'प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली' के अनुसार सत्यकाम की शिक्षा होने लगी । गुरु ने सत्यकाम को चार सौ क्षीण और दुर्बल गायें देकर कहा , " इन्हें लेकर तुम वन में चले जाओ , जब कुल गायें एक हजार हो जायें तब लौटकर चले आना । " उसने आज्ञा पालन की और वह गायें लेकर वन में चला गया ।
कई साल बाद इस झुण्ड में से एक प्रधान वृषभ ने सत्यकाम से कहा , " हम लोग अब कुल एक हजार हो गये हैं , हमें तुम अपने गुरु के पास ले चलो । मैं तुम्हें ब्रह्म के विषय कुछ शिक्षा दूंगा।" सत्यकाम ने कहा , “ कहिये प्रभु " वृषभ ने कहा , " उत्तर दिशा ब्रह्म का एक अंश है ; उसी प्रकार पूर्व दिशा , दक्षिण दिशा , पश्चिम दिशा भी उसके एक एक अंश हैं । इस प्रकार चार मुख्य दिशाएँ (cardinal directions = जाग्रत, स्वप्न , सुषुप्ति और तुरीय) ब्रह्म की चार अंश (अवस्थायें) हैं । "`The four cardinal points / directions are the four parts of Brahman.'
इतना कहकर उस प्रमुख वृषभ ने कहा , “ अब अग्नि तुम्हें और कुछ शिक्षा देंगे । " उस समय अग्नि ब्रह्म के एक विशिष्ट प्रतीक रूप से पूजे जाते थे । प्रत्येक ब्रह्मचारी को अग्नि - चयन करके उसमें आहुति देनी पड़ती थी । सत्यकाम स्नानादि करके अग्नि में होम कर उनके निकट बैठ गये , इसी समय अग्नि से एक वाणी सुनायी पड़ी - " सत्यकाम ! " सत्यकाम ने कहा , " प्रभो , आज्ञा!" (तुम लोगों को शायद याद होगा कि बाइबिल की प्राचीन संहिता में भी इसी प्रकार की एक कथा है , सैमुएल ने ऐसी ही एक अद्भुत वाणी सुनी थी । Perhaps you may remember a very similar story in the Old Testament, how Samuel heard a mysterious voice. ) जो हो , अग्नि ने कहा―‘सत्यकाम’ मैं तुम्हें ब्रह्म का कुछ उपदेश देने आया हूँ। यह पृथ्वी ब्रह्म का एक पाद है, आकाश दूसरा पाद, अंतरिक्ष तीसरा पाद और समुद्र चौथा पाद है।’
फिर अग्नि ने कहा , " अब एक हंस तुम्हें कुछ शिक्षा देगा । ” निदान एक हंस ने एक दिन आकर सत्यकाम से कहा , " मैं तुम्हें ब्रह्म के विषय में कुछ शिक्षा दूंगा । हे सत्यकाम , यह अग्नि जिसकी तुम उपासना करते हो , ब्रह्म का एक पाद है , सूर्य दूसरा पाद है , चन्द्रमा तीसरा और विद्युत् चौथा पाद है । फिर हंस ने कहा , " अब मद्गु नामक एक पक्षी भी तुम्हे कुछ शिक्षा देगा । "
दूसरे दिन सायंकाल सत्य- काम (एथेंस का सत्यार्थी-देवकुलिश ) के पास मद्गु पक्षी (जलचर पक्षी- C-IN-C ?) आया और कहने लगा―‘सत्यकाम, मैं तुझे ब्रह्म का उपदेश करूँगा। ब्रह्म का एक पाद घ्राण है, दूसरा चक्षु, तीसरा श्रोत्र और चौथा है मन ।’ [https://hi.wikisource.org/wiki/]
तदनन्तर बालक अपने गुरु के पास पहुँचा , गुरु ने उसे दूर से देखकर कहा , “ वत्स , तुम्हारा मुख ब्रह्मवेत्ता के समान प्रकाशित हुआ देख रहा हूँ ।" बालक ने गुरु से ब्रह्म के सम्बन्ध में और भी कुछ उपदेश देने के लिए कहा । वे बोले , " तुम ब्रह्म के सम्बन्ध में सब कुछ पहले ही जान चुके हो । ” (ब्रह्मविद ब्रह्मैव भवति -गृहस्थ होकर भी राजाजनक विदेह हो सकते हैं। )"
यहाँ पर मान लीजिये हम इन सब रूपकों को थोड़ी देर के लिए हटा दें कि वृषभ ने क्या सिखाया, अग्नि ने क्या सिखाया तथा अन्य सबों ने क्या सिखाया -- और केवल केन्द्रीय तत्त्व की ओर ध्यान दें तो प्रतीत होगा कि विचार की गति किस ओर जा रही है । हम इन सब बातों से इस तत्त्व का आभास पाते हैं कि यह सब वाणी हमारे अन्दर ही है । हम लोग और अधिक अध्ययन करके समझेंगे कि अन्त में यही तत्त्व पाया जाता है कि यह वाणी वास्तव में हम लोगों के हृदय में से ही उठी है । शिष्य निरन्तर सत्य के सम्बन्ध में उपदेश पा रहा है , किन्तु वह जो समझ रहा है कि ये सब शिक्षाएं बाह्य जगत् से प्राप्त हो रही हैं ,पर यह सत्य नहीं है ।और भी एक तत्त्व इसी से पाया जाता है , और वह है कर्मण्य जीवन/ गृहस्थ जीवन में ब्रह्मप्राप्ति --ब्रह्म का साक्षात्कार । व्यावहारिक जीवन में धर्म से क्या सत्य पाया जा सकता है , यही सर्वदा जगत् में अन्वेषित हो रहा है ; और इन सब कथाओं में हम यह भी देख पाते हैं कि दिन - प्रतिदिन किस प्रकार यह सत्य दैनिक जीवन में घटित होता जा रहा है । शिष्यगणों को जिन समस्त वस्तुओं के संसर्ग में आना पड़ता है , वे उन्हीं से ब्रह्मोपलब्धि करते हैं । अग्नि , जिसमें वे प्रतिदिन होम करते हैं , उसी में वे ब्रह्म - साक्षात्कार कर रहे हैं । इसी प्रकार परिदृश्यमान पृथ्वी को वे ब्रह्म के एक अंश रूप में अनुभव कर रहे हैं - इत्यादि इत्यादि ।
इसके बाद एक कहानी 'सत्य-काम' के एक शिष्य 'उपकोशल कमलायन ' के सम्बन्ध में है । यह शिष्य भी सत्य काम से शिक्षा प्राप्त करने के लिए उनके पास कुछ दिन रहा था । सत्यकाम कार्यवश कहीं बाहर गये । इससे शिष्य को बहुत कष्ट हुआ । जब गुरु - पत्नी ने उसके समीप आकर पूछा , ' वत्स , तुम खाते क्यों नहीं ? ' तब बालक ने कहा , ' मेरा मन कुछ ठीक नहीं है , इसीलिए कुछ खाना नहीं चाहता । ' इसी समय वह जिस अग्नि में हवन कर रहा था उसमें से एक आवाज आयी , " प्राण ब्रह्म है , सुख ब्रह्म है , आकाश ब्रह्म है , तुम ब्रह्म को जानो ।" तब उसने पूछा , ' प्राण ब्रह्म है , यह मैं जानता हूँ किन्तु वह प्राण ही आकाश और सुख - स्वरूप भी हैं , यह मैं नहीं जानता । ' ("I know, sir," the boy replied, " that life is Brahman, but that It is ether and happiness I do not know.")
तब अग्नि ने समझाया कि 'आकाश' और 'सुख' , इन दो शब्दों का अर्थ वस्तुतः एक ही है , यानि ह्रदय में निवास करने वाला चिदाकाश (अथवा विशुद्ध बुद्धि)। इस प्रकार अग्नि ने 'प्राण' और 'चिदाकाश' के रूप में उसे 'ब्रह्म 'का उपदेश दिया। तब अग्नि ने फिर कहा , " यह पृथ्वी , यह अन्न , यह सूर्य जिसकी तुम उपासना करते हो , सब ब्रह्म के ही रूप हैं। जो पुरुष सूर्य में दिखलाई पड़ता है , वह मैं हूँ ! जो यह जानते हैं और उस ब्रह्म का ध्यान- उपासना (मनःसंयोग का अभ्यास ) करते हैं उनके सब पाप नष्ट हो जाते है , वे दीर्घ जीवन प्राप्त करते हैं और सुखी होते हैं । जो समस्त दिशाओं में वास करते हैं , मैं भी वही हूँ । जो इस प्राण में हैं , इस आकाश में हैं , स्वर्गसमूह और विद्युत् में बसते है , मैं भी वही हूँ ~ I am He। '
यहाँ भी हमें व्यवहारोपयोगी धर्म का अर्थात धर्म के साक्षात्कार का उदाहरण मिलता है । जिसकी वे अग्नि , सूर्य , चन्द्र आदि के रूप में उपासना करते थे ,और वह वाणी जिससे वे परिचित थे , उन कथाओं का आधार है , जो उनकी व्याख्या करती है और उन्हें उच्चतर अर्थ प्रदान करती है।यही वास्तविक वेदान्त का साधनकाण्ड है ।
वेदान्त जगत् को उड़ा नहीं देता -- किन्तु उसकी व्याख्या करता है । वह व्यक्ति को उड़ा नहीं देता - उसकी व्याख्या करता है । वह ' अहँत्व ' को मिटाने का उपदेश नहीं करता किन्तु वास्तविक ' अहंत्व ' क्या है यह समझा देता है । वह यह नहीं कहता कि जगत् वृथा है अथवा उसका कोई अस्तित्व नहीं है , किन्तु बतलाता है कि जगत् क्या है यह समझो , जिससे वह तुम्हारा कोई अनिष्ट न कर सके । [It does not destroy the world, but it explains it; it does not destroy the person, but explains him; it does not destroy the individuality, but explains it by showing the real individuality. It does not show that this world is vain and does not exist, but it says, "Understand what this world is, so that it may not hurt you."] उस वाणी ने सत्य काम अथवा उनके शिष्य से यह नहीं कहा था कि सूर्य , चन्द्र , विद्युत अथवा और कुछ , जिसकी व उपासना करते थे , वह एकदम भूल है; किन्तु यही कहा कि जो चैतन्य सूर्य , चन्द्र , विद्युत , अग्नि और पृथ्वी के भीतर है , वही उनके अन्दर भी है ।
अतएव उनकी दृष्टि में सब ने एक नवीन रूप धारण कर लिया । जो अग्नि पहले केवल हवन करने की जड़ अग्नि मात्र थी , उसने एक नया रूप धारण कर लिया और वह ईश्वररूप में प्रतीत हुई । पृथ्वी ने और एक नया रूप धारण कर लिया , प्राण ने और एक रूप धारण कर लिया , सूर्य , चन्द्र , तारा , विद्युत् सभी ने एक नया रूप धारण कर लिया , सब ब्रह्मभावापन्न हो गये और उनका वास्तविक स्वरूप तब जान पड़ा । [ The voice did not say to Upakosala that the fire which he was worshipping, or the sun, or the moon, or the lightning, or anything else, was all wrong, but it showed him that the same spirit which was inside the sun, and moon, and lightning, and the fire, and the earth, was in him, so that everything became transformed, as it were, in the eyes of Upakosala. The fire which was merely a material fire before, in which to make oblations, assumed a new aspect and became the Lord. The earth became transformed, life became transformed, the sun, the moon, the stars, the lightning, everything became transformed and deified. Their real nature was known.] हम लोगों को यह विशेष रूप से जानना आवश्यक है कि वेदान्त का उद्देश्य ही इन सब वस्तुओं (M/F) में भगवान् का दर्शन करना है ,उनका जो रूप आपाततः प्रतीत होता है , वह न देखकर उनको उनके प्रकृत स्वरूप में जानना है ।
उसके बाद और भी एक प्रस्ताव है - वह कुछ विशेष प्रकार का है । ' जो आँखों में प्रकाशित हो रहे हैं वे ब्रह्म हैं ; वे रमणीय और ज्योति हैं । वे सम्पूर्ण जगत् में प्रकाश दे रहे हैं । ' यहाँ भाष्यकार कहते हैं , पवित्रात्मा पुरुषों की आँखों में जो एक विशेष प्रकार की ज्योति का आविर्भाव होता है , वह वास्तव में सर्वव्यापी आत्मा की ही ज्योति है । वह ज्योति ही ग्रहों , सूर्य - चन्द्र और तारों में प्रकाशित हो रही है । [Then another lesson is taught in the Upanishads: "He who shines through the eyes is Brahman; He is the Beautiful One, He is the Shining One. He shines in all these worlds." A certain peculiar light, a commentator says, which comes to the pure man, is what is meant by the light in the eyes, and it is said that when a man is pure such a light will shine in his eyes, and that light belongs really to the Soul within, which is everywhere. It is the same light which shines in the planets, in the stars, and suns.]
तुम लोगों से अब मैं जन्म - मृत्यु आदि के सम्बन्ध में इन सब प्राचीन उपनिषदों की कुछ अद्भुत कथाएँ कहूँगा । शायद ये तुम्हें अच्छी लगें । श्वेतकेतु पांचालराज के पास गया । राजा ने उससे ये ही प्रश्न पूछे , ' क्या तुम यह जानते हो मृत्यु होने के पश्चात् सब मनुष्य कहाँ जाते हैं ? क्या जानते हो कि वे किस प्रकार फिर लौट आते हैं ? क्या जानते हो कि पृथ्वी एकदम परिपूर्ण अथवा शून्य ही क्यों नहीं हो जाती ? ' बालक ने कहा , ' नहीं , मैं यह सब नहीं जानता । ' उसने अपने पिता से जाकर ये ही सब प्रश्न पूछे ।
पिताने कहा , ' इन सब प्रश्नों का ठीक ठीक उत्तर दो मुझे भी मालूम नहीं । ' तब वे दोनों राजा के पास लौट गये । राजा ने कहा , ' यह ज्ञान पहले ब्राह्मणों को ज्ञात नहीं था , केवल राजागण ही इसे जानते थे , और इसी ज्ञान के बल पर राजागण (विदेह -राजर्षि)पृथ्वी पर शासन करते हैं । ' तब उन दोनों ने राजा की कुछ सेवा की , अन्त में राजा उन लोगों को शिक्षा देने के लिए प्रस्तुत हुए । उन्होंने कहा , ' हे गौतम , तुम जिस अग्नि की उपासना करते हो , वह वास्तव में अत्यन्त निम्न स्तर का पदार्थ है । यह पृथ्वी ही वह अग्निस्वरूप है । संवत्सर उसके काष्ठस्वरूप हैं , रात्रि उसकी धूम्रस्वरूप हैं । सारी दिशाएँ उसकी शिखाएँ हैं । समस्त कोण उसके स्फुलिंग - स्वरूप हैं । इसी अग्नि में देवतागण वृष्टिस्वरूप आहुति देते रहते हैं , इसी से अन्न उत्पन्न होता है । इस प्रकार राजा अनेक प्रकार के उपदेश देने लगे ।
इन सब उपदेशों का तात्पर्य यही है कि तुम्हारी इस क्षुद्र अग्नि में होम करने का कोई प्रयोजन नहीं , सम्पूर्ण जगत् ही वह अग्नि है और दिन - रात उसमें होम हो रहा है । देवता , मनुष्य सभी दिन - रात उसी की उपासना करते हैं-
[गुरु नानक देव पूरी के जगन्नाथ मंदिर में गा उठते हैं - गगन मै थालु रवि चंदु दीपक बने तारिका मंडल जनक मोती ॥ धूपु मलआनलो पवणु चवरो करे सगल बनराइ फूलंत जोती ॥१॥अर्थ: सारा आकाश (जैसे कि) थाल है। सूरज और चाँद (उस थाल में) दिये बने हुए हैं। तारों के समूह, जैसे, थाल में मोती रखे हुए हैं। मलय पर्वत से आने वाली हवा, जैसे धूप (धूणे की सुगंध) है। हवा चौर कर रही है। सारी बनस्पति ज्योति-रूप (प्रभु की आरती) वास्ते फूल दे रही है।1।
कैसी आरती होइ भव खंडना तेरी आरती ॥अनहता सबद वाजंत भेरी ॥१॥ रहाउ ॥
पद्अर्थ: गगन = आकाश। गगन मै = गगनमय, आकाशरूप, सारा आकाश। रवि = सूरज। दीपक = दीप, दीया। जनक = जैसा, जानो, मानो। मलआनलो = (मलय+अनलो, अनल = हवा, पवन) मलय पर्वत की ओर से आने वाली हवा। मलय पर्वत पर चंदन के पौधे होने की वजह से उधर से आनी वाली हवा भी सुगंध भरी होती है। मलय पहाड़ भारत के दक्षिण में है। सगल = सारी। बनराइ = बनस्पति। फुलंत = फूल रही है। जोती = ज्योति-रूप प्रभु।1। भव खंडन = हे जनम मरन काटने वाले। अनहता = अन+हत, जो बिना बजाए बजे, एक रस। शबद = आवाज़, जीवन लहर। भेरी = डफ, नगारा।1। रहाउ।
अर्थ: हे जीवों के जनम, मरन, नाश करने वाले! (कुदरति में) कैसी सुंदर तेरी आरती हो रही है! (सभ जीवों में चल रहीं) एक ही जीवन तरंगें, मानों तेरी आरती के वास्ते नगारे बज रहे है।1। रहाउ।
सहस तव नैन नन नैन है तोहि कउ सहस मूरति नना एक तोही ॥
सहस पद बिमल नन एक पद गंध बिनु सहस तव गंध इव चलत मोही ॥२॥
पद्अर्थ: सहस = हजारों। तव = तेरे। नैन = आँखें। नन = कोई नहीं। तोहि कउ = तेरे, तुझे, तेरे वास्ते। मूरति = शकल। ना = कोई नहीं। तूोही = तेरी। पद = पैर। बिमल = साफ। गंध = नाक। तिव = इस तरह। चलत = कौतक, आश्चर्यजनक खेल।2।नोट: शब्द ‘हहि’ ‘है’ का बहुवचन है। असल शब्द ‘तुही’ है जिसे ‘तोही’ पढ़ना है।अर्थ: (सभ जीवों में व्यापक होने के कारण) हजारों तेरी आँखें हैं (पर, निराकार होने की वजह से, हे प्रभु) तेरी कोई आँख नहीं। हजारों तेरी शक्लें हैं, पर तेरी कोई भी शक्ल नहीं है। हजारों तेरे सुंदर पैर हैं (पर निराकार होने के कारण) तेरा एक भी पैर नहीं। हजारों तेरे नाक हैं, पर तू नाक के बिना ही है। तेरे ऐसे चमत्कारों ने मुझे हैरान किया हुआ है।2। सभ महि जोति जोति है सोइ ॥] हे गौतम , मनुष्य का शरीर ही सर्वश्रेष्ठ अग्नि है । ' हम यहाँ भी देखते हैं कि धर्म को कार्य में परिणत किया जा रहा है , ब्रह्म को संसार के भीतर लाया जा रहा है।
इन सब रूपकों में यही एक तत्त्व देखता हूँ कि मनुष्य की बनायी हुई मूर्ति मनुष्यों को हितकारिणी और शुभ हो सकती है , किन्तु उससे भी श्रेष्ठ प्रतिमा पहले से ही विद्यमान है । यदि ईश्वरोपासना करने के लिए प्रतिमा आवश्यक है तो सजीव मानवप्रतिमा तो मौजूद ही है। यदि ईश्वरोपासना के लिए मन्दिर निर्माण करना चाहते हो तो करो , किन्तु सोच लो कि उससे भी उच्चतर , उससे भी महान् मानव देह रूपी मन्दिर (मानव शरीर रूपी जगन्नाथ पूरी) तो पहले से ही मोजूद है । [ Here also we see the ideal becoming practical and Brahman is seen in everything. The principle that underlies all these stories is that invented symbolism may be good and helpful, but already better symbols exist than any we can invent. You may invent an image through which to worship God, but a better image already exists, the living man. You may build a temple in which to worship God, and that may be good, but a better one, a much higher one, already exists, the human body.]
हम लोगों को याद रखना चाहिए कि वेद के दो भाग हैं कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड । उपनिषदों के अभ्युदय - काल में कर्म काण्ड इतना जटिल और विस्तारपूर्ण हो गया था कि उससे मुक्त होना असम्भव - सा कार्य हो गया । उपनिषदों में कर्मकाण्ड बिलकुल छोड़ दिया गया है ऐसा कहा जा सकता है , किन्तु धीरे धीरे और प्रत्येक कर्मकाण्ड के अन्दर एक उच्चतर अर्थगाम्भीर्य दिखाने की चेष्टा की गयी है । अत्यन्त प्राचीन काल में यह सब यज्ञादिक कर्मकाण्ड प्रचलित थे , किन्तु उपनिष्दकाल में ज्ञानियों का अभ्युदय हुआ ।
उन लोगों ने क्या किया ? आधुनिक सुधारकों के समान उन लोगों ने यज्ञादि के विरुद्ध प्रचार करके उसे एकदम मिथ्या या पाखण्ड कहकर उड़ा देने को चेष्टा नहीं की , किन्तु उन्हीं का उच्चतर तात्पर्य समझाकर लोगों को एक ग्रहण करने योग्य वस्तु दी । उन्होंने कहा ' अग्नि में हवन करो , वहुत अच्छी बात है , किन्तु इस पृथ्वी पर दिनरात हवन हो रहा है । यह क्षुद्र मन्दिर है , ठीक है , किन्तु सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ही हमारा मन्दिर है , हम कहीं भी उपासना क्यों न करें , कोई हानि नहीं । तुम लोग वेदी बनाते हो- किन्तु हम लोगों के मत में , जीवित चेतन मनुष्यदेह रूपी वेदी वर्तमान है और इस मनुष्यदेहरूपी वेदी पर की गयी पूजा दूसरी अचेतन मृत , जड़ मूर्ति की पूजा की अपेक्षा श्रेयस्कर है । '
यहाँ और भी एक विशेष मत का वर्णन किया गया है । मैं इसका अधिकांश नहीं समझता । उपनिषद् का यह एक अंश मैं पढ़ता हूँ , तुम लोग इसे कुछ समझ सको तो समझो । जो व्यक्ति ध्यान - बल से विशुद्धचित्त होकर ज्ञानलाभ कर चुका है , वह जब मरता है , तो पहले अर्चि , उसके बाद दिन, फिर क्रमशः शुक्लपक्ष में ओर उत्तरायण षण्मास में जाता है ; वहाँ से संवत्सर , संवत्सर से सूर्य लोक , और सूर्यलोक से चन्द्रलोक , तथा चन्द्रलोक से विद्युल्लोक में जाता है । वहाँ से एक दिव्यपुरुष उसे ब्रह्मलोक में ले जाते हैं । इसी का नाम देवयान है ।
जब साधु और ज्ञानियों की मृत्यु होती है , तो वे इसी मार्ग द्वारा जाते हैं । इस मास , संवत्सर आदि शब्दों का क्या अर्थ है यह कोई भी भलीभाँति नहीं समझता । सभी अपने अपने मस्तिष्क का कल्पित अर्थ लगाते रहते हैं । बहुत से लोग यह भी कहते हैं कि यह बेकार की बात है । इन चन्द्र लोक , सूर्यलोक आदि में जाने का क्या अर्थ है ? और यह दिव्य पुरुष आकर विद्युल्लोक से ब्रह्मलोक में ले जाता है , इसका भी क्या अर्थ है ? हिन्दुओं में एक धारणा थी कि चन्द्रलोक में प्राणी रहते हैं— इसके बाद हम लोग यह देखेंगे कि किस प्रकार चन्द्र लोक से पतित होकर मनुष्य पृथ्वी पर वापस आता है ।
जो ज्ञान प्राप्त नहीं करते हैं किन्तु इस जीवन में शुभ कर्म कर चुके हैं वे जब मरते हैं तो पहले धूम्र में जाते हैं फिर रात्रि में , तदनन्तर कृष्णपक्ष फिर दक्षिणायन षण्मास और उसके बाद संवत्सर में से होकर वे पितृलोक में जाते हैं । वहाँ से आकाश में और फिर वे चन्द्रलोक में गमन करते हैं । वहाँ देवताओं के खाद्यरूप होकर देवजन्म ग्रहण करते हैं । जब तक उनका पुण्यक्षय नहीं होता तब तक वहीं रहते हैं ।
कर्मफल समाप्त होने पर फिर उन्हें पृथ्वी पर आना पड़ता है । वे पहले आकाशरूप में परिणत होते हैं , फिर वायुरूप से फिर घूम्र , उसके बाद मेघ आदि के रूप में परिणत होकर अन्त में , वृष्टिकण का आश्रय लेकर पृथ्वी पर गिर पड़ते हैं , वहाँ शस्यक्षेत्र में गिरकर शस्य रूप में परिणत होकर मनुष्य के खाद्यरूप में परिगृहीत होते हैं और अन्त में उनकी सन्तानादि बन जाते हैं ।
जिन लोगों ने खूब सत्कर्म किये थे , वे सदवंश में जन्म ग्रहण करते हैं । जिन लोगों ने अत्यन्त असत् कर्म किये थे , उनका अत्यन्त नीच जन्म होता है , यहाँ तक कि उनको कभी कभी सूअर का भी जन्म लेना पड़ता है । और जो व्यक्ति देवयान और पितृयान नामक इन दोनों रास्तों में से किसी भी एक रास्ते पर नहीं चल पाते , वे बार बार जन्म ग्रहण करते रहते हैं तथा बार बार मौत के मुँह में पड़ते रहते हैं , इसी कारण पृथ्वी न तो एकदम सूनी होती है और न परिपूर्ण ही ।
हम लोग इससे कुछ थोड़े से भाव प्राप्त कर सकते हैं और बाद में शायद हम इसका बहुत कुछ अर्थ भी समझ सकेंगे । अन्तिम बातें , अर्थात स्वर्ग में जाकर जीव फिर से किस प्रकार लौट आते हैं , वे पहली बात की अपेक्षा मानो कुछ अधिक स्पष्ट प्रतीत होती हैं , किन्तु इन सब उक्तियों का सार तत्त्व यही जान पड़ता है कि ब्रह्मानुभूति के बिना स्वर्गादिप्राप्ति व्यर्थ है । मान लो , कुछ व्यक्ति जिन्हें अभी तक ब्रह्मानुभव नहीं हो सका किन्तु इस लोक कुछ सत्कर्म कर चुके हैं और वह कर्म भी सकाम किया गया है , तो उनकी मृत्यु होने पर वे इधर - उधर अनेक स्थानों में घूम फिरकर स्वर्ग पहुँचते हैं और हम लोग भी जिस प्रकार पैदा होते हैं , ठीक उसी प्रकार वे भी देवताओं की सन्तानरूप में पैदा होते हैं और जितने दिन उनके शुभ कर्मफल की समाप्ति नहीं होती उतने दिन वे वहां रहते हैं ।
इसी से वेदान्त का एक मूल तत्त्व यह पाया जाता है कि जिसका नाम - रूप है वही नश्वर है । अतएव स्वर्ग भी नश्वर होगा , क्योंकि उसका भी तो नाम - रूप है , अनन्त स्वर्ग स्व विरोधी वाक्य मात्र है , जिस प्रकार यह पृथ्वी अनन्त नहीं हो सकती , क्योंकि जिस वस्तु का भी नाम - रूप है उसी की उत्पत्ति काल में है , स्थिति काल में है , विनाश काल में है । वेदान्त का यह स्थिर सिद्धान्त है — अतएव अनन्त स्वर्ग की धारणा व्यर्थ है ।
हमने देखा है कि वेद के संहिता भाग में अनन्त स्वर्ग का वर्णन, उसीप्रकार है, जिस प्रकार मुसलमान और ईसाईयों के धर्म - ग्रन्थों में है । मुसलमानों की स्वर्ग - धारणा और भी स्थूल है। वे लोग कहते हैं , स्वर्ग में बाग - बगीचे हैं , उनके नीचे नदियाँ बह रही हैं । अरब -वासियों के रेगिस्तान में जल एक बहुत ही वांछनीय पदार्थ है। इसीलिए मुसलमान सदा जलपूर्ण स्वर्ग की कल्पना करते हैं। मेरा जहाँ जन्म हुआ (स्वामी विवेकानन्द का जन्म बंगाल ,कोलकाता में हुआ ), वहाँ साल में छः महीने जल बरसता रहता है । मैं स्वर्ग को कल्पना में शायद शुष्क स्थान सोचूँगा , अंग्रेज भी यही सोचेंगे । संहिता का यह स्वर्ग अनन्त है , वहाँ मृत व्यक्ति जाकर रहते हैं।
वे लोग वहाँ सुन्दर देह पाकर वहाँ के पितृगण के साथ अत्यन्त सुखसहित चिरकाल तक रहते हैं , वहीं उनके माता - पिता स्त्री पुत्रादि भी आ मिलते हैं । और वे बहुत कुछ यहीं के समान रहते हैं ; हाँ उनका जीवन अपेक्षाकृत अधिक सुखमय होता है । उन लोगों के स्वर्ग की धारणा भी यही है कि इस सांसारिक जीवन में सुख प्राप्ति में जो सब विघ्न - बाधाएँ हैं वे सब वहाँ मिट जायेंगी , केवल इसका जो सुखमय अंश वही शेष रहेगा ।
स्वर्ग की यह धारणा हमें सुखकर भले ही प्रतीत हो, किन्तु सुखकर और सत्य ये दोनों पूर्ण रूप से भिन्न वस्तुएँ हैं । वास्तव में चरम सीमा पर पहुॅचे बिना (इन्द्रियातीत अवस्था में पहुँचे बिना ?) सत्य कभी सुखकर नहीं होता । मनुष्य का स्वभाव ही बड़ा स्थितिशील (दकियानूसी) है । मनुष्य कोई विशेष काम करता रहता है तो एक बार उसे शुरू करने पर फिर उसे छोड़ना उसके लिए बहुत कठिन हो जाता है । मन कोई नया विचार (अहंब्रह्मास्मि) ग्रहण करना ही नहीं चाहता, क्योंकि वह (मिथ्या अहं M/F देहाध्यास को छोड़ना) बहुत कष्टकर होता है ।
अतएव हम लोग देखते हैं कि उपनिषदों में पूर्वप्रचलित धारणा का विशेष व्यक्तिक्रम हुआ है । उपनिषदों में कहा है , यह सब स्वर्ग जहाँ मनुष्य जाकर पितृगण के साथ रहता है , कभी नित्य नहीं हो सकता , क्योंकि नाम - रूपात्मक सभी वस्तुएँ विनाशशील हैं । यदि स्वर्ग साकार है तो काल के अनुसार उस स्वर्ग का अवश्य नाश होगा । हो सकता है , वह लाखों वर्ष रहे , किन्तु अन्त में ऐसा एक समय अवश्य आयगा कि उसका नाश होगा , और अवश्य होगा ।
इसी बीच एक और भी धारणा लोगों के मन में आयी है और वह यह कि ये सब आत्माएँ दुबारा इसी पृथ्वी पर लौट आती हैं और स्वर्ग केवल उनके शुभ कर्मों के फलभोग का स्थानमात्र है । फलभोग शेष होने पर वे फिर पृथ्वी पर ही जन्म ग्रहण करती हैं । एक बात इसी से स्पष्ट प्रतीत होती है कि मनुष्य को अत्यन्त प्राचीन काल से ही कार्यकारण - विज्ञान विदित था । बाद में हम लोग देखेंगे कि हमारे दार्शनिकों ने इसी तत्व का वर्णन दर्शन तथा न्याय की भाषा में किया है, किन्तु इस स्थान में मानो एक शिशु की अस्पष्ट भाषा में इसे कहा गया है ।
इन सब ग्रन्थों का पाठ करते समय तुम लोगों ने शायद यह समझ लिया होगा कि ये सब तत्त्व प्रत्यक्ष अनुभूति के फलस्वरूप हैं । यदि तुम लोग यह पूछो कि ये सब कार्यरूप में परिणत हो सकते हैं या नहीं तो मैं कहूँगा कि पहले ये सब कार्यरूप में परिणत हुए हैं और बाद में दर्शन के रूप में आविर्भूत हुए हैं । तुमने देखा कि ये सब पहले अनुभूत हुए , बाद में लिखे गये । सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड प्राचीन ऋषियों के साथ मानो बातें करता था । पक्षिगण उनसे बोलते , पशुगण भी उनसे बात चीत करते और चन्द्र - सूर्य से भी उनका सम्भाषण होता था ।
उन्होंने क्रमशः विश्व-ब्रह्माण्ड के समस्त वस्तुओं के साथ एकात्मबोध का अनुभव किया , और वे प्रकृति के अन्तस्तल में प्रविष्ट हो गए । उन्होंने उस परम् सत्य उपलब्धि चिन्तन द्वारा अथवा तर्क द्वारा नहीं पाया और न आजकल की प्रथा के अनुसार ऐसा ही हुआ कि किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा विचारित कुछ विषय संग्रह किये और एक ग्रन्थ बना दिया , अथवा मैं आज जैसे उन्हीं के एक ग्रन्थ को लेकर लम्बी - चौड़ी वक्तृता दे डालता हूँ , ऐसा भी नहीं हुआ , वरन् उनको इसका आविष्कार करना पड़ा । इसका सार था साधना - प्रत्यक्षानुभूति , और चिरकाल तक वही रहेगा । धर्म चिरकाल तक एक प्रत्यक्ष विज्ञानस्वरूप रहेगा । मतवाद कभी धर्म नहीं हो सकता । पहले अभ्यास (प्रत्याहार -धारणा का अभ्यास) , उसके बाद ज्ञान ।
जीवगण यहाँ लौट आते हैं , यह धारणा मैं उपनिषद् में पहले से ही विद्यमान पाता हूँ । जो फल की कामना से कुछ सत्कर्म करते हैं , उन्हें उस सत्कर्म का फल प्राप्त होता है , किन्तु यह फल नित्य नहीं होता । कार्य - कारण - वाद यहाँ बहुत सुन्दर रूप में वर्णित हुआ है , क्योंकि कहा गया है कि कार्य कारण के अनुसार ही होता है । जैसा कारण है , कार्य भी वैसा ही होगा ; कारण जब अनित्य है तो कार्य भी अनित्य है । कारण नित्य होने पर कार्य भी नित्य होगा । किन्तु सत्कर्म - रूपी ये कारण अनित्य और ससीम है अतएव उनका फल भी नित्य नहीं हो सकता ।
इस तत्त्व का एक और पहलू देखने से यह भलीभांति समझ में आ जायगा कि जिस कारण से अनन्त स्वर्ग नहीं हो सकता उसी कारण से अनन्त नरक भी नहीं हो सकता । मान लो , मैं एक बहुत दुष्ट आदमी हूँ और समस्त जीवन भर अन्यायपूर्ण कर्म करता रहा हूँ , तो भी यह सारा जीवन उसकी अनन्त जीवन के साथ तुलना करने पर कुछ भी नहीं है । यदि दण्ड अनन्त हो तो इसका यह अर्थ होगा कि ससीम कारण से असीम फल की उत्पत्ति हुई । यह नहीं हो सकता । यदि यह मान लिया जाय कि समस्त जीवनपर्यन्त सत्कर्म करते रहने पर अनन्त स्वर्गलाभ होता है तो भी यह दोष बना रहेगा ।
उपर्युक्त जिन सब मार्गों की बातें कही गयी हैं , उनके व्यतिरिक्त उन लोगों के लिए जिन्होंने सत्य को जान लिया है और भी एक तीसरा मार्ग है । मायावरण से बाहर निकलने का यही एकमात्र उपाय है – ' सत्य का अनुभव करना । ' और सब उपनिषद् , यह सत्यानुभव किसे कहते हैं , यही समझाते हैं । अच्छा बुरा कुछ न देखो , सभी वस्तुएँ और सभी कार्य आत्मा से उत्पन्न होते हैं, यही विचार करो । आत्मा सभी में है । यही कहो कि जगत् नामक कोई चीज नहीं है । बाह्यदृष्टि बन्द करो और उसी प्रभु को स्वर्ग नरक सभी स्थानों में देखो । क्या मृत्यु , क्या जीवन– सर्वत्र उसी की उपलब्धि करो ।
मैंने पहले जो तुम्हें पढ़कर सुनाया है , उसमें भी यही भाव है — यह पृथ्वी उसी भगवान् का एक पाद है , आकाश भी भगवान् का दूसरा एक पाद है , इत्यादि इत्यादि । ये सब ब्रह्म हैं । परन्तु यह देखना पड़ेगा , अनुभव करना पड़ेगा , इस विषय की केवल आलोचना अथवा चिन्ता करने से कुछ नहीं होगा । मान लो , जब आत्मा ने जगत् की प्रत्येक वस्तु का स्वरूप समझ लिया और उसे यह अनुभव होने लगा कि प्रत्येक वस्तु ही ब्रह्ममय है , तब वह स्वर्ग में जाय अथवा नरक में , या अन्यत्र और कहीं चली जाय , तो इससे कछ बनता बिगड़ता नहीं ।
मैं (नरेन्द्र से विवेकानन्द बन चुका हूँ, अब मैं) पृथ्वी पर जन्म अथवा स्वर्ग में जाऊं , इससे कोई अन्तर नहीं होता । मेरे लिए ये सब निरर्थक है क्योंकि मेरे लिए सभी स्थान समान हैं , सभी स्थान भगवान् के मन्दिर हैं , सभी स्थान पवित्र हैं , कारण स्वर्ग , नरक अथवा अन्यत्र मैं केवल भगवत्सत्ता का ही अनुभव कर रहा हूँ । भला - बुरा अथवा जीवन - मरण मुझे कुछ नहीं दीखते । वेदान्त - मत में मनुष्य जब ऐसी अनुभूति प्राप्त कर लेता है । तब वह मुक्त हो जाता है और वेदान्त कहता है केवल वही व्यक्ति संसार में रहने योग्य है , दूसरा नहीं । जो व्यक्ति जगत् में केवल अन्याय देखता है , वह भला संसार में कैसे वास कर सकता है ? उसका जीवन तो सर्वदा दुःखमय होगा ।
जो व्यक्ति यहाँ अनेकानेक विघ्न - बाधाओं तथा विपत्तियों को देखता है , मृत्यु देखता है , उसका जीवन तो दुःखमय होगा ही , परन्तु जो व्यक्ति प्रत्येक वस्तु में उसी सत्य - स्वरूप को देखता है , वही संसार में रहने योग्य है ; वही यह कह सकता है , कि मैं इस जीवन का उपभोग कर रहा हूँ , मैं इस जीवन में खूब सुखी हूँ । यहाँ मैं यह कह देना चाहता हूँ कि वेद में कहीं भी नरक का उल्लेख नहीं है । वेद के बहुत परवर्ती काल में रचित पुराणों में यह नरक - प्रसंग दिया गया है ।
वेद में सब से बड़ा दण्ड है- पुनर्जन्म अर्थात् और एक बार उन्नति की सुविधा प्राप्त करना । [The worst punishment according to the Vedas is coming back to earth, having another chance in this world.] हम देखते हैं कि पहले से ही यह निर्गुण भाव चलता आ रहा है । पुरस्कार और दण्ड का भाव बहुत ही जड़भावात्मक है और यह भाव केवल मनुष्य के समान सगुण ईश्वरवाद में ही सम्भव है जो ईश्वर हमारे समान एक को प्रेम करते हैं , दूसरे को नहीं । इस प्रकार की ईश्वर - धारणा के साथ ही पुरस्कार और दण्ड का भाव संगत हो सकता है । संहिताओं में ईश्वर का वर्णन इसी प्रकार दिया गया है ।
वहाँ इस धारणा के साथ भय मिला हुआ था , किन्तु उपनिषदों में यह भय - भाव बिलकुल नहीं मिलता ; इसके साथ ही उपनिषदों में हम निर्गुण की धारणा पाते हैं - और प्रत्येक दशा में यह निर्गुण की धारणा करना ही विशेष कठिन होता है । मनुष्य सर्वदा ही सगुण रूप लेकर रहना चाहता है । बहुत बड़े बड़े विचारक भी , कम से कम संसार जिन्हें बहुत विचारक मानता है , इस निर्गुणवाद से सहमत नहीं हैं। किन्तु मुझे यह सगुणवाद (God as an embodied man.) अत्यन्त हास्यास्पद , अत्यन्त निम्नभावमय तथा क्षुद्र व्यक्तियों के योग्य – यहाँ तक कि अत्यन्त भगवन्निन्दाकर प्रतीत होता है । (But to me it seems so absurd to think of God as an embodied man.)
यदि कोई शिशु भगवान् को एक साकार व्यक्ति मान लें तो यह क्षम्य है , किन्तु वयस्क व्यक्तियों के लिए - चिन्तनशील नर नारियों के लिए भगवान् को एक स्त्री या पुरुष मानना बहुत लज्जास्पद है । प्रश्न उठता है कि उच्चतर भाव कौनसा है जीवित ईश्वर (living God) या मृत ईश्वर (dead God) ? - जिस ईश्वर को कोई देख नहीं सकता, जान नहीं पाता -- अथवा जो ईश्वर हमारे सम्मुख चारों ओर प्रकट एवं ज्ञात है ? (A God whom nobody sees, nobody knows, or a God Known?)
[ ???????/ समय समय पर वे जगत् में अपने एक एक दूत को भेज देते हैं जिसके एक हाथ में तलवार रहती है और दूसरे में अभिशाप , और हम यदि उनकी बातों में विश्वास न कर लें तो एकदम विनाश ! ने स्वयं आकर क्यों नहीं बताते कि हमें क्या करना चाहिए ? वे क्रमश : दूत भेजकर हम लोगों को दण्ड और अभिशाप क्यों दे रहे हैं ? किन्तु इसी विश्वास से अनेक व्यक्ति सन्तुष्ट हैं । हम लोगों की कैसी अधोगति है !?????? ]
दूसरी ओर निर्गुण ईश्वर जीवंत ईश्वर है, वह एक तत्त्व मात्र है। सगुण - निर्गुण के बीच में भेद यही है कि सगुण ईश्वर , क्षुद्र मानवविशेष मात्र है ! और निर्गुण ईश्वर है मनुष्य , पशु , देवता तथा कुछ और अधिक जो हम नहीं देख पाते हैं। क्योंकि सगुण निर्गुण के अन्तर्गत है और निर्गुण सगुण व्यष्टि , समष्टि एवं उसके अतिरिक्त और भी बहुत कुछ है । जिस प्रकार एक ही अग्नि जगत् में भिन्न भिन्न रूप से प्रकाशित होती है , और उसके अतिरिक्त भी अग्नि का अस्तित्व है इसी प्रकार निर्गुण भी है । ' दूसरी ओर निर्गुण ईश्वर को जीवित रूप में हम अपने सम्मुख देख रहे हैं ; वे एक तत्त्व मात्र हैं । सगुण - निर्गुण के बीच में भेद यही है कि सगुण ईश्वर , क्षुद्र मानवविशेष मात्र है , और निर्गुण ईश्वर है मनुष्य , पशु , देवता तथा अन्य वह सब जो हम नहीं देख पाते हैं , कारण , सगुण निर्गुण के अन्तर्गत है और निर्गुण सगुण व्यष्टि , समष्टि एवं उसके अतिरिक्त और भी बहुत कुछ है । जिस प्रकार एक ही अग्नि जगत् में भिन्न भिन्न रूप से प्रकाशित होती है , और उसके अतिरिक्त भी अग्नि का अस्तित्व है इसी प्रकार निर्गुण भी है । '
[because impersonality includes all personalities, is the sum total of everything in the universe, and infinitely more besides. "As the one fire coming into the world is manifesting itself in so many forms, and yet is infinitely more besides," so is the Impersonal.]
हम जीवित ईश्वर की पूजा करना चाहते हैं । मैंने सम्पूर्ण जीवन में ईश्वर के अतिरिक्त और कुछ नहीं देखा । तुमने भी नहीं देखा । इस कुर्सी को देखने से पहले तुम्हें ईश्वर को देखना पड़ता है , उसके बाद उन्हीं के भीतर से कुर्सी को देखना पड़ता है । वे दिन - रात जगत् में रहकर प्रतिक्षण ' मैं हूँ ' कह रहे हैं । जिस क्षण तुम बोलते हो ' मैं हूँ ' उसी क्षण तुम उस सत्ता को जान रहे हो । तुम ईश्वर को कहाँ ढूँढ़ने जाओगे , यदि तुम उसे अपने हृदय में , जीवित प्राणियों में नहीं देख पाते - यदि तुम रास्ते से जानेवाले उस बोझा ढोनेवाले कुली में जिसके शरीर से पसीने की धारा बह रही है , उसे नहीं देख पाते ? '
त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी , त्वं जीर्णो दण्डेन वञ्चसि , त्वं जातो भवसि विश्वतोमुखः । ' ---- " तुम स्त्री , तुम पुरुष , तुम कुमार , तुम कुमारी हो , तुम्हीं वृद्ध होकर लाठी के सहारे चल रहे हो , तुम्हीं सम्पूर्ण जगत् में भिन्न भिन्न रूप में प्रकट हुए हो। - यह सब तुम्हीं हो । ' कितना अद्भुत ' जीवित ईश्वर ' है --संसार में वह ही एकमात्र सत्य है। तुम्हीं ! संसार में वे भयंकर प्रतीत ही एकमात्र वस्तु हैं — यह अनेक लोगों को बड़ा होता है । वास्तविक बात यह है कि यह पूर्वपरिचालित ईश्वर धारणा का विरोधी भाव है ; वह ईश्वर - धारणा यह है कि वे किसी विशेष स्थान में किसी आवरण के पीछे छिपे बैठे हैं , उन्हें कोई कभी नहीं देख सकता ।
पुरोहित लोग हमें केवल यही आश्वासन देते हैं कि यदि हम लोग उनका अनुसरण कर उनकी पद - धूलि चाहते रहें और उनकी पूजा करते रहें तो हम लोग इस जीवन में चाहे ईश्वर को न भी देख पायें , किन्तु मरते समय वे हमें एक मुक्ति पत्र देंगे और तब हम ईश्वर दर्शन कर सकेंगे । इससे यह स्पष्ट ही समझ में आता है कि यह सब स्वर्गवाद ही है , इसके अतिरिक्त और क्या है ? - केवल पुरोहितों की दुष्टता ।
अवश्य ही निर्गुणवाद अनेक चीज नष्ट कर डालता है , वह पुरोहितों के हाथ से सारा व्यवसाय छीन लेता है , उसके फल स्वरूप मन्दिर , गिर्जा आदि सब उड़ जाते हैं । भारत में इस समय दुर्भिक्ष हो रहा है , किन्तु वहाँ ऐसे बहुत से मन्दिर हैं जिनमें इतने प्रचूर हीरा - जवाहिरात तथा बहुमूल्य रत्नों की राशि सुरक्षित हैं कि प्रत्येक मंदिर एक राजा को भी खरीद सकता है । यदि लोग इस निर्गुण ब्रह्म को जान जायेंगे तो उनका व्यवसाय छिन जायगा । किन्तु हमें यह पुरोहिताई छुड़ानी पड़ेगी । तुम भी ईश्वर , मैं भी वही --तब कौन किसकी आज्ञा पालन करे ? कौन किसकी उपासना करे ? तुम्हीं ईश्वर के सर्वश्रेष्ठ मन्दिर हो ; मैं किसी मन्दिर में किसी प्रतिमा या किसी शास्त्र की उपासना न कर तुम्हारी ही उपासना करूँगा ।
Why are some people so contradictory in their thought? लोग इतनी परस्परविरोधी विचार क्यों रखते हैं ? लोग कहते हैं , हम ठेठ प्रत्यक्षवादी है (hard-headed practical men हैं ) , ठीक बात है ; किन्तु तुम्हारी उपासना करने की अपेक्षा और क्या अधिक प्रत्यक्ष हो सकता है ?
लोग इतनी परस्परविरोधी विचार क्यों करते हैं ? लोग कहते हैं , हमलोग तो ठेठ प्रत्यक्षवादी है (hard-headed practical men हैं ); ठीक बात है, किन्तु तुम्हारी उपासना करने की अपेक्षा और क्या अधिक प्रत्यक्ष हो सकता है ? मैं तुम्हें देख रहा हूँ , तुम्हारा अनुभव कर रहा हूँ और जानता हूँ कि तुम ईश्वर हो । `The Mohammedan says, there is no God but Allah. ' मुसलमान कहते हैं , अल्लाह के सिवाय और कोई ईश्वर नहीं हैं ; किन्तु वेदान्त कहता है , मनुष्य के सिवाय दूसरा ईश्वर नहीं है । यह सुनकर तुममें से बहुतों को भय हो सकता है , किन्तु तुम लोग धीरे धीरे यह समझ जाओगे । जीवित ईश्वर तुम लोगों के साथ रहते हैं , तब भी तुम मन्दिर , गिर्जाघर आदि बनाते हो और सब प्रकार की काल्पनिक झूठी चीजों में विश्वास करते हो ।
मनुष्य-देह में स्थित मानव-आत्मा ही एकमात्र उपास्य ईश्वर है । हां , पशु (तिर्यक जाति) भी भगवान् के मन्दिर हैं , किन्तु मनुष्य ही सर्वश्रेष्ठ मन्दिर है- ताजमहल जैसा । (तिर्यक योनि--मनुष्य को छोड़ पशु पक्षी आदि जीव तिर्यक् --अर्थात तिरछा, आड़ा, टेढ़ा , बंकिम कहलाते हैं क्योंकि खडे़ होने में उनके शरीर का विस्तार ऊपर की ओर नहीं रहता, आड़ा होता है । विशेष— इनका खाया हुआ अन्न सीधे ऊपर से नीचे की ओर नहीं जाता, बल्कि आड़ा होकर पेट में जाता है। ) यदि मैं मानवमात्र की उपासना नहीं कर सका तो किसी भी मन्दिर से कुछ भी उपकार नहीं होगा । जिस क्षण में प्रत्येक मनुष्य - देहरूपी मन्दिर में उपविष्ट ईश्वर की उपलब्धि कर सकूँगा , जिस क्षण में प्रत्येक मनुष्य के सम्मुख भक्तिभाव से खड़ा हो सकूँगा और वास्तव में उनमें ईश्वर देख सकूँगा , जिस क्षण मेरे अन्दर यह भाव आ जायगा , उसी क्षण में सम्पूर्ण बन्धनों से मुक्त हो जाऊँगा -- सभी पदार्थ मेरी दृष्टि से हट जायेंगे ।
यही सब से अधिक व्यावहारिक उपासना है । मत - मतान्तर से हमारा कोई प्रयोजन नही । किन्तु यह बात कहने से अनेक लोग डर जाते हैं । वे कहते हैं , यह ठीक नहीं है । वे यही सोचते रहते हैं कि उनके वयोवृद्ध परबाबा के बाबा के बाबा बीस हजार वर्ष पहले क्या कह गये हैं , और वे जिनसे कह गये हैं , वे फिर दूसरों से क्या कह गये हैं , आदि आदि । बात यह है कि स्वर्ग के किसी स्थान पर बैठे हुए एक ईश्वर ने किसी व्यक्ति (नशेड़ी ) से कहा- में ईश्वर हूँ! (मैं परवरदिगार हूँ -और 'राम ' तो केवल बन्दा हैं। ) और उस पैगंबर के अनुयायी विगत साल से उसीके सम्बन्ध में बौद्धिक माथापच्ची किये चले आ रहे हैं। उसी समय से केवल मत - मतान्तरों की आलोचना ही चल रही है । उनके मत में यही व्यावहारिक बात है - और हम लोगों का वेदान्त -मत कामकाज में लाने योग्य अथवा व्यावहारिक नहीं है । [They go on theorising about old ideals told them by their grandfathers, that a God somewhere in heaven had told some one that he was God. Since that time we have only theories. This is practicality according to them, and our ideas are impractical !]
वेदान्त कहता है , सब अपने अपने रास्ते पर चलें , कोई हर्ज नहीं किन्तु आदर्श यही है । स्वर्गस्थ ईश्वर आदि की उपासना करना बुरा नहीं , किन्तु ये सब केवल सोपान मात्र हैं , सत्य नहीं । इन सब में सुन्दर एवं महान् भाव है , किन्तु वेदान्त पग पग पर कहता, बन्धु , तुम जिनकी अज्ञात कहकर उपासना करते हो और सारा जगत् जिन्हें खोजता फिरता है , वे जगत में सदा ही विराजमान हैं । तुम जीवित हो , वह भी वे हैं इसी कारण ; वे ही जगत् के नित्यसाक्षी हैं । सम्पूर्ण वेद जिनकी उपासना करते हैं , केवल यही नहीं , जो नित्य ' मैं ' में वर्तमान हैं , वे ही हैं इसलिए सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भी है ।
वे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के प्रकाशस्वरूप हैं । वे यदि तुम्हारे भीतर न हों तो तुम सूर्य को भी न देख पाते , सभी कुछ तुम्हारे लिए अन्धकारमय जड़राशि- शून्य के समान प्रतीत होता । वे ही प्रकाशित हैं , इसीलिए तुम जगत् को देख रहे हो ।
इस विषय में साधारणतया एक प्रश्न पूछा जाता है और वह यह है कि इस बिचारधारा से बहुत गड़बड़ी हो जाने की सम्भा वना है । हम सभी यह सोचेंगे कि मैं ईश्वर हूँ - जो कुछ मैं सोचता हूँ या करता हूँ वही अच्छा है क्योंकि ईश्वर को भला पाप क्या ? इसका उत्तर यह है कि पहले यदि इस प्रकार की विपरीत व्याख्या रूप आशंका की सम्भावना मान भी ली जाय तब भी क्या यह प्रमाणित किया जा सकता है कि दूसरे पक्ष में भी यही आशंका नहीं उत्पन्न होगी ? लोग अपने से पृथक् स्वर्गस्थित ईश्वर की उपासना करते हैं , उससे खूब डरते भी हैं । वे लोग भय से काँपते रहते हैं और सारा जीवन इसी प्रकार काँपते हुए काट देते हैं ।
तो क्या दुनिया ऐसा मान लेने पर भी पहले की अपेक्षा अधिक अच्छी हो गयी है ? तुम भी दूसरे से यही पूछ रहे थे । विचार करो कि जो सगुण ईश्वरवाद मानकर उसकी उपासना करते हैं और जो निर्गुण ईश्वरतत्त्व को समझकर निर्गुण की उपासना करते हैं , इन दोनों में से किसके सम्प्रदाय में संसार के बड़े - बड़े महापुरुष हो गये हैं ? महान् कर्मयोगी - महा चरित्रवान् ! निश्चय ही ऐसे महापुरुष निर्गुण साधकों के बीच ही हुए हैं ! भयभीत व्यक्ति क्या कभी चरित्रवान् या बलवान् पुरुष हो सकता? नहीं , कभी नहीं । '
"जहाँ एक दूसरे को देखता है , जहाँ एक दूसरे की हत्या करता है , वही माया है । जहाँ एक दूसरे को नहीं देखता , एक दूसरे की हत्या नहीं करता , जहाँ सर्व आत्ममय हो जाता है , वहीं फिर माया नहीं टिकती । " तब सभी ' वे ' हैं अथवा सभी ' मैं ' है - तब आत्मा पवित्र हो जाती है । तभी - और केवल तभी हम प्रेम किसे कहते हैं , यह समझ सकते हैं । डर से क्या ऐसा प्रेम हो सकता है ? प्रेम की भित्ति है , स्वाधीनता । स्वाधीनता -- मुक्तस्वभाव होने पर ही प्रेम होता है । तभी हम लोग वास्तव में जगत् को स्नेह करना प्रारम्भ करते हैं और विश्वबन्धुत्व का अर्थ समझते हैं-- अन्यथा नहीं ।
["Where one sees another, where one hears another, that is Maya. When one does not see another, when one does not hear another, when everything has become the Atman, who sees whom, who perceives whom?" It is all He, and all I, at the same time. The soul has become pure. Then, and then alone we understand what love is. Love cannot come through fear, its basis is freedom. When we really begin to love the world, then we understand what is meant by brotherhood of mankind, and not before.]
इसलिए यह कहना उचित नहीं है कि इस निर्गुण मत से समस्त संसार में भयानकर पापधारा वह उठेगी तथा दूसरे मत से दुनिया कभी भी अन्यान्य की ओर नहीं जायगी , अथवा सारी दुनिया खून में रँगने से बच जायगी , या लोग आपस में अलग अलग होकर साम्प्रदायिकता की जड़ नहीं जमा देंगे । वे कहते हैं मेरा ईश्वर ही सर्वश्रेष्ठ है !(अल्ला हू अकबर !) । इसका प्रमाण ? आओ , हम दोनों लड़ लें -- यही प्रमाण है। (ज्ञानवापी मस्जिद प्रमाण है ?) द्वैतवाद से यही गड़बड़ी सारी दुनिया में फैल गयी है ।
क्षुद्र और संकीर्ण रास्तों में न जाकर प्रशान्त उज्ज्वल दिन के प्रकाश में आओ । महान् अनन्त आत्मा संकीर्ण भावों में कैसे बँधी रह सकती है ? हमारे सम्मुख यह प्रकाशमय ब्रह्माण्ड है , इसकी प्रत्येक वस्तु हमारी है । अपनी बाहें फैलाकर सम्पूर्ण जगत् का प्रेमालिंगन करने की चेष्टा करो । यदि कभी ऐसा करने की इच्छा हो तभी समझो कि तुम्हें ईश्वर का अनुभव हुआ है ।
🔆🙏कर्तार (जगतजननी माँ जगदम्बा) की कुदरती आरती 🔆🙏
श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल :-Page 13/ रागु धनासरी महला १ ॥
गगन मै थालु रवि चंदु दीपक बने तारिका मंडल जनक मोती ॥
धूपु मलआनलो पवणु चवरो करे सगल बनराइ फूलंत जोती ॥१॥
पद्अर्थ: गगन = आकाश। गगन मै = गगनमय, आकाशरूप, सारा आकाश। रवि = सूरज। दीपक = दीप, दीया। जनक = जैसा, जानो, मानो। मलआनलो = (मलय+अनलो, अनल = हवा, पवन) मलय पर्वत की ओर से आने वाली हवा। मलय पर्वत पर चंदन के पौधे होने की वजह से उधर से आनी वाली हवा भी सुगंध भरी होती है। मलय पहाड़ भारत के दक्षिण में है। सगल = सारी। बनराइ = बनस्पति। फुलंत = फूल रही है। जोती = ज्योति-रूप प्रभु।1।
अर्थ: सारा आकाश (जैसे कि) थाल है। सूरज और चाँद (उस थाल में) दिये बने हुए हैं। तारों के समूह, जैसे, थाल में मोती रखे हुए हैं। मलय पर्वत से आने वाली हवा, जैसे धूप (धूणे की सुगंध) है। हवा चौर कर रही है। सारी बनस्पति ज्योति-रूप (प्रभु की आरती) वास्ते फूल दे रही है।1।
कैसी आरती होइ ॥ भव खंडना तेरी आरती ॥ अनहता सबद वाजंत भेरी ॥१॥ रहाउ॥
भव खंडन = हे जनम मरन काटने वाले। अनहता = अन+हत, जो बिना बजाए बजे, एक रस। शबद = आवाज़, जीवन लहर। भेरी = डफ, नगाड़ा ।1। रहाउ।
अर्थ: हे जीवों के जनम, मरन, नाश करने वाले! (कुदरति में) कैसी सुंदर तेरी आरती हो रही है! (सभ जीवों में चल रहीं) एक ही जीवन तरंगें, मानों तेरी आरती के वास्ते नगारे बज रहे है।1। रहाउ।
सहस तव नैन नन नैन हहि तोहि कउ सहस मूरति नना एक तुोही ॥
सहस पद बिमल नन एक पद गंध बिनु सहस तव गंध इव चलत मोही ॥२॥
पद्अर्थ: सहस = हजारों। तव = तेरे। नैन = आँखें। नन = कोई नहीं। तोहि कउ = तेरे, तुझे, तेरे वास्ते। मूरति = शकल। ना = कोई नहीं। तूोही = तेरी (नोट: शब्द ‘हहि’ ‘है’ का बहुवचन है। असल शब्द ‘तुही’ है जिसे ‘तोही’ पढ़ना है।) पद = पैर। बिमल = साफ। गंध = नाक। तिव = इस तरह। चलत = कौतक, आश्चर्यजनक खेल।2।
अर्थ: (सभ जीवों में व्यापक होने के कारण) हजारों तेरी आँखें हैं (पर, निराकार होने की वजह से, हे प्रभु) तेरी कोई आँख नहीं। हजारों तेरी शक्लें हैं, पर तेरी कोई भी शक्ल नहीं है। हजारों तेरे सुंदर पैर हैं (पर निराकार होने के कारण) तेरा एक भी पैर नहीं। हजारों तेरे नाक हैं, पर तू नाक के बिना ही है। तेरे ऐसे चमत्कारों ने मुझे हैरान किया हुआ है।2।
सभ महि जोति जोति है सोइ ॥ तिस दै चानणि सभ महि चानणु होइ ॥
गुर साखी जोति परगटु होइ ॥ जो तिसु भावै सु आरती होइ ॥३॥
पद्अर्थ: जोत = प्रकाश, रोशनी। सोइ = उस प्रभु। तिस दै चानणि = उस परमेश्वर के प्रकाश से। साखी = शिक्षा के साथ।3।
अर्थ: सारे जीवों में एक वही परमात्मा की ज्योति बरत रही है। उस ज्योति के प्रकाश से सारे जीवों में प्रकाश (सूझ-बूझ) है। पर, इस ज्योति का ज्ञान गुरु की शिक्षा से ही होता है। (गुरु के द्वारा ही `गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में 'Be and Make' प्रशिक्षण लेने से यह समझ पड़ती है कि हरेक के अंदर परमात्मा की ज्योति है !- अर्थात प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है। ) (इस सर्व-व्यापक ज्योति की) आरती ये है कि जो कुछ भी उसकी रजा में हो रहा है, वह जीव को अच्छा लगे (प्रभु की रजा में रहना ही प्रभु की आरती करना है)।3।
हरि चरण कवल मकरंद लोभित मनो अनदिनुो मोहि आही पिआसा ॥
क्रिपा जलु देहि नानक सारिंग कउ होइ जा ते तेरै नाइ वासा ॥४॥३॥
पद्अर्थ: मकरंद = फूलों के बीच की धूल (Pollen Dust), फूलों का रस। मनो = मन। अनदिनुों = हर रोज। मोहि = मुझे। आही = है, रहती है। (नोट: ‘अनदिनुों’ में अक्षर ‘न’ के साथ दो मात्राएं हैं, असल शब्द ‘अनदिनु’ है जिसे ‘अनदिनो’ पढ़ना है।) सारंगि = पपीहा। कउ = को। जा ते = जिस से, जिसके साथ। तेरे नाइ = तेरे नाम में।4।
अर्थ: हे हरि ! (अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण !) तुम्हारे चरण-रूपी कमल फूलों के लिए मेरा मन ललचाता है, हर रोज मुझे इस रस की प्यास लगी हुई है। मुझ नानक पपीहे को अपनी मेहर का जल दे, जिस (की इनायत) से मैं तेरे नाम में टिका रहूँ।4।3।
{नोट: आरती: (आरित, आरात्रिका) देवते की मूर्ति अथवा किसी पूज्य के आगे दीए घुमा के पूजा करनी। हिन्दू मतानुसार चार बार चरणों के आगे, दो बार नाभी के ऊपर, एक बार मुँह पे, और सात बार सारे शरीर पे दीए घुमाने चाहिए। दीपक एक से लेकर एक सौ तक होते हैं। गुरु नानक देव जी ने इस आरती का ख्ंडन करके कर्तार की कुदरती आरती की प्रसंशा की है।}
रागु गउड़ी पूरबी महला ४ ॥
कामि करोधि नगरु बहु भरिआ मिलि साधू खंडल खंडा हे ॥
पूरबि लिखत लिखे गुरु पाइआ मनि हरि लिव मंडल मंडा हे ॥१॥
पद्अर्थ: कामि = काम-वासना से। करोधि = क्रोध से। नगरु = शरीर, नगर, जगन्नाथ-पूरी । मिलि = मिलके। साधू = गुरु। खंडल खंडा = तोड़ा है। पूरबि = पूर्व में, पहले बीते समय मे। पूरबि लिखे लिखत = पिछले (किये कर्मों के) लिखे हुए संस्कारों के अनुसार। मनि = मन में। मंडल मंडा = जड़ा हुआ है।1।
अर्थ: मनुष्य का यह शरीर रूपी शहर (जगन्नाथ -पूरी) काम और क्रोध से भरा रहता है। गुरु को मिल के ही (काम-क्रोध आदि के इस मेल को) तोड़ जा सकता है। जिस मनुष्य को पूर्बले कर्मों के संजोगों से गुरु मिल जाता है, उसके मन में परमात्मा के साथ लगन लग जाती है (और उसके अंदर से कामादिक विकारों का जोड़ टूट जाता है)।1।
करि साधू अंजुली पुनु वडा हे ॥ करि डंडउत पुनु वडा हे ॥१॥ रहाउ॥
पद्अर्थ: अंजुली = दोनों हाथ जुड़े हुए। पुनु = भला काम। डंडउत = डंडौत, नीचे लेट कर नमस्कार।1। रहाउ।
अर्थ: (हे भाई!) गुरु के आगे हाथ जोड़, यह बहुत भला काम है। गुरु के आगे नत्मस्तक हो जाओ, ये बड़ा नेक काम है।1। रहाउ।
साकत हरि रस सादु न जाणिआ तिन अंतरि हउमै कंडा हे ॥
जिउ जिउ चलहि चुभै दुखु पावहि जमकालु सहहि सिरि डंडा हे ॥२॥
पद्अर्थ: साकत = ईश्वर से टूटे हुए लोग। सादु = स्वाद। तिन अंतरि = उनके अंदर, उनके मन में। चलहि = चलते हैं। चुभै = (काँटा) चुभता है। जम कालु = (आत्मिक) मौत। सिरि = सिर पे।2।
अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा से टूटे हुए हैं, वे उसके नाम के रस के स्वाद को नहीं समझ सकते। उनके मन में अहंकार का (मानों) काँटा चुभा हुआ है। ज्यों ज्यों वे चलते हैं (ज्यों ज्यों वे अहम् के स्वभाव में जीते हैं, अहंकार का काँटा उनको) चुभता है, वे दुख पाते हैं, और अपने सिर पर उन्हें आत्मिक मौत रूपी डंडा बर्दाश्त करना पड़ता है। (भाव, आत्मिक मौत उनके सिर पे सवार रहती है)।2।
हरि जन हरि हरि नामि समाणे दुखु जनम मरण भव खंडा हे ॥
अबिनासी पुरखु पाइआ परमेसरु बहु सोभ खंड ब्रहमंडा हे ॥३॥
पद्अर्थ: नामि = नाम में। समाणे = लीन, मस्त। भव = संसार। खंडा हे = नाश कर लिया है। सोभ = शोभा। खंड ब्रहमंडा = सारे जगत में।3।
अर्थ: (दूसरी तरफ) परमात्मा के प्यारे बंदे परमात्मा के नाम में जुड़े रहते हैं। उनके संसार के जनम-तरण का दुख काटा जाता है। उन्हें कभी नाश ना होने वाला परमेश्वर मिल जाता है। उनकी शोभा सारे खंड-ब्रहिमंडों में हो जाती है।3।
हम गरीब मसकीन प्रभ तेरे हरि राखु राखु वड वडा हे ॥
जन नानक नामु अधारु टेक है हरि नामे ही सुखु मंडा हे ॥४॥४॥
पद्अर्थ: मसकीन = आज़िज़। प्रभ = हे प्रभु। राखु = रक्षा कर। आधारु = आसरा। नामे = नाम में ही। मंडा = मिला।4।
अर्थ: हे प्रभु! हम जीव तेरे दर के गरीब भिखारी हैं। तू सबसे बड़ा मददगार है। हमें (इन कामादिक विकारों से) बचा ले। हे प्रभु तेरे दास नानक को तेरा ही आसरा है, तेरा नाम ही सहारा है। तेरे नाम में जुड़ने से ही सुख मिलता है।4।4।
[नोट: अगर पैर में काँटा चुभ जाए तो चलना-फिरना मुश्किल हो जाता है। उस काँटे (अहं ) को निकालने की जगह यदि पैरों में मख़मल की जूती पहन लें, तो भी चलते वक्त वह काँटा चुभता ही रहेगा। सुख तभी होगा, जब वह काँटा (मिथ्या अहं ) पैर में से निकाल लिया जाए। जितनी देर तक आदमी के अंदर अहंकार है, यह दुखी ही करता रहेगा। बाहरी धार्मिक वेष आदि भी सुख नहीं दे सकेंगे। ]
रागु गउड़ी पूरबी महला ५ ॥
करउ बेनंती सुणहु मेरे मीता संत टहल की बेला ॥
ईहा खाटि चलहु हरि लाहा आगै बसनु सुहेला ॥१॥
पद्अर्थ: करउ = मैं करता हूँ।/(नोट: ‘करउ’ वर्तमानकाल, उत्तमपुरख, एकवचन।) सुणहु = तुम सुनो।/(नोट: ‘सुणहु’ आदेश भविष्यत, मध्यम पुरख, बहुवचन है।) बेला = मौका, बेला। ईहा = यहाँ, इस जनम में। खाटि = कमा के। लाहा = लाभ, कमाई। आगै = परलोक में। बसनु = बसना, आबाद होना। सुहेला = सुखमय।1।
अर्थ: हे मेरे मित्रो! सुनो! मैं विनती करता हूँ- (अब) गुरमुखों की सेवा करने की बेला है। (यदि सेवा करोगे, तो) इस जनम में ईश्वर के नाम की कमाई कर के जाओगे, और परलोक में बसेरा सुखमय हो जाएगा।1।
अउध घटै दिनसु रैणारे ॥ मन गुर मिलि काज सवारे ॥१॥ रहाउ॥
पद्अर्थ: अउधु = उम्र। रैणा = रात। मन = हे मन! मिलि = मिल के। सवारे = सवार ले।1। रहाउ।
अर्थ: हे मन! दिन रात (बीत बीत के) उम्र घटती जा रही है। हे (मेरे) मन! गुरु को मिल के (मानव जीवन के) उद्देश्य को सफल कर।1। रहाउ।
इहु संसारु बिकारु संसे महि तरिओ ब्रहम गिआनी ॥
जिसहि जगाइ पीआवै इहु रसु अकथ कथा तिनि जानी ॥२॥
पद्अर्थ: बिकार = विकार रूप, विकारों से भरा हुआ। संसे महि = शंकाओं में, तौखले में। जिसहि = जिस मनुष्य को। जगाइ = जगा के। पीआवै = पिलाता है। तिनि = उसने।2।
अर्थ: ये जगत विकारों से भरपूर है। (जगत के जीव) शंकाओं में (डूब रहे हैं। इनमें से) वही मनुष्य निकलता है जिसने परमात्मा के साथ जान-पहिचान बना ली है। (विकारों में सो रहे-अर्थात कामिनी-कांचन में आसक्त ) जिस मनुष्य को प्रभु (स्वामी विवेकानन्द) स्वयं खुद जगा के ये नाम अमृत पिलाता है, उस मनुष्य ने अकथ प्रभु की बातें (बेअंत गुणों वाले प्रभु की महिमा) करने का तौर-तरीका सीख लिया है।2।
जा कउ आए सोई बिहाझहु हरि गुर ते मनहि बसेरा ॥
निज घरि महलु पावहु सुख सहजे बहुरि न होइगो फेरा ॥३॥
पद्अर्थ: जा कउ = जिस (उद्देश्य) के वास्ते। बिहाझहु = खरीदो, व्यापार करो। ते = से, के द्वारा। मनहि = मन में ही। निज घरि = अपने घर में। महलु = (प्रभु का) ठिकाना। सहजे = सहजि, आत्मिक अडोलता में। बहुरि = फिर, दुबारा।3।
अर्थ: (हे भाई!) जिस काम वास्ते (यहाँ) आए हो, उस का व्यापार करो। वह हरि नाम गुरु के द्वारा ही मन में बस सकता है। (यदि गुरु की शरण पड़ोगे, तो) आत्मिक आनंद और अडोलता में टिक के अपने अंदर ही परमात्मा का ठिकाना ढूँढ लोगे। फिर दुबारा जनम-मरन का चक्कर नहीं रहेगा।3।
अंतरजामी पुरख बिधाते सरधा मन की पूरे ॥
नानक दासु इहै सुखु मागै मो कउ करि संतन की धूरे ॥४॥५॥
पद्अर्थ: अंतरजामी = हे दिलों के जानने वाले! पुरख = हे सभ में व्यापक! बिधाते = हे निर्माता! पूरे = पूरी कर। मागै = मांगता है। मो कउ = मुझे। धूरे = चरण धूल।4।
अर्थ: हे हरेक दिल की जानने वाले सर्व-व्यापक निर्माता! मेरे मन की इच्छा पूरी कर। दास नानक तुझसे यही सुख मांगता है कि मुझे संतों के चरणों की धूल बना दे।4।5।
नोट: आखीरले अंक ५ का भाव ये है कि इस संग्रहि (सोहिले) का यह पाँचवां शबद है। पाठक सज्जन ध्यान रखें कि इस संग्रहि का नाम ‘सोहिला’ है, ‘कीरतन सोहिला’ नहीं।
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