोज अन्तर्जगत में शुरू हुई, क्रमशः चारों ओर से यह प्रश्न उठने लगा- ' मृत्यु के पश्चात् मनुष्य का क्या हाल होता है?
अस्तीत्यैके नायमस्तीति चैके ' (कठ० उ० १/१/२०)
किसी किसी का कथन है कि मनुष्य की मृत्यु के बाद भी आत्मा का अस्तित्व रहता है, और कोई कोई कहते हैं कि नहीं रहता; हे यमराज ! इनमें कौन सा सत्य है ? समस्या के समाधान के लिये भारतीय मन ने अपने में ही गोता लगाया, तब यथार्थ उत्तर मिला. वेदों के इस भाग का नाम है उपनिषद या वेदान्त या आरण्यक या रहस्य ! यहाँ हम देखते हैं, उपनिषदों के वीर तथा साहसी महामना ऋषि निर्भय भाव से बिना समझौता किये ही मनुष्य जाति के लिये ऊँचे से ऊँचे तत्वों की घोषणा कर गये हैं, जो कभी भी प्रचारित नहीं हुए। श्रुतियों के ये सार्वभौम सत्य, वेदान्त के ये अपूर्व तत्व, अपनी ही महिमा से अचल, अजेय और अविनाशी बनकर आज भी विद्यमान है। हे हमारे देशवासियो, मैं उन्हीं को तुम्हारे आगे रखना चाहता हूँ।
पाश्चात्य बुद्धिजीवियों के पास इस तरह के प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं था कि- मनुष्य जीवन का उद्देश्य क्या है ? किसी मनुष्य को निःस्वार्थी क्यों बनना चाहिए तथा उसे कुछ पाने की आशा किये बिना ही दूसरों से प्रेम क्यों करना चाहिए ? स्वामीजी इसका अवलोकन करते हैं- " आधुनिक मनुष्य, चाहे लोगों के बीच जो कुछ भी क्यों न कहे, अपने हृदय के एकान्त में यह जानता है कि अब वह ' विश्वास ' नहीं कर सकता। कतिपय बातों में इसलिए विश्वास करना कि पुरोहितों की कोई संगठित संस्था (चर्च आदि) विश्वास करने के लिये कहती है, या ऐसा किसी ग्रंथ में लिखा है, या इसलिए विश्वास करना कि उसका समाज चाहता है- आधुनिक मनुष्य जानता है कि ऐसा कर पाना उसके लिये असम्भव है। कुछ लोग ऐसे अवश्य हैं, जो तथाकथित लोकप्रिय धर्म (दशहरा-होली-दिवाली ) से संतोष कर लेते हैं, किन्तु हम अच्छी तरह जानते हैं कि वे कुछ सोचते-विचारते नहीं हैं. उनकी ' आस्था ' की धारणा को ' चिन्तनशून्य प्रमाद ' ( not-thinking-carelessness ) ही कहना ठीक होगा। धर्म के इस प्रकार के प्रासाद के चूर चूर हुए बिना यह युद्ध और आगे नहीं चल सकता।
[साभार :https://www.aadinews.in/2021/11/Swami-vivekanand-nav-vedant-ke-sidhant-yuvawo-ke-prati-sandesh.html ]
सेमेटिक या यहूदी धर्मों में धर्म साधना और जीवन का लक्ष्य स्वर्गप्राप्ति ही बताया गया है। एक बुद्धिमान् एवं विचारशील पुरुष को स्वर्ग का आश्वासन एक आकर्षक माया जाल से अधिक कुछ प्रतीत नहीं होता। ऐसे अस्पष्ट और अज्ञात लक्ष्य की प्राप्ति के लिये बुद्धिमान् पुरुष को प्रोत्साहित नहीं किया जा सकता। उसमें उस लक्ष्य के प्रति न उत्साह होगा और न लगन। स्वर्ग प्राप्ति के आश्वासन के विपरीत यहाँ वेदान्त में स्पष्ट घोषणा की गयी है कि जीव का संसार यहीं पर समाप्त होकर वह अपने अनन्तस्वरूप का साक्षात् अनुभव कर सकता है। आत्मानुभूति का यह लक्ष्य मृत्यु के पश्चात् प्राप्य नहीं वरन् इसी जीवन में इसी देह में और इसी लोक में प्राप्त करने योग्य है।
भगवान् कहते हैं कि जिसने सर्ग (जन्मादिरूप संसार) को जीत लिया और जिसका मन समस्त परिस्थितिओं में समभाव में स्थित रहता है वह पुरुष निश्चय ही ब्रह्म में स्थित है। पतंजलि मुनि इसी बात को दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहते हैं कि योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः अर्थात् चित्तवृत्तियों के निरोध को योग कहते हैं। जहाँ मन की वृत्तियों का पूर्ण निरोध हुआ वहाँ मन का अस्तित्व ही समाप्त समझना चाहिए। मन ही वह उपाधि है जिसमें व्यक्त चैतन्य जीव या अहंकार के रूप में प्रकट होकर स्वयं को सम्पूर्ण जगत् से भिन्न मानता है। अतः मन (मिथ्या अहंकार) के नष्ट होने पर अहंकार और उसके संसार का भी नाश अवश्यंभावी है।
परम् -सत्य (आत्मा) सदैव नदी के तल के समान अपरिवर्तित रहता है जबकि उसका जल प्रवाह सदैव चंचल रहता है। अधिष्ठान सदा अविकारी रहता है परन्तु अध्यस्त (कल्पित) अथवा व्यक्त हुई सृष्टि का स्वभाव है नित्य परिवर्तनशीलता। जीव देहादि के साथ तादात्म्य करके इन परिवर्तनों का शिकार बन जाता है जबकि अधिष्ठानरूप आत्मा नित्य अपरिवर्तनशील और एक समान रहता है। जो व्यक्ति मनुष्य को विचलित कर देने वाली समस्त परिस्थितियों में अविचलित और समभाव रहता है उसने निश्चय ही अधिष्ठान में स्थिति प्राप्त कर ली है। समुद्र की लहरों पर बढ़ती हुई लकड़ी इतस्तत भटकती रह सकती है लेकिन दृढ़ चट्टानों पर निर्मित दीपस्तम्भ अविचल खड़ा रहता है। तूफान उसके चरणों से टकराकर अपना क्रोध शान्त करते हैं। इसलिए भगवान् का कथन युक्तियुक्त ही है कि समत्वभाव में स्थित पुरुष ब्रह्म में ही स्थित है।
समस्त नाम-रूपों में आत्मा के एकत्व को दर्शाने के लिये यहाँ भगवान् कहते हैं कि वे ही इस जगत् के अधिष्ठान हैं। वे सभी रूपों को इस प्रकार धारण करते हैं जैसे कण्ठहार (necklace) में एक ही सूत्र सभी मणियों को पिरोये रहता है। यह दृष्टांत अत्यन्त सारगर्भित है। कण्ठाभरण में समस्त मणियाँ एक समान होते हुये दर्शनीय भी होती हैं परन्तु वे समस्त छोटीबड़ी मणियाँ जिस एक सूत्र में पिरोयी होती हैं वह सूत्र हमें दृष्टिगोचर नहीं होता। तथापि उसके कारण ही वह माला शोभायमान होती है। इसी प्रकार मणिमोती जिस पदार्थ से बने होते हैं वह उससे भिन्न होता है जिस पदार्थ से सूत्र बना होता है। वैसे ही यह जगत् असंख्य नाम-रूपों की एक वैचित्र्य-पूर्ण सृष्टि है जिसे इस पूर्णरूप में एक पारमार्थिक सत्य आत्म-तत्त्व धारण किये रहता है। एक व्यक्ति विशेष में भी शरीर मन और बुद्धि परस्पर भिन्न होते हुये भी एक साथ कार्य करते हैं और समवेत रूप में जीवन का संगीत निसृत करते हैं। केवल यह आत्मतत्त्व ही इसका मूल कारण है।
समुद्र में असंख्य लहरें उठती हुई दिखाई देती हैं परन्तु वास्तव में वहाँ समुद्र के अतिरिक्त किसी का कोई अस्तित्व नहीं होता। उनकी उत्पत्ति स्थिति और लय स्थान समुद्र ही होता है। संक्षेप में कोई भी वस्तु अपने मूल स्वरूप का त्याग करके कदापि नहीं रह सकती है।
"समदर्शनरूप पूर्णत्व" (ईश्वर , परम् सत्य या इन्द्रियातीत सत्य) का अनुभव और अभिव्यक्ति आत्मरूप से होता है, न कि दृश्य रूप से। समदर्शन रूपी पूर्णता की अभिव्यक्ति कोई ऐसा दैवी आदर्श नहीं जिसकी प्राप्ति या अनुभूति देहत्याग के पश्चात् स्वर्ग नामक किसी लोक विशेष में होगी। अन्तर्मुखी होकर आत्म-विचार करना ही आत्मबोध तथा उसके साक्षात् अनुभव का साधन मार्ग है। आत्मानात्म-विवेक (शाश्वत-नश्वर विवेक, श्रेय-प्रेय विवेक) जनित बोध (विवेकज ज्ञान) ही साधक को दर्शायेगा कि किस प्रकार पारमर्थिक सत्य की दृष्टि से जड़ अनात्मा का आत्यन्तिक (सर्वथा) अभाव है। उदाहरण गीता के १३ अध्याय के श्लोक २ में भगवान कहते है - वह चेतन तत्व मै ही हूँ । मणि रूप अपरा प्रकृति भी और धागा रूपी परा प्रकृति भी।
जाग्रत पुरुष ही अपनी किसी एक विशेष मनस्थिति से स्वप्नद्रष्टा बन जाता है। और जब तक स्वप्न बना रहता है तब तक उस स्वप्नद्रष्टा के लिये वह अत्यन्त सत्य प्रतीत होता है। परन्तु जाग जाने पर उस स्वप्न का अभाव हो जाता है। और जाग्रत् पुरुष यह जानता है कि वह स्वप्न उसके ही मन का विभ्रम मात्र था। इसी प्रकार आत्मानुभूति की वास्तविक जागृति में इस दृश्य प्रपंच का अभाव होता है। साधक अपने आत्मस्वरूप से ही आत्मा का अनुभव करता है, जिसमें इस छायारूप जगत् का कोई अस्तित्व ही नहीं है। इस प्रकार वेदान्त दर्शन के अनुसार विचार करने पर ज्ञात होता है कि समस्त प्राणी दो तत्त्वों से बने हैं। एक तत्त्व है जड़,अचेतन और दूसरा है चेतन तत्त्व। प्रस्तुत श्लोक में इन दोनों को परिभाषित किया गया है।
यह शरीर क्षेत्र कहलाता है इस विज्ञान युग में यह समझना सरल है कि ऊर्जा (Energy शक्ति) को व्यक्त होने के लिए उपयुक्त क्षेत्र (Matter) की आवश्यकता होती है। तभी वह व्यक्त होकर मानव की सेवा कर सकती है। इंजन के बिना वाष्पशक्ति तथा पंखे के बिना विद्युत् शक्ति हमें क्रमश गति और मन्द समीर प्रदान नहीं कर सकती। इसी प्रकार जिन शरीर (Hand) -मन (Head) आदि उपाधियों के माध्यम से आत्म-चैतन्य (Heart ह्रदय) व्यक्त होता है उन्हें ही यहाँ क्षेत्र कहा गया है। इसको जो जानता है उसे क्षेत्रज्ञ कहते हैं यह क्षेत्र जड़ पदार्थों से बना हुआ है। तथापि, इसमें चैतन्य की अभिव्यक्ति होने से यह कार्य करता है और विषयों को जानता है।
वास्तव में यह चेतन तत्त्व जो इन उपाधियों से व्यक्त होकर विषयों को प्रकाशित कर रहा है वह क्षेत्रज्ञ है। शास्त्रीय भाषा में कहेंगे कि उपाधि से अवच्छिन्न चैतन्य ही क्षेत्रज्ञ अथवा जीव कहलाता है। जब तक जीव शरीर धारण किये रहता है, उसकी उपस्थिति जानने की प्रवृत्ति से स्पष्ट ज्ञात होती है। इस जिज्ञासा की प्रवृत्ति की मात्रा विभिन्न व्यक्तियों में विभिन्न तारतम्य में हो सकती है। परन्तु इसके व्यक्त होने को ही हम जीवन का लक्षण मानते हैं। प्राणी की विषय ग्रहण की तथा उनके प्रति अपनी प्रतिक्रियाओं को व्यक्त करने की क्षमता ही जीवन का व्यवहार है। और जब यह ज्ञाता शरीर का त्याग करके चला जाता है तब हम उस शरीर को मृत घोषित करते हैं। यह ज्ञाता ही क्षेत्रज्ञ है। तत्विद, ब्रह्मविद (तत्त्वज्ञ-जन), यहाँ साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण हमें आश्वस्त करते हैं कि क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ की ये परिभाषाएं उनकी स्वच्छन्द घोषणा नहीं हैं और न ही ये केवल परिकल्पित अनुमान है, अपितु स्वयं ब्रह्मनिष्ठ ऋषियों द्वारा ही ये प्रमाणित की गई हैं। संक्षेप में संपूर्ण जड़ जगत् (शरीर और मन) क्षेत्र है और चैतन्य स्वरूप आत्मा क्षेत्रज्ञ कहा जाता है।
अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि।।7.23।।
[अन्त-वत् – नाशवान; तु – लेकिन; फलम् – फल; तेषाम् – उनका; भवति – होता है; अल्प-मेधसाम् – अल्पज्ञों का; देवान् – देवताओं के पास; देव-यजः – देवताओं को पूजने वाले; यान्ति – जाते हैं; मत् – मेरे; भक्ताः – भक्तगण; यान्ति – जाते हैं; माम् – मेरे पास; अपि – भी]
But temporary is the fruit gained by these men of small minds. The worshippers of the gods go to gods but my devotees come to Me.
परन्तु उन अल्प बुद्धिवाले मनुष्यों को उन देवताओं (साईं बाबा टाइप) की आराधना का फल अन्तवाला (नाशवान्) ही मिलता है। देवताओं का पूजन करने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त - (परम् सत्य के खोजी) चाहे जैसे ही भजें, अन्त में वे मुझको ही प्राप्त होते हैं।
कामना से किये गए कर्म काण्ड सिमित फल देते है। सबसे उत्तम है बिना इच्छा के मात्र परमात्मा को याद करना। सभी ख्वाइश परमात्मा के आशीष से पूरी हो जाती है। भौतिक सुख - मिलना उतना ही है जितना कर्मफल के अनुसार होता है। इसलिए बस परमात्मा में मन लगा रहना चाहिए। कामिनी -कांचन की आकांक्षा से विभिन्न (साईं बाबा टाइप) देवताओं की पूजा करने से, यहाँ जो भी कुछ मिलता है नाशवान होता है (अन्तवत)। पर ये छोटी बुद्धि वाले समझ नहीं पाते। जो देवों को पूजेंगे वे देवों को प्राप्त होंगे जो मुझे यानि भगवान (अवतार वरिष्ठ) को पूजेंगे वे मुझे ही प्राप्त होंगे। फिर मोक्ष ही होगा। देवेताओं से सम्बन्ध कर्म के अनुसार हैं। जैसी कामना होगी वैसा फल मिलेगा पर अंत में तो फिरसे जन्म-मरण की पारी खेलनी होगी। सकाम-कर्म का आश्रय लेने वाले और भोगों की कामना वाले पुरुष बार-बार आवागमन को प्राप्त होते हैं, अर्थात् पुण्य के प्रभाव से स्वर्ग में जाते हैं और पुण्य क्षीण होने पर मृत्युलोक में आते हैं।
" इस मानव शरीर (देह -Hand) का निर्माण तीन प्रकार के उपादानों से हुआ है - गुणों से नहीं। साधारण मनुष्यों की यह धारणा है कि सत्व , रज और तम तीनों गुण हैं ; परन्तु वास्तव में वे गुण नहीं , वे संसार के उपादान कारण स्वरुप हैं। और आहार शुद्ध होने पर यह सत्त्व-पदार्थ (जीवात्मा) निर्मल हो जाता है। वेदान्त के मतानुसार जीवात्मा पूर्ण और शुद्ध स्वरुप है, परन्तु वह रज और तम दो पदार्थों से ढँका हुआ है। यदि रज और तम पदार्थ दूर हो जायें तो केवल सत्त्व रह जायेगा और आत्मा की शक्ति और पवित्रता प्रकाशित हो जाएगी तथा वह अपने को पहले अधिक व्यक्त कर सकेगी। अतः यह सत्तत्व प्राप्त करना बहुत आवश्यक है। और श्रुति कहती है - 'आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धि सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः।' — जब आहार शुद्ध होता है, तब सत्त्व भी शुद्ध हो जाता है। और सत्त्व शुद्ध होने पर स्मृति अर्थात ईश्वर-स्मरण (अवतार वरिष्ठ का स्मरण) — और यदि तुम अद्वैतवादी हो तब अपने आत्मस्वरूप (सच्चिदानन्द स्वरुप) की स्मृति — ध्रुव (truer), अचल और अटल (absolute-अविनाशी) हो जाती है। " [सर्वांग वेदान्त ५/२२९]
[The body (Hand) is composed of three sorts of materials — not qualities. It is the general idea that Sattva, Rajas, and Tamas are qualities. Not at all, not qualities but the materials of this universe, and with Âhâra- shuddhi, when the food is pure, the Sattva material (जीवात्मा) becomes pure. According to the Vedanta, the soul is already pure and perfect, and it is, covered up by Rajas and Tamas particles. So if the Rajas and Tamas particles go, and leave the Sattva particles, in this state the power and purity of the soul will appear, and leave the soul more manifest. Therefore it is necessary to have this Sattva. And the text (श्रुति) says, "आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धि सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः". "When the food is pure, then the Sattva becomes pure; when the Sattva is pure, then the Smriti" — the memory of the Lord, or the memory of our own perfection — if you are an Advaitist — "becomes truer, steadier, and absolute".]
वेदांत दर्शन उपनिषद् पर आधारित है तथा इसमें उपनिषद् की व्याख्या की गई है। वेदांत में संसार से मुक्ति के लिये त्याग के स्थान पर ज्ञान के पथ को आवश्यक माना गया है और ज्ञान का अंतिम उद्देश्य संसार से मुक्ति के माध्यम से मोक्ष की प्राप्ति है। वेदांत दर्शन में ब्रह्म की अवधारणा पर बल दिया गया है, जो उपनिषद् का केंद्रीय तत्त्व है। इसमें वेद को प्राचीन ऋषियों द्वारा आविष्कृत ज्ञान का परम स्रोत माना गया है, जिस पर प्रश्न खड़ा नहीं किया जा सकता। " उपनिषद अवतारों या महापुरुषों की उपासना के विरोधी नहीं हैं , बल्कि उनका समर्थन करते हैं। किन्तु साथ ही वे सम्पूर्ण रूप से व्यक्ति निरपेक्ष हैं।" [ It has nothing to say against the worship of persons, or Avataras , or sages. On the other hand, it is always upholding it. At the same time, it is perfectly impersonal.सर्वांग वेदान्त १/२२४]
किसी भक्त ने एक बार श्रीरामकृष्ण परमहंस से पूछा, "गीता का सार क्या है?" श्रीरामकृष्ण ने कहा, "तुम इस शब्द "गीता" को दस बार लगातार बोलो और तुम्हें गीता का सार मिल जाएगा।" ऐसा करने पर "गीता" बन गया "तागी" (बंग्ला का त्यागी) - अर्थात "मै" यानि "अहं" का त्याग। बहुत बेहतरीन तरीके से श्रीरामकृष्ण ने गीता का निचोड़ बता दिया, बस एक सीधे और सरल शब्द में। गीता एक व्यवहारिक पुस्तक है।इसे अपने दैनंदिन जीवन में उतारने की जरुरत है, न कि इसे पूजने की या एक तोते की तरह उसे रटने की। दुर्भाग्यवश, अब की पीढ़ी इस पुस्तक से दूर होती जा रही है, और इस वजह से इसमें निहित ज्ञान भी उनसे दूर होता जा रहा है।
वर्ष 1897 में विवेकानंद ने अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु के पश्चात् रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। इस मिशन ने भारत में शिक्षा और लोकोपकारी कार्यों जैसे- आपदाओं में सहायता, चिकित्सा सुविधा, प्राथमिक और उच्च शिक्षा तथा जनजातियों के कल्याण पर बल दिया।
वेदांत दर्शन (अद्वैत-दर्शन को ही इस्लाम में तौहीद कहते हैं): प्राचीन काल में वेदान्त को भी सांख्य ही कहते थे । साँख्य योग का यही सार सिद्धान्त है - उसमें जीव और ब्रह्म का भेद नहीं है। जैसे सूत की माला होती है । उसमें सूत की ही मणियाँ होती हैं और सूत का ही धागा होता है। वैसे ही जीव भी चेतन रूप है और ब्रह्म ही चेतन रूप है । दोनों में कोई भेद नहीं है । अत: वेदान्त रूप साँख्य का ही सार मत बतलाते हुए एक " विज्ञान सहित ज्ञान" कहते है। सूत के धागे से बनी सूत कि ही मणियाँ पिरोने के बाद अलग अलग दिखाती है। एक रूद्राक्ष की माला या मोती की माला में मोती अलग रुद्राक्ष के दाने अलग हो सक हैं पर धागा या सोने का तार तो उनमें पिरोया जाता है। सूत कॉटन की माला में बीड् भी सूत की और धागा भी। इस प्रकार माला में सूत के अलावा कुछ भी नहीं। संसार में तरह तरह के सभी प्राणी पदार्थ दीखते अलग अलग हैं पर उनमें व्याप्त चेतन तत्व वास्तव में दिव्य चेतना ही है।
जन रज्जब यहु सांख्य मत, जीव सिव न विभाग ।
जैसे माला सूत की, सोइ मणियाँ सोइ ताग ॥
।।रज्जब वाणी-१॥
जितने जीव हैं उतने ही (अव्यक्त) शिव हैं। जो बंधन मे है, वह जीव है, जो बंधन मुक्त है,वह शिव है ! अत: जीवों की सेवा करना -- अर्थात स्वयं मन की गुलामी से मुक्त होकर उन्हें बन्धन मुक्त होने में सहायता करना - 'Be and Make ' आंदोलन के प्रचार -प्रसार में लगे रहना ही शिव की पूजा है।
साँख्य योग तौहीद में, एकै जाण्या जाये ।
ज्यों रज्जब इक टंग अंग ^* , दूजा नांही पाय ॥रज्जब वाणी-२॥
साँख्य योग और मुसलमानों के तौहिद (अभेदवाद) से एक अद्वैत ब्रह्म ही सत्य जानने में आता है । जैसे एक पैर वाले प्राणी के शरीर के दूसरा पैर नहीं होता, वैसे ही अद्वैत ब्रह्म में कोई भेद नहीं होता ।[इक टंग अंग ^*एक पैर के प्राणी* (One Legged Creature) ]
विवेकानन्द के भाषण और लेखन में एक निरंतरता थी जो थी ‘अभय’- निडर रहो, मजबूत बनो। उनके लिए मनुष्य कोई दुखी, पापी नहीं था, बल्कि देवत्व का एक हिस्सा था, उसे किसी भी चीज से क्यों डरना चाहिए?’ अगर दुनिया में कोई पाप है तो वह कमजोरी है, सभी कमजोरी से बचें, कमजोरी पाप है, कमजोरी मृत्यु है।’ यही महान सबक उपनिषद में भी है।
त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोऽस्येहाभवत्पुनः ।
ततो विष्वङ् व्यक्रामत्साशनानशने अभि ।।4।।॥
॥पुरुष-सूक्तम् ॥
त्रिऽपात् । ऊर्ध्व । उत् । ऐत् । पुरुषः । पादः । अस्य । इह । अभवत् । पुनरिति । ततः । विष्वङ् । वि । अक्रामत् । साशनानशने इति । अभि ॥
Meaning: The Three Parts of the Purusha is High Above (in Transcendental Realm), and His One Part becomes the Creation again and again. There, in the Creation, He pervades all the Living ( who eats ) and the Non-Living ( who does not eat ) beings.
भावार्थ - ( त्रिपात् ऊर्ध्व पुरुषः) ‘त्रिपाद पुरुष संसाररहित ब्रह्मस्वरूप है। तीन चरण वाला, जो पूर्व अमृत स्वरूप कहा है, वह (ऊर्ध्वः) सब से ऊपर ( इन्द्रियातीत या उत् ऐव) सर्वोत्तम रूप से जाना जाता है, (अस्य पादः पुनः इह अभवत्) इसका व्यक्त स्वरूप- एकचरणवत्' जो किंचित मात्र अंश माया में हैं वही यहां जगत के रूप से पुन: -पुन: सृष्टि – संहार के रूप में आता – जाता रहता है। (ततः) वह व्यापक प्रभु ही (विश्वः वि अक्रम) सर्वत्र व्यापता है। (स:अशन-अनशने अभि) जो ‘अशन' अर्थात् चेतन - जो भोजन करने के व्यापार से युक्त सभोजन प्राणिगण और 'अनशन' अर्थात निर्भोजन या जो भोजन न करने वाले अचेतन , जड़ पदार्थ हैं सब में वही विद्यमान है। - अर्थात पूर्ण पुरुष परमात्मा अमृतरूप त्रिपाद इस संसार से ऊपर (इन्द्रियातीत) है, यह संसाररूप पाद ही [ब्रह्म का मायिक अंश ही] पुनः-पुनः उत्पन्न होता है। यह [संसाररूप पाद] ब्रह्म का मायिक अंश ही देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी आदि विविध रूपों में व्याप्त है। इसके अन्दर भोजन करने वाले जीव और भोजन न करने वाले जड़ के अन्दर परमात्मा व्याप रहा है। वही सभोजन प्राणी है और निर्भोजन जड़ है। सारी विविधता इस चतुर्थाश की ही है॥४ ॥’
अतः हमें ऐसा समझ लेना चाहिये कि हम जो कुछ खाने वाले हैं, वास्तव में उसे भगवान को ही खिलाने वाले हैं - वैश्वानर अग्नि में हवन करने वाले हैं। होम करते समय जैसे हविष्य का हवन करते हैं, उसी प्रकार भोजन का ग्रास मुख में रखते हुए (मोबाईल देखते हुए , DJ- सुनते समय) भावना करो कि 'यह हविष्य है एवं पेट में स्थित जठराग्नि में इसका हवन कर रहा हूँ।' ऐसा करने से आपका वह भोजन हवनरूप धर्म बन जायेगा।
ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् ।
ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ॥
गीता ४/२४ ॥
(जिस यज्ञमें) अर्पण ब्रह्म है, हवन-द्रव्य भी ब्रह्म है, तथा ब्रह्मरूप कर्ताके द्वारा ब्रह्मरूप अग्निमें आहुति देनेकी क्रिया भी ब्रह्मरुप है- उस ब्रह्मकर्मरुप समाधि द्वारा प्राप्त किये जाने योग्य फल भी ब्रह्म ही है ।"
भक्ति एक ऐसा शब्द है, जिसके बारे में अभी भी कई भ्रांतियां बनी हुई है। किसी भी प्रकार की पूजा-पाठ और कर्म-कांड को भक्ति की श्रेणी में रख दिया जाता है, जो कि नितांत ही अनुचित है। परमात्मा की भक्ति और परमात्मा के लिए किये जा रहे कर्म-कांड तथा पूजा-अर्चना में मौलिक रूप से बहुत अंतर है। केवल मात्रात्मक ही नहीं, गुणात्मक अंतर भी है। आज के इस भौतिक युग में ईश्वर की पूजा उपासना भी दिखावा बनती जा रही है।
विवेकानन्द 'भारत का भविष्य ' नामक व्याख्यान में कहते हैं - " जिसे देखो वही योगी बनने की धुन में है , जिसे देखो वही समाधि लगाने जा रहा है। ऐसा नहीं होने का। दिन भर तो दुनिया के सैंकड़ों प्रपंचों में लिप्त रहोगे , कर्मकाण्ड में व्यस्त रहोगे और शाम को आंख मूंदकर , नाक दबाकर साँस चढ़ाओगे -उतारोगे ? क्या योग की समाधि को इतना सहज समझ रखा है कि ऋषि लोग, तुम्हारे तीन बार नाक फड़फड़ाने और साँस चढ़ाने से हवा में घुलकर तुम्हारे पेट में प्रविष्ट हो जायेंगे ? क्या इसे (3H विकास के मनःसंयोग आदि 5 अभ्यास को) तुमने कोई हँसी मजाक मान लिया है ? ये सब विचार वाहियात हैं। जिस विचार को ग्रहण करने की आवश्यकता है,वह है चित्तशुद्धि। और उसकी प्राप्ति कैसे होती है ? इसका उत्तर यह है कि पहले उस विराट की पूजा करो, जिसे तुम अपने चारों ओर देख रहे हो - 'उसकी ' पूजा करो। 'वर्शिप ' ही इस संस्कृत शब्द का ठीक समानार्थक है, अंग्रेजी के किसी अन्य शब्द (social service आदि) से काम नहीं चलेगा। ये मनुष्य और पशु , जिन्हें हम आस-पास और आगे-पीछे देख रहे हैं, ये ही हमारे ईश्वर हैं। इनमें सबसे पहले पूज्य हैं हमारे अपने देशवासी। परस्पर ईर्ष्या-द्वेष करने और झगड़ने के बाजए हमें उनकी पूजा करनी चाहिए। हमने अतीत में जो अपराध किया था (शूद्र जाति को वहारित्र-निर्माण की शिक्षा से ब्राह्मण में रूपांतरित होने का अधिकार छीन कर अछूत बना दिया था ),उसीका फल अभी भोग रहे हैं -गुलामी का कष्ट झेल रहे हैं। फिर भी हमारी ऑंखें नहीं खुलती। (५/१९४)
विराट की पूजा करने की पद्धति का विवरण श्रीमद्भागवत महापुराण में कपिल देव के अपनी माता को दिए गए ज्ञान में मिलता है। भगवान विष्णु ने प्रजापति कर्दम की पत्नी देवहूति के गर्भ से जन्म लिया, उनका नाम कपिलदेव हुआ, जिन्हें कपिल मुनि भी कहा जाता है। कपिल मुनि ने सांख्यशास्त्र का जो उपदेश दिया था वह हिन्दू धर्म व आध्यात्मिक जगत में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। किन्तु कपिल देव ने अपनी माता के अनुरोध पर 'भक्ति का मर्म ' विषय पर जो कुछ कहा था, उसकी प्रमुख बातें यहाँ प्रासंगिक हैं -
यथा वातरथो घ्राणमावृङ्क्ते गन्ध आशयात् ।
एवं योगरतं चेत आत्मानमविकारि यत् ॥
(श्रीमद्भागवत ३.२९.२०)
जिस प्रकार वायु के द्वारा उडकर जानेवाला गन्ध अपने आश्रय पुष्प से ध्राणेन्द्रिय तक पहुंच जाता है,उसी प्रकार भक्ति योग में तत्पर और रागद्वेषादि विकारों से शून्य चित्त परमात्मा को प्राप्त कर लेता है।
[ yathā—as; vāta—of air; rathaḥ—the chariot; ghrāṇam—sense of smell; āvṛṅkte—catches; gandhaḥ—aroma; āśayāt—from the source; evam—similarly; yoga-ratam—engaged in devotional service; cetaḥ—consciousness; ātmānam—the Supreme Soul; avikāri—unchanging; yat—which. ]Translation :As the chariot of air carries an aroma from its source and immediately catches the sense of smell, similarly, one who constantly engages in devotional service, in Kṛṣṇa consciousness, can catch the Supreme Soul, who is equally present everywhere.
अहं सर्वेषु भूतेषु भूतात्मावस्थितः सदा ।
तमवज्ञाय मां मर्त्यः कुरुतेऽर्चाविडम्बनम् ॥२१॥
मैं आत्मा रुप से सदा सभी जीवों में स्थित हूँ;इसलिए जो लोग मुझ सर्वभूतस्थित परमात्मा का अनादर करके केवल प्रतिमा में ही मेरा पूजन करते हैं, उनकी वह पूजा स्वांगमात्र है।
aham—I; sarveṣu—in all; bhūteṣu—living entities; bhūta-ātmā—the Supersoul in all beings; avasthitaḥ—situated; sadā—always; tam—that Supersoul; avajñāya—disregarding; mām—Me; martyaḥ—a mortal man; kurute—performs; arcā—of worship of the Deity; viḍambanam—imitation.
Translation
I am present in every living entity as the Supersoul. If someone neglects or disregards that Supersoul everywhere and engages himself in the worship of the Deity in the temple, that is simply imitation.
यो मां सर्वेषु भूतेषु सन्तमात्मानमीश्वरम् ।
हित्वार्चां भजते मौढ्याद्भस्मन्येव जुहोति सः ॥२२॥
मैं सबका आत्मा, परमेश्वर सभी भूतों में स्थित हूँ; ऐसी दशा में जो मोहवश मेरी उपेक्षा करके केवल प्रतिमा के पूजन में ही लगा रहता है, वह तो मानो भस्म में ही हवन करता है। कण-कण में रहने वाले मुझ परमात्मा को जिसने सबमें नहीं देखा, उस व्यक्ति की मूर्ति पूजा में भी मैं उसे मिलने वाला नहीं, माता उसकी मूर्ति पूजा भी तो ऐसे ही है जैसे राख में किया गया हवन्।
yaḥ—one who; mām—Me; sarveṣu—in all; bhūteṣu—living entities; santam—being present; ātmānam—the Paramātmā; īśvaram—the Supreme Lord; hitvā—disregarding; arcām—the Deity; bhajate—worships; mauḍhyāt—because of ignorance; bhasmani—into ashes; eva—only; juhoti—offers oblations; saḥ—he.
Translation
One who worships the Deity of Godhead in the temples but does not know that the Supreme Lord, as Paramātmā, is situated in every living entity’s heart, must be in ignorance and is compared to one who offers oblations into ashes
द्विषतः परकाये मां मानिनो भिन्नदर्शिनः ।
भूतेषु बद्धवैरस्य न मनः शान्तिमृच्छति ॥२३॥
जो भेददर्शी व अभिमानी पुरुष दूसरे जीवों के साथ वैर बाँधता है और इस प्रकार उनके शरीर में विद्यमान मुझ आत्मा से ही द्वेष करता है, उसके मन को कभी शांति नहीं मिल सकती।
dviṣataḥ—of one who is envious; para-kāye—towards the body of another; mām—unto Me; māninaḥ—offering respect; bhinna-darśinaḥ—of a separatist; bhūteṣu—towards living entities; baddha-vairasya—of one who is inimical; na—not; manaḥ—the mind; śāntim—peace; ṛcchati—attains.
Translation
One who offers Me respect but is envious of the bodies of others and is therefore a separatist never attains peace of mind, because of his inimical behavior towards other living entities.
अहमुच्चावचैर्द्रव्यैः क्रिययोत्पन्नयानघे ।
नैव तुष्येऽर्चितोऽर्चायां भूतग्रामावमानिनः ॥२४॥
जो दूसरे जीवों का अपमान करता है , वह बहुत ही घटिया बढिया सामग्रियों से अनेक प्रकार के विधि विधान के साथ मेरी मूर्ति का पूजन भी करे तो भी मैं उससे प्रसन्न नहीं हो सकता।
aham—I; ucca-avacaiḥ—with various; dravyaiḥ—paraphernalia; kriyayā—by religious rituals; utpannayā—accomplished; anaghe—O sinless mother; na—not; eva—certainly; tuṣye—am pleased; arcitaḥ—worshiped; arcāyām—in the Deity form; bhūta-grāma—to other living entities; avamāninaḥ—with those who are disrespectful.
Translation
My dear Mother, even if he worships with proper rituals and paraphernalia, a person who is ignorant of My presence in all living entities never pleases Me by the worship of My Deities in the temple.
अर्चादावर्चयेत्तावदीश्वरं मां स्वकर्मकृत् ।
यावन्न वेद स्वहृदि सर्वभूतेष्ववस्थितम् ॥२५॥
मनुष्य अपने धर्म का अनुष्ठान करता हुआ तब तक मुझ ईश्वर की प्रतिमा आदि में पूजा करता रहे, जब तक उसे अपने हृदय में एवं सम्पूर्ण प्राणियों में स्थित परमात्मा का अनुभव न हो जाए।
[arcā-ādau—beginning with worship of the Deity; arcayet—one should worship; tāvat—so long; īśvaram—the Supreme Personality of Godhead; mām—Me; sva—his own; karma—prescribed duties; kṛt—performing; yāvat—as long as; na—not; veda—he realizes; sva-hṛdi—in his own heart; sarva-bhūteṣu—in all living entities; avasthitam—situated.]
Translation :Performing his prescribed duties, one should worship the Deity of the Supreme Personality of Godhead until one realizes My presence in his own heart and in the hearts of other living entities as well
अथ मां सर्वभूतेषु भूतात्मानं कृतालयम् ।
अर्हयेद्दानमानाभ्यां मैत्र्याभिन्नेन चक्षुषा ॥
(श्रीमद्भागवत ३.२९. २७)
अतः सम्पूर्ण प्राणियों के भीतर घर बनाकर उन प्राणियों के ही रुप में स्थित मुझ परमात्मा का यथायोग्य दान, मान,मित्रता के व्यवहार तथा समदृष्टि के द्वारा पूजन करना चाहिए।
[atha — therefore; mām — Me; sarva-bhūteṣu — in all creatures; bhūta-ātmānam — the Self in all beings; kṛta-ālayam — abiding; arhayet — one should propitiate; dāna-mānābhyām — through charity and respect; maitryā — through friendship; abhinnena — equal; cakṣuṣā — by viewing. Srimad Bhagvat 3.29.27. ॥]
“Having known that I have housed My Self in the living beings, one should see them as friends and soulmates, and help them with what is necessary to them (Daan - दान), with respect and love (Maan - मान)”. Serving others like this is also the only way to worship God. Therefore, through charitable gifts and attention, as well as through friendly behavior and by viewing all to be alike, one should propitiate Me, who abide in all creatures as their very Self.
सिस्टर निवेदिता को (7th June, 1896. ) लिखे पत्र में विवेकानन्द कहते हैं - "संसार के सारे धर्म प्राणहीन उपहास की वस्तु हो गये हैं, आज जगत को जिस वस्तु की आवश्यकता है वह है - चरित्र ! संसार को ऐसे लोग चाहिये जिनका अपना जीवन स्वार्थहीन ज्वलन्त प्रेम का उदाहरण हो। वह प्रेम उनके एक एक शब्द को बज्र के समान प्रभावकारी बना देगा।"
स्वामी विवेकानंद ने हम सब से आह्वान करते हुए कहा है- "जब सैकड़ों हजारों नर-नारी पवित्रता की अग्नि से पूर्णेश्वर में अविचल विश्वास से युक्त और हृदय में सिंह का साहस लिए गरीब और पददलितों के प्रति सहानुभूति रखते हुए भारत के कोने-कोने में मुक्ति, सहयोग, सामाजिक उत्थान और समानता का संदेश देते हुए विचरण करेंगे तब भारत विश्व गुरु बनेगा ।
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[mera blog : शनिवार, 21 जनवरी 2012/ मानव जीवन का उद्देश्य- भारत को पुनर्जीवित करने के लिए 'Be and Make' !! (The goal of human life-Rejuvenate India!) : " युवा -महामण्डल के आविर्भूत होने की पृष्ठभूमि " [The speech delivered by Nabani-da on 30 Dec 2011/ 30 दिसम्बर 2011 को महामण्डल के अध्यक्ष श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय द्वारा, वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में प्रदत्त भाषण : " The Goal of Human Life" ( The speech delivered by Nabani-da on 30 Dec 2011 at our last annual camp. ]
['स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर 'Be and Make' वेदांत शिक्षक-प्रशिक्षण परंपरा' : में अपनी शारीरिक , मानसिक और आत्मिक शक्तियों [3H's] के विकास को 5 अभ्यास (1 प्रार्थना, 2 'मनःसंयोग ' -अर्थात मन को इच्छामात्र से प्रयोजनीय विषयों में लगाना और हटाना, 3 व्यायाम, 4 . चरित्र-के 24 गुणों का अर्जन एवं 5. विवेक से जुड़ा आत्म-मूल्यांकन) द्वारा प्रबन्धित करना सीखें और अपने आस-पास के सभी लोगों को प्रेरित करें।] और 1967 में 'C-IN-C' श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय के नेतृत्व में स्थापित 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ' विगत 55 वर्षों से ' स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर 'Be and Make' वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा ' में 'छः दिवसीय वार्षिक युवा-प्रशिक्षण शिविर ' आयोजित करता चला आ रहा है। इस शिविर में नयी पीढ़ी के युवाओं को -पुरानी पीढ़ी के गुरु-शिष्य परम्परा में प्रशिक्षित जीवनमुक्त शिक्षकों ( या C-IN-C का चपरास प्राप्त चिर-युवा पूज्य नवनीदा जैसे आचार्यों, जो पूर्वजन्म में स्वयं कैप्टन सेवियर थे) के सानिध्य में रहकर 3'H's -विकास के 5 अभ्यास [प्रार्थना, 'मनःसंयोग ' -अर्थात मन को इच्छामात्र से प्रयोजनीय विषयों में लगाना और हटाना, व्यायाम , चरित्र-के 24 गुणों का अर्जन, और विवेक से जुड़ा आत्म-मूल्यांकन] का प्रशिक्षण दिया जाता है। हम कह सकते हैं कि महामण्डल एक ऐसे सांस्कृतिक प्राथमिक विद्यालय के रूप में कार्य करता है जहाँ, इस 'मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी आन्दोलन' ~ 'Be and Make' से जुड़े युवाओं को अपनी शारीरिक , मानसिक और आत्मिक शक्तियों [3H's] को विकसित कर चरित्रवान मनुष्य (सत्पुरुष) बनने और बनाने के लिए अ, आ , क , ख सीखने का मौका मिलता है। हम आशा करते हैं कि 'मनुष्य-निर्माण द्वारा जगत का कल्याण' करने वाला यह 'Be and Make - वेदान्त आन्दोलन' सम्पूर्ण विश्व में जल्द-से -जल्द फ़ैल जायेगा !
विकास के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण : कार्यालय या घर में निरन्तर सकारात्मक सोच बनाये रखने के लिये मनःसंयोग या मानसिक एकाग्रता को (Head-मन, बुद्धिबल ) विकसित करें। दूसरों के कल्याण (भारत का कल्याण) के लिए ह्रदय में दूसरों के प्रति प्रेम और अच्छी भावनायें विकसित करने के लिए ह्रदय (Heart-आत्मबल) को विकसित करें। सद्कर्म करने के लिए व्यायाम और पौष्टिक आहार द्वारा बाहुबल (शरीर या Hands) को विकसित करें। ~ विवेकानन्द