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रविवार, 4 अगस्त 2024

🏹🔱🕊शिरीष कुसुम का एक गुच्छा:*/सत्य की कसौटी पर कसा हुआ स्वर्णिम सूत्र >"आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत। " /जाग्रत पुरुष का स्वप्नजगत के साथ सम्बन्ध और आत्मज्ञानी पुरुष का जगत् के साथ सम्बन्ध (आसक्ति) का तुलनात्मक अध्यन (गीता 14.24) त्रिगुणातीत अवस्था में पहुँचे शिरीष कुसुम का एक गुच्छा ! /A bunch of Shirish flowers that have reached the state beyond three gunas!/विवेकी सर्वदा मुक्तः कुर्वतो नास्ति कर्तृता । 🏹 Eton -कॉलेज (लंदन - ईटन कॉलेज) के प्रधान शिक्षकों का आदर्श वाक्य है - "I am taught best by teaching" The Secret of Success "- A Course of Nine Lessons : विलियम वॉकर एटकिंसन (1862-1932)🔱🕊स्वर्णिम सूत्र (The golden formula) शुकाष्टकम्'

🙋शिरीष कुसुम का एक गुच्छा🙋

*A Bunch of Shirish Kusum*

~ श्री नवनीहरन मुखोपाध्यायाय

(15th August, 1931- 26th Sept, 2016) 

         यह सोच कर भी कैसा लगता है कि - आज से पचास साल पहले हमने, इसी स्कूल # [मोहियारी कुंडू चौधरी इंस्टीट्यूशन (#आन्दुल H.C.E स्कूल)-1841,आचार्य शिरीष सारनी, ​​अंदुल, महियारी, हावड़ा जिला, पश्चिम बंगाल 711302)] से दसवीं तक की पढ़ाई पूरी करने के बाद स्कूल छोड़ दिया था। उन्हीं सहपाठियों में से जो आज जीवित हैं, वे पुनः उसी स्कूल में मिल रहे हैं - यह एक दम अद्भुत और अविश्वनीय पुनर्मिलन में है!! हालाँकि, मुझे नहीं पता कि उन लोगों को धन्यवाद देने के लिए क्या कहूँ जिन्होंने इस पूर्व विद्यार्थी पुनर्मिलन 'Alumni Reunion' को आयोजित करने के विषय में सोचा। परन्तु संसार में सुख-दुःख तो नित्य साथी हैं। इसलिए सभी को एक साथ सम्मिलित होने में बाधाएँ आती हैं। अतएव जितने छात्र हमलोग उस समय थे -उसमें से सभी यहाँ उपस्थित नहीं हो सके हैं। एक के बाद एक करके कितने ही लोग चले गए हैं । और इस मिलन समारोह के आयोजकों की मुख्य कठिनाई यही है, वैसे दोस्त जिन्हें 'हम अपना जीवन समझते थे ' वे जब हमें अचानक छोड़कर चले जाते हैं, तो उस दुःख को शब्दों में व्यक्त करना संभव नहीं है- "जिसका प्राण समझता है, वही समझ सकेगा।" 

        जिस दिन असित के पत्र से पहली बार मुझे इस पुनर्मिलन के बारे में पता चला और उसके बाद और कई मित्रों से दो-तीन बार मुलाकात हुई, लेकिन उसके बाद मानों सुकुमार रे के गणित के जैसा छात्रों की संख्या अचानक पचास से भी कम हो गयी। आज से साठ वर्ष पहले की बात याद आ रही है  जब आचार्यदेव (नवनीदा के पितामह ) मुझे  लेकर एक शिक्षक समारोह में आये थे तब मैंने पहली बार इस स्कूल को देखा था। [ नवनीदा का जन्म 15th August, 1931 को हुआ था, अर्थात 1996-60= 1936 में उनकी आयु लगभग 5 वर्ष की रही होगी।] उस दिन स्कूल के शिक्षकों विशेषतः संस्कृत शिक्षक पण्डित क्षेत्र-मोहन चट्टोपाध्याय महोदय को मैंने संस्कृत में तपोवन वर्णन का एक श्लोक " हुतधूमकेतु-शिखाञ्जन स्निग्धसमृद्धशाखम् ...." मैंने सुनाया था। जैसे ही मैंने उन्हें यह श्लोक सुनाया वैसे ही उन्होंने मेरा हाथ पकड़ कर खींच लिया और अपनी गोद में बिठाकर कहने लगे - वाह ! वाह ! तुम अभी इतने छोटे हो, और इतना शुद्ध संस्कृत उच्चारण कर सकते हो ; तुम्हें तो वाक् सिद्धि # प्राप्त होगी। (वाक् सिद्धि # एक ऐसी सिद्धि जिससे व्यक्ति जो कुछ भी कहे वो घटित हो जाये।) तब मुझे इसका मतलब समझ नहीं आया था, लेकिन बड़े होने के बाद जब उस बात को याद करता हूं तो मुझे अब भी डर लगता है।

       फिर 1943 में सातवीं कक्षा में मैंने इस स्कूल में प्रवेश लिया था। जब इस स्कूल की स्थापना हुई थी तब तक कलकत्ता विश्वविद्यालय का जन्म भी नहीं हुआ था।  सर आशुतोष की बड़े भ्राता इस स्कूल के प्रथम प्रधानाध्यापक थे। उनके बाद  इस विद्यालय के प्रधाना-ध्यापक 1901 ई. में आचार्यदेव  बने थे । [अर्थात जिस समय नवनीदा के पितामह श्री शिरीषचंद्र मुखोपाध्याय (1873-1966) उस स्कूल के हेड मास्टर के पद पर नियुक्त हुए होंगे, उस समय  उनकी आयु मात्र  28 वर्ष रही होगी ,और उम्र में वे स्वामीजी से 10 वर्ष छोटे रहे होंगे।] जब  1902 ई. में स्वामी विवेकानन्द का तिरोधान हुआ, उस समय आन्दुल स्कूल में एक स्मृति सभा का आयोजन किया गया था। उस स्मरण सभा में स्वामी विवेकानन्द को आमने -सामने देखने और उनके भाषण को सुनने अपना अनुभव बताते हुए आचार्यदेव ने स्वामी विवेकानन्द  के ओजस्वी व्यक्तित्व और भाषण शैली का उल्लेख अपने भाषण में किया था, उसका उल्लेख करते हुए शैलेन्द्रनाथ धर ने अपनी पुस्तक-A comprehensive Biography of Swami Vivekananda " (स्वामी विवेकानंद की विस्तृत जीवनी) में इस प्रकार उद्धृत किया था - "उस सभा में आचार्यदेव ने अपना अनुभव बताते हुए  कहा था कि- 1897 ई० में स्वामी विवेकानन्द द्वारा दिए उस संक्षिप्त भाषण को, आचार्यदेव ने अपने मित्र गिरीश चंद्र घोष (बंगाल के सुप्रसिद्द संगीतकार, कवि, नाटककार) के साथ  परमहंस श्री रामकृष्णदेव के जन्मदिन के अवसर पर, दक्षिणेश्वर के माँ काली मन्दिर पहुँचकर बिल्कुल आमने-सामने खड़े होकर सुना था।" 

              1905 ई. के बंग-भंग आन्दोलन ने स्वतंत्रता संग्राम को और भी तीव्र बना दिया था। आचार्य-देव के आदेशानुसार इस स्कूल के छात्रों ने भी विदेशी उत्पादों को जलाने में भरपूर योगदान दिया था। तब यह समाचार  इंग्लैण्ड के एक समाचारपत्र में स्कूल के नाम के साथ प्रकाशित हुई थी, जिसके फलस्वरूप प्रधानाध्यापक (आचार्यदेव) के नाम पर गिरफ्तारी वारंट जारी किया गया। किन्तु जो ब्रिटिश अधिकारी उनको गिरफ़्तार करने आया, वह स्कूल के असाधारण अनुशासन और स्कूल के प्रधानाध्यापक  के व्यक्तित्व को देखकर आश्चर्य-चकित हो गया। और बाघ के जैसा हिंसक वह ब्रिटिश अधिकारी पूज्य नवनीदा के पितामह - 'शिरीष बाबू' -के मधुर व्यवहार से इतना अधिक प्रभावित हुआ कि  वारंट रद्द करके बिना गिरफ्तार किये ही वापस लौट गया ।

           विद्या गुरुमुखी : मैं जब इस स्कूल में सातवीं कक्षा में पढ़ रहा था, तब सुबोध कुमार चटखण्डी मास्टर महाशय हमलोगों को भूगोल पढ़ाते थे। वे थोड़े स्थूलकाय थे, इसलिए ब्लैक बोर्ड पर मानचित्र को लटका देते थे, और स्वयं कुर्सी पर बैठकर एक छड़ी के द्वारा नक्शे के स्थलबिन्दु को दिखा-दिखा कर छात्रों को समझाते थे। ब्लैकबोर्ड पर हमारे पंडित महाशय (क्षेत्रमोहन पंडित महाशय के स्वनामधान्य पुत्र ...पण्डित भूतनाथ सप्ततीर्थ संस्कृत पढ़ाते थे। उन्होंने चाण्क्य का श्लोक कंठस्थ करने को कहा था ;लेकिन उनके  से वैसा हो नहीं सका। तब उन्होंने भूतनाथ को पूरे पीरियड पर पीछे बेंच पर खड़े करवा दिया था। उसके बाद उसका रिजल्ट (परिणाम) बहुत अच्छे हुआ । ...बेंच पर खड़े होकर उन्होंने जितने श्लोक पढ़े थे , वो सब मुझे इस समय कण्ठस्थ है।  ....वह किताबों और तुकबंदी के साथ कक्षा से बाहर चला गया था। हमारे स्कूल के संस्कृत शिक्षक द्वारा उद्धृत छोटी -छोटी  छंदें अब भी हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं।   लेकिन वे श्रद्धा की प्रतिमूर्ति थे। उसकी पूरी बातों को यदि लिखने के लिए कहा जाये , तो मेरी छोटी सी संस्कृत स्मृति उतना लिखने में सक्षम नहीं होगी। बाद में वे कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के पद पर भी रहे। किन्तु हमलोगों के आचार्यदेव से जब तक उन्हें यूनिवर्सिटी का पद स्वीकार करने की अनुमति नहीं मिली -उन्होंने स्कूल नहीं छोड़ा था। बाद में उन्होंने मीमांसा दर्शन ग्रंथ में वर्णित शुकाष्टकं # के एक श्लोक का जिस प्रकार गूढ़ार्थ बतलाया था, उसके विषय में आचार्य महामुखोपध्याय योगेन्द्रनाथ तर्कतीर्थ द्वारा शुकाष्टकं के विषय में  प्रश्न करने पर उन्होंने विनम्रता पूर्वक कहा था - विद्यालय के आचार्य-देव के मुख से उसकी जैसी व्याख्या सुनी थी, वही लिखा है, ग्रंथ की दृष्टि से नहीं; क्योंकि " विद्या गुरुमुखी।"   

    सभी की बातें याद आ रहीं हैं। लेकिन सब लिखने की जगह कहाँ है। अमलेन्दु राय महाशय हमलोगों को अंग्रेजी ग्रामर पढ़ाते थे, यदि ठीक-ठीक याद है तो टेस्ट परीक्षा में मास्टर महाशय से  मुझे 83 % नंबर प्राप्त हुए थे। बाद में अंग्रेजी में किताब लिखने में संकोच नहीं हुआ। कई यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी में भाषण देना सम्भव हुआ है। कुरुक्षेत्र विश्विद्यालय में भाषण देने के बाद राजयपाल की धर्मपत्नी ने पूछा था कि आपने किस यूनिवर्सिटी में अंग्रेजी सीखा है ? मैंने कहा -"बहुत गर्व से कहता हूँ कि ब्रिटिश चर्च या में नहीं सीखा , बल्कि हावड़ा जिला के एक ग्रामीण स्कूल में सीखा है। "  

      जिस प्रकार की व्यवस्था कॉलजों में हुआ करती है , हमलोगों के स्कूल का विज्ञान का क्लास भी गुरुदास मेमोरिएल के दोतल्ले पर गैलरी में होता था। वैसी व्यवस्था उस समय अन्य किसी स्कूल में थी या नहीं -नहीं जानता। फणीन्द्रनाथ पाल महाशय विज्ञान पढ़ा रहे थे। उन्होंने पूछा क्या कोई लड़का यह बता सकता है कि साबुन का निर्माण कैसे होता है ? एक लड़के ने (उसका नाम अभी याद नहीं है)खड़ा होकर कहा - "मैं जानता हूँ सर। एक बहुत बड़े चूल्हे पर बहुत बड़ा कड़ाही रहता है। उस कड़ाही में बुरादा के जैसा कुछ डाल देता है। फिर एक आदमी बहुत बड़े डब्बू से उसमें कोई चीज डालकर उसको खूब हिलाता है। थोड़ी देर बाद उसको चूल्हे से उतारने पर 'एक कड़ाही साबुन' बन जाता है। " उसके उत्तर को सुनकर पूरा क्लास ठहाके मार कर हँसने लगा था। 

          सेकण्ड हेड मास्टर (सहायक प्रधान शिक्षक) थे तारेश चंद्र कर। उच्च श्रेणी के बच्चों को इतिहास पढ़ाते थे। थोड़ा गंभीर स्वभाव के व्यक्ति थे। सब समय चुन्नट गिराकर धोती पहनते और कुर्ते में गले तक बटन को बंद रखते थे। और कंधे पर चादर रखते थे। आँखों पर चश्मा और मूँछ भी रखते थे। उनके नजदीक जाने में भय होता था। जिस समय क्लास नहीं भी रहता ,तब भी मोटी -मोटी पुस्तकें पढ़ते रहते थे। अक्सर मोटी-मोटी सी पुस्तक हाथों में लिए टहलते हुए क्लास में प्रवेश करते थे। लड़कों को अच्छी तरह सिखाना है , इसीलिए वे खुद बहुत परिश्रम करके पढ़ा करते थे। वैसे शिक्षक आजकल दिखाई नहीं देते। इनदिनों  विश्वविद्यालय के ऑफ़ पीरियड के दौरान शिक्षक कक्ष में क्या-क्या होता है , उसे सार्वजनिक तौर से बताया नहीं जा सकता। याद है एक बार क्लास में इतिहास पढ़ाते समय, कुछ गूढ़ विषय को समझाने के लिए उन्होंने स्कूल की लाइब्रेरी से "Historian's History of the World" (विश्व के इतिहास-निर्माताओं का इतिहास) का एक खंड क्लास रूम में मँगवा कर समझाया था। उनको दूर से किसी ने हँसते हुए नहीं देखा था। किन्तु नजदीक जाने पर उनकी मूँछों के बीच से सुन्दर हँसी खिलती हुई देखि जा सकती थी। थोड़े से शब्दों में जो बातें कहते थे उसी से पता चल जाता था कि वे छात्रों से कितना स्नेह करते थे। 

            सतीश चंद्र दास महाशय हमलोगों को बंगला पढ़ाते थे और स्कूल को चलाने में जो कुछ आवश्यक होता वह सबकुछ वे स्वेच्छा से आगे बढ़कर पूरा कर देते थे। उनको देखकर किशोर मन में जो विचार उठते थे , आज कह सकता हूँ कि वैसे महापुरुष को ही स्थितप्रज्ञ कहा जाता है। कविता या श्लोकों में शिक्षा ढूँढ़ने के रोग से मैं पहले से पीड़ित था। वे पढ़ाते समय इतना बेसुध होकर पढ़ाते थे कि चार साल की स्कूली पढ़ाई के दौरान उनके मुख से केवल दो श्लोक ही सुने थे। जिसमें से एक श्लोक में उन्होंने अपने Silver Voice में जो कहा था, पढ़ाते समय उसका व्यवहार मैं बार बार करता हूँ। 

मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम् ।

मनस्यन्यत् वचस्यन्यत् कर्मण्यन्यत् दुरात्मनाम् ॥

[मन -वचन -कर्म से जो एक हो वो है महात्मा। 

     मन -वचन -कर्म यदि भिन्न भिन्न ,तो है दुरात्मा।।] 

अर्थात् श्रेष्ठ और महान व्यक्तियों के जो भी विचार होते हैं वे मन में वही बोलते हैं और उसी के अनुसार कार्य भी करते हैं। दूसरी ओर नीच और दुष्ट व्यक्ति सोचते कुछ हैं, बोलते कुछ हैं और करते भी भिन्न हैं। उपर्युक्त सुभाषित  सज्जन और नीच व्यक्तियों की मानसिकता और व्यवहार में अंतर को बहुत ही सुन्दर ढंग से उजागर करता है

       हमलोगों का यह परम सौभाग्य है कि हमलोगों ने जिन पवित्र, उदार चरित महाप्राण, छात्रवत्सल शिक्षकों के चरणों में बैठकर शिक्षा प्राप्त करने का सुयोग पाया था , उनमें से दो व्यक्ति आज भी  इस  मिलन-उत्सव में पधार कर प्रत्यक्ष देवता रूप में आशीर्वाद दे रहे हैं। श्री बेचाराम चक्रवर्ती और श्री पंचानन भट्टाचार्य महाशय दोनों हमलोगों को गणित पढ़ाते थे। मैंने उनसे इस गणित के विषय में अनकहा सबक ये सीखा है कि गणित का अन्तिम छोर 'एक' और 'शून्य' होता है !  ["এবিষয়ে অকথিত এই শিক্ষা পেয়েছি যে, গণিতের প্রান্তদ্বের এক আর শূন্য। अर्थात गणित का अन्तिम ध्येय (end) 'एक' और 'शून्य' के प्रयोग के महत्व को समझाना है।]  'एक' को उचित स्थान में रखने से- 'शून्य' संख्या में वृद्धि करेगा, वैसा नहीं करें तो सब शून्य हो जायेगा।  शंकराचार्य ने कहा है - 'एक' को जो 'शून्य' कहता है, वही मूर्ख है ! और आज उनके ही श्री चरणोंकमलों में हमलोग श्रद्धा पूर्वक प्रणाम निवेदित करके हमलोग धन्य हो गए हैं।

      इसी प्रसंग में और दो व्यक्तियों की याद आ रही है, जो इसी विद्यालय के आचार्यदेव के छात्र थे,और आगे चलकर स्कॉटिश चर्च कालेज में मैंने जिनसे पढ़ा है। विपिन कृष्ण घोष M.A. में और B.T. में फर्स्ट-क्लास -फर्स्ट अंग्रेजी में थे आश्चर्य की बात स्कॉटिश चर्च कॉलेज में बंगला पढ़ाते थे। वे लोग बंगला में मेरिट लिस्ट में थे। इसी विद्यालय के और आचार्यदेव के छात्र डॉक्टर बुधेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय। विपिनदा  के पास तो कई बार जाता रहा हूँ, लेकिन बहुत कुछ कहने का समय नहीं है। थोड़े में कहता हूँ, उनको देखकर मन में वेद -पुराणों में कहे दधीचि ऋषि की याद हो आती थी। 

      एक अन्य शिक्षक थे डॉक्टर देवेन्द्रनाथ मित्रगणित में ईशान स्कॉलर , केवल हमारे विद्यालय के नहीं , अन्दुल मौड़ी के गौरव थे। विदेशों के यूनिवर्सिटी में पढ़ाने जाते थे। तो दूसरी ओर गंभीर आध्यत्म के खोजी, निरहंकार साधु स्वभाव के व्यक्ति थे। सब बातें नहीं कहूंगा। इस विद्यालय के इन दो छात्रों के छात्र होने का गौरव अपने सीने में लिए हुए हूँ। 

              सतीश मास्टर महाशय को भारत के राष्ट्रीय आदर्श "त्याग और सेवा " में सिद्धि प्राप्त थी। आचार्य देव की कितनी सेवा उन्होंने की थी। और इसी स्कूल के एक साधारण कार्यकर्ता, एक ऐसे  व्यक्ति थे जो उदार ह्रदय माली थे। वे हमलोगों को माता जैसे स्नेह से भोजन करवाते थे। इस अवसर पर उनके नाम (?) से पुरष्कार की घोषणा होने से एक इतिहास बना है। उनको हमलोग गुरुजन के रूप में देखते थे। वास्तव में वे मनुष्य जैसे यथार्थ 'मनुष्य' थे ! [क्योंकि  कोई मनुष्य श्रीराम के साथ अपने अद्वैत को केवल माया की कृपा से ही  समझ सकता है। माया तुम्हारी राम, जीव भी तुम्हारा।]  

                  हमलोग तो इस स्कूल के केवल 'कुछ ही वर्षों तक सीमित छात्रों में से एक' हैं। किन्तु हमारे विद्यालय की यह जो अश्रान्त छात्र प्रवाह- है, उसके ऊपर  52 वर्षों तक एक ही व्यक्ति के विशेष जीवन का एक अमिट प्रभाव पड़ा था। उस व्यक्ति का व्यक्तित्व इस विद्यालय के अस्तित्व में व्याप्त हो गया था और उन्हें महापुरुष बना दिया था।  ["तार सत्ता विद्यालयेर सत्ताय संचारित होय ताके महान करे तुलेछिलो !" #তার সত্তা বিদ্যালয়ের সত্তায় সঞ্চারিত হয়ে তাকে মহান করে তুলেছিল, His being permeated the being of the school and made him great.] उस व्यक्ति के व्यक्तित्व ने - ने इस 'अन्दुल HCE स्कूल ' को सचमुच  एक-"पीढ़ीगत ज्ञानपीठ परम्परा"- (Heritage Jnanpith) में परिणत कर दिया था।  'The personality of that Individual' वह महान व्यक्तित्व था -हमारे स्कूल के प्रधान शिक्षक आचार्य शिरीषचंद्र मुखोपाध्याय (1873-1966) का जो 'बंगला रामायण' के रचयिता तथा नैषधीय चरित महाकाव्य में चतुष्पदी शिक्षा का उल्लेख करने वाले खड़दह के श्रीहर्ष के वंशज कामदेव पण्डित के 16 वीं पीढ़ी में जन्मे थे। ये कामदेव ही थे जिन्होंने नित्यानन्द प्रभु को खड़दह में लाकर बसाया था। जिसके कारण खड़दह को भी एक 'श्रीपीठ' के रूप में जाना जाता है। वे एक वैसे ही महापुरुष थे, जिसके बारे में कहावत है - 

'वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि। 

        लोकोत्तराणां चेतांसि को नु विज्ञातुमर्हति ।।' 

  अर्थात - "उन महापुरुषों के मन की थाह भला कौन पा सकता है । जो अपने दुखों में 'वज्र' से भी कठोर और दूसरों के दुखों के लिए फूल से भी अधिक कोमल हो जाते हैं ।"-और इसी विशिष्टता के कारण ही वे समाज में प्रतिष्ठित और प्रसिद्ध  होते हैं। 

ठीक उसी प्रकार आचार्यदेव ने भी अपने शिरीष नाम को सार्थक कर दिखाया था। महाकवि कालिदास ने संस्कृत के कालजयी अमर ग्रंथ 'कुमार सम्भव' में कहा है -

" मनीषिताः सन्ति गृहेषु देवतास्तपः क्व वत्से क्व च तावकं वपुः।

पदं सहेत भ्रमरस्य पेलवं शिरीषपुष्पं न पुनः पतत्रिणः॥"

अर्थात शिरीष का कोमल फूल भ्रमर के पदभार को तो जैसे - तैसे सह भी ले, किन्तु पक्षी के चरण का आघात नहीं सह सकता ।

[भावार्थ - मेना पार्वती को समझाते हए कहती है घर में (हिमालयपर) ही अभीष्ट मनोरथों को पूर्ण करने वाले अनेक देवी- देवता विद्यमान हैं जिनकी आराधना करके मनोवाञ्छित फल प्राप्त कर सकती हो। कहाँ तुम राजमहल की सुखसुविधा में पली- बढ़ी और सुकोमल शरीर वाली हो और कहाँ तपस्या की कठोर दिनचर्या है। क्योंकि कोमल शिरीष का पुष्प भ्रमर के भार को तो सह सकता है किन्तु किसी पक्षी के भार को तो कदापि नहीं। जिस प्रकार पक्षी के भार से पुष्प टूट जाता है, उसी प्रकार तुम्हारा कोमल शरीर भी तपजन्य कष्ट को सहन नहीं कर सकेगा। अतः तप का विचार त्याग कर घर में ही रहते हए ही  मनोवाञ्छित फल की प्राप्ति हेतु इष्ट देवता की आराधना करो। (पंचम सर्ग-श्लोक-4)

किसी किसी पुराने छात्रों के मुख से सुना हूँ कि मैंने देश-विदेश के अनेकों विद्वानों को देखा है किन्तु हमलोगों के आचार्यदेव जैसा अन्य किसी को नहीं देखा। स्कूल में सूट पहनते थे और कुर्सी -टेबल लगाकर बैठते थे। किन्तु स्कूल के समय के अलावा जब वे उस कुर्सी पर बैठते, तब दूर से देखने पर ऐसा लगता था मानों कोई साधक बैठे हुए हैं। उन्होंने परा और अपरा दोनों विद्याओं की साधना की थी। इसलिए उनके जीवन का ऐसा प्रभाव पड़ा था। [तीनि दुई विद्यार ई साधना कोरे छिलेन - अपरा एवं परा ! -তিনি দুই বিদ্যার ই সাধনা করেছিলেন , অপরা এবং পরা।-अर्थात उन्होंने श्रीहर्ष के महाकाव्य 'नैषधीयचरित' के नलोपाख्यान में वर्णित 'अधीति, बोध, आचरण और प्रचार' की गुरु-शिष्य चतुष्पदी परम्परा में अपना जीवन गठन किया था; इसलिए उनके जीवन का स्कूल के छात्रों पर ऐसा प्रभाव पड़ा था।]

इंग्लैण्ड के सबसे बड़े और सबसे प्रतिष्ठित माध्यमिक विद्यालयों में से एक Eton-कॉलेज के लंदन (ईटन कॉलेज ब्रिटेन का सबसे पॉश, सर्वाधिक कुलीन बोर्डिंग स्कूल है)- और इसके प्रधान शिक्षकों का जो आदर्श वाक्य है -"I am taught best by teaching" अर्थात दूसरों को पढ़ा कर मैं खुद सबसे अच्छा सीखता हूँ ! अर्थात दूसरों को पढ़ाना स्वयं सीखने का सबसे अच्छा तरीका है। किसी गूढ़ अवधारणा (Esoteric concept-अन्तर्भूत अवधारणा) को समझने का सबसे अच्छा तरीका है उसके बारे में किसी दूसरे को समझाना।

[रोमन दार्शनिक सेनेका ने कहा था, "जब हम पढ़ाते हैं, तो हम सबसे अच्छा सीखते हैं।" वैज्ञानिकों ने इस पद्धति को "प्रोटेग प्रभाव" (protégé effect) का नाम दिया है; इसमें पाया गया है कि जो 'छात्र' शिक्षक की भूमिका में पढ़ाने का भी काम करते हैं उन्हें परीक्षा में उन छात्रों की तुलना में अधिक अंक प्राप्त होते हैं जो केवल अपने लिए सीख रहे हैं। किसी गूढ़ अवधारणा (Esoteric concept-अन्तर्भूत अवधारणा) जैसे वेदों के चार महावाक्य या ठाकुर, माँ, स्वामी जी के उपदेश जैसे 'Be and Make'-को समझाने का सबसे अच्छा तरीका है, उसे किसी दूसरे को समझाना। ] - उदाहरण

1."मनुष्य दो प्रकार के होते हैं - एक नाम मात्र के मनुष्य और दूसरे मानहूँष (जागृत मनुष्य !) जो लोग केवल ईश्वर प्राप्ति के लिये व्याकुल हैं वे जागृत हैं -'मानहूँश' हैं ! और जो केवल कामिनी -कांचन के पीछे पागल हैं, वे सभी साधारण मनुष्य हैं - केवल नाम के मनुष्य।"

" Men are of two classes - men in name only (Manush) and the awakened men (Man-hunsh). Those who  thirst after God alone belong to the latter class; those who are mad after 'woman and gold ' are all ordinary men - men in name only " ---Sri Ramakrishna. 

1.2. "मेरे बच्चे, अगर तुम शांति चाहते हो, तो दूसरों के दोषों पर ध्यान मत दो। अपनी ही गलतियों पर ध्यान दो। दुनिया को अपना बनाना सीखो। कोई भी पराया नहीं है, मेरे बेटे पूरी दुनिया तुम्हारी अपनी है।"

"My child, if you want peace, then do not look into anybody's faults . Look into your own faults. Learn to make the world your own. No one is a stranger, my child ; the whole world is your own ." ---Sri Sarda Devi.

1.3" धर्म/या शिक्षा का रहस्य सिद्धांतों में नहीं, बल्कि व्यवहार में निहित है। अच्छा बनना और अच्छा करना - यही धर्म/अर्थात शिक्षा का सार है!

" The Secret of Religion/ Education lies not in theories but in practice. To be good and do good - that is the whole of religion/ie- education! ---Swami Vivekananda ."

  .......उपरोक्त गूढ़ उपदेशों को स्वयं समझने का सबसे अच्छा तरीका है उसे किसी और को समझाना । 

      प्रधान शिक्षक के रूप में आचार्यदेव का भी वही आदर्श वाक्य था -'कुर्वतो नास्ति कर्तृता।' सब कुछ करके भी " मैं ने किया" -'I did' -'আমি করেছি' ऐसा विचार भी मन में नहीं उठना चाहिए। स्मृति वचन' भी ऐसा है-  

विवेकी सर्वदा मुक्तः कुर्वतो नास्ति कर्तृता ।

अलेपवादमाश्रित्य श्रीकृष्णजनको यथा ।।

अर्थात् “ श्रीकृष्‍ण और जनक के समान कोई भी ब्रह्मज्ञानी पुरुष (ब्रह्मविद-आचार्यदेव) सब कर्म करके भी अकर्ता, अलिप्‍त एवं सर्वदा मुक्‍त ही रहता है।" [यही बात गीता 14. 20 और शुकाष्टकम् में भी कही गयी है।]  

उनके जीवन के अन्तिम समय में उनके द्वारा आजीवन की गयी साधना का फल देखने का सौभाग्य भी मुझे प्राप्त हुआ है। उस समय वे साधक जैसे प्रतीत नहीं होते थे। उनको देखते ही "स्वतः मन बोलतः सिद्धपुरुषः -ब्रह्मज्ञ !" किन्तु इस प्रसंग को अभी नहीं उठाऊंगा। नवमी -दशमी की कक्षा में ही हमलोगों को वे अंग्रेजी में - शेली, टेनिसन, कीट्स, ब्राउनिंग, वर्ड्सवर्थ का गद्य व्हाइट नाइट आदि जो प्रोज -पोएट्री पढ़ाते थे। प्रेसिडेंसी कॉलेज में पढ़ते समय शेक्सपियर के प्रसिद्द नाटक हैमलेट में उन्होंने बहुत ही सुन्दर यादगार अभिनय किया था। और उनके एक विदेशी (अंग्रेज) प्रोफेसर ने उनके अभिनय से प्रभावित होकर कहा था -'वाह, तुमने तो आज प्रसिद्द अंग्रेज अभिनेता 'Beerbohm tree'(1852 – 1917) के जैसा अभिनय किया था।आचार्यदेव ने उस समय के विदेशों में अत्यन्त प्रसिद्द लेखक (Motivational writer) विलियम वॉकर एटकिंसन [William Walker Atkinson (1862–1932)] द्वारा लिखित ~ 'The Secret of Success' का अध्यन भी किया था, और जिस प्रकार हमलोगों को पढ़ाया था वह आजतक जीवन में बहुत काम आता है। महर्षि पतंजलि ने पाणिनि के अष्टा-ध्यायी पर जो व्याकरण महाभाष्य लिखा था, उसमें कहा गया है कि - "चतुर्भिश्च प्रकारैर्विद्योपयुक्ता भवति--आगमकालेन स्वाध्यायकालेन प्रवचनकालेन व्यवहारकालेनेति" ।। महाभाष्य १.१.१ पस्पशाह्निक।। विद्या चार प्रकार से उपयोगी सिद्ध होती -अर्जन में, अभ्यास करने , शिक्षण करने , और व्यव्हार में। जो विद्या अपने व्यवहार में नहीं उतरती वह व्यर्थ है [अर्थात Inherent Divinity- अन्तर्निहित दिव्यता (पूर्णता या निःस्वार्थपरता) या वेदान्त -Oneness of Existence , प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है का बोध] यदि अपने जीवन में प्रयोग करते समय आचरण से व्यक्त नहीं होती - तो वैसा अद्वैत ज्ञान व्यर्थ है

(१.) आगमकाल अर्थात् अर्जन करते समय या अध्ययन करने से,

(२.) स्वाध्यायकाल अर्थात् अभ्यास करने से,

(३.) प्रवचनकाल अर्थात् दूसरों को बताने से,

(४.) व्यवहारकाल अर्थात् लोक में व्यवहार से

(१.) आगमकाल—

“आगमकाल” उसको कहते हैं कि जिससे मनुष्य पढाने वाले से सावधान होकर ध्यान देके विद्यादि पदार्थ प्राप्त कर सकें ।

(२.) स्वाध्यायकाल–

“स्वाध्यायकाल” उसको कहते हैं कि जो पठन समय में आचार्य के मुख से शब्द, अर्थ और सम्बन्धों की बातें प्रकाशित की हों, उनका एकान्त में स्वस्थचित्त होकर पूर्वापर विचार के ठीक-ठीक हृदय में दृढ कर सकें ।

(३.) प्रवचनकाल–

“प्रवचनकाल” उसको कहते हैं कि जिससे दूसरों को प्रीति से विद्याओं पढा सकना ।

(४.) व्यवहारकाल—

“व्यवहारकाल” उसको कहते हैं कि जब अपने आत्मा में सत्यविद्या होती है, तब यह करना यह न करना, वही ठीक-ठीक सिद्ध होके वैसा ही आचरण करना हो सके, ये चार प्रकार हैं ।

अन्य चार प्रकार विद्याप्राप्ति के—

(१.) श्रवण

(२.) मनन,

(३.) निदिध्यासन,

(४.) साक्षात्कार ।

(१.) श्रवण—

“श्रवण” उसको कहते हैं कि आत्मा मन के, और मन श्रोत्र इन्द्रिय के साथ यथावत् युक्त करके अध्यापक के मुख से जो-जो अर्थ और सम्बन्ध के प्रकाश करने हारे शब्द निकले, उनको श्रोत्र से मन और मन से आत्मा के एकत्र करते जाना ।

(२.) मनन–

“मनन” उसको कहते हैं कि जो-जो शब्द, अर्थ और सम्बन्ध आत्मा में एकत्र हुए हैं, उनका एकान्त में स्वस्थचित्त होकर विचार करना कि कौन शब्द किस अर्थ के साथ और कौन अर्थ किस शब्द के साथ और कौन सम्बन्ध किस-किस शब्द और अर्थ के साथ सम्बन्ध अर्थात् मेल रखता और इनके मेल से किस प्रयोजन की सिद्धि और उलटे होने में क्या-क्या हानि होती है, इत्यादि ।

(३.) निदिध्यासन—

“निदिध्यासन” उसको कहते हैं कि जो-जो शब्द, अर्थ और सम्बन्ध सुने-विचारे हैं, वे ठीक-ठीक हैं वा नहीं, इस बात की विशेष परीक्षा करके दृढ निश्चय करना ।

(४.) साक्षात्कार—

“साक्षात्कार” उसको कहते हैं कि जिन अर्थों के शब्द और सम्बन्ध सुने-विचारे और निश्चय किए हैं, उनको यथावत् ज्ञान और क्रिया से प्रत्यक्ष करके व्यवहारों की सिद्धि से अपना और पराया उपकार करना आदि विद्या की प्राप्ति के साधन हैं ।

शिष्य की ज्ञान प्राप्ति में अनेक कारक सहायक होते हैं। वह कुछ ज्ञान गुरु से सीखता है उस पर स्वयं विचार करता है, इस प्रकार अपनी बुद्धि से समझकर कुछ ज्ञान सीखता है। कुछ ज्ञान बडा होते-2 समय के अनुभव के साथ इसे होता जाता है तथा कुछ ज्ञान वह अपने सहपाठियों से प्राप्त करता है

“आचार्यात्पादमात्ते पादं शिष्यः स्वमेधया ।

कालेन पादमादत्ते पादं सब्रह्मचारिभिः ।।”

अर्थः—-एक योग्य शिष्य अपने विषय के ज्ञान का एक चौथाई भाग गुरु से प्राप्त करता है। एक चौथाई अपनी बुद्धि से समझकर सीखता है। अगला एक चौथाई भाग समयानुसार सीखता है तथा शेष एक चौथाई अपने सहपाठियों से सीखता है। ]

तथा जो अपने छात्रों को ऐसी शिक्षा दे पाते हैं उन्हीं को आचार्य (C-IN-C नवनी दा) कहते हैं। इसीलिए वायु पुराण में आचार्य को परिभाषित करते हुए कहा गया है-

आचिनोति च शास्त्रार्थं आचारे स्थापयते अधि !

स्वयं ह्यपि आचरेत् य: तु आचार्य: इति स्मृत: !

जो स्वयं सभी शास्त्रों का मर्म जानते हैं, और अपने आचरण के द्वारा उसको व्यक्त करते हों, दूसरों के द्वारा ऐसा आचार स्थापित हो इसलिए अहर्निश प्रयत्न करते हैं; और ऐसा आचार स्वयं अपने आचरण में लाता है, उन्हें आचार्य कहते है ।

[मानव मात्र में अंतर्निहित किन्तु अदृश्यमान दिव्यता - प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है किन्तु वह शक्ति अभी प्रत्यक्ष या सक्रिय नहीं है ; जैसे बरगद के छोटे से बीज में संभावित रूप में विद्यमान कोई बरगद का विशाल वृक्ष ! छोटे से बीज में छुपे बरगद को प्रकट करने की विद्या - सा विद्या या विमुक्तये ' को अपने जीवन में लागु करने वाली शिक्षा पर उन्होंने विलियम वॉकर एटकिंसन (1862-1932) द्वारा लिखित जिस पुस्तक " The Secret of Success " (जीवन में सफलता की प्राप्ति के लिए व्यक्ति की अन्तर्निहित या अव्यक्त शक्तियों के उपयोग के विषय पर) नौ पाठों का एक कोर्स का अध्यन भी किया था। वह मेरे अपने जीवन गठन में बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ है। A Course of Nine Lessons on the Subject of the Application of the Latent Powers of the Individual Toward Attainment of Success in Life. 1908 William Walker Atkinson (1862–1932) https://www.yogebooks.com/english/atkinson/1908secretsuccess.pdf]

जो विद्या अपने व्यवहार में नहीं उतरती वह व्यर्थ है। जो अपने छात्रों को ऐसी शिक्षा दे पाते हैं उन्हीं को आचार्य कहते हैं। इसीलिए मनु ने कहा है -

उपाध्यात् दश आचार्य: आचार्याणां शतं पिता।
सहस्रं तु पितॄन् माता गौरवेण अतिरिच्यते।। (मनुस्मृति)

उपाध्याय (=शिक्षक) से आचार्य दस गुना श्रेष्ठ होते है । पिता सौ आचार्याें के समान होते है । माता पितासे हजार गुना श्रेष्ठ होती है । ]

आचार्यदेव के शिक्षकत्व का जब 50 वर्ष पूरे हो गए ,तब स्वर्ण जयंती (गोल्डन जुबली) के आयोजन पर स्कूल प्रांगण में उनकी संगमरमर की प्रतिमा लगाई गयी थी। इस प्रतिमा के मूर्तिकार उनके ही छात्र श्री कालोशशि बन्दोपाध्याय हैं। संगमरमर पत्थल के उसी टुकड़े से उन्होंने एक नन्दी (बैल/বৃষ/bull) की मूर्ति बना दी थी , जो आचार्यदेव की मातृदेवी द्वारा स्थापित मंदिर में शिव के वाहन के रूप में विद्यमान है। [नंदी को शक्ति-संपन्नता और कर्मठता का प्रतीक माना जाता है। नंदी बैल शिव जी के निवास स्थान कैलाश के द्वारपाल भी माने जाते हैं, और भोलेनाथ के वाहन भी। जिन्हें प्रतीकात्मक रूप से बैल के रूप में शिव मंदिर में प्रतिष्ठित किया जाता है। शैव पंरपरा में नंदी को नंदीनाथ संप्रदाय का मुख्य गुरु माना जाता है।]

आचार्यदेव के साथ उनके छात्रवृन्द के सम्बन्ध की बात सोचते समय कठोपनिषद्- 2.3.1 में कथित-'ऊर्ध्वमूलोऽवाक्साख एशोऽश्वत्थः सनातनः।" का स्मरण हो आता है। [जड़ ऊपर, अर्थात् 'विष्णु' परमहंस श्रीरामकृष्णो अधीति का वह सर्वोच्च स्थान ही इसका मूल है, यह संसार वृक्ष , जो अव्यक्त से लेकर अचल तक फैला हुआ है, इसकी जड़ ऊपर, अर्थात् ब्रह्म में है ।] यहाँ वह वृक्ष जिसका जड़ ऊपर और शाखायें नीचे हैं, भले अश्वस्थ का न होकर शिरीष का है। ['ब्रह्म' वृक्ष रूपी शिरीष का फूल बहुत चमत्कारी होता है! टेसू या पलाश का फूल, हिंदू धर्म में पलाश को भगवान ब्रह्मा, विष्णु और महेश का निवास स्थान माना जाता हैपलाश जितना देखने मेंआकर्षित करता है, उससे अधिक इसके आयुर्वेदिक फायदे हैं] पुराणों की भाषा में कहा जा सकता है कि -

"आजीव्यः सर्वछात्राणां ब्रह्मवृक्षः सनातनः। "

उसी विराट सनातन ब्रह्मवृक्ष का आश्रय लेकर इसका छात्र संगठन (The student body) जीवित है। हमसब उसी शिरीष वृक्ष पर 50 वर्ष पहले खिले शिरीष कुसुम एक एक गुच्छा हैं।

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वृत्ति, प्रवृत्ति और परिणाम: शरीर (पशु या मानव शरीर ?) गुणों के सङ्ग से उत्पन्न होता है।

वृत्ति:-मोक्ष का मार्ग है, वृत्तियों का विवेचन हमारे मन में जो संकल्प -विकल्प होते हैं वो वृत्ति है। प्रत्येक योनि के जीव को ईश्वर के द्वारा भिन्न-भिन्न प्रकार की प्रवृत्तियाँ (tendencies) दी गयी हैं। मात्र मनुष्य ही अपनी प्रवृत्तियों की विवेचना करने में सक्षम है। अन्य सभी योनियों के प्राणी अपनी जन्मजात वृत्तियों (innate instincts) के अनुसार अपना जीवनयापन करते हैं। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और समाज में उसके व्यक्तित्व (personality) की पहचान उसकी प्रवृत्तियों (चरित्र) से होती हैं। जीव के पूर्वजन्मों के कर्मों के फलस्वरूप प्रवृत्ति प्राप्त होती है , और परिवेश (environment) अर्थात परवरिश -लालनपालन ( upbringing and care) के अनुसार जीव की आदतें , स्वभाव , गुण -दोष आदि विकसित होते हैं।

प्रवृत्ति:- उस संकल्प-विकल्प के कारण हम जो क्रिया करते हैं वो प्रवृत्ति। प्रवृत्ति अर्थात संसार को भोगने हेतु जीव का स्वाभाविक गुण होता है , जिसे वृत्तियाँ भी कहते हैं। सत-असत, उचित-अनुचित , शुभ-अशुभ विवेक करके जैसी क्रिया बार -बार करते हैं , वैसी आदत (Habit) बन जाती है। आदत पुरानी होकर पक्की हो जाने पर हमारी प्रवृत्ति (propensity) बन जाती है। प्रवृत्तियों का कुल समाहार ही परिणाम रूपी हमारा अच्छा या बुरा चरित्र (Character) बन जाता है।

परिणाम:- इसके बाद हमारे आचरण में जो हमारी आदतें बनती है जो हमारे व्यवहार में रहता है वह उसका परिणाम; Propensities, प्रवृत्तियाँ- attitude, मनोभाव या वृत्ति, तीन प्रकार की पायी जाती हैं। तामसिक वृत्ति (Tamasic attitude), राजसिक वृत्ति (Rajasic attitude)- और सात्विक वृत्ति।

तमोगुण की वृत्तियां (मनोभाव) हैं – क्रोध (असहिष्णुता), लोभ, मिथ्याभाषण, हिंसा,याचना, पाखंड,श्रम, कलह, शोक, मोह, विषाद, दीनता, निद्रा, आशा, भय और अकर्मण्यता आदि सभी तामसी वृत्तियां कहलाती हैं।

रजोगुण की वृत्तियां हैं – इच्छा, प्रयत्न, घमंड, तृष्णा (असंतोष), अकड़, देवताओं से धन आदि की याचना, भेदबुद्धि, विषयभोग, युद्ध आदि के लिए मदजनित उत्साह, अपने यश में प्रेम, हास्य, पराक्रम और हठपूर्वक उद्योग करना आदि सभी राजसी वृत्तियां कहलाती हैं।

सत्वगुण की वृत्तियां हैं – शम (मन संयम), दम (इंद्रियनिग्रह), तितिक्षा (सहिष्णुता), विवेक, तप, सत्य, दया, स्मृति, संतोष, त्याग, विषयों के प्रति अनिच्छा, श्रद्धा,लज्जा (पाप करने में स्वाभाविक संकोच) आत्मरति, दान, विनय और सरलता आदि यह सात्विक वृत्तियां कही जाती हैं।

परंब्रह्म परमेश्वर को अपने स्वरुप में कभी भी आवरण नहीं होता। अर्थात ईश्वर सदा ही अपने को जानते हुए सृष्टि का कार्य करते हैं। हम जब शरीर से कोई कर्म बार-बार करते हैं -तो रजोगुण से बन्ध जाते हैं। जब काम नहीं करते तब आलस्य और तमोगुण में बँध जाते हैं। अधिकतर मनुष्य यातो तमोगुणी रहता है या रजोगुणी। सत्वगुण प्रायः रहता ही नहीं है। और यदि रहता भी हैं सुख में -नाम यश में , दूसरों से श्रेष्ठ होने के अहं में बन्ध जाते हैं। शुद्ध सत्वगुण नहीं रहता। शुद्ध सत्वगुण ही समाधि है। यह किसी किसी साधक को कभी कभी उपलब्ध होता है। आत्मबोध के लिए शुद्ध सत्वगुण आवश्यक है।

त्रिगुणातीत अवस्था (गीता 14.20) : तीन गुण और त्रिगुणातीत अवस्था के बारे में परमहंस श्रीरामकृष्णदेव की उक्ति है -" सत्वगुण से पालन, रजोगुण से सृष्टि और तमोगुण से संहार। किन्तु ब्रह्म सत्व, रज और तम इन तीन गुणों से परे है। वहाँ गुण नहीं पहुँच सकते। ... त्रिगुणातीत अवस्था लाभ करने के लिए साधन आवश्यक है। .... इसीलिए उन्होंने कहा है - " वर्णमाला में तीन 'श' के बाद 'ह' है ; अर्थात जो संसार के घात -प्रतिघातों को निर्विकार चित्त से सह सकते हैं, वे ही त्रिगुणातीत हैं। किन्तु त्रिगुणातीत होना बहुत कठिन है। ईश्वरलाभ हुए बिना यह अवस्था नहीं आती। देह (शरीर) गुणों के सङ्ग से उत्पन्न होता है -विवेकी देहधारी आत्मा 'The embodied one' शरीर में रहते हुए भी मुक्त हो जाता है -

गुणान'एतान-अतीत्य त्रीन देही, देह समुद्भवान्

जन्ममृत्युजरादुःखैर्विमुक्तोऽमृतमश्नुते।।

14.20।।

[ गुणान्–एतान्–अतीत्य- त्रीन्– देही- देह- समुद्धवान्। जन्म- मृत्यु- जरा- दुःखै; विमुक्त, अमृतम्- अश्नुते।]

।।14.20।। कोई विरला देहधारी (विवेकी मनुष्य) देह को उत्पन्न करने वाले इन तीनों गुणों का अतिक्रमण करके जन्म, मृत्यु और वृद्धावस्थारूप दुःखों से रहित हुआ अमरता का अनुभव करता है। (-स्वामी रामसुखदास जी)

 प्राकृतिक शक्ति के तीन गुण  शरीर से संबद्ध हैं, आत्मा से नहीं। यहाँ सत्त्वादि गुणों को शरीर की उत्पत्ति का कारण बताया गया है। अतएव कोई देहधारी विवेकी मनुष्य गुणातीत होकर जन्म, मृत्यु, रोग, बुढ़ापे और दुखों से मुक्त हो जाता है तथा अमरता प्राप्त कर लेता है।
वेदान्त की भाषा में आत्मस्वरूप के अज्ञान को ही कारण शरीर (Causal body) कहते हैं जिसका अनुभव हमें अपनी निद्रावस्था में होता हैइन तीनों गुण से भिन्न यह अज्ञान कोई वस्तु नहीं हैइस कारण अवस्था से ये त्रिगुण ही सूक्ष्म शरीर अर्थात् अन्तःकरण की विभिन्न वृत्तियों (चित्त-मन-बुद्धि -अहंकार) और भावनाओं के रूप में व्यक्त होते हैं।
यदि हम गंदे जल का सेवन करते हैं तब हमारा पेट अवश्य खराब होगा। समान रूप से यदि हम तीन गुणों से प्रभावित होते हैं, तब हम उनके परिणामों को भुगतने के लिए बाध्य होते हैं। 'रोग, बुढ़ापा, मृत्यु और भौतिक जगत में बार-बार जन्म लेना' ये चारों सांसारिक जीवन के मुख्य दुःख हैं। 
वेदों में मनुष्यों के लिए कई आचार संहिताएँ, सामाजिक दायित्व, कर्मकाण्ड, और नियम निर्धारित किए गए हैं। निश्चित कर्तव्यों और आचार संहिता को एक साथ मिलाकर कर्म-धर्म या वर्णाश्रम धर्म या शारीरिक धर्म कहा जाता है। ये हमें तमोगुण और रजोगुण से ऊपर सत्वगुण तक उठाने में सहायता करते हैं किन्तु सत्वगुण तक पहुंचना ही पर्याप्त नहीं है क्योंकि यह भी बंधन का कारण है। सत्वगुण की समानता सोने की जंजीरों से बंधे होने से की जा सकती है। हमारा लक्ष्य इससे परे भौतिक जीवन के कारागार से मुक्त होना है।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब हम तीन गुणों से गुणातीत हो जाते हैं तब फिर माया जीव पर हावी नहीं हो सकती और उसे बंधन में नहीं डाल सकती। इस प्रकार से आत्मा जन्म मरण के चक्कर से मुक्ति पाकर अमरता प्राप्त करती है। वास्तव में आत्मा सदैव अमर है। किन्तु भौतिक शरीर के साथ बुद्धि का तादात्म्य , इसे जन्म और मृत्यु के भ्रम जाल में डालकर कष्ट देती है। यह भ्रम आत्मा की सनातन प्रकृति के विरूद्ध है जो इससे मुक्ति चाहती है। इसलिए सांसारिक मोह-माया स्वाभाविक रूप से हमारे आंतरिक अस्तित्व के लिए असुविधाजनक है क्योंकि भीतर से हम सब अमरता का स्वाद चखना चाहते हैं।
प्रबुद्ध आत्माएँ भारत कल्याण, अर्थात मानव कल्याण के लिए भी प्रयास करती हैं। वे ऐसा इसलिए करती है क्योंकि उनका स्वभाव ही दूसरों की सहायता करना होता है| एक ही समय में वे अनुभव करती हैं कि संसार अंततः भगवान (शक्ति -माँ जगदम्बा) के हाथों में है। उन्हें केवल अपनी सामर्थ्य के अनुसार अपने दायित्वों का भली-भांति निर्वहन करना चाहिए और शेष सब भगवान पर छोड़ देना चाहिए। संसार में आकर हमारा प्रथम कर्त्तव्य यह है कि हम स्वयं के बुद्धि को कैसे शुद्ध करें। तब फिर शुद्ध मन -शुद्ध बुद्धि के साथ हम स्वाभाविक रूप से उत्तम और संसार के लिए लाभदायक कार्य करेंगे।

जिस प्रकार किचेन में कार्यकर रहे व्यक्ति को अग्नि की उष्णता और धुंए का कष्ट सहना पड़ता है,  धूप में खड़े व्यक्ति को सूर्य की गर्मी  और चमक को सहन करना पड़ता है। यदि ये दोनों व्यक्ति अपने उन स्थानों से हटकर अन्य शीतल स्थान पर चले जायें, तो उनके कष्टों की निवृत्ति हो जायेगी। इसी प्रकार हम अपनी (M/F) उपाधियों में क्रीड़ा कर रहे तीन गुणों के साथ तादात्म्य करके सांसारिक जीवन के बन्धनों और दुखों को भोग रहे हैं इनसे अतीत हो जाने पर इनकी क्रूरता का अन्त हो जाता है। क्योंकि हमारे स्वरुप में -परिपूर्ण सच्चिदानन्द आत्मा में इन सब गुणों का कोई अस्तित्व नहीं है।

विचार के रूप में परिणत ये गुण ही शुभ या अशुभ कर्मों के रूप में व्यक्त होने के लिये स्थूल शरीर (M/F) का रूप ग्रहण करते हैं। प्रत्येक व्यक्ति को अपने विचारों और भावनाओं को प्रगट करने के लिए एक उपयुक्त माध्यम की आवश्यकता होती है। उदाहरणार्थ चित्रकार को एक पट, तूलिका और रंगों की आवश्यकता होती है, तो संगीतज्ञ को वाद्यों की आवश्यकता होती है। चित्रकार को वाद्य और संगीतज्ञ के हाथ में तूलिका देने से दोनों को कोई लाभ नहीं होगा। इसी प्रकार पशु की वृत्तियों वाले जीव को पशु का देह धारण करना मनुष्य शरीर की अपेक्षा अधिक उपयुक्त होगा। यह सब कार्य इन तीन गुणों का ही है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि त्रिगुणों से परे पहुँचा हुआ व्यक्ति सूक्ष्म और कारण शरीरों के दुखों से भी मुक्त हो जाता है

विकार और परिवर्तन जड़ पदार्थ (शरीर और मन) के धर्म हैं। अत पंच भौतिक तत्त्वों से बने हुये सभी स्थूल शरीर विकारों को प्राप्त होते हैं, जिनका क्रम है जन्म, वृद्धि, व्याधि, जरा (क्षय) और मृत्यु। इनमें से प्रत्येक विकार- दुखदायक होता है। जन्म में पीड़ा है, वृद्धि व्यथित करने वाली है, वृद्धावस्था विचलित करने वाली है। व्याधि अत्यन्त क्रूर है तो मृत्यु अत्यन्त भयंकर परन्तु ये समस्त दुख देहाभिमानी अज्ञानी जीव को ही होते हैं; आत्म स्वरूप में स्थित आत्मज्ञानी (ब्रह्मविद ) को नहीं - क्योंकि वह अपने उपाधियों (M/F) से परे स्वरूप को पहचान लेता है। सूर्य के प्रकाश में बाढ़, अकाल, युद्ध, महामारी, अन्त्येष्टि, विवाह एवं अन्य सहस्र घटनायें घटित होती रहती हैं; किन्तु सूर्य में इनमें से एक भी घटना का अस्तित्व नहीं है। इसी प्रकार आत्मचैतन्य हमारी उपाधियों को तथा तत्संबंधित अनुभवों को प्रकाशित करता है, परन्तु उसका इन सबके साथ कोई सम्बन्ध नहीं होता। अत आत्मवित् पुरुष इन सभी संघर्षों से मुक्त हो जाता है। और वह अमृतत्त्व को प्राप्त होता है आत्मज्ञान का फल केवल दुख निवृत्ति ही नहीं वरन् परमानन्द प्राप्त भी है

भगवान् के कथन में इसी तथ्य का निर्देश है कि, निद्रावस्था में रोगी व्यक्ति अपनी पीड़ा को भूल जाता है, निराश व्यक्ति अपनी निराशाओं से मुक्त हो जाता है, क्षुधा से व्याकुल पुरुष को क्षुधा का अनुभव नहीं होता, और दुःखी व्यक्ति को अपने दुःख का विस्मरण हो जाता है। परन्तु इससे यह नहीं कहा जा सकता है कि रोगोपशम हो गया। या निराशा निवृत्त हो गयी, या क्षुधा शांत हो गयी और दुःख का स्थायी तौर से शमन हो गया। निद्रा तो वर्तमान दुःख के साथ होने वाली अस्थायी सन्धिमात्र है। जाग्रत अवस्था में आने पर पुन ये सब दुख भी लौटकर आ जाते हैं

परन्तु बुद्धत्व की अवस्था या आत्मानुभूति में दुखों की आत्यन्तिक निवृत्ति और परमानन्द की प्राप्ति होती है। इसलिये यहाँ कहा गया है कि अमृतत्त्व अर्थात् मोक्ष की इस स्थिति को इसी जगत् में इसी जीवन में और इसी देह में रहते हुये प्राप्त किया जा सकता है इस पृथ्वी पर ईश्वरीय पुरुष बनने का अनुभव वास्तव में विरला है।

स्वामी रामसुखदास की व्याख्या : यद्यपि विचार-कुशल मनुष्य का (विवेकी या देहधारी का) देह के साथ सम्बन्ध नहीं होता तथापि लोगों की दृष्टि में देहवाला होने से उसको यहाँ देही कहा गया है। देह (पशु देह या मानवदेह) को उत्पन्न करने वाले गुण ही हैं। जिस गुण के साथ मनुष्य अपना सम्बन्ध मान लेता है उसके अनुसार उसको ऊँच-नीच योनियों में जन्म लेना ही पड़ता है।

  विचारकुशल मनुष्य- देहधारी विवेकी मनुष्य इन तीनों गुणों का अतिक्रमण कर जाता है अर्थात् इनके साथ अपना सम्बन्ध नहीं मानता इनके साथ माने हुए सम्बन्ध का - देहाध्यास का त्याग कर देता है। कारण कि उस देहधारी विवेकी मनुष्य यह स्पष्ट विवेक हो जाता है कि सभी गुण परिवर्तनशील हैं उत्पन्न और नष्ट होने वाले हैं और अपना स्वरूप (ब्रह्मत्व) गुणों से कभी लिप्त हुआ नहीं हो सकता भी नहीं।

ध्यान देने की बात है कि जिस प्रकृति से ये गुण उत्पन्न होते हैं उस प्रकृति के साथ भी स्वयं का किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है फिर गुणोंके साथ तो उसका सम्बन्ध हो ही कैसे सकता है ?गुणों की वृत्तियाँ कभी सात्त्विकी कभी राजसी और कभी तामसी हो जाती हैं परन्तु स्वयंमें कभी सात्त्विकपना राजसपना और तामसपना आता ही नहीं। देहधारी विवेकी मनुष्य का स्वयं (स्वरूप) तो स्वतः असङ्ग रहता है। इस असङ्ग स्वरूप का कभी जन्म नहीं होता। जब जन्म नहीं होता, तो मृत्यु भी नहीं होती। कारण कि जिसका जन्म होता है उसी की मृत्यु होती है तथा उसी की वृद्धावस्था भी होती है। गुणों का सङ्ग रहनेसे ही जन्म मृत्यु और वृद्धावस्था के दुःखों का अनुभव होता है। जो गुणों से सर्वथा निर्लिप्तता का अनुभव कर लेता है, उसको स्वतःसिद्ध अमरता का अनुभव हो जाता है।

देह से तादात्म्य (एकता) मानने से ही मनुष्य अपने को मरने वाला समझता है। देह के सम्बन्ध से होने वाले सम्पूर्ण दुःखों में सबसे बड़ा दुःख मृत्यु ही माना गया है। मनुष्य स्वरूप से है तो अमर ही किन्तु भोग और संग्रह में आसक्त होने से और प्रतिक्षण नष्ट होने वाले शरीर को अमर रखने की इच्छा से ही इसको अमरता का अनुभव नहीं होता। विवेकी मनुष्य देह से तादात्म्य नष्ट होने पर अमरता का अनुभव करता है।

बाल्य और युवा-अवस्था में मनुष्य अधिक दुःखका अनुभव नहीं करता क्योंकि इन दोनों ही अवस्थाओं में शरीर में बल रहता है। परन्तु वृद्धावस्था में शरीर में बल न रहने से मनुष्य अधिक दुःख का अनुभव करता है। ऐसे ही जब मनुष्य के प्राण छूटते हैं तब वह भयंकर दुःख का अनुभव करता है। परन्तु जो तीनों गुणों का अतिक्रमण कर जाता है वह सदा के लिये जन्म मृत्यु और वृद्धावस्था के दुःखों से मुक्त हो जाता है। इस मनुष्य शरीर में रहते हुए जिसको बोध हो जाता है उसका फिर जन्म होने का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता। हाँ उसके अपने कहलाने वाले शरीर के रहते हुए वृद्धावस्था और मृत्यु तो आयेगी ही पर उसको वृद्धावस्था और मृत्यु का दुःख नहीं होगा। वर्तमान में शरीर के साथ स्वयं की एकता मानने से ही पुनर्जन्म होता है और शरीर में होनेवाले जरा व्याधि आदि के दुःखों को जीव अपने में मान लेता है

शरीर गुणों के सङ्ग से उत्पन्न होता है। देह के उत्पादक गुणों से रहित होने के कारण गुणातीत महापुरुष (विवेकी या देहधारी मनुष्य ) देह के सम्बन्ध से होने वाले सभी दुःखों से मुक्त हो जाता है।अतः प्रत्येक मनुष्य को मृत्यु से पहले पहले अपने गुणातीत स्वरूप का अनुभव कर लेना चाहिये। गुणातीत होने से जरा व्याधि मृत्यु आदि सब प्रकार के दुःखों से मुक्ति हो जाती है और मनुष्य अमरता का अनुभव कर लेता है। फिर उसका पुनर्जन्म होता ही नहीं

कैर्लिंगैस्त्रीन्गुणानेतानतीतो भवति प्रभो।

किमाचारः कथं चैतांस्त्रीन्गुणानतिवर्तते।।14.21।।

।।14.21।। (देहधारी -विवेकी मनुष्य-The Embodied one ?) जीवित अवस्था में ही गुणों को अतिक्रम करके अमृत का अनुभव करता है ! इस प्रश्नबीज को पाकर- अर्थात प्रश्न के कारण को पाकर, अर्जुन बोला - हे प्रभो इन पूर्ववर्णित तीनों गुणों से अतीत -- पार हुआ पुरुष किन-किन लक्षणों से युक्त होता है और वह कैसे आचरण वाला होता है अर्थात् उसके आचरण कैसे होते हैं तथा किस किस उपाय से मनुष्य इन तीनों गुणों से अतीत हो सकता है

त्रिगुण के कार्य प्रकाश ,आनन्द , प्रवृत्ति और मोह ये क्रमश सत्त्व रज और तमोगुण के कार्य हैं। सत्त्वगुण का कार्य है प्रकाश रजोगुण का कार्य प्रवृत्ति और तमोगुण का कार्य मोह ये जब प्राप्त होते हैं अर्थात् भली प्रकार विषयभाव से उपलब्ध होते है तब वह इनसे द्वेष नहीं किया करता। जो उपाधियां (M/F) का देहाध्यास तीन गुणों का कार्य हैं केवल उन पर ही त्रिगुणों का प्रभाव पड़ सकता है उनसे परे आत्मतत्त्व पर नहीं। अत आत्मज्ञान होने के पश्चात् भी ये उपाधियां (मैं बड़ा भाई हूँ -पति हूँ, पत्नी हूँ !?) पूर्ववत् व्यवहार करती रहती हैं और उनपर गुणों का प्रभाव भी पड़ सकता है। परन्तु ज्ञानी पुरुष (देहधारी विवेकी -नामरूप से अनासक्त व्यक्ति ?) उनसे किसी प्रकार से तादात्म्य नहीं करता। समस्त परिस्थितियों में सदैव समत्व भाव में स्थित रहना अनुभवी पुरुष का प्रमुख लक्षण है और यही पूर्णत्व का सार है।

यहाँ त्रिगुणों का निर्देश उनके कार्यों के द्वारा किया गया है। सामान्यतः अज्ञानी मनुष्य के मन में जब रजोगुण का कार्य विक्षेप उत्पन्न होता है, तब वह पथभ्रष्ट हो जाता है -क्योंकि विक्षेप का मतलब है अपने नियमित रास्ते से भटक जाना। अथवा तमोगुण के कार्य निद्रा, प्रमाद आदि प्रभावशाली होते हैं, तब वह उनसे द्वेष करता है। और सत्त्वगुण के कार्य ज्ञान (प्रकाश, आनन्द) सुख और शान्ति के होने पर वह उनसे प्रीति -राग रखता है। यदि यह सत्त्वगुण भी निवृत्त हो जाय (छूट जाए) तो वह उसकी इच्छा करके (ज्ञान सुख और शान्ति की इच्छा करके) उसके लिये लालायित रहता है। इन सबका कारण त्रिगुणों के साथ अविद्यामूलक तादात्म्य है।

ज्ञानी (देहधारी विवेकी) की स्थिति अज्ञानी से (देहाध्यास के भ्रम में फसे जीव से) सर्वथा भिन्न होती है। वह जानता है कि त्रिगुणों का साक्षी आत्मा उन गुणों तथा उनके कार्यों से सदैव असंग-असंस्पृष्ट रहता है। अतः वह रज और तम के प्रवृत्त होने पर न उनसे द्वेष रखता है और न सत्त्वगुण के प्रवृत्त होने की कामना। उसकी सुख-शान्ति इन गुणों की प्रवृत्ति अथवा निवृत्ति पर निर्भर नहीं करती।

किसी लखपति धनी व्यक्ति को संयोगवशात् 10 रूपये का सिक्का मिलने या न मिलने से कोई अन्तर नहीं पड़ता। ऐसा हो सकता है कि कभी वह नीचे झुककर उस सिक्के को उठा ले किन्तु उसे वह हर्षातिरेक नहीं होगा जो एक दरिद्र व्यक्ति को समान परिस्थिति में होता होगा। इस प्रकार समस्त उपाधियों के तादात्म्य (M/F देह से तादात्म्य) को त्यागकर आत्मानुभूति में रमा मुक्त या त्रिगुणातीत देहधारी पुरुष ही (जीवनमुक्त शिक्षक,नेता, पैगम्बर) कहलाता है। संसार के दुख उसे कदापि विचलित नहीं कर सकते।

उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न विचाल्यते।
गुणा वर्तन्त इत्येव योऽवतिष्ठति नेङ्गते।।14.23।।

।।14.23।। अब भगवान श्रीकृष्ण गुणातीत पुरुष किस प्रकार के आचरण वाला होता है? इस प्रश्न का उत्तर देते हैं --जो उदासीन के समान आसीन होकर गुणों के द्वारा विचलित नहीं किया जा सकता और "गुण ही व्यवहार करते हैं" ऐसा जानकर स्थित रहता है और उस स्थिति से विचलित नहीं होता।।

मनुष्य की संस्कृति (विनम्र व्यवहार और सौम्य चेहरा) एक मिथ्या मुखौटा भी हो सकती है। जब तक पर्याप्त रूप से प्रलोभित करने वाली परिस्थितियां हमारे समक्ष उपस्थित नहीं होती तब तक हममें से बहुत से लोग ईश्वर के समान व्यवहार कर सकते हैं। मनुष्य के हाथ में जब तक सत्ता नहीं आती, बड़ा पद नहीं मिलता तब तक हो सकता है कि वह क्रूर न हो। वह जब तक दरिद्री है तब तक शान्त जीवन व्यतीत करता हो और प्रलोभनों के अभाव में वह भ्रष्टाचार से ऊपर हो। लेकिन भ्र्ष्ट व्यक्ति -कुर्सी पर बैठते ही भ्रष्टाचार में लिप्त हो ही जाता है। इसी प्रकार अनेक ऐसे सद्गुण जिनसे अनेक व्यक्तियों को हम सम्पन्न समझते हैं वे सब केवल कृत्रिम सौन्दर्य के ही होते हैं। उनका वास्तविक हीन स्वरूप उस मुखौटे से छिपा रहता है। सम्भावित दुष्ट पुरुष -नामयश पाने के लिये दानी होने सद्गुणों के कृत्रिम परिधानों को धारण करके जगत् में विचरण करते रहते हैं। इसलिए आत्मज्ञानी पुरुष की वास्तविक परीक्षा या पहचान जंगलों या गिरिकन्दराओं में नहीं वरन् बीच बाजार में, जनक जैसा राजपाट चलाते समय ही हो सकती है , जहाँ वह जगत् की दुष्टताओं से, अपने करीबी नाते-रिश्तों के घात -प्रतिघातों से जब उसे पीड़ित किया जाता है। तब उसकी सहन-शक्ति की परीक्षा हिन्दी वर्णाक्षर - के तीन 'श' के बाद 'ह' से होती है !

ईसा मसीह इतने महान् कभी नहीं थे जितना वे सूली पर चढ़ाये जाने के समय हुए, जगत् के द्वारा कुचले जाने पर ही हमारा वास्तविक स्वभाव प्रगट होता है। घर्षण से ही चन्दन की सुगन्ध प्रगट होती है। उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष भी,साक्षी भाव से या उदासीन के समान आसीन हुआ गुणों के द्वारा विचलित नहीं होता है। जगत् के सभी शुभ- अशुभ और उपेक्ष्य अनुभवों में वह साक्षी भाव से तटस्थ या उदासीन के समान -सत्य (ब्रह्म रूपी पर्दा) के समान रहता है। क्योंकि वह जानता है कि यह सब सास-बहु सीरियल , या सम्पत्ति के लिए भाइयों में झगड़ा लगवाने वाले -हितमित्र का उकसावा शोले पिक्चर की हिंसा जैसा 'मन का खेल' मात्र है। सिनेमा हॉल में दर्शाये जा रहे सिनेमा के सुखान्त अथवा दुखान्त दृश्यों से हम विचलित नहीं होते। क्योंकि हम जानते हैं कि यह शोले फिल्म गब्बर सिंह और ठाकुर का खेल जैसा हमारे मनोरंजन के लिये प्रस्तुत किया जा रहा है।

इसका अर्थ यह भी नहीं समझना चाहिये कि ज्ञानी पुरुष जगत् की घटनाओं से किसी भी प्रकार का सम्बन्ध ही नहीं रखता । व्यासजी अत्यन्त सावधानीपूर्वक शब्दों को चुनते हैं। वे कहते हैं कि -उदासीनवत् आसीनः यानि साक्षी भाव में अवस्थित योगी (उदासीन) को गुणों के द्वारा विवेकज -ज्ञान की स्थिति से विचलित नहीं किया जा सकता। इसी को स्पष्ट करते हैं कि कार्य-करण और विषयों के आकार में परिणत हुए गुण ही एक में एक बर्त रहे हैं -- जो ऐसा समझकर स्थित रहता है चलायमान नहीं होता अर्थात् अविचलभाव से स्वरूप में ही स्थित रहता है।

'उदासीनवत् आसीन' यानि ज्ञानी पुरुष को देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो वह उदासीन हो , किन्तु देहधारी विवेकी मनुष्य पागल हाथी और महावत दोनों में नारायण को देखकर आवश्यक्तानुसार व्यवहार करते हैं। इसका अभिप्राय यह हुआ कि वह अपने जीवन में तथा बाह्य जगत् में होने वाली घटनाओं से विक्षुब्ध या उत्तेजित नहीं हो जाता। वह भलीभाँति जानता है कि उसके अन्तकरण में होने वाले ये निरन्तर परिवर्तन केवल गुणों के ही हैं और फिर बाह्य जगत् का अनुभव भी मनस्थिति के अनुसार- या ज्ञानमयी दृष्टि के अनुसार निरंतर परिवर्तित होता रहता है। सम्यक्दर्शी पुरुष - साक्षी आत्मा अपने आन्तरिक तथा बाह्य जगत् में होने वाले परिवर्तनों की प्रक्रिया को जानकर उनसे अविचलित रहता है। इन गुणों की क्रीड़ा देखने के लिये स्वयं साक्षी बनकर रहना होता है। अपने आत्मस्वरूप में स्थित रहकर वह गुणों की अन्तर्बाह्य क्रीड़ा को देखते हुये उसका आनन्द उठाता है। गली में हो रहे लड़ाईझगड़े को ऊपर छज्जे पर से देखने वाला व्यक्ति उस लड़ाई से प्रभावित नहीं होता है। उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष को भी गुणों के द्वारा अपनी समत्व की स्थिति से विचलित नहीं किया जा सकता है।

समदुःखसुखः स्वस्थः समलोष्टाश्मकाञ्चनः।

तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुतिः।।14.24।।

।।14.24।। जो देहधारी स्वस्थ यानि
स्वरूप में स्थित रहता है ( स्वस्थः standing in his own Self), सुख-दु:ख में समान रहता है तथा मिट्टी, पत्थर और स्वर्ण में समदृष्टि रखता है; ऐसा वीर पुरुष प्रिय और अप्रिय को तथा निन्दा और आत्मस्तुति को तुल्य समझता है।।

आत्मज्ञानी पुरुष का जगत् के साथ क्या सम्बन्ध होता है ?.... यह एक ऐसा प्रश्न है , जैसे कोई पूछे जाग्रत पुरुष का अपने स्वप्नजगत् से क्या सम्बन्ध होता है ? सिनेमा के पर्दे पर दिखने वाले चोर -डकैत से सिनेमा देख रहे वास्तविक इसंपेक्टर का क्या सम्बन्ध/कर्तव्य है ? त्रिगुणों के बन्धनों से मुक्त पुरुष जगत् की अनात्म वस्तुओं के साथ के अविद्याजनित अहं और मम भाव को सर्वथा त्याग देता हैउस वास्तविक दैवी जाग्रति की अवस्था में निम्न स्तर के अनुभव इस जगत् के सुख और दुःख , प्रिय और अप्रिय तथा निन्दा और स्तुति का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है। समस्त अनुभवों में वह सम असंग साक्षी बनकर रहता है

इन्द्रियों के द्वारा बाह्य जगत् के सम्पर्क में आकर,पूर्वकाल में अर्जित किये हुये समान अनुभवों की तुलना में उसका मूल्यांकन करना और तत्पश्चात् उसे सुख या दुख के रूप में अनुभव करना यह हमारे व्यष्टि मन की युक्ति हैयदि सुख या दुःख बाह्य जगत् की वस्तुओं में ही होता तो सभी व्यक्तियों का अनुभव एक समान होता जैसे सूर्य के प्रकाश का सबका अनुभव एक समान है, क्योंकि प्रकाश सूर्य का धर्म है। परन्तु विषयों के सम्बन्ध में यह बात नहीं देखी जाती। कोई विषय (जैसे बैंक्वेट हॉल में सेठ के द्वारा आयोजित TV वाली भागवत कथा) किसी एक व्यक्ति को सुख-दायक प्रतीत होता है तो अन्य व्यक्ति को दुःखदायक। इससे सिद्ध होता है कि हमारे सुखदुख अपने मन की कल्पना मात्र हैं वस्तुस्थिति नहीं। आत्मज्ञानी पुरुष मन और बुद्धि के उपनेत्रों से जगत् को नहीं देखता- बल्कि दृष्टि को ज्ञानमयी बनाकर जगत को ब्रह्मममय देखता है। और इसलिये संसारी पुरुषो द्वारा कहे जाने वाले सुख और दुःख में वह समान रहता है।

>>>समलोष्टाश्मकाञ्चन : आत्मज्ञानी पुरुष वह लोष्ट (मिट्टी) अश्म (पाषाण) और काञ्चन (स्वर्ण) इन सब को समदृष्टि से देखता है। संसारी लोगों की रूचि वस्तुओं का परिग्रह करने में अत्यधिक होती है। लोग स्वर्ण, हीरे, मोती आदि बहुमूल्य वस्तुओं को बैंक के लॉकर में रखना चाहते हैं। किन्तु सामान्य मिट्टी, पाषाण आदि की उपेक्षा करते हैं। परन्तु जिसे परमार्थ वस्तु की उपलब्धि हो गई है वह ज्ञानी पुरुष मिट्टी, पाषाण, स्वर्ण इन सबको एक समान ही देखता है। क्योंकि पारमार्थिक सत्य की दृष्टि से ये सब वस्तुयें मिथ्या ही हैं। वस्तुत उनमें कोई भी मूल्यवान नहीं है। बाल्यावस्था में छोटे बालक मयूरपंख, कौड़ी, संगमर्मर के टुकड़े, टूटी चूड़ियां, पुरानी डाक टिकटें आदि वस्तुओं का संग्रह करते हैं और उनके लिये वह एक बहुमूल्य कोष के समान होता है। परन्तु युवावस्था के प्राप्त होने पर उस कोष का कोई महत्त्व नहीं रह जाता। वे उसे अपने छोटे भाई को दे देते हैं तो वह उस धरोहर को पाकर अत्यन्त प्रसन्न हो जाता है। इसी प्रकार जीवभाव में स्थित अज्ञानी पुरुष अपने को M/F मानने वाला व्यक्ति असंख्य वस्तुओं का संग्रह करना चाहता है जो ज्ञानी की दृष्टि में बच्चों का एक खेल मात्र है।

तुल्यप्रियाप्रिय यदि हम अनेक व्यक्तियों के साथ के अपने सम्बन्धों पर विचार करें तो यह ज्ञात होगा कि हमें अपने समस्वभाव का व्यक्ति प्रिय प्रतीत होगा और प्रतिकूल स्वभाव का व्यक्ति अप्रिययही बात वस्तुओं और परिस्थितियों के सम्बन्ध में भी सत्य है। यह प्रिय और अप्रिय का अनुभव मन के स्तर पर रहने वाले लोगों के लिये ही है। मन से परे आत्मस्वरूप में स्थित हुये ज्ञानी पुरुष के लिये नहीं। जगत् में सामान्य दृष्टि से किन्हीं वस्तुओं और घटनाओं को प्रिय या अप्रिय समझा जाता है। ज्ञानी पुरुष के लिये वे सब तुल्य हैं क्योंकि वह समान्य जनों के मापदण्ड से जगत् की ओर नहीं देखता है।

तुल्यनिन्दात्मसंस्तुति स्वप्नावस्था में स्वप्नद्रष्टा पुरुष की कोई निन्दा करते हैं और कोई प्रशंसा। जब वह स्वप्न से जाग जाता है तो क्या वह उस निन्दा और स्तुति को तुल्य नहीं समझेगा। संसारी लोग अपनीअपनी बुद्धि और ज्ञान के अनुसार कभी किसी की निन्दा करते हैं, तो कभी स्तुति। सर्वोच्च आत्मज्ञान में निष्ठा प्राप्त पुरुष के लिये दोनों का ही कोई महत्त्व नहीं होता।

आत्मज्ञानी पुरुष त्रिगुणों की क्रूरताओं से परे- हमेशा स्वस्थ रहता है ! माने आत्मा में स्थित रहता है , जहाँ सत्त्वगुण का रोमांचक सुख नहीं है न रजोगुण का कोलाहल है और न ही तमोगुण की थकान है। वह सच्चिदानन्द स्वरूप है। समत्व की यह अवस्था सामान्य मनुष्य को पूर्णतया मृत्यु ही प्रतीत होगी। और निसन्देह यह वास्तविकता भी है, क्योंकि यह परिच्छिन्न अहंकार (देहाध्यास) की मृत्यु है जो सांसारिक अनुभवों का भोक्ता है। उपाधियुक्त आत्मा ही जीवरूप में प्रतीत होता है जो सदैव विक्षुब्ध मन की प्रचण्ड चंचल वृत्तियों पर समुद्री सतह पर बहते हुये काष्ठ खण्ड के समान व्यवहार करता है। यह दुःखी जीव (स्वयं M/F मानने वाला व्यक्ति) प्रेम और घृणा, राग और द्वेष के तूफानों से सदैव विचलित हुआ असंख्य विक्षेपों और दुखों को भोगता रहता है।

जबकि देहधारी विवेकी मनुष्य तृष्णा और आसक्ति के इस दुर्व्यवस्थित क्षेत्र से स्वयं को विलग कर कर्ता होकर भी अपने को कर्ता नहीं समझता - और स्वस्थ रहता है - इस तरह साक्षी स्वरुप में स्थित रहना ही मुक्ति है

मान और अपमान में सम रहना ज्ञानी पुरुष का लक्षण है। अपने दिव्य स्वरूप में दृढ़ निष्ठा प्राप्त किया हुआ पुरुष जीवन से भयभीत नहीं होता। क्योंकि जगत् की ओर देखने का उसका दृष्टिकोण अज्ञानियों से सर्वथा भिन्न होता है। जीवन का अहंकार केन्द्रित मूल्यांकन हमें मान और अपमान को क्रमश उपादेय (स्वीकार्य) और हेय (त्याज्य) मानने को बाध्य करता है।

जो देहधारी पुरुष अहंकार के स्तर से ऊंचा उठ गया है उसे दोनों ही समान हैं कांटो के मुकुट का उतना ही स्वागत है जितना गुलाब के फूलों के मुकुट का। वैसे ही आत्मैकत्व ज्ञान प्राप्त पुरुष भी किसी से मित्रता या शत्रुता नहीं रखता। तथापि अन्य लोग उससे अवश्य ही मित्र या शत्रु भाव रख सकते हैं, किन्तु वह दोनों के प्रति समान भाव से रहता है। आत्मानुभव की दृष्टि से ज्ञानी पुरुष जानता है वे सब मैं ही हूँ।

सर्वारम्भ परित्यागी आरंभ का अर्थ है कर्म। इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि त्रिगुणातीत पुरुष क्रियाशून्य हो जाता है। इसका अभिप्राय यह है कि उसे अपने कर्मों में न कर्तृत्व का अभिमान होता है और न स्वार्थ का। आरम्भ शब्द में वे सब कर्म समाविष्ट हैं जो अनेक वस्तुओं के अर्जन और संग्रह करने तथा उनपर अपना स्वामित्य स्थापित करने के लिये अहंकार और स्वार्थ से प्रेरित होते हैं। अज्ञानी जीव के लिये ये कर्म स्वाभाविर्क हैं।

अहंकार रहित आत्मज्ञानी पुरुष ईश्वर से अनुप्राणित होकर ईश्वरीय पुरुष के रूप में इस जगत् में कल्याणार्थ कार्य करता है। [SV से अनुप्राणित होकर - 'T' का दास बनकर सतयुग स्थापन का कार्य करता है।] उपर्युक्त लक्षणों से पुरुष गुणातीत कहा जाता है। एक बार आत्मज्ञान में निष्ठा प्राप्त कर लेने पर चरित्र के 24 गुण उसके स्वाभाविक लक्षण बन जायेंगे जो स्वसंवेद्य होते हैं।

अर्जुन का तीसरा प्रश्न था कि - किस प्रकार वह तीनों गुणों से अतीत होता है इसका उत्तर देते हुये भगवान् कहते हैं।

मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते।
स गुणान्समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते।।14.26।।

।।14.26।। जो पुरुष अव्यभिचारी भक्तियोग के द्वारा मेरी सेवा अर्थात् उपासना करता है, वह इन तीनों गुणों के अतीत होकर ब्रह्म बनने के लिये योग्य हो जाता है।।

यह सत्य है कि अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण (परमात्मा) का अखण्ड चिन्तन एक समान निष्ठा एवं प्रखरता के साथ संभव नहीं होता है। जिस स्थिति में आज हम अपने को पाते हैं उसमें यह सार्मथ्य नहीं है कि मन को दीर्घकाल तक ध्यानाभ्यास में स्थिर कर सकें। साधकों की इस अक्षमता को जानते हुये भगवान् एक उपाय बताते हैं- जिसके द्वारा हम दीर्घकाल तक ईश्वर का स्मरण बनाये रख सकते हैं। और वह उपाय है सेवा। ईश्वरार्पण की भावना से किए गए सेवा कर्म ईश्वर की पूजा (यज्ञ) बन जाते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि केवल मूर्तिपूजा, या भजन ही पर्याप्त नहीं है। गीताचार्य की अपने भक्तों से यह अपेक्षा है कि वे अपने धर्म को केवल पूजा के कमरे या मन्दिरों में ही सीमित न रखें। उन्हें चाहिये कि वे अपने दैनिक जीवन कार्य क्षेत्र और लोगों के साथ व्यवहार में भी धर्म का अनुसरण करें

जो अव्यभिचारी भक्तियोग से मेरी सेवा करता है - अर्थात 'Be and Make' का प्रचार प्रसार -करता है निष्काम करने से उसकी चित्त शुद्धि हो जाती है !] क्योंकि हमारा सम्पूर्ण स्वभाव हमारे विचारों से पोषित होता है। प्रिय वस्तु (स्वामी विवेकानन्द के गुरु ) में हमारा मन सहजता से रमता है-विचार तथा मन यह नियम है। ईश्वर (परमहंस ) से परम प्रीति भक्ति कहलाती है। इसलिये एकाग्र चित्त से आत्मा के अनन्तस्वरूप का चिन्तन करने से परिच्छिन्न नश्वर अहंकार की समाप्ति और स्वस्वरूप में स्थिति हो जाती है।

अखण्ड ईश्वर स्मरण तथा सेवा-साधना मन के विक्षेपों को दूर करके उसे ध्यान की सूक्ष्मतर साधना के योग्य बना देती है। तमस और रजस की मात्रा घटती जाती है और उसी अनुपात में सत्त्वगुण प्रवृद्ध होता जाता है। ऐसा सत्त्वगुण प्रधान साधक ध्यान की साधना के योग्य बन जाता है। ऐसे साधक से आत्मानुभूति दूर नहीं रहती।उत्तम अधिकारी ब्रह्मस्वरूप का अनुभव कर स्वयं ब्रह्म बन जाता है। जैसे स्वप्नद्रष्टा जागने पर स्वयं ही जाग्रत पुरुष बनता है। यह साधक स्वयं ब्रह्म कैसे बनता बनता है सुनो-

ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाऽहममृतस्याव्ययस्य च। शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च।।14.27।। ।।14.27।। क्योंकि मैं अमृत, अव्यय, ब्रह्म, शाश्वत धर्म और ऐकान्तिक अर्थात् पारमार्थिक सुख की प्रतिष्ठा हूँ।।

भक्तियोग तथा उसके परम लक्ष्य का वर्णन करते हुये भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा था तत्पश्चात् तुम मुझमें ही निवास करोगे। ईश्वर के प्रति अपने प्रेम से प्रेरणा पाकर भक्त अपने भिन्न व्यक्तित्व को विस्मृत करके अपने ध्येय परमात्मा के साथ लीन हो जाता है। पूर्व के श्लोक में भगवान् ने कहा था कि अव्यभिचारी भक्तियोग से उनकी सेवा करने वाला साधक अनात्म उपाधियों के साथ के अपने तादात्म्य से शनै शनै मुक्त हो जाता है

जिस मात्रा में अहंकार समाप्त होता है उसी मात्रा में अन्तर्निहित दिव्यता अभिव्यक्त होती है। जैसे जैसे निद्रा का आवेश बढ़ता जाता है वैसे-वैसे मनुष्य जाग्रत अवस्था से दूर होता हुआ निद्रा की शान्त स्थिति में लीन हाेता जाता हैअनुभव के एक स्तर को त्यागने का अर्थ ही दूसरे अनुभव में प्रवेश करना है। कोलकाता से पश्चिम दिशा में हटना -बनारस के निकट पहुंचना।

घटाकाश ही महाकाश है - मैं ब्रह्म की प्रतिष्ठा हूँ : प्रतिष्ठा का अर्थ है जिसमें वस्तु की स्थिति होती है ; क्योंकि अमृत और अव्यय ब्रह्म की प्रतिष्ठा मैं हूँ अत मैं प्रत्यगात्मा हूँ। यह प्रत्यागात्मा ही परमात्मा अर्थात् भूत मात्र की आत्मा है, ऐसा सम्यक् ज्ञान से निश्चित किया गया है। जिस शक्ति से ब्रह्म अपने भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये प्रवृत्त होता है, वह शक्ति ब्रह्म ही है जो मैं हूँयहाँ शक्ति (माँ सारदा) शब्द से शक्तिमान ईश्वर (ठाकुर देव) लक्षित है। इसका अभिप्राय यह है कि निर्गुण ब्रह्म ही माया शक्ति के द्वारा ईश्वर के रूप में [अवतार वरिष्ठ परमहंस श्रीरामकृष्ण रूप में ] भक्तों पर अनुग्रह करता है।अथवा ब्रह्म शब्द से सगुण सोपाधिक ब्रह्म कहा गया है जिसकी प्रतिष्ठा निरुपाधिक ब्रह्म मैं ही हूँ। प्रकृति और सोपाधिक ब्रह्म की प्रतिष्ठा निरुपाधिक चैतन्य ब्रह्म है जो इन दोनों को ही प्रकाशित करता है। अत वस्तुत निर्विकल्प, अमृत, अव्यय, अनिर्वचनीय आनन्दस्वरूप ब्रह्म मैं हूँ। अब यह स्पष्ट हो जाता है कि साधन सपन्न उत्तम अधिकारी भगवान् श्रीकृष्ण के कथनानुसार मेरे स्वरूप को प्राप्त होता है। और मैं ब्रह्म हूँ, इसलिये वह साधक ब्रह्म ही बन जाता है।

जो चैतन्य साधक के हृदय में आत्मा के भाव से स्थित है वही सर्वत्र समान रूप से व्याप्त अमृत, अव्यय, नित्य, आनन्दस्वरूप तत्त्व ब्रह्म है। आत्मा की पहिचान ही विश्वाधिष्ठान अनन्त ब्रह्म की अनुभूति है। घट उपाधि की दृष्टि से उससे अवच्छिन्न आकाश (घटाकाश) बाह्य सर्वव्यापी आकाश से भिन्न प्रतीत होता है परन्तु उपाधि के अभाव में वह घटाकाश ही महाकाश बन जाता है। इसी प्रकार एक देह की उपाधि से चैतन्य तत्त्व को आत्मा कहते हैं, किन्तु वस्तुत वही अनन्त ब्रह्म है। यह ब्रह्म अमृत और अव्यय, नित्य और आनन्दस्वरूप है।

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शुकाष्टकम् : त्रिगुणातीत मार्ग पर विचरने वाले महापुरुष के लिये क्या विधि और क्या निषेध है ?

(मन्दाक्रान्ता छन्द ।)

     भेदाभेदो सपदि गलितौ पुण्यपापे विशीर्णे

         मायामोहौ क्षयमुपगतौ नष्टसन्देहवृत्तेः ।

     शब्दातीतं त्रिगुणरहितं प्राप्य तत्त्वावबोधं

         निस्त्रैगुण्ये पथिविचरतः कोविधिः कोनिषेधः ॥ १॥

शब्द से परे और तीनों गुणों से रहित तत्त्व का बोध प्राप्त करने से जिसकी सन्देह वृत्ति नष्ट हो जाती है, सर्व प्रकार के संशय दूर हो जाते हैं, उसमें से भेद अभेद का विचार तत्क्षण जाता रहता है, उसके पुण्य पाप नष्ट हो जाते हैं, माया मोह का क्षय हो जाता है, जो तीनों गुणों से रहित मार्ग में विचरने वाला है, उसको विधि क्या और निषेध क्या, उसके लिये विधि और निषेध दोनों नहीं हैं।

यद्वात्मानं सकलवपुषामेकमन्तर्बहिस्थं

         द्रष्ट्वा पूर्णं स्वमिवसततं सर्वभाण्डस्थमेकम् ।

     नान्यत्कार्यं किमपि च ततः कारणाद् भिन्नरूप

         निस्त्रैगुण्ये पथिविचरतः कोविधिः कोनिषेधः ॥ २॥

जिसने सब शरीरों में भीतर और बाहर स्थित, अपने ही समान सदा सब जगत् रूपी भाण्ड में स्थित, एक, पूर्ण आत्मा को देख लिया है, उसके लिये उस परमात्मा रूपी कारण के सिवाय दूसरा कार्य कुछ भी नहीं है । जो तीनों गुणों से रहित मार्ग में विचरने वाला है, उसके लिये विधि क्या और निषेध क्या -- दोनों ही नहीं हैं ।  

हेम्नः कार्यं हुतवहगतं हेममेवेति यद्वत्

         क्षीरे क्षीरं समरसतया तोयमेवाम्बु मध्ये ।

     एवं सर्वं समरसतया त्वम्पदं तत्पदार्थे

         निस्त्रैगुण्ये पथिविचरतः कोविधिः कोनिषेधः ॥ ३।

जैसे सुवर्ण की बनी हुई चीज अग्नि मे डालने से सुवर्ण ही हो जाती है।  जैसे दूध दूध में डालने से एक रस होने से दूध ही हो जाता है।  जैसे जल जल मे डालने से जल ही हो जाता है। इसी प्रकार सब त्वम्पद--जीव तत्पदार्थ--ईश्वर-ब्रह्म में समान रसत्व के कारण ब्रह्म ही होता है । जो तीनों गुणों से रहित मार्ग में विचरने वाला है, उसके लिये विधि क्या और निषेध क्या---दोनों ही नहीं हैं । 

यस्मिन्विश्वं सकलभुवनं सामरस्यैकभूतं

         उर्वीत्यापोऽनलमनिलखं जीवमेवङ्क्रमेण ।

     यत्क्षाराब्धौ समरसतया सैन्धवैकत्वभूतं

         निस्त्रैगुण्ये पथिविचरतः कोविधिः कोनिषेधः ॥ ४॥

जैसे समुद्र खारी है, ऐसे ही नमक भी खारी है, इसलिये खारीपन दोनों में समान होने से नमक समुद्र रूप ही है।  इसी प्रकार इस (ब्रह्म) में सब भुवन तथा पृथिवी, जल, वायु,अग्नि और आकाश तथा जीव एक रसत्व के कारण एक ब्रह्म ही है । जो तीनों गुणों से रहित मार्ग मे विचरने वाला है उसको विधि क्या और निषेध क्या - कोई नही । 

     यद्वन्नद्योदधिसमरसौ सागरत्वं ह्यवाप्तौ

         तद्वज्जीवालयपरिगतौ सामरस्यैक भूताः ।

     भेदातीतं परिलयगतं सच्चिदानन्दरूपं

         निस्त्रैगुण्ये पथिविचरतः कोविधिः कोनिषेधः ॥ ५॥

जैसे नदी समुद्र में मिल कर एक रसत्व के कारण समुद्र रूप हो जाती है, वैसे ही देह मे रहा हुआ जीव एक रसत्व के कारण एक परमात्मा ही है।  इस प्रकार भेद से रहित सर्वान्तर्यामी होने के कारण केवल एक सच्चिदानन्द रूप ही है । जो तीनोगुणों से रहित मार्ग में विचरने वाला है, उसके लिये विधि क्या और निषेध क्या - दोनों ही नहीं हैं । 

 द्रष्ट्वावेद्यं परमथपदं स्वात्मबोधस्वरूपं

         बुद्ध्यात्मानं सकलवपुषामेकमन्तर्बहिस्थम् ।

     भूत्वा नित्यं सदुदिततया स्वप्रकाशस्वरूपं

         निस्त्रैगुण्ये पथिविचरतः कोविधिः कोनिषेधः ॥ ६॥

जानने योग्य, परमपद, स्वात्मबोध स्वरूप और सब शरीरों के भीतर बाहर एक ही स्थित आत्मा को देख कर और तत्त्व के उदय होने से स्वप्रकाश स्वरूप होकर जो तीनों गुणों से रहित मार्ग में विचरने वाला है, उसको विधि क्या और निषेध क्या - कोई नहीं है । 

कार्याकार्ये किमपि सततं नैव कर्तृत्वमस्ति

         जीवन्मुक्तस्थितिरवगतो दग्धवस्त्रावभासः ।

     एवं देहे प्रविलयगते तिष्ठमानो वियुक्तो

         निस्नैगुण्ये पथिविचरतः कोविधि कोनिषेधः ॥ ७॥

जिसका कार्य अकार्य में कभी कुछ भी कर्तृत्व नहीं है, जिसने जले हुए कपडों के समान सब सांसारिक वासनाओं को जला कर जीवन्मुक्त स्थिति प्राप्त की है, वह शरीर में रहते हुए भी शरीर रहित के समान है । जो तीनों गुणों से रहित मार्ग में विचरने वाला है, उसको विधि क्या और निपेध क्या -- दोनों ही नहीं है । 

कस्मात्कोहं किमपि च भवान्कोऽयमत्रप्रपञ्चः

         स्वं स्वं वेद्यं गगनसदृशं पूर्णतत्त्वप्रकाशम् ।

     आनन्दाख्यं समरसवने बाह्यमन्तर्विहीने

         निस्त्रैगुण्ये पथिविचरतः कोविधिः कोनिषेधः ॥ ८॥

मैं कौन हूँ ?  मैं क्या हूँ ? आप क्या हैं ? यह प्रपञ्च क्या है ? जो एकरस ब्रह्म रूप वन में भीतर और बाहर के भेद से रहित आकाश के समान आनन्द नामक सर्वव्यापी पूर्ण तत्त्व है, वह ही अपना आप जानने योग्य है, जो तीनों गुणों से रहित मार्ग मे विचरने वाला है, उसको विधि क्या और निषेध क्या -- दोनों में से एक भी नहीं । 

इति शुकाष्टकं स्तोत्रं सम्पूर्णम् । 

समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाई। रबि पावक सुरसरि की नाई।।

[श्रीरामचरितमानस १/६८/०८ ]

परमसिद्धों की स्थिति  तर्कों  से परे होती है , उनकी बुद्धि  कहीं भी लिप्त नहीं होती एवं उनमें अहंकृत भाव भी नहीं होता,  यही कारण है कि  इस स्थिति का महात्मा यदि तीनों लोकों का हत्यारा भी हो तो भी वह किसी का हत्यारा नहीं होता -

यस्य नाहङ्कृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।

हत्वाsपि स इमांल्लोकान् न हन्ति न निबद्ध्यते ।।

[श्रीमद्भगवद्गीता  १८/१७  ]

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 बखनांजी की बाणीउपदेश चेतावनी॥ 

(चौरासी लाख योनियों में सर्वश्रेष्ठ है मनुष्य जन्म रूपी कल्पवृक्ष ।)

गुर सिखयौ ब्यौहार, प्राणी लाहौ लै ।

हरि भजि उतरौ पार, रे प्राणी लाहौ लै ॥टेक॥

येक पलक नहिं पाइये रे, धरती पग धरताँ ।

जुग हटवाड़ौ जाइलौ रे, बार न बीखरताँ ॥

मनिख जमारौ दुलभ तुम्हारौ, बारंबार न होइ ।

रामभजन करि लाहौ लै रे, जिनि जाइ पूंजी खोइ ॥

पलक माहिं पलटै सदा रे, घड़ी घड़ावलि थाइ ।

किसौ भरोसौ काल्हि कौ, आव घटै दिन जाइ ॥

हरि सुमिरीजै सुक्रित कीजै, आनँद प्रेम अघाइ ।

बषनां हरि भजि लाहौ लै ज्यूँ, कलतर मूल न जाइ ॥१२॥

गुर = श्रोत्रिय = अधीतवेद और ब्रह्मनिष्ठ = ब्रह्म की अपरोक्षानुभूतियुक्त । सिखयौ = सिखाया हुआ, बताता हुआ । ब्यौहार = साधनामार्ग । लाहौ = लाभ । धरती पग धरताँ = जब मनुष्य मरने लगता है, तब उसे पलंग से उतार का पृथिवी पर बैठा अथवा सुला देते हैं, यहाँ उसी का संकेत है । हटवाड़ौ = साप्ताहिक बाजार, यहाँ सौवर्षीय जीवन । जुग = जीवन । बीखरताँ = सिमटने में । जमारौ = जीवन, शरीर । जिनि जाइ = मत चला जा । घड़ी घड़ावलि = जीवन रूपी घड़ी के श्वास रूपी घड़ावलि कब थाइ = स्थिर = रुक जायेंगे, पता नहीं । आव = आयु । सुक्रित = दान-पुण्य, परोपकार, अपने कर्मादि । अघाइ =निमग्न । कलतर मूल = चौरासी लाख योनियों में मूल = सर्वश्रेष्ठ है मनुष्य जन्म रूपी कल्पवृक्ष ।

बषनांजी (बखनांजी) का नाम दादूपंथ में “बषनां विरही” है ।  ये केवल विरह के पद ही नहीं बनाते थे , बल्कि इनका जीवन भी परमात्म-अमिलन-जन्य विरह से सराबोर था आत्मानुभूति हो जाने के बाद  भी इनकी प्रकृति नहीं बदली और ये आजन्म विरहिणी जैसे हाल में ही रहे ।

    बषनांजी कहते हैं, मेरे मन के मनोरथों को पूर्ण करने के लिये हे रमैया ! मेरे घर में पधारो ।बषनांजी ने यह उपमा बहुत ही सटीक दी है । कल्पवृक्ष से जो मांगो, वही मिलता है । अच्छा या बुरा । ऐसे ही मनुष्य जन्म से भगवत्प्राप्ति भी हो सकती है और विषयभोगों में लगे रहने से नरकों की भी प्राप्ति होती है । ‘आत्मैव ह्यात्मनौ बंधुरात्मैव रिपुरात्मनः’ ॥गीता ६/५॥

हे प्राणी ! तुझे ब्रहमनिष्ठ और श्रोत्रिय गुरु ने जो साधनमार्ग सिखाया है, उसी का आश्रय लेकर मनुष्य जन्म पाने का लाभ- ईश्वरलाभ प्राप्त कर । हे प्राणी ! हरि का भजन-ध्यान करके जन्म-मरण रूपी संसार-सागर के पार चले जा, अवसर का लाभ ले ।

पृथिवी पर पैर रखते हुए तुझे एक क्षण भी नहीं लगेगा क्योंकि तेरे जीवन रूपी निश्चित किन्तु अज्ञात अवधि वाले बाजार को सिमटने में तनिक भी समय नहीं लगेगा ।

तेरा मनुष्य योनि का जन्म अत्यन्त दुर्लभ है जो बारबार नहीं मिलता । तू रामजी का भजन करके मनुष्य जन्म मिलने के अवसर का लाभ प्राप्त कर ले । इस अमूल्य पूंजी को योंही मत गँवाकर जा ।

एक क्षण में ही सब कुछ पलट जायेगा । (जिन्हें तू अपना-अपना कहता है, वे एक क्षण में ही पराये हो जायेंगे । जैसे ही तू शरीर से निकलेगा, तेरे अपने ही तेरे इस शरीर को एक क्षण भी घर में रखना बर्दाश्त नहीं करेंगे ।) जीवन के श्वास स्थिर हो जायेंगे (तू मर जायेगा अर्थात् शरीर को छोडकर तू चला जायेगा) आयु दिनों दिन घटती जा रही है, कल आयेगा कि नहीं, इसका क्या भरोसा !

अतः हरि का स्मरण ध्यान कर, सुकृत = अच्छे कर्म कर और परमात्मा के प्रेमानन्द में निमग्न हो जा । बषनांजी कहते हैं, हरि का भजन-स्मरण करके मनुष्य जीवन प्राप्त करने का लाभ प्राप्त कर ले ताकि मनुष्य जन्म रूपी कल्पवृक्षात्मक पूंजी व्यर्थ न जा सके ॥१२॥

एक बार एक काजी ने बखनांजी से पूछा - परमात्मा (ईश्वर) ने यह सृष्टि किस समय रची ? इसका बखनांजी ने उत्तर देते हुए कहा - जब चेतना सम्पूर्ण प्रकृति के संपर्क में आती है, तो सत्वगुण बढ़ता है सत्वगुण को आनंद का स्वरूप माना गया है, इसलिए यह सही है कि- "एकोऽहम् बहुस्याम" यह सृष्टि तभी होती है जब आनन्द का आधिक्य होता हे। When consciousness comes in contact with the whole of nature, the Sattva Guna increases. Sattva Guna is considered to be the form of bliss, so it is correct that- “Eko aham bahusyam”. This happens only when there is an excess of bliss.]

बहवो गुरवो लोके शिष्यवित्तपहारकाः

क्वचितु तत्र दृश्यन्ते शिष्यचित्तापहारकाः

जगत में अनेक गुरु शिष्य का वित्त हरण करने वाले होते हैं; परंतु, शिष्य का चित्त हरण करनेवाले गुरु (माखनचोर गुरु - नवनीहरण मुखोपाध्याय जैसा)  शायद ही दिखाई देते हैं ।


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"आन्दुल H.C.E स्कूल-1841" :

इस संस्था का आदर्श वाक्य स्वामी विवेकानन्द की प्रसिद्ध उक्ति पर आधारित है कि - धर्म/शिक्षा/सफलता का रहस्य सिद्धांतों में नहीं, बल्कि व्यवहार में निहित है। अच्छा बनना और अच्छा करना ही धर्म/अर्थात शिक्षा का सार है!"

["धर्म का रहस्य आचरण से (आचार्यदेव के आचरण से) जाना जा सकता है , व्यर्थ के मतवादों से नहीं। भला बनना तथा भलाई करना - इसमें ही समग्र धर्म निहित है। जो केवल 'प्रभु ,प्रभु ' की रट लगाता है, वह नहीं, किन्तु जो उस परम् पिता की इच्छानुसार कार्य करता है।" (अर्थात जो मनुष्य की ईश्वरभाव से सेवा करता है।/ पत्रा 1-58/30 अप्रैल, 1891 को लाला गोविन्द सहाय को लिखित पत्र) 

[इस संसाररूप नरककुण्ड में एक दिन के लिए भी किसी व्यक्ति चित्त में थोड़ा सा आनन्द और शांति प्रदान की जा सके तो उतना ही सत्य है, आजन्म मैं तो यही देख रहा हूँ - बाकी सब कुछ व्यर्थ की कल्पनायें हैं। (पत्रा -2,312-18 फरवरी, 1902 को स्वामी ब्रह्मानन्द को लिखित-रामबाबू की बेटी हाल में विधवा हुई थी विषय पर- पत्र।) ] "      

धर्म (शिक्षा या सफलता) का रहस्य सिद्धांतों में नहीं, बल्कि व्यवहार में निहित है। अच्छा बनना और अच्छा करना - यही संपूर्ण धर्म है - अर्थात यही शिक्षा या सफलता का रहस्य भी है !"

" तुम किसी की सहायता नहीं कर सकते, तुम्हें केवल सेवा का अधिकार है। प्रभु के सन्तान की -यदि भाग्यवान हो तो -स्वयं प्रभु की सेवा करो। यदि ईश्वर के अनुग्रह से उसकी किसी सन्तान की सेवा कर सकोगे तो तुम धन्य हो जाओगे। तुम धन्य हो क्योंकि सेवा करने का अधिकार तुमको मिला है और दूसरों को नहीं मिला। यह सेवा तुम्हारे लिए पूजा तुल्य है। " 

" मैंने इतनी तपस्या करके यही सार समझा है कि जीव -जीव में वे अधिष्ठित हैं ; इसके अतिरिक्त ईश्वर और कुछ भी नहीं है। जो जीवों के प्रति दया करता है , वही व्यक्ति ईश्वर की सेवा कर रहा है। " 

सत्य की कसौटी पर कसा हुआ स्वर्णिम सूत्र :  " जिस किसी वस्तु से आध्यात्मिक , मानसिक या शारीरिक दुर्बलता उत्पन्न हो , उसे पैर की अँगुलियों से भी मत छुओ। -वह सत्य नहीं है ! मनुष्य में जो अनन्त शक्ति (डिविनिटी) अंतर्निहित है - उसकी अभिव्यक्ति धर्म /शिक्षा है। असीम शक्ति का स्प्रिंग अपने को फैला रहा है। ... यही मनुष्य का , धर्म/शिक्षा का  सभ्यता या प्रगति का इतिहास। "  

[साभार https://www.hindisamay.com/content/11832/1/]

हर धर्म में पाया जाने वाला स्वर्णिम सूत्र (The golden formula found in every Religion ):

श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम्।   

आत्मन: प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत।  

“जो तुम नहीं चाहते कि तुम्हारे साथ किया जाए, वह दूसरों के साथ मत करो।”

[जीवन में श्रृंगार , काम- सुख तथा संतान प्रजनन का अनिवार्य और महत्पपूर्ण स्थान है । इसीलिए ऐसे प्रसंगों का उल्लेख होते ही अश्लील है , अश्लील है चिल्लाने लगना अपनी पाखण्डवृत्ति का परिचय देना है। विशेष रूप से तब , जब कि ऐसा शोर मचानेवाले लोग अपने वैयक्तिक जीवन में एकदम धर्मात्मा , जितेन्द्रिय और जीवनमुक्त न हों।  परन्तु ऐसे लोग समाज में सदा रहे हैं और इस बात की भी कोई सम्भावना नहीं है कि कोई ऐसा समय आएगा जब समाज में ऐसे पाखंडियों का एकदम अभाव हो जाए । 

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" जब हम तत्वविज्ञान (metaphysics) का अध्यन करते हैं तो हमें यह ज्ञान होता है कि सम्पूर्ण विश्व एक है। देह, मन और (ह्रदय ) आत्मा अलग अलग नहीं है। एक ही अनेक बन गया है। विश्व एक है, अलग अलग दृष्टिकोणों से देखे जाने के कारण विभिन्न प्रतीत होता है। [अपने को शरीर (M/F) मानने से भोग के सिवा कुछ नजर नहीं आयेगा।] 'मैं शरीर हूँ ', इस भावना से जब तुम अपनी ओर देखते हो, तो 'मैं मन भी हूँ', यह भूल जाते हो। और जब तुम अपने को मनोरूप देखने लगते हो, तो तुम्हें अपने शरीर तत्व की विस्मृति हो जाती है। विद्यमान वस्तु केवल एक है और वह तुम हो। वह तुम्हें या तो जड़ शरीर और मन या आत्मा के रूप में दिख सकती है। जन्म,जीवन, मरण, ये सब भ्रम मात्र हैं। न कोई कभी मरता है और न कोई कभी जन्म लेता है, केवल मनुष्य एक स्थिति से दूसरी स्थिति में चला जाता है।" 

" मनुष्य एक असीम वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं भी नहीं है, लेकिन जिसका केन्द्र एक स्थान में निश्चित है। और परमेश्वर एक ऐसा असीम वृत्त है, जिसकी परिधि कहीं भी नहीं है, परन्तु जिसका केंद्र सर्वत्र है। वह सब हाथों द्वारा काम करता है, सब पैरों द्वारा चलता है, सब शरीरों द्वारा सांस लेता है, सब जीवों में वास करता है, सब मुखों द्वारा बोलता है और सब मस्तिष्क द्वारा विचार करता है। यदि मनुष्य आत्मचेतना को अनंतगुनी कर ले और उसका अनुभव सर्वत्र करे, तो वह ईश्वर-रूप बन सकता है और पूरे विश्व पर अपना अधिकार चला सकता है।  सत्स्वरूप अद्वितीय विश्वचैतन्य (माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट मैं ?) के साथ मानव के सीमाबद्ध चैतन्य का (व्यष्टि अहं ?) अभेदत्वलाभ (Oneness की अनुभूति) ही जीवन का लक्ष्य है। इसलिए चैतन्य का ज्ञान कर लेना परमावश्यक है। ('क्रियात्मक आध्यात्मिकता पर संकेत' (3 /117- 118-119) 

 [There is only one thing, that you are; you can see it either as matter or body — or you can see it as mind or spirit. Birth, life, and death are but old superstitions. None was ever born, none will ever die; one changes one's position — that is all.... Man is an infinite circle whose circumference is nowhere, but the centre is located in one spot; and God is an infinite circle whose circumference is nowhere, but whose centre is everywhere. He works through all hands, sees through all eyes, walks on all feet, breathes through all bodies, lives in all life, speaks through every mouth, and thinks through every brain. Man can become like God and acquire control over the whole universe if he multiplies infinitely his centre of self-consciousness. Consciousness, therefore, is the chief thing to understand. " /Hints on Practical Spirituality(Eng :2/24) 

अद्वैत वेदांत से भिन्न जितने दर्शन है, वे (शून्यवाद भी) माया का प्रयोग इन्द्रजाल, असत्, भ्रम,स्वप्न,रहस्य और मोह के अर्थ में करते हैं। किन्तु अद्वैत वेदांत इन अर्थों में माया का प्रयोग नहीं करता। ब्रह्म पूरी ब्रह्माण्ड की चेतना का प्रतीक है . यह सिनेमा के उस परदे की तरह है , जो हमेशा सिनेमा हाल में स्थिर होता है . इस परदे पर प्रतिदिन अनेक जगत ( चलचित्र ) बनते रहते हैं। इस में हमें हीरो (देवता), विलेन (राक्षस) भी दीखते हैं, उनके कृत्यों पर हम भावुक भी होते हैं , कुछ समय के लिए हम उसी दुनिया में खो जाते हैं। तो परदे पर जो लगातार बदल रहा है , वह माया या जगत है लेकिन अगर हम उसे छूने की कोशिश करें तो हमारा हाथ परदे को ही छुएगा न कि किसी व्यक्ति या पेड़ पौधे को जो दिखता प्रतीत होता है।  तो यह हो गया ब्रह्म सत्यम , जगत मिथ्या।  

हमें ब्रह्म दिखता क्यों नहीं है ?

क्योंकि वह माया (फिल्म) से आच्छादित है , जैसे ही फिल्म समाप्त होगी , पर्दा ही दिखेगा क्योंकि वही एक सनातन सत्य है , फ़िल्में आती जाती रहती हैं .

हिरण्यमयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् ।

तत्त्वं पूषन्न अपावृणु सत्य-धर्माय दृष्टये।।

- ईशावास्योपनिषद

सोने की थाली (हिरण्यमय पात्र) से सत्य का मुख ढका हुआ है और हम लोग सोने के घड़े पर ही प्रलोभित होकर, उसी में संतुष्ट हो गये हैं। किन्तु उस सोने के घड़े के अंदर ही वह परम सत्य ( ब्रह्म) है ।

लेकिन कुछ लोग आदि शंकराचार्य की तरह , फिल्म देखते हुए भी यह जानते हैं कि फ़िल्म ( जगत ) एक कल्पना है सत्य नहीं जिसे एक निर्देशक ने बनाया है। वे लोग ही अद्वैतवादी हैं .

ब्रह्माण्ड की सृष्टि का कारण कौन है ? किसी भी कार्य के अनेक कारण होते हैं । जैसे निमित्त कारण, उपादान कारण ,साधारण कारण आदि । इनमें से उपादान कारण से कार्य उत्पन्न करने के विषय में तीन वाद या मत प्रचलित हैं । १- आरम्भक वाद ,२- परिणाम वाद और ३- विवर्तवाद। अनेक वस्तुओं से मिलकर कोई वस्तु बन जाने को आरम्भक कहते हैं , जैसे ईंटों से घर बन जाना । वहीं एक वस्तु का बदल कर दूसरी वस्तु बन जाना परिणाम कहलाता है , जैसे आटे से रोटी, दूध से दही का बन जाना । लेकिन "किसी वस्तु का विपरीत प्रतीत होना विवर्त कहलाता है " जैसे रस्सी का सांप प्रतीत होना । (जैसे ईश्वर का मनुष्य M/F रूप धारण कर लेना !)  

इनमें आरम्भक तथा परिणाम तो वस्तुओं की अपेक्षा से होते हैं और विवर्त केवल ज्ञाता या द्रष्टा की अपेक्षा से ही होता है । विवर्त वस्तुत कार्य नहीं है अपितु एक प्रकार का भ्रम है ,जिसका कारण और कार्य से कोई सम्बन्ध नहीं है । वेदान्त सार में परिणाम और विवर्त के यह लक्षण दिए हैं -यस्तात्विकोऽन्यथाभाव: परिणाम: उदीरित:, अतात्विकोऽन्यथाभावो विवर्त: स उदीरित:

अर्थात् विकार या परिणाम उसको कहते हैं एक वस्तु से सचमुच कोई दूसरी वस्तु बन जाए । परन्तु विवर्त उसका नाम है कि वस्तु तो वहीं रहे परन्तु मालूम पड़े कुछ और । यह विवर्त कभी -कभी हुआ करता है और सब को नहीं ।  शंकर के दर्शन में ईश्वर को ब्रह्म का विवर्त माना गया है परन्तु रामानुज के दर्शन में ईश्वर को ब्रह्म के रूप में पूर्णतः सत्य माना गया है।  शंकर के दर्शन में जो ब्रह्म का ज्ञान पाता है वह स्वतः ब्रह्म हो जाता है, परन्तु रामानुज के मतानुसार मोक्ष की अवस्था में व्यक्ति ब्रह्म के सादृश्य होता है, वह स्वयं ब्रह्म नहीं हो सकता।

आदि गुरु शंकराचार्य जी के अद्वैत दर्शन का सार- ब्रह्म और जीव मूलतः और तत्वतः एक है! हमें जो भी अंतर नजर आता है उसका कारण अज्ञान है! ब्रह्म ही एकमात्र सत्ता है! वह निगु॔ण, निराकार, ब्रह्म अनादि, अद्वितीय और सर्वव्यापक है! माया से संयुक्त होकर वह निर्गुण ब्रह्म ईश्वर बनता है और सृष्टि का कारण है! इस तरह ब्रह्म से अभिन्न है! जीव और ब्रह्म एक ही है! अविद्या यानी माया से आवृत होने पर जीव अपने को ब्रह्म से पृथक समझने लगता है! अविद्या के नष्ट होने के बाद वह ब्रह्म से अपनी अभिन्नता समझ लेते हैं और मैं ब्रह्म ही हूँ अथार्त मुझ में और ब्रह्म में कोई विभेद नहीं है, यह अनुभूति होने लगती! जगत् शंकर के मत में जगत् मिथ्या है! यह मिथ्या शब्द का प्रयोग उन्होंने विशिष्ट अर्थ में किया है! यह नामरूपात्मक जगत जो इन्दियगोचर है, वह असत् नहीं! उसकी सत्ता एक सीमा है! जीव की मुक्ति ब्रह्म में लीन हो जाने में है! जीव की मुक्ति के लिए ज्ञान (?-आत्मज्ञान) आवश्यक है!

ब्रह्म कोई वस्तु नहीं है, क्योंकि वह अदृश्य है, आँखों की पहुँच से परे है। इसलिए उपनिषद घोषणा करते हैं: "नेति नेति-यह नहीं, यह नहीं...." इसका अर्थ यह नहीं है कि ब्रह्म किसी  नकारात्मक अवधारणा का नाम है। या ब्रह्म कोई आध्यात्मिक अमूर्तता है, या एक अचेतन, या एक शून्य है। यह कोई दूसरा नहीं है। यह सर्व-पूर्ण, अनंत, अपरिवर्तनशील, स्वयं-अस्तित्व, आत्म-आनंद, आत्म-ज्ञान और आत्म-आनंद है। यह स्वरूप, सार है। यह ज्ञाता का सार है। यह द्रष्टा, पारलौकिक (तुरीय) और मौन साक्षी (साक्षी) है। 

>>इनमें से कौन सा बेहतर दर्शन है, शंकराचार्य का अद्वैत, माधव का द्वैत या रामानुज का विशिष्टाद्वैत?

आध्यात्मिक पथ पर सबसे पहले स्वीकार करना होता है कि कोई ऐसी सत्ता अवश्य है जो इस समस्त ब्रह्मांड को संचालित और नियंत्रित करती है। अतः सबसे पहले आया ‘द्वैत’ अर्थात् मैं और मेरा ईश्वर। अधिक चिंतन करने पर कालान्तर में पता चला कि वह सत्ता और मैं अलग अलग नहीं हैं मेरा और उसका परस्पर अभिन्न संबंध है यह कहलाया ‘अद्वैत’। इसके बाद की गंभीर साधना में मेरे और उसके बीच की लिंक इतनी दृढ़ हो जाती है कि उसे अद्वैत भी नहीं कहा जा सकता इतना ही नहीं उसके बारे में केवल अनुभव ही किया जा सकता है कहा कुछ नहीं जा सकता परन्तु कुछ व्याख्याकार कहते हैं इसे ‘विशिष्टाद्वैत’।

जिस भी दर्शन से आप अपने स्वरूप तक पहुंच सके, ब्रह्म से एक हो सके, अपने आनंद स्वरूप मे स्थिर हो सकें, अपनी सहज आंतरिक स्थिति को जानकर व्यवहार और मन मे ढाल सके, वही सबसे बेहतर है। कोई भी एक नौका मे सवार होइए। सदगुरु को अपना हाथ थाम लेने दीजिए, और अपने भीतर के सदगुरु के प्रति समर्पित हो जाइए 

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नवनी दा  [श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय (1931 -2016) महामंडल आंदोलन के संस्थापक!] द्वारा 1996 में दिया गया निम्नलिखित भाषण --🙋शिरीष कुसुम का एक गुच्छा-🙋 यह सिद्ध करता है कि - "आन्दुल H.C.E स्कूल-1841" (आंदुल हेरिटेज कॉलेज ऑफ एजुकेशन -1841) या  मोहियारी कुंडू चौधरी इंस्टीट्यूशन-1841/ नवनीदा के पितामह "तीन पीढ़ियों के गुरु (1901 से 1953)" आचार्य शिरीष चंद्र मुखोपाध्याय (1873-1966) और उनके शिष्य #नवनी दा, के नेतृत्व में  जीवन-गठनकारी वेदांत शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा"[ धर्म (शिक्षा या सफलता) का रहस्य सिद्धांतों में नहीं, बल्कि व्यवहार में निहित है। अच्छा बनना और अच्छा करना ही धर्म/ शिक्षा-सफलता का सार है!"]  सफलता/शिक्षा /धर्म  का रहस्य: मनुष्य बनो और बनाओ!" पर आधारित एक "पीढ़ीगत ज्ञानपीठ शिक्षक-प्रशिक्षण परम्पर (*जीवनमुक्त शिक्षक या नेता-प्रशिक्षण शिक्षा) का एक महाविद्यालय  रहा है। 

       " हावड़ा जिले में आन्दुल -मौड़ी को एक जुड़वें ग्राम के रूप में जाना जाता है। आन्दुल का राजमहल आज भी विद्यमान है। मौड़ी ग्राम के जमींदार वंश के कुण्डू चौधरी एवं मल्लिक वंश के योगेन्द्रनाथ मल्लिक दोनों काफी धनाढ्य व्यक्ति थे , उन्होंने ही वर्ष 1841 में इस स्कूल की स्थापना की थी। तब यह एक प्री-यूनिवर्सिटी स्कूल था। उस समय तक भारत वर्ष में एक भी विश्व-विद्यालय नहीं था। वर्ष 1859 में पहली बार भारत के तीन स्थानों -कोलकाता, मुम्बई और मद्रास में तीन विश्विद्यालयों की स्थापना हुई थी। तथापि (Anyway-बहरहाल), आन्दुल का H.C.E स्कूल प्री-यूनिवर्सिटी था एवं ख्याति प्राप्त बैरिस्टर और शिक्षाविद सर आशुतोष मुखोपाध्याय [Sir Ashutosh Mukherjee ( 1864-1924)] # भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्री श्यामा प्रसाद मुखर्जी (1901-1953) के पिता थे, और उनके पोते चित्ततोष मुखोपाध्याय- कोलकाता उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश थे, जो एक बार महामण्डल के वार्षिक शिविर में झण्डोत्तोलन करने आये थे किन्तु 2 मिनट लेट हो जाने से नहीं कर पाए थे। उन्हीं के बड़े चाचा दुर्गा प्रसाद मुखोपाध्याय इस स्कूल के प्रधान शिक्षक थे।  (JNKHMP -पेज 6]   

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🏹" Andul Heritage College of Education -1841: Mohiary Kundu Choudhury Institution-1841:Arachya sirish sarani, Andul, Mahiari, West Bengal 711302, Mouri, Howrah (Dist.)

The Motto of this Institution is based upon Swami Vivekananda's Famous saying - "The secret of Dharma (Education or Success) lies not in principles but in practice. To Be good and Do good - that is the whole of Dharma/(ie)- that is, education or success! "  

[The following speech given by Navani Da in 1996 - 'A Bunch of Shirish Kusum' proves that - "Andul Heritage College of Education-1841" has been a College of "Teacher* -Training Education" (*Jivanmukta Teacher or Leader-Training Education) based on the " The Secret of Success : Be and Make- Life-Building Generational Jnanpith  Teachers-training Tradition" under the Leadership of Navani Da's # Grandfather; "The Guru of three generations (1901 to 1953)" Acharya Shirish Chandra Mukhopadhyay (1873-1966) and his disciple #Navani Da, Shri Nabanihran  Mukhopadhyay (1931-2016) Founder of The Mahamandal Movement! ] 

तपोवन वर्णन : #  भट्टि- काव्ये (भट्टिकाव्य महाकवि भट्टि द्वारा रचित महाकाव्य है। इसका वास्तविक नाम 'रावणवध' है। यह रचना व्याकरण के ज्ञान से हीन पाठकों के लिए नहीं है। यह मेधावी विद्वान के मनोविनोद के लिए रचा गया है, तथा सुबोध छात्र को प्रायोगिक पद्धति से व्याकरण के दुरूह नियमों से अवगत कराने के लिए।) - हुतधूमकेतुशिखाञ्जन स्निग्धसमृद्धशाखम् । हुतश्चासौ धूमकेतुरशिश्र हुत धूमकेतुः । तस्य शिखाञ्जनेन स्निग्धाः समृद्धाश्च फलादिना शाखास्थ तपोवनस्य । प्राध्ययनेन वेदपाटेन अभिभूता तिरस्कृता समुच्चरन्ती चाव शोभना पतन्त्रिणां पक्षिणां शिक्षा ध्वनियंत्र । (१०९८

त्रिभुवन् (त्रिलोक त्रिभुवन् )- स्वर्ग,स्वर्गमृत्यु,मृत्युपाताल्।

त्रिमूर्ति -त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु,विष्णुमहेश।

त्रिवेणीसङ्गम - (Confluence of)गंगा , यमुना , सरस्वती।

त्रिस्थली- काशी, प्रयाग्,प्रयाग्गया।

त्रिकाल- भूत , वर्तमान , भविष्य।

त्रिगुण - सत्त्व, रजस, तमस।

सप्तक- मन्द्र, मध्य, तार।

ईषणा- लोकेषणा , वित्तेषणा , दारेषणा।

पदे(पदेशुद्ध -वैदिक -मार्ग)मार्गकर्म,कर्मउपासना, ज्ञान।

ज्योतिषस्कन्ध- सिद्धान्त, संहिता , होरा।

त्रिदण्डिन्-त्रिदण्डिन्वाचा, मन, काया।

वाक्दंडोऽथ मनोदंडः कायदंडस्तथैव च ।

यस्यैते निहिता बुद्धौ त्रिदंडीति स उच्यते ॥

त्रिवर्गः - धर्म,धर्मअर्थ,अर्थकाम।

प्रस्थानत्रयी- ब्रह्मसूत्र , भगवद्गीता, वेदांत (उपनिषद्)उपनिषद्।

त्रिदोष(आयुर्वेदिक् )-आयुर्वेदिक् कफ, वात, पित्त।

द्विजातिः- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य।

जन्मना जायते शूद्रः संस्कारैर्द्विज उच्यते ।

त्रिपुरसुन्दरी - ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति, इच्छाश्क्ति।

वाणी(वाचा)- परा, पश्यन्ति, मध्यमा, वैखरी।

उपाय- साम, दाम, दण्ड, भेद।

वेद - ऋग्वेद , यजुर्वेद , सामवेद , अथर्वणवेद।

महावाक्य- प्रज्ञानं-प्रज्ञानंब्रह्म(ऋग्वेद ), अहं-ब्रह्मास्मि(यजुर्वेद ), तत्त्वमसि(सामवेद ), अयमात्मा-ब्रह्म(अथर्वणवेद )।

मुखमुद्रा - खेचरी , भूचरी , चांचरी , अगोचरी।

उपाङ्गे- न्याय, मीमांसा , धर्म,धर्मपुराण।

भाग्य- उत्तम, मध्यम, कनिष्ठ, अदृष्ट(सूप्त )।

देवप्रकार - प्रतिमा, अवतारी, साक्षी-अंतरात्मा ,

निर्विकार -आत्मस्वरूप।

भिक्षुक् (भिक्षुक्एकदंडिन् )-एकदंडिन्कुटीचक , बहूदक, हंस , परहंस।

कुटीचको बहूदको हंसश्चैव तृतीयकः ।

चतुर्थः परहंसश्च यो यः पश्चात् सपश्चात् उत्तमः ॥

पञ्चकन्या- अहल्या, द्रौपदी, सीता, तारा, मन्दोदरी।

पञ्चगंध पञ्चगव्य- गोमुत्र , गोमय, दुग्ध, दधि, घृतं(घृतंआज्यं)आज्यं।

पञ्चमहाभूतम् -पञ्चमहाभूतम्पृथ्वी , आप, तेज , वायू,वायूआकाश।

पञ्चामृत- दुग्ध, दधि, घृतं,घृतं मधु,मधुशर्करा।

दुग्धं च शर्करा चैव घृतं दधि तथा मधु ।

पञ्चावयव- प्रतिज्ञा, हेतु ,हेतुउदाहरण, उपनय, निगमन।

पञ्चायतन(देवता )- शिव, देवी , गणेश , विष्णू,विष्णूसूर्य।

पञ्चमाता- स्वमाता, पत्नीमाता, भ्रातुपत्नी , गुरुपत्नी , राजपत्नी।

पञ्चमहायज्ञ- देव , ब्रह्म, पितृ, भूत , नर।

पञ्चकन्या- अहल्या, द्रौपदी, सीता, तारा, मन्दोदरी।

पञ्चगंध पञ्चगव्य- गोमुत्र , गोमय, दुग्ध, दधि, घृतं(घृतंआज्यं)आज्यं।

पञ्चमहाभूतम् -पञ्चमहाभूतम्पृथ्वी , आप, तेज , वायू,वायूआकाश।

पञ्चामृत- दुग्ध, दधि, घृतं,घृतं मधु,मधुशर्करा।

दुग्धं च शर्करा चैव घृतं दधि तथा मधु ।

पञ्चावयव- प्रतिज्ञा, हेतु ,हेतुउदाहरण, उपनय, निगमन।

पञ्चायतन(देवता )- शिव, देवी , गणेश , विष्णू,विष्णूसूर्य।

पञ्चमाता- स्वमाता, पत्नीमाता, भ्रातुपत्नी , गुरुपत्नी , राजपत्नी।

पञ्चमहायज्ञ- देव , ब्रह्म, पितृ, भूत , नर।

पञ्चप्राण(प्राणपञ्चक)- प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान।

पञ्चाङ्ग- तिथि(१५+१), वार(७), नक्षत्र(२७+१), योग(२७), करण(७) (see

elsewhere)।

अंगुली - अङ्गुष्ठ , तर्जनी , मध्यमा, अनामिका, कराङ्गुली।

ज्ञानेन्द्रिय (बुद्धिन्द्रिय )- श्रोत्र, त्वचा, चक्षु,चक्षुजिह्वा, घ्राण।

श्रोत्रं त्वक्चक्षुषी जिह्वा नासिका चैव पंचमी ।

विषयपञ्चक(तन्मात्र)- शब्द, स्पर्श,स्पर्शरूप, रस, गन्ध।

कर्मेन्द्रीय - वाचा, पाणी, पाद, शिस्न, गुद।

पायूपस्थं हस्तपादं वाक् चैव दशमी स्मृता ।

अंतःकरणपञ्चक - अंतःकरण , मन, बुद्धि , चित्त, अहङ्कार।

कोष- अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय।

पञ्चतत्त्व(मकार)- मद्य(fire), मांस (air), मत्स्य(water),

मुद्रा (earth), मैथुन (ether)।

These are tAntric principles elaborated in kulArNava tantra

पाण्डव- युधिष्ठिर् (युधिष्ठिर्धर्मराज् ),धर्मराज्अर्जुन , भीम, नकुल् ,नकुल्सहदेव।

पञ्चीकरण- उभारणी, संहारणी। ??

पञ्चलक्षणं(पञ्चलक्षणंपुराण )- सर्ग,सर्गप्रतिसर्ग,प्रतिसर्गवंश , मन्वंतर , चरित।

सर्गश्च प्रतिसर्गश्च , वंशो मन्वन्तराणि च ।

३५

व्यञ्जन consonants- क, ख, ग, घ, ङ्,ङ्च, छ, ज, झ, ञ्,ञ्

ट, ठ, ड, ढ, ण, त, थ, द, ध, न, प, फ, ब, भ, म,

य, र, ल, व, श, ष, स, ह, क्ष, त्र, ज्ञ (३६ मराठी ळ)।

[https://sanskritdocuments.org/doc_z_misc_general/numinfo.pdf]

(शोध - प्रबन्ध )

 Allahabad University : June 4, 2001 AD

(साभार : https://ia803002.us.archive.org/9/items/in.ernet.dli.2015.475664/2015.475664.Bhattikabya-Ka_text.pdf] 

भट्टिकाव्य महाकवि भट्टि की कृति है। इस महाकाव्य के 22 सर्गों  में श्री राम के जन्म से लेकर राज्याभिषेक तक की “रामायण कथा" को  निबद्ध किया गया है । इस महाकाव्य का उपजीव्य ग्रन्थ वाल्मीकि-रामायण है। कथामाग के उपकथन की दृष्टि से यह महाकाव्य 22 सर्गों में विभाजित है तथा महाकाव्य के लक्षणों से पूर्णतया समन्वित है। 

      रचना का मुख्य उद्देश्य व्याकरण एवं साहित्य के लक्षणों को लक्ष्य द्वारा उपस्थित  करना है। जो विद्वान व्याकरण के ज्ञाता हैं उनके लिए यह ग्रन्थ दीपक की भांति है, किन्तु व्याकरण की दृष्टि से रहित लोगों के लिए अन्धे के हाथ में  दिए गए दर्पण के समान है। 

सुलभाः पुरुषा राजन् सततं प्रिय वादिनः।

अप्रियस्य च पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः॥

- वाल्मीकि रामायण ३/३५//२

हे राजन, ऐसे पुरुषों को ढूंढना आसान है जो हमेशा  प्रिय और मीठी बातें करते हैं। परन्तु जो अप्रिय होने पर भी हितकर हो ऐसी बात कहने वाले और सुनने वाले दोनों ही दुर्लभ हैं। इसलिए कड़वी बात कहने वाले दोस्त को कभी न छोड़ो 

दुर्मुख एक पौराणिक चरित्र का नाम है, जिसका उल्लेख 'रामायण' में हुआ है। 'रामायण' के अनुसार दुर्मुख द्वारा दी गई सूचना के आधार पर ही श्रीराम ने सीता का परित्याग कर दिया था। रामायणानुसार दुर्मुख अयोध्या के राजा श्रीराम का गुप्तचर था। वनवास अवधि पूर्ण कर लौट आने के पश्चात् राम सुखपूर्वक राजपाट सम्भाल रहे थे। कुछ समय बाद मन्त्रियों और दुर्मुख नामक एक गुप्तचर के मुँह से राम ने जाना कि प्रजाजन सीता की पवित्रता के विषय में संदिग्ध हैं। अत: सीता और राम को लेकर अनेक बातें कहते हैं। सीता गर्भवती थीं और उन्होंने राम से एक बार तपोवन की शोभा देखने की इच्छा प्रकट की थी। रघु वंश को कलंक से बचाने के लिए राम ने सीता को तपोवन की शोभा देखने के बहाने से लक्ष्मण के साथ भेजा। लक्ष्मण को अलग बुलाकर श्रीराम ने कहा कि वह सीता को वहीं छोड़ आये। लक्ष्मण ने तपोवन में पहुँचकर अत्यंत उद्विग्न मन से सीताजी से सब कुछ कह सुनाया और उन्हीं वहीं छोड़कर लौट आये।

उज्जैन के प्रमुख पर्यटक आकर्षणों में से एक भर्तृहरि गुफाएं क्षिप्रा नदी के पूर्वी तट पर गढ़कालिका माता मंदिर के पास स्थित हैं। ऐसा कहा जाता है कि राजा भर्तृहरि ने यहां ध्यान किया था और नीति शतक, श्रृंगार शतक और वैराग्य शतक जैसी महान कृतियां लिखी थीं, जिन्हें सामूहिक रूप से त्रिशतक कहा जाता है (त्रिशतक - तीन सौ दोहों का संग्रह)। उन्हें भट्टिकाव्य, एक महाकाव्य, और 'वाक्यपदीय' के लेखक होने का श्रेय भी दिया जाता है, जो संस्कृत व्याकरण और भाषा दर्शन पर विस्तार से चर्चा करता है। वाक्यपदीय से स्पष्ट है कि इसके लेखक पाणिनि के अष्टाध्यायी पर पतंजलि की टिप्पणी, जिसे महाभाष्य कहा जाता है, के कम से कम एक पीढ़ी बाद रहते थे, भर्तृहरि राजसी वंश के थे और विक्रमादित्य के सौतेले भाई थे; न केवल वे राजसी परिवार से थे, बल्कि वे राजसिंहासन के उत्तराधिकारी थे, और संसार से विरक्त होकर उन्होंने अपने भाई विक्रम के पक्ष में त्यागपत्र दे दिया। त्रिशतक का लेखन पहली शताब्दी के अंत या दूसरी शताब्दी ई. की शुरुआत में हुआ माना जाता है।

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'मीमांसा दर्शन ' # मीमांसा शब्द का अर्थ किसी वस्तु के स्वरूप का यथार्थ वर्णन है। वेद के मुख्यत: दो भाग हैं। प्रथम भाग में 'कर्मकाण्ड' बताया गया है, जिससे अधिकारी मनुष्य की प्रवृत्ति होती है। द्वितीय भाग में 'ज्ञानकाण्ड' बताया गया है, जिससे अधिकारी मनुष्य की निवृत्ति होती है। कर्म तथा ज्ञान के विषय में कर्ममीमांसा और वेदान्त की दृष्टि में अन्तर है। वेदान्त के अनुसार कर्मत्याग के बाद ही आत्मज्ञान संभव है। कर्म तो केवल चित्तशुद्धि का साधन है। मोक्ष की प्राप्ति तो ज्ञान से ही हो सकती है। परन्तु कर्ममीमांसा के अनुसार मुमुक्षुजन को भी कर्म करना चाहिए।

मीमांसा दर्शन के प्रवर्तक महर्षि जैमिनि हैं। इस दर्शन का जिज्ञास्य विषय धर्म है। धर्म और वेद-विषयक विचार को मीमांसा कहते हैं। मीमांसा का ध्येय मनुष्यों को सुःख प्राप्ति कराना है। मीमांसा में सुःख प्राप्ति के दो साधन बताए गये हैं – निष्काम कर्म और आत्मिक ज्ञान। मीमांसा दुःखों के अत्यन्ताभाव को मोक्ष मानता है। इस दर्शन में यज्ञों की दार्शनिक दृष्टि से व्याख्या की गई है। मीमांसा दर्शन के मुख्य तीन भाग हैं। प्रथम भाग में ज्ञानोपलब्धि के मुख्य साधनों पर विचार है। दूसरे भाग में अध्यात्म-विवेचन है और तीसरे भाग में कर्तव्या-कर्तव्य की समीक्षा है।

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माया तुम्हारी राम राम जीव भी तुम्हारा,

माया जीव दोनों को ही राम का सहारा।

राम की बिभा से जैसे माया सत्य भागे,

जीव जाने क्या है माया राम की किरपा से। 

माया जीब दोनों का ही धाम राम द्वारा,

माया तुम्हारी राम राम जीव भी तुम्हारा। 

मूर्ति माया ने सवारी जीव करे पूजा,

माया जीव दोनों का देव नही दूजा। 

गूंजे राम जी का नाम गूंजे इक तारा,

माया तुम्हारी राम राम जीव भी तुम्हारा। 

माया ने खिलाई डाली, जीव फूल माली,

माया ने सजाई थाली जीव ज्योति वाली। 

राम ने उजाला किया सूर्ये चन्दर तारा,

माया तुम्हारी राम राम जीव भी तुम्हारा।

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এক গুচ্ছ শিরীষ কুসুম 

শ্রী নবনীহরন মুখোপাধ্যায়  

          ভাবতে কেমন লাগে , পঞ্চাশ বছর আগে আমরা দশম শ্রেণীর পাঠ শেষ করে বিদ্যালয় ছাড়লাম।  আজ তাদের মধ্যে যারা রয়েছি সেই বিদ্যালয় মিলিত হচ্ছি ---এক  অপূর্ব মিলনোৎসবে।  অভাবনীয় ! তবু যারা ভেবেছে তাদের কি বলে কৃতজ্ঞতা জানাবো জানিনা। কিন্তু সংসারে সুখ দুঃখ নিত্য সহচর। তাই বাধা বাজে , আমরা সবাই তো নেই।  একে একে কত জন চলে গেছে। আর এই মিলনবেলার আয়োজকদের প্রধান সঙ্কট এই সে দিন যেভাবে আকস্মাৎ আমাদের ছেড়ে চলে গেল , সে দুঃখ কথার বলে বোঝান সম্ভব নয় " বোঝে প্রাণ বোঝে যার। " 

যে দিন প্রথম এই মিলনোৎসবের কথা অসিতের চিঠিতে জানলাম আর তারপর দু-তিনবার কজনের সঙ্গে দেখা হল , তখন থেকে নয় সেটা যেন সুকুমার রায়ের অংকের মত হঠাৎ পঞ্চাশের বেশি কমে গেল। মনে হল ষাট বছর আগের কথা যখন প্রথম এই বিদ্যালয় দেখি। একটি শিক্ষকদের অনুষ্ঠানে আচার্যদেব এনেছিলেন। মনে আছে তখন কার পন্ডিত মশাই ক্ষেত্রমোহন চট্টোপাধ্যায় প্রমুখ শিক্ষক মশাইদের সংস্কৃতে তপোবন বর্ণন  (" আত্মলোকে পুত ধুমকেতু:.... ") শুনেয়েছিলাম। তিনি হাত ধরে কোলে নিয়ে বলেছিলেন " তোমার বাকসিদ্ধি " হবে। " তখন মানে বুঝিনি। বড় হয় মনে পড়লে এখনও ভয় হয়।  

        তারপর স্কুলে ভর্তি হওয়া ১৯৪৩ এ সপ্তম শ্রেণীতে। এ স্কুল যখন হয় তখন কলিকাতা বিশ্ববিদ্যালয়ের জন্ম হয়নি। প্রথম প্রধান শিক্ষক ছিলেন স্যার আশুতোষের জ্যেষ্ঠতাত। আচার্যদেব এ স্কুলের প্রধান শিকক্ষক পদে ব্রতীহন ১৯০১ সালে। ১৯০২ সালে স্বামী বিবেকানন্দের তিরোধান হল স্কুলে স্মৃতি সভায় স্বামিজীরব ব্যাক্তিত্ব ও বাগ্মিতা বিষয়ে আচার্যদেব যা বলেন তা শৈলেন্দ্রনাথ ধরে কৃত " A comprehensive Biography of Swami Vivekananda " তে লিপিবদ্ধ আছে।    

     আচার্যদেব তাঁর অভিজ্ঞতা বলেন , যে হেতু তিনি ১৮৯৭ খ্রিস্টাব্দে দক্ষিনেশ্বরে শ্রীরামকৃষ্ণের জন্মতিথি উপলক্ষ্যে স্বামীজীর বক্তিতা মহাকবি গিরিশ চন্দ্র ঘোষের সঙ্গে গিয়ে শুনেছিলেন। ১৯০৫ সালে বঙ্গভঙ্গ আন্দোলন সংগ্রামের ইন্ধন যোগায়। আচার্যদেব নির্দেশে ছাত্ররা বিদেশী পণ্যের বহনং সবে  যোগ দেয় স্কুলের নাম দিয়ে সে খবর ইংল্যান্ডের পত্রিকার প্রকাশিত হয় ও ফলে প্রধান শিককের নাম গ্রেপ্তারি পরোয়ানা জারি হয়। কিন্তু এক বাঘা ইংরেজ অফিসার গ্রেপ্তার করতে এসে স্কুলের অসাধারন শৃঙ্খলা দেখে ও প্রধান শিক্ষকের ব্যক্তিত্ব স্তম্ভিত হয়ে পরোয়ানা প্রত্যাহার করেন

      সেই স্কুলে সপ্তম শ্রেণী তে পড়ছি। সুবোধ চট খন্ডি মহাশয় ভূগোল পড়াবেন। ব্ল্যাক বোর্ডে মেপ টাঙিয়ে চেয়ারে বসে বেশ গোলগাল মানুষটি বেত দিয়ে মেপ পয়েন্ট করে দেখিয়ে বুঝিয়ে পড়াতো। ব্ল্যাকবোর্ডে আমাদের পন্ডিত মশাই (ক্ষেত্রমোহন পন্ডিত মহাশয়ের পুত্র স্বনামধন্য ভারত বিখ্যাত। .....???পড়াতেন সপ্ত তীর্থ ) চানক্য শ্লোক মুখস্থ করতে দিয়ে ছিলেন , হয় ওঠেনি। না বলতে পবায় পেছনে বিশ্যুট ভূতনাথ উপর দাঁড় করিয়ে দিয়েছিলেন সারা পিনিয়টা। ফল বড় ভাল হয়েছিল সেই থেকে তিনি। ... বেঞ্চির যত শ্লোক বলেছেন সব এখন ও মুখস্থ আছে। সংস্কৃত ছন্দে আকর্ষণ আসে ও একটা ছোট। ....তিনি ক্লাশে বই ও ছন্দে হাত দিয়ে বেরিয়ে। তিনি ছিলেন শ্রদ্ধার মূর্তি।  তার কথা লিখতে হলে আমার ছোট সংস্কৃত স্মারকে ধরবে না। তিনি পরে কোলকাতা বিশ্ববিদ্যালয়ের অধ্যাপক হয় ছিলেন।  

কিন্তু সে বিকালে আমাদের আচার্যদের আদেশ না করা পর্যন্ত স্কুল ছাড়েননি। পরে 'মীমাংসা দর্শন ' গ্রন্থে শুক অষ্টকম এর পর্যন্ত সে বিষয়ে শ্লোক যে ভাবে উদ্ধার করেন, সে বিষয়ে তাঁর আচার্য মহামুখোপাধ্যায় যোগেন্দ্রনাথ তর্কতীর্থ মহাপুরুষ এর একটি প্রশ্ন করলে তিনি সবিনয় নিবেদন করেন, বিদ্যালয়ে আচার্যদেবের মুখে তিনি শুনেছেন তীর্থ মহোদয় তাই লিখেছেন , গ্রন্থে দৃষ্টে নয় , কারন বিদ্যা গুরুমুখী। 

সকলের কথা মনে হয়। তবে সব লেখার জায়গা কোথায় ? অমলেন্দু রায় মশাই আংরেজীর ব্যাকরণ পড়ালেন , যদি ভুলে গিয়ে না থাকি , টেষ্টে পরীক্ষায় ইংরেজিতে ৮৩ % মশাই এমন নম্বর পেয়ে ছিলাম। পরে ইংরেজিতে বই লিখতে ভয় হয়নি। অনেক বিশ্ববিদ্যালয়ে ইংরেজিতে ভাষণ দিতে পারা গেছে। কুরুক্ষেত্র বিশ্ববিদ্যালয়ে ভাষণের পর রাজ্যপালের স্ত্রী প্রশ্ন করেছিলেন -আমি কোন বিশ্বদ্যালয়ে ইংরেজি পড়েছি ? গর্বের সঙ্গে বলছি , ইংরেজি স্কটিশ চর্চ বিশ্ববিদ্যালয়ে শিখিনি , শিখেছি হাওড়া জেলার একটা গ্রামের স্কুলে।     

গুরুদাস মেমোরিয়াল দোতালায় গাইলারিতে বিজ্ঞানের ক্লাস হতো , যেমন কলেজে হয় পরীক্ষা নিরীক্ষা করে দেখানো হতো। সে সময় কোন স্কুলে এমন ছিল কিনা জানিনা। ফনীন্দ্রনাথ পাল মশাই পড়াচ্ছেন। জিজ্ঞাসা করলেন , সাবান কি করে তৈরি হয় কেউ বলতে পারো ? কেউ পারেনা।  একজন (কে ? মনে নেই ) উঠে বললেন , জানি স্যার। একটা বড় উনুনে একটা কড়ায় ঘিয়ের মতো একটা কি দিয়ে তার পর কি কি যেন মিশিয়ে খুব নাড়তে হয়। তারপরে নামলেই এক কড়া সাবান। আর সকলেই কি হাসি। 

সহকারী প্রধান শিক্ষক ছিলেন তারেশ চন্দ্র কর। উচ্চ শ্রেণী তে ইতিহাস পড়াতেন রাশভারী গম্ভীর প্রকৃতির মানুষ। সব সময় কোঁচা ঝুলিয়ে ধুতি , পাঞ্জাবি গলায় প্রেন্ট বোতাম এটা ও কাঁধে চাদর। চোখে চশমা ও গোঁফ ছিল। কাছে ঘেঁষতে ভয় করতো। তখন ক্লাস না সর্বদাই মোট মোট বই পড়তেন , অনেক সময় হাতে নিয়ে পায়চারি করতে করতে ক্লাসে আসতেন। কয়েকটা মোট মোট বই নিয়ে। ছেলেদের ভালো করে শেখাতে হবে বলে কি পরিশ্রম। এসব আজ দেখা যায় না। একদিন মনে আছে পড়াতে পড়াতে Historian's History of the world ' এর বই একটা খন্ড লাইব্রেরি থেকে ক্লাসে আনলেন। কিছু বেশি তথ্য দেবার জন্যে। দূর থেকে কেউ হাসতে দেখেনি। কিন্তু কাছে গেলে গোঁফের ফাঁকে সুন্দর হাসি ফুটে উঠতো। অল্প যা কথা বলতেন তাতে বোঝা যেত ছাত্রদের কত স্নেহ করতেন।  

বাংলা পড়াতেন আর স্কুলটা চালাতে যা যা দরকার সবটা স্বেচ্ছায় এগিয়ে গিয়ে করতেন সতীশ চন্দ্র দাস মহাশয়। তাঁকে দেখে কিশোর মনে যা উঠতো তা আজ বলছি -েকে বলে মহাপুরুষ বলা যায় স্থিত প্রাজ্ঞ। অনেক দিন আগে , তখনও কবিতা রোগে ভুগছি , একটা কবিতায় তাঁর কথা বলা হচ্ছিলো। তাঁর ছিল জেক বলে silver voice তিনি পোড়ালে সময় জ্ঞান থাকতো না। তিনচার বৎসরে দুটি শ্লোক বলে ছিলেন। তার একটি এখনও বার বার ব্যবহার করি। 

मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम् ।

मनस्यन्यत् वचस्यन्यत् कर्मण्यन्यत् दुरात्मनाम् ॥

[मन -वचन -कर्म से जो एक हो वो है महात्मा। 

     मन -वचन -कर्म यदि भिन्न भिन्न ,तो है दुरात्मा।।] 

আমাদের পরম সৌভাগ্য যে আমরা যে সব পবিত্র , উদারচরিত মহাপ্রাণ ছাত্রবৎসল শিক্ষকদের পাদমূলে বসে শিক্ষালাভ সুযোগ পেয়েছি। তাদের মধ্যে দুজন এই মিলনোৎসবে এসে আমাদের আজও প্রত্যক্ষ দেবতা হয় আশীর্বাদ করছেন। শ্রীযুক্ত বেচারাম চক্রবর্তী ও শ্রীযুক্ত পঞ্চানন ভট্টাচার্য মহোদয়গণ উভয়েই আমাদের অঙ্কশাস্ত্যের শিক্ষা দিতেন।  যে বিষয়ে অকথিত এই শিক্ষা পেয়েছি যে গণিতের প্রান্ত দ্বেড় আর শূন্য। এক কে ঠিক রাখলে শূন্য সংখ্যা বৃদ্ধি করে , না হলে সবই শূন্য মাত্র। শঙ্করাচার্যঃ বলেছেন , এক কে যে  শূন্য বলে সেই মূর্খ। আজ তাঁদের শ্রীচরণ কমলে আম্নাদের সশ্রদ্ধ প্রণাম নিবেদন করে আমরা धन्य হয়ই।  

এ প্রসঙ্গে আর দুজনের কথা মনে হচ্ছে , যাঁরা এই বিদ্যালয়ের ও আচার্যদেবের ছাত্র ছিলেন ও ঘটনাক্রমে স্কটিশ চার্চ কলেজে তাঁদের কাছে পড়েছি। বিপিন কৃষ্ণ ঘোষ MA তে ও BT তে ফার্স্ট ক্লাস ফার্স্ট , ইংরেজিতে ও MA তে কৃতি পেছন ছিলেন এই বিদ্যালয়ের ওবং আচার্য দেবের ছাত্র বিখ্যাত ডাক্তার বুধেন্দ্রনাথ মুখোপাধ্যায়। বিপীনদার কাছে অনেক গেছি , অনেক বলার সুযোগ নেই। এটুকু বলি , তাঁকে দেখে মনে বেদ পূরণের দধীচি নিছক কপোলকল্পনা নয়। এমন চরিত্র মানুষের ও হয়। 

দ্বিতীয় জন ডাক্তার দেবেন্দ্রনাথ মিত্র। অংকে ঈশান স্কলার , শুধু আমাদের বিদ্যালয়ের নয় , আন্দুল মুড়ি তে গৌরব। বিদেশের বিশ্ববিদ্যালয়ে পড়াতে গিয়েছেন। এদিকে গভীর অধ্যাত্ম অন্বেষী , নিরহংকার সাধু প্রকৃতি মানুষ। সব কথা বলবো না। এ বিদ্যালয়ের এই দুই ছাত্রের কাছে ছাত্র হতে পারার গৌরব বুকে নিয়ে আছি। সতীশ মাস্টার মশায়ের সিদ্ধি ছিল ত্যাগ ও সেবার। আচার্য দেবের কি সেবাই করেছিলেন। আর এক জন করে ছিল ওদের মালী  স্কুলের সাধারণ কাজের কর্মী।  আমাদের ও সে মায়ের স্নেহ দিয়ে খাবাতেন। তার নাম এই উপলক্ষে পারিতোষিক দিয়ে একটা ইতিহাস সৃষ্টি হলো। তাকে আমরা গুরুজন বলে দেখতাম। কি মানুষ ই ছিল 

আমরা তো একটি বছরের। কিন্তু আমাদের বিদ্যালয়ের এই জয় অবিশ্রান্ত ছাত্র ধারা তাদের উপর একটি জীবনের প্রভাব পড়ে ছিল ৫২ বছর ধরে। সে শক্তি এ বিদ্যাপীঠ কে বিশেষ রূপ দিয়ে ছিল। তাঁর সত্তা বিদ্যালয়ের সত্তায় সঞ্চারিত হয়ে তাকে মহান করে তুলে ছিল। সে জীবন আমাদের প্রধান শিক্ষক আচার্য শিরিশচন্দ্র মুখোপাধ্যায় (কামদেবি)যিনি খড়দহ শ্রীহর্ষ বংশীয় কামদেব পন্ডিত সদাশ অধস্তন পুরুষ , যে কামদেব খড় দহে  নিত্যানন্দ প্রভু কে আনয়ন করেছিলেন যাতে খড় দহ শ্রী পীঠ বলে চিহ্নিত হয়। তিনি ছিলেন -  'वज्रादपि कठोराणि मृदूनि कुसुमादपि।বাইরে কঠোর , কিন্তু ভিতরে কুসুমের থেকেও কোমল। শিরিষ নাম সার্থক। কালিদাস 'কুমার সম্ভবে ' বলছেন - শিরিষ কুসুম ভ্রমরের পদভারে সইলে ও পাখিদের পদভারে সইতে অসমর্থ। কোন কোন পুরানো ছাত্রের মুখে শুনেছি , দেশ -বিদেশের অনেক বিদ্বান দেখেছি , কিন্তু আমাদের মাষ্টার মহাশয়ের মত দেখলাম না। স্কুলে স্যুট পরতেন , টেবিল চেয়ার বসতেন। কিন্তু স্কুলের সময় ছাড়া যখন এই চেয়ারেই বসে থাকতেন , দূর থেকে দেখে মনে হতো কোন সাধক বসে আছেন। তিনি দুই বিদ্যার ই সাধনা করেছিলেন , অপরা এবং পরা।  তাই সে জীবনের প্রভাব ওভাবে পড়েছিল।   

প্রধান শিক্ষক হিসাবে ও তাঁর আদর্শ বাক্য ছিল - ETON -এর প্রধানদের শব্দগুচ্ছ " I am taught Best by teaching ' শেখাতে গিয়ে আমি সব থেকে ভাল করে শিখি।  'कुर्वतो नास्ति कर्तृता।'করেও 'আমি করেছি 'এ ভাব নেই। সারা জীবনের সাধনার ফল শেষ জীবনে দেখার সৌভাগ্য হয়েছে। তখন আর সাধক মনে হতো না।  स्वतः मन बोलतः सिद्धपुरुष! ब्रह्मज्ञ ! সে কোথায় আর যাবো না। নবম-দশম শ্রেণীতে ইংরেজি গদ্য -পদ্য পড়িয়েছেন   Shelley, Tennyson, Keats, Browning, Wordsworth गद्य White Knight পড়ান তো দত্তের মত নাট্যাভিনয় প্রেসিডেন্সি কলেজ Shakespeare এর নাটক অভিনয় করে বিদেশী অধ্যাপকদের প্রশংসা পেয়ে ছিলেন এক সময়। The Secret of Success:-Written by -William Walker Atkinson -1862–1932) পড়েছিলেন যা জীবনে বড় কাজে লেগেছে। পতঞ্জলি  মহাভাষ্যে বলেছেন বিদ্যা চার প্রকারে উপযুক্ত হয়। অর্জনে, চর্চায় , শিক্ষনে ও ব্যবহারে। যে বিদ্যা ব্যবহারে আসে না তা ব্যর্থ।

এরূপ শিক্ষা যিনি দিতে পারেন তাঁকেই আচার্য বলে। মনু তাই বলেন ' -उपाध्यात् दश आचार्य:' শিক্ষক থেকে আচার্য দশগুন বড়। বায়ু পূরণে আচার্যের বিষয়ে বলা হয়েছে -"आचिनोति च शास्त्रार्थं आचारे स्थापयते अधि !स्वयं ह्यपि आचरेत् य: तु आचार्य: इति स्मृत: !' যিনি শাস্ত্রের অর্থ যথাযথ লাভ করে নিজ আচরণে তা পরিলক্ষিত করেছেন এবং যিনি অনুগতদের তেমন আচরণে উদ্বুদ্ধ করেন প্রেরিত করেন তিনি আচার্য।  আচার্য দেবের প্রধান শিক্ষতার পঞ্চাশ বছর পূর্ন হলে সুবর্ন জয়ন্তী অনুষ্ঠানে বিদ্যালয়ের তাঁর মর্মর মূর্তি বসল। তারই ছাত্র কালোশশী বন্দোপাধ্যায়  মূর্তির শিল্পী। সেই পাথর থেকেই তিনি একটি বৃষ তৈরি করে দেন , যা খড়দহে আচার্য দেবের মাতৃদেবীর প্রতিষ্ঠিত শিবের বাহনরূপে আজ ও রয়েছে। আচার্যদেবের সঙ্গে তাঁর ছাত্র বৃন্দের সম্বন্ধের কথা ভাবতে গিয়ে উপনিষদের 'ऊर्ध्वमूलोऽवाक्साख एशोऽश्वत्थः सनातनः।"মনে পড়ে/ঊর্ধ্ব মূল নিম্নতার শাখা সমূহ - সে বৃক্ষ টি আশ্বস্থ না হয়ে শিরিষ। পূরণের ভাষায় বলতে পারা যায় কিছু বদল করে -   "आजीव्यः सर्वछात्राणां ब्रह्मवृक्षः सनातनः। " সেই বিরাট সনাতন ব্রাহ্ম বৃক্ষ টি আশ্রয় করে ছাত্র কুল বাস করছে। সে শিরিষ বৃক্ষের পঞ্চাশ বছর আমরা এক গুচ্ছ শিরিষ কুসুম। 

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दुःख सुख दोनों तन के कपडे किस कारन पहनाए,

किस कारन पहनाए?

तुझे क्यों समझ न आए, तुझे क्यों समझ न आए ?

वो चाहे तो प्यासा मारे, चाहे तो प्यास बुझाए;

तुझे क्यों समझ न आए, तुझे क्यों समझ न आए?


तेरे मन की खातिर पगले तन का बिछा बिछौना, 

जब तक चाबी भरी प्रभु ने तब तक चले खिलौना। 

ऐसा नाचे मॉस की पुतली, जैसा नाच नचाए,

तुझे क्यों समझ न आए, तुझे क्यों समझ न आए ?


जल बिन मछली जी नहीं सकती, माँ बिन जिए ना बच्चा, 

इन्दर उसका पानी भरता जिसका सिदक है सच्चा

वो चाहे तो गागर में भी सागर को छलकाए,

तुझे क्यों समझ न आए, तुझे क्यों समझ न आए? 


बेसमझो को समझ नहीं कब आये कैसी घड़िया, 

जेठ महीने में लग सकती है सावन की झड़िया। 

कौन समय आकाश और धरती अपना ब्याह रचाए ?

तुझे क्यों समझ न आए, तुझे क्यों समझ न आए? 

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