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शुक्रवार, 5 सितंबर 2025

⚜️️सुनु सुत सदगुन सकल तव हृदयँ बसहुँ हनुमंत। ⚜️️घटना - 346⚜️️अशोक वाटिका में सीता को रावण वध का समाचार और सीता को वापस ले आने का आदेश ⚜️️Shri Ramcharit Manas Gaayan All India Radio Episode 346⚜️️https://www.shriramcharitmanas.in/p/lanka-kand_38.html

श्रीरामचरितमानस 

षष्ठ सोपान

[ लंका  काण्ड]

  [ घटना - 346: दोहा -107,108]


>>>अशोक वाटिका में सीता को रावण वध का समाचार और सीता को वापस ले आने का आदेश 

        युद्ध समाप्ति पर विभीषण का राजतिलक हो चुका है। श्रीराम ने वानर भालुओं को साधुवाद दिया। कहा तुम्हारे ही बल पर रावण जैसे प्रबल शत्रु का वध हुआ, और विभीषण ने लंका का राज्य पाया। वानर-भालू ऐसा वचन सुन कृत -कृत्य हो गए। जनक नन्दिनी का कुशल समाचार ले आने का प्रभु का आदेश पाकर हनुमान एक बार फिर अशोक वाटिका में पहुँचते हैं। उन्हें रावण तथा अन्य राक्षसों के वध का समाचार सुनाते हैं। हनुमान को आशीष कर सीताजी स्वामी के दर्शनों के लिए अपनी आकुलता प्रकट करती हैं। कहती हैं अब कुछ ऐसा उपाय करो कि मुझे प्रभु के दर्शन अविलम्ब प्राप्त हों। वापस लौटकर हनुमान ने श्रीराम लक्ष्मण को जनक नन्दिनी का कुशल समाचार सुनाया। लंकापति विभीषण तथा अंगद को आदेश मिला कि हनुमान के साथ जाकर वे शीघ्र सीता को सदर लिवा लाएं। उधर राक्षसियों ने सीता का अद्भुत श्रृंगार किया। विभीषण द्वारा प्राप्त वस्त्र -आभूषणों से उन्हें सजाया, और सुन्दर पालकी में बिठाया। किन्तु श्रीराम की आज्ञा है कि जनक नन्दिनी पाँव -पैदल चलकर आयें ; ताकि वानर सेना माता को भलीभाँति देख सकें- 

चौपाई :

* पुनि प्रभु बोलि लियउ हनुमाना। लंका जाहु कहेउ भगवाना॥

समाचार जानकिहि सुनावहु। तासु कुसल लै तुम्ह चलि आवहु॥1॥

भावार्थ:-फिर प्रभु ने हनुमान्‌जी को बुला लिया। भगवान्‌ ने कहा- तुम लंका जाओ। जानकी को सब समाचार सुनाओ और उसका कुशल समाचार लेकर तुम चले आओ॥1॥ 

* तब हनुमंत नगर महुँ आए। सुनि निसिचरीं निसाचर धाए॥

बहु प्रकार तिन्ह पूजा कीन्ही। जनकसुता देखाइ पुनि दीन्ही॥2॥

भावार्थ:-तब हनुमान्‌जी नगर में आए। यह सुनकर राक्षस-राक्षसी (उनके सत्कार के लिए) दौड़े। उन्होंने बहुत प्रकार से हनुमान्‌जी की पूजा की और फिर श्री जानकीजी को दिखला दिया॥2॥

* दूरिहि ते प्रनाम कपि कीन्हा। रघुपति दूत जानकीं चीन्हा॥

कहहु तात प्रभु कृपानिकेता। कुसल अनुज कपि सेन समेता॥3॥

भावार्थ:-हनुमान्‌जी ने (सीताजी को) दूर से ही प्रणाम किया। जानकीजी ने पहचान लिया कि यह वही श्री रघुनाथजी का दूत है (और पूछा-) हे तात! कहो, कृपा के धाम मेरे प्रभु छोटे भाई और वानरों की सेना सहित कुशल से तो हैं?॥3॥

* सब बिधि कुसल कोसलाधीसा। मातु समर जीत्यो दससीसा॥

अबिचल राजु बिभीषन पायो। सुनि कपि बचन हरष उर छायो॥4॥

भावार्थ:-(हनुमान्‌जी ने कहा-) हे माता! कोसलपति श्री रामजी सब प्रकार से सकुशल हैं। उन्होंने संग्राम में दस सिर वाले रावण को जीत लिया है और विभीषण ने अचल राज्य प्राप्त किया है। हनुमान्‌जी के वचन सुनकर सीताजी के हृदय में हर्ष छा गया॥4॥

छंद- 

* अति हरष मन तन पुलक लोचन सजल कह पुनि पुनि रमा।

का देउँ तोहि त्रैलोक महुँ कपि किमपि नहिं बानी समा॥

सुनु मातु मैं पायो अखिल जग राजु आजु न संसयं।

रन जीति रिपुदल बंधु जुत पस्यामि राममनामयं॥

भावार्थ:-श्री जानकीजी के हृदय में अत्यंत हर्ष हुआ। उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में (आनंदाश्रुओं का) जल छा गया। वे बार-बार कहती हैं- हे हनुमान्‌! मैं तुझे क्या दूँ? इस वाणी (समाचार) के समान तीनों लोकों में और कुछ भी नहीं है! (हनुमान्‌जी ने कहा-) हे माता! सुनिए, मैंने आज निःसंदेह सारे जगत्‌ का राज्य पा लिया, जो मैं रण में शत्रु को जीतकर भाई सहित निर्विकार श्री रामजी को देख रहा हूँ।

दोहा :

सुनु सुत सदगुन सकल तव हृदयँ बसहुँ हनुमंत।

सानुकूल कोसलपति रहहुँ समेत अनंत॥107॥

भावार्थ:-(जानकीजी ने कहा-) हे पुत्र! सुन, समस्त सद्गुण तेरे हृदय में बसें और हे हनुमान्‌! शेष (लक्ष्मणजी) सहित कोसलपति प्रभु सदा तुझ पर प्रसन्न रहें॥107॥

चौपाई :

अब सोइ जतन करहु तुम्ह ताता। देखौं नयन स्याम मृदु गाता॥

तब हनुमान राम पहिं जाई। जनकसुता कै कुसल सुनाई॥1॥

भावार्थ:-हे तात! अब तुम वही उपाय करो, जिससे मैं इन नेत्रों से प्रभु के कोमल श्याम शरीर के दर्शन करूँ। तब श्री रामचंद्रजी के पास जाकर हनुमान्‌जी ने जानकीजी का कुशल समाचार सुनाया॥1॥

* सुनि संदेसु भानुकुलभूषन। बोलि लिए जुबराज बिभीषन॥

मारुतसुत के संग सिधावहु। सादर जनकसुतहि लै आवहु॥2॥

भावार्थ:-सूर्य कुलभूषण श्री रामजी ने संदेश सुनकर युवराज अंगद और विभीषण को बुला लिया (और कहा-) पवनपुत्र हनुमान्‌ के साथ जाओ और जानकी को आदर के साथ ले आओ॥2॥

* तुरतहिं सकल गए जहँ सीता। सेवहिं सब निसिचरीं बिनीता॥

बेगि बिभीषन तिन्हहि सिखायो। तिन्ह बहु बिधि मज्जन करवायो॥3॥

भावार्थ:-वे सब तुरंत ही वहाँ गए, जहाँ सीताजी थीं। सब की सब राक्षसियाँ नम्रतापूर्वक उनकी सेवा कर रही थीं। विभीषणजी ने शीघ्र ही उन लोगों को समझा दिया। उन्होंने बहुत प्रकार से सीताजी को स्नान कराया,॥3॥

* बहु प्रकार भूषन पहिराए। सिबिका रुचिर साजि पुनि ल्याए॥

ता पर हरषि चढ़ी बैदेही। सुमिरि राम सुखधाम सनेही॥4॥

भावार्थ:-बहुत प्रकार के गहने पहनाए और फिर वे एक सुंदर पालकी सजाकर ले आए। सीताजी प्रसन्न होकर सुख के धाम प्रियतम श्री रामजी का स्मरण करके उस पर हर्ष के साथ चढ़ीं॥4॥

बेतपानि रच्छक चहु पासा। चले सकल मन परम हुलासा॥

देखन भालु कीस सब आए। रच्छक कोपि निवारन धाए॥5॥

भावार्थ:-चारों ओर हाथों में छड़ी लिए रक्षक चले। सबके मनों में परम उल्लास (उमंग) है। रीछ-वानर सब दर्शन करने के लिए आए, तब रक्षक क्रोध करके उनको रोकने दौड़े॥5॥

कह रघुबीर कहा मम मानहु। सीतहि सखा पयादें आनहु॥

देखहुँ कपि जननी की नाईं। बिहसि कहा रघुनाथ गोसाईं॥6॥

भावार्थ:-श्री रघुवीर ने कहा- हे मित्र! मेरा कहना मानो और सीता को पैदल ले आओ, जिससे वानर उसको माता की तरह देखें। गोसाईं श्री रामजी ने हँसकर ऐसा कहा॥6॥

* सुनि प्रभु बचन भालु कपि हरषे। नभ ते सुरन्ह सुमन बहु बरषे॥

सीता प्रथम अनल महुँ राखी। प्रगट कीन्हि चह अंतर साखी॥7॥

भावार्थ:-प्रभु के वचन सुनकर रीछ-वानर हर्षित हो गए। आकाश से देवताओं ने बहुत से फूल बरसाए। सीताजी (के असली स्वरूप) को पहिले अग्नि में रखा था। अब भीतर के साक्षी भगवान्‌ उनको प्रकट करना चाहते हैं॥7॥ 

दोहा :

* तेहि कारन करुनानिधि कहे कछुक दुर्बाद।

सुनत जातुधानीं सब लागीं करै बिषाद॥108॥

भावार्थ:-इसी कारण करुणा के भंडार श्री रामजी ने लीला से कुछ कड़े वचन कहे, जिन्हे सुनकर सब राक्षसियाँ विषाद करने लगीं॥108॥

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