इस ब्लॉग में व्यक्त कोई भी विचार किसी व्यक्ति विशेष के दिमाग में उठने वाले विचारों का बहिर्प्रवाह नहीं है! इस ब्लॉग में अभिव्यक्त प्रत्येक विचार स्वामी विवेकानन्द जी से उधार लिया गया है ! ब्लॉग में वर्णित विचारों को '' एप्लाइड विवेकानन्दा इन दी नेशनल कान्टेक्स्ट" कहा जा सकता है। एवं उनके शक्तिदायी विचारों को यहाँ उद्धृत करने का उद्देश्य- स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं को अपने व्यावहारिक जीवन में प्रयोग करने के लिए युवाओं को 'अनुप्राणित' करना है।
लंका में घमासान युद्ध हो रहा है, अंगद और हनुमान ने रावण के किले में घुसकर राक्षस सेना में ऐसी उथल-पुथल मचा दी , मानों दो मंदराचल समुद्रमंथन कर रहे हों। दिन का अंत हुआ, अनेक असुरों का संहार करके राम और लक्ष्मण श्रीराम के पास उपस्थित हुए। लेकिन उनके युद्धभूमि से हट जाने के बाद राक्षस एक बार फिर बानरसेना पर टूट पड़े। आसुरी माया से राख, पत्थर और रक्त की वर्षा होने लगी। चारों ओर अंधकार छाया देख वानरसेना में खलबली मच गयी। श्रीराम से ये रहस्य छिपा न रहा। उन्होंने अग्निबाण चलाकर चहुँओर प्रकाश फैला दिया।
दोहा : * एक एक सों मर्दहिं तोरि चलावहिं मुंड। रावन आगें परहिं ते जनु फूटहिं दधि कुंड॥44॥
भावार्थ:- एक को दूसरे से (रगड़कर) मसल डालते हैं और सिरों को तोड़कर फेंकते हैं। वे सिर जाकर रावण के सामने गिरते हैं और ऐसे फूटते हैं, मानो दही के कूंडे फूट रहे हों॥4॥
चौपाई : * महा महा मुखिआ जे पावहिं। ते पद गहि प्रभु पास चलावहिं॥ कहइ बिभीषनु तिन्ह के नामा। देहिं राम तिन्हहू निज धामा॥1॥
भावार्थ:- जिन बड़े-बड़े मुखियों (प्रधान सेनापतियों) को पकड़ पाते हैं, उनके पैर पकड़कर उन्हें प्रभु के पास फेंक देते हैं। विभीषणजी उनके नाम बतलाते हैं और श्री रामजी उन्हें भी अपना धाम (परम पद) दे देते हैं॥1॥
* खल मनुजाद द्विजामिष भोगी। पावहिं गति जो जाचत जोगी॥ उमा राम मृदुचित करुनाकर। बयर भाव सुमिरत मोहि निसिचर॥2॥
भावार्थ:- ब्राह्मणों का मांस खाने वाले वे नरभोजी दुष्ट राक्षस भी वह परम गति पाते हैं, जिसकी योगी भी याचना किया करते हैं, (परन्तु सहज में नहीं पाते)। (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! श्री रामजी बड़े ही कोमल हृदय और करुणा की खान हैं। (वे सोचते हैं कि) राक्षस मुझे वैरभाव से ही सही, स्मरण तो करते ही हैं॥2॥
* देहिं परम गति सो जियँ जानी। अस कृपाल को कहहु भवानी॥ अस प्रभु सुनि न भजहिं भ्रम त्यागी। नर मतिमंद ते परम अभागी॥3॥
भावार्थ:- ऐसा हृदय में जानकर वे उन्हें परमगति (मोक्ष) देते हैं। हे भवानी! कहो तो ऐसे कृपालु (और) कौन हैं? प्रभु का ऐसा स्वभाव सुनकर भी जो मनुष्य भ्रम त्याग कर उनका भजन नहीं करते, वे अत्यंत मंदबुद्धि और परम भाग्यहीन हैं॥3॥
* अंगद अरु हनुमंत प्रबेसा। कीन्ह दुर्ग अस कह अवधेसा॥ लंकाँ द्वौ कपि सोहहिं कैसें। मथहिं सिंधु दुइ मंदर जैसें॥4॥
भावार्थ:- श्री रामजी ने कहा कि अंगद और हनुमान किले में घुस गए हैं। दोनों वानर लंका में (विध्वंस करते) कैसे शोभा देते हैं, जैसे दो मन्दराचल समुद्र को मथ रहे हों॥4॥ दोहा : दोहा :
* भुज बल रिपु दल दलमलि देखि दिवस कर अंत। कूदे जुगल बिगत श्रम आए जहँ भगवंत॥45॥
भावार्थ:- भुजाओं के बल से शत्रु की सेना को कुचलकर और मसलकर, फिर दिन का अंत होता देखकर हनुमान् और अंगद दोनों कूद पड़े और श्रम थकावट रहित होकर वहाँ आ गए, जहाँ भगवान् श्री रामजी थे॥45॥
चौपाई : * प्रभु पद कमल सीस तिन्ह नाए। देखि सुभट रघुपति मन भाए॥ राम कृपा करि जुगल निहारे। भए बिगतश्रम परम सुखारे॥1॥
भावार्थ:- उन्होंने प्रभु के चरण कमलों में सिर नवाए। उत्तम योद्धाओं को देखकर श्री रघुनाथजी मन में बहुत प्रसन्न हुए। श्री रामजी ने कृपा करके दोनों को देखा, जिससे वे श्रमरहित और परम सुखी हो गए॥1॥
* गए जानि अंगद हनुमाना। फिरे भालु मर्कट भट नाना॥ जातुधान प्रदोष बल पाई। धाए करि दससीस दोहाई॥2॥
भावार्थ:- अंगद और हनुमान् को गए जानकर सभी भालू और वानर वीर लौट पड़े। राक्षसों ने प्रदोष (सायं) काल का बल पाकर रावण की दुहाई देते हुए वानरों पर धावा किया॥2॥
भावार्थ:- राक्षसों की सेना आती देखकर वानर लौट पड़े और वे योद्धा जहाँ-तहाँ कटकटाकर भिड़ गए। दोनों ही दल बड़े बलवान् हैं। योद्धा ललकार-ललकारकर ल़ड़ते हैं, कोई हार नहीं मानते॥3॥
* महाबीर निसिचर सब कारे। नाना बरन बलीमुख भारे॥ सबल जुगल दल समबल जोधा। कौतुक करत लरत करि क्रोधा॥4॥
भावार्थ:-सभी राक्षस महान् वीर और अत्यंत काले हैं और वानर विशालकाय तथा अनेकों रंगों के हैं। दोनों ही दल बलवान् हैं और समान बल वाले योद्धा हैं। वे क्रोध करके लड़ते हैं और खेल करते (वीरता दिखलाते) हैं॥4॥
* प्राबिट सरद पयोद घनेरे। लरत मनहुँ मारुत के प्रेरे॥ अनिप अकंपन अरु अतिकाया। बिचलत सेन कीन्हि इन्ह माया॥5॥
भावार्थ:-(राक्षस और वानर युद्ध करते हुए ऐसे जान पड़ते हैं) मानो क्रमशः वर्षा और शरद् ऋतु में बहुत से बादल पवन से प्रेरित होकर लड़ रहे हों। अकंपन और अतिकाय इन सेनापतियों ने अपनी सेना को विचलित होते देखकर माया की॥5॥
* भयउ निमिष महँ अति अँधिआरा। बृष्टि होइ रुधिरोपल छारा॥6॥
भावार्थ:- पलभर में अत्यंत अंधकार हो गया। खून, पत्थर और राख की वर्षा होने लगी॥6॥
दोहा : * देखि निबिड़ तम दसहुँ दिसि कपिदल भयउ खभार। एकहि एक न देखई जहँ तहँ करहिं पुकार॥46॥
भावार्थ:- दसों दिशाओं में अत्यंत घना अंधकार देखकर वानरों की सेना में खलबली पड़ गई। एक को एक (दूसरा) नहीं देख सकता और सब जहाँ-तहाँ पुकार रहे हैं॥46॥
चौपाई : * सकल मरमु रघुनायक जाना। लिए बोलि अंगद हनुमाना॥ समाचार सब कहि समुझाए। सुनत कोपि कपिकुंजर धाए॥1॥
भावार्थ:- श्री रघुनाथजी सब रहस्य जान गए। उन्होंने अंगद और हनुमान् को बुला लिया और सब समाचार कहकर समझाया। सुनते ही वे दोनों कपिश्रेष्ठ क्रोध करके दौड़े॥1॥
भावार्थ:-फिर कृपालु श्री रामजी ने हँसकर धनुष चलाया और तुरंत ही अग्निबाण चलाया, जिससे प्रकाश हो गया, कहीं अँधेरा नहीं रह गया। जैसे ज्ञान के उदय होने पर (सब प्रकार के) संदेह दूर हो जाते हैं॥2॥
भावार्थ:- भागते हुए राक्षस योद्धाओं को वानर और भालू पकड़कर पृथ्वी पर दे मारते हैं और अद्भुत (आश्चर्यजनक) करनी करते हैं (युद्धकौशल दिखलाते हैं)। पैर पकड़कर उन्हें समुद्र में डाल देते हैं। वहाँ मगर, साँप और मच्छ उन्हें पकड़-पकड़कर खा डालते हैं॥4॥
(स्वामी शुद्धिदानन्द जी महाराज -अध्यक्ष, अद्वैत आश्रम , मायावती)
(भाग - 1,2,3,4,5)
सनातन हिन्दू धर्म, क्या है ? यह अनादिकाल से है और अनन्त काल तक रहने वाला है। यह धर्म किसी व्यक्ति, या ग्रन्थ पर निर्भर नहीं है। जैसे ग्रंथ बाइबिल और व्यक्ति ईसा, बुद्ध और त्रिपिटक ग्रंथ के बाद बौद्ध धर्म का प्रारम्भ हुआ, कुरान ग्रन्थ पर इस्लाम धर्म का प्रारम्भ हुआ पर वैदिक धर्म ग्रंथ और किसी व्यक्ति पर आधारित नहीं है। लेकिन सनातन धर्म को ही वैदिक वैदिक धर्म भी कहा जाता है। वेद क्या है ? यह किसी व्यक्ति की रचना नहीं है। यह सत्य की खोज करने वाले ऋषियों द्वारा आविष्कृत संचित ज्ञान राशि है। सनातन सत्य वह सिद्धान्त है जो सृष्टि को चला रहा है। वह सनातन सत्य क्या है ? यह जगत एकमेवाद्वित्य ब्रह्म के सिवा और कुछ नहीं है। अपनी इन्द्रियों से जिस जगत को हम देख रहे हैं - वह परिवर्तनशील होने के कारण, दृष्टिगोचर होने पर भी मिथ्या है। पर हमको तो इसमें कहीं ब्रह्म नहीं दीखता है जगत ही दीखता है।
फिर उस ब्रह्म, आत्मा, को कैसे जाने ? उसका उपाय है श्रवण, मनन , निदिध्यासन। 'श्रवण' का अर्थ है गुरुमुख से या ऋषि के मुख से सुनना , और अपरिवर्तनीय सत्य, सनातन सत्य की धारणा या तात्पर्य समझने के लिए श्रवण करना। तुम जिसको खोज रहे हो वह तुम्हीं हो। तत्वमसि - हमलोग केवल स्त्री-पुरुष शरीर मात्र नहीं है। हमलोग नश्वर देहधारी -शाश्वत आत्मा या ब्रह्म हैं। दिल्ली के बारे में उस व्यक्ति से श्रवण करना जिसने दिल्ली देखा है। जिन ऋषियों ने उस इन्द्रियातीत का अनुभव किया है उनके मुख से श्रवण करना - तातपर्य समझने के लिए श्रवण करना, अपने जीवन में उतारने के लिए श्रवण करना। पाण्डित्य बघारने के लिए श्रवण करना व्यर्थ है। श्रवण करने से हमारे जीवन में परिवर्तन होना चाहिए। जगत को देखने के प्रति हमारी दृष्टि बदल जाएगी। श्रवण ठीक होने से -हमलोग मौन होना सीखेंगे। और वही श्रवण फिर मनन में रूपांतरित हो जायगी, बार बार गुरु वाक्यों का मनन करने से निदिध्यासन होगा - अर्थात ध्यान होने लगेगा की मैं देह नहीं आत्मा हूँ -मैं नश्वर देह नहीं शाश्वत आत्मा हूँ। यह ध्यान या निदिध्यासन जब समाधि में विकसित हो जायेगा तब हमे ज्ञान (अपने स्वरुप का ज्ञान) हो जायेगा। यह जगत एकमेवाद्वितीय ब्रह्म के सिवा कुछ नहीं है - यही वेद -वेदांत या उपनिषद का सार है। यह ज्ञान सार्वभौमिक होगा किसी खास देश या व्यक्ति को नहीं जो भी इस पद्धति का अनुसरण करेगा उसे सत्य की अनुभूति होगी। मुसलमान , ईसाई या बौद्ध सभी को होगा। सभी सुख प्राप्ति करना चाहते हैं, और दुःख से निवृत्ति चाहते हैं। पर सुख कहाँ है; इसे समझने के लिए विवेक चाहिए। विवेक क्या है ? उसीका यह ग्रन्थ है विवेक- चूड़ामणि। भगवान शंकराचार्य द्वारा लिखित यह अंतिम ग्रन्थ है - ऐसी मान्यता है। स्वामी विवेकानन्द भगवान शंकराचार्य को बालक शंकर - या boy शंकर कहते थे।क्योंकि उन्होंने अपनी सारी रचनायें 16 वर्ष की आयु में ही लिख डाली थीं। स्वामीजी ने आदि शंकराचार्य के बारे में कहा था -" जिसके बारे में यह घोषित किया गया है कि उसने सोलह वर्ष की उम्र में अपनी समस्त ग्रंथों की रचना समाप्त कर ली थी, उसी अद्भुत प्रतिभाशाली बालक शंकराचार्य का अभ्युदय हुआ।और जिस 16 वर्ष के बालक की रचनाओं को पढ़कर सभ्य जगत विस्मित हो रहा है, वह बालक भी उतना ही अद्भुत था। उसने संकल्प किया था कि समग्र भारत को उसके प्राचीन विशुद्ध मार्ग में ले जाऊँगा। " (भारत के महापुरुष/ऋषि -खंड 5, पेज -159)
Adi Shankara-" It has been declared that at the age of sixteen he had completed all his writings; the marvelous boy Shankaracharya arose.The writings of this boy of sixteen are the wonders of the modern world, and so was the boy. He wanted to bring back the Indian world to its pristine purity .(वे भारतीय जगत को उसकी प्राचीन शुद्धता पर वापस लाना चाहते थे।)He wanted to bring back the Indian world to its pristine purity ."
["The greatest teacher of the Vedanta philosophy was Shankaracharya. India has to live, and the spirit of the Lord descended again. He who declared, “I will come whenever virtue subsides, came again and this time the manifestation was in the South, and up rose that young Brahmin of whom " It has been declared that at the age of sixteen he had completed all his writings; the marvelous boy Shankaracharya arose."(The Sages Of India) ]
विवेक-चूड़ामणि ग्रन्थ में 580 श्लोक हैं हमलोग चुने हुए केवल 50 -60 श्लोकों पर चर्चा करेंगे। इस ग्रंथ के नाम चूड़ामणि - मुकुट मणि कहने का तात्पर्य है - Most Important ! हमारे शरीर का सबसे महत्वपूर्ण अंग है - हमारा सिर, उस पर मुकुट पहना जाता है। लेकिन वह मुकुट ऐसा है जिसपर बहुत कीमिति मणि (कोहिनूर जैसा विवेक ) जड़ी हुई है ! जिस
प्रकार मुकुट के शिखर पर स्थित रत्न किसी व्यक्ति के शरीर का सबसे विशिष्ट
आभूषण होता है, उसी प्रकार यह ग्रंथ सत्, असत् और मिथ्या के बीच विवेक का
अध्ययन करने वाली कृतियों में एक उत्कृष्ट कृति है। तो विवेक क्या है ? यह मनुष्य की वह योग्यता है - जिसके कारण उसे मनुष्य कहा जाता है। विवेक का अर्थ है स्पष्टता या स्पष्ट-समझ, या इसको प्रांजल दृष्टि भी कह सकते हैं। यह मनुष्य के अलावा अन्य किसी प्राणी के पास नहीं होता। इस समय विश्व में मनुष्यों की संख्या कितनी है, 8 अरब What is the number of humans? - 8 billion -इतनी बड़ी जनसंख्या में लेकिन 99 % मनुष्यों का विवेक सोया रहता है। इसे जगाना पड़ता है। तब यह इन्द्रियग्राह्य जगत जो अविवेकी को सत्य जैसा दीखता है , विवेकवान पुरुष को स्पष्ट रूप से यह दृश्य प्रपंच मिथ्या दीखता है। हमने इस जगत को वह समझ लिया है जैसा वो नहीं है। यह जगत एकमेवाद्वितीय ब्रह्म के सिवा और कुछ नहीं है , किन्तु हमें ब्रह्म नहीं दीखता केवल जगत एकदम सत्य के जैसा दीखता है। इस विवेकचूड़ामणि ग्रन्थ में ही भगवान शंकर ने विवेक-जगरण को एक रूपक से समझाया है।
कोई ग्रामीण किसान था जिसे संध्या के समय , जब अंधकार नहीं होता लेकिन प्रकाश बहुत थोड़ा रहता है, उस समय किसी अत्यन्त आवश्यक काम से दूसरे गाँव जाना पड़ता है। वह गाँव नदी के उस पार था। वह जल्दी-जल्दी नदी के निकट पहुँचता है - तो देखता है कि न तो वहाँ कोई नाव है, न नाविक है। उसे नदी के उस पार जाना बहुत आवश्यक था - वह उपाय ढूँढ़ने लगता है। तभी उसे नदी में कुछ लक्कड़ जैसा बहता हुआ दीखता है। उस समय शाम के धुँधलके में जिसे हम -dusk' कहते हैं - बहुत स्पष्ट नहीं दीखता तो एक वस्तु को हम दूसरी वस्तु समझ लेते हैं। तो वह किसान भी जब उस लट्ठे पर बैठ कर नदी पार करने की और बढ़ रहा होता है। तभी दूर से कोई व्यक्ति बोलता है , उधर मत जाओ - जिसे तुम लट्ठा समझ रहे हो ; वह लक्क्ड़ का लट्ठा नहीं - मगरमच्छ है। अब वो उधर जायेगा ? तो गुरु की आवाज सुनकर विवेक जाग उठता है। इन्द्रियों से जो जगत दिख रहा है , वो इन्द्रियाँ ही हैं। यदि इन्द्रियाँ न हों -तो भी आप रहोगे पर जगत नहीं होगा। इस प्रकार यह नाम रूपात्मक जगत जैसा दिख रहा है -वो वैसा नहीं है। कुछ सुन्दर -सुन्दर वस्तु देखते हैं , अत्यंत सुन्दर रूप देखकर, इससे कुछ पाने की आशा में आजीवन दौड़ते रहने से भी -तृप्ति नहीं होती। शरीर बूढ़ा हो जाता है, इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती हैं -मृत्यु का समय हो जाता है। इसको ऐसे समझें - कल्पना करें कि आप किसी कुँए में गिर रहे हैं , सच में नहीं गिर रहे हैं - पर कल्पना करें ,समझने के लिए तो उसमें क्या हर्ज है ? और वह कुँआ ऐसा है जिसकी तली ही नहीं है - आप गिरते जा रहे हैं , पता नहीं कितनी गहराई - कितने समय तक ?कई जन्मों से गिरते चले जा रहे हैं ? विशालाक्षी नदी का भँवर भी वैसा ही था -जिसमें गिरने से ठाकुर सावधान करते थे। उन गुरुओं के वचनों को सुनना ही श्रवण है , श्रवण करके मौन होकर उस पर मनन करने से - निदिध्यासन या ध्यान स्वतः होगा , फिर समाधि में विवेकज-ज्ञान हो जायेगा। जीवन बदल जायेगा , जगत को देखने की दृष्टि ही बदल जाएगी। श्रवण -मनन-निदिध्यासन से हमारे जीवन में परिवर्तन होने लगेगा।
आप हो लेकिन इन्द्रियाँ नहीं हैं। उस अवस्था में हमें पहुँचना है। आज हम लोग अपने को इन्द्रियों से जोड़कर ही सब कुछ को सत्य समझ रहे हैं। इन्द्रियाँ हमें भ्रमित कर रहीं हैं। इन्द्रियों में ही डूबे रहना भी उसी प्रकार है जिस प्रकार कोई व्यक्ति का ऐसे कुँए में गिरना है जिसका कोई तल ही न हो। नव द्वारा वाले बहिर्मुखी इन्द्रियों के तलहीन गड्ढे में गिरने के समान है ,जिसमें गिरने वाला वो व्यक्ति कहीं पहुँचता ही नहीं है। ये जन्म खत्म हो जायेगा , दूसरा जन्म होगा - जीवन-मृत्यु का ये चक्र चलता ही रहता है। इस समय हमें विवेक में जग जाना होगा। नहीं तो बिना तली वाले गड्ढे में गिरने के समान -पुनरपि जननं पुनरपि मरणं चलता जायेगा। मोह मुद्गर भांजते रहो - भज गोविन्दं -भज गोविन्दं ! आजीवन दौड़ते रहते हो - पहुँचते कहीं नहीं हो। 70 -80 की उम्र में भी गोवा-यूरोप घूमने वाले से पूछो - क्या मिला ? ये सुंदर आल्प्स पर्वत श्रेणी सत्य सा दीखता है , सत्य है ही नहीं -हिमालय पर्वत श्रेणी पर बने 6000 फिट की ऊँचाई पर बसे अद्वैत आश्रम मायावती को देखकर जीवन की सच्चाई को समझो। जगत की वस्तुएं सत्य सी दिखती हैं - पर नश्वर हैं। इसको ठीक-ठीक श्रवण करें तो एक नई दृष्टि मिल जाएगी। बाल्य अवस्था जैसे खत्म हो गयी, ये यौवन है -पर यौवन को भी खत्म होने में कितना मिनट लगता है ? दो मिनट लगता है - फिर वार्धक्य आ जाता है -इसीप्रकार जीवन बीतता रहता है। इन्द्रियग्राह्य जगत को सत्य समझकर जीना उसी प्रकार के कुएँ में गिरने के समान है जिसका कोई तल है ही नहीं। मंगलाचरण में हम ईश्वर या इन्द्रियातीत सत्य का स्मरण कर रहे हैं, जो सचमुच विद्यमान है, हम उसका स्मरण कर रहे हैं। -इन्द्रियग्राह्य भोग की वस्तुओं का स्मरण नहीं करना है। ईश्वर क्या है ? जो सत्य वस्तु है , ये जो दिखाई दे रहा है , वो सत्य सा प्रतीत हो रहा है -पर भ्रम है। छाया मात्र है। उस सत्य वस्तु या ईश्वर की प्राथना क्यों करें ? क्योंकि ईश्वर या परम् सत्य की अनुग्रह के बैगर सत्य वस्तु को अविष्कृत करने के प्रयास में सफल नहीं हो सकता।
(45-48 मिनट) तो सद्गुरुं प्रणतोऽस्म्यहम् ! ये गुरु कौन हैं ? गोविन्दं परमानदं ! वो सत्य वस्तु कैसा है ?सच्चिदानन्द है , परमानन्द है। सत्य वस्तु को ही हम गोविन्द नाम से पुकारते हैं। इसका दूसरा अर्थ है आचार्य शंकर के गुरु का नाम भी गोविन्दपादाचार्य था। तो गोविन्द का दो अर्थ हुआ -एक ईश्वर और दूसरा गुरुदेव। इस आरंभिक श्लोक में, भगवान (गोविंद) या गुरु को उनके पूर्ण स्वरूप में नमस्कार किया गया है। यह जानना रोचक होगा कि आचार्य शंकर के गुरु का नाम आचार्य गोविंदपाद था, और यह श्लोक इस प्रकार रचा गया है कि दोनों अर्थों को स्वीकार किया जा सकता है। वास्तविक रूप में भी ईश्वर ही गुरु बन कर आते हैं। ईश्वर की गुरुशक्ति जब किसी मनुष्य के भीतर से कार्य करती है , तो उस मनुष्य को भी हम गुरु कहते हैं। किन्तु गुरु बनने की योग्यता सब में नहीं होती। यहाँ भगवान शंकर गोविन्द शब्द का प्रयोग करके, परम् सत्य सच्चिदानन्द को भी प्रणाम करते हैं और अपने गुरु को भी। हमलोगों को जगत ही सत्य दिखाई देता , ईश्वर या सत्य कहीं नहीं दीखता। इस सत्य को जानने के लिए जो श्रवण किया जाता है , उसीको स्वाध्याय कहते हैं। या आत्मविचार - मैं कौन हूँ ? या कहें मैं क्या हूँ ? इसीको Self Enquiry कहते हैं। मेरा असली स्वरुप क्या है , और इन्द्रियों से जो यह विश्व-प्रपंच दिखाई दे रहा है - इसका असली स्वरुप क्या है ? इसको जानना ही हमारे जीवन का परम उद्देश्य है।
उस परमसत्य को जानेंगे कैसे ? उसके लिए आचार्य शंकर एक अकाट्य सिद्धांत हमारे सामने रखते हैं --आत्मसाक्षातकर करना या ईश्वरलाभ करना इसका मतलब क्या है ? पहली ही पंक्ति में लिखते हैं - अगोचरं ,"जो सत्य या ईश्वर सभी वेदान्त सिद्धांतों का विषय है, फिर भी वह अगोचर है - यानि इन्द्रियों से परे है। "उस सत्य वस्तु को , आत्मा या ईश्वर को उसको इन्द्रियों से जाना नहीं जा सकता। एथेंस का जो सत्यार्थी सत्य की खोज में - लगा हुआ है ; उसको आचार्य शंकर शुरू में ही बता देते हैं कि वह इन्द्रियों से परे है। तमगोचरम्:इसका अर्थ है कि वह (गोविन्द) इंद्रियों और मन की पहुँच से परे है, यानी उसे प्रत्यक्ष रूप से अनुभव या व्यक्त नहीं किया जा सकता है।इसका अर्थ यह भी है कि इस परम सत्य को केवल सद्गुरु के मार्गदर्शन से ही जाना जा सकता है। सत्य को हम जानेंगे कैसे ? उसका अनुभव कैसे करेंगे ? सर्ववेदान्तसिद्धान्तगोचरं - वेदांत या सभी उपनिषदों का जो सिद्धान्त- यानि सिद्ध अंत -Conclusion, निष्कर्ष ,chapter closed है ( (महावाक्य है-तत्वमसि ) उसके द्वारा गोचर है। ये ऋषियों का सिद्धान्त है - क्या सिद्धान्त है ? वो सिद्धान्त है तत्वमसि ! तुम जो अपने आप को समझ रहे हो - देहधारी स्त्री या पुरुष , वह तुम नहीं हो। तत्वमसि ! का तात्पर्य अवधारणं - इसको श्रवण कहते हैं ! अतीन्द्रिय प्रक्रिया है - श्रवण-मनन निदिध्यासन वाला मानसिक क्रिया , जो विषयों से विमुख होकर हमें मन के परे चले जाना है। सत्य इन्द्रियों का विषय नहीं गुरु के शब्दों के पीछे पीछे जब हमारा मन चलने लगता है - ध्यान के बाद समाधि में उस इन्द्रियातीत सत्य की अनुभूति हो जाती है। भगवान शंकर की एक दूसरी पुस्तक है -अपरोक्षानुभूति। मन और इन्द्रियों के अतीत जाने से उसकी उपलब्धि होती है - उसको अपरोक्षानुभूति कहते है। इन्द्रियों से जो कुछ हम देख रहे हैं वो छाया रूप है, आभास रूप ही है -पर्दे पर फिल्म चल रहा है पकड़ने जायेंगे तो पर्दा ही पकड़ाय गा। हम लोग जब तक मगरमच्छ को लक्क्ड़ का लट्ठा समझ रहे हैं तब तक खतरा बना हुआ है। आशा की पूर्ति कभी नहीं होती - पूर्णता या तृप्त इन्द्रियगोचर वस्तुओं से कभी हो नहीं सकती।
पहले ही दो श्लोकों में भगवान मानव शरीर की महिमा बता रहे हैं - जान लो कि तुम लोग कहाँ बैठे हो ? देवदुर्लभ मनुष्य-शरीर में बैठे हो। कुत्ते -बिल्ली के शरीर में बैठे रहते तो यह वेदान्त चर्चा का श्रवण करना सम्भव नहीं होता। गाय -भैंस के लिए जो इन्द्रियों से दिखाई देता है -वो घाँस ही सत्य है। 'चारा खा जाना' ही सत्य है। सिर्फ मनुष्य में ही यह गोग्यता या क्षमता है कि वो जान सकता है कि सत्य क्या है ? और सत्य के जैसा क्या भास रहा है ? ये विवेक केवल मनुष्य शरीर में ही सम्भव है। इसलिए बच्चों इस देवदुर्लभ मानवशरीर के महत्व को समझो। मानवशरीर का मिलना एक अवसर है - यदि परम् सत्य को नहीं खोज रहे हैं , तो हम बहुत बड़ा अवसर खो रहे हैं। अगले जन्म में कौन सा शरीर प्राप्त होगा ? इसके विषय में कोई नहीं कह सकता।
2. जीवों को प्रथम तो मनुष्य जन्म प्राप्त करना दुर्लभ है, और उससे भी अधिक कठिन है नर-देह का प्राप्त होना; उससे भी दुर्लभ है ब्राह्मणत्व; उससे भी दुर्लभ है वैदिक धर्म के मार्ग का अनुगामी होना; उससे भी अधिक दुर्लभ है शास्त्रों का ज्ञान ; आत्मा और अनात्मा का विवेक, जड़-चेतन या शाश्वत-नश्वर विवेक , आत्मसाक्षात्कार और ब्रह्म के साथ तादात्म्य में स्थित रहना - ये तो करोड़ों जन्मों में किये पुण्य से क्रमशः आते हैं। (इस प्रकार की) मुक्ति सौ करोड़ जन्मों के पुण्यों के बिना प्राप्त नहीं होती।
3. तीन चीजें ऐसी हैं जो सचमुच दुर्लभ हैं और ईश्वर की कृपा से प्राप्त होती हैं - अर्थात् मानव जन्म, मोक्ष की लालसा और किसी सन्त, ऋषि या सिद्ध महात्मा (सदगुरुदेव) की संरक्षणात्मक देखभाल।
ये विवेक जग जाने से हम मगरमच्छ को लकड़ी का कुन्दा समझने का भूल नहीं करेंगे। इन्द्रियविषयों में सुख खोजने के पीछे और कभी नहीं भागेंगे।
शास्त्र और गुरुवाक्य या श्रुति के पर श्रद्धा के साथ अनुसार जब श्रवण, मनन ,निदिध्यासन हम करते हैं तो हमारे चंचल मन को एक नई दिशा में कार्य करने की समझ मिल जाती है। शास्त्र के अनुसार चलने से पहले हमारे जीवन की वो दिशा नहीं थी। वो इन्द्रियों के पीछे-पीछे चल रहा था, अब हमारी युक्ति - आत्मानुभूति के द्वारा अपने स्वरुप को जानने की तरफ होती है। मन के लिए यह नया विकास है। हर दिन हमसे यही भूल होती है , दो को मिला देते हैं। एक चीज को दूसरा समझ लेना -उसका परिणाम दुखद ही होता है। कोई भी पूर्णता को प्राप्त क्यों नहीं होता ? मगरमच्छ को मोटी लकड़ी का कुन्दा समझ लेते हैं। जगत में पैसे वाले सुखी हैं क्या? जिनके पास अकूत धनसम्पत्ति है वे तृप्त और पूर्णता महसूस का रहे हैं क्या ? अब विवेक से समझ लेते है कि सत्य की दिशा में जाये मिथ्या को फिर से सत्य मानकर इन्द्रियों की पीछे दौड़ें ? सत्य को अनुभव करने की प्रक्रिया इन्द्रियातीत होने से होती है। शास्त्र और गुरु मुख से श्रवण , मनन और निदिध्यासन करना वह उपाय है जिससे हम जीव और आत्मा के एकत्व की अनुभूति करके अज्ञान के बंधन से मुक्त हो सकते हैं।
विवेकचूड़ामणि के प्रथम दो श्लोक बतलाते हैं कि मनुष्य जीवन में दुर्लभ क्या है ? (10.53 मिनट)-मुक्तिर्नो शतजन्मकोटिसुकृतैः पुण्यैर्विन लभ्यते-मुक्त होने की इच्छा इस ब्रह्माण्ड में सबसे दुर्लभ वस्तु है मुक्ति। जिसको बंधन में होने का पता ही नहीं है , वो क्या मुक्त होने का प्रयास करेगा ? 84 लाख योनियाँ है - ये सब प्रकृति के नियमों में (जन्म-मृत्यु से) बंधे हुए है। हमारा जो वास्तविक स्वरुप है , वो शरीर से बँधजाने के लिए नहीं है। पर आज हम अपने को इसी शरीर से बंधा समझ रहे हैं। हर जीवजंतु जन्म लेते ही मृत्यु के बंधन में हैं। हम कितने दुःखों से गुजर चुके हैं। शरीर का नियम है - बड़ा, बूढ़ा , रोगी -स्वस्थ हो रहा है। मृत्यु हुआ तो जन्म निश्चित है। ये जो बार बार मरने -जन्म लेने का चक्र इससे बाहर कैसे निकलें ? गाय को देखिये - कितना मासूम है ? पर वह भी शरीर में होने के कष्ट को अनुभव कर रही है। शरीर में अवस्थित सुंदर पक्षी भी प्रकृति के नियमों से बंधा हुआ है , वो भी कष्ट में हैं। हमेशा भयग्रस्त रहता है - आवाज करते ही भाग जाता है। इस सृष्टि में सब जीव-जन्तु भयग्रस्त है। अपने को असुरक्षित समझने का भाव हमेशा रहता है। यही बंधन है - पर हमारा सत्यस्वरूप नहीं है। जैसे ही हम M/F शरीर से बंधे होने का अनुभव करेंगे तब मुक्ति चाहेंगे ? कौन मुक्त है ? कुछ ब्रह्मज्ञानी पुरुषों को छोड़ कर सब बंधे हुए हैं। सब प्रकृति के गुलाम हैं। पर सृष्टि में मुक्ति की प्राप्ति सिर्फ मनुष्य ही कर सकता है। आचार्य शंकर यह कह रहे हैं कि बच्चों तुम पहले यह देखो कि तुम किस महान मनुष्य शरीर को प्राप्त कर लिए हो ?
'जन्तूनां नरजन्म दुर्लभम् ' --गाय, भेंड़ , देवता के पास भी विकल्प नहीं है , मशीन की तरह चलना , खाना , पीना, सोना और संतान पैदा करना। विवेक जाग्रत होने तक हमारा जीवन भी पषुओं की तरह आहार , निद्रा , भय, मैथुन में नहीं बीत रहा है ? मनुष्य पशुओं से अलग कैसे है ? धर्मेण हिनः पशुरभिः समानः - जिसका विवेक जाग्रत नहीं हुआ हो , वो पशु के सामान है। विवेक ही वह योग्यता है जो मनुष्य को पशुओं से भिन्न बनाता है।
"आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।
धर्मो हि तेषामधिको विशेष: धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥"
का अर्थ है कि आहार, नींद, भय- ये भय ही सबसे बड़ा बंधन है। इस जगत में सभी भयग्रस्त हैं कि नहीं ? हर व्यक्ति अपने को असुरक्षित ही समझता है। पर ये हमारा वास्तविक स्वरुप नहीं है। वेद कहता है-
'भयादस्याग्निस्तपति भयात् तपति सूर्यः ।
भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः ॥
( कठोपनिषद . 2-3-3 )
उस कालात्मा भगवान् (या माँ काली) के भय से अग्नि , सूर्य , इन्द्रादि अपना कार्य करते हैं । यमराज भी उसके भय से -कांपता है, माने दौड़ता है। और मैथुन और एक दिन मर जाना - ये चार चीजें मनुष्य और पशु दोनों में समान हैं। मनुष्य को पशुओं से अलग करने वाली चीज धर्म है, धर्म या विवेक के बिना मनुष्य पशु के समान है। पशुओं के अंदर विवेक नहीं होता , जबतक हमें विवेक नहीं हुआ ; हम भी पशुओं के समान ही हैं। अर्थात केवल मनुष्य की योग्यता है, सत्य क्या है ? और जो सत्य स्सा प्रतीत हो रहा है , वह क्या है ? मनुष्य वह है जो दोनों का विवेक कर सकता हो; और जो सत्य है उसको पकड़ सकता हो।रज्जु और सर्प का विवेक सिर्फ मनुष्य ही कर सकता है , ये विवेक अन्य किसी प्राणी में नहीं है।
इस सृष्टि में मुक्ति सबसे दुर्लभ चीज है , कई जन्मों के पुण्य होने से यह मनुष्य शरीर मिला , इन्द्रियातीत सत्य। या परम सत्य को को खोजने की तीव्र इच्छा मिली, फिर एक बिहारी के जीवन में स्वामी विवेकानन्द कैसे आ गए !?? पहले माँ तारा , पिता सूर्य मिले - फिर स्वामीजी मिले गुरुदेव मिले , नवनीदा मिले - फिर माँ सारदा देवी मिली, फिर रामकृष्ण वचनामृत मिला !! अभी यूट्यब पर स्वामी शुद्धिदानन्द को सुनने का पर्याप्त अवसर माँ ने दिया।
प्रत्येक आने वाला अवस्था अभ्यास पहले से अधिक दुर्लभ है - 'जन्तूनां नरजन्म दुर्लभम् 'मनुष्य शरीर में जन्म दुर्लभ है, फिर उसके बाद मुक्ति की इच्छा अत्यंत दुर्लभ है। पुरुष शरीर को प्राप्त करना और भी दुर्लभ है कहने से, बेटियों के मन में ये प्रश्न उठेगा कि शंकर तो स्त्री-पुरुष में भेद देख रहे हैं। पर ऋषियों ने अपने अनुभव से यही कहा है। क्या आचार्य शंकर माँ की स्तुति नहीं किये थे ? सृष्टि सभी बंधे हुए हैं। प्रकृति के नियमों से सिर्फ मनुष्य ही ऊपर उठ सकता है। यह सामर्थ्य स्त्रियों में भी उतना ही है , जितना पुरुषों में है। जहाँ तक- मोक्ष प्राप्त करने या अपने आत्मस्वरूप को जानने की सामर्थ्य या योग्यता की बात है दोनों में कोई अंतर नहीं है। फिर यहाँ पुरुष शरीर को श्रेष्ठ क्यों कहते हैं ? मुक्ति को प्राप्त करने के लिए मनुष्य को अपना सर्वस्व उसमें लगा देना पड़ता है। या जो अविवाहित हो और अभी तुरंत मोक्ष चाहता हो-जगत की सुंदर-सुंदर वस्तुएं उसको इसी क्षण बेस्वाद लगती हों , पहले से ही विवेक और तीव्र वैरग्य जग गया हो और उसका उचित अधिकारी भी हो; अथवा कोई युवा अगर गृहस्थ हो तो कात्यायनी और मैत्रेयि दोनों में अनासक्त हो चुका चुका हो - क्योंकि यह कोई part-time job नहीं है !; गृहस्थ पुरुष को मुक्तिकेन्द्रित जीवन 24X7X365 जीवन जीने का अवसर मिल जाता है, लेकिन महिला की पात्रता उसकी विशिष्ट भूमिका क्या है ? मातृत्व - माँ ही संतान को जन्म देती है। 9 महीने कोख में रखना, जन्म से २५ साल तक माँ अपने बच्चे से जुड़ी रहती है। पुरुष लोग माँ की जिम्मेवारी को समझ ही नहीं सकते। यह लगाव प्राकृत्रिक है , पुरुष शरीर में ये बाधा नहीं है। संतान पैदा करने या पलने की बाधा नहीं है। और M/F कोई भेद नहीं है। रानी मदालसा जैसी ब्रह्मज्ञ महिला भी हैं - पर वे अपवाद हैं।
विवेक होने से वैराग्य उतपन्न हो जाता है। युवक और युवती जिस दिन स्पष्ट रूप से समझ लेंगे की इन्द्रियों का जगत निस्सार है , इसमें कोई सार नहीं है। वैराग्य होने इन्द्रियों के भोग को छोड़ देगा। ये मगरमच्छ है -आप उधर क्यों जयएंगे ? ये ऐसा कुआँ है , जिसमे तली ही नहीं है। हम दौड़ते रहते हैं , पहुंचते कहीं नहीं है। विवेक और वैराग्य हो जाने के बाद कोई युवक, तो संन्यास लेने के लिए कभी भी घर से निकल सकता है , पर युवती को घर से निकलने के लिए खतरा है या नहीं ? लेकिन पुरुष शरीर में सन्यास लेना सुविधाजनक है ? इद्रियों से भोग में सिर्फ रोग है - वो मगरमच्छ है , आप उधर नहीं जायेगे। 1200 साल पहले मनुष्य जैसा था , आज भी उसकी प्रकृति वैसी ही है। शंकर के समय में ही आक्रांताओं का आक्रमण शुरू हो गया था - उनका टारगेट स्त्री होती है , उसको बचाने के लिए हमें पर्दा प्रथा अपना लेना पड़ा। भारत में कोई भेद-भाव नहीं था। ये सब इस्लाम और अंग्रेज के बाद ही आया। मासिक बाधाएं भी उनको हो जाती हैं। प्रकृति ही यही है -बेटियों को ये समझ लेना चाहिए। बाकि दोनों में वीवेक-प्रयोग की योग्यता समान है।क्या मनुष्य शरीर प्राप्त हो जाने से ही जीवन धन्य होगा ? आज पृथ्वी पर कितने मनुष्य हैं ? 8 बिलियन - यानि आठ अरब मनुष्य हैं , क्या सभी मुक्त हैं ? अगला बहुत बड़ा पॉइंट है - विप्रता , ब्राह्मण का गुण अर्जित करना। विप्र और विप्रता - ब्राह्मण का ब्राह्मणत्व अर्जित करना। समाज का आदर्श ब्राह्मण ही है - जातिव्यवस्था का सनातनधर्म से लेनादेना है ही नहीं। सनातन धर्म में वर्ण गुण आधारित था जन्मगत नहीं था। ब्राह्मण कहते है चरित्रवान मनुष्य को। जिसका सारा जीवन ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के लिए समर्पित है। हर किसी को ब्रह्मण बनना होगा। ब्राह्मण के गुणों को अर्जित करना होगा। उसका जीवन तप केंद्रित है। व्यक्ति और समाज दोनों का क्रमविकास ब्राह्मण होने में है। इस पृथ्वी पर कितने ब्राह्मण हैं ? जिसका जीवन ही निःस्वार्थ है , यह दुर्लभ है या नहीं ? मनुष्य रूप में जन्म लेकर इसको ब्राह्मणत्व के गुणों से विभूषित रखना और भी दुर्लभ है या नहीं ? नरजन्म दुर्लभ है।
तस्माद्वैदिकधर्ममार्गपरता- उसमेंवैदिक धर्म मार्ग पर चलना, उसमें निष्ठा होना और भी कठिन है। व्यक्तिगत और सामाजिक दृष्टि से मार्ग कौन सा है - मनुष्यों को पूर्णता की और ले जा सकती है - वो मार्ग कौन सा है ? कितने प्रकार ism हैं कि नहीं ? राजनितिक धार्मिक नेता को भी अनुयाई मिल जाते हैं - कम्युनिष्ट कहाँ पहुँचते है ? बुद्धिज्म से कम्युनिज्म -कैपटिलिज्म से लोग सुखी हैं क्या ? कम्युनिस्ट ब्लॉक पूरा खोखला है। वैदिक धर्म मार्ग सबको प्यारा है। हमने गुरुवाक्य पर श्रद्धा खो दिया तब हम गरीब हुए। त्याग और योग की भूमि होकर भी हमलोग विश्व में सबसे समृद्ध देश कैसे बन गए ? ऋषियों का बताया वैदिक मार्ग पर चलते हुए हमारा देश सोने की चिड़िया था। वर्णाश्रम धर्म हमे महान बनाता है। वैदिक धर्म मार्ग पर निष्ठा और भी दुर्लभ है कि नहीं ? हिन्दू हम सिर्फ नाम के हैं , हमलोग वेद -वेदांत मार्ग पर चल रहे हैं क्या ? ब्राह्मणों का गुण प्राप्त करना दुर्लभ है -उससे भी दुर्लभ जो वैदिक मार्ग में निष्ठा रखते हैं। इससे भी दुर्लभ है -शास्त्र का ज्ञान होना , कितने लोगों को शास्त्र का ज्ञान प्राप्त है ? इसका अनुशीलन करने वाले और भी दुर्लभ हैं। आत्मा-अनात्मा का विवेक हमें शास्त्र से मिलता है , ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या की विवेचना करना दुर्लभ है , आत्मा में प्रतिष्ठित भी कर लिया और उसीमे प्रतिष्ठित कितने लोग हैं ? मुक्ति उसी को मिलती है। अंत में पता लगता है कि मुक्ति सबसे दुर्लभ वस्तु है। उसकी शुरुआत मनुष्य शरीर में जन्म लेने से होता है।
मार्क्सिज्म से कोई सुखी हुआ है क्या ? कैप्टलिज्म से कोई सुखी हुआ क्या ?
सभी मनुष्य दुःख से निवृत्त कैसे हों ? सुखी कैसे हों ? वह मार्ग है
-वैदिक मार्ग। त्याग और योग के आदर्श पर चलने वाला समाज और राष्ट्र विश्व
का सबसे धनी राष्ट्र कैसे बना ? 1000 साल में हमारा पतन हुआ , क्योंकि हमने
सनातन वैदिक मार्ग को छोड़ दिया। त्याग और योग का रास्ता ही मनुष्य को सुखी
बना सकता है। आत्मा क्या है अनात्मा क्या है ? ये जान लेना बहुत दुर्लभ है।
जिसने आत्मा में अपने को प्रतिष्ठित कर लिया हूँ। मैं ब्रह्मबोध में
प्रतिष्ठित हूँ ! ऐसा अनुभव करने वाला ही मुक्त है। अनंत जन्मों के पुण्य
कर्म से यह दुर्लभ मुक्ति प्राप्त होती है। ये हमारा लक्ष्य है -अभी इसे
हमलोग सुन रहे हैं। साधना से प्राप्त होता है।
तीसरे श्लोक में कहते हैं , तीन चीजें हैं जो अत्यंत ही दुर्लभ हैं। मनुष्य शरीर में रहकर भी मुक्ति की इच्छा कितने लोगों में है ?99 % लोगों में मुक्ति (मोक्ष) की इच्छा ही नहीं है। उनको भी चरित्रवान मनुष्य बनना होगा। सही दिशा में हमारा जीवन जायेगा - जब एक सतगुरु प्राप्त होना और दुर्लभ है मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रयः -- महापुरुष का आश्रय मिलना सबसे दुर्लभ है। यदि किसी को ये तीनो उपलब्ध है तो समझ लेना चाहिए कि ईश्वर का अनुग्रह प्राप्त हो चुका है।
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Vivekachudamani Saar |Session-5|
हमारी चर्चा का मुख्य विषय है - आत्मा का ज्ञान ! मैं कौन हूँ ? या मैं क्या हूँ ?
-आत्मज्ञान होने से क्या लाभ है ? उसीसे व्यक्ति मुक्त होता है। हमलोग यहाँ -गणित या भूगोल नहीं पढ़ रहे हैं। आत्मा को जानने की इच्छा कितने लोगों में है ? आपके साथ जुड़े जितने भी लोग हैं -सभी इन्द्रियों के पीछे ही दौड़ रहे हैं कि नहीं ? विवेकी मनुष्य को जीवन ही सिखा देता है कि भोगों में छल है -वह कभी तृप्त नहीं होता। ऐसे गड्ढे में गिरने की कल्पना करो -जिसका कोई तल ही नहीं हो ? विवेक-विचार जगने से ही आप उस गड्ढे से बाहर निकलने का सोचोगे।
आप इस इच्छा से आये हों कि आप इस गड्ढे से निकलना चाहते हैं , तभी ये अध्यन गोष्ठी (P.C) प्रासंगिक है। गड्ढे से बाहर निकलने में त्याग का स्थान सर्वोपरि है। त्याग- वैराग्य ऐसे दो शब्द हैं -जिससे सभी लोग भयभीत हैं। त्याग का मतलब जंगल भागना नहीं है। गृहस्थ को अपने मिथ्या नामरूप-में आसक्ति का त्याग करना है, संन्यासी को भौतिक जीवन को पूर्णतः त्यागना है। हमलोग इसी क्षण नित्य-मुक्त -शुद्ध-बुद्ध आत्मा हैं। पर हमें इसकी अनुभूति नहीं है। भोगी के लिए यह त्याग की बात सुनना - गीता में पूरा त्याग ही है , कौन त्याग चाहते है? संसार के विषयों का भोग ही जीवन का लक्ष्य है पाश्चात्य संस्कृति का लक्ष्य है। अब तो भारत के गाँवों में भी दृश्य-संसार के विषयों का भोग ही लक्ष्य है। वेदांत कहता है जाँच कर देखो - ये लोग पहुँचते कहाँ हैं ? बाल्यावस्था चला गया , जवानी खत्म हो जाएगी , बुढ़ापा आ जायेगा , इन्द्रियां शिथिल हो जायेंगी पर पूर्णता -तृप्ति नहीं मिलेगा। आप जहाँ थे अपने को वहीँ पाओगे। वृद्ध लोगों के जीवन को देखो - पहुँचे कहाँ हैं ? वे अपूर्ण ही हैं। लंगर डालकर नाव खेने की चेष्टा - सारी रात नाव खेया -सवेरे देखा वहीँ है।
रज्जु-सर्प विवेक से भय समाप्त हो जायेगा। सर्प है नहीं रस्सी है, जो जगत इन्द्रियों से दिखाई दे रहा है वो क्या है ? जगत के भोगों में सुख है क्या ? हमने जगत की जो धारणा बना ली है , जगत वैसा नहीं है। ब्रह्म ही जगत के रूप में भास रहा है। त्याग आधारित जीवन और योग आधारित जीवन देखो। विवेकानन्द बिना 10 रुपया जेब में रखे इतना आनंदित कैसे हैं ? अपने आस-पास जो 70, 80 के लोग हैं , उनसे पूछिए वे कहाँ पहुँचे हैं ?" ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी। मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन, वो काग़ज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी।।
बचपन में खेल में रूचि होती है, युवावस्था में युवति के प्रति आकर्षण होता है। वृद्धावस्था में चिंताओं से घिरे रहते हैं, किन्तु प्रभु से कोई प्रेम नहीं करता है ॥७॥ यौवन में बुढ़ापे का भय भी है। शरीर का अंतिम स्थान - श्मसान ही है।
बच्चा अपनी गुड़िया से आसक्त हो जाता है, हमलोग भी जगत में आसक्त हो गए हैं। तरुणावस्था सबसे खतरनाक अवस्था। लड़का का पूरा ध्यान लड़की पर , लड़की का ध्यान लड़के पर -हमसभी इस अवस्था से गुजरे हैं। ये प्राकृतिक खिँचाव है। उस वक्त सारी शक्ति उसी में चली जाती है। तरुणी से दिल भरा क्या ? बूढ़ा -बूढी की शक्ति क्षय हो गया - वो चिंता में ही डूबा रहता है , वासना अभी तक है , पर कुछ कर नहीं सकता और ऐसे ही मर जाता है। हर जन्म में ऐसा ही होता है। यही बंधन है - यह जाल है। इस जाल से बाहर निकलने का मार्ग सिर्फ गुरु के वचनों का पालन करने में है।
सभी त्यागी -वैरागी हो जायेंगे तो दुनिया कैसे चलेगी ? इसकी चिंता आप मत कीजिये। दुनिया जैसे चल रही है वैसे ही चलते रहेगी -आप मुक्त हो जाओगे। यदि गुरु के बताये मार्ग पर चलते रहोगे। हमसभी अपूर्णता की अनुभूति कर रहे हैं -इसलिए यहाँ आये हैं। जितने ism हैं , सब उस कुँए के भीतर गिरने वाला मार्ग है। सच्चाई में एक ही मार्ग -वेद के बताये मार्ग में किस हिन्दू की निष्ठा है ? शास्त्र का ज्ञान कितने लोगों को है ? आत्मा और अनात्मा का विवेक कितने लोग करते हैं। सभी खिलौने से खेल रहे हैं। आधार कार्ड वाला पहचान -समाप्ति की ओर जा रहा है। विवेक-चूड़ामणि के 530 श्लोकों में से हमें - 50-60 श्लोक पढ़कर उसका सार समझ लेना है। अगला श्लोक (47 मिनट पर-सेसन 5) पर हम ले रहे हैं वो छठा श्लोक इस प्रकार है -
6. लोग चाहे शास्त्रों का उद्धरण दें, देवताओं को बलि चढ़ाएँ, अनुष्ठान करें और देवताओं की पूजा करें, लेकिन आत्मा के साथ अपनी पहचान के बिना, आत्मा के साथ जीव की एकत्वानुभूति (oneness की अनुभूति) के बिना मुक्ति नहीं मिलती, यहाँ तक कि सौ ब्रह्माओं के जीवनकाल# में भी नहीं। [नोट:# जीवनकाल। —अर्थात, समय की अनिश्चित अवधि। ब्रह्मा (सृष्टिकर्ता) का एक दिन मानव गणना के 432 मिलियन वर्षों के बराबर है, जो कि संसार की अवधि मानी जाती है। कालात्मा भगवान् (या माँ काली)
"कालात्मा" शब्द का अर्थ है "समय का आत्मा" या "समय का सार। " भगवान शिव
को कालात्मा के रूप में भी जाना जाता है क्योंकि वह समय के अंत में
ब्रह्मांड का संहार करते हैं। यह शब्द भगवान शिव से जुड़ा है, जो समय के
नियंत्रक और ब्रह्मांड के संहारक माने जाते हैं।
इस श्लोक का भाव ये है - के माध्यम से भगवान शंकर कह रहे हैं - आप को जो कुछ
कर्मकाण्ड करना है , तीर्थ-भ्रमण , दानपुण वो सबकुछ करके देख लीजिये।
किन्तु जबतक जीव का आत्मा के साथ एकत्व की अनुभूति नहीं हो जाती कोई भी इस
गड्ढे से - जिसकी तली नहीं है, उस गड्ढे से कोई भी बाहर नहीं निकल सकता। जीव का आत्मा के साथ एकत्व का अनुभव क्या है ? अपने सत्य स्वरुप को जाने बगैर , किसी की भी मुक्ति नहीं हो सकती। आज इस जीव की जो पहचान है- इसका मतलब क्या है ? , आधार कार्ड वाली -आज हमारी पहचान क्या है ? कोई धर्मेंद्र है , अजय अग्रवाल है -या पाण्डेय है ? वह नहीं , आत्मा के साथ जिस परमात्मा का एकत्व है , वह पहचान। वास्तव जो bks है -वो भी यह नहीं है। हमसबों की वास्तविक पहचान एक ही है, वो बड़ा आश्चर्यमय है। ये अहं क्या है ? जिसको हम अपना पहचान समझते हैं -वो क्या है ? इसको हम व्यावहारिक जीव कहते हैं - इसको हमलोग अंग्रेजी में आभासी जीव की पहचान, Fictional Identity- काल्पनिक पहचान कह सकते हैं। जो लम्बा-मोटा -पतला , गोरा -काला या M/F शरीर के नामरूप में है। ये बदल रहा है , यह काल्पनिक पहचान चला जायेगा। ये अभी भी जा रहा है। BKS के आधार कार्ड वाला Identity जाने वाला है। एक उदाहरण देखें - इसी एक घंटे के पाठचक्र में हम जब बैठे हैं। इतनी ही देर में जगत कितना बदल गया ? विश्व में कितने जीवों का जन्म हो गया मृत्यु भी हो गया। हम यहाँ आये हैं ये ईश्वर के अनुग्रह से हो रहा है। जैसे बुलबुले के जैसा कितना छोटे छोटे जीव , उत्तराखण्ड में बाह गए हम नहीं रो रहे , पर जिससे हमने अपना सम्बन्ध बना लिया है , वो जाने लगते हैं तो हम दुःखी हो जाते हैं। अहमदाबाद जो प्लेन क्रैश हुआ - कौन बुलबुला कह सकता है कि -अगले सन्डे तक मैं जीवित रहूंगा। पर हमको लगता है कि यही सत्य है। जिसका जन्म हुआ उसकी मृत्यु निश्चित है। बुलबुले की सच्चाई -पानी है , हमारा सत्य स्वरूप नश्वर शरीर नहीं है हमलोग सब अविनाशी आत्मा है। आज का हमारा पहचान बुलबुला है , इसको खोजेंगे तो पानी ही मिलेगा। यही इस पूरे ब्रह्माण्ड की सच्चाई है। जगत हर क्षण बदल रहा है - जगत परिवर्तन का एक प्रवाह है। नाम-रूप गायब हो जायेगा - अस्ति, भाति, प्रिय प्रकट हो जायेगा। यहाँ आचार्य शंकर यही कह रहे हैं -आप कुछ भी कर लीजिये यदि आत्मा के साथ अपने स्वरुप के एकत्व की अनुभूति नहीं हो जाती तो 100 ब्रह्मा का शरीर पाकर भी गड्ढे से बाहर नहीं निकल पाओगे।
'वदन्तु शास्त्राणि, यजन्तु देवान'--- आप शास्त्रों का उद्धरण देते रहिये -सब श्लोक कंठस्थ कर लीजिये। पढ़कर उसको अपने जीवन में उतारोगे नहीं , अनुशीलन नहीं करोगे तो मुक्ति नहीं होगी। आप गीता कंठस्थ कर सकते हैं , यदि नहीं किये हों तो इसको टास्क समझकर करना चाहिए। पर गीता के उल्टा त्याग और योग को जीवन में उतारे बिना- मुक्ति नहीं होगी। क्योंकि गीता जीवन का सम्पूर्ण दर्शन है। यजन्तु देवान'- आप विभिन्न प्रकार के देवताओं को प्रसन्न करने के लिए विभन्न प्रकार के शतकुंडि या हजारकुण्डि यज्ञ कर लीजिये , विभिन्न देवी देवता को भजकरके देख लीजिये -भजन्तु देवताः। जब तक आप अपने आत्मस्वरूप का ज्ञान- Who am I? मैं कौन हूँ ? का ज्ञान , नहीं प्राप्त कर लेते आपकी मुक्ति नहीं होगी। इस गड्ढे में गिर करके आप जो कुछ भी कर लीजिये - इससे बाहर निकलने का एक मात्र मार्ग वो- आत्मज्ञान ही है। एक बहुत बड़ी सच्चाई हमारे सामने रख रहे हैं -आत्मज्ञान का महत्व हमारे सामने रख रहे हैं। आत्मजिज्ञासा - मैं कौन हूँ ? भौतिक दृष्टि से हमसबों को सारी सुख-सुविधा उपलब्ध है , पर तृप्ति नहीं है। आत्मजिज्ञासा - आत्मज्ञान के महत्व को पहले समझ तो जाएँ !
आत्मज्ञान की दिशा में आगे बढ़ने के लिए कुछ चीजें अनिवार्य हैं। यहाँ से यदि दिल्ली जाना हो तो आपके पास एक गाड़ी होनी चाहिए, पेट्रोल भी होना चाहिए । पैदल जाने केलिए भी भोजन-पानी की व्यवस्था चाहोये। गड्ढे से बाहर निकलने के लिए कुछ चीजें अनिवार्य हैं। आपको गड्ढे से बाहर निकलना भी है या नहीं ? ये प्रश्न है। सभी लोग अगर गड्ढे से बाहर निकल जाएँ , तो फिर गड्ढे में कौन होगा ? ये सृष्टि एक गड्ढे के समान है , यदि सब लोग इस गड्ढे से बाहर निकल गए टी ये सृष्टि समाप्त हो जाएगी। सभी बाहर निकलने के लिए तैयार नहीं हैं ? हम किस गुट में हैं ? घर में सबकुछ है , भोजन -वाहन मकान , जमीन ज्यादाद सब है , पर जीवन तो अतृप्त है न ? जीव तृप्त है या नहीं ? ये सोचने का विषय है , ये विचार करने का विषय है। विश्व का सबसे धनी व्यक्ति भी उतना ही असुरक्षित है -जितना कोई गाय है। ट्रम्प आपसे भी ज्यादा असुरक्षित है। अपने को देह समझने वाला जीव हमेशा असुरक्षित ही रहेगा , भले उसकी भौतिक समृद्धि कुछ भी हो। वो भयग्रस्त है , वो अतृप्त है। पहले हमे स्वयं से यह पूछना है कि हमें इस तली -विहीन गड्ढे से बाहर निकलना है यहीं ? बाहर निकलने वाले गुट को हमलोग साधक या मुमुक्षु कहते हैं। प्रश्न है - आप साधक हो क्या ? आप मुमुक्षु हो क्या ? अगर हो तो आए का विषय आता है -विवेकचूड़ामणि , उपनिषद या गीता आपको सांसारिक विषयभोग का मार्ग नहीं दिखायेगा। आपका रास्ता ही अलग है। दिल्ली में रेव पार्टी का परिणाम क्या है ? वो आपको तृप्त करता है क्या ? यदि गड्ढे से बाहर निकलना हो तो पाठचक्र लाभदायक लगेगा।
साधारण मनुष्यों प्रवृत्ति क्या है ? अधिकांश की प्रवृत्ति इन्द्रियों के पीछे दौड़ने का है। कितना भी भोग कर लें , यह कभी तृप्त होती ही नहीं है। ये उसी प्रकार के गड्ढे में गिरने के समान है , जिसका कोई तल है ही नहीं। मुक्त होने की इच्छा - आत्मा का ज्ञान - मैं कौन हूँ ? इसको प्राप्त करने से आदमी मुक्त होता है , अपने स्वरुप को पहचानता है। हमारी शिक्षापद्धति में ये शिक्षा कहीं नहीं है।
आप कल्पना में अपने रूप को एक गड्ढे में गिरते दिखिए और सोचिये कि उसका तल है ही नहीं। जब तक हमारे जीवन में विवेक-विचार शुरू नहीं होगा ये चलता ही रहेगा। जो भोगों के पीछे जाना चाहते हैं , उनके लिए ये अध्यन नहीं है। आपका जो दोस्त बंधन से मुक्त होना चाहता हो उसको ये पुस्तक दोगे तो यह उसका प्राण बन जायेगा। वेदांत (उपनिषद) अपने सिद्धांत किसी थोपना नहीं चाहता - वह मानवजाति को केवल सत्य बता देना चाहता है। आप देखोगे 99 % लोग इस पुस्तक को छुएंगे भी नहीं। उनको अभी भी संसार के विषयों का उपभोग ही चाहिए - तो वो बिल्कुल स्वतंत्र है , वेदांत यह कभी नहीं कहता कि सबको इसी समय स्वीकार कर लेना होगा ! हम यह मानकर चलते हैं , कि पाठचक्र में जो भी आता है , वो साधक और मुमक्षु है। इसमें त्याग -वैराग्य सबसे महत्वपूर्ण विकास है। आप अभी भी मुक्त ही हैं , बंधन का जो अनुभव हो रहा है , वो अज्ञान के कारण हो रहा है।
रज्जु में सर्प दिखने जैसा ब्रह्म ही जगत के रूप में दिख रहा है ? ये निरीक्षण का विषय है -आप इसको परखकर देखो। जगत है क्या ? जैसा दिखाई दे रहा है , ये वैसा नहीं है। आज हमें समझ नहीं आ रहा है। त्याग और योग आधारित व्यक्ति -स्वामी विवेकान्द को रखें या भोग मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति को देखें कौन आनंद में है ? परिणाम को देखिये - 80 साल के बाद कहाँ पहुंचे ? खालीपन है।
तरुणस्तावत् तरुणीसक्तः ।ऐसा होना - teen age में ऐसा होना प्राकृतिक है , सारी शक्ति उसी में खर्च हो जाती है। कितने खिलौने से खेले ? तरुणावस्था में तरुणी से खेलते रहे -तृप्ति मिली क्या ? बूढ़ा व्यक्ति चिंता में डूबा हुआ रहता है , पर अभी भी वो अतृप्त ही मर जाता है। दुबारा माँ के कोख में हम पहुँच जाते है। हर जन्म में उसी गड्ढे में गिरने जैसा -एक बंधन है , एक जाल है। तब वो सत्य की खोज में निकल पड़ेगा। इससे बाहर निकलने का मार्ग गुरु-और शास्त्र वाक्य पर श्रद्धा से मिलेगा। अगर विवेक हो तब आप उपाय खोजेंगे। विश्वप्रपंच जैसा दीखता है -वैसा नहीं है। जिसको सत्य को खोजने की उत्सुकता हुई हो , उसको गुरु और शास्त्र की शरण में आ जाना चाहिए। शुरुआत है मनुष्य जन्म मिलने से , लेकिन अंतिम सोपान इस गड्ढे से बाहर निकल जाना दुर्लभ है।
(श्रीरामचरितमानस ग्रन्थ में लंका काण्ड किन्तु विविध भारती रेडिओ पर सुन्दर काण्ड।???)
[ घटना - 318: दोहा -41]
श्रीराम की सेना और रावण की सेना के बीच घमासान युद्ध
छंद :
* धरि कुधर खंड प्रचंड मर्कट भालु गढ़ पर डारहीं। झपटहिं चरन गहि पटकि महि भजि चलत बहुरि पचारहीं॥
अति तरल तरुन प्रताप तरपहिं तमकि गढ़ चढ़ि चढ़ि गए। कपि भालु चढ़ि मंदिरन्ह जहँ तहँ राम जसु गावत भए॥
भावार्थ:-
प्रचण्ड वानर और भालू पर्वतों के टुकड़े ले-लेकर किले पर डालते हैं। वे
झपटते हैं और राक्षसों के पैर पकड़कर उन्हें पृथ्वी पर पटककर भाग चलते हैं
और फिर ललकारते हैं। बहुत ही चंचल और बड़े तेजस्वी वानर-भालू बड़ी फुर्ती
से उछलकर किले पर चढ़-चढ़कर गए और जहाँ-तहाँ महलों में घुसकर श्री रामजी का
यश गाने लगे।
[छंद किसे कहते हैं? छंद शब्द 'छद' धातु से बना है। जिसका अर्थ है 'खुश करना '। वर्णों या मात्राओ के नियमित संख्या के विन्यास से यदि आल्हाद पैदा हो तो उसे छंद कहते है। छंद का दूसरा नाम पिंगल भी है।
दोहा : * एकु एकु निसिचर गहि पुनि कपि चले पराइ। ऊपर आपु हेठ भट गिरहिं धरनि पर आइ॥41॥
भावार्थ:-
फिर एक-एक राक्षस को पकड़कर वे वानर भाग चले। ऊपर आप और नीचे (राक्षस)
योद्धा- इस प्रकार वे (किले से) धरती पर आ गिरते हैं॥41॥
चौपाई :
* राम प्रताप प्रबल कपिजूथा। मर्दहिं निसिचर सुभट बरूथा॥ चढ़े दुर्ग पुनि जहँ तहँ बानर। जय रघुबीर प्रताप दिवाकर॥1॥
भावार्थ:- श्री रामजी के प्रताप से प्रबल वानरों के झुंड राक्षस योद्धाओं के समूह के समूह मसल रहे हैं। वानर फिर जहाँ-तहाँ किले पर चढ़ गए और प्रताप में सूर्य के समान श्री रघुवीर की जय बोलने लगे॥1॥
भावार्थ:- राक्षसों के झुंड वैसे ही भाग चले जैसे जोर की हवा चलने पर बादलों के समूह तितर-बितर हो जाते हैं। लंका नगरी में बड़ा भारी हाहाकार मच गया। बालक, स्त्रियाँ और रोगी (असमर्थता के कारण) रोने लगे॥2॥
* सब मिलि देहिं रावनहि गारी। राज करत एहिं मृत्यु हँकारी॥ निज दल बिचल सुनी तेहिं काना। फेरि सुभट लंकेस रिसाना॥3॥
भावार्थ:- सब मिलकर रावण को गालियाँ देने लगे कि राज्य करते हुए इसने मृत्यु को बुला लिया। रावण ने जब अपनी सेना का विचलित होना कानों से सुना, तब (भागते हुए) योद्धाओं को लौटाकर वह क्रोधित होकर बोला-॥3॥
* जो रन बिमुख सुना मैं काना। सो मैं हतब कराल कृपाना॥ सर्बसु खाइ भोग करि नाना। समर भूमि भए बल्लभ प्राना॥4॥
भावार्थ:- मैं जिसे रण से पीठ देकर भागा हुआ अपने कानों सुनूँगा, उसे स्वयं भयानक दोधारी तलवार से मारूँगा। मेरा सब कुछ खाया, भाँति-भाँति के भोग किए और अब रणभूमि में प्राण प्यारे हो गए!॥4॥
भावार्थ:- रावण के उग्र (कठोर) वचन सुनकर सब वीर डर गए और लज्जित होकर क्रोध करके युद्ध के लिए लौट चले। रण में (शत्रु के) सम्मुख (युद्ध करते हुए) मरने में ही वीर की शोभा है। (यह सोचकर) तब उन्होंने प्राणों का लोभ छोड़ दिया॥5॥ दोहा :
भावार्थ:-बहुत से अस्त्र-शस्त्र धारण किए, सब वीर ललकार-ललकारकर भिड़ने लगे। उन्होंने परिघों और त्रिशूलों से मार-मारकर सब रीछ-वानरों को व्याकुल कर दिया॥42॥ चौपाई :
भावार्थ:- (शिवजी कहते हैं-) वानर भयातुर होकर (डर के मारे घबड़ाकर) भागने लगे, यद्यपि हे उमा! आगे चलकर (वे ही) जीतेंगे। कोई कहता है- अंगद-हनुमान् कहाँ हैं? बलवान् नल, नील और द्विविद कहाँ हैं?॥1॥
*निज दल बिकल सुना हनुमाना। पच्छिम द्वार रहा बलवाना॥ मेघनाद तहँ करइ लराई। टूट न द्वार परम कठिनाई॥2॥
भावार्थ:-हनुमान्जी ने जब अपने दल को विकल (भयभीत) हुआ सुना, उस समय वे बलवान् पश्चिम द्वार पर थे। वहाँ उनसे मेघनाद युद्ध कर रहा था। वह द्वार टूटता न था, बड़ी भारी कठिनाई हो रही थी॥2॥
* पवनतनय मन भा अति क्रोधा। गर्जेउ प्रबल काल सम जोधा॥ कूदि लंक गढ़ ऊपर आवा। गहि गिरि मेघनाद कहुँ धावा॥3॥
भावार्थ:-तब पवनपुत्र हनुमान्जी के मन में बड़ा भारी क्रोध हुआ। वे काल के समान योद्धा बड़े जोर से गरजे और कूदकर लंका के किले पर आ गए और पहाड़ लेकर मेघनाद की ओर दौड़े॥3॥
भावार्थ:- रथ तोड़ डाला, सारथी को मार गिराया और मेघनाद की छाती में लात मारी। दूसरा सारथी मेघनाद को व्याकुल जानकर, उसे रथ में डालकर, तुरंत घर ले आया॥4॥ दोहा :
भावार्थ:- युद्ध में शत्रुओं के विरुद्ध दोनों वानर क्रुद्ध हो गए। हृदय में श्री रामजी के प्रताप का स्मरण करके दोनों दौड़कर रावण के महल पर जा चढ़े और कोसलराज श्री रामजी की दुहाई बोलने लगे॥1॥
* कलस सहित गहि भवनु ढहावा। देखि निसाचरपति भय पावा॥ नारि बृंद कर पीटहिं छाती। अब दुइ कपि आए उतपाती॥2॥
भावार्थ:- उन्होंने कलश सहित महल को पकड़कर ढहा दिया। यह देखकर राक्षस राज रावण डर गया। सब स्त्रियाँ हाथों से छाती पीटने लगीं (और कहने लगीं-) अब की बार दो उत्पाती वानर (एक साथ) आ गए हैं॥2॥
* कपिलीला करि तिन्हहि डेरावहिं। रामचंद्र कर सुजसु सुनावहिं॥ पुनि कर गहि कंचन के खंभा। कहेन्हि करिअ उतपात अरंभा॥3॥
भावार्थ:- वानरलीला करके (घुड़की देकर) दोनों उनको डराते हैं और श्री रामचंद्रजी का सुंदर यश सुनाते हैं। फिर सोने के खंभों को हाथों से पकड़कर उन्होंने (परस्पर) कहा कि अब उत्पात आरंभ किया जाए॥3॥
* गर्जि परे रिपु कटक मझारी। लागे मर्दै भुज बल भारी॥ काहुहि लात चपेटन्हि केहू। भजहु न रामहि सो फल लेहू॥4॥
भावार्थ:-वे गर्जकर शत्रु की सेना के बीच में कूद पड़े और अपने भारी भुजबल से उसका मर्दन करने लगे। किसी की लात से और किसी की थप्पड़ से खबर लेते हैं (और कहते हैं कि) तुम श्री रामजी को नहीं भजते, उसका यह फल लो॥4॥
(श्रीरामचरितमानस ग्रन्थ में लंका काण्ड किन्तु विविध भारती रेडिओ पर सुन्दर काण्ड।???)
[ घटना - 317: दोहा -38ख से आगे, ]
>> लंका के चारों दिशाओं में वानर सेना द्वारा आक्रमण से कोहराम :
लंका की सुरक्षा हेतु चार विशाल द्वार हैं अतः सुग्रीव , जांबवान, विभीषण आदि से मंत्रणा करके वानर सेना के चार दल बनाये गए। सैन्यदल श्रीराम के चरणों में सिर नवाकर , पर्वतशिखरों जैसे भीमकाय अस्त्र सशत्र लेकर , चारों दिशाओं से लंका पर चढ़ दौड़ते हैं। लंका में कोहराम मच जाता है , किन्तु मदांध रावण ये समाचार सुनकर हँसता है ; इस आक्रमण को वानरों की ढिठाई बताकर राक्षसों को आदेश देता है कि विधाता ने घर बैठे वानरों के रूप में जो भोजन भेजा है वे उसका उपभोग करें। राक्षस सेना के योद्धा अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्र लेकर वानरसेना पर टूट पड़ते हैं - परकोटे पर वे बादलों की तरह छा जाते हैं। वातावरण में नफ़ीरी , भेरी और रणवाद्यों का निनाद गूँज उठता है। ......
चौपाई :
* रिपु के समाचार जब पाए। राम सचिव सब निकट बोलाए॥ लंका बाँके चारि दुआरा। केहि बिधि लागिअ करहु बिचारा॥1॥
भावार्थ:- जब शत्रु के समाचार प्राप्त हो गए, तब श्री रामचंद्रजी ने सब मंत्रियों को पास बुलाया (और कहा-) लंका के चार बड़े विकट दरवाजे हैं। उन पर किस तरह आक्रमण किया जाए, इस पर विचार करो॥1॥
* तब कपीस रिच्छेस बिभीषन। सुमरि हृदयँ दिनकर कुल भूषन॥ करि बिचार तिन्ह मंत्र दृढ़ावा। चारि अनी कपि कटकु बनावा॥2॥
भावार्थ:- तब वानरराज सुग्रीव, ऋक्षपति जाम्बवान् और विभीषण ने हृदय में सूर्य कुल के भूषण श्री रघुनाथजी का स्मरण किया और विचार करके उन्होंने कर्तव्य निश्चित किया। वानरों की सेना के चार दल बनाए॥2॥
भावार्थ:-और उनके लिए यथायोग्य (जैसे चाहिए वैसे) सेनापति नियुक्त किए। फिर सब यूथपतियों को बुला लिया और प्रभु का प्रताप कहकर सबको समझाया, जिसे सुनकर वानर, सिंह के समान गर्जना करके दौड़े॥3॥
* हरषित राम चरन सिर नावहिं। गहि गिरि सिखर बीर सब धावहिं॥ गर्जहिं तर्जहिं भालु कपीसा। जय रघुबीर कोसलाधीसा॥4॥
भावार्थ:-वे हर्षित होकर श्री रामजी के चरणों में सिर नवाते हैं और पर्वतों के शिखर ले-लेकर सब वीर दौड़ते हैं। 'कोसलराज श्री रघुवीरजी की जय हो' पुकारते हुए भालू और वानर गरजते और ललकारते हैं॥4॥
भावार्थ:- लंका को अत्यंत श्रेष्ठ (अजेय) किला जानते हुए भी वानर प्रभु श्री रामचंद्रजी के प्रताप से निडर होकर चले। चारों ओर से घिरी हुई बादलों की घटा की तरहलंका को चारों दिशाओं से घेरकर वे मुँह से डंके और भेरी बजाने लगे॥5॥
युद्धारम्भ :War begins
दोहा : * जयति राम जय लछिमन जय कपीस सुग्रीव। गर्जहिं सिंहनाद कपि भालु महा बल सींव॥39॥
भावार्थ:- महान् बल की सीमा वे वानर-भालू सिंह के समान ऊँचे स्वर से 'श्री रामजी की जय', 'लक्ष्मणजी की जय', 'वानरराज सुग्रीव की जय'- ऐसी गर्जना करने लगे॥39॥
भावार्थ:- लंका में बड़ा भारी कोलाहल (कोहराम) मच गया। अत्यंत अहंकारी रावण ने उसे सुनकर कहा- वानरों की ढिठाई तो देखो! यह कहते हुए हँसकर उसने राक्षसों की सेना बुलाई॥1॥
* आए कीस काल के प्रेरे। छुधावंत सब निसिचर मेरे॥ बअस कहि अट्टहास सठ कीन्हा। गृह बैठें अहार बिधि दीन्हा॥2॥
भावार्थ:- बंदर काल की प्रेरणा से चले आए हैं। मेरे राक्षस सभी भूखे हैं। विधाता ने इन्हें घर बैठे भोजन भेज दिया। ऐसा कहकर उस मूर्ख ने अट्टहास किया (वह बड़े जोर से ठहाका मारकर हँसा)॥2॥
भावार्थ:- (और बोला-) हे वीरों! सब लोग चारों दिशाओं में जाओ और रीछ-वानर सबको पकड़-पकड़कर खाओ। (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! रावण को ऐसा अभिमान था जैसा टिटिहिरी पक्षी पैर ऊपर की ओर करके सोता है (मानो आकाश को थाम लेगा)॥3॥
भावार्थ:-आज्ञा माँगकर और हाथों में उत्तम भिंदिपाल, साँगी (बरछी), तोमर, मुद्गर, प्रचण्ड फरसे, शूल, दोधारी तलवार, परिघ और पहाड़ों के टुकड़े लेकर राक्षस चले॥4॥
भावार्थ:-जैसे मूर्ख मांसाहारी पक्षी लाल पत्थरों का समूह देखकर उस पर टूट पड़ते हैं, (पत्थरों पर लगने से) चोंच टूटने का दुःख उन्हें नहीं सूझता, वैसे ही ये बेसमझ राक्षस दौड़े॥5॥
दोहा : * नानायुध सर चाप धर जातुधान बल बीर। कोट कँगूरन्हि चढ़ि गए कोटि कोटि रनधीर॥40॥
भावार्थ:- अनेकों प्रकार के अस्त्र-शस्त्र और धनुष-बाण धारण किए करोड़ों बलवान् और रणधीर राक्षस वीर परकोटे के कँगूरों पर चढ़ गए॥40॥ चौपाई :
* कोट कँगूरन्हि सोहहिं कैसे। मेरु के सृंगनि जनु घन बैसे॥ बाजहिं ढोल निसान जुझाऊ। सुनि धुनि होइ भटन्हि मन चाऊ॥1॥
भावार्थ:-वे परकोटे के कँगूरों पर कैसे शोभित हो रहे हैं, मानो सुमेरु के शिखरों पर बादल बैठे हों। जुझाऊ ढोल और डंके आदि बज रहे हैं, (जिनकी) ध्वनि सुनकर योद्धाओं के मन में (लड़ने का) चाव होता है॥1॥
* बाजहिं भेरि नफीरि अपारा। सुनि कादर उर जाहिं दरारा॥ देखिन्ह जाइ कपिन्ह के ठट्टा। अति बिसाल तनु भालु सुभट्टा॥2॥
भावार्थ:- अगणित नफीरी और भेरी बज रही है, (जिन्हें) सुनकर कायरों के हृदय में दरारें पड़ जाती हैं। उन्होंने जाकर अत्यन्त विशाल शरीर वाले महान् योद्धा वानर और भालुओं के ठट्ट (समूह) देखे॥2॥
* धावहिं गनहिं न अवघट घाटा। पर्बत फोरि करहिं गहि बाटा॥ कटकटाहिं कोटिन्ह भट गर्जहिं। दसन ओठ काटहिं अति तर्जहिं॥3॥
भावार्थ:-(देखा कि) वे रीछ-वानर दौड़ते हैं, औघट (ऊँची-नीची, विकट) घाटियों को कुछ नहीं गिनते। पकड़कर पहाड़ों को फोड़कर रास्ता बना लेते हैं। करोड़ों योद्धा कटकटाते और गर्जते हैं। दाँतों से होठ काटते और खूब डपटते हैं॥3॥
* उत रावन इत राम दोहाई। जयति जयति जय परी लराई॥ निसिचर सिखर समूह ढहावहिं। कूदि धरहिं कपि फेरि चलावहिं॥4॥
भावार्थ:- उधर रावण की और इधर श्री रामजी की दुहाई बोली जा रही है। 'जय' 'जय' 'जय' की ध्वनि होते ही लड़ाई छिड़ गई। राक्षस पहाड़ों के ढेर के ढेर शिखरों को फेंकते हैं। वानर कूदकर उन्हें पकड़ लेते हैं और वापस उन्हीं की ओर चलाते हैं॥4॥
(श्रीरामचरितमानस ग्रन्थ में लंका काण्ड किन्तु विविध भारती रेडिओ पर सुन्दर काण्ड।???)
[ घटना - 316: दोहा -35,36,37]
>>राजसभा में रावण
को अंगद का पराक्रम का आभास और मन्दोदरी द्वारा उसे समझाने का प्रयास , और
अंगद के बल के प्रति श्री राम की जिज्ञासा ---
राजसभा में रावण अंगद का पराक्रम का आभास पा चुका था, फिरभी मन्दोदरी के समझावन का उसपर कोई असर नहीं पड़ा। वह कहती रही - जिन्होंने विरार , खर -दूषण और कबन्ध को अपनी लीला से मार डाला , जिसके एक ही बाण से बाली का वध हो गया , हे स्वामी आप उनकी महिमा को समझने की चेष्टा कीजिये। उन्होंने आपकी भलाई के लिए ही अपना दूत भेजा था। उसने आकर आपकी सभा में आपके सभी योद्धाओं की वीरता को इस प्रकार छिन्न-भिन्न कर दिया जैसे एक सिंह हाथियों की झुण्ड को तितर-बितर कर देता है। आप ऐसे शक्तिमान को मनुष्य समझने की भूल कर रहे हैं। आपका मान और मद सब व्यर्थ है , आप काल के वश में हो गए हैं ; इसी कारण आपको वास्तविकता का ज्ञान नहीं हो रहा है। मन्दोदरी के अनुनय को अनसुना कर रावण सवेरा होते ही अभिमानपूर्वक सिंहासन पर जा बैठा, और एक बार फिर वही हठ किया। इधर सुबेल पर्वत पर अंगद श्री राम के समक्ष उपस्थित होते हैं। जो रावण राक्षस कुल का शिरोमणि है , और जिसके बल से सारा जगत परिचित है , उसके चार-चार मुकुट अंगद ने किस प्रकार यहाँ तक फेंके ? श्री राम के इस जिज्ञासा के उत्तर में अंगद का निवेदन है - " हे सर्वज्ञ ! वे चार मुकुट राजा के चार गुणों , साम -दान- दण्ड और भेद के प्रतीक हैं; जिनका राजा के ह्रदय में निवास होता है। किन्तु रावण राजा के धर्म से विचलित हो गया है, अतः वे उसे छोड़ आपके शरण आ गए ....
दोहा : * बधि बिराध खर दूषनहि लीलाँ हत्यो कबंध। बालि एक सर मार्यो तेहि जानहु दसकंध॥36॥
भावार्थ:- जिन्होंने विराध और खर-दूषण को मारकर लीला से ही कबन्ध को भी मार डाला और जिन्होंने बालि को एक ही बाण से मार दिया, हे दशकन्ध! आप उन्हें (उनके महत्व को) समझिए!॥36॥ चौपाई :
* जेहिं जलनाथ बँधायउ हेला। उतरे प्रभु दल सहित सुबेला॥ कारुनीक दिनकर कुल केतू। दूत पठायउ तव हित हेतू॥1॥
भावार्थ:-जिन्होंने खेल से ही समुद्र को बँधा लिया और जो प्रभु सेना सहित सुबेल पर्वत पर उतर पड़े, उन सूर्यकुल के ध्वजास्वरूप (कीर्ति को बढ़ाने वाले) करुणामय भगवान् ने आप ही के हित के लिए दूत भेजा॥1॥
* सभा माझ जेहिं तव बल मथा। करि बरूथ महुँ मृगपति जथा॥ अंगद हनुमत अनुचर जाके। रन बाँकुरे बीर अति बाँके॥2॥
भावार्थ:- जिसने बीच सभा में आकर आपके बल को उसी प्रकार मथ डाला जैसे हाथियों के झुंड में आकर सिंह (उसे छिन्न-भिन्न कर डालता है) रण में बाँके अत्यंत विकट वीर अंगद और हनुमान् जिनके सेवक हैं,॥2॥
* तेहि कहँ पिय पुनि पुनि नर कहहू। मुधा मान ममता मद बहहू॥ अहह कंत कृत राम बिरोधा। काल बिबस मन उपज न बोधा॥3॥
भावार्थ:- हे पति! उन्हें आप बार-बार मनुष्य कहते हैं। आप व्यर्थ ही मान, ममता और मद का बोझ ढो रहे हैं! हा प्रियतम! आपने श्री रामजी से विरोध कर लिया और काल के विशेष वश होने से आपके मन में अब भी ज्ञान नहीं उत्पन्न होता॥3॥
* काल दंड गहि काहु न मारा। हरइ धर्म बल बुद्धि बिचारा॥ निकट काल जेहि आवत साईं। तेहि भ्रम होइ तुम्हारिहि नाईं॥4॥
भावार्थ:- काल दण्ड (लाठी) लेकर किसी को नहीं मारता। वह धर्म, बल, बुद्धि और विचार को हर लेता है।हे स्वामी! जिसका काल (मरण समय) निकट आ जाता है, उसे आप ही की तरह भ्रम हो जाता है॥4॥
भावार्थ:- आपके दो पुत्र मारे गए और नगर जल गया। (जो हुआ सो हुआ) हे प्रियतम! अब भी (इस भूल की) पूर्ति (समाप्ति) कर दीजिए (श्री रामजी से वैर त्याग दीजिए) और हे नाथ! कृपा के समुद्र श्री रघुनाथजी को भजकर निर्मल यश लीजिए॥37॥
चौपाई : * नारि बचन सुनि बिसिख समाना। सभाँ गयउ उठि होत बिहाना॥ बैठ जाइ सिंघासन फूली। अति अभिमान त्रास सब भूली॥1॥
भावार्थ:- स्त्री के बाण के समान वचन सुनकर वह सबेरा होते ही उठकर सभा में चला गया और सारा भय भुलाकर अत्यंत अभिमान में फूलकर सिंहासन पर जा बैठा॥1॥
* इहाँ राम अंगदहि बोलावा। आइ चरन पंकज सिरु नावा॥ अति आदर समीप बैठारी। बोले बिहँसि कृपाल खरारी॥2॥
भावार्थ:- यहाँ (सुबेल पर्वत पर) श्री रामजी ने अंगद को बुलाया। उन्होंने आकर चरणकमलों में सिर नवाया। बड़े आदर से उन्हें पास बैठाकर खर के शत्रु कृपालु श्री रामजी हँसकर बोले॥2॥
* बालितनय कौतुक अति मोही। तात सत्य कहुँ पूछउँ तोही॥ रावनु जातुधान कुल टीका। भुज बल अतुल जासु जग लीका॥3॥
भावार्थ:- हे बालि के पुत्र! मुझे बड़ा कौतूहल है। हे तात! इसी से मैं तुमसे पूछता हूँ, सत्य कहना। जो रावण राक्षसों के कुल का तिलक है और जिसके अतुलनीय बाहुबल की जगत्भर में धाक है,॥3॥
भावार्थ:-उसके चार मुकुट तुमने फेंके। हे तात! बताओ, तुमने उनको किस प्रकार से पाया! (अंगद ने कहा-) हे सर्वज्ञ! हे शरणागत को सुख देने वाले! सुनिए। वे मुकुट नहीं हैं। वे तो राजा के चार गुण हैं॥4॥
* साम दान अरु दंड बिभेदा। नृप उर बसहिं नाथ कह बेदा॥ नीति धर्म के चरन सुहाए। अस जियँ जानि पहिं आए॥5॥
भावार्थ:- हे नाथ! वेद कहते हैं कि साम, दान, दण्ड और भेद- ये चारों राजा के हृदय में बसते हैं। ये नीति-धर्म के चार सुंदर चरण हैं, (किन्तु रावण में धर्म का अभाव है) ऐसा जी में जानकर ये नाथ के पास आ गए हैं॥5॥
दोहा : * धर्महीन प्रभु पद बिमुख, काल बिबस दससीस। तेहि परिहरि गुन आए, सुनहु कोसलाधीस॥38 क॥
भावार्थ:- दशशीश रावण धर्महीन, प्रभु के पद से विमुख और काल के वश में है, इसलिए हे कोसलराज! सुनिए, वे गुण रावण को छोड़कर आपके पास आ गए हैं॥ 38 (क)॥
* परम चतुरता श्रवन सुनि बिहँसे रामु उदार। समाचार पुनि सब कहे गढ़ के बालिकुमार॥38 ख॥
भावार्थ:- अंगद की परम चतुरता (पूर्ण उक्ति) कानों से सुनकर उदार श्री रामचंद्रजी हँसने लगे। फिर बालि पुत्र ने किले के (लंका के) सब समाचार कहे॥38 (ख)॥
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रामायण की युद्धनीति : युद्ध अंतिम विकल्प होना चाहिए, और उससे पहले चार उपायों का इस्तेमाल करना चाहिए — साम, दाम (दान ?), दंड और भेद। चाणक्य की पहली सलाह दुश्मन की ताकत और कमजोरी को समझो। उनका मानना था कि दुश्मन की कमियों को सही समय पर भुनाकर उसे हराया जा सकता है। साम, या अनुनय, प्रभावी संचार और बातचीत के महत्व को रेखांकित करता है।शांति से बात करना (साम), दाम या दान ? , जो प्रोत्साहन और पुरस्कार का प्रतीक है, मान्यता और प्रशंसा के लिए मूलभूत मानवीय प्रेरणा का उपयोग करता है। बोनस, पदोन्नति, या यहाँ तक कि साधारण आभार व्यक्त करके, नेता असाधारण प्रदर्शन को प्रोत्साहि को प्रोत्साहित कर सकते हैं और एक सकारात्मक कार्य वातावरण को बढ़ावा दे सकते हैं। आर्थिक प्रलोभन देना (दाम-दान) , दंड, जो दंड और अनुशासनात्मक कार्रवाई का प्रतिनिधित्व करता है, व्यवस्था बनाए रखने और मानकों को बनाए रखने के लिए अंतिम उपाय के रूप में कार्य करता है। कदाचार या कम प्रदर्शन के परिणामों का विवेकपूर्ण अनुप्रयोग जवाबदेही को सुदृढ़ कर सकता है और एक उत्पादक वातावरण सुनिश्चित कर सकता है। सजा देना (दंड) और शत्रु में फूट डालना (भेद) — ये चारों उपाय किसी भी संघर्ष को जीतने के लिए चाणक्य की नीति के केंद्र में हैं। — जब तक संभव हो, समझौते से काम लिया जाए, लेकिन जब कोई रास्ता न बचे, तभी युद्ध की ओर बढ़ा जाए। दुश्मन की सेना में आंतरिक कलह को बढ़ावा दिया जाए और अपनी योजना को पूरी तरह गुप्त रखा जाए, ताकि शत्रु कभी पूर्वानुमान न लगा सके।युद्ध जीतने के लिए केवल ताकत नहीं, बल्कि धैर्य और समय की सही समझ जरूरी है। चाणक्य की ये नीतियां आज भी शासन, सैन्य संचालन, कूटनीति और नेतृत्व में गहराई से प्रासंगिक हैं।
(श्रीरामचरितमानस ग्रन्थ में लंका काण्ड किन्तु विविध भारती रेडिओ पर सुन्दर काण्ड।???)
[ घटना - 315: दोहा -33, 34,35]
>> अपने बल का आभास देने के लिए सभा में अपने पैर रोपने और अनेक योद्धाओं समेत रावण द्वारा उसे हिलाने का असफल प्रयत्न --
अपने बल का आभास देने के लिए रावण की सभा में अंगद ने पृथ्वी पर जो पैर रोपा, तो मेघनाद समेत अनेक योद्धाओं ने अपनी सारी शक्ति लगा दी, परन्तु उसे हिला तक नहीं सके। ये देख स्वयं रावण उठ खड़ा हुआ , जैसे ही वो अंगद का पैर पकड़ने लगा , अंगद बोल पड़े- अरे मूढ़ मेरा चरण पकड़ने में तेरा कल्याण नहीं , जाकर श्रीराम के चरण पकड़। पल भर में रावण के दम्भपूर्ण मुखमण्डल से कांति विलुप्त हो गयी। सकुचाकर वो सिंहासन पर वापस जा बैठा। उसका मुख वैसे ही निस्तेज हो गया जैसे सूर्य के प्रकाश में चन्द्रमा का प्रकाश लुप्त हो जाता है। पार्वती को ये वृतान्त सुनाते हुए शिवजी कहते हैं - हे उमा ! जिन प्रभु के भौहों के संकेत मात्र से विश्व की रचना और विनाश होता है , जो एक तिनके को वज्र के समान कठोर और वज्र को तिनके के सामान नगण्य बना देते हैं , उनके दूत के प्राण और निश्चय को भला कौन डिगा सकता है ? अंगद ने एक बार फिर नीतिपूर्ण वचन कहकर, रावण को सद्बुद्धि देनी चाही , किन्तु उसका कोई प्रभाव न होता देख , रणभूमि में उसका वध करने की धमकी देकर , श्रीराम की शिविर में वापस लौट गए। रात्रि में मन्दोदरी ने रावण को फिर समझाने का प्रयास किया - जो श्री राम के छोटे भाई द्वारा खींची गयी एक रेखा तक नहीं लाँघ सका , वो स्वयं जगदीश्वर से किस प्रकार पार पा सकेगा ? .....
चौपाई :
* कपि बल देखि सकल हियँ हारे। उठा आपु कपि कें परचारे॥ गहत चरन कह बालिकुमारा। मम पद गहें न तोर उबारा॥1॥
भावार्थ:-अंगद
का बल देखकर सब हृदय में हार गए। तब अंगद के ललकारने पर रावण स्वयं उठा।
जब वह अंगद का चरण पकड़ने लगा, तब बालि कुमार अंगद ने कहा- मेरा चरण पकड़ने
से तेरा बचाव नहीं होगा!॥1॥
*गहसि न राम चरन सठ जाई॥ सुनत फिरा मन अति सकुचाई॥ भयउ तेजहत श्री सब गई। मध्य दिवस जिमि ससि सोहई॥2॥
भावार्थ:-अरे
मूर्ख- तू जाकर श्री रामजी के चरण क्यों नहीं पकड़ता? यह सुनकर वह मन में
बहुत ही सकुचाकर लौट गया। उसकी सारी श्री जाती रही। वह ऐसा तेजहीन हो गया
जैसे मध्याह्न में चंद्रमा दिखाई देता है॥2॥
भावार्थ:-वह
सिर नीचा करके सिंहासन पर जा बैठा। मानो सारी सम्पत्ति गँवाकर बैठा हो।
श्री रामचंद्रजी जगत्भर के आत्मा और प्राणों के स्वामी हैं। उनसे विमुख
रहने वाला शांति कैसे पा सकता है?॥3॥
* उमा राम की भृकुटि बिलासा। होइ बिस्व पुनि पावइ नासा॥ तृन ते कुलिस कुलिस तृन करई। तासु दूत पन कहु किमि टरई॥4॥
भावार्थ:-(शिवजी
कहते हैं-) हे उमा! जिन श्री रामचंद्रजी के भ्रूविलास (भौंह के इशारे) से
विश्व उत्पन्न होता है और फिर नाश को प्राप्त होता है,जो तृण को वज्र और
वज्र को तृण बना देते हैं (अत्यंत निर्बल को महान् प्रबल और महान् प्रबल
को अत्यंत निर्बल कर देते हैं), उनके दूत का प्रण कहो, कैसे टल सकता है?॥4॥
* पुनि कपि कही नीति बिधि नाना। मान न ताहि कालु निअराना॥ रिपु मद मथि प्रभु सुजसु सुनायो। यह कहि चल्यो बालि नृप जायो॥5॥
भावार्थ:-फिर
अंगद ने अनेकों प्रकार से नीति कही। पर रावण नहीं माना, क्योंकि उसका काल
निकट आ गया था। शत्रु के गर्व को चूर करके अंगद ने उसको प्रभु श्री
रामचंद्रजी का सुयश सुनाया और फिर वह राजा बालि का पुत्र यह कहकर चल
दिया-॥5॥
* हतौं न खेत खेलाइ खेलाई। तोहि अबहिं का करौं बड़ाई॥ प्रथमहिं तासु तनय कपि मारा। सो सुनि रावन भयउ दुखारा॥6॥
भावार्थ:-रणभूमि
में तुझे खेला-खेलाकर न मारूँ तब तक अभी (पहले से) क्या बड़ाई करूँ। अंगद
ने पहले ही (सभा में आने से पूर्व ही) उसके पुत्र को मार डाला था। वह संवाद
सुनकर रावण दुःखी हो गया॥6॥
* जातुधान अंगद पन देखी। भय ब्याकुल सब भए बिसेषी॥7॥
भावार्थ:-अंगद का प्रण (सफल) देखकर सब राक्षस भय से अत्यन्त ही व्याकुल हो गए॥7॥ दोहा :
* रिपु बल धरषि हरषि कपि बालितनय बल पुंज। पुलक सरीर नयन जल गहे राम पद कंज॥35 क॥
भावार्थ:-शत्रु
के बल का मर्दन कर, बल की राशि बालि पुत्र अंगदजी ने हर्षित होकर आकर श्री
रामचंद्रजी के चरणकमल पकड़ लिए। उनका शरीर पुलकित है और नेत्रों में
(आनंदाश्रुओं का) जल भरा है॥35 (क)॥
भावार्थ:- सन्ध्या हो गई जानकर दशग्रीव बिलखता हुआ (उदास होकर) महल में गया। मन्दोदरी ने रावण को समझाकर फिर कहा-॥35 (ख)॥ चौपाई :
* कंत समुझि मन तजहु कुमतिही। सोह न समर तुम्हहि रघुपतिही॥ रामानुज लघु रेख खचाई। सोउ नहिं नाघेहु असि मनुसाई॥1॥
भावार्थ:- हे कान्त! मन में समझकर (विचारकर) कुबुद्धि को छोड़ दो। आप से और श्री रघुनाथजी से युद्ध शोभा नहीं देता। उनके छोटे भाई ने एक जरा सी रेखा खींच दी थी, उसे भी आप नहीं लाँघ सके, ऐसा तो आपका पुरुषत्व है॥1॥
भावार्थ:- हे प्रियतम! आप उन्हें संग्राम में जीत पाएँगे, जिनके दूत का ऐसा काम है? खेल से ही समुद्र लाँघकर वह वानरों में सिंह (हनुमान्) आपकी लंका में निर्भय चला आया!॥2॥
* रखवारे हति बिपिन उजारा। देखत तोहि अच्छ तेहिं मारा॥ जारि सकल पुर कीन्हेसि छारा। कहाँ रहा बल गर्ब तुम्हारा॥3॥
भावार्थ:- रखवालों को मारकर उसने अशोक वन उजाड़ डाला। आपके देखते-देखते उसने अक्षयकुमार को मार डाला और संपूर्ण नगर को जलाकर राख कर दिया। उस समय आपके बल का गर्व कहाँ चला गया था?॥3॥
भावार्थ:- अब हे स्वामी! झूठ (व्यर्थ) गाल न मारिए (डींग न हाँकिए) मेरे कहने पर हृदय में कुछ विचार कीजिए। हे पति! आप श्री रघुपति को (निरा) राजा मत समझिए, बल्कि अग-जगनाथ (चराचर के स्वामी) और अतुलनीय बलवान् जानिए॥4॥
* बान प्रताप जान मारीचा। तासु कहा नहिं मानेहि नीचा॥ जनक सभाँ अगनित भूपाला। रहे तुम्हउ बल अतुल बिसाला॥5॥
भावार्थ:- श्री रामजी के बाण का प्रताप तो नीच मारीच भी जानता था, परन्तु आपने उसका कहना भी नहीं माना। जनक की सभा में अगणित राजागण थे। वहाँ विशाल और अतुलनीय बल वाले आप भी थे॥5॥
* भंजि धनुष जानकी बिआही। तब संग्राम जितेहु किन ताही॥ सुरपति सुत जानइ बल थोरा। राखा जिअत आँखि गहि फोरा॥6॥
भावार्थ:- वहाँ शिवजी का धनुष तोड़कर श्री रामजी ने जानकी को ब्याहा, तब आपने उनको संग्राम में क्यों नहीं जीता? इंद्रपुत्र जयन्त उनके बल को कुछ-कुछ जानता है। श्री रामजी ने पकड़कर, केवल उसकी एक आँख ही फोड़ दी और उसे जीवित ही छोड़ दिया॥6॥
भावार्थ:- शूर्पणखा की दशा तो आपने देख ही ली। तो भी आपके हृदय में (उनसे लड़ने की बात सोचते) विशेष (कुछ भी) लज्जा नहीं आती!॥7॥
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दुनिया के रंगमंच पर रामलीला : जादूगर ही सत्य है - जादू सत्य नहीं है। रंगमंच के किसी अदाकार का नाम क्या होगा ? पात्र का नामकरण भी निर्देशक की इच्छानुसार उसकी माँ तय करती है -bSukhani ?बिहारी बुद्ध के राज्य का प्रबुद्ध नागरिक - यहाँ का व्यक्ति मैं नहीं 'हम' है -एक उसके शरीर का नाम, दूसरा स्वरुप का नाम ! तेरी इच्छा पूर्ण हो ! यह शरीर भी मेरा नहीं-तो मकान -दुकान की बात ही क्या ?