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मंगलवार, 16 सितंबर 2025

अमित रूप प्रगटे तेहि काला। जथाजोग मिले सबहि कृपाला॥⚜️️घटना - 356⚜️️अयोध्या में श्रीराम भरत मिलाप ⚜️️Shri Ramcharitmanas Gayan || Episode #356 || ⚜️️⚜️️https://www.shriramcharitmanas.in/p/uttar-kand_27.html

 श्रीरामचरितमानस 

सप्तम सोपान

उत्तरकाण्ड

[दोहा -5,6] 



अयोध्या में श्रीराम भरत मिलाप -

      विमान से उतर कर श्रीराम ने गुरु अन्य मुनियों तथा पूजनीय व्यक्तियों के चरणों में शीश नवा कर, उनका आशीष पाया। भरत आकर अग्रज के चरणों से लग गए। दोनों भाइयों की आँखों से आँसुओं की धार बाह चली। श्रीराम भरत से बार बार कुशलक्षेम पूछते हैं। किन्तु भरत की वाणी जैसे मौन हो गयी है। सभी भाई एकदूसरे से गले मिल रहे हैं। उधर से मातायें इस प्रकार दौड़ी आ रही हैं , जैसे नवजात बछड़ों से दिन भर की बिछुड़ी गउएँ हुंकारती थनों से दूध की बुँदे टपकाती दौड़ती चली आ रही हैं। नगर निवासियों की मिलने की उत्कंठा देख श्रीराम ने एक ही समय में अनेक शरीर धारण कर सबको कृत्य-कृत्य कर दिया। 

* आए भरत संग सब लोगा। कृस तन श्रीरघुबीर बियोगा॥

बामदेव बसिष्ट मुनिनायक। देखे प्रभु महि धरि धनु सायक॥1॥ 

भावार्थ:-भरतजी के साथ सब लोग आए। श्री रघुवीर के वियोग से सबके शरीर दुबले हो रहे हैं। प्रभु ने वामदेव, वशिष्ठ आदि मुनिश्रेष्ठों को देखा, तो उन्होंने धनुष-बाण पृथ्वी पर रखकर-॥1॥

* धाइ धरे गुर चरन सरोरुह। अनुज सहित अति पुलक तनोरुह॥

भेंटि कुसल बूझी मुनिराया। हमरें कुसल तुम्हारिहिं दाया॥2॥

भावार्थ:-छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित दौड़कर गुरुजी के चरणकमल पकड़ लिए, उनके रोम-रोम अत्यंत पुलकित हो रहे हैं। मुनिराज वशिष्ठजी ने (उठाकर) उन्हें गले लगाकर कुशल पूछी। (प्रभु ने कहा-) आप ही की दया में हमारी कुशल है॥2॥

* सकल द्विजन्ह मिलि नायउ माथा। धर्म धुरंधर रघुकुलनाथा॥

गहे भरत पुनि प्रभु पद पंकज। नमत जिन्हहि सुर मुनि संकर अज॥3॥

भावार्थ:-धर्म की धुरी धारण करने वाले रघुकुल के स्वामी श्री रामजी ने सब ब्राह्मणों से मिलकर उन्हें मस्तक नवाया। फिर भरतजी ने प्रभु के वे चरणकमल पकड़े जिन्हें देवता, मुनि, शंकरजी और ब्रह्माजी (भी) नमस्कार करते हैं॥3॥

* परे भूमि नहिं उठत उठाए। बर करि कृपासिंधु उर लाए॥

स्यामल गात रोम भए ठाढ़े। नव राजीव नयन जल बाढ़े॥4॥ 

भावार्थ:-भरतजी पृथ्वी पर पड़े हैं, उठाए उठते नहीं। तब कृपासिंधु श्री रामजी ने उन्हें जबर्दस्ती उठाकर हृदय से लगा लिया। (उनके) साँवले शरीर पर रोएँ खड़े हो गए। नवीन कमल के समान नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं के) जल की बाढ़ आ गई॥4॥

छंद :

*राजीव लोचन स्रवत जल तन ललित पुलकावलि बनी।

अति प्रेम हृदयँ लगाइ अनुजहि मिले प्रभु त्रिभुअन धनी॥

प्रभु मिलत अनुजहि सोह मो पहिं जाति नहिं उपमा कही।

जनु प्रेम अरु सिंगार तनु धरि मिले बर सुषमा लही॥1॥

भावार्थ:-कमल के समान नेत्रों से जल बह रहा है। सुंदर शरीर में पुलकावली (अत्यंत) शोभा दे रही है। त्रिलोकी के स्वामी प्रभु श्री रामजी छोटे भाई भरतजी को अत्यंत प्रेम से हृदय से लगाकर मिले। भाई से मिलते समय प्रभु जैसे शोभित हो रहे हैं, उसकी उपमा मुझसे कही नहीं जाती। मानो प्रेम और श्रृंगार शरीर धारण करके मिले और श्रेष्ठ शोभा को प्राप्त हुए॥1॥

* बूझत कृपानिधि कुसल भरतहि बचन बेगि न आवई॥

सुनु सिवा सो सुख बचन मन ते भिन्न जान जो पावई॥

अब कुसल कौसलनाथ आरत जानि जन दरसन दियो।

बूड़त बिरह बारीस कृपानिधान मोहि कर गहि लियो॥2॥

भावार्थ:-कृपानिधान श्री रामजी भरतजी से कुशल पूछते हैं, परंतु आनंदवश भरतजी के मुख से वचन शीघ्र नहीं निकलते। (शिवजी ने कहा-) हे पार्वती! सुनो, वह सुख (जो उस समय भरतजी को मिल रहा था) वचन और मन से परे है, उसे वही जानता है जो उसे पाता है। (भरतजी ने कहा-) हे कोसलनाथ! आपने आर्त्त (दुःखी) जानकर दास को दर्शन दिए, इससे अब कुशल है। विरह समुद्र में डूबते हुए मुझको कृपानिधान ने हाथ पकड़कर बचा लिया!॥2॥

दोहा :

* पुनि प्रभु हरषि सत्रुहन भेंटे हृदयँ लगाइ।

लछिमन भरत मिले तब परम प्रेम दोउ भाइ॥5॥

भावार्थ:-फिर प्रभु हर्षित होकर शत्रुघ्नजी को हृदय से लगाकर उनसे मिले। तब लक्ष्मणजी और भरतजी दोनों भाई परम प्रेम से मिले॥।5॥

चौपाई :

* भरतानुज लछिमन पुनि भेंटे। दुसह बिरह संभव दुख मेटे॥

सीता चरन भरत सिरु नावा। अनुज समेत परम सुख पावा॥1॥

भावार्थ:-फिर लक्ष्मणजी शत्रुघ्नजी से गले लगकर मिले और इस प्रकार विरह से उत्पन्न दुःसह दुःख का नाश किया। फिर भाई शत्रुघ्नजी सहित भरतजी ने सीताजी के चरणों में सिर नवाया और परम सुख प्राप्त किया॥1॥

* प्रभु बिलोकि हरषे पुरबासी। जनित बियोग बिपति सब नासी॥

प्रेमातुर सब लोग निहारी। कौतुक कीन्ह कृपाल खरारी॥2॥

भावार्थ:-प्रभु को देखकर अयोध्यावासी सब हर्षित हुए। वियोग से उत्पन्न सब दुःख नष्ट हो गए। सब लोगों को प्रेम विह्नल (और मिलने के लिए अत्यंत आतुर) देखकर खर के शत्रु कृपालु श्री रामजी ने एक चमत्कार किया॥2॥

* अमित रूप प्रगटे तेहि काला। जथाजोग मिले सबहि कृपाला॥

कृपादृष्टि रघुबीर बिलोकी। किए सकल नर नारि बिसोकी॥3॥

भावार्थ:-उसी समय कृपालु श्री रामजी असंख्य रूपों में प्रकट हो गए और सबसे (एक ही साथ) यथायोग्य मिले। श्री रघुवीर ने कृपा की दृष्टि से देखकर सब नर-नारियों को शोक से रहित कर दिया॥3॥

* छन महिं सबहि मिले भगवाना। उमा मरम यह काहुँ न जाना॥

एहि बिधि सबहि सुखी करि रामा। आगें चले सील गुन धामा॥4॥

भावार्थ:-भगवान्‌ क्षण मात्र में सबसे मिल लिए। हे उमा! यह रहस्य किसी ने नहीं जाना। इस प्रकार शील और गुणों के धाम श्री रामजी सबको सुखी करके आगे बढ़े॥4॥

* कौसल्यादि मातु सब धाई। निरखि बच्छ जनु धेनु लवाई॥5॥

भावार्थ:-कौसल्या आदि माताएँ ऐसे दौड़ीं मानों नई ब्यायी हुई गायें अपने बछड़ों को देखकर दौड़ी हों॥5॥

छंद :

* जनु धेनु बालक बच्छ तजि गृहँ चरन बन परबस गईं।

दिन अंत पुर रुख स्रवत थन हुंकार करि धावत भईं॥

अति प्रेम प्रभु सब मातु भेटीं बचन मृदु बहुबिधि कहे।

गइ बिषम बिपति बियोगभव तिन्ह हरष सुख अगनित लहे॥

भावार्थ:-मानो नई ब्यायी हुई गायें अपने छोटे बछड़ों को घर पर छोड़ परवश होकर वन में चरने गई हों और दिन का अंत होने पर (बछड़ों से मिलने के लिए) हुँकार करके थन से दूध गिराती हुईं नगर की ओर दौड़ी हों। प्रभु ने अत्यंत प्रेम से सब माताओं से मिलकर उनसे बहुत प्रकार के कोमल वचन कहे। वियोग से उत्पन्न भयानक विपत्ति दूर हो गई और सबने (भगवान्‌ से मिलकर और उनके वचन सुनकर) अगणित सुख और हर्ष प्राप्त किए।

दोहा :

*भेंटेउ तनय सुमित्राँ राम चरन रति जानि।

रामहि मिलत कैकई हृदयँ बहुत सकुचानि॥6 क॥

भावार्थ:-सुमित्राजी अपने पुत्र लक्ष्मणजी की श्री रामजी के चरणों में प्रीति जानकर उनसे मिलीं। श्री रामजी से मिलते समय कैकेयीजी हृदय में बहुत सकुचाईं॥6 (क)॥

* लछिमन सब मातन्ह मिलि हरषे आसिष पाइ।

कैकइ कहँ पुनि पुनि मिले मन कर छोभु न जाइ॥6 ख॥

भावार्थ:-लक्ष्मणजी भी सब माताओं से मिलकर और आशीर्वाद पाकर हर्षित हुए। वे कैकेयीजी से बार-बार मिले, परंतु उनके मन का क्षोभ (रोष) नहीं जाता॥6 (ख)॥

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