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बुधवार, 25 मई 2022

व्यावहारिक जीवन में वेदान्त ~स्वामी विवेकानन्द, 'चतुर्थ व्याख्यान | '

 व्यावहारिक जीवन में वेदान्त- 4 

( 18नवम्बर , सन् 1896 ई० को स्वामी विवेकानन्द द्वारा लन्दन में दिया हुआ भाषण ) 

[PRACTICAL VEDANTA-PART IV

(Delivered in London, 18th November 1896)] 

हमने  अभी तक समष्टि या सामान्य (universal) के विषय में ही अधिक विचार किया है।  आज इस प्रातःकाल मैं तुमसे ` व्यष्टि के साथ समष्टि का सम्बन्ध' (The relation of the particular to the universal.) इस विषय में वेदान्त का मत प्रस्तुत करने का प्रयत्न करूँगा । हम प्राचीनतर द्वैतवादी वैदिक मतों में देखते हैं कि प्रत्येक जीव की एक निर्दिष्ट सीमाविशिष्ट आत्मा है। प्रत्येक जीव में अवस्थित इस विशेष आत्मा के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के मतवाद प्रचलित हैं। किन्तु प्राचीन बौद्ध और प्राचीन वेदान्तियों के बीच में प्रधान विवाद का विषय यही था कि प्राचीन वेदान्ती स्वयं में  पूर्ण जीवात्मा मानते थे, और बौद्ध लोग इस प्रकार के जीवात्मा के अस्तित्व को नितान्त अस्वीकृत करते थे। 
जैसा कि मैंने कल कहा था , यूरोप में भी ठीक ऐसा ही द्रव्य (substance) और गुण (quality) पर विचार चल रहा है । एक दल यह मानता है कि गुणों के पीछे द्रव्य - रूप कोई वस्तु है जिसमें गुण आधारित हैं (behind the qualities there is something as substance, in which the qualities inhere) और दूसरे दल के मत में द्रव्य (substance ) को मानने की कोई आवश्यकता ही नहीं , गुण स्वयं ही रह सकते हैं । अवश्य ही आत्मा के सम्बन्ध में सर्वप्राचीन मत ' अहं - सारूप्य ' गत युक्ति के ऊपर स्थापित है। अहं - सारूप्य ' युक्ति का अर्थ है ; कल का ' मैं ' ही आज का ' मैं ' है ओर आज का ' मैं ' आगामी कल का ' मैं ' रहेगा । शरीर में जो कुछ भी परिवर्तन हो रहा है , उसके होने पर भी में विश्वास करता हूँ कि मैं सदा एकरूप ही हूँ । [The argument of self-identity — "I am I" — that the I of yesterday is the I of today, and the I of today will be the I of tomorrow; that in spite of all the changes that are happening to the body, I yet believe that I am the same I. ] जान पड़ता है , जो सीमित , पर स्वयंपूर्ण जीवात्मा मानते थे उनकी प्रधान युक्ति यही थी । 
दूसरी ओर प्राचीन बौद्धगण ऐसा जीवात्मा मानने की कोई आवश्यकता नहीं समझते थे । उनकी यह युक्ति थी कि हम केवल इन परिणामों (changes) को ही जानते हैं एवं इन परिणामों के अतिरिक्त और कुछ भी जानना हम लोगों के लिए असम्भव है । एक अपरिणम्य (unchangeable) और अपरिणामी द्रव्य (unchanging substance)  को स्वीकार करना अनावश्यक है।  और वास्तव में यदि इस प्रकार की कोई अपरिणामी वस्तु हो भी , तो हम उसे कभी समझ नहीं सकेंगे और न उसे किसी भी तरह प्रत्यक्ष ही कर सकेंगे ! 
आजकल यूरोप में भी धर्म और विज्ञान वादी ( Idealist ) , आधुनिक प्रत्यक्षवादी ( Realist ) तथा अज्ञेय वादी ( Agnostic ) विचारकों में यही विवाद चल रहा  है । एक दल का विश्वास है कि कुछ अपरिवर्तनशील पदार्थ है । इनके अन्तिम प्रतिनिधि हर्बर्ट स्पेन्सर कहते हैं कि हमें मानो किसी अपरिणामी पदार्थ का आभास होता है । दूसरे दल के प्रतिनिधि हैं कोमते ( Comte ) के आधुनिक शिष्यगण तथा आधुनिक अज्ञेयवादीगण । तुम लोगों में से जिन व्यक्तियों ने कुछ साल पहले मि . हॅरिमन और मि . हर्बर्ट स्पेन्सर के बीच का वाद - विवाद ध्यानपूर्वक पढ़ा होगा वे लोग जानते होंगे कि इस वाद - विवाद में यही गड़बड़ी मौजूद है।  कुछ व्यक्ति परिणामी वस्तु के पीछे किसी अपरिणामी सत्ता का अस्तित्व मानते हैं और कुछ उसके मानने की आवश्यकता ही नहीं समझते । 
कुछ लोग कहते हैं कि हम अपरिणामी सत्ता की धारणा के बिना परिणाम सोच ही नहीं सकते , तथा दूसरे यह युक्ति पेश करते हैं कि ऐसा मानने की कोई जरूरत नहीं , हम केवल परिणामशील पदार्थ की ही धारणा कर सकते हैं । अपरिणामी सत्ता को न हम समझ सकते हैं , और न अनु भव या प्रत्यक्ष ही कर सकते हैं । 
भारत में भी इस महान् समस्या की मीमांसा अत्यन्त प्राचीन काल में भी नहीं मिली।  क्योंकि हमने देखा है कि गुणों के पीछे अवस्थित तथापि गुणभिन्न पदार्थ की सत्ता कभी प्रमाणित ही नहीं हो सकती । केवल यही नहीं , आत्मा के अस्तित्व का ' अहं - सारूप्य' गत प्रमाण , स्मृति से आत्मा के अस्तित्व सम्बन्धी युक्ति – कल जो ' मैं ' था , आज भी ' मैं ' वही हूँ , क्योंकि मुझे यह स्मरण है , अतएव मैं बराबर हूँ , इस युक्ति का भी कोई महत्त्व नहीं । और भी एक युक्ति का आभास , जो साधारणतः दर्शाया जाता है , वह भी केवल शब्दों का जोड़ - तोड़ है । 
" मैं जाता हूँ " , " मैं खाता हूँ " , " मैं स्वप्न देखता हूँ , " मैं सो रहा हूँ , " " मैं चलता हूँ, " आदि कितने ही वाक्य लेकर वे कहते हैं कि करना , खाना , जाना , स्वप्न देखना , ये सब विभिन्न परिवर्तन भले ही हों किन्तु उनके बीच में ' मैं - पन ' नित्य भाव से वर्तमान है।  और इस प्रकार वे इस सिद्धान्त पर पहुँचते हैं कि यह ' मैं ' नित्य और स्वयं एक व्यक्ति है तथा ये सब परिवर्तन शरीर के धर्म हैं । यह युक्ति सुनने में खूब उपादेय तथा स्पष्ट जान पड़ती है किन्तु वास्तव में वह केवल शब्दों के जोड़ - तोड़ पर ही अवस्थित है । यह ' मैं ' और करना , जाना, स्वप्न देखना आदि मुख में भले ही अलग हो जायँ , किन्तु मन में कोई भी उन्हें अलग नहीं कर सकता । 
     जब में आहार करता हूँ , ' खा रहा हूँ ' कहकर सोचता हूँ तब आहारकार्य के साथ मेरा तादात्म्यभाव हो जाता है । जब मैं दौड़ता रहता हूँ तब मैं और दौड़ना , ये दो अलग अलग बातें नहीं होतीं । अतएव यह युक्ति कुछ अधिक सफल नहीं जान पड़ती । यदि मेरे अस्तित्व का सारूप्य मुझे अपनी स्मृति द्वारा प्रमाणित करना पड़े तो अपनी जो सब अवस्थाएँ मैं भूल गया हूँ उनमें मैं था ही नहीं यही मानना पड़ेगा । और हम यह भी जानते हैं कि कुछ विशेष विशेष अवस्थाओं में अनेक लोग पिछला , सब कुछ पूर्ण रूप से भूल जाते हैं । 
 अनेक पागल व्यक्ति अपने को काँचनिर्मित अथवा कोई पशु मानते देखे जाते हैं । यदि केवल स्मृति पर ही उस व्यक्ति का अस्तित्व निर्भर होता हो तो वे काँच या पशु हो गये हैं यही मानना पड़ेगा । किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं होता , अतः यह अहं -सारूप्य , स्मृति -विषयक नगण्य युक्ति पर आधारित नहीं हो सकता । तब क्या निष्कर्ष निकला ? यही कि सीमाबद्ध तथापि सम्पूर्ण और नित्य ' अहं ' का सारूप्य गुणसमूह से पृथक् रूप में स्थापित नहीं हो सकता । हम ऐसा कोई संकीर्ण सीमाबद्ध अस्तित्व नहीं मान सकते जिसके पीछे गुण लगे हों । 
 दूसरे पक्ष में प्राचीन बौद्धों का यह मत कि गुणसमूह के पीछे अवस्थित किसी वस्तु के विषय में हम न कुछ जानते हैं और न जान सकते हैं , अधिक दृढ़ भित्ति पर स्थापित जान पड़ता है । उनके मतानुसार अनुभूति और भावरूप कुछ गुणों की समष्टि ही आत्मा है । यह गुणराशि ही आत्मा है और वह क्रमशः परिवर्तन शील है । अद्वैत द्वारा इन दोनों मतों में सामंजस्य होता है । 
अद्वैतवाद का सिद्धान्त यह है कि हम वस्तु को गुण से अलग नहीं मान सकते , यह सत्य है । हम परिणाम और अपरिणाम दोनों को एक साथ नहीं सोच सकते । इस प्रकार सोचना भी असम्भव है । किन्तु जिसे वस्तु कहा जाता है वही गुण - स्वरूप है । द्रव्य और गुण पृथक् नहीं हैं । 

अपरिणामी वस्तु ही परिणामस्वरूप में प्रतीत होती है । यह अपरिणामी सत्ता परिणामी जगत् से पूर्ण रूपेण स्वतन्त्र नहीं है । पारमार्थिक सत्ता व्यावहारिक सत्ता से पूर्णतया पृथक् वस्तु नहीं है , किन्तु यह पारमार्थिक सत्ता ही व्यावहारिक सत्ता बन जाती है । 

अपरिणामी आत्मा है , और हम जिसे अनुभूति , भाव आदि कहते हैं , केवल ये ही नहीं अपितु यह शरीर भी वही आत्मस्वरूप है , और वास्तव में हम लोग एक ही समय में दो वस्तुओं का अनुभव नहीं करते , एक ही का करते हैं । हम लोगों का '3H' है - शरीर है , मन है , आत्मा है, इस प्रकार सोचने का हमें अभ्यास हो गया है , किन्तु वास्तव में केवल एक ही सत्ता है

\जब मैं अपने को ' शरीर ' सोचता हूँ तब मैं केवल शरीर हूँ ; मैं इसके अतिरिक्त और कुछ हूँ यह कहना बेकार की बात है । जब मैं अपने को आत्मा मानता हूँ , तब देह तो कहीं उड़ जाती है , देहानुभूति ही नहीं रहती । देहज्ञान दूर न होने पर कभी आत्मानुभूति होती ही नहीं ! गुण की अनुभूति न हटने पर वस्तु का अनुभव कभी किसी को भी नहीं हो सकता । 

इसको खूब अच्छी तरह समझने के लिए अद्वैतवादियों का रज्जु-सर्प का उदाहरण लिया जा सकता है । जब मनुष्य रस्सी को साँप समझकर भूल करता है उसके लिए रस्सी नहीं रहती और जब वह उसे वास्तविक रस्सी समझता है तब उसका सर्प ज्ञान नष्ट हो जाता है; और केवल रस्सी ही बच रहती है । प्रमाणों के असम्पूर्ण आधारों को अपनाने के कारण हमें द्वित्व या त्रित्व की अनुभूति होती है । ये सब बातें हम पुस्तकों में पढ़ते अथवा सुनते आये हैं । 

इसी कारण हम भ्रम में पड़ गये हैं कि मानो सचमुच ही हमें आत्मा और देह दोनों का ही अनुभव हो रहा है , किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं । एक समय में या तो केवल देह का ही अनुभव होता है या आत्मा का ही । इसको प्रमाणित करने के लिए किसी युक्ति की जरूरत नहीं । अपने मन ही मन हम इसकी परीक्षा कर सकते हैं । 

तुम अपने को देहशून्य आत्मा मानकर सोचने का प्रयत्न कर देखो तो प्रतीत होगा कि यह असम्भव - सा है , और जो इने - गिने लोग इसमें सफल होते हैं वे देखेंगे कि जब वे अपने को आत्मस्वरूप अनुभव करते हैं तब उन्हें देहज्ञान नहीं रहता । तुमने शायद देखा हो और सुना भी हो कि अनेक व्यक्ति वशीकरण ( Hypnotism ) के प्रभाव से अथवा स्नायुरोग से अथवा अन्य किसी कारण से समय समय पर विशेष अवस्था में आ जाते हैं । उन लोगों की अभिज्ञता तुम लोग जान सकते हो कि जब वे भीतर ही भीतर कुछ अनुभव कर रहे थे तब उनका बाह्यज्ञान एकदम लुप्त हो गया था, बिलकुल नहीं रह गया था । 

इसी से जान पड़ता है कि अस्तित्व एक ही है , दो नहीं । वह एक ही अनेक रूपों में जान पड़ता है और उनमें कार्य - कारण सम्बन्ध भी है । कार्यकारण का अर्थ है परिणाम , एक का दूसरे में बदल जाना । समय समय पर मानो कारण अन्त ही हो जाता है , केवल उसके बदले कार्य रह जाता है । यदि आत्मा देह का कारण है तो मानो कुछ देर के लिए वह अन्तर्हित हो जाती है और उसके बदले देह रह जाती है , और जब शरीर अन्तर्हित हो जाता है तो आत्मा अवशिष्ट रहती है ।

इस मत से बौद्धों का मत खण्डित हो जाता है । बौद्धगण आत्मा और शरीर - इन दोनों को पृथक् मानने के अनुमान के विरुद्ध तर्क करते थे । अब अद्वैतवाद के द्वारा इस द्वैतभाव को मिटाने और द्रव्य तथा गुण एक ही वस्तु के विभिन्न रूप हैं यह प्रदर्शित करने से उनका मत भी खण्डित हो गया । हम लोगों ने यह भी देखा कि अपरिणामित्व केवल समष्टि के सम्बन्ध में ही सत्य हो सकता है , व्यष्टि के सम्बन्ध में नहीं । परिणाम और गति , इन भावों के साथ व्यष्टि की धारणा जड़ित है । 
जो कुछ ससीम है वही परिणामी है , क्योंकि दूसरे किसी ससीम पदार्थ की असीम के साथ तुलना करने पर उसका परिणाम सोचा जा सकता है किन्तु समष्टि अपरिणामी है , क्योंकि उसके अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं जिसके साथ तुलना करके उसका परिणाम या गति सोची जा सके । परिणाम केवल दूसरे किसी अल्पपरिणामी अथवा पूर्ण रूप से अपरिणामी पदार्थ के साथ तुलना करने पर ही जाना जा सकता है । अतएव अद्वैतवाद के अनुसार , सर्वव्यापी अपरिणामी अमर आत्मा के अस्तित्व का विषय भी यथासम्भव प्रमाणित किया जा सकता है । 

व्यष्टि के सिद्ध करने के बारे में सिद्धान्त ही अड़चन है । तो फिर हमारे सब प्राचीन द्वैतवादियों की क्या दशा होगी , जो हमारे ऊपर इस समय भी प्रबल प्रभाव के के बारे डाल रहे हैं ? और फिर ससीम , क्षुद्र , व्यक्तिगत में भी क्या होगा ? हमने देखा कि समष्टि - भाव से हम लोग अमर हैं , किन्तु समस्या यही है कि हम क्षुद्र व्यक्ति के रूप में भी अमर होने के इच्छुक हैं , इसका क्या अर्थ है ? हमने देखा कि हम अनन्त हैं , और वही हमारा यथार्थ व्यक्तित्व है । किन्तु हम इस क्षुद्र आत्मा को व्यक्ति रूप में मानकर उसे अमर बनाना चाहते हैं । 

उस क्षुद्र व्यक्तित्व का क्या होगा ? हम देख रहे हैं कि उनका व्यक्तित्व है , किन्तु वह व्यक्तित्व है विकासशील । वे एक हैं फिर भी अलग । कल का ' मैं ' आज का ' मैं ' है भी , और साथ ही नहीं भी है । इसमें द्वैत भावात्मक धारणा अर्थात् परिणाम के भीतर एकत्व -सूत्र विद्यमान है – इस मत का परित्याग हुआ और नितान्त आधुनिक भाव अर्थात् क्रमविकासवाद का ग्रहण हुआ । सिद्धान्त यह हुआ कि उसका परिणाम हो रहा है , किन्तु इस परिणाम के भीतर एक सारूप्य है , वह नित्य विकासशील है । 

यदि यह सत्य है कि मनुष्य मांसल जन्तुविशेष ( Mollusc ) का परिणाम मात्र है , तो वह जन्तु और मनुष्य एक ही पदार्थ हुए , भेद हुआ कि मनुष्य उस जन्तुविशेष का बहु परिणामात्मक विकास मात्र है । वही क्रमशः विकसित होते ह अनन्त की ओर जा रहा है और अब उसने मनुष्य का रूप धारण किया है । इसलिए सीमाबद्ध जीवात्मा को भी व्यक्ति कहा जा सकता है , वही क्रमशः पूर्ण व्यक्तित्व की ओर अग्रसर हो रहा है । 

पूर्ण व्यक्तित्व तभी मिलेगा जब वह अनन्त में पहुँचेगा , किन्तु इस अवस्था में पहुँचने से पहले ही उसके व्यक्तित्व का लगातार परिणाम हो रहा है और साथ ही साथ विकास भी । अद्वैत वेदान्त का प्रधान वैशिष्ट्य है- पूर्ववर्ती मतों में सामंजस्य स्थापित करना । अनेक समय इससे उसका बहुत लाभ भी हुआ पर कभी कभी इससे उसके गम्भीर तत्त्वों की बहुत क्षति भी हुई । आजकल जो क्रमविकासवादियों का मत है उनका भी यही मत था , अर्थात् वे जानते थे कि समस्त ही क्रमविकास का फल है , और इस मत की सहायता से वे लोग सहज ही पूर्ववर्ती प्रणालियों के साथ इस मत का सामंजस्य करने में सफल भी हुए । 

अतएव पूर्ववर्ती कोई भी मत ' परित्यक्त ' नहीं हुआ । बौद्धमत की यह एक विशेष त्रुटि थी कि उसके अनुयायी क्रमविकासवाद को नहीं समझते थे , अतएव उन्होंने आदर्श में पहुँचने की पूर्ववर्ती सीढ़ियों के साथ अपने मत का सामंजस्य करने का कोई प्रयत्न नहीं किया , वरन् उन्हें निरर्थक और अनिष्ट कहकर उनका परित्याग कर दिया । 

धर्म में ऐसी गति अत्यन्त अनिष्टकारक है । किसी व्यक्ति को एक नूतन और श्रेष्ठतर भाव मिला तो वह अपने पुराने भावों के प्रति यह निर्णय कर लेता है कि ये सब अनावश्यक तथा हानि कारक हैं । वह यह कभी नहीं सोचता कि उसकी आज की दृष्टि में वे कितने ही निरर्थक क्यों न हों , एक समय वह भी तो था जब वे ही उसके लिए अत्यावश्यक थे और उसके वर्तमान अवस्था तक पहुँचने में उनकी (Bh की)  विशेष उपयोगिता भी थी । 

हम लोगों में से प्रत्येक को ही उसी प्रकार से आत्मविकास करना पड़ेगा , वे ही सब भाव लेने होंगे और उनमें से अच्छे भाव लेकर धीरे धीरे उच्च से उच्चतर अवस्था की ओर अग्रसर होना पड़ेगा । इसलिए अद्वैतवाद प्राचीन सभी मतों से -- द्वैतवाद से तथा और जो जो मत उससे पहले के हैं , उनसे भिन्नभाव रखता है , किन्तु यह नहीं कि वह उच्च मंच पर चढ़कर उनको ओर दया की दृष्टि से देखता है । अद्वैतवाद का सिद्धान्त है कि वे भी सत्य हैं , एक ही सत्य के विभिन्न विकास हैं और अद्वैतवाद जिन सिद्धान्तों पर पहुंचा है , वे भी उन्हीं सिद्धान्तों पर पहुंचेंगे । 

अतएव मनुष्य को जिन सब सीढ़ियों पर चढ़कर ऊपर जाना हो उनके प्रति कठोर वचन न कहना चाहिए , वरन् उनको आशी र्वाद देते हुए उसे उनकी रक्षा करनी चाहिए । इसीलिए वेदान्त में इन सब भावों की उचित रक्षा की गयी है , परित्याग नहीं किया गया ; और इसीलिए द्वैतवाद - संगत पूर्ण जीवात्मवाद ने भी वेदान्त में स्थान पाया है । 

इस मत के अनुसार मृत्यु होने के पश्चात् मनुष्य अन्यान्य लोकों में जाता है और ये सब भाव भी अद्वैतवाद में सम्पूर्ण रूप से रक्षित हैं , क्योंकि अद्वैतवाद स्वीकार करने पर ये सब विभिन्न भाव भी अपना अपना उचित स्थान पा जाते हैं । हाँ इतना ही मानना पड़ेगा कि वे प्रकृत सत्य के आंशिक वर्णन मात्र हैं । 

यदि तुम जगत् को खण्ड दृष्टि से देखो तो जगत् तुम्हें वैसा ही जान पड़ेगा । द्वैतवाद की दृष्टि से यह जगत् केवल भूत अथवा शक्ति के सृष्टिरूप में ही देखा जा सकता है । उसे किसी विशेष इच्छाशक्ति की क्रीडा के रूप में ही सोचा जा सकता है और उस में इच्छाशक्ति को भी जगत् से पृथक रूप में सोचना सम्भव है । इस दृष्टि से मनुष्य अपने को आत्मा और देह (सूक्ष्म+स्थूल) दोनों की समष्टि (2H) के रूप में सोच सकता है और यह आत्मा ससीम होने पर भी पूर्ण है । 

इस प्रकार के व्यक्ति की अमरत्व एवं अन्यान्य विषयों की धारणाएँ उसकी आत्मा - सम्बन्धी धारणाओं के अनुसार ही होती हैं । इसलिये इन मतों की वेदान्त में रक्षा की गयी है और इसीलिए द्वैतवादियों के विशेष प्रचलित साधारण मतों को तुम्हें बताना भी आवश्यक है । इस मत के अनुसार पहले तो हमारा स्थूल शरीर है । इस स्थूल शरीर के पीछे सूक्ष्म शरीर है । 

यह सूक्ष्म शरीर भी भौतिक है , किन्तु अत्यन्त सूक्ष्म भूतों से बना है । वह हमारे सम्पूर्ण कर्मों का आश्रय - स्वरूप है । सम्पूर्ण कर्मों के संस्कार इस सूक्ष्म शरीर में स्थिर रहते हैं और उनकी प्रवृत्ति सदा फल प्रदान करने की ओर होती है । हम लोग जो कुछ सोचते हैं , जो कुछ कार्य करते हैं वही कुछ समय बाद सूक्ष्म रूप धारण कर लेता है , मानो बीजरूप बन जाता है , और वही इस शरीर में अव्यक्त रूप से रहता है , और फिर कुछ समय बाद प्रकाशित होकर फल भी देता है

मनुष्य का सारा जीवन इसी प्रकार है । मनुष्य अपने भाग्य (अदृष्ट) का स्वयं निर्माता है। मनुष्य और किसी भी नियम से बद्ध नहीं है । वह अपने ही नियम में , अपने ही जाल में अपने आप बँधा है । हम जितने सब काम करते हैं , जो कुछ सोचते हैं , वे सब हमारे बन्धन- जाल के सूत हैं । एक बार किसी शक्ति को चला देने पर उसका पूर्ण फल हमें भोगना ही पड़ता है । यही कर्मविधान है । इस सूक्ष्म शरीर के पीछे ससीम जीवात्मा है । 

इस जीवात्मा की कोई आकृति है अथवा नहीं , यह अणु है , बृहत् है अथवा मध्यम आकार का है, इस बात पर अनेक तर्क - वितर्क हुए हैं । किसी सम्प्रदाय के मत में वह अणु है तो किसी के मत में मध्यम , और दूसरों के मत में यह जीव उस अनन्त सत्ता का एक अंश मात्र है , और वह अनन्त काल से चला आ रहा है । वह अनादि है और उसी सर्वव्यापी सत्ता के एक अंश के रूप में अवस्थित है । वह अनन्त है और अपना प्रकृतस्वरूप , शुद्ध भाव प्रकाशित करने के लिए अनेक प्रकार की देहों में से होकर आगे बढ़ रहा है।  

जो कर्म इस प्रकाश की अभिव्यक्ति में बाधा उपस्थित करता है , उसे असत् कर्म कहते हैं ; ऐसा ही चिन्तन के सम्बन्ध में भी है , और जिस कार्य अथवा विचार द्वारा उसके स्वरूप प्रकाश में विशेष सहायता मिलती है , उसे सत्कार्य अथवा सदविचार कहते हैं । किन्तु भारत के निम्नतम द्वैतवादी और अत्यन्त उन्नत अद्वैतवादी सभी का यह साधारण मत है कि आत्मा की समुदय शक्ति और क्षमता उसके भीतर ही है - वह और कहीं से नहीं आती । 

वह आत्मा में ही अव्यक्त रूप से रहती है , और समस्त जीव का कार्य केवल उसके उस अव्यक्त शक्ति - समूह का ही विकास है । वे पुनर्जन्मवाद भी मानते हैं । इस देह के नष्ट होने पर जीव फिर एक देह धारण करेगा और उस देह का नाश होने पर फिर एक दूसरी देह , और इसी प्रकार आगे भी क्रम चलता रहेगा । जीवात्मा इसी पृथ्वी पर जन्म ले अथवा अन्य किसी लोक में जाय , किन्तु इसी पृथ्वी को श्रेष्ठतर बताया गया है । उनका मत यही है कि हमारे सम्पूर्ण प्रयोजन की सिद्धि के लिए यह `पृथ्वी  ही सर्व श्रेष्ठ है; और उसमें भी केवल भारत ही पुण्यभूमि है' !

अन्यान्य लोकों में  दुःख - कष्ट यद्यपि बहुत कम अवश्य हैं , (जन्नत में ? 72 हूरें हैं ?)किन्तु इसी कारण वहाँ उच्चतम विचार करने के लिए अवसर ही नहीं मिलता इस जगत् में बहुत अच्छा सामंजस्य है । घोर दुःख भी है और कुछ सुख भी । अतएव जीव की मोह - निद्रा यहाँ कभी - न - कभी टूटती ही है , कभी - न - कभी उसकी इच्छा मुक्ति पाने की होती ही है । किन्तु जैसे इस लोक में बहुत बड़े आदमी उच्चतम विचार करने का अवसर बहुत कम पाते हैं , ठीक उसी प्रकार जीव यदि स्वर्ग में गमन करता है तो उसकी भी आत्मोन्नति की कोई सम्भावना नहीं रहती । 

यहाँ की अपेक्षा वहाँ सुख में बहुत ही वृद्धि हो जायेगी , उनकी सूक्ष्म देह में कोई व्याधि नहीं रह जायेगी , भूख - प्यास भी नहीं लगेगी और सब कामनाएँ भी पूर्ण होती जायेंगी । जीव वहाँ सुख - पर - सुख भोगता है , परन्तु इसीलिए वह अपना स्वरूप और उच्च भाव बिलकुल भूल जाता । फिर भी इन सब उच्चतर लोकों में कुछ ऐसे व्यक्ति हैं जो इन सब भोगों के रहते हुए भी और भी उच्चतर भावों में चले जाते हैं । एक प्रकार के स्थूलदर्शी द्वैतवादी (और तथाकथित वर्क इज वर्शिप कहने वाले मूर्ख !)उच्चतम स्वर्ग को ही चरम लक्ष्य मानते हैं - उनके मतानुसार जीवात्माएँ वहाँ जाकर चिरकाल तक भगवान के साथ रहती हैं । 

वे वहाँ दिव्य देह प्राप्त करती हैं - उन्हे रोग , शोक , मृत्यु अथवा अन्य कोई अशुभ नहीं सताता । उनकी सब वासनाएँ पूर्ण हो जाती हैं और वे भी वहाँ चिरकाल तक भगवान के साथ रहती हैं । समय - समय पर उनमें से कोई कोई पृथ्वी पर आकर , देह धारण कर लोकशिक्षा देती हैं , और जगत् के सभी श्रेष्ठ धर्माचार्यगण इसी स्वर्ग से आते हैं । वे पहले ही मुक्त हो चुके हैं । 

वे भगवान के साथ एक ही लोक में (वैकुण्ठ लोक ? में ) वास करते हैं , किन्तु दुःखार्त मनुष्यों के ऊपर उनकी इतनी कृपा होती है कि वे यहाँ आकर पुन : देह धारण कर लोगों को स्वर्ग - पथ के सम्बन्ध में उपदेश देते हैं । उसके उपरान्त वे और भी उच्चतर लोकों में जाते हैं । अद्वैतवादी यह अवश्य कहता है कि यह स्वर्ग हमारा चरम लक्ष्य कभी नहीं हो सकता । हमारा लक्ष्य होना चाहिए सम्पूर्ण विदेह मुक्ति जो हमारा सर्वोच्च लक्ष्य है , सर्वश्रेष्ठ आदर्श है वह कभी ससीम नहीं हो सकता , अनन्त के अतिरिक्त और कुछ भी हमारा चरम लक्ष्य नहीं हो सकता , किन्तु देह तो कभी अनन्त नहीं होती। (Be and Make राजर्षि जनक, राजा +ऋषि बनो और बनाओ! लेकिन पटवारी बुद्धि वाला 'क्लर्क' राजर्षि जनक कैसे बनेगा ?) । 

यह होना असम्भव है , क्योंकि ससीमता से शरीर की उत्पत्ति है । चिन्ता अनन्त नहीं हो सकती , क्योंकि ससीम भावों से ही चिन्ता होती है । अद्वैतवादी कहता है , हमें देह और चिन्ता के परे जाना होगा । और हमने अद्वैतवादियों का यह विशेष मत भी देखा है कि मुक्ति कोई प्राप्त करने की वस्तु नहीं है , वह तो सदा वर्तमान ही है । केवल हम लोग भूल जाते हैं और उसे अस्वीकार करते हैं । यह पूर्णता हमें प्राप्त करना नहीं है , वह तो सदैव ही वर्तमान है । यह अमरत्व , यह नित्यता हमें लाभ करना नहीं है , वह तो पहले से ही हमें प्राप्त है । 

यदि तुम साहस के साथ यह कह सको कि ' मैं मुक्त हूँ ' तो उसी मुहूर्त तुम मुक्त हो जाओगे । यदि तुम कहो ' मैं बद्ध हूँ ' तो तुम बद्ध ही रहोगे । जो हो , द्वैतवादी और अन्यान्यवादियों के विभिन्न मत मैंने तुमको बता दिये हैं , अब इनमें से तुम लोग जो चाहो ग्रहण करो  । 

[If you dare declare that you are free, free you are this moment. If you say you are bound, bound you will remain. This is what Advaita boldly declares. I have told you the ideas of the dualists. You can take whichever you like.]

वेदान्त की यह बात समझना बहुत कठिन है और लोग सदा इस पर विवाद करते हैं । सब से बड़ी मुश्किल तो यही है कि जो किसी एक मत को ले लेता है वह दूसरे मत को बिलकुल अस्वीकार कर उस मतावलम्बी के साथ वाद - विवाद करने में प्रवृत्त हो जाता है । 

तुम्हारे लिए जो उपयुक्त हो उसे तुम ग्रहण करो , और दूसरे को जो उपयुक्त लगे उसे वह ग्रहण करने दो । यदि तुम अपने इस क्षुद्र व्यक्तित्व को , इस ससीम मानवत्व को रखने के लिए इतने इच्छुक हो , तो उसे अनायास ही रख सकते हो , तुम्हारी सभी वासनाएँ रह सकती हैं और तुम उनमें सन्तुष्ट भी रह सकते हो । यदि मनुष्यभाव में रहने का आनन्द तुम्हें इतना सुन्दर और मधुर लगता है तो तुम जितने दिन इच्छा हो उसको रख सकते हो , क्योंकि तुम जानते हो कि तुम्हीं अपने अदृष्ट के निर्माता हो । 

जबरदस्ती तुमसे कोई कुछ भी नहीं करा सकता । तुम्हारी जब तक इच्छा हो , मनुष्य बने रहो , कोई भी तुम्हें ब ...... (मनुष्य से पशु बन जाने के लिए बाध्य)  नहीं कर सकता । यदि देवता होने की इच्छा करो तो देवता हो जाओगे । असल बात यह है । किन्तु कुछ लोग ऐसे हैं जो देवता भी नहीं बनना चाहते । उनसे यह कहने का तुम्हारा क्या अधिकार है । कि यह बड़ी भयंकर बात है ? तुम्हें सौ रुपये खो जाने से दुःख हो सकता है , किन्तु ऐसे (राजर्षि जनक जैसे) भी अनेक लोग हैं जिनके करोड़ों रुपये नष्ट होने पर तनिक भी कष्ट नहीं होगा । ऐसे लोग प्राचीन काल में बहुत थे और आज भी हैं । 

[गुरूकृपा गृहस्थ को भी `विदेह ' बना देती है : राजा जनक को अपने गुरूदेव अष्टावक्र की कृपा से ज्ञान हुआ था। महर्षि अष्टावक्र की कृपा से ही उन्हें सिद्धि मिली थी। साधना से सिद्धि की यात्रा कर लेने के बावजूद वे गुरू आदेश से अपने कर्त्तव्य का निर्वहन करते रहे। उनके लिए सभी कुछ समान था। परन्तु मूढ़ जन इस रहस्य को समझ न पाये और उन्हें साधारण गृहस्थ समझने की भूल करते रहे। इन्हीं दिनों ब्रहर्षि विश्वामित्र ने वेदान्त विदों का एक शिविर मिथिला नगरी में लगाया।  इस शिविर में देशभर के ऋषि- मुनि, त्यागी वेश एवं कमण्डलुधारी, संन्यासी सभी पधारे। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र, योगी याज्ञवल्क्य, महर्षि अष्टावक्र सरीखें पारदर्शी ज्ञानी वहां रोज प्रवचन देते। इस प्रवचन कक्षा में राजर्षि जनक भी शामिल होते। एक दिन सभा में किसी ऋषि ने सूचना दी  -  ` महाराज महाराज! आग लगी है। आप तो राजा हैं। आपका राज्य एवं महल जल रहा है। क्या आपको चिंता नहीं हों रही है?'  महर्षि के प्रश्न पर राजा जनक स्थिर चित्त से बोले- ऋषियों! आप चिंता न करें। सद्गुरू की कृपा से मैंने सत्य जान लिया है- 

`अनन्तं वत मे वित्तं यस्य मे नास्ति किंचन । 
मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे दह्यति किंचन ॥' 
(महाभारत  12.171.56)  
" मेरे पास अनन्त धन है, फिर भी जैसे कुछ नहीं है। सारी मिथिला भस्म हो जाय तो भी मेरा बाल बांका नहीं होता। जो व्यक्ति प्रज्ञा के महल पर पहुँच गया है, उसे जगत् और उसका सम्पूर्ण भोग  गोखुर से अधिक नहीं जान पड़ता।  
" My treasures are immense, yet I have nothing ! If again the whole of Mithila were burnt and reduced to ashes, nothing of mine will be burnt.
जनक के इस कथन के साथ ही आग बुझ गयी। महर्षि ने अपना खेल समेट लिया। ज्ञान और आसक्ति का भेद स्पष्ट हो गया। सचमुच सद्गुरू की कृपा से क्या नहीं हो सकता।] 

" तुम उन्हें अपने आदर्श के पैमाने से क्यों नापते हो ? तुम क्षुद्र सीमित भावों में आबद्ध हो । ये ही तुम्हारे सर्वोच्च आदर्श लेकर रहो न । जैसा चाहोगे वैसा ही पाओगे , किन्तु तुम्हें छोड़कर ऐसे अनेक व्यक्ति हैं , जिन्हें सत्य का दर्शन हुआ है - वे उसे स्वर्गादि भोगों से परे हैं , वे उनमें फँसना जगत् नहीं चाहते , वे सम्पूर्ण सीमाओं के बाहर जाना चाहते हैं , की कोई भी वस्तु उन्हें परितृप्त नहीं कर सकती । जगत् और उसका सम्पूर्ण भोग उन्हें गोखुर से अधिक नहीं जान पड़ता । तुम उन्हें अपने भाव में क्यों फँसाकर रखना चाहते हो ? यह भाव बिलकुल छोड़ना पड़ेगा , प्रत्येक को अपने रास्ते चलने दो । 
बहुत दिन पहले मैंने सचित्र लन्दन- समाचार ( Illustrated London News ) नामक पत्र में एक समाचार पढ़ा । कुछ जहाज * प्रशान्त महासागर के एक द्वीपपुंज के निकट तूफान में आ गये। इस पत्रिका में इस घटना का एक चित्र भी आया था । तूफान में केवल एक ब्रिटिश जहाज को छोड़कर अन्य सब भग्न होकर डूब गये । वह ब्रिटिश जहाज तूफान पार कर चला आया । चित्रों में यह दिखाया है कि जहाज डूबे जा रहे हैं , उनके डूबते हुए यात्री डेक के ऊपर खड़े होकर तूफान से बचनेवाले जहाज के यात्रियों को प्रोत्साहित कर रहे हैं । `Be brave and generous like that.' --ऐसे ही बहादुर और उदार बनो। 

इसी प्रकार हमें वीर , उदार होना चाहिए । दूसरों को खींचकर अपनी भूमि पर मत लाओ । लोग मूर्ख के समान एक और मत की पुष्टि किया करते हैं कि यदि हम अपने इस क्षुद्र ' मैं - पन ' को भुला दें तो जगत् में किसी प्रकार की नीतिपरायणता नहीं रहेगी , मनुष्यजाति को कुछ भी आशा भरोसा न रह जायगा । मानो जो ऐसा कहते हैं वे समग्र मानवजाति के लिए सदा प्राणोत्सर्ग ही करने के लिए तैयार हैं ! यदि सभी देशों में मिलाकर केवल दो सौ ही नरनारी देश के सच्चे हितैषी हों तो दो दिन में सत्ययुग आ सकता है । [If in every country there were two hundred men and women really wanting to do good to humanity, the millennium would come in five days.] 

हम जानते हैं कि हम मनुष्यजाति के उपकार के लिए किस प्रकार आत्मोत्सर्ग करना चाहते हैं ! ये सब लम्बी - चौड़ी बातें हैं- इन सब बातों में कुछ - न - कुछ स्वार्थ छिपा रहता है । विश्व के इतिहास में यह स्पष्ट है कि जो इस क्षुद्र ' मैं ' को एकदम भूल जाते हैं वे पुरुष ही समाज के सर्वोत्तम हितैषी हैं , और लोग अपने को जितना अधिक भूल जायेंगे उतने ही वे अधिक परोपकारी बन सकेंगे । उनमें से पहलेवालों में स्वार्थपरता है और दूसरों में निःस्वार्थपरता । इन छोटे छोटे भोग - सुखों में आसक्त रहना और यह सोचना कि ये ही चिरस्थायी हैं , घोर स्वार्थपरता है ।

ऐसी मनोवृत्ति सत्यानुराग अथवा दूसरों के प्रति दयालु भाव के कारण नहीं होती - इसकी उत्पत्ति का एक मात्र कारण है घोर स्वार्थपरता । दूसरे किसी की ओर दृष्टि न रखकर केवल अपनी ही भोगवृत्ति के भाव से इसका जन्म होता है । कम - से - कम मुझे तो यही जान पड़ता है । संसार में मैं प्राचीन महापुरुष और साधुओं के समान चरित्र बलशाली व्यक्ति और देखना चाहता हूँ - वे एक क्षुद्र पशु तक के उपकारार्थ सौ सौ जीवन त्यागने के लिए तैयार थे । नीति और परोपकार की क्या बात करते हो ? यह तो आजकल की बेकार की बातें हैं।  

मैं गौतमबुद्ध के समान चरित्रबल-शाली लोग देखना चाहता हूँ , जो सगुण ईश्वर अथवा व्यक्तिगत आत्मा में विश्वास नहीं करते थे , जो उस विषय में कभी प्रश्न ही नहीं करते थे , जो उस विषय में पूर्ण अज्ञेयवादी थे , किन्तु जो सब के लिए अपने प्राण तक देने को प्रस्तुत थे— आजन्म दूसरों का उपकार करने में रत रहते तथा सदैव इसी चिन्ता में मग्न रहते थे कि दूसरों का उपकार किस प्रकार हो । उनके जीवन - चरित लिखनेवालों ने ठीक ही कहा है कि उन्होंने " बहुजनहिताय बहुजनसुखाय " जन्म ग्रहण किया था । 

इतना ही नहीं , वे अपनी मुक्ति तक के लिए वन में तप करने नहीं गये । दुनिया दुःख में जली जा रही है- यदि कोई इसे बचाने का उपाय नहीं करेगा तो कैसे काम चलेगा ? उनके समस्त जीवन में यही एक चिन्ता थी कि जगत् में इतना दुःख क्यों है ? तुम लोग क्या यह समझते हो कि हम सब उनके समान नीतिपरायण हैं ? 

मनुष्य जितना स्वार्थी होता है , उतना ही अनैतिक भी होता है । यही बात जातियों के सम्बन्ध में सत्य है । स्वयं अपने से ही विजड़ित रहनेवाली जाति ही संसार में सब से अधिक क्रूर और पातकी सिद्ध हुई है । अरब के पैगम्बर द्वारा प्रवर्तित धर्म से बढ़कर द्वैतवाद से चिपकनेवाला कोई दूसरा धर्म आज तक नहीं हुआ , और इतना रक्त बहानेवाला तथा दूसरों के प्रति इतना निर्मम धर्म भी कोई दूसरा नहीं हुआ । 

कुरान का यह आदेश है कि जो मनुष्य इन शिक्षाओं को न माने , उसको मार डालना चाहिए ; उसकी हत्या कर डालना ही उस पर दया करना है ! और सुन्दर हूरों तथा सभी प्रकार के भोगों से युक्त स्वर्ग को प्राप्त करने का सब से विश्वस्त रास्ता है , काफिरों की हत्या करना । ऐसे कुविश्वासों के फलस्वरूप जितना रक्तपात हुआ है , उसकी कल्पना कर लो ! 

ईसा मसीह ने जिस धर्म का प्रचार किया था उसमें ऐसी बातें नहीं थीं । उस विशुद्ध ईसाई धर्म और वेदान्त धर्म में बहुत थोड़ा भेद था । उन्होंने अद्वैतवाद का भी प्रचार किया और जन साधारण को सन्तुष्ट रखने के लिए , उसे उच्चतम आदर्श की धारणा करने के लिए सोपानरूप से द्वैतवाद के विषय में भी कहा । जिन्होंने ' मेरे स्वर्गस्थ पिता ' ("Father in heaven")कहकर प्रार्थना करने का उपदेश दिया था , उन्होंने यह भी कहा था ' मैं और मेरे पिता एक हैं "I and my Father are one".।  

वे यह भी जानते थे कि इस स्वर्गस्थ पितारूप द्वैतभाव की उपासना करते - करते ही अभेद बुद्धि आ जाती है । उस समय ईसाई धर्म केवल प्रेम और आशीर्वादपूर्ण था ; किन्तु बाद में अनेक प्रकार के मतों ने घुसकर उसे विकृत कर दिया और वह पैगम्बर के धर्म के स्तर पर आ गया । यह जो क्षुद्र ' मैं ' के लिए मारकाट , ' मैं ' के प्रति घोर आसक्ति , और केवल इसी जीवन में नहीं, बल्कि मृत्यु के बाद भी इस क्षुद्र ' मैं ' तथा इस क्षुद्र व्यक्तित्व को ही लेकर रहने की इच्छा , ये सब इस धर्म के विकृत भाव से उत्पन्न हुए हैं ।

 वे कहते हैं , यह निःस्वार्थपरता है - यह नीति की आधारशिला है ! यही अगर नीति की आधारशिला हो तो फिर दुर्नीति की भित्ति क्या है ? यह आश्चर्य की बात है कि जिन सब नर - नारियों से हम अधिक ज्ञान की आशा रखते हैं उन्हें यह डर लगता है कि इस क्षुद्र ' मैं ' के मिटने पर सब नीति बिलकुल नष्ट हो जायेगी । यह कहने से कि इस क्षुद्र ' मैं ' के विनाश पर ही यथार्थ नैतिकता अवलम्बित है , ये लोग घबड़ा जाते हैं । 

सब प्रकार की नीति , शुभ तथा मंगल का मूलमन्त्र ' मैं ' नहीं , ' तुम ' है । कौन सोचता है कि स्वर्ग और नरक हैं या नहीं ? कौन सोचता है कि कोई अनश्वर सत्ता या नहीं ? हमारे सामने यह सारा संसार है जो महादुःख से परिपूर्ण है । बुद्ध के समान इस संसार - सागर में गोता लगाकर या तो इस संसार के दुःख को दूर करो या इस प्रयत्न में प्राण त्याग दो । अपने को भूल जाओ ; आस्तिक हो या नास्तिक , अज्ञेयवादी ही हो या वेदान्ती , ईसाई हो या मुसलान - प्रत्येक के लिए यही सब से पहली शिक्षा है । 

यह शिक्षा , यह उपदेश सभी समझ सकते हैं , ' मैं नहीं , मैं नहीं ' या ' तुम ही हो , तुम ही हो ' – अहंनाश अर्थात् प्रकृत ' मैं ' का विकास । दो शक्तियाँ सदा समान भाव से कार्य कर रही हैं । एक अहं और दूसरी नाहं । यह निःस्वार्थपर शक्ति केवल मनुष्यों में ही नहीं , किन्तु तिर्यग् जाति में भी देखी जाती है— यहाँ तक कि क्षुद्रतम कीटाणुओं में भी इस शक्ति का विकास दीख पड़ता है । नर - रक्त की प्यासी लपलपाती जीभवाली बाघिन भी अपने बच्चे की रक्षा के लिए जान देने को प्रस्तुत रहती है । 

अत्यन्त बुरा आदमी भी जो अनायास ही अपने भाई का गला काट सकता है वह भी भूख से मरती हुई अपनी स्त्री तथा बालबच्चों के लिए सब कुछ करने को तैयार रहता है । सृष्टि के भीतर ये दोनों शक्तियाँ पास पास ही काम कर रही हैं - जहाँ एक शक्ति देखोगे , वहाँ दूसरी भी दीख पड़ेगी । एक स्वार्थपरता है , और दूसरी निःस्वार्थपरता । एक है ग्रहण , दूसरी त्याग । 

क्षद्रतम प्राणी से लेकर उच्चतम प्राणी तक समस्त ब्रह्माण्ड इन्हीं दोनों शक्तियों का लीलाक्षेत्र है ! इसके लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं --यह स्वतः प्रमाण है । समाज के एक सम्प्रदाय के लोगों को यह कहने का क्या अधिकार है कि दुनिया का सारा काम और विकास इन दोनों शक्तियों में से अहंशक्तिप्रसूत प्रतिद्वन्द्विता एवं संघर्ष से ही पैदा होता है ? यह बात कह देने का उन्हें क्या अधिकार है कि जगत् का सारा कार्य राग , द्वेष , विवाद और प्रतिद्वन्द्विता के ऊपर ही अधिष्ठित है ? 

ये सारी प्रवृत्तियाँ ही इस जगत् के अधिकांश व्यक्तियों को संचालित करती हैं इसे हम अस्वीकार नहीं करते । किन्तु उन्हें दूसरी शक्ति को बिलकुल न मानने का क्या अधिकार है ? और क्या वे इसे अस्वीकार कर सकते हैं कि यह प्रेम , अहंशून्यता अथवा त्याग ही जगत् की एकमात्र भावरूपिणी शक्ति है ? दूसरी शक्ति इस नाहं अथवा प्रेम - शक्ति का ही विपरीत रूप से प्रयोग करना है और उसी से प्रतिद्वन्द्विता की उत्पत्ति होती है । अशुभ की उत्पत्ति भी निःस्वार्थपरता से होती और अशुभ का परिणाम भी शुभ के अतिरिक्त और कुछ नहीं है । 

वह केवल मंगल - विधायिनी शक्ति का दुरुपयोग मात्र है । एक व्यक्ति जो दूसरे की हत्या करता है वह भी प्रायः अपने पुत्रादि के प्रति स्नेह की प्रेरणा से ही , एवं उनके लालन - पालन के लिए । अपना प्रेम अन्य लाखों व्यक्तियों से हटाकर वह केवल अपनी सन्तान के प्रति दर्शाता है , इस कारण उसका प्रेम ससीम भाव में परिणत हो जाता है , किन्तु ससीम हो या असीम , वह मूलतः एक ही प्रेम है । 

अतएव समग्र जगत् की परिचालक , जगत् में एकमात्र प्रकृत और जीवन्त शक्ति वही एक अद्भुत वस्तु है - वह किसी भी आकार में व्यक्त क्यों न हो , वह उस प्रेम , निःस्वार्थपरता तथा त्याग के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं । वेदान्त यहीं पर द्वैतवाद छोड़कर अद्वैतवाद पर जोर देता है । हम भी इस अद्वैतवाद पर इसीलिए विशेष जोर देते हैं , क्योंकि हम जानते हैं , हमें ज्ञान विज्ञान का अभिमान होने पर भी यह मानना ही पड़ेगा कि जहाँ एक कारण द्वारा कुछ कार्यों की व्याख्या की जाती है , वहीं अनेक कारणों द्वारा भी यदि उन्हीं कार्यों की व्याख्या की जाय तो अनेक कारण स्वीकार न करके एक कारण स्वीकार करना ही अधिक युक्तिसंगत होता है । 

यहाँ यदि हम यह स्वीकार कर लें कि वह एक ही अपूर्व सुन्दर प्रेम सीमित होकर ही असतु रूप में प्रतीत होता है तो हमने एक ही प्रेमशक्ति द्वारा सम्पूर्ण जगत् की व्याख्या कर दी । नहीं तो हमें जगत् के दो कारण मानने पड़ेंगे- एक शुभ शक्ति , दूसरी अशुभ शक्ति - एक प्रेम - शक्ति , दूसरी द्वेष - शक्ति । इन दोनों सिद्धान्तों के बीच में कौन अधिक न्याय संगत है ? - निश्चय ही शक्ति का एकत्व मानकर सम्पूर्ण जगत् की व्याख्या करना ।

मैं अब ऐसी बातों की चर्चा करूँगा जो सम्भवतः द्वैतवादियों को पसन्द नहीं हैं । मैं द्वैतवाद की इस आलोचना में और अधिक समय नहीं दूंगा । मेरा यहाँ यही उद्देश्य है कि नीति और निःस्वार्थपरता के उच्चतम आदर्श उच्चतम दार्शनिक धारणा के साथ असंगत नहीं हैं । मेरा उद्देश्य यही दिखाने का है कि नीति परायण होने से तुम्हें दार्शनिक धारणा को नवाना नहीं पड़ता , वरन् नीति की नींव पर पहुँचने के लिए तुम्हें उच्चतम दार्शनिक और वैज्ञानिक धारणा सम्पन्न बनना पड़ेगा । 

मनुष्य का ज्ञान मनुष्य के शुभ का विरोधी नहीं है , वरनु जीवन के प्रत्येक विभाग में ही ज्ञान हमारी रक्षा करता है । ज्ञान ही उपासना है । हम जितना जान सकें उसी में हमारा मंगल । वेदान्ती कहते हैं , इस आपातप्रतीय मान अशुभ का कारण है - असीम का सीमाबद्ध भाव । जो प्रेम सीमाबद्ध होकर क्षुद्रभावापन्न हो जाता है तथा अशुभ प्रतीत होता है , वही फिर चरमावस्था में ब्रह्म को प्रकाशित करता है और वेदान्त यह भी कहता है कि इस आपातप्रतीयमान सम्पूर्ण अशुभ का कारण हमारे भीतर ही है । 

किसी दैवी पुरुष की तुम निन्दा न करना अथवा निराश या विषण्ण न हो जाना , अथवा यह भी न सोचना कि हम गर्त के बीच में पड़े हैं और जब तक कोई दूसरा आकर हमारी सहायता नहीं करता , तब तक हम इससे निकल नहीं सकते । वेदान्त कहता है , दूसरे की सहायता से हमारा कुछ नहीं हो सकता । हम रेशम के कीड़े के समान हैं । अपने ही शरीर से अपने आप जाल बनाकर उसी में आबद्ध हो गये हैं । किन्तु यह बद्धभाव चिरकाल के लिए नहीं है । 

हम लोग उससे तितली के समान बाहर निकलकर मुक्त हो जायेंगे । हम लोग अपने चारों और इस कर्मजाल को लगा देते हैं और अज्ञानवश सोचने लगते हैं कि हम बँधे हैं , और कभी कभी सहायता के लिए रोते चिल्लाते हैं । किन्तु बाहर से कोई सहायता नहीं मिलती, सहायता मिलती है भीतर से । दुनिया के सारे देवताओं के पास तुम रो सकते हो , मैं भी बहुत वर्ष इसी तरह रोता रहा , अन्त में देखा कि मुझे सहायता मिल रही है , किन्तु यह सहायता भीतर से मिली

भ्रान्तिवश इतने दिन तक जो अनेक प्रकार के काम करता रहा , उस भ्रान्ति को मुझे दूर करना पड़ा । यही एकमात्र उपाय है । मैंने स्वयं अपने को जिस में फँसा रखा है , वह मुझे ही काटना पड़ेगा और उसे काटने की शक्ति भी मुझमें ही दरे है । इस विषय में मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि जीवन की सदसद कोई भी प्रवृत्ति व्यर्थ नहीं गयी —-मैं उसी अतीत शुभाशुभ दोनों प्रकार के कर्मों का समष्टिस्वरूप हूँ । 

मैंने जीवन में बहुतसी गलतियाँ की हैं , कभी न होता । मैं अब किन्तु ये किये बिना आज जो मैं हूँ । वह अपने जीवन से अत्यन्त सन्तुष्ट हूँ । पर मेरे कहने का यह मतलब नहीं कि तुम घर जाकर चाहे जितना अन्याय करते रहो , मेरी बात का गलत मतलब न समझ लेना । मेरे कहने का अभिप्राय यही है कि कुछ भूल - चूक हो गयी है , इसलिए एकदम हाथ पर हाथ रखकर मत बैठे रहो , किन्तु यह समझ रखो कि अन्त में फल सब का शुभ ही होता है । 

इसके विपरीत और कुछ कभी नहीं हो सकता , क्योंकि शिवत्व और विशुद्धत्व हमारा स्वाभाविक धर्म है । उसका किसी भी प्रकार नाश नहीं हो सकता । हम लोगों का यथार्थ स्वरूप सदा ही एकरूप रहता है । हम लोगों को यह जानना आवश्यक है कि हम दुर्बल होने के कारण अनेक प्रकार के भ्रम में पड़ते हैं , और अज्ञान के कारण ही हम दुर्बल हैं । मैं पाप शब्द के बजाय भ्रम शब्द का प्रयोग अधिक उपयुक्त समझता हूँ । 

हमें किसने अज्ञानान्धकार में फेंका है ? उत्तर स्पष्ट है कि हम लोग स्वयं ही अपने को अज्ञानान्धकार में फेंकते हैं । हम लोग स्वयं अपनी आँखों पर हाथ रखकर ' अँधेरा , अँधेरा , ' कहकर चिल्लाते हैं । हाथ हटा लो , देखोगे कि जीवात्मा स्वप्रकाश है , स्व - रूप से ही आलोकित है । आधुनिक वैज्ञानिकगण क्या कहते हैं , यह क्यों नहीं देखते ? इस सब क्रमविकास का क्या कारण है ? -वासना । 

कोई भी पशु जिस रूप में वह अवस्थित है , उसे छोड़कर उससे उच्चतर रूप में जाना चाहता है - वह सोचता है कि वह जिस अवस्था में है , वह उसके उपयोगी नहीं है इसलिए वह एक नूतन शरीर धारणा कर लेता है । तुम निम्नतम जीवाणु से अपनी इच्छाशक्ति के कारण उत्पन्न हुए हो । फिर उसी इच्छाशक्ति का प्रयोग करो , और भी अधिक उन्नत हो जाओगे । इच्छा सर्वशक्तिमान है। 

तुम कहोगे , यदि इच्छा सर्व शक्तिमान है तो मैं जितने काम करना चाहता हूँ , उन्हें क्यों नहीं कर पाता ? उत्तर यह है कि तुम जब ऐसी बातें करते हो उस समय केवल अपने क्षुद्र ' मैं ' की ओर देखते हो । सोचकर देखो , तुम क्षुद्र जीवाणु से इतने बड़े मनुष्य हो गये । किसने तुम्हें मनुष्य बनाया ? तुम्हारी अपनी इच्छाशक्ति ने ही । यह इच्छा शक्ति सर्वशक्तिमान है — तुम क्या यह अस्वीकार कर सकते हो ? जिसने तुम्हें इतना उन्नत बना दिया , वह तुम्हें और भी अधिक उन्नत करेगी । 
हम लोगों का प्रयोजन है चरित्र , इच्छाशक्ति की दृढ़ता , उसकी दुर्बलता नहीं । अतएव यदि मैं तुम्हें यह उपदेश दूं कि तुम्हारी प्रकृति असत् है , और यह कहूँ कि तुमने कुछ भूलें की हैं तो इसलिए अब तुम अपना जीवन केवल पश्चात्ताप करने तथा रोने - धोने में ही बिताओ , तो इससे तुम्हारा कुछ भी उपकार न होगा , वरन् उससे और भी दुर्बल हो जाओगे । 

ऐसा करना तुम्हें सत्पथ बताने के बजाय असत्पथ दिखाना होगा । यदि हजारों साल इस कमरे में अँधेरा रहे और तुम उस कमरे में आकर ' हाय ! बड़ा अँधेरा है ! बड़ा अँधेरा है ! ' कह - कहकर रोते रहो तो क्या अँधेरा चला जायगा ? कभी नहीं । परन्तु एक दियासलाई जलाते ही कमरा प्रकाशित हो उठेगा । अतएव जीवन भर ' मैंने बहुत दोष किये हैं , मैंने बहुत अन्याय किया है ' , यह सोचने से क्या तुम्हारा कुछ भी उपकार हो सकेगा ? हममें बहुतसे दोष हैं ' यह किसी को बतलाना नहीं पड़ता । 
ज्ञानाग्नि प्रज्वलित करो , एक क्षण में सब अशुभ चला जायगा । अपने प्रकृत स्वरूप को पहचानो , प्रकृत ' मैं ' को उसी ज्योतिर्मय उज्ज्वल , नित्यशुभ ' मैं ' को , प्रकाशित करो प्रत्येक व्यक्ति में उसी आत्मा को जगाओ । मैं चाहता हूँ कि सभी व्यक्ति ऐसी दशा में आ जायँ कि अति जघन्य पुरुष को भी देखकर उसकी बाह्य दुर्बलताओं की ओर वे दृष्टिपात न करें । बल्कि उसके हृदय में रहनेवाले भगवान् को देख सकें । 

और उसकी निन्दा न कर , यह कह सकें , ' हे स्वप्रकाशक , ज्योतिर्मय , उठो ! हे उठो ! हे अज , अविनाशी , सर्वशक्तिमान , उठो ! सदाशुद्धस्वरूप आत्मस्वरूप प्रकाशित करो । तुम जिन क्षुद्र भावों में आबद्ध पड़े हो वे तुम्हें सोहते नहीं । ' अद्वैतवाद इसी श्रेष्ठतम प्रार्थना के उपदेश को देता रहता है ।
   यही एकमात्र प्रार्थना है — निजस्वरूप - स्मरण , सदा उसी अन्तःस्थ ईश्वर का स्मरण , उसी को सदा अनन्त , सर्वशक्तिमान , सदाशिव , निष्काम कहकर उसका स्मरण । यह क्षुद्र मैं उसमें नहीं रहता , क्षुद्र बन्धन उसे नहीं बाँध सकते । और वह अकाम है इसीलिए अभय और ओजःस्वरूप है , क्योंकि कामना तथा स्वार्थ से ही भय की उत्पत्ति होती है । 

जिसे अपने लिए कोई कामना नहीं , वह किससे डरेगा ? कौनसी वस्तु उसे डरा सकती है ? क्या उसे मृत्यु डरा सकती है ? अशुभ विपत्ति डरा सकती है ? कभी नहीं । अतएव यदि हम अद्वैतवादी हैं तो हमें अवश्य सोचना होगा कि हमारा ' मैं- पन ' इसी क्षण से मृत है । फिर मैं स्त्री हूँ या पुरुष हूँ यह सब भाव नहीं रह जाता , ये कुसंस्कार मात्र हैं , और शेष रहता है वही नित्यशुद्ध , नित्य ओजःस्वरूप , सर्वशक्तिमान , सर्वज्ञस्वरूप , और तब हमारा सारा भय चला जाता है । 
कौन इस सर्वव्यापी ' मैं ' का अनिष्ट कर सकता है ? इस प्रकार हमारी सम्पूर्ण दुर्बलता चली जाती है । तब दूसरों में भी उसी शक्ति को उद्दीप्त करना हमारा एकमात्र कार्य हो जाता है । हम देखते हैं , वे भी यही आत्मा - स्वरूप हैं , किन्तु वे यह जानते नहीं । अतएव हमें उन्हें सिखाना होगा- उनके इस अनन्त स्वरूप के प्रकाशार्थ हमें उनकी सहायता करनी पड़ेगी । मैं देखता हूँ कि जगत् में इसी के प्रचार की सब से अधिक आवश्यकता है । 

ये सब मत अत्यन्त पुराने हैं , उस समय शायद आज के बहुतसे पर्वत भी न थे , जब ये मत प्रथम प्रकाशित एवं प्रचारित हुए थे । सभी सत्य सनातन हैं । सत्य व्यक्तिविशेष की सम्पत्ति नहीं है । कोई भी जाति , कोई भी व्यक्ति उसे अपनी सम्पत्ति कहकर दावा नहीं कर सकता । सत्य ही सब आत्मा का यथार्थ स्वरूप है । किसी भी व्यक्तिविशेष का उस पर विशेष अधिकार नहीं है । 
 
किन्तु हमें उसे कार्यरूप में परिणत करना होगा , सरल भाव से उसका प्रचार करना पड़ेगा , क्योंकि तुम देखोगे कि सभी उच्चतम सत्य अत्यन्त सहज और सरल हैं । अत्यन्त सहज और सरल भाव से ही उनका प्रचार आवश्यक है , जिससे वह समाज में सभी जगह अपना अधिकार कर ले, उच्चतम मस्तिष्क से लेकर अत्यन्त साधारण मन द्वारा भी समझा जा सके , तथा आबाल - वृद्ध वनिता सभी उसे जान सके ।

 ये न्याय के कूट विचार , दार्शनिक मीमांसाएँ , ये सब मतवाद और क्रियाकाण्ड - इन सभी ने किसी एक समय भले ही उपकार किया हो , किन्तु आइये , हम सब आज से- इसी क्षण से धर्म को सहज बनाने की चेष्टा करें और उस सत्ययुग के पुनरागमन में सहायता करें , जब कि प्रत्येक व्यक्ति उपासक होगा तथा उसका अन्तरस्थ सत्य ही उसका उपास्य देवता होगा । "
साभार [https://www.khabardailyupdate.com/2022/02/swami-vivekananda-vedanta-forth-lecture-in-practical-Life.html]
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इश्क करे ऊ जिसकी जेब में माल बारे बलमूं (ishq kare u jiski jeb mein mal bare balmu .... ): फिल्म ‘बिदेसिया’ का एक बड़ा अदभुत गीत है – ‘इश्क़ करे ऊ जिसके जेब में माल बारे बलमूं’. राममूर्ति चतुर्वेदी जी के लिखे इस गीत को संगीतकार  एस.एन.त्रिपाठी के लिये भरपूर मस्ती में गाया है मन्ना दा और महेन्द्र कपूर ने --

इश्क करे ऊ , जिसकी जेब में माल बारे बलमूं। 
एजी कदर गंवावै जो कड़का कंगाल बारे बलमूं।। 

अरे इश्क करे ऊ,  जो दिल कै दिलदार बारे बलमूं। 
एजी राज़े इश्क क्या समुझै, चुगुल गंवार बारे बलमूं।। 

ज़र के बिना इश्क टें टें है, ज़र होवे तो जिगर बढ़ै। 
ज़र (पैसे) के बिना न रीझे गोरिया, आशिक होय बेमौत मरै।। 

ज़र तो चलता फिरता राही, आज रहै कल जावै रे। 
दिलवाला बारहों महीना हंसके फाग मनावै रे।। 

दिलवालै के जगत करे इतबार बारे बलमूं। 
एजी राज़े इश्क क्या समझै....?

बुरे बंदगी करते डर से , अच्छे गले लगावैं रे। 
दिलवाले हर दिल अज़ीज़ बन,  दुख-सुख में मुस्कावैं रे।।

अरे भाई- बंद औ बाप-मतारी कोई भी न साथ करै। 
गांठ अगर पैसा न होवै, जोरू भी न बात करै।।

पैसे पर इस जग के सभी कमाल बारे बलमूं। 
एजी कदर गवांवै ...
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