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बुधवार, 17 सितंबर 2025

⚜️️हनुमदादि सब बानर बीरा। धरे मनोहर मनुज सरीरा॥1॥⚜️️घटना - 357⚜️️⚜️️Shri Ramcharitmanas Gayan || Episode #357 ||⚜️️⚜️️ https://www.shriramcharitmanas.in/p/uttar-kand_27.html

 श्रीरामचरितमानस 

सप्तम सोपान

उत्तरकाण्ड

[दोहा -7,8] 


श्रीराम से कुटुम्बियों और अयोध्या- वासियों के मिलन का अद्भुत दृश्य 

         अयोध्या में चौदह वर्षों की लम्बी अवधि के बाद कुटुम्बियों तथा अयोध्या- वासियों से श्रीराम के मिलन का अद्भुत दृश्य उपस्थित है। माता कौशल्या एक टक पुत्र को निहार रही हैं। मन में गर्व युक्त सहज उतकण्ठा घुमड़ रही है कि उनके इस कोमल तन पुत्र ने किस प्रकार रावण तथा अन्य भीमकाय राक्षसों को मारा होगा ? श्रीराम , लक्ष्मण और सीता को संग लेकर जब उपस्थित जनसमुदाय महलों की ओर चला तो आकाश से पुष्प वर्षा होने लगी। तोरण द्वारों और वंदनवारों से सजी अयोध्या नगरी में सर्वत्र मंगल छा गया।

चौपाई :

* सासुन्ह सबनि मिली बैदेही । चरनन्हि लाग हरषु अति तेही॥

देहिं असीस बूझि कुसलाता। होइ अचल तुम्हार अहिवाता॥1॥

भावार्थ:-जानकीजी सब सासुओं से मिलीं और उनके चरणों में लगकर उन्हें अत्यंत हर्ष हुआ। सासुएँ कुशल पूछकर आशीष दे रही हैं कि तुम्हारा सुहाग अचल हो॥1॥

* सब रघुपति मुख कमल बिलोकहिं। मंगल जानि नयन जल रोकहिं॥

कनक थार आरती उतारहिं। बार बार प्रभु गात निहारहिं॥2॥

भावार्थ:-सब माताएँ श्री रघुनाथजी का कमल सा मुखड़ा देख रही हैं। (नेत्रों से प्रेम के आँसू उमड़े आते हैं, परंतु) मंगल का समय जानकर वे आँसुओं के जल को नेत्रों में ही रोक रखती हैं। सोने के थाल से आरती उतारती हैं और बार-बार प्रभु के श्री अंगों की ओर देखती हैं॥2॥

* नाना भाँति निछावरि करहीं। परमानंद हरष उर भरहीं॥

कौसल्या पुनि पुनि रघुबीरहि। चितवति कृपासिंधु रनधीरहि॥3॥

भावार्थ:-अनेकों प्रकार से निछावरें करती हैं और हृदय में परमानंद तथा हर्ष भर रही हैं। कौसल्याजी बार-बार कृपा के समुद्र और रणधीर श्री रघुवीर को देख रही हैं॥3॥

* हृदयँ बिचारति बारहिं बारा। कवन भाँति लंकापति मारा॥

अति सुकुमार जुगल मेरे बारे। निसिचर सुभट महाबल भारे॥4॥

भावार्थ:-वे बार-बार हृदय में विचारती हैं कि इन्होंने लंकापति रावण को कैसे मारा? मेरे ये दोनों बच्चे बड़े ही सुकुमार हैं और राक्षस तो ब़ड़े भारी योद्धा और महान्‌ बली थे॥4॥

दोहा :

* लछिमन अरु सीता सहित प्रभुहि बिलोकति मातु।

परमानंद मगन मन पुनि पुनि पुलकित गातु॥7॥

भावार्थ:-लक्ष्मणजी और सीताजी सहित प्रभु श्री रामचंद्रजी को माता देख रही हैं। उनका मन परमानंद में मग्न है और शरीर बार-बार पुलकित हो रहा है॥7॥

चौपाई :

* लंकापति कपीस नल नीला। जामवंत अंगद सुभसीला॥

हनुमदादि सब बानर बीरा। धरे मनोहर मनुज सरीरा॥1॥

भावार्थ:-लंकापति विभीषण, वानरराज सुग्रीव, नल, नील, जाम्बवान्‌ और अंगद तथा हनुमान्‌जी आदि सभी उत्तम स्वभाव वाले वीर वानरों ने मनुष्यों के मनोहर शरीर धारण कर लिए॥1॥

* भरत सनेह सील ब्रत नेमा। सादर सब बरनहिं अति प्रेमा॥

देखि नगरबासिन्ह कै रीती। सकल सराहहिं प्रभु पद प्रीती॥2॥

भावार्थ:-वे सब भरतजी के प्रेम, सुंदर, स्वभाव (त्याग के) व्रत और नियमों की अत्यंत प्रेम से आदरपूर्वक बड़ाई कर रहे हैं और नगर वासियों की (प्रेम, शील और विनय से पूर्ण) रीति देखकर वे सब प्रभु के चरणों में उनके प्रेम की सराहना कर रहे हैं॥2॥

* पुनि रघुपति सब सखा बोलाए। मुनि पद लागहु सकल सिखाए॥

गुर बसिष्ट कुलपूज्य हमारे। इन्ह की कृपाँ दनुज रन मारे॥3॥

भावार्थ:-फिर श्री रघुनाथजी ने सब सखाओं को बुलाया और सबको सिखाया कि मुनि के चरणों में लगो। ये गुरु वशिष्ठजी हमारे कुलभर के पूज्य हैं। इन्हीं की कृपा से रण में राक्षस मारे गए हैं॥3॥

* ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे। भए समर सागर कहँ बेरे॥

मम हित लागि जन्म इन्ह हारे। भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे॥4॥

भावार्थ:-(फिर गुरुजी से कहा-) हे मुनि! सुनिए। ये सब मेरे सखा हैं। ये संग्राम रूपी समुद्र में मेरे लिए बेड़े (जहाज) के समान हुए। मेरे हित के लिए इन्होंने अपने जन्म तक हार दिए (अपने प्राणों तक को होम दिया) ये मुझे भरत से भी अधिक प्रिय हैं॥4॥

* सुनि प्रभु बचन मगन सब भए। निमिष निमिष उपजत सुख नए॥5॥

भावार्थ:-प्रभु के वचन सुनकर सब प्रेम और आनंद में मग्न हो गए। इस प्रकार पल-पल में उन्हें नए-नए सुख उत्पन्न हो रहे हैं॥5॥

दोहा :

* कौसल्या के चरनन्हि पुनि तिन्ह नायउ माथ।

आसिष दीन्हे हरषि तुम्ह प्रिय मम जिमि रघुनाथ॥8 क॥

भावार्थ:-फिर उन लोगों ने कौसल्याजी के चरणों में मस्तक नवाए। कौसल्याजी ने हर्षित होकर आशीषें दीं (और कहा-) तुम मुझे रघुनाथ के समान प्यारे हो॥8 (क)॥

*सुमन बृष्टि नभ संकुल भवन चले सुखकंद।

चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नगर नारि नर बृंद॥8 ख॥

भावार्थ:-आनन्दकन्द श्री रामजी अपने महल को चले, आकाश फूलों की वृष्टि से छा गया। नगर के स्त्री-पुरुषों के समूह अटारियों पर चढ़कर उनके दर्शन कर रहे हैं॥8 (ख)॥

चौपाई :

* कंचन कलस बिचित्र सँवारे। सबहिं धरे सजि निज निज द्वारे॥

बंदनवार पताका केतू। सबन्हि बनाए मंगल हेतू॥1॥

भावार्थ:-सोने के कलशों को विचित्र रीति से (मणि-रत्नादि से) अलंकृत कर और सजाकर सब लोगों ने अपने-अपने दरवाजों पर रख लिया। सब लोगों ने मंगल के लिए बंदनवार, ध्वजा और पताकाएँ लगाईं॥1॥

* बीथीं सकल सुगंध सिंचाई। गजमनि रचि बहु चौक पुराईं।

नाना भाँति सुमंगल साजे। हरषि नगर निसान बहु बाजे॥2॥

भावार्थ:-सारी गलियाँ सुगंधित द्रवों से सिंचाई गईं। गजमुक्ताओं से रचकर बहुत सी चौकें पुराई गईं। अनेकों प्रकार के सुंदर मंगल साज सजाए गए और हर्षपूर्वक नगर में बहुत से डंके बजने लगे॥2॥

* जहँ तहँ नारि निछावरि करहीं। देहिं असीस हरष उर भरहीं॥

कंचन थार आरतीं नाना। जुबतीं सजें करहिं सुभ गाना॥3॥ `

भावार्थ:-स्त्रियाँ जहाँ-तहाँ निछावर कर रही हैं और हृदय में हर्षित होकर आशीर्वाद देती हैं। बहुत सी युवती (सौभाग्यवती) स्त्रियाँ सोने के थालों में अनेकों प्रकार की आरती सजाकर मंगलगान कर रही हैं॥3॥

* करहिं आरती आरतिहर कें। रघुकुल कमल बिपिन दिनकर कें॥

पुर सोभा संपति कल्याना। निगम सेष सारदा बखाना॥4॥

भावार्थ:-वे आर्तिहर (दुःखों को हरने वाले) और सूर्यकुल रूपी कमलवन को प्रफुल्लित करने वाले सूर्य श्री रामजी की आरती कर रही हैं। नगर की शोभा, संपत्ति और कल्याण का वेद, शेषजी और सरस्वतीजी वर्णन करते हैं-॥4॥

* तेउ यह चरित देखि ठगि रहहीं। उमा तासु गुन नर किमि कहहीं॥5॥

भावार्थ:-परंतु वे भी यह चरित्र देखकर ठगे से रह जाते हैं (स्तम्भित हो रहते हैं)। (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! तब भला मनुष्य उनके गुणों को कैसे कह सकते हैं॥5॥  

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