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गुरुवार, 26 मई 2022

🔆🙏व्यावहारिक जीवन में वेदान्त - स्वामी विवेकानन्द: - द्वितीय व्याख्यान > (मैं परवरदिगार हूँ -और 'राम ' तो केवल बन्दा हैं। ) 🔆🙏कर्तार (जगतजननी माँ जगदम्बा) की कुदरती आरती 🔆🙏

 व्यावहारिक जीवन में वेदान्त- 2 

( 12 नवम्बर , 1896 ई ० को लन्दन में दिया हुआ भाषण )
 
PRACTICAL VEDANTA - PART II

(Delivered in London, 12th November 1896)

मैं छान्दोग्य उपनिषद् से एक बालक को किस प्रकार ज्ञान प्राप्त हुआ इस सम्बन्ध में एक कहानी सुनाता हूँ । यद्यपि यह कहानी प्राचीन शैली की है फिर भी इसमें एक सार तत्त्व निहित है । एक छोटे बालक ने अपनी माता से कहा , " माँ , में वेद - शिक्षा पाने के लिए जाना चाहता हूँ , मेरे पिता का नाम और मेरा गोत्र क्या है बताओ । " 

उसकी माँ विवाहिता स्त्री नहीं थी और भारतवर्ष में अविवाहित स्त्री की सन्तान समाज में नगण्य - सी मानी जाती है किसी कार्य में उसका अधिकार नहीं होता , वेद - पाठ करना तो दूर रहा । अतएव उसकी माँ ने कहा , " मैंने यौवन में अनेक व्यक्तियों की सेवा की है , उसी अवस्था में तुम्हारा जन्म हुआ , अतएव में तुम्हारे पिता का नाम एवं तुम्हारा गोत्र क्या है , यह नहीं जानती ; इतना ही जानती हूँ कि मेरा नाम जबाला है और तुम्हारा सत्यकाम । " 

बालक एक ऋषि के पास गया और उसने उनसे प्रार्थना की कि वे उसे ब्रह्मचारी शिष्य के रूप में ग्रहण करें । तब उन्होंने उससे पूछा , " तुम्हारे पिता का नाम और तुम्हारा गोत्र क्या है ? " बालक ने जो उसकी माँ ने कहा था , वही दुहराया । यह सुनकर ऋषि ने तुरन्त ही कहा , " वत्स , तुमने सच भाषण किया है , तुम धर्मपथ से विचलित नहीं हुए यही सत्यवादिता ब्राह्मण का लक्षण है , इसीलिए मैंने तुम्हें ब्राह्मण मान लिया - मैं तुम्हें शिष्य बनाऊँगा । " यह कहकर वे उसे अपने निकट रखकर शिक्षा देने लगे।

'प्राचीन भारतीय शिक्षा प्रणाली' के अनुसार सत्यकाम की शिक्षा होने लगी । गुरु ने सत्यकाम को चार सौ क्षीण और दुर्बल गायें देकर कहा , " इन्हें लेकर तुम वन में चले जाओ , जब कुल गायें एक हजार हो जायें तब लौटकर चले आना । " उसने आज्ञा पालन की और वह गायें लेकर वन में चला गया । 

कई साल बाद इस झुण्ड में से एक प्रधान वृषभ ने सत्यकाम से कहा , " हम लोग अब कुल एक हजार हो गये हैं , हमें तुम अपने गुरु के पास ले चलो । मैं तुम्हें ब्रह्म के विषय कुछ शिक्षा दूंगा।"  सत्यकाम ने कहा , “ कहिये प्रभु " वृषभ ने कहा , " उत्तर दिशा ब्रह्म का एक अंश है ; उसी प्रकार पूर्व दिशा , दक्षिण दिशा , पश्चिम दिशा भी उसके एक एक अंश हैं । इस प्रकार चार मुख्य दिशाएँ (cardinal directions = जाग्रत, स्वप्न , सुषुप्ति और  तुरीय) ब्रह्म की  चार  अंश (अवस्थायें) हैं । "`The four cardinal points / directions are the four parts of Brahman.

 इतना कहकर उस प्रमुख वृषभ ने कहा , “ अब अग्नि तुम्हें और कुछ शिक्षा देंगे । " उस समय अग्नि ब्रह्म के एक विशिष्ट प्रतीक रूप से पूजे जाते थे । प्रत्येक ब्रह्मचारी को अग्नि - चयन करके उसमें आहुति देनी पड़ती थी । सत्यकाम स्नानादि करके अग्नि में होम कर उनके निकट बैठ गये , इसी समय अग्नि से एक वाणी सुनायी पड़ी - " सत्यकाम ! " सत्यकाम ने कहा , " प्रभो , आज्ञा!"  (तुम लोगों को शायद याद होगा कि बाइबिल की प्राचीन संहिता में भी इसी प्रकार की एक कथा है , सैमुएल ने ऐसी ही एक अद्भुत वाणी सुनी थी । Perhaps you may remember a very similar story in the Old Testament, how Samuel heard a mysterious voice. जो हो , अग्नि ने कहा―‘सत्यकाम’ मैं तुम्हें ब्रह्म का कुछ उपदेश देने आया हूँ। यह पृथ्वी ब्रह्म का एक पाद है, आकाश दूसरा पाद, अंतरिक्ष तीसरा पाद और समुद्र चौथा पाद है।’

फिर अग्नि ने कहा , " अब एक हंस तुम्हें कुछ शिक्षा देगा । ” निदान एक हंस ने एक दिन आकर सत्यकाम से कहा , " मैं तुम्हें ब्रह्म के विषय में कुछ शिक्षा दूंगा । हे सत्यकाम , यह अग्नि जिसकी तुम उपासना करते हो , ब्रह्म का एक पाद है , सूर्य दूसरा पाद है , चन्द्रमा तीसरा और  विद्युत् चौथा पाद है । फिर हंस ने कहा , " अब मद्गु नामक एक पक्षी भी तुम्हे कुछ शिक्षा देगा । " 

दूसरे दिन सायंकाल सत्य- काम (एथेंस का सत्यार्थी-देवकुलिश ) के पास मद्गु पक्षी (जलचर पक्षी- C-IN-C ?) आया और कहने लगा―‘सत्यकाम, मैं तुझे ब्रह्म का उपदेश करूँगा। ब्रह्म का एक पाद घ्राण है, दूसरा चक्षु, तीसरा श्रोत्र और चौथा है मन ।’ [https://hi.wikisource.org/wiki/]

तदनन्तर बालक अपने गुरु के पास पहुँचा , गुरु ने उसे दूर से देखकर कहा , “ वत्स , तुम्हारा मुख ब्रह्मवेत्ता  के समान प्रकाशित हुआ देख रहा हूँ ।"  बालक ने गुरु से ब्रह्म के सम्बन्ध में और भी कुछ उपदेश देने के लिए कहा । वे बोले , " तुम ब्रह्म के सम्बन्ध में सब कुछ पहले ही जान चुके हो । ” (ब्रह्मविद ब्रह्मैव भवति -गृहस्थ होकर भी राजाजनक विदेह हो सकते हैं। )"

यहाँ पर मान लीजिये हम इन सब रूपकों को थोड़ी देर के लिए हटा दें कि वृषभ ने क्या सिखाया, अग्नि ने क्या सिखाया तथा अन्य सबों ने क्या सिखाया -- और केवल केन्द्रीय तत्त्व की ओर ध्यान दें तो प्रतीत होगा कि विचार की गति किस ओर जा रही है । हम इन सब बातों से इस तत्त्व का आभास पाते हैं कि यह सब वाणी हमारे अन्दर ही है । हम लोग और अधिक अध्ययन करके समझेंगे कि अन्त में यही तत्त्व पाया जाता है कि यह वाणी वास्तव में हम लोगों के हृदय में से ही उठी है । शिष्य निरन्तर सत्य के सम्बन्ध में उपदेश पा रहा है , किन्तु वह जो समझ रहा है कि ये सब शिक्षाएं बाह्य जगत् से प्राप्त हो रही हैं ,पर यह सत्य नहीं है ।और भी एक तत्त्व इसी से पाया जाता है , और वह है कर्मण्य जीवन/ गृहस्थ जीवन  में ब्रह्मप्राप्ति --ब्रह्म का साक्षात्कार । व्यावहारिक जीवन में धर्म से क्या सत्य पाया जा सकता है , यही सर्वदा जगत् में अन्वेषित हो रहा है ; और इन सब कथाओं में हम यह भी देख पाते हैं कि दिन - प्रतिदिन किस प्रकार यह सत्य दैनिक जीवन में घटित होता जा रहा है । शिष्यगणों को जिन समस्त वस्तुओं के संसर्ग में आना पड़ता है , वे उन्हीं से ब्रह्मोपलब्धि करते हैं । अग्नि , जिसमें वे प्रतिदिन होम करते हैं , उसी में वे ब्रह्म - साक्षात्कार कर रहे हैं । इसी प्रकार परिदृश्यमान पृथ्वी को वे ब्रह्म के एक अंश रूप में अनुभव कर रहे हैं - इत्यादि इत्यादि । 

इसके बाद एक कहानी 'सत्य-काम' के एक शिष्य 'उपकोशल कमलायन ' के सम्बन्ध में है । यह शिष्य भी सत्य काम से शिक्षा प्राप्त करने के लिए उनके पास कुछ दिन रहा था । सत्यकाम कार्यवश कहीं बाहर गये । इससे शिष्य को बहुत कष्ट हुआ । जब गुरु - पत्नी ने उसके समीप आकर पूछा , ' वत्स , तुम खाते क्यों नहीं ? ' तब बालक ने कहा , ' मेरा मन कुछ ठीक नहीं है , इसीलिए कुछ खाना नहीं चाहता । ' इसी समय वह जिस अग्नि में हवन कर रहा था उसमें से एक आवाज आयी , " प्राण ब्रह्म है , सुख ब्रह्म है , आकाश ब्रह्म है , तुम ब्रह्म को जानो ।"  तब उसने पूछा , ' प्राण ब्रह्म है , यह मैं जानता हूँ किन्तु वह प्राण ही आकाश और सुख - स्वरूप भी हैं , यह मैं नहीं जानता । ' ("I know, sir," the boy replied, " that life is Brahman, but that It is ether and happiness I do not know.") 

तब अग्नि ने समझाया कि 'आकाश' और 'सुख' , इन दो शब्दों का अर्थ वस्तुतः एक ही है , यानि ह्रदय में निवास करने वाला चिदाकाश (अथवा विशुद्ध बुद्धि)। इस प्रकार अग्नि ने 'प्राण' और 'चिदाकाश' के रूप में उसे 'ब्रह्म 'का उपदेश दिया। तब अग्नि ने फिर कहा , " यह पृथ्वी , यह अन्न , यह सूर्य जिसकी तुम उपासना करते हो , सब  ब्रह्म के ही रूप हैं। जो पुरुष सूर्य में दिखलाई पड़ता है , वह मैं हूँ ! जो यह जानते हैं और उस ब्रह्म का ध्यान- उपासना (मनःसंयोग का अभ्यास ) करते हैं उनके सब पाप नष्ट हो जाते है , वे दीर्घ जीवन प्राप्त करते हैं और सुखी होते हैं । जो समस्त दिशाओं में वास करते हैं , मैं भी वही हूँ । जो इस प्राण में हैं , इस आकाश में हैं , स्वर्गसमूह और विद्युत् में बसते है , मैं भी वही हूँ ~ I am He। ' 

यहाँ भी हमें व्यवहारोपयोगी धर्म का अर्थात धर्म के साक्षात्कार का उदाहरण मिलता है । जिसकी वे अग्नि , सूर्य , चन्द्र आदि के रूप में उपासना करते थे ,और वह वाणी जिससे वे परिचित थे , उन कथाओं का आधार है , जो उनकी व्याख्या करती है और उन्हें उच्चतर अर्थ प्रदान करती है।यही वास्तविक वेदान्त का साधनकाण्ड है । 

वेदान्त जगत् को उड़ा नहीं देता -- किन्तु उसकी व्याख्या करता है । वह व्यक्ति को उड़ा नहीं देता - उसकी व्याख्या करता है । वह ' अहँत्व ' को मिटाने का उपदेश नहीं करता किन्तु वास्तविक ' अहंत्व ' क्या है यह समझा देता है । वह यह नहीं कहता कि जगत् वृथा है अथवा उसका कोई अस्तित्व नहीं है , किन्तु बतलाता है कि जगत् क्या है यह समझो , जिससे वह तुम्हारा कोई अनिष्ट न कर सके । [It does not destroy the world, but it explains it; it does not destroy the person, but explains him; it does not destroy the individuality, but explains it by showing the real individuality. It does not show that this world is vain and does not exist, but it says, "Understand what this world is, so that it may not hurt you."] उस वाणी ने सत्य काम अथवा उनके शिष्य से यह नहीं कहा था कि सूर्य , चन्द्र , विद्युत अथवा और कुछ , जिसकी व उपासना करते थे , वह एकदम भूल है; किन्तु यही कहा कि जो चैतन्य सूर्य , चन्द्र , विद्युत , अग्नि और पृथ्वी के भीतर है , वही उनके अन्दर भी है

अतएव उनकी दृष्टि में सब ने एक नवीन रूप धारण कर लिया । जो अग्नि पहले केवल हवन करने की जड़ अग्नि मात्र थी , उसने एक नया रूप धारण कर लिया और वह ईश्वररूप में प्रतीत हुई । पृथ्वी ने और एक नया रूप धारण कर लिया , प्राण ने और एक रूप धारण कर लिया , सूर्य , चन्द्र , तारा , विद्युत् सभी ने एक नया रूप धारण कर लिया , सब ब्रह्मभावापन्न हो गये और उनका वास्तविक स्वरूप तब जान पड़ा । [ The voice did not say to Upakosala that the fire which he was worshipping, or the sun, or the moon, or the lightning, or anything else, was all wrong, but it showed him that the same spirit which was inside the sun, and moon, and lightning, and the fire, and the earth, was in him, so that everything became transformed, as it were, in the eyes of Upakosala. The fire which was merely a material fire before, in which to make oblations, assumed a new aspect and became the Lord. The earth became transformed, life became transformed, the sun, the moon, the stars, the lightning, everything became transformed and deified. Their real nature was known.] हम लोगों को यह विशेष रूप से जानना आवश्यक है कि वेदान्त का उद्देश्य ही इन सब वस्तुओं (M/F) में भगवान् का दर्शन करना है ,उनका जो रूप आपाततः प्रतीत होता है , वह न देखकर उनको उनके प्रकृत स्वरूप में जानना है । 

उसके बाद और भी एक प्रस्ताव है - वह कुछ विशेष प्रकार का है । ' जो आँखों में प्रकाशित हो रहे हैं वे ब्रह्म हैं ; वे रमणीय और ज्योति हैं । वे सम्पूर्ण जगत् में प्रकाश दे रहे हैं । ' यहाँ भाष्यकार कहते हैं , पवित्रात्मा पुरुषों की आँखों में जो एक विशेष प्रकार की ज्योति का आविर्भाव होता है , वह वास्तव में सर्वव्यापी आत्मा की ही ज्योति है । वह ज्योति ही ग्रहों , सूर्य - चन्द्र और तारों में प्रकाशित हो रही है । [Then another lesson is taught in the Upanishads: "He who shines through the eyes is Brahman; He is the Beautiful One, He is the Shining One. He shines in all these worlds." A certain peculiar light, a commentator says, which comes to the pure man, is what is meant by the light in the eyes, and it is said that when a man is pure such a light will shine in his eyes, and that light belongs really to the Soul within, which is everywhere. It is the same light which shines in the planets, in the stars, and suns.]

तुम लोगों से अब मैं जन्म - मृत्यु आदि के सम्बन्ध में इन सब प्राचीन उपनिषदों की कुछ अद्भुत कथाएँ कहूँगा । शायद ये तुम्हें अच्छी लगें । श्वेतकेतु पांचालराज के पास गया । राजा ने उससे ये ही प्रश्न पूछे , ' क्या तुम यह जानते हो मृत्यु होने के पश्चात् सब मनुष्य कहाँ जाते हैं ? क्या जानते हो कि वे किस प्रकार फिर लौट आते हैं ? क्या जानते हो कि पृथ्वी एकदम परिपूर्ण अथवा शून्य ही क्यों नहीं हो जाती ? ' बालक ने कहा , ' नहीं , मैं यह सब नहीं जानता । ' उसने अपने पिता से जाकर ये ही सब प्रश्न पूछे । 

पिताने कहा , ' इन सब प्रश्नों का ठीक ठीक उत्तर दो मुझे भी मालूम नहीं । ' तब वे दोनों राजा के पास लौट गये । राजा ने कहा , ' यह ज्ञान पहले ब्राह्मणों को ज्ञात नहीं था , केवल राजागण  ही इसे जानते थे , और इसी ज्ञान के बल पर राजागण (विदेह -राजर्षि)पृथ्वी पर शासन करते हैं । ' तब उन दोनों ने राजा की कुछ सेवा की , अन्त में राजा उन लोगों को शिक्षा देने के लिए प्रस्तुत हुए । उन्होंने कहा , ' हे गौतम , तुम जिस अग्नि की उपासना करते हो , वह वास्तव में अत्यन्त निम्न स्तर का पदार्थ है । यह पृथ्वी ही वह अग्निस्वरूप है । संवत्सर उसके काष्ठस्वरूप हैं , रात्रि उसकी धूम्रस्वरूप हैं । सारी दिशाएँ उसकी शिखाएँ हैं । समस्त कोण उसके स्फुलिंग - स्वरूप हैं । इसी अग्नि में देवतागण वृष्टिस्वरूप आहुति देते रहते हैं , इसी से अन्न उत्पन्न होता है । इस प्रकार राजा अनेक प्रकार के उपदेश देने लगे । 

 इन सब उपदेशों का तात्पर्य यही है कि तुम्हारी इस क्षुद्र अग्नि में होम करने का कोई प्रयोजन नहीं , सम्पूर्ण जगत् ही वह अग्नि है और दिन - रात उसमें होम हो रहा है । देवता , मनुष्य सभी दिन - रात उसी की उपासना करते हैं- 

[गुरु नानक देव पूरी के जगन्नाथ मंदिर में गा उठते हैं -  गगन मै थालु रवि चंदु दीपक बने तारिका मंडल जनक मोती ॥ धूपु मलआनलो पवणु चवरो करे सगल बनराइ फूलंत जोती ॥१॥अर्थ: सारा आकाश (जैसे कि) थाल है। सूरज और चाँद (उस थाल में) दिये बने हुए हैं। तारों के समूह, जैसे, थाल में मोती रखे हुए हैं। मलय पर्वत से आने वाली हवा, जैसे धूप (धूणे की सुगंध) है। हवा चौर कर रही है। सारी बनस्पति ज्योति-रूप (प्रभु की आरती) वास्ते फूल दे रही है।1।

कैसी आरती होइ भव खंडना तेरी आरती ॥अनहता सबद वाजंत भेरी ॥१॥ रहाउ ॥

पद्अर्थ: गगन = आकाश। गगन मै = गगनमय, आकाशरूप, सारा आकाश। रवि = सूरज। दीपक = दीप, दीया। जनक = जैसा, जानो, मानो। मलआनलो = (मलय+अनलो, अनल = हवा, पवन) मलय पर्वत की ओर से आने वाली हवा। मलय पर्वत पर चंदन के पौधे होने की वजह से उधर से आनी वाली हवा भी सुगंध भरी होती है। मलय पहाड़ भारत के दक्षिण में है। सगल = सारी। बनराइ = बनस्पति। फुलंत = फूल रही है। जोती = ज्योति-रूप प्रभु।1। भव खंडन = हे जनम मरन काटने वाले। अनहता = अन+हत, जो बिना बजाए बजे, एक रस। शबद = आवाज़, जीवन लहर। भेरी = डफ, नगारा।1। रहाउ।

अर्थ: हे जीवों के जनम, मरन, नाश करने वाले! (कुदरति में) कैसी सुंदर तेरी आरती हो रही है! (सभ जीवों में चल रहीं) एक ही जीवन तरंगें, मानों तेरी आरती के वास्ते नगारे बज रहे है।1। रहाउ।

सहस तव नैन नन नैन है तोहि कउ सहस मूरति नना एक तोही ॥

सहस पद बिमल नन एक पद गंध बिनु सहस तव गंध इव चलत मोही ॥२॥

पद्अर्थ: सहस = हजारों। तव = तेरे। नैन = आँखें। नन = कोई नहीं। तोहि कउ = तेरे, तुझे, तेरे वास्ते। मूरति = शकल। ना = कोई नहीं। तूोही = तेरी। पद = पैर। बिमल = साफ। गंध = नाक। तिव = इस तरह। चलत = कौतक, आश्चर्यजनक खेल।2।नोट: शब्द ‘हहि’ ‘है’ का बहुवचन है। असल शब्द ‘तुही’ है जिसे ‘तोही’ पढ़ना है।अर्थ: (सभ जीवों में व्यापक होने के कारण) हजारों तेरी आँखें हैं (पर, निराकार होने की वजह से, हे प्रभु) तेरी कोई आँख नहीं। हजारों तेरी शक्लें हैं, पर तेरी कोई भी शक्ल नहीं है। हजारों तेरे सुंदर पैर हैं (पर निराकार होने के कारण) तेरा एक भी पैर नहीं। हजारों तेरे नाक हैं, पर तू नाक के बिना ही है। तेरे ऐसे चमत्कारों ने मुझे हैरान किया हुआ है।2। सभ महि जोति जोति है सोइ ॥] हे गौतम , मनुष्य का शरीर ही सर्वश्रेष्ठ अग्नि है । ' हम यहाँ भी देखते हैं कि धर्म को कार्य में परिणत किया जा रहा है , ब्रह्म को संसार के भीतर लाया जा रहा है। 

इन सब रूपकों में यही एक तत्त्व देखता हूँ कि मनुष्य की बनायी हुई मूर्ति मनुष्यों को हितकारिणी और शुभ हो सकती है , किन्तु उससे भी श्रेष्ठ प्रतिमा पहले से ही विद्यमान है । यदि ईश्वरोपासना करने के लिए प्रतिमा आवश्यक है तो सजीव मानवप्रतिमा तो मौजूद ही है। यदि ईश्वरोपासना के लिए मन्दिर निर्माण करना चाहते हो तो करो , किन्तु सोच लो कि उससे भी उच्चतर , उससे भी महान् मानव देह रूपी मन्दिर (मानव शरीर रूपी जगन्नाथ पूरी) तो पहले से ही मोजूद है । [ Here also we see the ideal becoming practical and Brahman is seen in everything. The principle that underlies all these stories is that invented symbolism may be good and helpful, but already better symbols exist than any we can invent. You may invent an image through which to worship God, but a better image already exists, the living man. You may build a temple in which to worship God, and that may be good, but a better one, a much higher one, already exists, the human body.] 

हम लोगों को याद रखना चाहिए कि वेद के दो भाग हैं कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड । उपनिषदों के अभ्युदय - काल में कर्म काण्ड इतना जटिल और विस्तारपूर्ण हो गया था कि उससे मुक्त होना असम्भव - सा कार्य हो गया । उपनिषदों में कर्मकाण्ड बिलकुल छोड़ दिया गया है ऐसा कहा जा सकता है , किन्तु धीरे धीरे और प्रत्येक कर्मकाण्ड के अन्दर एक उच्चतर अर्थगाम्भीर्य दिखाने की चेष्टा की गयी है । अत्यन्त प्राचीन काल में यह सब यज्ञादिक कर्मकाण्ड प्रचलित थे , किन्तु उपनिष्दकाल में ज्ञानियों का अभ्युदय हुआ

उन लोगों ने क्या किया ? आधुनिक सुधारकों के समान उन लोगों ने यज्ञादि के विरुद्ध प्रचार करके उसे एकदम मिथ्या या पाखण्ड कहकर उड़ा देने को चेष्टा नहीं की , किन्तु उन्हीं का उच्चतर तात्पर्य समझाकर लोगों को एक ग्रहण करने योग्य वस्तु दी । उन्होंने कहा ' अग्नि में हवन करो , वहुत अच्छी बात है , किन्तु इस पृथ्वी पर दिनरात हवन हो रहा है । यह क्षुद्र मन्दिर है , ठीक है , किन्तु सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ही हमारा मन्दिर है , हम कहीं भी उपासना क्यों न करें , कोई हानि नहीं । तुम लोग वेदी बनाते हो- किन्तु हम लोगों के मत में , जीवित चेतन मनुष्यदेह रूपी वेदी वर्तमान है और इस मनुष्यदेहरूपी वेदी पर की गयी पूजा दूसरी अचेतन मृत , जड़ मूर्ति की पूजा की अपेक्षा श्रेयस्कर है । ' 

यहाँ और भी एक विशेष मत का वर्णन किया गया है । मैं इसका अधिकांश नहीं समझता । उपनिषद् का यह एक अंश मैं पढ़ता हूँ , तुम लोग इसे कुछ समझ सको तो समझो । जो व्यक्ति ध्यान - बल से विशुद्धचित्त होकर ज्ञानलाभ कर चुका है , वह जब मरता है , तो पहले अर्चि  , उसके बाद दिन, फिर क्रमशः शुक्लपक्ष में ओर उत्तरायण षण्मास में जाता है ; वहाँ से संवत्सर , संवत्सर से सूर्य लोक , और सूर्यलोक से चन्द्रलोक , तथा चन्द्रलोक से विद्युल्लोक में जाता है । वहाँ से एक दिव्यपुरुष उसे ब्रह्मलोक में ले जाते हैं । इसी का नाम देवयान है । 

जब साधु और ज्ञानियों की मृत्यु होती है , तो वे इसी मार्ग द्वारा जाते हैं । इस मास , संवत्सर आदि शब्दों का क्या अर्थ है यह कोई भी भलीभाँति नहीं समझता । सभी अपने अपने मस्तिष्क का कल्पित अर्थ लगाते रहते हैं । बहुत से लोग यह भी कहते हैं कि यह बेकार की बात है । इन चन्द्र लोक , सूर्यलोक आदि में जाने का क्या अर्थ है ? और यह दिव्य पुरुष आकर विद्युल्लोक से ब्रह्मलोक में ले जाता है , इसका भी क्या अर्थ है ? हिन्दुओं में एक धारणा थी कि चन्द्रलोक में प्राणी रहते हैं— इसके बाद हम लोग यह देखेंगे कि किस प्रकार चन्द्र लोक से पतित होकर मनुष्य पृथ्वी पर वापस आता है । 

जो ज्ञान प्राप्त नहीं करते हैं किन्तु इस जीवन में शुभ कर्म कर चुके हैं वे जब मरते हैं तो पहले धूम्र में जाते हैं फिर रात्रि में , तदनन्तर कृष्णपक्ष फिर दक्षिणायन षण्मास और उसके बाद संवत्सर में से होकर वे पितृलोक में जाते हैं । वहाँ से आकाश में और फिर वे चन्द्रलोक में गमन करते हैं । वहाँ देवताओं के खाद्यरूप होकर देवजन्म ग्रहण करते हैं । जब तक उनका पुण्यक्षय नहीं होता तब तक वहीं रहते हैं । 

कर्मफल समाप्त होने पर फिर उन्हें पृथ्वी पर आना पड़ता है । वे पहले आकाशरूप में परिणत होते हैं , फिर वायुरूप से फिर घूम्र , उसके बाद मेघ आदि के रूप में परिणत होकर अन्त में , वृष्टिकण का आश्रय लेकर पृथ्वी पर गिर पड़ते हैं , वहाँ शस्यक्षेत्र में गिरकर शस्य रूप में परिणत होकर मनुष्य के खाद्यरूप में परिगृहीत होते हैं और अन्त में उनकी सन्तानादि बन जाते हैं । 

जिन लोगों ने खूब सत्कर्म किये थे , वे सदवंश में जन्म ग्रहण करते हैं । जिन लोगों ने अत्यन्त असत् कर्म किये थे , उनका अत्यन्त नीच जन्म होता है , यहाँ तक कि उनको कभी कभी सूअर का भी जन्म लेना पड़ता है । और जो व्यक्ति देवयान और पितृयान नामक इन दोनों रास्तों में से किसी भी एक रास्ते पर नहीं चल पाते , वे बार बार जन्म ग्रहण करते रहते हैं तथा बार बार मौत के मुँह में पड़ते रहते हैं , इसी कारण पृथ्वी न तो एकदम सूनी होती है और न परिपूर्ण ही

हम लोग इससे कुछ थोड़े से भाव प्राप्त कर सकते हैं और बाद में शायद हम इसका बहुत कुछ अर्थ भी समझ सकेंगे । अन्तिम बातें , अर्थात स्वर्ग में जाकर जीव फिर से किस प्रकार लौट आते हैं , वे पहली बात की अपेक्षा मानो कुछ अधिक स्पष्ट प्रतीत होती हैं , किन्तु इन सब उक्तियों का सार तत्त्व यही जान पड़ता है कि ब्रह्मानुभूति के बिना स्वर्गादिप्राप्ति व्यर्थ है । मान लो , कुछ व्यक्ति जिन्हें अभी तक ब्रह्मानुभव नहीं हो सका किन्तु इस लोक कुछ सत्कर्म कर चुके हैं और वह कर्म भी सकाम किया गया है , तो उनकी मृत्यु होने पर वे इधर - उधर अनेक स्थानों में घूम फिरकर स्वर्ग पहुँचते हैं और हम लोग भी जिस प्रकार पैदा होते हैं , ठीक उसी प्रकार वे भी देवताओं की सन्तानरूप में पैदा होते हैं और जितने दिन उनके शुभ कर्मफल की समाप्ति नहीं होती उतने दिन वे वहां रहते हैं ।

 इसी से वेदान्त का एक मूल तत्त्व यह पाया जाता है कि जिसका नाम - रूप है वही नश्वर है । अतएव स्वर्ग भी नश्वर होगा , क्योंकि उसका भी तो नाम - रूप है , अनन्त स्वर्ग स्व विरोधी वाक्य मात्र है , जिस प्रकार यह पृथ्वी अनन्त नहीं हो सकती , क्योंकि जिस वस्तु का भी नाम - रूप है उसी की उत्पत्ति काल में है , स्थिति काल में है , विनाश काल में है । वेदान्त का यह स्थिर सिद्धान्त है — अतएव अनन्त स्वर्ग की धारणा व्यर्थ है । 

हमने देखा है कि वेद के संहिता भाग में अनन्त स्वर्ग का वर्णन, उसीप्रकार  है, जिस प्रकार मुसलमान और ईसाईयों के धर्म - ग्रन्थों में है । मुसलमानों की स्वर्ग - धारणा और भी स्थूल है। वे लोग कहते हैं , स्वर्ग में बाग - बगीचे हैं , उनके नीचे नदियाँ बह रही हैं । अरब -वासियों के रेगिस्तान में जल एक बहुत ही वांछनीय पदार्थ है। इसीलिए मुसलमान सदा जलपूर्ण स्वर्ग की कल्पना करते हैं। मेरा  जहाँ जन्म हुआ (स्वामी विवेकानन्द का जन्म बंगाल ,कोलकाता में हुआ )वहाँ साल में छः महीने जल बरसता रहता है । मैं स्वर्ग को कल्पना में शायद शुष्क स्थान सोचूँगा , अंग्रेज भी यही सोचेंगे । संहिता का यह स्वर्ग अनन्त है , वहाँ मृत व्यक्ति जाकर रहते हैं

वे लोग वहाँ सुन्दर देह पाकर वहाँ के पितृगण के साथ अत्यन्त सुखसहित चिरकाल तक रहते हैं , वहीं उनके माता - पिता स्त्री पुत्रादि भी आ मिलते हैं । और वे बहुत कुछ यहीं के समान रहते हैं ; हाँ उनका जीवन अपेक्षाकृत अधिक सुखमय होता है । उन लोगों के स्वर्ग की धारणा भी यही है कि इस सांसारिक जीवन में सुख प्राप्ति में जो सब विघ्न - बाधाएँ हैं वे सब वहाँ मिट जायेंगी , केवल इसका जो सुखमय अंश वही शेष रहेगा । 

स्वर्ग की यह धारणा हमें सुखकर भले ही प्रतीत हो, किन्तु सुखकर और सत्य ये दोनों पूर्ण रूप से भिन्न वस्तुएँ हैं । वास्तव में चरम सीमा पर पहुॅचे बिना (इन्द्रियातीत अवस्था में पहुँचे बिना ?)  सत्य कभी सुखकर नहीं होता । मनुष्य का स्वभाव ही बड़ा स्थितिशील (दकियानूसी) है । मनुष्य कोई विशेष काम करता रहता है तो एक बार उसे शुरू करने पर फिर उसे छोड़ना उसके लिए बहुत कठिन हो जाता है । मन कोई नया विचार (अहंब्रह्मास्मि) ग्रहण करना ही नहीं चाहता, क्योंकि वह (मिथ्या अहं M/F देहाध्यास को छोड़ना) बहुत कष्टकर होता है । 

अतएव हम लोग देखते हैं कि उपनिषदों में पूर्वप्रचलित धारणा का विशेष व्यक्तिक्रम हुआ है । उपनिषदों में कहा है , यह सब स्वर्ग जहाँ मनुष्य जाकर पितृगण के साथ रहता है , कभी नित्य नहीं हो सकता , क्योंकि नाम - रूपात्मक सभी वस्तुएँ विनाशशील हैं । यदि स्वर्ग साकार है तो काल के अनुसार उस स्वर्ग का अवश्य नाश होगा । हो सकता है , वह लाखों वर्ष रहे , किन्तु अन्त में ऐसा एक समय अवश्य आयगा कि उसका नाश होगा , और अवश्य होगा ।

इसी बीच एक और भी धारणा लोगों के मन में आयी है और वह यह कि ये सब आत्माएँ दुबारा इसी पृथ्वी पर लौट आती हैं और स्वर्ग केवल उनके शुभ कर्मों के फलभोग का स्थानमात्र है । फलभोग शेष होने पर वे फिर पृथ्वी पर ही जन्म ग्रहण करती हैं । एक बात इसी से स्पष्ट प्रतीत होती है कि मनुष्य को अत्यन्त प्राचीन काल से ही कार्यकारण - विज्ञान विदित था । बाद में हम लोग देखेंगे कि हमारे दार्शनिकों ने इसी तत्व का वर्णन दर्शन तथा न्याय की भाषा में किया है, किन्तु इस स्थान में मानो एक शिशु की अस्पष्ट भाषा में इसे कहा गया है । 

इन सब ग्रन्थों का पाठ करते समय तुम लोगों ने शायद यह समझ लिया होगा कि ये सब तत्त्व प्रत्यक्ष अनुभूति के फलस्वरूप हैं । यदि तुम लोग यह पूछो कि ये सब कार्यरूप में परिणत हो सकते हैं या नहीं तो मैं कहूँगा कि पहले ये सब कार्यरूप में परिणत हुए हैं और बाद में दर्शन के रूप में आविर्भूत हुए हैं । तुमने देखा कि ये सब पहले अनुभूत हुए , बाद में लिखे गये । सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड प्राचीन ऋषियों के साथ मानो बातें करता था । पक्षिगण उनसे बोलते , पशुगण भी उनसे बात चीत करते और चन्द्र - सूर्य से भी उनका सम्भाषण होता था । 

उन्होंने क्रमशः विश्व-ब्रह्माण्ड के समस्त वस्तुओं के साथ एकात्मबोध का अनुभव किया , और वे प्रकृति के अन्तस्तल में प्रविष्ट हो गए । उन्होंने उस परम् सत्य उपलब्धि  चिन्तन द्वारा अथवा तर्क द्वारा नहीं पाया और न आजकल की प्रथा के अनुसार ऐसा ही हुआ कि किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा विचारित कुछ विषय संग्रह किये और एक ग्रन्थ बना दिया , अथवा मैं आज जैसे उन्हीं के एक ग्रन्थ को लेकर लम्बी - चौड़ी वक्तृता दे डालता हूँ , ऐसा भी नहीं हुआ , वरन् उनको इसका आविष्कार करना पड़ा । इसका सार था साधना - प्रत्यक्षानुभूति , और चिरकाल तक वही रहेगा । धर्म चिरकाल तक एक प्रत्यक्ष विज्ञानस्वरूप रहेगा । मतवाद कभी धर्म नहीं हो सकता । पहले अभ्यास (प्रत्याहार -धारणा का अभ्यास) , उसके बाद ज्ञान । 

जीवगण यहाँ लौट आते हैं , यह धारणा मैं उपनिषद् में पहले से ही विद्यमान पाता हूँ । जो फल की कामना से कुछ सत्कर्म करते हैं , उन्हें उस सत्कर्म का फल प्राप्त होता है , किन्तु यह फल नित्य नहीं होता । कार्य - कारण - वाद यहाँ बहुत सुन्दर रूप में वर्णित हुआ है , क्योंकि कहा गया है कि कार्य कारण के अनुसार ही होता है । जैसा कारण है , कार्य भी वैसा ही होगा ; कारण जब अनित्य है तो कार्य भी अनित्य है । कारण नित्य होने पर कार्य भी नित्य होगा । किन्तु सत्कर्म - रूपी ये कारण अनित्य और ससीम है अतएव उनका फल भी नित्य नहीं हो सकता । 

इस तत्त्व का एक और पहलू देखने से यह भलीभांति समझ में आ जायगा कि जिस कारण से अनन्त स्वर्ग नहीं हो सकता उसी कारण से अनन्त नरक भी नहीं हो सकता । मान लो , मैं एक बहुत दुष्ट आदमी हूँ और समस्त जीवन भर अन्यायपूर्ण कर्म करता रहा हूँ , तो भी यह सारा जीवन उसकी अनन्त जीवन के साथ तुलना करने पर कुछ भी नहीं है । यदि दण्ड अनन्त हो तो इसका यह अर्थ होगा कि ससीम कारण से असीम फल की उत्पत्ति हुई । यह नहीं हो सकता । यदि यह मान लिया जाय कि समस्त जीवनपर्यन्त सत्कर्म करते रहने पर अनन्त स्वर्गलाभ होता है तो भी यह दोष बना रहेगा । 

उपर्युक्त जिन सब मार्गों की बातें कही गयी हैं , उनके व्यतिरिक्त उन लोगों के लिए जिन्होंने सत्य को जान लिया है और भी एक तीसरा  मार्ग है । मायावरण से बाहर निकलने का यही एकमात्र उपाय है – ' सत्य का अनुभव करना । ' और सब उपनिषद् , यह सत्यानुभव किसे कहते हैं , यही समझाते हैं । अच्छा बुरा कुछ न देखो , सभी वस्तुएँ और सभी कार्य आत्मा से उत्पन्न होते हैं, यही विचार करो । आत्मा सभी में है । यही कहो कि जगत् नामक कोई चीज नहीं है । बाह्यदृष्टि बन्द करो और उसी प्रभु को स्वर्ग नरक सभी स्थानों में देखो । क्या मृत्यु , क्या जीवन– सर्वत्र उसी की उपलब्धि करो । 

मैंने पहले जो तुम्हें पढ़कर सुनाया है , उसमें भी यही भाव है — यह पृथ्वी उसी भगवान् का एक पाद है , आकाश भी भगवान् का दूसरा एक पाद है , इत्यादि इत्यादि । ये सब ब्रह्म हैं । परन्तु यह देखना पड़ेगा , अनुभव करना पड़ेगा , इस विषय की केवल आलोचना अथवा चिन्ता करने से कुछ नहीं होगा । मान लो , जब आत्मा ने जगत् की प्रत्येक वस्तु का स्वरूप समझ लिया और उसे यह अनुभव होने लगा कि प्रत्येक वस्तु ही ब्रह्ममय है , तब वह स्वर्ग में जाय अथवा नरक में , या अन्यत्र और कहीं चली जाय , तो इससे कछ बनता बिगड़ता नहीं

मैं (नरेन्द्र से विवेकानन्द बन चुका हूँ, अब मैं) पृथ्वी पर जन्म अथवा स्वर्ग में जाऊं , इससे कोई अन्तर नहीं होता । मेरे लिए ये सब निरर्थक है क्योंकि मेरे लिए सभी स्थान समान हैं , सभी स्थान भगवान् के मन्दिर हैं , सभी स्थान पवित्र हैं , कारण स्वर्ग , नरक अथवा अन्यत्र मैं केवल भगवत्सत्ता का ही अनुभव कर रहा हूँ । भला - बुरा अथवा जीवन - मरण मुझे कुछ नहीं दीखते । वेदान्त - मत में मनुष्य जब ऐसी अनुभूति प्राप्त कर लेता है । तब वह मुक्त हो जाता है और वेदान्त कहता है केवल वही व्यक्ति संसार में रहने योग्य है , दूसरा नहीं । जो व्यक्ति जगत् में केवल अन्याय देखता है , वह भला संसार में कैसे वास कर सकता है ? उसका जीवन तो सर्वदा दुःखमय होगा । 

जो व्यक्ति यहाँ अनेकानेक विघ्न - बाधाओं तथा विपत्तियों को देखता है , मृत्यु देखता है , उसका जीवन तो दुःखमय होगा ही , परन्तु जो व्यक्ति प्रत्येक वस्तु में उसी सत्य - स्वरूप को देखता है , वही संसार में रहने योग्य है ; वही यह कह सकता है , कि मैं इस जीवन का उपभोग कर रहा हूँ , मैं इस जीवन में खूब सुखी हूँ । यहाँ मैं यह कह देना चाहता हूँ कि वेद में कहीं भी नरक का उल्लेख नहीं है । वेद के बहुत परवर्ती काल में रचित पुराणों में यह नरक - प्रसंग दिया गया है

वेद में सब से बड़ा दण्ड है- पुनर्जन्म अर्थात् और एक बार उन्नति की सुविधा प्राप्त करना । [The worst punishment according to the Vedas is coming back to earth, having another chance in this world.] हम देखते हैं कि पहले से ही यह निर्गुण भाव चलता आ रहा है । पुरस्कार और दण्ड का भाव बहुत ही जड़भावात्मक है और यह भाव केवल मनुष्य के समान सगुण ईश्वरवाद में ही सम्भव है जो ईश्वर हमारे समान एक को प्रेम करते हैं , दूसरे को नहीं । इस प्रकार की ईश्वर - धारणा के साथ ही पुरस्कार और दण्ड का भाव संगत हो सकता है । संहिताओं में ईश्वर का वर्णन इसी प्रकार दिया गया है ।

वहाँ इस धारणा के साथ भय मिला हुआ था , किन्तु उपनिषदों में यह भय - भाव बिलकुल नहीं मिलता ; इसके साथ ही उपनिषदों में हम निर्गुण की धारणा पाते हैं - और प्रत्येक दशा में यह निर्गुण की धारणा करना ही विशेष कठिन होता है । मनुष्य सर्वदा ही सगुण रूप लेकर रहना चाहता है । बहुत बड़े बड़े विचारक भी , कम से कम संसार जिन्हें बहुत विचारक मानता है , इस निर्गुणवाद से सहमत नहीं हैं।  किन्तु मुझे यह सगुणवाद (God as an embodied man.) अत्यन्त हास्यास्पद , अत्यन्त निम्नभावमय तथा क्षुद्र व्यक्तियों के योग्य – यहाँ तक कि अत्यन्त भगवन्निन्दाकर प्रतीत होता है । (But to me it seems so absurd to think of God as an embodied man.)

 यदि कोई शिशु  भगवान् को एक साकार व्यक्ति मान लें तो यह क्षम्य है , किन्तु वयस्क व्यक्तियों के लिए - चिन्तनशील नर नारियों के लिए भगवान् को एक स्त्री या पुरुष मानना बहुत लज्जास्पद है । प्रश्न उठता है कि उच्चतर भाव कौनसा है जीवित ईश्वर (living God)  या मृत ईश्वर (dead God) ? - जिस ईश्वर को कोई देख नहीं सकता, जान नहीं पाता -- अथवा जो ईश्वर हमारे सम्मुख चारों ओर प्रकट एवं ज्ञात है ? (A God whom nobody sees, nobody knows, or a God Known?) 

[ ???????/ समय समय पर वे जगत् में अपने एक एक दूत को भेज देते हैं जिसके एक हाथ में तलवार रहती है और दूसरे में अभिशाप , और हम यदि उनकी बातों में विश्वास न कर लें तो एकदम विनाश ! ने स्वयं आकर क्यों नहीं बताते कि हमें क्या करना चाहिए ? वे क्रमश : दूत भेजकर हम लोगों को दण्ड और अभिशाप क्यों दे रहे हैं ? किन्तु इसी विश्वास से अनेक व्यक्ति सन्तुष्ट हैं । हम लोगों की कैसी अधोगति है !?????? ] 

दूसरी ओर निर्गुण ईश्वर जीवंत ईश्वर है, वह एक तत्त्व मात्र है।  सगुण - निर्गुण के बीच में भेद यही है कि सगुण ईश्वर , क्षुद्र मानवविशेष मात्र है !  और निर्गुण ईश्वर है मनुष्य , पशु , देवता तथा कुछ और अधिक जो हम नहीं देख पाते हैं। क्योंकि सगुण निर्गुण के अन्तर्गत है और निर्गुण सगुण व्यष्टि , समष्टि एवं उसके अतिरिक्त और भी बहुत कुछ है । जिस प्रकार एक ही अग्नि जगत् में भिन्न भिन्न रूप से प्रकाशित होती है , और उसके अतिरिक्त भी अग्नि का अस्तित्व है इसी प्रकार निर्गुण भी है । ' दूसरी ओर निर्गुण ईश्वर को जीवित रूप में हम अपने सम्मुख देख रहे हैं ; वे एक तत्त्व मात्र हैं । सगुण - निर्गुण के बीच में भेद यही है कि सगुण ईश्वर , क्षुद्र मानवविशेष मात्र है , और निर्गुण ईश्वर है मनुष्य , पशु , देवता तथा अन्य वह सब जो हम नहीं देख पाते हैं , कारण , सगुण निर्गुण के अन्तर्गत है और निर्गुण सगुण व्यष्टि , समष्टि एवं उसके अतिरिक्त और भी बहुत कुछ है । जिस प्रकार एक ही अग्नि जगत् में भिन्न भिन्न रूप से प्रकाशित होती है , और उसके अतिरिक्त भी अग्नि का अस्तित्व है इसी प्रकार निर्गुण भी है । '

 [because impersonality includes all personalities, is the sum total of everything in the universe, and infinitely more besides. "As the one fire coming into the world is manifesting itself in so many forms, and yet is infinitely more besides," so is the Impersonal.] 

हम जीवित ईश्वर की पूजा करना चाहते हैं । मैंने सम्पूर्ण जीवन में ईश्वर के अतिरिक्त और कुछ नहीं देखा । तुमने भी नहीं देखा । इस कुर्सी को देखने से पहले तुम्हें ईश्वर को देखना पड़ता है , उसके बाद उन्हीं के भीतर से कुर्सी को देखना पड़ता है । वे दिन - रात जगत् में रहकर प्रतिक्षण ' मैं हूँ ' कह रहे हैं । जिस क्षण तुम बोलते हो ' मैं हूँ ' उसी क्षण तुम उस सत्ता को जान रहे हो । तुम ईश्वर को कहाँ ढूँढ़ने जाओगे , यदि तुम उसे अपने हृदय में , जीवित प्राणियों में नहीं देख पाते - यदि तुम रास्ते से जानेवाले उस बोझा ढोनेवाले कुली में जिसके शरीर से पसीने की धारा बह रही है , उसे नहीं देख पाते ?

त्वं स्त्री त्वं पुमानसि त्वं कुमार उत वा कुमारी , त्वं जीर्णो दण्डेन वञ्चसि , त्वं जातो भवसि विश्वतोमुखः । ' ---- " तुम स्त्री , तुम पुरुष , तुम कुमार , तुम कुमारी हो , तुम्हीं वृद्ध होकर लाठी के सहारे चल रहे हो , तुम्हीं सम्पूर्ण जगत् में भिन्न भिन्न रूप में प्रकट हुए हो। - यह सब तुम्हीं हो । ' कितना अद्भुत ' जीवित ईश्वर ' है --संसार में वह ही एकमात्र सत्य है। तुम्हीं ! संसार में वे भयंकर प्रतीत ही एकमात्र वस्तु हैं — यह अनेक लोगों को बड़ा होता है । वास्तविक बात यह है कि यह पूर्वपरिचालित ईश्वर धारणा का विरोधी भाव है ; वह ईश्वर - धारणा यह है कि वे किसी विशेष स्थान में किसी आवरण के पीछे छिपे बैठे हैं , उन्हें कोई कभी नहीं देख सकता । 

पुरोहित लोग हमें केवल यही आश्वासन देते हैं कि यदि हम लोग उनका अनुसरण कर उनकी पद - धूलि चाहते रहें और उनकी पूजा करते रहें तो हम लोग इस जीवन में चाहे ईश्वर को न भी देख पायें , किन्तु मरते समय वे हमें एक मुक्ति पत्र देंगे और तब हम ईश्वर दर्शन कर सकेंगे । इससे यह स्पष्ट ही समझ में आता है कि यह सब स्वर्गवाद ही है , इसके अतिरिक्त और क्या है ? - केवल पुरोहितों की दुष्टता । 

अवश्य ही निर्गुणवाद अनेक चीज नष्ट कर डालता है , वह पुरोहितों के हाथ से सारा व्यवसाय छीन लेता है , उसके फल स्वरूप मन्दिर , गिर्जा आदि सब उड़ जाते हैं । भारत में इस समय दुर्भिक्ष हो रहा है , किन्तु वहाँ ऐसे बहुत से मन्दिर हैं जिनमें इतने प्रचूर हीरा - जवाहिरात तथा बहुमूल्य रत्नों की राशि सुरक्षित हैं कि प्रत्येक मंदिर एक राजा को भी खरीद सकता है यदि लोग इस निर्गुण ब्रह्म को जान जायेंगे तो उनका व्यवसाय छिन जायगा । किन्तु हमें यह पुरोहिताई छुड़ानी पड़ेगी । तुम भी ईश्वर , मैं भी वही --तब कौन किसकी आज्ञा पालन करे ? कौन किसकी उपासना करे ? तुम्हीं ईश्वर के सर्वश्रेष्ठ मन्दिर हो ; मैं किसी मन्दिर में किसी प्रतिमा या किसी शास्त्र की उपासना न कर तुम्हारी ही उपासना करूँगा । 

Why are some people so contradictory in their thought? लोग इतनी परस्परविरोधी विचार क्यों रखते  हैं ? लोग कहते हैं , हम ठेठ प्रत्यक्षवादी है (hard-headed practical men हैं )  , ठीक बात है ; किन्तु तुम्हारी उपासना करने की अपेक्षा और क्या अधिक प्रत्यक्ष हो सकता है ?

लोग इतनी परस्परविरोधी विचार क्यों करते हैं ? लोग कहते हैं , हमलोग तो ठेठ प्रत्यक्षवादी है (hard-headed practical men हैं )ठीक बात है, किन्तु तुम्हारी उपासना करने की अपेक्षा और क्या अधिक प्रत्यक्ष हो सकता है ? मैं तुम्हें देख रहा हूँ , तुम्हारा अनुभव कर रहा हूँ और जानता हूँ कि तुम ईश्वर हो । `The Mohammedan says, there is no God but Allah. '  मुसलमान कहते हैं , अल्लाह के सिवाय और कोई ईश्वर नहीं हैं ; किन्तु वेदान्त कहता है , मनुष्य के सिवाय दूसरा ईश्वर नहीं है । यह सुनकर तुममें से बहुतों को भय हो सकता है , किन्तु तुम लोग धीरे धीरे यह समझ जाओगे । जीवित ईश्वर तुम लोगों के साथ रहते हैं , तब भी तुम मन्दिर , गिर्जाघर आदि बनाते हो और सब प्रकार की काल्पनिक झूठी चीजों में विश्वास करते हो । 

मनुष्य-देह में स्थित मानव-आत्मा ही एकमात्र उपास्य ईश्वर है । हां , पशु (तिर्यक जाति) भी भगवान् के मन्दिर हैं , किन्तु मनुष्य ही सर्वश्रेष्ठ मन्दिर है- ताजमहल जैसा । (तिर्यक योनि--मनुष्य को छोड़ पशु पक्षी आदि जीव तिर्यक् --अर्थात  तिरछा, आड़ा, टेढ़ा , बंकिम कहलाते हैं क्योंकि खडे़ होने में उनके शरीर का विस्तार ऊपर की ओर नहीं रहता, आड़ा होता है ।  विशेष— इनका खाया हुआ अन्न सीधे ऊपर से नीचे की ओर नहीं जाता, बल्कि आड़ा होकर पेट में जाता है। )  यदि मैं मानवमात्र की  उपासना नहीं कर सका तो किसी भी मन्दिर से कुछ भी उपकार नहीं होगा । जिस क्षण में प्रत्येक मनुष्य - देहरूपी मन्दिर में उपविष्ट ईश्वर की उपलब्धि कर सकूँगा , जिस क्षण में प्रत्येक मनुष्य के सम्मुख भक्तिभाव से खड़ा हो सकूँगा और वास्तव में उनमें ईश्वर देख सकूँगा , जिस क्षण मेरे अन्दर यह भाव आ जायगा , उसी क्षण में सम्पूर्ण बन्धनों से मुक्त हो जाऊँगा -- सभी पदार्थ मेरी दृष्टि से हट जायेंगे

यही सब से अधिक व्यावहारिक उपासना है । मत - मतान्तर से हमारा कोई प्रयोजन नही । किन्तु यह बात कहने से अनेक लोग डर जाते हैं । वे कहते हैं , यह ठीक नहीं है । वे यही सोचते रहते हैं कि उनके वयोवृद्ध परबाबा के बाबा के बाबा बीस हजार वर्ष पहले क्या कह गये हैं , और वे जिनसे कह गये हैं , वे फिर दूसरों से क्या कह गये हैं , आदि आदि । बात यह है कि स्वर्ग के किसी स्थान पर बैठे हुए एक ईश्वर ने किसी व्यक्ति (नशेड़ी ) से कहा- में ईश्वर हूँ! (मैं परवरदिगार हूँ -और 'राम ' तो केवल बन्दा हैं। ) और उस पैगंबर के अनुयायी विगत  साल से उसीके सम्बन्ध में बौद्धिक माथापच्ची किये चले आ रहे हैं। उसी समय से केवल मत - मतान्तरों की आलोचना ही चल रही है । उनके मत में यही व्यावहारिक बात है - और हम लोगों का वेदान्त -मत कामकाज में लाने योग्य अथवा व्यावहारिक नहीं है[They go on theorising about old ideals told them by their grandfathers, that a God somewhere in heaven had told some one that he was God. Since that time we have only theories. This is practicality according to them, and our ideas are impractical !] 

वेदान्त कहता है , सब अपने अपने रास्ते पर चलें , कोई हर्ज नहीं किन्तु आदर्श यही है । स्वर्गस्थ ईश्वर आदि की उपासना करना बुरा नहीं , किन्तु ये सब केवल सोपान मात्र हैं , सत्य नहीं । इन सब में सुन्दर एवं महान् भाव है , किन्तु वेदान्त पग पग पर कहता, बन्धु , तुम जिनकी अज्ञात कहकर उपासना करते हो और सारा जगत् जिन्हें खोजता फिरता है , वे जगत में सदा ही विराजमान हैं । तुम जीवित हो , वह भी वे हैं इसी कारण ; वे ही जगत् के नित्यसाक्षी हैं । सम्पूर्ण वेद जिनकी उपासना करते हैं , केवल यही नहीं , जो नित्य ' मैं ' में वर्तमान हैं , वे ही हैं इसलिए सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भी है ।

वे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के प्रकाशस्वरूप हैं । वे यदि तुम्हारे भीतर न हों तो तुम सूर्य को भी न देख पाते , सभी कुछ तुम्हारे लिए अन्धकारमय जड़राशि- शून्य के समान प्रतीत होता । वे ही प्रकाशित हैं , इसीलिए तुम जगत् को देख रहे हो । 

इस विषय में साधारणतया एक प्रश्न पूछा जाता है और वह यह है कि इस बिचारधारा से बहुत गड़बड़ी हो जाने की सम्भा वना है । हम सभी यह सोचेंगे कि मैं ईश्वर हूँ - जो कुछ मैं सोचता हूँ या करता हूँ वही अच्छा है क्योंकि ईश्वर को भला पाप क्या ? इसका उत्तर यह है कि पहले यदि इस प्रकार की विपरीत व्याख्या रूप आशंका की सम्भावना मान भी ली जाय तब भी क्या यह प्रमाणित किया जा सकता है कि दूसरे पक्ष में भी यही आशंका नहीं उत्पन्न होगी ? लोग अपने से पृथक् स्वर्गस्थित ईश्वर की उपासना करते हैं , उससे खूब डरते भी हैं । वे लोग भय से काँपते रहते हैं और सारा जीवन इसी प्रकार काँपते हुए काट देते हैं । 

तो क्या दुनिया ऐसा मान लेने पर भी पहले की अपेक्षा अधिक अच्छी हो गयी है ? तुम भी दूसरे से यही पूछ रहे थे । विचार करो कि जो सगुण ईश्वरवाद मानकर उसकी उपासना करते हैं और जो निर्गुण ईश्वरतत्त्व को समझकर निर्गुण की उपासना करते हैं , इन दोनों में से किसके सम्प्रदाय में संसार के बड़े - बड़े महापुरुष हो गये हैं ? महान् कर्मयोगी - महा चरित्रवान् ! निश्चय ही ऐसे महापुरुष निर्गुण साधकों के बीच ही हुए हैं ! भयभीत व्यक्ति क्या कभी चरित्रवान् या बलवान् पुरुष हो सकता? नहीं , कभी नहीं । ' 

"जहाँ एक दूसरे को देखता है , जहाँ एक दूसरे की हत्या करता है , वही माया है । जहाँ एक दूसरे को नहीं देखता , एक दूसरे की हत्या नहीं करता , जहाँ सर्व आत्ममय हो जाता है , वहीं फिर माया नहीं टिकती । " तब सभी ' वे ' हैं अथवा सभी ' मैं ' है - तब आत्मा पवित्र हो जाती है । तभी - और केवल तभी हम प्रेम किसे कहते हैं , यह समझ सकते हैं । डर से क्या ऐसा प्रेम हो सकता है ? प्रेम की भित्ति है , स्वाधीनता । स्वाधीनता -- मुक्तस्वभाव होने पर ही प्रेम होता है । तभी हम लोग वास्तव में जगत् को स्नेह करना प्रारम्भ करते हैं और विश्वबन्धुत्व का अर्थ समझते हैं-- अन्यथा नहीं । 

["Where one sees another, where one hears another, that is Maya. When one does not see another, when one does not hear another, when everything has become the Atman, who sees whom, who perceives whom?" It is all He, and all I, at the same time. The soul has become pure. Then, and then alone we understand what love is. Love cannot come through fear, its basis is freedom. When we really begin to love the world, then we understand what is meant by brotherhood of mankind, and not before.] 

इसलिए यह कहना उचित नहीं है कि इस निर्गुण मत से समस्त संसार में भयानकर पापधारा वह उठेगी तथा दूसरे मत से दुनिया कभी भी अन्यान्य की ओर नहीं जायगी , अथवा सारी दुनिया खून में रँगने से बच जायगी , या लोग आपस में अलग अलग होकर साम्प्रदायिकता की जड़ नहीं जमा देंगे । वे कहते हैं मेरा ईश्वर ही सर्वश्रेष्ठ है !(अल्ला हू अकबर !) । इसका प्रमाण ? आओ , हम दोनों लड़ लें -- यही प्रमाण है। (ज्ञानवापी मस्जिद प्रमाण है ?) द्वैतवाद से यही गड़बड़ी सारी दुनिया में फैल गयी है । 

क्षुद्र और संकीर्ण रास्तों में न जाकर प्रशान्त उज्ज्वल दिन के प्रकाश में आओ । महान् अनन्त आत्मा संकीर्ण भावों में कैसे बँधी रह सकती है ? हमारे सम्मुख यह प्रकाशमय ब्रह्माण्ड है , इसकी प्रत्येक वस्तु हमारी है । अपनी बाहें फैलाकर सम्पूर्ण जगत् का प्रेमालिंगन करने की चेष्टा करो । यदि कभी ऐसा करने की इच्छा हो तभी समझो कि तुम्हें ईश्वर का अनुभव हुआ है । 

बुद्धदेव के जीवनचरित्र में तुम्हें वह अंश अवश्य ही स्मरण होगा कि वे किस प्रकार उत्तर , दक्षिण , पूर्व , पश्चिम , ऊपर , नीचे सर्वत्र ही प्रेम की विचारधारा बहा देते थे , जब तक कि चारों ओर वही महान् अनन्त प्रेम नहीं छा जाता था । इसी प्रकार जब तुम लोगों का भी यही भाव होगा , तब तुम्हारा भी यथार्थ व्यक्तित्व प्रकट होगा ।  तभी सम्पूर्ण जगत् एक व्यक्ति बन जायगा - (मुद्र वस्तुओं) की ओर फिर मन नहीं जायगा । इस अनन्त सुख के लिए छोटी छोटी वस्तुओं कामिनी-कांचन में घोर आसक्ति का परित्याग कर दो। (The whole universe is one person; let go the little things. Give up the small for the Infinite, give up small enjoyments for infinite bliss.)

इन सब क्षुद्र सुखों से तुम्हें क्या लाभ होगा ? और वास्तव में तो तुम्हें इन छोटे छोटे सुखों को भी छोड़ना नहीं पड़ता , कारण , तुम लोगों को याद होगा कि सगुण निर्गुण के अन्तर्गत है , जो कि मैं पहले ही कह चुका हूँ । अतएव ईश्वर सगुण और निर्गुण दोनों ही है । मनुष्य - अनन्तस्वरूप निर्गुण मनुष्य भी अपने को सगुण रूप में , व्यक्ति रूप में देख रहे हैं ; मानो हम अनन्तस्वरूप होकर भी अपने को क्षुद्र क्षुद्र रूपों में सीमाबद्ध बना डालते हैं । वेदान्त कहता है , इसका कारण न समझ सकने पर भी इतना कहा जा सकता है कि यह हमारा प्रतिदिन का प्रत्यक्ष अनुभव है जो कभी अस्वीकार नहीं किया जा सकता । 

हम लोग अपने कर्म द्वारा अपने को सीमाबद्ध कर डालते हैं और उसी ने मानो हमारे गले में शृंखला  डालकर हमें आबद्ध कर रखा है । शृंखला तोड़ डालो और मुक्त हो जाओ ।  नियम  को पैरों तले कुचल डालो । मनुष्य के प्रकृतस्वरूप में कोई विधि नहीं , कोई दैव नहीं , कोई अदृष्ट नहीं । अनन्त में विधान या नियम कैसे रह सकते हैं ? स्वाधीनता ही इसका मूल मन्त्र है , स्वाधीनता ही इसका स्वरूप है- इसका जन्मसिद्ध अधिकार है । पहले मुक्त बनो , तब फिर जितना क्षुद्र व्यक्तित्व रखना चाहो रखो । 

तब हम लोग रंगमंच पर अभिनेताओं के समान अभिनय करेंगे । जिस प्रकार एक यथार्थ राजा (सिद्धार्थ गौतम) भिखारी के वेश में (गौतम बुद्ध के वेश में) रंगमंच पर आता है और इधर वास्तविक भिखारी रास्ते रास्ते में भटकता फिरता है । देखो , दोनों में कितना अन्तर है ! यद्यपि दृश्य दोनों ओर एक है , वर्णन करने में भी एक - सा है , किन्तु दोनों में कितना भेद है ! एक व्यक्ति भिक्षुक काअभिनय कर आनन्द ले रहा है , और दूसरा सचमुच दुःख - कष्ट से पीड़ित है । 
ऐसा भेद क्यों होता है ? कारण , एक मुक्त है और दूसरा बद्ध राजा जानता है कि उसकी यह निर्धनता सत्य नहीं है , उसने यह केवल अभिनय के लिए स्वीकार की है , किन्तु यथार्थ भिक्षुक जानता है कि यह उसकी चिरपरिचित अवस्था है , एवं उसकी इच्छा हो या न हो , उसे वह कष्ट सहना ही पड़ेगा । उसके लिए यह अभेद्य नियम के समान है और इसीलिए उसे कष्ट उठाना ही पड़ता है । हम तुम जब तक अपने स्वरूप का ज्ञान प्राप्त नहीं कर लेते तब तक हम लोग केवल मिक्षुक हैं , प्रकृति के अन्तर्गत प्रत्येक वस्तु ने ही हमें दास बना रखा है । 

हम सम्पूर्ण जगत् में सहायता के लिए चीत्कार करते हुए फिरते हैं- अन्त में काल्पनिक जीवगण के पास भी हम सहायता मांगते हैं , पर सहायता कभी नहीं मिलती ; तो भी हम सोचते हैं कि इस बार सहायता मिलेगी । इस प्रकार हम सर्वदा आशा लगाये बैठे रहते हैं । बस , इसी बीच एक जीवन बीत जाता है , और फिर वही खेल चलने लगता है । 

मुक्त होओ ; किसी दूसरे के पास से कुछ न चाहो । में यह निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि यदि तुम अपने जीवन की अतीत घटनाएँ याद करो तो देखोगे कि तुम सदैव व्यर्थ ही दूसरों से सहायता पाने की चेष्टा करते रहे किन्तु कभी पा नहीं सके ; जो  कुछ सहायता पायी है वह अपने अन्दर से ही थी । तुम स्वयं जिसके लिए चेष्टा करते हो उसे ही फल - रूप में पाते हो ; तथापि कितना आश्चर्य है कि तुम सदैव ही दूसरे से सहायता की भीख माँगते रहते हो ! 

धनियों के बैठकखाने (यदुमल्लिक का बैठकखाना ?) में यदि क्षणभर बैठकर देखो तो एक तमाशा - सा देखोगे । तुम देखोगे कि बैठकखाना सर्वदा ही पूर्ण है , किन्तु इस समय वहाँ जो लोग हैं कुछ समय के बाद वे ही लोग वहाँ दिखायी नहीं पड़ेंगे- सदैव वे लोग आशा लगाये रहते हैं कि धनियों के पास से कुछ मांगकर लायेंगे , किन्त ऐसा कर नहीं पाते । हमारा जीवन भी उसी प्रकार का है , हम केवल आशा किये चले जा रहे हैं , उनका अन्त नहीं । वेदान्त कहता है इसी आशा का परित्याग करो । 

क्यों आशा करते हो ? तुम्हारे पास सब कुछ है । तुम आत्मा हो , तुम सम्राट् - स्वरूप हो , तुम भला किसकी आशा करते हो ? यदि राजा पागल होकर अपने देश में ' राजा कहाँ है , राजा कहाँ है ' कहकर खोजता फिरे तो वह कभी राजा को नहीं पा सकता , क्योंकि वह स्वयं ही राजा है । वह अपने राज्य के प्रत्येक ग्राम में , प्रत्येक नगर में - यहाँ तक कि प्रत्येक घर में खोज करे , खूब रोये - चिल्लाये , फिर भी राजा का पता नहीं लग सकता ; क्योंकि वह व्यक्ति स्वयं ही राजा है । 
इसी प्रकार हम लोग यदि जान सकें कि हम राजा हैं और इस राजान्वेषणरूपी व्यर्थं चेष्टा को छोड़ सकें तो बहुत ही अच्छा हो । वेदान्त कहता है , इस प्रकार अपने को राजस्वरूप जान लेने पर ही हम सन्तुष्ट और सुखी हो सकते हैं । यह सब पागलों - जैसी चेष्टा छोड़कर जगतुरूपी मंच पर एक अभिनेता के समान कार्य करते चलो । इस प्रकार की अवस्था आने से हम लोगों की दृष्टि परिवर्तित हो जाती है । अनन्त कारागारस्वरूप न होकर यह जगत् खेलने का स्थान बन जाता है । प्रतियोगिता की जगह न बनकर यह भौरों के गुंजन से परिपूर्ण वसन्त काल का रूप धारण कर लेता है
पहले जो जगत् नरककुण्ड जैसा लगता था वही अब स्वर्ग बन जाता है । बुद्ध जीव की दृष्टि में यही एक महायन्त्रणा का स्थान है किन्तु मुक्त व्यक्ति की दृष्टि में यही स्वर्ग है ; स्वर्ग अन्यत्र नहीं है । एक ही प्राण सर्वत्र विराजित है । पुनर्जन्म आदि जो कुछ है सब यहीं होता है । देवतागण सब यहीं हैं - वे मनुष्य के आदर्श के अनुसार कल्पित हैं । देवताओं ने मनुष्यों को अपने आदर्श के अनुसार नहीं बनाया ; किन्तु मनुष्यों ने ही देवताओं की सृष्टि की है जैसे कि इन्द्र , वरुण और सम्पूर्ण , ब्रह्माण्ड के देवता । 
तुम्ही लोग अपने एक अंश को बाहर प्रक्षिप्त करते हो किन्तु वास्तव में तुम्ही असली वस्तु हो- तुम्ही प्रकृत उपास्य देवता हो । यही वेदान्त का मत है और इसीलिए यह यथार्थ में कार्य में लाने योग्य है । यह नहीं कि हम लोग मुक्त होने पर उन्मत्त हो समाज - त्याग कर दें और जंगलों अथवा गुफाओं में जाकर मर जायें । तुम जहाँ थे वहीं रहोगे , किन्तु भेद इतना ही होगा कि तुम सम्पूर्ण जगत् का रहस्य समझ जाओगे ![-गृहस्थ होकर भी राजर्षि जनक जैसा विदेह हो जाओगे ] । 
पहले देखी हुई समस्त वस्तुएँ (Bh आदि) जैसी की तैसी ही रहेंगी , किन्तु उनका एक नवीन अर्थ समझने लगोगे । तुम अभी जगत् का स्वरूप नहीं जानते हो ; केवल मुक्त होने पर ही इसका स्वरूप जाना जा सकेगा । इसलिए हम देखते हैं कि यह तथाकथित विधि , दैव या अदृष्ट हम लोगों की प्रकृति का एक अत्यन्त क्षुद्र अंश मात्र है । यह हम लोगों की प्रकृति का केवल एक पहलू मात्र है , दूसरी दिशा में मुक्ति सदा विराजमान है और हम लोग शिकारी द्वारा पीछा किये गये खरगोश के समान मिट्टी में अपना सिर छिपाकर अपने को अशुभ से बचाना चाहते हैं । 
अतएव देखा गया कि हम भ्रमवश अपना स्वरूप भूलने की चेष्टा करते हैं , किन्तु वह एकदम भूला नहीं जा सकता - सदैव ही वह किसी न किसी रूप में हमारे सामने आता ही है । हम जिन देवता , ईश्वर आदि का अनुसन्धान करते हैं , बाह्य जगत् में स्वाधीनता पाने के लिए हम जो प्राणपण से चेष्टा करते रहते हैं , वह सब और कुछ नहीं- हम लोगों की मुक्त प्रकृति ही मानो किसी न किसी रूप में अपने को प्रकाशित करने का यत्न कर रही है । 

कहाँ से आवाज आ रही है यह जानने में हम लोगों ने भूल की है । हम लोग पहले सोचते हैं यह आवाज अग्नि , सूर्य , चन्द्र , तारा अथवा किसी देवता से आती है - अन्त मैं हम लोग देखते हैं कि यह तो हम लोगों के अन्दर ही है । यह वही अनन्त वाणी अनन्त मुक्ति का समाचार देती है । 

यह संगीत अनन्त काल से चला आ रहा है । आत्मसंगीत का कुछ अंश इस नियमबद्ध ब्रह्माण्ड , इस पृथ्वी के रूप में परिणत हुआ है , किन्तु यथार्थतः हम लोग आत्म स्वरूप हैं और चिरकाल तक आत्मस्वरूप ही रहेंगे । एक शब्द में वेदान्त का आदर्श है— मनुष्य को उसके वास्तविक स्वरुप में जानना , और उसका सन्देश है कि यदि तुम अपने भाई मनुष्य की , व्यक्त ईश्वर की उपासना नहीं कर सकते तो उस ईश्वर की उपासना कैसे कर सकोगे , जो अव्यक्त है ?
जगत् में मनुष्य की उपासना, और वेदान्त की यही घोषणा है कि यदि तुम व्यक्त ईश्वररूप अपने भाई की उपासना नहीं कर सकते तो वेदान्त तुम्हारी उपासना में विश्वास नहीं करता । 

क्या तुम लोगों को बाइबिल की वह कथा याद नहीं कि यदि तुम अपने भाई को , जिसे तुम देख रहे हो , प्यार नही कर सकते तो ईश्वर को , जिसे तुमने कभी नहीं देखा , भला कैसे प्यार कर सकोगे ? यदि तुम ईश्वर को मनुष्य में नहीं देख सकते तो उसे मेघ अथवा अन्य किसी मृत जड़ पदार्थ में अथवा अपने मस्तिष्क की कल्पित कथाओं में कैसे देखोगे ? जिस दिन से तम नर - नारियों में ईश्वर देखने लगोगे उसी दिन से मैं तुम्हें धार्मिक कहूँगा , और तभी तुम समझोगे कि दाहिने गाल पर थप्पड़ मारने पर मारनेवाले के सामने बायाँ गाल फिराने का क्या अर्थ है । 

जब तुम मनुष्य को ईश्वररूप में देखोगे तब सभी वस्तुओं का , यहाँ तक कि यदि तुम्हारे पास बाघ तक आ जाय , तो उसका भी तुम स्वागत करोगे । जो कुछ तुम्हारे पास आता है वह सब अनन्त आनन्दमय प्रभु का भिन्न भिन्न रूप ही है — वे ही हमारे माता , पिता और बन्धु  हैं । हमारी अपनी आत्मा ही हमारे साथ खेल कर रही है । 
भगवान् को पिता कहने की अपेक्षा एक और उच्चतर भाव है — साधक लोग उन्हें ' माता ' कहते हैं । फिर इससे भी एक पवित्रतर भाव है — उन्हें ' प्रिय सखा ' कहना । उसकी अपेक्षा एक और श्रेष्ठ भाव है — उन्हें अपना प्रेमास्पद कहना । इसका कारण यही है कि प्रेम और प्रेमास्पद में कुछ भेद न देखना ही सर्वोच्च भाव है ।
  तुम लोगों को वह प्राचीन फारसी कहानी याद होगी । एक प्रेमी ने आकर अपने प्रेमास्पद के घर का दरवाजा खटखटाया । प्रश्न हुआ , ' कौन है ? ' वह बोला , ' मैं ' । द्वार नहीं खुला । दुबारा फिर उसने कहा , ' मैं आया हूँ ' , पर द्वार फिर भी न खुला । तीसरी बार वह फिर आया , प्रश्न हुआ , ' कौन है ? ' तब उसने कहा , ' प्रेमास्पद , मैं तुम हूँ ' , तब द्वार खुल गया । भगवान् और हमारे बीच सम्बन्ध भी ठीक ऐसा ही है । वे सब में हैं और वे ही सब कुछ हैं । प्रत्येक नरनारी ही वही प्रत्यक्ष जीवन्त आनन्दमय एकमात्र ईश्वर है । कौन कहता है , वह अज्ञात है ! कौन कहता है , उसे खोजना पड़ेगा ! हमने उसे अनन्त काल के लिए पाया है । हम उसी में अनन्त काल तक रहते हैं- वह सर्वत्र अनन्त काल के लिए ज्ञात है और वही अनन्त काल से उपासित हो रहा है । 

एक और बात इसी प्रसंग में जाननी होगी । वेदान्त कहता है— दूसरे प्रकार की उपासनाएँ भी भ्रमात्मक नहीं हैं । यह विषय कभी न भूलना चाहिए कि जो अनेक प्रकार के कर्मकाण्ड द्वारा भगवत् - उपासना करते हैं - हम इन कर्मों को चाहे कितना ही अनुपयोगी क्यों न मानें - वे लोग वास्तव में भ्रान्त नहीं हैं । कारण , लोग सत्य से सत्य की ओर , निम्नतर सत्य से उच्चतर सत्य की ओर आगे बढ़ते हैं । अन्धकार कहने से समझना चाहिए , स्वल्प प्रकाश ; बुरा कहने से समझना चाहिए , थोड़ा अच्छा ; अपवित्रता कहने से समझना चाहिए , स्वल्प पवित्रता । अतएव सत्य धारणा का यह भी एक पहलू है कि हम लोगों को दूसरों को प्रेम और सहानुभूति की दृष्टि से देखना चाहिए । 

हम लोग जिस रास्ते से आ रहे हैं , वे भी उसी रास्ते से चल रहे हैं । यदि तुम वास्तव में मुक्त हो तो तुम्हें अवश्य ही यह समझना चाहिए कि ने भी आगे - पीछे मुक्त होंगे । और जब तुम मुक्त ही हो गये तो जो अनित्य है उसे तुम किस प्रकार देख पाओगे ? यदि तुम वास्तव में पवित्र हो तो तुम्हें अपवित्रता कैसे दिखायी दे सकती है ? कारण , जो भीतर है वही बाहर दीख पड़ता है । हमारे अन्दर यदि अपवित्रता न होती तो हम उसे बाहर कभी देख ही न पाते । वेदान्त की यह भी एक साधना है । आशा है , हम लोग सभी जीवन में इसको व्यवहार में लाने की चेष्टा करेंगे ।

इसका अभ्यास करने के लिए सारा जीवन पड़ा है , किन्तु इन सब विचारों की आलोचना से हमें यह ज्ञात हुआ है कि अशान्ति और असन्तोष के बदले हम शान्ति और सन्तोष के साथ कार्य करें । कारण , हमने जान लिया है कि सभी कुछ हमारे अन्दर है - वह हमीं लोगों का है- वह हमारा जन्मजात अधिकार है । हमें आवश्यक है केवल उसको प्रकाशित करना , प्रत्यक्ष अनुभव करना ।
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🔆🙏कर्तार (जगतजननी माँ जगदम्बा) की कुदरती आरती 🔆🙏

श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल :-Page 13/ रागु धनासरी महला १ ॥

 गगन मै थालु रवि चंदु दीपक बने तारिका मंडल जनक मोती ॥

 धूपु मलआनलो पवणु चवरो करे सगल बनराइ फूलंत जोती ॥१॥

पद्अर्थ: गगन = आकाश। गगन मै = गगनमय, आकाशरूप, सारा आकाश। रवि = सूरज। दीपक = दीप, दीया। जनक = जैसा, जानो, मानो। मलआनलो = (मलय+अनलो, अनल = हवा, पवन) मलय पर्वत की ओर से आने वाली हवा। मलय पर्वत पर चंदन के पौधे होने की वजह से उधर से आनी वाली हवा भी सुगंध भरी होती है। मलय पहाड़ भारत के दक्षिण में है। सगल = सारी। बनराइ = बनस्पति। फुलंत = फूल रही है। जोती = ज्योति-रूप प्रभु।1। 

अर्थ: सारा आकाश (जैसे कि) थाल है। सूरज और चाँद (उस थाल में) दिये बने हुए हैं। तारों के समूह, जैसे, थाल में मोती रखे हुए हैं। मलय पर्वत से आने वाली हवा, जैसे धूप (धूणे की सुगंध) है। हवा चौर कर रही है। सारी बनस्पति ज्योति-रूप (प्रभु की आरती) वास्ते फूल दे रही है।1।

कैसी आरती होइ ॥ भव खंडना तेरी आरती ॥ अनहता सबद वाजंत भेरी ॥१॥ रहाउ॥

भव खंडन = हे जनम मरन काटने वाले। अनहता = अन+हत, जो बिना बजाए बजे, एक रस। शबद = आवाज़, जीवन लहर। भेरी = डफ, नगाड़ा ।1। रहाउ।

अर्थ: हे जीवों के जनम, मरन, नाश करने वाले! (कुदरति में) कैसी सुंदर तेरी आरती हो रही है! (सभ जीवों में चल रहीं) एक ही जीवन तरंगें, मानों तेरी आरती के वास्ते नगारे बज रहे है।1। रहाउ।

सहस तव नैन नन नैन हहि तोहि कउ सहस मूरति नना एक तुोही ॥ 

सहस पद बिमल नन एक पद गंध बिनु सहस तव गंध इव चलत मोही ॥२॥

पद्अर्थ: सहस = हजारों। तव = तेरे। नैन = आँखें। नन = कोई नहीं। तोहि कउ = तेरे, तुझे, तेरे वास्ते। मूरति = शकल। ना = कोई नहीं। तूोही = तेरी (नोट: शब्द ‘हहि’ ‘है’ का बहुवचन है। असल शब्द ‘तुही’ है जिसे ‘तोही’ पढ़ना है।) पद = पैर। बिमल = साफ। गंध = नाक। तिव = इस तरह। चलत = कौतक, आश्चर्यजनक खेल।2।

अर्थ: (सभ जीवों में व्यापक होने के कारण) हजारों तेरी आँखें हैं (पर, निराकार होने की वजह से, हे प्रभु) तेरी कोई आँख नहीं। हजारों तेरी शक्लें हैं, पर तेरी कोई भी शक्ल नहीं है। हजारों तेरे सुंदर पैर हैं (पर निराकार होने के कारण) तेरा एक भी पैर नहीं। हजारों तेरे नाक हैं, पर तू नाक के बिना ही है। तेरे ऐसे चमत्कारों ने मुझे हैरान किया हुआ है।2।

सभ महि जोति जोति है सोइ ॥ तिस दै चानणि सभ महि चानणु होइ ॥

 गुर साखी जोति परगटु होइ ॥ जो तिसु भावै सु आरती होइ ॥३॥

पद्अर्थ: जोत = प्रकाश, रोशनी। सोइ = उस प्रभु। तिस दै चानणि = उस परमेश्वर के प्रकाश से। साखी = शिक्षा के साथ।3।

अर्थ: सारे जीवों में एक वही परमात्मा की ज्योति बरत रही है। उस ज्योति के प्रकाश से सारे जीवों में प्रकाश (सूझ-बूझ) है। पर, इस ज्योति का ज्ञान गुरु की शिक्षा से ही होता है। (गुरु के द्वारा ही `गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा'  में 'Be and Make' प्रशिक्षण लेने से यह समझ पड़ती है कि हरेक के अंदर परमात्मा की ज्योति है !- अर्थात प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है। ) (इस सर्व-व्यापक ज्योति की) आरती ये है कि जो कुछ भी उसकी रजा में हो रहा है, वह जीव को अच्छा लगे (प्रभु की रजा में रहना ही प्रभु की आरती करना है)।3।

हरि चरण कवल मकरंद लोभित मनो अनदिनुो मोहि आही पिआसा ॥ 

क्रिपा जलु देहि नानक सारिंग कउ होइ जा ते तेरै नाइ वासा ॥४॥३॥

पद्अर्थ: मकरंद = फूलों के बीच की धूल (Pollen Dust), फूलों का रस। मनो = मन। अनदिनुों = हर रोज। मोहि = मुझे। आही = है, रहती है। (नोट: ‘अनदिनुों’ में अक्षर ‘न’ के साथ दो मात्राएं हैं, असल शब्द ‘अनदिनु’ है जिसे ‘अनदिनो’ पढ़ना है।) सारंगि = पपीहा। कउ = को। जा ते = जिस से, जिसके साथ। तेरे नाइ = तेरे नाम में।4।

अर्थ: हे हरि ! (अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण !) तुम्हारे चरण-रूपी कमल फूलों के लिए मेरा मन ललचाता है, हर रोज मुझे इस रस की प्यास लगी हुई है। मुझ नानक पपीहे को अपनी मेहर का जल दे, जिस (की इनायत) से मैं तेरे नाम में टिका रहूँ।4।3।

{नोट: आरती: (आरित, आरात्रिका) देवते की मूर्ति अथवा किसी पूज्य के आगे दीए घुमा के पूजा करनी। हिन्दू मतानुसार चार बार चरणों के आगे, दो बार नाभी के ऊपर, एक बार मुँह पे, और सात बार सारे शरीर पे दीए घुमाने चाहिए। दीपक एक से लेकर एक सौ तक होते हैं। गुरु नानक देव जी ने इस आरती का ख्ंडन करके कर्तार की कुदरती आरती की प्रसंशा की है।}

रागु गउड़ी पूरबी महला ४ ॥ 

कामि करोधि नगरु बहु भरिआ मिलि साधू खंडल खंडा हे ॥

 पूरबि लिखत लिखे गुरु पाइआ मनि हरि लिव मंडल मंडा हे ॥१॥

पद्अर्थ: कामि = काम-वासना से। करोधि = क्रोध से। नगरु = शरीर, नगर, जगन्नाथ-पूरी । मिलि = मिलके। साधू = गुरु। खंडल खंडा = तोड़ा है। पूरबि = पूर्व में, पहले बीते समय मे। पूरबि लिखे लिखत = पिछले (किये कर्मों के) लिखे हुए संस्कारों के अनुसार। मनि = मन में। मंडल मंडा = जड़ा हुआ है।1।

अर्थ: मनुष्य का यह शरीर रूपी शहर  (जगन्नाथ -पूरी) काम और क्रोध से भरा रहता है। गुरु को मिल के ही (काम-क्रोध आदि के इस मेल को) तोड़ जा सकता है। जिस मनुष्य को पूर्बले कर्मों के संजोगों से गुरु मिल जाता है, उसके मन में परमात्मा के साथ लगन लग जाती है (और उसके अंदर से कामादिक विकारों का जोड़ टूट जाता है)।1।

करि साधू अंजुली पुनु वडा हे ॥ करि डंडउत पुनु वडा हे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: अंजुली = दोनों हाथ जुड़े हुए। पुनु = भला काम। डंडउत = डंडौत, नीचे लेट कर नमस्कार।1। रहाउ।

अर्थ: (हे भाई!) गुरु के आगे हाथ जोड़, यह बहुत भला काम है। गुरु के आगे नत्मस्तक हो जाओ, ये बड़ा नेक काम है।1। रहाउ।

साकत हरि रस सादु न जाणिआ तिन अंतरि हउमै कंडा हे ॥ 

जिउ जिउ चलहि चुभै दुखु पावहि जमकालु सहहि सिरि डंडा हे ॥२॥

पद्अर्थ: साकत = ईश्वर से टूटे हुए लोग। सादु = स्वाद। तिन अंतरि = उनके अंदर, उनके मन में। चलहि = चलते हैं। चुभै = (काँटा) चुभता है। जम कालु = (आत्मिक) मौत। सिरि = सिर पे।2।

अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा से टूटे हुए हैं, वे उसके नाम के रस के स्वाद को नहीं समझ सकते। उनके मन में अहंकार का (मानों) काँटा चुभा हुआ है। ज्यों ज्यों वे चलते हैं (ज्यों ज्यों वे अहम् के स्वभाव में जीते हैं, अहंकार का काँटा उनको) चुभता है, वे दुख पाते हैं, और अपने सिर पर उन्हें आत्मिक मौत रूपी डंडा बर्दाश्त करना पड़ता है। (भाव, आत्मिक मौत उनके सिर पे सवार रहती है)।2।

हरि जन हरि हरि नामि समाणे दुखु जनम मरण भव खंडा हे ॥ 

अबिनासी पुरखु पाइआ परमेसरु बहु सोभ खंड ब्रहमंडा हे ॥३॥

पद्अर्थ: नामि = नाम में। समाणे = लीन, मस्त। भव = संसार। खंडा हे = नाश कर लिया है। सोभ = शोभा। खंड ब्रहमंडा = सारे जगत में।3।

अर्थ: (दूसरी तरफ) परमात्मा के प्यारे बंदे परमात्मा के नाम में जुड़े रहते हैं। उनके संसार के जनम-तरण का दुख काटा जाता है। उन्हें कभी नाश ना होने वाला परमेश्वर मिल जाता है। उनकी शोभा सारे खंड-ब्रहिमंडों में हो जाती है।3।

हम गरीब मसकीन प्रभ तेरे हरि राखु राखु वड वडा हे ॥ 

जन नानक नामु अधारु टेक है हरि नामे ही सुखु मंडा हे ॥४॥४॥

पद्अर्थ: मसकीन = आज़िज़। प्रभ = हे प्रभु। राखु = रक्षा कर। आधारु = आसरा। नामे = नाम में ही। मंडा = मिला।4।

अर्थ: हे प्रभु! हम जीव तेरे दर के गरीब भिखारी हैं। तू सबसे बड़ा मददगार है। हमें (इन कामादिक विकारों से) बचा ले। हे प्रभु तेरे दास नानक को तेरा ही आसरा है, तेरा नाम ही सहारा है। तेरे नाम में जुड़ने से ही सुख मिलता है।4।4।

[नोट: अगर पैर में काँटा चुभ जाए तो चलना-फिरना मुश्किल हो जाता है। उस काँटे (अहं ) को निकालने की जगह यदि पैरों में मख़मल की जूती पहन लें, तो भी चलते वक्त वह काँटा चुभता ही रहेगा। सुख तभी होगा, जब वह काँटा (मिथ्या अहं ) पैर में से निकाल लिया जाए। जितनी देर तक आदमी के अंदर अहंकार है, यह दुखी ही करता रहेगा। बाहरी धार्मिक वेष आदि भी सुख नहीं दे सकेंगे।

रागु गउड़ी पूरबी महला ५ ॥ 

करउ बेनंती सुणहु मेरे मीता संत टहल की बेला ॥ 

ईहा खाटि चलहु हरि लाहा आगै बसनु सुहेला ॥१॥

पद्अर्थ: करउ = मैं करता हूँ।/(नोट: ‘करउ’ वर्तमानकाल, उत्तमपुरख, एकवचन।) सुणहु = तुम सुनो।/(नोट: ‘सुणहु’ आदेश भविष्यत, मध्यम पुरख, बहुवचन है।) बेला = मौका, बेला। ईहा = यहाँ, इस जनम में। खाटि = कमा के। लाहा = लाभ, कमाई। आगै = परलोक में। बसनु = बसना, आबाद होना। सुहेला = सुखमय।1।

अर्थ: हे मेरे मित्रो! सुनो! मैं विनती करता हूँ- (अब) गुरमुखों की सेवा करने की बेला है। (यदि सेवा करोगे, तो) इस जनम में ईश्वर के नाम की कमाई कर के जाओगे, और परलोक में बसेरा सुखमय हो जाएगा।1।

अउध घटै दिनसु रैणारे ॥ मन गुर मिलि काज सवारे ॥१॥ रहाउ॥

पद्अर्थ: अउधु = उम्र। रैणा = रात। मन = हे मन! मिलि = मिल के। सवारे = सवार ले।1। रहाउ।

अर्थ: हे मन! दिन रात (बीत बीत के) उम्र घटती जा रही है। हे (मेरे) मन! गुरु को मिल के (मानव जीवन के) उद्देश्य को सफल कर।1। रहाउ।

इहु संसारु बिकारु संसे महि तरिओ ब्रहम गिआनी ॥ 

जिसहि जगाइ पीआवै इहु रसु अकथ कथा तिनि जानी ॥२॥

पद्अर्थ: बिकार = विकार रूप, विकारों से भरा हुआ। संसे महि = शंकाओं में, तौखले में। जिसहि = जिस मनुष्य को। जगाइ = जगा के। पीआवै = पिलाता है। तिनि = उसने।2।

अर्थ: ये जगत विकारों से भरपूर है। (जगत के जीव) शंकाओं में (डूब रहे हैं। इनमें से) वही मनुष्य निकलता है जिसने परमात्मा के साथ जान-पहिचान बना ली है। (विकारों में सो रहे-अर्थात कामिनी-कांचन में आसक्त ) जिस मनुष्य को प्रभु (स्वामी विवेकानन्द) स्वयं खुद जगा के ये नाम अमृत पिलाता है, उस मनुष्य ने अकथ प्रभु की बातें (बेअंत गुणों वाले प्रभु की महिमा) करने का तौर-तरीका सीख लिया है।2।

जा कउ आए सोई बिहाझहु हरि गुर ते मनहि बसेरा ॥ 

निज घरि महलु पावहु सुख सहजे बहुरि न होइगो फेरा ॥३॥

पद्अर्थ: जा कउ = जिस (उद्देश्य) के वास्ते। बिहाझहु = खरीदो, व्यापार करो। ते = से, के द्वारा। मनहि = मन में ही। निज घरि = अपने घर में। महलु = (प्रभु का) ठिकाना। सहजे = सहजि, आत्मिक अडोलता में। बहुरि = फिर, दुबारा।3।

अर्थ: (हे भाई!) जिस काम वास्ते (यहाँ) आए हो, उस का व्यापार करो। वह हरि नाम गुरु के द्वारा ही मन में बस सकता है। (यदि गुरु की शरण पड़ोगे, तो) आत्मिक आनंद और अडोलता में टिक के अपने अंदर ही परमात्मा का ठिकाना ढूँढ लोगे। फिर दुबारा जनम-मरन का चक्कर नहीं रहेगा।3।

अंतरजामी पुरख बिधाते सरधा मन की पूरे ॥ 

नानक दासु इहै सुखु मागै मो कउ करि संतन की धूरे ॥४॥५॥

पद्अर्थ: अंतरजामी = हे दिलों के जानने वाले! पुरख = हे सभ में व्यापक! बिधाते = हे निर्माता! पूरे = पूरी कर। मागै = मांगता है। मो कउ = मुझे। धूरे = चरण धूल।4।

अर्थ: हे हरेक दिल की जानने वाले सर्व-व्यापक निर्माता! मेरे मन की इच्छा पूरी कर। दास नानक तुझसे यही सुख मांगता है कि मुझे संतों के चरणों की धूल बना दे।4।5।

नोट: आखीरले अंक ५ का भाव ये है कि इस संग्रहि (सोहिले) का यह पाँचवां शबद है। पाठक सज्जन ध्यान रखें कि इस संग्रहि का नाम ‘सोहिला’ है, ‘कीरतन सोहिला’ नहीं।

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बुधवार, 25 मई 2022

व्यावहारिक जीवन में वेदान्त- स्वामी विवेकानन्द, `तृतीय व्याख्यान' 'मनुष्य की आत्मा के भीतर अनन्त शक्ति भरी पड़ी है --"O Shvetaketu, thou art That."

 व्यावहारिक जीवन में वेदान्त- 3 

( 17 नवम्बर, सन् 1896 ई. को लन्दन में दिया हुआ भाषण ) 

PRACTICAL VEDANTA - PART III

(Delivered in London, 17th November 1896)

पूर्वोक्त ( छान्दोग्य ) उपनिषद् में हमने देखा है कि देवर्षि नारद एक समय सनत्कुमार के पास आकर अनेक प्रश्न पूछने लगे । सनत्कुमार उन्हें सोपानारोहण - न्याय के अनुसार धीरे धीरे ले जाते हुए अन्त में आकाशतत्त्व में जा पहुँचे । ' आकाश तेज से भी श्रेष्ठ है , कारण , आकाश में ही चन्द्र , सूर्य , विद्युत् , नक्षत्र आदि सभी कुछ वर्तमान हैं । आकाश में ही हम श्रवण करते हैं , आकाश में ही जीवन धारण करते हैं , आकाश में ही मरते हैं । ' अब प्रश्न यह है कि क्या आकाश से भी कुछ श्रेष्ठ है ? सनत्कुमार ने कहा , ' प्राण आकाश से भी श्रेष्ठ है । ' 

वेदान्त मत में यह प्राण ही जीवन की मूलभूत शक्ति है । आकाश के समान यह भी एक सर्वव्यापी तत्त्व है , और हमारे शरीर में अथवा अन्यत्र जो कुछ भी दिखायी पड़ता है वह सभी प्राण का कार्य है। प्राण आकाश से भी श्रेष्ठ है । प्राण के द्वारा ही सभी वस्तुएँ जीवित रहती हैं , प्राण ही माता , प्राण ही पिता , प्राण ही भगिनी , प्राण ही आचार्य और प्राण ही ज्ञाता है । 

में तुम लोगों के लिए इसी उपनिषद् में से एक अंश और पढूंगा । श्वेतकेतु अपने पिता आरुणि से सत्य के सम्बन्ध में प्रश्न करने लगे । पिता ने उन्हें अनेक विषयों की शिक्षा देकर अन्त में कहा , ' इन सब वस्तुओं का जो सूक्ष्म कारण है , उसी से ये सब बनी हैं , यही सब कुछ है , यही सत्य है, हे श्वेतकेतो , तुम भी वही हो । ' तदनन्तर वे यही समझाने के लिए अनेक उदाहरण देने लगे । " हे श्वेतकेतो , जिस प्रकार मधु-मक्षिका विभिन्न पुष्पों से मधु संचय कर एकत्र करती हैं एवं ये विभिन्न मधुकण जिस प्रकार यह नहीं जानते कि वे कहाँ से आये हैं , उसी प्रकार हम सब उसी ' एकमेवाद्वितीय सत् से आकर भी उसे भूल गये हैं
["As a bee, O Shvetaketu, gathers honey from different flowers, and as the different honeys do not know that they are from various trees, and from various flowers, so all of us, having come to that Existence, know not that we have done so.]

अतएव हे श्वेतकेतों , तुम वही हो । जिस प्रकार विभिन्न नदियाँ विभिन्न स्थानों में उत्पन्न होकर समुद्र में गिरती हैं , किन्तु जैसे ये नदियाँ अपने उद्गम स्थान को नहीं जानतीं , वैसे ही हम सब उसी सत्स्वरूप से आकर भी यह नहीं जानते कि हम वही हैं । हे श्वेतकेतो , तुम वही हो । ” इस प्रकार पिता पुत्र को उपदेश देने लगे । अब बात यह है कि सम्पूर्ण ज्ञानप्राप्ति के दो मूल सूत्र हैं । एक सूत्र तो यह है कि विशेष को साधारण में और साधारण को सार्वभौमिक तत्त्व में एकरूप करके ज्ञान - लाभ करना होगा । दूसरा सूत्र यह है कि यदि किसी वस्तु की व्याख्या करनी हो तो, जहाँ तक हो सके , उसी वस्तु के स्वरूप से उसकी व्याख्या खोजनी चाहिए । 

पहले सूत्र के आधार पर हम देखते हैं कि हमारा सारा ज्ञान वास्तव में उच्च से उच्चतर श्रेणीविभाग मात्र है । जब कुछ एक घटना होती है तो मानो हम अतृप्त रहते हैं । जब यह दिखा दिया जाता है कि वही एक घटना बार बार घटती है तब हम सन्तुष्ट होते हैं और उसे ' नियम ' कहते हैं जब हम एक पत्थर या सेव को जमीन पर गिरते देखते हैं तब हम लोग अतृप्त रहते है । किन्तु जब देखते हैं कि सभी पत्थर या सेव गिरते हैं तो हम उसे माध्याकर्षण का नियम कहते हैं और सन्तुष्ट हो जाते हैं । बात यह है कि हम विशेष से साधारण तत्त्व की ओर बढ़ते रहते हैं । धर्मतत्त्व की आलोचना करने का यही एकमात्र वैज्ञानिक मार्ग है ।

हम देखते हैं कि धर्मतत्त्व की आलोचना करने और उसे वैज्ञानिक रीति से समझने में इसी मूल सूत्र का अनुसरण करना होगा । वास्तव में यहाँ पर भी हम यही बात देखते हैं । इन उपनिषदों में भी , जिनसे में तुम्हें कुछ अंश सुना रहा हूँ , यही भाव-- विशेष से साधारणीकरण- लिया गया है । हम इनमें देखते हैं कि किस प्रकार देवगण क्रमश : एक में विलीन होकर एक तत्त्व - रूप में परिणत हो रहे हैं , समग्र विश्व की धारणा में भी ये प्राचीन विचारकगण क्रमशः किस प्रकार अग्रसर हो रहे हैं , किस प्रकार से सूक्ष्म भूतों से सूक्ष्मतर तथा अधिक व्यापक भूतों की ओर बढ़ रहे हैं , कैसे वे विशेष विशेष भूतों से प्रारम्भ कर अन्त में एक सर्वव्यापी आकाशतत्त्व में आ गये हैं , और कैसे वहाँ से भी आगे बढ़कर वे प्राण नामक सर्वव्यापिनी शक्ति में आ रहे हैं , और इन सभी में हम यही एक तत्त्व पाते हैं कि कोई भी वस्तु अन्य सब वस्तुओं से अलग नहीं हैं । आकाश ही सूक्ष्मतर रूप में प्राण है और प्राण ही स्थूल बनकर आकाश होता है तथा आकाश स्थूल से स्थूलतर हो जाता है , इत्यादि इत्यादि ।
 
सगुण ईश्वर को उससे भी ऊँचे तत्त्व में समाहित करना भी इसी मूल सूत्र का और एक उदाहरण है । हमने पहले ही देखा है कि सगुण ईश्वर की धारणा भी इसी प्रकार के साधारणीकरण का फल है । इससे केवल इतना ही समझा गया कि सगुण ईश्वर सम्पूर्ण ज्ञान का समष्टि - स्वरूप है । किन्तु उसमें एक शंका उठती है कि यह तो पर्याप्त साधारणीकरण नहीं हुआ । 

हमने प्राकृतिक घटना की एक दिशा , अर्थात् ज्ञान की दिशा लेकर साधारणीकरण किया और सगुण ईश्वर तक आ पहुँचे , किन्तु शेष प्रकृति तो छूट ही गयी । अतएव पहले तो यह साधारणीकरण अपूर्ण ही हुआ । दूसरे , इसमें एक ओर भी अधूरापन है , उसे दूसरे सूत्र द्वारा समझना होगा । प्रत्येक वस्तु की उसके स्वरूप ही से व्याख्या करनी चाहिए । एक समय लोग सोचते थे कि जमीन पर पत्थर का गिरना भूत द्वारा होता है , किन्तु वास्तव में यह शक्ति माध्याकर्षण की है । 

ओर यद्यपि हम यह जानते हैं कि केवल यही इसकी सम्पूर्ण व्याख्या नहीं है तथापि यह निश्चित है कि यह पहली व्याख्या से श्रेष्ठ है ; कारण पहली व्याख्या है वस्तु के बाहरी कारण को लेकर , और दूसरी उसके स्वभाव से सिद्ध होती है । इस प्रकार हम लोगों के सारे ज्ञान के सम्बन्ध में जो व्याख्या वस्तु के स्वभाव से सिद्ध है , वह वैज्ञानिक है और जो व्याख्या वस्तु के बाह्य रूप से सिद्ध है , वह अवैज्ञानिक है । अब " सगुण ईश्वर ही जगत् का सृष्टिकर्ता है " इस तत्त्व की भी इस सूत्र द्वारा परीक्षा की जाय । यदि यह ईश्वर प्रकृति के बाहर है और प्रकृति के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं है तथा यदि यह प्रकृति शून्य में से , उस ईश्वर की आज्ञा से बनती है तब तो यह मत अपने आप अवैज्ञानिक हुआ । और सगुण ईश्वरवाद में सदैव से यही कुछ गड़बड़ी है - यही इसकी कमजोरी है । इस मत में ईश्वर मनुष्य के गुणों से भरा है , केवल ये गुण उसमें मनुष्यों की अपेक्षा अधिक बढ़े - चढ़े हैं । उन्होंने शून्य में से जगत् की सृष्टि की है और वे इस जगत् से बिलकुल अलग भी हैं ऐसा कहने से ईश्वरवाद में दो दोष दिखायी पड़ते हैं । 

हम पहले ही कह चुके हैं कि पहले तो यह सामान्य का पूर्ण समाधान नहीं है । दूसरे , यह वस्तु की स्वभावसिद्ध व्याख्या भी नहीं है । यह कार्य को कारण से भिन्न बताता है । किन्तु मनुष्य का ज्ञान जैसे जैसे बढ़ता जा रहा है वैसे वैसे वह इस मत की ओर अग्रसर हो रहा है कि कार्य कारण का रूपान्तर मात्र है । आधुनिक विज्ञान के सम्पूर्ण आविष्कार इसी ओर इशारा करते हैं और कमविकास वाद का तात्पर्य भी यही है कि कार्य कारण का रूपान्तर मात्र है । आधनिक वैज्ञानिक तो शून्य से सृष्टिरचना के सिद्धान्त की हँसी उड़ाते हैं ।

धर्म क्या पूर्वोक्त दोनों परीक्षाओं में सफल हो सकता है ? यदि ऐसा कोई धर्ममत हो जो इन दो परीक्षाओं में उत्तीर्ण हो जाय तो उसी को आधुनिक विचारशील ग्राह्य मानते हैं । यदि पुरोहित , चर्च अथवा किसी शास्त्र का अनुसरण करके किसी मत में विश्वास करने के लिए कहा जाय तो आजकल के लोग उसमें विश्वास नहीं कर सकते , इसका फल होगा - घोर अविश्वास । जो बाहर से देखने पर पूर्ण विश्वासी मालूम पड़ते हैं वे अन्दर से देखने पर घोर अविश्वासी निकलते हैं । अन्त में लोग धर्म को एकदम छोड़ देते हैं , उससे दूर भागते हैं , उसे पुरोहितों की धोखेबाजी समझते हैं । 
धर्म भी अब एक जातीय रूप में परिणत हो गया है । ' वह हमारे प्राचीन समाज का एक महान् उत्तराधिकार है , अतएव उसे रहने दो ' - आज हम लोगों का यही भाव है । आजकल के लोगों के पुरखे उसमें जो अभिरुचि रखते थे वह आजकल के लोगों में नाममात्र को नहीं ; लोगों को अब यह बुद्धि - संगत नहीं जान पड़ता । इस प्रकार की सगुण ईश्वर और सृष्टि की धारणा से , जिसे सब लोग एकेश्वरवाद कहते हैं , लोगों को आत्मसन्तोष नहीं होता और भारत में बौद्ध धर्म के प्रभाव से यह अधिक बढ़ा भी नहीं ; और इसी विषय में बौद्धगण प्राचीन काल में जीत भी गये थे ।

बौद्धों ने यह प्रमाणित कर दिखाया था कि यदि प्रकृति को अनन्त शक्ति-सम्पन्न मान लिया जाय , और यदि प्रकृति अपने अभाव को अपने आप ही पूरा कर सकती है तो प्रकृति के अतीत और भी कुछ है , यह मानना अनावश्यक है । आत्मा के अस्तित्व को मानने का भी कोई प्रयोजन नहीं है । इस विषय पर प्राचीन काल से ही वादविवाद चलता आ रहा है । इस समय भी वही प्राचीन कुसंस्कार – द्रव्य - गुण - विचार - मौजूद है । 

मध्यकालीन यूरोप में , यहाँ तक कि , मुझे दुःख के साथ कहना पड़ता है , उसके बहुत दिनों बाद तक यही एक विशेष विचारणीय विषय था कि गुण द्रव्याश्रित हैं अथवा द्रव्य गुणाश्रित ? लम्बाई , चौड़ाई और उँचाई क्या जड़ पदार्थ नामक द्रव्यविशेष के आश्रित हैं ? और इन गुणों के न रहने पर भी द्रव्य का अस्तित्व रहता है या नहीं ? बौद्ध लोग कहते हैं कि इस प्रकार के किसी द्रव्य का अस्तित्व स्वीकार करने का कोई प्रयोजन नहीं है , केवल इन गुणों का ही अस्तित्व है । इन गुणों के अतिरिक्त तुम और कुछ नहीं देख पाते और अधिकांश आधुनिक अज्ञेयवादियों का भी यही मत है , क्योंकि इसी द्रव्य - गुण - विचार को कुछ और उँचा ले जाइये तो प्रतीत होगा कि यह व्यावहारिक और पारमार्थिक सत्ता का विचार बन जाता है । 

हमारे सम्मुख यह दृश्य जगत् - नित्य परिणामशील जगत् है और इसी के साथ ऐसी कोई वस्तु है जिसमें कभी परिणाम नहीं होता ; और कोई कोई कहते हैं , इन दो पदार्थों का ही अस्तित्व है । कोई कोई और भी अधिक प्रमाण के साथ कहते हैं कि हमें इन दोनों पदार्थों के मानने की कोई आवश्यकता नहीं , क्योंकि हम जो कुछ देखते हैं , अनुभव करते हैं अथवा सोचते हैं , वे केवल दृश्य पदार्थ हैं । दृश्य के अतिरिक्त अन्य किसी भी पदार्थ के मानने का तुम्हें अधिकार नहीं । इस बात का पूर्ण - संगत उत्तर प्राचीन काल में कोई भी नहीं दे सका । 

केवल वेदान्त का अद्वैत वाद ही हमें इसका उत्तर देता है — एक ही वस्तु का अस्तित्व है , वही कभी द्रष्टा के रूप में और कभी दृश्य के रूप में प्रकाशित होती है । यह कहना ठीक नहीं कि परिणामशील वस्तु की कोई सत्ता है और उसी के अन्दर अपरिणामी वस्तु भी है , किन्तु वही एक वस्तु जो परिणामशील प्रतीत होती है , वास्तव में अपरिणामी है । 

समझ में आने योग्य कुछ दार्शनिक धारणा करने के उद्देश्य से हम लोग देह , मन , आत्मा आदि अनेक भेद कर लेते हैं , किन्तु वास्तव में सत्ता एक ही है । वह एक ही वस्तु अनेक रूपों में प्रतीत होती है । अद्वैतवादियों को चिरपरिचित उपमा का यदि हम उपयोग करें तो यही कहना पड़ेगा कि रज्जु ही सर्पाकार में लोग रस्सी को ही साँप समझ लेते हैं , किन्तु ज्ञानोदय होने पर सर्पभ्रम नष्ट हो जाता है और केवल रस्सी ही दीख पड़ती है । इस उदाहरण द्वारा हम यह भलीभाँति समझ सकते हैं कि मन में जब सर्पज्ञान रहता है तब रज्जुज्ञान नहीं रहता और जब रज्जुज्ञान रहता है तब सर्पज्ञान नहीं टिकता । 

जब हम व्यावहारिक सत्ता देखते हैं , तब पारमार्थिक सत्ता नहीं रहती और जब हम उस अपरिणामी पारमार्थिक सत्ता को देखते हैं तो निश्चय ही फिर व्यावहारिक सत्ता प्रतीत नहीं होती । अब हम प्रत्यक्षवादी और विज्ञानवादी ( idealist ) – इन दोनों के मत खूब स्पष्ट रूप से समझ रहे हैं । प्रत्यक्षवादी केवल व्यावहारिक सत्ता देखता है और विज्ञानवादी पारमार्थिक सत्ता देखने की चेष्टा करता है । प्रकृत विज्ञानवादियों लिए , जो अपरिणामी सत्ता का अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त कर चुके हैं , फिर परिणामशील जगत् का अस्तित्व नहीं रह जाता । उन्हीं को यह कहने का अधिकार है कि समस्त जगत् मिथ्या है और परिणाम नामक कोई चीज नहीं है । किन्तु प्रत्यक्ष वादी केवल परिणामशील की ओर ही दृष्टि रखते हैं । उनके लिए अपरिणामी सत्ता नाम की कोई वस्तु है ही नहीं , अतएव उन्हें जगत् को सत्य कहने का अधिकार है ।

इस विचार का फल क्या हुआ ? फल यही हुआ कि ईश्वर के विषय में सगुण धारणा करना ही पर्याप्त नहीं । हम लोगों को और भी उच्चतर धारणा अर्थात् निर्गुण की धारणा करनी चाहिए । उनके द्वारा सगुण धारणा नष्ट हो जायगी , सो बात नहीं । हमने यह नहीं प्रमाणित किया कि सगुण ईश्वर नहीं है , किन्तु हमने यही दिखाया कि हमने जो प्रमाणित किया है केवल वही न्याय संगत सिद्धान्त है । मनुष्य को भी हम इसी प्रकार सगुण - निर्गुण उभयात्मक कह सकते हैं । हम सगुण भी हैं और निर्गुण भी । 

अतएव हम लोगों की प्राचीन ईश्वर - धारणा अर्थात् ईश्वर की केवल सगुण धारणा कि वह केवल एक व्यक्ति ही है , अवश्य चली जानी चाहिए ; कारण मनुष्य को जिस प्रकार सगुण - निर्गुण ही कहा जा सकता है , उसी प्रकार कुछ और अधिक उच्च स्तर पर ईश्वर को भी सगुण - निर्गुण दोनों कहा जा सकता है ।अतएव सगुण की व्याख्या करते समय अवश्य ही अन्त में हम लोगों को निर्गुण की धारणा करनी पड़ेगी , क्योंकि निर्गुण धारणा सगुण भाव से उच्चतर समाधान है । अनन्त केवल निर्गुण ही हो सकता है , सगुण केवल सान्त मात्र है । 

इसलिए इस व्याख्या द्वारा हमने सगुणवाद की रक्षा की है, न कि उसे उड़ा दिया । बहुधा हमें यह शंका होती है कि क्या निर्गुण ईश्वर मानने पर सगुण भाव नष्ट हो जायगा , निर्गुण जीवात्मा मानने पर सगुण जीवात्मा का भाव नष्ट हो जायगा ?  किन्तु वास्तव में  उससे ' मैं- पन ' का  विनाश न होकर उसकी प्रकृत रक्षा होती है । हम उस अनन्त सत्ता के समाधान बिना , व्यक्ति के अस्तित्व को किसी प्रकार भी प्रमाणित नहीं कर सकते । यदि हम व्यक्ति को सम्पूर्ण जगत् से पृथक् मानकर सोचने की चेष्टा करें तो कभी भी ऐसा न कर पायेंगे , क्षणभर के लिए भी हम ऐसा नही सोच सकते । 
 "O Shvetaketu, thou art That."

 यदि समस्त वस्तुओं की व्याख्या उनके स्वरूप से की जाय तो यही निष्कर्ष निकलता है कि वही निर्गुण पुरुष- साधारणीकरण की रीति द्वारा हम जिस सर्वोच्च तत्त्व पर पहुँचे हैं- हम लोगों के अन्दर ही है और वास्तव में हम वही हैं । ' हे श्वेतकेतो , तत्त्वमसि ' -तुम वही हो , तुम्ही वह निर्गुण पुरुष हो , तुम्ही वह ब्रह्म हो जिसे तुम समस्त जगत् में ढूंढ़ते फिरते हो , वह सदैव ही तुम स्वयं हो । किन्तु ' तुम ' यहाँ ' व्यक्ति ' (नाम-रूप) के अर्थ में नहीं , वरन् निर्गुण (आत्मा) के अर्थ में प्रयुक्त हुआ हैं। हम अब जिस मनुष्य को जान रहे हैं , जिसे हम व्यक्त देख रहे हैं वह मानो सगुण हुआ है , किन्तु उसकी प्रकृत सत्ता निर्गुण है 

इस सगुण को हमें निर्गुण के द्वारा समझना होगा , विशेष को साधारण के द्वारा जानना होगा । वह निर्गुण सत्ता ही प्रकृत सत्य है - वही मनुष्य का आत्मस्वरूप है— इस सगुण व्यक्त पुरुष को सत्य नहीं कहा जा सकता । इस सम्बन्ध में अनेक प्रश्न उठेंगे । मैं क्रमशः उनका उत्तर देने की चेष्टा करूँगा । बहुत से कूट प्रश्न भी किये जायेंगे , किन्तु उनकी मीमांसा करने के पहले आइये , हम , अद्वैतवाद क्या है , यह समझ लेने का प्रयत्न करें

 अद्वैतवाद कहता है कि व्यक्त जीव - रूप में हम मानो अलग अलग होकर रहते हैं , किन्तु वास्तव में हम सब एक ही सत्य - स्वरूप हैं , और हम अपने को उससे जितना कम पृथक् समझेंगे उतना ही हमारा कल्याण होगा । इसके विपरीत हम लोग इस समष्टि से अपने को जितना अलग समझेंगे उतना ही कष्ट होगा । 

इसी तत्त्व से हम अद्वैतवाद - सम्मत नीतितत्त्व पाते हैं , और मेरा यह दावा है कि और किसी मत से हमें कोई भी नीतितत्त्व नहीं मिलता । हम जानते हैं कि नीति की सब से पुरानी धारणा यह थी कि किसी पुरुषविशेष अथवा कुछ विशिष्ट पुरुषों का जो ख्याल हो वही कर्तव्य है । अब इसे मानने को कोई भी तैयार नहीं ; क्योंकि वह आंशिक व्याख्या मात्र हैं । हिन्दू कहते हैं , अमुक कार्य करना ठीक नहीं , क्योंकि वेदों में उसका निषेध है , किन्तु ईसाई वेदों (या कुरान) का प्रमाण नहीं मानते । ईसाई लोग कहते हैं , यह मत करो , वह मत करो , क्योंकि बाइबिल में यह सब करना मना है । जो बाइबिल (कुरान) नहीं मानते वे इसे भी कभी नहीं मानेंगे । हम लोगों को एक ऐसा तत्त्व खोजना पड़ेगा जो इन अनेक प्रकार के भावों का समन्वय कर सके । 

जैसे लाखों व्यक्ति सगुण सृष्टिकर्ता में विश्वास करने को तैयार हैं वैसे ही इस दुनियाँ में हजारों विद्वान् ऐसे भी हैं जिन्हें ये सब धारणाएँ पर्याप्त नहीं जान पड़तीं । वे इससे कुछ ऊँची प्रार्थना करते हैं ; और जब विभिन्न धर्मसम्प्रदाय इन सब मनीषियों को अपने समुदाय में लाने योग्य उदार भाव नहीं रखते , तभी यह फल होता है कि समाज के उज्ज्वलतम रत्न धर्मसम्प्रदाय का परित्याग कर देते हैं , और आज प्रधानतः यूरोप में यह जितना स्पष्ट देखा जाता है उतना और कहीं भी नहीं पाया जाता । इन लोगों को धर्म सम्प्रदाय में रखने के लिए इन धर्मसम्प्रदायों के लिए विशेष उदारभावापन्न होना अत्यन्त आवश्यक है । धर्म जो कुछ कहता है , तर्क की कसौटी पर उन सब की परीक्षा करना आवश्यक है । 

सभी धर्म यही एक दावा क्यों करते हैं कि वे तर्क द्वारा परीक्षित होना नहीं चाहते , यह कोई नहीं बतला सकता । पर वास्तव में इसका कारण यह है कि उनमें शुरू से ही कुछ त्रुटियाँ हैं । युक्ति के मानदण्ड के बिना धर्म के विषय में भी किसी प्रकार का विचार या सिद्धान्त सम्भव नहीं है । शायद किसी धर्म ने कुछ बीभत्स कार्य करने की आज्ञा दी । जैसे , इसलाम मुसलमानों को विधर्मियों की हत्या करने की आज्ञा देता है । कुरान में स्पष्ट लिखा है , ' यदि विधर्मी (infidels काफ़िर,नास्तिक) इसलाम ग्रहण न करें तो उन्हें मार डालो । उन्हें तलवार और आग के घाट उतार दो । ' [It is clearly stated in the Koran, "Kill the infidels if they do not become Mohammedans." They must be put to fire and sword.] 

मान लीजिये मुसलमान धर्म के इस आदेश के ऊपर एक ईसाई (या हिन्दू) ने कुछ दोषारोपण किया । इस पर मुसलमान स्वभावतः पूछेंगे , " तुम कैसे जानते हो कि यह (काफिरों की हत्या कर देना) अच्छा है या बुरा ? तुम्हारी भले बुरे की धारणा तो तुम्हारे शास्त्र द्वारा है न ! हमारा शास्त्र कहता है कि यह सत्कार्य है। यदि आप कहें कि आपका शास्त्र प्राचीन है तो बौद्ध लोग कहेंगे कि उनका शास्त्र तुम्हारे से भी पुराना है और हिन्दू कहेंगे कि उनका शास्त्र सभी की अपेक्षा प्राचीनतम है । अतएव शास्त्र की दोहाई देने से काम नहीं चल सकतातुम्हारे आदर्शों का आधार कहाँ है जिससे तुम अन्य सबकी तुलना कर सको ? ”

 ईसाई कहेंगे , ईसा का ' शैलोपदेश ' देखिये । मुसलमान कहेंगे , ' कुरान की नीति ' देखिये । मुसलमान कहेंगे , इन दोनों में कौन श्रेष्ठ है , इसका निर्णय कौन करेगा , कौन मध्यस्थ बनेगा ? बाइबिल और कुरान में जब विवाद है तो यह निश्चय है कि उन दोनों में से तो कोई मध्यस्थ नहीं बन सकता । कोई स्वतन्त्र व्यक्ति उनका मध्यस्थ हो तो अच्छा हो । यह कार्य किसी ग्रन्थ द्वारा नहीं हो सकता , हाँ , किसी सार्वभौमिक पदार्थ का मध्यस्थ होना आवश्यक है । युक्ति -तर्क से अधिक सार्वभौमिक पदार्थ और कोई है क्या ? कहा जाता है , युक्ति सदैव ही सत्यानुसन्धान नहीं कर सकती । अनेक समय उसके द्वारा भूल भी हो जाती है , अतः कुछ लोगों का सिद्धान्त है कि किसी न किसी पुरोहित - सम्प्रदाय के शासन में विश्वास करना ही पड़ेगा । मुझसे एक बार एक रोमन कैथलिक पादरी ने भी यही कहा था । किन्तु मेरी समझ में यह युक्ति नहीं आयी । 

मैं कहूँगा कि यदि युक्ति दुर्बल है तो पुरोहित - सम्प्रदाय और भी दुर्बल होंगे । मैं उन लोगों की बात सुनने की अपेक्षा युक्ति की बात सुनना अधिक पसन्द करूंगा , कारण , युक्ति में चाहे जितना दोष क्यों न हो , उसमें कुछ न कुछ सत्यलाभ की सम्भावना है , किन्तु दूसरी ओर तो किसी सत्य को पाने की सम्भावना ही नहीं है ।  अतएव हम लोगों को युक्ति का अनुसरण करना चाहिए और जो युक्ति का अनुसरण कर किसी बात का विश्वास नहीं कर पाते उनके साथ भी हम लोगों को सहानुभूति रखनी पड़ेगी । कारण , किसी के मत में मत मिलाकर बीस लाख देवताओं में विश्वास करने की अपेक्षा युक्ति का अनुसरण करके नास्तिक होना अच्छा है ; हम लोग चाहते हैं उन्नति , विकास और प्रत्यक्ष अनुभव । [What we want is progress, development, realisation. No theories ever made men higher. No amount of books can help us to become purer. The only power is in realisation, and that lies in ourselves and comes from thinking. Let men think. A clod of earth never thinks; but it remains only a lump of earth. The glory of man is that he is a thinking being.

किसी मत का अवलम्बन करके ही मनुष्य श्रेष्ठ नहीं हो जाता । करोड़ों शास्त्र भी हम लोगों को पवित्र करने में सहायता नहीं कर सकते । ऐसा होने की एकमात्र शक्ति हम लोगों के अन्दर ही है । प्रत्यक्ष अनुभव ही हम लोगों को पवित्र बनाने में सहायक होता है और यह प्रत्यक्षानुभव केवल मनन  द्वारा ही हो सकता है । मनुष्य की महिमा यही है कि वह एक मननशील प्राणी है ! मनुष्य (महावाक्यों का श्रवण-मनन-निदिध्यासन) चिन्तन करे । मिट्टी का ढेला कभी चिन्तन नहीं कर सकता । मान लीजिये , उसने सभी पर विश्वास किया , पर वह सदा के लिए मिट्टी का ढेला मात्र ही रह जाता है । एक गाय को जैसी इच्छा हो विश्वास कराया जा सकता है । कुत्ता सर्वाधिक चिन्ताहीन प्राणी है । किन्तु जो कुत्ता है , जो गाय है , जो मिट्टी का ढेला है , वह वैसा ही रह जाता है , कुछ भी उन्नति नहीं कर सकता । किन्तु मनुष्य का महत्त्व उसकी मननशीलता के कारण है , पशुओं से हम इसी बात में भिन्न हैं । यह मनन करना मनुष्य का स्वभावसिद्ध- धर्म है । अतएव हम लोगों को अपने मन को चिन्तनशील अवश्य बनाना पड़ेगा । इसीलिए मैं युक्ति में विश्वास करता हूँ और युक्ति का ही अनुसरण करता हूँ । केवल परोपदेश में विश्वास करने से क्या अनिष्ट होता है , यह मैं विशेष रूप से देख चुका हूँ, क्योंकि मैं जिस देश में पैदा हुआ हूँ वहाँ परोपदेश में विश्वास करने की पराकाष्ठा है । 

हिन्दू लोग विश्वास करते हैं कि वेदों से सृष्टि हुई है । उदाहरणार्थ एक गाय है यह कैसे जाना ? उत्तर है , ' गो ' शब्द वेद में है , इसलिए । इसी प्रकार मनुष्य है यह कैसे जाना ? उत्तर आता है कि वेदों में ' मनुष्य ' शब्द आया है । हिन्दु लोगों की यह जो विश्वास की पराकाष्ठा है और मैं इसकी जिस प्रकार आलोचना कर रहा हूँ उस प्रकार इसकी आलोचना नहीं होती । कुछ तीक्ष्ण वुद्धि व्यक्तियों ने इसको लेकर कुछ अपूर्व दार्शनिक तत्त्व ढूंढ़ निकाले हैं और हजारों बुद्धिमान व्यक्तियों ने हजारों वर्ष तक इसी मत के आन्दोलन में समय बिताया है । 

दूसरों की बातों में युक्तिशून्य  विश्वास की जितनी बड़ी शक्ति है उसमें विपत्ति भी उतनी ही है । वह मनुष्य जाति की उन्नति रोक देता है ।  It stunts the growth of humanity, and we must not forget that we want growth.]  और हम लोगों को यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि उन्नति करना ही हमारा लक्ष्य है । सम्पूर्ण आपेक्षिक सत्यानुसन्धान में भी सत्य की अपेक्षा हमारे मन की क्रियाशीलता (the exercise. =प्रत्याहार और धारणा का विधिवत अभ्यास)  ही अधिक आवश्यक है । मनन ही हमारा जीवन है । [Even in all relative truth, more than the truth itself, we want the exercise. That is our life.] 

अद्वैतमत में यही गुण है कि अनेक धर्ममतों के बीच यही मत अधिकांश में निस्सन्देह रूप से प्रमाणित किया जा सकता है । (The monistic theory has this merit that it is the most rational of all the religious theories that we can conceive of.) और अन्य सब भाव - ईश्वर की आंशिक और सगुण धारणाएँ युक्तियुक्त नहीं हैं । इसका एक और गुण यह है कि यह युक्तिसंगत ईश्वरवाद इस बात को प्रमाणित करता है कि ये आंशिक धारणाएँ अब भी बहुतों के लिए आवश्यक हैं । इन मतों की आवश्यकता के सम्बन्ध में भी हम यही एकमात्र युक्ति देखेंगे ।

अनेक लोग कहते रहते हैं कि यह सगुणवाद अयौक्तिक है , किन्तु है बड़ा शान्तिदायक । उन लोगों को धर्म तो सान्त्वना देनेवाला चाहिए , और हम लोग भी समझ सकते हैं कि उनके लिए इसकी जरूरत है । बहुत कम लोग सत्य का निर्मल प्रकाश सहन कर सकते हैं , उसके अनुसार जीवन बिताना तो बहुत दूर की बात है । अतएव इस सान्त्वना देनेवाले धर्म की भी आवश्यकता है; समय आने पर यही बहुतों को उच्चतर धर्मलाभ में सहायता करता है । 

जिस क्षुद्र मन की परिधि सीमित है और छोटी छोटी नगण्य वस्तुएँ (कामिनी -कांचन ही)  जिन मन की मनन सामग्री हैं , वह मन कभी उच्च विचार क्षेत्र में विचरण करने का साहस नहीं कर सकता । {Small minds whose circumference is very limited and which require little things to build them up, never venture to soar high in thought.} उन लोगों को छोटे छोटे देवताओं और प्रतिमा तथा आदर्शों की धारणा ही उत्तम और उपकारी लगती है , किन्तु तुम्हें निर्गुणवाद भी समझना होगा , और इस निर्गुणवाद के आलोक में ही इनकी उपकारिता जानी जा सकती है ।

 उदाहरणस्वरूप जान स्टुअर्ट मिल को ही लोजिये । वे ईश्वर का निर्गुणवाद समझते हैं और उसमें विश्वास भी करते हैं - वे कहते हैं , `सगुण ईश्वर को प्रमाणित नहीं किया जा सकता । 'मैं इस विषय में उनके साथ एकमत हूँ , फिर भी , मैं कहता हूँ कि मनुष्य - बुद्धि से निर्गुण की जितनी दूर तक धारणा की जा सके , वही सगुण ईश्वर है । और वास्तव में निर्गुण की इन विभिन्न धारणाओं के सिवाय जगत् में है ही क्या ? वह मानो हम लोगों के सामने एक खुली पुस्तक है , और प्रत्येक व्यक्ति एकरूप - सी अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार उसका पाठ कर रहा है और प्रत्येक को स्वयं ही उसका पाठ करना पड़ता है । 

सभी मनुष्यों की बुद्धि बहुत कुछ एक - सी ही है ; इसीलिए मनुष्य की बुद्धि में कुछ वस्तुएँ एकरूप - सी जान पड़ती हैं । हम तुम दोनों ही एक कुर्सी देख रहे हैं । इससे यह प्रमाणित हुआ कि हम दोनों का मन बहुत कुछ एक - सा गढ़ा है । मान लो , कोई दूसरे प्रकार के इन्द्रियोंवाला प्राणी आया ; वह हम लोगों अनुभूत कुर्सी देखेगा , किन्तु  जितने लोग एक - सी प्रकृति के हैं वे सब एक - सा ही रूप देखेंगे । 

अतएव सम्पूर्ण जगत् वही निरपेक्ष अपरिणामी पारमार्थिक सत्ता (Absolute, the unchangeable) है , और व्यावहारिक सत्ता (phenomenon ) उसे केवल विभिन्न रूप में देखना भर है । इसका कारण , पहले तो यह है कि व्यावहारिक सत्ता सदा ससीम होती है । हम जानते हैं कि हम जो कोई भी व्यावहारिक सत्ता देखते हैं , अनुभव करते हैं अथवा उसका चिन्तन करते हैं , वह अवश्य ही हमारे ज्ञान के द्वारा सीमाबद्ध है , अतएव वह ससीम होती है , और सगुण ईश्वर के सम्बन्ध में हमारी जैसी धारणा है उससे वह ईश्वर ( Personal God ) भी व्यावहारिक मात्र है । कार्य-कारण भाव (idea of causation) केवल व्यावहारिक जगत् में ही सम्भव है; और सगुण ईश्वर (माँ जगदम्बा काली) को जब मैं जगत् का कारण मानता हूँ तो अवश्य ही उसे ससीम जैसा मानना ही पड़ेगा । किन्तु फिर भी वह वही निर्गुण ब्रह्म है ।हम लोगों ने पहले ही देखा है कि यह जगत् भी हमारी बुद्धि द्वारा देखा गया वही निर्गुण ब्रह्म मात्र है । यथार्थ में जगत् वही निर्गुण पुरुष मात्र है और हम लोगों की बुद्धि द्वारा उसको नाम- रूप दिये गये हैं । स टेबिल में जितना सत्य है वह वही पुरुष है और इस टेबिल की आकृति तथा जो कुछ अन्य बातें हैं वे सब समान मानव बुद्धि द्वारा ऊपर से जोड़ी गयी हैं । 

उदाहरणस्वरूप गति (motion) का विषय लीजिये । व्यावहारिक सत्ता की वह नित्यसहचरी है । किन्तु वह सार्वभौमिक पारमार्थिक सत्ता के विषय में प्रयुक्त नहीं हो सकती । प्रत्येक क्षुद्र अणु , जगत् के अन्तर्गत प्रत्येक परमाणु , सदैव ही परिवर्तन तथा गति शील है , किन्तु समष्टिरूप से जगत् अपरिणामी है , क्योंकि गति या परिणाम आपेक्षिक पदार्थमात्र हैं । केवल गतिहीन पदार्थ के साथ तुलना करने पर ही हम गतिशील पदार्थ की बात सोच सकते हैं ।  गति समझने के लिए दोनों ही पदार्थ आवश्यक हैं । सम्पूर्ण समष्टिजगत् एक अखण्ड सत्तास्वरूप है , उसकी गति असम्भव है । किसके साथ तुलना करके उसकी गति प्रतीत होगी ? उसमें परिवर्तन होता है यह भी नहीं कहा जा सकता , क्योंकि किसकी तुलना में उसका परिणाम हो सकेगा ? अतएव वह समष्टि ही निरपेक्ष सत्ता है , किन्तु उसके भीतर का प्रत्येक अणु निरन्तर गतिशील है , वह परिणामी और साथ ही साथ अपरिणामी है । सगुण है और निर्गुण भी है । जगत् , गति एवं ईश्वर के सम्वन्ध में हम लोगों की यही धारणा है, और ' तत्त्वमसि ' का भी यही अर्थ है । हमें अपना स्वरूप जानना चाहिए । 

सगुण मनुष्य अपना उत्पत्ति - स्थल भूल जाता है जैसे कि समुद्र का जल समुद्र से बाहर आकर सम्पूर्ण रूप से स्वतन्त्र हो जाता है । इस प्रकार हम लोग सगुण होकर , व्यष्टि होकर अपना प्रकृत स्वरूप भूल गये हैं । अद्वैतवाद हमें विषय - भावापन्न जगत् को त्याग करने की शिक्षा नहीं देता , वह क्या है यही समझ लेने को कहता है। हम लोग वही अनन्त पुरुष और वही आत्मा हैं । हम लोग जलस्वरूप हैं और यह जल समुद्र से उत्पन्न है , उसकी सत्ता समुद्र के ऊपर निर्भर रहती है , और वास्तव में वह समुद्र ही है — समुद्र का अंश नहीं , सम्पूर्ण समुद्रस्वरूप है , क्योंकि जो अनन्त शक्ति राशि ब्रह्माण्ड में वर्तमान है उसका समुदय ही हमारा तुम्हारा स्वरूप है । हम तुम तथा प्रत्येक अन्य व्यक्ति ही मानो कुछ माध्यम के समान हैं जिनमें से होकर वह अनन्तसत्ता अपने को अभिव्यक्त कर रही है , और यह परिवर्तनसमष्टि जिसे हम ' क्रमविकास ' कहते हैं , वास्तव में अनेक रूपों में आत्मा का शक्तिविकास मात्र है , किन्तु अनन्त के इस पार , सान्त जगत में आत्मा की सम्पूर्ण शक्ति प्रकाशित नहीं हो सकती । 

हम लोग यहाँ कितनी भी शक्ति , कितना ही ज्ञान अथवा कितना ही आनन्द प्राप्त क्यों न करें , इस जगत् में वे सब असम्पूर्ण ही रहेंगे । अनन्त सत्ता , अनन्त शक्ति , अनन्त आनन्द हम लोगों में पहले से ही विद्यमान हैं । यह नहीं कि हम लोगों को उन्हें उपार्जित करना पड़ता है , वे सब बातें हम लोगों में सदैव से विद्यमान हैं , हमें तो उन्हें केवल प्रकाशित मात्र करना है । अद्वैतवाद से यही एक महासत्य प्राप्त होता है और इसको समझना बहुत कठिन है । मैं बचपन से देखता आ रहा है कि सभी दुर्बलता की शिक्षा देते आ रहे हैं , जन्म से ही मैं सुनता आ रहा हूँ कि मैं दुर्बल हूँ । अब मेरे लिए अपने भीतर निहित शक्ति का ज्ञान कठिन हो गया है , किन्तु युक्ति - विचार द्वारा मैं देख सकता हूँ कि मुझे अपनी अन्तनिहित शक्ति का ज्ञान लाभ कर लेना पड़ेगा , बस फिर सब कुछ हो जायगा । 

इस संसार में जो हम सब बातें जानते हैं वह कहाँ से जान पाते हैं ? वह ज्ञान हमारे भीतर ही है । क्या बाहर कोई ज्ञान है ? मुझे तनिक भी तो दिखाओ । ज्ञान कभी जड़ में नहीं था , वह सदा मनुष्य के भीतर ही था। किसी ने कभी भी ज्ञान की सृष्टि नहीं की । मनुष्य उसका आविष्कार करता है , उसको भीतर से बाहर लाता है । वह वहीं वर्तमान है । यह जो एक कोस तक फैला हुआ बड़ा वटवृक्ष है वह सरसों के बीज के अष्टमांश के समान उस छोटसे बीज में ही था — वह महाशक्तिराशि उसमें सन्निहित थी । 

हम जानते हैं कि एक जीवाणु कोष (protoplasmic cell) के भीतर ही अत्यद्भुत प्रखर बुद्धि (gigantic intellect) अप्रकट रूप में विद्यमान है ; फिर अनन्त शक्ति उसमें क्यों न रह सकेगी ? हम जानते हैं यह सत्य है । पहेली (paradox) - जैसा  लगने पर भी वह सत्य है । हम सभी एक जीवाणु कोष से उत्पन्न हुए हैं और हम लोगों में जो कुछ भी शक्ति (Energy) है वह उसी जीवणुकोष में कुण्डली रूप में बैठी थी । ( Each one of us has come out of one protoplasmic cell, and all the powers we possess were coiled up there.) 

तुम लोग यह नहीं कह सकते कि, जो ऊर्जा (Energy या शक्ति) हमारे भीतर है  वह खाद्य में से आयी है (या REVITEL -कैप्सूल खाने से आयी है ?) ; ढेर की ढेर खाद्य सामग्री लेकर एक पर्वत बना डालो , किन्तु देखोगे उसमें से कोई शक्ति नहीं निकलती । हम लोगों के भीतर शक्ति पहले से ही अव्यक्त भाव में निहित थी , और वह थी अवश्य।  अतएव यही सिद्धान्त निश्चित हुआ कि मनुष्य की आत्मा के भीतर अनन्त शक्ति भरी पड़ी है [नशा शराब में होता तो नाचती बोतल ! ]

 मनुष्य उसके सम्बन्ध में जाने भले ही नहीं , परन्तु फिर भी वह है । उसे केवल जानने की ही अपेक्षा है । धीरे धीरे मानो वह अनन्त शक्तिमान दैत्य जागरित होकर अपनी शक्ति को जान रहा है और जैसे जैसे वह जानता जाता है , वैसे वैसे उसके एक के बाद एक बन्धन टूटते जाते हैं , शृंखलाएँ छिन्नभिन्न होती जाती हैं और ऐसा एक दिन  अवश्य ही आयगा जब उसे इस अनन्त ज्ञान का पुनर्लाभ होगा और वह ज्ञानवान एवं शक्तिमान होकर उठ खड़ा होगा । आओ , हम सब लोग इसी अवस्था के लाने में सहायता करें
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साभार /https://www.khabardailyupdate.com/2022/02/swami-vivekananda-vedanta-third-lecture-in-practical-life-in-hindi.html








 



























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 ज्येष्ठ माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी को अपरा एकादशी कहा जाता है। गुरुवार का दिन होने से इस एकादशी का महत्व और भी बढ़ गया है। गुरुवार का दिन और एकादशी की तिथि दोनों के ही स्वामी भगवान विष्णु हैं। वैसे तो एकादशी तिथि पर भगवान विष्णु की पूजा की जाती है लेकिन अचला एकादशी पर देवी लक्ष्मी की पूजा करने का भी विधान है। हिन्दू पंचांग के अनुसार, इस बार 26 मई,गुरूवार को एकादशी तिथि है। एकादशी तिथि का प्रारंभ 25 मई, बुधवार सुबह 10:32 से 26 मई गुरुवार सुबह 10:54 तक। उदयातिथि के अनुसार व्रत 26 मई को रखा जाएगा। एकादशी व्रत का पारण: 27 मई दिन शुक्रवार प्रातः काल 5:30 से 8:05 तक.पदम पुराण के अनुसार इस दिन भगवान विष्णु की पूजा उनके वामन स्वरूप में की जाती है। मान्यता है कि इस दिन भगवान शिव के बालों से मां भद्रकाली प्रकट हुई थी इसलिए इसे भद्रकाली एकादशी भी कहते हैं। इसके अलावा इस एकादशी को अचला एकादशी एवं जलक्रीड़ा एकादशी के नाम से जाना जाता है। इस दिन भक्तों को परनिंदा, छल-कपट,लालच,द्धेष की भावनाओं से दूर  रहकर भगवान विष्णु को ध्यान में रखते हुए भक्तिभाव से उनका भजन करना चाहिए एवं यथाशक्ति गरीबों को दान देना चाहिए।
पुराणों के मुताबिक, एकादशी को हरी वासर यानी भगवान विष्णु का दिन कहा जाता है। विद्वानों का कहना है कि एकादशी व्रत यज्ञ और वैदिक कर्म-कांड से भी ज्यादा फल देता है। पुराणों में कहा गया है कि इस व्रत को करने से मिलने वाले पुण्य से पितरों को संतुष्टि मिलती है। स्कन्द पुराण में भी एकादशी व्रत का महत्व बताया गया है। इसको करने से जाने-अनजाने में हुए पाप खत्म हो जाते हैं।
इस दिन की पूजा-विधि :इस दिन सुबह के समय स्नान के बाद मंदिर में दीप जलाएं और व्रत रखें। फिर पूजा के लिए सबसे पहले भगवान विष्णु का गंगा जल से जलाभिषेक करें। पुष्प और तुलसी अर्पित करें और अब भगवान विष्णु के साथ ही माता लक्ष्मी की पूजा भी करे। भगवान को सात्विक चीजों का भोग लगाएं। भोग में तुलसी को जरूर शामिल करें। मान्‍यता है कि बिना तुलसी के भगवान विष्णु भोग ग्रहण नहीं करते हैं।


 













व्यावहारिक जीवन में वेदान्त ~स्वामी विवेकानन्द, 'चतुर्थ व्याख्यान | '

 व्यावहारिक जीवन में वेदान्त- 4 

( 18नवम्बर , सन् 1896 ई० को स्वामी विवेकानन्द द्वारा लन्दन में दिया हुआ भाषण ) 

[PRACTICAL VEDANTA-PART IV

(Delivered in London, 18th November 1896)] 

हमने  अभी तक समष्टि या सामान्य (universal) के विषय में ही अधिक विचार किया है।  आज इस प्रातःकाल मैं तुमसे ` व्यष्टि के साथ समष्टि का सम्बन्ध' (The relation of the particular to the universal.) इस विषय में वेदान्त का मत प्रस्तुत करने का प्रयत्न करूँगा । हम प्राचीनतर द्वैतवादी वैदिक मतों में देखते हैं कि प्रत्येक जीव की एक निर्दिष्ट सीमाविशिष्ट आत्मा है। प्रत्येक जीव में अवस्थित इस विशेष आत्मा के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के मतवाद प्रचलित हैं। किन्तु प्राचीन बौद्ध और प्राचीन वेदान्तियों के बीच में प्रधान विवाद का विषय यही था कि प्राचीन वेदान्ती स्वयं में  पूर्ण जीवात्मा मानते थे, और बौद्ध लोग इस प्रकार के जीवात्मा के अस्तित्व को नितान्त अस्वीकृत करते थे। 
जैसा कि मैंने कल कहा था , यूरोप में भी ठीक ऐसा ही द्रव्य (substance) और गुण (quality) पर विचार चल रहा है । एक दल यह मानता है कि गुणों के पीछे द्रव्य - रूप कोई वस्तु है जिसमें गुण आधारित हैं (behind the qualities there is something as substance, in which the qualities inhere) और दूसरे दल के मत में द्रव्य (substance ) को मानने की कोई आवश्यकता ही नहीं , गुण स्वयं ही रह सकते हैं । अवश्य ही आत्मा के सम्बन्ध में सर्वप्राचीन मत ' अहं - सारूप्य ' गत युक्ति के ऊपर स्थापित है। अहं - सारूप्य ' युक्ति का अर्थ है ; कल का ' मैं ' ही आज का ' मैं ' है ओर आज का ' मैं ' आगामी कल का ' मैं ' रहेगा । शरीर में जो कुछ भी परिवर्तन हो रहा है , उसके होने पर भी में विश्वास करता हूँ कि मैं सदा एकरूप ही हूँ । [The argument of self-identity — "I am I" — that the I of yesterday is the I of today, and the I of today will be the I of tomorrow; that in spite of all the changes that are happening to the body, I yet believe that I am the same I. ] जान पड़ता है , जो सीमित , पर स्वयंपूर्ण जीवात्मा मानते थे उनकी प्रधान युक्ति यही थी । 
दूसरी ओर प्राचीन बौद्धगण ऐसा जीवात्मा मानने की कोई आवश्यकता नहीं समझते थे । उनकी यह युक्ति थी कि हम केवल इन परिणामों (changes) को ही जानते हैं एवं इन परिणामों के अतिरिक्त और कुछ भी जानना हम लोगों के लिए असम्भव है । एक अपरिणम्य (unchangeable) और अपरिणामी द्रव्य (unchanging substance)  को स्वीकार करना अनावश्यक है।  और वास्तव में यदि इस प्रकार की कोई अपरिणामी वस्तु हो भी , तो हम उसे कभी समझ नहीं सकेंगे और न उसे किसी भी तरह प्रत्यक्ष ही कर सकेंगे ! 
आजकल यूरोप में भी धर्म और विज्ञान वादी ( Idealist ) , आधुनिक प्रत्यक्षवादी ( Realist ) तथा अज्ञेय वादी ( Agnostic ) विचारकों में यही विवाद चल रहा  है । एक दल का विश्वास है कि कुछ अपरिवर्तनशील पदार्थ है । इनके अन्तिम प्रतिनिधि हर्बर्ट स्पेन्सर कहते हैं कि हमें मानो किसी अपरिणामी पदार्थ का आभास होता है । दूसरे दल के प्रतिनिधि हैं कोमते ( Comte ) के आधुनिक शिष्यगण तथा आधुनिक अज्ञेयवादीगण । तुम लोगों में से जिन व्यक्तियों ने कुछ साल पहले मि . हॅरिमन और मि . हर्बर्ट स्पेन्सर के बीच का वाद - विवाद ध्यानपूर्वक पढ़ा होगा वे लोग जानते होंगे कि इस वाद - विवाद में यही गड़बड़ी मौजूद है।  कुछ व्यक्ति परिणामी वस्तु के पीछे किसी अपरिणामी सत्ता का अस्तित्व मानते हैं और कुछ उसके मानने की आवश्यकता ही नहीं समझते । 
कुछ लोग कहते हैं कि हम अपरिणामी सत्ता की धारणा के बिना परिणाम सोच ही नहीं सकते , तथा दूसरे यह युक्ति पेश करते हैं कि ऐसा मानने की कोई जरूरत नहीं , हम केवल परिणामशील पदार्थ की ही धारणा कर सकते हैं । अपरिणामी सत्ता को न हम समझ सकते हैं , और न अनु भव या प्रत्यक्ष ही कर सकते हैं । 
भारत में भी इस महान् समस्या की मीमांसा अत्यन्त प्राचीन काल में भी नहीं मिली।  क्योंकि हमने देखा है कि गुणों के पीछे अवस्थित तथापि गुणभिन्न पदार्थ की सत्ता कभी प्रमाणित ही नहीं हो सकती । केवल यही नहीं , आत्मा के अस्तित्व का ' अहं - सारूप्य' गत प्रमाण , स्मृति से आत्मा के अस्तित्व सम्बन्धी युक्ति – कल जो ' मैं ' था , आज भी ' मैं ' वही हूँ , क्योंकि मुझे यह स्मरण है , अतएव मैं बराबर हूँ , इस युक्ति का भी कोई महत्त्व नहीं । और भी एक युक्ति का आभास , जो साधारणतः दर्शाया जाता है , वह भी केवल शब्दों का जोड़ - तोड़ है । 
" मैं जाता हूँ " , " मैं खाता हूँ " , " मैं स्वप्न देखता हूँ , " मैं सो रहा हूँ , " " मैं चलता हूँ, " आदि कितने ही वाक्य लेकर वे कहते हैं कि करना , खाना , जाना , स्वप्न देखना , ये सब विभिन्न परिवर्तन भले ही हों किन्तु उनके बीच में ' मैं - पन ' नित्य भाव से वर्तमान है।  और इस प्रकार वे इस सिद्धान्त पर पहुँचते हैं कि यह ' मैं ' नित्य और स्वयं एक व्यक्ति है तथा ये सब परिवर्तन शरीर के धर्म हैं । यह युक्ति सुनने में खूब उपादेय तथा स्पष्ट जान पड़ती है किन्तु वास्तव में वह केवल शब्दों के जोड़ - तोड़ पर ही अवस्थित है । यह ' मैं ' और करना , जाना, स्वप्न देखना आदि मुख में भले ही अलग हो जायँ , किन्तु मन में कोई भी उन्हें अलग नहीं कर सकता । 
     जब में आहार करता हूँ , ' खा रहा हूँ ' कहकर सोचता हूँ तब आहारकार्य के साथ मेरा तादात्म्यभाव हो जाता है । जब मैं दौड़ता रहता हूँ तब मैं और दौड़ना , ये दो अलग अलग बातें नहीं होतीं । अतएव यह युक्ति कुछ अधिक सफल नहीं जान पड़ती । यदि मेरे अस्तित्व का सारूप्य मुझे अपनी स्मृति द्वारा प्रमाणित करना पड़े तो अपनी जो सब अवस्थाएँ मैं भूल गया हूँ उनमें मैं था ही नहीं यही मानना पड़ेगा । और हम यह भी जानते हैं कि कुछ विशेष विशेष अवस्थाओं में अनेक लोग पिछला , सब कुछ पूर्ण रूप से भूल जाते हैं । 
 अनेक पागल व्यक्ति अपने को काँचनिर्मित अथवा कोई पशु मानते देखे जाते हैं । यदि केवल स्मृति पर ही उस व्यक्ति का अस्तित्व निर्भर होता हो तो वे काँच या पशु हो गये हैं यही मानना पड़ेगा । किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं होता , अतः यह अहं -सारूप्य , स्मृति -विषयक नगण्य युक्ति पर आधारित नहीं हो सकता । तब क्या निष्कर्ष निकला ? यही कि सीमाबद्ध तथापि सम्पूर्ण और नित्य ' अहं ' का सारूप्य गुणसमूह से पृथक् रूप में स्थापित नहीं हो सकता । हम ऐसा कोई संकीर्ण सीमाबद्ध अस्तित्व नहीं मान सकते जिसके पीछे गुण लगे हों । 
 दूसरे पक्ष में प्राचीन बौद्धों का यह मत कि गुणसमूह के पीछे अवस्थित किसी वस्तु के विषय में हम न कुछ जानते हैं और न जान सकते हैं , अधिक दृढ़ भित्ति पर स्थापित जान पड़ता है । उनके मतानुसार अनुभूति और भावरूप कुछ गुणों की समष्टि ही आत्मा है । यह गुणराशि ही आत्मा है और वह क्रमशः परिवर्तन शील है । अद्वैत द्वारा इन दोनों मतों में सामंजस्य होता है । 
अद्वैतवाद का सिद्धान्त यह है कि हम वस्तु को गुण से अलग नहीं मान सकते , यह सत्य है । हम परिणाम और अपरिणाम दोनों को एक साथ नहीं सोच सकते । इस प्रकार सोचना भी असम्भव है । किन्तु जिसे वस्तु कहा जाता है वही गुण - स्वरूप है । द्रव्य और गुण पृथक् नहीं हैं । 

अपरिणामी वस्तु ही परिणामस्वरूप में प्रतीत होती है । यह अपरिणामी सत्ता परिणामी जगत् से पूर्ण रूपेण स्वतन्त्र नहीं है । पारमार्थिक सत्ता व्यावहारिक सत्ता से पूर्णतया पृथक् वस्तु नहीं है , किन्तु यह पारमार्थिक सत्ता ही व्यावहारिक सत्ता बन जाती है । 

अपरिणामी आत्मा है , और हम जिसे अनुभूति , भाव आदि कहते हैं , केवल ये ही नहीं अपितु यह शरीर भी वही आत्मस्वरूप है , और वास्तव में हम लोग एक ही समय में दो वस्तुओं का अनुभव नहीं करते , एक ही का करते हैं । हम लोगों का '3H' है - शरीर है , मन है , आत्मा है, इस प्रकार सोचने का हमें अभ्यास हो गया है , किन्तु वास्तव में केवल एक ही सत्ता है

\जब मैं अपने को ' शरीर ' सोचता हूँ तब मैं केवल शरीर हूँ ; मैं इसके अतिरिक्त और कुछ हूँ यह कहना बेकार की बात है । जब मैं अपने को आत्मा मानता हूँ , तब देह तो कहीं उड़ जाती है , देहानुभूति ही नहीं रहती । देहज्ञान दूर न होने पर कभी आत्मानुभूति होती ही नहीं ! गुण की अनुभूति न हटने पर वस्तु का अनुभव कभी किसी को भी नहीं हो सकता । 

इसको खूब अच्छी तरह समझने के लिए अद्वैतवादियों का रज्जु-सर्प का उदाहरण लिया जा सकता है । जब मनुष्य रस्सी को साँप समझकर भूल करता है उसके लिए रस्सी नहीं रहती और जब वह उसे वास्तविक रस्सी समझता है तब उसका सर्प ज्ञान नष्ट हो जाता है; और केवल रस्सी ही बच रहती है । प्रमाणों के असम्पूर्ण आधारों को अपनाने के कारण हमें द्वित्व या त्रित्व की अनुभूति होती है । ये सब बातें हम पुस्तकों में पढ़ते अथवा सुनते आये हैं । 

इसी कारण हम भ्रम में पड़ गये हैं कि मानो सचमुच ही हमें आत्मा और देह दोनों का ही अनुभव हो रहा है , किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं । एक समय में या तो केवल देह का ही अनुभव होता है या आत्मा का ही । इसको प्रमाणित करने के लिए किसी युक्ति की जरूरत नहीं । अपने मन ही मन हम इसकी परीक्षा कर सकते हैं । 

तुम अपने को देहशून्य आत्मा मानकर सोचने का प्रयत्न कर देखो तो प्रतीत होगा कि यह असम्भव - सा है , और जो इने - गिने लोग इसमें सफल होते हैं वे देखेंगे कि जब वे अपने को आत्मस्वरूप अनुभव करते हैं तब उन्हें देहज्ञान नहीं रहता । तुमने शायद देखा हो और सुना भी हो कि अनेक व्यक्ति वशीकरण ( Hypnotism ) के प्रभाव से अथवा स्नायुरोग से अथवा अन्य किसी कारण से समय समय पर विशेष अवस्था में आ जाते हैं । उन लोगों की अभिज्ञता तुम लोग जान सकते हो कि जब वे भीतर ही भीतर कुछ अनुभव कर रहे थे तब उनका बाह्यज्ञान एकदम लुप्त हो गया था, बिलकुल नहीं रह गया था । 

इसी से जान पड़ता है कि अस्तित्व एक ही है , दो नहीं । वह एक ही अनेक रूपों में जान पड़ता है और उनमें कार्य - कारण सम्बन्ध भी है । कार्यकारण का अर्थ है परिणाम , एक का दूसरे में बदल जाना । समय समय पर मानो कारण अन्त ही हो जाता है , केवल उसके बदले कार्य रह जाता है । यदि आत्मा देह का कारण है तो मानो कुछ देर के लिए वह अन्तर्हित हो जाती है और उसके बदले देह रह जाती है , और जब शरीर अन्तर्हित हो जाता है तो आत्मा अवशिष्ट रहती है ।

इस मत से बौद्धों का मत खण्डित हो जाता है । बौद्धगण आत्मा और शरीर - इन दोनों को पृथक् मानने के अनुमान के विरुद्ध तर्क करते थे । अब अद्वैतवाद के द्वारा इस द्वैतभाव को मिटाने और द्रव्य तथा गुण एक ही वस्तु के विभिन्न रूप हैं यह प्रदर्शित करने से उनका मत भी खण्डित हो गया । हम लोगों ने यह भी देखा कि अपरिणामित्व केवल समष्टि के सम्बन्ध में ही सत्य हो सकता है , व्यष्टि के सम्बन्ध में नहीं । परिणाम और गति , इन भावों के साथ व्यष्टि की धारणा जड़ित है । 
जो कुछ ससीम है वही परिणामी है , क्योंकि दूसरे किसी ससीम पदार्थ की असीम के साथ तुलना करने पर उसका परिणाम सोचा जा सकता है किन्तु समष्टि अपरिणामी है , क्योंकि उसके अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं जिसके साथ तुलना करके उसका परिणाम या गति सोची जा सके । परिणाम केवल दूसरे किसी अल्पपरिणामी अथवा पूर्ण रूप से अपरिणामी पदार्थ के साथ तुलना करने पर ही जाना जा सकता है । अतएव अद्वैतवाद के अनुसार , सर्वव्यापी अपरिणामी अमर आत्मा के अस्तित्व का विषय भी यथासम्भव प्रमाणित किया जा सकता है । 

व्यष्टि के सिद्ध करने के बारे में सिद्धान्त ही अड़चन है । तो फिर हमारे सब प्राचीन द्वैतवादियों की क्या दशा होगी , जो हमारे ऊपर इस समय भी प्रबल प्रभाव के के बारे डाल रहे हैं ? और फिर ससीम , क्षुद्र , व्यक्तिगत में भी क्या होगा ? हमने देखा कि समष्टि - भाव से हम लोग अमर हैं , किन्तु समस्या यही है कि हम क्षुद्र व्यक्ति के रूप में भी अमर होने के इच्छुक हैं , इसका क्या अर्थ है ? हमने देखा कि हम अनन्त हैं , और वही हमारा यथार्थ व्यक्तित्व है । किन्तु हम इस क्षुद्र आत्मा को व्यक्ति रूप में मानकर उसे अमर बनाना चाहते हैं । 

उस क्षुद्र व्यक्तित्व का क्या होगा ? हम देख रहे हैं कि उनका व्यक्तित्व है , किन्तु वह व्यक्तित्व है विकासशील । वे एक हैं फिर भी अलग । कल का ' मैं ' आज का ' मैं ' है भी , और साथ ही नहीं भी है । इसमें द्वैत भावात्मक धारणा अर्थात् परिणाम के भीतर एकत्व -सूत्र विद्यमान है – इस मत का परित्याग हुआ और नितान्त आधुनिक भाव अर्थात् क्रमविकासवाद का ग्रहण हुआ । सिद्धान्त यह हुआ कि उसका परिणाम हो रहा है , किन्तु इस परिणाम के भीतर एक सारूप्य है , वह नित्य विकासशील है । 

यदि यह सत्य है कि मनुष्य मांसल जन्तुविशेष ( Mollusc ) का परिणाम मात्र है , तो वह जन्तु और मनुष्य एक ही पदार्थ हुए , भेद हुआ कि मनुष्य उस जन्तुविशेष का बहु परिणामात्मक विकास मात्र है । वही क्रमशः विकसित होते ह अनन्त की ओर जा रहा है और अब उसने मनुष्य का रूप धारण किया है । इसलिए सीमाबद्ध जीवात्मा को भी व्यक्ति कहा जा सकता है , वही क्रमशः पूर्ण व्यक्तित्व की ओर अग्रसर हो रहा है । 

पूर्ण व्यक्तित्व तभी मिलेगा जब वह अनन्त में पहुँचेगा , किन्तु इस अवस्था में पहुँचने से पहले ही उसके व्यक्तित्व का लगातार परिणाम हो रहा है और साथ ही साथ विकास भी । अद्वैत वेदान्त का प्रधान वैशिष्ट्य है- पूर्ववर्ती मतों में सामंजस्य स्थापित करना । अनेक समय इससे उसका बहुत लाभ भी हुआ पर कभी कभी इससे उसके गम्भीर तत्त्वों की बहुत क्षति भी हुई । आजकल जो क्रमविकासवादियों का मत है उनका भी यही मत था , अर्थात् वे जानते थे कि समस्त ही क्रमविकास का फल है , और इस मत की सहायता से वे लोग सहज ही पूर्ववर्ती प्रणालियों के साथ इस मत का सामंजस्य करने में सफल भी हुए । 

अतएव पूर्ववर्ती कोई भी मत ' परित्यक्त ' नहीं हुआ । बौद्धमत की यह एक विशेष त्रुटि थी कि उसके अनुयायी क्रमविकासवाद को नहीं समझते थे , अतएव उन्होंने आदर्श में पहुँचने की पूर्ववर्ती सीढ़ियों के साथ अपने मत का सामंजस्य करने का कोई प्रयत्न नहीं किया , वरन् उन्हें निरर्थक और अनिष्ट कहकर उनका परित्याग कर दिया । 

धर्म में ऐसी गति अत्यन्त अनिष्टकारक है । किसी व्यक्ति को एक नूतन और श्रेष्ठतर भाव मिला तो वह अपने पुराने भावों के प्रति यह निर्णय कर लेता है कि ये सब अनावश्यक तथा हानि कारक हैं । वह यह कभी नहीं सोचता कि उसकी आज की दृष्टि में वे कितने ही निरर्थक क्यों न हों , एक समय वह भी तो था जब वे ही उसके लिए अत्यावश्यक थे और उसके वर्तमान अवस्था तक पहुँचने में उनकी (Bh की)  विशेष उपयोगिता भी थी । 

हम लोगों में से प्रत्येक को ही उसी प्रकार से आत्मविकास करना पड़ेगा , वे ही सब भाव लेने होंगे और उनमें से अच्छे भाव लेकर धीरे धीरे उच्च से उच्चतर अवस्था की ओर अग्रसर होना पड़ेगा । इसलिए अद्वैतवाद प्राचीन सभी मतों से -- द्वैतवाद से तथा और जो जो मत उससे पहले के हैं , उनसे भिन्नभाव रखता है , किन्तु यह नहीं कि वह उच्च मंच पर चढ़कर उनको ओर दया की दृष्टि से देखता है । अद्वैतवाद का सिद्धान्त है कि वे भी सत्य हैं , एक ही सत्य के विभिन्न विकास हैं और अद्वैतवाद जिन सिद्धान्तों पर पहुंचा है , वे भी उन्हीं सिद्धान्तों पर पहुंचेंगे । 

अतएव मनुष्य को जिन सब सीढ़ियों पर चढ़कर ऊपर जाना हो उनके प्रति कठोर वचन न कहना चाहिए , वरन् उनको आशी र्वाद देते हुए उसे उनकी रक्षा करनी चाहिए । इसीलिए वेदान्त में इन सब भावों की उचित रक्षा की गयी है , परित्याग नहीं किया गया ; और इसीलिए द्वैतवाद - संगत पूर्ण जीवात्मवाद ने भी वेदान्त में स्थान पाया है । 

इस मत के अनुसार मृत्यु होने के पश्चात् मनुष्य अन्यान्य लोकों में जाता है और ये सब भाव भी अद्वैतवाद में सम्पूर्ण रूप से रक्षित हैं , क्योंकि अद्वैतवाद स्वीकार करने पर ये सब विभिन्न भाव भी अपना अपना उचित स्थान पा जाते हैं । हाँ इतना ही मानना पड़ेगा कि वे प्रकृत सत्य के आंशिक वर्णन मात्र हैं । 

यदि तुम जगत् को खण्ड दृष्टि से देखो तो जगत् तुम्हें वैसा ही जान पड़ेगा । द्वैतवाद की दृष्टि से यह जगत् केवल भूत अथवा शक्ति के सृष्टिरूप में ही देखा जा सकता है । उसे किसी विशेष इच्छाशक्ति की क्रीडा के रूप में ही सोचा जा सकता है और उस में इच्छाशक्ति को भी जगत् से पृथक रूप में सोचना सम्भव है । इस दृष्टि से मनुष्य अपने को आत्मा और देह (सूक्ष्म+स्थूल) दोनों की समष्टि (2H) के रूप में सोच सकता है और यह आत्मा ससीम होने पर भी पूर्ण है । 

इस प्रकार के व्यक्ति की अमरत्व एवं अन्यान्य विषयों की धारणाएँ उसकी आत्मा - सम्बन्धी धारणाओं के अनुसार ही होती हैं । इसलिये इन मतों की वेदान्त में रक्षा की गयी है और इसीलिए द्वैतवादियों के विशेष प्रचलित साधारण मतों को तुम्हें बताना भी आवश्यक है । इस मत के अनुसार पहले तो हमारा स्थूल शरीर है । इस स्थूल शरीर के पीछे सूक्ष्म शरीर है । 

यह सूक्ष्म शरीर भी भौतिक है , किन्तु अत्यन्त सूक्ष्म भूतों से बना है । वह हमारे सम्पूर्ण कर्मों का आश्रय - स्वरूप है । सम्पूर्ण कर्मों के संस्कार इस सूक्ष्म शरीर में स्थिर रहते हैं और उनकी प्रवृत्ति सदा फल प्रदान करने की ओर होती है । हम लोग जो कुछ सोचते हैं , जो कुछ कार्य करते हैं वही कुछ समय बाद सूक्ष्म रूप धारण कर लेता है , मानो बीजरूप बन जाता है , और वही इस शरीर में अव्यक्त रूप से रहता है , और फिर कुछ समय बाद प्रकाशित होकर फल भी देता है

मनुष्य का सारा जीवन इसी प्रकार है । मनुष्य अपने भाग्य (अदृष्ट) का स्वयं निर्माता है। मनुष्य और किसी भी नियम से बद्ध नहीं है । वह अपने ही नियम में , अपने ही जाल में अपने आप बँधा है । हम जितने सब काम करते हैं , जो कुछ सोचते हैं , वे सब हमारे बन्धन- जाल के सूत हैं । एक बार किसी शक्ति को चला देने पर उसका पूर्ण फल हमें भोगना ही पड़ता है । यही कर्मविधान है । इस सूक्ष्म शरीर के पीछे ससीम जीवात्मा है । 

इस जीवात्मा की कोई आकृति है अथवा नहीं , यह अणु है , बृहत् है अथवा मध्यम आकार का है, इस बात पर अनेक तर्क - वितर्क हुए हैं । किसी सम्प्रदाय के मत में वह अणु है तो किसी के मत में मध्यम , और दूसरों के मत में यह जीव उस अनन्त सत्ता का एक अंश मात्र है , और वह अनन्त काल से चला आ रहा है । वह अनादि है और उसी सर्वव्यापी सत्ता के एक अंश के रूप में अवस्थित है । वह अनन्त है और अपना प्रकृतस्वरूप , शुद्ध भाव प्रकाशित करने के लिए अनेक प्रकार की देहों में से होकर आगे बढ़ रहा है।  

जो कर्म इस प्रकाश की अभिव्यक्ति में बाधा उपस्थित करता है , उसे असत् कर्म कहते हैं ; ऐसा ही चिन्तन के सम्बन्ध में भी है , और जिस कार्य अथवा विचार द्वारा उसके स्वरूप प्रकाश में विशेष सहायता मिलती है , उसे सत्कार्य अथवा सदविचार कहते हैं । किन्तु भारत के निम्नतम द्वैतवादी और अत्यन्त उन्नत अद्वैतवादी सभी का यह साधारण मत है कि आत्मा की समुदय शक्ति और क्षमता उसके भीतर ही है - वह और कहीं से नहीं आती । 

वह आत्मा में ही अव्यक्त रूप से रहती है , और समस्त जीव का कार्य केवल उसके उस अव्यक्त शक्ति - समूह का ही विकास है । वे पुनर्जन्मवाद भी मानते हैं । इस देह के नष्ट होने पर जीव फिर एक देह धारण करेगा और उस देह का नाश होने पर फिर एक दूसरी देह , और इसी प्रकार आगे भी क्रम चलता रहेगा । जीवात्मा इसी पृथ्वी पर जन्म ले अथवा अन्य किसी लोक में जाय , किन्तु इसी पृथ्वी को श्रेष्ठतर बताया गया है । उनका मत यही है कि हमारे सम्पूर्ण प्रयोजन की सिद्धि के लिए यह `पृथ्वी  ही सर्व श्रेष्ठ है; और उसमें भी केवल भारत ही पुण्यभूमि है' !

अन्यान्य लोकों में  दुःख - कष्ट यद्यपि बहुत कम अवश्य हैं , (जन्नत में ? 72 हूरें हैं ?)किन्तु इसी कारण वहाँ उच्चतम विचार करने के लिए अवसर ही नहीं मिलता इस जगत् में बहुत अच्छा सामंजस्य है । घोर दुःख भी है और कुछ सुख भी । अतएव जीव की मोह - निद्रा यहाँ कभी - न - कभी टूटती ही है , कभी - न - कभी उसकी इच्छा मुक्ति पाने की होती ही है । किन्तु जैसे इस लोक में बहुत बड़े आदमी उच्चतम विचार करने का अवसर बहुत कम पाते हैं , ठीक उसी प्रकार जीव यदि स्वर्ग में गमन करता है तो उसकी भी आत्मोन्नति की कोई सम्भावना नहीं रहती । 

यहाँ की अपेक्षा वहाँ सुख में बहुत ही वृद्धि हो जायेगी , उनकी सूक्ष्म देह में कोई व्याधि नहीं रह जायेगी , भूख - प्यास भी नहीं लगेगी और सब कामनाएँ भी पूर्ण होती जायेंगी । जीव वहाँ सुख - पर - सुख भोगता है , परन्तु इसीलिए वह अपना स्वरूप और उच्च भाव बिलकुल भूल जाता । फिर भी इन सब उच्चतर लोकों में कुछ ऐसे व्यक्ति हैं जो इन सब भोगों के रहते हुए भी और भी उच्चतर भावों में चले जाते हैं । एक प्रकार के स्थूलदर्शी द्वैतवादी (और तथाकथित वर्क इज वर्शिप कहने वाले मूर्ख !)उच्चतम स्वर्ग को ही चरम लक्ष्य मानते हैं - उनके मतानुसार जीवात्माएँ वहाँ जाकर चिरकाल तक भगवान के साथ रहती हैं । 

वे वहाँ दिव्य देह प्राप्त करती हैं - उन्हे रोग , शोक , मृत्यु अथवा अन्य कोई अशुभ नहीं सताता । उनकी सब वासनाएँ पूर्ण हो जाती हैं और वे भी वहाँ चिरकाल तक भगवान के साथ रहती हैं । समय - समय पर उनमें से कोई कोई पृथ्वी पर आकर , देह धारण कर लोकशिक्षा देती हैं , और जगत् के सभी श्रेष्ठ धर्माचार्यगण इसी स्वर्ग से आते हैं । वे पहले ही मुक्त हो चुके हैं । 

वे भगवान के साथ एक ही लोक में (वैकुण्ठ लोक ? में ) वास करते हैं , किन्तु दुःखार्त मनुष्यों के ऊपर उनकी इतनी कृपा होती है कि वे यहाँ आकर पुन : देह धारण कर लोगों को स्वर्ग - पथ के सम्बन्ध में उपदेश देते हैं । उसके उपरान्त वे और भी उच्चतर लोकों में जाते हैं । अद्वैतवादी यह अवश्य कहता है कि यह स्वर्ग हमारा चरम लक्ष्य कभी नहीं हो सकता । हमारा लक्ष्य होना चाहिए सम्पूर्ण विदेह मुक्ति जो हमारा सर्वोच्च लक्ष्य है , सर्वश्रेष्ठ आदर्श है वह कभी ससीम नहीं हो सकता , अनन्त के अतिरिक्त और कुछ भी हमारा चरम लक्ष्य नहीं हो सकता , किन्तु देह तो कभी अनन्त नहीं होती। (Be and Make राजर्षि जनक, राजा +ऋषि बनो और बनाओ! लेकिन पटवारी बुद्धि वाला 'क्लर्क' राजर्षि जनक कैसे बनेगा ?) । 

यह होना असम्भव है , क्योंकि ससीमता से शरीर की उत्पत्ति है । चिन्ता अनन्त नहीं हो सकती , क्योंकि ससीम भावों से ही चिन्ता होती है । अद्वैतवादी कहता है , हमें देह और चिन्ता के परे जाना होगा । और हमने अद्वैतवादियों का यह विशेष मत भी देखा है कि मुक्ति कोई प्राप्त करने की वस्तु नहीं है , वह तो सदा वर्तमान ही है । केवल हम लोग भूल जाते हैं और उसे अस्वीकार करते हैं । यह पूर्णता हमें प्राप्त करना नहीं है , वह तो सदैव ही वर्तमान है । यह अमरत्व , यह नित्यता हमें लाभ करना नहीं है , वह तो पहले से ही हमें प्राप्त है । 

यदि तुम साहस के साथ यह कह सको कि ' मैं मुक्त हूँ ' तो उसी मुहूर्त तुम मुक्त हो जाओगे । यदि तुम कहो ' मैं बद्ध हूँ ' तो तुम बद्ध ही रहोगे । जो हो , द्वैतवादी और अन्यान्यवादियों के विभिन्न मत मैंने तुमको बता दिये हैं , अब इनमें से तुम लोग जो चाहो ग्रहण करो  । 

[If you dare declare that you are free, free you are this moment. If you say you are bound, bound you will remain. This is what Advaita boldly declares. I have told you the ideas of the dualists. You can take whichever you like.]

वेदान्त की यह बात समझना बहुत कठिन है और लोग सदा इस पर विवाद करते हैं । सब से बड़ी मुश्किल तो यही है कि जो किसी एक मत को ले लेता है वह दूसरे मत को बिलकुल अस्वीकार कर उस मतावलम्बी के साथ वाद - विवाद करने में प्रवृत्त हो जाता है । 

तुम्हारे लिए जो उपयुक्त हो उसे तुम ग्रहण करो , और दूसरे को जो उपयुक्त लगे उसे वह ग्रहण करने दो । यदि तुम अपने इस क्षुद्र व्यक्तित्व को , इस ससीम मानवत्व को रखने के लिए इतने इच्छुक हो , तो उसे अनायास ही रख सकते हो , तुम्हारी सभी वासनाएँ रह सकती हैं और तुम उनमें सन्तुष्ट भी रह सकते हो । यदि मनुष्यभाव में रहने का आनन्द तुम्हें इतना सुन्दर और मधुर लगता है तो तुम जितने दिन इच्छा हो उसको रख सकते हो , क्योंकि तुम जानते हो कि तुम्हीं अपने अदृष्ट के निर्माता हो । 

जबरदस्ती तुमसे कोई कुछ भी नहीं करा सकता । तुम्हारी जब तक इच्छा हो , मनुष्य बने रहो , कोई भी तुम्हें ब ...... (मनुष्य से पशु बन जाने के लिए बाध्य)  नहीं कर सकता । यदि देवता होने की इच्छा करो तो देवता हो जाओगे । असल बात यह है । किन्तु कुछ लोग ऐसे हैं जो देवता भी नहीं बनना चाहते । उनसे यह कहने का तुम्हारा क्या अधिकार है । कि यह बड़ी भयंकर बात है ? तुम्हें सौ रुपये खो जाने से दुःख हो सकता है , किन्तु ऐसे (राजर्षि जनक जैसे) भी अनेक लोग हैं जिनके करोड़ों रुपये नष्ट होने पर तनिक भी कष्ट नहीं होगा । ऐसे लोग प्राचीन काल में बहुत थे और आज भी हैं । 

[गुरूकृपा गृहस्थ को भी `विदेह ' बना देती है : राजा जनक को अपने गुरूदेव अष्टावक्र की कृपा से ज्ञान हुआ था। महर्षि अष्टावक्र की कृपा से ही उन्हें सिद्धि मिली थी। साधना से सिद्धि की यात्रा कर लेने के बावजूद वे गुरू आदेश से अपने कर्त्तव्य का निर्वहन करते रहे। उनके लिए सभी कुछ समान था। परन्तु मूढ़ जन इस रहस्य को समझ न पाये और उन्हें साधारण गृहस्थ समझने की भूल करते रहे। इन्हीं दिनों ब्रहर्षि विश्वामित्र ने वेदान्त विदों का एक शिविर मिथिला नगरी में लगाया।  इस शिविर में देशभर के ऋषि- मुनि, त्यागी वेश एवं कमण्डलुधारी, संन्यासी सभी पधारे। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र, योगी याज्ञवल्क्य, महर्षि अष्टावक्र सरीखें पारदर्शी ज्ञानी वहां रोज प्रवचन देते। इस प्रवचन कक्षा में राजर्षि जनक भी शामिल होते। एक दिन सभा में किसी ऋषि ने सूचना दी  -  ` महाराज महाराज! आग लगी है। आप तो राजा हैं। आपका राज्य एवं महल जल रहा है। क्या आपको चिंता नहीं हों रही है?'  महर्षि के प्रश्न पर राजा जनक स्थिर चित्त से बोले- ऋषियों! आप चिंता न करें। सद्गुरू की कृपा से मैंने सत्य जान लिया है- 

`अनन्तं वत मे वित्तं यस्य मे नास्ति किंचन । 
मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे दह्यति किंचन ॥' 
(महाभारत  12.171.56)  
" मेरे पास अनन्त धन है, फिर भी जैसे कुछ नहीं है। सारी मिथिला भस्म हो जाय तो भी मेरा बाल बांका नहीं होता। जो व्यक्ति प्रज्ञा के महल पर पहुँच गया है, उसे जगत् और उसका सम्पूर्ण भोग  गोखुर से अधिक नहीं जान पड़ता।  
" My treasures are immense, yet I have nothing ! If again the whole of Mithila were burnt and reduced to ashes, nothing of mine will be burnt.
जनक के इस कथन के साथ ही आग बुझ गयी। महर्षि ने अपना खेल समेट लिया। ज्ञान और आसक्ति का भेद स्पष्ट हो गया। सचमुच सद्गुरू की कृपा से क्या नहीं हो सकता।] 

" तुम उन्हें अपने आदर्श के पैमाने से क्यों नापते हो ? तुम क्षुद्र सीमित भावों में आबद्ध हो । ये ही तुम्हारे सर्वोच्च आदर्श लेकर रहो न । जैसा चाहोगे वैसा ही पाओगे , किन्तु तुम्हें छोड़कर ऐसे अनेक व्यक्ति हैं , जिन्हें सत्य का दर्शन हुआ है - वे उसे स्वर्गादि भोगों से परे हैं , वे उनमें फँसना जगत् नहीं चाहते , वे सम्पूर्ण सीमाओं के बाहर जाना चाहते हैं , की कोई भी वस्तु उन्हें परितृप्त नहीं कर सकती । जगत् और उसका सम्पूर्ण भोग उन्हें गोखुर से अधिक नहीं जान पड़ता । तुम उन्हें अपने भाव में क्यों फँसाकर रखना चाहते हो ? यह भाव बिलकुल छोड़ना पड़ेगा , प्रत्येक को अपने रास्ते चलने दो । 
बहुत दिन पहले मैंने सचित्र लन्दन- समाचार ( Illustrated London News ) नामक पत्र में एक समाचार पढ़ा । कुछ जहाज * प्रशान्त महासागर के एक द्वीपपुंज के निकट तूफान में आ गये। इस पत्रिका में इस घटना का एक चित्र भी आया था । तूफान में केवल एक ब्रिटिश जहाज को छोड़कर अन्य सब भग्न होकर डूब गये । वह ब्रिटिश जहाज तूफान पार कर चला आया । चित्रों में यह दिखाया है कि जहाज डूबे जा रहे हैं , उनके डूबते हुए यात्री डेक के ऊपर खड़े होकर तूफान से बचनेवाले जहाज के यात्रियों को प्रोत्साहित कर रहे हैं । `Be brave and generous like that.' --ऐसे ही बहादुर और उदार बनो। 

इसी प्रकार हमें वीर , उदार होना चाहिए । दूसरों को खींचकर अपनी भूमि पर मत लाओ । लोग मूर्ख के समान एक और मत की पुष्टि किया करते हैं कि यदि हम अपने इस क्षुद्र ' मैं - पन ' को भुला दें तो जगत् में किसी प्रकार की नीतिपरायणता नहीं रहेगी , मनुष्यजाति को कुछ भी आशा भरोसा न रह जायगा । मानो जो ऐसा कहते हैं वे समग्र मानवजाति के लिए सदा प्राणोत्सर्ग ही करने के लिए तैयार हैं ! यदि सभी देशों में मिलाकर केवल दो सौ ही नरनारी देश के सच्चे हितैषी हों तो दो दिन में सत्ययुग आ सकता है । [If in every country there were two hundred men and women really wanting to do good to humanity, the millennium would come in five days.] 

हम जानते हैं कि हम मनुष्यजाति के उपकार के लिए किस प्रकार आत्मोत्सर्ग करना चाहते हैं ! ये सब लम्बी - चौड़ी बातें हैं- इन सब बातों में कुछ - न - कुछ स्वार्थ छिपा रहता है । विश्व के इतिहास में यह स्पष्ट है कि जो इस क्षुद्र ' मैं ' को एकदम भूल जाते हैं वे पुरुष ही समाज के सर्वोत्तम हितैषी हैं , और लोग अपने को जितना अधिक भूल जायेंगे उतने ही वे अधिक परोपकारी बन सकेंगे । उनमें से पहलेवालों में स्वार्थपरता है और दूसरों में निःस्वार्थपरता । इन छोटे छोटे भोग - सुखों में आसक्त रहना और यह सोचना कि ये ही चिरस्थायी हैं , घोर स्वार्थपरता है ।

ऐसी मनोवृत्ति सत्यानुराग अथवा दूसरों के प्रति दयालु भाव के कारण नहीं होती - इसकी उत्पत्ति का एक मात्र कारण है घोर स्वार्थपरता । दूसरे किसी की ओर दृष्टि न रखकर केवल अपनी ही भोगवृत्ति के भाव से इसका जन्म होता है । कम - से - कम मुझे तो यही जान पड़ता है । संसार में मैं प्राचीन महापुरुष और साधुओं के समान चरित्र बलशाली व्यक्ति और देखना चाहता हूँ - वे एक क्षुद्र पशु तक के उपकारार्थ सौ सौ जीवन त्यागने के लिए तैयार थे । नीति और परोपकार की क्या बात करते हो ? यह तो आजकल की बेकार की बातें हैं।  

मैं गौतमबुद्ध के समान चरित्रबल-शाली लोग देखना चाहता हूँ , जो सगुण ईश्वर अथवा व्यक्तिगत आत्मा में विश्वास नहीं करते थे , जो उस विषय में कभी प्रश्न ही नहीं करते थे , जो उस विषय में पूर्ण अज्ञेयवादी थे , किन्तु जो सब के लिए अपने प्राण तक देने को प्रस्तुत थे— आजन्म दूसरों का उपकार करने में रत रहते तथा सदैव इसी चिन्ता में मग्न रहते थे कि दूसरों का उपकार किस प्रकार हो । उनके जीवन - चरित लिखनेवालों ने ठीक ही कहा है कि उन्होंने " बहुजनहिताय बहुजनसुखाय " जन्म ग्रहण किया था । 

इतना ही नहीं , वे अपनी मुक्ति तक के लिए वन में तप करने नहीं गये । दुनिया दुःख में जली जा रही है- यदि कोई इसे बचाने का उपाय नहीं करेगा तो कैसे काम चलेगा ? उनके समस्त जीवन में यही एक चिन्ता थी कि जगत् में इतना दुःख क्यों है ? तुम लोग क्या यह समझते हो कि हम सब उनके समान नीतिपरायण हैं ? 

मनुष्य जितना स्वार्थी होता है , उतना ही अनैतिक भी होता है । यही बात जातियों के सम्बन्ध में सत्य है । स्वयं अपने से ही विजड़ित रहनेवाली जाति ही संसार में सब से अधिक क्रूर और पातकी सिद्ध हुई है । अरब के पैगम्बर द्वारा प्रवर्तित धर्म से बढ़कर द्वैतवाद से चिपकनेवाला कोई दूसरा धर्म आज तक नहीं हुआ , और इतना रक्त बहानेवाला तथा दूसरों के प्रति इतना निर्मम धर्म भी कोई दूसरा नहीं हुआ । 

कुरान का यह आदेश है कि जो मनुष्य इन शिक्षाओं को न माने , उसको मार डालना चाहिए ; उसकी हत्या कर डालना ही उस पर दया करना है ! और सुन्दर हूरों तथा सभी प्रकार के भोगों से युक्त स्वर्ग को प्राप्त करने का सब से विश्वस्त रास्ता है , काफिरों की हत्या करना । ऐसे कुविश्वासों के फलस्वरूप जितना रक्तपात हुआ है , उसकी कल्पना कर लो ! 

ईसा मसीह ने जिस धर्म का प्रचार किया था उसमें ऐसी बातें नहीं थीं । उस विशुद्ध ईसाई धर्म और वेदान्त धर्म में बहुत थोड़ा भेद था । उन्होंने अद्वैतवाद का भी प्रचार किया और जन साधारण को सन्तुष्ट रखने के लिए , उसे उच्चतम आदर्श की धारणा करने के लिए सोपानरूप से द्वैतवाद के विषय में भी कहा । जिन्होंने ' मेरे स्वर्गस्थ पिता ' ("Father in heaven")कहकर प्रार्थना करने का उपदेश दिया था , उन्होंने यह भी कहा था ' मैं और मेरे पिता एक हैं "I and my Father are one".।  

वे यह भी जानते थे कि इस स्वर्गस्थ पितारूप द्वैतभाव की उपासना करते - करते ही अभेद बुद्धि आ जाती है । उस समय ईसाई धर्म केवल प्रेम और आशीर्वादपूर्ण था ; किन्तु बाद में अनेक प्रकार के मतों ने घुसकर उसे विकृत कर दिया और वह पैगम्बर के धर्म के स्तर पर आ गया । यह जो क्षुद्र ' मैं ' के लिए मारकाट , ' मैं ' के प्रति घोर आसक्ति , और केवल इसी जीवन में नहीं, बल्कि मृत्यु के बाद भी इस क्षुद्र ' मैं ' तथा इस क्षुद्र व्यक्तित्व को ही लेकर रहने की इच्छा , ये सब इस धर्म के विकृत भाव से उत्पन्न हुए हैं ।

 वे कहते हैं , यह निःस्वार्थपरता है - यह नीति की आधारशिला है ! यही अगर नीति की आधारशिला हो तो फिर दुर्नीति की भित्ति क्या है ? यह आश्चर्य की बात है कि जिन सब नर - नारियों से हम अधिक ज्ञान की आशा रखते हैं उन्हें यह डर लगता है कि इस क्षुद्र ' मैं ' के मिटने पर सब नीति बिलकुल नष्ट हो जायेगी । यह कहने से कि इस क्षुद्र ' मैं ' के विनाश पर ही यथार्थ नैतिकता अवलम्बित है , ये लोग घबड़ा जाते हैं । 

सब प्रकार की नीति , शुभ तथा मंगल का मूलमन्त्र ' मैं ' नहीं , ' तुम ' है । कौन सोचता है कि स्वर्ग और नरक हैं या नहीं ? कौन सोचता है कि कोई अनश्वर सत्ता या नहीं ? हमारे सामने यह सारा संसार है जो महादुःख से परिपूर्ण है । बुद्ध के समान इस संसार - सागर में गोता लगाकर या तो इस संसार के दुःख को दूर करो या इस प्रयत्न में प्राण त्याग दो । अपने को भूल जाओ ; आस्तिक हो या नास्तिक , अज्ञेयवादी ही हो या वेदान्ती , ईसाई हो या मुसलान - प्रत्येक के लिए यही सब से पहली शिक्षा है । 

यह शिक्षा , यह उपदेश सभी समझ सकते हैं , ' मैं नहीं , मैं नहीं ' या ' तुम ही हो , तुम ही हो ' – अहंनाश अर्थात् प्रकृत ' मैं ' का विकास । दो शक्तियाँ सदा समान भाव से कार्य कर रही हैं । एक अहं और दूसरी नाहं । यह निःस्वार्थपर शक्ति केवल मनुष्यों में ही नहीं , किन्तु तिर्यग् जाति में भी देखी जाती है— यहाँ तक कि क्षुद्रतम कीटाणुओं में भी इस शक्ति का विकास दीख पड़ता है । नर - रक्त की प्यासी लपलपाती जीभवाली बाघिन भी अपने बच्चे की रक्षा के लिए जान देने को प्रस्तुत रहती है । 

अत्यन्त बुरा आदमी भी जो अनायास ही अपने भाई का गला काट सकता है वह भी भूख से मरती हुई अपनी स्त्री तथा बालबच्चों के लिए सब कुछ करने को तैयार रहता है । सृष्टि के भीतर ये दोनों शक्तियाँ पास पास ही काम कर रही हैं - जहाँ एक शक्ति देखोगे , वहाँ दूसरी भी दीख पड़ेगी । एक स्वार्थपरता है , और दूसरी निःस्वार्थपरता । एक है ग्रहण , दूसरी त्याग । 

क्षद्रतम प्राणी से लेकर उच्चतम प्राणी तक समस्त ब्रह्माण्ड इन्हीं दोनों शक्तियों का लीलाक्षेत्र है ! इसके लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं --यह स्वतः प्रमाण है । समाज के एक सम्प्रदाय के लोगों को यह कहने का क्या अधिकार है कि दुनिया का सारा काम और विकास इन दोनों शक्तियों में से अहंशक्तिप्रसूत प्रतिद्वन्द्विता एवं संघर्ष से ही पैदा होता है ? यह बात कह देने का उन्हें क्या अधिकार है कि जगत् का सारा कार्य राग , द्वेष , विवाद और प्रतिद्वन्द्विता के ऊपर ही अधिष्ठित है ? 

ये सारी प्रवृत्तियाँ ही इस जगत् के अधिकांश व्यक्तियों को संचालित करती हैं इसे हम अस्वीकार नहीं करते । किन्तु उन्हें दूसरी शक्ति को बिलकुल न मानने का क्या अधिकार है ? और क्या वे इसे अस्वीकार कर सकते हैं कि यह प्रेम , अहंशून्यता अथवा त्याग ही जगत् की एकमात्र भावरूपिणी शक्ति है ? दूसरी शक्ति इस नाहं अथवा प्रेम - शक्ति का ही विपरीत रूप से प्रयोग करना है और उसी से प्रतिद्वन्द्विता की उत्पत्ति होती है । अशुभ की उत्पत्ति भी निःस्वार्थपरता से होती और अशुभ का परिणाम भी शुभ के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । 

वह केवल मंगल - विधायिनी शक्ति का दुरुपयोग मात्र है । एक व्यक्ति जो दूसरे की हत्या करता है वह भी प्रायः अपने पुत्रादि के प्रति स्नेह की प्रेरणा से ही , एवं उनके लालन - पालन के लिए । अपना प्रेम अन्य लाखों व्यक्तियों से हटाकर वह केवल अपनी सन्तान के प्रति दर्शाता है , इस कारण उसका प्रेम ससीम भाव में परिणत हो जाता है , किन्तु ससीम हो या असीम , वह मूलतः एक ही प्रेम है । 

अतएव समग्र जगत् की परिचालक , जगत् में एकमात्र प्रकृत और जीवन्त शक्ति वही एक अद्भुत वस्तु है - वह किसी भी आकार में व्यक्त क्यों न हो , वह उस प्रेम , निःस्वार्थपरता तथा त्याग के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं । वेदान्त यहीं पर द्वैतवाद छोड़कर अद्वैतवाद पर जोर देता है । हम भी इस अद्वैतवाद पर इसीलिए विशेष जोर देते हैं , क्योंकि हम जानते हैं , हमें ज्ञान विज्ञान का अभिमान होने पर भी यह मानना ही पड़ेगा कि जहाँ एक कारण द्वारा कुछ कार्यों की व्याख्या की जाती है , वहीं अनेक कारणों द्वारा भी यदि उन्हीं कार्यों की व्याख्या की जाय तो अनेक कारण स्वीकार न करके एक कारण स्वीकार करना ही अधिक युक्तिसंगत होता है । 

यहाँ यदि हम यह स्वीकार कर लें कि वह एक ही अपूर्व सुन्दर प्रेम सीमित होकर ही असतु रूप में प्रतीत होता है तो हमने एक ही प्रेमशक्ति द्वारा सम्पूर्ण जगत् की व्याख्या कर दी । नहीं तो हमें जगत् के दो कारण मानने पड़ेंगे- एक शुभ शक्ति , दूसरी अशुभ शक्ति - एक प्रेम - शक्ति , दूसरी द्वेष - शक्ति । इन दोनों सिद्धान्तों के बीच में कौन अधिक न्याय संगत है ? - निश्चय ही शक्ति का एकत्व मानकर सम्पूर्ण जगत् की व्याख्या करना ।

मैं अब ऐसी बातों की चर्चा करूँगा जो सम्भवतः द्वैतवादियों को पसन्द नहीं हैं । मैं द्वैतवाद की इस आलोचना में और अधिक समय नहीं दूंगा । मेरा यहाँ यही उद्देश्य है कि नीति और निःस्वार्थपरता के उच्चतम आदर्श उच्चतम दार्शनिक धारणा के साथ असंगत नहीं हैं । मेरा उद्देश्य यही दिखाने का है कि नीति परायण होने से तुम्हें दार्शनिक धारणा को नवाना नहीं पड़ता , वरन् नीति की नींव पर पहुँचने के लिए तुम्हें उच्चतम दार्शनिक और वैज्ञानिक धारणा सम्पन्न बनना पड़ेगा । 

मनुष्य का ज्ञान मनुष्य के शुभ का विरोधी नहीं है , वरनु जीवन के प्रत्येक विभाग में ही ज्ञान हमारी रक्षा करता है । ज्ञान ही उपासना है । हम जितना जान सकें उसी में हमारा मंगल । वेदान्ती कहते हैं , इस आपातप्रतीय मान अशुभ का कारण है - असीम का सीमाबद्ध भाव । जो प्रेम सीमाबद्ध होकर क्षुद्रभावापन्न हो जाता है तथा अशुभ प्रतीत होता है , वही फिर चरमावस्था में ब्रह्म को प्रकाशित करता है और वेदान्त यह भी कहता है कि इस आपातप्रतीयमान सम्पूर्ण अशुभ का कारण हमारे भीतर ही है । 

किसी दैवी पुरुष की तुम निन्दा न करना अथवा निराश या विषण्ण न हो जाना , अथवा यह भी न सोचना कि हम गर्त के बीच में पड़े हैं और जब तक कोई दूसरा आकर हमारी सहायता नहीं करता , तब तक हम इससे निकल नहीं सकते । वेदान्त कहता है , दूसरे की सहायता से हमारा कुछ नहीं हो सकता । हम रेशम के कीड़े के समान हैं । अपने ही शरीर से अपने आप जाल बनाकर उसी में आबद्ध हो गये हैं । किन्तु यह बद्धभाव चिरकाल के लिए नहीं है । 

हम लोग उससे तितली के समान बाहर निकलकर मुक्त हो जायेंगे । हम लोग अपने चारों और इस कर्मजाल को लगा देते हैं और अज्ञानवश सोचने लगते हैं कि हम बँधे हैं , और कभी कभी सहायता के लिए रोते चिल्लाते हैं । किन्तु बाहर से कोई सहायता नहीं मिलती, सहायता मिलती है भीतर से । दुनिया के सारे देवताओं के पास तुम रो सकते हो , मैं भी बहुत वर्ष इसी तरह रोता रहा , अन्त में देखा कि मुझे सहायता मिल रही है , किन्तु यह सहायता भीतर से मिली

भ्रान्तिवश इतने दिन तक जो अनेक प्रकार के काम करता रहा , उस भ्रान्ति को मुझे दूर करना पड़ा । यही एकमात्र उपाय है । मैंने स्वयं अपने को जिस में फँसा रखा है , वह मुझे ही काटना पड़ेगा और उसे काटने की शक्ति भी मुझमें ही दरे है । इस विषय में मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि जीवन की सदसद कोई भी प्रवृत्ति व्यर्थ नहीं गयी —-मैं उसी अतीत शुभाशुभ दोनों प्रकार के कर्मों का समष्टिस्वरूप हूँ । 

मैंने जीवन में बहुतसी गलतियाँ की हैं , कभी न होता । मैं अब किन्तु ये किये बिना आज जो मैं हूँ । वह अपने जीवन से अत्यन्त सन्तुष्ट हूँ । पर मेरे कहने का यह मतलब नहीं कि तुम घर जाकर चाहे जितना अन्याय करते रहो , मेरी बात का गलत मतलब न समझ लेना । मेरे कहने का अभिप्राय यही है कि कुछ भूल - चूक हो गयी है , इसलिए एकदम हाथ पर हाथ रखकर मत बैठे रहो , किन्तु यह समझ रखो कि अन्त में फल सब का शुभ ही होता है । 

इसके विपरीत और कुछ कभी नहीं हो सकता , क्योंकि शिवत्व और विशुद्धत्व हमारा स्वाभाविक धर्म है । उसका किसी भी प्रकार नाश नहीं हो सकता । हम लोगों का यथार्थ स्वरूप सदा ही एकरूप रहता है । हम लोगों को यह जानना आवश्यक है कि हम दुर्बल होने के कारण अनेक प्रकार के भ्रम में पड़ते हैं , और अज्ञान के कारण ही हम दुर्बल हैं । मैं पाप शब्द के बजाय भ्रम शब्द का प्रयोग अधिक उपयुक्त समझता हूँ । 

हमें किसने अज्ञानान्धकार में फेंका है ? उत्तर स्पष्ट है कि हम लोग स्वयं ही अपने को अज्ञानान्धकार में फेंकते हैं । हम लोग स्वयं अपनी आँखों पर हाथ रखकर ' अँधेरा , अँधेरा , ' कहकर चिल्लाते हैं । हाथ हटा लो , देखोगे कि जीवात्मा स्वप्रकाश है , स्व - रूप से ही आलोकित है । आधुनिक वैज्ञानिकगण क्या कहते हैं , यह क्यों नहीं देखते ? इस सब क्रमविकास का क्या कारण है ? -वासना । 

कोई भी पशु जिस रूप में वह अवस्थित है , उसे छोड़कर उससे उच्चतर रूप में जाना चाहता है - वह सोचता है कि वह जिस अवस्था में है , वह उसके उपयोगी नहीं है इसलिए वह एक नूतन शरीर धारणा कर लेता है । तुम निम्नतम जीवाणु से अपनी इच्छाशक्ति के कारण उत्पन्न हुए हो । फिर उसी इच्छाशक्ति का प्रयोग करो , और भी अधिक उन्नत हो जाओगे । इच्छा सर्वशक्तिमान है। 

तुम कहोगे , यदि इच्छा सर्व शक्तिमान है तो मैं जितने काम करना चाहता हूँ , उन्हें क्यों नहीं कर पाता ? उत्तर यह है कि तुम जब ऐसी बातें करते हो उस समय केवल अपने क्षुद्र ' मैं ' की ओर देखते हो । सोचकर देखो , तुम क्षुद्र जीवाणु से इतने बड़े मनुष्य हो गये । किसने तुम्हें मनुष्य बनाया ? तुम्हारी अपनी इच्छाशक्ति ने ही । यह इच्छा शक्ति सर्वशक्तिमान है — तुम क्या यह अस्वीकार कर सकते हो ? जिसने तुम्हें इतना उन्नत बना दिया , वह तुम्हें और भी अधिक उन्नत करेगी । 
हम लोगों का प्रयोजन है चरित्र , इच्छाशक्ति की दृढ़ता , उसकी दुर्बलता नहीं । अतएव यदि मैं तुम्हें यह उपदेश दूं कि तुम्हारी प्रकृति असत् है , और यह कहूँ कि तुमने कुछ भूलें की हैं तो इसलिए अब तुम अपना जीवन केवल पश्चात्ताप करने तथा रोने - धोने में ही बिताओ , तो इससे तुम्हारा कुछ भी उपकार न होगा , वरन् उससे और भी दुर्बल हो जाओगे । 

ऐसा करना तुम्हें सत्पथ बताने के बजाय असत्पथ दिखाना होगा । यदि हजारों साल इस कमरे में अँधेरा रहे और तुम उस कमरे में आकर ' हाय ! बड़ा अँधेरा है ! बड़ा अँधेरा है ! ' कह - कहकर रोते रहो तो क्या अँधेरा चला जायगा ? कभी नहीं । परन्तु एक दियासलाई जलाते ही कमरा प्रकाशित हो उठेगा । अतएव जीवन भर ' मैंने बहुत दोष किये हैं , मैंने बहुत अन्याय किया है ' , यह सोचने से क्या तुम्हारा कुछ भी उपकार हो सकेगा ? हममें बहुतसे दोष हैं ' यह किसी को बतलाना नहीं पड़ता । 
ज्ञानाग्नि प्रज्वलित करो , एक क्षण में सब अशुभ चला जायगा । अपने प्रकृत स्वरूप को पहचानो , प्रकृत ' मैं ' को उसी ज्योतिर्मय उज्ज्वल , नित्यशुभ ' मैं ' को , प्रकाशित करो प्रत्येक व्यक्ति में उसी आत्मा को जगाओ । मैं चाहता हूँ कि सभी व्यक्ति ऐसी दशा में आ जायँ कि अति जघन्य पुरुष को भी देखकर उसकी बाह्य दुर्बलताओं की ओर वे दृष्टिपात न करें । बल्कि उसके हृदय में रहनेवाले भगवान् को देख सकें । 

और उसकी निन्दा न कर , यह कह सकें , ' हे स्वप्रकाशक , ज्योतिर्मय , उठो ! हे उठो ! हे अज , अविनाशी , सर्वशक्तिमान , उठो ! सदाशुद्धस्वरूप आत्मस्वरूप प्रकाशित करो । तुम जिन क्षुद्र भावों में आबद्ध पड़े हो वे तुम्हें सोहते नहीं । ' अद्वैतवाद इसी श्रेष्ठतम प्रार्थना के उपदेश को देता रहता है ।
   यही एकमात्र प्रार्थना है — निजस्वरूप - स्मरण , सदा उसी अन्तःस्थ ईश्वर का स्मरण , उसी को सदा अनन्त , सर्वशक्तिमान , सदाशिव , निष्काम कहकर उसका स्मरण । यह क्षुद्र मैं उसमें नहीं रहता , क्षुद्र बन्धन उसे नहीं बाँध सकते । और वह अकाम है इसीलिए अभय और ओजःस्वरूप है , क्योंकि कामना तथा स्वार्थ से ही भय की उत्पत्ति होती है । 

जिसे अपने लिए कोई कामना नहीं , वह किससे डरेगा ? कौनसी वस्तु उसे डरा सकती है ? क्या उसे मृत्यु डरा सकती है ? अशुभ विपत्ति डरा सकती है ? कभी नहीं । अतएव यदि हम अद्वैतवादी हैं तो हमें अवश्य सोचना होगा कि हमारा ' मैं- पन ' इसी क्षण से मृत है । फिर मैं स्त्री हूँ या पुरुष हूँ यह सब भाव नहीं रह जाता , ये कुसंस्कार मात्र हैं , और शेष रहता है वही नित्यशुद्ध , नित्य ओजःस्वरूप , सर्वशक्तिमान , सर्वज्ञस्वरूप , और तब हमारा सारा भय चला जाता है । 
कौन इस सर्वव्यापी ' मैं ' का अनिष्ट कर सकता है ? इस प्रकार हमारी सम्पूर्ण दुर्बलता चली जाती है । तब दूसरों में भी उसी शक्ति को उद्दीप्त करना हमारा एकमात्र कार्य हो जाता है । हम देखते हैं , वे भी यही आत्मा - स्वरूप हैं , किन्तु वे यह जानते नहीं । अतएव हमें उन्हें सिखाना होगा- उनके इस अनन्त स्वरूप के प्रकाशार्थ हमें उनकी सहायता करनी पड़ेगी । मैं देखता हूँ कि जगत् में इसी के प्रचार की सब से अधिक आवश्यकता है । 

ये सब मत अत्यन्त पुराने हैं , उस समय शायद आज के बहुतसे पर्वत भी न थे , जब ये मत प्रथम प्रकाशित एवं प्रचारित हुए थे । सभी सत्य सनातन हैं । सत्य व्यक्तिविशेष की सम्पत्ति नहीं है । कोई भी जाति , कोई भी व्यक्ति उसे अपनी सम्पत्ति कहकर दावा नहीं कर सकता । सत्य ही सब आत्मा का यथार्थ स्वरूप है । किसी भी व्यक्तिविशेष का उस पर विशेष अधिकार नहीं है । 
 
किन्तु हमें उसे कार्यरूप में परिणत करना होगा , सरल भाव से उसका प्रचार करना पड़ेगा , क्योंकि तुम देखोगे कि सभी उच्चतम सत्य अत्यन्त सहज और सरल हैं । अत्यन्त सहज और सरल भाव से ही उनका प्रचार आवश्यक है , जिससे वह समाज में सभी जगह अपना अधिकार कर ले, उच्चतम मस्तिष्क से लेकर अत्यन्त साधारण मन द्वारा भी समझा जा सके , तथा आबाल - वृद्ध वनिता सभी उसे जान सके ।

 ये न्याय के कूट विचार , दार्शनिक मीमांसाएँ , ये सब मतवाद और क्रियाकाण्ड - इन सभी ने किसी एक समय भले ही उपकार किया हो , किन्तु आइये , हम सब आज से- इसी क्षण से धर्म को सहज बनाने की चेष्टा करें और उस सत्ययुग के पुनरागमन में सहायता करें , जब कि प्रत्येक व्यक्ति उपासक होगा तथा उसका अन्तरस्थ सत्य ही उसका उपास्य देवता होगा । "
साभार [https://www.khabardailyupdate.com/2022/02/swami-vivekananda-vedanta-forth-lecture-in-practical-Life.html]
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इश्क करे ऊ जिसकी जेब में माल बारे बलमूं (ishq kare u jiski jeb mein mal bare balmu .... ): फिल्म ‘बिदेसिया’ का एक बड़ा अदभुत गीत है – ‘इश्क़ करे ऊ जिसके जेब में माल बारे बलमूं’. राममूर्ति चतुर्वेदी जी के लिखे इस गीत को संगीतकार  एस.एन.त्रिपाठी के लिये भरपूर मस्ती में गाया है मन्ना दा और महेन्द्र कपूर ने --

इश्क करे ऊ , जिसकी जेब में माल बारे बलमूं। 
एजी कदर गंवावै जो कड़का कंगाल बारे बलमूं।। 

अरे इश्क करे ऊ,  जो दिल कै दिलदार बारे बलमूं। 
एजी राज़े इश्क क्या समुझै, चुगुल गंवार बारे बलमूं।। 

ज़र के बिना इश्क टें टें है, ज़र होवे तो जिगर बढ़ै। 
ज़र (पैसे) के बिना न रीझे गोरिया, आशिक होय बेमौत मरै।। 

ज़र तो चलता फिरता राही, आज रहै कल जावै रे। 
दिलवाला बारहों महीना हंसके फाग मनावै रे।। 

दिलवालै के जगत करे इतबार बारे बलमूं। 
एजी राज़े इश्क क्या समझै....?

बुरे बंदगी करते डर से , अच्छे गले लगावैं रे। 
दिलवाले हर दिल अज़ीज़ बन,  दुख-सुख में मुस्कावैं रे।।

अरे भाई- बंद औ बाप-मतारी कोई भी न साथ करै। 
गांठ अगर पैसा न होवै, जोरू भी न बात करै।।

पैसे पर इस जग के सभी कमाल बारे बलमूं। 
एजी कदर गवांवै ...
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