कुल पेज दृश्य

सोमवार, 27 जनवरी 2025

🔱'यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे, यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे': अर्थात E=mc² की समझ" - Energy and Mass are Interconvertible "🔱

पितुरप्यधिका माता गर्भधारणपोषणात् ।

अतो हि त्रिषुलोकेषु नास्ति मातृसमो गुरुः ।।

-गर्भ को धारण करने और पालन पोषण करने के कारण माता का स्थान पिता से भी बढ कर है! अत: तीनों लोकों में माता के समान कोई गुरु नहीं अर्थात् (भारत) माता परं गुरु है! 

   

 परिव्राजिका अतन्द्राप्राणा माताजी 

[श्री सारदा मठ की  महासचिव] 

[Inspiring Speech by Pravrajika Atandraprana Mataji, General Secretary of Sri Sarada Math] : 

 ॐ नमः श्री यति राजाय विवेकानन्द सूरये, 

सच्चिद सुख स्वरूपाय स्वामिने तापहारिणे ! 

 🔱1.मकर संक्रांति की तारीख में बदलाव क्यों होता है ? (Why does the date of Makar Sankranti change?) :

     12 जनवरी को हमलोग स्वामी विवेकानन्द के जन्मदिन को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाते हैं। किन्तु वह अंग्रेजी कैलेण्डर के अनुसार मनाया जाता है। जबकि उनकी जन्मतिथि के अनुसार इस महीने के 21 तारीख को उनकी तिथिपूजा आयोजित की जाएगी। तुम लोगों में कोई जानता है कि 1863 ई० के 12 तारीख के दिन कौन सा विशेष दिन या त्यौहार था ?  उस दिन मकरसंक्रान्ति थी तुमलोगों को मालूम होगा। इस साल मकर संक्रांति किस दिन पड़ेगा , बता सकते हो ? स्वामी जी का जन्म दिन 12 जनवरी को होता था। इस बार मकरसंक्रांति 14 जनवरी को मनाया जायेगा। बहुत वर्षों से 14 जनवरी को मकरसंक्रान्ति को मनाया जाता है। इस तिथि में परिवर्तन का का कारण क्या है ? 

     हमारी पृथ्वी का जो 'Orbit' ग्रहपथ या परिक्रमा पथ है वह कुछ वर्षों में परिवर्तित हो जाता है। 75 बर्षों में पृथ्वी की कक्षा या ग्रहपथ 1° झुक जाती है। इसलिए संक्रांति का दिन भी 1 दिन बढ़ जाता है। अब बताओ कि स्वामीजी का जन्म कितने वर्षों पहले हुआ था ? ऑलरेडी कितने साल हो गए ? 1863 में जन्म हुआ था अभी 2025 हो गया तो, 162 वर्ष हो गए। ये 163 वां जन्मदिन है।  ( समय के एक लम्बे अन्तराल के बाद, हमारे सौरमंडल के अन्य ग्रहों के  गुरुत्वाकर्षण का खिंचाव धीरे-धीरे पृथ्वी के घूर्णन पथ, झुकाव और कक्षा को बदल देता है।) 

    हमारे जो प्राचीन भारतीय खगोल विज्ञानी या 'astronomers' थे वे हजारों वर्ष पहले से जानते थे कि पृथ्वी गोल है। इसीलिए हमलोग Geography को भूगोल शास्त्र कहते हैं। वे यह जानते थे की पृथ्वी सूर्य के चारो और घूमती है, सूर्य नहीं घूमता। और यह भी जानते थे की पृथ्वी का यह जो ग्रहपथ है ,वह बदलता रहता है। यह भी जानते थे कि पृथ्वी के धुरी Axis या अक्षरेखा हैजिसके चारों ओर पृथ्वी घूमती है वह दाईं ओर (पूर्व दिशा में-23.4° के कोण पर) झुकी हुई है, और  यह झुकाव ही पृथ्वी के ऋतू परिवर्तन का कारण है। ये सभी बातें हमारे प्राचीन ग्रन्थ सूर्य -सिद्धान्त में लिखी हुई हैं। 

      अभी कहा जाता है कि निकोलस कोपरनिकस ने सबसे पहले बताया था कि पृथ्वी सूरज के चक्कर लगाती है। (जिसके कारण नई दिल्ली में एक सड़क निकोलस कोपरनिकस के नाम पर है।) लेकिन उन्होंने इस बात को सिर्फ कहा था, लिखा नहीं था। लिखा क्यों नहीं ? इसलिए नहीं लिखा कि उन्हें चर्च का डर था। कॉपर्निकस के निधन के बाद गैलीलियो गैलिली ने एक पुस्तक लिखकर दावा किया कि --'The earth revolves around the sun.' पृथ्वी सूरज का चक्कर लगाती है। इसी घोषणा के कारण चर्च नाराज हो गया और उनको सजा दिया , जेल में डाल दिया और आदेश दिया कि तुम शपथ लेकर कहो कि सूर्य पृथ्वी की परिक्रमा करता है 'Sun is going round the Earth' नहीं तो तुम्हें विष पीना पड़ेगा। इसलिए डर के मारे उसने बाइबिल पर हाथ रखकर बोल दिया कि हाँ मैंने गलत कहा था -सूर्य ही पृथ्वी का चक्कर काटता है। बाद में उसने सोचा मेरे कह देने से क्या होगा ? मेरे कहने के बावजूद सच तो सच ही रहेगा। गैलीलियो के मौत के लगभग 350 साल बाद - 1992 में पोप जॉन पॉल ने यह माना कि गैलीलियो सही थे और चर्च गलत था

      लेकिन तुम लोग यह सुनकर आश्चर्य चकित हो जाओगे कि हमारे खगोल विज्ञानी वराहमिहिर ने छठी शताब्दी में ही सूर्य सिद्धान्त लिख दिया था। पर उन्होंने लेखक के रूप में अपना नाम नहीं लिखा कि मैं यह सिद्धांत दे रहा हूँ। उन्होंने लिखा कि हमारे ऋषियों ने सूर्य सिद्धांत की रचना 10 हजार साल पहले ही की थी। किंतु समय के साथ-साथ इसके अधिकांश भाग विलुप्त हो गए थे  इसलिए इस पुस्तक को पूर्ण करने के लिए मुझे फिर से लिखना पड़ रहा है। तब समझ लो कि प्राचीन समय हमारे देश के खगोल वैज्ञानिकों का ज्ञान कितना उन्नत रहा होगा ! (4.5 मिनट)

  🔱2. भारतवर्ष का meaningless नाम इण्डिया कैसे हुआ ?  प्राचीन समय से हमारे देश का नाम भारतवर्ष ही था इण्डिया नहीं। बताओ तो हमारे देश का नाम इण्डिया किसने दिया ? अरबियन लोग 'स' अक्षर का उच्चारण 'ह' कहकर करते हैं,  सिन्धु नदी के उस पार के देश को सिन्धु पार का देश उच्चारण नहीं कह पा रहे थे,उन लोगों ने सिंधु नदी के उस पार के देश को हिन्दू कहा। कालान्तर में सिन्धु से हिन्दू हुआ, फिर हिन्दू से इण्डस वैली कहा, इण्डस से इण्डिया हो गया। अंग्रेज लोग भी भारतवर्ष नाम pronounce नहीं कर पा रहे थे , इसलिए हमारे देश का नाम उन्होंने इण्डिया कर दिया। इण्डिया शब्द का कोई मीनिंग नहीं है, इण्डिया एक meaningless शब्द है। किन्तु हमलोगों के देश का वास्तविक नाम भारत है , इंडिया नहीं। भारत शब्द का अर्थ तुमलोग जानते हो। 'भा' माने ज्ञान का आलोक , 'रत' माने कौन लोग ? जो लोग ज्ञान से प्रेम करते हैं। अर्थात जो लोग ज्ञान से प्रेम करते हैं, वे भारतीय हैं। हमारे पुराणों में ही लिखा हुआ है कि भारतवर्ष कितना विशाल देश है। लिखा है -'आ समुद्रं हिमालय प्रयन्त' अर्थात कन्या कुमारी से लेकर हिमालय पर्यन्त  जो भूखण्ड फैला है उसका नाम भारत वर्ष है। विष्णु पुराण में लिखा है- 

 " उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। 

वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्तति:॥"

समुद्र के उत्तर एवं हिमालय के दक्षिण के भू खंड को 'भारत' कहते हैं और उसकी सन्तानों को, यानि उसके पुत्र-पुत्रियों को भारतीय कहते हैं.....!!! माने यहाँ रहने वाले सभी नागरिक भारत की सन्ततिति हैं। ये बात हमारे पुराणों में लिखी हुई हैं। इसलिए तुमलोग समझो कि हमारी विरासत -Heritage, कितनी महान थी । लेकिन विगत हजार वर्षों तक हमलोग पहले मुगलों के गुलाम हुए फिर अंग्रेजों के गुलाम हुए। गुलामी के इन हजार वर्षों तक भारत पर ज्ञानलोक नहीं अज्ञान का गहरा अन्धकार छाया रहा। इस अन्धकार के टाईम में कोई भी मुगल या ब्रिटिश Ruler अपने नौकर (गुलाम प्रजा) से ऐसा तो नहीं कहते थे कि तुम बड़े ज्ञानी-गुणी लोग हो । वे लोग यही सिद्ध करने की चेष्टा करते थे कि ये नौकर लोग , गुलाम लोग कुछ नहीं जानते, एकदम बर्बर, असभ्य लोग हो । बहुत दुःख -कष्ट सहकर भी हमारे पूर्वजों ने हमारे ऋषियों द्वारा संचित ज्ञान के भण्डार को अभी तक बचा कर रखा है। (6.11 मिनट) 

  🔱3. प्राचीन भारतीय संस्कृति का निर्भीकता से बखान :   

     लेकिन उस गुलामी के युग में, स्वामी विवेकानन्द उस प्रकार के पाश्चात्य शासक देश में जाकर, उनके सामने  मंच पर खड़े होकर- क्या कहा था ? '2500 वर्ष पहले तक तुम सभी लोग एकदम बर्बर थे, एकदम असभ्य थे। उस समय तुम अपने शरीर को नीले रंग से रंगते थे। जब कि 2500 वर्ष पहले हमारा देश  'Pinnacle of Glory' अपनी महिमा के शिखर पर था।'  ये बात उन्होंने ने ब्रिटिश लोगों के सामने खड़े होकर उन्होंने कहा था, बताओ तो वे कितने साहसी थे! आजकल जिस प्रकार हमलोग O ! Made in U.S.A.? Made in China ? देख कर माल ख़रीदते हैं। खाद्य पदार्थ , मसाले, बर्तन यहाँ से जाते थे ,सिल्क यहाँ से निर्यात होता था, जितनी भी सुंदर -सुंदर वस्तुएं थीं , सब कुछ यहीं से निर्यात होता था।  उन दिनों  दुनिया भर के लोग हमलोग के उत्पादों पर 'Made in India' लिखा है या नहीं देखकर ही माल  खरीदा करते थे हमारे देश की महिमा इतनी महान थी कि।  हमारे भारतीय बिजनेसमैन -exporter लोग इतने प्रसिद्द थे कि,अपने उत्पादों को बेचने के लिए अपने जहाज द्वारा हजारों मिल दूर तक समुद्री यात्रा करते थे। (7.19 मिनट

   🔱4. प्राचीन भारतीय बिजनेसमैन exporter थे और पुर्तगाली वास्कोडिगामा से लेकर ब्रिटिश, डच, फ़्रांस के नाविक लोग व्यापारी नहीं डकैत थे।  :  

 और ये जो पुर्तगाली नाविक वास्कोडिगामा (1460-1524 ) यहाँ आया था, उसको यह मालूम ही नहीं था कि पृथ्वी गोल है। वह इतना डरपोक था, समुद्र के किनारे -किनारे अफ्रीका के दक्षिणी कोने से होते हुए वह 1498 में भारत में केरल के समुद्री तट तक पहुंचा। बीच समुद्र से होकर जाने की हिम्मत नहीं थी। इन सब डकैत नाविकों को भारत जाने की इतनी बेचैनी क्यों थी ? ब्रिटिश से लेकर मुगल, पुर्तगीज , डच ये सभी डाकू थे। सिस्टर निवेदिता ने कहा था कि भारत वर्ष अपने culture (संस्कृति) के शिखर पर था, उस समय वह अस्तित्व के साथ एकत्व के ध्यान में निमग्न था। उसकी सोंच इतनी ऊँची थी कि, वे जानते नहीं थे कोई देश ही डकैत बन सकता है , किसी दूसरे देश को लूटने के लिए इतना बर्बर आक्रमण कर सकता है ? फिर हमारी संस्कृति थी - अतिथि देवो भव ! हमने (कालीकट के राजा ने) यह कहकर उसका स्वागत किया कि आओ भाई आओ हमलोग सभी मनुष्य का सत्कार करते हैं। लेकिन उन लोगों ने क्या किया ? बन्दुक लेकर शाब्बास -शाब्बास करके मार दिया। और डकैती किया। डकैती करके उनलोग बड़ा बन गया। जो भी देश भारत पर आक्रमण किया सब चीटिंग किया , डकैती करके बड़ा देश हो गया। हमलोगों के देश का सारा धन साइफन करके अपने देश में ले गया। 17 वीं शताब्दी तक हमलोगों का देश सम्पूर्ण विश्व में सबसे - Richest देश था। इसीलिए भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था, और भारत को लूटने के लिये, मुगल, पुर्तगाली, ब्रिटिश, डच अभी डकैत देश पूरे जी-जान से लगे हुए थे।

 🔱5.[(8.54 मिनट ppt :स्वामी जी के बगल में Tesla बैठे है ! [1893 में आयोजित शिकागो विश्व मेला  (World's Columbian Exposition)  क्रिस्टोफ़र कोलंबस के अमेरिका आगमन की 400वीं वर्षगांठ मनाने के लिए 5  मई से 31 अक्टूबर, 1893 तक शिकागो, में विश्व कोलंबियाई प्रदर्शनी' आयोजित किया गया था। इसे  शिकागो विश्व मेला के नाम से भी जाना जाता है। इस मेले में निकोला टेस्ला द्वारा आविष्कृत  ए.सी. बिजली और फ़्लोरोसेंट लाइटिंग को प्रदर्शित किया गया था। इस मेले में 'फ़ेरिस व्हील ' जैसे कई आविष्कारों को पहली बार पेश किया गया था। (इंजीनियर गेल फ़ेरिस द्वारा आविष्कृत - फ़ेरिस व्हील एक मनोरंजन सवारी है जिसमें कई सीटें या कारें एक बड़ी धुरी के चारों ओर घूमती हैं। इसे आम तौर पर मेलों, कार्निवल, और थीम पार्कों में  देखा जाता है।  फ़ेरिस व्हील को शिकागो व्हील के नाम से भी जाना जाता है।) इस मेले में 46 देशों ने भाग लिया था। इस मेले में बिजली से जगमगाने वाली व्हाइट सिटी बहुत प्रभावशाली थी।  यह मेला बहुत सफल रहा था। ]

        अवतरवरिष्ठ भगवान श्रीरामकृष्ण लीला में विश्व-धर्म संसद के माध्यम से साइंस (Tesla) और वेदान्त (SV) के समन्वय द्वारा सतयुग का प्रचार करने के लिए ठाकुर -जगतजननी माँ सारदा और स्वामीजी को आविर्भूत होना पड़ा !

इसीलिए जब भारत वासियों को हजार वर्षों तक दुःख भोगना पड़ा, तब अपनी प्रतिज्ञा -'सम्भवामि युगे -युगे ' के अनुसार ठाकुर-माँ -स्वामीजी को फिर से यहाँ आना पड़ा। [' अवतार लेना पड़ा !'] क्योंकि उस समय हमलोग भारतीय होकर भी अपने को एकदम दीनहीन मानने लगे थे। हमलोग यही सोचते थे कि -हम बड़े अकिंचन हैं।  हमारे पास कुछ भी नहीं है - केशव सेन भी महारानी विक्टोरिया से मिलने ब्रिटेन गए थे। किन्तु क्या उन्होंने उनसे भारत की गरिमा के विषय में कुछ कहा था ? नहीं , ये अंग्रेजों को सलाम करके बोले आप ही हमारे देश की रानी  हैं , आप ही हमलोगों का उद्धार कर सकती हैं। स्वामीजी से पहले भारत के जितने भी बड़े नामी-गिरामी लोग इंग्लैण्ड गए थे सभी ने ऐसा ही कहा था। लेकिन एक मात्र स्वामीजी ने ही  11 सितंबर, 1893 के शिकागो में दिए अपने ऐतिहासिक भाषण में सिर उठाकर करके कहा था -" I am proud to belong to a nation which has sheltered to all persecuted......मुझे ऐसे देश का निवासी होने पर गर्व है, जिसने इस पृथ्वी के समस्त धर्मों और देशों के उत्पीड़ितों और शरणार्थियों को आश्रय दिया है। " देखो कितनी सुन्दर बात कह रहे हैं, वह भी सबके सामने कह रहे हैं -" I am proud !" किन्तु हमलोग आज भी यह नहीं कह पा रहे हैं कि "  I am proud to be an Indian ?)."(9.56 मिनट) उन्होंने कहा था - "It fills my heart with joy unspeakable to rise in response to the warm and cordial welcome which you have given us. I thank you in the name of the most ancient order of monks in the world " स्वामी जी अच्छी तरह से जानते थे कि हमलोग सबसे प्राचीन त्यागी परम्परा के अनुयायी हैं।  "I am proud to belong to a nation which has sheltered the persecuted and the refugees of all religions and all nations of the earth. " आज भी हमलोग हर देश के रिफुजी को अपने यहाँ पनाह दे रहे हैं।  क्योंकि हमारे यहाँ -अतिथि देवो भव ' कहा गया है। इसलिए हमलोग उसी को निभाये जा रहे हैं। सभी को शरण दिए जा रहे हैं। फिर हम किस बात में विश्वास करके सबको शरण देते हैं ? वह भी स्वामी जी ने स्वयं बता दिया था - " जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न भिन्न स्रोतों से निकल कर समुद्र में मिल जाती हैं , उसी प्रकार हे प्रभो ! भिन्न भिन्न रूचि (प्रवृत्ति) के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझ में ही आकर मिल जाते हैं। "  [ ‘As the different streams having their sources in different places all mingle their water in the sea, so, O Lord, the different paths which men take through different tendencies, various though they appear, crooked or straight, all lead to Thee.’] 

      🔱 6. (11.10 मिनट) शिकागो धर्म संसद में दो प्रकार के श्रोता ! 

विश्व धर्म संसद में स्वामीजी ने जिस समय यह बात कही थी, उस समय शिकागो मेला में दो श्रेणी के श्रोता उपस्थित थे, एक ग्रुप था - 'Parliament of Religion ' में भाग लेने आये पादरी और सामान्य जनों का और दूसरा ग्रुप था  'Parliament of Science' में भाग लेने आये बहुत नामी -गिरामी साइंटिस्ट लोगों का।  सभी को  उनका भाषण बहुत अच्छा लगा था। किन्तु उनके भाषण को सबसे अधिक पसन्द साइंटिस्ट लोगों ने किया था। हम सभी लोग जानते हैं कि 1893 में  Parliament of Religion ' शिकागो में हुआ था, स्वामीजी वहाँ गए थे। लेकिन 1893 के सितम्बर महीने में 'World's Columbian Exposition' शिकागो मेले में  11 से 27 सितम्बर तक जिस प्रकार धर्म के क्षेत्र में विश्व-धर्म संसद (World Parliament of Religion) का आयोजन हुआ था उसी प्रकार  विज्ञान के क्षेत्र में साइंटिस्ट लोगों के लिए 21 से 25 अगस्त, 1893 तक 'IEC' -अंतर्राष्ट्रीय विद्युत कांग्रेस (International Electrical Congress) के रूप में 'Electric Congress' या Parliament  of Science' भी आयोजित किया गया था। (11. 43 मिनट)

       शिकागो विश्व मेला में साइंटिस्ट लोगों का समूह स्वामी जी मिलने के लिए बहुत उत्सुक रहते थे। जब भी स्वामी जी थोड़ा फुरसत में होते , वे लोग कहते क्या स्वामीजी आप हमारेIEC-(International Electrical Congress) के मण्डप (pavilion) में थोड़ी देर के लिए आयेंगे? हमारे लिए भी थोड़ा समय निकालेंगे ? Elisha Gray उनलोगों के प्रेसिडेन्ट थे, वे समीजी से मिलने के लिए खड़े रहते थे।  थोड़ा भी फुर्सत मिलता तो स्वामीजी से अनुरोध करते क्या आप हमलोगों के मण्डप में आकर कुछ कहना चाहेंगे ? उन प्रसिद्द साइंटिस्ट लोगों के मन में स्वामी जी के लिए इतना प्रेम क्यों उत्पन्न हुआ ? उन लोगों के धर्म में 'original Sin' की बहुत चर्चा होती थी। ईसाई में धर्म यही बात- बार-बार सिखाई जाती है- 'Ye are the sinners' और हमलोग पापी हैं' सुन-सुन कर उन वैज्ञानिकों के कान भी पक गए थे! जबकि स्वामीजी ने मंच पर खड़े होकर कहा -“Ye are the children of Immortal Bliss ! अर्थात तुम तो अमृत के संतान हो, तुम भला पापी ? अभी अभी तो तुमलोग यही गा रहे थे ?-"Ye divinities on earth—sinners! It is a sin to call a man so; it is a standing libel on human nature!"  [ Come up, O lions, and shake off the delusion that you are sheep; you are souls immortal, spirits free, blest and eternal; ye are not matter, ye are not bodies; matter is your servant, not you the servant of matter."  

     " आप तो ईश्वर की सन्तान हैं, अमर आनन्द के भागी हैं, पवित्र और पूर्ण आत्मा हैं। आप इस इस मर्त्यभूमि पर देवता हैं! आप भला पापी?  मनुष्य को पापी कहना ही पाप है , यह तो मानव-स्वरूप पर घोर लांछन है। आप उठें! हे सिंहों ! आयें, और इस मिथ्या भ्रम को झटककर दूर फेंक दें कि आप भेंड़ हैं। आप तो अजर, अमर, अविनाशी, आनन्दमय और नित्यमुक्त आत्मा हैं,  जिसे शस्त्र नहीं काट सकते , वायु नहीं सूखा सकती, जल गीला नहीं कर सकता! आप जड़ नहीं हैं, आप शरीर नहीं हैं, जड़ तो आपका दास है, न कि आप  जड़ के दास हैं!" [१/१२ हिन्दुधर्म]  

अर्थात मनुष्य को कोई यदि पापी कहकर पुकारे तो वह पाप करता है।  यह सुनकर सबसे ज्यादा खुश कौन हुए थे ? वेदांत की इस वाणी को सुनकर सबसे अधिक खुश साइंटिस्ट लोग हुए थे , हां पादरी लोग यह सुनकर दुखी जरूर हो गए थे। क्योंकि उनको लगा कि यह तो हमलोगों के धर्म के विरुद्ध बोल रहा है , हमलोग जो जो सीखा रहे हैं सब पोलपट्टी ही खोल दे रहा है !! लेकिन साइंटिस्ट लोग बहुत खुश हुए थे। वाह ! आज पहली बार एक ऐसा आदमी उन्होंने देखा जो कहता है, तुम पापी नहीं अमृत की संतान हो। तुम पापी नहीं हो। जबकि पापी हो , पापी हो सुन-सुनकर उनके कान पक गए थे। इसलिए साइंटिस्ट लोग स्वामीजी वेदान्त के सन्देश को विस्तार से सुनने  के लिए अपने मण्डप में आने का अनुरोध करते रहते थे- स्वामीजी आप वेदान्त के सिद्धान्तों (महावाक्यों) को हमें समझाइये। 

🔱7.(13.31 मिनट PPtचित्र में दिखाया गया है कि साइंटिस्ट लोगों को वेदान्त समझाने के लिए -स्वामीजी ने 'Science and Vedanta' दो भिन्न-भिन्न विधा को कैसे एक कर दिया ?  

हमलोगों के लिये वेदान्त के (महावाक्य) Spiritual Light है; उसके बाद स्वामीजी को एक Prizm के रूप में दिखाया गया है। सूर्य के प्रकाश की तरह वेदान्त का Spiritual Light (आध्यात्मिक प्रकाश ) जब स्वामीजी रूपी प्रिज्म से होकर जब बाहर निकलता है तो इंद्रधनुष के अलग -अलग रंगों 'VIBGYOR' की तरह Science, Arts, Commerce, Physiology, या अध्यात्म जितने भी प्रकार की विद्या है, उस पर रौशनी पड़ सकती है। क्योंकि स्वामी जी हर विषय में पारंगत थे। (13.43 से -14.09 मिनट तक)

"Science and Swami Vivekananda"/ Vedanta  

 'Towards Wholeness ' 

If SV as Prizm 

Spiritual Light of Vedanta is 'VIBGYOR' of Knowledge

     तुमलोग यह सुनकर आवाक हो जाओगे कि स्वामी जी को हमलोग महान दार्शनिक कहते हैं,संत कहते हैं , महान देशभक्त कहते हैं , किन्तु वे एक बहुत बड़े 'ज्ञान पिपासु' (Knowledge Thirsty) भी थे। वे Higher Mathematics सीखने भी गए थे। अधिकांश लोग कहते हैं , स्वामीजी गणित को पसंद नहीं करते थे। यह सही नहीं है। वे यह नहीं जानते कि स्वामीजी प्रेसीडेन्सी कॉलेज में जाकर  Higher Mathematics का क्लास भी अटेंड किया था। फिर Physiology सीखने के लिए मेडिकल कॉलेज भी गए थे। और Energy के विषय में जानने के लिए Physics का क्लास भी अटेंड किये थे। इस लिए वे Science और Vedanta को पूर्णता की ओर ले जाकर एक कर देने में समर्थ थे। देखो हमलोग सोचते हैं की एक बिन्दु पर आकर 'Science and Religion' कैसे मिल सकते हैं ? किन्तु स्वामीजी ने दिखला दिया था कि विज्ञान और धर्म अपनी पूर्णता में कैसे परस्पर मिल जाते हैं। Science में में हमलोग कहते है How ? और वेदान्त कहता है Why ? इन दोनों को उन्होंने एक कर दिया। क्योंकि स्वामीजी में सदैव सत्य को जानने की प्रबल लालसा थी। और स्वामीजी को ठाकुर सबसे प्रिय क्यों लगते थे? ठाकुर कहते थे तुम लोग हमेशा प्रश्न पूछोगे। प्रश्न पूछे बिना मेरे उपदेशों (सत्य या ईश्वर को) को स्वीकार मत करना। तुमलोग मेरी परीक्षा करके देखो , प्रश्न करो -सब कुछ जाँच-परख करने के बाद मेरी बातों को स्वीकार करो। ठाकुर की यही बात स्वामीजी को सबसे अच्छी लगी थी। (15.36 मिनट) 

    🔱8.[15.47 मिनट PPt Electric Congress] :  IECElectric Congress या Parliament  of Science ' में जो प्रमुख साइंटिस्ट भाग लिए थे उनके चित्र देखो। इनमें से कितने लोगों को तुम पहचानते हो ?  थॉमस ऐल्वा एडीसन का नाम सुने हो ? वाह ! बहुतों ने सुना है ! थॉमस एडिसन ने 'Direct Current' -(current that runs continually in a single direction, like in a battery.)  थॉमस ऐल्वा एडीसन को तो तुम सभी पहचानते हो , वो भी किन्तु स्वामीजी का भक्त बन गए थे। केल्विन का नाम सुने हो ? क्या किया था केल्विन ने ? हाँ , बिल्कुल सही - उन्होंने  Absolute Zero (परम शून्य) का अविष्कार किया था। परम शून्य  या -273 डिग्री सेन्टीग्रेड वह 'temperature' है जिससे कम कोई भी ताप  संभव ही नही है। क्वाण्टम यांत्रिकी (quantum mechanics)  की भाषा में कहें तो न्यूनतम ऊर्जा का अवस्था (the state of minimum energy) को परम शून्य कहते है।  इस ताप पर पदार्थ के अणुओं की गति शून्य हो जाती है।  [ Absolute Zero या 'परम शून्य' वह lowest possible temperature ' (न्यूनतम सम्भव ताप) है, जिससे कम कोई 'temperature' या ताप संभव ही नही है। At this temperature, the motion of the molecules of matter becomes zero. ' इसका मान -273 डिग्री सेन्टीग्रेड होता हैं। परम शून्य ताप पर पदार्थ अपने 'ग्राउण्ड स्टेट' में होता है ] 

       हाँ  टेस्ला और किसलिए इतना प्रसिद्द थे ?  Alternating Current (ऐसी करेंट) के विषय में हमलोग सुने हैं, निकोला टेस्ला ने अल्टरनेटिंग करंट (एसी) का आविष्कार किया था, और थॉमस एडिसन ने 'Direct Current' -डीसी करंट का आविष्कार किया था। आज हमलोग जितने तरह के विद्युत् पा रहे हैं , जेनरेटर आदि पा रहे हैं , विद्युत् से चलने वाले उपकरण पा रहे हैं, सब टेस्ला की ही देन है। टेस्ला यदि नहीं आते तो हमलोग विद्युत् ऊर्जा से बिल्कुल अनजाने ही रह जाते। इस समय इलेक्ट्रिसिटी को लेकर जो कुछ भी अनुसन्धान हो रहा है , सब टेस्ला के चलते है। किन्तु टेस्ला खुद स्वामीजी के परम् भक्त हो गए थे, उनसे बहुत अधिक प्रेम करते थे। 

वे उस समय के श्रेष्ठ वैज्ञानिकों में से एक थे। थॉमस ऐल्वा एडीसन ने डीसी करंट का आविष्कार किया था , लेकिन इसमें एक समस्या थी। DC current को आसानी से उच्च या निम्न वोल्टेज में परिवर्तित नहीं किया जा सकता। टेस्ला का मानना ​​था कि प्रत्यावर्ती धारा (या AC) इस समस्या का समाधान है। Direct current is not easily converted to higher or lower voltages. Tesla believed that alternating current (or AC) was the solution to this problem.  उन्होंने 'विद्युत्-चुंबकीय इंडक्शन मशीन (Electromagnetic Induction Machine ) का प्रथम अविष्कार किया था। 

बिजली हमारे दैनिक जीवन का अभिन्न अंग है, यह हर समय हमारे साथ है। हम अपने मोबाईल , आदि उपकरणों को बिजली से चार्ज करते हैं, अपने घरों को रोशन करते हैं, और अपनी दुनिया को इससे ऊर्जा देते हैं। हम में से ज़्यादातर लोग थॉमस एडिसन को बिजली बल्ब के आविष्कारक के रूप में जानते हैं। किन्तु बिजली को वास्तविक रूप से मनुष्य के लिए उपयोगी बनाने का काम निकोला टेस्ला ने किया था।

टेस्ला सिर्फ़ एक आविष्कारक ही नहीं थे; वे एक दूरदर्शी साइंटिस्ट थे - (APJ अब्दुल कलाम की तरह भविष्य द्रष्टा या खुली आँखों से स्वप्न देखने वाले) व्यक्ति थे, वे एक ऐसे व्यक्ति जिनके विचार अपने समय से दशकों आगे थे। प्रत्यावर्ती धारा (एसी), वायरलेस संचार और अनगिनत अन्य प्रमुख उपकरणों के निर्माण में उनके योगदान ने आज की अधिकांश तकनीक की नींव रखी जिसे हम सामान्य मानते हैं। टेस्ला की मृत्यु 1943 को हुई, किन्तु आज  80 साल बाद 2025 में भी साइंटिस्ट और इंजीनियर लोग एक समय उनके द्वारा भविष्य द्रष्टा के रूप देखे गए विचारों को वास्तविकता में बदलने की कोशिश कर रहे हैं।

स्वामी विवेकानंद ने शिकागो मेले के विश्व धर्म संसद में दिए अपने प्रसिद्ध भाषण के माध्यम से, उन्होंने पाश्चात्य जगत के समक्ष पूर्व के वेदान्त को पहले से कहीं अधिक बड़े पैमाने पर उजागर किया। उन्होंने न केवल भारतीय अध्यात्म और दर्शन के बारे में बात की, बल्कि उन्होंने Science और Vedanta पर भी चर्चा की और प्रमाणित कि कैसे दोनों एक दूसरे से जुड़े हुए हैं।

जब स्वामी विवेकानंद ने निकोला टेस्ला से मुलाकात की और उन्हें वेदांत समझने के लिए प्रेरित किया: 1893 में, स्वामी विवेकानंद से मुलाकात के दौरान निकोला टेस्ला को वेदान्त में Energy (ऊर्जा) और पदार्थ (Matter) की अवधारणा को समझने की प्रेरणा मिली। बाद में, स्वामीजी जब भारत लौट आये तब उनका उल्लेख करते हुए एक पत्र में लिखा है कि कैसे इस महान साइन्टिस्ट ने वेदांत के संस्कृत महावाक्यों को विज्ञान सम्मत पाया था और कैसे वेदांत और विज्ञान के बीच का संबंध सम्पूर्ण मानवजाति को बदलने की क्षमता के साथ प्रतिध्वनित हुआ। टेस्ला की मृत्यु 1943 को हुई। आज, 80 साल बाद, साइंटिस्ट और इंजीनियर अभी भी उनके सपनों को वास्तविकता में बदलने की कोशिश कर रहे हैं।

🔱11. (22.09 मिनट) इस PPt चित्र में 'Skin Effect' (उपरिस्तर प्रभाव) Tesla coil (टेस्ला कॉइल) एक इलेक्ट्रिकल ट्रांसफ़ॉर्मर  है  जो वोल्टेज बढ़ाने के लिए AC Current  का उपयोग करता है, और बहुत ज़्यादा वोल्टेज पैदा करता है।  अपने अत्यधिक उच्च वोल्टेज के कारण, टेस्ला कॉइल में बिजली (electricity) हवा के माध्यम से यात्रा कर सकती है।  इसका इस्तेमाल electric lighting, एक्स-रे उत्पादन, और वायरलेस टेलीग्राफ़ी जैसे कई कामों के लिए किया जाता है।  

  Nikola Tesla को देखो ! टेस्ला Lightning machine लेकर खड़े हैं। टेस्ला Artificial Lightning produce करना जानते थे। Laboratory में Lightning produce करके एक जगह से दूसरे जगह jump मारता था। उस मशीन के पास इतने confidence से खड़े हैं , क्योंकि वे जानते थे  High-frequency current skin त्वचा के ऊपर से गुजर जाता है, शरीर पर उसका प्रभाव नहीं पड़ता। वे जानते थे। कि यह  high-frequency current मेरी कोई क्षति नहीं कर सकता। या उनका शरीर बिजली के झटके को सह लेगा, इस बारे में वे Confident (निधड़क) थे। 'Skin Effect' (उपरिस्तर प्रभाव) के विषय में शायद तुमलोग सुने हो ? [उपरिस्तर प्रभाव (या Skin Effect) एक विद्युतचुंबकीय घटना है जो एक कंडक्टर के माध्यम से प्रत्यावर्ती धारा (AC current) के प्रवाह से जुड़ी है।  

पदार्थविज्ञान (Physics) से दर्शनशास्त्र (Philosophy) तक

 निकोला टेस्ला की मुलाक़ात स्वामी विवेकानंद से अभिनेत्री सारा बर्नहार्ट द्वारा आयोजित एक पार्टी में हुई थी। विवेकानंद ने टेस्ला को प्राण (ऊर्जा) और आकाश (पदार्थ-पिण्ड ) की वैदिक अवधारणाओं से परिचित कराया। उस मुलाकात के दौरान विवेकानंद ने वेदांत के सिद्धांत या महावाक्यों के प्रति टेस्ला के उत्साह पर ध्यान दिया। उसका उल्लेख 13 फरवरी, 1896 को लिखित एक पत्र में करते हुए स्वामी विवेकानन्द अपने मित्र  E. T. Sturdy को न्यूयार्क से  कहते हैं- "श्री टेस्ला वेदान्तिक प्राण और आकाश तथा कल्पों (ब्रह्मांडीय चक्र या सृष्टि-प्रलय) के बारे में (Vedantic cosmology के बारे में हमारे सिद्धांत- महावाक्य- 'यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे') सुनकर बिल्कुल बिल्कुल मुग्ध हो गए,  जो उनके अनुसार आधुनिक विज्ञान की दृष्टि से ग्रहण के योग्य एकमात्र सिद्धांत हैं"। अब उनका विश्वास था कि पूरे आकाश (Space) में ऊर्जा (energy- प्राण) भरा हुआ है, क्योंकि आकाश और प्राण (Time) दोनों समष्टि मन (the Universal Mind)ब्रह्माण्डीय महत (cosmic Mahat), जगत्स्रष्टा ब्रह्मा या ईश्वर से उत्पन्न हुए हैं।  
निकोला टेस्ला समझते हैं कि वे गणितीय रूप से यह प्रमाणित कर सकते हैं कि पदार्थ और ऊर्जा दोनों ही 'potential energy' में रूपांतरित हो सकते हैं। (Mr. Tesla thinks he can demonstrate mathematically that Energy and Matter are reducible to potential energy.) गणित के इस नवीन प्रमाण को समझने के लिए मैं आगामी सप्ताह में उनसे मिलने जानेवाला हूँ। 
[Vivekananda noted Tesla's enthusiasm: "Mr. Tesla was charmed to hear about the Vedantic Prana and Akasa and the Kalpas (cosmic cycles), which according to him are the only theories modern science can entertain".] 
लेकिन उनकी चर्चाओं के बावजूद, टेस्ला यह गणितीय प्रमाण देने में असमर्थ रहे कि बल और पदार्थ को संभावित ऊर्जा में परिवर्तित किया जा सकता है। इस अवधारणा को बाद में 1905 में अल्बर्ट आइंस्टीन के द्रव्यमान-ऊर्जा तुल्यता सूत्र, the theory of relativity : सापेक्षता के सिद्धांत  E=mc² में समाहित किया गया। This concept would later be encapsulated in 1905 in Albert Einstein's mass-energy equivalence formula, the theory of relativity, E=mc²] टेस्ला ने ब्रिटिश गणितज्ञ लॉर्ड केल्विन के साथ भी विचारों का आदान-प्रदान किया, जिन्होंने वायरलेस पावर के उनके दृष्टिकोण का समर्थन किया और वैदिक विश्वदृष्टिकोण में रुचि दिखाई।

 टेस्ला का संस्कृत- ज्ञान टेस्ला के जीवनीकारों ने इस बात का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है, लेकिन 1907 में लिखे गए "Man’s Greatest Achievement" या 'मनुष्य की सबसे बड़ी उपलब्धि' नामक एक अप्रकाशित लेख में वैदिक शब्दों के उनके उपयोग का पता चलता है। He described the cycle of matter emerging from and returning to a primary substance -- a vision aligning with the Vedic idea of creation and dissolution.] उन्होंने पदार्थ (व्यक्त-वृक्ष) के एक प्राथमिक पदार्थ (primary substance) से निकलने और उसमें वापस लौटने के चक्र का वर्णन किया है। (अर्थात अव्यक्त या छोटे से बरगद के बीज से विशाल बरगद का वृक्ष निकलने का वर्णन किया है। जो (creation) दृष्टि और प्रलय (dissolution) के वैदिक विचार के साथ संरेखित होती है। 
वर्ष 1893 में टेस्ला ने वर्ल्ड इलेक्ट्रिक साइंटिस्ट पार्लियामेंट (अमेरिकन इंस्टीट्यूट ऑफ इलेक्ट्रिकल इंजीनियर्स) के समक्ष एक भाषण के दौरान निम्नलिखित टिप्पणी की थी; "इससे पहले कि कई पीढ़ियाँ गुजर जाएँ; हमारी मशीनें ब्रह्माण्ड के किसी भी बिंदु पर उपलब्ध शक्ति द्वारा संचालित होगी।("Ere many generations pass, our machinery will be driven by a power obtainable at any point in the universe.")  यह विचार नया नहीं है... हम इसे अंतायोस (Antaeus या एंथियस ) के रमणीय मिथक में पाते हैं, जो पृथ्वी से शक्ति प्राप्त करता था।  
 'Throughout space there is energy' यानि पूरे अंतरिक्ष (आकाश) में ऊर्जा (energy-प्राण व्याप्त) है। क्या यह शक्ति (ऊर्जा) स्थिर (static)  है या गतिज (kinetic)? यदि स्थिर है तो हमारी आशाएँ व्यर्थ हैं; यदि गतिज है - और यह हम निश्चित रूप से जानते हैं कि वह गतिज ऊर्जा ही है- तो यह केवल समय का प्रश्न है,  कि मनुष्य अपनी मशीनरी को प्रकृति के चक्र से जोड़ने में कब सफल होगा"।
[Throughout space there is energy. Is this energy static or kinetic? If static our hopes are in vain; if kinetic - and this we know it is, for certain-then it is a mere question of time when men will succeed in attaching their machinery to the very wheelwork of nature".]

सैन फ्रांसिस्को के साइडवॉक एस्ट्रोनॉमर्स जॉन डॉब्सन जैसे कुछ लोगों ने सुझाव दिया है कि विवेकानंद की शिक्षाएं टेस्ला और वेदान्त (संस्कृत के महावाक्य)  की इन अवधारणाओं के बीच सेतु का काम कर सकती हैं।जो भी हो, टेस्ला के लेखन में विज्ञान और प्राचीन दर्शन का उल्लेखनीय संश्लेषण प्रतिबिंबित होता है, जो ब्रह्मांड के बारे में उनके दृष्टिकोण को समझने के लिए एक अनूठा दृष्टिकोण प्रदान करता है, और यह जानना दिलचस्प है कि भारतीय विद्वान, दार्शनिक और संत स्वामी विवेकानंद ने इस परिवर्तन को प्रेरित किया। टेस्ला का हिंदू धर्म और वैदिक दर्शन के प्रति आकर्षण उनके जीवन भर, यहां तक ​​कि उनकी मृत्यु तक भी बना रहा।
(With inputs from a study by Toby Grotz in 'The Influence of Vedic Philosophy on Nikola Tesla')
Published By: Rishab Chauhan,Published On:Jan 8, 2025
[https://www.indiatoday.in/education-today/gk-current-affairs/story/when-swami-vivekananda-met-nikola-tesla-and-inspired-him-to-understand-vedanta-2661573-2025-01-08] 
[ प्रलय -विज्ञान (परलोक गमन -सिद्धांत, ईसाई धर्म के Last Judgement आदि) की व्याख्या केवल अद्वैत वेदान्त के दृष्टिकोण से होगी।]  
मैं आजकल Vedantic cosmology और प्रलय -विज्ञान (cataclysm या Eschatology) में शोध कर रहा हूँ। आधुनिक विज्ञान के साथ उनका पूर्ण सामंजस्य देखता हूँ , एक व्याख्या हो जाये तो दूसरे की भी हो जाएगी। आगे चलकर मैं एक पुस्तक प्रश्नोत्तरी के रूप लिखने पर विचार कर रहा हूँ। पहला अध्याय Vedantic cosmology ही होगा, जिसमें Vedanta और Science का सामंजस्य दिखाया जायेगा। 
[Diagram by Swami Vivekananda explaining the relationship between cosmology and Vedanta.] 

(Vedantic cosmology)

 फ़ाइल:ब्रह्माण्ड विज्ञान वेदांत.svg
द्वैतवादी कहते हैं - मृत्यु के बाद जीवात्मा सूर्यलोक में जाती है, वहाँ से चन्द्रलोक में और वहाँ से विद्युत्-लोक में। वहां से किसी पुरुष के साथ वह ब्रह्मलोक जाती है। (अद्वैतवादी कहता है कि वहाँ से वह निर्वाण प्राप्त करती है। 
अद्वैत वेदान्त के अनुसार जीव (प्राणी-जीवात्मा) न कहीं आता है , न जाता है और ये सब लोक  (spheres)  या जगत के स्तर (layers of the universe) आकाश और प्राण के रूपांतरित परिमाण मात्र हैं। प्राण और आकाश से बना हुआ सबसे नीचा और सबसे घनीभूत सूर्यलोक है , जो दृश्य जगत ही है, और जिसमें प्राण भौतिक शक्ति या ऊर्जा के रूप में और आकाश इन्द्रियग्राह्य भौतिक पदार्थ [नाम-रूप] में प्रकट होता है। इसकेबाद चंद्रलोक है , जो सूर्यलोक को चारों ओर से घेरे है। यह चन्द्रमा नहीं है , बल्कि देवताओं का निवास स्थान है। अर्थात प्राण यहाँ मानसिक शक्तियों  के रूप में और आकाश तन्मात्रा या सूक्ष्म भूत के रूप में प्रकट होता है।     

इसके परे विद्युत्-लोक है अर्थात वह अवस्था, जहाँ प्राण आकाश से प्रायः अभिन्न है , और यह बताना कठिन हो जाता है कि विद्युत् (matter) है या शक्ति (Energy) ? इसके बाद ब्रह्मलोक है , जहाँ न प्राण (Time) है , न आकाश (Space) दोनों है चित्-शक्ति अर्थात आदिशक्ति में विलीन हैं। और यहाँ प्राण और आकाश के न रहने से जीब को सम्पूर्ण विश्व समष्टि- महत या समष्टि मन के रूप में प्रतीत होता है।         

"This appears as a Purusha, an abstract universal soul, yet not the Absolute, for still there is multiplicity. From this the Jiva finds at last that Unity which is the end. Advaitism says that these are the visions which rise in succession before the Jiva, who himself neither goes nor comes, and that in the same way this present vision has been projected. The projection (Srishti) and dissolution must take place in the same order, only one means going backward, and the other coming out."

"यह भी पुरुष या सगुण विश्वात्मा (ईश्वर) की ही अभिव्यक्ति है, न कि निर्गुण अद्वितीय ब्रह्म की , क्योंकि उसमें अनेकता (multiplicity) अब भी विद्यमान है। [लेकिन इस समझ के बाद कि 'एक' (अवतार वरिष्ठ) ही अनेक (M/F) बन गया है] जीव (प्राणी -जीवात्मा) को अस्तित्व के साथ एकत्व Oneness की अनुभूति होती है, जो मनुष्य जीवन का अन्तिम लक्ष्य है। अद्वैत के अनुसार जीवात्मा के सम्मुख इन सब अनुभूतियों का प्राकाट्य[ पृथ्वी, सूर्य, ग्रह, तारे -देश-काल का सातत्य, रूपी प्रलय का अनुभव एक के बाद एक बहुत तीव्रता से ] क्रमशः  होता है ; परन्तु जीव स्वयं न कहीं आता है , न जाता है; और ठीक इसी क्रम में वर्तमान जगत-ब्रह्माण्ड भी प्रक्षेपित (projected) हुआ है। इसी क्रम से सृष्टि (projection ) और प्रलय (dissolution ) होते हैं - इस चक्र का केवल एक अर्थ है 'पीछे जाना' और दूसरे का 'बाहर निकलना। "   

प्रत्येक व्यक्ति केवल अपने ही विश्व को देखता है, इसलिए उस विश्व की उत्पत्ति उसके मोहबंधन के साथ ही होती है, और उसके मोबंधन से मुक्त होते ही यह विश्व (उसके लिए?) विनष्ट हो जाता है, तथापि औरों के लिए, जो अब भी मोहबंधन में हैं (तीनों ऐषणाओं के मोहबंधन में हैं, उनके लिए माया रूपी जगत का आकर्षण) अवशिष्ट रहता है। नाम और रूप से ही विश्व बना है। समुद्र की तरंग, तभी तक तरंग है जब तक कि वह 'नाम' और 'रूप' से वह सीमित है। यदि तरंग लुप्त हो जाये, तो वह समुद्र ही है ; परन्तु उसके वे नाम और रूप (M/F में आसक्ति) तत्काल ही [आत्मसाक्षात्कार होते ही ] सदा के लिए नष्ट हो गए।           

So though the name and form of wave could never be without water that was fashioned into the wave by them, yet the name and form themselves were not the wave. They die as soon as ever it returns to water. But other names and forms live in relation to other waves. This name-and-form is called Mâyâ, and the water is Brahman.

इसलिए उस तरंग के नाम और रूप जल के बिना नहीं हो सकते , जिससे नाम और रूप ने तरंग का [स्थूल शरीर ? का ] निर्माण किया , परन्तु फिर भी वे स्वयं तरंग नहीं हैं। जैसे ही तरंग (बूँद) पानी (समुद्र) बन जाती है, वैसे ही उसके नाम और रूप का लोप हो जाता है। परन्तु दूसरे नाम और रूप , जिनका दूसरी तरंगों से सम्बन्ध हैं , वर्तमान रहते हैं। यह नाम और रूप माया कहलाता है , और पानी ब्रह्म है। "      

 The wave was nothing but water all the time, yet as a wave it had the name and form. Again this name and form cannot remain for one moment separated from the wave, although the wave as water can remain eternally separate from name and form. But because the name and form can never he separated, they can never be said to exist. Yet they are not zero. This is called Maya.

सब काल में तरंग [बूँद] पानी के सिवा और कुछ नहीं है, परन्तु फिरभी तरंग (बूँद) के आकार में उसका नाम और रूप है।पुनः, ये नाम और रूप एक क्षण के लिए भी पानी से पृथक होकर नहीं रह सकते , यद्यपि तरंग [बूँद] जल रूप में अनन्त काल तक नाम और रूप से पृथक रह सकती है। किन्तु नाम और रूप कभी पृथक नहीं किये जा सकते , इसीलिए उनका अस्तित्व नहीं माना जा सकता। तथापि वे शून्य (असत) नहीं हैं। और यही माया है।  

मैं यह सब सावधानी से करना चाहता हूँ, लेकिन आप एक नज़र में ही देख लेंगे कि मैं सही रास्ते पर हूँ। शुषुम्ना नाड़ी से जुड़े ऊँचे और नीचे के केंद्रों के (सहस्रार और मूलाधार) के बीच परस्पर सम्बन्ध को जानने के लिए, मुझे शरीर विज्ञान (physiology) को अधिक गहराई से अध्यन करने की आवश्यकता है , ताकि चित्त (mind-stuff,मन-वस्तु),मन, बुद्धि (intellect) और अहंकार आदि सम्बन्धी psychology (मनोविज्ञान या अध्यात्म विद्या) को पूर्णता प्रदान की  जा सके। परन्तु अब मेरे मन पर पास स्पष्ट प्रकाश पड़ रहा है, धुँधलापन (कर्मकाण्डी जादूमन्त्र) से मुक्त। 

मैं उन्हें वेदान्त के शुष्क और कठोर तर्क (महावाक्यों) को इस प्रकार देना चाहता हूँ, जिसे प्रेम की मधुरतम चाशनी से कोमल किया गया हो, प्रचण्ड कर्म से चटपटा (spicy -रोचक) बना हो, और योग की रसोई में पकाया गया हो, जिसे कोई बालक भी उसे आसानी से पचा सके। (खंड ४/३८५)   

(निकोला टेस्ला की मुलाकात स्वामी विवेकानंद से अभिनेत्री सारा बर्नहार्ट द्वारा आयोजित एक पार्टी में हुई थी। विवेकानंद ने टेस्ला को प्राण (ऊर्जा-Energy) और आकाश (Matter -पदार्थ) की वैदिक अवधारणाओं से परिचित कराया था।                

[विवेकानंद को उम्मीद थी कि टेस्ला का शोध इस बात की पुष्टि करेगा कि पदार्थ केवल अव्यक्त शक्ति (potential energy) है, (प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है,पदार्थ केवल संभावित ऊर्जा है), क्योंकि इससे वेदों की शिक्षाओं और आधुनिक विज्ञान के बीच की खाई को पाटा जा सकेगा। उनका मानना ​​था कि टेस्ला का यह शोध कार्य वेदान्तिक ब्रह्माण्ड विज्ञान को वैज्ञानिक बुनियाद (scientific foundation) पर मजबूती से स्थापित करेगा

टेस्ला के पास फालतू समय एकदम नहीं होता था, वे हर समय लाइब्रेरी में बैठे रहते थे। लोग टेस्ला से मिलने के लिए आतुर रहते थे। वे एक ख्याति-प्राप्त व्यक्ति थे He was a Celebrity, सबलोग सोचते थे  वे यदि हमारे घर पर खाने आ जाएँ तो हमारा परम् सौभाग्य होगा। किन्तु टेस्ला कभी किसी के यहाँ नहीं जाते थे। उनके पास समय ही नहीं था हर समय लाइब्रेरी में रहते थे। उनकी बुद्धि इतनी तेज थी की ब्रेन में सोचकर ही मशीन का नक्शा बना लेते थे , और  हिसाब जोड़ने में उनको पेन-कागज की जरूरत नहीं थी। वे Mental Mathematics, मानसिक गणित कर लेते थे। इतने बुद्धिमान थे। स्वामीजी के साथ वेदांत और विज्ञान पर खूब आर्गुमेंट हुआ। लेकिन स्वामीजी का लेक्चर सुनने के लिए वे जल्दी लाइब्रेरी -प्रयोगशाला बंद करके पहुंच जाते थे। देर हो जाने से बैठने की जगह नहीं मिलती तो दरवाजे के बाहर खड़े हो कर वे स्वामीजी को सुनते थे। किसी भी तरह स्वामीजी को सुनूंगा , इतना पसंद करते थे। 

      🔱9(18.29 मिनट ).-"यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे' Energy and Mass are Interconvertible. या E=mc² ] 

    उन्होंने स्वामीजी को अपनी लाइब्रेरी देखने के लिए आमंत्रित किया। स्वामीजी ने कहा मैं तुमको वेदांत की कुछ जानकारी दूँगा, वेदांत के कुछ सिद्धांत (महावाक्य) बताऊँगा क्या तुम उसे Mathematics के आधार पर प्रमाणित कर सकोगे ? स्वामी जी ने कहा देखो मैं- सत्यापन योग्य वेदान्त के verifiable Truth सिद्धान्तों को ही उद्धृत करूँगा , किन्तु क्या तुम उसको  उसको Mathematically Verify कर सकोगे ? वे सभी verifiable Truth हैं, Swami ji said look they are all Verifiable Truths ! हां , हाँ , कर सकूंगा आप आइये मेरी लाइब्रेरी में। तब स्वामी जी ने क्या कहा ? स्वामीजी ने कहा - "Energy and Mass are Interconvertible " (एनर्जी एंड मास आर इंटरकन्वर्टिबल) अर्थात 'ऊर्जा और पिण्ड (द्रव्यमान) परस्पर परिवर्तनीय हैं'। उन्होंने कहा इस सिद्धान्त-'यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे, यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे' को मैंने वेदान्त से (यजुर्वेद चरक संहिता) उद्धरित किय है - वैज्ञानिक भाषा में कहा है। क्या तुम इसको Mathematically प्रमाणित कर सकोगे?  टेस्ला ने कहा, हाँ कर दूंगा, आप मेरी लाइब्रेरी में आइये। वहाँ उनके सामने बोर्ड पर कई equation लिखते हैं लेकिन प्रमाणित नहीं कर पाते हैं। तब कहते हैं स्वामीजी यह प्रमाणित नहीं हो पा रहा है , आपका जो यह वेदान्त का सिद्धांत या महावाक्य है -वह 'Theory' ही गलत लगता है। स्वामीजी कहते हैं -''मेरा वेदान्तिक सिद्धांत ग़लत नहीं है, तुम्हारा गणितीय उपकरण अभी इसके लिए तैयार नहीं है। '' My Vedantic Theory is not wrong your Mathematical Tool is not ready."  स्वामीजी ने कह दिया तुम्हारे  गणितीय उपकरण अभी उतनी प्रगति नहीं कर सके हैं। बिल्कुल सही कहा था स्वामीजी ने। क्योंकि 1905 ई ० में अल्बर्ट आइंस्टीन ने  'theory of relativity' सापेक्षता के सिद्धांत 'mass-energy equivalence' formula को E=mc²-को आविष्कृत किया । E=mc²' इस सूत्र को कितने लोग जानते हैं ? हाथ उठाओ। वाह -thank you ! लेकिन अल्बर्ट आइंस्टीन ने इस सिद्धान्त को 1905 में आविष्कृत किया , किन्तु उन्होंने यह भी स्वीकार किया था कि इस सिद्धान्त को स्वामी विवेकानन्द ने पहले ही घोषित कर दिया था। इस प्रकार हम देखते हैं कि जितने भी भी top साइंटिस्ट हुए हैं, सभी साइंटिस्ट विवेकानन्द को पहचानते थे। '  मैंने इस बात पर इतना जोर क्यों दिया है ? उसका चित्र अंत में दिखाउंगी। 

      मैं उस समय Theoretical Physics पढ़ रही थी। M.Sc.  उस समय हमलोग इन Californian Scientists कैलिफोर्निया के वैज्ञानिकों को देवता जैसा महान समझते थे। कितना अद्भुत अविष्कार किये -ऐसा समझते थे। एक दिन वहाँ स्वामी रंगनाथानंद जी महाराज आये थे। उन्होंने पूछा तुम इस समय क्या पढ़ रही हो ? मैंने कहा महाराज मैं Theoretical Physics पढ़ रही हूँ। उन्होंने कहा - तुम जानती हो , मैं तुम्हारे Californian Scientists के साथ अभी अभी 'Roundtable conference' गोलमेज सम्मेलन करके लौटा हूँ ? वहाँ 12 Scientists बैठे थे, उनलोगों स्वीकार किया कि वेदान्त उनके सभी प्रश्नों का उत्तर दे सकता है।  एक साइंटिस्ट David mom प्रसिद्द नास्तिक वैज्ञानिक Hopkins को समझाने गया कि वेदान्त के पास विज्ञान के हर प्रश्न का उत्तर है। Hopkins ने कहा- हेः एक दम Rubbish! क्या बेकार की बात कर रहे हो ? If you believe Vedanta ? Maya ? then in physics we are sand!' अर्थात यदि तुम एक वैज्ञानिक होकर भी वेदांत के माया पर विश्वास कर लेते हो, तो Physics ही समाप्त हो जायेगा

   🔱10. (21.50 मिनट) 'जगत माया (illusion) है' इस सिद्धान्त को 2022 में साइंटिस्ट ने प्रमाणित किया नॉबल पुरस्कार मिला था। physics ने  जगत माया है (अर्थात मिथ्या है) इसको proof किया है!! जानते हो ?  2022 में जिन तीन वैज्ञानिकों को नॉबल पुरस्कार दिया गया था, उन्होंने यह प्रमाणित किया है कि - जगत माया (illusion) है The Universe Is Not Locally Real ! अर्थात स्थानीय रूप से यह ब्रह्माण्ड वास्तविक नहीं है, मिथ्या है ?[ एलेन एस्पेक्ट (Alain Aspect), जॉन क्लॉसर ( John Clauser) और एंटोन ज़िलिंगर ( Anton Zeilinger)  को उनके प्रयोगों के लिए 2022 का भौतिकी का नोबेल पुरस्कार दिया गया।  उनके प्रयोगों से पता चला कि ब्रह्माण्ड का स्थानीय यथार्थवाद दृष्टिकोण गलत है। जिससे यह साबित हुआ कि-The Universe Is Not Locally Real ! ब्रह्मांड स्थानीय रूप से वास्तविक नहीं है, मिथ्या है ?।  उनके प्रयोगों ने वास्तविकता की विचित्र क्वांटम प्रकृति को सिद्ध कर दिया। Their experiments showed that the local realism view of the universe is likely to be false. Their experiments proved the strange quantum nature of reality. 

  🔱12. (22.40 मिनट) ppt  'space-time continuum' (T०E -Theory of Everything- अर्थात 'प्राण और आकाश से  सृष्टि का प्रारम्भ।)  में अल्बर्ट आइंस्टीन का चित्र है। उन्होंने Special Relativity theory' विशेष सापेक्षता सिद्धांत भी दिया था, तुम सुने हो। विशेष सापेक्षता सिद्धांत देश (space -अंतरिक्ष) और काल (time समय) के बीच संबंध का एक वैज्ञानिक सिद्धांत है।[Special Relativity theory is a scientific theory of the relationship between space and time.] इसके बाद उन्होंने आगे बढ़कर एक और सिद्धांत दिया था General field theory सामान्य क्षेत्र या एकीकृत क्षेत्र सिद्धान्त (Unified field theory)। इसी सिद्धांत को (T०E -Theory of Everything) भी कहा जाता है। उसमें उन्होंने प्रमाणित  किया कि -देश (अंतरिक्ष ,आकाश या space) अलग नहीं है और समय (time -प्राण) भी अलग नहीं है, दोनों को एक साथ मिला देने से इसको ही 'space-time continuum' या अंतरिक्ष-समय सातत्य कहा जाता है। (Space is not separate, and time (life) is not separate, together it is called a space-time continuum.) आइंस्टीन के पहले तक विज्ञान जगत में ऐसी कोई अवधारणा नहीं थी। जबकि स्वामी जी ने वैज्ञानिकों से 1893 में ही कह दिया था कि देश (आकाश) और काल (प्राण) अलग -अलग चीजें नहीं हैं। साइंटिस्ट लोगों ने स्वामीजी से पूछा आप ऐसा कैसे कह सकते हैं? स्वामीजी बोले- देखो 'दो Infinity (अनन्त)' नहीं हो सकते। अनन्त Infinity एक ही रह सकता है। इसलिए (आकाश और प्राण) दोनों  को एक साथ मिलाकर 'देश-काल सातत्य या कन्टिन्युम्' कहना होगा। यह बात स्वामीजी ने 1893 में ही कह दिया था, जिसे आइंस्टीन ने 1915 में प्रमाणित किया। 

 ppt 'Time and Space' में लिखा है -[Vedanta recognizes Time and Space as relative, and not absolute. आइंस्टीन' Einstein's theory of relativity demonstrated that space and time are relative and dependent on the observer's frame of reference. This scientific insight echoes the Vedantic understanding of the non-absolute nature of Time and Space. While grounded in empirical science, Einstein acknowledged the mystical elements of understanding the universe. His sense of awe and wonder at the cosmos aligns with the Vedantic realization of an interconnected singular reality. ] 

 " वेदांत देश (आकाश) और काल (प्राण) को सापेक्षिक सत्य मानता है, निरपेक्ष सत्य नहीं। आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत ने यह प्रमाणित किया कि देश (Space) और काल (Time) अनुभवजन्य विज्ञान (Empirical Science) पर आधारित होने के बावजूद, सापेक्षिक सत्य हैं तथा द्रष्टा के अपने दृष्टिकोण पर निर्भर हैं। [जैसे कामिनी-कांचन में आसक्ति द्रष्टा के अपने दृष्टिकोण पर निर्भर है।] यह वैज्ञानिक अंतर्दृष्टि समय और स्थान की परिवर्तनीय प्रकृति की वेदान्तिक समझ को प्रतिध्वनित करती है। अनुभवजन्य विज्ञान (Empirical Science) पर आधारित होने के बावजूद, आइंस्टीन ने ब्रह्मांड -सृष्टि को समझने के रहस्यमय तत्वों को भी स्वीकार किया। ब्रह्मांड के प्रति उनकी विस्मय और आश्चर्य की भावना, अंतर-सम्बंधित विलक्षण परम् सत्य (इन्द्रियातीत सत्य) की वेदान्तिक अनुभूति के अनुरूप है।"

     हमलोग लिखते हैं - E=mc²', किन्तु इसका अर्थ क्या है ? नहीं समझते। एक वैज्ञानिक जिन्होंने बम बनाया कहते हैं इसे केवल मैंने समझा है, और आइंस्टीन ने समझा था। पूरा विश्व इस सूत्र से परिचित कब हुआ ? जब पहला Atom Bomb ब्लास्ट हुआ ! पहला बम ब्लास्ट कहाँ हुआ था ? हाँ , पहला परमाणु बम बिस्फोट हिरोशिमा नागाशाकी (जापान) में हुआ था। तब लोगों ने समझा यह E=mc² कितना बिध्वंशक हो सकता है। यदि पदार्थ (Matter) का एक छोटा सा 'कण', भी Energy में चेंज हो रूपांतरित हो जाये तो कितना विशाल Energy उत्पन्न होगा ! यदि इस टेबल के Matter को पूरी तरह से Energy में कनवर्ट कर सकें , पूरी पृथ्वी विनष्ट हो जाएगी। अब  physics भी Matter और  Energy को अलग अलग वस्तु नहीं मानाता है। जैसे समुद्र और तरंग अलग -अलग नहीं हैं। पानी को ही हम कभी तरंग (matter) कहते हैं और कभी समुद्र (Energy) कहते हैं। 

 🔱13.(25.05 मिनट ppt नटराज की मूर्ति : [ इस बात का प्रतीक है कि "योगी का अन्तःप्रत्यक्ष ही ईश्वर सिद्धि में सबसे बड़ा तर्क है। The inner perception of a Yogi is the biggest argument for achieving God.]

सामने नटराज की मूर्ति लगी है; उसको भगवान शिव की नटराज मुद्रा कहते हैं। यह नटराज मुद्रा मूर्ति कहाँ लगी है जानते हो ? यह मूर्ति भारत में नहीं है , कहाँ लगी है ? यह मूर्ति यूरोप (स्विट्जरलैंड) में लगी है ,अभी उनलोगों की अवधारणा हुई है कि 'Cosmic Dance of Shiva ' शिव के द्वारा ब्रह्माण्डीय नृत्य करने से ही सृष्टि हुई है। और प्रलय या विनाश भी उनके ताण्डव नृत्य से हुई है। एक ही मूर्ति में सृष्टि और ताण्डव नृत्य से प्रलय को कैसे दर्शाया जा सकता है ? इसलिए उनलोगों परमाणु भट्टी (Nuclear reactor) के सामने नटराज की मूर्ति को लगा रखा है। चित्र में दो भारतीय वैज्ञानिक भी हैं,  उसमें जो सिग्नेचर कर रहे हैं वे नोबल पुरस्कार विजेता चन्द्रशेखर हैं।

     हमलोग शिव या काली की मूर्ति बनाते हैं, तो उसके पीछे की अवधारणा क्या है ? साइन्टिस्ट अभी हमारे शिवजी और माँ काली की मूर्ति के पीछे की अवधारणा को समझने लगे हैं। सामान्य विदेशी लोग हमलोग के माँ काली की मूर्ति देखकर कहते हैं - ये क्या है ? इसका तात्पर्य क्या है ? वे नहीं समझ पाते कि किस चीज के प्रतीक हैं ? लेकिन ये विदेशी साइन्टिस्ट लोग इसके अर्थ को समझ रहे हैं। वे वैज्ञानिक नटराज की मूर्ति को सृष्टि और विनाश या प्रलय लीला के प्रतीक को 'Cosmic Dance of Shiva' के रूप में देखते हैं। और Modern Physics भी प्रलय को कहता है-  'subatomic particles' are performing an Energy Dance ! This is similar to energy dance of Shiva performing creation and destruction.

🔱17. (36.03 मिनट ppt  Evolution Theory of Vedanta)  वेदान्त के क्रमविकास का सिद्धान्त- Expansion and contraction of a Spring :

[स्वामी विवेकानंद द्वारा 1895. में ई. टी. स्टर्डी को लिखा पत्र,....  यहाँ काम बहुत बढ़िया चल रहा है।

Ramanuja's theory is that the bound soul or Jiva has its perfections involved, entered, into itself. When this perfection again evolves, it becomes free. The Advaitin declares both these to take place only in show; there was neither involution nor evolution. Both processes were Maya, or apparent only.

In the first place, the soul is not essentially a knowing being. Sachchidânanda is only an approximate definition, and Neti Neti is the essential definition. We have it also in Vâsanâ or Trishnâ, Pali tanhâ. We also admit that it is the cause of all manifestation which are, in their turn, its effects. But, being a cause, it must be a combination of the Absolute and Maya. 

" रामानुज का मत है कि बद्ध आत्मा या जीव की पूर्णता (Divinity) उसमें अव्यक्त या सूक्ष्म भाव से समाहित (Inherent) हैं। जब यह पूर्णता (100 % निःस्वार्थपरता) पुनः विकसित होती है, तो जीव (बद्ध आत्मा या मोहग्रस्त आत्मा) मुक्त हो जाता है। परन्तु अद्वैतवादी कहता है कि ये दोनों बातें (बंधन-मुक्ति ) केवल भासित होती हैं। न क्रमसंकोच (involution) न क्रमविकास (evolution)| दोनों क्रियायें माया थीं, वास्तविक नहीं थीं , केवल भासमान - परिदृश्यमान अवस्था मात्र , भासित हो रही थीं।

 पहली बात यह कि आत्मा तत्वतः ज्ञाता नहीं है। 'सच्चिदानन्द' आत्मा (ब्रह्म ) की केवल अनुमानित परिभाषा (approximate definition) है, जबकि 'नेति, नेति ' उसकी वास्तविक परिभाषा (essential definition) है।  हमलोग भी पाली भाषा के 'तनहा' शब्द का अर्थ  वासना, तृष्णा, तीव्र इच्छा या ऐषणा ही समझते हैं। हम भी यह स्वीकार करते हैं कि वासना (यानि तीनों ऐषणा) ही -" is the cause of all manifestation which are, in their turn, its effects." सब प्रकार की अभिव्यक्तियों का (स्थूल -सूक्ष्म शरीरों 2H का या नाम-रूप का) मूल कारण है,और प्रत्येक अभिव्यक्ति उसका (ऐषणाओं का ही ) विशिष्ट परिणाम हैं।  ' But, being a cause, it must be a combination of the Absolute and Maya. ' -- परन्तु प्रत्येक अभिव्यक्ति (नाम-रूप - बूँद, बुदबुदा, तरंग या लहर) ऐषणा के कारण हैं , अतः वह कारण (शरीर) ब्रह्म और माया के सम्मिश्रण से उत्पन्न होता है। ...The Absolute first becomes the mixture of knowledge, then, in the second degree, that of will.  वह अद्वैत तत्व पहले ज्ञान , उसके बाद इच्छा [ऐषणा] की समष्टि के रूप में अभिव्यक्त होता है। 

[If it be said that plants have no consciousness, that they are at best only unconscious wills, the answer is that even the unconscious plant-will is a manifestation of the consciousness, not of the plant, but of the cosmos, the Mahat of the Sankhya Philosophy. ]

यदि यह कहा जाय कि- 'पौधों में जान नहीं होती' (अर्थात plants में प्राण-consciousness या चेतना नहीं होती) या अधिक से अधिक वह 'निर्जीव इच्छाशक्ति' से युक्त है, ( चैतन्यरहित इच्छा-शक्ति से युक्त है), तो उसका उत्तर यह होगा कि यह 'अचेतन बीज से पौधाप्रस्फुटन-क्रिया' भी चैतन्य -(consciousness ,शाश्वत स्पंदन -या प्राण) की ही अभिव्यक्ति है यह चैतन्य उस वनस्पति (जैसे छुई-मुई पौधे के बीज) का भले ही न हो, किन्तु यह उसी विश्व्यापी चेतन बुद्धि-शक्ति की अभिव्यक्ति है, जिसे सांख्य दर्शन में महत् कहते हैं। "The Buddhist analysis of everything into will is imperfect,.... बौद्धों का यह सिद्धान्त पहले तो अधूरा है कि - " दृष्टिगोचर जगत का सभी कुछ उस 'तनहा' --ऐषणा, या संकल्प आदि अभिव्यक्त हुए हैं "; क्योंकि, प्रथमतः 'इच्छा' स्वयं ही एक 'compound'- यौगिक या मिश्र पदार्थ है, और दूसरे रूप से चेतना (प्राण, होश या ज्ञान) सर्वश्रेष्ठ यौगिक वस्तु है (compound of the first degree), जो (छुईमुई के पौधे के बीज में) इच्छा के भी पहले से विद्यमान है। 

" Knowledge is action. First action, then reaction. When the mind perceives, then, as the reaction, it wills." होश (ज्ञान, प्राण या चेतना) ही अपने आप में एक क्रिया है। प्रथम क्रिया , फिर प्रतिक्रिया। मन (छुईमुई का पौधा) पहले अनुभव करता है, उसके बाद प्रतिक्रिया के रूप में उसमें इच्छा (मुड़जाने का संकल्प) का उदय होता है। इच्छा (तृष्णा -ऐषणा -वासना-संकल्प-पौधे के) मन में रहता है, अतः यह कहना असंगत है कि - इच्छा (ऐषणा -संकल्प) अंतिम निष्कर्ष (last analysis) है।  'Deussen is playing into the hands of the Darwinists.' पॉल डायसन तो डार्विन-मतावलम्बियों के हाथ की कठपुतली मात्र हैं।               

     परन्तु क्रमविकासवाद (evolution) के सिद्धान्त का उच्च भौतिक विज्ञान साथ सामंजस्य स्थापित करना चाहिए। जिसके अनुसार क्रमविकास की प्रत्येक परम्परा के पीछे (बीज से वृक्ष बनने पीछे) क्रमसंकोच (involution) की क्रिया निहित है। इसलिए इच्छा, वासना या संकल्प के क्रम-अभिव्यक्त (evolution) होने से पहले 'महत्' या ब्रह्मांडीय चेतना (वैश्विक होश cosmic consciousness) ही क्रमसंकुचित (involution) अथवा सूक्ष्म भाव से विद्यमान रहती है। बिना चैतन्य (होश, प्राण या ज्ञान) के इच्छा (ऐषणा या संकल्प) होना असम्भव है। क्योंकि इच्छित वस्तु के सम्बन्ध में यदि पहले से किसी प्रकार का ज्ञान (होश)  न हो तो, तो उसको पाने की इच्छा या संकल्प का उदय होगा ही कैसे ? " (४/३४१-४२ )      

[This being so, the evolution of the Vasana or will must be preceded by the involution of the Mahat or cosmic consciousness. (See also Vol VIII [6]Sayings and Utterances & Vol V [7]Letter to Mr. Sturdy.) There is no willing without knowing. How can we desire unless we know the object of desire? (खंड VIII [6] कथन और कथन और खंड V [7] श्री स्टर्डी को पत्र भी देखें।) बिना ज्ञान के कोई इच्छा नहीं होती। जब तक हम इच्छा की वस्तु को नहीं जानते, तब तक हम इच्छा कैसे कर सकते हैं?

[One of the insights Swamiji gives, is the distinction he makes between intelligence and consciousness. He says that Mahat, the first change of Prakriti, is intelligence, not self-consciousness because consciousness is only a part of this intelligence. Mahat or the cosmic mind, being universal, covers all grounds of sub-consciousness, consciousness, and super-consciousness. Swamiji further explains these three states. The sub-conscious state is what we call instinct, which we find in animals and humans. The instinct, according to Swamiji, rarely fails but has a very limited scope. It works like a machine in animals. The conscious state is a higher state of knowledge, which is also fallible but has a larger scope. Though of larger scope than instinct, reason fails more often than instinct. There is still a higher state of consciousness called superconsciousness, experienced only by the Yogis.] 


=========        

 

   देखो -The ultimate thing in science is the search for unity '- अर्थात विज्ञान की अंतिम बात एकता की खोज है ! हमलोग अस्तित्व के साथ एकत्व की अनुभूति कैसे प्राप्त कर सकेंगे ? किस वस्तु में वह एकत्व अंतर्निहित है ? वेदांत में उस एक को कहा गया है - 'प्राणाः !'

 [सर्वाणि भूतानि, सर्वे देवाः, सर्वे लोकाः, 

सर्वे प्राणाः, सर्व एत आत्मनः समर्पिताः ॥ 

बृ०उप० ॥ 

all worlds, all organs and all these सर्वे प्राणाः (individual selves) fixed in this Self.]  प्राण ( ह्रदय में विद्यमान निःस्वार्थपरता या आनन्दमय कोष, कारण शरीर) ही हर वस्तु में सब जगह अभिव्यक्त -manifest हो रहा है। और अमीबा से लेकर मनुष्य, और मनुष्य से लेकर 'देवता' तक में यह 'प्राण' ही विकसित होता रहता है। यही है वेदान्त के क्रमविकास का सिद्धान्त है। 

 [as per Vedanta the Evolution and Involution is Expansion and contraction of a Spring : Manifestation of the Inherent Divinity according to Vedanta : #Vedanta holds that the Evolution is something innate in every being from amoeba to human beings.  As if a compressed spring is kept in each one of us which tries to expand continuously. वेदांत के अनुसार अंतर्निहित दिव्यता की अभिव्यक्ति को क्रमविकास का सिद्धांत कहा जा सकता है !]  

   जबकि डार्विन के क्रमविकास का सिद्धान्त क्या है ? 'Evolution Involution theory' में डार्विन क्या कहता है ?  डार्विन कहता है  survival of the fittest' --योग्यतम की उत्तरजीविता । जो प्राणी बलवान है युद्ध में वही जीतेगा, वही रहेगा और बाकी मरेगा। यही है डार्विन थ्योरी।  लेकिन हमारा  वेदांत ऐसा नहीं कहता। हमारा वेदान्त कहता है कि देखो  एक छोटा से बीज  बोया , वह विकसित होकर छोटा सा पौधा एक दिन विशाल वृक्ष बन जाता है , तो क्या वो किसी अन्य के साथ युद्ध करता है ? नहीं, Naturally-सहज रूप में स्वयं वृक्ष बन जाता है। एक बीज को बोया गया ,  प्राकृतिक रूप से बड़ा हो जाता है। किसी बीज को बोने के बाद जब वह sprouting करता है अंकुरित होता है , तो क्या वह विस्फोट जैसा आवाज करता है ? नहीं,एकदम spontaneous- स्वतःस्फूर्त भाव से, सुंदर रूप में, शांत भाव से बड़ा हो जाता है। उसी प्रकार आम का बीज , बड़ा वृक्ष बन जाता है , उसी प्रकार अमीबा से प्राणी; और प्राणी से मनुष्य हो जाता है। 

     क्यों होता है ? वेदांत के अनुसार क्रम विकास (Evolution) और क्रमसंकुचन (Involution) मानो एक दबाकर रखे गए किसी स्प्रिंग (कमानी-Spring) का विस्तार और संकुचन है। इसीलिए स्वामीजी कहते थे -Christ, Buddha or sinners में कोई अन्तर नहीं है, sinners क्या है ? माने एक Involved Christ है , या क्रमसंकुचित (कुण्डलीकृत) ईसा! sinners माने -देवत्व का Contraction, या Involution है। एवं -Christ या बुद्ध माने वह  Expanded Sinner -क्रमविकसित पापी ! अर्थात किसी समय , जीवन के किसी पड़ाव पर वो (रत्नाकर) sinner रहा होगा, अभी वो सन्त बन गया है -बाल्मीकि ऋषि बन गया है ! हमलोगों के भीतर मानो एक spring को हमलोगों ने ही pressed करके या चिपटा करके रख छोड़ा है। उस अंतर्निहित spring का नाम है सच्चिदानन्द, जो हमारा यथार्थ स्वरुप है! (38.3) उस फैले spring को  एक ही जगह पर (रीढ़ की हड्डी के मूलाधार पर ?) चिपकाकर (इस्तरी -करके) रख छोड़ा है। अब बताओ स्प्रिंग क्या करता है ? क्रमागत बड़ा होने (फैलने या विकसित होने) की चेष्टा करता है। ठीक है न ? उसी तरह स्वामी जी कहते हैं - Evolution माने और कुछ नहीं , क्रमविकास-वाद वही स्प्रिंग क्रमागत बड़ा होने या फैलने की चेष्टा करता है, यही Evolution है। 

    इसका तात्पर्य यही है कि हमारा जो spring' -अर्थात सूक्ष्म या कारण शरीर भीतर में कुण्डलीकृत है, वह हमें बैठने ही नहीं देगा ! तुम स्वयं को लेकर ही विचार करो - मैं क्या पूर्ण सन्तुष्ट हो गया हूँ ? Am I fully satisfied? (38.26) तुमलोग में हर व्यक्ति खुद से यह प्रश्न करो। Am I very Happy? क्या मैं बहुत खुश हूँ? ठीक है इस moment मैं first हुआ मैं बहुत खुश हूँ ! या इस क्षण मैं रसगुल्ला खाया, बहुत खुश हुआ ! लेकिन क्या अगले क्षण भी वही ख़ुशी बरकरार रहेगी ? और कुछ काम करूँगा , ऐसा विचार मन में उठता ही रहता है न ?  Never we are satisfied ! हम कभी (BDO-DC होकर भी) संतुष्ट नहीं होते ! जिसको अच्छी तनख्वाह मिलती है वो सोचता है , इस साल और कितना बढ़ेगा ? और कितना कमा लूंगा। कोई यदि ऊँचा ओहदा भी पा लिया है , तो वो भी संतुष्ट नहीं होगा। कोई इससे भी बड़ी नौकरी करूँगा , ज्यादा पैसा मिलेगा। कोई Foreign में नौकरी करने गया , वो सोचेगा अभी और कुछ करना है। ऐसे ही स्वप्न हमलोग देखते ही रहते हैं - लगातार नए नए मनपसंद स्वप्न देखते रहना चाहते हैं। यही 'Law of Evolution'- क्रमविकास का नियम ! भीतर से एक अदम्य इच्छा तुमको press करती ही रहती है- Expand , Expand ,Expand ! वह अंतर्निहित शक्ति हमें देवता बन जाने तक (100 % निःस्वार्थी बन जानेतक)  छोड़ेगी ही नहीं ! हमलोग चाहे संन्यासी हो जाएँ या गृहस्थ रहें - कोई छोटा बनके रहना पसंद नहीं करता , छोटा बने रहना नहीं चाहता। मैं छोटा मनुष्य बनकर रहूँगा -कोई ऐसा नहीं कहेगा। क्यों ? (39.30 मिनट)  हम सभी लोग Freedom को पसंद करते हैं। मुक्ति हमारा स्वभाव है। Our Goal is freedom ! हमारा लक्ष्य मुक्ति है। हमारा स्वरुप ही सच्चिदानन्द है ! यही वेदान्त का नियम है। यहीं स्वामीजी ने सब कुछ लिया है। 

यही बात अब Biology में भी बहुत सुंदर ढंग से कहा जा रहा है। अणु -परमाणु हर वस्तु में चैतन्य ही तो अंतर्निहित है। अपने शरीर को ही देखो न , इसमें billion billion cells - लाखों -अरबों कोषाणु हैं ! यदि एक कोशाणु में भी कुछ गड़बड़ हो जाये -तो हम कहते हैं , कैंसर हो गया। सभी cells आपस में Coordinate करके चलें, परस्पर समन्वित होकर चलें , तभी हमारा शरीर अच्छा रहेगा। सभी कोषाणु में Life -है , जीवन है।  जीवन क्या है ??/(40.20) उसी प्रकार सम्पूर्ण विश्व में करोड़ों -अरबों जीव -प्राणी हैं। हम सभी एक साथ Coordinate करते हैं , इसको हमलोग 'समष्टिगत प्राण ' कहते हैं। पुरे जगत को ही वैज्ञानिक लोग -एक cell के रूप धारणा कर रहे हैं। यह अवधारणा भी वेदांत से आया है। 

     इसको हमलोग समष्टिगत प्राण कहते हैं। इसको हमलोग वैदिक मंत्र में कहते हैं - "यत्र विश्वम् भवति एक नीडम्। " अर्थात् जहां संपूर्ण विश्व एक ही नीड में निवास करता है, सारा विश्व एक परिवार है ! यह विश्व एक cell की तरह कार्य करता है। यह हमारा अद्वैत मत है।

[योगी का अन्तःप्रत्यक्ष ईश्वर सिद्धि में सबसे बड़ा तर्क है। वेद ने इस युक्ति (method)  का उल्लेख इस प्रकार से किया है कि- यत्र विश्वं भवति एक नीडम् 

वेनस्तत्पश्यन्निहितं गुहा सद्यत्र विश्वं भवत्येकनीडम्

तस्मिन्निदँ सं च वि चैति सर्वं सऽओत: प्रोतश्च विभू: प्रजासु ।।

               –यजुर्वेद 32/8

[Yogi's inner direct perception of God -(आत्मसाक्षात्कार) is the biggest argument in achieving it. The Vedas have mentioned this method in the following manner:

[मन्त्र का भावार्थ : - परमात्मा हर स्थान (देश) में छिपा हुआ है, गुह्य है। वह प्रभु सबका आवास-स्थान और आश्रय-स्थान है। हर मनुष्य, मनुष्य ही क्यों, जगत् का प्रत्येक जड़-चेतन उस पर मानो अपना-अपना घोंसला बनाकर बैठा हुआ है। वृक्ष पर घोंसले में बैठा पक्षी भले ही समझता रहे कि मेरा आश्रय तो घोंसला है, पर असल में उसका आश्रय वृक्ष होता है।जो मेधावान् है, जिसके अन्दर ऋतम्भरा प्रज्ञा का उदय हो गया है, जिसे प्रभुदर्शन की उत्कट लालसा लगी हुई है, जो कर्मण्य है, जो अर्चनाशील है मन से उसे पाने के लिए प्रवृत्त होता है, जो श्रवणशील और चिन्तनशील है, वही उसके दर्शन कर पाता है। 

मेघावान् योगी उसे देखता है। जो हर स्थान (देश) में छिपा है। जिस ईश्वर में समस्त विश्व एक घौंसला के रूप में विद्यमान है। उसी ईश्वरीय सत्ता में उसके आधार पर ही यह जगत् उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय को धारण करता है। वह ईश्वर जात मात्र वस्तु में विभू और सर्वत: ओत-प्रोत है। 

आत्म प्रत्यक्ष (self-realization) में मूलभूत कारण पुरुषार्थ है। जिसे महर्षि कपिल ने मनुष्य का चरम लक्ष्य बताकर सांख्य शास्त्र की रचना की है। 
अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्ति रत्यन्तपुरुषार्थ:।। -सांख्य० १/१
ईश्वर के स्वरूप वर्णन के साथ ईश्वर दर्शन से तीन प्रकार के दुःखों की अत्यन्त निवृत्ति द्वारा मोक्ष प्राप्ति ही मनुष्य का अत्यन्त पुरुषार्थ है।
 [The basic reason for self-realization is effort. Maharishi Kapil has created Sankhya Shastra by describing it as the ultimate goal of man. The ultimate effort of man is to attain salvation through the description of God's form and the complete removal of three types of sorrows from God's darshan.  (विवेकदर्शन का अभ्यास से विवेक-श्रोत उद्घाटित होकर तीनों दुःख से निवृत्ति है।)

[ईश्वर अनन्त गुणोंवाला है। मनुष्य ईश्वर/ब्रह्म की अनुभूति तो कर सकता है लेकिन उसके समस्त गुणों को लेखनीबद्ध करना मनुष्य के सामर्थ्य से बाहर है।  ईश्वर के स्वरूप को लेखनीबद्ध करना सागर से जल को खाली करने के तुल्य है। हमारा शरीर बिना आत्म सत्ता के संचालित नहीं। इसी प्रकार ब्रह्माण्ड के संचालनार्थ विश्वात्मा की सत्ता का भान होता है। परमाणु किसी तत्व की सबसे छोटी इकाई होती है, जबकि अणु परमाणुओं का समूह होता है। प्रकृति (पदार्थ)  का सबसे छोटा कण अपनी सूक्ष्मता के कारण परमाणु कहलाता हैं। जीवात्मा उससे सूक्ष्मतर और परमात्मा सूक्ष्मतम है। उपनिषत्कार ने इस सिद्धान्त का विवाद वर्णन करते हुए कहा है कि-

इन्द्रियेभ्य: परह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मन:।

मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान्पर:।।

 कठ० १/३/१०

'इन्द्रियों से अर्थ यानि उनके विषय  सूक्ष्मतर हैं, उन इन्द्रिय-विषयों से सूक्ष्मतर है 'मन';  'मन' से सूक्ष्मतर है बुद्धि तथा उससे (बुद्धि से) भी सूक्ष्मतर है 'महान् आत्मा'  (परमात्मा)। 
शरीर रूपी पुरी (ह्रदय) में शयन करने से जीव (प्राणी) पुरुष है किन्तु ब्रह्माण्ड पुरी में व्याप्त होने से ईश्वर पुरुष है। इसीलिए इनको जीवात्मा और परमात्मा कहा जाता है।
 दोनों पुरुष हैं। किन्तु परमात्मा महान् और उत्तम है। 
यान्त्रिक गति से चलने वाले यन्त्र भी स्वयं गतिमान् नहीं। वह भी किसी किसी मनुष्य के द्वारा बनाए जा कर गति करते हैं। इसी प्रकार सृष्टि प्रलय का चक्र भी किसी चेतन नियामक के आधीन है।महर्षि व्यास जी का वचन है कि-अथातो ब्रह्मजिज्ञासा। जन्माद्यस्य यत:। -वेदान्त १/१/१,२/ब्रह्म वह है जिसके द्वारा संसार की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होती है।

राज योग की अवतरणिका [Introductory(Raja Yoga)] में स्वामी विवेकानंद लिखते हैं - "मनुष्य चाहता है सत्य , वह सत्य का अनुभव स्वयं करना चाहता है; और जब वह सत्य की धारणा कर लेता है, सत्य का साक्षात्कार कर लेता है, ह्रदय के अन्तरतम प्रदेश में उसका अनुभव कर लेता है [अपने ह्रदय के भीतर ही उस इन्द्रियातीत सत्य 'परतत्त्व' का अनुभव कर लेता है] तब वेद कहते हैं- 

 शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥२।५॥

वेदाहमेतं पुरुषं महान्त-मादित्यवर्णं तमसः परस्तात् ।

तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय ॥ ३।८॥'

हे अमृत के पुत्रों ! सुनो ! हे दिव्यधामवासी देवगण !! तुम भी सुनो- मैंने अज्ञानान्धकार से आलोक में जाने का मार्ग (नेता-अवतार वरिष्ठ को) खोज लिया है जो अजस्त्रज्योति है, उस अनादि, पुरातन पुरुष को प्राप्त कर लिया हैं, जो समस्त अज्ञान-अन्धकार और माया से परे है । उसको जान करके ही मनुष्य मृत्यु के दुःख का अतिक्रमण (transcend) कर सकता है। मोक्ष-प्राप्ति का दूसरा कोई पथ नहीं है।' -- श्वेताश्वतरोपनिषद् ॥ २।५, ३।८ ॥

 [“Ye children of immortality, even those who live in the highest sphere, the way is found; there is a way out of all this darkness, and that is by perceiving Him who is beyond all darkness; there is no other way.”[Source]

 'तभी उसके सारे सन्देह दूर होते हैं, सारा अंधकार समाप्त हो जाता है , और हृदय की सारी वक्रता (मिथ्या अहंकार) सीधी हो जाती है। - भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः । क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे परावरे ॥ ८ ॥  जब, उस 'परतत्त्व' का दर्शन हो जाता है, जो एक साथ ही अपरा सत्ता एवं 'परम सत्ता' [अपरा और परा विद्या] है, तब, हृदय की सारी ग्रथियाँ खुल जाती हैं, समस्त संशय छिन्न-भिन्न हो जाते हैं, तथा मनुष्य के कर्मों का क्षय हो जाता है। ॐ

[इस स्थिति में जो पहुँच जाते हैं, वे सच्चे संत कहलाते हैं। जब वे अपना अर्जित आत्मज्ञान दूसरे को देने लग जाते हैं तो उन्हें सद्गुरु कहते हैं। ज्ञान के स्तर पर सच्चे संत और सद्गुरु में कोई अंतर नहीं होता है। सच्चाई यही है कि जिन्होंने आत्मज्ञान प्राप्त नहीं किया है, वे सच्चे संत नहीं है और इसीलिए वे सद्गुरु भी नहीं हो सकते हैं। हाँ, यदि वे अध्यात्म पथ के साधक हैं तो हम उन्हें साधु, महात्मा, त्यागी, वैरागी, योगी, संन्यासी आदि नामों से अभिहित कर सकते हैं।

सद्गुरु नहीं होने के बावजूद इनमें से कोई गुरु हो सकते हैं। वह कैसे, इसको समझें। जब कोई सच्चे सद्गुरु देखते हैं कि अमुक शिष्य, साधु या साधक आत्मज्ञान प्राप्त नहीं किया है, किन्तु वह सदाचार समन्वित होकर नियमित साधना करता है, और उसकी आंतरिक चढ़ाई हो गई है तो वे उसे आवश्यकतानुसार इस ज्ञान को बताने यानि दीक्षा देने का अधिकार दे देते हैं। इस स्थिति में वह साधु या साधक (जो गृहस्थ या वैरागी दोनों हो सकता है।) गुरु या दीक्षागुरु कहलाता है, पर सद्गुरु नहीं कहलाता।]  

 "इस सत्य को प्राप्त करने के लिए (नेता बनने और बनाने के लिए)  , राजयोग -विद्या आप सभी मनुष्यों के समक्ष (जाति-धर्म का भेदभाव किये बिना) यथार्थ व्यावहारिक और वैज्ञानिक पद्धति -[अष्टांग योग ] रखने का प्रस्ताव करती है।" (अवतरणिका, खंड   1 /38) ["The science of Râja-Yoga proposes to put before humanity a practical and scientifically worked out method of reaching this truth."]  

 नटराज मुद्रा के बारे में कुछ खास बातें:  यह मुद्रा, भगवान शिव को ब्रह्मांडीय नर्तक के रूप में दर्शाती है।  नटराज मुद्रा में शिव एक पैर को उठाए हुए खड़े होते हैं और दूसरे पैर को मोड़कर रखते हैं। नटराज मुद्रा में शिव के हाथों में डमरू और ज्वाला होती है।  डमरू सृष्टि की लय को बजाता है, जबकि ज्वाला अज्ञानता को जलाने का प्रतीक है।  शिव के उठाए हुए पैर के नीचे अक्सर एक राक्षस होता है, जिसे अप्समार कहा जाता है।  यह राक्षस अज्ञानता और अराजकता का प्रतीक है।  शिव के उठाए हुए पैर का मतलब है कि वे मुक्ति और भौतिक दुनिया से परे जाने की ओर बढ़ रहे हैं।  शिव के नटराज स्वरूप की उत्पत्ति विषयक धारणा “आनंदम तांडवम” से जुड़ी है। नटराज मुद्रा, भारतीय कला में सबसे अधिक मान्यता प्राप्त और पूजनीय छवियों में से एक है।  

            इसके आलावा हमलोगों के साइंटिस्ट इस समय विज्ञान के क्षेत्र में बहुत बड़े -बड़े अनुसन्धान कर रहे हैं। किन्तु पाश्चात्य लोग भारतीय वैज्ञानिको को कोई महत्व नहीं देते थे। जगदीश चंद्र बोस को उसी समय नोबल प्राइज मिलने की बात थी , किन्तु नहीं दिया। क्योंकि उनके शोध की चोरी हो गयी थी। जिस साइंटिस्ट ने चोरी किया उसका नाम क्या था ? हाँ - उसका नाम था Guglielmo Marconi ! पर सबुत नहीं था।  सुब्रह्मणियम चन्द्रशेखर ने 1920 में ही बता दिया था कि Black Matter का अस्तित्व है। उनकी बुद्धिंमत्ता देखो -कितना पहले -1920 में ही बता दिया पर यूरोपीय लोग तब नहीं माना। उन्होंने 1920 में जो शोध किया था उसका पुरस्कार 1984 में उनको नोबल प्राइज़ मिला। 

     अब पूरे विश्व में भारतीय ब्रेन को असाधारण माना जाता है। किसी वैज्ञानिक ने कहा था - "If the Indians are proud to be Indian then nobody can stop India from being Top of the world.' हमारा ब्रेन इतना शक्तिशाली है।  किन्तु उसका उपयोग हम खराब दिशा में कर रहे हैं। हमलोग अब भी अपनेको दीनहीन समझ रहे हैं। और एक-दूसरे को नीचे दिखाने में यूज़ कर रहे हैं। स्वामीजी ने कहा था न - "ईर्ष्या -द्वेष आदि दास सुलभ दुर्बलता" हमलोग जिस दिन पीठ-पीछे बुराई करना जिस दिन त्याग देंगे , जिस दिन देश द्रोह करना छोड़ देंगे,उस दिन हम लोगों का देश सबसे महान बन जायेगा।' स्वामीजी ने पहले कहा था, अब वैज्ञानिक लोग भी वही कह रहे हैं। 

 🔱14. (29.01 मिनट) ppt वैज्ञानिक सत्येन्द्रनाथ बोस के चित्र को देखो , ये सभी वैज्ञानिक विदेशी और भारतीय स्वामीजी द्वारा अनुप्रेरित थे।  हमारे देश के और बिदेश के जितने भी इंटेलिजेंट, टॉप लेवल साइंटिस्ट हैं,सभी स्वामीजी से अनुप्रेरित हैं। 

[सत्येंद्र नाथ बोस भौतिक विज्ञानी थे जिनके नाम पर बोस-आइंस्टीन सांख्यिकी और बोस-आइंस्टीन कंडेनसेट (बीईसी) का नाम रखा गया था, वे स्वामी विवेकानंद के वेदांत के आधुनिक भौतिकी के साथ संगत दर्शन के दृष्टिकोण से प्रेरित थे। बोस का आध्यात्मिक दृष्टिकोण उनके वैज्ञानिक अन्वेषणों का पूरक था। /In honor of Bose, a class of subatomic particles was named "Boson". भारत के महान वैज्ञानिकों में से एक सत्येंद्रनाथ बोस को दुनियाभर में गॉड पार्टिकल के जनक के रूप में जाना जाता है। बोस के सम्मान में उपपरमाण्विक कणों के एक वर्ग का नाम "बोसोन" रखा गया। बोस को कई वैज्ञानिक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया, लेकिन उन्हें कभी नोबेल पुरस्कार नहीं दिया गया। बोस-आइंस्टीन कंडेनसेट: बोस और आइंस्टीन ने पदार्थ की एक नई अवस्था, 'BEC' की भविष्यवाणी की थी, जो बोसोन का एक अतिशीतित संग्रह है। ठोस, द्रव, गैस और प्लाज़्मा के बाद 'BEC' पदार्थ की पाँचवीं अवस्था है। [Satyendra Nath Bose the physicist after whom the Bose-Einstein statistics and the Bose-Einstein condensate (BEC) was named,  was inspired by Swami Vivekananda's vision of Vedanta as a philosophy compatible with Modern Physics. Bose's spiritual outlook complemented his scientific explorations. Bose-Einstein condensate: Bose and Einstein predicted a new state of matter, BEC, which is a supercooled collection of bosons. BEC is the fifth state of matter, after solid, liquid, gas, and plasma. 

 🔱15. (29.30 मिनट -विश्वरूपदर्शन योग) ppt में लिखा है -ओपेनहाइमर (J Robert Oppenheimer), इन्होने क्या किया था ? उन्हें परमाणु बम का “जनक” कहा जाता है। आइंस्टीन जो सूत्र दिया था - E=mc² लेकिन उस सूत्र के आधार पर जिसने Atom Bomb बना दिया वे थे ओपेनहाइमर।  उस समय  स्पेन-जर्मनी में बम बनाने की होड़ लगी थी। All these people आइन्स्टीन, ओपेनहाइमर आदि वैज्ञानिक जर्मन यहूदी थे; ये सभी लोग  जर्मन यहूदी थे German Jews थे, वहाँ से भागकर अमेरिका आ गए थे। उनलोगों ने सोचा हमलोगों को पहले बम बना लेना होगा, नहीं तो जर्मनी हमलोगों के सिर पर ही फोड़ देगा। इसलिए बम बनाकर जब टेस्टिंग का समय आया, लेकिन बम का टेस्टिंग कैसे होता हैजमीन को कुछ किलोमीटर गहराई तक खोद कर भूगर्भ में explode टेस्टिंग किया जाता है। जिस समय बम को explode किया जायेगा, तो छोटा बम रहने से भी एक tremor जैसे भूकंप के समय कम्पन होता है, वैसा आएगा। वे बड़े बुद्धिमान थे, वे एक सूत्री भीतर लटका दिए और 1.5 मीटर के बाद वह जल गया तो नाप कर बतला दिए कि  कितना मेगावाट energy, release हुआ है ? 21 किलोटन टीएनटी की ताक़त वाला ये विस्फोट इंसान का किया अब तक का सबसे बड़ा धमाका है।  इतने बुद्धिमान थे ?  इस धमाके से इतना तेज़ कम्पन  पैदा हुआ, जो 160 किलोमीटर दूर तक महसूस किया गया। उस धमाका ने सूरज की चमक को भी धुंधला कर दिया था। एटम बम के धमाके के बाद उन्होंने भगवतगीता के 11वें अध्याय (विश्वरूपदर्शन योग)  के 32वें श्लोक कहा था  -

 दिवि सूर्य सहस्रस्य भवेद्युगपदुत्थिता । 

यदि भाः सदृशी सा स्याद्भासस्तस्य महात्मनः ॥12॥

इसका अर्थ हमलोग नहीं बता सकते , किन्तु ओपेनहाइमर को याद था। यदि आकाश में सहस्र सूर्यों के एक साथ उदय होने से जो Brightness (दमक-द्युति)- उत्पन्न होगा, वह उस (विश्वरूप) परमात्मा के प्रकाश के सदृश होगा।।

[अर्जुन ने कृष्ण से प्रश्न किया था ‘कि वे कौन हैं?' की प्रतिक्रिया में श्रीकृष्ण ने कहा मैं लोकों का नाश करने वाला प्रवृद्ध काल हूँ। वे यहां सर्वशक्तिशाली काल और ब्रह्माण्ड के विनाशक के रूप में अपनी प्रकृति प्रकट करते हैं। "कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो लोकान्समाहर्तुमिह प्रवृत्तः।]  

'ओपन हाइमर' ने यह उपमा बम के लिए कही थी। फिर भी गीता से उल्लेख करने का अर्थ यह हुआ कि पूरी गीता उन्हें कंठस्थ थी। इससे समझ लो कि हमारी संस्कृति का प्रभाव कहाँ तक फैला हुआ है ! इतना ही नहीं हमारे संस्कृत से ही दुनिया की सभी भाषाएँ बनी हैं। उनलोग जर्मन, रूसी, इतालवी, अंग्रेजी, फ्रेंच आदि भाषाओँ को  - 'Indo -European Language' -'इंडो-यूरोपियन भाषा', कहते हैं लेकिन यदि इंडो को निकाल दें तो यूरोपियन कुछ नहीं बचेगा। उनलोगों ने देखा उनके सभी शब्द संस्कृत से निकले हैं , मदर , मातृ से निकला, ब्रदर  (32.29 मिनट) -आया भ्रातृ से डॉटर आया दुहिता से। New, नया से निकला। कोई भी शब्द लो सब संस्कृत से आया है। यहाँ स्कूलों से संस्कृत को हटा दिया है , लेकिन ब्रिटेन के स्कूलों में संस्कृत सिखाया जाता है। और एक कारण है कम्प्यूटर भी संस्कृत भाषा को आसानी से पकड़ लेता है।  

      🔱16. (33.02 मिनट) ppt 'प्राण और आकाश से  सृष्टि का प्रारम्भ: इरविन श्रोडिंगर को बहुत कम लोग जानते हैं। Quantum Mechanics का नाम जरूर सुने होंगे। (Erwin Schrodinger-Vedantic Influence on Quantum Physics - क्वांटम भौतिकी पर वेदान्त का प्रभाव) :  उनको क्वांटम यांत्रिकी के जनक 'Father of Quantum Mechanics' कहा जाता है ! वे हमलोगों के वेदान्त से बहुत प्रेम करते थे। उनके लाइब्रेरी के दीवाल पर महावाक्य लिखा रहता था - 'अहं ब्रह्मास्मि !' 'एकम् सत्य विप्रा बहुधा वदन्ति' ये सब लिखा रहता था। कोई भारतीय आता तो बहुत स्वागत करते -You are coming from a noble country !! तुमसे यदि इन महावाक्यों की - 'एकम् सत्य विप्रा बहुधा वदन्ति' व्याख्या करने के लिए कहा जाये तो नहीं कर पाओगे। क्योंकि हमने अपनी संस्कृति छोड़ दिया है और वे लोग संग्रह कर रहे हैं pickup कर रहे हैं। स्वामीजी बोलते थे जब गोरे लोग आकर कहेंगे कि तुम्हारी संस्कृति महान है, तब तुम लोग भी सीखोगे ।   

स्पेसटाइम सातत्य (Spacetime continuum) के ऊपर यूरोप के वैज्ञानिकों का एक रिसर्च आया है कि - स्पेस- टाइम सातत्य पर कार्य करने वाले इकाई बल को हल करने से सृष्टि का प्रारम्भ होता है।- 'Resolve unit force acting on Spacetime continuum result in creation ! पाश्चात्य के साइंटिस्ट ने खोज किया है। इसी बात को  संस्कृत में कहा गया है - 'प्राण का आकाश के ऊपर कार्य करने से सृष्टि का प्रारम्भ हुआ है।' यह पढ़कर श्रोडिंगर अवाक् हो गया वैदिक ऋषि लोग इतने पहले मेडिटेशन करके कैसे जाना ? हमलोग अभी जो रिजल्ट पा रहे हैं , वे कैसे इतना पहले समझ लिए ? 

    यह पढ़कर मुझे गणेश और कार्तिक की कहानी याद आती है। शिव-पार्वती ने दोनों को बोले तुम में से कौन ब्रह्माण्ड की परिक्रमा करके जल्दी लौट सकता है ? कार्तिक की सवारी मयूर उड़ता है,उसने सोचा हमसे तेज गणेश कैसे आएगा ? वे उड़कर परिक्रमा करने चल पड़े। तेजी से लौट कर देखते हैं -गणेश को माला पहनकर पहले ही प्राइज दिया जा चूका है। वे सिर्फ अपने माता-पिता की परिक्रमा करके बैठ गए थे। क्यों ??-हिन्दू ऋषि लोग सबकुछ अपने भीतर ही खोजते हैं। (अपने भीतर कारण शरीर को खोज लेते हैं !) और सत्य को पा लेते हैं , पश्चमी लोग ब्रह्माण्ड की खोज करते हैं। अभी वाह्य जगत से भीतर की तरफ खोज करना शुरू किये हैं।  

 🔱18.(ppt 41.43 मिनट)  One Rama = Ten Dollar स्वामीजी के लिए जैसे विदेश में विश्वधर्म सभा अपना हो गया था, उसी प्रकार भारतवर्ष में भी Indian Science, Indian Industry का विकास स्वामीजी के कारण ही हुआ। जमशेद जी टाटा को उन्होंने ही Inspired किया जमीन -पानी का चयन किया। निवेदिता ने British Parliament में Signature campaign चलायी तभी Tata Institute बना नहीं तो नहीं होता। आज जो Tata Institute of Fundamental Research' से Barc, Isro , Drdo, फिर मंगल यान , फिर चंद्र यान हुआ। आदि जो प्रगति दिखाई देती है उसके पीछे स्वामीजी।ये सभी लोग Nuclear Scientist हैं। एक चित्र है ये लोग वेदान्त को ही धर्म समझते हैं। भगवान राम को उनलोग अपना आदर्श समझता है। राम के चित्र को लगाकर उनलोगों ने अपना Currency' चालू किया है। One Rama = Ten Dollar/ उनलोगों यूरोप के एक द्वीप पर अपना एक छोटा सा देश बसा लिया है। यहाँ हमलोग केवल वेदांत का ही अभ्यास करते हैं। उस द्वीप का नाम उनलोगों ने रखा है - 'Global Country of World Peace !'विश्व शांति का वैश्विक देश' ! देखो हमारे देश को बाहर के  Scientist लोग किस श्रद्धा से देख रहे हैं ! मैंने एक घटना सुनी है , हमारे देश के कोई वैज्ञानिक वे आइंस्टीन से पढ़ने गए थे। वे उनको Indian Boys कहकर सबसे ज्यादा आदर देते थे।

      हमको यह देखकर अफ़सोस होता है कि गुलामी की मानसिकता से हमलोग अभी तक ग्रस्त हैं। वो देश अच्छा , वह देश तो बहुत अमीर है , और अपने देश को गरीब -बुरा तथा दूसरे देशों को भला समझते हैं। जिस दिन तुम सभी लोग भारतवर्ष से प्रेम करने लगोगे ,आज से ही अपने- आप पर विश्वास , अपने स्वरुप पर गर्व और स्वरुप से प्रेम करोगे , परस्पर का सम्मान करोगे , हमारा देश Will rise to the Top of the world ! हमलोगों को अपने देश से प्रेम करना ही होगा - इसीलिए ठाकुर , माँ और स्वामीजी आये हैं। मैं प्रार्थना करती हूँ की प्रत्येक का जीवन हीरे जैसा बनेगा। तुमलोग देश के भविष्य हो देश को ऐसी वस्तु दोगे कि देशवासी सदा तुमको सदा याद रखेंगे -स्वामीजी से मेरी यही मेरी प्रार्थना है !  

===============   

 ['यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे' -चरक संहिता का यह श्लोकांश हमें समझाता है कि जो-जो इस ब्रह्माण्ड में है वही सब हमारे शरीर में भी है।

     यह भौतिक संसार पंचमहाभूतों से बना है-  आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी। उसी प्रकार हमारा हमारा यह शरीर भी इन्हीं पाँचों महाभूतों से बना हुआ है। जब जीव की मृत्यु होती है तो उसके उपरान्त ये पाँचों महातत्त्व अपने-अपने तत्त्व में जाकर मिल जाते हैं।

        इन पंचमहाभूतों की पंचतन्मात्राएँ हैं मनुष्य में भी ये सभी पंचतन्मात्राएँ  विद्यमान हैं-  आकाश की तन्मात्रा शब्द है। मनुष्य अपने कानों से सुनता है। वायु की तन्मात्रा स्पर्श है। मनुष्य अपने शरीर पर स्पर्श का अनुभव करता है। अग्नि की तन्मात्रा ताप है। अग्नि तत्त्व मनुष्य के शरीर में है जिससे वह भोजन पचाता है और अग्नि जैसा तेज उसके चेहरे पर रहता है। जल की तन्मात्रा रस है। मनुष्य के मुँह से निकलने वाला रस भोजन को स्वादिष्ट बनाता है और शरीर को पुष्ट करता है। पृथ्वी की तन्मात्रा गंध है। पृथ्वी में हर स्थान पर गंध बिखरी हुई है। मनुष्य अपनी घ्राण शक्ति (नाक) से गंध को सूंघता है और आनन्दित होता है।

         इन पंचमहाभूतों के पाँच गुण हैं जो मनुष्य शरीर में भी होते हैं- आकाश का गुण अप्रतिघात (non resistance) है। आकाश की तरह पूरे शरीर पर त्वचा का आवरण(covering) है। हमारे शरीर के छिद्रों से जहाँ प्रतिघात होता है उसे आकाश तत्त्व से उपचार से रोका जाता है।

       वायु का गुण चलत्व (mobility) है। हमारा शरीर भी वायु की तरह चलायमान है। इधर-उधर आता-जाता है।

       अग्नि का गुण उष्णत्व (heating) है। अग्नि के समान उष्णता मनुष्य में होती है तभी वह जीवित रहता है। यदि उसकी उष्णता समाप्त हो जाए तो वह इस दुनिया से कूच कर जाता है।

         जल का गुण द्रवत्व (fluidity) है। जल के समान ही मनुष्य में आर्द्रता होती है। तभी दया, ममता, करुणाआदि गुणों के कारण वह दूसरों के दुख को सुनकर द्रवित हो जाता है।

        पृथ्वी का गुण ठोसपन (solidification) है। पृथ्वी की तरह मनुष्य भी ठोस है अन्यथा वह टिक नहीं सकता हवा में झूलता रहेगा। पृथ्वी की तरह शरीर में भी अनेक प्रकार के खनिज पदार्थ एवं लवण कैलशियम, पोटाशियम, फासफोरस, सोडियम, लोहा, तांबा, सल्फर आदि विद्यमान हैं।

        ब्रह्माण्ड और शरीर में समानता है पर अंतर केवल स्थूल व सूक्ष्म का है। जितने मूर्तिमान भाव विशेष इस लोक में हैं वे सब मनुष्य में हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो लोक या प्रकृति तथा पुरुष में समानता है। चरक संहिता इसी कथन को हमारे लिए कहती है-

यावन्तो  हि  लोके  मूर्तिमन्तो  भावविशेषा:।

तावन्त: पुरुषे यावन्त: पुरुषे तावन्तो लोके॥

जो भाव पुरुष मै मुर्तिमान है वो इस लोक में भी विद्यमान है, और जो इस लोक में है वो पुरुष में विद्यमान है!अत: स्वस्थ रहने हेतु व्यक्ति को प्रकृति से वैध प्रेम (दोहन की भावना नहीं )  रखना चाहिए! जो भी कुछ मनुष्य के पिण्ड यानी शरीर में है, बिल्कुल वैसा ही सब कुछ इस ब्राह्मांड में है। संपूर्ण ब्रह्मांड में जो भी है वह द्रव्यमान एवं ऊर्जा (Matter and energy) का संगम है।

ब्रह्माण्ड में चेतनता है तो मनुष्य भी चेतन है। एक स्थान से दूसरे स्थान तक चलता फिरता रहता है। परन्तु जब यह किसी कारण से रोगी हो जाता है और चलने-फिरने में अक्षम हो जाता है तो इसमें जड़ता आने लगती है। ईश्वर ने बुद्धि के रूप में  सबसे अच्छा उपहार इसे दिया है। इस बुद्धि से वह चमत्कार करता है।

          इस प्रकार पंचमहाभूतों के सभी गुण मनुष्य में हैं। जिसे दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि जो इस ब्रह्माण्ड में है वही इस शरीर में भी है।

========    

[साभार Shrinwantu Vishwe Amritasya Putra — Hear Ye Children Of Immortal Bliss (https://vivekavani.com/shrinwantu-vishwe-amritasya-putra/] 

 शृण्वन्तु बिश्वे अमृतस्य पुत्राआ ये धामानि दिब्यानि तस्थुः, “Hear, ye children of immortality, all those that reside in this plane and all those that reside in the heavens above, I have found the secret”, says the great sage. “I have found Him who is beyond all darkness. Through His mercy alone we cross this ocean of life.” (Source- Vol. IV. /Delivered in San Francisco area, April 9, 1900)]

“ Ye are the Children of Immortal Bliss ”. In the Vedic (actually Vedantic) tradition, it was believed, it is not man but it is his body that dies, man never dies. He is immortal, he is the “son of immortality”.  We find the same idea in Bhagavad Gita too.☞ On one hand the entire world claims that a man has no place in this universe. He is a helpless, powerless creature. He has miseries, diseases, he has anxieties and finally he has death. He is nothing — he is simply nothing.☞ On the other hand the Upanishads of ancient India glorifies human being as “children of immortality”. 

[“Children of immortal bliss” — what a sweet, what a hopeful name! Allow me to call you, brethren, by that sweet name — heirs of immortal bliss — yea, the Hindu refuses to call you sinners. Ye are the Children of God, the sharers of immortal bliss, holy and perfect beings. Ye divinities on earth — sinners! It is a sin to call a man so; it is a standing libel on human nature. Come up, O lions, and shake off the delusion that you are sheep; you are souls immortal, spirits free, blest and eternal; ye are not matter, ye are not bodies; matter is your servant, not you the servant of matter.] 

==================

 [2600 वर्ष पहले यानी लगभग 100 पीढ़ी पहले एक भी बौद्ध नहीं था। 2000 वर्ष पहले यानी लगभग 75 पीढ़ी पहले एक भी ईसाई नहीं था। 1400 वर्ष पहले यानी लगभग 50 पीढ़ी पहले एक भी मुसलमान नहीं था।] 

3400 वर्ष पहले यानी लगभग 125 पीढ़ी पहले एक भी यहूदी नहीं था।
2600 वर्ष पहले यानी लगभग 100 पीढ़ी पहले एक भी बौद्ध नहीं था। 
2000 वर्ष पहले यानी लगभग 75 पीढ़ी पहले एक भी ईसाई नहीं था। 
1400 वर्ष पहले यानी लगभग 50 पीढ़ी पहले एक भी मुसलमान नहीं था।
500 वर्ष पहले यानी लगभग 20 पीढ़ी पहले एक भी सिख नहीं था।
आज हम हैं और इस तथ्य के जीते जागते प्रमाण हैं कि 125 पीढ़ी पहले भी हमारे पूर्वज थे। और उन पूर्वजों का धर्म सनातन धर्म अनंत काल से मौजूद था।
One Rama = Ten Dollar/'Global Country of World Peace ! from www.dnaindia.com
GCWP > Global Country of World Peace :

Have you ever heard of the Global Country of World Peace? It's a really interesting and a unique country that was founded by Maharishi Mahesh Yogi on October 7, 2000. Their goal is to bring together peaceful and harmonious individuals from all over the world, regardless of borders or differences. Tony Nader, a neurologist, is currently leading the country.
The Global Country of World Peace has its own currency called Raam, which is a local currency and bearer bond. It's used in Iowa and the Netherlands and one Raam equivalent to 10 dollars in the US and 10 Euros in Europe. The Raam comes in different denominations of 1, 5, and 10, and it's not meant to replace any existing currencies. Rather, it's used for specific transactions within the community. The organization also promotes the use of gold to back up the Raam, so it's more stable and reliable than other currencies.
One of the coolest things about the GCWP is the "peace palaces" they've built in different US cities. These buildings look like temples and offer classes on things like ayurvedic treatments, herbal supplements, and transcendental meditation. You can find peace palaces in cities like Bethesda, Maryland, Houston and Austin, Texas, Fairfield, Iowa, St. Paul, Minnesota, and Lexington, Kentucky.
The ultimate goal of the GCWP is to create a world without violence or conflict. They believe that promoting inner peace and harmony through their teachings and practices can help achieve this. Some people might think this is a utopian dream, but it's still admirable that they're working towards a more peaceful world.]
===
Special relativity: Einstein's 1905 special theory of relativity established that space and time are connected, but didn't consider gravity. 
General relativity: Einstein's 1915 general theory of relativity expanded on special relativity to include gravity. 
Space-time continuum:  Einstein's theory describes space and time as a 4-dimensional continuum that's curved by gravity. 
Space-time interactions: 
Einstein's theory describes how space-time acts on matter and is acted upon by matter. 
Some consequences of general relativity include: 
1.Gravitational time dilation: Clocks run slower near massive objects
2.Light deflection: Light bends in gravitational fields
3.Frame-dragging: Rotating masses "drag along" the spacetime around them
4. Expansion of the universe: The universe is expanding
==============

[The International Electrical Congress (IEC) was held in Chicago in 1893 to discuss electrical units, telegraphy, and electricity applications. The Congress took place from August 21–25, 1893, as part of the World's Columbian Exposition. Elisha Gray was the Congress president. The Congress discussed various applications of electricity. Nikola Tesla gave a lecture on mechanical and electrical oscillators. The Congress established the International System of Electrical and Magnetic Units (ISEMU)]

=======

['ओपन हाइमर' जो प्रथम अणु बम बनाने की योजना के सदस्य थे और हिरोशिमा और नागासाकी के विनाश के साक्षी थे। उन्होंने श्रीकृष्ण के इस श्लोक को निम्न प्रकार से उद्धृत किया है-'काल'-मैं समस्त जगत का विनाशक हूँ। काल, कृष्ण या -माँ काली ही सभी जीवों के जीवन यानि उम्र की गणना करते है और उसे नियंत्रित करते हैं  माँ काली या ठाकुर ही यह निश्चित करेंगे कि भीष्म, द्रोणाचार्य और कर्ण जैसे महानुभावों के जीवन का अन्त कब होगा ? यह अर्जुन के युद्ध में भाग न लेने के पश्चात भी युद्ध भूमि की व्यूह रचना में खड़ी शत्रु सेना का विनाश कर देगा ; क्योंकि भगवान की संसार निर्माण की विशाल योजना के अनुसार ऐसा होना भगवान की इच्छा है। “मैं प्रलय का मूलकारण और महाकाल हूँ जो जगत का संहार करने के लिए आता है। तुम्हारे युद्ध में भाग लेने के बिना भी युद्ध की व्यूह रचना में खड़े विरोधी पक्ष के योद्धा मारे जाएंगे।"  

    भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ स्वयं का परिचय लोक संहारक महाकाल के रूप में कराते हैं। भगवान् का यह लोकसंहारकारी भाव उनके लोककल्याणकारी भाव का विरोधी नहीं है। कभी कभी विनाश करने में दया ही होती है। किसी टूटे हुए पुल को या जीर्ण बांध को अथवा प्राचीन इमारत को तोड़ना उक्त बात के उदाहरण हैं। इस उग्र रूप को धारण करने में भगवान् का उद्देश्य उन समस्त नकारात्मक शक्तियों का नाश करना है जो राष्ट्र के सांस्कृतिक जीवन को नष्ट करने पर तुली हुई हैं। भगवान् इस बात को भी स्पष्ट कर देते हैं कि पुनर्निर्माण के इस कार्य को करने के लिए वे किसी एक व्यक्ति या समुदाय पर आश्रित नहीं है। इस कार्य को करने में एक अकेला काल ही समर्थ है। भगवान् स्पष्ट कहते हैं कि अर्जुन।   तुम्हारे बिना भी इन भौतिकवादी योद्धाओं में से कोई भी इस निश्चित विनाश में जीवित नहीं रह पायेगा। भगवान् के कथन का यह तात्पर्य स्पष्ट होता है कि कौरव सेना तो काल के द्वारा पहले ही मारी जा चुकी है।  और पुनरुत्थान की सेना के साथ सहयोग करके अर्जुन निश्चित सफलता का केवल साथ ही दे रहा है। इसलिए सर्वकालीन मनुष्य के प्रतिनिधि अर्जुन को यह उपदेश दिया जाता है कि वह निर्भय होकर अपने जीवन में कर्तव्य का पालन करे। ]

================== 




शनिवार, 4 जनवरी 2025

विवेकानन्द : एक शक्ति ! "Vivekananda -The Power"

 विवेकानन्द : विवेक-प्रयोग शक्ति का आनन्द !   

["Vivekananda -The Power" का हिन्दी अनुवाद] 

        आज से एक सौ बासठ वर्ष पूर्व 12 जनवरी 1863 को, भारत की तत्कालीन राजधानी कलकत्ता के एक कुलीन परिवार में  नरेन्द्रनाथ दत्त नामक एक बालक का जन्म हुआ था। लेकिन अपने जीवन के मात्र तीसवें वर्ष में ही उन्होंने स्वामी विवेकानंद के रूप में प्रेम और ज्ञान (Wisdom) के बल पर, सम्पूर्ण विश्व पर विजय प्राप्त कर लिया था, तथा चालीस वर्ष की आयु पूर्ण होने से पूर्व ही अपने नश्वर शरीर का त्याग भी कर दिया था। 

    How did he conquer the world? जिज्ञासा होती है कि मात्र 30 वर्ष के युवा नरेन्द्रनाथ दत्त विश्वविजयी विवेकानन्द कैसे बन गए ? प्रसिद्द राष्टवादी चिंतक और प्रोफेसर बिनय कुमार सरकार (Benoy Kumar Sarkar) लिखते हैं कि अंग्रेजी के केवल 5 वाक्य कहकर ही उन्होंने सम्पूर्ण विश्व को जीत लिया था। 1893 की विश्व-धर्म महासभा (PoWR) में जब महिलाओं और पुरुषों को सम्बोधित करते हुए - उन्होंने कहा था -"Ye divinities on earth—sinners! It is a sin to call a man so; it is a standing libel on human nature!" [ Come up, O lions, and shake off the delusion that you are sheep; you are souls immortal, spirits free, blest and eternal; ye are not matter, ye are not bodies; matter is your servant, not you the servant of matter." ]  

आप तो ईश्वर की सन्तान हैं, अमर आनन्द के भागी हैं, पवित्र और पूर्ण आत्मा हैं। आप इस इस मर्त्यभूमि पर देवता हैं! आप भला पापी?  मनुष्य को पापी कहना ही पाप है , यह तो मानव-स्वरूप पर घोर लांछन है।  आप उठें ! हे सिंहों ! आयें, और इस मिथ्या भ्रम को झटककर दूर फेंक दें कि आप भेंड़ हैं। आप तो अजर, अमर, अविनाशी, आनन्दमय और नित्यमुक्त आत्मा हैं,  जिसे शस्त्र नहीं काट सकते , वायु नहीं सूखा सकती, जल गीला नहीं कर सकता! आप जड़ नहीं हैं, आप शरीर नहीं हैं, जड़ तो आपका दास है, न कि आप  जड़ के दास हैं!" [१/१२ हिन्दुधर्म]  

प्रथमोक्त चार पंक्तियों में उन्होंने भारत के गीता और उपनिषदों के ज्ञान को उद्धृत करते हुए सम्पूर्ण मानव जाति को जहाँ आनन्द, आशा, पौरुष, शक्ति और मुक्ति का संदेश दिया था।   वहीँ अंतिम पंक्ति में - " मनुष्य को पापी कहना ही सबसे बड़ा पाप है, और मानव के यथार्थ स्वरूप पर घोर लांछन है।' का कटाक्ष करके मनुष्य के आत्म-विश्वास को कम करने, तथा डरपोकपन (भेंड़त्व-cowardice) एवं नकारात्मक और निराशावादी विचारों को बढ़ावा देने वाले -'Original Sin' या 'मूल पाप' के सिद्धान्त को उन्होंने पूर्णतः ध्वस्त कर दिया। आश्चर्य चकित दुनिया पर उनकी पाँच पंक्तियों वाला यह छोटा सा सूत्र मानो किसी बम के गोले की तरह फूट पड़ा। प्रथमोक्त चार पंक्तियों को उन्होंने पूरब की वैदिक संस्कृति से लिया था, और अंतिम पंक्ति को उन्होंने पाश्चात्य संस्कृति में बार-बार दोहराए जाने वाले सिद्धान्तों से लिया था।मानवीय चिंतन के इतिहास में स्वामी विवेकानन्द से पहले पूरब और पश्चिम के सिद्धान्तों का ऐसा तुलनात्मक प्रयोग पहले किसीने नहीं किया था। जबकि विवेकानंद ने इन दोनों सिद्धान्तों का ऐसे  विस्फोटक तरीके से प्रयोग किया कि उन्हें तत्काल ही विश्व- धर्म-महासभा में विश्व विजेता के रूप में स्वीकार कर लिया गया।"

['Original Sin' या मूल पाप, ईसाई धर्म का एक सिद्धांत है। इस सिद्धांत के अनुसार आदम और हव्वा ने ईडन गार्डन में निषिद्ध फल खाया था और अपने पापी (गुनाहगार) स्वभाव को अपने वंशजों में भी सम्प्रेषित कर दिया। यह सिद्धांत कहता है कि हर मनुष्य पापी पैदा होता है और ईश्वर की आज्ञा की अवज्ञा करके, बुरे काम करने की इच्छा के साथ पैदा होता है।]

How did he acquire the power with which he accomplished it ? प्रश्न उठता है कि स्वामी विवेकानन्द को ज्ञान और प्रेम की इतनी अगाध शक्ति कैसे प्राप्त हुई जिसके बल पर उन्होंने इतना सब कुछ किया? उनका जीवन कठोर संघर्ष की एक ऐसी लंबी कहानी है; जिसके बारे में यह कल्पना करना भी कठिन है - उनका संघर्ष कितना कठिन रहा होगा ! उनके संघर्ष की तुलना अशान्त समुद्र सतह पर लगातार  उछलते-डूबते उस छोटी सी नौका से की जा सकती है, जो तूफानों से जूझते हुए भी उसके विशाल विस्तार को पार करके, उस किनारे पर पहुँच जाती है - जहाँ सूर्य हमेशा हमेशा के लिए चमकता रहता है।

वेदों, उपनिषदों, गीता आदि भारत के प्राचीन शास्त्रों में वर्णित आध्यात्मिक ज्ञान की रहस्यमय गहराइयों की उपलब्धि उन्होंने अपनी विद्व्ता और हजारों शक्ति-शाली सूर्यों के समान प्रखर बुद्धि की सहायता से, तथा सर्वोपरि एक ऐसे अद्वितीय जगतगुरु श्रीरामकृष्ण देव के अतुलनीय मार्गदर्शन में किया था, जो उनके भीतर केवल 'नारायण ' का ही दर्शन करते थे। इसके साथ ही साथ उन्होंने अपने देश के वर्तमान दयनीय दशा और पतनोन्मुख आध्यात्मिक जीवन का वस्तुनिष्ठ अध्ययन और सर्वेक्षण न केवल एक आर्थिक विशेषज्ञ या राजनीतिक दार्शनिक की दृष्टि से किया था, बल्कि एक ऐसे करुणा सम्पन्न हृदय से किया था जो किसी भी प्राणी के थोड़े से भी दुःख को देखकर रो पड़ता था। इन्हीं तीन तत्वों ने उन्हें ऐसी शक्ति प्रदान की कि उन्होंने सम्पूर्ण विश्व के कल्याण के लिए उसका उपयोग आसानी से कर दिखाया तथा वे वह बन गए जो वे वास्तव में थे। 

    इसी बात पर प्रकाश डालते हुए भगिनी निवेदिता विवेकानन्द साहित्य की भूमिका में लिखती है-स्वामी विवेकानन्द की कीर्तियों का संगीत शास्त्र, गुरु तथा मातृभूमि - इन तीन स्वर-लहरियों से  निर्मित हुआ है। उनके पास देने योग्य यही निधि है, जिसे उन्होंने अपने गुरु श्रीरामकृष्ण देव से उस 'Be and Make गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में प्राप्त किया था; जिसके अनुसार यह माना जाता है कि मनुष्य नहीं मरता , बल्कि उसका शरीर मरता है। मनुष्य कभी नहीं मरता, वह अमर है, वह "अमरता का पुत्र" है। मनुष्य मात्र को "अमरता की संतान" के रूप में महिमामण्डित करते हुए भारत के प्राचीन उपनिषदों में सनातन हिन्दू धर्म का परम् आह्वान और उसकी मधुरतम प्रतिज्ञा इस प्रकार है -   

"शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥'

वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः प्रस्तात्।। 

तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥ 

(-श्वेताश्वतर उपनिषद) 

-हे अमृत के पुत्रों ! सुनो ! उच्चतर लोकों में रहने वालो, तुम भी सुनो; मैंने उस पुराण पुरुष को,अंतर्निहित ब्रह्मत्व (Inherent Divinity) को  जान लिया है जो सभी अंधकार, समस्त भ्रान्ति के परे सूर्य की तरह चमकती है। उसे जानने पर ही व्यक्ति मृत्यु से पार हो जाता है। और तुम भी उसको जानकर मृत्यु से मुक्ति प्राप्त कर सकोगे। मृत्यु से बचने का कोई और रास्ता नहीं है।     

इसलिए उन्होंने कुमारी मेरी हेल को अल्मोड़ा से 9 जुलाई, 1897 को लिखित एक पत्र में लिखा था -"समस्त सांसारिक प्रेम [आसक्ति ?] स्वयं को देह मानने से ही उपजते हैं। काम -कांचन को त्याग दो।  इनके जाते ही ऑंखें खुल जाएँगी और जब आध्यात्मिक सत्य का साक्षात्कार हो जायेगा , तभी आत्मा अपनी अनन्त शक्ति पुनः प्राप्त कर लेगी।"....  भारत में मैंने मानवजाति के कल्याण का एक ऐसा यंत्र स्थापित कर दिया है, जिसका कोई शक्ति नाश नहीं कर सकती। अब मेरी अभिलाषा है कि मैं बार बार जन्म लूँ और हजारों दुःख भोगता रहूँ, ताकि मैं उस एकमात्र ईश्वर की पूजा कर सकूँ जिसका सचमुच अस्तित्व है और जिसका मुझे विश्वास है। सबसे बढ़कर, सभी जातियों और वर्णों के पापी, तापी और दरिद्र रूपी देवता ही मेरे विशेष उपास्य हैं।  [६/३४४]     

निरंतर उपासना रूपी कर्म  करने की इसी तीव्र अभिलाषा के कारण पाश्चात्य देशों पर विजय प्राप्त करने के बाद भी उन्हें सन्तुष्टि नहीं हुई। जैसा कि शंकराचार्य ने अपने - विवेकचूडामणि ग्रंथ में कहा है कि कुछ महान आत्माओं के साथ ऐसा कभी-कभी घटित होता है - 

शान्ता महान्तो निवसन्ति सन्तो वसन्तवल्लोकहितं चरन्तः ।

तीर्णाः स्वयं भीमभवार्णवं जनान् अहेतुनान्यानपि तारयन्तः ।।

‘37. इस जगत में कुछ ऐसे शांतचित्त महात्मा और उदार संत या मानवजाति के कुछ नेता या  पैगम्बर होते हैं जो वसंत ऋतु की तरह-हमेशा मानवता की भलाई करने में लगे रहते हैं। वे अनेक नाम-रूपों से बने इस जन्म और मृत्यु के इस भयानक सागर को स्वयं तो पार कर लेते हैं, फिर बिना किसी व्यक्तिगत स्वार्थपूर्ण उद्देश्य के वसंत ऋतु की तरह दूसरों को भी इसे पार करने में मदद करते हैं। 

इसलिए विवेकानन्द ने दासता और उसके बोझ तले दबी मानवता की पीड़ा को गहराई से महसूस किया और पुकार कर कहा ---" आप तो ईश्वर की सन्तान हैं , अमर आनन्द के भागी हैं , पवित्र और पूर्ण आत्मा हैं। आप इस इस मर्त्यभूमि पर देवता हैं! आप भला पापी?  मनुष्य को पापी कहना ही पाप है , वह मानवस्वरूप पर घोर लांछन है। " आप उठें ! हे सिंहों ! आयें, और इस मिथ्या भ्रम को झटककर दूर फेंक दें कि आप भेंड़ हैं। आप हैं आत्मा अमर , आत्मा मुक्त , आनन्दमय और नित्य ! और फिर मनुष्य के यथार्थ स्वभाव को उन्होंने अपने जीवन और उपदेशों के माध्यम से अभिव्यक्त करके दिखा दिया

उन्होंने अपने जीवन द्वारा जो उपदेश दिया - वह किस प्रकार का था ? जब स्वामी विवेकानंद 1900 में ओकलैंड गए थे तो कई लोगों में से एक सज्जन ने भी उनकी बातें सुनी थी। वे सज्जन जब भाषण सुनकर वापस लौटे तो वे बहुत उत्साहित थे और अपने उत्साह को रोक नहीं पाए। उन्होंने कहा, "मैं एक ऐसे व्यक्ति से मिला हूँ जो मनुष्य नहीं है; वह भगवान है! और उसने सत्य कहा था!"

जोसेफिन मैकलियोड अपने बीमार भाई से मिलने गई जब वह मृत्युशैया पर थे । उनकी परिचारिका का उनसे कोई संबंध नहीं था। जोसेफिन ने उसके बिस्तर पर स्वामी विवेकानंद का फोटो देखा। उसने परिचारिका से पूछा, 'वह आदमी कौन है जिसका चित्र मेरे भाई के बिस्तर पर है? उस परिचारिका ने अपने सत्तर साल की गरिमा के साथ खुद को तैयार किया और कहा, "अगर धरती पर कभी कोई भगवान था, तो वह यही आदमी है।"

एक महिला जो नास्तिक थी, उसने एक बार विवेकानंद को सुना और फिर एक कमरे में जाकर रोने लगी। किसी ने उससे इसका कारण पूछा तो उसने जवाब दिया, 'उस आदमी ने मुझे अनंत जीवन दिया है। मैं उसे फिर कभी नहीं सुनना चाहती।'

सिस्टर क्रिस्टीन ने लिखा है, 'एक दिन (न्यूयॉर्क में) फिफ्थ एवेन्यू पर चलते हुए, दो बुजुर्ग निराश्रित समर्पित प्राणी आगे चल रहे थे, उन्होंने कहा, 'क्या तुम नहीं देखते, जीवन ने उन्हें जीत लिया है!' उनके स्वर में पराजितों के लिए दया, करुणा थी! हाँ, और कुछ और भी था - क्योंकि जिसने भी सुना, उसने प्रार्थना की और प्रतिज्ञा की कि जीवन कभी भी उसे नहीं जीतेगा, तब भी नहीं जब उम्र, बीमारी और गरीबी आए। और ऐसा ही हुआ। उनका मौन आशीर्वाद शक्ति से भरा था।'

श्री रामकृष्ण के देहांत के बाद भारत में अपने परिव्राजक जीवन के दौरान उन्हें भूख की पीड़ा झेलनी पड़ी - कभी-कभी इसलिए क्योंकि उस समय उन्होंने भोजन न मांगने और जो कुछ उन्हें न दिया जाए उसे न खाने की शपथ ली हुई थी। अन्य समयों में, जब वे ऐसी शपथ नहीं लेते थे, विभिन्न प्रकार के विचार उन्हें परेशान करते थे और वे बिना भोजन के रहते थे - सबसे लंबी अवधि, जैसा कि उन्होंने एक बार सिस्टर निवेदिता को बताया था, पांच दिन की थी - और वे मृत्यु के कगार पर थे। एक बार उनके मन में प्रश्न उठा कि क्या उन्हें गरीबों से भोजन मांगने का अधिकार है, क्योंकि उनका मानना ​​था कि बदले में उन्होंने उनके लिए कुछ नहीं किया है। किसी भी मामले में, उन्होंने सोचा, यदि वे भोजन का एक अतिरिक्त निवाला बचा सकते हैं, तो उनके बच्चों का उस पर उनसे बेहतर अधिकार है। एक दिन, ऐसी ही मनोदशा में, वे बिना भोजन के एक जंगल में चलते रहे रात में उसने एक बाघ को अपनी ओर आते देखा और वह उस पशु को अपना शरीर देने की संभावना से खुश हुआ, जैसा कि कहा जाता है कि बुद्ध ने एक जीवन में किया था और मन ही मन कहा, "हम दोनों भूखे हैं, मैं तुम्हें नहीं खा सकता , पर तुम मुझे खा सकते हो, कम से कम हममें से एक को तो खाना मिल जाए।" हालांकि, बाघ वहां से चला गया।

सिस्टर क्रिस्टीन ने लिखा था, 'किसी को यह बताने की जरूरत नहीं थी, लेकिन उन्हें देखकर ही पता चल जाता था कि वे भूखे व्यक्ति को खाने के लिए अपना मांस और पीने के लिए अपना खून स्वेच्छा से दे सकते थे।' 

दूसरे दिन जब स्वामी विवेकानंद हिमालय के एक मैदान में सूखी टहनियों की एक कच्ची छत के नीचे मृत्यु के कगार पर लेटे थे, तब उन्होंने एक आवाज़ सुनी, 'तुम नहीं मरोगे। तुम्हें दुनिया में बहुत बड़ा काम करना है।' एक बार रेलवे से लंबी यात्रा के दौरान उनकी मुलाक़ात एक ऐसे युवक से हुई जो तंत्र-मंत्र के प्रभाव में था। स्वामीजी भूखे थे और चुपचाप बैठे थे। लेकिन लड़का उनके पास आया और बातचीत करने लगा। स्वामीजी के मुँह से निकले शब्दों के साथ ही उसके दिमाग के सामने का कोहरा छंटने लगा। स्वामीजी ने कहा, आध्यात्मिकता का चमत्कारों से कोई लेना-देना नहीं है। मानसिक भ्रम की सनक भारतीय राष्ट्र का मनोबल गिरा रही थी। उन्होंने अन्यत्र कहा था "हमें तो एक ऐसे धर्म और दर्शन की आवश्यकता है जो अपने सामान्य ज्ञान और दृढ़ सामाजिक भावना से प्रेरित मनुष्य बना सके। " उस लड़के ने भी मनुष्य बनने की प्रेरणा महसूस की और स्वामीजी को भोजन दिया जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया।" 

जब वे भारत के सुदूर दक्षिणी छोर कन्याकुमारी पहुँचे, तो उन्हें समुद्र के उस पार चट्टान पर ध्यान लगाने का प्रलोभन हुआ, जहाँ पार्वती ने कन्या के रूप में शिव के लिए तपस्या की थी। उनके पास पैसे नहीं थे, इसलिए वे तैर कर समुद्र पार कर लिए और उस चट्टान तक पहुँच गए। लेकिन उनका यह पराक्रम अलक्षित (unnoticed) न रह सका और जब वे वापस आए, तो लोगों ने उनसे उत्सुकता से उनके और उनके ध्यान के बारे में जानना चाहा। उन्होंने सिर्फ़ इतना कहा कि वे श्री रामकृष्ण परमहंस के शिष्य हैं, जिनके बारे में पूरी दुनिया ने जल्द ही जान जाएगी। चट्टान पर अपने अनुभव के बारे में उन्होंने सिर्फ़ इतना कहा कि जिस चीज़ की तलाश में वे वर्षों से शारीरिक और मानसिक रूप से भटक रहे थे, उसे उन्होंने मौके पर ही हासिल कर लिया।

और फिर अप्रैल 1902 में, अपने निधन से लगभग तीन महीने पहले, उन्होंने कहा, 'मेरे पास दुनिया में कुछ भी नहीं है। मेरे पास खुद के लिए एक पैसा भी नहीं है। मुझे जो कुछ भी दिया गया था, मैंने वह सब कुछ दे दिया है।'

और उनके पास पैसे आए कैसे थे? बस एक उदाहरण। 1893 में शिकागो में स्वामी विवेकानंद श्रीमती जॉन बी. लियोन के घर पर मेहमान थे। उनकी पोती कॉर्मेलिया कॉन्गर ने बहुत बाद में लिखा, 'जब उन्होंने (विवेकानंद) व्याख्यान देना शुरू किया, तो लोगों ने उन्हें भारत में उनके द्वारा किए जाने वाले काम के लिए पैसे देने की पेशकश की। उनके पास कोई पर्स नहीं था। इसलिए वे इसे एक रूमाल में बांधकर लाते थे और एक गर्वित छोटे बच्चे की तरह इसे मेरी दादी की गोद में रख देते थे। उन्होंने उन्हें अलग-अलग मूल्य के सिक्कों को पहचानना और उन्हें गिनकर व्यवस्थित तरीके से रखना सिखाया।'

पीड़ित मानवजाति के प्रति दिव्य करुणा से प्रेरित होकर, अनंत सूर्य के तट से जब वे अकेले ही अपनी छोटी नाव में सवार होकर, दुबारा समुद्र पार कर रहे थे, तो वह उस समय भी वह उतना ही अशांत था और कई ऊँची लहरों ने उन्हें गिराने का प्रयास भी किया था। उनके लिए न केवल स्नेह और प्रशंसा, आतिथ्य और सम्मान के साथ लोग प्रतीक्षा कर रहे थे , बल्कि कई जगह उन्हें विभिन्न नीच और दुष्ट प्रकृति के शत्रुओं का भी सामना करना पड़ा था, किन्तु उन्होंने ज़रा भी प्रतिरोध नहीं किया, बल्कि उन्होंने उन सभी पर प्रेम से विजय प्राप्त की थी । उन्होंने कभी नाम, शोहरत, धन आदि की परवाह नहीं लेकिन वे स्वतः उनके पैरों को चूमते हुए उनके पास आते गए, और कई प्रलोभन उनके इर्द-गिर्द लटके रहे। कॉर्नेलिया कांगर ने अपने संस्मरणों में लिखा है: 'स्वामीजी इतने गतिशील और आकर्षक व्यक्तित्व के थे कि कई महिलाएँ उनसे पूरी तरह प्रभावित थीं और अपनी तरफ उनका ध्यान खींचने के लिए उनको चापलूसी करने का हर संभव प्रयास करती थीं। वे उस समय भी युवा ही थे और अपनी उच्च आध्यात्मिक अनुभूति तथा अपने प्रखर बुद्धि की चमक के बावजूद, बहुत ही अलौकिक रूप से आकर्षक प्रतीत होते थे। और यही बात मेरी दादी को परेशान करती थी, उन्हें डर था कि उन्हें लोग किसी गलत या असुविधाजनक स्थिति में तो नहीं डाल देंगे, इसलिए उन्होंने उन्हें थोड़ा सावधान करने की कोशिश की। अपने प्रति उनकी चिंता ने उनके ह्रदय को छू लिया और उन्हें आश्वस्त करते हुए उनके हाथ को थपथपाते हुए उन्होंने कहा, "प्रिय श्रीमती लियोन, आप मेरी प्यारी अमेरिकी माँ हैं, मेरे लिए डरो मत। यह सच है कि मैं अक्सर किसी बरगद के पेड़ के नीचे सोता रहा हूँ, जहाँ कोई दयालु किसान भूख मिटाने के लिए मुझे एक कटोरा भात दे दिया करता था; किन्तु यह भी उतना ही सच है कि मैं उसी प्रकार अक्सर बड़े-बड़े राजा - महाराजाओं के महल में मेहमान भी होता रहा हूँ जहाँ, किसी  दासी को पूरी रात मेरे ऊपर मोर पंखा झलने के लिए नियुक्त किया जाता था !  इस प्रकार के प्रलोभनों से निर्लिप्त रहने की मुझे आदत है, अतएव आपको मेरे लिए डरने की कोई ज़रूरत नहीं है।'

क्या हमें खेतड़ी की घटना याद नहीं है, जहाँ उन्होंने एक पेशेवर नृत्यांगना (nauch girl) के गीत -प्रभुजी मेरे अवगुण चित न धरो ! ' सुनकर आशीर्वाद दिया था और 'जिसने उस दिन से अपना पेशा छोड़ दिया और पूर्णता की ओर ले जाने वाले मार्ग पर चल पड़ी थी ?'

मैडम कैल्वे ने अपने संस्मरण में लिखा है, 'एक दिन काहिरा में हम अपना रास्ता भूल गए। मुझे लगता है, हम बहुत ध्यान से बात कर रहे थे। किसी भी तरह, हम खुद को एक गंदी, बदबूदार सड़क पर पाते हैं, जहाँ आधी नंगी महिलाएँ खिड़कियों से और दरवाजों की चौखटों पर लेटती रहती हैं। उन मातृशक्तियों की दुर्दशा को देखकर वे (स्वामीजी)  रोने लगे। महिलाएँ चुप हो गईं और शर्मिंदा हो गईं। उनमें से एक महिला ने आगे की ओर झुककर उनके गेरुआ वस्त्र के किनारे को चूमा और टूटे-फूटे स्पैनिश में कहा-होमब्रे डी डिओस, होमब्रे डी डिओस!'- अर्थात अरे ! ये तो ईश्वर का आदमी है ! ईश्वर का आदमी है।) (Hombre de dios, Hombre de diosman of God, man of God-देवदूत है !) उनके तेज को देखकर एक दूसरी स्त्री अपने चेहरे के सामने अपनी बाँहों को रखकर अचानक विनम्रता और भय के भाव के साथ उसे छुपाने की चेष्टा करने लगी मानो वह स्त्री अपनी सिकुड़ती आत्मा को विवेकानंद की उन पवित्र आँखों से सचमुच छिपाना चाहती हो।'

और नाम और यश के बारे में क्या? धर्म-संसद की पहली बैठक के बाद जब वे रात को अपने होटल लौटे, तो उनके भव्य आतिथ्य के देखकर उन्हें अपने देशवासियों की भीषण गरीबी याद आई,और वे एक बालक की तरह रो पड़े। जब । एक रात उनकी पीड़ा इतनी तीव्र हो गई कि वे कराहते हुए फर्श पर लोटने लगे: "हे माँ, जब मेरी मातृभूमि घोर गरीबी में डूबी हुई है, तो मैं नाम और यश की क्या परवाह करूँ? हम गरीब भारतीय किस दुखद स्थिति में पहुँच गए हैं, हमारे लाखों देशवासी जहाँ मुट्ठी भर चावल के लिए मर रहे हैं, वहीँ यहाँ के लोग अपने निजी सुख-सुविधाओं पर लाखों रुपये खर्च कर रहे हैं! भारत के लोगों का पालन-पोषण कौन करेगा? उन्हें रोटी कौन देगा? हे माँ, मुझे रास्ता दिखाओ कि मैं उनकी कैसे मदद कर सकता हूँ।"

विश्व धर्म संसद में अपना खुला आक्रमण शुरू करने से पहले ही उन्होंने श्री आलासिंगा पेरुमल को एक पत्र (दिनांक 20 अगस्त, 1893) में लिखा था-

     " कमर कस कर खड़े हो जाओ , वत्स ! प्रभु ने मुझे इसी काम के लिए बुलाया है। ... आशा तुम लोगों से है - जो विनीत, निरभिमानी और विश्वासपारायण हैं। दुःखियों का दर्द समझो और ईश्वर से सहायता की प्रार्थना करो - वह अवश्य मिलेगी। मैं 12 वर्षों तक ह्रदय  पर बोझ लादे और सिर में यह विचार लिए बहुत से तथाकथित धनिकों और अमीरों के दर दर घुमा। ह्रदय का रक्त बहाते हुए मैं आधी पृथ्वी का चक्कर लगाकर इस अजनबी देश में सहायता माँगने आया।  परन्तु ईश्वर सर्व शक्तिवान है - मैं जानता हूँ , वह मेरी सहायता करेगा। मैं इस देश में भूख या जाड़े से भले ही मर जाऊँ , परन्तु युवकों ! मैं गरीबों, मूर्खों, और उत्पीड़ितों के लिए इस सहानुभूति और प्राणपण प्रयत्न को थाती के तौर पर तुम्हें अर्पण करता हूँ। जाओ, इसी क्षण जाओ उस पार्थसारथी (भगवान श्रीकृष्ण) के मन्दिर में, जो गोकुल के दीन-हीन ग्वालों के सखा थे -...    उनके पास जाकर साष्टांग प्रणाम करो और उनके सम्मुख एक महाबली दो , अपने समस्त जीवन की बलि दो - उन दीन -हीनों और उत्पीड़ितों के लिए , जिनके लिए भगवान युग युग में अवतार लिया करते हैं, और जिन्हें वे सबसे अधिक प्यार करते हैं। और तब प्रतिज्ञा करो कि अपना सारा जीवन इन तीस करोड़ लोगों के उद्धार-कार्य में लगा दोगे , जो दोनोंदिन अवनति के गर्त में गिरते जा रहे हैं।  .... प्रभु की जय हो , हम अवश्य सफल होंगे।  इस संग्राम में सैकड़ों खेत रहेंगे , पर सैकड़ों पुनः उनकी जगह खड़े हो जायेंगे। .. विश्वास, सहानुभूति - दृढ़ विश्वास और ज्वलंत सहानुभूति चाहिए ! जीवन तुच्छ है , मरण भी तुच्छ है , भूख तुच्छ है  और जाड़ा भी तुच्छ है।  जय हो प्रभु की ! आगे कूच करो ! प्रभु ही हमारे सेनानायक हैं।  पीछे मत देखो कौन गिरा, पीछे मत देखो - आगे बढ़ो, बढ़ते चलो ! " ( १/ ४०४-४०५)  

उपरोक्त बातों का पुनरावलोकन करने से वह व्यक्तित्व-जो उनके नाम विवेकानन्द के चारों तरफ विकसित हुआ है; स्पष्ट रूप से उभर कर सामने आ जाता है। उनकी विराट छवि के विस्तृत रुपरेखा को देख पाना तो कठिन है, फिर भी कल्पना में उनकी जिस छवि को देखा जा सकता है, वह किसी भी गंभीर मन को विस्मय और प्रशंसा से भर देती है। उनके विषय में हम निश्चित रूप से उनके अपने शब्दों का ही उपयोग कर सकते हैं और कह सकते हैं: "विवेकानंद एक शक्ति हैं। आपको यह नहीं सोचना चाहिए कि उनका सिद्धांत यह या वह है। लेकिन वे एक शक्ति हैं, जो अभी भी जीवित हैं और दुनिया में काम कर रहे हैं। हमने उन्हें अपने विचारों में बढ़ते हुए देखा है, और वे अभी भी बढ़ रहे हैं।' क्योंकि उन्होंने प्रतिज्ञा की थी " हो सकता है कि एक जीर्ण (पुराने) वस्त्र को त्याग देने के सदृश, अपने शरीर से बाहर निकल जाने को मैं बहुत उपादेय पाऊँ। लेकिन मैं तब तक काम करना नहीं छोड़ूँगा, जब तक सम्पूर्ण विश्व यह नहीं जान जाये कि वह ईश्वर के साथ एक है- मैं सब जगह लोगों को यही प्रेरणा देता रहूँगा " [सूक्तियाँ एवं सुभाषित /खंड १०/२१७-[44. It may be that I shall find it good to get outside of my body—to cast it off like a disused garment. But I shall not cease to work! I shall inspire men everywhere, until the world shall know that it is one with God. (Volume 5, Sayings and Utterances)]  

स्वामी विवेकानन्द द्वारा की गयी यह प्रतिज्ञा हमें बीती हुई बातों को याद करने के बजाये, भविष्य की सम्भावना ' Vivekananda- The Power' का अनुसरण करने का निर्देश देती है जो जड़ को भी गतिशील बना सकती है ! वही 'विवेक-प्रयोग शक्ति' इस समय सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में छठी शक्ति (The Sixth Force in Cosmos)  के रूप में हर जगह क्रियाशील है, तथा भविष्य में यह शक्ति और भी अधिक तीव्रता से कार्य करेगी, तथा क्रमशः प्रत्येक मन के भीतर प्रविष्ट हो जाएगी; और तब हमारे देश में एक ऐसा महत्वपूर्ण परिवर्तन घटित होगा ! [जिसके बारे में पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने अपनी पुस्तक -'Ignited Minds' में लिखा है -" Dream, Dream, Dream/ Dreams transform into thoughts, And thoughts result in action!"  (साभार https://crpf.gov.in/writereaddata/images/pdf/Ignited_Minds.pdf)]

शायद सभी या शायद कोई भी नहीं इस विवेक-प्रयोग शक्ति (या परा शक्ति) को स्वामी विवेकानन्द के नाम के साथ जोड़कर नहीं देख पाएंगे; फिर भी यह शक्ति मनुष्य जाति को अपना भाग्य स्वयं बनाने का प्रयास करने के लिए अनुप्रेरित करती रहेगी। और मनुष्य को पूर्णत्व प्राप्ति की दिशा में आगे बढ़ने के लिए दिशात्मक सुधार ( directional corrections) के द्वारा यह कार्य अलक्षित रूप से (Unnoticed) जारी रहेगा। रात में गिरने वाली ओस की बूंदों की तरह अदृश्य और अनसुनी रहते हुए भी विवेक-प्रयोग शक्ति के प्रचार-प्रसार में लगे रहने का कार्य, उन अनेकों व्यक्तियों के जीवन-पुष्प को प्रस्फुटित कर देगा, जो गाँव -गाँव तक इस शिक्षा को पहुँचा देने के कार्य में लगे रहेंगे। [दादा कहते थे इस Be and Make आन्दोलन से जुड़े रहो, तब तुम्हें कोई साधना नहीं करनी पड़ेगी ऐसे ही मुक्त हो जाओगे !] 

स्वामी विवेकानन्द की दो सौवीं जयंती (=2063 तक) और दो सौ पचासवीं जयंती (=2113)  के बीच पारस्परिक और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में मौलिक परिवर्तन हो चुके  होंगे, हर विचार एक ही छलनी (filter) से छनकर निकलेगा- 'मैं नहीं, बल्कि तू !' और यही एकमात्र नीति होगी जिसकी सर्वत्र प्रसंशा की जाएगी, और उससे कई लोगों का कल्याण होगा । इस विवेक-प्रयोग शक्ति के प्रभाव से मतभेदों की क्षुद्र भावना धीरे-धीरे कुंद होती जाएगी और सार्वभौमिक एकात्मकता (Universal Oneness) का विचार उभरेगा। मनुष्य की गरिमा को सर्वोच्च मान्यता प्राप्त होगी। सुसंयोग (opportunities) के मामले में विशेषाधिकार और भेदभाव की बातें -भूतकाल की बातें हो जाएंगी। भौतिकवादी विचार धरती में दफन हो जाएंगे और ऐतिहासिक अनुसन्धान का विषय बन जाएंगे। आध्यात्मिकता की धड़कन का स्पन्दन हर जगह महसूस होगा।

उन्नीसवीं सदी के अंत में एक दिन भविष्यवाणी करते हुए विवेकानंद ने अपने आस-पास के लोगों को यह कहकर चौंका दिया कि, 'अगला महान उथल-पुथल जो एक नए युग का सूत्रपात करेगा, वह रूस या चीन से आएगा।' और रूस और चीन दोनों देशों में ऐसा परिवर्तन हुआ, जिससे नये  सामाजिक सिद्धांतों के प्रस्तावकों की अन्य सभी गणनाएं विफल हो गईं।

रूस में एक बार फिर से एक नई उथल-पुथल मची है। भौतिकवादी बौद्धिक दिग्गज चाहे जो भी कहें, वर्तमान पेरेस्त्रिका (या पुनर्गठन-restructuring) और उस्कोरेनी (या त्वरण-acceleration) के पीछे के विचारों का यदि मौलिक रूप से जांच करें बुद्धिमान दिमागों को पता चल जाएगा कि वे जिस शक्ति का मानव समाज परअनुप्रयोग कर रहे हैं, वह विवेकानंद के ,या  वेदांत के विचार ही हैं। रूस में हुए परिवर्तन के बाद, उससे भी अधिक स्पष्ट परिवर्तन अब चीन में आयेगा, फिर धीरे-धीरे अन्य देशों में भी आएगा। यह बदलाव भारत में भी आएगा, लेकिन बाद में, क्योंकि यहाँ जड़ता बहुत गहरी है।

हमारी उदासीनता के बावजूद यह विवेक-प्रयोग शक्ति दुनिया में मनुष्य और उसके भाग्य को बदलने के लिए काम करेगी। लेकिन किसी भी शक्ति द्वारा किया गया कार्य उस प्रतिरोध के व्युत्क्रमानुपाती होता है जिसे उसे दूर करना होता है। सकारात्मक प्रतिरोध का सवाल ही नहीं उठता, हमारी आधी-अधूरी स्वीकृति और विवेक-प्रयोग शक्ति पर शब्दाडंबरपूर्ण प्रशंसा भी प्रतिरोध के रूप में काम करती है; और वे केवल इसके काम को धीमा करते हैं। हम अपनी स्वेच्छा से स्वीकृति और जानबूझकर की गई कार्रवाई के माध्यम से अपनी भागीदारी सुनिश्चित करके इस प्रक्रिया को तेज कर सकते हैं।

हममें से प्रत्येक को मार्था ब्राउन फिंके के स्वर से स्वर मिलाकर यह कहने की ईमानदारी और साहस हासिल करना चाहिए: 'मैं अक्सर उस समय के बारे में सोचती हूँ जो मैंने खो दिया है, उस रास्ते के बारे में जो मैं टटोलते हुए आयी हूँ, जबकि ऐसे विवेक-शक्ति के मार्गदर्शन के तहत मैं सीधे लक्ष्य पर पहुँच सकती थी ।'  लेकिन एक अमर आत्मा के लिए समझदारी की बात तो यह है कि पछतावे में समय बर्बाद न किया जाए, क्योंकि विवेक-प्रयोग के रास्ते पर चलते रहना ही महत्वपूर्ण बात है।' 

    हम लोग भी कब सिस्टर देवात्मा के जैसा यह कहने में सक्षम होंगे कि- 'अब विवेकानन्द के उपदेशों को श्रवण का समय समाप्त हो गया है, अब उनके उपदेशों पर मनन करने और उन्हें अपने दैनन्दिन जीवन के अभ्यास में उतारने करने का समय आ गया है।'

स्वामीजी ने कहा था " अब और रोने की आवश्यकता नहीं। अब अपने पैरों पर खड़े हो जाओ। और मर्द बनो। हमें ऐसे धर्म की आवश्यकता है,जिससे हम मनुष्य बन सकें। हमें ऐसे सिद्धान्तों की जरूरत है , जिससे हम मनुष्य हो सकें। हमें ऐसी सर्वांगसम्पन्न शिक्षा चाहिए , जो हमें मनुष्य बना सके। और यह रही सत्य की कसौटी - जो भी तुमको शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक दृष्टि से दुर्बल बनाये उसे जहर की भांति त्याग दो , उसमें जीवनीशक्ति नहीं है , वह कभी सत्य नहीं हो सकता। सत्य तो बलप्रद है , वह पवित्रता है , वह ज्ञानस्वरूप है।  " (मेरी क्रन्तिकारी योजना - ५/१२०)   

- " मेरी आशा , विश्वास तुम्हीं लोग हो। मेरी बातों को ठीक ठीक समझकर उसीके काम में लग जा। ... उपदेश तो तुझे अनेक दिए ; कम से कम एक उपदेश  को भी तो काम में परिणत कर ले। बड़ा कल्याण हो जायेगा। दुनिया भी देखे कि तेरा शास्त्र पढ़ना तथा मेरी बात सुनना सार्थक हुआ है। " 

यही इस विवेकानन्द -शक्ति की संभावना है, जिसमें मनुष्य का सुप्त भाग्य निहित है। हे मानव! उठो ! जागो!  और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए!

========

Vivekananda -The Power 

A hundred and twenty-six years ago on the twelfth of January was born in Calcutta, then the capital of India, in an aristocratic family, a lad, Narendranath Datta, who in the thirties of his life conquered the world with love and wisdom as Swami Vivekananda, and left the mortal coil before he reached forty.

How did he conquer the world? Benoy Kumar Sarkar writes: With five words he conquered the world, so to say, when he addressed men and women as, "Ye divinities on earth—sinners! It is a sin to call a man so; it is a standing libel on human nature! Come up, O lions, and shake off the delusion that you are sheep; you are souls immortal, spirits free, blest and eternal; ye are not matter, ye are not bodies; matter is your servant, not you the servant of matter." 

 The first four words summoned into being the gospel of joy, hope, virility, energy , and freedom for the races of men . And yet with the last word , embodying as it did a sarcastic question he demolished the whole structure of soul -degenerating, cowardice-promoting, negative, pessimistic thoughtsOn the astonished world, the little five-word formula fell like a bomb shell. 

The first four words he brought from the East, and the last word he brought from the West. All these are oft-repeated expressions, copy-book phrases both in the East and the West. And never in the annals of human thought was the juxtaposition accomplished before Vivekananda did it in the  dynamic manner and obtained instantaneous recognition as a world's champion."   

How did he acquire the power with which he accomplished it? It is a long story of a hard struggle; it is difficult to imagine how hard it was. It was like a small boat tossing all the while on the bosom of a turbulent sea, yet crossing the vast span and reaching the shore, where the sun shins for ever and ever. 

Mysterious depths of knowledge thoroughly surveyed through incomparable erudition with the brilliance of intellect as that of a thousand mighty suns, matchless guidance of a peerless Master , who saw in him only Narayana, meticulous objective study of the mundane and decadent spiritual life of his nation, not merely with the eye of an economic or political philosopher, but with a heart which bled at the sight of the least suffering of any being - all these three elements  went to make  what he was and endowed  him with power that he wielded with ease for the good of one and all .  

So he said, " May I be born again and again, and suffer thousands  of miseries so that I may worship the only God that exists , the only God I believe in , the sum total of all souls - and above all , my God the poor of all races , pf all species , is the special object of my worship."  

Having planted his feet on the safe soil of sunshine across the sea, he could not feel satisfied . 

It so happens rarely with some great souls only , as observed by Shankaracharya :  

शान्ता महान्तो निवसन्ति सन्तो
वसन्तवल्लोकहितं चरन्तः ।
तीर्णाः स्वयं भीमभवार्णवं जनान्
अहेतुनान्यानपि तारयन्तः ।।

- विवेकचूडामणिः- 37 ||

37. There are good souls, calm and magnanimous, who do good to others as does the spring, and who, having themselves crossed this dreadful ocean of birth and death, help others also to cross the same, without any motive whatsoever.
So he deeply felt for the suffering of humanity in bondage and under the weight of its concomitants and cried out calling: 'Ye, divinities on earth — sinners! It is a sin to call a man so; it is a standing libel on human nature.' And he manifested true human nature in his life and teachings
What sort was it ? When Swami Vivekananda went to Oakland in 1900 one gentleman among many listened to him . 'When he returned, he was very much excited and could scarcely contain his enthusiasm. He said, " I have met a man who is not a man ; he is a God ! And he spoke the truth !"   
josephine Macleod went to see her ailing brother when he was in his death bed. His hostess was in no way related to them. Josephine found a portrait of Swami Vivekananda over his bed. She asked the hostess , ' Who is the man whose portrait is over my brother's bed ? She drew herself up with all the dignity of her seventy years and said , " If ever there was a God on earth , this is the man ." 
A lady, an agnostic, heard Vivekananda once and then went into a room and was weeping. Someone Asked her the reason and she replied , ' The man has given me eternal life. I never wish to hear him again . 
Sister Christine wrote ,' Walking along the Fifth Avenue (in New York) one day , with two elderly forlorn devoted creature walking in front , he said , ' Don't you see, life has conquered them ! " The pity, the compassion for the defeated in his tone ! Yes, and something else, - for then and there the one who heard , prayed and vowed that never life should conquer her , not even when age, illness, and poverty should come . And so it has been . His silent blessing was fraught with power .'/

During his itinerant life in India , after the passing away of Sri Ramakrishna, he suffered the pangs of hunger- certain times because he was during the times under a vow not to ask for food and not to eat anything that was not offered to him. At other times, when not under such a vow , various kinds of  ideas sized him and he went without food - the longest such period , as he once told Sister Nivedita , being five days - and was on the verge of death. Once question arose in his mind whether he had a right to beg for food from the poor , for he thought he did nothing for them in return .In any case, thought he , if they could save an extra morsal of food , their children had a better claim upon it than he. One day , being in a mood like this , he walked on through a forest without food till he sank to the ground , fixing his mind on God. At night he saw a tiger approaching him and he felt happy at the prospect of giving his body to the animal, as Buddha is said to have done in one life and said within himself , " We are both hungry, let one of us at least be fed ." The beast , however , walked away. 
Sister Christine wrote , ' One did not need be told , but seeing him one knew that he would willingly have offered his flesh for food and his blood for drink to the hungry.'  
Another day as Swami Vivekananda lay at the point of death in a Himalyan glade under a rude thatch of a dry branches,' he heard a voice say, ' You will not die. You have a great work to do in the world.'  Once during a long journey by railway he came  across a young man, who was under the spell of occultism. Swamiji was hungry and sat quietly. But the boy approached him and started conversation. The mists before his mind started shifting as words poured out from Swamiji's mouth. Swamiji said, spirituality had nothing to do with miracle mongering. The craze for psychic illusions was demoralizing the Indian nation. He went on : " What we need is strong common sense, a public spirit, and a philosophy and religion which will make us men ." The boy felt inspired and offered food to Swamiji which he accepted.
When he reached the southernmost tip of India at Kanykumari , he felt tempted to meditate on the rock across the sea, where Parvati as Kanya did her tapasya for Shiva. Not having a pie with him he swam across the sea to reach the rock. This was not unnoticed and when he came back , people asked him eagerly about himself and his meditation. He only said that he was a disciple of Sri Ramakrishna Parmhamsa , about whom the  whole world soon hear .As regards his experience on the rock he only said that the thing in the search of which he had been wandering both physically and mentally for years he had achieved on the spot . 
And again in April 1902, about three months before he passed away , he said , ' I have nothing in the world . I haven't  a penny to myself. I have given away everything that has ever been given to me. '     
And how did money come to him ? Just an instance . In 1893 at Chicago Swami Vivekananda was the guest at the home of Mrs John B. Lyon . Her granddaughter, Cornelia Conger, wrote long after, 'When he (Vivekananda) began to give lectures, people offered him money for the work he hoped to do in India. He had no purse. So he used to tie it up in a handkerchief and bring it back -like a proud little boy- pour it into my grandmother's lap to keep for him. She made him learn the different  coins and to stack them up neatly to count them .' 
From the shore of eternal sunshine when he re-crossed the ocean in his small boat all alone driven by a divine compassion for suffering mankind, it was no less turbulent, and many a crest attempted to throw him off. Not only affection and admiration, hospitality and honour were in store for him, he had to face hostility of various mean and malign nature , to which he did not offer the least resistance, but he overcame them all.

He did not seek any, but name , fame , money came to him kissing his feet, and temptations dangled about. Cornelia Conger wrote in her reminiscences : ' Swamiji was such a dynamic and attractive personality that many women were quite  swept away by him and made every effort by flattery to gain his interest. He was still young and in spite of his great spirituality and his brilliance of mind, seemed to be very unworldly.  
This used to trouble my grandmother who feared he might be put in a false or uncomfortable position, and she tried to caution him a little. Her concern touched and amused him, and he patted her hand and said , " Dear Mrs Lyon, you dear American mother of mine , don't be afraid for me. It is true I often sleep under a banyan tree with a bowl of rice given me by a kind peasent , but it is equally true that I also am sometimes the guest in the palace of a great Maharaja and a slave girl is appointed to wave a peacock fan over me all night long ! I am used to temptation, and you need not fear for me. '  
Do we not remember the incident at Khetri, where he blessed the singer (a nautch -girl) 'who from that day gave up her profession and entered the path leading to perfection?' Madame Calve wrote in her reminiscence, 'One day we lost our way in Cairo. I suppose , we had been talking too intently. At any rate , we found ourselves in a squalid , ill-smelling street, where half-clad women lolled from windows and sprawled on doorsteps.
The Swami noticed nothing until a particularly noisy group of women on a bench in the shadow of a dilapidated building began laughing and calling to him. One of the ladies of our party tried to hurry us along , but the Swami detached himself gently from our group and approached the women on the bench.
 " Poor children !" he said . " Poor creatures ! they have put the divinity in their beauty. Look at them now ! " 
He began to weep. The women were silenced and abashed . One of them leaned forward and kissed the hem of the robe, murmuring broken in Spanish, " Hombre de Dios, Hombre de Dios! (Man of God !) Another, with a sudden gesture of modesty and fear, threw her arm in front of her face as though she would screen her shrinking soul from those pure eyes. ' 
And of name and fame ? When he returned to his hotel the night after the first meeting of the parliament , he wept like a child. Their lavish hospitality made him sick at heart when he remembered the crushing poverty of his own people. His anguish became so intense one night that he rolled on the floor , groaning : " O Mother , what do I care for name and fame when my motherland remains sunk in outmost poverty?  To what a sad pass have we poor Indians come when millions of us die for want of a handful of rice , and here they spend millions of rupees upon their personal comfort ! Who will raise the masses of India ? Who will give them bread ? Show me, O Mother , how I can help them ."  

Even before he launched his open offensive at the Parliament of Religions, he wrote in a letter (dated :20th August, 1893.)- " Grid up your loins , my boys ! I am called by the Lord for this . The hope lies in you - in the meak, the lowly , but the faithful . Feel for the miserable and look up for help - it shall come. I have travelled 12 years with this load in my heart and this idea in my head. I have gone from door to door of the so-called ' rich and great ', With a bleeding heart I have crossed half the world to this strange land , seeking help . 
The Lord is great. I know He will help me. I may perish of cold and hunger in this land, but I bequeath to you young men this sympathy, this struggle for the poor, the ignorant, the oppressed. Vow, then to devote your whole lives to the cause of these three hundred millions , going down and down every day. Glory unto the Lord! We will succeed. Hundreds will fall in the struggle - hundreds will be ready to take it up. Faith - sympathy, fiery faith, and fiery sympathy!  Life is nothing , death is nothing , -hunger nothing , cold nothing . Glory unto the Lord ! March on , the Lord is our General . Do not look back to see who falls - forward - onward !  
The retrospect brings forth in dotted lines the personality that grew around the name Vivekananda. It is difficult to view the detailed outline, but the image that can be visualized fills any serious mind with awe and admiration. We may certainly use his own words in his own case and say: " Vivekananda is a force. You should not think that his doctrine is this or that . But he is a power, living even now and working in the world. ' We 'saw him growing in his ideas. He is still growing .' And he said , " I will not cease to work .' 
This takes us from the retrospect to the prospect of ' Vivekananda, The Power .' This has been working and will work more vigorously in the future gradually entering into all minds and bringing about a vital transformation . It is and will be working everywhere as the Sixth Force in the universe . Not all or none will perhaps be able to identify this power with Vivekananda , yet it will work for invigorating man to strive for his destiny.  Unnoticed it will work for directional corrections for the march of man. Unseen and unheard like the dew drops that fall at night, it will bring into blossom lives that will find fruition of their efforts in the happiness of the many. Between his two hundredth and two hundred -fiftieth birth anniversaries interpersonal and international relations will have undergone fundamental changes , every thought will pass through the filter - ' Not I , but thou ' - and the only policy that will be applauded will be good of the many .  
The mean sense of differences will gradually get blunted and the idea of universal unity will be ascending in the sway of this power. Recognition of the dignity of man will be supreme. Special privileges and differentiation in the matter of opportunities will become things of the past. Materialistic ideas will be buried in the earth and will become a subject for historical probe. The pulse of spirituality will be felt everywhere
Towards the end of the nineteenth century one day in a prophetic mood Vivekananda startled those around him by saying, ' The next great upheaval which is to bring about a new epoch will come from Russia or China .' And it came both in Russia and China to the discomfiture of other calculations by propounders of social theories.   
Again a new upheaval has now come in Russia. Whatever materialistic intellectual giants might say, a radical examination of the thoughts behind the present perestrika ( or restructuring) and uskorenie (or acceleration) would reveal to intelligent minds that they are application in human society of this power , call it Vivekananda , Vedanta , or anything , if you like. It will next come more conspicuously in China and then gradually in other countries. It will also come in India, but later , for the inertia is deep here.
The power will work in the world to remold man and his destiny in spite of our lukewarmness. But work done by a force is inversely proportional to the resistance it has to overcome. The question of positive resistance does not arise , our half-hearted acceptance and wordy eulogies on the power work as resistance; they only slow down its working. We can accelerate the process by our willing acceptance and through deliberate action ensuring our own involvement.  
Each of us should acquire the honesty and courage to say with Martha  Brown Fincke: ' I often think of the time I have lost , of the round about way I have come, groping my way , when under such guidance I might have aimed directly for the goal. But for an immortal soul it is wiser not to spend time in regrets, since to be on the way is the importeant thing .' When shall we be able to say with Sister Devatma ? ' The time of hearing was over , the time of pondering and practicing had come. '  

Said Swami Vivekananda : ' I have given you advice enough ; now put at least something in practice. Let the world see that your listening to me has been a success.'    
This is the prospect of this power , in which lies the dormant destiny of man . O Man ! ' Arise , awake , and stop not till the goal is reached ! ' 
======************================*****

" शक्ति क्या है ? शक्ति वह है जो जड़ को गति देती है। और जड़ क्या है ? जड़ क्या है ? जड़  [2H -देह और मन] वह है जो शक्ति द्वारा गतिशील होता है। यह तो गोल-मोल बात हुई। इस वस्तुस्थिति का नाम ही 'माया' है।  न तो वह विद्यमान है और न अविद्यमान ही। इस समस्त विश्व में एक सत वस्तु ओतप्रोत है ; और वह देश, काल तथा कार्य-कारण के जाल में मानो फँसी हुई है। मनुष्य का सच्चा स्वरुप वह है जो अनादि, अनन्त , आनंदमय तथा नित्यमुक्त है ; वही देश , काल और परिणाम के फेर में फंसा है।  " (क्रियात्मक आध्यात्मिकता के प्रति संकेत- ३/११८)  

 हमारी साधना का पहला भाग है- अचेतन (unconscious) को अपने अधिकार में लाना।  दूसरा है चेतन के परे जाना।  जिस तरह, अचेतन चेतन के नीचे - उसके पीछे रहकर कार्य करता है , उसी तरह चेतन के ऊपर - उसके अतीत भी एक अवस्था है।  जब मनुष्य इस अतिचेतन अवस्था को पहुँच जाता है , तब वह मुक्त हो जाता है। ईश्वरत्व को प्राप्त हो जाता है। तब मृत्यु अमरत्व में परिणत हो जाती है, दुर्बलता असीम शक्ति बन जाती है और अज्ञान की लोह जंजीरें मुक्ति बन जाती है।  अतिचेतन का यह असीम राज्य ही हमारा एकमात्र लक्ष्य है। ... अतएव महत्वपूर्ण बात है , पूरे मनुष्य को पुनरुज्जीवित जैसा कर देना , जिससे कि वह अपना पूर्ण स्वामी बन जाये। ' (क्रियात्मक आध्यात्मिकता के प्रति संकेत- ३/१२१)           

विवेकानन्द के निकट जो कुछ सत्य (अपरिवर्तनीय) है, वह सब वेद है ! वे कहते हैं, वेदों का अर्थ कोई ग्रन्थ नहीं है। वेदों का अर्थ है विभिन्न समयों में विभिन्न व्यक्तियों (ऋषियों) द्वारा आविष्कृत आध्यात्मिक नियमों (सूत्रों या महावाक्यों) का संचित कोष। प्रसंगवश वे सनातन धर्म के सम्बन्ध में भी अपने विचारों को प्रकट करते हुए कहते हैं - 'जिस प्रकार सनातन हिन्दू धर्म का आध्यात्मिक लक्ष्य - ईश्वर की प्राप्ति है, उसी प्रकार  इसका आध्यात्मिक नियम है प्रत्येक आत्मा (अव्यक्त ब्रह्म) की स्वस्वरूप में प्रतिष्ठित होने की पूर्ण स्वतन्त्रता ।"

एक अन्य स्थान पर उन्होंने लिखा है -" My Master's message to mankind is: "Be spiritual and realize truth for Yourself." मेरे गुरुदेव का मानव जाति के लिए यह संदेश है कि - "Be spiritual and realize truth for Yourself." -अर्थात  प्रथम स्वयं सत्य की  उपलब्धि करो और आध्यात्मिक व्यक्ति (ऋषि) बनो!" वे कहते थे - 'प्रत्येक मनुष्य के भीतर जो सारवस्तु अर्थात आत्मतत्व (दिव्यता या ब्रह्मत्व) अन्तर्निहित है, उसकी तुलना में विभिन्न प्रकार के मतवाद, आचार -अनुष्ठान, पन्थ, गिरजाघर या मन्दिर आदि अत्यन्त तुच्छ हैं। और जिस व्यक्ति के अंदर यह ब्रह्मत्व (Oneness) जितना अधिक अभिव्यक्त होता है, वह व्यक्ति (नेता) जगतकल्याण के लिए उतना अधिक सामर्थ्यवान हो जाता है। - 'Earn that first, acquire that, and criticise no one, for all doctrines and creeds have some good in them.'

   -अतएव पहले इसी आध्यात्मिक धन का, (एकात्मकता -Oneness) उपार्जन करो, और किसी सम्प्रदाय में दोष मत ढूँढ़ो, क्योंकि सभी मत, सभी पथ अच्छे हैं। अपने जीवन द्वारा यह दिखा दो कि धर्म का अर्थ न तो शब्द होता है, न नाम और न सम्प्रदाय , वरन इसका अर्थ होता है आध्यात्मिक अनुभूति (spiritual realization)। ' Only those can understand who have felt. Only those who have attained to spirituality can communicate it to others,'  जिन्हें अनुभव हुआ है वे ही इसे समझ सकते हैं। जिन्होंने स्वयं धर्मलाभ कर लिया है, वे ही दूसरों में धर्मभाव संचारित कर सकते हैं, वे ही मनुष्यजाति के श्रेष्ठ आचार्य हो सकते हैं - 'They alone are the powers of light.' - 'केवल वे ही ज्योति की शक्ति हैं !'   

 यस्मिन् सर्वाणि भूतानि आत्मा एव अभूत् वि-जानतः।

तत्र को मोहः कः शोक: एकत्वम् अनुपश्यतः।

(ईशोपनिषद : श्लोक ७)

 जब  किसी व्यक्ति को ऐसा ज्ञान प्राप्त हो जाता है, कि  एक परमात्मा ही सभी प्राणियों के रूप में प्रकटित हुआ है, तब उस  एक परम तत्व को सर्वत्र  देख रहे उस व्यक्ति के लिए न कोई मोह और न कोई शोक ही रह जाता है॥] 

Let people praise you or blame you, let fortune smile or frown upon you, let your body fall today or after a Yuga, see that you do not deviate from the path of Truth. How much of tempest and waves one has to weather, before one reaches the haven of Peace! The greater a man has become, the fiercer ordeal he has had to pass through.  
[Volume 7, Conversations And Dialogues/III /Swamiji has removed the Math from Alambazar to Nilambar Babu's garden at Belur. /खंड 7, वार्तालाप और संवाद / III / स्वामीजी ने मठ को आलमबाजार से हटाकर बेलूर में नीलाम्बर बाबू के बगीचे में स्थापित कर दिया है। 
खण्ड ६/ पेज 88 / 
" लोग तुम्हारी स्तुति करें या निन्दा , लक्ष्मी तुम्हारे ऊपर कृपालु हों या न हों , तुम्हारा देहांत आज हो या एक युग में , तुम न्यायपथ से कभी भ्रष्ट न होना। कितने ही तूफान पार करने पर मनुष्य शांति के राज्य में पहुँचता है। जो जितना बड़ा हुआ है , उसके लिए उतनी ही कठिन परीक्षा रखी गयी है। "  ]
Men, men, these are wanted: everything else will be ready, but strong, vigorous, believing young men, sincere to the backbone, are wanted. A hundred such & the world becomes  revolutionized. {#CWSV-3 : Lectures from #Colombo to #Almora : My Plan of Campaign}
" मनुष्य , केवल मनुष्य भर चाहिए। बाकी सबकुछ अपनेआप हो जायेगा। आवश्यकता है वीर्यवान , तेजस्वी , श्रद्धासम्पन्न और दृढ़विश्वासी निष्कपट नवयुवकों की।  ऐसे सौ मिल जाएँ , तो संसार का कायाकल्प हो जाये। " मेरी क्रन्तिकारी योजना - ५/११८ /
" अब और रोने की आवश्यकता नहीं। अब अपने पैरों पर खड़े हो जाओ। और मर्द बनो। हमें ऐसे धर्म की आवश्यकता है,जिससे हम मनुष्य बन सकें। हमें ऐसे सिद्धान्तों की जरूरत है , जिससे हम मनुष्य हो सकें। हमें ऐसी सर्वांगसम्पन्न शिक्षा चाहिए , जो हमें मनुष्य बना सके। और यह रही सत्य की कसौटी - जो भी तुमको शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक दृष्टि से दुर्बल बनाये उसे जहर की भांति त्याग दो , उसमें जीवनीशक्ति नहीं है , वह कभी सत्य नहीं हो सकता। सत्य तो बलप्रद है , वह पवित्रता है , वह ज्ञानस्वरूप है।  " मेरी क्रन्तिकारी योजना - ५/१२० /  
==================

The quote “For what is force? — that which moves matter. And what is matter? — that which is moved by force” .... This state of things has been called Maya. It has neither existence nor non-existence. You cannot call it existence, because that only exists which is beyond time and space, which is self-existence. Yet this world satisfies to a certain degree our idea of existence. Therefore it has an apparent existence. appears in The Complete Works of Swami Vivekananda/वॉल्यूम 2/Hints on Practical Spirituality

" This is the first part of the study, the control of the unconscious. The next is to go beyond the conscious. Just as unconscious work is beneath consciousness, so there is another work which is above consciousness. When this superconscious state is reached, man becomes free and divine; death becomes immortality, weakness becomes infinite power, and iron bondage becomes liberty. That is the goal, the infinite realm of the superconscious."