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गुरुवार, 25 सितंबर 2025

⚜️️ ईश्वर- केंद्रित दृष्टि में प्रतिष्ठित हो जाना ही मुक्ति (अविचलता) है⚜️️| Session 24|The Essence of Vivekachudamani| (ब्रह्मानंद सदा लयलीना। देखत बालक बहुकालीना॥) https://www.sadhanapath.in/search?updated-max=2025-09-07🔱🔱https://shlokam.org/texts/vivekachudamani-472-479/

 ⚜️️प्रश्न : आपकी दृष्टि काम पर अटकी है या राम पर ? ⚜️️

(अपरोक्ष ज्ञान का व्यावहारिक प्रयोग 'Practical Application') 

(- परम् पूज्य स्वामी शुद्धिदानन्दा जी महाराज, अध्यक्ष,

अद्वैत आश्रम, मायावती , हिमालय।)   

 

The Essence of Vivekachudamani | Session 24|

परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं,

 निरीहं निराकारमोङ्कारवेद्यम्।

यतो जायते पाल्यते येन विश्वं,

 तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम्॥५॥

ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु।

सह वीर्यं करवावहै।

तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥

ॐ शांति, शांति, शांतिः

     1. अज्ञान की निवृत्ति होने पर शिष्य की वेदांत दृष्टि : शिष्य जब वेदांत दृष्टि या अंतिम दृष्टि, से जीव और जगत को देखता है तो पाता है कि जितने नाम-रूप हैं सभी ईश्वर के ही नामरूप हैं ! (इसी वेदांत दृष्टि में माँ सारदा ने तेलोभेलो मैदान में अपने डकैत माता-पिता को प्राप्त किया था !)     

         विगत सत्र में हमने देखा कि शिष्य शास्त्र और गुरु के द्वारा निर्देशित मार्ग का अनुसरण करने के लिए एकान्त में जाता है (निर्जन में जाता है, कैम्प में जाता है) और वहाँ जाकर श्रवण और मनन करने से उसको परोक्ष ज्ञान तो हो गया। अब वह अपरोक्ष ज्ञान या आत्मसाक्षात्कार प्राप्त करने के लिए निदिध्यासन में या ध्यान (आत्मचिंतन) में मग्न हो जाता है। साक्षात् अपरोक्ष अनुभूति के लिए वो निदिध्यासन में या ध्यान (साक्षी आत्मा मरेगा या स्थूल शरीर ? के चिंतन में) में मग्न हो जाता है। और इस प्रकार निदिध्यासन में साधन-चतुष्टय की ओर अग्रसर रहते हुए -ईश्वर और गुरु के अनुग्रह से वह एक दिन अपने सत्य स्वरुप को पहचान जाता है। (जो परमेश शक्ति महामाया माँ काली के रूप में -सृष्टि, स्थिति, प्रलय का खेल दिखाकर शिव जी ढँकती है अर्थात अपने आवरण शक्ति के द्वारा मनुष्य की विशिष्ट योग्यता नित्य-अनित्य विवेक को सुला देतीं हैं, वही जगतजननी महामाया माँ काली कृपा करके समय -समय पर ज्ञानदायिनी माँ सारदा के रूप में अवतरित होकर गुरु रूप में  वो ही फिर कृपा कर के अपनी संतानों के पापों को स्वयं ग्रहण कर विवेक का मार्ग दिखला देती है।परमेश शक्ति, माँ सारदा और गुरु (श्रीरामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानन्द) के अनुग्रह से उस शिष्य के अज्ञान की जब निवृत्ति हो जाती है, तो उसकी अनुभूति क्या होती है

क्व गतं केन वा नीतं कुत्र लीनमिदं जगत् ।

अधुनैव मया दृष्टं नास्ति किं महाद्भुतम् ॥ ४३८ ॥

जगत कहाँ गया ? किसके द्वारा हटाया गया ? कहाँ लीन हो गया ये जगत ? (किस प्रलय में?) थोड़ी देर पहले तक , जबतक मैं अज्ञान में था , मुझे 'जीव' और जगत दिखाई दे रहा था। अब जब मैंने सत्य का अनुभव कर लिया , तब देख रहा हूँ -कहाँ है जीव और जगत ? नास्ति ! जिव और जगत दोनों नहीं हैं , क्या अद्भुत है ?  क्या अद्भुत है ? अज्ञान में मैं जिसको जीव और जगत समझ रहा था (बिकुआनउआ -समझ रहा था), ज्ञान में मुझे ये अनुभूति हुई कि वह ईश्वर ही है ! ईश्वर से अतिरिक्त यहाँ कुछ भी नहीं है।  ये अनुभूति हुई कि ईश्वर से भिन्न न तो कोई जीव है, न तो कोई जगत है। तो जो भीं दिखाई दे रहा है , ये सब क्या है ? सिर्फ ईश्वर ही है , परब्रह्म परमात्मा ही है। उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। यह वेदांत -वेदों की अंतिम दृष्टि है। तो जितने नामरूप दिखाई दे रहे हैं , वो सब ईश्वर के ही नाम रूप हैं ! तो जितने नाम-रूप यहाँ दिखाई दे रहे हैं, किसके नाम रूप हैं ? ईश्वर के परमात्मा के ही नाम रूप हैं। (4:00)

2mm की चर्म दृष्टि :The effect is not different from its cause !]   
में होता हुआ सा दीखता है : 
   जीव जगत सब ईश्वर ही है, तो यहाँ होना क्या है ? बनना और टूट जाना, बनना और टूट जाना,नाम-रूपों का बनना और टूट जाना -ये महाद्भुतम् ! ईश्वर ही इन सारे बुलबुलों के रूपों में हमको दिख रहा है। रूप बन रहा है , टूट रहा है ,बन रहा है , टूट रहा है। सच्चाई ये है कि कुछ भी नहीं हो रहा है -यहांपर। परम् सत्य ये है कि कुछ भी नहीं हो रहा है। जब ईश्वर ही सब है -तो होना क्या है ? ईश्वर से अतिरिक्त कुछ हैं नहीं -तो होना क्या है ? कुछ भी नहीं हो रहा है। हमको अज्ञान में होता हुआ सा प्रतीत होता है। 
 5. 'काम' एक विकृति है, ये क्यों आती है 
       ईश्वर ही जीव और जगत बन गया है। अविवेक में दृष्टि शरीर (घड़े) पर होगी, विवेक में ईश्वर (मिट्टी) पर। जगत (नाम-रूपों) की शरीर-केंद्रित दृष्टि से नहीं, ईश्वर-केंद्रित दृष्टि से देखो। नाम-रूपों के प्रति हमारी दो दृष्टि हो सकती है। अज्ञान में हमारी दृष्टि स्थूल रूपों (घड़े)  पर टिकी हुई है। ज्ञान में हमारी दृष्टि ईश्वर (मिट्टी) पर टिकी हुई होती हैजब दृष्टि स्थूल शरीरों पर टिकी हुई है , तब हमारा व्यवहार एक प्रकार का होता है। मन में सारी विकृतियां (राग-आसक्ति -मोह या घृणा) उसी से उत्पन्न होती हैं। जब हमारी दृष्टि शरीर केंद्रित होती हैं, मन में सारी विकृतियाँ उसी से उत्पन्न होती हैं। काम ,क्रोध, लोभ, मद-मोह -मात्सर्य ,सारी विकृतियाँ उसी से उतपन्न होती हैं। 'काम' एक विकृति है। ये क्यों आती है ? काम-लोभ -यश रूपी विकृति या ऐषणा तभी उत्पन्न होता है , जब हमारी दृष्टि शरीर-केंद्रित होती है। (12:24) क्योंकि जब शरीर केंद्रित दृष्टि होगी -तभी आप कहेंगे कि ये M/F है - ये पुरुष है ये स्त्री है। तब मन में सब प्रकार की विकृतियां आती हैं। जब हम ईश्वर को शरीर केंद्रित दृष्टि, स्त्री-पुरुष देखते हैं उस वक्त क्या हम अज्ञान में बंध नहीं जाते है ? [नारद का माया दर्शन नहीं हो रहस्य ?] और वही दृष्टि जब ईश्वर केंद्रित होती है- फिर विकृतियाँ आ सकती हैं क्या ? आप देख रहे हैं उसी रूप को , लेकिन अब आपकी दृष्टि उस बाह्य स्थूल शरीर को नहीं देख रही , कहीं और-आत्मा या ईश्वर में टिकी है। तब मन में कोई विकृति आ सकती है क्या ? 

  6. पाठचक्र- स्वाध्याय-शिविर का अंतिम उद्देश्य है 'राम-केन्द्रित दृष्टि' को जगाना  :
     जहाँ काम होगा वहाँ राम नहीं होगा : This is matter to be experienced ! इसको practice करके देखिये। यह अनुभव करने योग्य बात है, पर चिपकियेगा नहीं ! जहाँ दृष्टि ईश्वर (कारण-शरीर अव्यक्त नाम्नी परमेश शक्ति, ज्ञानदायिनी माँ सारदा) में टिकी हुई है; अथवा जहाँ दृष्टि राम में टिकी हुई है वहाँ काम नहीं आ सकता ! यही मुक्ति है  गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है -
जहाँ राम तहँ काम नहिं, जहाँ काम नहिं राम । 
तुलसी कबहूँ होत नहिं, रवि रजनी इक ठाम ।। 
 
     सभी महापुरुषों की वाणी एक समान होती है। प्रश्न ये है कि आपकी दृष्टि कहाँ पर टिकी हुई है ? जब तक आपकी दृष्टि शरीर केन्द्रित होगी , तब तक उस दृष्टि में काम ही होगा। आप उस शरीर में चिपकने से बच नहीं सकते हो। लेकिन आपकी दृष्टि यदि राम-केन्द्रित हो , तो काम रूपी विकृति से हमारा अन्तःकरण मुक्त होता है। यही मुक्ति का लक्षण है !
 इस विवेक-चर्चा का अंतिम निर्णय है इस 'राम केंद्रित दृष्टि' को जगाना, इस ईश्वर-दृष्टि को जगाना। इस पूरे विगत के 23 सत्रों में विवेक-चूड़ामणि शास्त्र चर्चा के माध्यम से उस ईश्वर दृष्टि को जगाने का ही यह प्रयास चल रहा था। लेकिन यह स्वाध्याय निरंतर चलता रहना चाहिए(14:00) इस राम केन्द्रित दृष्टि को अपने जीवन में धारण करने के उद्देश्य से ही प्रतिदिन स्वाध्याय करना चाहिए। इसे केवल कुछ खास दिनों के लिए छोड़ना नहीं चाहिए। बल्कि आज से ही बहुत सावधानी पूर्वक दैनंदिन जीवन का सारा व्यवहार हमें अपने इस 'राम'-केन्द्रित दृष्टि या 'ईश्वर'-केंद्रित दृष्टि ('अल्ला' केंद्रित दृष्टि) को जाग्रत रखते हुए करने का अभ्यास शुरू कर देना चाहिए। जब तक हम देह-दृष्टि में प्रतिष्ठित हैं, तब तक हमारा व्यवहार एक प्रकार का (चिपकने वाला ?) होगा। और यदि ईश्वर दृष्टि में प्रतिष्ठित हो तो आपका व्यवहार बिल्कुल ही भिन्न प्रकार का होगा। वो अलग प्रकार का व्यवहार ही है। यदि हम जीव-जगत को ईश्वर-दृष्टि ,अल्ला-दृष्टि' 'राम-दृष्टि से देखने के अभ्यास (आदत -प्रवृत्ति) में प्रतिष्ठित हैं तो हमारा व्यवहार दूसरे प्रकार का होगा। अर्थात हमारी आदत या प्रवृत्ति ही राम-ज्ञान से ईश्वर-ज्ञान से,अल्ला-ज्ञान से या शिव ज्ञान से जीव सेवा करने की हो जाएगी।
 
  7.ईश्वर- केंद्रित दृष्टि में प्रतिष्ठित हो जाना ही मुक्ति (अविचलता) है : 
अब आप अपरोक्ष ज्ञान (विवेकज-ज्ञान) का  'Practical Application' ( व्यावहारिक अनुप्रयोग) देख लीजिये।  शिविर-समापन के बाद,या साप्ताहिक पाठचक्र के बाद अब यहाँ से आपको जाना कहाँ है ? आपको अपने उसी परिवार के बीच जाना है। अपने परिवार के सभी सदस्यों को, भाई-बहन, पुत्र-पुत्री पत्नी, सबको शरीर-केंद्रित दृष्टि से नहीं देख कर ईश्वर -केंद्रित दृष्टि से देखने की आदत बना लेनी होगी, प्रवृत्ति बना लेनी है। अपनी देह-केंद्रित दृष्टि को राम-केन्द्रित दृष्टि में बदल लेने को ही त्याग कहते हैं। (14:29) यही त्याग है। त्याग का अर्थ दृष्टि को बदलना है -देह केंद्रित दृष्टि का त्याग करके ईश्वर केंद्रित दृष्टि में प्रतिष्ठित होना है।   यही मुक्ति है। सम्पूर्ण गीता में इसी त्याग की बात कही गयी है।   
 
        अब चलो इस त्याग और वैराग्य के तात्पर्य को समझने का प्रयास करते हैं । त्याग का मतलब क्या आपको घर-गृहस्थी छोड़ देना है ? नहीं ! अपरोक्षानुभूति होने के बाद आपने क्या छोड़ दिया ? विवेक दृष्टि जाग जाने पर आपसे क्या छूट गया ? आपने उस देह-दृष्टि का त्याग कर दिया ! आपने अब मनुष्य को M/F की शरीर दृष्टि से देखना छोड़ दिया- देहदृष्टि को छोड़ देना ही त्याग है ! 'त्याग' शब्द सुनकर लोग डर जाते हैं। आपको घर-गृहस्थी से कहीं भागना नहीं है। ऐसा नहीं है कि आपको घर-गृहस्थी छोड़ के कहीं जंगल में भाग जाना हो। क्या छोड़ना है ? गलत दृष्टि को छोड़ना है। यह शरीर-केंद्रित जो दृष्टि है उसको छोड़कर के ईश्वर-केंद्रित दृष्टि का अवलम्बन करना है।  पुनः-पुनः अभ्यास के द्वारा राम-दृष्टि में प्रतिष्ठित रहने की आदत बना लेनी है, उसकी प्रवृत्ति बना लेनी है। यही त्याग है। जब देह-केंद्रित दृष्टि को हम छोड़ देते हैं , तो उससे सम्बंधित जितनी विकृतियाँ हैं , जितनी बीमारियाँ है - वह सब अपने-आप ही छूट जाती हैं और जब कोई मनुष्य स्वाभाविक रूप से ईश्वर-केन्द्रित दृष्टि में प्रतिष्ठित हो जाता है , तो उससे सम्बन्धित उसके जितने व्यवहार होंगे -उसी में सुख है , उसी में परमानन्द है, उसी में मुक्ति है। उसी में तृप्ति है। उसी में पूर्णता (अविचलता ?) है। (15:31और तब ईश्वर से सम्बन्धित जितने (24) गुण हैं , वो हम प्राप्त कर लेते हैं ! लेकिन शरीर केन्द्रित दृष्टि हो तब शरीर से सबंधित जितनी बीमारियाँ हैं, जितनी विकृतियाँ हैं , हम उस बीमारी में ही ग्रस्त रहते हैं। हम अपने -पराये के भ्रम में जलते रहते हैं। तो देखिये ये दो दृष्टि (नजर) से जगत को देखने की बात है। 
          इस प्रकार त्याग क्या है ? ये जो देह-केंद्रित हमारी जो दृष्टि है उससे ऊपर उठना, और ईश्वर-केंद्रित दृष्टि में प्रतिष्ठित होना यही त्याग है। (ठाकुर कहते थे गीता को उलट कर तागी कर दो -त्याग ही गीता की शिक्षा है।) लेकिन प्रचलित शिक्षा-व्यवस्था में इस दृष्टि -परिवर्तन के अभ्यास द्वारा चिरत्र-निर्माण और जीवन गठन की शिक्षा नहीं दी जाती है। इसीलिए 'त्याग' की बात सुनकर लोग डर जाते हैं। सोंचने लगते हैं -अभी क्या मैं अपने माँ -बाप को छोड़ दूँ ? अब कोई पति है , तो वो अपनी पत्नी को छोड़ देगा ? त्याग का ऐसा अर्थ नहीं है। या कोई पत्नी है -तो क्या वो अपने पति को छोड़कर कहीं भाग जायेगी ? ऐसा नहीं करना है। त्याग का अर्थ दृष्टि को बदलना है। अब पति के लिए पत्नी को देखने की कोई देह-केन्द्रित दृष्टि नहीं होगी , ईश्वर-केंद्रित दृष्टि होगी। और पत्नी के लिए भी पति के प्रति राम-केंद्रित दृष्टि होगी। उसी प्रकार हमारे, माता-पिता , भाई-बहन और बच्चे। पुत्र -पुत्री, नाती-पोता, सगे-सम्बन्धी, सहकर्मी या सेवाकर्मी सभी के प्रति जब आपकी ईश्वर-दृष्टि होगी तो आपका व्यवहार कैसा होगा ? अब आपके व्यवहार में अब काम रूपी सभी विकृतियों का अभाव ही होगा। और उसमें परमानन्द होगा ! (16:42)
8. ईश्वर -केंद्रित दृष्टि में प्रतिष्ठित हो जाने का मापदण्ड : राम या काम
      जो व्यक्ति गृहस्थ होते हुए भी ईश्वर-केंद्रित दृष्टि में प्रतिष्ठित हो जाता है, उसका तो गृहस्थ जीवन जो है-वही अपने आप में आश्रम बन जाता है। तो देखिये शंकराचार्य जी यहाँ गृहस्थाश्रम की बात कर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि सिर्फ रामकृष्ण-आश्रम है , दृष्टि बदल जाने से अपना घर ही आश्रम बन जाता है। जब ईश्वर-केंद्रित हमारा जीवन होता है , तो हमारा घर ही आश्रम बन जाता है। वही है गृहस्थाश्रम ! त्याग की महिमा को समझ रहे हैं ? त्याग का मतलब कहीं भागना नहीं है। स्थूल शरीर के स्तर पर-वेशभूषा, आहार-विहार में कुछ परिवर्तन नहीं करना है , लेकिन जब आप ईश्वर-दृष्टि में प्रतिष्ठित हो जाओगे तो आपकी पहचान क्या होगी ?
    ये प्रश्न उठ सकता है कि हमारी दृष्टि ईश्वर-केंद्रीत हो गयी है नहीं ? -इसका मापदण्ड क्या हो सकता है ? वैसे तो मैं अपने मन ही मन में सोंच सकता हूँ कि हाँ मुझे तो अपरोक्षानुभूति हो गयी है, और मेरी दृष्टि तो हमेशा ईश्वर-केन्द्रित ही रहेगी। लेकिन आपकी ईश्वर-केंद्रित दृष्टि हुई या नहीं -इस बात को कैसे परखेंगे आप ? इस ईश्वर-केंद्रित दृष्टि का मापदण्ड क्या हो सकता है? (17:32) उसका माप दण्ड यह है कि उस व्यक्ति के अंदर अब काम रूपी विकृति जो है -वह कम होती जाएगी, और धीरे-धीरे घटती जाएगी। ये उसका मापदण्ड है। आपकी दृष्टि जितना ईश्वर केंद्रित होगा , वहाँ पर फिर कामरूपी विकृति जो है वो काम नहीं कर सकता। यही राम-केंद्रित दृष्टि का मापदण्ड है। क्योंकि जहाँ ईश्वर है , जहाँ राम है -ये काम असम्भव है। ये दोनों एक दूसरे को मार देते हैं। (चाहे राम रहेंगे या काम रहेगा !) और जहाँ कोई (साधक होकर भी) कामाग्नि में जल रहा है, आप यदि काम अग्नि में डूबे हुए हो, वहां राम दूर-दूर तक नजर नहीं आयेंगे -असम्भव ! इन दो चीजों का एक साथ रहना असम्भव है। समझ रहे हो ? क्यों ? हमारी संस्कृति में (जगतगुरु श्रीरामकृष्ण -नरेन्द्रनाथ दत्त परम्परा में) परमहंस रामकृष्ण देव के उपदेशों को (श्रीरामकृष्ण वचनामृत को) जब आप पढ़ेंगे तो देखेंगे परमहंस रामकृष्णदेव हर पन्ने पर-काम का त्याग, काम का त्याग ,हर पन्ने पर कहते हैं, काम का त्याग- ही त्याग है। काम का त्याग ही त्याग है ! 
    9. काम का त्याग ईश्वर की कृपा से ही होता है :   लेकिन काम का त्याग क्या इतनी आसानी से होगा ? कौन कर सकता है ? (हाथ ऊपर करके) वो ईश्वर की कृपा से ही होता है। जब ईश्वर की कृपा से , इस पगली माई की कृपा से, (ज्ञानदायिनी माँ सारदा कुष्माण्डा माता की कृपा से) जब हमारी बुद्धि ईश्वर-दृष्टि में प्रतिष्ठित लगती है , तब धीरे धीरे हम काम से ऊपर उठना शुरू करते हैं। हो सकता है -हम कई बार गिर जाएँ ! पर कोई बात नहीं -ये एक दिन में सफल नहीं होने वाला है। हम कई बार विफल हो जाएँ -कोई बात नहीं। लेकिन ये प्रक्रिया चलनी चाहिए। कोई भी मनुष्य एक दिन में Perfect नहीं होता। 
       लेकिन काम से ऊपर उठने का मार्ग यही है - देह-केंद्रित दृष्टि को ईश्वर-केंद्रित दृष्टि में बदलने का अभ्यास करते रहना। कामाग्नि में गिरना यानि उस गड्ढे में गिरना , जिसका तल है ही नहीं। उस कामाग्नि में व्यक्ति जल जायेगा, उसका जीवन खत्म हो जायेगा। लेकिन कहीं भी हम पहुँचेंगे नहीं ! और इस शरीर दृष्टि से ऊपर उठने का मार्ग क्या है ? दृष्टि देह से हटाकर के ईश्वर-केंद्रित -दृष्टि को लाना। स्थूल शरीर के भीतर और पीछे अंदर झाँक कर देखिये , थोड़ा सा गहराई से देखने का अभ्यास कीजिये।  तो आपको दिखाई देगा -इस स्थूल शरीर के अंदर -ईश्वर (त्रिगुणात्मिका माया के त्रिगुणों में से कोई एक गुण-रजोगुण ?) ही तो बैठे हुए है! 
    उस ईश्वर में दृष्टि को केन्द्रीभूत करके जब आप व्यवहार करोगे , तो आप सभी प्रकार की शारीरिक-मानसिक समस्याओं से आप बच जाओगे। उससे जो आनन्द होगा, आप अभी उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। स्वभाव से ही आप तृप्त रहोगे , स्वभाव से ही आप आनंदित रहोगे हर समय अन्तःकरण में एक पूर्णता (अविचलता) की भाव होगी। आपको कुछ करना नहीं पड़ेगा। बड़ा अद्भुत दृष्टि है। 
   10. दो प्रकार की दृष्टि का फल या परिणाम - 
     सभी महापुरुष आपको पूर्ण सन्तुष्ट और आनन्द में क्यों दीखते हैं ? आप इन महापुरुषों के चित्र को ही देखो न ! इस विवेक-चूड़ामणि ग्रन्थ को पढ़ते वक्त इन महापुरुषों को सोंच लेना चाहिए। ये ऐसे क्यों हैं ? (20:02) सभी महापुरुषों की दृष्टि शरीर में नहीं, शरीर के भीतर और पीछे ईश्वर में प्रतिष्ठित रहती है। अच्छा हम ऐसे क्यों हैं ? समझ रहे हो? हम ऐसे क्यों हैं ? और ये महापुरुष ऐसे क्यों हैं ? क्या उनके दो हाथ दो पैर नहीं हैं ? हमारे भी तो दो हाथ दो पैर ही हैं ! है कि नहीं ? लेकिन क्या अन्तर है ? उनके अन्दर ये कोई भी विकृतियाँ (काम,क्रोध,लोभ,मोह, मद और मात्सर्य में से एक भी विकृति) नहीं हैं। क्यों नहीं है ? वे कहाँ प्रतिष्ठित हैं ? वे ईश्वर में प्रतिष्ठित हैं ! वे ईश्वर में (अपने सत्यस्वरूप में) प्रतिष्ठित हैं। हमारे अन्दर ये विकृतियाँ भरी हुई हैं। क्यों ? हम शरीर में प्रतिष्ठित हैं। हम उस शरीर में प्रतिष्ठित हैं जो अनित्य है मिथ्या है ! 

11. नेता के प्रेमस्वरुप होने का रहस्य
 तो इन दो प्रकार की दृष्टि के फल को समझ लेने के बाद अंतिम निर्णय यह है कि, ये जो भी नाम और रूप हमको दिखाई दे रहे हैं , इन सभी नाम-रूपों में एक ईश्वर ही है। जो इतने रूपों में खेल रही है। एक नारायण ही हैं -जो इतने रूपों में खेल रही है। ये नारायण का खेल चल रहा है -ऐसा देखियेये नारायण प्रभु परमेश्वर का खेल चल रहा है। जीवन-मृत्यु रूप खेल ,सृष्टि-स्थिति -प्रलय रूपी खेल, सुख-दुःख रूपी खेल , ईश्वर ही सभी रूपों में यहाँ पर है। कितनी सुन्दर दृष्टि है ये सभी भक्तों की और ज्ञानियों की दृष्टि है। वे महापुरुष इसी प्रकार की दृष्टि से जगत को देखते हैं। इस प्रकार की दृष्टि वाले किसी व्यक्ति मन जो है -या ह्रदय जो है वो प्रेम से भरा हुआ होता है। क्योंकि ज्ञानी और भक्त  सर्वत्र एक ईश्वर को ही देख रहा है। यही प्रेम का रहस्य है! यही तो प्यार है! This is what is love ! you understand ? Which is completely based on the body ideas, the Gender ideas, is that love ? That is pure attachment! That is pure darkness ! समझ रहे हो?
12. देह-दृष्टि फिर न लौटे - इसलिए चिपकना सख्त मना है :  
 लेकिन जो दृष्टि पूरी तरह से शरीर-केंद्रित और लिंग के विचारों पर आधारित हो, क्या वो प्यार है? वो शुद्ध आसक्ति है! वो शुद्ध अंधकार है! उससे सावधान रहो।  तुम्हें सावधान रहना ही होगा!  Be careful about that .You have to Be Careful ! (-and Make others Careful )! तो वो जो attachment है , वो आसक्ति है, उसी आसक्ति से बचना चाहिए। यह बात- "चिपकना मना है", इस समय सुनने में थोड़ा अच्छा लग रहा होगा। लेकिन इसको अपने चिंतन-और व्यवहार में अपना लेना -बहुत बड़ी बात है। सबसे बड़ी बात है It has to be taken very seriously! इसे बहुत गंभीरता से लिया जाना चाहिए ! तो Ultimately या अन्त में आप देखोगे ; व्यवहार में जब हम इस आचरण को उतारने का अभ्यास करेंगे , उस समय हमें इस बात की सावधानी बरतनी है , की चिपकना सख्त मना है-Sticking is strictly prohibited ! क्योंकि Sticking होती क्यों है ? जब हमारी दृष्टि शरीर केंद्रित होती है ,तभी इस Sticking के भँवर में हम फँस जाते हैं। ईश्वर केंद्रित हमारी दृष्टि होगी तो , आप इस Sticking रूपी बीमारी से ऊपर उठ जाते हो। तब आप Non stick हो जाते हो। Non stick pan होता है न ? जिसमें आप कुछ भी डालो कुछ नहीं चिपकता। तब हमलोग वैसा हो जायेंगे। ये कुछ व्यावहारिक बातें अपरोक्षानुभूति से जुड़ी हुई थीं !
13. ईश्वर -केंद्रित दृष्टि (आत्मा) में प्रतिष्ठित होने फल :  
  जैसे ये दृष्टि तब आती है जब आपको पता होता है कि आप आत्मा हो। अगर किसी Student को पता होता है कि वो आत्मा है ;तो और भी बेहतरीन Student बनेगा ! किसी डॉक्टर को यदि पता हो कि वो आत्मा है -तो वह और भी हजारगुना ज्यादा बेहतरीन डॉक्टर बनेगा। कोई लॉयर या इंजीनियर है , आप जिस किसी भी प्रोफेसन में हो और अगर आपको पता हो गया कि आप आत्मा हो , आप यदि एक बार ईश्वर-केंद्रित दृष्टि में प्रतिष्ठित हो गए, तो आपके अंदर जो क्षमतायें हैं , वो 1000 गुना और भी बढ़ जायेंगी। ऐसा क्यों होता है ? एक Student की ही बात लेते हैं। Student की दृष्टि अगर ईश्वर-केंद्रित हो , या फिर उसकी दृष्टि अगर देह -केंद्रित हो ? अगर Student अपने को सिर्फ एक शरीर बोलकर ही जानेगा , तो शरीर से सम्बन्धित जितनी काम की विकृतियाँ हैं , उसके मन में उठता ही रहेगा। उस छात्र की पढाई में सबसे बड़ी बाधा यह काम की विकृति ही है। कोई शक ? (23:52) 
14. छात्रों का मन एकाग्र क्यों नहीं होता
   क्या यह विचारणीय विषय नहीं है? बच्चे प्रश्न करते हैं - मन एकाग्र क्यों नहीं होता ? गार्जियन बता नहीं पाते कि पढाई की ओर ध्यान क्यों नहीं जाता है ? ध्यान पढ़ाई पर क्यों नहीं जाता ? इस काम-विकृति के कारण ही Student- छात्र-छात्रायें  पढ़ नहीं पाते हैं  अपने मन को पढाई पर focus नहीं कर पाते हैं , मन को एकाग्र नहीं कर पाते हैं। यह एक गहन मनोविज्ञान है। It is a profound psychology! Is this not a point to ponder (24:09) क्यों जायेगा ? क्योंकि मन का तो अपहरण हो गया। Because the mind has been kidnapped ! मन का अपहरण किसने किया है ? काम ने किया है ! ये सच्चाई है कि नहीं ? बताइये मुझे ? युवा पीढ़ी की कितनी बड़ी सच्चाई है ? काम रूपी राक्षस के द्वारा उसके मन का अपहरण हो गया है। और काम रूपी राक्षस तब तक काम करेगा , जब तक आपकी दृष्टि देह केंद्रित है। जब तक आप सिर्फ स्त्री-पुरुष,स्त्री-पुरुष , स्त्री-पुरुष ,स्त्री-पुरुष , देखते रहते हैं ,तब तक तो आप इस काम रूपी राक्षस से बच नहीं सकते हो ! समझ रहे हो ? और वही Student उसके अंदर अगर यह बुद्धि आ जाती है कि मैं यह शरीर नहीं -वो आत्मा हूँ ? वो ईश्वर-दृष्टि आ जाती है , तब काम की विकृति या तो शुरुआत में कम होने लगेगी या धीरे-धीरे वो काम पूरी तरह से शांत हो जाएगी। अब बताओ उसके पढाई ने क्या बाधा आ सकती है ? (25 :00Will there be any any obstacle in the study of that student ? क्या अब उस छात्र की पढ़ाई में कोई बाधा आएगी? उसका मन कितना एकाग्र होगा ? समझ रहे हो ? 
           इसी प्रकार अब कोई डॉक्टर है , उस डॉक्टर की दृष्टि अगर देह केंद्रित हो अपने आप को देह समझ रहा हो ? तो वह डॉक्टर कभी भी निःस्वार्थ नहीं हो सकता। वो डॉक्टरी कर क्यों रहा है ? वो डॉक्टरी कर रहा है तो सिर्फ धन अर्जन करने के लिए। वो लूटेगा रोगी को।  वैसे बहुत से अच्छे -अच्छे डॉक्टर्स भी हैं। लेकिन Generally - जो Medical Professional होते हैं - हम जानते हैं , इस क्षेत्र में कितना लूट चलता है। निर्दय होकर के गरीबों का खून चूस लेते हैं। जरा सी भी दया नहीं है ? कि भाई सामने वाला मरीज के पास पैसा नहीं है ; उसको भी Exploit करते हैं , गरीबों का भी शोषण करते हैं। पैसा नहीं है - तो सोना-चाँदी का गहना रखवाकर ईलाज करेगा। उसको क्या क्या test करने बोलेगा ? क्यों ऐसा होता है ? मैं शरीर हूँ और ये सब कुछ मेरा स्वार्थ है। अब उसी डॉक्टर के अंदर अगर आत्मदृष्टि हो , ईश्वर दृष्टि हो तो वो रोगी के अंदर भी नारायण देखता है , ईश्वर देखता है। तब वह किस प्रकार डॉक्टर होगा ? He will be the best Doctor, He will be able to deliver the best .Is it not ? वह सबसे अच्छा डॉक्टर होगा, वह सबसे अच्छा इलाज करने में सक्षम होगा। क्या ऐसा नहीं है?
     See the practical application of this truth ! इस सत्य का व्यावहारिक अनुप्रयोग देखें। सत्य दृष्टि में , आत्मदृष्टि में , ईश्वर दृष्टि में केंद्रित रहने से आपका  Profession जो भी हो , You will be the best , you will be excellent in that field .आप सर्वश्रेष्ठ होंगे, आप उस क्षेत्र में सबसे उत्कृष्ट होंगे। और मिथ्या दृष्टि में आपकी शक्तियाँ संकुचित हो जाती हैं। सीमित हो जाती है। आप स्वार्थी हो जाते हो। सबकुछ संकुचित हो जाता है। और जब आत्मदृष्टि आती है , उस दृष्टि में आपकी सम्भावनाओं और योग्यताओं की कोई सीमा नहीं है। ये इस अपरोक्षानुभिति का, वेदांत का व्यवहारिक उपयोग है। Is this not the point to ponder ? क्या यह विचारणीय बिन्दु नहीं है? ये सब आपको अपने दैनन्दिन जीवन में परख कर के देखना होगा। ऐसी आत्मदृष्टि रहने से मेरा अपना जीवन कितना सुंदर हो जायेगा ! और क्या ? अब आप जा सकते हो। सब शिक्षा तो पूरी हो गयी न ?(27:00
15.सनातन हिन्दू जीवन-पद्धति का वर्णाश्रम धर्म :  
        अच्छा शरीर-केंद्रित दृष्टि के परिणाम स्वरुप उत्पन्न आसक्ति या राग के विषय में एक कहानी बाकि है। 'चिपकना मना है' के चेतावनी वाक्य के ऊपर ही पुराणों की यह कहानी आधारित है। Sticking is strictly prohibited! चिपकना सख्त मना है ! क्योंकि Sticking is that what kills us . क्योंकि चिपकना ही वह चीज है जो हमें (सत्य दृष्टि को राम -दृष्टि को) मार देती है। तो आदमी जब चिपक जाता है , तो कैसे बंध जाता है। ये हमने समझा कि एक बुलबुला जब दूसरे बुलबुले से चिपक जाता है -तो उसका अंजाम क्या क्या हो सकता है। और इस चिपकने की बीमारी के जड़ में सिर्फ अज्ञान ही है , अविवेक ही है और कुछ नहीं है। 
    तो अब हमारे हिन्दू सनातन धर्म की संस्कृति में -( वर्णाश्रम धर्म में )आप लोग जानते हो कि जीवन को चार भागों में विभाजित कर दिया है। यही हमारा आदर्श जीवन था। ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम , वानप्रस्थ आश्रम और संन्यास आश्रम। ये परम्परा हमारे देश में अनादिकाल से चल रहा है। अभी पिछले 100 -150 सालों में ही यह बंद हुआ है। जब से पाश्चात्य संस्कृति यहाँ घुस गयी है, तब से ये सब विचार हमसे छूट गयी हैं। हमारी जो एक आदर्श जीवनशैली थी , उसको हमने हटा दिया और पाश्चात्य संस्कृति हमने अपना लिया। पाश्चात्य शिक्षा पद्धति को हमने अपना लिया, इसलिए आज के बच्चों को ये सब आदर्श-जीवनशैली के बारे में कुछ भी पता नहीं है। इसमें उनका दोष नहीं है , हमने एक ऐसे system को अपना लिया है, इसीलिए भावी पीढ़ी को अपनी आदर्श संस्कृति के विषय में कुछ पता ही नहीं है। (29:00
हम सिर्फ नाम के हिन्दू ही रह गए हैं। This is another big irony. ये एक दूसरी बड़ी विडंबना (irony) या अदृष्टविधान है। आप देखोगे 99 % हिन्दुओं को ये पता ही नहीं है कि हिन्दू धर्म क्या है ? हमें अपने धर्म के सिद्धान्तों के विषय में कुछ भी पता  नहीं है, यही इसका सबसे दुखद पहलू है। ये सच्चाई है कि नहीं ? We have no idea , that is the saddest part of it . और आज के बच्चे ऐसे बड़े हो रहे हैं , कि वे लोग हिन्दू विरोधी हो रहे हैंये सबसे खतरनाक चीज है , क्योंकि पाश्चात्य शिक्षा  ने उनका Brainwash कर दिया है , उनकी बुद्धि भ्र्ष्ट कर दी है। उनको पट्टी पढ़ा दी है। उनको अपने ग्रंथों के बारे में कुछ भी पता नहीं है , क्योंकि उनका जबरदस्ती मतपरिवर्तन कर दिया है। अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति और पाश्चात्य विचारधारा से बच्चों का इस प्रकार से Brainwash कर दिया है , वे हिन्दू विचारधारा से , हिन्दू सिद्धांतों से विद्वेष करने लगे हैं। अपने ही धर्म को तुच्छ नजरों से देखने लगते हैं। ये विडंबना है। 
जो भी हो , लेकिन अनादि काल से हमारे देश की संस्कृति की जीवनशैली इस प्रकार की थी कि जीवन का चार विभाग है ! ब्रह्मचर्य आश्रम में जो प्रथम 25 वर्ष होते हैं -जीवन का वह भाग विद्या ग्रहण के लिए होता है। जिस भाग में लड़का और लड़की दोनों ही जो विद्यार्थी हैं ,वे ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। ब्रह्मचर्य का पालन आप समझ रहे हैं ? काम-भोग से ऊपर। क्योंकि वह समय कामभोग के लिए नहीं है , जीवन का वो कालखण्ड सिर्फ विद्यार्जन के लिए है। एकाग्रता का अभ्यास सीखकर , एकाग्रचित्त से शिक्षण ग्रहण करे , और
 हमारे यहाँ पर शिक्षण का पाठ्यक्रम कैसा होता था ? A blend of physics and spiritual science !उस प्रशिक्षण पद्धति का curriculum भौतिक-विज्ञान और आध्यात्मिक विज्ञान का मिश्रण होता था। क्योंकि यही श्रीरामकृष्ण -नरेन्द्रनाथ हिन्दू गुरु-शिष्य परम्परा की आदर्श शिक्षण पद्धति है ! और उसमे अध्यात्मविद्या (spiritual science ,अष्टांगयोग या राजयोग का प्रशिक्षण) ही प्रधान होती थी। और भौतिक विज्ञान भी पढ़ाया जाता था। हमारे देश में ही तो सबकुछ आविष्कृत होता था। खगोल विज्ञान, भौतिकी, ज्यामिति, बीजगणित - Astronomy, Physics, Geometry, Algebra -सब तो यही से गया हुआ है ! पता है न आपको ? यह भारत ही सब ज्ञान-विज्ञान की जन्मभूमि  है। The birthplace of all knowledge and science is here. बड़ा अद्भुत है भारत भूमि! इसलिए सभी युवाओं को स्वामी विवेकानन्द के 'भारतीय व्याख्यान' पुस्तक या अंग्रेजी में Lectures from Colombo to Almora' पुस्तक को अवश्य पढ़ना चाहिए। उस पुस्तक में महान भारतीय हिन्दू संस्कृति की महिमा के विषय में स्वामी विवेकानन्द इतना भावा -आवेश में आकर, इतना Passionately कहते है - ये भारतवर्ष अद्भुत है ! ये सभी ज्ञान-विज्ञान की जन्मभूमि है ! ये पुण्यभूमि है -तुम जानलो ! इस भूमि से कोई भी श्रेष्ठ भूमि इस पृथ्वी पर नहीं है। This is the greatest land and the Hindu dharma is the greatest Religion ! यह भारतवर्ष महानतम भूमि है और हिन्दू धर्म महानतम धर्म है! बाकि जितने भी धर्म हैं , वे सब केवल  "distant echo, reflection of this greatest religion called Hindu Dharma" स्वामी विवेकानन्द हिन्दू धर्म को सभी धर्मों की जननी कहते हैं Hindu Dharma is the mother of all religions ! All other religions are just distant reflections ! अन्य सभी धर्म केवल इसके दूर के प्रतिबिंब हैं। We  should be proud about it ! हमें इस पर गर्व होना चाहिए! भारत राष्ट्र , हिन्दू राष्ट्र , हिन्दू धर्म ! यह सर्वश्रेष्ठ है -इस पर हमें गर्व होना चाहिए। (31 :34
जो हो , तो ये है हमारी जीवन शैली जिसमें प्रथम 25 वर्ष तक विद्या-ग्रहण (अध्यन नहीं ग्रहण) के लिए है और उसमें ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है। वहाँ पर बच्चों भैतिक ज्ञान के साथ आध्यात्मिक विज्ञान भी सिखाया जाता है कि देखो मनुष्य जीवन का लक्ष्य है -आत्मलाभ अर्थात ईश्वरलाभ ! विगत के 23 सत्रों में हमने जो अध्यन किया - पढ़ा ? इस बंधन से मुक्ति को प्राप्त करना परम् पुरुषार्थ है ! भवबंधन के खण्डन को परम् पुरुषार्थ क्यों कहा गया ? सभी लोग वहाँ - आत्मज्ञान तक Directly नहीं पहुँच सकते हैं !! (32:03) क्यों ? क्योंकि सभी लोग -काम से (या कामुकता Passion से) suddenly मुक्त नहीं हो सकते हैं। तो धीरे -धीरे 3H विकास की एक process है ; जिसे बता दिया गया है ; एक जीवन-गठन और चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया है -जिसका प्रशिक्षण लेना पड़ता है। (ऐषणाओं से मुक्त होने का अष्टांग मार्ग है ! जिसको स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर Be and Make वेदांत शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा में सीखना पड़ता है।) 
16.गृहस्थ आश्रम का दर्शन क्या है?    
       लेकिन विद्या-अध्यन के बाद भी सभी लोग तो संन्यासी नहीं हो सकते ? संन्यासी कोई एक-दो ऐसे विरल लड़के या लड़की हो सकती है जिसके अन्दर तीव्र वैराग्य है और उतना विवेक भी है - तो हो सकता है कि वह गृहस्थ आश्रम को न अपनाकर सीधा संन्यास आश्रम में चला जाये , या चली जाये। लेकिन ये बहुत ही विरल है। तो बाकि के 99 % जो बच्चे हैं , उनको तो गृहस्थ आश्रम में जाना ही है। लेकिन गृहस्थ आश्रम में जाते समय - (बारात में दूल्हा बनते समय?) उनको भी सब कुछ पता है कि गृहस्थ आश्रम का असली Philosophy क्या है ? (32:31) गृहस्थ आश्रम कोई भोग करने का स्थान नहीं है ; लेकिन वहाँ भोग के लिए भी स्थान है। वहाँ पर भोग परम् लक्ष्य नहीं है। लेकिन भोग के लिए भी भी स्थान है। गृहस्थ आश्रम  Very fine system- बहुत बढ़िया प्रणाली है, सभी भोगों के अंदर से व्यक्ति ऊपर उठ रहा है। भोग से ऊपर उठने का प्रयत्न कर रहा है। स्त्री-पुरुष एक साथ आकर के वो एक दूसरे के मददगार हैं। They are helpers of each other ! So beautiful ! स्त्री-पुरुष दोनों में मनुष्य के प्रति विवाह से पहले दोनों की दृष्टि क्या है ? ईश्वर दृष्टि है। ना कि शरीर दृष्टि। ईश्वर को केंद्र बनाकर के, वे विवाह करते है, और एक गृहस्थी में वे प्रवेश कर जाते हैं। विवाह करके उनके सन्तान हो जाते हैं। और फिर जब संतान बड़े हो जाते हैं , अपने पैरों पर खड़े हो जाते हैं , तब वो जो पतिपत्नी थे -उन्होंने काम को समझ लिया। इसमें कुछ नहीं है। अब वे उस कामभोग से ऊपर उठ गए हैं। लेकिन विवाह का लक्ष्य काम से ऊपर उठना है। न की कामभोग में डूबे रहना। हमारे संस्कृति में यही सबसे बड़ा सीख है। समझ लीजिये कि पतिपत्नी का उम्र 50 -55 का होगया। बच्चे बड़े हो गए हैं। तब पुराने जमाने में वे घर को छोड़कर चले जाते थे। अभी तो वैसा करना सम्भव नहीं है। पुराने जमाने में जब पति-पत्नी की 50 -55 की हो जाती थी , बच्चे बड़े होकर अपने पैर पर खड़े हो जाते थे ; तब ये पति -पत्नी अपने घर को त्याग करके , वन में प्रस्थान कर जाते थे। ताकि पूरे समय को वे ईश्वर के ध्यान में लगा सके। देखिये ऐसा पुराने जमाने में होता था। 150-200  साल पहले तक भी ऐसा होता था। और वहाँ पतिपत्नी एक ऐसा जीवन जीते हैं , जो की पूरीतरह से ईश्वर-केंद्रित है। देह-केंद्रित जीवन से ऊपर उठकरके ईश्वर-केंद्रित उनका जीवन चल रहा है। और अगर ऐसे जीवन जीते हुए इतना ऊपर उठ जाएँ कि वे संन्यास ले लें। पर होगा अंत में। तो देखिए हमारे ऋषियों ने ऐसी एक जीवन शैली बनाई है कि जिससे स्त्री और पुरुष दोनों धीरे -धीरे इन काम बंधनों से ऊपर उठ जाएँ। हमारी वर्णाश्रम व्यवस्था धीरे-धीरे इन कामादि बंधनों से ऊपर उठने की ब्यवस्था थी। कितना सुंदर। This is the philosophy of life ! यही उस जीवन का दर्शन है, जो अपने को अपने को , अपनी अव्यक्त सम्भावनाओं को अभिव्यक्त कर लेती है। पूरे पृथ्वी में कहीं ऐसी व्यवस्था है? पूरे पृथ्वी में कहीं है ? कहीं नहीं है ! यह सिर्फ इस भारत वर्ष में ही, हिन्दू समाज में ही, इस प्रकार होता है और कहीं नहीं होता(35:10
17. जड़ भरत की कहानी
      अब उस पौराणिक कहानी पर आते हैं।  एक राजा था , उसका नाम भरत था। उनके नाम से ही इस देश का नाम भारत है। राजा भरत पूरे साम्राज्य के राजा थे। और एक आदर्श गृहस्थ के समान उसने गृहस्थ आश्रम का पालन किया है। पतिपत्नी के साथ जब बच्चे बड़े होगये हैं। राजा भरत जब 50 -55 के हो गए तो उनके मन में आता है कि -बस ! सबकुछ देख लिया ! जो भोग था वो भी देख लिया। वो बिल्कुल निस्सार है। भोग में क्या है ? तब एक दिन ये राजा ये निश्चय कर लेते हैं -बस मैं अब अपने इस राज्य को छोड़कर के वानप्रस्थ आश्रम को स्वीकार कर रहा हूँ। सोंच कर देखिये - बड़े बड़े राजा गृहस्थ आश्रम का त्याग किया करते थे। इस देश के बड़े बड़े राजा एक समय आने पर ऐसा ही किया करते थे। अपने राज्य को त्याग करके वन में चले जाते थेऐसा करने के लिए कितनी बड़ी साहस की आवश्यकता है ? (36:30) Is it not ? कितना guts होना चाहिएजाने में कितना साहस चाहिए ? वह राजा जो महलों में रहता था , जो ऐसे मोटे -मोठे मखमली गद्दों पर सोता था ; जो सोने -चाँदी की थाली में खाता था , छप्पन भोग के पकवान खाता था , और सब प्रकार के भोगों में डूबे रहने वाले  एक राजा सबकुछ छोड़कर सिर्फ एक वस्त्र में महल से निकल कर जंगल में प्रस्थान कर जाता है। What a strong resolution ! कितना दृढ़ संकल्प है! मतलब उस राजा में राज्य-भोग के प्रति कोई आसक्ति नहीं है। हमारे चर्चा का मुख्य विषय इस आसक्ति को समझना ही है। किसी व्यक्ति के अंदर अविद्या के बंधन से (स्मिता -राग-द्वेष-अभि-निवेश के बंधन से ) मुक्ति पाने के लिए कितनी दृढ़ अनासक्ति होनी चाहिए ? (37:12) हम साधारण गृहस्थों में अपने छोटे से धन-सम्पत्ति के प्रति कितनी आसक्ति होती है , कितना राग होता है ? (या षड्यंत्रकारी नाते-रिश्तेदार घर में घुस कर दो भाइयों में फूट करवा देते हैं !) इस राजा के अंदर वो आसक्ति बिल्कुल भी नहीं थी। इतने बड़े साम्राज्य को भी छोड़करके वो वन की ओर प्रस्थान कर जाता है। एक वस्त्र में ! अब राज्य से बहुत दूर एक वन में जाकर के , अब तो दूरी का कोई अर्थ ही नहीं है। उस जमाने में घर छोड़ कर वन में जाना -मतलब फिर कभी देखना होगा या नहीं ? पता नहीं ! ऐसा ही होता था। उस समय का भारत तो और भी कितना विशाल राष्ट्र था। लेकिन आज तो इसकी चौहद्दी छोटी हो गयी है। वे वन में जाकर अपने हाथों से मिट्टी की एक छोटी सी कुटिया बना लेते हैं। वह राजा जो एक राजमहल में रहता था , अब अपने हाथों से एक छोटा सा मिट्टी की कुटिया बनाता है। उस कुटिया में रहने लगता है। और खाता क्या है ? फल खाता है , कन्दमूल खाता है , शायद एक गाय है। उसके दूध से उसका काम चल जाता है। ऐसा क्यों कर रहा है ? क्योंकि सारा समय उसको अब अपने मन को ईश्वर में लगाना है। वन में जाने का जो मुख्य उद्देश्य है - 'मन को अनात्मा में जाने से खींचकर आत्मवस्तु में लगाना' (अष्टांग मार्ग से आत्मानुभूति करना?) वानप्रस्थी को वन में जाने का मुख्य उद्देश्य क्या है ? वह उद्देश्य हर समय स्पष्ट होना चाहिए। (38:27) राज्य को छोड़ा क्यों ? मन को ईश्वर में लगाने के लिए राज्य छोड़कर गया ? वन में क्यों गया ? मन को शरीर से हटाकर उस ईश्वर (आत्मा या ब्रह्म) में लगाने के लिए जो सभी के भीतर है। सभी के भीतर ईश्वर ही है न ? उस ईश्वर -दृष्टि में प्रतिष्ठित होने के लिए ही तो वानप्रस्थ आश्रम है। नहीं तो फिर हम निर्जन में कोई मौज मस्ती करने के लिए नहीं जा रहे हैं। निर्जन में जाने का मुख्य उद्देश्य है - अब सारा समय ईश्वर की उपासना करने के लिए है। अपने मन को ईश्वर में (अवतार वरिष्ठ में) केन्द्रीभूत करने के उद्देश्य से ये राजा अब अधिकतर समय , ध्यान में उपासना में मग्न रहता है , बस कन्दमूल , दूध-फल खाता है। उसी से उसके शरीर का निर्वाह होता है। अब सारा दिन ईश्वर में ध्यान लगा रहा है , देखिये संसार से कितना अनासक्त होना चाहिए ? वह राजा भरत नाम-रूपी बुलबुला दुनिया के बाकि सभी बुलबुलों से कितना अनासक्त हो गया ? वह सिर्फ समुद्र रूपी ईश्वर (या अवतारवरिष्ठ) के नाम-रूप-लीला-धाम में ही मन लगा रहा है। वह राजा रूपी बुलबुला वानप्रस्थ में जाकर दूसरे बुलबुलों से कितना अनासक्त हो गया ? राज्य (बिजनेस) भी तो एक बुलबुला है - उससे भी अनासक्त हो गया। अब उसमें कोई आसक्ति नहीं है। सारी आसक्ति सारा राग छोड़ करके ये बुलबुला अब सिर्फ समुद्र रूपी उस ईश्वर (सच्चिदानन्द , ब्रह्म , आत्मा) में ही अपने अंतःकरण को लगा रहा है। क्या सुंदर ? यही तो जीवन का लक्ष्य है। उस राजा की कुटिया के सामने से एक नदी बहती थी। उसी नदी के किनारे एकांत में बैठकर वो ध्यान करता था। एक दिन जब वो ध्यान कर रहा था , थोड़ी देर के लिए आंख खुल गयी। अचानक उसने देखा, उस नफ़ी में किसी हिरण का एक नवजात बच्चा , बह रहा है और छटपटा रहा है। अभी अभी माँ की कोख से बाहर निकला है , वैसा नवजात हिरण का बच्चा , उस नदी के प्रवाह रहा है। देखते ही राजा भरत ने पानी में छलांग लगाया , और हिरण  को बचाकर बाहर निकाल लिया। और उस नवजात हिरण के बच्चे की  सेवा - सुश्रुषा। करते हैं। दूध पिलाते हैं। ऐसा करके उसे बचा लेते हैं। अब हिरण की तो कोई माँ नहीं है , राजा भरत ही उसके माँ बन गए हैं। उसी हिरण के बच्चे की देखरेख में लगे रहते हैं। बहुत प्यार से उसका पालन-पोषण करते हैं। आप कल्पना कर सकते हैं -हिरण कितना आकर्षक प्राणी है। उसका चेहरा इतना सुंदर होता है कि अगर आप रूप में ही प्रतिष्ठित हो , तो आप मोहित हो जाओगे(42:05) आप चिपक जाओगे , कहानी यही है ! आपकी दृष्टि कहाँ पर है ? इतना सुंदर निर्दोष, मासूम प्राणी दिखने वाला हिरण की ऑंखें सबसे अधिक मोहित करनेवाली हैं। हिरणी जैसी ऑंखें - उससे कोई भी मनुष्य मोहित हो जायेगा। जो भरत इतना अनासक्त हो गया था कि अपने साम्राज्य को भी छोड़ दिया था -और ईश्वर में मन को लगाने के लिए वन में चला गया था; अब उसका मन रातदिन उस हिरण के ऊपर लगा हुआ है ! ईश्वर के ऊपर नहीं , अब दृष्टि हिरण के ऊपर है। देखो कहानी बड़ा महत्वपूर्ण है -ये राजा जो अपने साम्राज्य को भी छोड़ दिया था। मतलब उसकी अनासक्ति कितनी होनी चाहिए थी ? वानप्रस्थ गमन का उसका उद्देश्य था -सारा समय ईश्वर में मन को लगाऊँगा। लेकिन अब ये दूसरा बुलबुला जो हिरण रूप बुलबुला है , उस बुलबुले में ही उसका मन अब अटका हुआ है। भरत स्वयं एक बुलबुला है , और हिरण रूपी दूसरे बुलबुले में ही उसका मन अब अटका हुआ है। देखते देखते हिरण अब बड़ा हो गया। और भी सुंदर लगता है। भरत का मन अब हिरण में ही लगा रहता है। जब भी हिरण जंगल में चला जाता है , और आने में अगर देर हो जाती है तो भरत एकदम छटपटाने लगता है। क्या हुआ हिरण को ? पता नहीं जंगल है शेर खा गया , किसी ने मार दिया ? हर समय उसके मन में अब हिरण को लेकर ही चिंता चलती है। जो भरत पहले सारा दिन ईश्वर की उपासना  में लगा रहता था , अब उसके मन से ईश्वर चला गया , अब सिर्फ हिरण ही रह गया है। कुछ वर्षों बाद हिरण और बड़ा हो गया , भरत बूढ़ा हो गया। अब भरत का शरीर त्यागने का समय आ गया। उसका अंतिम समय आ गया। दृश्य बड़ा सुंदर है। भरत अपनी शैया पर सोया हुआ है , और अपनी अंतिम साँसें गिन रहा है। भरत को पता है , बस मेरी कुछ सांसें ही बची हैं ! अब ये शरीर  छूटने वाला है। अंतिम काल है , और उस शैया के पास हिरण भी खड़ी है। भरत हिरण की तरफ देख रहा है , हिरण भरत की तरफ देख रहा है। भरत की आँखों में आँसू है , हिरण की आँखों में भी आँसू है। हिरण भी भरत में उतना ही आसक्त है। भरत भी पूरी तरह उस हिरण में आसक्त है। भरत सोंच रहा है , मेरे मृत्यु के बाद कौन इसको देखेगा (44:56) इसका क्या होगा ? मैं चला जाऊँगा तो इसको कौन देखेगा ? [मेरे नाती-पोतों को कौन देखेगा ?] उसके मन में सिर्फ हिरण -चिंतन ही चल रहा है। मृत्युकाल में जहाँ पर ईश्वर चिंतन चलना चाहिए था , वहाँ इसके मन में सिर्फ हिरण चिंतन ही चल रहा है। और इस प्रकार हिरण-चिंतन करते करते वह अपने स्थूल शरीर को त्याग देता है(45:21) अब सिद्धांत ये है कि - 'मृत्युकाल में अंतिम सोंच होगा, आपका अगला जन्म उसी प्रकार का होगा। ' मरण काल के अंतिम क्षणों में आपका जो सोंच होगा (शिवोहं-या देहो अहं ?) आपके अन्तःकरण में जैसा विचार होता है , आपका अगला जन्म वह विचार ही निर्धारित करती है। और मरते वक्त भरत हिरण-चिंतन कर रहा था। अंतःकरण में सिर्फ हिरण , हिरण ,हिरण ,हिरण ,हिरण ही था। तो क्या हुआ ? अगला जन्म उसका हिरण के शरीर में हुआ। हिरण के शरीर में उसका जन्म हुआ , ये बहुत बड़ा सिद्धान्त है। This is what happens at the end ! यदि ईश्वर का नाम जिह्वा पर नहीं चल रहा हो तो ? अंत में यही होता है! इसीलिए शंकराचार्य जी कहते हैं -जन्तूनां नरजन्म दुर्लभं
        अब देखिये राजा भरत का जन्म अब हिरण के शरीर में हो गया। लेकिन भरत तो बहुत अच्छा साधक भी था न ? ऐसे जो बहुत उच्च कोटि के साधक होते हैं ; लेकिन अंतिम समय में इस प्रकार की कुछ गलती हो जाती है। इसीलिए उनको पुनर्जन्म लेना पड़ता है। और वे लक्ष्य पर नहीं पहुँच पाते हैं। [महामाया का राज्य में उसकी कृपा का ही सहारा है ! आत्मबुद्ध्या शिवोहं लेकिन देह बुद्ध्या तव दासो अहं] लेकिन भरत चूँकि बहुत उच्चकोटि के साधक थे , और उन उच्च कोटि के साधकों में यह सम्भव है कि उस दूसरे शरीर में रहते हुए , भी पिछले शरीर में वे क्या थे , इसका स्मरण उन उच्च कोटि के साधकों को होता है। इसको योग की भषा में जाति-स्मरण कहते हैं। (46:46 ) जातिस्मरण माने पिछले जन्म का स्मरण होना, ये सबको नहीं होता है , लेकिन कुछ उच्च कोटि के साधकों में ये होता है। तो भरत जब हिरण के शरीर में था , तो उसको ये स्मरण था कि मैं तो भरत था , पिछले जन्म में ! मैं राजा था, सबकुछ छोड़ कर ईश्वर की खोज में , ईश्वर का चिंतन -मनन करने के लिए मैं वन में गया था। लेकिन अंतकाल में उस हिरण  के साथ आसक्त होने के कारण - राग के कारण आज मैं इस हिरण की शरीर में जन्म लिया हूँ। और अब भरत को भंयकर पश्चाताप होता है - यह मैं क्या कर बैठा ? अब उसकी समस्या ये है कि हिरण के शरीर में वो कोई साधना नहीं कर सकता। इसलिए शंकराचार्यजी का सिद्धांत है -जन्तूनां नरजन्म दुर्लभं ! क्योंकि नर जन्म में ही ये साधना सम्भव है। नर जन्म में सत्य का खोज सम्भव है(47:38) अन्य किसी दूसरे शरीर में विवेक करने की योग्यता नहीं है। हिरण के शरीर में रहकर भी भरत को पता है कि -मैं तो भरत हूँ ! लेकिन शरीर अब हिरण का है , अंदर की चेतना तो भरत की है , और उसको स्मरण है कि मैंने पिछले जन्म में ये साधना की थी। मैं ईश्वर की खोज में , सत्य की खोज में निकल पड़ा था , लेकिन  एक गलती के कारण मैं अब इस हिरण रूपी शरीर के अंदर कैद हूँ ! लेकिन अभी वो साधना नहीं कर सकता क्योंकि सत्य को देखने के लिए जिस साधन की आवश्यकता है , वह उस हिरण शरीर में नहीं है। उस हिरण (पशु) के शरीर में भरत क्या करेगा ? वह प्रतीक्षा करता है। कब यह हिरण का शरीर गिरेगा ? बाहर से शरीर हिरण का है , लेकिन भीतर तो भरत है। तो अब भरत अपना समय कैसे बीतता था ? वो तो पिछले जन्म का साधक था न ? अभी भी साधक ही है , लेकिन शरीर हिरण का होने के कारण वो कुछ नहीं कर सकता। तो भरत उस हिरण के शरीर में भी जहाँ -जहाँ ऐसे आश्रम होते थे , जहाँ साधु-संन्यासी बैठकरके ईश्वर की बातें , वेदांत की बातें करते थे , वहाँ जाकर बैठकर वो उन बातों को श्रवण करता था। उन साधुओं को तो हिरण लगेगा , लेकिन ये तो भरत है। और अच्छा साधक है , तो उसकी आदत -प्रवृत्ति यही है कि ईश्वर की बातें सुनने की। तो वो आश्रमों में जाकर साधुओं के पास बैठकर वेदांत-ब्रह्म और आत्मा का श्रवण करता है। हिरण शरीर की आयु वो आश्रमों में रहकर बिता देता है। और हिरण शरीर भी गिर जाता है। अब दुबारा उसका जन्म होता है -ब्राह्मण मनुष्य के शरीर में। अच्छे परिवार में जन्म होता है। इस जन्म में वो बचपन से ही अपना मुख नहीं खोलता है। बचपन से ही बात नहीं करता है। उसके मातापिता समझते हैं कि शायद ये गूँगा है ? साधारणतया बच्चे दो-तीन वर्ष में बोलना शुरू कर देते हैं। जबकि 4-5 साल का होकर भी ये बच्चा बोलता नहीं है ? उसके माता पिता सोचते हैं जरूर गूँगा है।  लेकिन भरत ऐसा क्यों है ? पता है ? भरत इस जन्म में बहुत ही सतर्क है(50:22) कि मैं फिर किसी बुलबुले से चिपक न जाऊँ ! कहानी ऐसी है, लेकिन विषय गम्भीर है। इस कहानी के माध्यम से हमें एक बहुत बड़ा सिद्धांत बताया जा रहा है। तो भरत इस जन्म में इतना सतर्क है कि अब इस जन्म में वो कहीं फँसना नहीं चाहता। (अविद्या -अस्मिता -राग-द्वेष -अभिनिवेश में किसी भी जाल में फँसना नहीं चाहता।) एक बार फँस गया था तो उसका नतीजा देख लिया।  एक गलती के कारण , पूरा एक जन्म हिरण के शरीर में बिताना पड़ा ! कहाँ तो ऐसा राजा भरत इतना अनासक्त था कि, ईश्वर (आत्मा, भगवान या सत्य) में मग्न रहने के लिए वो अपना साम्राज्य छोड़कर वन में चला गया था। लेकिन एक गलती के कारण देखिये -पूरा एक जन्म बिताना पड़ा। और कितनी यातनाओं से गुजरने के बाद उसे दुनारा ये मनुष्य शरीर मिलता है। लेकिन उस शरीर अब वो बहुत ही सचेतनता पूर्वक अपने समय को बीता रहा है , मुँह से एक शब्द नहीं बोलता चुप रहता है। तो उसके मातापिता समझते हैं कि ये मूढ़ बच्चा है -जड़ है। (practical नहीं है ?) इसलिए अब उसका नाम पड़ता है -जड़ भरत ! ये जड़ है माने ये मंद-बुद्धि है - Mentally retarded है ! लेकिन सच्चाई एक दम उल्टा है। वो परम् ज्ञानी है। लेकिन वो जान-बूझ करके अपने आप को मूढ़ की तरह प्रस्तुत कर रहा है। उसके और भी दो-तीन भाई हैं , परिवार के सभी लोग समझते हैं कि ये मूढ़ है ! किसी से बात ही नहीं करता , बस चुप्प रहता है ! बच्चा भरत बड़ा हो गया , उसके मातापिता चल बसे। उसके बड़े भाइयों का विवाह हो गया। ये जड़ भरत भी युवा हो गया देखने में बहुत सुंदर और मजबूत कदकाठी का है। सबकुछ ठीक है लेकिन बात नहीं करता है। इसलिए इससे विवाह कौन करेगा ? और वैसे इसको विवाह करना भी नहीं है। लेकिन जैसा संसार में होता है , उसके बड़े भाई और उनकी पत्नियाँ इसको बहुत यातनाएं देती हैं। घर का सारा काम उससे करवाते हैं। तो एकदिन उसके साथ बहुत बुरा सलूक करते हैं , उस दिन वो तंग होकर घर छोड़कर चला जाता है। मुँह से कोई विरोध नहीं किया। लेकिन घर से निकल जाता है और किसी पेड़ के नीचे बैठा रहता है। अब कहानी ऐसी है कि उस प्रान्त का जो राजा था , वो पालकी में आ रहा था। लकिन चौथा कहार बीमार पड़ गया। तो एक आदमी और चाहिए था। और राजा को कहीं जाना जरुरी था , तो मंत्री ने इस हट्ठे -कट्ठे युवक को वहां बैठा देखा। वो आ गया लेकिन बचपने से 20 -25 वर्ष का युवा हो जाने पर भी मुंह नहीं खोला। अब वो जड़ भरत पालकी उठाकर सीधा नहीं चल रहा है , लेकिन वो कूद कूद कर जा रहा है। तो जो पालकी में अंदर बैठा राजा को कष्ट होने लगा। भरत कूद कूद कर इसलिए जा रहा था कि पैर के नीचे जो प्राणी है -सब में उसको ईश्वर दिखाई दे रहा है। इस जन्म उसने परम् ज्ञान को प्राप्त कर लिया है। सबके भीतर उसको ईश्वर दिखाई दे रहा है। अब जड़ भरत की दृष्टि कहाँ टिकी हुई है ? ईश्वर में टिकी हुई है। परम् सत्य में टिकी हुई है , इसलिए वो कूद रहा है। भीतर जो राजा बैठा था , गुस्सा होकर बोलै कौन है मूर्ख ? इसको ठीक से चलना भी नहीं आता है ? वो उससे प्रश्न करता है कि तू कौन है ? क्या तुमको चलना नहीं आता है ? बता तू कौन है ? तब उसके मुख से पहली बार उसके शब्द निकलते हैं -कि मैं कौन हूँ ? और जो वह कहता है -वह पूरा शुद्ध वेदांत है। 
18.  दृष्टि शरीर में नहीं ईश्वर में होनी चाहिए : 

इस कहानी से हमको सीखना क्या है ? आप लोगों के सामने यही प्रश्न है। (56:46)  वो राजा जब वन में गया था तब राज्य के प्रति उसके मन में कोई आसक्ति नहीं थी। कोई राग नहीं था। उतने बड़े साम्राज्य से मोह को  छोड़ देना इतना आसान है ? ऐशो आराम की जिंदगी छोड़ने के लिए उसके अंदर कितना साहस रहा होगा ? वन में गया था सिर्फ ईश्वर चिंतन करने के लिए। लेकिन प्रश्न ये है -कि उस हिरण के बच्चे को बचाने लिए जड़भरत जो तुरंत नदी में छलाँग लगा दिया - वो उसने जो किया वो सही था या गलत था ? 100 % सही था। आपके सामने कोई कष्ट में है , और आप कुछ नहीं करोगे ? तबतो आप मनुष्य भी नहीं हो। उसने हिरण को बचाया यह गलती नहीं थी। गलती कहीं और थी। हिरण को बचाना , उसकी देखभाल करना , इसमें कोई गलती नहीं है। ये तो करना ही चाहिए। लेकिन गलती क्या हुई ? जब हमारी दृष्टि देह-केंद्रित हो जाती है , तो हम उस देह में आसक्त हो जाते हैं ! हम उस देह से चिपक जाते हैं। भरत ने उस हिरण के साथ जो भी किया वो सब कर सकते थे , लेकिन ईश्वर-दृष्टि से भी कर सकते थे। पूजा दृष्टि से भी कर सकते थे , तब वो फँसते नहीं। तो गलती कहाँ हुई ? वे हिरण के स्थूल शरीर से आसक्त हो गए। हिरण से चिपक गए। हिरण शरीर के बाहरी रूप को देखकर के एक बुलबुला दूसरे बुलबुले से चिपक गया। उसका परिणाम हमको देखने को मिला -अगला जन्म हिरण में हुआ। लेकिन भरत की दृष्टि अगर हिरण के प्रति ईश्वर-दृष्टि होती तो न]बाहर से उसी प्रकार सेवा -देखभाल चलता , सबकुछ और भी अच्छी तरह से कर पाता , और वो जो भी करता वो ईश्वर की पूजा होती। ये बहुत बड़ी सीख है -जीवन में हम जो भी कर रहे हैं -हम जहाँ पर हो, परिवार में हों। पति हों पत्नी हो , बच्चे हो मातापिता हो , भाई-बहन हो ? इनके प्रति हमारी दृष्टि क्या होनी चाहिए ? अगर हमलोग उनके शरीर में राग के द्वारा आसक्त हैं , तो हम चिपक जाते हैं। और अगर चिपक गए तो उसका परिणाम यही होगा। वही जन्म-मृत्यु का चक्र हमारा चलता रहेगा , आप उससे बाहर नहीं निकल सकते। वही दृष्टि अगर शरीर -केंद्रित न होकर ईश्वर केंद्रित होता है , तो आप जो भी करते हो। अपने परिवार वालों को सेवा -देखभाल सबकुछ वैसे ही करोगे , तो उसमें अब आसक्ति-राग नहीं होगी , उसमें अब प्रेम होता है। और जो सेवा प्रेम भाव से की जाती है -वो सेवा पूजा बन जाती है। वही ईश्वर की पूजा बन जाती है। ( 1:00:01) - इस कहानी से हम यह ही सीख सकते हैं। तो अंतिम निष्कर्ष क्या हुआ ? चिपकना सख्त मना है। क्योंकि एक जन्म का काम तीन जन्मों में करना पड़ा। चिपकने की वजह से तीन जन्म लग गया। नहीं तो वो पहले ही जन्म में ही हो जाता !
पहले ही जन्म में ही राजा भरत साधना में काफी आगे चले जा चुके थे। लेकिन अंत में हमलोग गलती कर बैठते हैं। तो ये सावधानी बरतने की बात है। अब इस जन्म में (दुबारा जीवन मिलने के बाद ?) हमलोग अब जो कुछ करेंगे , सब कुछ देह-दृष्टि से नहीं  ईश्वर दृष्टि से , पूजा दृष्टि से भी किया जा सकता है। यही बात श्रीरामकृष्ण परम् हंस देव बहुत सुंदर ढंग से कहते हैं -शिव ज्ञान से ही सबकुछ करना। शिव ज्ञान (आत्मा -ब्रह्म ज्ञान) से ही सबकुछ कीजिये , क्योंकि वही सत्य है , बाकि सब कल्पना है। सब में आत्मा (ईश्वर) देखकरके दृष्टि शरीर में नहीं ईश्वर में होनी चाहिए। तब आप देखिएगा की काम रूपी कोई भी विकृति हमारे मन में नहीं होगी। तो आप जो भी करोगे वो ईश्वर की पूजा हो जाती है । पाठचक्र में भी क्या चल रहा है ? ये ईश्वर की पूजा ही चल रहा है। अब पूजा की भी परिभाषा बदल जाती है। यही सर्वोच्च प्रकार की पूजा है। अभी हम पूजा का मतलब क्या समझते हैं ? कुछ कर्मकाण्डी अनुष्ठान। मैं उसकी निंदा नहीं कर रहा हूँ। वो भी ठीक है। लेकिन सही  पूजा है- शिव दृष्टि से जीव सेवा ! जो व्यक्ति इस दृष्टि से पूजा कर रहा है , मनुष्य बनो बनाओ आंदोलन से जुड़ा  हुआ है उसे किसी और पूजा की आवश्यकता नहीं है , वो ऐसे ही मुक्त हो जायेगा। (1:01:41 ) जो व्यक्ति यह पूजा नहीं कर पाता है , उसी केलिए है कर्मकाण्डी अनुष्ठानिक पूजा। घंटा -दिया -चंवर यह पूजा भी ठीक है। वह भी एक प्रयास है -किसी प्रकार ईश्वर में  मन को लगा तो रहा है ! मैं उसकी निंदा नहीं कर रहा हूँ। लेकिन सब मनुष्यों में ईश्वर को देख करके उस व्यक्ति के लिए जो कुछ भी सेवा करोगे वो फिर पूजा हो जाती है। This Is the real worship which Advaita Vedanta teaches us .(1:02:18) यही वह  वास्तविक उपासना है जो अद्वैत वेदांत हमें सिखाता है। 
19. अद्वैत दृष्टि या ईश्वर केंद्रित दृष्टि से जीने की कला :  यत् यत् कर्म करोमि तत् तत् अखिलं हे शम्भो तव आराधनाम् - अपने दैनन्दिन जीवन की हर गतिविधि के माध्यम से ईश्वर की आराधना करें, इसी The art of living विषय पर शंकराचार्य जी द्वारा रचित एक अति सुंदर श्लोक है-

आत्मा त्वं गिरिजा मतिः सहचराः, प्राणाः शरीरं गृहं।
        पूजा ते विषयोपभोगरचना, निद्रा समाधिस्थितिः॥
संचारः पदयोः प्रदक्षिणविधिः,  स्तोत्राणि सर्वा गिरो।
          यद्यत्कर्म करोमि तत्तदखिलं, शम्भो तवाराधनम्‌॥

(– शिव मानस पूजा) 

      जब हम ईश्वर -केन्द्रित दृष्टि से जीने की कला को सीख जाते हैं, तब क्या होता है ?- यत् यत् कर्म करोमि तत् तत् अखिलं हे शम्भो तव आराधनाम्। इस ईश्वर-केंद्रित दृष्टि से जब हम जीते हैं , तो - 'यत् यत् कर्म करोमि' मैं जो कुछ भी कर्म करता हूँ -हे शम्भू ! शिवजी सब तेरी आराधना हो जाती है। यही अद्वैत दृष्टि है ! हमको दो चीजें सीखनी होंगी। जब अद्वैत दृष्टि आए जाती है, तो परम् भक्ति भी साथ-साथ आ जाती है अद्वैत में ही परम् भक्ति होती है। अद्वैत का मतलब क्या है? ईश्वर से अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। (इस ईश्वर-केंद्रित दृष्टि - या अद्वैत दृष्टि के प्राप्त हो जाने के बाद) बताइये आपके पास भक्त होने के अलावा और क्या विकल्प है ? (1:03:20) आप सहज रूप में , Naturally -भक्त हो जाओगे कि नहीं ? जब आप इस दृष्टि में प्रतिष्ठित हो जाते हो कि ईश्वर से अतिरिक्त कुछ है ही नहीं , तो आप मुझे बताइये कि आपके पास भक्त होने के अलावा क्या विकल्प है ? कोई विकल्प है क्या ? आप भक्त ही होंगे। 
      इसीलिए जितने भी महापुरुष हुए हैं -सभी, अच्छा शंकराचार्यजी इतिहास के सबसे बड़े अद्वैत ज्ञानी माने जाते हैं। लेकिन वे उतने ही बड़े भक्त थे ! आप उनकी सारी रचनाओं को देखिये , सबसे बड़े अद्वैत ज्ञानी, इतिहास के सर्वश्रेष्ठ अद्वैत ज्ञानी, लेकिन सबसे बड़े भक्त हैं ! उनके द्वारा रचित -'श्री गंगा-अष्टकम', शिवा अष्टकं , अन्नपूर्णा स्त्रोत्रं, भवानी अष्टकं , एक ही ईश्वर की स्तुति वे कितने रूपों में कर रहे हैं। क्योंकि ईश्वर से अतिरिक्त कुछ है ही नहीं ; वो गंगा हो -तो वो ईश्वर का रूप है। यमुना भी ईश्वर का रूप है। सबकुछ ईश्वर का रूप है , सबकी स्तुति हो रही है। परम् अद्वैत -परम भक्त। श्री रामकृष्ण परमहंस -अद्वैत , परम् अद्वैतिन हैं , परम् भक्त हैं। स्वामी विवेकानन्द परम अद्वैतिन , परम भक्त ! ये जितने ऐसे अद्वैतिन थे , उन सबकी पराकाष्ठा भक्ति में होती है। क्यों ? ईश्वर से अतिरिक्त तो कुछ है ही नहीं ! तो यह ईश्वर-केंद्रित दृष्टि वाला साधक सहज रूप से भक्त हो जाता है। उसका अन्तस्थ भाव सब समय भक्ति वाला ही होता है। वो सब समय सबको नमन करता रहता है। क्योंकि यहाँ पर ईश्वर से अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। यही है सहज भक्ति। 
      सिर्फ मंदिर में जाने वाला भक्ति ही पर्याप्त नहीं है। अभी हमारी भक्ति कैसी है ? जब मैं मंदिर में जाता हूँ - उस समय लगता है कि मैं भक्त हूँ। मंदिर के परिसर बाहर निकलते ही हम कुछ और हो जाते हैं। तब हमको ईश्वर नहीं जगत दिखाई पड़ता है - हमको लगता है ये जगत है! समस्या क्या है ? आज की हमारी विडंबना क्या है ? हम जब मंदिर जाते हैं , तब हमको लगता है कि मैं भक्त हूँ। मैं भक्ति करने लिए मंदिर जा रहा हूँ। मंदिर में हमको भगवान दिखाई दे रहा है। तो क्या बाहर में भगवान नहीं हैं ? (1:05:20) बाहर क्या है ? आज हमारी दृष्टि उतनी विकसित नहीं हुई है। इसीलिए बाहर में नानत्व दिखाई देता है। मंदिर में भगवान दीखता है , और मंदिर से बाहर आते ही हमको पूरा जगत दीखता है। बाहर जो नाम-रूप दिखाई दे रहा है -वो सब ईश्वर का ही तो रूप है। ये हमको अभी समझ में नहीं आ रहा है। प्रारम्भिक अवस्था में हमारी धारणा मन्दिर केन्द्रित होती है। सर्वसाधारण व्यक्ति की ईश्वर सम्बन्धी धारणा यही है। ईश्वर के सम्बन्ध में हमारी धारणा शुरुआत में कितनी संकुचित होती है ? 

    20. ईश्वर, जीव और जगत का अद्वैत :
   आपको याद होगा ये पूरा सत्र कहाँ से शुरू हुआ था ? मैंने कहा था तीन महत्वपूर्ण मुद्दे हैं। मैं कौन हूँ ? ये सामने जो दिखाई दे रहा है -विश्वब्रह्माण्ड, ये जगत क्या है ? और तीसरा है ईश्वर क्या है ? इन तीनों मुद्दों के प्रति हमारे मन में सिर्फ कल्पनायें ही हैं ! (1:06:08) अब तीनों के विषय में हमारी धारणा स्पष्ट हो गयी। मैं का मतलब क्या है ? ये जगत का मतलब क्या है ? और ईश्वर क्या है ? पहले हमारे लिए ईश्वर कहाँ है ? मंदिरों में है ! जब  मंदिर में जाते हो तो आपको लगता है आप भक्त हो , भक्ति कर रहे हो। मंदिर से बाहर आते ही , आपको ये पूरा जगत, जगत,जगत,जगत, ही आपको सत्य लगता है। लेकिन जैसे ही आपकी दृष्टि बदलती है , फिर मंदिर हो या बाहर हो ? जीव -जगत भी ईश्वर ही है , ईश्वर से अतिरिक्त और कुछ नहीं है। पहले जिस व्यक्ति को मंदिर में जाते वक्त भक्ति भाव दीखता है , बाहर में भक्ति भाव नहीं दीखता ? अब जिस व्यक्ति में अद्वैत दृष्टि जग गयी , वो मंदिर में हो बीच बाजार में हो ? या युद्ध क्षेत्र में हो, उसका भक्ति भाव अखण्ड रहता है। उसको सर्वत्र ईश्वर ही दिखाई देता है। इसप्रकार भक्ति की पराकाष्ठा परा भक्ति में होती है। सभी महापुरुषों में हमें यही भाव देखने को मिलता है। अपरोक्ष ज्ञान (अद्वैत दृष्टि) का यही तो व्यावहारिक अनुप्रयोग है ! यह अपरोक्षानुभूति या अद्वैत दृष्टि अब हमारे जीवन में कैसे उतरने वाला है ? It is going to change our entire view of what we are seeing ? यह जो जगत हम देख रहे हैं उसके प्रति हमारा पूरा नजरिया बदल देगा। 
    स्वामी विवेकानन्द कहते थे -God is not only limited to temple ! भगवान केवल मंदिर तक ही सीमित नहीं है! these are the kindergarten of religion. ये धर्म की बालवाड़ी हैं।  यानि मंदिर में भगवान देखने जाना' ये हमारे आध्यात्मिक जीवन की शिशु अवस्था है। आध्यात्मिक जीवन के बचपन में, भक्ति करने के लिए मन्दिर जाना ठीक है ,लेकिन जब बड़े होते हैं , समझ परिपक्व होती है , तो आपकी दृष्टि बदलनी चाहिए। भगवान सिर्फ किसी मंदिर में सीमित नहीं हैं। ईश्वर ही है , ईश्वर से अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। लेकिन इसको यदि  समझ नहीं पा रहे हैं, तो फिर मंदिर की आवश्यकता हैहम लोग कभी मंदिर या मूर्तिपूजा को कम नहीं समझ रहे हैं। मंदिर का बहुत बड़ा स्थान है। सभी मनुष्य सीधा अद्वैत दृष्टि में प्रतिष्ठित तो नहीं हो सकते हैं न ?  सर्व साधारण व्यक्ति के लिए , वो मंदिर , पूजा , आरती आदि सारी चीजें अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। आप कृपया ऐसा न समझ लेना कि अद्वैत आश्रम मायावती , मूर्ति और मंदिर को छोटा समझता है ? मंदिर का बहुत प्रथम स्थान है। सर्व साधारण मनुष्यों के लिए मूर्ति और मंदिर की प्राथमिकता है। लेकिन जब आप स्थूल- देह दृष्टि से अद्वैत दृष्टि में प्रतिष्ठित हो जाते हो -तब सब ईश्वर है ! सब ईश्वर का ही रूप है -आप समझ जाते हो। तब आपके लिए ईश्वर सिर्फ मंदिर -केंद्रित नहीं रह जायेंगे। आप सब में ईश्वर को देखोगे। ईश्वर ही इतने रूपों में यहाँ बैठे हुए हुए हैं। भक्ति अद्वैत ज्ञान की पराकाष्ठा है !! ॐ शांति   
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[नवरात्र-पूजन के चौथे दिन बाघ पर सवार माँ कूष्माण्डा के अष्टभुजा देवी स्वरूप की उपासना की जाती है। अष्टभुजा देवी की कृपा से पुनः मानव शरीर प्राप्त करके भरत इस जन्म में बहुत सतर्क है। अर्थात काम-कांचन से पूर्णतः अनासक्त है। उसे अब किसी भी मनुष्य को इस गलत दृष्टि से देखना छोड़ना है। (सभी में ईश्वर को देखर किसी भी व्यक्ति में दोष नहीं देखना। यही माँ सारदा देवी का वेदान्त है !)  मनुष्य को स्त्री-पुरुष की स्थूल-शरीर की दृष्टि से देखने की गलत आदत को बार बार बदलने के अभ्यास से , जगत को काम -दृष्टि से नहीं राम-दृष्टि से देखने की आदत बना कर, ईश्वर से सम्बंधित चरित्र के चौबीसो गुण निर्माणकारी शिक्षा- या स्वामी विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा Be and Make' की पुस्तिकाओं में आप देखेंगे,  Be and Make' का प्रचार -प्रसार करने में लगे रहने से प्राप्त हो जाता है। दादा ने भविष्यवाणी करते हुए कहा था जो भी गृहस्थ देह- केंद्रित दृष्टि या काम केंद्रित दृष्टि को त्यागकर ,राम केंद्रित दृष्टि पाने के लिए इस जीवन-गठन और चरित्र-निर्माणकारी आंदोलन  'Be and Make' के प्रचार -प्रसार में लगा रहेगा वो ऐसे ही मुक्त हो जायेगा, उसको अलग से अन्य कोई साधना नहीं करनी पड़ेगी यह सत्य सिद्ध होती है। वह भविष्यवाणी आज -दुर्गा पूजा के चौथे दिन को बाघ पर सवार अष्टभुजा कूष्माण्डा देवी की पूजा 25 सितम्बर, 2025 के दिन भक्त की रक्षा करने की घटित घटना से सत्य सिद्ध हुई है, क्या इसीलिए कूष्माण्डा देवी की पूजा को 26 सितम्बर, 2025 तक मनाया जायेगा?  दशभुजा दुर्गा देवी शेर पर सवार हैं क्यों ? शेर प्रतीक है -माँ काली की कृपा से अपरोक्षानुभूति प्राप्त करने वाले भेंड़ की झुण्ड में पला -बढ़ा सिंहशावक की कथा कहने वाले देशभक्त स्वामी विवेकानन्द को जब माँ काली का दर्शन प्राप्त होता है , तब वे मूर्तिपूजा करने वाले भक्त बन जाते हैं।  भेंड़ों की झुण्ड में पले -बढे बाघ-शावक की कथा कहने वाले- बाघ पर सवार अष्टभुजा कूष्माण्डा देवी श्रीरामकृष्ण देव स्वयं काली हैं -अद्वैत हैं ! बाहर से दिखाने के लिए श्रीरामकृष्ण काली के पुजारी हैं, सच्चाई में वे स्वयं काली हैं ! ब्रह्म और शक्ति का अभेद है? यह विचारणीय प्रश्न है ?(चिड़ियों का जान जाये , बच्चो का खेल है। Play, it was all play. Why was Christ crucified? It was mere play. And so of life. Just play with the Lord. Say, "It is all play, it is all play .Volume 8, Sayings and Utterances . (लेकिन क्या हिन्दू मूर्तिपूजा के विरोधी हो सकते हैं ??? पहले जहाँ पटना कुर्थौल-निवासी हिन्दू धर्म के जितने  विरोधी थे कुलदेवी के पूजाघर में बकरी बाँध देते थे। आज उसी कुर्थौल का दुर्गा पूजा पण्डाल 33 लाख खर्चकर उसका उतना ही भव्य बनता है !)
शुक्रवार 26 सितम्बर ,20025 कूष्माण्डा पूजा -का इस बार दूसरा दिन और नवनीदा का 10 वां तिरोधान दिवस। जो इसके पूर्वजन्म में कैप्टन सेवियर थे ! [पुराणों और महाकाव्यों के अनुसार राजा भरत की कई कथाएँ मिलती हैं, जिनमें सबसे प्रमुख कथा दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र भरत की है, जिनके नाम पर देश का नाम भारत पड़ा। इसके अलावा श्रीमद्भागवत पुराण में जड़ भरत की कथा भी है, जो एक राजा के तीन जन्मों (एक राजा, फिर हिरण, और फिर ब्राह्मण) की कहानी है और आत्मज्ञान का संदेश देती है। एक अन्य प्रसंग अनुसार, राजा ऋषभदेव के पुत्र भरत भी थे, जिनके नाम पर देश का नाम भारत पड़ा है।( राज्य छोड़कर मनःसंयोग का अभ्यास करने के लिए-ऑफिस या निर्जन में जाना-या TMCकरके पेट भरने के लिए।)
[आज शनिवार, 27 सितम्बर,2005 : आज स्कन्दमाता स्वरुप देवी शक्ति (मेरे लिए माँ सारदा देवी) की आराधना की पंचमी तिथि पर स्वयं माँ ने कृपा करके उनका अंतिम उपदेश जो नवनीदा के अनुसार अद्वैत वेदान्त का सार है, के मर्म को मुझे समझा दिया। वह है-ईश्वर-केन्द्रित दृष्टि से जगत को देखना, देह-केंद्रित से जगत को कभी मत देखना, तभी सुख-शांति आती हैं। " यदि शांति चाहती हो, बेटी , तो किसी का दोष मत देखना। दोष केवल अपना ही देखना। संसार को अपना बनाना सीखो। कोई पराया नहीं , बेटी , संसार तुम्हारा अपना है। "
[जब हम शरीर-केन्द्रित दृष्टि से जगत को न देखकर ईश्वर -केन्द्रित दृष्टि से जीने की कला को सीख जाते हैं, तब माँ सारदा देवी का अंतिम उपदेश - " यदि शांति चाहती हो, बेटी , तो किसी का दोष मत देखना। दोष केवल अपना ही देखना। संसार को अपना बनाना सीखो। कोई पराया नहीं , बेटी , संसार तुम्हारा अपना है। " का मर्म समझ में आ जाता है। पूज्य नवनीदा के अनुसार यही उपदेश अद्वैत वेदान्त का सार है। (श्री नवनी हरण मुखोपध्याय-महामण्डल के संस्थापक सचिव।), क्योंकि ईश्वर-केन्द्रित दृष्टि से जगत को देखने पर हमारा हर कार्य ईश्वर की पूजा बन जाती है ! अतएव देह-केंद्रित दृष्टि से जगत को कभी नहीं देखना चाहिए, अपरोक्ष ज्ञान या वेदांत के इसी जीवन की कला का प्रयोग करने से  जीवन में सुख-शांति आती हैं।
[आज रविवार, 28 सितम्बर , 2025 : षष्ठं कात्यायनी माता ! मनुष्य का भाग्य उसके पूर्वजन्मों के कर्मों से संचालित होता है। वह मनो जगत जो अदृश्य है , हमारी इन्द्रियाँ जिस सूक्ष्म जगत का अनुभव नहीं कर सकतीं , वही जगत माँ कात्यायनी के प्रताप से सबंधित है। षष्ठी तिथि में माँ के कात्यायनी रूप का ध्यान, पूजन करने से भक्त का आंतरिक सूक्ष्म जगत या मनोजगत में चल रही नकारात्मकता का नाश होकर सकारत्मकता का विकास होता है। सुनहरे और चमकीले वर्णों वाली चार-भुजाओं वाली रत्नाभूषणों से अलंकृत कात्यायनी देवी आक्रमक मुद्रा में रहने वाले सिंह पर सवार रहती हैं। प्राणियों में इनका वास 'आज्ञाचक्र ' में होता है। माँ की कृपा से भक्तों को चारों पुरूषर्थों की प्राप्ति हो जाती है। वह इस लोक में रहकर भी अलौकिक तेज और प्रभाव को प्राप्त करता है। उसके रोग, शोक , संताप , भय के साथ साथ जन्म-जन्मांतर के पाप नष्ट हो जाते हैं। -कशी विद्वत परिषद। ]         

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