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शुक्रवार, 5 सितंबर 2025

⚜️️मोहि सहित सुभ कीरति तुम्हारी परम प्रीति जो गाइहैं। ⚜️️घटना - 345⚜️️रावण की अन्त्येष्टि और विभीषण का राजतिलक ⚜️️⚜️️Shri Ramcharitmanas Gayan || Episode #345|| ⚜️️⚜️️https://www.shriramcharitmanas.in/p/lanka-kand_25.html

 श्रीरामचरितमानस 

षष्ठ सोपान

[ लंका  काण्ड]

  [ घटना - 345: दोहा -104,105 ,106] 

रावण की अन्त्येष्टि और विभीषण का राजतिलक

रावण का वध हो चुका है। उसके कटे सिर और भुजायें मन्दोदरी के सामने धूल में लिपटी पृथ्वी पर पड़ी हैं। वो विलाप कर रही है। श्रीहरि को तुमने मनुष्य मान लिया ? जन्म से ही तो परद्रोही और पाप में रहे। किन्तु श्रीरघुनाथ ने अपने हाथों तुम्हारा वध करके तुम्हें वो गति प्रदान की जो योगियों के लिए भी दुर्लभ है। ऋषि मुनि तथा देवता प्रभु का रूप निरख सुख और सन्तोष प्राप्त कर रहे हैं। स्त्रियों का विलाप सुनकर विभीषण विचलित हो जाते हैं, तो लक्ष्मण उन्हें धीरज बँधाते हैं। प्रभु का आदेश पाकर विभीषण अपने अग्रज की अन्त्येष्टि करते हैं। क्रियाकर्म के विधिपूर्वक समाप्त हो जाने के बाद , लंका -नरेश के रूप में विभीषण का राजतिलक सम्पन्न होता है -

छंद :

* जान्यो मनुज करि दनुज कानन दहन पावक हरि स्वयं।

जेहि नमत सिव ब्रह्मादि सुर पिय भजेहु नहिं करुनामयं॥

आजन्म ते परद्रोह रत पापौघमय तव तनु अयं।

तुम्हहू दियो निज धाम राम नमामि ब्रह्म निरामयं॥

भावार्थ:-दैत्य रूपी वन को जलाने के लिए अग्निस्वरूप साक्षात्‌ श्री हरि को तुमने मनुष्य करके जाना। शिव और ब्रह्मा आदि देवता जिनको नमस्कार करते हैं, उन करुणामय भगवान्‌ को हे प्रियतम! तुमने नहीं भजा। तुम्हारा यह शरीर जन्म से ही दूसरों से द्रोह करने में तत्पर तथा पाप समूहमय रहा! इतने पर भी जिन निर्विकार ब्रह्म श्री रामजी ने तुमको अपना धाम दिया, उनको मैं नमस्कार करती हूँ।

दोहा :

* अहह नाथ रघुनाथ सम कृपासिंधु नहिं आन।

जोगि बृंद दुर्लभ गति तोहि दीन्हि भगवान॥104॥

भावार्थ:-अहह! नाथ! श्री रघुनाथजी के समान कृपा का समुद्र दूसरा कोई नहीं है, जिन भगवान्‌ ने तुमको वह गति दी, जो योगि समाज को भी दुर्लभ है॥104॥

चौपाई :

* मंदोदरी बचन सुनि काना। सुर मुनि सिद्ध सबन्हि सुख माना॥

अज महेस नारद सनकादी। जे मुनिबर परमारथबादी॥1॥

भावार्थ:-मंदोदरी के वचन कानों में सुनकर देवता, मुनि और सिद्ध सभी ने सुख माना। ब्रह्मा, महादेव, नारद और सनकादि तथा और भी जो परमार्थवादी (परमात्मा के तत्त्व को जानने और कहने वाले) श्रेष्ठ मुनि थे॥1॥

* भरि लोचन रघुपतिहि निहारी। प्रेम मगन सब भए सुखारी॥

रुदन करत देखीं सब नारी। गयउ बिभीषनु मनु दुख भारी॥2॥

भावार्थ:- वे सभी श्री रघुनाथजी को नेत्र भरकर निरखकर प्रेममग्न हो गए और अत्यंत सुखी हुए। अपने घर की सब स्त्रियों को रोती हुई देखकर विभीषणजी के मन में बड़ा भारी दुःख हुआ और वे उनके पास गए॥2॥

* बंधु दसा बिलोकि दुख कीन्हा। तब प्रभु अनुजहि आयसु दीन्हा॥

लछिमन तेहि बहु बिधि समुझायो। बहुरि बिभीषन प्रभु पहिं आयो॥3॥

भावार्थ:-उन्होंने भाई की दशा देखकर दुःख किया। तब प्रभु श्री रामजी ने छोटे भाई को आज्ञा दी (कि जाकर विभीषण को धैर्य बँधाओ)। लक्ष्मणजी ने उन्हें बहुत प्रकार से समझाया। तब विभीषण प्रभु के पास लौट आए॥3॥

* कृपादृष्टि प्रभु ताहि बिलोका। करहु क्रिया परिहरि सब सोका॥

कीन्हि क्रिया प्रभु आयसु मानी। बिधिवत देस काल जियँ जानी॥4॥

भावार्थ:-प्रभु ने उनको कृपापूर्ण दृष्टि से देखा (और कहा-) सब शोक त्यागकर रावण की अंत्येष्टि क्रिया करो। प्रभु की आज्ञा मानकर और हृदय में देश और काल का विचार करके विभीषणजी ने विधिपूर्वक सब क्रिया की॥4॥

दोहा :

* मंदोदरी आदि सब देह तिलांजलि ताहि।

भवन गईं रघुपति गुन गन बरनत मन माहि॥105॥

भावार्थ:- मंदोदरी आदि सब स्त्रियाँ उसे (रावण को) तिलांजलि देकर मन में श्री रघुनाथजी के गुण समूहों का वर्णन करती हुई महल को गईं॥105॥

चौपाई :

* आइ बिभीषन पुनि सिरु नायो। कृपासिंधु तब अनुज बोलायो॥

तुम्ह कपीस अंगद नल नीला। जामवंत मारुति नयसीला॥1॥

सब मिलि जाहु बिभीषन साथा। सारेहु तिलक कहेउ रघुनाथा॥

पिता बचन मैं नगर न आवउँ। आपु सरिस कपि अनुज पठावउँ॥2॥

भावार्थ:-सब क्रिया-कर्म करने के बाद विभीषण ने आकर पुनः सिर नवाया। तब कृपा के समुद्र श्री रामजी ने छोटे भाई लक्ष्मणजी को बुलाया। श्री रघुनाथजी ने कहा कि तुम, वानरराज सुग्रीव, अंगद, नल, नील जाम्बवान्‌ और मारुति सब नीतिनिपुण लोग मिलकर विभीषण के साथ जाओ और उन्हें राजतिलक कर दो। पिताजी के वचनों के कारण मैं नगर में नहीं आ सकता। पर अपने ही समान वानर और छोटे भाई को भेजता हूँ॥1-2॥ 

* तुरत चले कपि सुनि प्रभु बचना। कीन्ही जाइ तिलक की रचना॥

सादर सिंहासन बैठारी। तिलक सारि अस्तुति अनुसारी॥3॥

भावार्थ:- प्रभु के वचन सुनकर वानर तुरंत चले और उन्होंने जाकर राजतिलक की सारी व्यवस्था की। आदर के साथ विभीषण को सिंहासन पर बैठाकर राजतिलक किया और स्तुति की॥3॥

* जोरि पानि सबहीं सिर नाए। सहित बिभीषन प्रभु पहिं आए॥

तब रघुबीर बोलि कपि लीन्हे। कहि प्रिय बचन सुखी सब कीन्हे॥4॥

भावार्थ:-सभी ने हाथ जोड़कर उनको सिर नवाए। तदनन्तर विभीषणजी सहित सब प्रभु के पास आए। तब श्री रघुवीर ने वानरों को बुला लिया और प्रिय वचन कहकर सबको सुखी किया॥4॥

छंद- :

* किए सुखी कहि बानी सुधा सम बल तुम्हारें रिपु हयो।

पायो बिभीषन राज तिहुँ पुर जसु तुम्हारो नित नयो॥

मोहि सहित सुभ कीरति तुम्हारी परम प्रीति जो गाइहैं।

संसार सिंधु अपार पार प्रयास बिनु नर पाइहैं॥

भावार्थ:- भगवान्‌ ने अमृत के समान यह वाणी कहकर सबको सुखी किया कि तुम्हारे ही बल से यह प्रबल शत्रु मारा गया और विभीषण ने राज्य पाया। इसके कारण तुम्हारा यश तीनों लोकों में नित्य नया बना रहेगा। जो लोग मेरे सहित तुम्हारी शुभ कीर्ति को परम प्रेम के साथ गाएँगे, वे बिना ही परिश्रम इस अपार संसार का पार पा जाएँगे।

दोहा :

प्रभु के बचन श्रवन सुनि नहिं अघाहिं कपि पुंज।

बार बार सिर नावहिं गहहिं सकल पद कंज॥106॥

भावार्थ:- प्रभु के वचन कानों से सुनकर वानर समूह तृप्त नहीं होते। वे सब बार-बार सिर नवाते हैं और चरणकमलों को पकड़ते हैं॥106॥

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