वह आत्मा में ही अव्यक्त रूप से रहती है , और समस्त जीव का कार्य केवल उसके उस अव्यक्त शक्ति - समूह का ही विकास है । वे पुनर्जन्मवाद भी मानते हैं । इस देह के नष्ट होने पर जीव फिर एक देह धारण करेगा और उस देह का नाश होने पर फिर एक दूसरी देह , और इसी प्रकार आगे भी क्रम चलता रहेगा । जीवात्मा इसी पृथ्वी पर जन्म ले अथवा अन्य किसी लोक में जाय , किन्तु इसी पृथ्वी को श्रेष्ठतर बताया गया है । उनका मत यही है कि हमारे सम्पूर्ण प्रयोजन की सिद्धि के लिए यह `पृथ्वी ही सर्व श्रेष्ठ है; और उसमें भी केवल भारत ही पुण्यभूमि है' !
अन्यान्य लोकों में दुःख - कष्ट यद्यपि बहुत कम अवश्य हैं , (जन्नत में ? 72 हूरें हैं ?)किन्तु इसी कारण वहाँ उच्चतम विचार करने के लिए अवसर ही नहीं मिलता । इस जगत् में बहुत अच्छा सामंजस्य है । घोर दुःख भी है और कुछ सुख भी । अतएव जीव की मोह - निद्रा यहाँ कभी - न - कभी टूटती ही है , कभी - न - कभी उसकी इच्छा मुक्ति पाने की होती ही है । किन्तु जैसे इस लोक में बहुत बड़े आदमी उच्चतम विचार करने का अवसर बहुत कम पाते हैं , ठीक उसी प्रकार जीव यदि स्वर्ग में गमन करता है तो उसकी भी आत्मोन्नति की कोई सम्भावना नहीं रहती ।
यहाँ की अपेक्षा वहाँ सुख में बहुत ही वृद्धि हो जायेगी , उनकी सूक्ष्म देह में कोई व्याधि नहीं रह जायेगी , भूख - प्यास भी नहीं लगेगी और सब कामनाएँ भी पूर्ण होती जायेंगी । जीव वहाँ सुख - पर - सुख भोगता है , परन्तु इसीलिए वह अपना स्वरूप और उच्च भाव बिलकुल भूल जाता । फिर भी इन सब उच्चतर लोकों में कुछ ऐसे व्यक्ति हैं जो इन सब भोगों के रहते हुए भी और भी उच्चतर भावों में चले जाते हैं । एक प्रकार के स्थूलदर्शी द्वैतवादी (और तथाकथित वर्क इज वर्शिप कहने वाले मूर्ख !)उच्चतम स्वर्ग को ही चरम लक्ष्य मानते हैं - उनके मतानुसार जीवात्माएँ वहाँ जाकर चिरकाल तक भगवान के साथ रहती हैं ।
वे वहाँ दिव्य देह प्राप्त करती हैं - उन्हे रोग , शोक , मृत्यु अथवा अन्य कोई अशुभ नहीं सताता । उनकी सब वासनाएँ पूर्ण हो जाती हैं और वे भी वहाँ चिरकाल तक भगवान के साथ रहती हैं । समय - समय पर उनमें से कोई कोई पृथ्वी पर आकर , देह धारण कर लोकशिक्षा देती हैं , और जगत् के सभी श्रेष्ठ धर्माचार्यगण इसी स्वर्ग से आते हैं । वे पहले ही मुक्त हो चुके हैं ।
वे भगवान के साथ एक ही लोक में (वैकुण्ठ लोक ? में ) वास करते हैं , किन्तु दुःखार्त मनुष्यों के ऊपर उनकी इतनी कृपा होती है कि वे यहाँ आकर पुन : देह धारण कर लोगों को स्वर्ग - पथ के सम्बन्ध में उपदेश देते हैं । उसके उपरान्त वे और भी उच्चतर लोकों में जाते हैं । अद्वैतवादी यह अवश्य कहता है कि यह स्वर्ग हमारा चरम लक्ष्य कभी नहीं हो सकता । हमारा लक्ष्य होना चाहिए सम्पूर्ण विदेह मुक्ति । जो हमारा सर्वोच्च लक्ष्य है , सर्वश्रेष्ठ आदर्श है वह कभी ससीम नहीं हो सकता , अनन्त के अतिरिक्त और कुछ भी हमारा चरम लक्ष्य नहीं हो सकता , किन्तु देह तो कभी अनन्त नहीं होती। (Be and Make राजर्षि जनक, राजा +ऋषि बनो और बनाओ! लेकिन पटवारी बुद्धि वाला 'क्लर्क' राजर्षि जनक कैसे बनेगा ?) ।
यह होना असम्भव है , क्योंकि ससीमता से शरीर की उत्पत्ति है । चिन्ता अनन्त नहीं हो सकती , क्योंकि ससीम भावों से ही चिन्ता होती है । अद्वैतवादी कहता है , हमें देह और चिन्ता के परे जाना होगा । और हमने अद्वैतवादियों का यह विशेष मत भी देखा है कि मुक्ति कोई प्राप्त करने की वस्तु नहीं है , वह तो सदा वर्तमान ही है । केवल हम लोग भूल जाते हैं और उसे अस्वीकार करते हैं । यह पूर्णता हमें प्राप्त करना नहीं है , वह तो सदैव ही वर्तमान है । यह अमरत्व , यह नित्यता हमें लाभ करना नहीं है , वह तो पहले से ही हमें प्राप्त है ।
यदि तुम साहस के साथ यह कह सको कि ' मैं मुक्त हूँ ' तो उसी मुहूर्त तुम मुक्त हो जाओगे । यदि तुम कहो ' मैं बद्ध हूँ ' तो तुम बद्ध ही रहोगे । जो हो , द्वैतवादी और अन्यान्यवादियों के विभिन्न मत मैंने तुमको बता दिये हैं , अब इनमें से तुम लोग जो चाहो ग्रहण करो ।
[If you dare declare that you are free, free you are this moment. If you say you are bound, bound you will remain. This is what Advaita boldly declares. I have told you the ideas of the dualists. You can take whichever you like.]
वेदान्त की यह बात समझना बहुत कठिन है और लोग सदा इस पर विवाद करते हैं । सब से बड़ी मुश्किल तो यही है कि जो किसी एक मत को ले लेता है वह दूसरे मत को बिलकुल अस्वीकार कर उस मतावलम्बी के साथ वाद - विवाद करने में प्रवृत्त हो जाता है ।
तुम्हारे लिए जो उपयुक्त हो उसे तुम ग्रहण करो , और दूसरे को जो उपयुक्त लगे उसे वह ग्रहण करने दो । यदि तुम अपने इस क्षुद्र व्यक्तित्व को , इस ससीम मानवत्व को रखने के लिए इतने इच्छुक हो , तो उसे अनायास ही रख सकते हो , तुम्हारी सभी वासनाएँ रह सकती हैं और तुम उनमें सन्तुष्ट भी रह सकते हो । यदि मनुष्यभाव में रहने का आनन्द तुम्हें इतना सुन्दर और मधुर लगता है तो तुम जितने दिन इच्छा हो उसको रख सकते हो , क्योंकि तुम जानते हो कि तुम्हीं अपने अदृष्ट के निर्माता हो ।
जबरदस्ती तुमसे कोई कुछ भी नहीं करा सकता । तुम्हारी जब तक इच्छा हो , मनुष्य बने रहो , कोई भी तुम्हें ब ...... (मनुष्य से पशु बन जाने के लिए बाध्य) नहीं कर सकता । यदि देवता होने की इच्छा करो तो देवता हो जाओगे । असल बात यह है । किन्तु कुछ लोग ऐसे हैं जो देवता भी नहीं बनना चाहते । उनसे यह कहने का तुम्हारा क्या अधिकार है । कि यह बड़ी भयंकर बात है ? तुम्हें सौ रुपये खो जाने से दुःख हो सकता है , किन्तु ऐसे (राजर्षि जनक जैसे) भी अनेक लोग हैं जिनके करोड़ों रुपये नष्ट होने पर तनिक भी कष्ट नहीं होगा । ऐसे लोग प्राचीन काल में बहुत थे और आज भी हैं ।
[गुरूकृपा गृहस्थ को भी `विदेह ' बना देती है : राजा जनक को अपने गुरूदेव अष्टावक्र की कृपा से ज्ञान हुआ था। महर्षि अष्टावक्र की कृपा से ही उन्हें सिद्धि मिली थी। साधना से सिद्धि की यात्रा कर लेने के बावजूद वे गुरू आदेश से अपने कर्त्तव्य का निर्वहन करते रहे। उनके लिए सभी कुछ समान था। परन्तु मूढ़ जन इस रहस्य को समझ न पाये और उन्हें साधारण गृहस्थ समझने की भूल करते रहे। इन्हीं दिनों ब्रहर्षि विश्वामित्र ने वेदान्त विदों का एक शिविर मिथिला नगरी में लगाया। इस शिविर में देशभर के ऋषि- मुनि, त्यागी वेश एवं कमण्डलुधारी, संन्यासी सभी पधारे। ब्रह्मर्षि विश्वामित्र, योगी याज्ञवल्क्य, महर्षि अष्टावक्र सरीखें पारदर्शी ज्ञानी वहां रोज प्रवचन देते। इस प्रवचन कक्षा में राजर्षि जनक भी शामिल होते। एक दिन सभा में किसी ऋषि ने सूचना दी - ` महाराज महाराज! आग लगी है। आप तो राजा हैं। आपका राज्य एवं महल जल रहा है। क्या आपको चिंता नहीं हों रही है?' महर्षि के प्रश्न पर राजा जनक स्थिर चित्त से बोले- ऋषियों! आप चिंता न करें। सद्गुरू की कृपा से मैंने सत्य जान लिया है-
`अनन्तं वत मे वित्तं यस्य मे नास्ति किंचन ।
मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे दह्यति किंचन ॥'
(महाभारत 12.171.56)
" मेरे पास अनन्त धन है, फिर भी जैसे कुछ नहीं है। सारी मिथिला भस्म हो जाय तो भी मेरा बाल बांका नहीं होता। जो व्यक्ति प्रज्ञा के महल पर पहुँच गया है, उसे जगत् और उसका सम्पूर्ण भोग गोखुर से अधिक नहीं जान पड़ता।
" My treasures are immense, yet I have nothing ! If again the whole of Mithila were burnt and reduced to ashes, nothing of mine will be burnt.
जनक के इस कथन के साथ ही आग बुझ गयी। महर्षि ने अपना खेल समेट लिया। ज्ञान और आसक्ति का भेद स्पष्ट हो गया। सचमुच सद्गुरू की कृपा से क्या नहीं हो सकता।]
" तुम उन्हें अपने आदर्श के पैमाने से क्यों नापते हो ? तुम क्षुद्र सीमित भावों में आबद्ध हो । ये ही तुम्हारे सर्वोच्च आदर्श लेकर रहो न । जैसा चाहोगे वैसा ही पाओगे , किन्तु तुम्हें छोड़कर ऐसे अनेक व्यक्ति हैं , जिन्हें सत्य का दर्शन हुआ है - वे उसे स्वर्गादि भोगों से परे हैं , वे उनमें फँसना जगत् नहीं चाहते , वे सम्पूर्ण सीमाओं के बाहर जाना चाहते हैं , की कोई भी वस्तु उन्हें परितृप्त नहीं कर सकती । जगत् और उसका सम्पूर्ण भोग उन्हें गोखुर से अधिक नहीं जान पड़ता । तुम उन्हें अपने भाव में क्यों फँसाकर रखना चाहते हो ? यह भाव बिलकुल छोड़ना पड़ेगा , प्रत्येक को अपने रास्ते चलने दो ।
बहुत दिन पहले मैंने सचित्र लन्दन- समाचार ( Illustrated London News ) नामक पत्र में एक समाचार पढ़ा । कुछ जहाज * प्रशान्त महासागर के एक द्वीपपुंज के निकट तूफान में आ गये। इस पत्रिका में इस घटना का एक चित्र भी आया था । तूफान में केवल एक ब्रिटिश जहाज को छोड़कर अन्य सब भग्न होकर डूब गये । वह ब्रिटिश जहाज तूफान पार कर चला आया । चित्रों में यह दिखाया है कि जहाज डूबे जा रहे हैं , उनके डूबते हुए यात्री डेक के ऊपर खड़े होकर तूफान से बचनेवाले जहाज के यात्रियों को प्रोत्साहित कर रहे हैं । `Be brave and generous like that.' --ऐसे ही बहादुर और उदार बनो।
इसी प्रकार हमें वीर , उदार होना चाहिए । दूसरों को खींचकर अपनी भूमि पर मत लाओ । लोग मूर्ख के समान एक और मत की पुष्टि किया करते हैं कि यदि हम अपने इस क्षुद्र ' मैं - पन ' को भुला दें तो जगत् में किसी प्रकार की नीतिपरायणता नहीं रहेगी , मनुष्यजाति को कुछ भी आशा भरोसा न रह जायगा । मानो जो ऐसा कहते हैं वे समग्र मानवजाति के लिए सदा प्राणोत्सर्ग ही करने के लिए तैयार हैं ! यदि सभी देशों में मिलाकर केवल दो सौ ही नरनारी देश के सच्चे हितैषी हों तो दो दिन में सत्ययुग आ सकता है । [If in every country there were two hundred men and women really wanting to do good to humanity, the millennium would come in five days.]
हम जानते हैं कि हम मनुष्यजाति के उपकार के लिए किस प्रकार आत्मोत्सर्ग करना चाहते हैं ! ये सब लम्बी - चौड़ी बातें हैं- इन सब बातों में कुछ - न - कुछ स्वार्थ छिपा रहता है । विश्व के इतिहास में यह स्पष्ट है कि जो इस क्षुद्र ' मैं ' को एकदम भूल जाते हैं वे पुरुष ही समाज के सर्वोत्तम हितैषी हैं , और लोग अपने को जितना अधिक भूल जायेंगे उतने ही वे अधिक परोपकारी बन सकेंगे । उनमें से पहलेवालों में स्वार्थपरता है और दूसरों में निःस्वार्थपरता । इन छोटे छोटे भोग - सुखों में आसक्त रहना और यह सोचना कि ये ही चिरस्थायी हैं , घोर स्वार्थपरता है ।
ऐसी मनोवृत्ति सत्यानुराग अथवा दूसरों के प्रति दयालु भाव के कारण नहीं होती - इसकी उत्पत्ति का एक मात्र कारण है घोर स्वार्थपरता । दूसरे किसी की ओर दृष्टि न रखकर केवल अपनी ही भोगवृत्ति के भाव से इसका जन्म होता है । कम - से - कम मुझे तो यही जान पड़ता है । संसार में मैं प्राचीन महापुरुष और साधुओं के समान चरित्र बलशाली व्यक्ति और देखना चाहता हूँ - वे एक क्षुद्र पशु तक के उपकारार्थ सौ सौ जीवन त्यागने के लिए तैयार थे । नीति और परोपकार की क्या बात करते हो ? यह तो आजकल की बेकार की बातें हैं।
मैं गौतमबुद्ध के समान चरित्रबल-शाली लोग देखना चाहता हूँ , जो सगुण ईश्वर अथवा व्यक्तिगत आत्मा में विश्वास नहीं करते थे , जो उस विषय में कभी प्रश्न ही नहीं करते थे , जो उस विषय में पूर्ण अज्ञेयवादी थे , किन्तु जो सब के लिए अपने प्राण तक देने को प्रस्तुत थे— आजन्म दूसरों का उपकार करने में रत रहते तथा सदैव इसी चिन्ता में मग्न रहते थे कि दूसरों का उपकार किस प्रकार हो । उनके जीवन - चरित लिखनेवालों ने ठीक ही कहा है कि उन्होंने " बहुजनहिताय बहुजनसुखाय " जन्म ग्रहण किया था ।
इतना ही नहीं , वे अपनी मुक्ति तक के लिए वन में तप करने नहीं गये । दुनिया दुःख में जली जा रही है- यदि कोई इसे बचाने का उपाय नहीं करेगा तो कैसे काम चलेगा ? उनके समस्त जीवन में यही एक चिन्ता थी कि जगत् में इतना दुःख क्यों है ? तुम लोग क्या यह समझते हो कि हम सब उनके समान नीतिपरायण हैं ?
मनुष्य जितना स्वार्थी होता है , उतना ही अनैतिक भी होता है । यही बात जातियों के सम्बन्ध में सत्य है । स्वयं अपने से ही विजड़ित रहनेवाली जाति ही संसार में सब से अधिक क्रूर और पातकी सिद्ध हुई है । अरब के पैगम्बर द्वारा प्रवर्तित धर्म से बढ़कर द्वैतवाद से चिपकनेवाला कोई दूसरा धर्म आज तक नहीं हुआ , और इतना रक्त बहानेवाला तथा दूसरों के प्रति इतना निर्मम धर्म भी कोई दूसरा नहीं हुआ ।
कुरान का यह आदेश है कि जो मनुष्य इन शिक्षाओं को न माने , उसको मार डालना चाहिए ; उसकी हत्या कर डालना ही उस पर दया करना है ! और सुन्दर हूरों तथा सभी प्रकार के भोगों से युक्त स्वर्ग को प्राप्त करने का सब से विश्वस्त रास्ता है , काफिरों की हत्या करना । ऐसे कुविश्वासों के फलस्वरूप जितना रक्तपात हुआ है , उसकी कल्पना कर लो !
ईसा मसीह ने जिस धर्म का प्रचार किया था उसमें ऐसी बातें नहीं थीं । उस विशुद्ध ईसाई धर्म और वेदान्त धर्म में बहुत थोड़ा भेद था । उन्होंने अद्वैतवाद का भी प्रचार किया और जन साधारण को सन्तुष्ट रखने के लिए , उसे उच्चतम आदर्श की धारणा करने के लिए सोपानरूप से द्वैतवाद के विषय में भी कहा । जिन्होंने ' मेरे स्वर्गस्थ पिता ' ("Father in heaven")कहकर प्रार्थना करने का उपदेश दिया था , उन्होंने यह भी कहा था ' मैं और मेरे पिता एक हैं "I and my Father are one".।
वे यह भी जानते थे कि इस स्वर्गस्थ पितारूप द्वैतभाव की उपासना करते - करते ही अभेद बुद्धि आ जाती है । उस समय ईसाई धर्म केवल प्रेम और आशीर्वादपूर्ण था ; किन्तु बाद में अनेक प्रकार के मतों ने घुसकर उसे विकृत कर दिया और वह पैगम्बर के धर्म के स्तर पर आ गया । यह जो क्षुद्र ' मैं ' के लिए मारकाट , ' मैं ' के प्रति घोर आसक्ति , और केवल इसी जीवन में नहीं, बल्कि मृत्यु के बाद भी इस क्षुद्र ' मैं ' तथा इस क्षुद्र व्यक्तित्व को ही लेकर रहने की इच्छा , ये सब इस धर्म के विकृत भाव से उत्पन्न हुए हैं ।
वे कहते हैं , यह निःस्वार्थपरता है - यह नीति की आधारशिला है ! यही अगर नीति की आधारशिला हो तो फिर दुर्नीति की भित्ति क्या है ? यह आश्चर्य की बात है कि जिन सब नर - नारियों से हम अधिक ज्ञान की आशा रखते हैं उन्हें यह डर लगता है कि इस क्षुद्र ' मैं ' के मिटने पर सब नीति बिलकुल नष्ट हो जायेगी । यह कहने से कि इस क्षुद्र ' मैं ' के विनाश पर ही यथार्थ नैतिकता अवलम्बित है , ये लोग घबड़ा जाते हैं ।
सब प्रकार की नीति , शुभ तथा मंगल का मूलमन्त्र ' मैं ' नहीं , ' तुम ' है । कौन सोचता है कि स्वर्ग और नरक हैं या नहीं ? कौन सोचता है कि कोई अनश्वर सत्ता या नहीं ? हमारे सामने यह सारा संसार है जो महादुःख से परिपूर्ण है । बुद्ध के समान इस संसार - सागर में गोता लगाकर या तो इस संसार के दुःख को दूर करो या इस प्रयत्न में प्राण त्याग दो । अपने को भूल जाओ ; आस्तिक हो या नास्तिक , अज्ञेयवादी ही हो या वेदान्ती , ईसाई हो या मुसलान - प्रत्येक के लिए यही सब से पहली शिक्षा है ।
यह शिक्षा , यह उपदेश सभी समझ सकते हैं , ' मैं नहीं , मैं नहीं ' या ' तुम ही हो , तुम ही हो ' – अहंनाश अर्थात् प्रकृत ' मैं ' का विकास । दो शक्तियाँ सदा समान भाव से कार्य कर रही हैं । एक अहं और दूसरी नाहं । यह निःस्वार्थपर शक्ति केवल मनुष्यों में ही नहीं , किन्तु तिर्यग् जाति में भी देखी जाती है— यहाँ तक कि क्षुद्रतम कीटाणुओं में भी इस शक्ति का विकास दीख पड़ता है । नर - रक्त की प्यासी लपलपाती जीभवाली बाघिन भी अपने बच्चे की रक्षा के लिए जान देने को प्रस्तुत रहती है ।
अत्यन्त बुरा आदमी भी जो अनायास ही अपने भाई का गला काट सकता है वह भी भूख से मरती हुई अपनी स्त्री तथा बालबच्चों के लिए सब कुछ करने को तैयार रहता है । सृष्टि के भीतर ये दोनों शक्तियाँ पास पास ही काम कर रही हैं - जहाँ एक शक्ति देखोगे , वहाँ दूसरी भी दीख पड़ेगी । एक स्वार्थपरता है , और दूसरी निःस्वार्थपरता । एक है ग्रहण , दूसरी त्याग ।
क्षद्रतम प्राणी से लेकर उच्चतम प्राणी तक समस्त ब्रह्माण्ड इन्हीं दोनों शक्तियों का लीलाक्षेत्र है ! इसके लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं --यह स्वतः प्रमाण है । समाज के एक सम्प्रदाय के लोगों को यह कहने का क्या अधिकार है कि दुनिया का सारा काम और विकास इन दोनों शक्तियों में से अहंशक्तिप्रसूत प्रतिद्वन्द्विता एवं संघर्ष से ही पैदा होता है ? यह बात कह देने का उन्हें क्या अधिकार है कि जगत् का सारा कार्य राग , द्वेष , विवाद और प्रतिद्वन्द्विता के ऊपर ही अधिष्ठित है ?
ये सारी प्रवृत्तियाँ ही इस जगत् के अधिकांश व्यक्तियों को संचालित करती हैं इसे हम अस्वीकार नहीं करते । किन्तु उन्हें दूसरी शक्ति को बिलकुल न मानने का क्या अधिकार है ? और क्या वे इसे अस्वीकार कर सकते हैं कि यह प्रेम , अहंशून्यता अथवा त्याग ही जगत् की एकमात्र भावरूपिणी शक्ति है ? दूसरी शक्ति इस नाहं अथवा प्रेम - शक्ति का ही विपरीत रूप से प्रयोग करना है और उसी से प्रतिद्वन्द्विता की उत्पत्ति होती है । अशुभ की उत्पत्ति भी निःस्वार्थपरता से होती और अशुभ का परिणाम भी शुभ के अतिरिक्त और कुछ नहीं है ।
वह केवल मंगल - विधायिनी शक्ति का दुरुपयोग मात्र है । एक व्यक्ति जो दूसरे की हत्या करता है वह भी प्रायः अपने पुत्रादि के प्रति स्नेह की प्रेरणा से ही , एवं उनके लालन - पालन के लिए । अपना प्रेम अन्य लाखों व्यक्तियों से हटाकर वह केवल अपनी सन्तान के प्रति दर्शाता है , इस कारण उसका प्रेम ससीम भाव में परिणत हो जाता है , किन्तु ससीम हो या असीम , वह मूलतः एक ही प्रेम है ।
अतएव समग्र जगत् की परिचालक , जगत् में एकमात्र प्रकृत और जीवन्त शक्ति वही एक अद्भुत वस्तु है - वह किसी भी आकार में व्यक्त क्यों न हो , वह उस प्रेम , निःस्वार्थपरता तथा त्याग के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं । वेदान्त यहीं पर द्वैतवाद छोड़कर अद्वैतवाद पर जोर देता है । हम भी इस अद्वैतवाद पर इसीलिए विशेष जोर देते हैं , क्योंकि हम जानते हैं , हमें ज्ञान विज्ञान का अभिमान होने पर भी यह मानना ही पड़ेगा कि जहाँ एक कारण द्वारा कुछ कार्यों की व्याख्या की जाती है , वहीं अनेक कारणों द्वारा भी यदि उन्हीं कार्यों की व्याख्या की जाय तो अनेक कारण स्वीकार न करके एक कारण स्वीकार करना ही अधिक युक्तिसंगत होता है ।
यहाँ यदि हम यह स्वीकार कर लें कि वह एक ही अपूर्व सुन्दर प्रेम सीमित होकर ही असतु रूप में प्रतीत होता है तो हमने एक ही प्रेमशक्ति द्वारा सम्पूर्ण जगत् की व्याख्या कर दी । नहीं तो हमें जगत् के दो कारण मानने पड़ेंगे- एक शुभ शक्ति , दूसरी अशुभ शक्ति - एक प्रेम - शक्ति , दूसरी द्वेष - शक्ति । इन दोनों सिद्धान्तों के बीच में कौन अधिक न्याय संगत है ? - निश्चय ही शक्ति का एकत्व मानकर सम्पूर्ण जगत् की व्याख्या करना ।
मैं अब ऐसी बातों की चर्चा करूँगा जो सम्भवतः द्वैतवादियों को पसन्द नहीं हैं । मैं द्वैतवाद की इस आलोचना में और अधिक समय नहीं दूंगा । मेरा यहाँ यही उद्देश्य है कि नीति और निःस्वार्थपरता के उच्चतम आदर्श उच्चतम दार्शनिक धारणा के साथ असंगत नहीं हैं । मेरा उद्देश्य यही दिखाने का है कि नीति परायण होने से तुम्हें दार्शनिक धारणा को नवाना नहीं पड़ता , वरन् नीति की नींव पर पहुँचने के लिए तुम्हें उच्चतम दार्शनिक और वैज्ञानिक धारणा सम्पन्न बनना पड़ेगा ।
मनुष्य का ज्ञान मनुष्य के शुभ का विरोधी नहीं है , वरनु जीवन के प्रत्येक विभाग में ही ज्ञान हमारी रक्षा करता है । ज्ञान ही उपासना है । हम जितना जान सकें उसी में हमारा मंगल । वेदान्ती कहते हैं , इस आपातप्रतीय मान अशुभ का कारण है - असीम का सीमाबद्ध भाव । जो प्रेम सीमाबद्ध होकर क्षुद्रभावापन्न हो जाता है तथा अशुभ प्रतीत होता है , वही फिर चरमावस्था में ब्रह्म को प्रकाशित करता है और वेदान्त यह भी कहता है कि इस आपातप्रतीयमान सम्पूर्ण अशुभ का कारण हमारे भीतर ही है ।
किसी दैवी पुरुष की तुम निन्दा न करना अथवा निराश या विषण्ण न हो जाना , अथवा यह भी न सोचना कि हम गर्त के बीच में पड़े हैं और जब तक कोई दूसरा आकर हमारी सहायता नहीं करता , तब तक हम इससे निकल नहीं सकते । वेदान्त कहता है , दूसरे की सहायता से हमारा कुछ नहीं हो सकता । हम रेशम के कीड़े के समान हैं । अपने ही शरीर से अपने आप जाल बनाकर उसी में आबद्ध हो गये हैं । किन्तु यह बद्धभाव चिरकाल के लिए नहीं है ।
हम लोग उससे तितली के समान बाहर निकलकर मुक्त हो जायेंगे । हम लोग अपने चारों और इस कर्मजाल को लगा देते हैं और अज्ञानवश सोचने लगते हैं कि हम बँधे हैं , और कभी कभी सहायता के लिए रोते चिल्लाते हैं । किन्तु बाहर से कोई सहायता नहीं मिलती, सहायता मिलती है भीतर से । दुनिया के सारे देवताओं के पास तुम रो सकते हो , मैं भी बहुत वर्ष इसी तरह रोता रहा , अन्त में देखा कि मुझे सहायता मिल रही है , किन्तु यह सहायता भीतर से मिली ।
भ्रान्तिवश इतने दिन तक जो अनेक प्रकार के काम करता रहा , उस भ्रान्ति को मुझे दूर करना पड़ा । यही एकमात्र उपाय है । मैंने स्वयं अपने को जिस में फँसा रखा है , वह मुझे ही काटना पड़ेगा और उसे काटने की शक्ति भी मुझमें ही दरे है । इस विषय में मैं निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि जीवन की सदसद कोई भी प्रवृत्ति व्यर्थ नहीं गयी —-मैं उसी अतीत शुभाशुभ दोनों प्रकार के कर्मों का समष्टिस्वरूप हूँ ।
मैंने जीवन में बहुतसी गलतियाँ की हैं , कभी न होता । मैं अब किन्तु ये किये बिना आज जो मैं हूँ । वह अपने जीवन से अत्यन्त सन्तुष्ट हूँ । पर मेरे कहने का यह मतलब नहीं कि तुम घर जाकर चाहे जितना अन्याय करते रहो , मेरी बात का गलत मतलब न समझ लेना । मेरे कहने का अभिप्राय यही है कि कुछ भूल - चूक हो गयी है , इसलिए एकदम हाथ पर हाथ रखकर मत बैठे रहो , किन्तु यह समझ रखो कि अन्त में फल सब का शुभ ही होता है ।
इसके विपरीत और कुछ कभी नहीं हो सकता , क्योंकि शिवत्व और विशुद्धत्व हमारा स्वाभाविक धर्म है । उसका किसी भी प्रकार नाश नहीं हो सकता । हम लोगों का यथार्थ स्वरूप सदा ही एकरूप रहता है । हम लोगों को यह जानना आवश्यक है कि हम दुर्बल होने के कारण अनेक प्रकार के भ्रम में पड़ते हैं , और अज्ञान के कारण ही हम दुर्बल हैं । मैं पाप शब्द के बजाय भ्रम शब्द का प्रयोग अधिक उपयुक्त समझता हूँ ।
हमें किसने अज्ञानान्धकार में फेंका है ? उत्तर स्पष्ट है कि हम लोग स्वयं ही अपने को अज्ञानान्धकार में फेंकते हैं । हम लोग स्वयं अपनी आँखों पर हाथ रखकर ' अँधेरा , अँधेरा , ' कहकर चिल्लाते हैं । हाथ हटा लो , देखोगे कि जीवात्मा स्वप्रकाश है , स्व - रूप से ही आलोकित है । आधुनिक वैज्ञानिकगण क्या कहते हैं , यह क्यों नहीं देखते ? इस सब क्रमविकास का क्या कारण है ? -वासना ।
कोई भी पशु जिस रूप में वह अवस्थित है , उसे छोड़कर उससे उच्चतर रूप में जाना चाहता है - वह सोचता है कि वह जिस अवस्था में है , वह उसके उपयोगी नहीं है इसलिए वह एक नूतन शरीर धारणा कर लेता है । तुम निम्नतम जीवाणु से अपनी इच्छाशक्ति के कारण उत्पन्न हुए हो । फिर उसी इच्छाशक्ति का प्रयोग करो , और भी अधिक उन्नत हो जाओगे । इच्छा सर्वशक्तिमान है।
तुम कहोगे , यदि इच्छा सर्व शक्तिमान है तो मैं जितने काम करना चाहता हूँ , उन्हें क्यों नहीं कर पाता ? उत्तर यह है कि तुम जब ऐसी बातें करते हो उस समय केवल अपने क्षुद्र ' मैं ' की ओर देखते हो । सोचकर देखो , तुम क्षुद्र जीवाणु से इतने बड़े मनुष्य हो गये । किसने तुम्हें मनुष्य बनाया ? तुम्हारी अपनी इच्छाशक्ति ने ही । यह इच्छा शक्ति सर्वशक्तिमान है — तुम क्या यह अस्वीकार कर सकते हो ? जिसने तुम्हें इतना उन्नत बना दिया , वह तुम्हें और भी अधिक उन्नत करेगी ।
हम लोगों का प्रयोजन है चरित्र , इच्छाशक्ति की दृढ़ता , उसकी दुर्बलता नहीं । अतएव यदि मैं तुम्हें यह उपदेश दूं कि तुम्हारी प्रकृति असत् है , और यह कहूँ कि तुमने कुछ भूलें की हैं तो इसलिए अब तुम अपना जीवन केवल पश्चात्ताप करने तथा रोने - धोने में ही बिताओ , तो इससे तुम्हारा कुछ भी उपकार न होगा , वरन् उससे और भी दुर्बल हो जाओगे ।
ऐसा करना तुम्हें सत्पथ बताने के बजाय असत्पथ दिखाना होगा । यदि हजारों साल इस कमरे में अँधेरा रहे और तुम उस कमरे में आकर ' हाय ! बड़ा अँधेरा है ! बड़ा अँधेरा है ! ' कह - कहकर रोते रहो तो क्या अँधेरा चला जायगा ? कभी नहीं । परन्तु एक दियासलाई जलाते ही कमरा प्रकाशित हो उठेगा । अतएव जीवन भर ' मैंने बहुत दोष किये हैं , मैंने बहुत अन्याय किया है ' , यह सोचने से क्या तुम्हारा कुछ भी उपकार हो सकेगा ? हममें बहुतसे दोष हैं ' यह किसी को बतलाना नहीं पड़ता ।
ज्ञानाग्नि प्रज्वलित करो , एक क्षण में सब अशुभ चला जायगा । अपने प्रकृत स्वरूप को पहचानो , प्रकृत ' मैं ' को उसी ज्योतिर्मय उज्ज्वल , नित्यशुभ ' मैं ' को , प्रकाशित करो प्रत्येक व्यक्ति में उसी आत्मा को जगाओ । मैं चाहता हूँ कि सभी व्यक्ति ऐसी दशा में आ जायँ कि अति जघन्य पुरुष को भी देखकर उसकी बाह्य दुर्बलताओं की ओर वे दृष्टिपात न करें । बल्कि उसके हृदय में रहनेवाले भगवान् को देख सकें ।
और उसकी निन्दा न कर , यह कह सकें , ' हे स्वप्रकाशक , ज्योतिर्मय , उठो ! हे उठो ! हे अज , अविनाशी , सर्वशक्तिमान , उठो ! सदाशुद्धस्वरूप आत्मस्वरूप प्रकाशित करो । तुम जिन क्षुद्र भावों में आबद्ध पड़े हो वे तुम्हें सोहते नहीं । ' अद्वैतवाद इसी श्रेष्ठतम प्रार्थना के उपदेश को देता रहता है ।
यही एकमात्र प्रार्थना है — निजस्वरूप - स्मरण , सदा उसी अन्तःस्थ ईश्वर का स्मरण , उसी को सदा अनन्त , सर्वशक्तिमान , सदाशिव , निष्काम कहकर उसका स्मरण । यह क्षुद्र मैं उसमें नहीं रहता , क्षुद्र बन्धन उसे नहीं बाँध सकते । और वह अकाम है इसीलिए अभय और ओजःस्वरूप है , क्योंकि कामना तथा स्वार्थ से ही भय की उत्पत्ति होती है ।
जिसे अपने लिए कोई कामना नहीं , वह किससे डरेगा ? कौनसी वस्तु उसे डरा सकती है ? क्या उसे मृत्यु डरा सकती है ? अशुभ विपत्ति डरा सकती है ? कभी नहीं । अतएव यदि हम अद्वैतवादी हैं तो हमें अवश्य सोचना होगा कि हमारा ' मैं- पन ' इसी क्षण से मृत है । फिर मैं स्त्री हूँ या पुरुष हूँ यह सब भाव नहीं रह जाता , ये कुसंस्कार मात्र हैं , और शेष रहता है वही नित्यशुद्ध , नित्य ओजःस्वरूप , सर्वशक्तिमान , सर्वज्ञस्वरूप , और तब हमारा सारा भय चला जाता है ।
कौन इस सर्वव्यापी ' मैं ' का अनिष्ट कर सकता है ? इस प्रकार हमारी सम्पूर्ण दुर्बलता चली जाती है । तब दूसरों में भी उसी शक्ति को उद्दीप्त करना हमारा एकमात्र कार्य हो जाता है । हम देखते हैं , वे भी यही आत्मा - स्वरूप हैं , किन्तु वे यह जानते नहीं । अतएव हमें उन्हें सिखाना होगा- उनके इस अनन्त स्वरूप के प्रकाशार्थ हमें उनकी सहायता करनी पड़ेगी । मैं देखता हूँ कि जगत् में इसी के प्रचार की सब से अधिक आवश्यकता है ।
ये सब मत अत्यन्त पुराने हैं , उस समय शायद आज के बहुतसे पर्वत भी न थे , जब ये मत प्रथम प्रकाशित एवं प्रचारित हुए थे । सभी सत्य सनातन हैं । सत्य व्यक्तिविशेष की सम्पत्ति नहीं है । कोई भी जाति , कोई भी व्यक्ति उसे अपनी सम्पत्ति कहकर दावा नहीं कर सकता । सत्य ही सब आत्मा का यथार्थ स्वरूप है । किसी भी व्यक्तिविशेष का उस पर विशेष अधिकार नहीं है ।
किन्तु हमें उसे कार्यरूप में परिणत करना होगा , सरल भाव से उसका प्रचार करना पड़ेगा , क्योंकि तुम देखोगे कि सभी उच्चतम सत्य अत्यन्त सहज और सरल हैं । अत्यन्त सहज और सरल भाव से ही उनका प्रचार आवश्यक है , जिससे वह समाज में सभी जगह अपना अधिकार कर ले, उच्चतम मस्तिष्क से लेकर अत्यन्त साधारण मन द्वारा भी समझा जा सके , तथा आबाल - वृद्ध वनिता सभी उसे जान सके ।
ये न्याय के कूट विचार , दार्शनिक मीमांसाएँ , ये सब मतवाद और क्रियाकाण्ड - इन सभी ने किसी एक समय भले ही उपकार किया हो , किन्तु आइये , हम सब आज से- इसी क्षण से धर्म को सहज बनाने की चेष्टा करें और उस सत्ययुग के पुनरागमन में सहायता करें , जब कि प्रत्येक व्यक्ति उपासक होगा तथा उसका अन्तरस्थ सत्य ही उसका उपास्य देवता होगा । "
साभार [https://www.khabardailyupdate.com/2022/02/swami-vivekananda-vedanta-forth-lecture-in-practical-Life.html]
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