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शुक्रवार, 26 सितंबर 2025

⚜️️"ब्रह्मानंद सदा लयलीना। देखत बालक बहुकालीना॥ ~ रामनाम की महिमा !"⚜️️घटना - 366⚜️️'Shri Ramcharitmanas Gayan || Episode #366 || ⚜️️https://www.shriramcharitmanas.in/p/uttar-kand_47.html

 श्रीरामचरितमानस 

सप्तम सोपान

उत्तरकाण्ड

[दोहा -29,30,31]  

'रामनाम की महिमा'

(ब्रह्मानंद सदा लयलीना। देखत बालक बहुकालीना॥)


⚜️️राम राज्य की महिमा और आकर्षण का वर्णन⚜️️

     श्रीराम के राज्य काल में अयोध्या की सुख सम्पदा तथा प्राकृतिक छटा को मात्र अनुपम की संज्ञा दे देना पर्याप्त नहीं है। पक्षीराज गरुड़ को 'रामनाम की महिमा' सुनाते हुए काकभुशुण्डि कहते हैं जब से अवधपुरी में राजा रामचन्द्र के प्रताप का सूर्य उदित हुआ है - 'तीनों लोकों से अज्ञान (अविद्या ?) का नाश हो गया है'मद, मान , मोह और ईर्ष्या का लोप और सुख,  सन्तोष और वैराग्य और विवेक का उदय ' ये है राम राज्य की विशेषता। जिसका आकर्षण सनकादि मुनि तक को खींचकर अयोध्या ले आता है।  
  

छंद :

* बापीं तड़ाग अनूप कूप मनोहरायत सोहहीं।

सोपान सुंदर नीर निर्मल देखि सुर मुनि मोहहीं॥

बहु रंग कंज अनेक खग कूजहिं मधुप गुंजारहीं।

आराम रम्य पिकादि खग रव जनु पथिक हंकारहीं॥

भावार्थ:-अनुपम बावलियाँ, तालाब और मनोहर तथा विशाल कुएँ शोभा दे रहे हैं, जिनकी सुंदर (रत्नों की) सीढ़ियाँ और निर्मल जल देखकर देवता और मुनि तक मोहित हो जाते हैं। (तालाबों में) अनेक रंगों के कमल खिल रहे हैं, अनेकों पक्षी कूज रहे हैं और भौंरे गुंजार कर रहे हैं। (परम) रमणीय बगीचे कोयल आदि पक्षियों की (सुंदर बोली से) मानो राह चलने वालों को बुला रहे हैं।

दोहा :

* रमानाथ जहँ राजा सो पुर बरनि कि जाइ।

अनिमादिक सुख संपदा रहीं अवध सब छाइ॥29॥

भावार्थ:-स्वयं लक्ष्मीपति भगवान्‌ जहाँ राजा हों, उस नगर का कहीं वर्णन किया जा सकता है? अणिमा आदि आठों सिद्धियाँ और समस्त सुख-संपत्तियाँ अयोध्या में छा रही हैं॥29॥

चौपाई :

* जहँ तहँ नर रघुपति गुन गावहिं। बैठि परसपर इहइ सिखावहिं॥

भजहु प्रनत प्रतिपालक रामहि। सोभा सील रूप गुन धामहि॥1॥

भावार्थ:-लोग जहाँ-तहाँ श्री रघुनाथजी के गुण गाते हैं और बैठकर एक-दूसरे को यही सीख देते हैं कि शरणागत का पालन करने वाले श्री रामजी को भजो, शोभा, शील, रूप और गुणों के धाम श्री रघुनाथजी को भजो॥1॥

* जलज बिलोचन स्यामल गातहि। पलक नयन इव सेवक त्रातहि॥

धृत सर रुचिर चाप तूनीरहि। संत कंज बन रबि रनधीरहि॥2॥

भावार्थ:-कमलनयन और साँवले शरीर वाले को भजो। पलक जिस प्रकार नेत्रों की रक्षा करती हैं उसी प्रकार अपने सेवकों की रक्षा करने वाले को भजो। सुंदर बाण, धनुष और तरकस धारण करने वाले को भजो। संत रूपी कमलवन के (खिलाने के) सूर्य रूप रणधीर श्री रामजी को भजो॥2॥

* काल कराल ब्याल खगराजहि। नमत राम अकाम ममता जहि॥

लोभ मोह मृगजूथ किरातहि। मनसिज करि हरि जन सुखदातहि॥3॥

भावार्थ:-कालरूपी भयानक सर्प के भक्षण करने वाले श्री राम रूप गरुड़जी को भजो। निष्कामभाव से प्रणाम करते ही ममता का नाश कर देने वाले श्री रामजी को भजो। लोभ-मोह रूपी हरिनों के समूह के नाश करने वाले श्री राम किरात को भजो। कामदेव रूपी हाथी के लिए सिंह रूप तथा सेवकों को सुख देने वाले श्री राम को भजो॥3॥

* संसय सोक निबिड़ तम भानुहि। दनुज गहन घन दहन कृसानुहि॥

जनकसुता समेत रघुबीरहि। कस न भजहु भंजन भव भीरहि॥4॥

भावार्थ:-संशय और शोक रूपी घने अंधकार का नाश करने वाले श्री राम रूप सूर्य को भजो। राक्षस रूपी घने वन को जलाने वाले श्री राम रूप अग्नि को भजो। जन्म-मृत्यु के भय को नाश करने वाले श्री जानकी समेत श्री रघुवीर को क्यों नहीं भजते?॥4॥

*बहु बासना मसक हिम रासिहि। सदा एकरस अज अबिनासिहि॥

मुनि रंजन भंजन महि भारहि। तुलसिदास के प्रभुहि उदारहि॥5॥

भावार्थ:-बहुत सी वासनाओं रूपी मच्छरों को नाश करने वाले श्री राम रूप हिमराशि (बर्फ के ढेर) को भजो। नित्य एकरस, अजन्मा और अविनाशी श्री रघुनाथजी को भजो। मुनियों को आनंद देने वाले, पृथ्वी का भार उतारने वाले और तुलसीदास के उदार (दयालु) स्वामी श्री रामजी को भजो॥5॥

दोहा :

* एहि बिधि नगर नारि नर करहिं राम गुन गान।

सानुकूल सब पर रहहिं संतत कृपानिधान॥30॥

भावार्थ:-इस प्रकार नगर के स्त्री-पुरुष श्री रामजी का गुण-गान करते हैं और कृपानिधान श्री रामजी सदा सब पर अत्यंत प्रसन्न रहते हैं॥30॥

चौपाई :

* जब ते राम प्रताप खगेसा। उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा॥

पूरि प्रकास रहेउ तिहुँ लोका। बहुतेन्ह सुख बहुतन मन सोका॥1॥

भावार्थ:-(काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे पक्षीराज गरुड़जी! जब से रामप्रताप रूपी अत्यंत प्रचण्ड सूर्य उदित हुआ, तब से तीनों लोकों में पूर्ण प्रकाश भर गया है। इससे बहुतों को सुख और बहुतों के मन में शोक हुआ॥1॥

* जिन्हहि सोक ते कहउँ बखानी। प्रथम अबिद्या निसा नसानी॥

अघ उलूक जहँ तहाँ लुकाने। काम क्रोध कैरव सकुचाने॥2॥ `

भावार्थ:-जिन-जिन को शोक हुआ, उन्हें मैं बखानकर कहता हूँ (सर्वत्र प्रकाश छा जाने से) पहले तो अविद्या रूपी रात्रि नष्ट हो गई। पाप रूपी उल्लू जहाँ-तहाँ छिप गए और काम-क्रोध रूपी कुमुद मुँद गए॥2॥

* बिबिध कर्म गुन काल सुभाउ। ए चकोर सुख लहहिं न काऊ॥

मत्सर मान मोह मद चोरा। इन्ह कर हुनर न कवनिहुँ ओरा॥3॥

भावार्थ:-भाँति-भाँति के (बंधनकारक) कर्म, गुण, काल और स्वभाव- ये चकोर हैं, जो (रामप्रताप रूपी सूर्य के प्रकाश में) कभी सुख नहीं पाते। मत्सर (डाह), मान, मोह और मद रूपी जो चोर हैं, उनका हुनर (कला) भी किसी ओर नहीं चल पाता॥3॥

* धरम तड़ाग ग्यान बिग्याना। ए पंकज बिकसे बिधि नाना॥

सुख संतोष बिराग बिबेका। बिगत सोक ए कोक अनेका॥4॥

भावार्थ:-धर्म रूपी तालाब में ज्ञान, विज्ञान- ये अनेकों प्रकार के कमल खिल उठे। सुख, संतोष, वैराग्य और विवेक- ये अनेकों चकवे शोकरहित हो गए॥4॥

दोहा :

* यह प्रताप रबि जाकें उर जब करइ प्रकास।

पछिले बाढ़हिं प्रथम जे कहे ते पावहिं नास॥31॥

भावार्थ:-यह श्री रामप्रताप रूपी सूर्य जिसके हृदय में जब प्रकाश करता है, तब जिनका वर्णन पीछे से किया गया है, वे (धर्म, ज्ञान, विज्ञान, सुख, संतोष, वैराग्य और विवेक) बढ़ जाते हैं और जिनका वर्णन पहले किया गया है, वे (अविद्या, पाप, काम, क्रोध, कर्म, काल, गुण, स्वभाव आदि) नाश को प्राप्त होते (नष्ट हो जाते) हैं31॥

चौपाई :

* भ्रातन्ह सहित रामु एक बारा। संग परम प्रिय पवनकुमारा॥

सुंदर उपबन देखन गए। सब तरु कुसुमित पल्लव नए॥1॥ 

भावार्थ:-एक बार भाइयों सहित श्री रामचंद्रजी परम प्रिय हनुमान्‌जी को साथ लेकर सुंदर उपवन देखने गए। वहाँ के सब वृक्ष फूले हुए और नए पत्तों से युक्त थे॥1॥

* जानि समय सनकादिक आए। तेज पुंज गुन सील सुहाए॥

ब्रह्मानंद सदा लयलीना। देखत बालक बहुकालीना॥2॥

भावार्थ:-सुअवसर जानकर सनकादि मुनि आए, जो तेज के पुंज, सुंदर गुण और शील से युक्त तथा सदा ब्रह्मानंद में लवलीन रहते हैं। देखने में तो वे बालक लगते हैं, परंतु हैं बहुत समय के॥2॥

*रूप धरें जनु चारिउ बेदा। समदरसी मुनि बिगत बिभेदा॥

आसा बसन ब्यसन यह तिन्हहीं। रघुपति चरित होइ तहँ सुनहीं॥3॥

भावार्थ:-मानो चारों वेद ही बालक रूप धारण किए हों। वे मुनि समदर्शी और भेदरहित हैं। दिशाएँ ही उनके वस्त्र हैं। उनके एक ही व्यसन है कि जहाँ श्री रघुनाथजी की चरित्र कथा होती है वहाँ जाकर वे उसे अवश्य सुनते हैं॥3॥

* तहाँ रहे सनकादि भवानी। जहँ घटसंभव मुनिबर ग्यानी॥

राम कथा मुनिबर बहु बरनी। ग्यान जोनि पावक जिमि अरनी॥4॥

भावार्थ:-(शिवजी कहते हैं-) हे भवानी! सनकादि मुनि वहाँ गए थे (वहीं से चले आ रहे थे) जहाँ ज्ञानी मुनिश्रेष्ठ श्री अगस्त्यजी रहते थे। श्रेष्ठ मुनि ने श्री रामजी की बहुत सी कथाएँ वर्णन की थीं, जो ज्ञान उत्पन्न करने में उसी प्रकार समर्थ हैं, जैसे अरणि लकड़ी से अग्नि उत्पन्न होती है॥4॥

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