विवेक-चूड़ामणि सार
(अद्वैत अमृतं Spiritual Retreat : The Nectar of Adwaita)
स्वामी शुद्धिदानन्द जी महाराज
अध्यक्ष, अद्वैत आश्रम , मायावती)
(भाग - 1,2,3,4,5)
परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं,
निरीहं निराकारमोङ्कारवेद्यम्।
यतो जायते पाल्यते येन विश्वं,
तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम्॥५॥
ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु।
सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥
ॐ शांति, शांति, शांतिः
हे एकमात्र परमात्मा ! (शिव-आप जो नाम रख लीजिये ) आप ही जगत के मूल कारण है ! आप अहंकार एवं इच्छा रहित हैं, आप समस्त बंधनों से परे हैं ! आप का कोई आकार नहीं है, आप निराकार रूप है आप का स्वरूप ॐकार के धयान मे जाना जाता है। आप समस्त ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति करते है पालन करते हैं और इसे अपने मे लय कर लेते हैं। हे प्रभु ! मै सच्चे ह्रदय से आप का ही ध्यान स्मरण करता हुँ।
[ वेदसार शिवस्तव स्तोत्र: भगवान शिव की स्तुति है। जिसे भगवान शिव की प्रसन्नता हेतु आदिगुरु शंकराचार्य ने लिखा है। इस स्तुति में भगवान शिव के द्वारा ही संसार की उत्पत्ति होना और फिर इस संसार के शिव में ही समाए जाने का वर्णन दिया गया है। शिव देवों के भी देव हैं,इसलिए महादेव हैं। जो देवताओं के भी दुःखों को दूर करें ऐसे हैं महादेव। महादेव होने के बाद भी जो बाघंबर लपेटे और भस्म रमाए फिरते हैं। तब भी देवी पार्वती के मन को मोहने वाले हैं,ऐसे शिव हैं। तीनों लोकों के हितों को ध्यान में रखते हुए न चखे जाने वाले विष को भी गले में रखे हुए हैं, ऐसे हमारे नीलकंठ हैं। प्रस्तुत हैं शिवस्तव जिसमे योगी के अनूठे रूपों का वर्णन दिया हुआ है।]
It is a matter of joy for all of us to welcome you to Advaita Ashrama, And from today we are going to start this session of 'Advaita Amritam.' We have named our spiritual retreat as 'Advaita Amritam.' -The Nectar of Advaita !
And we shall be trying to we all have to strive to bring this nectar - Amrita , through the study of a Prakarana Grantha, known as Viveka -Chudamani . which is written by Bhagvan Sri Shankaracharya .
We can approach this subject Vivek-Chudamani in two ways .We have two options left to us .One is from the standpoint of erudition , Panditya -scholarship . And the second alternative that we have is not to worry about the technical details of Sanskrit language , the erudition and scholarship, not to bother too much about that; and focus on the essential ideas . These are the two ways in which we can approach this subject . So our approach is going to be based on what we can learn from this subject .
अद्वैत आश्रम में आपका स्वागत करते हुए हम सभी को बहुत प्रसन्नता हो रही है और आज से हम 'अद्वैत अमृतम्' का यह सत्र प्रारंभ करने जा रहे हैं। हमने अपने इस आध्यात्मिक एकान्तवास 'spiritual retreat' का नाम रखा है - 'अद्वैत अमृतम्' -अद्वैत का अमृत ! और हम सभी को भगवान श्री शंकराचार्य द्वारा रचित प्रकरण ग्रंथ 'विवेक-चूड़ामणि' के अध्ययन के माध्यम से इस 'अद्वैत अमृत' को पान करने का प्रयास करना होगा; तथा उसे प्राप्त करना होगा। विवेक-चूड़ामणि ग्रन्थ का अध्यन करने का हमारे पास दो विकल्प हैं। इस विषय के ऊपर हम दो तरह के दृष्टिकोण रखकर विचार कर सकते हैं। एक है संस्कृत भाषा की विद्वत्ता या पाण्डित्य प्रदर्शन के दृष्टिकोण से। और दूसरा विकल्प जो हमारे पास है, वह यह है कि हम संस्कृत भाषा के तकनीकी विवरणों, पांडित्य और विद्वत्ता के बारे में ज्यादा चिंता न करते हुए, अद्वैत -अमृत प्राप्त करने के लिए आवश्यक तकनीक को सीखने पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करें। ये दो तरीके हैं जिनसे हम इस शास्त्र का अध्यन कर सकते हैं। इसलिए हमारा दृष्टिकोण इस बात पर आधारित होगा कि हम इस अद्वैत-अमृत प्राप्त करने की तकनीक को कैसे क्या सीख सकते हैं। पाण्डित्य और विद्वत्ता का दिखावा करने के लिए इस शास्त्र अध्यन करने से हमारे जीवन में कोई परिवर्तन नहीं आएगा। We should approach the subject in such a way, that is how it is going to matter in your life ,and in my life ? हमें इस विवेक चूड़ामणि का अध्यन इस प्रकार करना चाहिए कि, इस शास्त्र का श्रवण -मनन करने से वक्ता और श्रोता दोनों के जीवन में , आपके जीवन में और मेरे जीवन में, इस विवेक-चूड़ामणि सार रूपी अद्वैत अमृत के पान करने का कितना अधिक महत्व होने वाला है।
how it is going to bring about a change in my life ? If this study is not going to impact my life, If it is not impact my thoughts, If it is not going to influence my behaviour, then the study is futile .It does not have anything . The study should tell upon my behaviour. That is the most important thing .When you study this now, what is this study ? This study is essentially a self enquiry. We are going to enquire into a profound dimension about, which till now most of us have not been introduced . As I see most of us are all new to this area of advant . and Advaita Vedanta is essentially an enquiry into truth . What is the ultimate reality ? What is actually existing ?
इस शास्त्र (चरित्र के गुण पुस्तिका) के अध्यन से मेरे जीवन में क्या बदलाव आयेगा? अगर यह अध्ययन मेरे जीवन को प्रभावित नहीं करे, यदि इसमें निहित ज्ञान मेरे विचारों को प्रभावित नहीं करे, अगर यह मेरे व्यवहार और चरित्र को प्रभावित नहीं करे, तो इस पुस्तिका का अध्ययन करना व्यर्थ है। इसका कोई मतलब नहीं है। इस विवेक-चूड़ामणि शास्त्र के अध्ययन का स्पष्ट प्रभाव मेरे जीवन और व्यवहार में दृष्टिगोचर होना चाहिए। वही सबसे महत्वपूर्ण बात है । अब जब आप इस शास्त्र का अध्ययन करने जा रहे हैं, तो वह अध्ययन क्या है? वस्तुतः इस शास्त्र के अध्ययन का मूल उद्देश्य आत्म-निरीक्षण (self enquiry) करना है। हम मनुष्य जीवन के एक ऐसे गहन पहलू (dimension /अद्वैत का आयाम) के बारे में जानने जा रहे हैं, जिसके बारे में हमारी पाश्चात्य शिक्षा-पद्धति की पढाई के कारण हममें से अधिकांश लोगों को अभी तक परिचय भी नहीं कराया गया है। जैसा कि मैं देखता हूं, हममें से अधिकांश लोग अद्वैत के इस क्षेत्र में नए हैं और अद्वैत वेदांत मूलतः सत्य की खोज है। वह परम सत्य क्या है? (इन्द्रियातीत सत्य -त्रिकाल अबाधित सत्य क्या है ?) वास्तव में क्या विद्यमान है? And who I am ? और मैं कौन हूँ ? Everything will finally boil down to this one point , who am I? हमारा सारा अध्यन अंततः इसी बिंदु पर आकर रुकेगा कि वास्तव में मैं कौन हूं? मैं क्या हूँ? What I am? Now please tell me can there be any subject more interesting and fascinating than the subject which introduces our true nature to ourselves .अब कृपया मुझे बताइये कि क्या हमारे वास्तविक स्वरूप से परिचय कराने वाले विषय से अधिक रोचक और आकर्षक कोई अन्य विषय हो सकता है क्या ? We are going to be introduced to our own true nature . इस अध्यन के द्वारा हमें अपने वास्तविक स्वरूप से परिचित कराया जाएगा। You can study physics , you can study biology, you can study AI. All these things are something distinct from your own self . आप भौतिकी का अध्ययन कर सकते हो, आप जीव विज्ञान का अध्ययन कर सकते हो, आप एआई का अध्ययन कर सकते हो । ये सभी चीजें आपके 'स्व' से (आपके सच्चे स्वरुप से) अलग हैं।Our school and college education , they tell us about everything, other than our own self . हमारी स्कूल और कॉलेज की शिक्षा, हमें हमारे 'स्व' (सत्य स्वरुप) के अलावा हर चीज़ के बारे में बताती है। Advaita Vedanta is that which deals with our own true self . 'अद्वैत वेदांत' वह अध्यन है जो हमारे अपने सच्चे स्वरूप से जुडी हुई है। So here essentially the question is, 'essentially' I am using this word with some emphasis, here essentially the knowledge is hovering around One thing , -Who I am ? तो यहाँ मूलतः प्रश्न यह है कि, जानने की एक मात्र वस्तु यही है कि मूलतः ज्ञान यहाँ एक ही चीज़ के इर्द-गिर्द घूम रहा है, -मैं कौन हूँ? यही सृष्टि का सबसे बड़ा रहस्य है। This is the biggest mystery of the creation .You may know everything but if you don't know your own self, you have not known any thing . आप सब कुछ जानते होंगे लेकिन यदि आप स्वयं को नहीं जानते तो आपने कुछ भी नहीं जाना। This is the great conclusion of our rishis ! यह हमारे ऋषियों का महान निष्कर्ष है। You may know everything but if you don't know your own self, you have not known any thing .In fact apart from the knowledge of the self, everything else comes under the category of ignorance .वस्तुतः आत्मज्ञान के अतिरिक्त शेष सब कुछ अज्ञान की श्रेणी में आता है। It is avery sweeping observation and statement, apart from the knowledge of the 'self ', when I use the term self , I am referring to Atmagyan ! यह एक बहुत ही व्यापक अवलोकन और कथन है, 'आत्म' के ज्ञान के अलावा, जब मैं आत्म शब्द का प्रयोग करता हूँ, तो मैं आत्मज्ञान की बात कर रहा हूँ। the knowledge of your own true self .अपने स्वयं के सच्चे स्व का ज्ञान.So that is the great revealing information given to us by the great Rishis .तो यह महान ऋषियों द्वारा हमें दी गई महान ज्ञान है। अतएव आत्मज्ञान ही ज्ञान है , बाकि सब अज्ञान है।
सुनने में आप कौन हैं ? मैं कौन हूँ ? इसे जानने के लिए भारत की एक अपनी "Time Tested method" 'समय-परीक्षित पद्धति सनातन प्रशिक्षण पद्धति तीन चरणों वाली है, श्रवण, मनन और निदिध्यासन इसके तीन सोपान हैं। हमलोग यहाँ श्रवण, मनन और निदिध्यासन का अर्थ जानेंगे। अगर हम इन तीन चरणों को समझकर उसका ईमानदारी से अनुसरण करें तो आप देखेंगे कि आप अपने सच्चे स्वरुप को पहचानने की तरफ आगे बढ़ रहे हैं। ऐसा होना तय है। सम्पूर्ण मानवता के लिए यही सत्य है।
आचार्य शंकर द्वारा रचित इस विवेक-चूड़ामणि नामक प्रकरण ग्रंथ का अध्यन केवल पांडित्य प्रदर्शन के लिए न करके इस प्रकार करना चाहिए जिससे हम इसके अध्यन से जो सीख सकें, वह विषय हमारे और आपके जीवन और व्यवहार में परिवर्तन ला सके। यदि इसके अध्यन का प्रभाव हमारे विचारों और व्यवहार न दिखे , तो उस अध्यन का कोई लाभ नहीं है।
विवेक-चूड़ामणि नामक प्रकरण ग्रंथ की चर्चा का मुख्य विषय है - सत्यानुसाधन , आत्मानुसंधान , आत्मजिज्ञासा, आत्मज्ञान या मैं कौन हूँ ? हमारे विद्यालय -विश्वविद्यालयों में दी जाने वाली शिक्षा पद्धति में बाकि सब विषय पढ़ाये जाते हैं , लेकिन मेरा सत्य-स्वरूप क्या है ? उसको जानने के विषय कुछ भी नहीं पढ़ाया जाता है। जबकि अद्वैत वेदान्त का मुख्य विषय ही है अपने सत्य स्वरूप हमारा परिचय करवा देना। "Who am I' is the biggest mystery in this creation! 'मैं कौन हूँ' इसको जान लेना ही - इस सृष्टि का सबसे बड़ा रहस्य है !
हमारे ऋषियों का निर्णय है कि यदि तुम दुनिया के हर विषय को जानते हो , पर यदि तुम स्वयं को नहीं जानते हो, तो तुम अज्ञानी हो। आत्मज्ञान के अतरिक्त बाकि सभी जानकारी अज्ञान की श्रेणी में आती है। आत्मज्ञान ही ज्ञान है; बाकि सब अज्ञान है ! हमलोग अभी जो कुछ अध्यन करने जा रहे हैं , वह केवल शास्त्र ज्ञान, पुस्तकीय ज्ञान ही नहीं है , बल्कि आदिगुरु शंकराचार्यजी द्वारा रचित एक प्रकरण ग्रन्थ है , अतएव इसका समापन आत्मानुभूति में ही होना चाहिए। इस चर्चा के प्रारम्भ में या भूमिका में हम शास्त्रों की सहायता अवश्य लेंगे।
इसका गुरु-निर्दिष्ट विधि (साधन-चतुष्टय विधि) द्वारा अभ्यास करने पर प्रत्येक मनुष्य आत्मानुभूति कर सकता है। या मैं कौन हूँ -स्वरूपतः मैं क्या हूँ ? यह जान सकता है। हमारे उपनिषद ही आध्यात्मिक ज्ञान और सत्यों के भंडार हैं। प्रत्येक सत्यार्थी को (आत्मान्वेषी को) यही पद्धति - श्रवण, मनन , निदिध्यासन की पद्धति अपनानी पड़ती है।
>>'I'- factor stands for personality : इस 'मैं' की सही समझ ही हमारे अच्छे व्यक्तित्व का प्रतीक है। इस 'मैं' के बिना हम कोई भी काम नहीं कर सकते , लेकिन जिसको हम 'मैं' कह रहे हैं वह 'मैं' क्या है ? जो हमारा आधार कार्ड वाला परिचय है , क्या वही हमारा वास्तविक परिचय है। क्या शरीर और मन के अलावा मेरा और कोई परिचय नहीं है ? हम सभी लोग सत्यान्वेषी हैं, सत्य को जानने के लिए ही हम यहाँ आये हैं। सत्य को जानने की प्रक्रिया में तीन चरण हैं - श्रवण , मनन , निदिध्यासन। जो कोई व्यक्ति सत्य की खोज करेगा , उसको एक न एक दिन अद्भुत आनंद जन्य सत्य की अनुभूति होगी।
हमलोग अभी क्या श्रवण (या अध्यन) करने जा रहे हैं ? शास्त्र और गुरु के वाक्यों को सुनना ही 'श्रवण' कहा जाता है। तो हम अभी आदिगुरु शंकराचार्यजी द्वारा रचित विवेक-चूड़ामणि शास्त्र वाक्य और गुरु-वाक्यों का श्रवण करना है। मनन का अर्थ जो सुना है - उस पर चिंतन-मनन करना। साधारण मनुष्यों के मन की चिंतन करने की दिशा सही नहीं होती , या आम तौर से साधारण मनुष्य दिशाहीन चिंतन ही करता रहता है। और इसके चिंतन की दिशा हर क्षण बदलती रहती है। किन्तु अब हमारा मन जो शास्त्र और गुरुमुख से सुना है, उसी दिशा के सत्यों का चिंतन करेगा , गुरु के महावाक्यों पर ही विचार करेगा। और अब से लेकर शिविर समापन की अवधि तक, (प्रथम सत्र से लेकर अंतिम सत्र तक) हमारे चिंतन -विचारण की एक मात्र दिशा होगी मैं कौन हूँ ? हमारे चिंतन का विषय होगा -एक सूत्री खोज मैं कौन हूँ ? क्या मैं यह मरण धर्मा शरीर हूँ ? या अविनाशी आत्मा हूँ ? फिर जो सुना है मौन के अभ्यास के द्वारा, Practice of Silence के द्वारा जीवन में उतारना। श्रवण, मनन, निदिध्यासन का अभ्यास करने के लिए पहले मौन रहना सीखें। और अपने मोबाईल को भी 10 दिनों तक (शिविर की अवधि तक) मौन रहने दें। हमें इस शिविर की अवधि में व्यर्थ या अनावश्यक बक बक करने से बचना है। आचार्य शंकर ने खुद विवेक चूड़ामणि में कहा है - " योगस्य प्रथमं द्वारं वाङ्निरोधोSपरिग्रह:।" योग का अर्थ है अपने सत्य स्वरुप से जुड़ जाना। मेरा सत्य स्वरुप क्या है, हम अभी उससे अनभिज्ञ हैं।
योगस्य प्रथमद्वारं वाङ्निरोधोऽपरिग्रहः ।
निराशा च निरीहा च नित्यमेकान्तशीलता ॥ ३६७ ॥
वाङ्ग निरोधः - वाणी का निरोध व्यर्थ में बक-बक नहीं करते रहना, अपरिग्रह - अनावश्यक वस्तुओं का संग्रह न करना। निराशा - किसी से लौकिक पदार्थों को पाने की आशा न रखना, निरीहा - विविध कामनाओं का त्याग करना और नित्य एकान्तमें रहना –ये चार वस्तुयें किसी भी सत्यार्थी या आत्मचिन्तक के लिए सर्वप्रथम आवश्यक हैं ।
367. The first steps to Yoga are control of speech, non-receiving of gifts, entertaining of no expectations, freedom from activity, and always living in a retired place. Notes: Gifts—i. e. superfluous gifts. (अनावश्यक उपहार )*
यह सूत्र एक ऐसा बीज है जिसको जीवन में बुआई कर देने से - जीवन बदल जायेगा। आपके मन में जितने विचार चलते हैं, आप उन्हीं को वाणी से प्रकट करते हो। आपकी भावनाएं वाणी में अभिव्यक्त होती हैं। वाणी पर संयम करने, या शांत रहने से मन को भी वश में किया जा सकता है। और फिर अद्वैत आश्रम, मायावती की शांति ( या नवनीदा द्वारा संचालित महामण्डल शिविर के मनःसंयोग क्लास की शांति) तो इतनी जोरदार है कि, यह अनुभव करने लायक बात है। The silence of Mayawati is so loud that, it is something to be experienced .
अद्वैत आश्रम की स्थापना स्वामी विवेकानन्द ने 1899 में की थी , आचार्य शंकर ने जो कार्य 1200 वर्ष पहले किया था , स्वामी विवेकानन्द ने वही कार्य इस आधुनिक युग में किया है। स्वामी विवेकानन्द आज के शंकराचार्य हैं। क्योंकि अद्वैत वेदांत ही एक मात्र रास्ता है जो सम्पूर्ण मानवता की रक्षा कर सकता है। कृपया इस उक्ति को आपलोग अतिशय देशभक्ति या अतिश्योक्ति मत समझ लीजियेगा। जो लोग विश्व के विभिन्न नाम वाले धर्मों, या साम्यवाद , समाजवाद आदि विभिन्न मतवादों पालन कर भी रहे हों, तो वे सब मिलकर भी मानवता की रक्षा नहीं कर सकते। (यूक्रेन-रूस -गाजा-इस्राइल, नेपाल, श्रीलंका, बंगलादेश इसके ही उदाहरण हैं।)
सिर्फ और सिर्फ अद्वैत ही मानवता की रक्षा कर सकता है , क्योकि यह विशुद्ध विज्ञान है। संसार के जितने भी धर्म अभी प्रचलित हैं - वे सब मान्यता पर -Belief system' पर टिके हुए हैं। इसमें कहा जाता है- सातवें आसमान पर बैठा कोई ईश्वर है जो स्वर्ग में बैठकर जगत चला रहा है। कयामत के दिन वो आपको स्वर्ग या नरक में भेजेगा , आपका इंसाफ होगा और 72 हूर देगा। स्वामीजी बोलते थे - ये सब किंडरगार्टन # (बालवाड़ी) के बच्चे को बहलाने की बात है। ईश्वर सम्बन्धी आपके सिद्धान्त या ईश्वर-सम्बन्धी आपकी मान्यता यदि 'Verifiable' नहीं है। सत्यापन के योग्य नहीं है, तो यह ग़ालिब के दिल को बहलाने का ख्याल हो सकता है ,किन्तु कोई भी समझदार मनुष्य उसे स्वीकार नहीं करेगा।
लेकिन अद्वैत वेदान्त जिन सत्य के सिद्धान्तों की बात करता है वे कोई कल्पना नहीं है, इसको प्रत्येक व्यक्ति सत्यापित करके देख सकता है। वेदान्त के प्रत्येक संदेश को सत्यापित करके देखा जा सकता है। और उसका सत्यापन किसी भी देश में रहने वाला, किसी भी धर्म को मानने वाला कर सकता है। हिन्दू, जैन , पारसी , मुसलमान , इसाई कोई भी कर सकता है। किसी को अपना धर्म छोड़ने की जरूरत नहीं है। कोई चाइनीज कर सकता है , अमेरकी कर सकता है , क्योंकि यह शुद्ध विज्ञान है। यह वेदांत एक ऐसे सत्य की बात करता है जो प्रत्येक प्राणी के ह्रदय में बैठकर -धड़क रहा है -स्फूर्त हो रहा है, throbbed हो रहा है। और यह एक ऐसा सत्य है जो कल्पना पर आधारित नहीं है , इसको जाँच-परख कर देखा जा सकता है। आज हम जब वैज्ञानिक युग में वास कर रहे हैं , तो हमारा धर्म भी विज्ञान सम्मत होना होगा, अन्यथा आधुनिक मानव उसको स्वीकार नहीं करेगा। स्वामी जी ने कहा था अद्वैत धर्म ही एकमात्र धर्म होगा, विवेकी मनुष्य बनो और बनाओ "Be and Make" ही एकमात्र धर्म होगा जिसे सम्पूर्ण मानवता स्वीकार करेगी।
स्वामीजी ने 1899 में इस अद्वैत आश्रम, मायावती की स्थापना की थी। आप सभी जानते हैं कि 1893 में वे अमेरिका गए थे। इस आधुनिक युग में सनातन धर्म या वैज्ञानिक धर्म के गौरव को जगत के समक्ष रखा , सारे ब्रह्माण्ड में भारत जितना गौरवशाली और अनूठा अन्य कोई देश नहीं है। पर हमलोगों ने अपना आत्मविश्वास , आत्मश्रद्धा को खो दिया था। हम कौन है ? हम यही भूल गए थे , स्वामीजी ने आकर भारत को मोहनिद्रा से जगा दिया। स्वामी जी 1897 में भारत लौटे , लेकिन 1896 में जब वे भारत लौटने की राह में थे , तो यूरोप के भ्रमण पर गए थे। स्विट्जरलैंड में आल्प्स पर्वत शृंखला को देखकर उनके मन में विचार उठा - उन्होंने देखा की बर्फ से ढँके हिमालय पर उनका एक अद्वैत आश्रम होगा। उन्होंने हिमालय पर एक उचित स्थान खोज कर इस अद्वैत आश्रम, को स्थापित करने का दायित्व कैप्टन सेवियर (पूर्वजन्म के नवनी दा)और अपने शिष्य स्वामी स्वरूपानन्द को सौंपा था। उनके जी-तोड़ प्रयास से स्वामीजी द्वारा 1896 में देखा गया स्वप्न 1899 में साकार हो गया।
यहाँ से आप 380 KM में फैले बर्फ से ढंके हिमालय श्रृंखला को देख सकते हैं। इस आश्रम को स्वामी जी ने केवल वेदान्त के अभ्यास के लिए समर्पित किया था। इसलिए इस आश्रम में कोई मूर्ति नहीं है , कोई मंदिर नहीं है। कोई अचार-अनुष्ठान नहीं होते हैं। यहाँ सिर्फ ॐ की पूजा होती है। इस एक मात्र शब्द - ॐ कार में सृष्टि का सम्पूर्ण सत्य समाहित है। विगत 127 वर्षों से यहाँ केवल ॐ की उपासना हो रही है। कल्पना कीजिये आप जिस अद्वैत आश्रम, मायावती में बैठे हो, यह 127 वर्ष पहले का बना हुआ है।
[## और 127 वर्ष पहले निर्मित इस अद्वैत आश्रम मायावती के संस्थापक कैप्टन सेवियर ने अगले जन्म में श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय के रूप में विवेक-चूड़ामणि ग्रन्थ के श्रवण -मनन -निदिध्यासन द्वारा युवाओं के लिए सुपाच्य बनाकर "विवेकी-मनुष्य बनो और बनाओ पद्धति को "Be and Make आंदोलन" के रूप में सम्पूर्ण विश्व में फैला देने के लिए 1967 में स्वामी विवेकानन्द की प्रेरणा से ही अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल की स्थापना कोलकाता में की। स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर 'Be and Make' परम्परा में "विवेकी-मनुष्य" अर्थात 'चरित्रवान मनुष्य' बनने-और बनाने की पद्धति " वह "Time Tested method" तकनीक है, जो समय के साथ, सत्य सिद्ध हुई है और लंबे समय से (विगत 58 वर्षों से) उपयोग की जा रही है और भारत के हर राज्य में , गाँव -गाँव में कारगर साबित हुई है।]
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⚜️️🔱अद्वितीय-वस्तुनि तात्पर्य-अवधारणम्⚜️️🔱
(ईश्वर, जगत और जीव या 'मैं' क्या है ?)
" वेदांत कोई विश्वास प्रणाली नहीं, यह एक साहसी खोज प्रणाली है!"
[Vedanta is not a belief system, it is a system of courageous discovery!
इस 'मैं' शब्द का वास्तविक अर्थ क्या है :What is real meaning of this word 'I'?
इस सत्यान्वेषण प्रणाली के तीन सोपान है -श्रवण, मनन , निदिध्यासन।
सनातन यानि वेद अनादिकाल से है और अनन्त काल तक रहने वाला है। ]
परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं,
निरीहं निराकारमोङ्कारवेद्यम्।
यतो जायते पाल्यते येन विश्वं,
तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम्॥५॥
ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु।
सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥
ॐ शांति, शांति, शांतिः
ऋषियों ने जिस सत्य को देखा है, इस विवेक-चूड़ामणि ग्रन्थ में उनके अनुभवों को ही हम पढ़ने जा रहे हैं।
इस शिविर अवधि तक (आगामी 10 दिनों तक) हमारे मन की भूमिका यहाँ पर ये होनी चाहिए हम सभी प्रशिक्षणार्थी लोग सत्यार्थी हैं, 'सत्य की खोज' में हम मायावती आश्रम की 10 दिवसीय 'साधना सत्र' भाग ले रहे हैं। ये बड़ा रोचक विषय है। सत्य, भगवान , ईश्वर एक ऐसा शब्द है जो प्रचण्ड आस्था का विषय है। कल्पना हम चाहे जिस रूप की करें, पर सच्चाई में ये ईश्वर क्या है ? क्या ईश्वर कोई व्यक्ति है ? ईश्वर कहाँ है ? हर व्यक्ति अपनी सुविधा के अनुसार ईश्वर की कल्पना करता है। कोई ईश्वर को देवी रूपों में देखता है , कोई देव रूप में देखता है। अनगिणत रूपों में ईश्वर की धारणा होती है।
इन्द्रियगोचर जगत या विश्वप्रपंच जैसा दिख रहा है, इसके पीछे की सच्चाई क्या है ? जब से हमारा जन्म हुआ तब से इस जगत के प्रति हमारे भीतर सत्यत्व बुद्धि है। हमारी इन्द्रियों को ये जीव-जगत जैसा दिखाई दे रहा है, यह वैसा ही है क्या ? हम ईश्वर को जगत का निर्माता मानते हैं। हम जब सृष्टि को देखते हैं - तो सृष्टिकर्ता की कल्पना होती है। किसी ने तो इसको बनाया होगा ? उस ईश्वर का अपना स्वरुप क्या है ? जितने भी जीव-जंतु हैं, उसमें भी जो मनुष्य हैं -उसके पीछे की सच्चाई क्या है ? इस 'मैं' शब्द का वास्तविक अर्थ क्या है ?
>>ये तीन बिन्दु : ईश्वर, जगत और जीव या 'मैं' क्या है ? मैं कौन हूँ ? ये तीन बिन्दु ऐसे हैं जिन्हें हम हमेशा connect करना चाहते हैं। इन तीनों चीजों के विषय में हमारी जो आज की समझ है, वो ठीक है क्या ? आज तो हम अपने को एक स्त्री-पुरुष देहधारी मनुष्य ही समझ रहे हैं। स्त्री-पुरुष शरीर के पीछे की सच्चाई क्या है ? तो क्या यह मनुष्य 'जीवन' साथी की खोज है?
>>वेदांत विश्वास प्रणाली नहीं एक साहसी खोज प्रणाली है : हम जिसको सनातन हिन्दू धर्म कहते हैं , उस सनातन धर्म का सार वेदांत है। वेदांत का मतलब है उपनिषद। उपनिषद ही वेदांत है जो पूरे वेदों का सार है। "Vedanta is not a belief system, it is a system of courageous discovery!" वेदांत एक विश्वास प्रणाली नहीं है, यह एक खोज प्रणाली है। वेदांत के सिद्धान्तों को परखा जा सकता है, वेदांत के महावाक्यों को स्वयं सत्यापित करके देखा जा सकता है। महावाक्यों का स्वयं अनुभव किया जा सकता है, इसलिए वह अन्धविश्वास नहीं है। इस सत्यान्वेषण प्रणाली के तीन सोपान है -श्रवण, मनन , निदिध्यासन। यह खोज, सत्य की खोज केवल साहसी मनुष्य ही कर सकता है। (ऐसा साहस :यदि मैं अविनाशी आत्मा हूँ तो, अभी मरेगा कौन ?) इसकी तैयारी में जो कुछ छोड़ने की अनिवार्यता है - उसके लिए पहले साहस चाहिए। साधन-चतुष्टय का पालन करने के लिए पहले कुछ चीजें छोड़ने की तैयारी करनी है।
सनातन हिन्दू धर्म, क्या है ? सनातन यानि वेद ! वेद कोई किताब नहीं है। किसी व्यक्ति ने इसको रचा नहीं है। वेद अनादिकाल से है और अनन्त काल तक रहने वाला है। (The Vedas are eternal and will remain so forever.) यह वेद या सनातन धर्म किसी व्यक्ति, या ग्रन्थ पर निर्भर नहीं है। जैसे ग्रंथ बाइबिल और व्यक्ति ईसा, बुद्ध और त्रिपिटक ग्रंथ के बाद बौद्ध धर्म का प्रारम्भ हुआ, कुरान ग्रन्थ पर इस्लाम धर्म का प्रारम्भ हुआ पर वैदिक धर्म किसी ग्रन्थ व्यक्ति पर आधारित नहीं है। सनातन धर्म को ही वैदिक वैदिक धर्म भी कहा जाता है। वेद क्या है? यह किसी व्यक्ति की रचना नहीं है। यह वेद सत्य की खोज करने वाले ऋषियों द्वारा आविष्कृत संचित ज्ञान राशि है। सनातन सत्य वह सिद्धान्त है जो सृष्टि को चला रहा है। वह सनातन सत्य क्या है ? यह जगत एकमेवाद्वित्य ब्रह्म के सिवा और कुछ नहीं है। अपनी इन्द्रियों से जिस जगत को हम देख रहे हैं - वह परिवर्तनशील होने के कारण, दृष्टिगोचर होने पर भी मिथ्या है। पर हमको तो इसमें कहीं ब्रह्म नहीं दीखता है जगत ही दीखता है। जगत संचालन के शाश्वत नियमों, सिद्धांतों को वेद कहते हैं। यह व्यक्ति पर नहीं सत्य सिद्धांतों पर आधारित है। ऋषि लोग इन सत्य-सिद्धांतों को अनुभव करते हैं। उन ऋषियों की अनुभूति सनातन है - कोई भी व्यक्ति- हिन्दू , मुसलमान, इसको सत्यापित कर सकता है। विज्ञानसम्मत है। किसी भी दृष्टि से - रूस, अमेरिका , यूक्रेन के मनुष्य अलग नहीं है - ये बात सिर्फ सनातन धर्म ही कहता है।
>> श्रवण, मनन , निदिध्यासन की परिभाषा :
फिर उस परम् सत्य को ब्रह्म, आत्मा, को कैसे जाने ? उसका उपाय है श्रवण, मनन , निदिध्यासन। 'श्रवण' का अर्थ है गुरुमुख से या ऋषि के मुख से सुनना , और अपरिवर्तनीय सत्य, सनातन सत्य की धारणा या तात्पर्य समझने के लिए श्रवण करना। वेद कहता है - तुम जिस सत्य को खोज रहे हो वह तुम्हीं हो। तत्वमसि - हमलोग केवल स्त्री-पुरुष शरीर मात्र नहीं है। हमलोग नश्वर देहधारी -शाश्वत आत्मा या ब्रह्म हैं। दिल्ली के बारे में उस व्यक्ति से श्रवण करना जिसने दिल्ली देखा है। (24.42 मिनट) जिन ऋषियों ने उस इन्द्रियातीत का अनुभव किया है उनके मुख से श्रवण करना - तात्पर्य समझने के लिए श्रवण करना है, अपने जीवन में उतारने के लिए श्रवण करना। पाण्डित्य बघारने के लिए श्रवण करना व्यर्थ है। श्रवण करने से हमारे जीवन में परिवर्तन होना चाहिए। जगत को देखने के प्रति हमारी दृष्टि बदल जाएगी।
श्रवण ठीक होने से -हमलोग मौन होना सीखेंगे। और वही श्रवण फिर मनन में रूपांतरित हो जायगी, बार बार गुरु वाक्यों का मनन करने से निदिध्यासन होगा - अर्थात ध्यान होने लगेगा की मैं देह नहीं आत्मा हूँ -मैं नश्वर देह नहीं शाश्वत आत्मा हूँ। यह ध्यान या निदिध्यासन जब समाधि में विकसित हो जायेगा तब हमे ज्ञान (अपने स्वरुप का ज्ञान) हो जायेगा। यह बोध होगा कि जगत एकमेवाद्वितीय ब्रह्म के सिवा कुछ नहीं है - यही वेद -वेदांत या उपनिषद का सार है। यह ज्ञान सार्वभौमिक होगा किसी खास देश या व्यक्ति को नहीं जो भी इस पद्धति का अनुसरण करेगा उसे सत्य की अनुभूति होगी। मुसलमान , ईसाई या बौद्ध सभी को होगा। सभी सुख प्राप्ति करना चाहते हैं, और दुःख से निवृत्ति चाहते हैं। पर सुख कहाँ है; इसे समझने के लिए विवेक चाहिए।
अब संस्कृत में कुछ परिभाषायें सुनिए -(32.28 मिनट) श्रवण की परिभाषा -
" श्रवणं नाम षड्विध-लिङ्गैः अशेष-वेदान्तानाम् अद्वितीय-वस्तुनि तात्पर्य-अवधारणम्।।"
सरल भाषा में कहे तो श्रवण का अर्थ सिर्फ सुनना मात्र नहीं है। अद्वितीय-वस्तु कहने से आपका तात्पर्य क्या है, आप उसके निष्कर्ष की अवधारणा करते हैं , यह सिर्फ सुनना नहीं है, आप सुनकर के उस विषय की अवधारणा कर रहे हैं । आप किसकी अवधारणा कर रहे हैं ?- 'अशेष वेदांतानाम अद्वितीय वस्तुनि' वेद का सार, उपनिषदों के सार उपदेश की अवधारणा करनी है। सनातन धर्म माने वेद , वेद-उपनिषद को पूरे मानव-समाज से केवल इतनामात्र ही कहना है - " बच्चों आज जो हम ईश्वर, जीव और जगत को अलग अलग समझ रहे हैं , भेदबुद्धि से जगत प्रपंच को देखते हैं , मैं और तुम के भेदभाव से हम जगत को देख रहे हैं। लेकिन वास्तव में भेद है ही नहीं, एक ही अनेक बन गया है !! एकमेवाद्वितीय परम् ब्रह्म से भिन्न यहाँ कुछ भी नहीं है- इस निश्चय पर पहुँच जाना ही श्रवण है ।" उपनिषद के ऋषि कहते हैं -'ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या' , पर हमको तो जगत ही दीखता है , ब्रह्म तो दीखता ही नहीं है ? यही सत्य की खोज है ! श्रवण करने के बाद हमारी अपनी अवधारणा, यह होनी चाहिए कि - सचमुच आत्मतत्व से भिन्न यहाँ कुछ भी विद्यमान नहीं है। मनन की परिभाषा क्या है -
" मननं तु श्रुतस्य अद्वितीयवस्तुनः वेदान्तानुगुणयुक्तिभिः अनवरतम् अनुचिन्तनम्।"
मनन क्या है ? जिस अद्वितीय वस्तु के विषय में आपने जो अवधारणा कर लिया -की सचमुच गुरुदेव ने जो कहा वही सत्य है। अब उस श्रवण के पश्चात् मन हर समय उसीका अनुचिंतन करेगा। मन में हर समय ब्रह्मचिन्तन ही चलेगा। (अवतार वरिष्ठ का निरंतर चिंतन करते रहने नामजप करते रहने से) हमारे मनोराज्य में अद्भुत परिवर्तन होना शुरू होगा। निदिध्यासन की परिभाषा :
विजातीय-देहादि-प्रत्यय-रहित-अद्वितीय-वस्तु-सजातीय प्रत्यय-प्रवाहो निदिध्यासनम्।।
देहादि ब्रह्मके विजातीय विषयसे चित्तवृत्ति को उठाकर अद्वितीयवस्तु (ब्रह्म)मे चित्तवृत्ति प्रवाहित् करने का नाम निदिध्यासन है । अद्वय ब्रह्म वस्तु के विजातीय (विपरीत) देह (मन) आदि की वृत्तियों से रहित, उस (ब्रह्म) के सजातीय (समान) वृत्तियों के प्रवाह को 'निदिध्यासन’ कहते हैं। जब अपने यह धारणा कर ली की आत्मा से या ब्रह्म से भिन्न कुछ है ही नहीं ! आप अब हर समय आत्मचिंतन ही कर रहे हो। अब और भी आगे बढिये - मानो मन में सतत एक ही धारा बाह रही है - तैल धारवत ! 'सोऽहमस्मि' (वह ब्रह्म मैं हूँ) यह जो अखंड (तैलधारावत कभी न टूटने वाली) वृत्ति है,मैं देह नहीं हूँ , मैं आत्मा हूँ ! आज हम "मैं" का मतलब सिर्फ शरीर (M/F) ही समझ रहे हैं , पर अब श्रवण , मनन , निदिध्यासन से मेरी समझ विराट हो रही है। अब मेरे मन में सिर्फ यही धारा नहीं चलेगी कि मैं -शरीर हूँ , मैं पुरुष हूँ! मैं ब्रह्म हूँ , मैं आत्मा हूँ एक ही प्रत्यय की धारा चलेगी। ये तीन स्टेप्स - एक के बाद दूसरा खुद-बी-खुद चला आता है ! उत्तरोत्तर समझ स्पष्ट होती जा रही है। तीसरा चरण जो है - निदिध्यासन , उसकी समाप्ति स्वतः समाधि में हो जाती है ! समाधि माने आत्मज्ञान में हो जाती है। इसी प्रक्रिया से हम सभी जीव मैं कौन हूँ ? इस सच्चाई को जान जायेंगे। अपने सत्य स्वरुप को जानने , या सृष्टि के पीछे क्या है? इसको जानने की प्रक्रिया यही है। (51.35 मिनट) पर क्या यह अनुभूति 10 दिनों में ही हो जाएगी ? -ऐसा नहीं होगा। बहुत धैर्य चाहिए। देवर्षि नारद की कथा ? सत्य को देखने के लिए तपस्या और ईश्वर का अनुग्रह दोनों चाहिए ! वेद उपनिषद को केवल इतना ही बताना है - तत्वमसि ! तत्वमसि ! तत्वमसि ! तत्वमसि ! इसी को खोज करने की प्रक्रिया है -श्रवण , मनन , निदिध्यासन।
विवेक क्या है, उसी को समझने का यह ग्रन्थ है विवेक- चूड़ामणि। ऐसी मान्यता है कि भगवान शंकराचार्य द्वारा लिखित यह अंतिम ग्रन्थ है। स्वामी विवेकानन्द आदिगुरु भगवान शंकराचार्य को boy शंकर या बालक शंकर कहते थे। क्योंकि उन्होंने अपनी सारी रचनायें 16 वर्ष की आयु में ही लिख डाली थीं। स्वामी विवेकानन्द ने आदि शंकराचार्य के बारे में कहा था - " जिसके बारे में यह घोषित किया गया है कि उसने सोलह वर्ष की उम्र में अपनी समस्त ग्रंथों की रचना समाप्त कर ली थी, उसी अद्भुत प्रतिभाशाली बालक शंकराचार्य का अभ्युदय हुआ। और जिस 16 वर्ष के बालक की रचनाओं को पढ़कर सभ्य जगत विस्मित हो रहा है, वह बालक भी उतना ही अद्भुत था। उसने संकल्प किया था कि समग्र भारत को उसके प्राचीन विशुद्ध मार्ग में ले जाऊँगा। " (भारत के महापुरुष/ऋषि -खंड 5, पेज -159/बालक शंकराचार्यजी भारतीय जगत को पुनः उसकी प्राचीन शुद्धता पर वापस लाना चाहते थे।)
["The greatest teacher of the Vedanta philosophy was Shankaracharya. India has to live, and the spirit of the Lord descended again. He who declared, “I will come whenever virtue subsides, came again and this time the manifestation was in the South, and up rose that young Brahmin Adi Shankara- of whom " It has been declared that at the age of sixteen he had completed all his writings; the marvelous boy Shankaracharya arose. The writings of this boy of sixteen are the wonders of the modern world, and so was the boy. He wanted to bring back the Indian world to its pristine purity."(The Sages Of India) ]
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्,
गोविन्दं भज मूढ़मते।
संप्राप्ते सन्निहिते काले,
न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे॥१॥
कोरी विद्व्ता या व्याकरण के नियम आपको मरने से नहीं बचा सकते - भज गोविन्दं !भज गोविन्दं !भज गोविन्दं ! का अर्थ है -सत्य को जानो ! सत्य को जानो ! सत्य को जानो ! भज गोविन्दं ! यहीं रुक जाते हैं !
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3.⚜️️🔱विवेक-चूड़ामणि ग्रंथ का मंगलाचरण⚜️️🔱
परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं,
निरीहं निराकारमोङ्कारवेद्यम्।
यतो जायते पाल्यते येन विश्वं,
तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम्॥५॥
ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु।
सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥
ॐ शांति, शांति, शांतिः
⚜️️🔱[हमें उस अवस्था में हमें पहुँचना है जहाँ आप हो लेकिन इन्द्रियाँ नहीं हैं, इन्द्रियगोचर जगत को सत्य समझकर जीना ही अन्धकूप में गिरना है !⚜️️🔱]
Most Important ! हमारे शरीर का सबसे महत्वपूर्ण अंग है - हमारा सिर, उस पर मुकुट पहना जाता है। जिस प्रकार मुकुट के शिखर पर स्थित रत्न किसी व्यक्ति के शरीर का सबसे विशिष्ट आभूषण होता है, उसी प्रकार यह ग्रंथ सत्, असत् और मिथ्या के बीच विवेक का अध्ययन करने वाली कृतियों में एक उत्कृष्ट कृति है। ग्रन्थ में 580 श्लोक हैं; हमलोग चुने हुए केवल 50 -60 श्लोकों पर चर्चा करेंगे।
'विवेक-चूड़ामणि' इस शब्द में तीन शब्द निहित हैं- विवेक, चूड़ा और मणि। यहाँ विवेक को चूड़ामणि कहा गया है। राज-मुकुट को चूड़ा कहते हैं, जिसको अंग्रेजी में Crown कहा जाता है जिसको हमलोग सिर पर पहनते हैं। किसी व्यक्ति का जब राज्याभिषेक होता है, तो उसके सिर पर राज-मुकुट पहनाया जाता है। तो मुकुट क्या है ? राज्य का राजमुकुट सबसे प्रधान-राजा होने का प्रतीक है। मुकुट को हम सिर पर ही पहनते हैं , क्योंकि मानवशरीर में सर सबसे प्रधान अंग है। क्योंकि सबकुछ Brain से ही संचालित होता है। राज-मुकुट तो अपने आप में प्रधान है ही, लेकिन यह राज-मुकुट ऐसा है जिसपर एक बहुत अनमोल रत्न या मणि जड़ी हुई है ! कहने का मतलब है वह मणि सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। सोने के बने राज-मुकुट से भी अधिक मूल्यवान वो मुकुट-मणि है। चूड़ामणि का अर्थ हुआ मुकुट-मणि अर्थात सबसे प्रधान या सबसे महत्वपूर्ण वस्तु। तो भगवान शंकराचार्यजी का कहना है कि- यह विवेक ही मनुष्य का मुकुटमणि है, चूड़ामणि है। तात्पर्य यह है कि सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड में मनुष्य की सबसे बड़ी योग्यता -जिसे अंग्रेजी में 'faculty'-विशेषाधिकार या सबसे बड़ी आंतरिक शक्ति कहते हैं। तो यह 'विवेक' मानव-चरित्र का सबसे बड़ा गुण है, मनुष्य की एक ऐसी विशेष योग्यता या क्षमता है, जो मनुष्य के अतिरिक्त अन्य किसी प्राणी में विकसित नहीं होती। ये योग्यता केवल मनुष्य मात्र में ही उपलब्ध है। किसी पशु के अंदर बुद्धि हो सकती है , लेकिन यह विवेक नहीं हो सकता। पशुओं में विवेक करने की क्षमता नहीं होती। (5:00) यह विशेष गुण सिर्फ किसी मनुष्य के अंदर ही दिखाई दे सकती है।
Viveka is Clarity-clear thinking : मगरमच्छ है या लट्ठा है ?
विवेक को मुकुट मणि कहा गया है, चूड़ामणि कहा गया है तो कहने का तात्पर्य ये है कि इस विवेक से महत्वपूर्ण इस पूरे विश्व-ब्रह्माण्ड में कुछ भी नहीं है। ऐसी क्या विशेषता है इस विवेक में कि इसको ऋषि (शंकराचार्यजी) के द्वारा विश्व-ब्रह्माण्ड का सबसे महत्वपूर्ण सद्गुण कहा जा रहा है ? तो ये विवेक क्या है ? पहले हम थोड़ा इस विवेक को समझने की चेष्टा करेंगे। इस पूरे ग्रंथ में इस इस विवेक का ही उपयोग होगा। इस ग्रंथ के शुरुआत से लेकर अंत तक आप देखोगे, विवेक-प्रयोग ही चल रहा है !
और यह विवेक चूड़ामणि है, चरित्र के गुणों का मुकुट-मणि है ! हम सबों के अंदर विवेक है , लेकिन आज वो सुप्त है। आज वो काम नहीं कर रहा है। (6:08) जिस दिन हमारे अंदर का सुप्त विवेक जग जायेगा , व्यक्ति का जीवन ही परिवर्तित हो जायेगा। तो ये विवेक क्या है ? इसको समझाने के लिए भगवान शंकराचार्यजी खुद एक उदाहरण देते हैं। क्या उदाहरण है ? इस विवेकचूड़ामणि ग्रन्थ श्लोक- 86 में ही भगवान शंकर ने विवेक-जगरण को एक रूपक से समझाया है।
शरीरपोषणार्थी सन् य आत्मानं दिदृक्षति ।
ग्राहं दारुधिया धृत्वा नदीं तर्तुं स इच्छति ॥ ८६ ॥
अर्थ:- जो शरीर पोषण में लगा रहकर आत्मतत्त्व को देखना चाहता है, वह मानो काष्ठ-बुद्धि से ग्राह को पकड़ कर नदी पार करना चाहता है।
कोई ग्रामीण किसान था जिसे संध्या के समय , जब अंधकार नहीं होता लेकिन प्रकाश बहुत थोड़ा रहता है, उस समय किसी अत्यन्त आवश्यक काम से दूसरे गाँव जाना पड़ता है। वह गाँव नदी के उस पार था। वह किसान जल्दी-जल्दी चलते हुए नदी के निकट पहुँचता है - आज ही जाना है, अभी तुरत जाना जरुरी है। नदी के निकट पहुँचता है तो देखता है कि न तो वहाँ कोई नाव है, न नाविक है। उसे नदी के उस पार जाना बहुत आवश्यक था - वह उपाय ढूँढ़ने लगता है। तभी उसे नदी में लकड़ी का कुन्दा या लट्ठा जैसा कुछ बहता हुआ दीखता है। हमारे साथ भी यही हो रहा है। नदी में उसे बहता हुआ कुछ दिखाई दे रहा है - धुंधलके के में जब हमें भी कुछ दिखाई देता है , तो उसे देखते ही हमारे अंदर एक धारणा बन जाती है - अरे ये पेड़ है, ये बिल्डिंग है ? या पर्वत है , पुरुष है या स्त्री है ? हल्के प्रकाश में कुछ देखते ही उसके विषय में हमारे अंदर तत्काल , उसी समय एक धारणा बन जाती है- अरे ये फलाना वस्तु है ! जिसको हमलोग प्रत्यक्ष कहते हैं। (9:43) अगर वेदान्तिक भाषा में कहें तो इसको ही प्रत्यक्ष कहते हैं। मैं प्रत्यक्ष में देख रहा हूँ न ? प्रत्यक्ष में देखते ही मेरे अंदर एक धारणा बन जाती है ,एक ज्ञान उत्पन्न होता है कि यह -अमुक वस्तु है। अब वो ज्ञान सही है , या गलत है-वो दूसरा मुद्दा है ! कभी कभी कुछ चीजों को प्रत्यक्ष देखते हैं, और तुरत एक धारणा बना लेते हैं , लेकिन वो वैसा नहीं होता। तो यह किसान भी उस समय शाम के धुँधलके में जिसे हम -dusk' कहते हैं -नदी में देखता है कि कुछ उसमें कुछ तैर रहा है। उसने उस वस्तु को देखा और उसका 'ज्ञान' यह था कि वहाँ लकड़ी का कुन्दा तैर रहा है। उसका यह ज्ञान आगे चलकर अज्ञान साबित होता है। लेकिन तत्काल तो वो ज्ञान ही था। वह उस वस्तु को देख रहा है , और उसका ज्ञान उसका बोध यह है कि यह तैरती हुई वस्तु लकड़ी का बोटा है,कुन्दा या एक लट्ठा तैर रहा है। उसको यही दिखाई दिया। परिस्थिति ऐसी है कि संध्या का समय है। पूरा प्रकाश नहीं है , और पूरा अंधकार भी नहीं है। वैसे धुंधले प्रकाश में उसे नदी में तैरता हुआ कुछ दीखता है। उसके विषय में उसकी धारणा यह होती है कि ये लकड़ी का लट्ठा है। तुरंत वह खुश हो जाता है , सोचता है मैं इस लट्ठा पर बैठकर नदी पार कर जाऊँगा। लेकिन जो लकड़ी के लट्ठे की तरह तैरता हुआ दिखाई दे रहा था, वह सच्चाई में मगरमच्छ था। देखिये ये एक उदाहरण है , लेकिन यह किस चीज का उदाहरण है? हम कैसे एक चीज को दूसरा समझ लेते हैं ? (11:52) (अज्ञान/ अविद्या में ?) जो वास्तव में मगरमच्छ है उसको हम लकड़ी का लट्ठा समझ लेते हैं ! अब देखिये किसी व्यक्ति का जो आचरण होगा वो उसके ज्ञान के अनुसार ही होगा। (किसी व्यक्ति का जो व्यवहार होगा अर्थात चरित्र होगा वो उसके ज्ञान के अनुसार ही होगा।) जब उसने लकड़ी का लट्ठा देखा तब उसका आचरण कैसा था ? उसका पहला आचरण यह था कि वो सीधा उस लट्ठे की ओर तेजी से बढ़ रहा था। वह आशा कर रहा था कि उस लट्ठा पर बैठकर नदी पार कर लेगा। तो देखिये -जैसा हमारा बोध होता है, जैसा हमारा ज्ञान-विचार होता है , वैसा ही हमारा आचरण या चरित्र भी होता है। अब इस विचार को हमलोग अपने दैनंदिन जीवन में लगायेंगे। यहाँ -मुख्य बात ये है कि कैसे हम एक चीज को दूसरा समझ लेते हैं ? लट्ठे को मगरमच्छ नहीं समझने पर उस व्यक्ति का आचरण एक स्वभाव या आचरण एक प्रकार का होगा। और उसको तेजी से लट्ठे रूपी मगरमच्छ की तरफ बढ़ते देखकर दूर से कोई व्यक्ति बोलता है , भाई तुम रुक जाओ ! भाई रुक जाओ! तुम उधर मत जाओ ! किसान पूछता है - क्यों ? भाई नदी की ओर क्यों न जाऊँ ? वो आदमी कहता है - भाई जिसे तुम लकड़ी का लट्ठा समझ रहे हो ; वह लट्ठा नहीं - मगरमच्छ है। (14:00) अब देखो, जैसे ही इस किसान को यह समझ में आ गया कि ये मगरमच्छ है, लट्ठा नहीं है, तब उसका आचरण क्या होगा ? क्या वो अब उसकी ओर बढ़ेगा, या वो पीछे हटेगा ? (ईश्वर-जीव और जगत के बारे में) व्यक्ति का जैसा ज्ञान, जैसा बोध होता है , वैसा ही उसका आचरण होता है। जब तक वो यह समझ रहा था कि ये लट्ठा है , तब तक उसका आचरण एक प्रकार का था। किस प्रकार का था ? वो उसकी ओर बढ़ रहा था। सिर्फ बढ़ नहीं रहा था - उसके अंदर एक अपेक्षा थी , एक आशा थी। आशा कर रहा था कि मैं इस पर बैठकर नदी पार कर जाऊँगा। ये आशा बहुत महत्वपूर्ण है। हमलोग अपने जीवन के साथ इसकी तुलना करके देखेंगे। हमलोग भी ऐसे ही किसी चीज (बुलबुले) को पकड़कर सुखी होने की आशा करते हैं। प्रतीक्षा करते हैं। कल्पना करो - अगर वो व्यक्ति उस मगरमच्छ को लट्ठा समझकर नदीपार करने की आशा लिए उसकी पीठ पर अगर वो बैठ जाता; तो उसकी क्या गति होती ? उसकी वो आशा कभी पूर्ण होती क्या ? वो मगरमच्छ का अच्छा भोजन बन जाता। तो ये एक सम्भावना है - एक चीज को दूसरा समझकर पकडने से क्या-क्या हो सकता है ? लेकिन जब दूसरा व्यक्ति किसान को ये बता देते हैं कि ये लट्ठा नहीं है , मगमच्छ है। तब किसान का आचरण पूरा बदल गया, जो पहले नदी की दिशा में आगे बढ़ रहा था , वो पीछे हट जाता है। जिस व्यक्ति ने किसान को ये बता दिया कि वह लट्ठा वास्तव में क्या है, उसीको हमलोग गुरु कहते हैं। (16:19) या शास्त्र कहते हैं। शास्त्र हमें बताते हैं -कि बच्चों देखो , इन इन्द्रियों से जो जो जगत हमें प्रत्यक्ष दिख रहा है ; इसको हमने जैसा समझा है , वास्तव में ये वैसा नहीं है। इस उदाहरण को हमें अपने जीवन से जोड़कर देखना होगा। ये जगत विश्व-प्रपंच जैसा हमें दिखाई दे रहा है , ये वैसा नहीं है। जगत के प्रति सत्यत्व बुद्धि रखना , लट्ठा को मगरमच्छ समझना है। यह जगत आज हमें जैसा दिखाई दे रहा है , उसके विषय में हमारे भीतर सत्यत्व बुद्धि रहती ही है। अगर आप साधक हो और साधना के पथ पर बहुत आगे चले गए हों , तब शायद सत्यत्व नहीं हो ? लेकिन जिस व्यक्ति ने विवेक के विषय में सुना ही नहीं हो , उसकी धारणा क्या है ? वो तो जगत को एकदम सत्य मानकर ही चलता है। लेकिन ये जगत जैसा दिखाई दे रहा है - सच में वैसा ही है क्या ? सत्य क्या है ? और जो सत्य सा दिख रहा है - वो क्या है? ये एक बहुत बड़ा प्रश्न है। उपनिषदों के ऋषि तो हमसे कहते हैं - यह संसार तो सिर्फ महामाया की छाया मात्र है। एक परछाई के समान है। ये संसार सत्य जैसा दीखता है , लेकिन जैसा दीखता है , वैसा नहीं है। और जो सत्य नहीं है, लेकिन सत्य जैसा प्रतीत हो रहा है। जब तक आप इस जगत को सत्य समझकर इसको पकड़कर चलोगे तो आपके अंदर एक आशा होगी कि इस छाया मात्र जो विश्व प्रपंच है इसको पकड़कर हम आगे और सुखी हो जायेंगे। वो प्लॉट या बुलबुला मिल जायेगा तो हम सुखी हो जायेंगे। लेकिन हमारी वो आशा कभी पूरी नहीं होती। शरीर और इन्द्रियों के द्वारा आप कुछ भी भोग कर लीजिये , उस भोग की अंतिम परिणति अपूर्णता ही है। शरीर बूढ़ा हो जायेगा। इन्द्रियाँ निष्क्रिय हो जाएँगी। मृत्यु आ जाएगी। और जो व्यक्ति जन्म के समय अपूर्ण था , वह मृत्युकाल में भी अपूर्ण ही रहेगा। क्यों ऐसा होता है ? क्योंकि उसने जीव-जगत के प्रति जिस सत्यत्व बोध के आधार पर अपना जीवन व्यतीत किया है, वास्तव में सत्य है ही नहीं। जो सत्य सा प्रतीत हो रहा है , वो छाया तुल्य एक दृश्य है। जिस प्रकार वो किसान मगरमच्छ को लट्ठा समझ लेता है, उसी प्रकार जगत को सत्य समझकर जब हम उसको पकड़ रहे हैं , और आशा कर रहे हैं कि हम जोवन में सुखी होंगे - तो ऐसा नहीं होगा। इसी प्रकार एक जीवन समाप्त हो जाता है , और दुबारा नए शरीर में जीवन शुरू हो जाता है। ये जो जन्म-मृत्यु का चक्र है वो चल ही रहा रहा है,चल ही रहा रहा है। और ये जीवन-मृत्यु का चक्र अनवरत चलता ही रहेगा , जब तक हम यह नहीं समझेंगे कि सत्य क्या है, और जो सत्य सा दिख रहा है -वह जगत क्या है ? (20:48) दो चीजें हैं। एक (ईश्वर) जो वास्तविक रूप में सत्य है , दूसरा वो है (जीव-जगत) जो सत्य सा प्रतीत हो रहा है। और जो सत्य जैसा प्रतीत हो रहा है , उसी को सत्य समझकर पकड़ लो तो मगरमच्छ पकड़ कर नदी पार करने की आशा जैसी बात होगी। यहाँ गड़बड़ क्या हो रहा है ? यहाँ दो चीजों को लेकर, एक चीज को दूसरा समझकर , हम भ्रमित हैं। ये सारा विश्व -प्रपंच आभासात्मक है , छाया तुल्य जगत मात्र है।
>>तो विवेक क्या है ? स्पष्टता ! विवेक का अर्थ है स्पष्टता या स्पष्ट-समझ, या हमलोग इसको प्रांजलता भी कह सकते हैं। आप ठीक ठीक समझ पा रहे हो - यह वस्तु क्या है , और वह वस्तु क्या है ? दो वस्तुओं को पृथक करके हम स्पष्ट रूप से देख रहे हैं कि - भाई ये मगरमच्छ है और ये लट्ठा नहीं है। उसी प्रकार यहाँ जिसको हम दूसरा (ईश्वर से भिन्न) समझ रहे हैं - वो दूसरा नहीं है , वास्तविक रूप में एक ही हैं। लेकिन वो दूसरा जो है वो एक ऐसा महा अद्भुत चीज है, वो सच्चाई में है , या नहीं यही हमें साहस के साथ खोजना है। (23:05) यहाँ दो चीजें हैं -एक सत्य वस्तु है , जो त्रिकाल अबाधित है , जो सबसमय विद्यमान है ; लेकिन जिसके विषय में आज हमें कोई ज्ञान नहीं है। (गुरु के अतिरिक्त अन्य) किसी भी व्यक्ति को उसका ज्ञान नहीं है। दूसरा वो वस्तु है जो सत्य सा प्रतीत हो रहा है , किन्तु सच्चाई में वो सत्य नहीं है। लेकिन उसी को हमने सत्य समझ लिया है। यह मनुष्य की वह अवस्था है - जिसमें विवेक का अभाव है। विवेक के नहीं होने का परिणाम ये होता है कि जो सत्य नहीं है , उसको हमलोग सत्य समझ लेते हैं। यह विवेक का अभाव है। और विवेक के होने का क्या मतलब है ? जो सत्य सा प्रतीत हो रहा है, और जो वास्तविक रूप में सत्य है , इन दोनों को बिल्कुल पृथक करके , स्पष्ट रूप से दोनों को अलग अलग देखना। और एक को दूसरे के साथ mix-up नहीं करना। अंग्रजी कोष में विवेक का सही अनुवाद है -Discrimination : विभेदन -क्षमता। (24:38) लेकिन मेरी दृष्टि में इसका सही शब्द होगा-विवेक यानि Clarity है या बुद्धि की 'स्पष्ट धारणा' है। विवेक मनुष्य की वह योग्यता या क्षमता है जो दो चीजों के बारे में स्पष्टता लाती है: एक वह जो पूर्णतः वास्तविक है और दूसरी वह जो वास्तविक जैसी प्रतीत होती है!" Viveka is the faculty which brings about, this clarity about two things : One is that which is absolutely real and the second thing is that which is appearing to be real!" ये दो चीजे हैं यहाँ पर एक जो सत्य सा प्रतीत हो रहा है , और दूसरा जो वास्तविक रूप में सत्य है। इन दोनों को पृथक करके देखने की योग्यता या क्षमता को विवेक कहते हैं। एक को दूसरा नहीं समझ लेना। यह नित्य वस्तु है , और ये नित्य वस्तु के जैसा प्रतीत हो रहा है , वास्तविक में ये नित्य वस्तु नहीं है -इसको विवेक कहते हैं। ये मनुष्य की एक विशेष योग्यता है। विवेक एक ऐसी योग्यता है - जो सभी मनुष्यों के अंदर विद्यमान है। जिसके द्वारा आप यह पृथक कर के देख सकते हो कि सत्य क्या है , और क्या सत्य के जैसा प्रतीत हो रहा है। Viveka is Clarity: मगरमच्छ क्या है और लट्ठा क्या है? अब आप इन दोनों को मिश्रित करके भ्रमित नहीं हो रहे हो। आज हमारी पृथ्वी पर मनुष्यों की जनसंख्या कितनी है - 8 अरब , What is the number of humans? - 8 billion people ! लेकिन इतनी बड़ी जनसंख्या में इनेगिने लोगों का विवेक ही जाग्रत रहता है। 99.99 % मनुष्यों का विवेक सोया रहता है। बाकि मनुष्य अविवेक में ही डूबे रहते हैं। सबों ने मगरमच्छ को ही लट्ठा समझ लिया है। आभासात्मक विश्व-प्रपंच को पकड़ करके वे सुखी होने की आशा कर रहे हैं। यही साधारण मनुष्यों की कहानी है , जो कभी पूरी नहीं होती। तो विवेक का मतलब क्या है ? Once again ! Viveka is Clarity ! दो चीजों के बीच में मिश्रण हो गया है।(27:38) एक चीज को दूसरा समझ लेते हैं। इन दोनों के बीच स्पष्ट धारणा बना लेना विवेक है। यह एक ऐसी अद्भुत क्षमता या योग्यता है जो केवल मनुष्यों में ही है। 'विवेक' मनुष्य की वह विशेष योग्यता है - जिसके कारण उसे मनुष्य कहा जाता है। यह मनुष्य के अलावा अन्य किसी प्राणी -गाय या घोड़े के पास नहीं होता। पशु लोग तो केवल आभासी जगत में ही डूबे हुए हैं। और मनुष्य भी यहीं पर डूबा हुआ है ! हमलोग यह मानकर ही चलते हैं कि यह दृष्टिगोचर जगत अपने आप में सत्य है। जगत में सत्यत्व बुद्धि होने से हमको लगता है कि ये विश्वप्रपंच अपने आप में सत्य है। और जिधर आपकी सत्यत्व बुद्धि होगी -उसी दिशा में दौड़ने की आपकी प्रवणता होगी। जब तक आपको लगेगा कि यह मगरमच्छ नहीं लट्ठा है , तब तक आपकी प्रवणता उसी के ओर जाने की होगी। लेकिन जिस दिन आपको समझ में आ जायेगा कि ये लकड़ी का लट्ठा नहीं , मगरमच्छ है , उस दिन आप खुद पीछे हट जाओगे। जिस दिन हमको ये समझ में आएगा कि यह जगत छाया मात्र है, तो यह विवेक अपने-आप आपके आचरण को बदल देता है। विवेक-चूड़ामणि शास्त्र का अध्यन (या पाठचक्र) ही आपके आचरण को बदलने वाला अध्यन है। जिस प्रकार अविवेक के कारण किसान पहले मगरमच्छ की ओर बढ़ रहा था , लेकिन उसकी समझ में जब बदलाव आया कि ये लट्ठा नहीं मगरमच्छ है तब उसका परिणाम क्या हुआ; उसका आचरण भी बदल गया या नहीं ? वो जो देख रहा था उसके विषय में जब स्पष्टता आई , तो उसका फल क्या हुआ ? उसके आचरण में बदलाव आने लगा ! (30:22) विवेक-दृष्टि -समझ में स्पष्टता हो जाने से हमारा आचरण और पूरा जीवन ही बदल जाता है। अब वह व्यक्ति कुन्दा रूपी मगरमच्छ की ओर जायेगा ? गुरु की पुकार ( या स्वामी विवेकानन्द की चेतावनी उत्तिष्ठत -जाग्रत !) सुनकर विवेक जाग उठता है। जिसका विवेक जग जायेगा (विवेक -स्रोत उद्घाटित हो जायेगा) , उसका जीवन ही बदल जायेगा। यह होना अनिवार्य है। इसीलिए विवेक से बढ़कर कुछ नहीं है। इसीलिए विवेक को मुकुट मणि कहा गया है, विवेक को चूड़ामणि कहा गया है। क्योंकि हर मनुष्य के अंदर विवेक वो क्षमता है, जिसके द्वारा हम यह समझ पाते है , की सत्य क्या है , और सत्य के जैसा प्रतीत क्या हो रहा है ?
आगे बढ़ने से पहले एक बात समझ लीजिये - अभी हमलोगों का श्रवण-मनन ही चल रहा है। इस प्रशिक्षण अवधि में आप जो श्रवण कर रहे हैं - उस श्रुति के अनुसार ही मन में विचार उठेंगे। इसीको श्रवण और मनन कहा गया है। अब आप जो सुन रहे हैं उसके अनुसार आपके अंदर एक नए प्रकार से मंथन चल रहा है। इस प्रकार के श्रवण-मनन से आपकी दृष्टि ही बदल जाएगी। यहाँ आने से पहले हम ये निःसंदिग्ध होकर समझ रहे थे कि यह विश्व-प्रपंच सत्य है। अब हमको यह दिखाई देने लगेगा कि ये जैसा दिख रहा है , वैसा यह नहीं है। शास्त्र हमें एक नई दृष्टि प्रदान करते हैं। शास्त्र हमें सत्यदृष्टि प्रदान करती है , हमें बता देती है कि बेटा देखो यह जगत जैसा दिख रहा है , वैसा यह नहीं है। और जो सत्य वस्तु है वह तो कुछ और ही है ! उस सत्य को खोज लेना ही हमारे जीवन का परम् लक्ष्य है। ये जो छाया तुल्य जगत है बड़ा विस्मयकारी है। सभी लोग इसके विषय में भ्रमित हैं। जिस प्रकार वह किसान भ्रमित था ओट मगरमच्छ को लट्ठा समझ लिया था , उसी प्रकार सारा मानवसमाज जो सत्य नहीं है , उसीको सत्य समझकर चल रहा है। सारी मानवजाति भ्रमित है। (33:48) शास्त्र हमें बताती है कि हमलोग जिस जगत प्रपंच को देख रहे हैं , उसकी विशेषता क्या है ? आप ऐसा कल्पना कीजिये कि आप किसी अंधे कुँए में गिर रहे हो , जिसकी कोई तली ही नहीं है। तो क्या होगा -आप गिरते जाओगे ,-आप गिरते जाओगे ,-आप गिरते जाओगे , अनंतकाल तक गिरते ही जाओगे। यह दृष्टिगोचर विश्व प्रपंच भी बिल्कुल एक अंधे कुँए के समान है। जिसमें आप गिरते ही जाओगे लेकिन पहुंचोगे कहीं नहीं।
>>इन्द्रियाँ ही जगत है: वास्तव में जगत कुछ नहीं है , इन्द्रियाँ ही जगत है। (35:35) इन्द्रियों से हटकर कोई जगत है क्या ? हमारी ऑंखें जो हमें दिखाती हैं, या अपने कर्णेन्द्रियों से जो सुनते हैं, वही तो जगत है। मैं सिर्फ दो इन्द्रियों का उदाहरण दे रहा हूँ, आप पाँचो इन्द्रियों को ले लीजिये। 10 इन्द्रियों को ले लीजिये। 5 हमारी कर्मेन्द्रिय हैं , 5 ज्ञान इन्द्रिय हैं। सभी इन्द्रियों के माध्मय से ही तो जगत है। कल्पना कीजिये कि आपकी एक भी इन्द्रियाँ नहीं हैं, तो यह जगत रहेगा क्या ? आपकी इन्द्रियों से हटकर कोई जगत है क्या ? ये सारे विचारणीय प्रश्न हैं ! ऐसी भी कल्पना करके देख लीजिये कि आपकी न घ्राणेन्द्रिय है , न स्पर्शेन्द्रिय है - न अन्य कोई भी इन्द्रिय है; -अर्थात आपका शरीर नहीं है ,लेकिन आप हो ! आप कभी नहीं हों , ऐसा हो ही नहीं सकता। आप हों लेकिन इन्द्रियाँ नहीं हैं। हमलोग अभी धीरे धीरे 'मैं कौन हूँ' - उस सत्य की खोज में अग्रसर हो रहे हैं? मैं वास्तव में क्या हूँ ? इसकी खोज में हमलोग क्रमशः आगे बढ़ेंगे। लेकिन खुद के विषय में आज हमारी अपनी धारणा यह है कि हम अपने को इन्द्रियों से जोड़कर ही स्वयं को M/F स्त्री या पुरुष समझ रहे हैं, है कि नहीं ? और इन्द्रियाँ हमें हर समय भ्रमित कर रही हैं। (36:46) इन्द्रियों के माध्यम से बाह्य जगत के विषय भोगों की ओर - जाते रहो , जाते रहो !कितना भी दौड़ते रहो, यानि दिनरात इन्द्रिय भोगों में ही डूबे रहो बिल्कुल उसी प्रकार है , जिस प्रकार कोई व्यक्ति ऐसे अंधकूप में गिर रहा है, जिसका कोई तल ही नहीं है। वो व्यक्ति कहीं पहुँचता ही नहीं है। जब तक आप अपने को इन्द्रियधारी स्थूल शरीर M/F समझकर इन्द्रिय विषय-भोगों की ओर दौड़ते रहोगे एक जन्म खत्म हो जायेगा , दूसरा जन्म शुरू हो जायेगा , और ये जीवन-मृत्यु का चक्र चलता ही रहेगा। (बुद्ध को अपना पिछला 500 जन्म याद था।) ये इन्द्रियगोचर विषय भोग सच्चाई में ये सत्य है ही नहीं ये छाया समान है। (37:39) पंचेन्द्रिय युक्त यह स्थूल शरीर वास्तव में है ही नहीं, ये शरीर और इन्द्रिय विषय छाया समान है। यह M/F शरीर सत्य सा दीखता है, लेकिन अपने-आप में यह सत्य नहीं है। ये सत्य सा दीखता है , लेकिन अपने-आप में यह सत्य नहीं है। यह सच्चाई हमलोग अभी तक ऋषियों- महापुरुषों के मुख से सुनते आ रहे हैं। अभी तक तो हम केवल स्वामी विवेकानन्द रचित स्वदेश-मंत्र में यह सुनते -दोहराते आ रहे हैं -" हे भारत !... मत भूलना कि तुम्हारा समाज उस विराट महामाया की छाया मात्र है ! " (खंड९/२२८) अगर हमारा समाज उस विराट महामाया की छाया मात्र है , तो सत्य क्या है ? मैं क्या हूँ ? या मैं कौन हूँ? [या हर समय मैं अपने को इन्द्रियों से जोड़कर ही क्यों देखता हूँ ?] मैं वास्तव में क्या हूँ - अब यही हमारे खोज का विषय है ! अभी तक हमने विवेक-चूड़ामणि ग्रंथ के श्लोकों के माध्यम से परमसत्य की खोज शुरू नहीं की है , अभी तक केवल इसकी भूमिका ही चल रही है- कि विवेक क्या है ? (38:00) तो इतनी भूमिका के बाद अब हम मुख्य विषय पर आते हैं कि -विवेक क्या है ? विवेक हमारे अंदर स्पष्ट-धारणा लाने वाली एक योग्यता है, एक faculty हम सभी मनुष्यों के अंदर है। विवेक सभी मनुष्यों में विद्यमान एक ऐसी योग्यता है जिसके द्वारा हम देख पाते हैं कि -सत्य क्या है , और सत्य जैसा प्रतीत क्या हो रहा है? [लेकिन स्वामीजी ने स्वदेश-मन्त्र में इसे विशेष रूप से प्रत्येक भारतीय की योग्यता बताया है, और विशेष रूप युवाओं का आह्वान करते हुए कहा है - " हे भारत !... मत भूलना कि तुम्हारा समाज उस विराट महामाया की छाया मात्र है ! "] तो मनुष्य के अंदर सत्य और छाया के अन्तर में स्पष्टता लाने वाली एक योग्यता का नाम है -'विवेक' ! जो हम सभी मनुष्यों के अंदर है। विवेक एक विशेष क्षमता या faculty है, जो केवल मनुष्य को ही प्राप्त है। विवेक मनुष्य की वह योग्यता है किसके द्वारा हम पृथक -पृथक रूप से देख सकते हैं कि जो सत्य नहीं है , सत्य जैसा प्रतीत हो रहा है -वह क्या है ; और फिर उस मिथ्या वस्तु की तरफ (मगरमच्छ की तरफ) दौड़ना हम बंद कर देते हैं। अर्थात जब हम सत्य-छाया विवेक करने बाद , छाया को पकड़ने का प्रयास करना बंद कर देते हैं , तब उसके बाद ही सत्य में (ईश्वर में -ब्रह्म में -आत्मा में-शिव में) प्रतिष्ठित होने का प्रयास तब से शुरू होता है। (38:31) और जितना अधिक हम सत्य में प्रतिष्ठित होते जायेंगे , उतना ही अधिक हम देखेंगे कि हमारा जीवन जिस सत्य वस्तु की खोज में लगा हुआ है , वह वस्तु उस जगत में (स्त्री-परुष प्रेम/आसक्ति ? में) कहीं नहीं मिलने वाला, जो सत्य जैसा प्रतीत हो रहा है; वह तो प्रेम नहीं है, स्वार्थ पूर्ण काम-वासना है। जो छाया है पर सत्य सा प्रतीत हो रहा है , उसको पकड़कर जीवन व्यतीत करते रहना -और सुखी होने की आशा करना, बिल्कुल उसी प्रकार है , जिस प्रकार वह किसान मगरमच्छ को लट्ठा समझकर , उस पर बैठकर नदी पार करने की आशा कर रहा था। इसका मतलब है कि वह आशा -अपेक्षा कभी पूरी नहीं होगी, असंभव है। तो ये विवेक की परिभाषा है। आगे चलकर भगवान शंकराचार्य जी हमें बहुत सुंदर ढंग से बताएंगे कि संस्कृत में विवेक की असली परिभाषा क्या है ? इसीलिए विवेक-को मुकुटमणि कहा गया है, चूड़ामणि कहा गया है। क्योंकि विवेक हमारे जीवन की वह सबसे प्रधान योग्यता है , जो सभी मनुष्यों के अंदर है - सबके अंदर वो विवेक है लेकिन सुप्त अवस्था में है। आज हमारे अंदर का विवेक जाग्रत नहीं है , क्योंकि इस विवेक को जगाने की पद्धति हमारे शास्त्रों में है और भारतीय संस्कृति के गुरु-शिष्य परम्परा में है। (39:54) जब हम आदिगुरु शंकराचार्यजी द्वारा रचित शास्त्र विवेक-चूड़ामणि का अध्यन करेंगे, विधिवत इसका श्रवण-मनन और निदिध्यासन करेंगे, तब हम स्पष्टता से यह देखना शुरू कर देते हैं कि सत्य क्या है , और सत्य सा प्रतीत हो रहा है , लेकिन वह सत्य नहीं है ; सत्य की छाया मात्र है ! और यह विवेक जितना अधिक 'functional' होता है, हमारे व्यवहार में कार्यात्मक होता है, विवेक जीवन में जितना प्रयोगात्मक होता जाता है, उतना ही हमारा जीवन भी परिवर्तित होता जाता है। You will see it's a life transforming kind of development ! आप को यह महसूस होगा कि इस 'विवेक-प्रयोग योग्यता" को जितना अधिक हम functional या कार्यात्मक बनाते हैं; हमारे जीवन में उतना विकास होने लगता है , हमारे व्यवहार में परिवर्तन होने लगता है। और जब यह विवेक सक्रिय हो जाता है, क्रियाशील हो जाता है, तो मानव जीवन में चरित्र के सभी सर्वोत्तम गुण आने लगते हैं! जीवन में हम जो भी सर्वोत्तम वस्तुऍं चाहते हैं, वे सब विवेक नामक इस अद्भुत क्षमता के सक्रियण से आने लगती हैं! And when this " विवेक" conscience (अतंरात्मा-ज़मीर ) becomes active or becomes functional, then all the best qualities of character start coming into human life. (40:26) All the best thing , that we are actually seeking in life comes out of the activation of this amazing faculty called VIVEKA !
अब इस विवेक-चूड़ामणि ग्रंथ के श्लोकों पर चर्चा करने से पहले हमें यह समझ लेना चाहिए कि इस शिविर की जितनी भी अवधि है , यहाँ से जाते वक्त आप क्या ले जाओगे ? आज ही कह देता हूँ, कोई जादू नहीं होने वाला है। लेकिन जब आप यहाँ से लौटोगे तो आपको एक नई दृष्टि मिल जाएगी। अगर आप सही रूप से इसको ग्रहण करोगे , स्वीकार करोगे -तो आपकी दृष्टि बदल जाएगी। वो जो अविवेक-आधारित पुरानी दृष्टि थी , उसके जगह पर एक नई दृष्टि आपको मिल जाएगी। जोविवेक आधारित दृष्टि होगी , जो सत्य आधारित दृष्टि होगी। और वह दृष्टि आपके जीवन को सही दिशा में ले जाएगी। इसलिए यह विवेक दृष्टि खुल जाना बहुत महत्वपूर्ण बात है; क्योंकि यदि आपको अपने जीवन को सही दिशा में ले जाना हो , तो आपके पास सही दृष्टि होनी चाहिए। So it's a very important thing, if your life has to go in the right direction, you need to have the right vision . अगर आपका vision ही गलत होगा, तो आपका direction सही होगा क्या ? आपको जब गलत ही दिखाई दे रहा है , आपको जब मगरमच्छ लट्ठा दिखाई दे रहा है , तो आपका जीवन सही दिशा में जायेगा ? जब तक आप मगमच्छ को लट्ठा समझते हो आपके जीवन की दिशा एक प्रकार की होगी। जब आपकी दृष्टि में स्पष्टता आएगी , जब आप समझ जाओगे कि ये लट्ठा नहीं , मगरमच्छ है तो उस सत्य दृष्टि ,या स्पष्ट vision - के द्वारा आपका जीवन के सही दिशा में जाने की शुरुआत हो जाएगी ! (42:24) So the direction of the life must be in right direction, इसलिए जीवन की दिशा सही दिशा में होनी चाहिए। जीवन को सही दिशा में ले जाना ,सही दृष्टि पर- विवेक-दृष्टि पर निर्भर करती है !That right direction depends upon right vision ! जब आपको शास्त्र प्रदत्त सही दृष्टि , विवेक-चूड़ामणि द्वारा प्रदत्त विवेक-दृष्टि प्राप्त होगी , हमारे ह्रदय के अंदर , मन के अंदर सम्यक दर्शन का बीज , सही दृष्टि का बीज बोया जायेगा। इस बीज का फल यह होगा कि आप आगे चलकर जगत को सही रूप में देखोगे। आप जब सही दृष्टि से देखोगे तो आपका आचरण भी सही दिशा में होगा। नहीं तो हमारा आचरण , हमलोग सब भटके हुए हैं ,जब तक आप छाया को सत्य समझकर चल रहे हो , तब तक आप उस व्यक्ति की तरह हो जो उस अंधकूप में है , जिसकी कोई तली है ही नहीं ! (43:18)
इन्द्रियों से जो जगत दिख रहा है, वो इन्द्रियाँ ही हैं। यदि इन्द्रियाँ न हों -तो भी आप रहोगे पर जगत नहीं होगा। इस प्रकार यह नाम रूपात्मक जगत जैसा दिख रहा है -वो वैसा नहीं है। कुछ सुन्दर -सुन्दर वस्तु देखते हैं , अत्यंत सुन्दर रूप देखकर, इस जगत से कुछ पाने की आशा में आजीवन दौड़ते रहने से भी -तृप्ति नहीं होती। शरीर बूढ़ा हो जाता है, इन्द्रियाँ शिथिल हो जाती हैं, और मृत्यु का समय-जाने का समय हो जाता है। इसको ऐसे समझें - कल्पना करें कि आप किसी 'अंधे कुँए ' में गिर रहे हैं। सच में नहीं गिर रहे हैं - पर कल्पना करें ,समझने के लिए तो उसमें क्या हर्ज है ? और वह कुँआ ऐसा है जिसकी तली ही नहीं है - आप गिरते जा रहे हैं , पता नहीं कितनी गहराई - कितने समय तक ? कई जन्मों से गिरते चले जा रहे हैं ? जो गुरु चेतावनी देते हैं , उन गुरुओं के वचनों को सुनना ही श्रवण है , श्रवण करके मौन होकर उस पर मनन करने से - निदिध्यासन या ध्यान स्वतः होगा , फिर समाधि में विवेकज-ज्ञान हो जायेगा। जीवन बदल जायेगा , जगत को देखने की दृष्टि ही बदल जाएगी। श्रवण -मनन-निदिध्यासन से हमारे जीवन में अवश्य परिवर्तन होने लगेगा। इसलिए मनुष्य बनने की सबसे प्रधान योग्यता-विवेक है ! लेकिन अधिकांश मनुष्य तो विवेक-दृष्टि से सोया हुआ है, अविवेकी है !
इन्द्रियाँ ही जगत हैं , तो हमें उस अवस्था में हमें पहुँचना है जहाँ आप हो लेकिन इन्द्रियाँ नहीं हैं। आज हम लोग अपने को इन्द्रियों से जोड़कर ही सब कुछ को सत्य समझ रहे हैं। इन्द्रियाँ हमें भ्रमित कर रहीं हैं। इन्द्रियों में ही डूबे रहना- उसी प्रकार है जिस प्रकार कोई व्यक्ति का ऐसे कुँए में गिर रहा है जिसका कोई तल ही न हो। नव द्वार वाले स्थूल शरीर के बहिर्मुखी इन्द्रियों में डूबे रहना उस अंधकूप में या तलहीन गड्ढे में गिरने के समान है ,जिसमें गिरने वाला वो व्यक्ति कहीं पहुँचता ही नहीं है। ये जन्म खत्म हो जायेगा , दूसरा जन्म होगा - जीवन-मृत्यु का ये चक्र चलता ही रहता है। इसी समय युवावस्था में ही हमें विवेक में जग जाना होगा। नहीं तो बिना तली वाले गड्ढे में गिरने के समान -पुनरपि जननं पुनरपि मरणं चलता जायेगा। आजीवन दौड़ते रहते हो - पहुँचते कहीं नहीं हो। इन्द्रियाँ ही तो जगत है। यदि इन्द्रियाँ नहीं हों , तो क्या यह जगत रहेगा? पर आप हमेशा हो ! मोह मुद्गर भांजते रहो - भज गोविन्दं -भज गोविन्दं ! सत्य को जानो ! सत्य को जानो। विवेकी बनो , सत्य को जानो , जन्म-मृत्यु चक्र से बाहर निकलो। (44.31)
70 -80 की उम्र में भी गोवा-यूरोप घूमने वाले से पूछो - क्या मिला ? ये सुंदर आल्प्स पर्वत श्रेणी सत्य सा दीखता है , सत्य है ही नहीं -हिमालय पर्वत श्रेणी पर बने 6000 फिट की ऊँचाई पर बसे अद्वैत आश्रम मायावती को देखकर जीवन की सच्चाई को समझो। जगत की वस्तुएं सत्य सी दिखती हैं - पर नश्वर हैं। इसको ठीक-ठीक श्रवण करें तो एक नई दृष्टि मिल जाएगी। बाल्य अवस्था जैसे खत्म हो गयी, ये यौवन है -पर यौवन को भी खत्म होने में कितना मिनट लगता है ? दो मिनट लगता है - फिर वार्धक्य आ जाता है -इसीप्रकार जीवन बीतता रहता है। इन्द्रियग्राह्य जगत को सत्य समझकर जीना उसी प्रकार के अंधे कुएँ में गिरने के समान है जिसका कोई तल है ही नहीं। (45.33)
इस दिशा में गिरने का कोई अंत है क्या ? सोचकर देखिये। आपकी उम्र कम है , लेकिन यह यौवन तो सिर्फ दो दिनों में खत्म हो जायेगा। बाल्य अवस्था खत्म हो गयी। आज यौवन है, इस यौवन को खत्म होने में कितना मिनट लगता है ? दो मिनट में यौवन खत्म हो गया फिर वार्धक्य आ जाता है। और हम अपूर्ण ही मर जाते हैं। इसलिए -
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्,
गोविन्दं भज मूढ़मते।
संप्राप्ते सन्निहिते काले,
न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे॥१॥
भज गोविन्दं !भज गोविन्दं !भज गोविन्दं ! का अर्थ है -सत्य को जानो ! सत्य को जानो ! सत्य को जानो ! भज गोविन्दं ! इसीलिए बच्चों सत्य को जानो , विवेकी बनो। यह जान लो कि सत्य क्या है , और क्या सत्य सा प्रतीत हो रहा है ? इस विवेक को जानकर अपने जीवन को सही दिशा में ले जाओ। सत्य को जानो ! सत्य को जानो !सत्य को जानो ! सत्य को जानकर के इस जीवन-मृत्यु के चक्र से बाहर निकलो। (44:52) इस मानव-जन्म को सार्थक करने की शुरुआत ,जीवन-मृत्यु के चक्र से बाहर निकले की शुरुआत, इस अंधे कुँए से बाहर निकलने की शुरुआत 'विवेक' से ही होगी। इसीलिए विवेक को चूड़ामणि कहा गया है। इतना कहकर हमलोग अब विवेक-चूड़ामणि ग्रंथ का पाठ शुरू करते हैं। जितने भी आध्यात्मिक ग्रंथ होते हैं , उसीकी शुरुआत मङ्गलाचरण से होती है , यह हमारी परम्परागत अध्यन -परम्परा है। अर्थात जिस चीज का हमलोग अध्यन करने का प्रयास कर रहे हैं , उसका अंत मंगलमय हो। हमारा जो प्रयास है , वो विघ्नरहित हो। इस अध्यन में कोई विघ्न न आये, इसलिए हम लोग ईश्वर का स्मरण कर रहे हैं। हम किसी भोग वस्तु का स्मरण तो नहीं कर रहे हैं। मंगलाचरण में क्या हम किसी भोग के विषय का स्मरण करते हैं क्या ? ईश्वर यानि जो सत्य वस्तु है , जो वास्तविक रूप में है। हमें अब इन्द्रियग्राह्य भोग की वस्तुओं का स्मरण नहीं करना है। ईश्वर क्या है, जो सत्य वस्तु है (जो त्रिकाल अबाधित है) वह ईश्वर है ! विवेक-चूड़ामणि के मंगलाचरण में हम ईश्वर या इन्द्रियातीत सत्य का स्मरण कर रहे हैं, जो वास्तविकता में विद्यमान है, हम उसका स्मरण कर रहे हैं, जो त्रिकाल अबाधित है।
'त्रिकालाबाधित्यत्वं सत्यत्वम् ।'
वह त्रिकाल अबाधित हो; देश अबाधित हो । काल अबाधित, देश अबाधित और रूप अबाधित हो। जब अँगूठी बन गई, तो नथनी बाध हो गई। जब नथनी बन गई तो अँगूठी का बाध हो गया; लेकिन, सोना अबाधित है। क्या अँगूठी हो जाए, तो सोना नहीं रहता ? क्या जग जाए, तो साक्षी नहीं रहता? क्या सो जाए, तो साक्षी नहीं रहता? क्या स्वप्न में साक्षी नहीं रहता ? सुषुप्ति में क्या होता है ? सुषुप्ति में, स्वप्न और जाग्रत नहीं रहते। जाग्रत में, स्वप्न और सुषुप्ति नहीं रहती । स्वप्न में जाग्रत और सुषुप्ति नहीं रहती ।
सब, एक दूसरे के विरोधी हैं। लेकिन, इन सब में साक्षी किस समय नहीं रहता ? साक्षी हर समय रहता है, हर अवस्था में रहता है और सबमें रहता है। क्या वह तुममें नहीं रहता ? क्या वह हममें नहीं रहता ? मूर्ख में तो वह बिलकुल ही नहीं रहता होगा ? साक्षी सबमें रहता है; उसे रखना नहीं पड़ता ।
क्या सोना किसी गहने में रखा जाए, तब रहेगा ? सोना तो हर गहने में रहता ही है। वह किसी के बिना रखे भी रहता ही है। कोई और रहे, चाहे न रहे; उसे तो रहना ही पड़ेगा। इसलिए, जो साक्षी स्वरूप को ठीक से पहचानते हैं, वे मुक्त हैं। साक्षी का ज्ञान होना आवश्यक है। कोई भी जीव, जब तक अपने को साक्षी नहीं जान लेता; कोई भी व्यक्ति, जब तक अपने को साक्षी नहीं जानता; तब तक वह अपने को विकार से मुक्त नहीं पाता ।[-साभार :https://www.sadhanapath.in/2025/01/1_16.html]और ये जो दिखाई दे रहा है , वो सत्य सा प्रतीत हो रहा है -पर भ्रम है। छाया मात्र है। उस सत्य वस्तु या ईश्वर की प्राथना क्यों करें ? क्योंकि ईश्वर या परम् सत्य की अनुग्रह के बैगर सत्य वस्तु को अविष्कृत करने के प्रयास में सफल नहीं हो सकता। उसको अगर इस प्रयास में सफल होना हो तो ईश्वर के अनुग्रह की अत्यंत आवश्यकता है। ईश्वर का अनुग्रह अनिवार्य है , इसके बगैर कोई भी इस सत्य दृष्टि या विवेक-दृष्टि पाने के प्रयास में सफल नहीं हो सकता। उसको हमलोग मंगलाचरण कहते हैं। आप लोग मेरे पीछे -पीछे चैंट कर सकते हो। (47:00 )
"सर्व वेदान्त सिद्धान्त, गोचरं तमगोचरं ।
गोविन्दं परमानन्दं, सद्गुरुं प्रणतोऽस्म्यहम् ॥ १ ॥"
1. मैं उन गोविन्द को नमस्कार करता हूँ, जिनका स्वरूप परम आनन्द है, जो सद्गुरु हैं, जिन्हें समस्त वेदान्त के अर्थ से ही जाना जा सकता है, तथा जो वाणी और मन की पहुँच से परे हैं।
1. I bow to Govinda, whose nature is Bliss Supreme, who is the Satguru, who can be known only from the import of all Vedanta, and who is beyond the reach of speech and mind.
यह मंगलाचरण आदि शंकराचार्य द्वारा रचित प्रसिद्ध ग्रंथ विवेक-चूडामणि का प्रथम श्लोक है, जो उन्होंने अपने गुरु भगवान गोविन्दपाद को समर्पित किया है। इस श्लोक के माध्यम से वे केवल अपने गुरु को प्रणाम नहीं करते, बल्कि उस परम सत्य के स्वरूप का भी वर्णन करते हैं, जिसे वेदांत शास्त्रों के मर्म के रूप में जाना जाता है।
"तम अगोचरम्" — यह शब्द दर्शाता है कि वह परमात्मा या गुरु सामान्य ज्ञानेंद्रियों द्वारा जानने योग्य नहीं हैं। अर्थात, वह परम तत्व ऐसा है जिसे इंद्रियों, मन या बुद्धि के माध्यम से जाना नहीं जा सकता। वह हमारे लौकिक अनुभवों की सीमा से परे है। इस संसार में जो कुछ भी हम देखते, सुनते, छूते, सूंघते या स्वाद लेते हैं, वह सब इंद्रियगोचर है, परंतु परमात्मा उन सबसे परे है।
"सर्ववेदान्तसिद्धान्तगोचरम्" — यद्यपि वह इन्द्रियों से अज्ञेय है, फिर भी वह वेदांत के सिद्धांतों के माध्यम से जाना जा सकता है। इसका अर्थ है कि वेदांत, विशेषतः उपनिषद, ब्रह्मसूत्र और भगवद्गीता जैसे ग्रंथों द्वारा जिस परम ब्रह्म का निरूपण किया गया है, वही तत्व है जिसे गुरु के माध्यम से जाना जा सकता है। उपनिषदों में बताया गया "सत्यं ज्ञानं अनन्तं ब्रह्म", "नेति नेति", "अहं ब्रह्मास्मि", "तत्त्वमसि" आदि महावाक्य उसी ब्रह्म की ओर संकेत करते हैं।
"गोविन्दं परमानन्दं सद्गुरुं" — आदि शंकराचार्य यहाँ अपने गुरु गोविन्दपाद की स्तुति करते हैं, जो उस परमानन्द स्वरूप ब्रह्म के साक्षात् प्रतिनिधि हैं। "परमानन्द" का तात्पर्य उस आनन्द से है जो आत्मा के ज्ञान में स्थायी रूप से स्थित होता है, जो किसी बाह्य वस्तु पर निर्भर नहीं करता। गुरु न केवल उपदेशक हैं, बल्कि वे स्वयं उस परमानन्द के मूर्तिमान स्वरूप हैं। वे स्वयं ब्रह्मनिष्ठ होकर शिष्य को उस ज्ञान की ओर ले जाते हैं।
"प्रणतोऽस्म्यहम्" — इस वाक्य में श्रद्धा, समर्पण और विनम्रता की चरम अभिव्यक्ति है। आदि शंकराचार्य कहते हैं कि मैं उन गुरु को प्रणाम करता हूँ। यह प्रणाम केवल शारीरिक नहीं, बल्कि अंतरात्मा से किया गया आत्मसमर्पण है। गुरु के प्रति यह कृतज्ञता उस गुरु-शिष्य परंपरा का भी स्मरण कराती है, जिसके माध्यम से ब्रह्मविद्या जीवित रही है।
निष्कर्षतः, यह श्लोक न केवल एक असाधारण स्तुति है, बल्कि यह दर्शाता है कि आत्मज्ञान की प्राप्ति में गुरु का क्या स्थान है। गुरु वही हैं जो शास्त्रों के गूढ़ अर्थ को जानते हैं और अपने अनुभव द्वारा शिष्य को भी उसी आत्मबोध में स्थित करते हैं। ऐसे सद्गुरु को प्रणाम कर शिष्य ज्ञान-मार्ग पर आगे बढ़ता है — यह वेदांत की परंपरा की मूल भावना है। /https://shlokam.org/texts/vivekachudamani-1-1/]
तो सद्गुरुं प्रणतोऽस्म्यहम् -'सद्गुरुं प्रणतो अस्मि' अर्थात मैं उस गुरु को प्रणाम करता हूँ। ये गुरु कौन हैं ? गोविन्दं परमानदं ! और वो सत्य वस्तु कैसा है ? वो सच्चिदानन्द है , परमानन्द है। जिसके विषय में आज हमें ज्ञान नहीं है। जिसको जानने के लिए ही मनुष्य जीवन प्राप्त हुआ है। मनुष्य जीवन का मुख्य उद्देश्य उस सच्चिदानन्द को जानना है , जो परम् वस्तु है। गोविन्द शब्द से क्या लक्षित हो रहा है? उसी सच्चिदानन्द, ब्रह्म , परमात्मा को गोविन्द शब्द से लक्षित किया गया है। सत्य वस्तु को ही हम गोविन्द नाम से पुकारते हैं। इसका दूसरा अर्थ है आचार्य शंकर के गुरु का नाम भी गोविन्द-पादाचार्य था। तो गोविन्द का दो अर्थ हुआ -एक ईश्वर और दूसरा गुरुदेव। इस आरंभिक श्लोक में, भगवान (गोविंद) या गुरु को उनके पूर्ण स्वरूप में नमस्कार किया गया है।
यह जानना रोचक होगा कि आचार्य शंकर के गुरु का नाम आचार्य गोविंदपाद था, और यह श्लोक इस प्रकार रचा गया है कि दोनों अर्थों को स्वीकार किया जा सकता है। वास्तविक रूप में भी ईश्वर ही गुरु बन कर आते हैं। ईश्वर की गुरुशक्ति जब किसी मनुष्य के भीतर से कार्य करती है , तो उस मनुष्य को भी हम गुरु कहते हैं। किन्तु गुरु बनने की योग्यता सब में नहीं होती। यहाँ भगवान शंकर गोविन्द शब्द का प्रयोग करके, परम् सत्य सच्चिदानन्द को भी प्रणाम करते हैं और अपने गुरु को भी। हमलोगों को जगत ही सत्य दिखाई देता , ईश्वर या सत्य कहीं नहीं दीखता। इस सत्य को जानने के लिए जो श्रवण किया जाता है , उसीको स्वाध्याय कहते हैं। या आत्मविचार - मैं कौन हूँ ? या कहें मैं क्या हूँ ? इसीको Self Enquiry कहते हैं। मेरा असली स्वरुप क्या है , और इन्द्रियों से जो यह विश्व-प्रपंच दिखाई दे रहा है - इसका असली स्वरुप क्या है ? इसको जानना ही हमारे जीवन का परम उद्देश्य है।
उस परमसत्य सच्चिदानन्द , ब्रह्म को जानेंगे कैसे ? उसके लिए आचार्य शंकर एक अकाट्य सिद्धांत हमारे सामने रखते हैं --आत्मसाक्षातकर करना या ईश्वरलाभ करना इसका मतलब क्या है? पहली ही पंक्ति में लिखते हैं, पहला सिद्धांत है - यह ब्रह्म अगोचरं ! "जो सत्य या ईश्वर सभी वेदान्त सिद्धांतों का विषय है, फिर भी वह अगोचर है - यानि इन्द्रियों से परे है। " उस सत्य वस्तु को , आत्मा या ईश्वर को उसको इन्द्रियों से जाना नहीं जा सकता। एथेंस का जो सत्यार्थी सत्य की खोज में - लगा हुआ है ; उसको आचार्य शंकर शुरू में ही बता देते हैं कि वह इन्द्रियों से परे है। 'तम् अगोचरम्' इसका अर्थ है कि वह (गोविन्द) इंद्रियों और मन की पहुँच से परे है, यानी उसे प्रत्यक्ष रूप से अनुभव या व्यक्त नहीं किया जा सकता है। इसका अर्थ यह भी है कि इस परम सत्य को केवल सद्गुरु के मार्गदर्शन से ही जाना जा सकता है। फिर प्रश्न उठता है - उस सत्य को हम जानेंगे कैसे ? उसका अनुभव कैसे करेंगे? सर्ववेदान्तसिद्धान्तगोचरं - वेदांत या सभी उपनिषदों का जो सिद्धान्त- यानि सिद्ध अंत -Conclusion, निष्कर्ष ,chapter closed है (महावाक्य है-तत्वमसि ) उसके द्वारा गोचर है। ये ऋषियों का सिद्धान्त है - ऋषियों की अनुभूति क्या सिद्धान्त है ? वो सिद्धान्त है- 'तत्वमसि' ! (55.47)
तुम जो अपने आप को समझ रहे हो - देहधारी स्त्री या पुरुष , वह तुम नहीं हो। आप जब अपने गुरु के मुख से यह वाक्य सुनोगे - तत्वमसि ! श्रवण किसे कहते हैं ? हमने श्रवण की संस्कृत परिभाषा में सुना था - तात्पर्य अवधारणं - इसको श्रवण कहते हैं ! अतीन्द्रिय सत्य की अनुभूति करने की प्रक्रिया है - श्रवण-मनन निदिध्यासन !गुरु और शास्त्र के निर्देश के अनुसार जब हमारे मन का व्यापर चलता है ,साधारण अविवेकी मनुष्य के मन का व्यापार क्या है ? वो विषयों के पीछे पीछे दौड़ता है। कभी कामिनी के बारे में सोचेगा , कभी कांचन के बारे में सोचेगा , तो कभी नाम-यश के बारे में सोचेगा। लेकिन अतीन्द्रिय प्रक्रिया सत्य को अनुभव करने की प्रक्रिया एक विशिष्ट प्रकार के मन का व्यापार है , जिसके द्वारा साधक बाह्य इन्द्रिय विषयों से विमुख होकर के -अंतर्निहित सत्य वस्तु की ओर प्रस्थान करता है। अब वो साधक उसी मन के व्यापार द्वारा - उसी मन के अतीत चला जाता है , क्योंकि वो सत्य वस्तु जो है - वो मन के भी अतीत है ! कब ? इसी श्रवण-मनन निदिध्यासन वाला मानसिक क्रिया , सतत प्रवाह : सोहं -सोहं - सोहं -सोहं - सोहं -सोहं - सोहं -सोहं -यह ध्यान जब तैल धारवत हो जाएगी, तब समाधि में जाकर आप अपने स्वरुप को जान जाओगे। (58.07) इस प्रकार गुरु-निर्दिष्ट पद्धति से और ईश्वर के अनुग्रह से जो सत्य वस्तु मन के भी अतीत है , वो गोचर होता है - अनुभव गम्य होता है।
तो मंगलाचरण की पहली ही पंक्ति में भगवान शंकराचार्य जी एक बहुत बड़े आध्यात्मिक सिद्धांत को हमारे सामने रख देते हैं। वे कहते हैं देखो भाई वो जो सत्य वस्तु है , उसको कभी भी इन्द्रियों के द्वारा जाना नहीं जा सकता है। गुरु और शास्त्र के शब्दों के पीछे -पीछे जब हमारा मन चलने लगता है , तब वह धीरे धीरे मन के भी अतीत जाकर उस वस्तु को अनुभव किया जाता है। ये सिद्धांत है - सर्ववेदान्तसिद्धान्तगोचरं - गोविन्दं परमानन्दं सद्गुरुं प्रणतोऽस्म्यहम् ॥ १ ॥" अर्थात यह समझ लो कि जो परमसत्य , ईश्वर या भगवान है - जो नाम दो , वो हमारी इन्द्रियों द्वारा जानने का विषय नहीं है। इन्द्रियातीत है , मन के भी अतीत है - गुरु के शब्दों के पीछे -पीछे चलकर सतत चिंतन प्रवाह में चलते -चलते जब हम गुरु के ही शब्दों से परे चले जाते हैं -इन्द्रियों के अतीत चले जाते हैं , मन के भी अतीत चले जाते हैं , तब अपरोक्ष रूप में हम उस सत्य वस्तु -सच्चिदानन्द की अनुभूति होती है। इस प्रकार उस सत्य की उपलब्धि होती है।
भगवान शंकर की एक दूसरी पुस्तक है -अपरोक्षानुभूति। आपने सुना होगा ? (59.32) मन और इन्द्रियों के अतीत जाने से उसकी उपलब्धि होती है - उसको अपरोक्षानुभूति कहते है।होती इन्द्रियगत जो भी अनुभूतियाँ होती हैं , वो सब प्रत्यक्ष अनुभूति ही होती है। जिसको हमलोग परोक्ष कहते हैं। इन्द्रियों से हम कुछ भी समझ रहे हैं , वह सब इन्द्रियों से जो कुछ हम देख रहे हैं वो छाया रूप है, आभास रूप ही है -पर्दे पर फिल्म चल रहा है पकड़ने जायेंगे तो पर्दा ही पकड़ाय गा। इस विषय पर आपको गहराई से सोचना होगा। क्यूंकि आज तो हमको यह जगत एक दम सत्य जैसा ही प्रतीत हो रहा है ? हम इसको छाया कैसे समझें ? हम लोग जब तक मगरमच्छ को लक्क्ड़ का लट्ठा समझ रहे हैं तब तक खतरा बना हुआ है। आशा की पूर्ति कभी नहीं होती - पूर्णता या तृप्त इन्द्रियगोचर वस्तुओं से कभी हो नहीं सकती। हमने इस जगत को वह समझ लिया है जैसा वो नहीं है। यह जगत एकमेवाद्वितीय ब्रह्म के सिवा और कुछ नहीं है , किन्तु हमें ब्रह्म नहीं दीखता केवल जगत एकदम सत्य के जैसा दीखता है।
निष्कर्षतः, यह श्लोक न केवल एक असाधारण स्तुति है, बल्कि यह दर्शाता है कि आत्मज्ञान की प्राप्ति में गुरु का क्या स्थान है। गुरु वही हैं जो शास्त्रों के गूढ़ अर्थ को जानते हैं और अपने अनुभव द्वारा शिष्य को भी उसी आत्मबोध में स्थित करते हैं। ऐसे सद्गुरु को प्रणाम कर शिष्य ज्ञान-मार्ग पर आगे बढ़ता है — यह वेदांत की परंपरा की मूल भावना है।
जो विषयों से विमुख होकर हमें मन के परे चले जाना है। सत्य वस्तु इन्द्रियों का विषय नहीं गुरु के शब्दों के पीछे पीछे जब हमारा मन चलने लगता है - ध्यान के बाद समाधि में उस इन्द्रियातीत सत्य की अनुभूति हो जाती है।
(1:01: 20 मिनट) पहले ही दो श्लोकों में भगवान शंकराचार्यजी मानव शरीर की महिमा बता रहे हैं - जान लो कि तुम लोग कहाँ बैठे हो ? हमलोग यह समझते ही नहीं है कि मनुष्य शरीर में जन्म लेने का क्या महत्व है ? मनुष्य शरीर अन्य जीवजंतुओं के शरीर से भिन्न क्यों है ? हमें पता ही नहीं है। देवदुर्लभ मनुष्य-शरीर में बैठे हो। कुत्ते -बिल्ली के शरीर में बैठे रहते तो यह वेदान्त चर्चा का श्रवण करना सम्भव नहीं होता। गाय -भैंस के लिए जो इन्द्रियों से दिखाई देता है -वो घाँस ही सत्य है। 'चारा खा जाना' ही सत्य है। सुन मैया मैया मेरी मैं नहीं चारा खायो !
सिर्फ मनुष्य में ही यह गोग्यता या क्षमता है कि वो जान सकता है कि सत्य क्या है ? और सत्य के जैसा क्या भास रहा है ? ये विवेक केवल मनुष्य शरीर में ही सम्भव है। इसलिए बच्चों इस देवदुर्लभ मानवशरीर के महत्व को समझो। मानवशरीर का मिलना एक अवसर है - यदि परम् सत्य को नहीं खोज रहे हैं , तो हम बहुत बड़ा अवसर खो रहे हैं। अगले जन्म में कौन सा शरीर प्राप्त होगा ? इसके विषय में कोई नहीं कह सकता। मनुष्य जीवन का उद्देश्य जानो , और उसी कार्य के लिए उसका उपयोग करो। अगला शरीर क्या मिलेगा -कोई नहीं जानता। (जड़भरत की कथा प्रासंगिक होगा ?) (1:05:00)
जन्तूनां नरजन्म दुर्लभमतः, पुंस्त्वं ततो विप्रता,
तस्माद्वैदिकधर्ममार्गपरता, विद्वत्त्वमस्मात्परम् ।
आत्मानात्मविवेचनं स्वनुभवो, ब्रह्मात्मना संस्थितिः
मुक्तिर्नो शतजन्मकोटिसुकृतैः, पुण्यैर्विना लभ्यते ॥ २ ॥
जीवों को प्रथम तो मनुष्य जन्म प्राप्त करना दुर्लभ है, और उससे भी अधिक कठिन है नर-देह का प्राप्त होना; उससे भी दुर्लभ है ब्राह्मणत्व; उससे भी दुर्लभ है वैदिक धर्म के मार्ग का अनुगामी होना; उससे भी अधिक दुर्लभ है शास्त्रों का ज्ञान ; आत्मा और अनात्मा का विवेक, जड़-चेतन या शाश्वत-नश्वर विवेक , आत्मसाक्षात्कार और ब्रह्म के साथ तादात्म्य में स्थित रहना - ये तो करोड़ों जन्मों में किये पुण्य से क्रमशः आते हैं। (इस प्रकार की) मुक्ति सौ करोड़ जन्मों के पुण्यों के बिना प्राप्त नहीं होती।
ब्रह्मात्मना संस्थितिः अर्थात् आत्मा की ब्रह्म में दृढ़ स्थिति—आध्यात्मिक साधना की चरम अवस्था मानी जाती है। यह वह स्थिति है जहाँ साधक आत्मा और ब्रह्म की एकता को केवल शास्त्रों और गुरुवाक्य से नहीं, अपितु प्रत्यक्ष अनुभव से जान लेता है और उसी में स्थिर हो जाता है। ऊपर दिए गए श्लोक में शंकराचार्यजी इस ब्रह्मात्मना संस्थितिः (ब्रह्मनिष्ठा) की प्राप्ति को अत्यंत दुर्लभ बताते हैं और इसकी ओर पहुँचने के क्रमिक सोपानों को दर्शाते हैं।
श्लोक के अनुसार सबसे पहले नरजन्म ही दुर्लभ है। 84 लाख योनियों में भटकने के बाद जब जीव को मानव शरीर प्राप्त होता है, तब वह धर्म, ज्ञान और मोक्ष की दिशा में अग्रसर हो सकता है। पशु, पक्षी, कीट-पतंगों में ऐसा विवेक या साधना संभव नहीं। इसलिए मनुष्य जन्म को एक अत्यंत दुर्लभ अवसर माना गया है।
इसके पश्चात मनुष्य में भी पुंस्त्व अर्थात पुरुषत्व प्राप्त करना विशेष माना गया है, क्योंकि प्राचीन भारत में पुरुषों को वेदाध्ययन और तपस्या की अधिक सुविधा प्राप्त थी। इसके बाद आता है विप्रता अर्थात ब्राह्मणत्व। यहाँ ब्राह्मणत्व का आशय केवल जाति से नहीं, अपितु उस शुद्ध, सात्त्विक, धर्मनिष्ठ जीवनशैली से है जो वैदिक धर्म के पालन और आत्मकल्याण की ओर प्रवृत्त करती है।
ब्राह्मणत्व प्राप्त हो जाने के बाद भी वैदिक धर्म में श्रद्धा और निष्ठा होना आवश्यक है। केवल जन्म से ब्राह्मण होना पर्याप्त नहीं, बल्कि शास्त्रों का पालन, यज्ञ, तप, जप, और स्वाध्याय में तत्परता आवश्यक है। फिर भी यह सब कुछ होना भी केवल प्रारंभिक योग्यता है। अगला चरण है विद्वत्ता—शास्त्रों का गहरा ज्ञान, विवेकशील चिंतन और गुरुसेवा के द्वारा आत्मज्ञान की तैयारी।
किन्तु श्लोक यह स्पष्ट करता है कि इतना सब कुछ भी हो जाए तो भी आत्मा और अनात्मा का विवेक, स्वानुभव, ब्रह्म में स्थित रहना और मोक्ष प्राप्त करना सहज नहीं है। यह तो शतकोटिजन्मसु कृतैः पुण्यैः—असंख्य जन्मों के शुभ कर्मों के फलस्वरूप ही संभव होता है। यहाँ शंकराचार्यजी हमें यह समझाते हैं कि ब्रह्मनिष्ठा केवल बाह्य आचरण से नहीं, अपितु गहन तपस्या, पूर्ण वैराग्य, गुरु की कृपा और भगवत्कृपा से ही प्राप्त होती है।
ब्रह्मनिष्ठ साधक उस परम तत्त्व में स्थित हो जाता है जहाँ से कोई भ्रम नहीं रहता, कोई द्वैत नहीं रहता। वह जानता है कि "अहं ब्रह्मास्मि" — मैं ही ब्रह्म हूँ। इस स्थिति में वह न केवल संसार के दुःख-सुखों से परे हो जाता है, अपितु शुद्ध साक्षीभाव में स्थित होकर पूर्ण तृप्ति को प्राप्त करता है।
अतः यह स्पष्ट है कि ब्रह्मनिष्ठा की प्राप्ति एक अत्यंत दुर्लभ, किन्तु सर्वोत्तम उपलब्धि है। यह मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य है, जिसके लिए हमें निरंतर साधना, आत्मविचार और गुरुसेवा में लगे रहना चाहिए। यही वास्तविक मोक्ष का द्वार है।
उपरोक्त श्लोक का प्रथम तीन शब्द ही कितना सुंदर है ? (1:06:14) जंतुनां नरजन्म दुर्लभम्
"दुर्लभं त्रयमेवैतद्देवानुग्रहहेतुकम्।
मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रयः॥3।।
अर्थात् यह तीन बातें अत्यंत दुर्लभ हैं और केवल ईश्वर की कृपा से ही प्राप्त होती हैं — (1) मनुष्यत्व, अर्थात् मनुष्य का जन्म, (2) मुमुक्षुत्व, अर्थात् मोक्ष की तीव्र इच्छा और (3) महापुरुषसंश्रय, अर्थात् किसी महान आत्मज्ञानी पुरुष का संग या उनके सान्निध्य में रहना।
(1) मनुष्यत्व:
संस्कृत साहित्य और वेदांत में मनुष्य-जन्म को अत्यंत दुर्लभ कहा गया है। अन्य योनियों में जैसे पशु, पक्षी, कीट आदि में चेतना तो होती है, परंतु उनमें आत्मचिंतन और विवेक की क्षमता नहीं होती। केवल मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जिसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जैसे पुरुषार्थों की खोज करने की क्षमता प्राप्त है। अतः आत्मा की मुक्त अवस्था को प्राप्त करने का अवसर केवल मनुष्य जीवन में ही मिलता है। इसलिए मनुष्य-जन्म को दुर्लभ बताया गया है।
(2) मुमुक्षुत्व:
मनुष्य-जीवन मिलने के बाद भी यदि उसमें मोक्ष की आकांक्षा न हो, तो वह जीवन व्यर्थ हो जाता है। संसार में अधिकतर लोग केवल भोग-विलास, धन, पद और परिवार में ही उलझे रहते हैं। जो व्यक्ति इन क्षणभंगुर वस्तुओं में स्थायित्व नहीं खोजता, और इनसे ऊपर उठकर “मैं कौन हूँ?”, “मुझे जन्म क्यों मिला है?” जैसे प्रश्न करता है, और इनका उत्तर पाने के लिए सच्चे हृदय से प्रयास करता है — वही मुमुक्षु कहलाता है। यह स्वभाव भी किसी पूर्व जन्म की साधना और ईश्वर की विशेष कृपा से ही विकसित होता है।
(3) महापुरुषसंश्रय:
चाहे मनुष्य-जन्म हो और मुमुक्षुत्व हो, परंतु यदि किसी सद्गुरु या आत्मज्ञानी महापुरुष का मार्गदर्शन नहीं मिले, तो आत्मज्ञान की यात्रा में बाधाएँ आ सकती हैं। गुरु के बिना यह मार्ग अंधकारमय और भ्रमपूर्ण हो सकता है। एक महापुरुष न केवल साधक की अंतर्यात्रा को दिशा देता है, बल्कि उसे अपने जीवन के उदाहरण से प्रेरित भी करता है। यह संग भी पूर्व जन्मों के पुण्य और भगवत्कृपा का फल होता है।
इस प्रकार यह श्लोक हमें बताता है कि आत्मसाक्षात्कार के मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए तीन प्रमुख बातों की प्राप्ति अनिवार्य है: मनुष्य का जन्म, मोक्ष की तीव्र इच्छा और आत्मज्ञानी गुरु का संग। ये तीनों ही दुर्लभ हैं और ईश्वर की विशेष अनुकंपा से ही मिलते हैं। इसलिए यदि ये तीनों जीवन में प्राप्त हो जाएँ, तो साधक को चाहिए कि वह इस अवसर को व्यर्थ न जाने दे और अपने आत्मकल्याण की दिशा में सच्चे मन से प्रयास करे। यही सच्चा जीवन है और यही मानव-जन्म का परम उद्देश्य भी।[ https://www.sadhanapath.in/2025/05/blog-post_27.html]
(1:06:06) तीन चीजें ऐसी हैं जो सचमुच दुर्लभ हैं और ईश्वर की कृपा से प्राप्त होती हैं - अर्थात् मानव जन्म, मोक्ष की लालसा और किसी सन्त, ऋषि या सिद्ध महात्मा (सदगुरुदेव) की संरक्षणात्मक देखभाल।
ये विवेक जग जाने से हम मगरमच्छ को लकड़ी का कुन्दा समझने का भूल नहीं करेंगे। इन्द्रियविषयों में सुख खोजने के पीछे और कभी नहीं भागेंगे। ये दोनों श्लोक बहुत ही महत्वपूर्ण है , हम लोग अगले स्तर में इस पर विस्तार से चर्चा करेंगे। अब नए नए विचार से आप अवगत होने वाले हो। इस शरीर का उपयोग दो तरह से हो सकता है। विवेक का अर्थ है - सत्य -मिथ्या को स्पष्ट समझ लेना। साधरण मनुष्य इन्द्रियों के भोग में ही सुखी हैं। पर भोगों से कभी सुख हुआ क्या? अतृप्ति से ऊपर कैसे ऊपर उठेगा ? विवेक का जीवन - लट्ठा नहीं है मगरमच्छ है। तब आपका आचरण बदल जायेगा। इसीलिए विवेक को मुकुटमणि या चूड़ामणि कहा गया है।
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⚜️️🔱विवेक-चूड़ामणि सार ⚜️️🔱Vivekachudamani Saar |Session-4 (स्वामी शुद्धिदानन्द, अद्वैत आश्रम , मायावती) https://www.sadhanapath.in/search?updated-max=2025-05-29]
⚜️️🔱विवेक यानि स्पष्टता⚜️️🔱
परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं,
निरीहं निराकारमोङ्कारवेद्यम्।
यतो जायते पाल्यते येन विश्वं,
तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम्॥५॥
ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु।
सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥
ॐ शांति, शांति, शांतिः
विगत सत्र में हमने देखा था कि श्रवण क्या है, मनन क्या है , और निदिध्यासन क्या है। तो हमें शास्त्र से और गुरु के माध्यम से हमें यह समझ में आता है कि सत्य वस्तु क्या है ? और फिर उस आज्ञा के अनुसार जब मन का व्यापार चलने लगता है , तो हमारे मन को एक नई दिशा मिल जाती है। शास्त्र और गुरु के पास आने से पहले - हमारे जीवन में वह दिशा नहीं थी। शास्त्र और गुरु वाक्य आने से पहले (मंत्र-दीक्षा प्राप्त होने से पहले ?) हमारे मन की दिशा कुछ और ही थी। वो सिर्फ इन्द्रियों के पीछे पीछे भाग रहा था। लेकिन शास्त्र और गुरु मुख से निकले शब्दों से अवगत होने पर , अब मन के व्यापार की जो दिशा है , वो बिल्कुल अलग ही है। अब हमारी युक्ति श्रुति आधारित हो जाती है। गुरु के शब्दों के अनुसार जब हमारी युक्ति चलने लगती है। हमारे जीवन में एक नया उत्थान या development शुरू हो जाता है। और ये जब हमारे जीवन में प्रारम्भ होता है , तो इसकी अंतिम परिणति निदिध्यासन में होता है। निदिध्यासन के द्वारा समाधि में जाने पर आत्मानुभूति होती है। इस अंतिम परिणति या निदिध्यासन के द्वारा हम अपने सत्य स्वरूप जान लेते है। स्वरुप को जानने की ये प्रक्रिया है - श्रवण-मनन-निदिध्यासन! शास्त्र और गुरुवाक्य या श्रुति के पर श्रद्धा के साथ अनुसार जब श्रवण, मनन ,निदिध्यासन हम करते हैं तो हमारे चंचल मन को एक नई दिशा में कार्य करने की समझ मिल जाती है। निदिध्यासन की अंतिम परिणति आत्मानुभूति में होती है। आत्मस्वरूप को जानने की प्रक्रिया यही है -श्रवण, मनन ,निदिध्यासन। (3:54) शंकराचार्य कहते हैं कि इस अज्ञान को केवल आत्मज्ञान के प्रकाश से ही समाप्त किया जा सकता है। यह ज्ञान शास्त्रों के अध्ययन (श्रवण), चिंतन (मनन), और ध्यान (निदिध्यासन) से प्राप्त होता है। गुरु की कृपा से जब शिष्य का मन एकाग्र होता है, तब उसे अपनी असली पहचान, आधारकार्ड वाले पहचान से भिन्न , वास्तविक पहचान का बोध होता है—"अहं ब्रह्मास्मि" (मैं ही ब्रह्म हूँ)।
फिर एक उदाहरण के माध्यम से हमने देखा था कि विवेक क्या है ? अब पूरे सत्र में वो उदाहरण चलता रहेगा। क्योंकि वो हमारे जीवन पर लागु होता है। पहले जिन चीजों को हम अच्छा समझ रहे थे, उन्हें गलत समझ रहे हैं। दो चीजों को सत्य को और छाया को हम इस तरह मिला देते हैं , कि एक को हम दूसरा समझ लेते हैं। जिस प्रकार मगरमच्छ को लट्ठा समझ लिया था। जब हम गलत समझ लेते हैं तो उसका परिणाम भी दुःखद होता है। यह हमारे जीवन से जुडी समस्या है। हर जीवजंतु दुःखी क्यों है ? वो पूर्ण क्यों नहीं है ? (5:09) हम जिस प्रकार से अपने जीवन को बिता रहे हैं, उस प्रकार का जीवन व्यतीत करने से कोई यहाँ पर सुखी क्यों नहीं होता ? बहुतों को लगता है - धनसम्पत्ति बढ़ाते रहने से पूर्णता भी बढ़ती है ? पैसे वाले लोग तो सुखी हैं , आप कैसे कहते हैं कि सुखी नहीं हैं ? यह भी एक विचारणीय प्रश्न है, कि क्या सिर्फ धन प्राप्त करने मात्र से कोई भी मनुष्य सुखी हो जाता है क्या ? ये सब जाँच-पड़ताल (Investigation-खोज) के विषय है। हमें इसका विचार करके खुद इसके -Conclusion या निष्कर्ष पर पहुँचना होगा।
>>तो विवेक क्या है ? शास्त्र के अनुसार चलने से पहले हमारे जीवन की वो दिशा नहीं थी। वो इन्द्रियों के पीछे-पीछे चल रहा था, अब हमारी युक्ति - आत्मानुभूति के द्वारा अपने स्वरुप को जानने की तरफ होती है। मन के लिए यह नया विकास है। हर दिन हमसे यही भूल होती है , दो को मिला देते हैं। एक चीज को दूसरा समझ लेना -उसका परिणाम दुखद ही होता है। कोई भी भी मनुष्य पूर्णता को प्राप्त क्यों नहीं होता ? मगरमच्छ को मोटी लकड़ी का कुन्दा समझ लेते हैं। जगत में पैसे वाले सुखी हैं क्या? जिनके पास अकूत धनसम्पत्ति है तो वे तृप्त और पूर्णता महसूस का रहे हैं क्या ? अब विवेक से स्पष्टता आती है , जब हम मगरमच्छ को जान लेते हैं , लट्ठा नहीं है - समझ लेते है कि सत्य की दिशा में जाये मिथ्या को फिर से सत्य मानकर इन्द्रियों की पीछे दौड़ें ? सत्य को अनुभव करने की प्रक्रिया इन्द्रियातीत होने से होती है। विवेक ही मनुष्य को जीने की सही दिशा प्रदान करता है। शास्त्र और गुरु मुख से श्रवण , मनन और निदिध्यासन करना वह उपाय है जिससे हम जीव और आत्मा के एकत्व की अनुभूति करके अज्ञान के बंधन से मुक्त हो सकते हैं। परमसत्य इन्द्रियातीत है , जब हम मन से भी अतीत चले जाते हैं , तब सत्य की अनुभूति होती है।
विवेक क्या है ? अंतिम रूप से इस निष्कर्ष पर पहुँच जाना - कि हम एक चीज को जब दूसरा समझ लेते है, -छाया को सत्य समझ लेते हैं , तो उसका परिणाम दुःखद ही होता है -यह स्पष्टता से समझ में लेना -दृष्टि ऐसी प्रांजलता ही विवेक है। तो विवेक में क्या होता है ? हमारी धारणा स्पष्ट हो जाती है। जब हमारी दृष्टि में स्पष्टता आती है, और हम मगरमच्छ को मगरमच्छ के रूप में देखते हैं , तो हमारा आचरण और व्यवहार में परिवर्तन होने लगता है। अगर हम एक बार स्पष्ट रूप से मगरमच्छ (पाल) को मगरमच्छ (पाल) समझ लेंगे, तो हम कभी भी उसकी ओर नहीं जायेंगे। (नारद का मायादर्शन: मगरमच्छ को लट्ठा समझने का-मतिभ्रम का सबसे सही उदाहरण नारद ने पानी देने वाली स्त्री रूपी मगरमच्छ को कामिनी-कांचन में आसक्ति वश लट्ठा समझ लिया -कि इससे सुख मिलेगा बाप भी अमीर है -सारा जायदाद भी मेरा होगा?) लेकिन यदि आपकी दृष्टि में स्पष्टता नहीं हो, और राग वश (काम -कांचन में आसक्ति वश) मोहक रूपों को -बुलबुला-बुलबुली को एक दूसरे को आकर्षण की वस्तु समझ रहे हो ; तो यही उदाहरण तुम पर फिट हो जाता है कि तुम मगरमच्छ को लट्ठा समझ रहे हो, और तुम फिर उससे चिपकने उधर जाओगे ही। और उसका परिणाम भी दुखद होता है -देवर्षि नारद को भी नाम-इज्जत सबकुछ गँवाकर विलाप करना पड़ता है। यही हमारे जीवन के साथ भी हो रहा है।(7:02) तो विवेक जाग्रत होने का क्या मतलब है ? दो चीजों के बीच में स्पष्टता -सत्य और छाया , नारद के चिपकने का कारण 'राम से प्रेम' है ? या चिपकने का कारण काम-कांचन में राग है ? [देवर्षि नारद को हँसकर पानी पिलाना ,चादर लपेट देना भी -चिपकने जैसा ?] तो समझ में आया ? विवेक का मतलब है - दो चीजों के बीच में स्पष्टता ! It's a clarity about what is what ? यह स्पष्टता है कि सत्य क्या है , सत्य जैसा प्रतीत क्या हो रहा है? Everything that glitters is not gold ! हर चमकती हुई चीज़ सोना नहीं होती। और विवेक है फिर कभी इस विषय में confuse नहीं करना - या फिर दुबारा कभी भ्रमित नहीं होना। इसीको विवेक कहते है - और इस विवेक को ही चूड़ामणि कहा है - मुकुटमणि कहा गया है , इससे बढ़कर उपलब्ध करने योग्य कोई दूसरी वस्तु है ही नहीं ; अर्थात विवेक ही मानव-चरित्र का सर्वोत्तम गुण है। यह विवेक (विवेकानन्द) ही है जो हमारे जीवन को सही दिशा में ले जा सकता है। विवेक ही है जो मनुष्य जीवन को सही दिशा प्रदान करती है। विवेक ही मनुष्य की विशिष्ट पहचान है - जगत (मगरमच्छ) को हम जैसा समझ रहे हैं कि -वो लट्ठा है , इसके सहारे भवसागर पार हो जायेंगे तो -हम भ्रम हैं , मोहग्रस्त हैं। रज्जु को सर्प समझ लेते हैं - एक चीज को दूसरा समझ लेते हैं। विगत सत्र में हमने यहाँ तक देख लिया था।
फिर हमने विवेकचूड़ामणि के प्रथम दो श्लोक पर भी चर्चा की थी। उसमें ये बहुत बड़ा सिद्धांत हमारे सामने रखा गया था कि -यह जो सत्य वस्तु ,सच्चिदानन्द , ब्रह्म या आत्मा जो है -वो कभी भी इन्द्रियों का विषय नहीं हो सकता। (7:59) ब्रह्म, ईश्वर या आत्मा कभी इन्द्रियगम्य नहीं हैं। तो कैसे गम्य हैं ? आत्मा को कैसे देखा जा सकता है ? ये तो इन्द्रियातीत है,मन-बुद्धि के भी अतीत है। लेकिन जब गुरु से सुने शब्दों के पीछे -पीछे जब मन चलने लगता है, उसका मनन करते -करते जब हम मन के भी परे चले जाते हैं। मन और बुद्धि के परे जाकरके अपरोक्ष रूप से हम उस सत्य वस्तु (आत्मा) को अनुभव करते हैं। तो आत्म-साक्षात्कार करने की प्रक्रिया ,आत्मवस्तु को अनुभव करने की प्रक्रिया है -श्रवण,मनन और निदिध्यान। निदिध्यासन के द्वारा हम अपने ही देह-इन्द्रिय संघात के परे जाकरके उस सत्य वस्तु (आत्मा या ब्रह्म) का अनुभव हमलोग अपरोक्ष रूप में करते हैं। आत्मा को अनुभव करने की प्रक्रिया इन्द्रियों के माध्यम से नहीं है , लेकिन इन्द्रियों से ऊपर उठकरके इसका अनुभव किया जाता है। शास्त्र और गुरु के शब्दों को अनुसरण कर के (अतः महामण्डल के मनःसंयोग कक्षा में व्यवहृत उपदेशों का श्रवण -मनन -निदिध्यासन करके) इसका अनुभव किया जाता है। तो ये बहुत बड़ा सिद्धांत शंकराचार्यजी ने विवेक-चूड़ामणि के मंगलाचरण में ही हमारे सामने रख दिया है ! (8:58)
आज की चर्चा का हमारा मुख्य विषय यह होगा कि मनुष्य योनि में जन्म लेना कितना दुर्लभ है ? इस सृष्टि में सबसे दुर्लभ , चीज क्या है ? यह प्रश्न है - इस सृष्टि में सबसे दुर्लभ चीज क्या है ? हमलोग पहले इन दो श्लोकों की आलापना कर लेते हैं - या chant कर लेते हैं , फिर उसका अर्थ देखते हैं - बड़े सुंदर ये दो श्लोक हैं ! आपलोग मेरे पीछे-पीछे chant कीजिये - (9:41)
जन्तूनां नरजन्म दुर्लभमतः,
पुंस्त्वं ततो विप्रता,
तस्माद्वैदिक धर्म मार्गपरता , विद्वत्त्वमस्मात्परम् ।
आत्मानात्मविवेचनं स्वनुभवो,
ब्रह्मात्मना संस्थिति-
र्मुक्तिर्नो शतकोटिजन्मसु कृतैः'
पुण्यैर्विना लभ्यते ॥ २ ॥
"दुर्लभं त्रयमेवैत, द्देवानुग्रहहेतुकम्।
मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रयः॥3।।
['ब्रह्मनिष्ठा' अर्थात् ब्रह्म में दृढ़ स्थिति—आध्यात्मिक साधना की चरम अवस्था मानी जाती है। यह वह स्थिति है जहाँ साधक आत्मा और ब्रह्म की एकता को केवल शास्त्रों और गुरुवाक्य से नहीं, अपितु प्रत्यक्ष अनुभव से जान लेता है और उसी में स्थिर हो जाता है। ऊपर दिए गए श्लोक में शंकराचार्यजी इस ब्रह्मनिष्ठा की प्राप्ति को अत्यंत दुर्लभ बताते हैं और इसकी ओर पहुँचने के क्रमिक सोपानों को दर्शाते हैं।
श्लोक के अनुसार सबसे पहले नरजन्म ही दुर्लभ है। 84 लाख योनियों में भटकने के बाद जब जीव को मानव शरीर प्राप्त होता है, तब वह धर्म, ज्ञान और मोक्ष की दिशा में अग्रसर हो सकता है। पशु, पक्षी, कीट-पतंगों में ऐसा विवेक या साधना संभव नहीं। इसलिए मनुष्य जन्म को एक अत्यंत दुर्लभ अवसर माना गया है।
इसके पश्चात मनुष्य में भी पुंस्त्व अर्थात पुरुषत्व प्राप्त करना विशेष माना गया है, क्योंकि प्राचीन भारत में पुरुषों को वेदाध्ययन और तपस्या की अधिक सुविधा प्राप्त थी। इसके बाद आता है विप्रता अर्थात ब्राह्मणत्व। यहाँ ब्राह्मणत्व का आशय केवल जाति से नहीं, अपितु उस शुद्ध, सात्त्विक, धर्मनिष्ठ जीवनशैली से है जो वैदिक धर्म के पालन और आत्मकल्याण की ओर प्रवृत्त करती है।
ब्राह्मणत्व प्राप्त हो जाने के बाद भी वैदिक धर्म में श्रद्धा और निष्ठा होना आवश्यक है। केवल जन्म से ब्राह्मण होना पर्याप्त नहीं, बल्कि शास्त्रों का पालन, यज्ञ, तप, जप, और स्वाध्याय में तत्परता आवश्यक है। फिर भी यह सब कुछ होना भी केवल प्रारंभिक योग्यता है। अगला चरण है विद्वत्ता—शास्त्रों का गहरा ज्ञान, विवेकशील चिंतन और गुरुसेवा के द्वारा आत्मज्ञान की तैयारी।
किन्तु श्लोक यह स्पष्ट करता है कि इतना सब कुछ भी हो जाए तो भी आत्मा और अनात्मा का विवेक, स्वानुभव, ब्रह्म में स्थित रहना और मोक्ष प्राप्त करना सहज नहीं है। यह तो शतकोटिजन्मसु कृतैः पुण्यैः—असंख्य जन्मों के शुभ कर्मों के फलस्वरूप ही संभव होता है। यहाँ शंकराचार्यजी हमें यह समझाते हैं कि ब्रह्मनिष्ठा केवल बाह्य आचरण से नहीं, अपितु गहन तपस्या, पूर्ण वैराग्य, गुरु की कृपा और भगवत्कृपा से ही प्राप्त होती है।
ब्रह्मनिष्ठ साधक उस परम तत्त्व में स्थित हो जाता है जहाँ से कोई भ्रम नहीं रहता, कोई द्वैत नहीं रहता। वह जानता है कि "अहं ब्रह्मास्मि" — मैं ही ब्रह्म हूँ। इस स्थिति में वह न केवल संसार के दुःख-सुखों से परे हो जाता है, अपितु शुद्ध साक्षीभाव में स्थित होकर पूर्ण तृप्ति को प्राप्त करता है।
अतः यह स्पष्ट है कि ब्रह्मनिष्ठा की प्राप्ति एक अत्यंत दुर्लभ, किन्तु सर्वोत्तम उपलब्धि है। यह मनुष्य जीवन का चरम लक्ष्य है, जिसके लिए हमें निरंतर साधना, आत्मविचार और गुरुसेवा में लगे रहना चाहिए। यही वास्तविक मोक्ष का द्वार है।]
"दुर्लभं त्रयमेवैतद्देवानुग्रहहेतुकम्।
मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुषसंश्रयः॥3।।
अर्थात् यह तीन बातें अत्यंत दुर्लभ हैं और केवल ईश्वर की कृपा से ही प्राप्त होती हैं — (1) मनुष्यत्व, अर्थात् मनुष्य का जन्म, (2) मुमुक्षुत्व, अर्थात् मोक्ष की तीव्र इच्छा और (3) महापुरुषसंश्रय, अर्थात् किसी महान आत्मज्ञानी पुरुष का संग या उनके सान्निध्य में रहना।
(1) मनुष्यत्व:
संस्कृत साहित्य और वेदांत में मनुष्य-जन्म को अत्यंत दुर्लभ कहा गया है। अन्य योनियों में जैसे पशु, पक्षी, कीट आदि में चेतना तो होती है, परंतु उनमें आत्मचिंतन और विवेक की क्षमता नहीं होती। केवल मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जिसे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जैसे पुरुषार्थों की खोज करने की क्षमता प्राप्त है। अतः आत्मा की मुक्त अवस्था को प्राप्त करने का अवसर केवल मनुष्य जीवन में ही मिलता है। इसलिए मनुष्य-जन्म को दुर्लभ बताया गया है।
(2) मुमुक्षुत्व:
मनुष्य-जीवन मिलने के बाद भी यदि उसमें मोक्ष की आकांक्षा न हो, तो वह जीवन व्यर्थ हो जाता है। संसार में अधिकतर लोग केवल भोग-विलास, धन, पद और परिवार में ही उलझे रहते हैं। जो व्यक्ति इन क्षणभंगुर वस्तुओं में स्थायित्व नहीं खोजता, और इनसे ऊपर उठकर “मैं कौन हूँ?”, “मुझे जन्म क्यों मिला है?” जैसे प्रश्न करता है, और इनका उत्तर पाने के लिए सच्चे हृदय से प्रयास करता है — वही मुमुक्षु कहलाता है। यह स्वभाव भी किसी पूर्व जन्म की साधना और ईश्वर की विशेष कृपा से ही विकसित होता है।
(3) महापुरुषसंश्रय:
चाहे मनुष्य-जन्म हो और मुमुक्षुत्व हो, परंतु यदि किसी सद्गुरु या आत्मज्ञानी महापुरुष का मार्गदर्शन नहीं मिले, तो आत्मज्ञान की यात्रा में बाधाएँ आ सकती हैं। गुरु के बिना यह मार्ग अंधकारमय और भ्रमपूर्ण हो सकता है। एक महापुरुष न केवल साधक की अंतर्यात्रा को दिशा देता है, बल्कि उसे अपने जीवन के उदाहरण से प्रेरित भी करता है। यह संग भी पूर्व जन्मों के पुण्य और भगवत्कृपा का फल होता है।
इस प्रकार यह श्लोक हमें बताता है कि आत्मसाक्षात्कार के मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए तीन प्रमुख बातों की प्राप्ति अनिवार्य है: मनुष्य का जन्म, मोक्ष की तीव्र इच्छा और आत्मज्ञानी गुरु का संग। ये तीनों ही दुर्लभ हैं और ईश्वर की विशेष अनुकंपा से ही मिलते हैं। इसलिए यदि ये तीनों जीवन में प्राप्त हो जाएँ, तो साधक को चाहिए कि वह इस अवसर को व्यर्थ न जाने दे और अपने आत्मकल्याण की दिशा में सच्चे मन से प्रयास करे। यही सच्चा जीवन है और यही मानव-जन्म का परम उद्देश्य भी। ]
(10.53 मिनट) भगवान भाष्यकार शंकराचार्यजी यहाँ पर कह रहे हैं -मुक्तिर्नो शत जन्म कोटि सुकृतैः पुण्यैर्विन लभ्यते- इस सृष्टि में , इस ब्रह्माण्ड में सबसे दुर्लभ वस्तु है -मुक्ति यानि मोक्ष। जब मोक्ष की हम बात करते हैं , तो सोचना पड़ेगा की मोक्ष का उल्टा क्या है-बंधन ? (11:39) जो बंधन में है, जो बंधा हुआ है वही तो मुक्त होने का प्रयास करेगा। जो बंधन में नहीं है , या जिसको बंधन महसूस ही नहीं हो रहा है , वो क्या मुक्त होने का प्रयास करेगा ? नहीं करेगा। तो इस पूरे ब्रह्माण्ड में मुक्ति सबसे दुर्लभ है। सुलभ नहीं है। It Is the rarest thing to happen in this creation is moksha and freedom .It is not that easy ! सृष्टि में कितने जीव जन्तु हैं? Modern biology भी कहती है , और हमारे शास्त्र भी कहते हैं -84 लाख योनियाँ है, जातियाँ हैं , विभन्न प्रजातियाँ हैं-Different species हैं - ये सब के सब बँधे हुए हैं। ये सब प्रकृति के नियमों में (जन्म-मृत्यु से) बंधे हुए है। कोई मुक्त नहीं है। जैसे ही हम शरीर धारण करते हैं - वो शरीर धारण ही बन्धन है। (13:19) हमारा जो सत्य स्वरुप (अनंत) है, वह इस शरीर में सीमित नहीं है। ये सब विषय अभी हमारे विचार के लिए है (मनन के लिए है), आज की वास्तविकता ये है कि हम अपने को स्थूल शरीर से बंधे हुए हैं, इससे भिन्न कुछ सोच ही नहीं पाते हैं। सिर्फ हम ही नहीं , जितने भी जीवजन्तु यहाँ हैं , सब प्रकृति के नियमों में आबद्ध हैं। जैसे ही यह शरीर धारण हुआ तो जन्म हुआ , जन्म हुआ तब मृत्यु भी है। और जन्म और मृत्यु के बीच में जितने पड़ाव हैं , वे सब हैं। वे सभी पड़ाव दुःखप्रद ही हैं। अपने पिछले जीवन को यदि टटोलकर देखे , तो पता चलेगा -हम कितने ही दुःखों से गुजर चुके हैं ! हर कदम पर एक सीमा खड़ी हो जाती है , जिसका उल्लंघन हम नहीं कर पाते हैं। मन का भी एक दायरा है ,जीव उस दायरे के बाहर-बिना गुरु-निर्दिष्ट साधना और ईश्वर के अनुग्रह के बिना मन के उस दायरे से बाहर निकल नहीं सकता है। शरीर के अपने नियम हैं , वो घटता -बढ़ता है , आज बीमार है , कल स्वस्थ है ? कभी इन्द्रियों के द्वारा थोड़े से सुख का अनुभव करता है , कभी कितने प्रकार के दुखों से उसे गुजरना पड़ता है। जीव इस शरीर को धारण करते ही सीमाबद्ध हो जाता है। अब जन्म हुआ तो मृत्यु निश्चित है। अब मृत्यु हुआ तो पुनर्जन्म होना निश्चित है। और ये
"पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम्।
इह संसारे बहुदुस्तारे, कृपयाऽपारे पाहि मुरारे।
भजगोविन्दं भजगोविन्दं, गोविन्दं भजमूढमते।
नामस्मरणादन्यमुपायं, नहि पश्यामो भवतरणे ॥
भावार्थ :----बार-बार जन्म, बार-बार मृत्यु, बार-बार माँ के गर्भ में शयन, इस संसार से पार जा पाना बहुत कठिन है, हे कृष्ण कृपा करके रक्षा करो ॥ गोविंद को भजो, गोविन्द का नाम लो, गोविन्द से प्रेम करो । सत्य को जानो , सत्य को जानो क्योंकि भगवान (सत्यवस्तु) के नाम जप के अतिरिक्त इस भव-सागर से पार जाने का अन्य कोई मार्ग नहीं है ॥ "पुनरपि जननं पुनरपि मरणं, पुनरपि जननी जठरे शयनम्।" का जो चक्र है ये अनवरत चलता ही रहेगा। यह सृष्टि का नियम है। हर जीव-जंतु इसी प्राकृतिक नियम में आबद्ध है। कोई भी जीवजन्तु मुक्त नहीं है। देखने में गाय , हिरण आदि कितने मासूम लगते हैं। किन्तु वह जीव तो उस गाय या हिरण के शरीर के भीतर आबद्ध है। गाय या हिरण शरीर के अंदर जो जीव (जड़भरत) बैठा हुआ है , वो कष्ट में है। हमको समझ में नहीं आता है। बाहर से हिरण के बच्चे को देखकर हम मोहित हो जाते हैं - वाह कितना मासूम सी आँखे हैं ! सुंदर पक्षी को हम देखकर कहेंगे , वाह कितना सुंदर पक्षी है। किन्तु उस पक्षी-शरीर के अंदर जो जीव बैठा हुआ है , वह जीव या प्राणी तो कष्ट में हैं। वो प्रकृति के नियमों में बँधा हुआ है। उस नियम का उलंघन नहीं कर सकता। जिस पक्षी की मैं बात कर रहा हूँ , वो कितना भयग्रस्त है ? ऊँची डाली पर बैठा पक्षी भी थोड़ो सी आवाज करते ही झट से उड़ जाता है। वो जीव कितना भयग्रस्त है ? सभी जीवजंतु यहाँ ,पशु - पक्षी सब समय भयग्रस्त है। हर प्राणी भयभीत है -
भयादस्याग्निस्तपति भयात्तपति सूर्यः ।
भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः ॥
( कठोपनिषद . 2-3-3 )
ब्रह्म की शक्ति के भय से अग्नि जलती है, उसके भय से सूर्य चमकता है, उसके भय से इन्द्र, वायु और पाँचवाँ मृत्यु भागते हैं। इस सृष्टि में हर जीव-जंतु भयग्रस्त है। यह सत्य है कि नहीं? Everybody is gripped by an existential fear. हर कोई अस्तित्वगत भय से ग्रस्त है। हर प्राणी के मूल में, हर जीवजंतु के मूल में एक अद्भुत अनिर्वचनीय प्राकृतिक भय सभी के अंदर है , बताओ कौन मुक्त है ? [कौन अभीः है ?] मनुष्य भी उतना ही भयग्रस्त है कि नहीं ? आप अपने भीतर झाँक करके देखोगे कि हम सब के अंदर ये भय काम करता है। असुरक्षित होने का भाव बना ही रहता है कि नहीं ? हर व्यक्ति कहीं न कहीं अपने को असुरक्षित ही पाता है। भले वह परिवार के बीच में हो, अपने लोगों के बीच में हो , लेकिन हमारे अंदर जो एक भय और असुरक्षित होने का भाव है वो जाता है क्या ? आत्मा के लिए इस प्रकार भयग्रस्त रहना ही बंधन है। भयग्रस्त होने का भाव हमारे सत्य स्वरुप में क्या ? क्या भयभीत रहना हमारे सत्यस्वरूप की प्रकृति हो सकती है क्या ? हमारा सत्य स्वरुप तो 'अभीः' है - लेकिन यह सच्चाई हमें शास्त्र और सद्गुरु ही बताते हैं। कि बच्चों जानलो इस प्रकार भयग्रस्त रहना आपका सत्य स्वरुप नहीं है। [आत्मज्ञानी जड़भरत जैसा अपने को M/F शरीर मानकर उसके आकर्षण फँसकर ही तुम जो स्वयं भेंड़ समझकर में -में कर रहे हो -यह तुम्हारा तुम्हारा सत्य स्वरुप नहीं है! (18:56) तो मैं ये क्यों कह रहा हूँ ? क्योंकि जब हम मोक्ष की बात करते हैं , अपने अनंत स्वरुप में स्थित होने की बात करते हैं , तो हमें पहले बन्धन को समझना होगा। (अपने को सीमित बुलबुला -बुलबुली समझकर के चिपकने कर भेंड़/हिरण बन जाने के बंधन को सही रूप से समझना होगा।) क्या हमको सचमुच यह महसूस हो रहा है कि -जब तक हम आत्मा में प्रतिष्ठित नहीं हो जाते, और M/F शरीर में ही प्रतिष्ठित हैं इसी के इन्द्रिय-विषयों के सुखों में चिपके हुए हैं, तब तक सब कुछ जानते हुए भी हम बंधन में ही जकड़े हुए हैं। अगर आप सचमुच बुलबुला -बुलबुली बंधन को-शरीर के राग और प्रेम को अनुभव करना शुरू कर दोगे , कि मैं कैसे इस शरीर के अंदर कैसे बंध गया हूँ ? एक शरीर के अंदर सीमाबद्ध हो गया हूँ। एक स्त्री शरीर है -दूसरा पुरुष शरीर है- और इस M/F शरीर के माध्यम से हमलोग विषय-भोगों में ही बन्धे हुए हैं। क्या पशुओं जैसा जीना हमारा सत्य स्वरुप है क्या ? ये एक बहुत बड़ा विचारणीय प्रश्न है ? सभी जीवजंतु तो बंधन में हैं। अब इस पूरे सृष्टि में इस बंधन से मुक्ति पाना - स्वयं को देह मानकर भोग के बंधन से मुक्ति पाना, यह सबसे दुर्लभ चीज है। इस सम्पूर्ण सृष्टि में- 8 अरब की आबादी में , कुछ इने-गिने ब्रह्मज्ञानी पुरुषों को छोड़कर आप बता सकते हैं कि कौन मुक्त है? (20:13) कुछ ब्रह्मज्ञ महापुरुषों को छोड़कर सब प्रकृति के नियमों में बंधे हुए हैं। सब प्रकृति के गुलाम हैं। यही आज हम मनुष्यों की वास्तविकता है।
मुक्ति सबसे दुर्लभ है , लेकिन मुक्ति की प्राप्ति कौन कर सकता है ? कोई भी जीवजंतु नहीं कर सकता सिर्फ मनुष्य ही कर सकता है। इसलिए मनुष्य शरीर में जन्म प्राप्त करना सबसे दुर्लभ चीज है। सबसे कठिन है। मनुष्य शरीर मिलने के बाद ही मुक्ति का प्रयास करना सम्भव है। कोई गाय या हिरण तो मुक्ति का प्रयास ही नहीं कर सकता। क्योंकि उसके अन्दर विवेक-करने की क्षमता नहीं है , वह योग्यता नहीं है। मनुष्य शरीर में ही वह योग्यता है कि मनुष्य मुक्ति के लिए प्रयास कर सकता है। इसलिए आदिगुरु शंकराचार्यजी ग्रन्थ की शुरुआत में ही हमें सतर्क करा रहे हैं कि बच्चों जान लो आप किस शरीर में बैठे हो !! आप सबसे दुर्लभ मनुष्य शरीर में बैठकर साँस ले रहे हो। साँस अन्य जीवजंतु भी लेते हैं , लेकिन वे मुक्ति के लिए प्रयास नहीं कर सकते। लेकिन प्रत्येक मनुष्य मुक्ति प्राप्त करने का प्रयास कर सकता है। अतः हमें इस मानव-शरीर का सदुपयोग करना चाहिए , इस शरीर का दुरूपयोग नहीं करना चाहिए। मनुष्य शरीर में जन्म लेना का एक महत उद्देश्य है। अगर उस उद्देश्य की प्राप्ति नहीं हुई , तो यह मनुष्यजीवन की विफलता है।
'जन्तूनां नरजन्म दुर्लभम् ' मनुष्य शरीर में जन्म दुर्लभ है, सृष्टि में कितने सारे जीवजंतु हैं। उनमें मनुष्य शरीर प्राप्त करना अत्यंत दुर्लभ है। जो जीव अभी गाय -बकरी के शरीर में बैठा है , वो कई जन्मों के बाद जब मनुष्य शरीर को प्राप्त करेगा , तब वह मुक्ति का प्रयास शुरू कर सकेगा। मनुष्य के अलावा जितनी भी योनियाँ हैं , उनके पास तो भोग के सिवा कोई विकल्प है ही नहीं। उनको सिर्फ मशीन की तरह चलना पड़ता है। खाना-पीना -सोना -डरना और वंशविस्तार करना -यही उसकी सीमा है। इस दायरे के बाहर कोई पशु जा सकता है ? बिल्कुल मशीन की तरह यही चलता है। और एक दिन मर जाता है। जब तक विवेक का जागरण नहीं होता है मनुष्य का जीवन भी उसी प्रकार चलता रहता है। (24:52) विवेक जाग्रत होने के पहले मनुष्य का जीवन भी बिल्कुल उसी प्रकार चल रहा होता है। अविवेक की दशा में हमारा जीवन पशु से मूलतः अलग नहीं है। बहुत सुंदर श्लोक है -
आहार-निद्रा-भय-मैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्,
धर्मो हि तेषामधिको विशेष: धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः।
खाना -सोना -डरना और प्रजनन ; खाना -सोना -डरना और प्रजनन, खाना -सोना -डरना और प्रजनन, करना और एक दिन मर जाना ? तो फिर किस दृष्टि से मनुष्य पशुओं से अलग है ? धर्मो हि तेषामधिको विशेषः। इस मनुष्य के अंदर एक विशेष योग्यता (धर्म वह विशेष योग्यता,गुण) है - उसके रहने से ही उसे मनुष्य कहा जाता है। यह विवेक ही मनुष्यों की विशेष योग्यता है। और इस विवेक के बिना जो मनुष्य है वो पशु के समान है। मनुष्य ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जो विवेक-प्रयोग कर सकता है। केवल मनुष्य ही सत्य क्या है , और सत्य जैसा जो भाषित हो रहा है वह क्या है - इन दोनों के बीच में विवेक कर सकता है ; और वो सत्य में प्रतिष्ठित रह सकता है। सत्य को पकड़ सकता है। जो सत्य है और जो सत्य नहीं है लेकिन सत्य जैसा भाषित हो रहा है -इन दोनों के बीच में विवेक के द्वारा स्पष्टता सिर्फ मनुष्य ही ला सकता है। विवेक ही वो योग्यता है जो मनुष्य को पशुओं से भिन्न बनाती है। पशुओं के अंदर विवेक नहीं है , और हमारे अंदर भी जबतक विवेक नहीं जग जाता, हम बिल्कुल पशु ही हैं। ये ऋषियों की दृष्टि है। इसीलिए शंकराचार्यजी शुरू में ही कह रहे हैं -'बच्चों देखो सभी जंतुओं में इस नर शरीर को प्राप्त करना बहुत ही दुर्लभ चीज है। तो हम सभी लोगों को जान लेना चाहिए कि इस मनुष्य शरीर में स्वाँस -प्रश्वांस लेने का मतलब क्या है ? उसका महत्व , उसका गाम्भीर्य हमें समझाया जा रहा है कि , समय निकल रहा है , ये मनुष्य शरीर खत्म होने से पहले जो मुख्य काम करना है -उसे कर लो ! दुबारा कौन सा शरीर मिलनेवाला है , इस विषय में हम निश्चित रूप से कुछ कह नहीं सकते।
तो इस सृष्टि में मुक्ति सबसे दुर्लभ चीज है, और मुक्ति की शुरुआत मनुष्य शरीर से होती है। इस शरीर में आने से पहले कोई मुक्ति का प्रयास ही नहीं कर सकता। इसीलिए पहला सौभाग्य है मनुष्य शरीर में जन्म। हमने कुछ अच्छा कर्म किया है कि आज हम मनुष्य शरीर में जीवित हैं। लेकिन इसका हम उपयोग कैसे कर रहे हैं ? यह महत्वपूर्ण बात है। और इस श्लोक में हमलोग देखेंगे कि प्रत्येक उत्तरवर्ती सौभाग्य पूर्ववर्ती सौभाग्य से अधिक दुर्लभ है। (29:01) और सबसे दुर्लभ चीज है मुक्ति। दुर्लभमतः,पुंस्त्वं ततो विप्रता,तस्माद्वैदिक धर्म मार्गपरता , विद्वत्त्वमस्मात्परम् । आत्मानात्मविवेचनं स्वनुभवो, ब्रह्मात्मना संस्थिति- जन्तूनां नरजन्म दुर्लभं अतः पुंस्त्वं' उसमें भी पुरुष शरीर को प्राप्त करना और भी दुर्लभ है। यहाँ पर मन में एक विरोधाभास उठेगा - बेटियों के मन में ये प्रश्न उठेगा कि भगवान शंकराचार्य जी तो स्त्री-पुरुष में भेद देख रहे हैं। यहाँ लिंगभेद की बात नहीं हो रही है, ऋषि हमें वास्तविकता बता रहे हैं। अभी की दुनिया में women's freedom की बात तुरत चली आती है। जिसे Misogynistic attitude, स्त्री-द्वेषी रवैया कहा जाता है। लेकिन शंकराचार्यजी Misogynistic नहीं थे वे तो माँ जगदम्बा के परम् भक्त थे। क्या आचार्य शंकर माँ की स्तुति में स्त्रोत्र नहीं रचे थे ? वे ऐसा क्यों कह रहे हैं कि -मनुष्य जन्म तो दुर्लभ है, किन्तु पुरुष को प्राप्त करना और भी दुर्लभ है। देखो अब यह स्पष्ट हो रहा है कि -सृष्टि में सब बँधे हुए हैं। हर जीवजंतु बँधा हुआ है। प्रकृति के नियमों में सभी प्राणी आबद्ध है। केवल मनुष्य ही प्रकृति के नियमों का उलंघन कर सकता है। मनुष्य मात्र ही प्रकृति के नियमों से (जन्म-मृत्यु चक्र से) ऊपर उठ सकता है। अन्य किसी प्राणी को प्रकृति के नियमों से ऊपर उठने का सामर्थ्य नहीं है। प्रकृति के नियमों से ऊपर उठने का सामर्थ्य केवल मनुष्य में ही होता है। और यह सामर्थ्य स्त्रियों में भी उतना ही है , जितना पुरुषों में है। दोनों के सामर्थ्य में कोई अन्तर नहीं है। यह बहुत महत्वपूर्ण तथ्य है। माण्डूक्य उपनिषद # का जो अंतिम प्रकरण है - "अलातशांति प्रकरण" उसके भाष्य में शंकराचार्यजी खुद कहते हैं -जहाँ तक- मोक्ष प्राप्त करने की योग्यता या अपने आत्मस्वरूप को जानने की सामर्थ्य या योग्यता की बात है दोनों में कोई अंतर नहीं है। फिर यहाँ पुरुष शरीर को श्रेष्ठ क्यों कहते हैं ? हर स्त्री मुक्त हो सकती है , हर पुरुष मुक्त हो सकता है। सब मनुष्य मुक्त हो सकते हैं। तो यहाँ पर किस अर्थ में शंकराचार्यजी कहते हैं - पुस्त्वं ततो विप्रता ? यहाँ भगवान शंकराचार्यजी पुरुष शरीर को क्यों वरीयता दे रहे हैं - या Prefer कर रहे हैं ?
["अलातशांति प्रकरण"-माण्डूक्य उपनिषद् का यह भाग गौड़पादाचार्य की "कारिका" के चौथे अध्याय पर आधारित है, जिसका नाम है – "अलातशांति प्रकरण", अर्थात् चित्त (मन) की शांति का विवेचन। इसमें अद्वैत वेदांत के सिद्धांतों को तर्क और अनुभव से सिद्ध किया गया है। इस भाग में "अलात" यानी "जलती हुई लकड़ी के घूमने" के उदाहरण से माया और जगत की असत्यता को स्पष्ट किया गया है। 1. जलती हुई लकड़ी का उदाहरण (अलातचक्र)> "यथा अलातं प्रवृत्तं चक्राकारं प्रदृश्यते। तथैव सर्वभावानां प्रवृत्तिरभिधीयते॥" जैसे आग की जलती लकड़ी को घुमाने से चक्र बनता हुआ प्रतीत होता है, वैसे ही जीव-जगत मात्र मायिक भ्रम है। यह उदाहरण बहुत प्रसिद्ध है। यह दिखाता है कि संसार की विविधता असत्य है, केवल चित्त की गति है – जब चित्त शान्त होता है तो सब भेद समाप्त हो जाते हैं।>2."न जातो न म्रियते च नायं नायं कुतश्चिन्न समागतश्च।" आत्मा न जन्म लेता है, न मरता है, न वह कहीं से आया है – वह सदा एक समान रहता है। यह श्लोक बताता है कि आत्मा नित्य, अजन्मा और अविकारी है। जीव की उत्पत्ति नहीं होती, यह केवल आभास मात्र है। >3."अद्वयं सत्यं। द्वैतं मिथ्या।" अद्वैत ही सत्य है, द्वैत तो केवल दृष्टि की भूल है। गौड़पादाचार्य कहते हैं कि जब कोई अपने 'स्वरूप' को जान लेता है, तो उसे किसी 'अन्य' की जरूरत नहीं रहती। ब्रह्म ही सब कुछ है।4. बुद्धि का अंत – तुरीय की प्राप्ति। इस अध्याय में कहा गया है कि जब बुद्धि और मन शांत हो जाते हैं, तब तुरीय (चतुर्थ अवस्था) का अनुभव होता है। यही मोक्ष है। इस अध्याय में: क्रम सिद्धांत विवरण- 1 अद्वैतवाद केवल एक सत्य है – ब्रह्म। द्वैत माया है।2 मायावाद जगत नित्य नहीं है, केवल चित्त की गति है।3 अजातवाद आत्मा का कभी जन्म नहीं हुआ।4 तुरीय अवस्था जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति से परे की स्थिति। सरल उदाहरण से समझें:जैसे कोई सिनेमा पर्दे पर अलग-अलग दृश्य दिखते हैं, पर पर्दा नहीं बदलता — वैसे ही आत्मा सदा एक रहती है, दृश्य (संसार) बदलते रहते हैं। पर वो दृश्य वास्तव में होते नहीं हैं, केवल प्रकाश और ध्वनि का खेल होता है।जीवन में प्रयोग कैसे करें?> आत्मा को शरीर और मन से अलग समझें। द्वैत (मैं-तू, अच्छा-बुरा) में न उलझें। ध्यान और आत्मनिरीक्षण द्वारा चित्त को शान्त करें। तुरीय स्थिति की ओर उन्मुख हों (विचार-रहित चेतना। )निष्कर्ष:"अलातशांति प्रकरण" यह समझाता है कि संसार एक भ्रम है, आत्मा ही परम सत्य है। यह अध्याय अद्वैत वेदांत का सार है – जहां न कोई बंधन है, न मुक्ति। बस शुद्ध चैतन्य का अनुभव है।] एक कारण यह है कि मुक्ति मुक्ति सृष्टि की सबसे दुर्लभ वस्तु है, मुक्ति जीवन में एक ऐसी उपलब्धि है कि इस मुक्ति को प्राप्त करने के लिए मनुष्य को अपना सर्वस्व उसमें लगाना पड़ता है।(34.59) मनुष्य से अतरिक्त जितने जीवजंतु हैं , वे तो प्रयास ही नहीं कर सकते। मनुष्य ही मुक्ति के लिए प्रयास करेगा। और जो मुक्ति के लिएप्रयास करेगा उसको अपना सर्वस्व लगाना पड़ेगा - ये कोई part time job, जैसी बात नहीं है। जब हमारा जीवन मुक्ति -केंद्रित होता है, तो गृहस्थ पुरुष भी 24 X 7 X 365 अपने आप को उसी में लगाकर रखता है। जब सर्वस्व लगाने की बात आती है तब पुरुषों को वरीयता मिलने का प्रश्न उठता है। स्त्री एक महिला है -किसी महिला कि गृहस्थ जीवन में विशेष भूमिका क्या है ? सामाजिक परिपेक्ष में देखें तो गृहस्थ जीवन में महिलाओं की अपनी एक विशेष भूमिका है ; परुष का अपना एक अलग भूमिका है। स्त्री या महिला की विशेष भूमिका है मातृत्व - माँ ही एक संतान को जन्म देती है। 9 महीने कोख में रख कर एक सन्तान को जन्म देना। फिर वहीं तक उसकी जिम्मेदारी खत्म नहीं होती,जबतक वो संतान अपने पैरों पर खड़ा नहीं होता 15 -20 वर्ष तक उसका लालन-पालन करना। किसी महिला का अपने संतान के साथ जो प्राकृतिक जुड़ाव होता है , involvement होता है, महिला के लिए उससे ऊपर उठना इतना आसान नहीं है। किसी माँ का अपने बच्चे के साथ जो सम्बन्ध होता है, उसे हम पुरुषलोग कभी समझ नहीं पाएंगे। इस तुलनात्मक दृष्टि से देखने पर पुरुष को माँ बनने की बाधा नहीं होती -इसलिए पुरुष शरीर में लाभ थोड़ा ज्यादा है। मुक्ति के लिए अपना सर्वस्व देना पड़ता है , संतान की जिम्मवारी अपनेआप सामने आ जाती है। जन्म से लेकर 15 -20 साल तक माँ अपने बच्चे से जुड़ी रहती है, लालनपालन भी करती है, पुरुष शरीर में ये बाधा नहीं है। संतान पैदा करने या पलने की बाधा नहीं है। इसके आलावा M/F के शरीर में ब्रह्मज्ञ बनने के सामर्थ्य में और कोई भेद नहीं है। कई ब्रह्मज्ञानी माताएँ हो चुकी है - रानी मदालसा जैसी ब्रह्मज्ञ महिला भी हैं - पर वे अपवाद हैं। तुलनात्मक दृष्टि से पुरुषों में माता बनने की बाधा नहीं है।
दूसरा कारण देखिये -वैराग्य ! आप 18 -19-20 वर्ष की एक युवती को ले लीजिये और एक युवक को ले लीजिये। मानलीजिए की उन दोनों के अंदर तीव्र वैराग्य उत्पन्न हो जाता है। वैराग्य क्यों उत्पन्न होता है ? जब विवेक होता है , तब वैराग्य होता है। आपको जब ये समझ में आएगा कि संसार -निस्सार है ! इसमें कुछ है ही नहीं , ये संसार दीखता है , लेकिन है ही नहीं ? जिस दिन आपको यह बात समझ में आएगा कि यह जगत जैसा दीखता है -वैसा नहीं है। जब आपको (41.22) विवेक यानि स्पष्टता : होने से वैराग्य उतपन्न हो जाता है। विवेक हो जायेगा कि ये संसार जैसा दीखता है , सच में वैसा नहीं है। तब आपके अन्दर में वैराग्य की अग्नि धधकने लगेगी। आज जगत की क्षणभंगुरता हमें समझ में नहीं आ रही है, इसीलिए हमारे अन्दर वैराग्य नहीं है। जिस दिन हमें यह स्पष्ट रूप से समझ में आ जायेगा कि , ये संसार जैसा दीखता है -वैसा नहीं है। युवक और युवती जिस दिन स्पष्ट रूप से समझ लेंगे की इन्द्रियों का जगत निस्सार है , इसमें कोई सार है ही नहीं। इसमें अपने आप को डुबोना एक ऐसे कुँए में गिरने के समान है , जिसकी कोई तली है ही नहीं। वैराग्य होने इन्द्रियों के भोग को छोड़ देगा। ये मगरमच्छ है -आप उधर क्यों जयएंगे ? ये ऐसा कुआँ है , जिसमे तली ही नहीं है। आप दौड़ते रहते हैं, पहुंचते कहीं नहीं है।
इन्द्रिय ग्राह्य जगत के भोगों की ओर यदि हम अपने जीवन को ले जाएँ , तो यह 'Alice in Wonderland' (एक अद्भुत दुनिया में एलिस) की कथा जैसी बात होगी, आप दौड़ते रहोगे पहुँचोगे कहीं नहीं । यह बच्चों की किताब है - स्वामी विवेकानन्द उसको अक्सर उद्धृत करते हुए कहते थे - हमारा जीवन भी उसी तरह है। ["एलिस इन वंडरलैंड" लुईस कैरोल द्वारा लिखित एक प्रसिद्ध बच्चों की पुस्तक है, जो 1865 में प्रकाशित हुई थी, और इसमें एलिस नाम की एक लड़की की कहानी है, जो एक खरगोश के बिल से एक जादुई दुनिया में पहुंच जाती है। वह इस अतार्किक और विचित्र दुनिया में कई अजीब पात्रों से मिलती है, जिनमें चेशायर बिल्ली, मैड हैटर और पान की रानी शामिल हैं, और उसे अपने आस-पास की तर्कहीन दुनिया से जूझना पड़ता है। नारद का मयदर्शन : नारद जी इस तर्कहीन दुनिया से 12 साल तक जूझने और दौड़ने के बाद भी पहुँचे कहीं नहीं; एक बार बदल-फटा और सब बह गया।] स्वामी जी कहते हैं - हमारा जीवन भी उसी प्रकार है। हम लोग भी दौड़ते रहते हैं , दौड़ते रहते हैं , दौड़ते रहते हैं पर पहुंचते कहीं नहीं है। क्योंकि यहाँ पर (काम-कांचन कीर्ति के जगत में) पहुँचने के लिए कुछ है ही नहीं। यह एक अद्भुत माया का जगत है , जिसमें हम सभी लोग फंसे हुए हैं। तो यदि इस प्रकार का विवेक-जन्य वैराग्य की अग्नि युवक और युवती दोनों के अन्दर धधकने लग गयी ? तो पुरातन काल में क्या होता था ? वो तुरंत गृहस्थ जीवन को त्याग देते थे। संन्यासी हो जाते थे। संन्यासी ने समझ लिया है कि इन्द्रिय-विषय भोगों में कुछ भी नहीं रखा है , भोग में सिर्फ रोग है। ये उसके समझ में आ गया। अब वो विषय-भोगों की ओर क्यों जायेगा ? समझ में आ गया कि विषय-भोग ही मगरमच्छ है , अब वो मगरमच्छ की ओर क्यों जायेगा ? इसी प्रकार अगर आपको ये समझ में आ गया कि इद्रियों से भोग में सिर्फ रोग है - वो मगरमच्छ है , आप उधर क्यों जायेगे ? तो फिर स्वाभाविक प्रवृत्ति क्या होती है ? संन्यासी ! अब वो सत्य की खोज के लिए निकल पड़ता है। ऐसी परिस्थिति में दोनों को वैराग्य हो जाये। किसी युवक को होजाये , और किसी युवती को हो जाये ; तो, जगत में आसक्ति त्यागने पर दोनों के निर्णय में आसानी किसे होगी ? इन्द्रियों के भोग में सुख नहीं केवल रोग है। विवेक और वैराग्य हो जाने के बाद कोई युवक, तो संन्यास लेने के लिए कभी भी घर से निकल सकता है , पर कम उम्र की युवती को घर से बाहर निकलने के लिए खतरा है या नहीं ? वह अकेले जंगल में नहीं रह सकती। जिस किसी के साथ नहीं रह सकती। लेकिन पुरुष शरीर में सन्यास लेना सुविधाजनक है ? 1200 साल पहले मनुष्य जैसा था , आज भी उसकी प्रकृति वैसी ही है। भगवान शंकराचार्यजी के समय में ही आक्रांताओं का आक्रमण शुरू हो गया था - उनका टारगेट स्त्री होती है। बहनो-बेटियों को बचाने के लिए हमें पर्दा प्रथा अपना लेना पड़ा। भारत में कोई भेद-भाव नहीं था। ये सब इस्लामिक आक्रांताओं के आक्रमण के बाद ही आया। लेकिन स्त्रियों की सामाजिक भूमिका है -संतान को उतपन्न करना।मुक्ति सभी के लिए है-लैंगिक भेदभाव नहीं है। (51.33)। प्रकृति ही यही है -बेटियों को ये समझ लेना चाहिए। बाकि दोनों में वीवेक-प्रयोग की योग्यता बिल्कुल एक समान है। फिर एक अन्य नियमित बाधा - मासिक बाधाएं भी स्त्रियों को ही हो जाती हैं। पुरुष शरीर में मासिक की बाधा नहीं है।
जन्तूनां नरजन्म दुर्लभमतः, पुंस्त्वं ततो विप्रता,
तस्माद्वैदिक धर्म मार्गपरता , विद्वत्त्वमस्मात्परम् ।
मनुष्य शरीर प्राप्त होना दुर्लभ है। लेकिन क्या मनुष्य शरीर प्राप्त हो जाने स ही जीवन धन्य हो जायेगा? आज पृथ्वी पर मनुष्यों की जन संख्या कितनी है ? 8 बिलियन - यानि आठ अरब मनुष्य हैं , क्या आठ अरब मनुष्यों में सभी मनुष्य मुक्त होने की इच्छा कर रहे हैं ? मनुष्य शरीर में जन्म लेने के बाद उससे बड़ा सौभाग्य है - विप्रता ! अगला बहुत बड़ा पॉइंट है - विप्रता। किसी आदर्श ब्राह्मण (श्रीरामकृष्ण -नवनीदा) में जो गुण दिखाई देते हैं , उन गुणों को अर्जित करना। विप्र का मतलब है ब्राह्मण, और विप्रता का मतलब है ब्राह्मणत्व - ब्राह्मण का गुण अर्जित करना। आप जान लीजिये बच्चों -समाज का आदर्श ब्राह्मण ही है। (53:33) हर व्यक्ति को ब्राह्मण होना है। हर किसी को ब्राह्मण होना है जाती की दृष्टि से नहीं - गुण की दृष्टि से। ये जो जाति-व्यवस्था पिछले हजार साल में हमने भारत में जो देखा , उसका हिन्दू सनातन धर्म के साथ कुछ लेनादेना है ही नहीं। आप इस सच्चाई को जान लीजिये। पाश्चात्य के लोग आक्रमण करके हीनभावना से हिन्दुओं में जातिव्यवस्था फैलाते रहते हैं। करप्ट जाति व्यवस्था का वर्णाश्रम धर्म से कुछ-लेना देना नहीं है। और वर्ण हमेशा गुण आधारित होता है , जन्म आधारित नहीं होता। ऐसा सनातन धर्म में पहले नहीं था। सनातन धर्म में वर्ण गुण आधारित था जन्मगत नहीं था। पिछले 1000 सालों में ये यह अधोपतन हुआ है degeneration या हुआ है - 4 वर्ण को , 4000 जाती में बांटकर वोटबैंक देखता है। सनातन धर्म में सबको हम एक देखते हैं। अद्वैत देखते हैं। ब्राह्मण समाज का आदर्श है, वह ऐसा चरित्रवान मनुष्य है, जिसका सारा जीवन ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के लिए समर्पित है। परब्रह्म की अनुभूति करने के लिए उसका सारा जीवन समर्पित है। स्वामी विवेकानन्द और शंकराचार्यजी कहते हैं कि ब्राह्मण वो है जिसका पूरा जीवन ब्रह्म की अनुभूति करने के प्रयास के लिए समर्पित है। इस दृष्टि से हर व्यक्ति को , हर सत्यार्थी को ब्राह्मण होना ही चाहिए। ब्राह्मण का अन्तःकरण पवित्र होता है , संयमी होता है। ब्राह्मण भोग-केंद्रित जीवन नहीं जीता है , वह तप-केंद्रित जीवन जीता है। सबको ब्राह्मण होना होगा यह केवल सनातन धर्म ही नहीं सारे मानव-समाज का Direction होना चाहिए। सम्पूर्ण मानव समाज को ब्राह्मण या चरित्रवान मनुष्य बना देना ही सम्पूर्ण क्रांति है!चरित्रवान -मनुष्य हर व्यक्ति होना होगा ! ब्राह्मण के गुणों को - उच्च कोटि का चरित्र अर्जित करना होगा। उसका जीवन तप केंद्रित है। व्यक्ति और समाज दोनों दृष्टि से क्रमविकास ब्राह्मण होने में है। इस पृथ्वी पर कितने ब्राह्मण हैं ? जिसका जीवन ही निःस्वार्थ है , यह दुर्लभ है या नहीं ? तो नरजन्म दुर्लभ है। उससे भी दुर्लभ है - ब्राह्मण जैसा चरित्रवान मनुष्य बन जाना! मनुष्य रूप में जन्म लेकर इसको ब्राह्मणत्व के गुणों से विभूषित रखना और भी दुर्लभ है या नहीं ?
उससे भी कठिन है -तस्माद् वैदिक-धर्ममार्ग परता - उसमें वैदिक धर्म मार्ग पर चलना, उसमें निष्ठा होना और भी कठिन है। शब्द बड़े सुंदर हैं - वैदिक-धर्ममार्ग ! मनुष्य के लिए व्यक्तिगत दृष्टि से , या सामाजिक दृष्टि से , दोनों दृष्टिकोणों से- बताइये हमारे लिए कौन सा ism सही है ? वह मार्ग कौन सा है , जो मनुष्य को सही अर्थों में सुखी बना सकती है ? जो मनुष्य को सही अर्थों में दुःख से मुक्त करा करा सकती है ? व्यक्तिगत और सामाजिक दृष्टि से वह मार्ग कौन सा है -जो मनुष्यों को पूर्णता की और ले जा सकती है - वो मार्ग कौन सा है ? आज पूरे विश्व में कितने प्रकार isms हैं ? है कि नहीं ? Communism, capitalism, socialism-फ्रायड वाद, समाजवाद ये सब प्रकार के वाद हैं। और करोड़ो -करोड़ लोग इसके अनुयायी भी हैं। लेकिन ये सब एक मार्ग है - राजनितिक धार्मिक नेता को भी अनुयाई मिल जाते हैं - कम्युनिष्ट कहाँ पहुँचते है ? बुद्धिज्म से कम्युनिज्म -कैपटिलिज्म से लोग सुखी हैं क्या ? (1:01:00) कम्युनिस्ट ब्लॉक, कैपिटलिस्ट ब्लॉक का क्या हाल है ? पूरा खोखला है। अभी चाइना चरित्र-निर्माण के लिए विवेकानन्द की पद्धति सीखना छह रहा है। किसी भी ism से दुःख का निवारण हुआ क्या ? ये सब एक मार्ग है कि नहीं ? आगे बढ़ने का क्या अर्थ है ? सबको सुखी होना है, दुःख से निवृत्त होना है। वह कौन सा मार्ग है , कौन सा ism है , जो मनुष्य को सच्चे अर्थ में दुःख से निवृत्त करा सकती है , और सही अर्थ में सुखी बना सकती है ? मार्क्सिज्म से कोई सुखी हुआ है क्या ? कैप्टलिज्म से कोई सुखी हुआ क्या ? सभी मनुष्य दुःख से निवृत्त कैसे हों ? सुखी कैसे हों ? वह मार्ग है -वैदिक मार्ग। त्याग और योग के आदर्श पर चलने वाला समाज और राष्ट्र विश्व का सबसे धनी राष्ट्र कैसे बना ? वह है वैदिक धर्म मार्ग सबसे श्रेष्ठ है , इसलिए सबसे प्यारा है। हमने गुरुवाक्य पर श्रद्धा खो दिया तब हम गरीब हुए। त्याग और योग की भूमि होकर भी हमलोग विश्व में सबसे समृद्ध देश कैसे बन गए ? कौन से ism से हुआ ? भारत प्राचीन युग में कम्युनिज्म से सोने की चिड़िया बना था? ये सोसिअलिज्म से बना था था ? वैदिक धर्म मार्ग पर चलकर ही बना था। ऋषियों का बताया वैदिक मार्ग पर चलते हुए हमारा देश सोने की चिड़िया था। (1:04: 00) वैदिक धर्ममार्ग पर चलकर ! वर्णाश्रम धर्म हमे सोने की चिड़िया -महान बनाता है। वैदिक धर्म मार्ग पर निष्ठा और भी दुर्लभ है कि नहीं ? हिन्दू हम सिर्फ नाम के हैं , हमलोग वेद -वेदांत मार्ग पर चल रहे हैं क्या ? ब्राह्मणों का गुण प्राप्त करना दुर्लभ है -उससे भी दुर्लभ जो वैदिक मार्ग में निष्ठा रखते हैं। तस्माद् वैदिक-धर्ममार्ग परता और भी दुर्लभ है। वेद - निष्ठा आप में है , पर कितने लोगों को शास्त्र का ज्ञान है ? ये और भी दुर्लभ है। आचरण में ज्ञान उतरा है क्या ? इससे भी दुर्लभ है -शास्त्र का ज्ञान होना , कितने लोगों को शास्त्र का ज्ञान प्राप्त है ? इसका अनुशीलन करने वाले और भी दुर्लभ हैं। आत्मा-अनात्मा का विवेक हमें शास्त्र से मिलता है , ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या की विवेचना करना दुर्लभ है , आत्मा में प्रतिष्ठित भी कर लिया और उसीमे प्रतिष्ठित कितने लोग हैं ? मुक्ति उसी को मिलती है। अंत में पता लगता है कि मुक्ति सबसे दुर्लभ वस्तु है। उसकी शुरुआत मनुष्य शरीर में जन्म लेने से होता है। 1000 साल में हमारा पतन हुआ , क्योंकि हमने सनातन वैदिक मार्ग को छोड़ दिया। त्याग और योग का रास्ता ही मनुष्य को सुखी बना सकता है।आत्मा क्या है अनात्मा क्या है ? ये जान लेना बहुत दुर्लभ है। जिसने आत्मा में अपने को प्रतिष्ठित कर लिया हूँ। मैं ब्रह्मबोध में प्रतिष्ठित हूँ ! ऐसा अनुभव करने वाला ही मुक्त है। अनंत जन्मों के पुण्य कर्म से यह दुर्लभ मुक्ति प्राप्त होती है। ये हमारा लक्ष्य है -अभी इसे हमलोग सुन रहे हैं। साधना से प्राप्त होता है।
जिस दिन हम यह यह जान लेँगे कि मैं कौन हूँ ? जब हम अपने आत्मस्वरूप को जान लेंगे तब हम मोक्ष को प्राप्त कर लेंगे। यही हमारा लक्ष्य है। अभी इसको केवल सुन लीजिये। स्त्री-पुरुष दोनों यह आत्मज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। तीसरे श्लोक में कहते हैं , तीन चीजें हैं जो अत्यंत ही दुर्लभ हैं। मनुष्य शरीर में रहकर भी मुक्ति की इच्छा कितने लोगों में है ? 99 % लोगों में मुक्ति (मोक्ष) की इच्छा ही नहीं है। उनको भी चरित्रवान मनुष्य बनना होगा। सही दिशा में हमारा जीवन जायेगा - जब एक सतगुरु प्राप्त होना और दुर्लभ है मनुष्यत्वं मुमुक्षुत्वं महापुरुष-संश्रयः -- महापुरुष का आश्रय मिलना सबसे दुर्लभ है। यदि किसी को ये तीनो उपलब्ध है तो समझ लेना चाहिए कि ईश्वर का अनुग्रह प्राप्त हो चुका है। (हमारा लक्ष्य उस अवस्था पहुँचना- जहाँ आप हो लेकिन इन्द्रियाँ नहीं हैं !)
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Vivekachudamani Saar |Session-5|
⚜️️🔱मैं कौन हूँ- यह जान लेने पर कौन सा प्रयोजन सिद्ध होता है ⚜️️🔱
परात्मानमेकं जगद्बीजमाद्यं,
निरीहं निराकारमोङ्कारवेद्यम्।
यतो जायते पाल्यते येन विश्वं,
तमीशं भजे लीयते यत्र विश्वम्॥५॥
ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु।
सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै॥
ॐ शांति, शांति, शांतिः
विगत सत्र में हमने देखा कि सब जीवजंतु बंधन में हैं। बंधन से मुक्त होने की इच्छा कितनों में है? बहुत ही कम लोगों में बंधन से मुक्त होने की इच्छा दिखाई देती है। तो हमारे विवेक-चूड़ामणि ग्रन्थ के अध्यन का मुख्य विषय है - आत्मा का ज्ञान ! मैं कौन हूँ ? या मैं क्या हूँ ? और मैं कौन हूँ ; इस ज्ञान को प्राप्त कर लेने पर कौन सा प्रयोजन सिद्ध होता है ? आत्मज्ञान होने से ही व्यक्ति मुक्त होता है। (2:53) अपने मुक्त स्वरुप को पहचान लेता है।
-आत्मज्ञान होने से क्या लाभ है ? उसीसे व्यक्ति मुक्त होता है। हमलोग यहाँ पाठचक्र में -गणित नहीं पढ़ रहे हैं, Biology नहीं पढ़ रहे हैं, या भूगोल नहीं पढ़ रहे हैं। ये एक अद्भुत विषय है, जो हमारी प्रचलित शिक्षा-पद्धति में कहीं नहीं मिलती। आत्मा को जानने की इच्छा कितने लोगों में है ? आप देखोगे कि ये अत्यंत ही विरल है। आपके आस-पास, पड़ोस में, अपने ही घर में, कहीं भी स्कूल -कॉलेज में आपकी जो मित्रमण्डली है , सभी में देखिये। सभी लोगों की प्रवृत्ति क्या है? सभी लोग इन्द्रियों से विषयों के पीछे, पीछे , पीछे ही जा रहे हैं ! सब लोगों की यही प्रवृत्ति है। वहुत ही विरल ऐसे मनुष्य होते हैं, जिनके अंदर यह इच्छा उत्पन्न होती कि मुझे आत्मा को जानना है। उसका एक मुख्य कारण है। जीवन के एक पड़ाव पर खुद यह इच्छा जाग उठती है, क्योंकि जीवन स्वयं हमें सिखा देती है। जीवन से हमें क्या सीख मिलती है ? जो विवेकी या विचारवान मनुष्य होते हैं, इन्द्रियों के पीछे दौड़ते -दौड़ते उनके अंदर एक समझ उत्पन्न हो जाती है कि भोगों में कुछ छल है। ये जैसा दीखता है, वैसा ये नहीं है। इन्द्रिय भोगों को हम चाहे जितना भी भोग करलें -यह तो हमें कभी तृप्त करती ही नहीं है। उसके उल्ट भोग की जो वासना है , वह और भी तीव्र होती है। भोग करने से तो अग्नि और भी भड़कती है। उल्टा हो रहा है। हम जितना विषयों का उपभोग करते हैं। मुख्य विषयों का सेवन तो सबको करना पड़ता है। लेकिन बहुत सी भोग की वस्तुएं हैं, जिसके लिए तो पूरा मानवसमाज पागल हो रहा है। लेकिन ऊन विषयों के सेवन से किसी की भी काम-वासना तृप्त हुई है क्या ? वो तो और भी धधकती है ,और भी भड़कती है। ये बात किसी -किसी विरल मनुष्य को ही समझ में आता है , कि इस ओर मैं जितना भी जाऊ उसका कोई अंत है ही नहीं। ये उसी प्रकार है -जैसे अंधकूप में गिरते चले जाते है-जिसका कोई तल ही नहीं हो ? आप अपने हो रूप को किसी ऐसे अंधे कुँए में गिरते हुए कल्पना कीजिये। गिरना तब तक चलता रहेगा , जब तक हमारे जीवन में विवेक-विचार जाग्रत नहीं होगा। विवेक जाग्रत होना ही वो पहला क्षण होगा जब आप आप उस गड्ढे से बाहर निकलने का सोचोगे। उस अंधे कुएँ से बाहर निकलने का प्रयास, यानि बंधन से मुक्त होने का प्रयास। ये पाठचक्र सिर्फ उन्हीं लोगों के लिए है जो इस गड्ढे से निकलना चाहते हैं , तभी ये अध्यन गोष्ठी (P.C) प्रासंगिक है। जो भोगों की ओर ही जाना चाहते हैं , गड्ढे से बाहर निकलना ही नहीं चाहते उनके लिए ये विवेक-चूड़ामणि का अध्यन है ही नहीं । क्या आप ये ग्रंथ विवेक-चूड़ामणि अपने दोस्तों को दे सकते हो ? वे लोग इसको छुएंगे भी नहीं। लेकिन जो बंधन से मुक्त होना चाहता है , उसके लिए पुस्तक उसका प्राण बन जायेगा। यह शास्त्र उसका एकमात्र आसरा बन जायेगा। जीवन-मृत्यु से भी अधिक महत्वपूर्ण इसका अध्यन बन जायेगा। ऐसे व्यक्ति को ही साधक कहा जाता है। वेदांत किसी पर कुछ थोपता नहीं है। उसका काम केवल मानवजाति को सत्य बता देना है। उसके बाद इसे स्वीकार करना , न करना आपके ऊपर है। आप देखोगे 99 % लोग इसको छुएंगे भी नहीं। उनको अभी भी संसार के भोग ही चाहिए। तो आप उसके लिए बिल्कुल स्वतंत्र हैं। वेदांत उस ओर जाने से किसी को रोक नहीं रहा है। आप लोग अपने सत्य स्वरुप को जानने की इच्छा से ही यहाँ आये हो। इस तलहीन गड्ढे से बाहर निकलने के प्रयास में त्याग का स्थान सर्वोपरि है। अब त्याग- वैराग्य ऐसे दो शब्द हैं -जिससे सभी लोग भयभीत हैं। (9.43) मानव-जीवन में त्याग और वैराग्य का आना बहुत उत्कृष्ट विकास है। लेकिन त्याग क्या है ? त्याग का मतलब जंगल भागना नहीं है। गृहस्थ को अपने मिथ्या नामरूप-में आसक्ति का त्याग करना है, संन्यासी को भौतिक जीवन को पूर्णतः त्यागना है। अज्ञान के कारण ही हम अपने को बंधन में पाते हैं। यह अध्यन उन लोगों के लिए है जो अपने सत्य स्वरुप को जानना चाहते हैं , जो बंधन से मुक्त होना चाहते हैं। आप जब अपने सत्यस्वरूप को जान जाओगे , तो देखोगे कि आप बंधन में कभी थे ही नहीं। आप इस समय भी मुक्त ही हो , बंधन का हमें सिर्फ भ्रम हो रहा है। वो क्यों हो रहा है ? अज्ञान के कारण हो रहा है। अपने स्वरुप को न जानना रूपी जो अज्ञान है , उस अज्ञान के कारण हर मनुष्य अपने को बंधन में पाता है। हमलोग इसी क्षण नित्य-मुक्त -शुद्ध-बुद्ध आत्मा हैं। जिस दिन हम अपने वास्तविक स्वरुप को जान लेंगे , वो सबसे बड़ी उपलब्धि होगी। दुःख से निवृत्ति और सुख प्राप्ति इसी उपलब्धि से होगी। विवेक-चूड़ामणि का अध्यन करने का अधिकारी , या पात्र वही है जो अपने स्वरुप को जानकर बंधन से मुक्त होना चाहता हो। तो आप देखोगे उपनिषदों में भगवत गीता में सिर्फ त्याग की शिक्षा है। सभी महापुरुषों के उपदेशों में ऐषणाओं के त्याग की ही शिक्षा है। भोगी को यह त्याग -वैराग्य की बात सुनना अच्छा नहीं लगेगा। गीता में पूरा त्याग ही है , कौन त्याग -वैराग्य चाहते है? पाश्चात्य संस्कृति का लक्ष्य- भौतिकवाद है। हमें किसी ने बताया नहीं कि क्यों विषयों में आसक्ति का त्याग जरुरी है ? अब तो भारत के शहरों क्या संसार के विषयों का भोग ही जीवन का लक्ष्य है अब तो भारत के गाँवों में भी सर्वत्र 99 % मनुष्यों की दशा - दृश्य-संसार के विषयों का भोग ही लक्ष्य है। उनका एक प्रकार का जीवन है - वेदांत कहता है जाँच कर देखो - जो इन्द्रिय भोगों का जीवन जीते हैं , ये लोग पहुँचते कहाँ हैं? बाल्यावस्था चला गया , जवानी खत्म हो जाएगी , बुढ़ापा आ जायेगा , इन्द्रियां शिथिल हो जायेंगी पर पूर्णता -तृप्ति नहीं मिलेगा। आप जहाँ थे अपने को वहीँ पाओगे। वृद्ध लोगों के जीवन को देखो - पहुँचे कहाँ हैं ? वे अपूर्ण ही रह जाते हैं। लंगर डालकर नाव खेने की चेष्टा - सारी रात नाव खेया -सवेरे देखा वहीँ है। यह अध्यन करने लिए भी योग्यता की आवश्यकता है। जो त्याग-वैराग्य नहीं चाहते उनके लिए यह अध्यन नहीं है। आपको जिधर दौड़ना है , दौड़ के देख लीजिये। आप अपने को वहीं पर पाएंगे। अपने आस-पास जो 60 - 70, 80 के लोग हैं , उनसे पूछिए वे कहाँ पहुँचे हैं ?" हो सकता है उन्होंने धन-सम्पत्ति कमा लिया हो , नाम-यश कमा लिया हो। पर जीव तो अभी भी अपूर्ण ही है। कष्ट में है। लेकिन
जो वेदांत आधारित जीवन होगा, त्याग आधारित जीवन होगा , वो बताएगा इससे पीछे मुड़ो। क्यों पीछे हटो, क्योंकि जिन विषयों को आप सत्यत्व बुद्धि से देख रहे हैं , वे साथ नहीं हैं। वो मृगमरीचिका है। वहां एक बून्द पानी नहीं है। ये दीखता पर सच्चाई में है ही नहीं। रास्ते पर रस्सी देखकर सर्प का भय उत्पन्न हो जाता है। सर्प है ही नहीं - रज्जु है। यहाँ इन्द्रियों से जो दिख रहा है - उसको परख कर देखोगे -कुछ और ही निकलेगा। सत्यापित करके जगत को देखों। जगत जिसको मान लिया वो है क्या ? यदि जगत नहीं है , तो फिर क्या है ?-ईश्वर ही है ! महामाया की छाया मात्र है। रज्जु-सर्प विवेक से भय समाप्त हो जायेगा। सर्प है नहीं रस्सी है, जो जगत इन्द्रियों से दिखाई दे रहा है वो क्या है ? जगत के भोगों में सुख है क्या ? हमने जगत की जो धारणा बना ली है , जगत वैसा नहीं है। ब्रह्म ही जगत के रूप में भास रहा है। ऋषि है जो भी कह रहे हैं- यहाँ सिर्फ ब्रह्मवस्तु ही है। ब्रह्मवस्तु ही जगत के रूप में दिखाई दे रहा है। वही सत्य है। योग आधारित जीवन और भोग आधारित जीवन की तुलना कीजिये। जिसने अपने आप को संसार में डुबा दिया वो अंत में अपने को खाली ही पायेगा। अपूर्ण ही पायेगा। और दूसरी ओर स्वामी विवेकानन्द के ही जीवन को देख लीजिये। त्याग आधारित जीवन और योग आधारित जीवन देखो। विवेकानन्द बिना 10 रुपया जेब में रखे इतना आनंदित कैसे हैं ? परिणाम को देखकर अपने जीवन की दिशा तय कीजिये। वयोबृद्ध लोगों से बात करके देख लीजिये। शंकराचार्यजी का बहुत सुंदर श्लोक है -
बालस्तावत् क्रीडासक्तः,
तरुणस्तावत् तरुणीसक्तः ।
वृद्धस्तावच्चिन्तासक्तः,
परे ब्रह्मणि कोऽपि न सक्तः ॥७॥
भजगोविंदम ---
क्या कहते हैं ? बचपन में खेल में रूचि होती है, युवावस्था में युवति के प्रति आकर्षण होता है। वृद्धावस्था में चिंताओं से घिरे रहते हैं, किन्तु प्रभु से कोई प्रेम नहीं करता है ॥७॥ यौवन में बुढ़ापे का भय भी है। शरीर का अंतिम स्थान - श्मसान ही है। बच्चा मासूम दिखाई दे रहा है , पर वह पारधीन है। बाल्यावस्था भयभीत जीव की अवस्था है। बड़े -बूढ़े सभी लोग खिलौने से खेलने व्यस्त हैं। कोई सत्य को जानना नहीं चाहता। खिलौने से कहकर किसी का मन भर है क्या ? बच्चा अपनी गुड़िया से आसक्त हो जाता है, हमलोग भी जगत के जमीन- जायदाद में आसक्त हो गए हैं। गुड़िया के ऊपर हमारी सत्यत्व बुद्धि बना लेते हैं। बचपन की स्मृतियाँ सभी को हैं - ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी। मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन, वो काग़ज़ की कश्ती, वो बारिश का पानी।। (24.10)
तरुणावस्था सबसे खतरनाक अवस्था। तरुणस्तावत् तरुणीसक्तः । लड़का का पूरा ध्यान लड़की पर , लड़की का ध्यान लड़के पर -हम सभी इस अवस्था से गुजरे हैं। teen age में सारा ध्यान कहाँ है ? ये खिंचाव प्राकृतिक खिँचाव है। उस वक्त सारी शक्ति उसी में चली जाती है। तरुणी से दिल भरा क्या ? बूढ़ा -बूढी की शक्ति क्षय हो गया - वो चिंता में ही डूबा रहता है , बूढ़ा स्मृतियों में ही डूबा रहता है। वासना अभी तक है , पर कुछ कर नहीं सकता और ऐसे ही मर जाता है। कितनी बार हम माँ की कोख प्रवेश कर चुके हैं ? हर जन्म में ऐसा ही होता है। यही बंधन है - यह जाल है। जिसमें हमलोग फँसे हुए हैं। यह विवेक-चूड़ामणि अध्यन उसी के लिए प्रासंगिक है। इस जाल से बाहर निकलने का मार्ग सिर्फ शास्त्र और गुरु के वचनों का पालन करने में है। असुरक्षा भाव हमें काटता रहता है।
यौवन में बुढ़ापे का भय है। एक भविष्वाणी गलत नहीं होगा - हम सभी का शरीर मरने वाला ही है। शरीर रहते उद्देश्य को प्राप्त कर लो। आदर्श ब्राह्मण का गुण धारण कर लो। कितना दुर्लभ है जो निःस्वार्थ भाव से ज्ञान बाँटता है ? वैदिक मार्ग के यात्री कितने हैं ? कितने लोगों को इस मार्ग पर निष्ठां है ? हम केवल नाम के हिन्दू रह गए हैं ? शास्त्र का ज्ञान कितने लोगों को है ? सत्य-मिथ्या विवेक का मार्ग ही शास्त्र बताते है। अनात्मा -आत्मा का विवेक करने वाला आत्मा में प्रतिष्ठित होकर मुक्त हो जायेगा। अनात्मा मतलब खिलौना ? मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा और सद्गुरु का आश्रय ईश्वर के अनुग्रह से ही होता है।
सभी त्यागी -वैरागी हो जायेंगे तो दुनिया कैसे चलेगी ? इसकी चिंता आप मत कीजिये। दुनिया जैसे चल रही है वैसे ही चलते रहेगी -आप मुक्त हो जाओगे। यदि गुरु के बताये मार्ग पर चलते रहोगे। हमसभी अपूर्णता की अनुभूति कर रहे हैं -इसलिए यहाँ आये हैं। जितने ism हैं , सब उस कुँए के भीतर गिरने वाला मार्ग है। सच्चाई में एक ही मार्ग -वेद के बताये मार्ग में किस हिन्दू की निष्ठा है ? शास्त्र का ज्ञान कितने लोगों को है ? आत्मा और अनात्मा का विवेक कितने लोग करते हैं। सभी खिलौने से खेल रहे हैं। आधार कार्ड वाला पहचान -समाप्ति की ओर जा रहा है। विवेक-चूड़ामणि के 580 श्लोकों में से हमें - 50-60 श्लोक पढ़कर उसका सार समझ लेना है। अगला श्लोक (47 मिनट पर-सेसन 5) पर हम ले रहे हैं वो छठा श्लोक इस प्रकार है -
वदन्तु शास्त्राणि यजन्तु देवान,
कुर्वन्तु कर्माणि भजन्तु देवताः।
आत्मैक्यबोधेन विनापि मुक्तिः,
न सिध्यति ब्रह्मशान्तरेऽपि।। (6)
6. लोग चाहे शास्त्रों का उद्धरण दें, देवताओं को बलि चढ़ाएँ, अनुष्ठान करें और देवताओं की पूजा करें, लेकिन आत्मा के साथ अपनी पहचान के बिना, आत्मा के साथ जीव की एकत्वानुभूति (oneness की अनुभूति) के बिना मुक्ति नहीं मिलती, यहाँ तक कि सौ ब्रह्माओं के जीवनकाल# में भी नहीं। [नोट:# जीवनकाल। —अर्थात, समय की अनिश्चित अवधि। ब्रह्मा (सृष्टिकर्ता) का एक दिन मानव गणना के 432 मिलियन वर्षों के बराबर है, जो कि संसार की अवधि मानी जाती है। कालात्मा भगवान् (या माँ काली) "कालात्मा" शब्द का अर्थ है "समय का आत्मा" या "समय का सार। " भगवान शिव को कालात्मा के रूप में भी जाना जाता है क्योंकि वह समय के अंत में ब्रह्मांड का संहार करते हैं। यह शब्द भगवान शिव से जुड़ा है, जो समय के नियंत्रक और ब्रह्मांड के संहारक माने जाते हैं।
इस श्लोक का भाव ये है - के माध्यम से भगवान शंकर कह रहे हैं - आप को जो कुछ कर्मकाण्ड करना है , तीर्थ-भ्रमण , दानपुण वो सबकुछ करके देख लीजिये। किन्तु जबतक जीव का आत्मा के साथ एकत्व की अनुभूति नहीं हो जाती कोई भी इस गड्ढे से - जिसकी तली नहीं है, उस गड्ढे से कोई भी बाहर नहीं निकल सकता। जीव का आत्मा के साथ एकत्व का अनुभव क्या है ? अपने सत्य स्वरुप को जाने बगैर , किसी की भी मुक्ति नहीं हो सकती। आज इस जीव की जो पहचान है- इसका मतलब क्या है ? , आधार कार्ड वाली -आज हमारी पहचान क्या है ? कोई XYZहै , ABCD है -या EFGH है ? वह नहीं , आत्मा के साथ जिस परमात्मा का एकत्व है , वह पहचान। वास्तव जो bks है -वो भी यह नहीं है। हमसबों की वास्तविक पहचान एक ही है, वो बड़ा आश्चर्यमय है। ये अहं क्या है ?
जिसको हम अपना पहचान समझते हैं -वो क्या है ? इसको हम व्यावहारिक जीव कहते हैं - इसको हमलोग अंग्रेजी में आभासी जीव की पहचान, Fictional Identity- काल्पनिक पहचान कह सकते हैं। जो लम्बा-मोटा -पतला , गोरा -काला या M/F शरीर के नामरूप में है। ये बदल रहा है , यह काल्पनिक पहचान चला जायेगा। ये अभी भी जा रहा है। BKS के आधार कार्ड वाला Identity जाने वाला है।
एक उदाहरण देखें - इसी एक घंटे के पाठचक्र में हम जब बैठे हैं। इतनी ही देर में जगत कितना बदल गया ? विश्व में कितने जीवों का जन्म हो गया मृत्यु भी हो गया। हम यहाँ आये हैं ये ईश्वर के अनुग्रह से हो रहा है। जैसे बुलबुले के जैसा कितना छोटे छोटे जीव , उत्तराखण्ड में बादल फट गया, हम नहीं रो रहे , पर जिससे हमने अपना सम्बन्ध बना लिया है , वो जाने लगते हैं तो हम दुःखी हो जाते हैं। अहमदाबाद जो प्लेन क्रैश हुआ - कौन बुलबुला कह सकता है कि -अगले सन्डे तक मैं जीवित रहूंगा। पर हमको लगता है कि यही सत्य है। जिसका जन्म हुआ उसकी मृत्यु निश्चित है। बुलबुले की सच्चाई -पानी है , हमारा सत्य स्वरूप नश्वर शरीर नहीं है हमलोग सब अविनाशी आत्मा है। आज का हमारा पहचान बुलबुला है , इसको खोजेंगे तो पानी ही मिलेगा। यही इस पूरे ब्रह्माण्ड की सच्चाई है। लहर में समुद्र ही मिलेगा।
जगत हर क्षण बदल रहा है - जगत परिवर्तन का एक प्रवाह है। नाम-रूप गायब हो जायेगा - अस्ति, भाति, प्रिय प्रकट हो जायेगा। यहाँ आचार्य शंकर यही कह रहे हैं -आप कुछ भी कर लीजिये यदि आत्मा के साथ अपने स्वरुप के एकत्व की अनुभूति नहीं हो जाती तो 100 ब्रह्मा का शरीर पाकर भी गड्ढे से बाहर नहीं निकल पाओगे। 'वदन्तु शास्त्राणि, यजन्तु देवान'--- आप शास्त्रों का उद्धरण देते रहिये -सब श्लोक कंठस्थ कर लीजिये। पढ़कर उसको अपने जीवन में उतारोगे नहीं , अनुशीलन नहीं करोगे तो मुक्ति नहीं होगी। आप गीता कंठस्थ कर सकते हैं , यदि नहीं किये हों तो इसको टास्क समझकर करना चाहिए। पर गीता के उल्टा त्याग और योग को जीवन में उतारे बिना- मुक्ति नहीं होगी। क्योंकि गीता जीवन का सम्पूर्ण दर्शन है। यजन्तु देवान'- आप विभिन्न प्रकार के देवताओं को प्रसन्न करने के लिए विभन्न प्रकार के शतकुंडि या हजारकुण्डि यज्ञ कर लीजिये , विभिन्न देवी देवता को भजकरके देख लीजिये -भजन्तु देवताः। जब तक आप अपने आत्मस्वरूप का ज्ञान- Who am I? मैं कौन हूँ ? का ज्ञान , नहीं प्राप्त कर लेते आपकी मुक्ति नहीं होगी। इस गड्ढे में गिर करके आप जो कुछ भी कर लीजिये - इससे बाहर निकलने का एक मात्र मार्ग वो- आत्मज्ञान ही है। एक बहुत बड़ी सच्चाई हमारे सामने रख रहे हैं -आत्मज्ञान का महत्व हमारे सामने रख रहे हैं। आत्मजिज्ञासा - मैं कौन हूँ ? भौतिक दृष्टि से हमसबों को सारी सुख-सुविधा उपलब्ध है , पर तृप्ति नहीं है। आत्मजिज्ञासा - आत्मज्ञान के महत्व को पहले समझ तो जाएँ !
आत्मज्ञान की दिशा में आगे बढ़ने के लिए कुछ चीजें अनिवार्य हैं। यहाँ से यदि दिल्ली जाना हो तो आपके पास एक गाड़ी होनी चाहिए, पेट्रोल भी होना चाहिए । पैदल जाने केलिए भी भोजन-पानी की व्यवस्था चाहोये। गड्ढे से बाहर निकलने के लिए कुछ चीजें अनिवार्य हैं। आपको गड्ढे से बाहर निकलना भी है या नहीं ? ये प्रश्न है। सभी लोग अगर गड्ढे से बाहर निकल जाएँ , तो फिर गड्ढे में कौन होगा ? ये सृष्टि एक गड्ढे के समान है , यदि सब लोग इस गड्ढे से बाहर निकल गए टी ये सृष्टि समाप्त हो जाएगी। सभी बाहर निकलने के लिए तैयार नहीं हैं ? हम किस गुट में हैं ? घर में सबकुछ है , भोजन -वाहन मकान , जमीन ज्यादाद सब है , पर जीवन तो अतृप्त है न ? जीव तृप्त है या नहीं ? ये सोचने का विषय है , ये विचार करने का विषय है। विश्व का सबसे धनी व्यक्ति भी उतना ही असुरक्षित है -जितना कोई गाय है। ट्रम्प आपसे भी ज्यादा असुरक्षित है। अपने को देह समझने वाला जीव हमेशा असुरक्षित ही रहेगा , भले उसकी भौतिक समृद्धि कुछ भी हो। वो भयग्रस्त है , वो अतृप्त है। पहले हमे स्वयं से यह पूछना है कि हमें इस तली -विहीन गड्ढे से बाहर निकलना है यहीं ? बाहर निकलने वाले गुट को हमलोग साधक या मुमुक्षु कहते हैं। प्रश्न है - आप साधक हो क्या ? आप मुमुक्षु हो क्या ? अगर हो तो आए का विषय आता है -विवेकचूड़ामणि , उपनिषद या गीता आपको सांसारिक विषयभोग का मार्ग नहीं दिखायेगा। आपका रास्ता ही अलग है। दिल्ली में रेव पार्टी का परिणाम क्या है ? वो आपको तृप्त करता है क्या ? यदि गड्ढे से बाहर निकलना हो तो पाठचक्र लाभदायक लगेगा।
साधारण मनुष्यों प्रवृत्ति क्या है ? अधिकांश की प्रवृत्ति इन्द्रियों के पीछे दौड़ने का है। कितना भी भोग कर लें , यह कभी तृप्त होती ही नहीं है। ये उसी प्रकार के गड्ढे में गिरने के समान है , जिसका कोई तल है ही नहीं। मुक्त होने की इच्छा - आत्मा का ज्ञान - मैं कौन हूँ ? इसको प्राप्त करने से आदमी मुक्त होता है , अपने स्वरुप को पहचानता है। हमारी शिक्षापद्धति में ये शिक्षा कहीं नहीं है।
आप कल्पना में अपने रूप को एक गड्ढे में गिरते दिखिए और सोचिये कि उसका तल है ही नहीं। जब तक हमारे जीवन में विवेक-विचार शुरू नहीं होगा ये चलता ही रहेगा। जो भोगों के पीछे जाना चाहते हैं , उनके लिए ये अध्यन नहीं है। आपका जो दोस्त बंधन से मुक्त होना चाहता हो उसको ये पुस्तक दोगे तो यह उसका प्राण बन जायेगा। वेदांत (उपनिषद) अपने सिद्धांत किसी थोपना नहीं चाहता - वह मानवजाति को केवल सत्य बता देना चाहता है। आप देखोगे 99 % लोग इस पुस्तक को छुएंगे भी नहीं। उनको अभी भी संसार के विषयों का उपभोग ही चाहिए - तो वो बिल्कुल स्वतंत्र है , वेदांत यह कभी नहीं कहता कि सबको इसी समय स्वीकार कर लेना होगा ! हम यह मानकर चलते हैं , कि पाठचक्र में जो भी आता है , वो साधक और मुमक्षु है। इसमें त्याग -वैराग्य सबसे महत्वपूर्ण विकास है। आप अभी भी मुक्त ही हैं , बंधन का जो अनुभव हो रहा है , वो अज्ञान के कारण हो रहा है।
रज्जु में सर्प दिखने जैसा ब्रह्म ही जगत के रूप में दिख रहा है ? ये निरीक्षण का विषय है -आप इसको परखकर देखो। जगत है क्या ? जैसा दिखाई दे रहा है , ये वैसा नहीं है। आज हमें समझ नहीं आ रहा है। त्याग और योग आधारित व्यक्ति -स्वामी विवेकान्द को रखें या भोग मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति को देखें कौन आनंद में है ? परिणाम को देखिये - 80 साल के बाद कहाँ पहुंचे ? खालीपन है।
बालस्तावत् क्रीडासक्तः,
तरुणस्तावत् तरुणीसक्तः ।
वृद्धस्तावच्चिन्तासक्तः,
परे ब्रह्मणि कोऽपि न सक्तः ॥७॥
तरुणस्तावत् तरुणीसक्तः ।ऐसा होना - teen age में ऐसा होना प्राकृतिक है , सारी शक्ति उसी में खर्च हो जाती है। कितने खिलौने से खेले ? तरुणावस्था में तरुणी से खेलते रहे -तृप्ति मिली क्या ? बूढ़ा व्यक्ति चिंता में डूबा हुआ रहता है , पर अभी भी वो अतृप्त ही मर जाता है। दुबारा माँ के कोख में हम पहुँच जाते है। हर जन्म में उसी गड्ढे में गिरने जैसा -एक बंधन है , एक जाल है। तब वो सत्य की खोज में निकल पड़ेगा। इससे बाहर निकलने का मार्ग गुरु-और शास्त्र वाक्य पर श्रद्धा से मिलेगा। अगर विवेक हो तब आप उपाय खोजेंगे। विश्वप्रपंच जैसा दीखता है -वैसा नहीं है। जिसको सत्य को खोजने की उत्सुकता हुई हो , उसको गुरु और शास्त्र की शरण में आ जाना चाहिए। शुरुआत है मनुष्य जन्म मिलने से , लेकिन अंतिम सोपान इस गड्ढे से बाहर निकल जाना दुर्लभ है।
[ इस श्लोक में आदि शंकराचार्य ने एक अत्यंत गूढ़ और मूलभूत सिद्धांत को स्पष्ट किया है — कि केवल शास्त्रों का अध्ययन, यज्ञ, पूजा-पाठ, और धार्मिक अनुष्ठानों का संपादन, बिना आत्मा और ब्रह्म की एकता के बोध के, मोक्ष प्रदान नहीं कर सकते। [https://www.sadhanapath.in/search?updated-max=2025-06-05 T06:]
वदन्तु शास्त्राणि यजन्तु देवान् कुर्वन्तु कर्माणि भजन्तु देवताः ।
आत्मैक्यबोधेन विना विमुक्ति-र्न सिध्यति ब्रह्मशतान्तरेऽपि ॥ ६ ॥
अर्थ:- भले ही कोई शास्त्रों की व्याख्या करें, देवताओं का यजन करें, नाना शुभ कर्म करें अथवा देवताओंको भजें, तथापि जब तक ब्रह्म और आत्मा की एकता का बोध नहीं होता तब तक सौ ब्रह्माओं के बीत जाने पर भी [ अर्थात् सौ कल्पमें भी ] मुक्ति नहीं हो सकती।
श्लोक कहता है: “वदन्तु शास्त्राणि” — कोई व्यक्ति चाहे जितनी शास्त्रों की व्याख्या कर ले, विद्वत्ता प्राप्त कर ले, वह केवल बौद्धिक ज्ञान तक सीमित रहेगा यदि आत्मा और ब्रह्म की एकता का अनुभव नहीं हुआ हो। “यजन्तु देवान्” — कोई चाहे जितने यज्ञ कर ले, अग्निहोत्र, हवन, देवताओं की उपासना कर ले, फिर भी वह परम सत्य को नहीं प्राप्त कर सकता जब तक आत्मा-ब्रह्म का एकत्व नहीं समझा।
“कुर्वन्तु कर्माणि” — नाना शुभकर्म, दान, व्रत, तीर्थ, तपस्या आदि सत्कर्म किए जाएँ, ये सब मन की शुद्धि के साधन हो सकते हैं, परंतु अपने आप में मोक्ष के लिए पर्याप्त नहीं हैं। “भजन्तु देवताः” — देवताओं की भक्तिपूर्वक सेवा, नामस्मरण, स्तोत्रपाठ आदि भी यदि द्वैतभाव में किए जा रहे हैं, अर्थात् ईश्वर को मुझसे अलग समझकर, तो वे अंततः मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग नहीं बन सकते।
फिर श्लोक कहता है: “आत्मैक्यबोधेन विना विमुक्तिः न सिध्यति” — जब तक आत्मा और ब्रह्म की अभिन्नता का प्रत्यक्ष बोध नहीं होता, तब तक मुक्त होना असंभव है। यह बोध केवल तर्क या श्रवण के माध्यम से नहीं होता, अपितु यह एक आंतरिक, प्रत्यक्ष अनुभव होता है — ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का स्पष्ट, निर्विकल्प ज्ञान।
शंकराचार्य यह स्पष्ट करते हैं कि केवल बाह्य धार्मिकता, चाहे वह कितनी भी बड़ी हो, व्यक्ति को अंतिम लक्ष्य यानी मोक्ष तक नहीं पहुँचा सकती। जब तक मन में ‘मैं’ और ‘ईश्वर’ दो बनें रहते हैं, तब तक द्वैत बना रहता है, और द्वैत में बंधन होता है। मोक्ष का अर्थ है — इस बंधन से मुक्ति। और यह तभी संभव है जब ज्ञाता (जीव), ज्ञेय (ब्रह्म), और ज्ञान — ये तीनों एक हो जाएँ।
श्लोक के अंतिम शब्द अत्यंत प्रभावशाली हैं: “ब्रह्मशतान्तरेऽपि” — अर्थात् सौ ब्रह्माओं के अंतःकाल तक भी यदि आत्मबोध नहीं हुआ, तो मुक्ति नहीं होगी। यहाँ ‘ब्रह्मा’ एक कल्प का प्रतीक है — एक ब्रह्मा का जीवन अरबों वर्षों का होता है। अतः शंकराचार्य यह कह रहे हैं कि यदि अनेक कल्पों तक भी धार्मिक कर्म और उपासना करते रहो, तब भी जब तक आत्मा और ब्रह्म की एकता का ज्ञान नहीं होगा, तब तक मुक्ति नहीं मिलेगी।
इस प्रकार यह श्लोक वेदांत के मूल सार को अत्यंत संक्षिप्त किन्तु प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत करता है। यह हमें यह शिक्षा देता है कि साधन और कर्म आवश्यक हैं, परंतु वे साध्य नहीं हैं। वे केवल मन को शुद्ध और योग्य बनाते हैं आत्मबोध के लिए। अंतिम लक्ष्य आत्मा और ब्रह्म के अभेद का ज्ञान है, जो कि अद्वैत वेदांत का सर्वोच्च सत्य है। यही आत्मज्ञान ही वास्तविक मुक्ति का मार्ग है।]
कुछ चीजें अनिवार्य हैं - साधन चतुष्टय की आवश्यकता है। 10 % कम से कम रहना चाहिए। आपको सोचना पड़ेगा कि आप अपने को गड्ढे में देख पा रहे हो या नहीं ? सृष्टि में सभी बाहर निकलने को तैयार नहीं हैं।
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