3.
ह्रदय और आत्मा
[Heart and Soul]
>>Take care of your 3'H'- body (Hand), mind (Head) and Heart (ह्रदय).
स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं से हमने पाया है कि व्यक्ति के चरित्र में परिवर्तन लाने से ही समाज में परिवर्तन लाया जा सकता है। इसीलिये यदि हम व्यष्टि मनुष्य के चरित्र को सुन्दर रूप से गढ़ लें तो पूरे समाज को सुन्दर रूप से गढ़ा जा सकता है। यदि कोई व्यक्ति अपने शरीर को स्वस्थ और सबल बनाने के लिए प्रयत्न करता है , मन को शक्तिशाली और प्रबल इच्छाशक्ति सम्पन्न बनाने का अभ्यास करता है , ह्रदय को विस्तृत करने का प्रयास करता है तो वह निश्चित रूप से जीवन को सुन्दर रूप से गठित कर सकता है। पौष्टिक आहार और व्यायाम के द्वारा शरीर को स्वस्थ और सबल बनाया जा सकता है। इसी प्रकार मन को भी पौष्टिक आहार (स्वाध्याय) और व्यायाम (प्रत्याहार -धारणा ) द्वारा शक्तिशाली और प्रबल इच्छाशक्ति सम्पन्न बनाया जा सकता है।
>>Where dose the Soul resides in our body ~ is it in our heart, which feels, loves all and is unselfish. ?
किन्तु आत्मा का पौष्टिक आहार और व्यायाम क्या हो सकता है ? क्या हम अपनी आत्मा को महसूस भी कर सकते हैं ? हमने देखा है कि हमारे ह्रदय में दूसरों के सुख-दुःख को, अपने सुख-दुःख जैसा महसूस करने की शक्ति होती है। एक दिन स्वामीजी के मन में यह प्रश्न आया कि, आत्मा यदि हमारे शरीर के भीतर ही रहता है , तो शरीर में उसका निवास स्थान कहाँ है ? उन्हें याद हो आया कि संस्कृत एक शब्द है- ह्रदय। [ 'शतं चैका च हृदयस्य नाड्य:' कठोपनिषद-2.3.16) -हृदय की एक सौ एक नाड़ियां हैं।] एक-एक करके शरीर के सभी अंगों का विश्लेषण करते गए कि आत्मा का वास किस अंग में हो सकता है।
सिर से लेकर ह्रदय तक सभी जगहों में सूक्ष्मता के साथ खोज करने लगे। अन्ततः वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि अन्य अंग-प्रत्यंगों में आत्मा के छुपे रहने की सम्भावना बहुत कम है। क्योंकि हाथ, पैर या शरीर के कट जाने पर भी आदमी साधारणतः मरता नहीं है, लेकिन यदि सिर कुचल दिया जाये या हमारे वक्षस्थल के पिंजर (thoracic cage) पर जोर से आघात कर दिया जाये तो वह बच नहीं पाता। अतएव स्वामीजी ने यह निष्कर्ष निकाला कि आत्मा या तो हमारे सिर के भीतर कहीं होगा या फिर ह्रदय में वास करता होगा। फिर उत्तरोत्तर और भी सूक्ष्म विश्लेषण करके उन्होंने पाया कि मनुष्य का मन तो हमेशा विचार करने में ही व्यस्त रहता है और बुद्धि अक्सर हमें स्वार्थी बना देती है यह हमें दूसरों के बारे में ज्यादा सोचने नहीं देती। इस प्रकार जो बुद्धि सदैव स्वार्थपूर्ण विचारों में ही डूबी रहती है , हमें दूसरों के बारे में ज्यादा सोचने की इजाजत नहीं देती, वह कभी हमारी आत्मा का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती, क्योंकि आत्मा तो निःस्वार्थी है और सबसे प्रेम करती है। इस प्रकार वैज्ञानिक निरीक्षण-परीक्षण प्रणाली के माध्यम से उन्होंने भी हमारे पूर्वज ऋषियों की तरह यही अनुमान लगाया कि हमारी आत्मा यदि हमारे शरीर में ही कहीं अवस्थित है, तो निश्चित रूप से ह्रदय (blood pumping machine, रक्त-संचार मशीन) के आस-पास ही कहीं रह रही है ।
>>Our Soul loves all and is unselfish, so it must be residing in the Sympathetic Ganglion.
नरेन्द्रनाथ (स्वामी विवेकानन्द ) एक अत्यन्त प्रतिभाशाली छात्र थे। उन्होंने सभी विषयों यथा - इतिहास, धर्म और दर्शन का तो अध्यन किया ही था, साथ ही साथ उन्होंने भौतिकी, रसायन विज्ञान, जीव विज्ञान (biology), शरीर विज्ञान (physiology) और शरीर रचना विज्ञान (anatomy) आदि का अध्ययन भी किया था। इसी दैहिक गठन सम्बन्धी विद्या -'anatomy'- के आधार पर उन्होंने कहा था , तुम जानते हो कि हमारे शरीर में कई 'ganglia' (स्नायुग्रन्थि) होती हैं। मेडिकल के छात्र इसे अच्छी तरह से जानते होंगे कि हमारे यथार्थ हृदय (blood pumping machine) के निकट इसी तरह की एक ganglia है जिसको मेडिकल साइंस में भी सहानुभूति चेतना -केन्द्र या 'sympathetic ganglion' के नाम से जाना जाता है। और उनका अंतिम निष्कर्ष था, कि यदि हमारे शरीर में आत्मा कहीं अवस्थित है तो उसका अधिष्ठान इसी 'sympathetic ganglion' में होना चाहिये ।
>> Only he who is more sympathetic towards others, can manifest his divinity. [केवल वही (नेता/ पैगम्बर या अवतार )अपनी दिव्यता को प्रकट कर सकता है, जो दूसरों के प्रति अधिक सहानुभूति रखता है।]
अतएव, अपनी अन्तर्निहित दिव्यता (निःस्वार्थपरता) को पूर्णतः अभिव्यक्त करने में कौन सक्षम है? केवल वही (अवतार, पैगम्बर,नेता) जो दूसरों के प्रति अधिक सहानुभूति रखता है। हमलोग यदि श्रीरामकृष्ण के जीवन को ध्यान से देखें, श्रीश्री माँ सारदा देवी के जीवन को देखें , स्वामी विवेकानन्द के जीवन को देखें; या बुद्ध, श्री चैतन्य, ईसा मसीह और ऐसे ही अन्य व्यक्तियों के जीवन को देखें तो हम पाते हैं कि वे सभी केवल प्रेम (निःस्वार्थपरता) की घनीभूत मूर्ति थे। एक बार स्वामी विवेकानन्द से उनके गुरु श्रीरामकृष्ण (नवनीदा ? ) के बारे में कुछ कहने के लिए जब बहुत जोर दिया गया, तब उन्होंने कहा - " उनके बारे में कुछ कहने की क्षमता हमारे भीतर नहीं है। " वे सिर्फ इतना ही कह पाये कि श्री रामकृष्ण केवल LOVE हैं ! वे प्रेम के घनीभूत रूप हैं - He is love personified'! हमारे शास्त्रों में भी ईश्वर को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि -"स ईशः अनिर्वचनीय- प्रेमस्वरूपः" -अर्थात ईश्वर केवल प्रेम स्वरुप है।
>>Young people unite and come under an organization,
To express our heart's sympathy or love with the help of our mind and body.
भगवान के अंश होने से हमलोग भी वास्तव में प्रेमस्वरूप ही हैं, तथा अपने ह्रदय की सहानुभूति या प्रेम (दिव्यता-निःस्वार्थपरता ) को प्रकट करने के लिए, हम अपने मन और शरीर की सहायता लेते हैं। यह प्रयास हम व्यक्तिगत रूप से कर सकते हैं। अपने हृदय की सहानुभूति और प्रेम को प्रकट करने की सम्भावना प्रत्येक मनुष्य में है। किन्तु, आज के सामाजिक वातावरण में कुछ युवाओं के लिए अपनी अन्तर्निहित महान सहानुभूति या प्रेम को प्रकट करने का प्रयास व्यक्तिगत तौर से करना कठिन है। यदि हम व्यक्तिगत रूप में, अकेले -अकेले अपने ह्रदय की सहानुभूति या प्रेम को अपने मन और शरीर से प्रकट करने का प्रयास करें, तो हो सकता कि कुछ दिनों के बाद हम ऐसा सोचने लगें कि अब के वातावरण में यह प्रयास सफल ही नहीं हो सकता। इसी मानसिकता के साथ अन्ततः हम यह प्रयास करना ही छोड़ देंगे, और वर्तमान युग के भोगवादी बयार के साथ बहने लग जायेंगे। लेकिन, यदि कई युवा मिलकर एक संगठन बना लें और इस प्रयास में परस्पर एक-दूसरे को उत्साहित करते रहें, तभी उनके द्वारा किया जाने वाला जीवन-गठन का प्रयास सफल हो सकता है। 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल ' का उद्देश्य भी यही है। यह संगठन इसी कार्य को धरातल पर उतारने के लिये आविर्भूत हुआ है। ताकि, भारत के सभी युवा इस युवा-संगठन की वज्रांकित पताका के तले एकत्र होकर जीवन- गठन के कार्य में एक-दूसरे की सहायता कर सकें यदि इस तरह के संगठित प्रयास से भारत के 60 करोड़ युवाओं में से केवल कुछ लाख (कुछ हजार भी ? ) युवाओं को भी संघबद्ध करने में हमलोग सफल हो जाते हैं , तो केवल कुछ ही वर्षों में हमारे सम्पूर्ण समाज की दशा बहुत हद तक परिवर्तित हो जाएगी।
>>Sociological science tell us that just a minority of anti-social threaten the whole society.
समाज विज्ञान का अध्यन करने पर यह ज्ञात होता है कि अपने समाज के विकास के लिए किसी विशेष युग में किसी समाज-विशेष के सभी लोग कोई अलग विचारधारा या विशिष्ट मानदण्ड को निर्धारित नहीं करते, बल्कि उस समाज के कुछ शक्तिशाली मनुष्यों की एक संगठित मण्डली ही उस समाज की प्रवृत्ति को निर्धारित करती है। तुम स्वयं भी इस सच्चाई को परख सकते हो। आजकल प्रायः यह कहा जाता है कि आज समाज में असामाजिक गतिविधियाँ बहुत अधिक बढ़ गयी हैं। लेकिन क्या तुम सचमुच ऐसा मानते हो, या कोई अन्य यह विश्वास करता है कि आज हमारे समाज की अधिकांश जनसंख्या सचमुच समाज-विरोधी हो गयी है ? कभी नहीं ! समाज में केवल थोड़े ही लोग समाज विरोधी हैं, जो गिरोह बनाकर ताकतवर हो गए हैं , और ऐसे समाजविरोधी अल्पमत लोग ही सम्पूर्ण समाज को आसानी से डराते -धमकाते रहते हैं। इस बात से तुम कोई सीख क्यों नहीं लेते ? क्या तुम कुछ ऐसे युवाओं को जो शरीर से बलवान , चरित्र से शक्तिशाली, मन से ओजस्वी , संकल्प में अटल , इच्छाशक्ति के धनी और ह्रदय से इतने विशाल जो दूसरों के दुःख दर्द को महसूस करने की क्षमता रखते हों ; उनको एकत्रित और संगठित नहीं कर सकते ? यदि तुम सभी युवा अपने जीवन को गठित करते हुए संगठित हो जाओ तो तुम्हारी युवाशक्ति बहुत आसानी से से सम्पूर्ण समाज के जीने के ढंग को ही परिवर्तित कर देगी। (सभी लोग दूसरों के लिए जीना सीख जायेंगे।)
>>If the youths stand with the strength of character and determination of mind, they will regenerate a new India.
एक दिन स्वामी जी (परिव्राजक विवेकानन्द तब वाराणसी में थे) रास्ते से जा रहे थे कि एक बन्दर ने उनका पीछा किया। वह उन्हें डराने की कोशिश करने लगा और स्वामीजी उससे बचने की कोशिश में दौड़ने लगे। यह देख बंदर और भी डरावने ढंग से उनका पीछा करने लगा। उसी समय उसी रास्ते गुजरते एक साधु ने जोर से चिल्ला कर कहा - " अरे भाई भागो मत , घूमकर कर खड़े हो जाओ , और बंदर का सामना करो। " स्वामीजी ने वैसा ही किया , तुरंत ही वे घूमकर खड़े हो गए , बंदर की तरफ घूर कर देखा। परिणाम यह हुआ कि बंदर वहां से भाग खड़ा हुआ।
ठीक उसी प्रकार हमलोग भी यदि समाज- विरोधी लोगों की घुड़कियों और सामाजिक बुराइयों से डर कर भागते रहेंगे, उसका सामना नहीं करेंगे तो हम असफल हो जायेंगे। किन्तु, हमलोग एक बार यदि कमर कस कर , अपने चरित्र की शक्ति और मन के दृढ़ संकल्प के साथ उनका सामना करने को उठ खड़े हों , तो न केवल हम समाज की समस्त अशुभ बातों को रोक सकेंगे बल्कि पूरे समाज की बागडोर भी अपने हाथों में ले सकेंगे। महामण्डल स्वामी विवेकानन्द के जीवन और उनकी महान शिक्षाओं को भारत के युवाओं के सामने रख देना चाहता है। यदि सभी युवा संगठित होकर प्रयत्नशील हो जायें तो वे न केवल समाज की बुराइयों को ही दूर कर सकेंगे , बल्कि देश को भी यथार्थ रूप से विकसित कराकर एक नए और महान भारत का पुनर्निर्माण भी कर सकेंगे। अतः भारतवर्ष के सभी नागरिकों का कल्याण और उनका सर्वांगीण विकास ही महामण्डल का लक्ष्य है। देशवासियों की वर्तमान दशा में सुधार तथा समस्त प्रकार के कष्टों से मुक्ति बहुत आवश्यक है , किन्तु उस लक्ष्य को केवल कुछ विकासात्मक कार्य, राहत और पुनर्वास कार्य या साधारण समाज सेवा के माध्यम से प्राप्त नहीं किया जा सकता।
स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं के आलोक में हम यह स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि हमलोग यदि केवल अपने जीवन को सुन्दर रूप से गठित करें, और एक अच्छे उद्देश्य के लिए- अपनी अन्तर्निहित दिव्यता [पूर्णता या निःस्वार्थपरता] को अभिव्यक्त करने के लिए संगठित होकर कार्य करें, तभी हम अपने देश का सर्वाधिक कल्याण कर सकते हैं।
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मन और शरीर के द्वारा हृदय की सहानुभूति और प्रेम को प्रकट करने का प्रयास
व्यक्तिगत नहीं संगठित होकर करो।
>>>साधन चतुष्टय -'मुमुक्षुत्वं'- अर्थात मुक्ति पाने की इच्छा के बाद आवश्यक साधना है -'नित्यानित्य-विवेक' ! या 'विवेक-प्रयोग '- यह बहुत कठिन है। सत्य क्या है और मिथ्या क्या है ? क्या शाश्वत है और क्या नश्वर है? इस भेद को जान लेना ही 'नित्यानित्य-विवेक' कहलाता है। केवल ब्रह्म ही शाश्वत है और बाकी सब कुछ नश्वर है। प्रत्येक वस्तु क्रमपरिवर्तनशील है -इसीलिये असत्य नहीं है, किन्तु मिथ्या है। एकमात्र ठाकुर-माँ-स्वमीजी ही ऐसे हैं, जिनके प्रेम में परिवर्तन कभी नहीं होता, और जितना ही हम उनके समीप जायेंगे प्रकृति (प्रोपेन्सिटी) का उतना ही हम पर कम अधिकार चलेगा। और जब हम उस तक पहुँच जायेंगे, तो हम प्रकृति (आदतों पर ?) पर विजय प्राप्त कर लेंगे, हम पर उनका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। ३/१०६
>>>निम्नावस्था में (पशु-अवस्था में) हृदय उतना शक्तिशाली नहीं होता, जितनी बुद्धि। किसी अनपढ़ मनुष्य को कोई दुनियावी ज्ञान नहीं होता, किन्तु वह यदि थोड़ा-बहुत भावना-प्रधान होता है। अब उसकी तुलना उस प्रोफेसर से करो जो अपने विषय का प्रकाण्ड विद्वान् है, लेकिन उसकी शिक्षा यदि केवल बुद्धि तक ही सीमित हो, तो वह एक ही साथ बुद्धिमान और शैतान हो सकता है। लेकिन एक हृदयवान मनुष्य कभी शैतान नहीं हो सकता।
>>> " मनुष्य की प्रज्ञा, उसके अनुभव, उसका विवेक, उसकी बुद्धि, उसका हृदय -ये सब इस संसार रूपी क्षीरसागर के मन्थन में लगे हुए हैं। दीर्घकाल तक मथने के बाद उसमें से मक्खन (नवनीत या butter) निकलता है और यह मक्खन है ईश्वर ! हृदयवान मनुष्य 'मक्खन' पा लेते हैं और कोरे बुद्धिमानों के लिये सिर्फ 'छाछ' बच जाती है। "
>>>स्वामी विवेकानन्द ( 21 फरवरी, 1900 को लिखित एक पत्र में) कहते हैं - " विद्या और पाण्डित्य बाह्य आडम्बर हैं और बाह्य भाग केवल चमकता है; परन्तु सब शक्तियों का सिंहासन हृदय होता है। ज्ञान, शक्ति, क्रिया स्वरुप आत्मा का निवास स्थान मस्तिष्क में नहीं वरन हृदय में है। 'शतं चैका हृदयस्य नाड्य:'--हृदय की नाड़ियाँ 101 हैं, इत्यादि। हृदय के निकट मुख्य नाड़ी का केन्द्र जिसे सहानुभूति ग्रन्थि (sympathetic ganglia) कहते हैं, होता है; और यही आत्मा (शरीर रूपी रथ में सवार राजा) का निवास दुर्ग है। जितना अधिक तुम हृदय का विकास कर सकोगे , उतनी अधिक तुम्हारी विजय होगी। मस्तिष्क की भाषा तो कोई कोई ही समझता है, परन्तु हृदय की भाषा ब्रह्मा से लेकर घास के तिनके तक सभी समझ सकते हैं। " ७/४१०
>>>" तुम चाहे समस्त किताबों को कण्ठस्त कर डालो, परन्तु फिर भी विशेष लाभ न होगा। केवल हृदय ही अन्तिम लक्ष्य तक पहुँचा सकता है। शुद्ध हृदय बुद्धि के परे देख सकता है, वह अन्तःस्फुर्त हो जाता है। हृदय वे बातें जान लेता है , जिसे तर्क कभी नहीं जान सकता। निर्मल हृदय ही सत्य के प्रतिबिम्ब के लिये सर्वोत्तम दर्पण है। सर्वदा हृदय का ही संस्कार करो , उसे अधिकाधिक पवित्र बनाओ, क्योंकि हृदय के ही माध्यम से ईश्वर बोलता है , कार्य करता है, और बुद्धि के माध्यम से तुम स्वयं।"
>>>[ गीता (15.15 ) में भगवान् श्रीकृष्ण यह रहस्य प्रकट करते हैं कि मैं स्वयं सब प्राणियों के हृदय में विद्यमान हूँ - ' सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टो'। तात्पर्य यह हुआ कि सम्पूर्ण प्राणी, पदार्थ परमात्मा की सत्ता से ही सत्तावान् हो रहे हैं। परमात्मा से अलग किसी की भी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। अतः किसी भी साधक को भगवत्प्राप्ति का वह पूरा अधिकारी है। आवश्यकता केवल भगवत्प्राप्ति की ऐसी तीव्र व्याकुलता की है, जिस में भगवत्प्राप्ति के बिना रहा न जाय।
>>"हृदि हि एषः आत्मा - यह प्रसिद्द जीवात्मा हृदय देश में रहता है !" (प्रश्नोपनिषद ३.६)]अमेरिका में 'आत्मानुभूति के सोपान' विषय पर भाषण देते हुए स्वामी जी (३/१०७ STEPS TO REALISATION: Vol 1.)
"तुम्हारी पाश्चात्य शिक्षा-पद्धति का एक बड़ा दोष यह है कि तुम केवल बौद्धिक-शिक्षा (Head) के ही पीछे पड़े हो, हृदय (Heart) की ओर ध्यान ही नहीं देते। इसका फल यह होता है कि मनुष्य दस गुना अधिक स्वार्थी बन जाता है। यही तुम्हारे नाश का कारण होगा। यदि हृदय और बुद्धि में विरोध उत्पन्न हो, तो हृदय का अनुसरण करो, क्योंकि बुद्धि केवल एक तर्क के क्षेत्र में ही काम कर सकती है। वह उसके परे नहीं जा सकती। केवल हृदय ही हमें उच्चतम भूमि में ले जाता है, जहाँ बुद्धि कभी नहीं पहुँच सकती। "
>>>" जिस तरह बुद्धि ज्ञान का साधन है, उसी तरह हृदय भी अन्तःस्फुरण का साधन है। बुद्धि कभी अन्तःस्फुरित नहीं हो सकती। केवल उद्बोधित हृदय ही अन्तःस्फुरित हो सकता है ! हमारा हृदय ही बुद्धि का अतिक्रमण कर जिसे हम 'अन्तःस्फुरण' कहते हैं, उसे पा लेता है। केवल बुद्धिप्रधान, किन्तु शुष्क-हृदय मनुष्य कभी अन्तःस्फूर्त नहीं बन सकता। प्रेममय पुरुष की समस्त क्रियायें उसके हृदय से ही अनुप्राणित होती हैं, वह एक ऐसा उच्चतर साधन प्राप्त कर लेता है, जिसे बुद्धि कभी नहीं दे सकती, और वह साधन है हृदय का अन्तःस्फुरण !
"तुम्हारी पाश्चात्य शिक्षा-पद्धति का एक बड़ा दोष यह है कि तुम केवल बौद्धिक-शिक्षा (Head) के ही पीछे पड़े हो, हृदय (Heart) की ओर ध्यान ही नहीं देते। इसका फल यह होता है कि मनुष्य दस गुना अधिक स्वार्थी बन जाता है। यही तुम्हारे नाश का कारण होगा। यदि हृदय और बुद्धि में विरोध उत्पन्न हो, तो हृदय का अनुसरण करो, क्योंकि बुद्धि केवल एक तर्क के क्षेत्र में ही काम कर सकती है। वह उसके परे नहीं जा सकती। केवल हृदय ही हमें उच्चतम भूमि में ले जाता है, जहाँ बुद्धि कभी नहीं पहुँच सकती। "
>>>" जिस तरह बुद्धि ज्ञान का साधन है, उसी तरह हृदय भी अन्तःस्फुरण का साधन है। बुद्धि कभी अन्तःस्फुरित नहीं हो सकती। केवल उद्बोधित हृदय ही अन्तःस्फुरित हो सकता है ! हमारा हृदय ही बुद्धि का अतिक्रमण कर जिसे हम 'अन्तःस्फुरण' कहते हैं, उसे पा लेता है। केवल बुद्धिप्रधान, किन्तु शुष्क-हृदय मनुष्य कभी अन्तःस्फूर्त नहीं बन सकता। प्रेममय पुरुष की समस्त क्रियायें उसके हृदय से ही अनुप्राणित होती हैं, वह एक ऐसा उच्चतर साधन प्राप्त कर लेता है, जिसे बुद्धि कभी नहीं दे सकती, और वह साधन है हृदय का अन्तःस्फुरण !
[Just as the intellect is the instrument of knowledge, so is the heart the instrument of inspiration ? A pure heart sees beyond the intellect; it gets inspired; it knows things that reason can never know, Intellect can never become inspired; only the heart when it is enlightened, becomes inspired. Properly cultivated, the heart can be changed, and will go beyond intellect; it will be changed into inspiration. Man will have to go beyond intellect in the end.]
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