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सोमवार, 5 अगस्त 2024

🏹🔱🕊प्रेमीक -पथिक संवाद-1 🔱🏹🕊 (रटन्ती-कालीपूजा : निशा-भ्रमण-1) [ पथिक हैं नवनीदा के पितामह 'आचार्य शिरीषचन्द्र मुखोपाध्याय (1873-1966) और प्रेमीक हैं आन्दुल काली कीर्तन समीति के संस्थापक - शाण्डिल्य गोत्रीय महेंद्रनाथ भट्टाचार्य (1844 - 1908) ~ 'प्रेमीक महाराज' ! ]🏹🔱🕊नाद (Sound) -बिन्दु (Light) से जगत की उत्पत्ति का सिद्धान्त : 🏹🔱🕊The theory of Genesis of the world from Naad (Sound)-Bindu (Light)🏹🔱🕊:

प्रेमीक -पथिक संवाद

(रटन्ती-कालीपूजा : निशा-भ्रमण)

आचार्य शिरीषचंद्र कामदेवी

[एक] 

       🏹🔱🕊तंत्र मार्ग में 'पञ्च मुण्डी  ' -साधना क्या है ?🏹🔱🕊  

[#Note: In this travelogue, the traveler is Acharya Dev Shirishchandra Mukhopadhyay (1873-1966)  the grandfather of Revered Nabanida (Shri Nabaniharan Mukhopadhyaya  founder of Mahamandal movement) and the 'Premik' is Mahendranath Bhattacharya (1844 - 1908), of Shandilya gotra, the founder of Andul Kali Kirtan Samiti.]

#द्रष्टव्य : इस भ्रमण वृतान्त में पथिक हैं पूज्य नवनीदा (महामण्डल आन्दोलन के संस्थापक श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय) के पितामह आचार्य देव शिरीषचंद्र मुखोपाध्याय (1873-1966)'और 'प्रेमीक' हैं आन्दुल काली कीर्तन समीति के संस्थापक - शाण्डिल्य गोत्रीय  महेंद्रनाथ भट्टाचार्य (1844 - 1908)

मैं कई वर्ष पुरानी बात कहने जा रहा हूं। माघ महीने के आखरी दिन की पूर्वरात्रि है। मध्य रात्रि मानों साँय साँय कर रही है , और उसी प्रकार घना अँधेरा भी छाया हुआ है । सर्दी कम होती जा रही है, और पतली त्वचा को स्पर्श करती हुई 'दक्षिण' की ठंढी हवा चल रही है। आन्दुल के सड़कों पर रास्ता भूला पथिक भटक गया है। रटन्ती चतुर्दशी की मध्यरात्रि के धुप्प अन्धकार में आन्दुल के पेंड़-पौधे,  मानों छिप गए हैं। उसी नीरव अँधेरे में पूरा गाँव कुप्प सोया पड़ा है; और आन्दुल की सड़कों पर पथिक चलता जा रहा है । चलते -चलते कब सरस्वती -नदी का श्मशान घाट और नदी का पानी एकाकार हो गया, कुछ पता नहीं चला। थोड़ा सा मतवालेपन के भाव में है है। कोई रास्ते की पहचान करने में सहायता भी नहीं करेगा। 'मेघेर्मेदूरमईश्वरं... (संस्कृत) खुले आसमान में बादलों की घोर घटायें छा रही हैं! रास्ता बिल्कुल सुनसान है , कोई मानव-जात नहीं दीख रहा है। लेकिन उसी यशस्वी पुण्य-रजनी की जीवनीशक्ति द्वारा अनुप्रेरित होकर, पथिक मानो छोटे-छोटे कदमों से चला जा रहा था । 

       बहुत दूर चलने पर किसी घर के एक छेद के माध्यम से, पथिक को प्रकाश की एक लंबी रौशनी आती हुई दिखाई दी। पथिक मानो रटन्ती पूजा की उसी रौशनी को  सूँघते हुए उस दिशा की ओर बढ़ गया। गंतव्य स्थान पर पहुंचने में अधिक देरी नहीं हुई । पथिक ने देखा कि अभी-अभी देवी पूजा समाप्त हुई है। देवीपीठ (यानि शक्तिपीठ) का 'याग दीपक' जल रहा है। पूजक पूजा समाप्त करके सुखासन पर बैठे हुए हैं। प्रेमिक महाराज ने मित्रवत नेत्रों से 'निवात पद्मास्तिमितेन चक्षुषा' पथिक की ओर देखकर कुछ देवी का प्रसाद दिए। तब उस 'प्रसाद-प्रसन्न पथिक'  ने कहा -  " अभी-अभी  मैं  माँ सिद्धेश्वरी मंदिर (आन्दुल) में रटन्ती काली पूजा सुसम्पन्न देखने के बाद यूँही गांव की प्रदक्षिणा करता हुआ घूम रहा था -और  'को जागर्ति' -अर्थात 'कौन जाग रहा है ?' की खोज कर रहा था। आपको देखकर मेरी आशा बढ़ गयी, मुझे भरोसा हो गया कि यह देश , आज भी  साधक-रहित नहीं हुआ है। (बंगाल का यह पुण्य गाँव आन्दुल आज भी श्रद्धावान रहित या काली-उपासक से रहित नहीं हुआ है !) इस पूजा स्थल के यंत्र- उपचार आदि को देख कर , यह समझा जा सकता है कि यहाँ 'वीररात्रि #“साहस की रात्रि”-निमित्त -अनुष्ठान' भी सिद्ध-विद्या आविर्भाव पद्धति से सुसम्पन्न हुआ है। 

 [वीर रात्रि# जब सूर्य मकर राशिस्थ होने पर मंगलवार के दिन चतुर्दशी हो और उसी दिन मकरकुल नक्षत्र (भरणी, रोहिणी,पुष्य, उ.फा.,चित्रा, विशाखा, ज्येष्ठा, पू.षा., श्रवण, उ.भा, नक्षत्र) पड़े तो उसे वीर रात्रि कहा जाता है। इसी वीर रात्रि में विष्णु जी की तपस्या के फलस्वरूप महात्रिपुर सुंदरी के तेज से माँ पीतांबरा देवी का आर्विभाव हुआ था।]

     क्या आप ही काली -कीर्तन के रचयिता 'प्रेमिक महाराज' हैं? प्रेमीक महाराज 'निशीख-दीपा सहसा हतत्वियः' मुस्कुराने वाली हँसी हँसे।  तब प्रेमीक महाराज और पथिक जी के बीच गहरा परिचय हो गया। मानो 'भावस्थिराणि जननांतर सौहृदानि॥' # जब कोई प्राणी सुखी होने पर भी किसी रमणीय दृश्य को देखकर या मधुर शब्दों को सुनकर उत्कंठित हो उठता है, तब निश्चय ही उसका चित्त अचेतन रूप से किसी ऐसे पूर्व-संबंध की याद कर रहा होता है जो उसके आभ्यंतर में संस्कार-रूप में स्थिर हो गया है।[#अभिज्ञान शाकुंतलम्‌5:2]

    फिर तो उसी 'यज्ञ प्रदीप ' के सामने बैठे  प्रायः पूरी रात जागते हुए प्रेमिक -पथिक संवाद चलने लगा। उसी प्रेमिक -पथिक संवाद से बाद में मैं जितना समझ सका, सोचा हूँ कि मैं उसे आपको मन-मुताबिक ढालकर बता दूं। 'पारी कि हारी ' --एकबार देखि !'  बताने में सक्षम होता हूँ, या नहीं- एक बार कोशिश करता हूँ। अगर मैं बताने में सक्षम हो सका तो - "हे प्रेमीक ! वह तुम्हारा गुण है! " और यदि न बता सका , तो हे पथिक ! यह दोष तुम्हारा है ! मैं तो सिर्फ अदरक का खुदरा व्यापारी हूँ -'किमार्द्रक-वणिजो वहित्र-चिन्तयेति ।'अर्थात  - अदरक बेचने वाला व्यापारी जहाजों की चिंता क्यों करेगा?  ('अद्वैत सिद्धि ' ग्रन्थ के लेखक मधुसूदन सरस्वती ने इस न्याय का प्रयोग पूर्णतया असंबंधित विषयों के लिए किया था।

           सबसे पहले 'दक्षिण का नवद्वीप' कहे जाने वाले आन्दुल के तंत्रमार्ग के साधक भैरवी-चरण विद्यासागर की  कथा से बातचीत का प्रारम्भ हुआ। प्रेमीक महाराज ने कहा - विद्यासागर ने समस्त 'अपरा-विद्या' को पढ़ लेने के बाद 'समयाचार'  तक को विसर्जित करके तंत्र-मार्ग के महाविद्या की साधना में ही अपना बाकी का जीवन उत्सर्ग कर दिया था। पिछले वर्ष की स्थानीय तंत्र-सभा में विद्यासागर के भैरवी चरण  के पंचमुण्डी आसन पर बैठकर मंत्र-साधना करने का प्रसंग पर आपने मुझे विस्तार से चर्चा करने का जो अवसर दिया था , उसे फिर से यहाँ दोहराना अनावश्यक और कुछ हद तक अप्रासंगिक होगा। तथा मेरे पास पथिक-प्रेमीक की अन्य बातें आपके सम्मुख प्रस्तुत करने का समय नहीं बचेगा। मैं उस रात उस दुर्लभ-शुद्ध-निर्मल - प्रश्न-उत्तर सत्र को सजाकर कहने में संकोच अनुभव कर रहा हूँ। क्योंकि यह सारी रात चलने वाला प्रश्नोत्तरी- सत्र  है! मैं उस रात की उस विरल (दुर्लभ) -निर्मल (पवित्र) - सम्पूर्ण रात्रि तक चलने वाले विशुद्ध प्रश्न-उत्तर सत्र को मैं कभी भूल नहीं सकता। तंत्र-मार्ग में केवल मुण्डासन के ऊपर ही कितनी चर्चा हुई थी! 

पथिक ने पूछा - महाराज, तो फिर 'पञ्च मुण्डी ' -साधना क्या है पथिक के इस प्रश्न का  उत्तर देते हुए प्रेमिक महाराज ने कहा, "एक मुण्ड "निष्पद" - बिना पैर वाला सरीसृप यानि सर्प का 1 मुण्ड । दूसरा मुण्ड "चतुष्पद" - यानि चार पैरों वाले सियार का 1 मुण्ड। तीसरा मुण्ड "चतुष्कर" -वह जंतु जिसके चारों पैरों के आगे के भाग हाथ के समान हों, पंजेवाले जानवर जैसे बन्दर का 1 मुण्ड। और दो मुण्ड "द्विपद" का - यानि निम्नस्तर का नर जैसे चण्डाल का 2 मुण्ड।  कुल मिलाकर 5 मुण्ड या 'पंचमुण्डी' कहा जाता है।  

 पथिक : " अच्छा उस पर बैठकर - मुण्डासन में साधना कैसे की जाती है? " 

प्रेमिक : "शास्त्र से कुछ सुन लेने या पढ़ लेने से कोई व्यक्ति साधक तो नहीं हो सकता। दक्षिणेश्वर के परमहंसदेव कहते थे- पञ्चाङ्ग में लिखा है इस बार 20 आना पानी होगा। लेकिन पञ्चाङ्ग को दबाने से एक बून्द पानी भी नहीं मिलेगा। " पुस्तक पढ़ लेने, फिर अभ्यास करके उसे आत्मसात करने, और अन्तर्निहित दिव्यता (पूर्णता या निःस्वार्थपरता) को अभिव्यक्त करने में यही अन्तर है।

🏹🔱🕊तंत्र साधना में आगम और निगम के सप्तकोटि ग्रन्थ हैं 🏹🔱🕊 

 प्रश्न - महाशय ! आपके विचार से ऐसी तंत्र साधना की कुल कितनी पुस्तकें होंगी ?

उत्तर : सदाशिव ने देवी को सप्तकोटि महाग्रंथ के बारे में बताया है। 

 चामुंडा मुंडमाला ही योगिनी यामलं तथा,

कामाख्या कुजिका राधा कंकालमालिनी शिवे।।

नित्या निलं महानिलं महानिर्वाणमर्नवं,

फेत्कारिणी फेरु प्रिये मरु मंत्रमहोमधिः।।

डमरं डामरं डीनं श्रौतं काली विलासकं, 

सप्तकोटिः ग्रंथा मम वक्तोद विनिर्गतः।।  

[~ रुद्रयामल तन्त्र (तन्त्र-शास्त्र का अद्भुत विश्वकोश।)] 

देवी पार्वती से सदाशिव जो कहते हैं वह है आगम । आगम और तंत्र दोनों पर्यायवाची पद माने गए हैं।  भगवान शिव ने  शिवा को (पराम्बा) को तंत्रों का उपदेश दिया तथा ये तंत्र श्री नारायण (वासुदेवस्य) को भी मान्य हुए। 

आगतं शिव वक्त्रेभ्यो गतं च गिरिजा श्रुतौ ।

मतञ्च वासुदेवेन आगम संप्रवक्षते ।।

आ -ग -म - यानि 'आ' -माने, आगतं शिव वक्त्रेभ्यो; 'ग' माने, गतं च गिरिजा श्रुतौ। 'म' माने,  'म'तं च श्रीवासुदेवेन आगमं सम्प्रवक्ष्यते।।' अर्थात शिव बोलते हैं, और गौरी सुनती हैं , यही श्रीवासुदेव का मत है। यथा -'नि'-र्गतो गिरिजावक्रातू 'ग'-तश्च गिरिशश्रुतिम्‌ । 'म'-तश्च वासुदेवस्थ निगमः परिकल्प्यते। पुनः आगम और निगम का प्रयोग अनेक स्थानों पर एक ही अर्थ में किया जाता है। सम्पूर्ण आगम शास्त्रों के वक्ता हैं सर्वान्तर्यामी मायातीत भगवान शिव , श्रोत्रि हैं माँ पार्वती, लिपिबद्ध करने वाले हैं सिद्धिदाता गणेश। और प्रचारक हैं गुफाओं में निवास करने वाले सिद्ध महापुरुष। 

पथिक का प्रश्न - लेकिन क्या तंत्र शास्त्र के साथ अन्य सभी धर्ममार्गों और सम्प्रदायों का सामंजस्य किया जा सकता है? 

उत्तर - हाँ जी, बिल्कुल किया जा सकता है ! वैदिक मन्त्रों को छोड़कर जितने भी मंत्र हैं वे सभी तांत्रिक हैं। गुरु-शिष्य दीक्षा- पद्धति तथा उसमें प्राप्त होने वाला बीजमंत्र, सभी तांत्रिक हैं। श्री चैतन्य महाप्रभु को तांत्रिक विष्णु मंत्र में ही दीक्षित किया गया था। जगतगुरु शंकराचार्य श्रीकुल (कुलार्णव तंत्र) के तांत्रिक थे। विष्णुक्रान्ता  के एक अन्य शंकराचार्य काली-कुल के प्रसिद्द सिद्ध तांत्रिक महापुरुष हैं।(विष्णुक्रान्ता समानार्थक:-आस्फोटा,गिरिकर्णी,विष्णुक्रान्ता, अपराजिता स्त्री।) जब कभी होम करना होगा, तो उसकी विधि या तो वैदिक होगी या तान्त्रिक होगी। संध्या विधि वैदिक भी है, तांत्रिक भी है।   शाक्त भक्तों की दस महाविद्या, और वैष्णव भक्तों के दशावतार , दोनों का आधार एक ही है। 

"कृष्णरूपा कालिका स्याद्रामरूपा (स्यात राम रूपा) च तारिणी ।" 

'काली-कृष्ण दोनों के शरीर नवीन मेघ के समान नीलकान्ति हैं। माँ तारा - शक्ति के साथ राम; माँ षोडशी -जामदग्न्य  दोनों के हाथ में कोदण्ड, माता भुवनेश्वरी - वामन;  त्रिभुवनेश्वरी और त्रिविक्रम - दोनों ने देव पृथ्वी की रक्षा की; माँ भैरवी - वराह; माँ छिन्नमस्ता - नृसिंह, माँ धूमा-वती - मीन।

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Quadrumana :

🔱बालगोपाल और माँ आद्या शक्ति काली की मूर्ति दोनों अपनी पूर्णता में निर्वस्त्र हैं !🏹 

1.सामंजस्य ^*  एक बार तंत्र-शास्त्रों  के बारे में आचार्यदेव ने सर जॉन वुड्रूफ़ [Sir John Woodroffe : (1865 - 1936)] से कहा था - "तंत्रशास्त्र में पुस्तकों की संख्या सात करोड़ थीं' ऐसा कहना अतिशयोक्तिपूर्ण हो सकता है  - लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि तंत्रों की संख्या बहुत अधिक है। इस पर सर जॉन वुड्रूफ़ ने तुरंत उत्तर दिया - "No, no , when Sadashiva tells it, it must be accepted as literally true !" - " नहीं, नहीं, जब सदाशिव इसे कहते हैं, तो इसे अक्षरशः सत्य मान लेना चाहिए! " मेरे जैसे कितने पाश्चात्य शिक्षा में शिक्षित श्रोता के मुख से यह बात निकल सकती है ? (शायद इसी को कहते हैं श्रद्धा !) 

[सर जॉन वुड्रॉफ़  ब्रिटेन में जन्में एक भारतविद थे। आर्थर एव्लन (Arthur Avalon) उनका छद्मनाम था। उन्होने भारतीय दर्शन एवं योग पर बहुत महत्वपूर्ण कार्य किया जिससे भारत के प्रति पश्चिमी जगत में रूचि जागी। वुड्रॉफ़ की - 'The Serpent Power' - तांत्रिक और शक्ति योग का रहस्य, कुंडलिनी योग के अभ्यास पाश्चात्य लोगों में प्रसिद्द है। वुडरॉफ की दूसरी चर्चित पुस्तक है 'Garland of Letters' जिसमें उन्होंने लिखा है कि "ब्रह्मांडीय सृष्टि"  एक प्रारंभिक  कंपन (शाश्वत स्पंदन) से प्रारम्भ होती है]

2. फिर श्री कृष्ण की बालगोपाल-मूर्ति और माँ आद्या शक्ति काली की मूर्ति, वे दोनों ने अपने-अपने वस्त्र नहीं पहने हैं - पूर्णता में निवस्त्र (नग्न) हैं।

बाल -गोपाल के हाथ में लड्डू है - जगदम्बा के हाथों में मुण्ड है। ऊर्जा अविनाशिता के नियमा-नुसार ऊर्जा (शक्ति E=Mc2) कभी भी नष्ट नहीं होती है, वरन्‌ एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित होती रहती है। मंत्र उच्चारण से ध्वनि उत्पन्न होती है, उत्पन्न ध्वनि का मंत्र के साथ विशेष प्रभाव होता है। विभिन्न बीज मंत्र इस प्रकार हैं :"ॐ ह्रीं क्लीं र'लये रभेदः" - ॐ- परमपिता परमेश्वर की शक्ति का प्रतीक है। ह्रीं- माया बीज है, श्रीं- लक्ष्मी बीज, क्रीं- काली बीज,ऐं- सरस्वती बीज, क्लीं- कृष्ण बीज...ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे॥”

     पुनः श्रीमहाभागवत -पुराण के मतानुसार स्वयं माँ भद्रकाली ही कृष्ण का रूप धारण करके इस धरा पर अवतीर्ण हुई थीं। उसी प्रकार सी-'तारा' म -  हो गए -सीताराम 

" वगला कूर्म्म' मूर्त्तिः स्यान्मीनो धूमावती भवेत् ॥ 

छिन्नमस्ता नृसिंहः स्याद्वराहश्चैव भैरवी । 

सुन्दरी जामदग्न्यः स्याद्बामनो भुवनेश्वरी

 कमला बौद्ध' रूपा स्यात् मातङ्गी कल्कि' रूपिणी ।

 स्वयं भगवती काली कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् ॥

 स्वयञ्च भगवान् कृष्णः कालीरूपो भवेद्व्रजे ।”

[इति मुण्डमालातन्त्रम् ]

   माँ वगला ही कूर्म बनी थी, मातंगी कल्कि, कमला बुद्ध बनी थीं , और भगवती काली ही स्वयं ब्रज में भगवान श्री कृष्ण हैं ! फिर, श्री महाभागवत पुराण के अनुसार, माता भद्रकाली भगवान श्रीकृष्ण की कुलदेवी यानी ईष्टदेवी थीं। या माँ भद्रकाली ही कृष्ण के रूप में अवतरित हुई हैं। उसी प्रकार माँ तारा भगवान राम की कुल देवी हैं, माँ सीता का “ता”और भगवान राम का “रा” मिल कर नाम बनता है “तारा" [देवभूमि उत्तराखंड में अल्मोड़ा के बागेश्वर की कमस्यार घाटी में स्थित माता भद्रकाली का परम पावन दरबार सदियों से अस्था व भक्ति का केन्द्र है।]

🏹🔱🕊कौल तन्त्र की महापद्धति में आचार सप्तविध हैं 🏹🔱🕊  

>तन्त्र मार्ग में सप्त आचार के अन्तर्गत वैष्णवाचार भी है -आचार सप्तविध हैं। यथा- वेदाचार, वैष्णवाचार, शैवाचार, दक्षिणाचार, वामाचार, सिद्धान्ताचार और कौलाचारएक- एक  आचार ही अपने आप में सम्पूर्ण तन्त्र साधना है - साथ ही इसमें हर तरह की साधनायें अंतर्निहित हैं। देवी के प्रति शिव की उक्ति का स्मरण करें -

" करि-पादे निमज्जन्ति सर्व प्राणि पदा यथा। 

कूलधर्मे निमज्जन्ति सर्व धर्मा स्तथा प्रिये।

 जिस प्रकार वन में हाथी के विशाल पदचिन्हों में गोष्पद आदि सभी प्राणियों के पदचिन्ह छिप जाते हैं, उसी प्रकार कौल तन्त्र की महापद्धति में सभी धर्मपद्धति सम्मिलित है। साधारण आचार की अपेक्षा वेदाचार, वेदाचार से वैष्णवाचार, वेदाचार से शैवाचार, शैवाचार से दक्षिणाचार, दक्षिणाचार से वामाचार, वामचार से सिद्धान्ताचार और सिद्धान्तचार से कौलाचार श्रेष्ठ होत है। कौलाचार ही आचार की अन्तिम सीमा है, इससे श्रेष्ठ आचार नहीं है । साधक को वेदाचार से आरम्भ करके क्रम से उन्नति की उपलब्धि करनी होती है; एक ही बार में कोई कौलाचार में आगमन नहीं कर सकता है । कौलयोगी की विशेषताओं तथा लक्षणों का वर्णन करते हुए उसे महायोगी बताया गया है।

‘‘न गुरौसदृशं वस्तु-न देवः शंकरोपम। 

नतु कौला परमो योगे-न विद्या त्रैपुरीसमा। ’’ 

(श्यामारहस्य) 

श्री गुरू के समान कोई मनुष्य नहीं, भगवान शंकर के समान कोई देवता नही, कौलयोग के समान कोई योग नहीं तथा श्री त्रिपुरा के समान कोई महाविद्या ^*१  नहीं है। 

🏹🔱🕊कुलधर्म में सिद्ध किसी कौल महायोगी के लक्षण क्या हैं ?🏹🔱🕊 

प्रश्न - 'कूलधर्म' क्या है ?

उत्तर - कौल ^* के लक्षण दिखाई देते हैं - 

"अन्तः शाक्ताः, बहिः शैवाः, सभा मध्ये च वैष्णवाः ; 

नाना रूप धराः कौलाः, विचरन्ति मही तले। "

 - अन्दर से शक्ति के उपासक, बाहर से शिव के पुजारी, लोगों के सामने 'शुद्ध शाकाहारी' वैष्णव जैसे दिखाई देने वाले, काली की पूजा करने वाले लोग धरती पर तरह-तरह के रूप बदल-बदल कर टहलते रहते हैं। अन्दर से शाक्त, बाहर से शैव, सभा मध्य में वैष्णव इसी प्रकार नाना वेशधारी कौल समस्त पृथ्वी में विचरण करता है । तुमने भी वो कहवत सुनी है न ? - 'बाहर से शैव, हृदय में काली, मुख में हरिनाम !' 

पथिक ने पूछा - महाशय क्या ऐसा (कौल) होना बहुत कठिन नहीं है ? 

प्रेमिक महाराज हँसते हुए बोले - " हाँ , शाक्त होना बहुत कठिन है। एक के बाद दूसरा आचार , सभी की साधना - सभी साधनाओं को अपने में समेटे 'हस्तिभुक्तकपिखवत। इसके भी ऊपर , वह भोगों में आसक्त नहीं होता , लेकिन जो शरीर से 'अशक्त' नहीं हो वही शाक्त है। इसलिए शाक्त होना बहुत कठिन है। पथिक ने कहा - तब तो सच्चा 'प्रेमिक(true 'lover') पुरुष (आत्मा ?) ही हुए !  

🏹🔱🕊काली शब्द का अर्थ क्या है ?🏹🔱🕊 

पथिक ने  पुनः प्रश्न किया - " शाक्त के लिये काली तो ब्रह्ममयी हैं ! फिर 'काली' शब्द से मैं क्या समझूँ ? 

स प्रश्न के उत्तर - तर-तर उसको उत्तरोत्तर प्रेमिक का प्रेम मानो उनके कण्ठ में आ गया। वे बोले जैसा कि कहा जाता है -'कूलर बातास' ठंढी हवा। जो मूर्ति अच्छी लगे उसीका ध्यान करना। परन्तु समझना कि सभी एक हैं

Quadrumana :3 /उन्होंने कहा -" अस्माकम देशे आर एक टी अद्भुत कथा शोना जाय जे --- अर्थात अपने देश में एक विचित्र बात सुनने को मिलती है कि "- उर्ध्व नभः संचारी ऊपरी मेघ में सूक्ष्म अंग वाला अंडाकार अंग्रेज़ी अक्षर U के आकार के जैसा द्विमीय वक्र परवलय (parabola-पैराबोला)-जैसा कुछ रहता है। तथा समुद्र में अब  भी कई उड़ने वाली मछलियां रहती हैं जो घोर गर्जना करने वाले बादलों के तूफानी रातों की घूर्णी-झड़ में ....जलधि (समुद्र)-हृदय से पूर्व-जन्म के संस्कार वश सरीसृप के रूप में मेघ-मंडल से निकल कर वंशावली पान करके नीचे आ जाती हैं। हमलोगों के दर्शन-काव्यों में भी कहीं कहीं मेघों की गर्जना (ध्वनि big bang Sound) के समय में बलाकार गर्भ धारण- का वर्णन किया गया है यथा, " गर्भाधानक्षणपरिचयात् आबद्धमालाः बलाकाः नयनसुभगं भवन्तं खे सेविष्यन्ते । गर्भाधानेन स्थिरः परिचयो यासां ताः । मेघगर्जितेन हि ताः सगर्भा भवन्तीति वार्त्ता।" मेघदूतम् (कालिदास)। आँखों को प्रिय लगने वाले हे मेघ ! गर्भाधान के उत्सव (आनन्द) के अभ्यास के लिए आकाश में पंक्तिबद्ध  बगुलियाँ -आपका आश्रय अवश्य लेंगी, आपकी सेवा अवश्य करेंगी। 

  भगवान व्यास देव द्वारा रचित 'वेदांत दर्शन' (ब्रह्मसूत्र) के एक सूत्र - " देवादिवदपि लोके।। (ब्रह्मसूत्र 2.1.25) पर लिखित शंकर भाष्य में कहा गया है- तन्तून्सृजति बलाका चान्तरेणैव शुक्रं गर्भं धत्ते पद्मिनी चानपेक्ष्य किंचित्प्रस्थानसाधनं सरोन्तरात्सरोन्तरं प्रतिष्ठते एवं चेतनमपि ब्रह्म अनपेक्ष्यैव बाह्यं साधनं स्वत एव जगत्स्रक्ष्यति। ....  बलाका च स्तनयित्नुरवश्रवणाद्गर्भं धत्ते'...  पद्मिनी। कार्यारम्भे बाह्यं साधनमपेक्षन्ते न देवादयः तथा ब्रह्म चेतनमपि न बाह्यं साधनमपेक्षिष्यत इत्येतावद्वयं देवाद्युदाहरणेन विवक्षामः।" अर्थात देवता, पितर, ऋषिगण चेतन होते हैं। ये संकल्प मात्र से विविध कार्य करने में समर्थ होते हैं। इन्हें बाह्य साधनों की अपेक्षा नहीं होती। इस तथ्य का प्रतिपादन मन्त्र, अर्थवाद, इतिहास, पुराण आदि करते हैं। लोक में भी ऐन्द्रजालिक का दृष्टान्त भी प्रसिद्ध ही है। मकड़ी अपने आप ही तन्तुओं का सृजन करती है। (बलाका या सारस , मादा बगुला, बगली, प्रेयसी, प्रेमिका।) जिस प्रकार बलाका (बगुली) शुक्र (वीर्य) के बिना ही गर्भ धारण करती है। ऐसे ही चेतन ब्रह्म भी बाह्यसाधनों की अपेक्षा के बिना ही जगत का अभिन्ननिर्मित्तोपादान कारण होने में समर्थ है। आमतौर पर कुम्भकार को घड़ा बनाने के लिए दण्ड, चक्र, चीवर आदि चाहिए। ऐसे ही लकड़ी की मेज बनाने वाले बढ़ई  को वसुला चाहिए, लकड़ी चाहिए, सूत चाहिए। लेकिन कहते हैं, 'कल्पवृक्ष' में यह चमत्कार है कि उसके नीचे बैठकर कामना करें तो बिना साधन के जो चाहो सो मिल जाय।  चिन्तामणि में यह चमत्कार है कि जो चाहो सो मिल जाय, कामधेनु में वह चमत्कार है कि जो चाहो वह उससे मिल जाय।  जो साधन कुम्भाकार को चाहिये, जो साधन बढ़ई को चाहिये, जो साधन स्वर्णकार को चाहिए, वैसा कोई साधन कामधेनु को नहीं चाहिए। कल्पतरु, कामधेनु और चिन्तामणि से भी अधिक चमत्कार पूर्ण हमारे ऋषि होते हैं, उनमें बहुत चमत्कार है, बहुत शक्ति है।  वे बिना वाह्यसाधन के संकल्प मात्र से अभीष्ट वस्तु प्रदान कर सकते हैं। संकल्प किया और काम सिद्ध हुआ। अनन्त कोई ब्रह्माण्ड नायक भगवान अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण, श्रीश्री माँ सारदा और स्वामी विवेकानन्द   में तो देवताओं से भी अरबों गुना ज्यादा, ऋषियों से भी अरबों गुना ज्यादा अनन्त-अनन्त चमत्कार है।

मनुष्य से सबसे बड़ी भूल यह होती है कि वह-कार्य को तो देखता है, पर जिसकी शक्ति से कार्य हुआ, उस कारण को देखता ही नहीं ! मिली हुई वस्तु (देह- मन आदि) को तो अपनी मान लेता है, पर जहाँ से वह मिली है उस तरफ उसकी दृष्टि जाती ही नहीं ! वह मिली हुई वस्तु को तो देखता है, पर देने वाले  को देखता ही नहीं वास्तव में वस्तु (सफलता -विजय) अपनी नहीं है, प्रत्युत देने वाला अपना है । केनोपनिषद्‌में आता है‒ 

" ब्रह्म ह देवेभ्यो विजिग्ये तस्य ह ब्रह्मणो विजये देवा अमहीयन्त। 

 त ऐक्षन्तास्माकमेवायं विजयोऽस्माकमेवायं महिमेति।।" (३ । १)

'ब्रह्म' ने देवगणों के लिए विजय प्राप्त की तथा 'ब्रह्म' की उस विजय में देवगण महिमान्वित हुए। उन्हें दिखाई पड़ा कि "यह विजय हमारी है, यह हमारी ही महिमा है ।” 

अर्थात परब्रह्म परमेश्वर ने ही देवताओं के लिये (उनको निमित्त बनाकर) असुरों पर विजय प्राप्त की । परन्तु उस परब्रह्म परमेश्वर की विजय में इन्द्रादि देवताओं ने अपने में महत्त्व का अभिमान कर लिया । वे ऐसा समझने लगे कि यह हमारी ही विजय है और यह हमारी ही महिमा है ।’

 देवताओं के इस अभिमान को नष्ट करने के लिये परब्रह्म परमात्मा उनके सामने 'यक्ष' (तेज) रूप से प्रकट हो गये । उसको देखकर देवता लोग आश्रर्यचकित होकर विचार करने लगे कि यह यक्ष कौन है ? उसका परिचय जानने के लिये देवताओं ने अग्निदेव को उसके पास भेजा । यक्ष के पूछने पर अग्निदेव ने कहा कि मैं जातवेदा के नामसे प्रसिद्ध अग्निदेवता हूँ और मैं चाहूँ तो पृथ्वी में जो कुछ है, उस सबको जलाकर भस्म कर सकता हूँ । तब यक्ष ने उसके सामने एक तिनका रख दिया और कहा कि तुम इस तिनके को जला दो । अग्निदेव अपनी पूरी शक्ति लगाकर भी उस तिनके को नहीं जला सका और लज्जित होकर देवताओं के पास लौट आया।  एवं बोला कि वह यक्ष कौन है‒यह मैं नहीं जान सका । तब देवताओं ने वायुदेव को यक्ष के पास भेजा । यक्ष के पूछने पर वायुदेव ने कहा कि मैं मातरिश्वा के नाम से प्रसिद्ध वायु देवता हूँ और मैं चाहूँ तो पृथ्वी में जो कुछ है, उस सब को उड़ा सकता हूँ । तब यक्ष ने उसके सामने भी एक तिनका रख दिया और कहा कि तुम इस तिनके को उड़ा दो । वायुदेव अपनी पूरी शक्ति लगाकर भी उस तिनके को नहीं उड़ा सका और लज्जित होकर लौट आया एवं देवताओं से बोला कि वह यक्ष कौन है‒यह मैं नहीं जान सका । तब देवताओं ने इन्द्र को उस यक्ष का परिचय जानने के लिये भेजा ।  परन्तु इन्द्र के वहाँ पहुँचते ही यक्ष अन्तर्धान हो गया और उस जगह हिमाचल कुमारी उमा देवी प्रकट हो गयीं । इन्द्र के पूछनेपर उमा देवी ने कहा कि परब्रह्म परमात्मा ही तुमलोगों का अभिमान दूर करने के लिये यक्षरूप से प्रकट हुए थे। तात्पर्य है कि परमात्मा ही सम्पूर्ण शक्तियोंके मूल हैं।

साभार http://satcharcha.blogspot.com/2014/02/blog-post_19.html/ ] 

श्री उमा देवी का प्राकट्य : अथवा उमा प्रादुर्भाव वर्णनम् (The manifestation of Uma) में कहा गया है:

ऋषियोंने कहा - हे सूतजी ! अब कृपा करके उमा के अवतार का वर्णन करें जिससे सरस्वती का प्रादुर्भाव हुआ । सूतजी बोले -ऋषिगण सुनिये, एक बार देवता दैत्यों का भयानक युद्ध हुआ । तब मातेश्वरी के प्रतापसे देवता विजयी हुए । इस कारण देवताओं को गर्व हुआ । अपनी प्रशंसा करने लगे । तब उन्ही से एक कूप रूप तेज प्रकट हा गया ।  देवताओं ने ज्योंही उस तेज को देखा तो बहुत ही घबडा गये इन्द्र से जाकर बोले - वह क्या है ? तब इन्द्र ने प्रमुख देवों से उसकी परीक्षा लेने के लिये कहा । प्रथम वायु वहां पहुँचा । उस तेज ने वायु से पूछा तू कौन है ! वायु बोला मैं सारे जगत का प्राण हूँ । मेरे द्वारा जगत चल रहा है । सुनते ही तेजने कहा - अच्छा तो अपनी शक्ति से जरा इस तिनके को तो चलाकर दिखादो । तब वायु ने अपनी सारी शक्ति लगादी किन्तु तिनका तिलभर भी न हिल सका । वायु लज्जित होकर इन्द्रके पास पहुंचा । अपनी पराजयका सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनाया । 

यह सुनकर इन्द्रने अन्य देवताओं को भी उसकी परीक्षा के लिये भेजा किन्तु वे सभी पराजित हो गये । इन्द्र स्वयं वहाँ पहुंचा । इन्द्र को वहाँ आया जानकर तेज उसी समय अन्तर्धान हो गया । इन्द्र इससे अत्यन्त विस्मित हुआ । तब उस हजार नेत्रों वाले इन्द्र ने विचार किया कि जो इस प्रकार की शक्ति रखता है, मैं उसकी शरण में क्यों न जाऊं? यह सोचकर मन द्वारा इन्द्र शरण को प्राप्त हुआ । वह चैत्र मास के शुक्लपक्ष की नवमी का तथा मध्याह्न का समय था । ठीक उसी समय हेतु के बिना कृपा करने वाली, सबका अभिमान मिटाने वाली देवी प्रकट हो गई । इन्द्रसे बोली, हे सुरराज इन्द्र ! ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि भी मेरे सामने गर्व नहीं कर सकते, तो फिर अन्य देवताओं की तो सामर्थ्य ही क्या है । मैं परब्रह्म प्रणव-स्वरूप देवी हूँ । मेरी कृपा से तुम लोगों न दैत्यों पर विजय पाई है । हे देवतागण ! तुम अपना अभिमान त्याग कर के नम्रता के साथ मेरा भजन करो । इतना सुनकर देवताओं ने प्रणाम तथा स्तुति करके कहा - हे महामाये ! अब तो आप क्षमा करें । आगे इस प्रकार का वरदान दें जिससे हमें फिर अभिमान न हो । सूतजी बोले - तभी से देवताओं ने अभिमान त्यागकर उमादेवी की आराधना प्रारम्भ कर दी ।इति ।

 ‘यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते’ (तैत्तिरीय॰ ३ । १) सर्वेंश्वर सर्वशक्तिमान् परमेश्वर विश्वप्रपंच को किस रीति से बनाता है? क्या मिट्टी घड़ा बनाने वाला कुम्भकार निर्गुण है? यदि वह ज्ञानवान, इच्छावान, क्रियावान् न हो तो मिट्टी से घड़ा नहीं बन सकता। इसी तरह चन्द्रमण्डल, भूमण्डल, गगन, सागर, पर्वत का निर्माण करने वाला परमात्मा ज्ञानवान, इच्छावान क्रियावान हैं।  जब मिट्टी का घड़ा बनाने वाला ज्ञानवान, क्रियावान तो चन्द्रमण्डल, भूमण्डल, गगन, सागर, पर्वत आदि का निर्माण करने वाला परमात्मा ज्ञानवान, इच्छावान, क्रियावान सगुण है, ऐसा ही जानना चाहिये। मेघदूत काव्य पर मल्लिनाथ की टीका में भी कहा गया है -'गर्भं बलाका दधतेऽभ्रयोगान्नाके निबद्धावलयः समन्तात्।

    उपनिषदों में आया है‒"परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञान- बलक्रिया च ॥ ( श्वेताश्वतर॰ ६ । ८) ‘इस परमेश्वर की ज्ञान, बल और क्रिया रूप स्वाभाविक दिव्य शक्ति नाना प्रकार की ही सुनी जाती है ।’  

 तन्त्रोक्त देवी धूमावती के मत्स्यावतार में 'प्रलय-पयोधिजले'- केशव  धृत मीन शरीर' ही प्रथम अवतारी श्रीभगवान हैं। " सृष्टि-तत्त्व का दूसरा सोपान जल-थल उभयचर 'कूर्म' या कछुआ। 'उर्ध्वे' ..... धरणि- धारण-किण चक्र-गरिष्ठे, या चक्राकार मुकुटधारिणी और 'निम्ने' पाताल -रत्नसिंहासन- स्थिता 'दुर्गम'-नामक दैत्य -संहार कार्य में निरता माँ बगलामुखी मूर्ति। सृष्टि तत्व का तीसरा सोपान - महाबराह और उसके 'दशन शिखरे धरणी तव लग्ना पृथ्वी; ' वैसे ही माँ भैरवी अपने हाथों में पुस्तक और जपमाला लेकर, जप में निरत दिखाई देती हैं। सृष्टि की चौथी अवस्था में भगवान नृसिंह - सिंह का मस्तक (anthropoid Lion) यदि काट दिया जाय तो मानवीय शरीर में रहती हैं -माँ छिन्नमस्ता। नीचे रति -कामासन पर, विपरीत रति मे आसक्त काम और रति के ऊपर खड़ी है। खड़ी हैं, माँ एक मैथुन करते हुए जोड़े के ऊपर खड़ी हैं। यहाँ तक तन्त्र में निहित सृष्टि -रचना के रहस्य को देव-देवी की सौम्य मूर्तियों  के माध्यम से केवल इंगित भर की गयीं हैं। 

4. पुराणों के अनुसार कदम्ब वन में मतङ्ग ऋषि ने कठिन साधना की थी, जिसके फलस्वरूप माँ मातंगी के रूप में अविर्भूत हुई थी। मदशील मतङ्ग नामक असुर - का बाल उसकी विनाशिनी मतंगी के हाथ में और ' कल्कि ' के हाथ में है।  'म्लेच्छ-निवह-निधने कलयसि करवालम्। ' इसके भी परे मातंगी देवी -संगीत की माता है। 

5. 'सर्वे पदा हस्तिपदे निमग्ना:'॥ कुलार्णव तन्त्रम्/९३ ॥ इस कहावत के अनुसार जिस तरह हाथी के पैरों में सारे प्राणियों के पैर समा जाते हैं उसी तरह सारे दर्शन भी कुलदर्शन में ही समाहित हो जाते हैं। 

एकत: सकला धर्मा यज्ञ-तीर्थ- व्रतादय:।

एकत: कुलधर्मश्च तत्र कौलोऽधिक: प्रिये।।

   एक ओर तराजू के पलड़े पर सारे धर्म, सारे यज्ञ, तीर्थ और व्रतों को रख दिया जाय, दूसरी ओर दूसरे पलड़े पर कुलधर्म हीं केवल रखा जाय, तो यह निश्चय है कि सन्तुलन का दण्ड कुलधर्म की ओर हीं झुका रह जायेगा।

योगी चेन्नैव भोगी स्याद् भोगी चेन्नैव योगवित्।

भोगयोगात्मकं कौलं तस्मात् सर्वाधिकं प्रिये।।

   योग की साधना मेॆ प्रवृत्त मुमुक्षु साधक भोगी नहीं हो सकता। इसी तरह भोग में लिप्त व्यक्ति योगी नहीं हो सकता। प्रिये! इस कुलधर्म की सबसे बड़ी विशेषता है कि यह कौलधर्म भोग-योगात्मक धर्म-दर्शन है। यह विशेषता अन्य किसी धर्म में नहीं।

शंकराचार्य यह भी कहते हैं कि शक्ति के पलक बन्द करते ही समस्त ब्रह्माण्ड प्रलय से नष्ट हो जाता है तथा उनके पलक खोलते ही ब्रह्माण्ड पुनः अस्तित्व में आ जाता है-‘‘निमेषोन्मेषाभ्यां प्रलयमुदयं याति जगती’’

6. कौल मार्ग के अनुसार - लय का भी जो विलय करती है, अर्थात जो पुनः सृष्टि करती हैं , वे ही काली हैं।"

'कुलं कुंडलिनी शक्तिरकुलस्त  महेश्वरः । 

कुला -कुलस्य तवज्ञः कौल इति अभिधीयते। 

-कुल का अर्थ है कुण्डलिनी शक्ति तथा अकुल का अर्थ है शिव।  जो व्यक्ति योग-विद्या के सहारे कुण्डलिनी का उत्थान कर सहस्रार में स्थित ‘शिव’ के साथ संयोग करा देता है, उसे ही ‘कौल’ कहते हैं। पुनश्च - 'न  कुलं कलमित्याहुः कलं ब्रह्म सनातनम। तत कले निरतो यो हि कौल इत्यभिधीयते।' यह सुनकर बज उठा । यथा -“कलयति भक्षयति प्रलयकाले सर्वम् इति काली” -अर्थात जो प्रलयकाल में सम्पूर्ण सृष्टि को अपना ग्रास बना लेती है, वह ‘काली’ है।

'कलयित इति काली - लयं करोति इति। 

काली -लयस्य विलयं करोति इति काली।

-जो प्रलयकाल मे संपूर्ण सृष्टि को अपना ग्रास बना लेती है, और फिर लय को भी जो विलय करती है , अर्थात जो पुनः सृष्टि करती हैं , वे ही काली हैं।" उस रटन्ती चतुर्दशी की महानिशा में पथिक को सब कुछ कालीमय दिखाई पड़ने लगा ।

      प्रेमिक महाराज की व्याख्या चलने लगी: 'कलयति'-अर्थात शुभ-अशुभ की वृद्धि और क्षय करने वाली हैं - उन्हीं का नाम काली है। अथवा जो इन्द्रजाल के जैसा माया (देश-काल-निमित्त)   रचती हैं वे ही काली हैं। 'कलयति ' -क्षययति , जो काल को भी खा लेती है, निगल जाती है -वे काली हैं। काली वह है जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को विलीन कर लेती हैं, और पुनः फिर से प्रकट कर देतीं हैं। शिव (मंगल ) -युक्ता होने से उनको भद्रकाली कहा जाता है। 'भद्रं मंगलं सुखं वा कलयति स्वीकरोति भक्तेभ्योदातुम् इति भद्रकाली सुखप्रदा' -जो अपने भक्तों को देने के लिए ही भद्र सुख या मंगल (शिव) स्वीकार करती है, वह भद्रकाली है। जो रोगों से हमारी रक्षा करती हैं - उन्हें माँ रक्षाकाली कहा जाता है। जब माँ काली अपने निर्भीक भक्त साधक को श्मशान घाट पर सिद्धि प्रदान करती हैं, तब उन्हें माँ श्मशानकाली कहते हैं। जो माँ जगदम्बा ब्रह्म आदि की भी जो जननी हैं - उन्हें नित्यकाली कहते हैं। हमारे साहित्य दर्शन में अर्थ को शिवरूप में एवं वाणी को उनकी शक्तिरूप में स्वीकार किया गया है — 'अर्थ:  शम्भुः शिवा वाणी' — इति ।

[वाणी और अर्थ जैसे पृथक् रूप होते हुए भी एक ही हैं उसी प्रकार पार्वती और शिव कथन मात्र से भिन्न-भिन्न होते हुए भी वस्तुतः एक ही हैं। वाणी और अर्थ सदैव एक दूसरे से सम्पृक्त रहते हैं। वाणी और अर्थ के समान शिव और पार्वती भी अभिन्न हैं। अर्थ शम्भु रूप है तो वाणी शिवा 'रूपार्थ शम्भुः शिवा वाणी' । वाक् और अर्थ दोनों ही पार्वती परमेश्वर रूप में नित्य और एक रूप हैं। एक विचित्र चित्रकर्मा जगत् चित्र के निर्माता हैं तो वाक् और अर्थ एक दूसरे के आश्रित होकर काव्यचित्र का निर्माण करते हैं।

 ब्रह्मा- विष्णु- शिवादिनाम्-यस्याः सृष्टि निजेच्छया। 

पुनः प्रलीयते यस्यां नित्यः सा प्रकीर्तिता। 

🏹🔱🕊नाद -बिन्दु से सृष्टि रचना का वैदिक सिद्धान्त🏹🔱🕊 

      उसके बाद तो प्रेमिक महाराज ने जैसे अपनी अनोखी बातों से पथिक के मन को अपने कब्जे में ले लिया था,  मानो पथिक का जैसे 'मन' ही हरण ही कर लिया हो  जैसे उन्होंने कहा, " हमलोग जिस ब्रह्माण्ड में रहते हैं, उसकी रचना करने के बाद बृद्ध ब्रह्मा को एक बार माता का दर्शन करके, उनसे अपनी सृष्टि प्रक्रिया की सारी बताने की इच्छा हुई।  ब्रह्मा की इच्छा को जानकर इच्छामयी माता ने व्योमकेश (शिव का एक नाम) को परमव्योम में एक नाद मंदिर ^ का निर्माण करने के लिए कहा। और उसी क्षण व्योम-व्योम [बम-बम] नाद करते हुए परमव्योम में एक विशाल नाद-मंदिर स्थापित हो गया वैसा नाद-मंदिर कहाँ है ?”  बोले, “मैंने उस नाद-मन्दिर को अपने मन में बनाया है।” उन्होंने एक-एक ईंट, एक-एक पत्थर करके धीरे-धीरे कई सालों तक अपने मन में वह मंदिर बनाया था।  और ऐसा मंदिर पत्थरों और ईंटों से बने मंदिर से कहीं अधिक असली होता है। ईश्वर (माँ भवानी) और गुरु भावप्रिय होते हैं, उनकी कृपा से सब कुछ संभव है । नाद -मन्दिर के भीतर 'बिन्दुवासिनी' ब्रह्मचैतन्य स्वरूपिणी  ने महाकाली की मूर्ति धारण की।- ('ब्रह्मव्योम्नो  रभेदःअस्ति चैतन्यं ब्रह्मानोअधिकम्')

[ईश्वर (ब्रह्म) चैतन्य, जीव चैतन्य और साक्षी चैतन्य अलग-अलग अस्तित्व नहीं हैं, बल्कि एक मात्र ब्रह्म चैतन्य की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। ईश्वर चैतन्य (cosmic consciousness ब्रह्मांडीय- चेतना), जीव चैतन्य (individual consciousness -व्यक्तिगत चेतना) और साक्षी चैतन्य (witness consciousness साक्षी चेतना) अलग-अलग अस्तित्व (separate entities) नहीं हैं, बल्कि एकमात्र ब्रह्म चैतन्य (absolute consciousness पूर्ण चेतना-शाश्वत स्पंदन?) की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं। ] 

     🏹 नाद मंदिर में एकादश तोरण हैं : तोरण कहते हैं किसी बड़े भवन, दुर्ग या नगर का वह बाहरी बड़ा द्वार जिसका ऊपरी भाग मंडपाकार हो और प्रायः पताकाओं, मालाओं आदि से सजाया जाता हो।  प्रत्येक तोरण -द्वार पर एक-एक रूद्र को प्रहरी नियुक्त किया गया। सृष्टिकर्ता ब्रह्मा ने प्रहरी से कहा कि जाकर माँ को खबर दो कि 'ब्रह्मा' आपका दर्शन करना चाहते हैं। रूद्रगणों ने मंदिर के भीतर जाकर माँ से पूछकर ब्रह्मा जी को बताया कि माँ ने कहा है -जाकर उससे पहले यह पूछो कि वे किस ब्रह्माण्ड के ब्रह्मा हैं ?

      सृष्टिकर्ता ने अपने ब्रह्मा होने के अहंकार में फूलकर कहा - 'अरे प्रहरी, ब्रह्माण्ड भला और कितने हो सकते हैं ? 'एक सूर्य के ग्रह, उपग्रह, आदि मिलकर एक ब्रह्माण्ड कहलाता है।'  अरे प्रहरी तुमलोग केवल चौकीदार (watchman) हो, माँ ने मेरे प्रश्न के उत्तर में क्या कहा है , वह तुमलोग क्या समझोगे? तुमलोग पहले मुझे महामाया के पास ले चलो, जब उनसे साक्षात्कार होगा तब मैं स्वयं उनके प्रश्न का उत्तर दूँगा। तब सबसे अंतिम तोरण के रूद्र- प्रहरी ने कहा , 'तथास्तु' - और ब्रह्माजी को ब्रह्ममयी के महल के भीतर ले गया।  नाद-मंदिर के भीतर पहुँचकर  ब्रह्मा जी 'ब्रह्माण्ड-भाण्डोदरी' माता महाकाली के उस अद्भुत विराट शरीर का दर्शन करने लगे - यद रोमे कुहरे कोटि ब्रह्माण्ड आदि विलीयते। ‘है’ और ‘नहीं है’—इन शब्दोंसे कही जानेवाली कोई भी वस्तु ऐसी है क्या, जो आपके भीतर न हो ॥  स्तम्भित -शंकित- प्रजापति देखने लगे - महाकाली के अंग-प्रत्यंग के प्रत्येक रोमकूप में एक-एक ब्रह्माण्ड समाया हुआ है !! और प्रत्येक ब्रह्माण्ड में एक एक ब्रह्मा क्षुद्र मधु-मक्खियों की तरह गुन-गुन ध्वनि करते हुए अपने- अपने ब्रह्माण्ड में विचरण कर रहे हैं। इन ब्रह्माओं में से कोई ब्रह्मा दूसरे ब्रह्मा को नहीं जानते। सभी अपने-अपने सृष्टि-कार्य में लगे हुए हैं। 

     तब ब्रह्मा जी यह खोज करने लगे कि माँ महामाया के  विराट शरीर के किस रोमकूप से वे स्वयं नवागन्तुक (newcomer) हुए हैं ? बहुत खोज के बाद अंत में, माँ ब्रह्ममयी की दया/कृपा से ही ब्रह्मा जी ने आत्म-साक्षात्कार प्राप्त किया। तब वे गदगद स्वर से महाशक्ति की स्तुति करने लगे (जिनकी कृपा से वे माया- देश,काल, निमित्त का अतिक्रमण कर आत्मदर्शन करने सक्षम हुए थे) - " माँ ! माँ ! उ माँ ! क्षमा करो, क्षमा करो माँ ! दर्शन दो माँ ,क्षमा करो अपराध शरण मैं आया हूँ ! अपनी सन्तान के अपराधों को जननी -तुम देखना ही नहीं !

उत्क्षेपणं गर्भगतस्य पादयोः किं कल्पते मातुरधोक्षजागसे ।

किमस्तिनास्तिव्यपदेशभूषितं तवास्ति कुक्षेः कियदप्यनन्तः ॥

(श्रीमद्भागवत १० /१४/ ९-१०-११-१२ )

 वृत्तियों की पकड़ में न आनेवाले परमात्मन् (माँ जगदम्बा) ! जब बच्चा माता के पेट में रहता है, तब अज्ञानवश अपने हाथ-पैर पीटता है; परंतु क्या माता उसे अपराध समझती है या उसके लिये वह कोई अपराध होता है ? यद्यपि मैं एक प्रजापति ब्रह्मा हूँ, तो भी मैं माँ तुम्हारे गर्भ से जन्मा एक बच्चा मात्र हूँ - मैं स्वयं शक्तिहीन हूँ! 

“ब्रह्माणी कुरुते सृष्टि न तु ब्रह्मा कदाचन । 

अतएव महेशानि ब्रह्मा प्रेतो न संशयः ।। 

वास्तव में ब्रह्माणी अर्थात सरस्वती जी सृष्टि निर्माण करती हैं। ब्रह्मा जी का कोई सामर्थ्य नहीं की वे सृष्टि कर सकें क्योंकि ब्रह्मा प्रेत है। देवी सरस्वती कोई सामान्य देवी नहीं हैं वह इस संसार की रचयिता भी हैं, ब्रह्मा जी अकेले सृष्टि नहीं कर सकते हैं । तब शंखचक्र-गदा-पद्मधारी विष्णु जी आकर बोले - 

वैष्णवी कुरुते रक्षां न तु विष्णुः कदाचन । 

अतत्रव महेशानि विष्णुः प्रेतो न संशयः ।। 

तब सभी प्रहरी रुद्रदेव हाथ जोड़ कर गाने लगे - 

" रुद्राणी कुरुते ग्रासं न तु रुद्रः कदाचन । 

अतत्रव महेशानि रुद्रः प्रेतो न संशयः ।।”  

 माता च पार्वतीदेवी पितादेवो महेश्वरः ।

 बान्धवा: शिवभक्ताश्च स्वदेशो भुवनत्रयम् ॥ 12 ॥

अर्थ-भगवती पार्वती मेरी माता है, भगवान् महेश्वर मेरे पिता हैं। सभी शिवभक्त मेरे बन्धु - बान्धव हैं और तीनों लोक मेरा अपना ही देश है- यह भावना सदा मेरे मन में बनी रहे। 

इस प्रकार श्रीमत् शंकराचार्यविरचित श्री अन्नपूर्णा स्तोत्र सम्पूर्ण हुआ। यहाँ प्रेमीक और पथिक के बीच चलने वाला षड्ज संवाद भी समाप्त हुआ

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प्रेमिक महाराज # की सुर-सिद्धि का परिचय (Introduction to the musical accomplishment of Premik Maharaj) :

[#और  आन्दुल काली कीर्तन समीति के संस्थापक  'प्रेमीक महाराज' [शाण्डिल्य  गोत्रीय  महेंद्रनाथ भट्टाचार्य (1844 - 1908)]  भट्टाचार्य वंश के पूर्वज तंत्रसाधक श्री भैरवी चरण विद्यासागर (श्री श्री शंकरी-सिद्वेश्वरी माता ठकुरानी मंदिर के संस्थापक) थे ।प्रेमिक महाराज की प्रथम गुरु इनकी माता जी थीं , कुछ साल बाद, प्रेमीक ने कुलवधूता पूर्णानंद नाथ से तांत्रिक कुलाचार  परम्परा में उन्नत दीक्षा ली। इसमें शास्त्रीय तांत्रिक ग्रंथों का अध्ययन शामिल था। उन्हें दीक्षा नाम कुलवधूता वशिष्ठानन्दनाथ मिला। उन्होंने भावनात्मक शाक्त भक्ति के जुनून को शास्त्रीय तांत्रिक अध्ययन और दीक्षा के साथ जोड़ा।  प्रेमीक महाराज श्री  रामकृष्ण परमहंस के समकालीन थे, और उन्हें रामकृष्ण के प्रमुख शिष्य विवेकानंद द्वारा गाने के लिए आमंत्रित किया गया था। प्रेमी महाराज  स्वामीजी की माता भुवनेश्वरी देवी के गुरुदेव थे। 'दक्षिण का नवद्वीप' नाम से प्रसिद्द आन्दुल में एक पुराना राजा का महल है जिसमें रोमन शैली के बड़े-बड़े खंभे और एक पुराना प्रांगण है। अंदुल में एक समूह है जो सौ से ज़्यादा सालों से काली-कीर्तन कर रहा है: अंदुल काली-कीर्तन समिति।  यद्यपि नाम कीर्तन है, यह गीत वास्तव में शास्त्रीय संगीत की ध्रुपद शैली में गाया जाता है। अंदुल कालीकीर्तन समिति लगभग 150 वर्षों से पीढ़ि दर पीढ़ी   तक संगीत की इस शैली को बनाए रख रही है। जैसे कीर्तन में खोल बजाया जाता है, वैसे ही कालीकीर्तन में पख्वाजा और तबले का प्रयोग किया जाता है। परंपरा के अनुसार इस संगीत के प्रदर्शन के दौरान गेरुआ वस्त्र पहना जाता है, गले में रुद्राक्ष की माला पहनी जाती है, सिर पर जटाजूट वाला विग धारण किया जाता है। रामकृष्ण मठ और मिशन के साथ-साथ यह कालीकीर्तन देश के अलग-अलग हिस्सों में किया जा रहा है। प्रेमिक महाराज का संबंध आन्दुल राजवंश के राजा विजय केशव राय से भी था। वे उनके सभा कवि थे। संगीत कला मर्मज्ञों में ध्रुपद गायिकी को आज भी श्रद्धा व सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। बेलूर मठ की स्थापना के बाद, आन्दुल  काली कीर्तन समिति अलग-अलग समय पर वहां संगीत की अपनी विशिष्ट शैली-"ध्रुपद गायन शैली" का प्रदर्शन करती रही है। ध्रुपद गायन शैली में गाये जाने वाले  कालीकीर्तन का उल्लेख  केवल प्रेमिक  महाराज के संगीत में किया गया है और आज भी रामकृष्ण मठ और मिशन में इसका आयोजन जारी है।] 

      षड़ज के बाद ऋषभ, गांधार आदि सुर-सप्तक की चर्चा होने लगी। यहाँ प्रेमिक महाराज की सुर-सिद्धि का परिचय भी प्राप्त होता है। 'मातृ-भक्त बालक' चाहे किसी भी मार्ग से 'आत्मा को देह-मन से पृथक अनुभव करने की साधना' क्यों न कर रहा हो; वह उसी मार्ग से चलते हुए 'मातृ-तत्व' की उपलब्धि कर लेता है। शास्त्रीय संगीत आधारित काली-कीर्तन के माध्यम से भी भक्त माँ का स्मरण करते हुए गाता है - सा-माँ ! 

      अर्थात वही माँ (तारा) ! लेकिन माँ को दूर से पुकारना हो तो कहना होगा - 'रे ' -माँ ! माँ का भक्त अपनी माँ को दूर से पुकार रहा है -रे-माँ! बेटे की पुकार सुनकर जैसे ही माँ उसके नजदीक आ जाती हैं, तब आदरपूर्वक माँ को पुकारते हैं -'गो' माँ ! माँ -गा ! उसके ऊपर माँ के चरणकमल पाने की लालच में गाता है - 'माँ-पा, धा-नि' अर्थात श्रीश्रीमाँ के पदकमल का ध्यानी - अर्थात "माँ-पा'ध्यानी" बेटा बनकर जो बेटा बैठ गया , उसे उठाना अब उनकी जिम्मेदारी है। जिस प्रकार नेति-नेति करते हुए मन का विश्लेषण करने वाला साधक, या  मनःसंयोग का अभ्यास करने वाला (ध्यानी) ध्यान गाढ़ा होने पर समाधि में डूब जाता है , उसी प्रकार माँ के भक्त लिए हम सबों का सुपरिचित सुर-सप्तक 'स-रे-गा-मा-प-धा-नी' एक अद्भुत रूप धारण करता है  प्रेमिक महाराज ने भी उसी प्रकार सप्त सुरों में 'मातृ-अधिष्ठान की उपलब्धि' (माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी 'विराट मैं'-की अनुभूति) की थी और मातृप्रेम की अनुभूति से उन्मत्त (मतवाले) होकर उनके 'काली-कीर्तन' के स्तोत्रों की रचना की थी । 

      प्रेमिक महाराज # द्वारा रचित उन काली -कीर्तन को सुनकर बंगाली साहित्य के गुरु ईश्वरचंद्र विद्यासागर आश्चर्य-चकित हो गए थे। और बंगाल के धर्मवीर, अद्भुत वक्ता, भारत के राष्ट्रीय युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द तो आनन्द से उछल ही पड़ते थे। 


 [उस 'मातृ-साधक प्रेमिक महाराज' से पथिक (आचार्य शिरीषचन्द्र मुखोपाध्याय" श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय के पितामह) ने पुनः प्रश्न किया -  " माँ के युगलचरण महाकाल के ऊपर क्यों स्थापित हुए थे ? महाकाल क्या हैं
 उत्तर - देखो काल (समय) कितनी तेजी से बीत रहा है। पल को क्षण खा रहा है, क्षण को मिनट खा रहा है, मिनट को घंटा खा रहा है , घंटे को दिन खा रहा है, दिन को पक्ष खा रहा है, पक्ष को महीना खा रहा है। महीने को ऋतू खा रहे हैं। ऋतू को संवतसर खा जाता है। संवतसर को युग खा लेता है। युग को कल्प ग्रास करता है। इन्हीं कल्प-ग्रासी जगत के आधार महाकाल को आसन बनकर देवी कालिका खड़ी हैं। अर्थात वे महाकाल से भी परे महाकाली हैं। इस प्रकार काली -कल्पना (इन्द्रजाल मन) में काल-लुप्त होने के साथ-साथ स्थान भी लुप्त हो जाता है। इसीलिए लाल जिह्वा से काली स्थान-पान कर रही हैं - यानि स्थान को पी रही हैं 

{चंद्रमा की गति के अनुसार हिन्दू पंचांग के महीने नियमित होते हैं,  और चंद्रमा की गति के अनुसार 29.5 दिन का एक चंद्रमास होता है। हिन्दू सौर-चंद्र-नक्षत्र पंचांग के अनुसार माह के 30 दिन को चन्द्र कला के आधार पर 15-15 दिन के 2 पक्षों में बांटा गया है- शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष। शुक्ल पक्ष के अंतिम दिन को पूर्णिमा कहते हैं और कृष्ण पक्ष के अंतिम दिन को अमावस्या। पंचांग के अनुसार पूर्णिमा माह की 15वीं और शुक्ल पक्ष की अंतिम तिथि है।  जिस दिन चन्द्रमा आकाश में पूर्ण रूप से दिखाई देता है। पंचांग के अनुसार अमावस्या माह की 30वीं और कृष्ण पक्ष की अंतिम तिथि है जिस दिन चन्द्रमा आकाश में दिखाई नहीं देता है।}

#🔱🏹🕊>मन के दो उपकरण : स्थान और समय ! (Two instruments of the mind: space and time! ) : स्थान और काल के द्वारा ही बाह्यजगत का ज्ञान होता है। इस जगत में जो कुछ भी है , वह ईश्वर ही हैं ! इन्हीं मनोमय दो उपकरणों - देश और काल के माध्यम से प्रतिबिंबित होकर हमलोगों को जगत रूप में दृष्टिगोचर होते हैं।

यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र भवेद भवः। 
तत्र तत्र मनो याति तद्विष्णोः परमं पदं। 

 1.# मन (कल्पना) के दो उपकरण हैं -स्थान और काल (Space and time) जिसके माध्यम से बाह्यजगत का ज्ञान होता है। 

देहाभिमाने गलिते विज्ञाते परमात्मनि ।
यत्र यत्र मनो याति तत्र तत्र परामृतम् ॥ ३१॥

भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयः ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ॥ ३२ ॥

॥ सरस्वतीरहस्योपनिषत् ॥ 
 
 ‘उस परमात्म-तत्त्व की ओर दृष्टि जाते ही हृदय की ग्रन्थियाँ टूट जाती हैं, सब संशय मिट जाते हैं और सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं।’ - अर्थात् देहाभिमान (जड़देह के साथ तादात्म्य या मैं-पन) सर्वथा मिट जाने पर जब परमात्म-तत्त्व का बोध हो जाता है, तब जहाँ-जहाँ मन जाता है, वहाँ-वहाँ परमात्म-तत्त्व का अनुभव होता है अर्थात् उसकी अखण्ड समाधि (सहज समाधि) रहती है।
  
 विवेक-सम्पन्न दृष्टि हो जाने पर मिथ्या देहाध्यास (M/F स्त्री-पुरुष शरीर में) 'मैं'-पन का मिथ्या अहं चला जाता है, और पूर्ण का साक्षात्कार होते ही यह अनुभव हो जाता है, कि मैं भी पूर्ण हूँ, क्योंकि अखण्ड चैतन्य का खण्ड नहीं हो सकता।
      शरीर को ही मैं समझना तो केवल भ्रम है, जैसे रज्जु में सर्प का भ्रम हो जाता है। भ्रम से ही कोई पराया दीखता है, अपने से भिन्न दीखता है, और इसी भ्रम से भय होता है।  उपनिषदों में कहा है कि - 'द्वितीया द्वै भयं भवति' दो के रहने से ही सारी खुराफात होती है,जब तक साधक की दृष्टि में अन्य (जगत) की सत्ता रहती है, तबतक उसके भीतर संशय और भ्रम बना रहता है।  तत्र को मोह: क: शोक एकत्वमनुपश्यत:॥ ' जब सभी एक हो गए तो डर किसका ? इस भ्रम जनित भय को सदा के लिये हटा देना ही मनुष्य जीवन की श्रेष्ठता है। अपने जीवन को सार्थक करने के लिये जो करना है, वह यह है - 

उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।

आत्मैव ह्रात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन: ।।

(गीता ६/५)

[आत्मना = अपने द्वारा; आत्मानम् = अपने आप का (संसार समुद्र से); उद्धरेत् = उद्धार करे (और); आत्मानम् = अपने आत्मा को; न अवसादयेत् = अधोगति में न पहुंचावे; हि = क्योंकि (यह ); आत्मा = जीवात्मा आप; एव=ही (तो ); आत्मन: = अपना; बन्धु: = मित्र है (और ); आत्मा = आप; आत्मन: = अपना; रिपु: = शत्रु है।] 
' उद्धरेत आत्मना आत्मानम ' अपना कल्याण अपने आप ही कीजिये। अर्थात स्वयं के द्वारा ही स्वयं को मन की गुलामी मुक्त कर लीजिये। क्योंकि जब हम मन को अपने वश में ले आते हैं, तो वह हमारा मित्र बन जाता है, और वही मन जब तक वशीभूत नहीं हो जाता हमारा सबसे बड़ा शत्रु बना रहता है। 
       'अहं से वयम तक की यात्रा' मेंअपने हृदय को विशाल , उदार , उच्च और महान बनाने में बाधक बना रहता है। किन्तु वशीभूत मन - अहं भाव को प्रसार कर सबको आत्म-दृष्टि से देखने से जो ह्रदय में प्रेम का सागर उमड़ता है, उस प्रेम का अमृत समस्त संसार पर बिना भेद-भाव के सिंचित करने में समर्थ बना देता है।
मैं क्या केवल एक शरीर हूँ ? 3-'H' में मैं कौन हूँ ? या वास्तव में कहें - तो मैं क्या हूँ ?  मेरे भीतर जो अखण्ड अविनाशी सत्ता है, उसका ज्ञान बहुत आसानी से प्राप्त नहीं होता है। किन्तु उसको पता करने का आत्म-विश्वास हममें अवश्य रहना चाहिये। यह आत्मविश्वास केवल श्रद्धावान मनुष्य में ही होता है। श्रद्धा का अर्थ है -आस्तिक्य- बुद्धि। मेरे भीतर अजर-अमर अविनाशी आत्मा है, इसी दृढ़ विश्वास को श्रद्धा कहते है मन ही मेरा मित्र है बन्धु है, और मन ही मेरा शत्रु भी है। क्योंकि अपरिष्कृत मन में ही अपवित्र विचार, असद संकल्प, असद इच्छायें, कामना-वासना, मोह और लालच का भाव हर समय बना रहता है; जिसके कारण हमारा जीवन पशुओं के समान आहार-निद्रा-भय -मैथुन में ही नष्ट हो जाता है। 
मन का स्वभाव यह मन स्वभावतः बहुत चंचल है, बन्दर के समान, भोगों की आकांक्षा, लालच, कामना-वासना में बाधा होने से जब भोगों की इच्छा पूर्ण नहीं होती, तो क्रोध और ईर्ष्या रूपी बिच्छू के डंक से और अधिक उछलने लगता है।  फिर उसके उपर एक अहंकार रूपी भूत भी सवार हो जाता हैं। ऐसे मदिरा पीकर उन्मत्त बंदर के समान चंचल मन को वश में करना कितना कठिन है ! बोलिये भगवान श्रीकृष्ण ! 
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।

            अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गुह्राते ।।६/३५ ।।

[महाबाहो = हे महाबाहो; असंशयम् =नि: सन्देह; मन: =मन;चलम् = चज्ज्ल; दुर्निग्रहम्-कठिनाई से  से वश में होने वाला है; तु =परन्तु; कौन्तेय = हे कुन्तीपुत्र अर्जुन;अभ्यासेन = अभ्यास अर्थात् स्थिति के लिये बारम्बार यन्त्र करने से; गृह्मते =वश में करता है।]

श्री भगवान बोले- हे महाबाहो! निःसंदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है। परन्तु यह अभ्यास और वैराग्य से वश में होता है॥ ठीक यही उपाय योगसूत्र में महर्षि पतंजली ने
भी बताया है- 'अभ्यासवैराग्या-भ्याम तन्ननिरोधः।' और यही उपाय श्रीमद्भागवत में भी कहा गया है। मन को वशीभूत करने की की वैज्ञानिक पद्धति का को 'अष्टांग' कहा जाता है।  
इसमें 'शम -दम ' बहुत आवश्यक है. ' यम-नियम ' को " शम " कहा जाता है, तथा अपने मन को इन्द्रियों विषय-भोगों में जाने से खींच कर अपने ह्रदय में किसी तत्वदर्शी महापुरुष या स्वामी विवेकानन्द पर दो बार सुबह-शाम मन को एकाग्र करने के अभ्यास को या प्रत्याहार और धारणा के अभ्यास को- " दम " कहा जाता है।  किन्तु मनोनिग्रह का अभ्यास आसन पर बैठकर ही करना चाहिये, बैठने का सरल आसन है-सुखासन या अर्ध- पद्मासन। किन्तु प्रणायाम नहीं करना;
क्योंकि बिना योग्य गुरु के सानिध्य में प्राणायाम करने से दिमाग बिगड़ जाता है, इसीलिये
स्वामीजी ने चेतावनी दिया है।  नाक से साँस लेने छोड़ने को या प्राणायाम करने को योग
नहीं कहा जाता है।  योग और सर्वश्रेष्ठ योगी को परिभाषित करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं -

आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
           सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मत: ।।६/३२ ।।

य: = जो योगी; आत्मौपम्येन =अपनी सादृश्यता से;सर्वत्र =संपूर्ण भूतों में; समम् =सम; पश्चति = देखता है; वा =और; सुखम् = सुख; यदि वा =अथवा; दु:खम् =दु:ख को (भी) (सब में सम देखता है); स: = वह; योगी =योगी; परम: = परम श्रेष्ठ; मत: = माना गया है।

हे अर्जुन! जो योगी समस्त भूतों की तुलना स्वयं से करके समस्त जीवों के सुख-दुःख को अपने
ही सुख-दुःख के ऐसा देखने में समर्थ होते हैं, वही सर्व-श्रेष्ठ योगी है-ऐसा मेरा मत है! इसी को योग कहा जाता है, ऐसा भगवान का मत है !
 
>>>जर्मनी के दार्शनिक शिरोमणि इमानुएल कांट (Immanuel Kant, 1724-1804) भी ठीक यही बात कहते हैं। मन के जो दो यंत्र हैं - स्थान और काल उनको दूर के लिए -पहले मन से ही मोक्ष प्राप्त करना होता है। स्थान और काल से परे जो माँ नित्य काली हैं - उनकी साधना करना ही मन से मोक्ष पाने का मार्ग है।  
 यदि यह माना जाए कि किसी बिंदू पर ब्रह्मांड की शुरुआत हुई तो फिर कर्ता ने शुरुआत के लिए अनंतकाल तक प्रतीक्षा क्यों की ? इसको Big Bang कहें या कुछ और, वर्तमान अवस्था तक आने में इतना लंबा समय क्यों लिया? कांट इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि - " दिखाई देने वाली बाहरी दुनिया मानसिक स्थान और समय के अमूर्त रूप में विलीन हो जाती है। मन के उपकरण देश और काल का अतिक्रमण करने पर मनोमोक्ष प्राप्त होता हैं। " 
 
🔱🙏इमानुएल कांट का दर्शन :  पश्चिम में समय (काल) और ब्रह्मांड (देश)  की उत्पत्ति के बारे में मौलिक चिंतन जर्मन दार्शनिक इमानुएल कांट  के दर्शन में प्राप्त होता है।  विशेषकर क्या ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई? अथवा यह हमेशा ऐसा ही था? इमानुएल कांट के लिए यह विवेचना का विषय था। उसको लगता कि समय (काल -मृत्यु) के प्रति लोगों के मन में समाया डर अनेक नैतिक समस्याएं खड़ी कर देता है।  मृत्यु से भयभीत मनुष्य दूसरों को भूलकर केवल अपने स्वार्थ की  चिंता करने लगता है
कांट को नैतिकता मानव की आत्मा में दिखती है न की किसी वस्तु विशेष में। केवल आध्यात्मिक जगत ही सत्य है। इससे परे तथा इसके पश्चात और कुछ नहीं है। देश और काल वे चश्मे हैं जिनको लगाकर ही हम वस्तुओं या घटनाओं को देख सकते हैं। हमारे व्यावहारिक जगत का दिक काल से संयुक्त होना अनिवार्य है। परंतु परमार्थ तक देश और काल की गति नहीं है। देश (खाली स्थान अंतरिक्ष) और समय (काल) से परे उस नित्य-काली की खोज ही मनोमोक्ष का मार्ग है

2. # मनु का अर्थ : ब्रह्ममयी का एक नाम 'पाराकाशा' भी है : यस्य सा परमा देवी शक्तिराकाश स्थिता करणे (आकाशस्य)  'शब्द गुणं विदुः।(‘शब्द गुण’ से तात्पर्य किसी काव्य में प्रयुक्त होने वाले उन शब्दों से होता है, जो हमें रस का अनुभव कराते हैं। ) 'मनुते इति मनुः। ' -होता है-जो भगवान् के नाम, रूप, लीला, धाम का मनन करता है उसे मनु कहते हैं। 

यस्य देवे परा भक्तिः यथा देवे तथा गुरौ ।

तस्यैते कथिताः ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः॥

(श्वेताश्वतर उपनिषद् ६.२३)

जिसके हृदय में 'ईश्वर' के प्रति परम प्रेम तथा परमा भक्ति है तथा वैसी ही 'गुरु' के प्रति भी है, ऐसे 'महात्मा' पुरुष को जब ये महान् विषय बताये जाते हैं, वे स्वतः अपने आन्तर अर्थों को उद्घाटित कर, उस 'महात्मा' के लिए वे स्वतः प्रकाशित हो जाते हैं।

पथिक का प्रश्न - 'जखन ब्रह्माण्ड छिलो ना माँ'गो ! मुण्डमाला कोथाय पेली ? ' - अर्थात माँ ! जब ब्रह्माण्ड ही नहीं था, तब तुमको यह मुण्डमाला कहाँ से  मिल गया ?" पथिक फिर गाने की आड़ लेकर सवाल पूछता है। 
 प्रेमिक महाराज का उत्तर- जब ब्रह्माण्ड नहीं था , तब भी आकाश तो था ही। [^* ब्रह्ममयी का एक और नाम है - 'पराकाशा' -यस्य सा परमा देवी शक्तिराकाशसंस्थिता ।( ३१.३६कूर्मपुराणम्-उत्तरभागः/एकत्रिंशत्तमोऽध्यायः) आकाशस्य 'शब्दगुणं विदुः' [आकाशं जायते तस्मात् तस्य शब्दगुणं विदुः । इति मनुः। आकाश का गुण-धर्म शब्द है। शब्द के दो प्रकार हैं - ध्वन्यात्मक और वर्णात्मक। ध्वनि और वर्ण।  वर्ण पचास हैं। जो अक्षय होने से अक्षर हैं।] 

#माँ की मुण्डमाला क्या है ?  अक्षर-माला ही माँ की मुण्डमाला है। ‘अ’ से लेकर ‘क्ष’ तक की वर्ण-माला का ही सांकेतिक नाम ‘मातृका’ है । इसका प्रत्येक अक्षर एक एक मंत्र है, जिसे मंत्र-मातृका कहा जाता है। अक्षर ही क्यों, जितनी भी ध्वनियाँ हैं , वे सब माँ के मंत्र हैंएक राम प्रसादी गीत- 'श्री श्री माँ भवतारिणी' में कहा गया है -'यत शोनो कर्णपुटे सबइ मायेर मंत्र बोटे।"
 

শ্রীশ্রীমা ভবতারিণী

মন বলি ভজ কালী ইচ্ছা হয় তোর যে আচারে,
গুরুদত্ত মহামন্ত্র দিবানিশি জপ করে ।
শয়নে প্রণাম জ্ঞান, নিদ্রায় কর মাকে ধ্যান, 
নগর ফের মনে কর প্রদক্ষিণ শ্যামা মারে ।
যত শোন কর্ণপুটে, সবই মায়ের মন্ত্র বটে, 
কালী পঞ্চাশৎবর্ণময়ী বর্ণে বর্ণে নাম ধরে।
চর্বচূষ্য লেহ্য পেয়, যত রস এ সংসারে,
আহার কর মনে কর আহুতি দিই শ্যামা মারে ।

       महाकाली की एक सौ आठ मुंडमालाएं होने की भी कथा हैं। सत्य, त्रेता, द्वापर और  कलि- चार युग की संख्या द्वारा निर्देशित 'चतुर्विंशति-तत्व [पञ्महाभूत (five great elements), पंचज्ञानॆन्द्रियाणि ( five organs of perception ) पंचकर्मेन्द्रियाणि (five organs of action ) पंच प्राणाः (five pranas ) मनस्, बुद्धि, चित्त, एवं अहंकार (the four thought modifications) की समष्टि द्वारा इस जगत की रचना हुई है। 
 (मुण्डमाला के पचास मुण्ड पचास मातृकावर्णो को धारण करने के कारण शब्द-ब्रह्म स्वरुपा है। उस शब्द गुण से रजोगुण का टपकना अर्थात सृष्टि का उत्पन्न होना ही, रक्तस्राव है।)
सृष्टि के यह चतुर्विंशति तत्व (24 तत्व) चार युगों में 24/24 को बांटकर 96 हो जाता है। प्रत्येक युग में साक्षी पुरुष हैं और क्रियावती प्रकृति हैं - सबों को जोड़ने 8, और चार युगों के व्यावहारिक सृष्टि रचयिता चतुरानन ब्रह्मा और पातंजलि के मतानुसार ईश्वर (माँ जगदम्बा) - सबों का योग 108 हुआ जो मुण्डमालिनी के चारों युग मिश्रित भाव को सूचित करता है। सांख्य दर्शन के आचार्य कहते हैं -
 
" पञ्चविंशतितत्त्वज्ञो यत्र तत्राश्रमे वसेत् ।
 
जटी मुण्डी शिखी वापि मुच्यते नात्र संशयः ॥"

[ 25 तत्व —जिसमें एक पुरुष, आठ प्रकृति, सोलह विकार अर्थात् 1. कूटस्थ पुरुष, 2 . प्रकृति, 3. महत्तत्त्व, 4. अहङ्कार, 5. तन्मात्राएँ, शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध-ये आठ प्रकृतियाँ तथा 1. आकाश, 2. वायु, 3. अग्नि, 4. जल, 5. पृथ्वी — ये पाँच महाभूत हैं। हाथ, पैर, जिह्वा, लिङ्ग और गुदा—ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं । श्रवण, त्वक्, चक्षु, रसना और प्राण – ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ मन उभयेन्द्रिय है । कुल मिलाकर सोलह विकार हैं। इस तरह पचीस तत्त्वादि की संख्या की विशेषता है। अतः इसे सांख्यशास्त्र कहते हैं ॥ ४९ ॥]
     तब यहां यह प्रश्न उठा कि क्या देवी का ऐसा रूप केवल एक दार्शनिक रूपक मात्र है ? क्या वास्तव में वह उनका अपना स्वरुप नहीं है ?
        आह-हा! ब्रह्ममयी का स्वरुप? - ' के जाने काली केमन ? षड्दर्शन जार ना पाय दर्शन!' अर्थात " कौन जानता है कि काली कैसी हैं ? षडदर्शन भी उनका दर्शन पाने में असमर्थ हैं। " माँ जगदम्बा का स्वरुप इन चर्म चक्षुओं से अगोचर है, गणित के लिए अगणनीय है, विज्ञान के लिए अविज्ञेय है ! तो फिर हम जैसे साधारण लोगों के लिए उनके दर्शन का उपाय क्या है ? कलौ   'कालीकृपा हि केवलम्!

सर्वत्र भा समा भानोः समा वृष्टिः पयोमुचः। 
 समा कृपा भगवतो दृष्टिः सर्वभूतानु कम्पिनी ॥ १०॥ 

(मुक्तालतावदानम्।)

सूर्य की किरणें सर्वत्र समान रूप से पड़ती हैं; वर्षा का मेघ किसी भी क्षेत्र में फैलकर खाली हो जाता है; उसी प्रकार भगवान की दृष्टि भी, जो सभी प्राणियों के प्रति सक्रिय सहानुभूति रखती है, पूर्णतया निष्पक्ष है।
  जगन्माता काली ने सभी जीवों पर कृपा करने के लिए ही मूर्त रूप [ठाकुर देव और माँ श्री सारदा देवी का रूप ] धारण किया है। "साधकानां हितार्थाय ब्रह्मणो रूप कल्पना। " लेकिन इस रूपकल्पना के कर्ता कौन हैं ? क्या साधुओं और पण्डितों ने इस रूप की कल्पना की थी ? नहीं ! उपासकानां कार्यार्थं ब्रह्मणो रूपकल्पना' -माँ काली के सर्वमान्य विभिन्न रूपों की कल्पना किसने की है ? क्या किसी एक सन्त ने या कुछ विद्वानों ने मिलजुल कर की थी ? नहीं , " ब्रह्मणः (ब्रह्मणो) रूप कल्पना" यहाँ कर्ता को 'षष्ठी' समझना होगा। यानि ब्रह्म ने स्वयं ही अपने रूपों की रचना की है। क्यों की ? 'साधकानां हितार्थाय' - इसमें व्याकरण का थोड़ा भी पाण्डित्य नहीं है। यही इसका वास्तविक अर्थ है। क्योंकि इसी तथ्य को दूसरे ढंग से कहा गया है - ' साधकानां हितार्थाय अरूपा रूप धारिणी।' अरूपा ने स्वयं वैसे रूपों को धारण किया है, किसी एक सन्त ने या कुछ विद्वानों ने मिलजुल कर नहीं किया है। मृत्यु रूपा 'माँ काली' से भय क्यों ? ' का शंका स्यात् मनीषिणां ?पूर्ण निःस्वार्थ साधक को शंका कैसी ? ' उपासकानां सिद्धार्थं ' - उपासकों और अपने भक्तों को सिद्धि प्रदान करने के लिए ही अरूपा ब्रह्ममयी ने दया-घन माँ सिद्धेश्वरीमाँ अन्नपूर्णा, गोपाल मूर्ति (आन्दुल) का मूर्त रूप स्वीकार किया है। महाकवि रामप्रसाद ने पुनः कटाक्ष करते हुए कहा था - ब्रह्मनिरुपण की वाणी  क्या केवल उनके दाँतों की हँसी में है? प्रेमीक महाराज ने भी एक स्वरचित काली-कीर्तन के एक पद में गाया है, 'वो सारा गोलमाल सांख्य और पातंजल के समन्वय से दूर हो गया है।' ~ " ओ सब सांख्य पतंजले, सेरे गेछे गोलमाले। " 
>>>पथिक - काली रूप में उनके चरणों को छूते हुए जो काले घुंघराले लम्बे  बाल दिखाई देते हैं , आप उसकी व्याख्या कैसे करेंगे?  

प्रेमीक - इसकी व्याख्या क्या मैं कर सकता हूँ ? किसी भक्त से मैंने इस विषय पर एक सुन्दर उद्धरण सुना था।  व्योम-दिगन्त-व्यापिनी मुक्तवेणी , उनके चरणों को क्यों छू रही है ? उत्तर में उस कालीभक्त भक्त ने कहा था  -वे उस घटना की प्रतीक हैं जब तैंतीस करोड़ देवता आकर उनके चरणों में गिरकर उनका वन्दन करने लगे -देववृन्द शिरोरत्न निघृष्ट चारणाम्बुजे ! तब उनके सिर के बालों ने सोचा- हम क्यों पीछे रहें? और वे माँ के चरणों को छूकर खुशी से उछल-उछल कर आनन्द में झूमने लगे।
अनुग्रहाय भूतानां गृहीत दिव्य विग्रहे! 

भक्तस्य मे नित्य पूजा युक्तस्य परमेश्वरि ||

( किङ्किणी स्तोत्रं, ५ |)

माँ के भक्त लोगों को माँ के सगुन-साकार रूप की ऐसी अनुभूति होती है, यहाँ तर्क का कोई स्थान नहीं है।    
"ब्रह्म चिन्मय ,अद्वैत,निष्कल और अशरीर है । उपासकों की प्रयोजन-सिद्धि के लिए निर्गुण, निराकार ब्रह्म अपनी माया शक्ति से निज भक्तों के लिये अपनी इच्छा के अनुसार नाना रूप धारण करते हैं। क्योंकि वे पूर्ण स्वतन्त्र हैं। जिन्हें मायाधीश, मायापति आदि नामों से जाना जाता है। यह सृष्टि ब्रह्मानन्द की विलास दशा है। उपासना केवल सगुण ब्रह्म की ही हो सकती है। क्योंकि जब तक द्वैत भाव है तभी तक उपासना सम्भव है।- अर्थात साधकों के मंगल के लिये रुपातीता ने रूप धारण कर लिया, और निराकार से साकार हो गयीं हैं। श्रीरामपूर्वतापनीय उपनिषद (१/७) में कहा गया है– चिन्मयस्याद्वितीयस्य निष्कलस्याशरीरिण: ।
  [http://vivek-anjan.blogspot.com/2018/03/blog-post_8.html/ गुरुवार, 8 मार्च 2018]  

प्रश्न - फिर माँ काली के त्रिनयन क्या हैं ? বাংলা পেজ- 6/बंगला पेज-6 
उत्तर - वह भी काल का नियामक है। रामप्रसाद ? ने अपने गाने में इसे क्या कहा है, सुनो  -सप्तहेति सप्तपेति सप्तविंशपति -नयना।  [सप्तविंशति = सत्ताइस की संख्या या अंक ।सप्तविंशति -नयना  (श्रीः सप्तविंशति रहस्यम्) सप्तविंशति रहस्यम्’ में तीन बटुक भैरवों के नाम तथा मंत्रों का वर्णन मिलता है। इनके नाम है-स्कंद, चित्र तथा विरंचि । ‘रूद्रयामल तंत्र’ में चैसठ भैरवों का वर्णन है, जबकि काली आदि दश महाविद्याओं के पृथक्-पृथक् दस भैरव है।]
पथिक - इसका अर्थ क्या हुआ ? 
  उत्तर -  इसका तात्पर्य अग्नि से समझना होगा, 'सप्तहेति' -अग्नि: परिभाषा - पुराणों में वर्णित अग्निदेव की जिह्वा जो सात मानी गई हैं। वाक्य में प्रयोग - काली ,कराली ,मनोजवा, लोहिता, धूम्रपर्णा, स्फुलिंगिनी और विश्वरूपी ये सात अग्नि-जिह्वाएँ हैं । सात प्रकार की अग्नि काली के एक नयन में जल रही हैं। जातक के शिशु-सदन या दाई -घर में जो अग्नि रक्षा करती है, वही अग्नि उसके अंतिम समय में उसके शरीर का दहन करेगी -[ऐसे प्रथा पहले थी। ] इसका तात्पर्य यह हुआ कि अग्नि जातक मनुष्य के जन्मकुण्डली में उसके जीवन प्रत्याशा (life expectancy) परिमापक है।    
'सप्तपेति' - 'सप्तसप्ति अर्थात  जिसके रथ में सात घोड़े हों' का अपभ्रंश है = 'सूर्य' जो कि माँ की एक और आंख है- जो दिन और रात की नियामक है। 'सप्तविंश तारा पति' = चन्द्र, तिथि प्रमाता। - यह देवी के त्रिनेत्रों में एक नेत्र है। तीन नेत्रों से काली काल के ऊपर शासन करती हैं।  

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!! श्री दशावतार स्तोत्र ‼️

प्रलयपयोधिजले धृतवानसि वेदम । विहितवहित्रचरित्रम खेदम ।

                             केशव धृतमीनशरीर जय जगदीश हरे ।।1।।

क्षितिरतिविपुलतरे तव तिष्ठति पृष्ठे । धरणिधरणकिणचक्रगरिष्ठे ।

केशव धृतकच्छपरुप जय जगदीश हरे ।।2।।

वसति दशनशिखरे धरणी तव लग्ना । शशिनि कलंकलेव निमग्ना ।

केशव धृतसूकररूप जय जगदीश हरे ।।3।।

तव करकमलवरे नखमद्भुतश्रृंगम । दलितहिरण्यकशिपुतनुभृगंम ।

केशव धृतनरहरिरूप जय जगदीश हरे ।।4।।

छलयसि विक्रमणे बलिमद्भुतवामन । पदनखनीरजनितजनपावन ।

केशव धृतवामनरुप जय जगदीश हरे ।।5।।

क्षत्रिययरुधिरमये जगदपगतपापम । सनपयसि पयसि शमितभवतापम ।

केशव धृतभृगुपतिरूप जय जगदीश हरे ।।6।।

वितरसि दिक्षु रणे दिक्पतिकमनीयम । दशमुखमौलिबलिं रमणीयम ।

केशव धृतरघुपतिवेष जय जगदीश हरे ।।7।।

वहसि वपुषे विशदे वसनं जलदाभम । हलहतिभीतिमिलितयमुनाभम ।

केशव धृतहलधररूप जय जगदीश हरे ।।8।।

निन्दसि यज्ञविधेरहह श्रुतिजातम । सदयहृदयदर्शितपशुघातम ।

केशव धृतबुद्धशरीर जय जगदीश हरे ।।9।।

म्लेच्छनिवहनिधने कलयसि करवालम । धूमकेतुमिव किमपि करालम ।

केशव धृतकल्किशरीर जय जगदीश हरे ।।10।।

श्रीजयदेवकवेरिदमुदितमुदारम । श्रृणु सुखदं शुभदं भवसारम ।

केशव धृतदशविधरूप जय जगदीश हरे ।।11।।

!!    हिंदी अनुवाद !!

प्रलय पयोधि जले धृतवान् असि वेदम् | विहित वहित्र चरित्रम् अखेदम् ||

केशव धृत मीन शरीर जय जगत् ईश हरे || १ ||

अनुवाद – हे जगदीश्वर! हे हरे! नौका (जलयान) जैसे बिना किसी खेदके सहर्ष सलिलस्थित किसी वस्तुका उद्धार करती है, वैसे ही आपने बिना किसी परिश्रमके निर्मल चरित्रके समान प्रलय जलधिमें मत्स्यरूपमें अवतीर्ण होकर वेदोंको धारणकर उनका उद्धार किया है। हे मत्स्यावतारधारी श्रीभगवान्! आपकी जय हो || १ ||

क्षितिः अति विपुल तरे तव तिष्ठति पृष्ठे | धरणि धरण किण चक्र गरिष्ठे ||

केशव धृत कच्छप रूप जय जगदीश हरे || २ ||

अनुवाद – हे केशिनिसूदन! हे जगदीश! हे हरे! आपने कूर्मरूप अंगीकार कर अपने विशाल पृष्ठके एक प्रान्तमें पृथ्वीको धारण किया है, जिससे आपकी पीठ व्रणके चिन्होंसे गौरवान्वित हो रही है। आपकी जय हो || २ ||

वसति दशन शिखरे धरणी तव लग्ना | शशिनि कलंक कल इव निमग्ना ||

केशव धृत सूकर रूप जय जगदीश हरे || ३ ||

अनुवाद – हे जगदीश! हे केशव! हे हरे! हे वराहरूपधारी ! जिस प्रकार चन्द्रमा अपने भीतर कलंकके सहित सम्मिलित रूपसे दिखाई देता है, उसी प्रकार आपके दाँतों के ऊपर पृथ्वी अवस्थित है || ३ ||

तव कर कमल वरे नखम् अद्भुत शृंगम् | दलित हिरण्यकशिपु तनु भृंगम् ||

केशव धृत नर हरि रूप जय जगदीश हरे || ४ ||

अनुवाद – हे जगदीश्वर! हे हरे ! हे केशव ! आपने नृसिंह रूप धारण किया है। आपके श्रेष्ठ करकमलमें नखरूपी अदभुत श्रृंग विद्यमान है, जिससे हिरण्यकशिपुके शरीरको आपने ऐसे विदीर्ण कर दिया जैसे भ्रमर पुष्पका विदारण कर देता है, आपकी जय हो || ४ ||

छलयसि विक्रमणे बलिम् अद्भुत वामन | पद नख नीर जनित जन पावन ||

केशव धृत वामन रूप जय जगदीश हरे || ५ ||

अनुवाद – हे सम्पूर्ण जगतके स्वामिन् ! हे श्रीहरे ! हे केशव! आप वामन रूप धारणकर तीन पग धरतीकी याचनाकी क्रियासे बलि राजाकी वंचना कर रहे हैं। यह लोक समुदाय आपके पद-नख-स्थित सलिलसे पवित्र हुआ है। हे अदभुत वामन देव ! आपकी जय हो || ५ ||

क्षत्रिय रुधिरमये जगत् अपगत पापम् | स्नपयसि पयसि शमित भव तापम् ||

केशव धृत भृघु पति रूप जय जगदीश हरे || ६ ||

अनुवाद – हे जगदीश! हे हरे ! हे केशिनिसूदन ! आपने भृगु (परशुराम) रूप धारणकर क्षत्रियकुलका विनाश करते हुए उनके रक्तमय सलिलसे जगतको पवित्र कर संसारका सन्ताप दूर किया है। हे भृगुपतिरूपधारिन् , आपकी जय हो || ६ ||

वितरसि दिक्षु रणे दिक् पति कमनीयम् | दश मुख मौलि बलिम् रमणीयम् ||

केशव धृत राम शरीर जय जगदीश हरे || ७ ||

अनुवाद – हे जगत् स्वामिन् श्रीहरे ! हे केशिनिसूदन ! आपने रामरूप धारण कर संग्राममें इन्द्रादि दिक्पालोंको कमनीय और अत्यन्त मनोहर रावणके किरीट भूषित शिरोंकी बलि दशदिशाओंमें वितरित कर रहे हैं । हे रामस्वरूप ! आपकी जय हो || ७ ||

वहसि वपुषि विशदे वसनम् जलद अभम् | हल हति भीति मिलित यमुनआभम् ||

केशव धृत हल धर रूप जय जगदीश हरे || ८ ||

अनुवाद – हे जगत् स्वामिन् ! हे केशिनिसूदन! हे हरे ! आपने बलदेवस्वरूप धारण कर अति शुभ्र गौरवर्ण होकर नवीन जलदाभ अर्थात् नूतन मेघोंकी शोभाके सदृश नील वस्त्रोंको धारण किया है। ऐसा लगता है, यमुनाजी मानो आपके हलके प्रहारसे भयभीत होकर आपके वस्त्रमें छिपी हुई हैं । हे हलधरस्वरूप ! आपकी जय हो || ८ ||

निन्दति यज्ञ विधेः अ ह ह श्रुति जातम् | सदय हृदय दर्शित पशु घातम् ||

केशव धृत बुद्ध शरीर जय जगदीश हरे || ९ ||

अनुवाद – हे जगदीश्वर! हे हरे ! हे केशिनिसूदन ! आपने बुद्ध शरीर धारण कर सदय और सहृदय होकर यज्ञ विधानों द्वारा पशुओंकी हिंसा देखकर श्रुति समुदायकी निन्दा की है। आपकी जय हो || ९ ||

म्लेच्छ निवह निधने कलयसि करवालम् | धूम केतुम् इव किम् अपि करालम् ||

केशव धृत कल्कि शरीर जय जगदीश हरे || १० ||

अनुवाद – हे जगदीश्वर श्रीहरे ! हे केशिनिसूदन ! आपने कल्किरूप धारणकर म्लेच्छोंका विनाश करते हुए धूमकेतुके समान भयंकर कृपाणको धारण किया है । आपकी जय हो || १०||

श्री जयदेव कवेः इदम् उदितम् उदारम् | शृणु सुख दम् शुभ दम् भव सारम् ||

केशव धृत दश विध रूप जय जगदीश हरे || ११ ||

अनुवाद – हे जगदीश्वर ! हे श्रीहरे ! हे केशिनिसूदन ! हे दशबिध रूपोंको धारण करनेवाले भगवन् ! आप मुझ जयदेव कविकी औदार्यमयी, संसारके सारस्वरूप, सुखप्रद एवं कल्याणप्रद स्तुतिको सुनें || ११ ||

सृष्टि से पहले सत नहीं था,असत भी नहीं,अंतरिक्ष भी नहीं,आकाश भी नहीं था।छिपा था क्या कहां,किसने देखा था उस पल तो अगम,अतल जल भी कहां था ? [ऋग्वेद]

वेदों में ब्रह्मांड उत्पत्ति का जो सिद्धांत है विज्ञान आज उसके नजदिक पहुंच गया है। यहां वेदो के सिद्धांत को समझने का प्रयास करते हैं।-अरबों साल पहले ब्रह्मांड नहीं था, ईश्र्वर ने एक  ब्रह्म बिंदु की उत्पत्ति की । फिर वह बिंदु मचलने लगा। फिर उसके अंदर भयानक परिवर्तन आने लगे। इस बिंदु के अंदर ही होने लगे विस्फोट। नाद और बिंदु के मिलन से ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई। नाद अर्थात ध्वनि और बिंदु अर्थात प्रकाश। इसे अनाहत या अनहद (जो किसी आहत या टकराहट से पैदा नहीं) की ध्वनि कहते हैं जो आज भी सतत जारी है इसी ध्वनि को हिंदुओं ने ॐ के रूप में व्यक्त किया है। ब्रह्म प्रकाश स्वयं प्रकाशित है। परमेश्वर का प्रकाश।

* ब्रह्म, ब्रह्मांड और आत्मा- यह तीन तत्व हैं। ब्रह्म शब्द ब्रह् धातु से बना है, जिसका अर्थ 'बढ़ना' या 'फूट पड़ना' होता है। ब्रह्म वह है, जिसमें से सम्पूर्ण सृष्टि और आत्माओं की उत्पत्ति हुई है, या जिसमें से ये फूट पड़े हैं। विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश का कारण ब्रह्म है।- [उपनिषद]

* जिस तरह मकड़ी स्वयं, स्वयं में से जाले को बुनती है, उसी प्रकार ब्रह्म भी स्वयं में से स्वयं ही विश्व का निर्माण करता है। इसीलिए हिंदुओं ने ईश्वर को अर्धनारीश्वर नटराज के रूप में माना है।

*इसे इस तरह भी समझें 'समुद्र से पानी भाप होकर आकाश मे बादल बनता है, फिर बुंद बनकर बरसता है, फिर अमूक अमूक नदी बनके समुद्र की ओर बहती हैं। जिस तरह समुद्र से उत्पन्न सभी नदियाँ अमुक-अमुक हो जाती हैं । किंतु समुद्र में ही मिलकर वे नदियाँ यह नहीं जानतीं कि 'मैं अमुक नदी हूँ' इसी प्रकार सब प्रजा भी सत् (ब्रह्म) से उत्पन्न होकर यह नहीं जानती कि हम सत् से आए हैं। वे यहाँ सिंह, भेड़िया, वराह, कीट, पतंगा वह जो-जो होते हैं वैसा ही फिर हो जाते हैं। यही अणु रूप वाला आत्मा जगत है।-[छांदोग्य]

*-ब्रह्म और ब्रह्मांड और आत्मा- तीनों ही आज भी मौजूद हैं। सर्वप्रथम ब्रह्म था आज भी ब्रह्म है और अनंत काल तक ब्रह्म ही रहेगा। यह ब्रह्म ही ईश्वर है। यह ब्रह्म संपूर्ण विश्व के भीतर परिपूर्ण हैं तथा इस विश्व के बाहर भी है।

*ब्रह्म ने सृष्टि की रचना नहीं की। ब्रह्म की उपस्थिति से सृष्टि की रचना हो गई। यह अनंत काल के अंधकार के बाद अरबों वर्ष के क्रमश: विकास का परिणाम है।

* अब सृष्टि की उत्पत्ति और विकास कैसे हुआ यह जानते हैं। ब्रह्म की जगह हम समझने के लिए अत्मा को रख देते हैं। आप पांच तत्वों को तो जानते ही हैं- आकाश, वायु, अग्नि, जल और ग्रह (धरती या सूर्य)। सब सोचते हैं कि सबसे पहले ग्रहों की रचना हुई फिर उसमें जल, अग्नि और वायु की, लेकिन यह सच नहीं है।

*ग्रह या कहें की जड़ जगत की रचना सबसे अंतिम रचना है। तब सबसे पहले क्या उत्पन्न हुआ? जैसे आप सबसे पहले हैं फिर आपका शरीर सबसे अंत में। आपके और शरीर के बीच जो है आप उसे जानें। अग्नि, जल, प्राण और मन। प्राण तो वायु है और मन तो आकाश है। शरीर तो जड़ जगत का हिस्सा है। अर्थात धरती का। जो भी दिखाई दे रहा है वह सब जड़ जगत है

*नीचे गिरने का अर्थ है जड़ हो जाना और ऊपर उठने का अर्थ है ब्रह्माकाश हो जाना। अब इन पांच तत्वों से बड़कर भी कुछ है क्योंकि सृष्टि रचना में उन्हीं का सबसे बड़ा योगदान रहा है

अवकाश और आकाश के पूर्व अंधकार :आकाश एक अनुमान है। दिखाई देता है लेकिन पकड़ में नहीं आता। धरती के एक सूत ऊपर से, ऊपर जहां तक नजर जाती है उसे आकाश ही माना जाता है। लेकिन ऊपर अंतरिक्ष भी तो है।आकाश अर्थात वायुमंडल का घेरा। खाली स्थान । जब हम खाली स्थान की बात करते हैं तो वहां अणु का एक कण भी नहीं होना चाहिए, तभी तो उसे खाली स्थान कहेंगे। हमारे आकाश-अंतरिक्ष में तो हजारों अणु-परमाणु घुम रहे हैं।खाली स्थान को अवकाश कहते हैं। अवकाश था तभी आकाश-अंतरिक्ष की उत्पित्ति हुई। अर्थात अवकाश से आकाश बना। अवकाश अर्थात अनंत अंधकार ।

* ब्रह्म (आत्मा) से आकाश अर्थात जो कारण रूप द्रव्य (ब्रह्माणु) सर्वत्र फैल रहा था उसको इकट्ठा करने से आकाश उत्पन्न हुआ ।

* आत्मा से अवकाश, अवकाश से आकाश और आकाश से वायु की उत्पत्ति हुई। वायु आठ तरह की होती है। सूर्य से धरती तक जो सौर्य तूफान आता है वह किसकी शक्ति से यहां तक आता है? संपूर्ण ब्रह्मांड में वायु का साम्राज्य है, लेकिन हमारी धरती की वायु और अंतरिक्ष की वायु में फर्क है।

*वायु को ब्रह्माण्ड का प्राण और आयु कहा जाता है। जैसे- हमारे शरीर में हमारे बाद मन की सत्ता है। फिर प्राण की और फिर जल, अग्नि और शरीर की। शरीर और हमारे बीच वायु का सेतु है।

* वायु के पश्चात अग्नि :वायु में ही अग्नि और जल तत्व छुपे हुए रूप में रहते हैं। वायु ठंडी होकर जल बन जाती है गर्म होकर अग्नि का रूप धारण कर लेती है। वायु का वायु से घर्षण होने से अग्नि की उत्पत्ति हुई। अग्नि की उत्पत्ति ब्रह्मांड की सबसे बड़ी घटना थी। वायु जब तेज गति से चलती है तो धरती जैसे ग्रहों को उड़ाने की ताकत रखती है।  लेकिन यहां जिस वायु की बात कही जा रही है वह किसी धरती ग्रह की नहीं अंतरिक्ष में वायु के विराट समुद्री गोले की बात कही जा रही है।

* अग्नि से जल की उत्पत्ति : वायु जब बदल गई विराट अग्नि के गोले में तो उसी में जल तत्व की उत्पत्ति हुई। अंतरिक्ष में आज भी ऐसे समुद्र घुम रहे हैं जिनके पास अपनी कोई धरती नहीं है लेकिन जिनके भीतर धरती बनने की प्रक्रिया चल रही है।

* जल से धरती की उत्पत्ति हुई : जलता हुआ जल कहीं जमकर बर्फ बना तो कहीं भयानक अग्नि के कारण काला कार्बन होकर धरती बनता गया कहना चाहिए कि ज्वालामुखी बनकर ठंडा होते गया। अब आप देख भी सकते हैं कि धरती आज भी भीतर से जल रही है और हजारों किलोमिटर तक बर्फ भी जमी है। धरती पर 75 प्रतिशत जल ही तो है। कोई कैसे सोच सकता है कि जल भी जलता होगा या वायु भी जलती होगी?

* जीवन की उत्पत्ति :अब यहीं से जीवन की उत्पत्ति की शुरुआत की बात कर सकते हैं कि कैसे बने पेड़, पौधे, फिर जलचर जंतु, फिर उभयचर, फिर नभचर तथा अंत में थलचर जीव-जंतु। आत्मा का नीचे गिरना जड़ हो जाना है और आत्मा का ऊपर उठना ब्रह्म हो जाना है। यह नीचे गिरने और ऊपर उठने की प्रक्रिया अनंत काल से जारी और आज भी चल रही है। 

जब आत्मा जड़ बन गई तो उसने फिर से उठने का प्रयास किया और फिर वह मोटे तौर पर जल में पौधों के रूप में अभिव्यक्त हुई। फिर जलचर के रूप में, फिर उभयचर और फिर थलचर के रूप में। थलचर में भी आत्मा ने मानव के रूप में खुद को अच्छे तरीके से अभिव्यक्त किया। यह क्रमश: हुआ। कैसे? आकाश के पश्चात वायु, वायु के पश्चात अग्नि, अग्नि के पश्चात जल, जल के पश्चात पृथ्वी, पृथ्वी से औषधि, औषधियों से अन्न, अन्न से वीर्य, वीर्य से पुरुष अर्थात शरीर उत्पन्न होता है।- [तैत्तिरीय उपनिषद]

*ब्रह्मांड का मूलक्रम- अनंत-महत्-अंधकार-आकाश-वायु-अग्नि-जल-पृथ्वी। अनंत जिसे आत्मा कहते हैं। पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार यह प्रकृति के आठ तत्व हैं। यह ब्रह्मांड अंडाकार है। यह ब्रह्मांड जल या बर्फ और उसके बादलों से घिरा हुआ है। इससे जल से भी दस ‍गुना ज्यादा यह अग्नि तत्व से ‍घिरा हुआ है और इससे भी दस गुना ज्यादा यह वायु से घिरा हुआ माना गया है।

वायु से दस गुना ज्यादा यह आकाश से घिरा हुआ है और यह आकाश जहां तक प्रकाशित होता है, वहां से यह दस गुना ज्यादा तामस अंधकार से घिरा हुआ है। और यह तामस अंधकार भी अपने से दस गुना ज्यादा महत् से घिरा हुआ है और महत् उस एक असीमित, अपरिमेय और अनंत से घिरा है

उस अनंत से ही पूर्ण की उत्पत्ति होती है और उसी से उसका पालन होता है और अंतत: यह ब्रह्मांड उस अनंत में ही लीन हो जाता है। प्रकृति का ब्रह्म में लय (लीन) हो जाना ही प्रलय है। यह संपूर्ण ब्रह्मांड ही प्रकृति कही गई है। इसे ही शक्ति (माँ काली भवतारिणी) कहते हैं ।

-Kinkini Stotram/ नित्य पूजा के अंत में या किसी भी ,अनुष्ठान आदि के अंत में हाथो में पुष्प अक्षत लेकर यह पढ़ना चाहिए। 

|| किङ्किणी स्तोत्रं || 

किं किं दुःखं सकल  जननि ! क्षीयते न स्मृतायाम् |

का का कीर्तिः कुल  कमलिनी प्राप्यते नार्चितायां || 1 || 

किं किं सौख्यं सुरवर नुते ! प्राप्यते न स्तुतायाम् | 

कं कं योगंत्वयि न तनुते चित्तमालम्बितायाम् || 2 ||

स्मृता भव - भय - ध्वंसि, पूजिताऽसि शुभङ्करि | 

स्तुता त्वं वाञ्छितां देवि ! ददासि करुणाकरे || 3  || 

परमानन्द  बोधाद्  विरुपे ! तेजः स्वरुपिणि, 

देव  वृन्द  शिरो  रत्न  निघृष्टचरणाम्बुजे ! 

चिद् विश्रान्ति महा सत्ता मात्रे मात्रे ! नमोऽस्तु ते || ३ || 

सृष्टि स्थित्युपसंहार  हेतु  भूते सनातनि ! 

गुण त्रयात्मिकाऽसि त्वं जगतः करणेच्छया || ४ || 

अनुग्रहाय भूतानां गृहीत  दिव्य  विग्रहे ! 

भक्तस्य मे नित्य  पूजा युक्तस्य परमेश्वरि || ५ || 

ऐहिकामुष्मिकी सिद्धिं देहि त्रिदश वन्दिते ! 

ताप त्रय  परिम्लान  भाजनं त्राहि मां शिवे || ६ || 

नान्यं वदामि न शृणोमि न चिन्तयामि | 

नान्यं स्मरामि न भजामि न चाश्रयामि |

त्यक्त्वा(त्वक्त्वा) त्वदीय चरणाम्बुजमादरेण | 

मां त्राहि देवि ! कृपया मयि देहि सिद्धिम् || 7 ||

अज्ञानाद् वा प्रमादाद् वा, वैकल्यात् साधनस्य च | 

यन्न्यूनमतिरिक्तं वा तत्सर्वं क्षन्तुमर्हसि || ८ || 

द्रव्य  हीनं क्रिया  हीनं श्रद्धा मन्त्र विवर्जितम् | 

तत्सर्वं कृपया देवि ! क्षमस्व त्वं दया निधे || ९ || 

यन्मया क्रियते कर्म तन्महत् स्वल्पमेव वा | 

तत्सर्वं च जगद्धात्रि ! क्षन्तव्यमयमज्जलिः || १० || 

|| इति श्री किङ्किणी स्तोत्रं  सम्पूर्णं || 

[साभार -Jeet-Rajgor/https://www.facebook.com/photo.php?fbid=1164522673606599&id=1144349248957275&set=a.1164511710274362&locale=hi_IN

Guru kripa hi kevalam गुरु कृपा ही केवलम

अनुग्रहाय भक्तानां मानुषं देहमस्थित:।

भजते तदिऋषिः क्रीड़ा यः श्रुत्वा तत्परो भवेत् ॥ 36 ॥

जब भगवान अपने भक्तों पर दया दिखाने के लिए मानव शरीर (अवतार वरिष्ठ - श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द का शरीर ) धारण करते हैं, तो वे ऐसी लीलाएं करते हैं, जिन्हें सुनने वाले उनके प्रति आकर्षित होकर उनके प्रति समर्पित हो जाते हैं।

कलियुग में #काली ही आराध्या है। तभी तो विभिन्न तंत्र शास्त्रों में आया है:

"कलौ काली कलौ कृष्णः कलौ गोपालकालिका"/"कलौ काली कलौ काली, नान्यदेव कलौयुगे"/"कलौ काली कलौ काली कलौ काली हि केवलम्"/"कलौ काली, कलौ काली, कलौ काली वरप्रदा"/"कलौ काली प्रकीर्त्तिता"/"कलौ काली साधकस्य दर्शनार्थं समुद्यता । कलौ काली केवला स्यान्नात्र कार्या विचारणा ॥"/"कलौ काली कलौ काली कलौ काली च केवला । श्रीमत्कादिमताधीशा कलौ शीघ्रफलप्रदा ॥ [Mahamandal blog spot.com/बुधवार, 13 अगस्त 2014/विवेकानन्द दर्शनम् सारांश (17-26)/2. शुक्रवार, 16 अगस्त 2024/🏹😇🔱🕊 🙋"14 अगस्त 1947 "~ श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय 😇🔱🕊 🏹 


{समय बड़ा हरजाई :  एक ऐसा शब्द जो अपने कई अर्थ रखता है। हरजाई का सीधा सा अर्थ है …हर जगह रहने वाला या जाने वाला। अब हर जगह रहने वाला तो भगवान (माँ काली) ही है इसलिए भगवान को हरजाई कहते हैं। 
साहित्य में यही शब्द भँवरे के लिए भी मिल जाता है क्योंकि वो भी इधर उधर कलियों पर मँडराता रहता है। हरेक के पास रहने वाली स्त्री, कुलटा, मा'शूक़ जो किसी एक का पाबंद ना हो, बेमुरव्वत। स्त्री की दृष्टि से उसका वह प्रेमी जो अन्य स्त्रियों से संबंध स्थापित किये हो। वक्त लिखता रहा चेहरे पे हर पल का हिसाब !

मातुलो यस्य गोविन्दः पिता यस्य धनञ्जयः।

अभिमन्युर्वधं प्राप्तः कालस्य कुटिला गतिः।

                             - नराभरण २७५

— विपत्ति अकेले नहीं आती। श्रीकृष्ण जिसके मामा थे और अर्जुन पिता, उस अभिमन्यु का भी वध हुआ। काल की गति कुटिल है।

पुरुष बली नहीं होत है, समय होत बलवान।

भिल्लन लूटी गोपिका, वही अर्जुन वही बान।।

समय के सदुपयोग न करने से मन चंचल हो जाता है, ऐसा व्यक्ति कोई भी काम ठीक प्रकार नही कर सकता, उससे सफलता दूर भागेगी, ऐसा व्यक्ति बर्बर और उद्दंड होगा, उसमे उचित कार्य क्षमता की भावना का अभाव होता है।
वह न ज्ञानार्जन कर सकेगा न धनार्जन, वह केवल अशांति का शिकार बनकर रह जाएगा, उसका जीवन अभावों से भरा रहता है, वह निंदा का पात्र बनेगा और जीवन के अंतिम क्षणों में उसे पछ्ताना पडेगा।
जो व्यक्ति विद्यार्थी जीवन में पढाई-लिखाई में मन नही लगाता, यौवन में धन नहीं कमाता, वह बुढापे में कर ही क्या सकता है?जो व्यक्ति समय का सदुपयोग नही करता उसका जीवन नष्ट हो जाता है। अपने लक्ष्य की प्राप्ती के लिए मनुष्य को समय के महत्व को जानकर उसका सदुपयोग करना चाहिए।
विद्यार्थी जीवन में ही मनुष्य अपने भावी जीवन की तैयारी करता है, मानसिक तथा शारीरिक पुष्टता से अपने को सक्षम बनाता है। जो व्यक्ति इस काल का सदुपयोग न करके अन्य कार्यों में व्यस्त होता है वह अपने गृहस्त जीवन में असफल हो जाता है, उसका भावी जीवन कठिनाइयों का शिकार हो जाता है, वह शारीरिक दृष्टि से कमजोर पड़ जाता है।
समय अपनी गति से बड़ता जाता है. वह किसी के लिए रुकता नही, उसे रोकने की शक्ती भी किसी में नही है, वास्तव में समयानुसार आवश्यक तथा उचित कार्यों को संपन्न करना ही समय का सदुपयोग है।
समय के सदुपयोग से कई लाभ है, जीवन उन्नत मार्ग पर अग्रसर होता है। जीवन में उन्नति की कुंजी समय का सदुपयोग ही है, वे ही लोग जीवन में सफल बनते है जो समय का ठीक उपयोग करते है।
जीवन में समय का महत्वपूर्ण स्थान होता है, बीता समय कभी यही लौट कर नहीं आता. अतः मनुष्य को चाहिए कि जो समय उसे मिलता है उसका सदुपयोग करे, समय ही सबसे बडा बलवान है।
जो व्यक्ति इस काल में समय का सदुपयोग करता है, उसका भावी जीवन संकट हीन बनाता है, वह उन्नति के मार्ग पर निरंतर बड़ते जाता है, विजय उसके चरण चूमने लगती है। जिनके जीवन में समय का समन्वय होता है, उनका पारिवारिक जीवन सुख-शान्ति से विकसित होता है, उन्हें जीवन में शान्ति मिलती है, समाज में उनका आदर होता है।
पछताने से भी उसके हाथ कुछ नही आयेगा, मनुष्य को चाहिए कि वह अपने समय का सदुपयोग करके जीवन को मार्ग पर ले चले, वह अपने भावी जीवन को भी सुखमय बनावे।}

[बालकपन खेलों में गवायाँ, यौवन विषयों में भरमाया, बुढापन कुछ काम न आया, जीवन सफल बनाओ, शरण माँ आया हूँ ! Don't blame the child, mother! मैं तुम्हारा प्रिय पुत्र हूँ, मेरे दोष, मेरे अपराध को अनदेखा कर दो ! निरालम्बो लम्बोदरजननि कं यामि शरणम् ॥ 5॥]

चैतन्यं शाश्वतं शान्तं व्योमातीतं निरंजनं।

बिन्दुनादकलातीतं तस्मै श्री गुरवे नम:।।

(गुरुगीता- 31)

जो इस जड़ जगत के कारण-स्वरूप हैं और जो चैतन्य, नित्य, निश्चल आकाश से परे, उपाधिशून्य एवं बिन्दु,नाद और कला से अतीत हैं, मैं उन  बिन्दुवासिनी ब्रह्म-चैतन्य स्वरूपिणी श्री गुरुदेव को प्रणाम करता हूँ ।।31।।

।।31।। I offer my Salutation to the Master (सदगुरु)  the eternal, conscious, peaceful beyond void and devoid of blemish, He is also beyond Bindu 'Nada and Kala '.

जब कोई गुरु-भक्त 'गुणों सहित ब्रह्म' यानि सगुण-ब्रह्म (माँ काली के अवतार वरिष्ठ श्री रामकृष्ण) की उपासना (गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा Be and Make में) ईश्वर के नाम-जप आदि साधनाओं की सहायता से, और माँ की कृपा से व्यावहारिक रूप से सच्चिदानन्द का साक्षात्कार कर लेता है तब वह जीवन भर मुक्त अवस्था का अनुभव करता है। इसीलिए समाधि या emancipation (मृत्यु से मुक्ति,मोक्ष) प्रदान करने वाले गुरु प्रदत्त ब्रह्म मंत्र को ही प्रणव के रूप में जाना जाता है। प्रणव में आ, ऊ, म, नाद, बिंदु, कला और कला से परे की अवस्थाएं शामिल हैं। अकार स्थूल भौतिक शरीर है, ऊकार सूक्ष्म शरीर है और मकार कारण शरीर है। अकार ऊकार में विलीन हो जाता है; ऊकार मकार में विलीन हो जाता है, और मकार नाद में विलीन हो जाता है।  नाद की चार अवस्थाएँ हैं, नाद, बिंदु, कला और कला से परे कला-तीता। जबकि कला महत तत्व बुद्धि है और बिंदु अहंकार है, कला-तीता यानी कला से परे प्रकृति है और इसके परे गुरु है। [साभार https://www.shashisanjay.in/]

🏹देह त्याग का अभिप्राय है देहात्मभाव का त्याग🏹 (अहंकार का लुप्त हो जाना ही वास्तविक मृत्यु है।)   "ब्रह्मविदाप्नोति परम् । तदेषाभ्युक्ता । सत्यं ज्ञानम् अनन्तं ब्रह्म । यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन् । सोऽश्नुते सर्वान् कामान् सह । ब्रह्मणा विपश्चितेति ॥" - तैत्तिरीयोपनिषत् २-१-१

सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।

मूर्ध्नि आधाय आत्मनः प्राणम् आस्थितः योगधारणाम्।।8.12।। 

ओम् इति एकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन् माम् अनुस्मरन्।

 यः प्रयाति त्यजन् देहं सः याति परमां गतिम्।।8.13।।

।।8.12 -- 8.13।। (इन्द्रियोंके) सम्पूर्ण द्वारों को रोक कर मन का हृदय में निरोध करके और अपने प्राणों को मस्तक में स्थापित करके योगधारणा में सम्यक् प्रकार से स्थित हुआ जो 'ऊँ' इस एक अक्षर ब्रह्म का  उच्चारण और मेरा स्मरण करता हुआ शरीर को छोड़ कर जाता है, वह परमगति को प्राप्त होता है।

  (इन्द्रियों के) सम्पूर्ण द्वारों को रोक कर मन का हृदय में निरोध करके और अपने प्राणों को मस्तकमें स्थापित करके योग-धारणा में सम्यक् प्रकार से स्थित हुआ जो साधक  'ॐ' इस एक अक्षर ब्रह्म का उच्चारण और मेरा स्मरण करता हुआ शरीर को छोड़कर जाता है, वह परमगति को प्राप्त होता है।

व्याख्या - ध्यान के अभ्यास में मन को सफलता और कुशलतापूर्वक एकाग्र करने के लिए साधक को तीन नियत कर्म (tasks) करने पड़ते हैं। इन तीनों का वर्णन इन श्लोकों में किया गया है जो उक्त क्रम में अभ्यसनीय है।

(1) सबसे पहले विवेक-प्रयोग और वैराग्य के द्वारा इन इन्द्रिय द्वारों को - विशेष कर त्वचा और चक्षु को अवरुद्ध करना प्रथम साधना है। जिसके बिना- इन्द्रिय-विषयों मन को खींचना - प्रत्याहार करना और उसे किसी पूर्वनिर्धारित पवित्र आदर्श को हृदय कमल पर स्थापित किये रहना- प्रत्याहार और धारणा का अभ्यास सम्भव ही नहीं होगा। इन्द्रियों की सहायता से मन को नियंत्रित करना। हमारी पंच ज्ञानेन्द्रियाँ - रूप,रस, गंध, शब्द और स्पर्श तथा पंच कर्मेन्द्रियाँ -चक्षु (मोबाईल दर्शन), जिह्वा (फोक्चा),घ्राणेन्द्रिय (नाक), श्रोत्र (कान) और त्वचा (गर्म-ठंढा की अनुभूति) ये वे पाँच द्वार हैं जो स्थूल शरीर में स्थित हैं।  जिनके माध्यम से बाह्य विषयों की संवेदनाएं स्थिर सरोवर जैसे शांत चित्त (मन-वस्तु) में प्रवेश करके उसे चंचल या तरंगायित करती रहती हैं। 

(2) बाह्य स्थूल विषयों की संवेदनाओं का मन में प्रवेश अवरुद्ध करने के पश्चात् साधक को चाहिये कि वह भावनाओं के साधनरूप मन को दिव्य एवं पवित्र बनाये न कि उसका दमन करे।  वेदान्त में हृदय का अर्थ शरीर में स्थित रक्त संचालक अवयव से नहीं है। In Vedanta, the heart does not mean the blood-pumping machine in the body.  साहित्य और दर्शन में हृदय का अर्थ सहानुभूति, करुणा, स्नेह, सहृदयता, कृपा, भक्ति और प्रपत्ति जैसी आदर्श एवं रचनात्मक भावनाओं का अनवरत् उद्गम स्थल है। मन को इन्द्रिय विषयों से खींचकर,  हृदयकमल पर आसीन किसी पवित्र आदर्श पर मन को धारण करने का अभ्यास करने से इन्द्रियों के संयमित होने पर मन बाह्य विषयों से क्षुब्ध नहीं हो सकता। हृदय के उच्च और श्रेष्ठ वातावरण में ही मन को स्थिर करना चाहिये। इसका विवेचन किया जा चुका है कि रचनात्मक विचारों की सहायता से मन के विक्षेपों को न्यूनतम किया जा सकता है। नकारात्मक विचार वह है जिसके कारण मन क्षुब्ध और चंचल हो जाता है।

   (3) प्राण-शक्ति को मस्तक अर्थात् बुद्धि में स्थापित करने का अर्थ है बुद्धि को सभी निम्न स्तरीय विचारों एवं वस्तुओं से निवृत्त करना। लगातार विषय ग्रहण आदि के द्वारा बुद्धि का इन सब भोग वस्तुओं से तादात्म्य हो जाता है। 

सतत आत्मानुसंधान की प्रक्रिया से (यम-नियम-आसन 24X7 एवं प्रत्याहार और धारणा 1X2 का अभ्यास करके)  बुद्धि को विषयों से परावृत्त किया जा सकता है। 

   उपर्युक्त तीन कार्यों के सम्पन्न होने पर मन की आत्मानुसंधान में जो दृढ़ स्थिति होती है उसे ही यहाँ योग-धारणा  कहा गया है। जो साधक अपने आसपास के वैषयिक वातावरण को भूलकर आनन्द और संतोष से पूर्ण हृदय से मन को बुद्धि के अनुशासन में ला सकता है वह मन में ओंकार का उच्चारण सरलता और उत्साह के साथ कर सकता है। शान्त मन में उठ रहीं ओंकार वृत्तियों को जो साक्षी होकर देख सकता है वही पुरुष प्रणवोपासना के योग्य है। 

    श्लोक की अगली पंक्ति इस तथ्य को स्पष्ट करती है। प्रणव के लक्ष्यार्थ पर ध्यान करते हुये साधक परम गति को प्राप्त होता है क्योंकि उसका लक्ष्यार्थ है सम्पूर्ण विश्व का वह अधिष्ठान जिस पर जन्म और मृत्यु का मनः कल्पित नाटक खेला जाता है। देह त्याग कर जो जाता है ॐ के  उच्चारण तथा उसके लक्ष्यार्थ पर मनन करने के फलस्वरूप साधक मिथ्या जड़ उपाधियों के साथ हुये अपने तादात्म्य से ऊपर उठ जाता है जिसके कारण अहंकार का लोप हो जाता है। यही वास्तविक मृत्यु है। 

[साभार /https://www.ebharatisampat.in/readbook3?bookid=ODU4OTUyNTM0MjI5MDU1&pageno=MjI0MjQyNjk5NTk=]

 महानिर्वाणतंत्र :"महान मुक्ति का तंत्र" (महानिर्वाण तंत्र) तंत्र के पंथ को समर्पित सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथों में से एक है। इसका अनुवाद सर जॉन वुडरोफ़ ने आर्थर एवलॉन के छद्म नाम से किया है। वुडरोफ़ पहले पश्चिमी विद्वान थे जिन्होंने तंत्र रहस्य ग्रंथों का अंग्रेजी में अनुवाद किया और उन्हें अच्छी तरह से समझने में सक्षम कुछ विद्वानों की मदद ली।  जायते च क्षितौ वृक्षो यथा विलीयते तथा प्रलयकाले तू प्रलीयते - महानिर्वाण तंत्र शिव और उनकी शक्ति पार्वती के बीच वार्तालाप की एक श्रृंखला है। 

    शिव अपनी पत्नी को कलियुग के लिए उपयुक्त आध्यात्मिक मार्ग बताते हैं। वे प्रकृति के प्रभावों और कलियुग के पतन से परे जाने के लिए ध्यान की विभिन्न तकनीकों के बारे में बात करते हैं, और इस प्रकार जन्म और मृत्यु के चक्र को जीतने के लिए आत्म-जागरूकता को व्यापक आधार स्थिति तक बढ़ाने में सक्षम होते हैं । उनसे संबंधित पवित्र समारोहों, अनुष्ठानों, यंत्र और मंत्र का विस्तार से वर्णन करते हैं। वे शाश्वत धर्म, सर्वोच्च ब्रह्म और शक्ति की पूजा के बारे में बात करते हैं।

जो मनुष्य अवधूत संस्कार से गुजर चुका है, किन्तु जिसका ज्ञान अभी अपूर्ण है, उसे गृहस्थ जीवन जीकर अपनी आत्मा को शुद्ध करना चाहिए (150)।

उसे अपनी जाति-चिह्न की रक्षा करते हुए, कौल के अनुष्ठानों का पालन करते हुए, निरंतर ब्रह्म में समर्पित रहते हुए, उत्तम ज्ञान की साधना करनी चाहिए (151)।

उसे अपने मन को सदैव आसक्ति से मुक्त रखते हुए, तथापि अपने सभी कर्तव्यों का पालन करते हुए, निरन्तर "ॐ तत् सत्" का जप करना चाहिए तथा निरन्तर "सः अहम्" (152) का चिन्तन और अनुभव करना चाहिए।

अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए, अपने मन को कमल के पत्ते पर जल की तरह पूरी तरह से अलग करके, उसे दिव्य सत्य और विवेक के ज्ञान द्वारा अपनी आत्मा को मुक्त करने के लिए निरंतर प्रयास करना चाहिए (153)।

जो मनुष्य गृहस्थ हो या संन्यासी , जो कोई भी कार्य 'ॐ तत् सत्' मंत्र से आरम्भ करता है, वह उसमें सदैव सफल होता है। (154)

जप, होम, प्रतिष्ठा और सभी संस्कार यदि "ॐ तत् सत्" मंत्र से किए जाएं तो वे निस्संदेह दोषरहित होते हैं। (155)

अन्य अनेक मन्त्रों का क्या उपयोग है? अन्य अनेक साधनाओं का क्या उपयोग है? केवल इसी ब्रह्म मन्त्र से समस्त अनुष्ठान सम्पन्न हो सकते हैं (156)।

अम्बिका! यह मन्त्र सरलता से जपने वाला है, लम्बा नहीं है और पूर्ण सिद्धि देने वाला है तथा इस महान् मन्त्र के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं है (157)।

यदि इसे घर के किसी भाग में या शरीर पर लिखकर रखा जाए तो ऐसा घर पवित्र स्थान बन जाता है और शरीर पवित्र हो जाता है (158)।

हे देवेषी! मैं आपसे सत्य ही कहता हूँ कि "ॐ तत् सत्" मन्त्र निगमों, आगमों और तन्त्रों के सारतत्त्व से भी श्रेष्ठ है। (159)

यह सर्वश्रेष्ठ मन्त्र "ॐ तत् सत्" ब्रह्मा, विष्णु और शिव के तालु, कपाल और शिखा को छेदकर प्रकट हुआ है (160)।

यदि इस मन्त्र से चारों प्रकार के अन्न आदि पदार्थ पवित्र हो जाएँ तो फिर अन्य किसी मन्त्र से उन्हें पवित्र करना व्यर्थ हो जाता है। (161)

वह कौलों में राजा है, जो सर्वत्र महान पुरुष को देखता है, तथा निरन्तर महान् मन्त्र "तत् सत्" (अर्थात् ॐ तत् सत्) का जप करता है, अपनी इच्छानुसार आचरण करता है, तथा हृदय से शुद्ध है (162)।

इस मन्त्र के जप से मनुष्य सिद्ध हो जाता है, इसके अर्थ का चिन्तन करने से वह मुक्त हो जाता है और जो जप करते हुए इसके अर्थ का चिन्तन करता है, वह दृश्यरूप ब्रह्म के समान हो जाता है (163)

यह महान् त्रिपाद मन्त्र समस्त कारणों का कारण है; इसकी साधना से मनुष्य स्वयं मृत्यु को भी जीत लेता है (164)।

 

जॉन वुडरोफ़ :

आर्थर एवलॉन,

7 जनवरी ,1913. 

साभार https://www.aghori.it/mahanirvana_tantra.htm/

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প্রেমিক পথিক সংবাদ 

(রটন্তী - নিশা -ভ্রমন )

আচার্য শিরীষ চন্দ্র কামদেবি 

(১)

আপনিই কি সেই 'প্রেমিক ' -কালীকীর্তন প্রণেতা ?  

বহু বৎসর আগেকার কথা বলিতেছি। শেষ মাঘ। মাঝের রাত যেমন সাঁই সাঁ ই করছে , তেমনি ঘুট-ঘুট।শীত কম কম , গায়ে পাত্লা ঠেকিতেছে।  বাতাস যেন ফুর ফুরে- 'দক্ষিণ 'দিয়াছে। আন্দুলের পথে বিপথে, সরস্বতী ঘাটে জলে একাকার - রটন্তী চতুর্দশী ঘোর অন্ধকার। সেই গ্রাম্য নিরন্ধ্র অন্ধকারে। পথ দিয়া পথিক চলিতে ছিল। সামান্য জোনাকির।চেকনাইও তাহার সাহাযা করিতেছিল না। 'मेघेर छुरी स्वरम्' ---নিস্তার আকাশে মহামেঘের ঘোর ঘটা ! পথ জন মানব শূন্য -নির্মক্ষিক ! পথিক সেই বিশিষ্ট পুন্য-রজনীর জীবনী-শক্তির দ্বারা অনুপ্রাণিত হইয়াই যেন লঘুপদ বিক্ষেপ করিতে লাগিল। 

দূরে কোন ঘরের ছিদ্র-পথে আলোর টানা রেখা দেখিয়া রটন্তী -পূজান্তের যেন সুঘ্রাণ পাইয়া সেই দিকে আগুয়ান হইল; সেই দিকে আগুয়ান হইল। লক্ষিত স্থানে উপস্থিত হইতে আর বিলম্ব হইলো না। পথিক দেখিল -দেবীপূজা সদ্যঃ সমাপ্ত হইয়াছে। দেবীপীঠের 'যোগ-প্রদীপ ' জলিতেছে। পূজক পূজান্তে সুখাসনে সমাসীন। তিনি 'নিবাত তপদ্মস্তি মিতেন চক্ষুষা ' - পথিক কে দেখিয়া কিছু দেবী প্রসাদ দিলেন।  তখন প্রসাদ-প্রসন্ন পথিক কহিল - এইমাত্র মা সিদ্ধেশ্বরীর মন্দিরে রটন্তী পূজা সুসম্পন্ন দেখিয়া ঘুরিতেছিলাম -গ্রাম প্রদক্ষিণ করিতেছিলাম - ' কো জাগতি ' - খুঁজিতেছিলাম। আপনাকে পাইয়া ভরসা হইল -আশা হইল এদেশ এখনও সাধকশূন্য হয় নাই। প্রায় সমস্ত রাত্রি জাগিয়া 'যাগ -প্রদীপ '-এর সম্মুখে প্রেমিক পথিক বাক্যবাক্য চলিতে লাগিল। যদি পারি - হে প্রেমিক ! সে গুন তোমারি ! যদি হারি -হে পথিক ! সে দোষ তোমারি ! আমি মাত্র আদার ব্যাপারী - किमार्द्रक-वणिजो वहित्र-चिन्तया" ! किसी अदरक के व्यापारी को जहाज के बारे में चिन्ता करने की क्या जरूरत है ? 

[अयं देशः अद्यापि सन्तहीनः न अभवत्] আপনাকে পাইয়া ভরসা হইল -আশা হইল এদেশ এখনও সাধকশূন্য হয় নাই। এই পূজাস্থলের যন্ত্রোপচার আদি লক্ষ্য করিলে বুঝা যায় বিররাত্রিনিমিত্তানুষ্ঠানও সিদ্ধবিদ্যাদি ভাবে সুসম্পন্ন। আপনিই কি সেই 'প্রেমিক ' -কালীকীর্তন প্রণেতা ? প্রেমিক মহারাজ 'নিশিখদিপাঃ সহসা হত ত্বিয়ঃ ' হাসি হাসিলেন।তখন প্রেমিকে পথিকে গভীর পরিচয় হইয়া গেল -যেন 'ভাব স্থিরানি জননান্তর সৈয়দানী ' ; প্রায় সমস্ত রাত্রি জাগিয়া 'যাগ -প্রদীপ '-এর সম্মুখে প্রেমিক পথিক বাক্যবাক্য চলিতে লাগিল। সে প্রেমিক-পথিক সংবাদ  মনের মত কোরিয়া পরে যাহা জানিতে পারিয়াছি তাহা আপনাদের বলিব মনে করিয়াছি। পারি কি হারি -একবার দেখি।  

       প্রথমেই ' দক্ষিণ নবদ্বীপ ' আখ্যা আন্দুলের ভৈরবী চরণ বিদ্যাসাগরের কথা আরম্ভ হইল। প্রেমিক বলিলেন - বিদ্যাসাগর সর্ব অপরাবিদ্যার পরায়ন করিয়া পরে সমযাচার পর্যন্ত বিসর্জন দিয়া তন্ত্রমতে মহাবিদ্যার সাধনে তাঁহার শেষজীবনে উৎসর্গ করিয়াছিলেন।বিদ্যাসাগর ভৈরবী চরনের পঞ্চমুণ্ডী আসনে মন্ত্রসাধনার কথা গত বৎসর স্থানীয় তন্ত্র-সভায় বিস্ত্ৰত ভাবে আলোচনা করিকার অবকাশ আপনারা আমায় দিয়েছিলেন , এস্থলে তাহার পুনরুক্তি নিষ্প্রয়োজন ও কতকটা অপ্রাসঙ্গিক হইবে।  আর পথিক-প্রেমিকের অন্যান্য কথাবার্তা আপনাদের নিবেদন করিবারও সময় পাইবো না।  

      সে রাত্রির সেই বিরল-নির্মল - নির্র্গল প্রশ্নোত্তরধারা আমি সাজাইয়া উঠিতে পারিতেছি না। সে যে সারা রাতের কথা ! 

      এক মুন্ডাসনেরই কত কথা ! 'পঞ্চমুন্ডি' কি ?   

পথিকের এই প্রশ্নের উত্তর - (নিষ্পদ সরীসৃপ) সর্পের মুন্ড ১, (চতুষ্পদ) শৃঙ্গালের মুন্ড ১, (চতুষ্কর) বানরের মুন্ড ১, ও (দ্বিপদ নিম্ন স্তরের নর) চণ্ডালের মুন্ড ২, - সাকলো ৫টি লইয়া 'পঞ্চমুন্ডি'। 

পথিক : "আচ্ছা তার উপর - মুন্ডাসনে সাধনা কিরূপ ? 

প্রেমিক : " তা শুনলে বা গ্রন্থে পড়লে কিছু আর সাধক হওয়া যায় না। দক্ষিনেশ্বরের পরমহংসদেব বলিতেন - পাঁজিতে এবার বিশ আডা জলের কথা লেখা আছে। পাঁজিখানা টিপিলে এক ফোঁটাও জল বাহির হয় না। পঠনে ও সাধনে সেইরূপ ব্যবধান।  

প্রশ্ন - মহাশয় ! এমন তন্ত্র সাধনের গ্রন্থ আরও কত আছে বোধ হয় ?  

উত্তর - চামুন্ডা মুণ্ডমালা হি যোগিনী য়ামলং তথা। 

কামাখ্যা কুজিকা রাধা কঙ্কাল মালিনী শিবে।

নিত্যঃ নীলঃ মহানীলঃ মহানির্বান মনোৰম। ..... 

সপ্তকোটি মহাগ্রন্থের কথা সদাশিব দেবীকে বলিয়াছেন।   

সদাশিব যাহা দেবীকে বলেন তাহা আগম। আ-গ-ম -> 'আ' -কি না -আ গতং শিব বক্তভ্যঃ। 'গ ' কি না 'গ' তঞ্চ গিরিজাশ্রুতৌ। 'ম' -কি না -'ম' -তং শ্রীবাসুদেবস্যা তস্মাৎ আগম উচ্যতে। ' আগম শিব বলেন , গৌরী শুনেন, মত শ্রীবাসুদেবের। আর নিগম দেবী বলেন, শিব শুনেন মত এ বাসুদেবের। যথা -'নি' র্গতো গিরিজা 'গ' -তশ্চ গিরিশ শ্রুতিম। 'ম' -তঞ্চ বাসুদেব নিগমঃ পরিকল্পাতে। ' আবার অনেক স্থলে আগম ও নিগম একই অর্থে ব্যবহৃত হয়। গ্রথিত আগমশাস্ত্রের বক্তা সর্বান্তরযামী মায়াতীত ভগবান - শ্রোত্রী -নিখিল মায়ার অধীশ্বর , লেখক সিদ্ধিদাতা গনেশ, প্রচারক - গুহাবাসী সিদ্ধ মহাপুরুষ। 

প্রশ্ন -তবে কি তন্ত্রশাস্ত্রে সর্বধর্ম সম্প্রদায়ে সামঞ্জস্য হয় ? 

উত্তর - তা হয় বই কি ! মন্ত্র বৈদিক ব্যাতিত সবই তান্ত্রিক। বীজমন্ত্রদীক্ষাপদ্ধতি সবই তান্ত্রিক। শ্রী চৈতন্যদেব তান্ত্রিক বিষ্ণুমন্ত্রেই দীক্ষিত হন। জগৎগুরু শঙ্করাচার্য শ্রীকুলের তান্ত্রিক ছিলেন। বিষ্ণুক্রান্তার অপর শঙ্করাচার্য কালীকুলের প্রসিদ্ধ সিদ্ধ তান্ত্রিক মহাপুরুষ। হোম -হয় বৈদিক , না হয় তান্ত্রিক। সন্ধ্যা বিধি বৈদিক, তান্ত্রিকও আছে। শক্তের দশ মহাবিদ্যা , বৈষ্ণবের দশাবতার একই আধার। 'কৃষ্ণরূপা কালিক: স্যাৎ রামরূপা চ তারিণী। ' কালী -কৃষ্ণ উভয়েরই নবনীরদ -নীলকান্তি, তারা - শক্তিযুক্ত রাম; ষোড়শী -জামদগ্ন্যা উভয়ের হস্তে কোদন্ড , ভুবনেশ্বরী -বামন ; ত্রিভুবনেশ্বরী ও ত্রিবিক্রম - উভয়ে পদরক্ষা করিয়াছেন ডেব পৃথিবীর উপর; ভৈরবী -বরাহ ; ছিন্নমস্তা -নৃসিংহ, ধূমাবতী -মীন।

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quadrumana :১. একবার স্যার জোন উড্রোফ এই তন্ত্রবচনটি বলা হল টিপ্পনি এইটুকু ছিল - যদিও সপ্তকোটি গ্রন্থ অতিযুক্তি হতে পারে - কিন্তু তন্ত্র সংখ্যায় বহু। সর জোন উডরাউফ সঙ্গে সঙ্গে উত্তর দিলেন - No, no , when Sadashiva tells it, it must be accepted as literally true ! আমার শিক্ষিত শ্রোতৃ বৃন্দ মধ্যে কয়জন এমন কথা কহিতে পারেন ? 

২. আবার শ্রীকৃষ্ণের বালগোপাল-মূর্তি ও জগন্মাতার আদ্যমূর্তি - উভয়ই বসন -বিরহিত -পরিপূর্ণতায় নগ্ন। গোপালজির হাতের লাড্ডু -জগদম্বিকার করনব্য মুন্ড। হ্রিং -ক্লিং বলয়ে রভেদঃ) বগলা -কুর্ম; মাতঙ্গী -কল্কি , কমলা -বুদ্ধ , অপিচ স্বয়ং ভগবতী কালী কৃষ্ণস্তু ভগবান স্বয়ং। স্বয়ং ভগবান কৃষ্ণ কালিরূপো ভবেদ ব্রজে। আবার শ্রী মহাভাগবৎ -পুরান মতে ভদ্রকালী মূর্তিই কৃষ্ণ রূপে ধরায় অবতীর্ন হয়েন ! সীতা রামে তারা আছেন। সী -'তারা ' -মহ'ল -সীতারাম ! তন্ত্রে সপ্তাচারে বৈষ্ণবাচার আছে যথা - বৈদিক আচার , বৈষ্ণবাচার , শৈব আচার , দক্ষিনাচার , বামাচার, সিদ্ধান্তাচার , কৌলাচার। যেমন বনভূমিতে হস্তির বিশাল পদাঙ্কে গোষ্পদাদি সর্ব প্রাণী -পদাঙ্ক ভুলিয়া যায়, তেমনি তন্ত্রের মহাপদ্ধতিতে সর্বধর্ম কর্ম পদ্ধতিই অন্তর্ভুক্ত হইয়া পড়ে। দেবীর প্রতি শিব উক্তি স্মরণ কর -' করি -পাদে নিমজ্জন্তি সর্ব প্রাণী পদা যথা। কুল ধর্মে নিমজ্জন্তি সর্বে ধর্মা স্তথা প্রিয়ে।    ----------

প্রশ্ন - 'কুলধর্ম ' কি ? 

উত্তর - কৌলের লক্ষণে দেখা যায় - অন্তঃশকতাঃ বহিঃ শৈব সভ্য বৈষ্ণব মতাঃ।নানা বেশ ধরাঃ কৌল বিচরন্তি মহীতলে। বলে না ? - 'হৃদে কালী মুখে হরিনাম ' ! পথিক বলে -মহাশয় এ ত বড় শক্ত ? প্রেমিক - হাসিয়া বলেন - হাঁ - শাক্ত হওয়া বড় শক্ত ! একক সে -শব  আচার শব সাধনা - কে ও অন্তর্ভুক্ত করে -হস্তি ভুক্তক পিথবৎ - তার উপর সে ভোগে আসক্ত নয় , অথচ দেহে অশক্ত নয় - তবে শাক্ত। তাই শাক্ত হওয়া যে বড় শক্ত। পথিক বলে -যথার্থ 'প্রেমিক ' পুরুষই বটে। পুনঃ প্রশ্ন করি : " শাক্তের কাছে কালী ব্রহ্মময়ী ! কালী শব্দে কি বুঝিব ?" সে প্রশ্নের উত্তর প্রেমিকের প্রেম কন্ঠে যেন             

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করে। কথায় বলে 'কুলার বাতাস !' অসম্দ দেশে একটা অদ্ভুত কথা শোনা যায় যে ঊর্ধ্ব নভঃ সঞ্চারী মেঘডম্বরে সূক্ষ্ম সংস ডিম্বাকারে কিছু থাকে। সমুদ্রে এমনও অনেক টেন্ডা মাছ আছে , যাহারা ঘোর মেঘ-ঝড়ের রাত্রিতে উদন্ড বা পর বলয় (parabolic) জলদি -হৃদয় হইতে সৃপবং পক্ষ ভবে উদ্ধৃত হইয়া আদি জন্ম -সংস্কার বশে মেঘমণ্ডল -নিঃসারিত যুক্ত বংশকফ  পান কোরিয়া নামিয়া আসে। মেঘ ধ্বনিতে বলাকার গ্ৰভংধান আনাদের দর্শনে কাব্ যত্র তত্র কথিত।  যথা -বেদান্ত দর্শনের শাঙ্কর ভাষ্য যথা ' লোকে বলাকে অন্তরণের শুভ্ৰম গর্ভ ধত্তে এবং চেতনমপি ব্রহ্ম অনপেক্ষা বাহ্যং সাধনং জগৎ ষড়ক্ষয়তি।  বলাকা চ শ্রবনাদ গৰ্ভঙ্গ ধত্তে। মেঘদুতে ও টীকায় মল্লিনাথ -ধৃত বচন- গৰ্ভঙ্গ বলাকা দধ দেহ ভরযগত নাকে নিবদ্ধা বলয়ঃ সমস্তত। তন্ত্রোক্ত দেবী ধূমাবতীর বসতসিবতর্নে 'প্রলয় -পয়োধিজল' -এ 'ধৃত -মীনশরীর ' প্রথম অবতারি শ্রী ভগবান আছেন। সৃষ্টি -তত্বের য স্তর উভচর কুর্মে , ঊধ্ব। ' ধরণী-ধরন -কিন্ -চক্রাকার মুকুট ধরিনি ও নিয়ে পাতাল -রত্নসিংহাসন -স্থিতা - 'দুর্গম ' নামক দৈত্য -তাড়ন -নিরতা বগলা মূর্তি। তৃতীয় স্থল -তত্ব -মহাবারাহ ও তদ্দর্শণ শিখরে লগ্না পৃথিবী -ভৈরবী -কর ধৃত জপ বঁটি। সৃষ্টির ৪থ অবস্থা -মরদেহ কিন্তু সিংহের মস্তক - (নরসিংহ -anthropoid Lion) মস্তক ছিন্ন হইলে মানবী তনু (ছিন্ন মস্তা।) নিম্নে রতি-কামাসনে পূর্ন নব মানবদেহ উৎসমান। ষোড়শ বর্ষ দেশীয় নৃসিংহ -দেবের গলদেশে যজ্ঞপবিত , দেবী ছিন্ন মস্তা নাগয়ায় যজ্ঞপবিত -পরিহিতা নবযুবতী। এতাবদা দেব-দেবীর মূর্তি -দৃশ্য প্রদর্শনে তন্ত্রের সৃষ্টি রহস্য -তত্ব সূচিত মাত্র রহিল। 

৪. কদম্ব ভবনে মাতঙ্গ মুনির বহু তপস্যায় আবির্ভূতা মাতঙ্গী মূর্তি , মদশীল মাতঙ্গ নামক অসুর -বিনা - সিনির 'করবাল ' কল্কির হস্তে ও আছে। 'ম্লেচ্ছ নিবহ নিধনে কল য়সি করবালাম। ' তদুপরি মাতঙ্গী দেবী সঙ্গীত -মাতৃকা। 

৫. যথা হস্তিপদে লিংগ সর্ব প্রাণিপদং ভবেৎ। দর্শনানি তু সর্বানী কুলমেব বিশন্তি হি। ' -এ পাঠ ও পাওয়া যায়। 

৬. 'কুলং কুণ্ডলিনী শক্তির কুলস্থ মহেশ্বরঃ। কুলা -কুলস্য ত্ত্বজ্ঞ কৌল ইটিভির যাতে। পুনশ্চঃ -'না কুলং ক্লামিত্ম বলং ব্রহ্ম সনাতন। তৎকালে নিরত যে হয় কৌল অভিধিয়তে। বাজিয়ে উঠিল। যথা 'কল যিত কালী -লয়ং করোতি ইতি। কালী -লয়স্য বিল্যং করোতি ইতি কালী। ' সেই রটন্তী চতুর্দশীর মহানিশায় পথিক তখন সব কালীময় দেখিতে লাগিল। প্রেমিকের ব্যাখ্যা চলিতে লাগিল -'কলযতি ' - শুভাশুভ বৃদ্ধি -ক্ষয় করেন যিনি -তিনিই কালী , বা ইন্দ্রজালবৎ মায়ারূপেণ বা সৃষ্টি করেন যিনি তিনিই কালী। ' কলযতি' -ভক্ষয়তি কি না গ্রাসে লয় করেন যিনি , তিনি কালী। লয়ের বিলয় যিনি করেন অর্থাৎ পুনঃ সৃষ্টি যিনি করেন তিনিই কালী। শিব (মঙ্গল) -যুক্তা হইয়াই তিনি ভদ্রকালী।রোগ হইতে আমাদের রক্ষা করেন - মা রক্ষাকালী। শ্মশানে যখন নির্ভীক ভক্ত সাধককে সিদ্ধি দেন , তখন -মা শ্মশানকালী। জন্যঃ ব্রহ্মাদির জননী বলিয়া তিনি নিত্যকালী। বচন আছে - 'ব্রহ্মা -বিষ্ণু -শিব আদিনাম যস্য সৃষ্টি নিজে ছায়া। পুনঃ প্রলিয়তে যেসং নিত্যা সা পরিকীতিতা। 

তারপর , প্রেমিক কবি উদাহরনে পথিকের 'মন হরণ' করিলেন। যথা - আমাদের এই ব্রহ্মান্ড সৃষ্টি কোরিয়া পুরান পুরুষ ব্রহ্মা একবার মা'র সাক্ষাৎকারে তাঁর সৃষ্টির সকল কথা জানাইতে ইচ্ছা করেন। ইচ্ছাময়ী ব্রহ্মার ইচ্ছা বুঝিয়া ব্যোমকেশকে পরম ব্যোমে এক নাদ মন্দির নির্মাণ করতে বলেন। ব্যোম -ব্যোম নাদে তখনই পরম ব্যোমে এক বিরাট নাদ-মন্দির প্রতিষ্ঠিত হ'ল। নাদ -মন্দির মধ্যে বিন্দুবাসিনি, ব্রহ্ম-চৈতন্য স্বরূপিণী - ' ব্রহ্ম ব্যমনা রভেদোঃহস্তী চৈতন্যম ব্রহ্মাহ ধিকম - মহাকালী মূর্তি ধারণ করিলেন। নাদ মন্দিরের একাদশ তোরণ , এক এক এগার তোরণে একাদশ রুদ্র প্রহরী নিযুক্ত হলেন। সৃষ্টিকর্তা ব্রহ্মা আসিয়া প্রহরী রুদ্রগণের নিকট মায়ের দর্শন ইচ্ছা জানালেন। স্রুদ্রগন মন্দিরান্তর হইতে ফিরিয়া আসিয়া ব্রহ্মা কে মহাকালির প্রশ্ন জানাইয়া জিজ্ঞাসিলেন - ব্রহ্মন ! আপনি কোন ব্রহ্মান্ডের ব্রহ্মা ? সৃষ্টিকর্তা তখন অহংকারে স্ফীত হইয়া বলিলেন -ব্রহ্মান্ড আবার কয়টা আছে হে ? তোমরা প্রহরী মাত্র ! মায়ের উক্ত প্রশ্নে আমার উত্তর কি আছে সে তোমরা বুঝিবে না ! আগে মহামায়ার সমীপে আমায় পৌঁছাইয়া দাও , সাক্ষাৎকারে আমিই  স্বয়ং তাঁকে এই প্রশ্নের উত্তর দিবো ! 'তথাস্তু ' বলিয়া অন্যতম রুদ্র প্রহরী ব্রহ্মাকে ব্রহ্মময়ী সদনে লইয়া গেল। নাদ -মন্দির -মধ্যে ব্রহ্মা ব্রহ্মান্ড -ভান্ড ওদরি মহাকালির অপূর্ব বিরাট দেহ দর্শন করিতে লাগিলেন - যত উদরে -কুহরে কোটি ব্রহ্মান্ড আদি বিলিয়তে'। স্তম্ভিত -শঙ্কিত -প্রজাপতি দেখিতে লাগিলেন - মহাকালির অঙ্গে অঙ্গে প্রতি রোমকূপে এক একটা ব্রহ্মান্ড - তাহাতে এক একটি ব্রহ্মা ক্ষুদ্র মধুকর বৎ নিজ নিজ ব্রহ্মাণ্ডে বিচরণে হন হন ধ্বনি করিতেছেন। এ ব্রহ্মা কেহ কাহাকে জানেন না - আপন আপন বিশিষ্ট সৃষ্টি কার্য ব্যাপৃত। আগন্তুক ব্রহ্মা তখন মহামায়ার বিরাট দেহের কোন লোমকূপে আপনি আছেন খুঁজিতে লাগিলেন। অবশেষে ব্রহ্মময়ীর দয়ায় ব্রহ্মার আত্মদর্শন লাভ ঘটিল। তিনি তখন মহাশক্তির সাগদ্গদ স্তব করিতে লাগিলেন। মা ! মা ! ও মা ! ক্ষমা কর -ক্ষমা কর মা ! সন্তানের অপরাধ নিও না , জননী ! 'উৎক্ষেপনম গর্ভ গতস্য পাদোয়াহ কিম কল্বতে মাতু -আগসে ? মাতৃ গর্ভস্থ শিশু যদি পদত্ক্ষেপন করে , তাহাতে মা কি জঠরের সন্তান পদাঘাত করিল ভাবিয়া অপরাধ গ্রহণ করেন ? আমি প্রজাপতি হইলেও মাগো তোমারই গর্ভের এর্ভক শিশু মাত্র -স্বয়ং শক্তিহীন ! -ব্রহ্মণী কুরুতে সৃষ্টিং না তু ব্রহ্মা কদাচন। অতএব মহেশানি ! ব্রহ্মা প্রেতো না সংশযঃ তখন শঙ্খচক্রধারী বিষ্ণু আসিয়া কহিলেন -বৈষ্ণবী কুরুতে রক্ষাং না তু বিষ্ণু কদাচন। অতএব মহেশানি। বিষ্ণুহ প্রেতো। না সংশয়ঃ। 

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১. 'জায়তে চ ক্ষিত বৃদ্দঘ যথা প্রথম বিলিয়তে ' তয়াত বুদ্বুদম জাত যথা তোয়ে বিলিয়তে। জলদে তড়িৎ উৎপন্না লিয়তে চ যথা ঘনে। তথা ব্রহ্মা দায় দেবাঃ কালিকায়াঃ প্রজায়তে। তথা প্রলয় কালে তু পুনঃ স্টেসি পিরালিয়তে। - নির্বাণ তন্ত্র। 

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তখন প্রহরী রুদ্রদেব কর জোড়ে গায়িতে লাগিলেন - ' রুদ্রানী কুরুতে গ্রাস না তু রুদ্রঃ কদাচন। অতএব মহেশানি ! রুদ্রঃ প্রেতো না সংশয়ঃ। ইতি প্রেমিক -পথিক সম্বাদ।  

বড় জের পর ঋষভ গান্ধারাদি সুর -সপ্তকে উঠিলে প্রেমিকের সুর-সিদ্ধির পরিচয় পাওয়া যায়। মায়ের ভক্ত সন্তান কেমন করিয়াই মার্গমের মধ্যে মাতৃত্ব উপলব্ধি করিয়া থাকেন। ভক্ত মাকে স্মরণ করিতে চেন - মা-মা ! কি না , সেই মা ! দুরাহবনে 'রে ' ভক্ত দূর হইতে মাকে আহবান করিতেছেন -রে মা ! তারপর কাছে পাইয়া , আদরে মাকে ডাকিতেছেন - গো মা ! মা গো ! তার উপর মায়ের পদকমল লোভে 'সা-পা ধা -নি' কি না 'ম পা ধনী ' হইয়া পর্দায় পর্দায় উঠিয়া গেলেন। যেন ধ্যানীর ধ্যানের মূর্ছনা ; মা'র ভক্তের কাছে আপনাদের সুপরিচিত ' সা -রে -গা -মা -পা - ধা -নি ' কি অপূর্ব আকারই ধারণ করে। প্রেমিক মহারাজ এইরূপ মা'র অধিষ্ঠান উপলব্ধি করিয়া মাতোয়ারা হইয়া তাঁহার 'কালী-কীর্তন ' এর পদাবলী রচনা করিয়া গিয়াছেন। সে কালীকীর্তন শুনিয়া সাহিত্য -গুরু ঈশ্বরচন্দ্র বিদ্যাসাগর চমৎকৃত হইয়াছিলেন , বঙ্গের ধর্মবীর বাগ্মী প্রবর বিবেকানন্দের আনন্দ উছলিয়া উঠিত ! 

পথিক সেই 'মাতৃ সন্ধানী ' প্রেমিক কে পুনর্বার প্রশ্ন করিল : মায়ের পদযুগলে কেন মহাকালের উপরি স্থাপিত হইল ? মহাকাল কি ? উত্তর - " অগ্রে গ্রাসে গ্রাসে কালের কলেবর কত দূর বৃদ্ধি পায় দেখ। অনুপলকে পল গ্রাসে করিতেছে , পলকে আবার প্রহর গ্রাস করতেছে। দিনকে আবার পক্ষ গ্রাসে করিতেছে। পক্ষ কে মাস গ্রাস করিতেছে , মাসকে আবার ঋতু গ্রাস করিতেছে।  ঋতু কে সংবৎসর গ্রাস করিতেছে।  সংবৎসর কে যুগ গ্রাস করিতেছে। যুগ কে কল্প গ্রাস করিতেছে। এই কল্প-গ্রাসি জগদাধর মহাকালকে আসন করিয়া দন্ডায়মান অর্থাৎ তিনি মহাকালের অতীত মহাকালী। এইরূপ কালী-কল্পনায় কাল -লোপের সঙ্গে-সঙ্গে স্থান ও লোপ পায়। তাই , লোল রসনায় কালী স্থান পান করিতেছেন। 

প্রশ্ন - আর, মা কালির ত্রিনয়ন ? 

উত্তর - সেও কালের নিয়ামক। রামপ্রসাদ কি গান বেঁধেছেন শোন। 

'সপ্ত হেতি সপ্ত পেতি সপ্ত বিংশ পতি -নয়না ! 

মানে ? 

মানে করে নিতে হবে 'সপ্তহেতি ' -অগ্নি ; কালী-করালী -মনোজবাদি সপ্তশিখ অগ্নি কালীর এক নয়নে জ্বলছে ! জাতকের সূতিকাগারে জ্বলিত অগ্নি রক্ষিত হইয়া শেষে শ্মশানে চিতাগ্নি রূপে তার দেহ দাহ করে  (এ প্রথা ছিল ) অগ্নি তাহা হইলে মানুষের আয়ুষ্কালের পরিমাপক। 'সপ্তপেতি ' সপ্ত সপ্তির ' র অপভ্ৰংশ = সূর্য - মা'র অপর নয়ন -দিবারাত্রির নিয়ামক। 'সপ্তবিংশ ' (তারা ) 'পতি' = চন্দ্র , তিথি প্রমাতা - দেবীর অন্যতম নয়ন - ত্রিনয়নে কালী কালেরই শাসন করছেন। 

পথিক তখন গানের ছলে প্রশ্ন করিতেছেন - ' যখন ব্রহ্মান্ড ছিল না মাগো ! মুণ্ডমালা কোথায় পেলি ? উত্তর - আকাশ তো ছিল। আকাশের গুন্ শব্দ।  শব্দ দ্বিবিধ -ধ্বনি ও বর্ন। বর্ন  -পঞ্চাশ।  এই অক্ষয় 

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১. স্থান ও কাল মনের (কল্পনা) যন্ত্র মাত্র - যাদ্বারা বহির্জগতের জ্ঞান হয়। জগতের যা কিছ , এই দুই মনোময় যন্ত্রে বিজস্ত্রিত হইয়া আমাদের গোচরীভূত হয়।  'যত্র যত্র মন যাতি তত্র তত্র ভবেদ ভবঃ। তত্র তত্র মনো যাতি তদ্ বিষ্ণুহ পরম পদম। ' মনশ্চালিত স্থান ও কালের অসদ ভাবে দৃশ্যমান বাহ্য জগতের বিলয় ঘটে , জার্মিনির দার্শনিক -শিরোমনি এমইনুল কান্ট ও ঠিক এই কথাই বলেন। মনের যন্ত্র স্থান ও কালের অসাধারন মনোমোক্ষ লাভ করিতে হয়। স্থান ও কালের অতীত সেই নিত্য-কালীর সাধনই মনোমোক্ষের পথ। 

২. ব্রহ্মময়ীর অন্যতম নাম 'প্রাকাশ ' ! 'যস্য সা পরমা দেবী শক্তির আকাশ স্থিতা। কর্ণে (আকাশস্য) 'শব্দ গুনং বিদুঃ। ইতি মনুঃ। 

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অক্ষর -মালাই মা'র মুণ্ডমালা। এই এক একটি অক্ষর এক একটি মন্ত্র -যাকে মন্ত্রমাত্রিকা বলে। অক্ষরই বা কেন, - ধ্বনি মাত্রই মা'র মন্ত্র। সেই রামপ্রসাদী গীতিতে আছে - 'যত শুনে বর্ণপুটে সবই মায়ের মন্ত্র বটে। 

 মহাকালির একশত আট মুন্ডমালার কথাও আছে। সত্য, ত্রেতা , দ্বাপর , কলি -চারি যুগে সংখ্যা উক্ত চতুর্বিংশতি তত্ব সমষ্টি তে জগৎ সৃষ্টি হয়। সাংখ্য আচার্যরা বলেন - ' পঞ্চবিংশ তিতা ত্ব জ্ঞেয় যত্র কুত্রা শ্রমে বসেৎ। জটি মুন্ডি শিখি বাপি মুচ্যতে নাত্র সংশয়। 

সৃষ্টির এই চতুবিংশতি তত্ব চারি যুগে ২৪/২৪ করিয়া ৯৬ টা হয়।  প্রতি যুগেরই সাক্ষী পুরুষ ও ক্রিয়াবতী প্রকৃতি -সর্ব সমেত ৮ , আর চারি যুগের ব্যবহারিক সৃষ্টিকর্তা চতুরানন ব্রহ্মা বা পাতঞ্জলি মতে ঈশ্বর - সর্ব যোগ ১০৮ , মুন্ডমালিনীর চতুর্যুগের শির্ক্ষা ভাব সূচিত করিতেছে। ইহাতে প্রশ্ন উঠিল - তবে কি দেবীর এবংবিধ রূপ দার্শনিক রূপক মাত্র ? ইহা কি তার স্বরূপ নহে ?   

আ-হা ! ব্রাহ্মময়ীর স্বরূপ ? - 'কে জানে কালী কেমন ! ষড়দর্শনে যাঁর না পায় দর্শন।' মায়ের স্বরূপ দর্শনের অদৃশ্য , গণিতের অগণ্য , বিজ্ঞানের অবিজ্ঞেয় ! তবে উপায় ? আমাদের মতো লোকের ? 'কালীকৃপা হি কেবলম ! ' 'সর্বত্র ভা সমা ভানো: সমা বৃষ্টি: পয়োমুচ:, সমা কৃপা ভগবথঃ সর্ব ভূতানি কাম্পিনি। সর্ব জীবের প্রতি অনুগ্রহ করিয়া জগন্মাতা বিগ্রহবতী। 'সাধকানাং হিতার্থায় ব্রহ্মণো রূপকল্পনা। ' সাধকের হিতের জন্য ব্রহ্মের রূপকল্পনা। এ রূপকল্পনার কর্তা কে ? সাধু বা পন্ডিতগন কি রূপকল্পনা করিয়াছিলেন ? না , 'ব্রহ্মণঃ রূপকল্পনা ' - এ স্থলে 'কর্তা' রি ষষ্ঠী বুঝিতে হইবে। ব্রহ্ম স্বয়ংই তাঁহার রূপ রচনা করিয়াছেন ; কেন ? 'সাধকানাং হিতার্থায় ' -ইহাতে ব্যাকরণের পান্ডিত্য কিছ নাই। ইহাই সঙ্গত অর্থ।  কেননা , পুনরুক্তি আছে - 'সাধকানাং হিতার্থায় ' অরূপা রূপধারিনী। ' -অরূপা স্বয়ং রূপ ধারণ করিয়াছেন।  পন্ডিতগণ বা সাধুগণ কিছুই করেন নাই ! ভয় নাই ! ' কা শঙ্কা স্যাৎ মনীষিনাম ? 'উপাসকানাং সিদ্ধাৰ্থং ' - উপাসক দিগের সিদ্ধির জন্য নিরূপপদ ব্রহ্মময়ী দয়া-ঘন  সিদ্ধেশ্বরী মূর্তি স্বীকার করিয়াছেন। রামপ্রসাদ আবার কটাক্ষ করিয়াছেন - 'ব্রাহ্ম নিরুপনের কথা শুধু দেন্তর হাসি ' - প্রেমিক মহারাজও স্বীয় 'কালীকীর্তন -এর পদ গাহিলেন - " ও সব সাংখ্য পাতঞ্জল - সেরে গেছে গোলমাল। " 

[অনুগ্রাহয় ভূতানাং গৃহীত দিব্য বিগ্রহে ! ' - কিঙ্কনি স্ত্রোত্র। ] 

পথিক -আপনার কালীরূপ তত্বের বিবৃদ্ধিত তাঁর আলুলায়িত চরণচুম্বি কেশ -কলাপের ব্যাখ্যা কেমন হবে ?  প্রেমিক - ব্যাখ্যা আর কি করিতে পারি ? এক ভক্তের কাছে শুনেছিলাম একটি সুন্দর ভাবের কথা। দেবীর ব্যোমব্যাপিনী দিগলয় -সংসপিনী মুক্তবেণী তাঁহার চরণে আসিয়া নামিয়াছে কেন ? উত্তরে ভক্ত বলেছিলেন - তেত্রিশকোটি দেবতা আসিয়া যখন দেবী -পদতলে পড়িয়া তাঁহার চরনবন্দন করিতে লাগিলো - দেববৃন্দ শিরোরত্ন নিঘৃষ্ট -চারণাম্বুজে ! ' তখন তাঁর মস্তকের কেশরাশি ভাবিলো - আমরাই বা বাকি থাকে কেন ? এমনি দলে দলে ঝাঁপাইয়া পড়িয়া মা'র চরণস্পর্শ করিয়া আনন্দে ঝুলিতে লাগিল। এইরূপে ভক্ত ভাব দিয়া মা'র ভাগবতী তনুর অনুভবনা করেন।  এখানে তর্কের কোন স্থান নেই। 

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