दो प्रकार का ज्ञान होता है। एक परोक्ष एक अपरोक्ष ! अपरोक्ष अनुभूति ही ठीक ठीक अनुभूति होती है। सिर्फ बुद्धि से भी कोई व्यक्ति यदि आत्मा को समझले तो ये बहुत बड़ी बात है। ये कोई छोटी बात नहीं है। लेकिन नेति-नेति विचार -बुद्धि से कितने लोग समझ पाते हैं ? अगर कोई समझ भी ले तो , उतने मात्र से हमारी समस्या का समाधान नहीं हो सकता। साक्षात् अपरोक्ष ज्ञान जो है , अब तू उसके लिए प्रयास कर। गुरु शिष्य से कह रहे हैं - " अब देख, मन को निग्रहीत कर और एक शुद्ध अन्तःकरण के द्वारा -साक्षात् अपरोक्ष रूप से 'मैं वही हूँ !' I Am He, I Am He, 'मैं वही हूँ' I Am He- का मतलब : शिवोऽहम्, शिवोऽहम्, शिवोऽहम् -उसको इस प्रकार अनुभव कर। उस प्रकार अनुभव करके -जनिमरणतरङ्गा पारसंसार सिन्धुं प्रतर! 'जनि मरण तरङ्ग अपार संसार सिन्धु प्रतर !' - और इस संसार रूपी समुद्र में जो जन्म-मरण रूपी तरङ्गे हैं; ये जो जन्म -मरण तरङ्गो वाली संसार-सिन्धु है, इसको पार कर ! 'मैं वही आत्मा हूँ' ~ शिवोऽहम् ! इस प्रकार साक्षात् रूप से अनुभव करके, इस जन्म-मृत्यु रूपी इस संसार सागर को तू पार कर ! और इस संसार-सिन्धु को पार करके - भव कृतार्थो ! अपने जीवन को तू कृतार्थ बना ले और 'ब्रह्मरूपेण संस्थः' और तू ब्रह्मरूप में प्रतिष्ठित हो जा।" ये गुरु का आदेश है।
सब उपदेश देने के पश्चात्, गुरु शिष्य को यह आदेश दे रहे है कि देखो; अब मन को नियंत्रित करके शुद्ध अन्तःकरण के द्वारा 'मैं वही हूँ -शिवोऽहम् !' ऐसे साक्षात् रूप से उसको अनुभव कर। (इन्द्रियातीत सत्य वस्तु) आत्मा को अनुभव कर ! अनुभव करके यह जो भवसागर यानि संसार सागर है, उसमें जन्म और मृत्यु दो लहरों के समान हैं। ऐसी जन्म-मृत्यु रूपी जो लहरें उठने वाले इस संसार-सागर को पार करके तू कृतार्थ हो जा, ब्रह्म में प्रतिष्ठित हो जा। ये आदेश है, अब ये आदेश हम सबके लिए है। जैसे यहाँ पर कोई गुरु किसी शिष्य से कह रहे हैं, उसी प्रकार हमको यह समझ लेना चाहिए कि ये आदेश हम सबके लिए है। अब कोशिश करो ! अब आप आत्मा की अनुभूति करके ब्रह्म में प्रतिष्ठित होने की कोशिश करो ! ये काम एक दिन में नहीं होगा।
अब- प्रत्याहार -धारणा (पूरा अष्टांग योग) बता देने के बाद; अब आप हर रोज साधन-चतुष्टय पर ध्यान देते हुए -आप नियमित रूप से मनन और निदिध्यासन करोगे ! हम लोगों ने श्रवण किया और मनन किया है ! 22 सत्रों में हमने इस विवेक-चूड़ामणि ग्रंथ पर सही रूप में चर्चा किया , यह भी एक तरह से मनन ही हुआ। अब यह श्रवण-मनन चलते रहना चाहिए। और साथ में निदिध्यासन भी होना चाहिए। जब साधन-चतुष्टय परम्परा में हमारा श्रवण-मनन -निदिध्यासन चलता रहेगा , तो हमें एक दिन यह हमे यह ज्ञान हो कि स्वरूपतः हम क्या है ? हम कौन है ? ये ज्ञान होगा , और तभी हमारा जीवन कृतार्थ होगा। (10:28)
अब इसके बाद गुरु आदेश देते हैं,अब तुम विवेक (प्रयोग) करो ! भवान् अपि इदं परतत्वं आत्मनः स्वरूपं आनंद घनं विचार्य। क्या विवेक-करना है ? 'भवान् अपि' - गुरु शिष्य रूपी शिशु से कह रहे हैं, अभी तुम भी ऐसा कर! (भवानपीदं परतत्त्वमात्मनः स्वरूपमानन्दघनं विचार्य ।)
'परतत्वं' आत्मनः स्वरूपं आनन्द घनं विचार्य ! वो जो (मैं -प्रलय के बाद भी अनुभूति में आने वाला) सच्चिदानन्द स्वरुप ब्रह्म -परमात्मा है, जो कि आनंदघन है- आनंदस्वरूप है ! हमारा जो असली स्वरुप है,आनंद स्वरुप है; अनात्मा से उसका विवेक करके, अनात्मा से (आधारकार्ड वाले अहं से) उसको पृथक करके - विधूय मोहं स्वमनःप्रकल्पितं ! स्व मन प्रकल्पितं - मन के द्वारा कल्पित जितना भी मोह है (नाते-रिश्तों से राग है -विपरीत लिंग के शरीर में मोह है न?), उस मोह या आसक्ति को दूर करके। हमारे अंदर जितना भी मोह- है ये सारा 'मोह' शरीर केंद्रित है। (तीनों ऐषणाओं में राग है) (11:22)
स्थूल शरीर के विवरण में हमने पढ़ा था - मोहास्पदं ! ये स्थूल शरीर कैसा है ? स्थूल शरीर ही मोह का आस्पद है। हमने 74 वें श्लोक में पढ़ा था - अहं ममेति प्रथितं शरीरं मोहास्पदं स्थूलं इति ऋते बुधैः । इस स्थूल शरीर को लेकर ही, आईने में जो चेहरा दीखता है , उसीको लेकर हमारी यह धारणा होती है , कि ये 'मैं' हूँ और ये 'मेरा' है ! और यह स्थूल शरीर ही मोह का आस्पद है। शरीर से ही तो मोह होता है ? आईने में दिखने वाले अपने चेहरे के प्रति - आधारकार्ड में छपे फोटो के प्रति हमारा जो मोह होता है , उस मोह को ही हमारा मन कल्पित मोह - स्व मनः कल्पित मोह' , इस मोह को मूलतः -परिपूर्णतः उसको दूर करके -"विधूय" क्या करना है ? मुक्तः कृतार्थो भवतु प्रबुद्धः ! तू मुक्त हो जा, कृतार्थ हो जा, और भवतु प्रबुद्धः, अब तू प्रबुद्ध होजा , माने ज्ञानी हो जा। प्रबुद्ध होना यानि परम ज्ञान को प्राप्त कर लेना। उस बोध को प्राप्त कर लेना। आत्मबोध को प्राप्त कर लेना। (Enlightened from within-भीतर से प्रबुद्ध-आत्मज्ञानी हो जाना) शंकराचार्य जी की एक किताब का नाम है - आत्मबोध ! (12:31) आत्मबोध का मतलब है -आत्मज्ञान ! उस आत्मज्ञान को तू प्राप्त कर। (तू उस आत्मज्ञान को तू प्राप्त कर, जिस आत्मज्ञान को प्राप्त करके सिद्धार्थ गौतम , गौतम बुद्ध बन गया था ?)
इन दो श्लोकों में गुरुदेव अपने शिष्य को ये आदेश दे रहे हैं कि बेटा देख , अब तू ऐसा कर , और ऐसा करके तू अपने जीवन को धन्य (सार्थक) बना ले। गुरु का ये आदेश हम सभी लोगों के लिए है। गुरु से शास्त्र से इस शिष्य को जो भी समझना था , उसे समझने के पश्चात् , श्रवण कर लिया , मनन भी अच्छी तरह से कर लिया ? मनन यानि शास्त्र से और गुरु से जो सुना -उसी के अनुसार और अनुकूल युक्ति को लगाकर हम किस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं ? हमारा अंतिम निर्णय यह होता है कि एकमेवाद्वितीय आत्मा ही है, ब्रह्म ही है, ईश्वर ही है। ईश्वर से अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।
ये अनात्मा (नाम-रूप?) जो दिख रहा है न (जीव और जगत) -ये सिर्फ दिख रहा है। वास्तव में है ही नहीं। वास्तव में क्या है ? वास्तव में ईश्वर ही है ! यह विवेक है। अब यह विवेक को समझने की परिसमाप्ति हो रही है- कि एकमात्र ब्रह्मतत्व ही है। ईश्वर ही है। ईश्वर से पृथक ना तो कोई जगत है , ईश्वर से पृथक ना तो कोई जीव है। हम जिसको जीव या जगत कह रहे हैं , ये मूलतः ईश्वर ही है। हम अज्ञान में हैं , (हमारे शिवत्व को अर्थात विवेक को माँ काली ने ढँक लिया है?)इसीलिए हमको अज्ञान में लगता है कि यह कोई जीव है , सामने कोई जगत है ! इस प्रकार अच्छी तरह से विवेक करके , यह समझ जो तुम्हें शास्त्रों से , परोक्ष रूप में जो तुमने ग्रहण किया है, वह तुमने परोक्ष रूप में ग्रहण किया है , अभी उसको तुमने केवल बुद्धि से समझा है। अब तुम्हें तीन बिन्दुओं - जीव, जगत और ईश्वर को इन तीनों के एकत्व को (Oneness of existence) अपने अनुभव से समझना है। अब तू उसके लिए प्रयास कर। यानि अब तुम्हे निदिध्यासन करने की आवश्यकता है। श्रवण (प्रत्याहार और धारणा का श्रवण) हो गया , मनन हो गया , अब ध्यान करो- ध्यान में लग जाओ। अब गुरु ध्यान में लग जाने का आदेश दे रहे हैं। (14:34)
अब आप ऐसी कल्पना कर सकते हैं कि ऐसा आदेश पाने के बाद शिष्य गुरु के आश्रम से अपने घर की और चल पड़ा है। गुरु का काम यहीं तक है -अब गुरु का काम खत्म हो गया। अब आगे की कोशिश साधन-चतुष्टय पर दृष्टि केंद्रित रखकर शिष्य को खुद करना है। गुरु बता देंगे भाई दिल्ली जाने का रास्ता ये है। उसके बीच में ये सारे 'चक्करदार मार्ग' (diversion) आएंगे , उन रास्तों में नहीं जाना ! इस सीधे रास्ते को ही पकड़ना। कौन सा रास्ता स्वीकार नहीं करना है?
और कौन सा रास्ता स्वीकार्य है ? ये सब चेतावनी बता देते हैं। लेकिन अब साधन-चतुष्टय के अनुसार चलने का काम तो शिष्य का ही है। उसको स्वयं चलना पड़ेगा। गुरु का काम है सिर्फ रास्ता दिखा देना। सब कुछ स्पष्ट करके direction दे देना , सबकुछ स्पष्ट करके दिखा देना। शास्त्र का काम यहीं तक है , अब शास्त्रोक्त मार्ग पर चलना, शास्त्र निसिद्ध मार्ग से बचना तो शिष्य को स्वयं ही पड़ेगा। अब वह शिष्य गुरु के आश्रम से चला जाता है , और हो सकता है छः महीना , या छः साल या 10 साल 12 साल ; पता नहीं। लेकिन जब गुरु के सानिध्य से शिष्य लौट जाता है , एकांत स्थान में (अपने पूजा घर में -और निर्जन में कैम्प में) जाता है , और भरपूर साधना करता है। गुरु के बताये हुए मार्ग -Be and Make ! पर वो भरपूर साधना करता है। और साधना करके उसको अंत में 'परम् आत्मज्ञान' उसको हो जाता है। ये आत्मलाभ- ईश्वरलाभ उसको हो जाता है ! (15:54) उस आत्मज्ञान, आत्मबोध या ईश्वरलाभ को प्राप्त करना - अब ये साक्षात् अपरोक्ष अनुभूति की बात है ! हाँ अब ये 'ईश्वरलाभ या आत्मबोध' के एकत्व को बुद्धि से समझने की बात नहीं है। जब हम गंभीर निदिध्यासन करते हैं , ध्यान में डूब जाते हैं - 'शिवोऽहम्, शिवोऽहम्, शिवोऽहम्' के ध्यान में - तो अभी मरेगा कौन ? की सीमा से परे चले जाते हैं ; तो एक अतीन्द्रिय दशा में जीव को (आधारकार्ड के अहं को नहीं आत्मा को?) अपने सत्य स्वरुप का ज्ञान होता है। यह अनुभूति अतीन्द्रिय अनुभूति होती है। हमने पहले ही देखा था ईश्वर को या आत्मा को देखने का वेदांती सिद्धांत क्या है ? तं अगोचरं -है न ? तो इस प्रकार उस अतीन्द्रिय या अपरोक्षानुभूति प्राप्त करता है -साधना में सफल होता है। उसका जीवन धन्य होता है। इस प्रकार अपरोक्षानुभूति प्राप्त करके वो शिष्य पुनः अपने गुरु के पास आता है।
तो दो चित्र है यहाँ -तुलना करके देखना होगा। शिष्य जब पहली बार गुरु के पास आया था , तो कैसे आया था ? वह अत्यंत व्याकुल , भयभीत था -कह रहा था कि मैं इस संसार-सागर में डूब रहा हूँ। इस संसार की अग्नि में मैं तप रहा हूँ। भयभीत हूँ , मैं प्रपन्न हूँ -आपके चरणों में मैं शरणागत हूँ। आपकी कृपाकटाक्ष मुझपर हो , आप मेरा मार्गदर्शन करें। मुझे इस अंधकूप में गिरने की समस्या से बाहर निकालिये। ऐसी अत्यंत ही वेदनायुक्त मानसिक दशा में ये शिष्य अपने गुरु के पास आया था। और शास्त्र और गुरु के वाक्य और मुख से निसृत शब्दों (बीजमंत्रों) से अवगत होने के पश्चात् जब उसकी सारी भ्रांतियाँ दूर हो गयीं। और गुरु निर्दिष्ट मार्ग पर चलकरके जब उसे अपरोक्ष अनुभूति होती है ; जब उसको 'स्व ' का मतलब समझ में आता है। ये सब 'स्व' का अर्थ निर्धारण ही चल रहा है न ? इस 'स्व' का मतलब क्या है ? इस 'मैं' मतलब क्या है? इस 'मैं' शब्द का क्या अर्थ है ? 'मैं' का अर्थ यह स्थूल-शरीर हो सकता है क्या ? ये प्रश्न है। तो इस शिष्य को अंत में इस 'अहं' का ज्ञान होता है। अहं का अर्थ वो आत्मा है, देह-इन्द्रिय का समुच्य नहीं हो सकता। आत्मा या हमारा सत्य स्वरुप देहात्मा का संघात नहीं है। अब वो जब दुबारा अपने गुरु के पास आता है - तो यह बताने के लिए , अपनी कृतज्ञता दर्शाने के लिए आ रहा है। उसके मुँह में शब्द नहीं है। गुरुदेव को कैसे मैं बताऊँ ? गुरुदेव ने मुझको क्या दिया है !! गुरु से जो नाम मिला है - उसका कोई मोल है ? ये अनमोल चीज है ! (18:35) इसकी कोई तुलना ही नहीं हो सकती है। तो इस प्रकार जो शिष्य है -इस परम् अनुभूति को प्राप्त करने के पश्चात्, वे सफल शिष्य जब अपने गुरु के पास आते हैं , तो अब उनके शब्दों को देखो। वो पहले तो अपनी अनुभूति को बताता है। बहुत सुंदर शब्द हैं - स्वामी विवेकानंद अपनी व्याख्यानों में कई जगहों पर इसका उदाहरण देते हैं। वो अतिसुंदर शब्द क्या हैं -
क्व गतं केन वा नीतं कुत्र लीनमिदं जगत् ।
अधुनैव मया दृष्टं नास्ति किं महदद्भुतम् ॥ ४८३ ॥
483. Where is the universe gone, by whom is it removed, and where is it merged? It was just now seen by me, and has it ceased to exist? It is passing strange!
" क्व गतं केन वा नीतं कुत्र लीनं इदं जगत "- अज्ञान में हमको जीव और जगत ही दिखाई देता है। हमारी दशा अभी यही है , जब तक हमको ज्ञान नहीं हुआ, हमको तो सिर्फ जीव और विश्व-प्रपंच ही दिखाई देता है। और इन्द्रियों के माध्यम से दिखने वाले जीव और जगत प्रपंच के विषय में हमारे अंदर निःसंदिग्ध सत्यत्व बुद्धि है। निःसंदिग्ध मतलब 'Without any doubt' बिना किसी शक के -' not a grain of doubt'-जीव जगत तो है है - इसमें रत्ती भर शक की भी गुंजाईश नहीं है !is it not? ? सर्वसाधारण मनुष्य की बुद्धि में क्या है ? यही सत्य है ! जो विश्व-प्रपंच इन्द्रियगोचर हो रहा है - यही तो सत्य है ! प्रपंच ही है। जीव और जगत ही है। सपने में दिखने वाला जो पूरा विश्व-ब्रह्माण्ड है , उसके प्रति उस सपने के अंदर जो जीव है, उसकी क्या बुद्धि होती है ? यह अपनेआप में पूरा सत्य है। is it not? ? उसी प्रकार हमारी आज की स्थिति क्या है? सर्वसाधारण को , जिसको अभी ज्ञान नहीं हुआ , जो सत्य को नहीं जानता ; उसकी धारणा यही है कि , ये जो इन्द्रियों से दिखने वाला जगत प्रपंच जो है , इसमें हमको जीव दिख रहा है ,अनगिनत प्रकार के जीव दिख रहे हैं। और सारा जो ये ब्रह्माण्ड दिख रहा है - (निश्चित तारीख को सूर्यग्रहण -चंद्रग्रहण हो रहा है) यह सब देखकर हमको लगता है कि यह सब सत्य है। जीव और जगत है , इसको सत्य समझना ही हमारी आज की दशा है। जब तक ज्ञान नहीं होता, यही चलता रहता है। अब जब जिस किसी को ज्ञान होता है , चलो इसमें आप सभी ज्ञानियों को ले लो। चाहे वो विवेकानन्द जी हों, या शंकराचार्यजी हों, रमण महर्षि जी हों , रामकृष्ण परमहंसदेव जी हों - जो भी हों ; किसी को भी ले लीजिये आप। उनको स्वामी विवेकानन्द जी को जब यह अपरोक्ष अनुभूति होती है, तब उनकी अनुभूति में क्या आती है ? (21:25)
" क्व गतं केन वा नीतं कुत्र लीनं इदं जगत "
अब वो जगत प्रपंच कहाँ चला गया ? उद्गार कितने सुंदर है ? कहते हैं - कहाँ चला गया ? क्या कहाँ चला गया ? जीव और जगत ! जीव और जगत के विषय में जब अपरोक्ष अनुभूति होती है, तब लगता है (प्रलय जैसी तेजी से घूमता हुआ -सूर्य ,चंद्र , पृथ्वी देखने वाला अहं) ये सब , उसे यह अनुभूति होती है कि ये पूरा ब्रह्माण्ड कहाँ चला गया भाई ? तो ये प्रश्न अज्ञान में पूछे गए प्रश्न का सीधा उल्टा है न ? (21:49) दो प्रकार का फल है - ज्ञान का फल एक प्रकार का है , अज्ञान का फल सीधा उल्टा है। ज्ञानी पुरुष के मुंह से निकलने वाले जो अत्यंत ही सुंदर ज्ञानवर्धक जो उद्गार है, वो है- " क्व गतं ?" कहाँ चला गया ? क्या ? जीव और जगत -कहाँ चला गया ?-'केन वा नीतं ?' किसके द्वारा ये हटा दिया गया ? जैसे कि किसी ने इसको हटा दिया ? 'केन वा नीतं ?' किसको द्वारा ये निकाल दिया गया ? जैसे कि किसी ने उसको गायब कर दिया ? अभी तक दिखाई दे रहा था ? अब नहीं है !" क्व गतं ?" कहाँ चला गया ? 'केन वा नीतं ?' कुत्र लीनं इदं जगत ? ये जगत कहाँ लीन हो गया ? कितना सुंदर उद्गार है ! शिष्य के उद्गार में पूरा आश्चर्य का भाव है ! शिष्य के मुख से निकलने वाले इन शब्दों के पीछे का जो भाव है , वो पूरा विस्म्यकारी भाव है। किसी को भी ऐसा ही विस्म्यकारी होगा !! - जिस दिन हमें भी अपरोक्ष अनुभूति होगी, उस दिन हमें भी ऐसा ही विस्मय होगा ! क्योंकि हम अभी तक समझ रहे थे जीव-जगत , जीव-जगत , जीव-जगत , जिसको हमलोग जीव-जगत बोल रहे थे ; जिस दिन अपरोक्ष अनुभूति होगी, आपको भी यही समझ में आयेगा कि जीव-जगत को है ही नहीं !! जो नहीं है , हमको लग रहा था कि वो है ! कहाँ गया ? कौन ले गया ? किसके द्वारा ये हटाया गया है ? (23:13) कहाँ लीन हो गया ये जगत ? हमारे अंदर भी यही एक विस्मयकारी भाव होगी। क्या अद्भुत है !! दूसरी पंक्ति में कहते हैं- अधुनैव मया दृष्टं ! अधुना माने अभी -कुछ देर पहले तक मैं जीव और जगत को देख रहा था। अब क्या है ? नास्ति ! अभी न तो जीव है न जगत है। 'किं महदद्भुतम् ! किं महदद्भुतम् ! किं महदद्भुतम् !!!' क्या आश्चर्य है ? क्या आश्चर्य है ? क्या आश्चर्य है ? आश्चर्य है -विस्मयकारी है ! हम क्या समझके बैठे थे ? आप स्वप्न-सृष्टि के उदाहरण को देखिये। स्वप्न-सृष्टि में आज हमारी सत्यत्व बुद्धि है। है न ? हमको ये निःसंदिग्ध धारणा है कि यह सृष्टि सत्य है ; उसी प्रकार यहाँ भी हो रहा है ! किसी के भी मन में ये संदेह है ही नहीं कि -ये सृष्टि तो है ही नहीं ! यहाँ सिर्फ ईश्वर है - ऐसी धारणा किसी भी हम जैसे साधारण (अज्ञानी) मनुष्य की नहीं है। लेकिन जिस दिन हमें ये अपरोक्ष अनुभूति होगी , उस दिन हम देखेंगे कि , कहाँ है जीव और जगत ? यहाँ तो ईश्वर मात्र ही है। ईश्वर से अतिरिक्त यहाँ पर कुछ भी नहीं है! ईश्वर से भिन्न , ईश्वर से अतिरिक्त द्वितीय कोई वस्तु यहाँ है ही नहीं ! जीव भी नहीं है , जगत भी नहीं है। श्रवण और मनन करते समय भी ये थोड़ा सा चित्र हमको मिल गया था ! (24:43) लेकिन अभी भी अनुभूति नहीं हुई है। है ना ? श्रवण-मनन करके भी हम इसी निष्कर्ष पर पहुँचे थे। is it not ? हमने कहा था - When you dig into the Jiva , what emerges ? God ! जब आप जीव में खोज करते हैं, तो क्या उभरता है? ईश्वर! And, When you dig into the world , what emerges ? God ! और जब आप संसार में खोजबीन करते हैं, तो क्या सामने आता है? ईश्वर! Where has the world and Jiva gone ? संसार और जीव कहाँ चले गए ? वे जीव -जगत चले गए - सिर्फ ईश्वर का ही अस्तित्व है। श्रवण और मनन करके भी हम यहाँ पहुँच जाते हैं। लेकिन हम पहुँचे नहीं हैं। ये अपरोक्ष अनुभूति होनी चाहिए। अभी हमने बुद्धि से कुछ कुछ समझा - वो भी छोटी बात नहीं है। वह भी ईश्वर के अनुग्रह से ही हो रहा है। उस 'अव्यक्त नाम वाली'? परमेश शक्ति (काली) के अनुग्रह से ही सबकुछ हो रहा है। लेकिन अब इस साधन चतुष्टय को आगे ले जाना है , और जब हमको भी अपरोक्ष अनुभूति होगी , तब -वो लक्ष्य प्राप्त हो गया। 'मैं कौन हूँ ?'- को खोजने का काम पूरा हो गया ! तब हमारे अंदर भी इसी प्रकार से विस्मय का भाव होगा। आश्चर्य का भाव होगा कि क्या अद्भुत है ! अबतक मुझे दिखाई दे रहा था।
ज्ञान होने से थोड़े देर पहले तक मुझको जीव और जगत दिखाई दे रहा था ! अब -नास्ति , अब न तो जीव है न जगत है ! एक ईश्वर से अतिरिक्त यहाँ कुछ भी नहीं है- ये अनुभूति होती है ! सपना जब टूट जाता है , तब क्या होता है ? और रोज हो रहा है। कहाँ गया वो स्वप्न सृष्टि ? कौन ले गया उस स्वप्न ब्रह्माण्ड को ? कहाँ लीन हो गयी वो स्वप्न सृष्टि ? है कि नहीं ? जब तक सपना चल रहा , तब तक जिस सपने के प्रति हमारे अंदर निःसंदिग्ध सत्यत्व बुद्धि थी कि नहीं ? जब वो सपना टूटता है -तो बताओ कहाँ चला गया वो ब्रह्माण्ड ? कौन ले गया वो ब्रह्माण्ड ? कहाँ लीन हो गया वो ब्रह्माण्ड ? थोड़ी देर पहले तक मैं देख रहा था ,अब है कहाँ वो स्वप्न सृष्टि ? उस स्वप्न सृष्टि के बारे में हम क्या कहेंगे ? क्या हम कह सकते हैं कि वो है? ऐसा हम नहीं कह सकते। क्या आप कह सकते हो -वो नहीं है ? ऐसा भी नहीं कह सकते। तो क्या कहोगे आप ? महदद्भुतम् , अनिर्वचनीयं ! तो सच्चाई ये है कि अज्ञान में भी सबकुछ विस्मयकारी है , और ज्ञान में भी सबकुछ विस्मयकारी है। ये बुद्धि से समझने वाली बात नहीं है। हमारे अंदर यहाँ पहुँचकर समर्पण का भाव आ जाता है। (27:00) बुद्धि जैसे कि झुक जाती है। अद्भुत चीज है। अभी भी देखो , जब हमको ये दिखाई दे रहा है। ये सबकुछ तो सचमुच विस्मयकारी है ! महाद्भुत अनिर्वचनीय है , और जब ज्ञान होगा ; उस वक्त हमको दिखाई देगा -जिसको मैं सत्य समझ रहा था , कहाँ गया वो ? कौन ले गया ? कहाँ लीन हो गया ? थोड़ी देर पहले मैं देख रहा था। लेकिन अब देख रहा हूँ , नहीं है ? क्या अद्भुत चीज है ! क्या अद्भुत चीज है ! क्या अद्भुत अनुभूति है ? This is the climax ! यह पराकाष्ठा है। कभी न कभी हर मनुष्य इस अपरोक्ष अनुभूति तक जरूर पहुंचेगा ! हो सकता है 10 साल बाद, इस जन्म में , अगले जन्म में? 10 जन्मों के बाद - लेकिन देहोअहं से शिवोहम तक मनुष्य की जो यात्रा है -यही उसकी दिशा है ! कभी न कभी हमको यह अनुभूति होने ही वाली है। अगर शास्त्र ने जैसा कहा है , वैसा हम करें , साधन-चतुष्टय के साथ यदि निदिध्यासन में लगे रहें तो यह अनुभूति होने ही वाली है।
अज्ञान में रेगिस्तान में जो पानी दिख रहा था , ज्ञान होते ही क्या हो गया ? कहाँ गया वो पानी ? कौन ले गया वो पानी ? कहाँ विलीन हो गया वो पानी ? थोड़ी देर पहले मैं सोंच रहा था कि वहां पानी है। लेकिन अब मैं देखरहा हूँ , वहाँ एक बून्द भी पानी नहीं है। वहाँ रेत ही है। क्या आश्चर्य है? रज्जु में मुझे सर्प दिखाई देता है। जब तक अज्ञान में हैं , तब तक मुझे सर्प दिखाई देता है। सर्प के विषय में सत्यत्व बुद्धि है। लेकिन जैसे ही ज्ञान होता है , तो वो सर्प कहाँ गया ? कौन ले गया ? कहाँ विलीन हो गया ? थोड़ी देर पहले मुझे लग रहा था कि वहाँ सर्प है , अब मैं देख रहा हूँ रज्जु है ! तो क्या आश्चर्य ! तो बीच में मैं जो सचमुच अनुभव हो रहा था उसको क्या कहेंगे? महद्भुतम अनिर्वचनीयं ! ऐसी किसी वस्तु की अनुभूति होना जो वास्तविक रूप में विद्यमान नहीं है ; उसका सबसे सुंदर उदाहरण हमारा स्वप्न जो है , उसको हम रोज अनुभव करते हैं। समस्या यह है कि अभी जिसको हम जाग्रत में जीव -जगत कह रहे हैं - यह भी सपना है। अभी केवल हमको यह समझ में नहीं आ रहा है। उसी के लिए है, शास्त्र -विचार , विवेक-विचार, वैराग्य आदि साधन-चतुष्टय आदि इसे समझने के लिए ही है। जैसे जैसे हम साधन चतुष्टय में और भी सम्पन्न होंगे , षटसंम्पति और मुमुक्षत्व की वृद्धि जितनी होते जाएगी -तब धीरे धीरे यह भी स्पष्ट होगा कि ये भी एक सपना है , और यह सपना एक दिन अवश्य टूटेगा। ये सपना भी टूटेगा।
अभी देखिये हम दो प्रकार के जीवन को जी सकते हैं। या तो इस प्रकार के जीवन को जियोगे जिससे हम इस सपना को और भी मजबूत कर रहे हों। अगर आप काम भोग में, विषय-भोग में डूब कर जिओगे , सब प्रकार के भोगों में अपनेआप को डुबोते हो , तो क्या होगा ? ये सपना टूटेगा क्या ? ये सपना और भी मजबूत होता रहेगा। इसी प्रकार ये बंधन चलता रहता है। दूसरा विकल्प क्या है ? आप साधन-चतुष्टय संपन्न होकर के कहीं भी न चिपकते हुए ! बहुत ही बुद्धिपूर्वक -यही जीवन जीने की कला है। कहीं भी न चिपकते हुए , विवेक-वैराग्य के द्वारा सबको Intelligently handle करते करते , सभी परिस्थितियों को बुद्धिमानी के साथ सँभालते हुए , ईश्वर के अनुग्रह से ये देह , धन या प्रसिद्धि में आसक्ति और राग का सपना भी एक दिन टूटेगा। यह जो बंधन है वह कमजोर होते -होते जायेगा। लेकिन योग और त्याग के विपरीत जो भोग में डूबने का पथ है उसमें यह बंधन और भी मजबूत होता जायेगा। (30:42) ये दो मार्ग हैं -अविवेक में जब हम अपनेआप को विषयों में डुबो देते हैं , सबसे चिपकते है -आसक्त होते हैं ; विपरीत लिंग के देह में attached हो जाते हैं, और उसको प्रेम समझते हैं। अविवेक में हम विभिन्न विषयों और व्यक्तियों से चिपकते हैं, आसक्त होते हैं -और उसको हम love समझते हैं ; ऐसा जीवन जिओगे तो क्या होगा ? ये जो सपना है , वो और भी मजबूत होता जाता है।
विवेक-वैराग्य साधन चतुष्टय सम्पन्न होकर आप जिओगे , जिस जीवन में आप किसी के साथ चिपकते नहीं हो , सबके साथ रहते हो। सबके भलाई के लिए काम कर रहे हो। लेकिन जानते हो -गुरु ने बताया है, कि ये (महामण्डल का पद-प्रतिष्ठा भी) एक सपना है। यहाँ किसी से चिपको मत। मन को निग्रहीत करके, इन्द्रियों को निग्रहीत करके , षट्सम्पत्ति सम्पन्न होकरके जब हम ऐसा जीवन जीते है - काम, क्रोध , लोभ , मद , मोह मात्सर्य -इन षडरिपुओं से ऊपर उठ करके जब हम जीवनको जियेंगे ; तब धीरे -धीरे इस सपने के प्रति हमारे अंदर जो सत्यत्व बुद्धि है वह कमजोर होने लगती है। वो कमजोर होते होते एक दिन ऐसा आएगा , जब यह सपना टूटेगा। और जिस दिन टूटेगा उस दिन आपके मुख से भी यही उद्गार निकलेगी - कहाँ चला गया ? कौन ले गया ? कहाँ विलीन हो गया ? जिसको मैं अबतक सत्य समझ रहा था, अब देख रहा हूँ वो है ही नहीं। यहाँ ईश्वर ही हैं , ईश्वर से अतिरिक्त न तो कोई जीव है , नतो कोई जगत है। ये परम् अनुभूति है। ये सम्भावना हम सबके अंदर छिपी हुई है, ये कभी न कभी होने वाला है। आज , 10 साल बाद , 10 जन्मों बाद लेकिन जैसा गुरु ने बताया , जैसा शास्त्र ने बताया यदि मनुष्य वैसा यथोचित जीवन जीता है। तो कभी न कभी इस लक्ष्य तक वो पहुँचने वाला है।
तो इस प्रकार वो शिष्य भी अपने लक्ष्य पर पहुंच गया है। अब उस शिष्य के मुँह से जो उद्गार निकल रहे हैं वो क्या सुंदर है ! क्या कह रहे हैं -
धन्योऽहं कृतकृत्योऽहं विमुक्तोऽहं भवग्रहात् ।
नित्यानन्दस्वरूपोऽहं पूर्णोऽहं त्वदनुग्रहात् ॥ ४८८ ॥
क्या सुंदर है ! पहलीबार जब ये शिष्य गुरु के पास आया था -तो हमने देखा उसकी मनःस्थिति क्या थी ? अत्यंत ही पीड़ा में , तप रहा है , डूब रहा है। मैं मर रहा हूँ। भयभीत हूँ। मैं आपके शरणापन्न हो गया हूँ। मुझपर कृपा करें , मुझे इस संसारसागर से ऊपर उठायें। ऐसी परिस्थिति थी , और इस प्रकार के योग्य शिष्य को देखकर के गुरु अत्यंत ही संतुष्ट हुए थे। याद है न ? गुरु संतुष्ट होकरके गुरु के मुख क्या शब्द निकला था ? (⚜️️🔱| Session 11 |🔱 विवेकचूडामणि सार |⚜️️🔱) कि बेटा तू धन्य है !
धन्योऽसि कृतकृत्योऽसि, पावितं ते कुलं त्वया।
यदविद्याबन्धमुक्त्या ब्रह्मीभवितुमिच्छसि ।॥ ५२ ॥
-गुरु कहते हैं -तू धन्य है, कृतकृत्य है, तेरा कुल तुझ से पवित्र हो गया, क्योंकि तू अविद्यारूपी बन्धन से छूट कर ब्रह्मभाव को प्राप्त होना चाहता है। गुरु ऐसे शिष्य को देखकर बहुत खुश हो जाते हैं जो सत्य को जानने के लिए व्याकुल है। वह जानना चाहता है कि - मैं जिसको 'मैं' अपना 'मैं' समझ रहा हूँ , इस 'मैं ' का मतलब क्या है ? और वो यह भी जानना चाहता है कि यह विश्व-प्रपंच क्या है ? हम सब इसके बारे में भ्रमित हैं। इन्द्रियों जो कुछ दिखाई दे रहा है , उसके विषय में हमारी आज की जो धारणा (M/F) है , यह भ्रम है। तो सही वस्तु क्या है ? मैं कौन हूँ ? मेरा सत्य स्वरुप क्या है ? इसी विषय पर आगे चर्चा होगी। हम ईश्वर , भगवान आदि शब्द बोलते तो रहते हैं ; परन्तु ये भगवान कहाँ हैं ? हम उनको मन्दिरों में ढूँढ़ते रहते हैं। तीर्थों में ढूँढ़ते हैं ; ये सब खोज गलत नहीं है , ठीक है। लेकिन वास्तव में ईश्वर तत्व क्या है ? वो सत्य वस्तु क्या है? इस योग्य शिष्य को देखकर गुरु के मुख से जो शब्द निकलता है , वो है - धन्योऽसि ! बेटा तूँ धन्य है, तू धन्य है! -और कृतकृत्योऽसि।
गुरु ऐसे एक योग्य मोक्षार्थी को देखकर के बहुत संतुष्ट है - जो इस बंधन से मुक्त होना चाहता है ! कहाँ मिलते हैं ऐसे मोक्षार्थी ? संसार में ऐसे मोक्षार्थी तो दुर्लभ हैं , क्योंकि मोक्ष तो दुर्लभ है न। शुरुआत में ही शंकराचार्यजी क्या बताते हैं -ये मोक्षार्थी तो दुर्लभ हैं नं ? कहाँ हैं सृष्टि में मोक्षार्थी ? आप उँगलियों पर गिन सकते हैं। बंधन से मुक्ति चाहने वाला -सत्यान्वेषी कहाँ है ? (34:35) दुर्लभ है , तो इसप्रकार जब एक योग्य मोक्षार्थी को पाकर के गुरु अत्यंत ही प्रसन्न होकरके -गुरु के मुख से ये उद्गार निकलता है कि बेटा तू धन्य है ! तू कृतकृत्य है- क्योंकि जीवन का सबसे बड़ा कार्य तू कर रहा है ! मनुष्य जन्म का सबसे बड़ा कार्य क्या है ? इस बंधन से मुक्त होने का प्रयास करना। वो तू कर रहा है , इसलिए तूँ कृतकृत्य है। और तेरे इस अविद्या-बंधन से मुक्त होने की कामना के कारण तेरा सारा कुल पवित्र होगया --पावितं ते कुलं त्वया। तेरा पूरा कुल पवित्र हो गया ! ऐसे उद्गार गुरु के मुख निकले थे।
अब जब शिष्य सारा उपदेश ग्रहण करने के पश्चात् -गुरु के बताये हुए मार्ग पर चलकरके जब खुद आत्मबोध , आत्मलाभ , ईश्वरलाभ कर लेता है , तब वही शिष्य आकर के वो क्या कहता है ? पहले तो गुरु ने शिष्य को कहा था कि तूँ धन्य है। अब शिष्य स्वयं कह रहा है कि मैं धन्य हूँ- मैं कृत-कृत्य हूँ ! धन्य हो गया मेरा जीवन , कृत-कृत्य हो गया मेरा जीवन। पहले तो गुरु उस शिष्य के प्रति कह रहे थे। अब शिष्य स्वयं कह रहा है - कि धन्य हो गया मेरा जीवन , कृत-कृत्य हो गया मेरा जीवन। धन्योऽहं कृतकृत्योऽहं/ विमुक्तोऽहं - मैं मुक्त हो गया ! (36:12 ) वो पहले अज्ञान-अविद्या की बंधन दशा में आ गया था। अब कह रहा है कि मैं मुक्त हो गया !!
सारे बंधनों से Liberated हो जाता है ? आजाद होगया ! Can you imagine ? क्या आप कल्पना कर सकते हैं ?-यह 'अपरोक्ष अनुभूति ' एक अद्भुत अनुभव है! क्या यह केवल एक सिद्धांत मात्र है? आप यहाँ कहे गए प्रत्येक बात को खुद सत्यापित करके देख सकते हैं! हमलोग केवल श्रवण मनन करके कितना मुक्त होने का अनुभव कर रहे हैं कि नहीं ? सिर्फ श्रवण और मनन मात्र से ही मन कितना मुक्त हो रहा है देखिये ! It Is an amazing experience ! is it a theory? You can verify everything ! जब अपरोक्ष अनुभूति होगी तो क्या होगा ? हम उसकी कल्पना नहीं कर सकते हैं। सिर्फ श्रवण मनन मात्र से मन कितने प्रकार की बेड़ियों से मानों खुल रहा है कि नहीं ? आप शास्त्र का श्रवण पूरे भक्ति और श्रद्धा के साथ करोगे , आप देखोगे मन कैसे इन बंधनों से मुक्त होने लगता है। हमारा मन खुल रहा है। Is not an experience ? You can verify for yourself. तो फिर जब अपरोक्ष अनुभूति होगी तो -क्या होगा ? (कितना आनंद होगा !)
तो अब शिष्य कह रहा है -विमुक्तोऽहं! विमुक्तोऽहं भवग्रहात् । मैं मुक्त हो गया , मैं इस भवबंधन से मुक्त हो गया ! फिर आगे क्या -नित्यानन्दस्वरूपोऽहं ! मैं ये जान गया -मैं यह देह-इन्द्रिय का समुच्चय- मैं ये स्थूल शरीर या अनात्मा नहीं हूँ। मैं तो वो नित्यानन्द स्वरुप आत्मा हूँ। "शिवोऽहम् शिवोऽहम् शिवोऽहम् शिवोऽहम् (14 -4 -1992, बनारस के पहले पास ऊँच पुलिया) " 'वो' मेरा सत्यस्वरूप है ! मैं जन्म-मृत्यु रहित , अजन्मा , नित्यशुद्ध, नित्यबुद्ध , नित्यमुक्त आत्मा हूँ ! ऐसा मैं अनुभव कर रहा हूँ ! नित्यानन्दस्वरूपोऽहं ! पूर्णोऽहं ! हर शब्द महत्वपूर्ण है - मैं पूर्ण हूँ ! मेरे अंदर कोई अपूर्णता है ही नहीं ! अच्छा तो ये सब हुआ कैसे ? त्वदनुग्रहात् - "त्वद अनुग्रहात् !" आपके अनुग्रह से , गुरु के अनुग्रह से, ईश्वर के अनुग्रह से , उस पगली माता काली के अनुग्रह से ! (परमानंद -सच्चिदानन्द के आनंद को त्याग कर फिर से शरीर में लौटना -क्या है, कैसे हुआ, महा-अद्भुतम ?) वो सब अपरोक्ष अनुभूति केवल उसी का अनुग्रह है ! नित्यानन्दस्वरूपोऽहं पूर्णोऽहं त्वदनुग्रहात् वो जो पगली है न ? जो सत्य को ढँकती भी है , और सत्य को दिखा भी देती है ! (38:19) वो चाबी केवल उसी के पास है -उसी के अनुग्रह से किसी को अपरोक्ष अनुभूति होती है। देखिये बिना अनुग्रह के यह नहीं होता -देखिये शुरुआत में भी अनुग्रह है। अंत में भी अनुग्रह है। सबकुछ अनुग्रह है - कृपा है ! उस अव्यक्त नाम वाली परमेश शक्ति की कृपा के बगैर , यहाँ पर कुछ भी नहीं होता। क्या सुंदर अनुभव है।
तो इसमें जो एक शब्द व्यवहार में आया है -पूर्णोऽहं ! (38:47) तो देखिए जीव /मनुष्य जब तक अज्ञान में है , जीव जब तक अविद्या-ग्रस्त है, तब तक हम सब इस अपूर्णता से ग्रस्त हैं। है कि नहीं ? हम सबके अंदर अपूर्णता है , अतृप्ति का भाव है। तथा इस अपूर्णता और अतृप्त होने के कारण ही प्रत्येक व्यक्ति मनुष्य अपने आप को पूर्ण करने का प्रयास कर रहा है। Man is marching towards perfection ! प्रत्येक जीव/मनुष्य पूर्णता की ओर अग्रसर होने का ही प्रयास कर रहा है ! लेकिन पूर्णता पाने का प्रयास वो गलत दिशा में कर रहा है ,और सोच रहा है कि संसार की वस्तुओं को -कामिनी कांचन या कीर्ति को प्राप्त करके वो पूर्ण हो जायेगा। वो समझता है कि विषयों को प्राप्त करके , एक बुलबुला दूसरे बुलबुले में डूबकर उसको लगता है कि मैं पूर्ण हो जाऊँगा ! कभी भी नहीं होने वाला है।
इस पूर्णता के मनोविज्ञान Psychology को समझ रहे हो? (39:19) एक बुलबुला दूसरे बुलबुले में चिपक कर सोचता है कि मैं पूर्ण हो जाऊँगा। यह कभी भी नहीं होने वाला है। वो बुलबुला जिस दिन अपनेआप को समुद्र जानेगा , तब जा के पूर्ण होगा। तो हमारा पूर्णत्व कहाँ है ? अपने सत्यस्वरूप को जानने में ही हमारा पूर्णत्व या ब्रह्मत्व अंतर्निहित है ! विषयों का उपभोग करके कोई भी व्यक्ति पूर्ण नहीं हो सकता ! कोई भी व्यक्ति लैङ्गिक आकर्षण को प्रेम समझकर कितना भी भोग कर ले , वो कभी तृप्त नहीं होगा। मनुष्य चाहे जितना भी भोग कर ले हमलोग अतृप्त ही बने रहते हैं। इसीलिए हम कहते हैं - संसार को पकड़ने के लिए दौड़ना एक ऐसा दौड़ है , जिसमें हम पहुँचते कहीं नहीं हैं। (39:52) बस दौड़ते रहते हैं , और दौड़ते दौड़ते थक जाते हैं। शरीर तक जायेगा , शरीर एक दिन मर जायेगा। और दुबारा दूसरे शरीर में दौड़ शुरू होगा। यह दौड़ उस अंधकूप में गिरने के समान है जिसकी कोई तली है ही नहीं। हम बस गिरते जा रहे हैं , गिरते जा रहे हैं, पहुँचेंगे कहीं भी नहीं। यह जीवन समाप्त हो जायेगा , और फिर एक दूसरे शरीर में नया जीवन शुरू हो जायेगा। (पूर्णता perfection/divinity बुलबुले में ही अंतर्निहित है , बाहरी किसी दूसरे बुलबुले से चिपककर पूर्ण होने की कोई सम्भावना ही नहीं है।) यही पुनरपि जननं पुनरपि मरणं,पुनरपि जननी जठरे शयनम्। यही संसारी आवागमन चलता रहता है।
लेकिन ये शिष्य अपने गंतव्य स्थान पर पहुँच चुके हैं। इनका अज्ञान , अविवेक , अविद्या चली गयी है। अब ऐसा जो ब्रह्मज्ञानी है , उसकी अनुभूति क्या होती है ? कुछ अन्य श्लोकों को भी ले लेते हैं। जब इस अपरोक्षानुभूति होगी और हम सत्य को जान लेंगे ,तो उसको क्या दिखाई देता है ? आज हम अज्ञान में हैं , और हमको क्या दिखाई देता है ? देखो ये दो चित्र हैं -शंकराचार्यजी को क्या दिखाई देता है ? हमको क्या दिखाई देता है ? विवेकानन्द को क्या दिखाई देता है ? हमको क्या दिखाई देता है ? रामकृष्ण परमहंस को क्या दिखाई देता है ? रमणमहर्षि को क्या दिखाई देता है ? हमको क्या दिखाई देता है ? ये दो बिल्कुल ही अलग चित्र हैं -देखो
यदिदं सकलं विश्वं, नानारूपं प्रतीतमज्ञानात् ।
तत्सर्वं ब्रह्मैव, प्रत्यस्ताशेषभावनादोषम् ॥ २२७ ॥
कितनी सुंदर बात कहते हैं - अज्ञान -अविवेक, (महामाया माँ काली) ने हमारे शिवत्व को अर्थात विवेक-प्रयोग क्षमता को ढँक दिया था -इस लिए मैं एक ही ईश्वर को अनेक नाम-रूपों में देख रहा था -- यदिदं सकलं विश्वं, नानारूपं प्रतीतं अज्ञानात् ! जब तक हम अज्ञान में हैं-जब तक हमको पता नहीं है कि रेगिस्तान में जो पानी दिखाई दे रहा है , वहां एक बून्द पानी नहीं है। ये मरुमरीचिका है हमको पता नहीं है। तब तक तो हम पानी ही देख रहे है। और लगता है कि पानी ही सत्य है। अज्ञान में हमको लगता है कि वहाँ पानी है। इसीलिए कहते हैं -यदिदं सकलं विश्वं, नानारूपं प्रतीतं अज्ञानात् ! अज्ञान (अविद्या) के बंधन से ग्रस्त होकर मैं जो पूरा विश्व-प्रपंच देख रहा था , नाना रूप का है जगत। यहाँ पर विचित्रतायें भरी हुई है ! पेड़-पौधे , कीड़े-मकोड़े , पसु-पक्षी, मनुष्य में नाना रूपों के मनुष्य हैं। अज्ञान में अद्भुत विस्मयकारी विश्व-प्रपंच हमको दिखाई देता है ! और हमको लगता है कि यही सत्य है ? 'प्रतीतं अज्ञानात्' अज्ञान में मैं विचित्रताओं से भरा जो ये विश्व-प्रपंच देख रहा था, और जिसके प्रति मेरे अंदर में पहले सत्यत्व बुद्धि हुआ करती थी।
जब ज्ञान हुआ तब क्या देखता हूँ ? तत् सर्वं ब्रह्मैव!! ये जो भी दिखाई दे रहा है -ब्रह्म ही है! यह ईश्वर ही है। जीव और जगत प्रपंच अलग से कुछ नहीं है-ये ब्रह्म ही है। (43:02) 'तत् सर्वं ब्रह्मैव प्रत्यस्त अशेष भावना दोषं ' - जब हमारे अंतःकरण का भावना दोष प्रत्यस्त हो जाता है , मतलब चला है , अर्थात अज्ञान की जब निवृत्ति होती है , तब उस व्यक्ति की अनुभूति क्या होती है ? मैं जिसको जीव और जगत समझ रहा था - वो सब क्या है ? ईश्वर ही है , ईश्वर से अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। यहाँ ईश्वर ही विद्यमान हैं। रेगिस्तान में रेत ही विद्यमान है, तालाब नहीं है ! इसी प्रकार यहाँ पर जो भी मैं देख रहा हूँ , यह जीव-जगत नहीं है। जिसको मैं अज्ञान में जीव-जगत समझ रहा हूँ , वह ज्ञानी के लिए ब्रह्म ही है। ब्रह्म ही इस रूप में प्रकट हो रहा है। ईश्वर ही इस जीव-जगत के रूप में प्रकट हो रहा है।
उस महावाक्य को फिर से याद रखना - " किसी व्यक्ति अंदर अगर ढूँढ़ो, तो वो व्यक्ति चला जाता है; ईश्वर प्रकट हो जाता है।" व्यक्ति कहाँ गया ? ईश्वर ही है , जो इन सब व्यक्तियों के रूप में है। मेरे सम्मुख बैठे इन सभी युवक -युवतियों के रूप में ईश्वर ही विद्यमान है ! इन सभी व्यक्तियों के रूप में ईश्वर ही विद्यमान है। जगत को खोजो तो जगत अदृश्य हो जाता है , जीव जगत के रूप में ईश्वर ही है। जीव-जगत के रूप में ईश्वर प्रकट हो रहा है। ईश्वर से अतिरिक्त , ब्रह्म से अतिरिक्त यहाँ पर कुछ भी नहीं है। यही वेदांत है - यही वेदों का अंतिम सत्य है !
स्थूणा-खनन न्याय (हथौड़े से खूँटा गाड़ना) : हमलोग हर रोज नारायण सूक्त को क्यों -chant करते हैं ? आप लोग सोंच रहे होंगे -हमलोग रोज एक ही chant क्यों करते हैं ? ताकि वो मंत्र हमारे अंदर बैठ जाये। हमलोग अन्य बहुत से श्लोक का मंत्रोच्चार कर सकते थे। किन्तु यह एक मुख्य विचार को हमारे ह्रदय में प्रविष्ट कराने के लिए है। हर रोज हम - शिवोऽहम् शिवोऽहम् शिवोऽहम् शिवोऽहम् ही chant क्यों कर रहे हैं ? हर रोज अलग-अलग chant क्यों न करें ? कर सकते हैं। निर्वाण-षट्कम का पाठ या मंत्रोच्चार करने की बात यहाँ पाण्डित्य दिखाने की नहीं है , सत्य को हमारे हृदय के अंदर प्रविष्ट कराने की है ! इसलिए हर रोज ये hammering करने जैसा प्रयास है, लोहा तपाकर गढ़ना या जीवन गढ़ना जैसी बात है। Life Building :जीवन-गठन करने का प्रयास है। वेदांत में एक स्थूणा-खनन न्याय (45:20) एक दृष्टांत-वाक्य या न्याय है। लोहे का खूँटा गाड़ने में उसे दृढ़ करने के लिये hammering की युक्ति की जाती है, अपने पक्ष-समर्थन में वैसा करना । जैसे आपको अगर पिच रोड पर लोहे का कील या खूँटा अगर गाड़ना हो तो एक बार ठोकने से तो नहीं घुसेगा। हथोड़ा से आपको बार बार मारना पड़ता है। एक बार मारते हो तो थोड़ा घुसता है। फिर इस कीले को निकाल कर दुबारा उसी स्थान पर रखकर मारते हो। फिर दोबारा मारो , फिर निकालो। फिर दोबारा मारो। तब दोबारा थोड़ा अंदर जाता है। फिर निकालो , फिर मारो , ऐसा मर मार कर उसको घुसाना पड़ता है। इसको स्थूणा- खनन न्याय कहते हैं। तो हर रोज हमलोग निर्वाण-षट्कम पाठ कर रहे है , तो क्या कर रहे हैं? हर रोज हमलोग एक ही बात को ठोक रहे हैं ! उसको दिमाग में घुसा रहे हैं , हमारी बुद्धि इतनी मोटी बुद्धि है न ? अपना सत्य स्वरुप इसमें घुसता नहीं है। प्लास्टर का जमीन अगर मोटा होता है, तो उसमें कीला घुसता है क्या ? हमारी बुद्धि तो मोटी बुद्धि है , इसके अंदर ये विचार -
घुसता है क्या ? नहीं घुसता है। इसीलिए हमलोग रोज नारायण सूक्तं पाठ करते हैं। एक चीज आपके दिमाग में बैठ जाना चाहिए -
यच्च किञ्चित् जगत् सर्वं दृश्यते श्रूयतेऽपि वा
अन्तर्बहिश्र्च तत्सर्वं व्याप्य नारायण: स्थित:||
ॐ नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि।
तन्नो विष्णुः प्रचोदयात् ॥
हम नारायण के साथ संवाद करते हैं और वासुदेव का ध्यान करते हैं, वह विष्णु हमें (महान लक्ष्य की ओर) निर्देशित करें।
यहाँ जो भी है , सब एक नारायण ही है , नारायण से अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। ये वेदों की अंतिम उद्घोषणा है। यही वेदांत है - इस जगत में जो कुछ भी देखा जाता है,सुना जाता है, जो कुछ भी ( शरीर के ) अन्दर और ( शरीर के बाहर ) बाहर व्याप्त ( स्थित ) है, वह सब स्वयं भगवान नारायण में ही स्थित हैं।
वेदों की अंतिम उद्घोषणा है -शिवोऽहम् शिवोऽहम् ! और आप वह हो ! आप यह नश्वर शरीर नहीं हो , आप तो अजर-अमर -अविनाशी आत्मा हो ! शिवोऽहम् शिवोऽहम्, शिवोऽहम् शिवोऽहम् ! 'सत्यं वद'- सब समय सत्य बोलिये ! शिवोऽहम् शिवोऽहम् यही सत्य वचन है ! अंतिम सत्य यही है कि ईश्वर से अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। शिवोऽहम् से अतिरिक्त यहाँ पर कुछ भी नहीं है।
मनोबुद्ध्यहङकार चित्तानि नाहं
न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे ।
न च व्योम भूमिर्न तेजो न वायुः
चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥॥
बाकि सब जो दिखाई दे रहा है -वो क्या है ? बाकि सब हम केवल कल्पना कर रहे हैं। यही अंतिम सत्य है। आज भले हम उस अंतिम सत्य की अनुभूति से कोसों दूर हैं , या दूर हो सकते हैं। लेकिन गुरु के बताये हुए मार्ग पर (अष्टांग मार्ग,साधन-चतुष्टय पर) जब हम चलेंगे , तो धीरे धीरे ये जो सत्य है , उसकी प्रतीति हमें धीरे -धीरे होने लगेगी। धीरे धीरे ; ये एक दिन में होने वाली बात नहीं है। आप दो-एक दिन मनःसंयोग करके छोड़ देंगे -तब ये नहीं होगा। अभी आप कैम्प में हो घर वापस जाने के बाद यदि 5 अभ्यास नहीं करेंगे ? तो फिर वैसा ही रहेगा। 'But if you continue ' यदि आप नियमित अभ्यास जारी रखोगे , तो आप उसका फल देखोगे। धीरे धीरे एकत्व की अनुभूति आपके अन्तःकरण में भी होने लगेगी।
ॐ शांति शांति शांतिः ॥ ओम. शांति, शांति, शांति हो
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[जब आदि गुरु शन्कराचार्य जी की अपने गुरु से प्रथम भेंट हुई तो उनके गुरु ने बालक शंकर से उनका परिचय माँगा । बालक शंकर ने अपना परिचय किस रूप में दिया ये जानना ही एक सुखद अनुभूति बन जाता है… यह परिचय ‘निर्वाण-षटकम्’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।("मनोबुद्धयहंकार- चित्तानि नाहं न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे । न च व्योमभूमिर्न तेजो न वायुः चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ।।") 14 -4-1992 बनारस के निकट ऊँच की अनुभूति। 1992 में महामण्डल का सचिव - संदीप मुखर्जी था ! जिसने दादा को खबर दिया था। ]
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