कुल पेज दृश्य

गुरुवार, 11 सितंबर 2025

⚜️️ अतिसय प्रीति देखि रघुराई। लीन्हे सकल बिमान चढ़ाई॥⚜️️घटना - 351⚜️️पुष्पक विमान से श्रीराम और सीता के लंका से विदा होने का प्रसंग ⚜️️Shri Ramcharitmanas Gayan || Episode #351 ||⚜️️https://www.shriramcharitmanas.in/p/lanka-kand_98.html

 श्रीरामचरितमानस 

षष्ठ सोपान

[ लंका  काण्ड]

  [ घटना - 351: दोहा -117,118,119] 


पुष्पक विमान से श्रीराम और सीता के लंका से विदा होने का प्रसंग 

       लंका से विदा की धड़ी है , पुष्पक विमान उत्तर दिशा में उड़ रहा है। ऊँचे सिंहासन पर सीता सहित श्रीराम विराजमान हैं। वे जनकनन्दिनी को वे स्थान दिखाते हैं , जहाँ मेघनाद , कुम्भकरण, रावण आदि का वध हुआ , वो स्थल जहाँ से सेतु बाँधा गया। वो भी जहाँ रामेश्वर महादेव की स्थापना की गयी। 

दोहा:

* मुनि जेहि ध्यान न पावहिं नेति नेति कह बेद।

कृपासिंधु सोइ कपिन्ह सन करत अनेक बिनोद॥117 क॥

भावार्थ:-जिनको मुनि ध्यान में भी नहीं पाते, जिन्हें वेद नेति-नेति कहते हैं, वे ही कृपा के समुद्र श्री रामजी वानरों के साथ अनेकों प्रकार के विनोद कर रहे हैं॥117 (क)॥

* उमा जोग जप दान तप नाना मख ब्रत नेम।

राम कृपा नहिं करहिं तसि जसि निष्केवल प्रेम॥117 ख॥

भावार्थ:-(शिवजी कहते हैं-) हे उमा! अनेकों प्रकार के योग, जप, दान, तप, यज्ञ, व्रत और नियम करने पर भी श्री रामचंद्रजी वैसी कृपा नहीं करते जैसी अनन्य प्रेम होने पर करते हैं॥117 (ख)॥

चौपाई :

भालु कपिन्ह पट भूषन पाए। पहिरि पहिरि रघुपति पहिं आए॥

नाना जिनस देखि सब कीसा। पुनि पुनि हँसत कोसलाधीसा॥1॥

भावार्थ:-भालुओं और वानरों ने कपड़े-गहने पाए और उन्हें पहन-पहनकर वे श्री रघुनाथजी के पास आए। अनेकों जातियों के वानरों को देखकर कोसलपति श्री रामजी बार-बार हँस रहे हैं॥1॥

चितइ सबन्हि पर कीन्ही दाया। बोले मृदुल बचन रघुराया॥

तुम्हरें बल मैं रावनु मार्‌यो। तिलक बिभीषन कहँ पुनि सार्‌यो॥2॥

भावार्थ:-श्री रघुनाथजी ने कृपा दृष्टि से देखकर सब पर दया की। फिर वे कोमल वचन बोले- हे भाइयो! तुम्हारे ही बल से मैंने रावण को मारा और फिर विभीषण का राजतिलक किया॥2॥

निज निज गृह अब तुम्ह सब जाहू। सुमिरेहु मोहि डरपहु जनि काहू॥

सुनत बचन प्रेमाकुल बानर। जोरि पानि बोले सब सादर॥3॥

भावार्थ:-अब तुम सब अपने-अपने घर जाओ। मेरा स्मरण करते रहना और किसी से डरना नहीं। ये वचन सुनते ही सब वानर प्रेम में विह्वल होकर हाथ जोड़कर आदरपूर्वक बोले-॥3॥

* प्रभु जोइ कहहु तुम्हहि सब सोहा। हमरें होत बचन सुनि मोहा॥

दीन जानि कपि किए सनाथा। तुम्ह त्रैलोक ईस रघुनाथा॥4॥

भावार्थ:-प्रभो! आप जो कुछ भी कहें, आपको सब सोहता है। पर आपके वचन सुनकर हमको मोह होता है। हे रघुनाथजी! आप तीनों लोकों के ईश्वर हैं। हम वानरों को दीन जानकर ही आपने सनाथ (कृतार्थ) किया है॥4॥

* सुनि प्रभु बचन लाज हम मरहीं। मसक कहूँ खगपति हित करहीं॥

देखि राम रुख बानर रीछा। प्रेम मगन नहिं गृह कै ईछा॥5॥

भावार्थ:-प्रभु के (ऐसे) वचन सुनकर हम लाज के मारे मरे जा रहे हैं। कहीं मच्छर भी गरुड़ का हित कर सकते हैं? श्री रामजी का रुख देखकर रीछ-वानर प्रेम में मग्न हो गए। उनकी घर जाने की इच्छा नहीं है॥5॥

दोहा :

* प्रभु प्रेरित कपि भालु सब राम रूप उर राखि।

हरष बिषाद सहित चले बिनय बिबिध बिधि भाषि॥118 क॥

भावार्थ:-परन्तु प्रभु की प्रेरणा (आज्ञा) से सब वानर-भालू श्री रामजी के रूप को हृदय में रखकर और अनेकों प्रकार से विनती करके हर्ष और विषाद सहित घर को चले॥118 (क)॥ 

* कपिपति नील रीछपति अंगद नल हनुमान।

सहित बिभीषन अपर जे जूथप कपि बलवान॥118 ख॥

भावार्थ:-वानरराज सुग्रीव, नील, ऋक्षराज जाम्बवान्‌, अंगद, नल और हनुमान्‌ तथा विभीषण सहित और जो बलवान्‌ वानर सेनापति हैं,॥118 (ख)॥

* कहि न सकहिं कछु प्रेम बस भरि भरि लोचन बारि॥

सन्मुख चितवहिं राम तन नयन निमेष निवारि॥118 ग॥

भावार्थ:-वे कुछ कह नहीं सकते, प्रेमवश नेत्रों में जल भर-भरकर, नेत्रों का पलक मारना छोड़कर (टकटकी लगाए) सम्मुख होकर श्री रामजी की ओर देख रहे हैं॥118 (ग)॥

चौपाई :

* अतिसय प्रीति देखि रघुराई। लीन्हे सकल बिमान चढ़ाई॥

मन महुँ बिप्र चरन सिरु नायो। उत्तर दिसिहि बिमान चलायो॥1॥

भावार्थ:-श्री रघुनाथजी ने उनका अतिशय प्रेम देखकर सबको विमान पर चढ़ा लिया। तदनन्तर मन ही मन विप्रचरणों में सिर नवाकर उत्तर दिशा की ओर विमान चलाया॥1॥

* चलत बिमान कोलाहल होई। जय रघुबीर कहइ सबु कोई॥

सिंहासन अति उच्च मनोहर। श्री समेत प्रभु बैठे ता पर॥2॥

भावार्थ:-विमान के चलते समय बड़ा शोर हो रहा है। सब कोई श्री रघुवीर की जय कह रहे हैं। विमान में एक अत्यंत ऊँचा मनोहर सिंहासन है। उस पर सीताजी सहित प्रभु श्री रामचंद्रजी विराजमान हो गए॥2॥

राजत रामु सहित भामिनी। मेरु सृंग जनु घन दामिनी॥

रुचिर बिमानु चलेउ अति आतुर। कीन्ही सुमन बृष्टि हरषे सुर॥3॥

भावार्थ:-पत्नी सहित श्री रामजी ऐसे सुशोभित हो रहे हैं मानो सुमेरु के शिखर पर बिजली सहित श्याम मेघ हो। सुंदर विमान बड़ी शीघ्रता से चला। देवता हर्षित हुए और उन्होंने फूलों की वर्षा की॥3॥

परम सुखद चलि त्रिबिध बयारी। सागर सर सरि निर्मल बारी॥

सगुन होहिं सुंदर चहुँ पासा। मन प्रसन्न निर्मल नभ आसा॥4॥

भावार्थ:-अत्यंत सुख देने वाली तीन प्रकार की (शीतल, मंद, सुगंधित) वायु चलने लगी। समुद्र, तालाब और नदियों का जल निर्मल हो गया। चारों ओर सुंदर शकुन होने लगे। सबके मन प्रसन्न हैं, आकाश और दिशाएँ निर्मल हैं॥4॥

* कह रघुबीर देखु रन सीता। लछिमन इहाँ हत्यो इँद्रजीता॥

हनूमान अंगद के मारे। रन महि परे निसाचर भारे॥5॥

भावार्थ:-श्री रघुवीरजी ने कहा- हे सीते! रणभूमि देखो। लक्ष्मण ने यहाँ इंद्र को जीतने वाले मेघनाद को मारा था। हनुमान्‌ और अंगद के मारे हुए ये भारी-भारी निशाचर रणभूमि में पड़े हैं॥5॥

* कुंभकरन रावन द्वौ भाई। इहाँ हते सुर मुनि दुखदाई॥6॥

भावार्थ:-देवताओं और मुनियों को दुःख देने वाले कुंभकर्ण और रावण दोनों भाई यहाँ मारे गए॥6॥

दोहा :

* इहाँ सेतु बाँध्यों अरु थापेउँ सिव सुख धाम।

सीता सहित कृपानिधि संभुहि कीन्ह प्रनाम॥119 क॥

भावार्थ:-मैंने यहाँ पुल बाँधा (बँधवाया) और सुखधाम श्री शिवजी की स्थापना की। तदनन्तर कृपानिधान श्री रामजी ने सीताजी सहित श्री रामेश्वर महादेव को प्रणाम किया॥119 (क)॥

जहँ जहँ कृपासिंधु बन कीन्ह बास बिश्राम।

सकल देखाए जानकिहि कहे सबन्हि के नाम॥119 ख॥

भावार्थ:-वन में जहाँ-तहाँ करुणा सागर श्री रामचंद्रजी ने निवास और विश्राम किया था, वे सब स्थान प्रभु ने जानकीजी को दिखलाए और सबके नाम बतलाए॥119 (ख)॥

======






 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें