व्यावहारिक जीवन में वेदान्त- 3
( 17 नवम्बर, सन् 1896 ई. को लन्दन में दिया हुआ भाषण )
PRACTICAL VEDANTA - PART III
(Delivered in London, 17th November 1896)
पूर्वोक्त ( छान्दोग्य ) उपनिषद् में हमने देखा है कि देवर्षि नारद एक समय सनत्कुमार के पास आकर अनेक प्रश्न पूछने लगे । सनत्कुमार उन्हें सोपानारोहण - न्याय के अनुसार धीरे धीरे ले जाते हुए अन्त में आकाशतत्त्व में जा पहुँचे । ' आकाश तेज से भी श्रेष्ठ है , कारण , आकाश में ही चन्द्र , सूर्य , विद्युत् , नक्षत्र आदि सभी कुछ वर्तमान हैं । आकाश में ही हम श्रवण करते हैं , आकाश में ही जीवन धारण करते हैं , आकाश में ही मरते हैं । ' अब प्रश्न यह है कि क्या आकाश से भी कुछ श्रेष्ठ है ? सनत्कुमार ने कहा , ' प्राण आकाश से भी श्रेष्ठ है । '
वेदान्त मत में यह प्राण ही जीवन की मूलभूत शक्ति है । आकाश के समान यह भी एक सर्वव्यापी तत्त्व है , और हमारे शरीर में अथवा अन्यत्र जो कुछ भी दिखायी पड़ता है वह सभी प्राण का कार्य है। प्राण आकाश से भी श्रेष्ठ है । प्राण के द्वारा ही सभी वस्तुएँ जीवित रहती हैं , प्राण ही माता , प्राण ही पिता , प्राण ही भगिनी , प्राण ही आचार्य और प्राण ही ज्ञाता है ।
में तुम लोगों के लिए इसी उपनिषद् में से एक अंश और पढूंगा । श्वेतकेतु अपने पिता आरुणि से सत्य के सम्बन्ध में प्रश्न करने लगे । पिता ने उन्हें अनेक विषयों की शिक्षा देकर अन्त में कहा , ' इन सब वस्तुओं का जो सूक्ष्म कारण है , उसी से ये सब बनी हैं , यही सब कुछ है , यही सत्य है, हे श्वेतकेतो , तुम भी वही हो । ' तदनन्तर वे यही समझाने के लिए अनेक उदाहरण देने लगे । " हे श्वेतकेतो , जिस प्रकार मधु-मक्षिका विभिन्न पुष्पों से मधु संचय कर एकत्र करती हैं एवं ये विभिन्न मधुकण जिस प्रकार यह नहीं जानते कि वे कहाँ से आये हैं , उसी प्रकार हम सब उसी ' एकमेवाद्वितीय सत् से आकर भी उसे भूल गये हैं ।
["As a bee, O Shvetaketu, gathers honey from different flowers, and as the different honeys do not know that they are from various trees, and from various flowers, so all of us, having come to that Existence, know not that we have done so.]
अतएव हे श्वेतकेतों , तुम वही हो । जिस प्रकार विभिन्न नदियाँ विभिन्न स्थानों में उत्पन्न होकर समुद्र में गिरती हैं , किन्तु जैसे ये नदियाँ अपने उद्गम स्थान को नहीं जानतीं , वैसे ही हम सब उसी सत्स्वरूप से आकर भी यह नहीं जानते कि हम वही हैं । हे श्वेतकेतो , तुम वही हो । ” इस प्रकार पिता पुत्र को उपदेश देने लगे । अब बात यह है कि सम्पूर्ण ज्ञानप्राप्ति के दो मूल सूत्र हैं । एक सूत्र तो यह है कि विशेष को साधारण में और साधारण को सार्वभौमिक तत्त्व में एकरूप करके ज्ञान - लाभ करना होगा । दूसरा सूत्र यह है कि यदि किसी वस्तु की व्याख्या करनी हो तो, जहाँ तक हो सके , उसी वस्तु के स्वरूप से उसकी व्याख्या खोजनी चाहिए ।
पहले सूत्र के आधार पर हम देखते हैं कि हमारा सारा ज्ञान वास्तव में उच्च से उच्चतर श्रेणीविभाग मात्र है । जब कुछ एक घटना होती है तो मानो हम अतृप्त रहते हैं । जब यह दिखा दिया जाता है कि वही एक घटना बार बार घटती है तब हम सन्तुष्ट होते हैं और उसे ' नियम ' कहते हैं । जब हम एक पत्थर या सेव को जमीन पर गिरते देखते हैं तब हम लोग अतृप्त रहते है । किन्तु जब देखते हैं कि सभी पत्थर या सेव गिरते हैं तो हम उसे माध्याकर्षण का नियम कहते हैं और सन्तुष्ट हो जाते हैं । बात यह है कि हम विशेष से साधारण तत्त्व की ओर बढ़ते रहते हैं । धर्मतत्त्व की आलोचना करने का यही एकमात्र वैज्ञानिक मार्ग है ।
हम देखते हैं कि धर्मतत्त्व की आलोचना करने और उसे वैज्ञानिक रीति से समझने में इसी मूल सूत्र का अनुसरण करना होगा । वास्तव में यहाँ पर भी हम यही बात देखते हैं । इन उपनिषदों में भी , जिनसे में तुम्हें कुछ अंश सुना रहा हूँ , यही भाव-- विशेष से साधारणीकरण- लिया गया है । हम इनमें देखते हैं कि किस प्रकार देवगण क्रमश : एक में विलीन होकर एक तत्त्व - रूप में परिणत हो रहे हैं , समग्र विश्व की धारणा में भी ये प्राचीन विचारकगण क्रमशः किस प्रकार अग्रसर हो रहे हैं , किस प्रकार से सूक्ष्म भूतों से सूक्ष्मतर तथा अधिक व्यापक भूतों की ओर बढ़ रहे हैं , कैसे वे विशेष विशेष भूतों से प्रारम्भ कर अन्त में एक सर्वव्यापी आकाशतत्त्व में आ गये हैं , और कैसे वहाँ से भी आगे बढ़कर वे प्राण नामक सर्वव्यापिनी शक्ति में आ रहे हैं , और इन सभी में हम यही एक तत्त्व पाते हैं कि कोई भी वस्तु अन्य सब वस्तुओं से अलग नहीं हैं । आकाश ही सूक्ष्मतर रूप में प्राण है और प्राण ही स्थूल बनकर आकाश होता है तथा आकाश स्थूल से स्थूलतर हो जाता है , इत्यादि इत्यादि ।
सगुण ईश्वर को उससे भी ऊँचे तत्त्व में समाहित करना भी इसी मूल सूत्र का और एक उदाहरण है । हमने पहले ही देखा है कि सगुण ईश्वर की धारणा भी इसी प्रकार के साधारणीकरण का फल है । इससे केवल इतना ही समझा गया कि सगुण ईश्वर सम्पूर्ण ज्ञान का समष्टि - स्वरूप है । किन्तु उसमें एक शंका उठती है कि यह तो पर्याप्त साधारणीकरण नहीं हुआ ।
हमने प्राकृतिक घटना की एक दिशा , अर्थात् ज्ञान की दिशा लेकर साधारणीकरण किया और सगुण ईश्वर तक आ पहुँचे , किन्तु शेष प्रकृति तो छूट ही गयी । अतएव पहले तो यह साधारणीकरण अपूर्ण ही हुआ । दूसरे , इसमें एक ओर भी अधूरापन है , उसे दूसरे सूत्र द्वारा समझना होगा । प्रत्येक वस्तु की उसके स्वरूप ही से व्याख्या करनी चाहिए । एक समय लोग सोचते थे कि जमीन पर पत्थर का गिरना भूत द्वारा होता है , किन्तु वास्तव में यह शक्ति माध्याकर्षण की है ।
ओर यद्यपि हम यह जानते हैं कि केवल यही इसकी सम्पूर्ण व्याख्या नहीं है तथापि यह निश्चित है कि यह पहली व्याख्या से श्रेष्ठ है ; कारण पहली व्याख्या है वस्तु के बाहरी कारण को लेकर , और दूसरी उसके स्वभाव से सिद्ध होती है । इस प्रकार हम लोगों के सारे ज्ञान के सम्बन्ध में जो व्याख्या वस्तु के स्वभाव से सिद्ध है , वह वैज्ञानिक है और जो व्याख्या वस्तु के बाह्य रूप से सिद्ध है , वह अवैज्ञानिक है । अब " सगुण ईश्वर ही जगत् का सृष्टिकर्ता है " इस तत्त्व की भी इस सूत्र द्वारा परीक्षा की जाय । यदि यह ईश्वर प्रकृति के बाहर है और प्रकृति के साथ उसका कोई सम्बन्ध नहीं है तथा यदि यह प्रकृति शून्य में से , उस ईश्वर की आज्ञा से बनती है तब तो यह मत अपने आप अवैज्ञानिक हुआ । और सगुण ईश्वरवाद में सदैव से यही कुछ गड़बड़ी है - यही इसकी कमजोरी है । इस मत में ईश्वर मनुष्य के गुणों से भरा है , केवल ये गुण उसमें मनुष्यों की अपेक्षा अधिक बढ़े - चढ़े हैं । उन्होंने शून्य में से जगत् की सृष्टि की है और वे इस जगत् से बिलकुल अलग भी हैं ऐसा कहने से ईश्वरवाद में दो दोष दिखायी पड़ते हैं ।
हम पहले ही कह चुके हैं कि पहले तो यह सामान्य का पूर्ण समाधान नहीं है । दूसरे , यह वस्तु की स्वभावसिद्ध व्याख्या भी नहीं है । यह कार्य को कारण से भिन्न बताता है । किन्तु मनुष्य का ज्ञान जैसे जैसे बढ़ता जा रहा है वैसे वैसे वह इस मत की ओर अग्रसर हो रहा है कि कार्य कारण का रूपान्तर मात्र है । आधुनिक विज्ञान के सम्पूर्ण आविष्कार इसी ओर इशारा करते हैं और कमविकास वाद का तात्पर्य भी यही है कि कार्य कारण का रूपान्तर मात्र है । आधनिक वैज्ञानिक तो शून्य से सृष्टिरचना के सिद्धान्त की हँसी उड़ाते हैं ।
धर्म क्या पूर्वोक्त दोनों परीक्षाओं में सफल हो सकता है ? यदि ऐसा कोई धर्ममत हो जो इन दो परीक्षाओं में उत्तीर्ण हो जाय तो उसी को आधुनिक विचारशील ग्राह्य मानते हैं । यदि पुरोहित , चर्च अथवा किसी शास्त्र का अनुसरण करके किसी मत में विश्वास करने के लिए कहा जाय तो आजकल के लोग उसमें विश्वास नहीं कर सकते , इसका फल होगा - घोर अविश्वास । जो बाहर से देखने पर पूर्ण विश्वासी मालूम पड़ते हैं वे अन्दर से देखने पर घोर अविश्वासी निकलते हैं । अन्त में लोग धर्म को एकदम छोड़ देते हैं , उससे दूर भागते हैं , उसे पुरोहितों की धोखेबाजी समझते हैं ।
धर्म भी अब एक जातीय रूप में परिणत हो गया है । ' वह हमारे प्राचीन समाज का एक महान् उत्तराधिकार है , अतएव उसे रहने दो ' - आज हम लोगों का यही भाव है । आजकल के लोगों के पुरखे उसमें जो अभिरुचि रखते थे वह आजकल के लोगों में नाममात्र को नहीं ; लोगों को अब यह बुद्धि - संगत नहीं जान पड़ता । इस प्रकार की सगुण ईश्वर और सृष्टि की धारणा से , जिसे सब लोग एकेश्वरवाद कहते हैं , लोगों को आत्मसन्तोष नहीं होता और भारत में बौद्ध धर्म के प्रभाव से यह अधिक बढ़ा भी नहीं ; और इसी विषय में बौद्धगण प्राचीन काल में जीत भी गये थे ।
बौद्धों ने यह प्रमाणित कर दिखाया था कि यदि प्रकृति को अनन्त शक्ति-सम्पन्न मान लिया जाय , और यदि प्रकृति अपने अभाव को अपने आप ही पूरा कर सकती है तो प्रकृति के अतीत और भी कुछ है , यह मानना अनावश्यक है । आत्मा के अस्तित्व को मानने का भी कोई प्रयोजन नहीं है । इस विषय पर प्राचीन काल से ही वादविवाद चलता आ रहा है । इस समय भी वही प्राचीन कुसंस्कार – द्रव्य - गुण - विचार - मौजूद है ।
मध्यकालीन यूरोप में , यहाँ तक कि , मुझे दुःख के साथ कहना पड़ता है , उसके बहुत दिनों बाद तक यही एक विशेष विचारणीय विषय था कि गुण द्रव्याश्रित हैं अथवा द्रव्य गुणाश्रित ? लम्बाई , चौड़ाई और उँचाई क्या जड़ पदार्थ नामक द्रव्यविशेष के आश्रित हैं ? और इन गुणों के न रहने पर भी द्रव्य का अस्तित्व रहता है या नहीं ? बौद्ध लोग कहते हैं कि इस प्रकार के किसी द्रव्य का अस्तित्व स्वीकार करने का कोई प्रयोजन नहीं है , केवल इन गुणों का ही अस्तित्व है । इन गुणों के अतिरिक्त तुम और कुछ नहीं देख पाते और अधिकांश आधुनिक अज्ञेयवादियों का भी यही मत है , क्योंकि इसी द्रव्य - गुण - विचार को कुछ और उँचा ले जाइये तो प्रतीत होगा कि यह व्यावहारिक और पारमार्थिक सत्ता का विचार बन जाता है ।
हमारे सम्मुख यह दृश्य जगत् - नित्य परिणामशील जगत् है और इसी के साथ ऐसी कोई वस्तु है जिसमें कभी परिणाम नहीं होता ; और कोई कोई कहते हैं , इन दो पदार्थों का ही अस्तित्व है । कोई कोई और भी अधिक प्रमाण के साथ कहते हैं कि हमें इन दोनों पदार्थों के मानने की कोई आवश्यकता नहीं , क्योंकि हम जो कुछ देखते हैं , अनुभव करते हैं अथवा सोचते हैं , वे केवल दृश्य पदार्थ हैं । दृश्य के अतिरिक्त अन्य किसी भी पदार्थ के मानने का तुम्हें अधिकार नहीं । इस बात का पूर्ण - संगत उत्तर प्राचीन काल में कोई भी नहीं दे सका ।
केवल वेदान्त का अद्वैत वाद ही हमें इसका उत्तर देता है — एक ही वस्तु का अस्तित्व है , वही कभी द्रष्टा के रूप में और कभी दृश्य के रूप में प्रकाशित होती है । यह कहना ठीक नहीं कि परिणामशील वस्तु की कोई सत्ता है और उसी के अन्दर अपरिणामी वस्तु भी है , किन्तु वही एक वस्तु जो परिणामशील प्रतीत होती है , वास्तव में अपरिणामी है ।
समझ में आने योग्य कुछ दार्शनिक धारणा करने के उद्देश्य से हम लोग देह , मन , आत्मा आदि अनेक भेद कर लेते हैं , किन्तु वास्तव में सत्ता एक ही है । वह एक ही वस्तु अनेक रूपों में प्रतीत होती है । अद्वैतवादियों को चिरपरिचित उपमा का यदि हम उपयोग करें तो यही कहना पड़ेगा कि रज्जु ही सर्पाकार में लोग रस्सी को ही साँप समझ लेते हैं , किन्तु ज्ञानोदय होने पर सर्पभ्रम नष्ट हो जाता है और केवल रस्सी ही दीख पड़ती है । इस उदाहरण द्वारा हम यह भलीभाँति समझ सकते हैं कि मन में जब सर्पज्ञान रहता है तब रज्जुज्ञान नहीं रहता और जब रज्जुज्ञान रहता है तब सर्पज्ञान नहीं टिकता ।
जब हम व्यावहारिक सत्ता देखते हैं , तब पारमार्थिक सत्ता नहीं रहती और जब हम उस अपरिणामी पारमार्थिक सत्ता को देखते हैं तो निश्चय ही फिर व्यावहारिक सत्ता प्रतीत नहीं होती । अब हम प्रत्यक्षवादी और विज्ञानवादी ( idealist ) – इन दोनों के मत खूब स्पष्ट रूप से समझ रहे हैं । प्रत्यक्षवादी केवल व्यावहारिक सत्ता देखता है और विज्ञानवादी पारमार्थिक सत्ता देखने की चेष्टा करता है । प्रकृत विज्ञानवादियों लिए , जो अपरिणामी सत्ता का अपरोक्ष ज्ञान प्राप्त कर चुके हैं , फिर परिणामशील जगत् का अस्तित्व नहीं रह जाता । उन्हीं को यह कहने का अधिकार है कि समस्त जगत् मिथ्या है और परिणाम नामक कोई चीज नहीं है । किन्तु प्रत्यक्ष वादी केवल परिणामशील की ओर ही दृष्टि रखते हैं । उनके लिए अपरिणामी सत्ता नाम की कोई वस्तु है ही नहीं , अतएव उन्हें जगत् को सत्य कहने का अधिकार है ।
इस विचार का फल क्या हुआ ? फल यही हुआ कि ईश्वर के विषय में सगुण धारणा करना ही पर्याप्त नहीं । हम लोगों को और भी उच्चतर धारणा अर्थात् निर्गुण की धारणा करनी चाहिए । उनके द्वारा सगुण धारणा नष्ट हो जायगी , सो बात नहीं । हमने यह नहीं प्रमाणित किया कि सगुण ईश्वर नहीं है , किन्तु हमने यही दिखाया कि हमने जो प्रमाणित किया है केवल वही न्याय संगत सिद्धान्त है । मनुष्य को भी हम इसी प्रकार सगुण - निर्गुण उभयात्मक कह सकते हैं । हम सगुण भी हैं और निर्गुण भी ।
अतएव हम लोगों की प्राचीन ईश्वर - धारणा अर्थात् ईश्वर की केवल सगुण धारणा कि वह केवल एक व्यक्ति ही है , अवश्य चली जानी चाहिए ; कारण मनुष्य को जिस प्रकार सगुण - निर्गुण ही कहा जा सकता है , उसी प्रकार कुछ और अधिक उच्च स्तर पर ईश्वर को भी सगुण - निर्गुण दोनों कहा जा सकता है ।अतएव सगुण की व्याख्या करते समय अवश्य ही अन्त में हम लोगों को निर्गुण की धारणा करनी पड़ेगी , क्योंकि निर्गुण धारणा सगुण भाव से उच्चतर समाधान है । अनन्त केवल निर्गुण ही हो सकता है , सगुण केवल सान्त मात्र है ।
इसलिए इस व्याख्या द्वारा हमने सगुणवाद की रक्षा की है, न कि उसे उड़ा दिया । बहुधा हमें यह शंका होती है कि क्या निर्गुण ईश्वर मानने पर सगुण भाव नष्ट हो जायगा , निर्गुण जीवात्मा मानने पर सगुण जीवात्मा का भाव नष्ट हो जायगा ? किन्तु वास्तव में उससे ' मैं- पन ' का विनाश न होकर उसकी प्रकृत रक्षा होती है । हम उस अनन्त सत्ता के समाधान बिना , व्यक्ति के अस्तित्व को किसी प्रकार भी प्रमाणित नहीं कर सकते । यदि हम व्यक्ति को सम्पूर्ण जगत् से पृथक् मानकर सोचने की चेष्टा करें तो कभी भी ऐसा न कर पायेंगे , क्षणभर के लिए भी हम ऐसा नही सोच सकते ।
"O Shvetaketu, thou art That."
यदि समस्त वस्तुओं की व्याख्या उनके स्वरूप से की जाय तो यही निष्कर्ष निकलता है कि वही निर्गुण पुरुष- साधारणीकरण की रीति द्वारा हम जिस सर्वोच्च तत्त्व पर पहुँचे हैं- हम लोगों के अन्दर ही है और वास्तव में हम वही हैं । ' हे श्वेतकेतो , तत्त्वमसि ' -तुम वही हो , तुम्ही वह निर्गुण पुरुष हो , तुम्ही वह ब्रह्म हो जिसे तुम समस्त जगत् में ढूंढ़ते फिरते हो , वह सदैव ही तुम स्वयं हो । किन्तु ' तुम ' यहाँ ' व्यक्ति ' (नाम-रूप) के अर्थ में नहीं , वरन् निर्गुण (आत्मा) के अर्थ में प्रयुक्त हुआ हैं। हम अब जिस मनुष्य को जान रहे हैं , जिसे हम व्यक्त देख रहे हैं वह मानो सगुण हुआ है , किन्तु उसकी प्रकृत सत्ता निर्गुण है ।
इस सगुण को हमें निर्गुण के द्वारा समझना होगा , विशेष को साधारण के द्वारा जानना होगा । वह निर्गुण सत्ता ही प्रकृत सत्य है - वही मनुष्य का आत्मस्वरूप है— इस सगुण व्यक्त पुरुष को सत्य नहीं कहा जा सकता । इस सम्बन्ध में अनेक प्रश्न उठेंगे । मैं क्रमशः उनका उत्तर देने की चेष्टा करूँगा । बहुत से कूट प्रश्न भी किये जायेंगे , किन्तु उनकी मीमांसा करने के पहले आइये , हम , अद्वैतवाद क्या है , यह समझ लेने का प्रयत्न करें ।
अद्वैतवाद कहता है कि व्यक्त जीव - रूप में हम मानो अलग अलग होकर रहते हैं , किन्तु वास्तव में हम सब एक ही सत्य - स्वरूप हैं , और हम अपने को उससे जितना कम पृथक् समझेंगे उतना ही हमारा कल्याण होगा । इसके विपरीत हम लोग इस समष्टि से अपने को जितना अलग समझेंगे उतना ही कष्ट होगा ।
इसी तत्त्व से हम अद्वैतवाद - सम्मत नीतितत्त्व पाते हैं , और मेरा यह दावा है कि और किसी मत से हमें कोई भी नीतितत्त्व नहीं मिलता । हम जानते हैं कि नीति की सब से पुरानी धारणा यह थी कि किसी पुरुषविशेष अथवा कुछ विशिष्ट पुरुषों का जो ख्याल हो वही कर्तव्य है । अब इसे मानने को कोई भी तैयार नहीं ; क्योंकि वह आंशिक व्याख्या मात्र हैं । हिन्दू कहते हैं , अमुक कार्य करना ठीक नहीं , क्योंकि वेदों में उसका निषेध है , किन्तु ईसाई वेदों (या कुरान) का प्रमाण नहीं मानते । ईसाई लोग कहते हैं , यह मत करो , वह मत करो , क्योंकि बाइबिल में यह सब करना मना है । जो बाइबिल (कुरान) नहीं मानते वे इसे भी कभी नहीं मानेंगे । हम लोगों को एक ऐसा तत्त्व खोजना पड़ेगा जो इन अनेक प्रकार के भावों का समन्वय कर सके ।
जैसे लाखों व्यक्ति सगुण सृष्टिकर्ता में विश्वास करने को तैयार हैं वैसे ही इस दुनियाँ में हजारों विद्वान् ऐसे भी हैं जिन्हें ये सब धारणाएँ पर्याप्त नहीं जान पड़तीं । वे इससे कुछ ऊँची प्रार्थना करते हैं ; और जब विभिन्न धर्मसम्प्रदाय इन सब मनीषियों को अपने समुदाय में लाने योग्य उदार भाव नहीं रखते , तभी यह फल होता है कि समाज के उज्ज्वलतम रत्न धर्मसम्प्रदाय का परित्याग कर देते हैं , और आज प्रधानतः यूरोप में यह जितना स्पष्ट देखा जाता है उतना और कहीं भी नहीं पाया जाता । इन लोगों को धर्म सम्प्रदाय में रखने के लिए इन धर्मसम्प्रदायों के लिए विशेष उदारभावापन्न होना अत्यन्त आवश्यक है । धर्म जो कुछ कहता है , तर्क की कसौटी पर उन सब की परीक्षा करना आवश्यक है ।
सभी धर्म यही एक दावा क्यों करते हैं कि वे तर्क द्वारा परीक्षित होना नहीं चाहते , यह कोई नहीं बतला सकता । पर वास्तव में इसका कारण यह है कि उनमें शुरू से ही कुछ त्रुटियाँ हैं । युक्ति के मानदण्ड के बिना धर्म के विषय में भी किसी प्रकार का विचार या सिद्धान्त सम्भव नहीं है । शायद किसी धर्म ने कुछ बीभत्स कार्य करने की आज्ञा दी । जैसे , इसलाम मुसलमानों को विधर्मियों की हत्या करने की आज्ञा देता है । कुरान में स्पष्ट लिखा है , ' यदि विधर्मी (infidels काफ़िर,नास्तिक) इसलाम ग्रहण न करें तो उन्हें मार डालो । उन्हें तलवार और आग के घाट उतार दो । ' [It is clearly stated in the Koran, "Kill the infidels if they do not become Mohammedans." They must be put to fire and sword.]
मान लीजिये मुसलमान धर्म के इस आदेश के ऊपर एक ईसाई (या हिन्दू) ने कुछ दोषारोपण किया । इस पर मुसलमान स्वभावतः पूछेंगे , " तुम कैसे जानते हो कि यह (काफिरों की हत्या कर देना) अच्छा है या बुरा ? तुम्हारी भले बुरे की धारणा तो तुम्हारे शास्त्र द्वारा है न ! हमारा शास्त्र कहता है कि यह सत्कार्य है। यदि आप कहें कि आपका शास्त्र प्राचीन है तो बौद्ध लोग कहेंगे कि उनका शास्त्र तुम्हारे से भी पुराना है और हिन्दू कहेंगे कि उनका शास्त्र सभी की अपेक्षा प्राचीनतम है । अतएव शास्त्र की दोहाई देने से काम नहीं चल सकता। तुम्हारे आदर्शों का आधार कहाँ है जिससे तुम अन्य सबकी तुलना कर सको ? ”
ईसाई कहेंगे , ईसा का ' शैलोपदेश ' देखिये । मुसलमान कहेंगे , ' कुरान की नीति ' देखिये । मुसलमान कहेंगे , इन दोनों में कौन श्रेष्ठ है , इसका निर्णय कौन करेगा , कौन मध्यस्थ बनेगा ? बाइबिल और कुरान में जब विवाद है तो यह निश्चय है कि उन दोनों में से तो कोई मध्यस्थ नहीं बन सकता । कोई स्वतन्त्र व्यक्ति उनका मध्यस्थ हो तो अच्छा हो । यह कार्य किसी ग्रन्थ द्वारा नहीं हो सकता , हाँ , किसी सार्वभौमिक पदार्थ का मध्यस्थ होना आवश्यक है । युक्ति -तर्क से अधिक सार्वभौमिक पदार्थ और कोई है क्या ? कहा जाता है , युक्ति सदैव ही सत्यानुसन्धान नहीं कर सकती । अनेक समय उसके द्वारा भूल भी हो जाती है , अतः कुछ लोगों का सिद्धान्त है कि किसी न किसी पुरोहित - सम्प्रदाय के शासन में विश्वास करना ही पड़ेगा । मुझसे एक बार एक रोमन कैथलिक पादरी ने भी यही कहा था । किन्तु मेरी समझ में यह युक्ति नहीं आयी ।
मैं कहूँगा कि यदि युक्ति दुर्बल है तो पुरोहित - सम्प्रदाय और भी दुर्बल होंगे । मैं उन लोगों की बात सुनने की अपेक्षा युक्ति की बात सुनना अधिक पसन्द करूंगा , कारण , युक्ति में चाहे जितना दोष क्यों न हो , उसमें कुछ न कुछ सत्यलाभ की सम्भावना है , किन्तु दूसरी ओर तो किसी सत्य को पाने की सम्भावना ही नहीं है । अतएव हम लोगों को युक्ति का अनुसरण करना चाहिए और जो युक्ति का अनुसरण कर किसी बात का विश्वास नहीं कर पाते उनके साथ भी हम लोगों को सहानुभूति रखनी पड़ेगी । कारण , किसी के मत में मत मिलाकर बीस लाख देवताओं में विश्वास करने की अपेक्षा युक्ति का अनुसरण करके नास्तिक होना अच्छा है ; हम लोग चाहते हैं उन्नति , विकास और प्रत्यक्ष अनुभव । [What we want is progress, development, realisation. No theories ever made men higher. No amount of books can help us to become purer. The only power is in realisation, and that lies in ourselves and comes from thinking. Let men think. A clod of earth never thinks; but it remains only a lump of earth. The glory of man is that he is a thinking being. ]
किसी मत का अवलम्बन करके ही मनुष्य श्रेष्ठ नहीं हो जाता । करोड़ों शास्त्र भी हम लोगों को पवित्र करने में सहायता नहीं कर सकते । ऐसा होने की एकमात्र शक्ति हम लोगों के अन्दर ही है । प्रत्यक्ष अनुभव ही हम लोगों को पवित्र बनाने में सहायक होता है और यह प्रत्यक्षानुभव केवल मनन द्वारा ही हो सकता है । मनुष्य की महिमा यही है कि वह एक मननशील प्राणी है ! मनुष्य (महावाक्यों का श्रवण-मनन-निदिध्यासन) चिन्तन करे । मिट्टी का ढेला कभी चिन्तन नहीं कर सकता । मान लीजिये , उसने सभी पर विश्वास किया , पर वह सदा के लिए मिट्टी का ढेला मात्र ही रह जाता है । एक गाय को जैसी इच्छा हो विश्वास कराया जा सकता है । कुत्ता सर्वाधिक चिन्ताहीन प्राणी है । किन्तु जो कुत्ता है , जो गाय है , जो मिट्टी का ढेला है , वह वैसा ही रह जाता है , कुछ भी उन्नति नहीं कर सकता । किन्तु मनुष्य का महत्त्व उसकी मननशीलता के कारण है , पशुओं से हम इसी बात में भिन्न हैं । यह मनन करना मनुष्य का स्वभावसिद्ध- धर्म है । अतएव हम लोगों को अपने मन को चिन्तनशील अवश्य बनाना पड़ेगा । इसीलिए मैं युक्ति में विश्वास करता हूँ और युक्ति का ही अनुसरण करता हूँ । केवल परोपदेश में विश्वास करने से क्या अनिष्ट होता है , यह मैं विशेष रूप से देख चुका हूँ, क्योंकि मैं जिस देश में पैदा हुआ हूँ वहाँ परोपदेश में विश्वास करने की पराकाष्ठा है ।
हिन्दू लोग विश्वास करते हैं कि वेदों से सृष्टि हुई है । उदाहरणार्थ एक गाय है यह कैसे जाना ? उत्तर है , ' गो ' शब्द वेद में है , इसलिए । इसी प्रकार मनुष्य है यह कैसे जाना ? उत्तर आता है कि वेदों में ' मनुष्य ' शब्द आया है । हिन्दु लोगों की यह जो विश्वास की पराकाष्ठा है और मैं इसकी जिस प्रकार आलोचना कर रहा हूँ उस प्रकार इसकी आलोचना नहीं होती । कुछ तीक्ष्ण वुद्धि व्यक्तियों ने इसको लेकर कुछ अपूर्व दार्शनिक तत्त्व ढूंढ़ निकाले हैं और हजारों बुद्धिमान व्यक्तियों ने हजारों वर्ष तक इसी मत के आन्दोलन में समय बिताया है ।
दूसरों की बातों में युक्तिशून्य विश्वास की जितनी बड़ी शक्ति है उसमें विपत्ति भी उतनी ही है । वह मनुष्य जाति की उन्नति रोक देता है । It stunts the growth of humanity, and we must not forget that we want growth.] और हम लोगों को यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि उन्नति करना ही हमारा लक्ष्य है । सम्पूर्ण आपेक्षिक सत्यानुसन्धान में भी सत्य की अपेक्षा हमारे मन की क्रियाशीलता (the exercise. =प्रत्याहार और धारणा का विधिवत अभ्यास) ही अधिक आवश्यक है । मनन ही हमारा जीवन है । [Even in all relative truth, more than the truth itself, we want the exercise. That is our life.]
अद्वैतमत में यही गुण है कि अनेक धर्ममतों के बीच यही मत अधिकांश में निस्सन्देह रूप से प्रमाणित किया जा सकता है । (The monistic theory has this merit that it is the most rational of all the religious theories that we can conceive of.) और अन्य सब भाव - ईश्वर की आंशिक और सगुण धारणाएँ युक्तियुक्त नहीं हैं । इसका एक और गुण यह है कि यह युक्तिसंगत ईश्वरवाद इस बात को प्रमाणित करता है कि ये आंशिक धारणाएँ अब भी बहुतों के लिए आवश्यक हैं । इन मतों की आवश्यकता के सम्बन्ध में भी हम यही एकमात्र युक्ति देखेंगे ।
अनेक लोग कहते रहते हैं कि यह सगुणवाद अयौक्तिक है , किन्तु है बड़ा शान्तिदायक । उन लोगों को धर्म तो सान्त्वना देनेवाला चाहिए , और हम लोग भी समझ सकते हैं कि उनके लिए इसकी जरूरत है । बहुत कम लोग सत्य का निर्मल प्रकाश सहन कर सकते हैं , उसके अनुसार जीवन बिताना तो बहुत दूर की बात है । अतएव इस सान्त्वना देनेवाले धर्म की भी आवश्यकता है; समय आने पर यही बहुतों को उच्चतर धर्मलाभ में सहायता करता है ।
जिस क्षुद्र मन की परिधि सीमित है और छोटी छोटी नगण्य वस्तुएँ (कामिनी -कांचन ही) जिन मन की मनन सामग्री हैं , वह मन कभी उच्च विचार क्षेत्र में विचरण करने का साहस नहीं कर सकता । {Small minds whose circumference is very limited and which require little things to build them up, never venture to soar high in thought.} उन लोगों को छोटे छोटे देवताओं और प्रतिमा तथा आदर्शों की धारणा ही उत्तम और उपकारी लगती है , किन्तु तुम्हें निर्गुणवाद भी समझना होगा , और इस निर्गुणवाद के आलोक में ही इनकी उपकारिता जानी जा सकती है ।
उदाहरणस्वरूप जान स्टुअर्ट मिल को ही लोजिये । वे ईश्वर का निर्गुणवाद समझते हैं और उसमें विश्वास भी करते हैं - वे कहते हैं , `सगुण ईश्वर को प्रमाणित नहीं किया जा सकता । 'मैं इस विषय में उनके साथ एकमत हूँ , फिर भी , मैं कहता हूँ कि मनुष्य - बुद्धि से निर्गुण की जितनी दूर तक धारणा की जा सके , वही सगुण ईश्वर है । और वास्तव में निर्गुण की इन विभिन्न धारणाओं के सिवाय जगत् में है ही क्या ? वह मानो हम लोगों के सामने एक खुली पुस्तक है , और प्रत्येक व्यक्ति एकरूप - सी अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार उसका पाठ कर रहा है और प्रत्येक को स्वयं ही उसका पाठ करना पड़ता है ।
सभी मनुष्यों की बुद्धि बहुत कुछ एक - सी ही है ; इसीलिए मनुष्य की बुद्धि में कुछ वस्तुएँ एकरूप - सी जान पड़ती हैं । हम तुम दोनों ही एक कुर्सी देख रहे हैं । इससे यह प्रमाणित हुआ कि हम दोनों का मन बहुत कुछ एक - सा गढ़ा है । मान लो , कोई दूसरे प्रकार के इन्द्रियोंवाला प्राणी आया ; वह हम लोगों अनुभूत कुर्सी देखेगा , किन्तु जितने लोग एक - सी प्रकृति के हैं वे सब एक - सा ही रूप देखेंगे ।
अतएव सम्पूर्ण जगत् वही निरपेक्ष अपरिणामी पारमार्थिक सत्ता (Absolute, the unchangeable) है , और व्यावहारिक सत्ता (phenomenon ) उसे केवल विभिन्न रूप में देखना भर है । इसका कारण , पहले तो यह है कि व्यावहारिक सत्ता सदा ससीम होती है । हम जानते हैं कि हम जो कोई भी व्यावहारिक सत्ता देखते हैं , अनुभव करते हैं अथवा उसका चिन्तन करते हैं , वह अवश्य ही हमारे ज्ञान के द्वारा सीमाबद्ध है , अतएव वह ससीम होती है , और सगुण ईश्वर के सम्बन्ध में हमारी जैसी धारणा है उससे वह ईश्वर ( Personal God ) भी व्यावहारिक मात्र है । कार्य-कारण भाव (idea of causation) केवल व्यावहारिक जगत् में ही सम्भव है; और सगुण ईश्वर (माँ जगदम्बा काली) को जब मैं जगत् का कारण मानता हूँ तो अवश्य ही उसे ससीम जैसा मानना ही पड़ेगा । किन्तु फिर भी वह वही निर्गुण ब्रह्म है ।हम लोगों ने पहले ही देखा है कि यह जगत् भी हमारी बुद्धि द्वारा देखा गया वही निर्गुण ब्रह्म मात्र है । यथार्थ में जगत् वही निर्गुण पुरुष मात्र है और हम लोगों की बुद्धि द्वारा उसको नाम- रूप दिये गये हैं । इस टेबिल में जितना सत्य है वह वही पुरुष है और इस टेबिल की आकृति तथा जो कुछ अन्य बातें हैं वे सब समान मानव बुद्धि द्वारा ऊपर से जोड़ी गयी हैं ।
उदाहरणस्वरूप गति (motion) का विषय लीजिये । व्यावहारिक सत्ता की वह नित्यसहचरी है । किन्तु वह सार्वभौमिक पारमार्थिक सत्ता के विषय में प्रयुक्त नहीं हो सकती । प्रत्येक क्षुद्र अणु , जगत् के अन्तर्गत प्रत्येक परमाणु , सदैव ही परिवर्तन तथा गति शील है , किन्तु समष्टिरूप से जगत् अपरिणामी है , क्योंकि गति या परिणाम आपेक्षिक पदार्थमात्र हैं । केवल गतिहीन पदार्थ के साथ तुलना करने पर ही हम गतिशील पदार्थ की बात सोच सकते हैं । गति समझने के लिए दोनों ही पदार्थ आवश्यक हैं । सम्पूर्ण समष्टिजगत् एक अखण्ड सत्तास्वरूप है , उसकी गति असम्भव है । किसके साथ तुलना करके उसकी गति प्रतीत होगी ? उसमें परिवर्तन होता है यह भी नहीं कहा जा सकता , क्योंकि किसकी तुलना में उसका परिणाम हो सकेगा ? अतएव वह समष्टि ही निरपेक्ष सत्ता है , किन्तु उसके भीतर का प्रत्येक अणु निरन्तर गतिशील है , वह परिणामी और साथ ही साथ अपरिणामी है । सगुण है और निर्गुण भी है । जगत् , गति एवं ईश्वर के सम्वन्ध में हम लोगों की यही धारणा है, और ' तत्त्वमसि ' का भी यही अर्थ है । हमें अपना स्वरूप जानना चाहिए ।
सगुण मनुष्य अपना उत्पत्ति - स्थल भूल जाता है जैसे कि समुद्र का जल समुद्र से बाहर आकर सम्पूर्ण रूप से स्वतन्त्र हो जाता है । इस प्रकार हम लोग सगुण होकर , व्यष्टि होकर अपना प्रकृत स्वरूप भूल गये हैं । अद्वैतवाद हमें विषय - भावापन्न जगत् को त्याग करने की शिक्षा नहीं देता , वह क्या है यही समझ लेने को कहता है। हम लोग वही अनन्त पुरुष और वही आत्मा हैं । हम लोग जलस्वरूप हैं और यह जल समुद्र से उत्पन्न है , उसकी सत्ता समुद्र के ऊपर निर्भर रहती है , और वास्तव में वह समुद्र ही है — समुद्र का अंश नहीं , सम्पूर्ण समुद्रस्वरूप है , क्योंकि जो अनन्त शक्ति राशि ब्रह्माण्ड में वर्तमान है उसका समुदय ही हमारा तुम्हारा स्वरूप है । हम तुम तथा प्रत्येक अन्य व्यक्ति ही मानो कुछ माध्यम के समान हैं जिनमें से होकर वह अनन्तसत्ता अपने को अभिव्यक्त कर रही है , और यह परिवर्तनसमष्टि जिसे हम ' क्रमविकास ' कहते हैं , वास्तव में अनेक रूपों में आत्मा का शक्तिविकास मात्र है , किन्तु अनन्त के इस पार , सान्त जगत में आत्मा की सम्पूर्ण शक्ति प्रकाशित नहीं हो सकती ।
हम लोग यहाँ कितनी भी शक्ति , कितना ही ज्ञान अथवा कितना ही आनन्द प्राप्त क्यों न करें , इस जगत् में वे सब असम्पूर्ण ही रहेंगे । अनन्त सत्ता , अनन्त शक्ति , अनन्त आनन्द हम लोगों में पहले से ही विद्यमान हैं । यह नहीं कि हम लोगों को उन्हें उपार्जित करना पड़ता है , वे सब बातें हम लोगों में सदैव से विद्यमान हैं , हमें तो उन्हें केवल प्रकाशित मात्र करना है । अद्वैतवाद से यही एक महासत्य प्राप्त होता है और इसको समझना बहुत कठिन है । मैं बचपन से देखता आ रहा है कि सभी दुर्बलता की शिक्षा देते आ रहे हैं , जन्म से ही मैं सुनता आ रहा हूँ कि मैं दुर्बल हूँ । अब मेरे लिए अपने भीतर निहित शक्ति का ज्ञान कठिन हो गया है , किन्तु युक्ति - विचार द्वारा मैं देख सकता हूँ कि मुझे अपनी अन्तनिहित शक्ति का ज्ञान लाभ कर लेना पड़ेगा , बस फिर सब कुछ हो जायगा ।
इस संसार में जो हम सब बातें जानते हैं वह कहाँ से जान पाते हैं ? वह ज्ञान हमारे भीतर ही है । क्या बाहर कोई ज्ञान है ? मुझे तनिक भी तो दिखाओ । ज्ञान कभी जड़ में नहीं था , वह सदा मनुष्य के भीतर ही था। किसी ने कभी भी ज्ञान की सृष्टि नहीं की । मनुष्य उसका आविष्कार करता है , उसको भीतर से बाहर लाता है । वह वहीं वर्तमान है । यह जो एक कोस तक फैला हुआ बड़ा वटवृक्ष है वह सरसों के बीज के अष्टमांश के समान उस छोटसे बीज में ही था — वह महाशक्तिराशि उसमें सन्निहित थी ।
हम जानते हैं कि एक जीवाणु कोष (protoplasmic cell) के भीतर ही अत्यद्भुत प्रखर बुद्धि (gigantic intellect) अप्रकट रूप में विद्यमान है ; फिर अनन्त शक्ति उसमें क्यों न रह सकेगी ? हम जानते हैं यह सत्य है । पहेली (paradox) - जैसा लगने पर भी वह सत्य है । हम सभी एक जीवाणु कोष से उत्पन्न हुए हैं और हम लोगों में जो कुछ भी शक्ति (Energy) है वह उसी जीवणुकोष में कुण्डली रूप में बैठी थी । ( Each one of us has come out of one protoplasmic cell, and all the powers we possess were coiled up there.)
तुम लोग यह नहीं कह सकते कि, जो ऊर्जा (Energy या शक्ति) हमारे भीतर है वह खाद्य में से आयी है (या REVITEL -कैप्सूल खाने से आयी है ?) ; ढेर की ढेर खाद्य सामग्री लेकर एक पर्वत बना डालो , किन्तु देखोगे उसमें से कोई शक्ति नहीं निकलती । हम लोगों के भीतर शक्ति पहले से ही अव्यक्त भाव में निहित थी , और वह थी अवश्य। अतएव यही सिद्धान्त निश्चित हुआ कि मनुष्य की आत्मा के भीतर अनन्त शक्ति भरी पड़ी है । [नशा शराब में होता तो नाचती बोतल ! ]
मनुष्य उसके सम्बन्ध में जाने भले ही नहीं , परन्तु फिर भी वह है । उसे केवल जानने की ही अपेक्षा है । धीरे धीरे मानो वह अनन्त शक्तिमान दैत्य जागरित होकर अपनी शक्ति को जान रहा है और जैसे जैसे वह जानता जाता है , वैसे वैसे उसके एक के बाद एक बन्धन टूटते जाते हैं , शृंखलाएँ छिन्नभिन्न होती जाती हैं और ऐसा एक दिन अवश्य ही आयगा जब उसे इस अनन्त ज्ञान का पुनर्लाभ होगा और वह ज्ञानवान एवं शक्तिमान होकर उठ खड़ा होगा । आओ , हम सब लोग इसी अवस्था के लाने में सहायता करें ।
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साभार /https://www.khabardailyupdate.com/2022/02/swami-vivekananda-vedanta-third-lecture-in-practical-life-in-hindi.html
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ज्येष्ठ माह के कृष्ण पक्ष की एकादशी को अपरा एकादशी कहा जाता है। गुरुवार का दिन होने से इस एकादशी का महत्व और भी बढ़ गया है। गुरुवार का दिन और एकादशी की तिथि दोनों के ही स्वामी भगवान विष्णु हैं। वैसे तो एकादशी तिथि पर भगवान विष्णु की पूजा की जाती है लेकिन अचला एकादशी पर देवी लक्ष्मी की पूजा करने का भी विधान है। हिन्दू पंचांग के अनुसार, इस बार 26 मई,गुरूवार को एकादशी तिथि है। एकादशी तिथि का प्रारंभ 25 मई, बुधवार सुबह 10:32 से 26 मई गुरुवार सुबह 10:54 तक। उदयातिथि के अनुसार व्रत 26 मई को रखा जाएगा। एकादशी व्रत का पारण: 27 मई दिन शुक्रवार प्रातः काल 5:30 से 8:05 तक.पदम पुराण के अनुसार इस दिन भगवान विष्णु की पूजा उनके वामन स्वरूप में की जाती है। मान्यता है कि इस दिन भगवान शिव के बालों से मां भद्रकाली प्रकट हुई थी इसलिए इसे भद्रकाली एकादशी भी कहते हैं। इसके अलावा इस एकादशी को अचला एकादशी एवं जलक्रीड़ा एकादशी के नाम से जाना जाता है। इस दिन भक्तों को परनिंदा, छल-कपट,लालच,द्धेष की भावनाओं से दूर रहकर भगवान विष्णु को ध्यान में रखते हुए भक्तिभाव से उनका भजन करना चाहिए एवं यथाशक्ति गरीबों को दान देना चाहिए।
पुराणों के मुताबिक, एकादशी को हरी वासर यानी भगवान विष्णु का दिन कहा जाता है। विद्वानों का कहना है कि एकादशी व्रत यज्ञ और वैदिक कर्म-कांड से भी ज्यादा फल देता है। पुराणों में कहा गया है कि इस व्रत को करने से मिलने वाले पुण्य से पितरों को संतुष्टि मिलती है। स्कन्द पुराण में भी एकादशी व्रत का महत्व बताया गया है। इसको करने से जाने-अनजाने में हुए पाप खत्म हो जाते हैं।
इस दिन की पूजा-विधि :इस दिन सुबह के समय स्नान के बाद मंदिर में दीप जलाएं और व्रत रखें। फिर पूजा के लिए सबसे पहले भगवान विष्णु का गंगा जल से जलाभिषेक करें। पुष्प और तुलसी अर्पित करें और अब भगवान विष्णु के साथ ही माता लक्ष्मी की पूजा भी करे। भगवान को सात्विक चीजों का भोग लगाएं। भोग में तुलसी को जरूर शामिल करें। मान्यता है कि बिना तुलसी के भगवान विष्णु भोग ग्रहण नहीं करते हैं।
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