त्रेतायां मंत्रशक्तिश्च, ज्ञानशक्तिः कृते युगे।
द्वापरे युद्धशक्तिश्च, संघशक्तिः कलौ युगे।।
-त्रेता युग में मन्त्र शक्ति, सत्ययुग में ज्ञान शक्ति तथा द्वापर में युद्ध शक्ति प्रमुख बल था, किन्तु कलियुग में संगठन की शक्ति ही प्रधान है। स्वामी विवेकानन्द तो संगठन की अवधारणा पर ही मुग्ध थे। उन्होंने पाश्चत्य जगत के संगठन क्षमता की अत्यन्त प्रशंसा की है। वे प्राचीन भारत के तत्कालीन संगठनों की खूबियों और खामियों से अच्छी तरह अवगत थे , इसलिए वे केवल जनसाधारण के दुःख-कष्टों को दूर करने के लिए ही नहीं , बल्कि उन्हें उचित शिक्षा देने के लिये (आध्यात्मिक शिक्षा या हृदय की सहानुभूति और प्रेम को मन और शरीर की सहायता से प्रकट करने की शिक्षा देने के लिए) भी संगठन बनाकर कार्य करने के पक्षधर थे। उन्हें यह पता था कि हमारे देश के जनसाधारण में किसी संगठित प्रयास की सफलता के लिए आवश्यक उत्साह की घोर कमी है।
उन्होंने कहा था, ' हमारे स्वभाव में ही संगठन क्षमता का पूर्णतया अभाव है , फिर भी हमें अपने देशवासियों में इस भावना को संचारित करना पड़ेगा। सूत्र रूप में वे इसमें जोड़ते हैं -" इसका सबसे बड़ा रहस्य है - ईर्ष्या का अभाव। " वे खेद प्रकट करते हुए कहते हैं - " तुम तीस करोड़ मनुष्य अपनी-अपनी इच्छाशक्ति को एक दूसरे से पृथक किये रहते हो। " यहाँ हम लोग स्मरण कर सकते हैं कि 1967 में महामण्डल के स्थापित होने के बाद से ही, इसके 'उद्देश्य और कार्यक्रम' की व्याख्या करते हुए हमलोग कहते आये हैं - " भारत के भविष्य को उज्ज्वल बनाने के लिये जिस बात की आवश्यकता है, वह है महामण्डल जैसे युवा संगठन की, शक्ति संग्रह की और बिखरी हुई इच्छाशक्ति को एकत्र कर उसमें समन्वय लाने की। " महामण्डल के संघगीत (Anthem) में भी विवेकानन्द के इन्हीं शब्दों का उल्लेख है। " अथर्ववेद संहिता (ऋग्वेद में भी) की एक विलक्षण ऋचा याद आ रही है जिसमें कहा गया है , " तुम सभी एक मन हो जाओ, सभी लोग एक ही विचार के बन जाओ। " -एक मन हो जाना ही समाज गठन का रहस्य है।
>>The saying --'Leaders are born and not made' indicates that the right type of leadership is difficult to acquire.
इस रहस्य को समझ लेने के बाद, किसी भी संगठन के फलने-फूलने के लिए जो सर्वाधिक आवश्यक वस्तु है , वह है - कुशल नेतृत्व ! किन्तु आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि " नेता जन्मजात पैदा होता है, नेता बनाया नहीं जा सकता। " लेकिन, यह उक्ति किस बात की ओर इशारा करती है ? यह इसी बात पर जोर देती है कि एक कुशल मार्गदर्शक नेता बनना , और सही प्रकार की नेतृत्व-क्षमता अर्जित करना बहुत कठिन कार्य है। अगर कोई व्यक्ति यह दावा करे कि- ' मैं इस चरित्र-निर्माण आंदोलन का नेतृत्व करना चाहता हूँ।' परन्तु उसका अपना ही चरित्र यदि निर्मित न हुआ हो , तो वह अपने तेज और नेतृत्व क्षमता को तुरन्त ही प्रमाणित नहीं कर सकता।
इसीलिये स्वामी विवेकानन्द चेतावनी देते हैं , " यदि तुम तुच्छ विषयों को लेकर ' तू -तू , मैं -मैं ' -करोगे , झगड़े और पारस्परिक विरोध भाव को बढ़ाओगे , तो समझ लो कि तुम उस शक्ति संग्रह से दूर हटते जाओगे , जिसके द्वारा भारत का भविष्य बनने जा रहा है। " वे आगे कहते हैं , " हर एक व्यक्ति आज्ञा देना चाहता है पर आज्ञा पालन करने के लिए कोई भी तैयार नहीं है। पहले , आदेश पालन करना सीखो , आदेश देना फिर स्वयं आ जायेगा। हमेशा पहले दास होना सीखो , तभी तुम स्वयं गुरु या नेता होने योग्य बन सकोगे। यदि तुम्हारे वरिष्ठ तुम्हें इस बात की आज्ञा दें कि तुम नदी में कूद पड़ो और एक मगरमच्छ को पकड़ लाओ , तो तुम्हारा कर्तव्य यह होना चाहिए कि पहले तुम आज्ञा का पालन करो और फिर कारण पूछो। भले ही तुम्हें दी हुई आज्ञा ठीक न प्रतीत हो, परन्तु फिर भी तुम पहले उसका पालन करो और फिर प्रतिवाद करो। यदि संगठन के अनुयायियों में गुरुजनों की आज्ञा को शिरोधार्य करने की भावना न रहे तो संगठन की शक्ति का केन्द्रीकरण किये बिना कोई महान कार्य नहीं हो सकता।"
>>Always first learn to be a servant and then you will be fit to be a master.
स्वामी विवेकानन्द के शब्द बड़े स्पष्ट हैं तथा इनकी व्याख्या करने की भी कोई जरूरत नहीं पड़ती। वे सीधे-सीधे कहते हैं , " हमलोग आलसी हैं, एकजुट नहीं हो सकते हैं , एक-दूसरे से प्रेम नहीं कर सकते हैं , बड़े स्वार्थी हैं , हम तीन मनुष्य भी एक-दूसरे से घृणा किये बिना, ईर्ष्या किये बिना , एकत्र नहीं हो सकते। इसलिए यदि तुम सफल होना चाहते हो तो पहले 'अहं ' का नाश कर डालो। तुम अपने भाइयों का नेता बनने की कोशिश मत करो , बल्कि उनके सेवक ही बने रहो। कभी भी दूसरों का मार्गदर्शन या शासन करने का प्रयास नहीं करो। सभी के सेवक बने रहो। शासक बनने की कोशिश मत करो। सबसे अच्छा शासक वह है , जो अपने को सभी का सेवक समझता है , जो अच्छी सेवा कर सकता हैं। " यदि हम महामण्डल में काम करना और सफल होना चाहते हैं तो हमें इन विचारों को अवश्य सुनना होगा , इस पर चिंतन-मनन करना होगा और इन विचारों को आत्मसात कर लेना होगा। तथा अपनी नेतृत्व- क्षमता का निर्माण भी इन्हीं शिक्षाओं के अनुरूप करना होगा , ताकि जो लोग अभी इस संगठन से जुड़ रहे हैं , उन भावी नेताओं को भी तुम्हारे जीवन से उचित मार्गदर्शन प्राप्त हो ! अगर इस संगठन के वरिष्ठ नेताओं में ही इन आवश्यक गुणों का अभाव होगा तो उनके पीछे चलने वाले लोग भी इस मूल रचनात्मक कार्य के मर्म को नहीं समझ पाएंगे , और हमारा जो मुख्य उद्देश्य है - भारत का कल्याण , उस लक्ष्य को प्राप्त करने में सहायक सिद्ध नहीं होंगे।अतएव, इस समय जो लोग नेतृत्व कर रहे हैं , उन्हें उपरोक्त बुनियादी गुणों को अवश्य अर्जित करना चाहिए , साथ ही निम्नलिखित बातों पर भी ध्यान देना चाहिए :
>>Leader must cultivate these basic things :
*कोई अहंकार नहीं रहना चाहिये (No egoism.)
- यहाँ किसी प्रकार का 'अहं' नहीं रखना चाहिए, निजी लाभ पाने या नाम-यश की कामना नहीं रखनी चाहिए। हमेशा आदर्श को ध्यान में रखते हुए शान्त मन से [माथा गर्म किये बिना ] विवेकपूर्ण निर्णय लेना चाहिए। हमेशा एक विद्यार्थी बने रहने का प्रयास करना चाहिए। प्रत्येक अनुभव से कुछ न कुछ सीखना चाहिये। सभी को मन, वचन और कर्म से अवश्य पवित्र रहना चाहिए। पहले कामिनी-कांचन में आसक्ति का स्वयं त्याग करने के बाद ही दूसरों से इसके अनुकरण की अपेक्षा करनी चाहिए। दूसरों को कार्य करने का आदेश देने से पहले , उसे स्वयं करना चाहिये।
जबतक दूसरे लोग तुम्हें अपना नेता न बनायें तुम्हें एक अनुयायी या शिष्य की तरह कार्य करते रहना चाहिए। प्रत्येक के मन में यह विश्वास रहना चाहिए कि वह नेता बन सकता है तथा उसे एक नेता के गुणों को भी अवश्य आत्मसात करते रहना चाहिए। जब कभी परिस्थितियों की जरूरत हो अवश्य आगे आना चाहिए , किन्तु नेता बनने की जल्दबाजी नहीं होनी चाहिये। किन्तु, इस आधार पर इंतजार में ही नहीं बैठे रहना चाहिए कि मुझसे तो इस कार्य की जिम्मेदारी उठाने के लिए किसी ने कुछ कहा ही नहीं है। अपने ह्रदय को इतना निर्मल और निष्कपट बना लो कि तुम जो कुछ भी कर रहे हो , वह तुम पूरे विश्वास के साथ इस आंदोलन को आगे बढ़ाने के लिए ही कर रहे हो , किसी निजी उद्देश्य को पाने की कामना से नहीं। तुम्हें जिनका नेतृत्व करना है, अपने को उनमें से ही एक समझो। अपने को ऊँचाई पर रखते हुए उन्हें न देखो।
>>Do not boast that without you nothing will move, but give your due quota for the work you are in.
ऐसा घमण्ड मत करो कि तुम्हारे बिना यह संगठन आगे बढ़ नहीं सकता ; लेकिन जिस कार्य को तुम्हें सौंपा गया है उसमें अपने को खपा दो। जो असत्य है और नैतिक नहीं है , उसके साथ समझौता नहीं करो। कभी झूठ न बोलो। तुम्हारी परियोजना का कार्य यदि उन आदर्शों की प्राप्ति के अनुकूल नहीं है , जिसे तुमने पूर्वनिर्धारित कर रखा है , तो वे बिल्कुल तुच्छ ही नहीं अपमानजनक भी हो सकते हैं। सदैव याद रखो कि तुम जैसा करोगे , दूसरे भी उसी का अनुकरण करेंगे। तुम्हारे विचारों और कार्यों में एकरूपता होनी चाहिए। कोई भी परियोजना विवेकपूर्वक और दूरदर्शिता रखते हुए बनानी चाहिए। जोशीला होना अच्छा है , लेकिन इसका दिखावा या आडम्बर नहीं होना चाहिए। अपनी भाषा, विचार और व्यवहार पर नियंत्रण रखना चाहिए। अपने जीवन को दूसरों के लिए प्रेरणास्पद बनाओं। [तुमसे मिलने के बाद दूसरों को ऐसा लगना चाहिए कि तुमसे मिलकर उनका जीवन धन्य हो गया। -जनबीघा कैम्प ]
>>Be clean in money matters.
संगठन के आय-व्यय के मामले में बिल्कुल साफ-सुथरा रहने के लिए तुम्हें चरित्र और कार्यक्षमता दोनों अर्जित करनी चाहिए। इसी किसी में कोई एक ही गुण है , तो वह नेता नहीं बन सकता। सभी प्रकार के पूर्वाग्रह से पीछा छुड़ा लो। बिना मशीन बने नियमानुवर्ती बनो। यथेष्ट रूप से बोलो पर वाचाल मत बनो।
यदि गुण तुममें अनुपस्थित हों , तब नेता बनने की हड़बड़ी मत करो। पहले इन विचारों को समझो , इन पर चिंतन -मनन करो , और इन आदर्शों को चरित्रगत बना लो। समय आने पर तुम्हें भी कई लोगों का मार्गदर्शन करना होगा। पहले उस काम के लिए अपने आप को योग्य तो बना लो। स्वामीजी की वाणी का स्मरण करो , " काम करो, योजनाओं को कार्यान्वित करो , मेरे बालकों , मेरे वीरों , सर्वोत्तम साधु स्वभाव मेरे प्रिय जनो ,पहिये पर जा लगो, उस पर अपने कन्धे लगा दो। नाम-यश अथवा अन्य तुच्छ विषयों के लिए पीछे मुड़कर मत देखो। "
>>Read Vivekananda carefully and regularly lest you deviate from the path you have chosen to become a Man.
अंतिम और बहुत ही महत्वपूर्ण बात याद रखो - इस मुख्य उद्देश्य पर दृढ़ विश्वास रखो, तथा इसे प्राप्त करने के लिए स्वामी विवेकानन्द का अध्यन नियमित और ध्यानपूर्वक करते रहो। ऐसा न करने पर तुम अपने यथार्थ मनुष्य बनने के लक्ष्य से भटक भी सकते हो।
इन परामर्शों को पुनः-पुनः पढ़ो। अपनी डायरी में उन गुणों को दर्ज करो जो तुम्हारे भीतर हैं , और कितने अंश में हैं। उन गुणों को भी ध्यान से नोट करो , जो तुम्हारे भीतर न हों। [उन 12 दोषों को भी देखो कि वे निकले या नहीं ?] किन्तु निराश न होना , जो गुण तुममें नहीं हैं , उन गुणों को अर्जित करने की चेष्टा करो और जो हैं उन्हें और अधिक बढ़ाने का प्रयत्न करो। छः महीने बाद नये सिरे से नोट बनाओ और अपनी प्रगति पर निशान लगाओ। सभी तुमसे प्रेम करने लगेंगे , और उनसे सम्मान मिलेगा , एवं कार्य में (अपनी अन्तर्निहित निःस्वार्थपरता या दिव्यता को व्यक्त करने के कार्य में) निरंतर आनन्द बना रहेगा। [किसी भी घटना से सन्तुलन नहीं बिगड़ेगा।] इसका परिणाम यह होगा कि तुम ' ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य ' दोनों को विकसित करते जाओगे और तभी यह संगठन अपने उद्देश्य को प्राप्त कर सकेगा। हमारा महामण्डल ' तेजस्वी युवकों को संगठित करने और उनके ह्रदय में मातृभूमि और उसके संतानों के लिए प्रेम, शक्ति , बल , सत्यनिष्ठा , ईमानदारी , त्याग , सेवा , साहस आदि की भावना को प्रज्ज्वलित करने में सफल हो जायेगा। ताकि हमारे संघबद्ध प्रयास से एक नया महान भारत का निर्माण हो सके।
=======================<>=====
आध्यात्मिक नेता (C-IN-C) बनने में जल्दबाजी न करें
(Don't rush to be a Spiritual Leader :'C-IN-C')
स्वामी जी दो-टूक शब्दों में सीधे-सीधे कहते हैं, " हम आलसी हैं, हम कार्य नहीं कर सकते; हम पारस्परिक एकता स्थापित नहीं कर सकते, हम एक दूसरे से प्रेम नहीं करते, हम बड़े स्वार्थी हैं, हम तीन मनुष्य एकत्र होते ही एक दूसरे से घृणा करते हैं, ईर्ष्या करते हैं।"
" देश के प्रत्येक घर को हम सदवर्त में भले ही परिणत कर दें, देश को अस्पतालों से भले ही भर दें; परंतु जब तक मनुष्य का चरित्र परिवर्तित नहीं होता, तब तक दुख-क्लेश बना ही रहेगा।
" आज संसार के सारे धर्म प्राणहीन, परिहास की वस्तु हो गये हैं.जगत को जिस वस्तु की आवश्यकता है, वह है चरित्र। इस संसार को ऐसे लोग चाहिए, जिनका जीवन स्वार्थहीन ज्वलंत प्रेम का उदाहरण है। वह प्रेम एक-एक शब्द को वज्र के समान प्रभावशाली बना देगा। प्रेम तब तक उत्पन्न नहीं होगा, जब तक मनुष्य का चरित्र उत्तम नहीं होगा."
" इस जगत में श्रेय का मार्ग सबसे दुर्गम और पथरीला है। आश्रचर्य की बात है कि इतने लोग सफलता प्राप्त करते है, कितने लोग असफल होते हैं यह आश्रचर्य नहीं। सहस्त्रों ठोकर खाकर चरित्र का गठन होता है। "
" केवल सत्कार्य करते रहो, सर्वदा पवित्र चिन्तन करो, असत संस्कार रोकने का बस, यही एक उपाय है। ऐसा कभी मत कहो कि अमुक के उद्धार की कोई आशा नहीं है। क्यों ? इसलिए कि वह व्यक्ति केवल एक विशिष्ट प्रकार के चरित्र का- कुछ आदतों और प्रवृत्तियों की समष्टि का द्योतक मात्र है। और ये आदतें नये और सत अभ्यास (आदतों को अपनाकर) से दूर किये जा सकते हैं। चरित्र बस, पुनः पुनः अभ्यास की समष्टि मात्र है और इस प्रकार का पुनः पुनः अभ्यास ही चरित्र का सुधार कर सकता है।
"अपने को शुद्ध कर लों और संसार का विशुद्ध होना अवश्यम्भावी है। चरित्रगठन में सुख और दुःख, दोनां ही समान रूप से उपादानस्वरूप हैं। चरित्र को एक विशिष्ट ढाँचे में ढालने में शुभ और अशुभ, दोनों का समान अंश रहता है, और कभी कभी तो दुःख सुख से भी बड़ा शिक्षक हो जाता है।"
" आकस्मिक सुयोग प्राप्त होने पर तो छोटे से छोटे मनुष्य भी किसी न किसी प्रकार का बड़प्पन का परिचय दे देते है। परन्तु वास्तव में महान तो वही है, जिसका चरित्र सदैव और सब अवस्थाओं में महान तथा एकसम रहता है।"
" यदि सफल होना चाहते हो, तो पहले 'अहं' का नाश कर डालो। (Swamiji had said in his speech: “This separate self must die.” It caught the imagination of Captain James Henry Savier and Mrs Charlotte Elizabeth Savier. अहं का नाश होता नहीं है , इसलिए अपने व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी और विराट अहं-बोध सचमुच रूपांतरित कर डालो) तुम अपने भाइयों का नेता बनने की कोशिश मत करो, बल्कि उनके सेवक ही बने रहो। यदि तुम स्वयं को नेता के रूप में (एक आध्यात्मिक शिक्षक के रूप में ) प्रदर्शित करने की चेष्टा करोगे तो इससे ईर्ष्या उत्पन्न होगी; और इससे हर चीज बर्बाद हो जाएगी। शासक बनने की कोशिश मत करो -सबसे अच्छा शासक वह है जो सबकी सेवा कर सकता है।" " हम सदैव एक दूसरे के प्रति ईर्ष्या भाव रखते हैं ! क्यों अमुक व्यक्ति हमसे आगे बढ़ गया - मुझसे पहले नेता क्यों बन गया ? क्यों हम अमुक से बड़े न हो सके। सर्वदा हमारी यही चिंता बनी रहती है। हम इस प्रकार ईर्ष्या के दास बन गए हैं कि धर्म में भी हम इसी श्रेष्ठता की ताक में रहते हैं। इसे हमें दूर करना चाहिए। यदि इस समय भारत में कोई महापाप है , तो वह यही ईर्ष्या की दासता है।
" हर एक व्यक्ति हुकूमत चाहता है, पर आज्ञा पालन करने के लिये कोई भी तैयार नहीं है; पहले आदेश पालन करना सीखो, आदेश देना फिर स्वयं आ जायेगा। पहले सर्वदा दास होना सीखो , तभी तुम प्रभु हो सकोगे। " (५/३२-३३ Every one wants to command and no one wants to obey.)
(अपने गुरु का आज्ञाकारी सेवक होना सीखो, तभी तुम स्वयं 'गुरु या नेता' होने के योग्य बन सकोगे।
" यदि तुम्हारे वरिष्ठ तुम्हें इस बात की आज्ञा दें कि, 'तुम नदी में कूद पड़ो और एक मगरमच्छ को पकड़ लाओ', तो तुम्हारा कर्तव्य यह होना चाहिये कि पहले तुम आज्ञा-पालन करो , और फिर कारण पूछो। भले ही तुम्हें दी हुई आज्ञा ठीक न हो, परन्तु फिर भी तुम पहले उसका पालन करो और फिर प्रतिवाद करो।" (संन्यास उसका आदर्श तथा साधन : ३/३३८)
If your superior order you to throw yourself into a river and catch a crocodile, you must first obey and then reason with him. Even if the order be wrong, first obey and then contradict it. SANNYASA: ITS IDEAL AND PRACTICE)
" आज्ञा-पालन के गुण का अनुशीलन करो , लेकिन अपने धर्म-विश्वास को न खोओ। गुरुजनों के अधीन हुए बिना कभी भी शक्ति केन्द्रीभूत नहीं हो सकती , और बिखरी हुई शक्तियों को केन्द्रीभूत किये बिना कोई महान कार्य नहीं हो सकता। कलकत्ते का मठ प्रमुख केन्द्र है ; सभी दूसरी शाखाओं के सदस्यों को चाहिये कि केन्द्र की नियमावली के अनुसार एक साथ मिलकर दत्तचित्त होकर कार्य करें। ईर्ष्या तथा अहंभाव को दूर कर दो -संगठित होकर दूसरों के लिए कार्य करना सीखो। हमारे देश में इसकी बहुत बड़ी आवश्यकता है। " (४/२८०-पत्र 2nd May, 1895/ - एवं प्रत्येक सदस्य की बिखरी हुई शक्तियों को संगठन के उद्देश्य और कार्यक्रम में केन्द्रीभूत किये बिना कोई महान उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। )
(Cultivate the virtue of obedience, but you must not sacrifice your own faith. No centralization is possible unless there is obedience to superiors. No great work can be done without this centralization of individual forces. The Calcutta Math is the main centre; the members of all other branches must act in unity and conformity with the rules of that centre. Letter dated 2nd May, 1895.)
पराशर स्मृति एक धर्मसंहिता है, जिसमें युगानुरूप धर्मनिष्ठा (Religion according to the Era Allegiance) पर बल दिया गया है। कहते हैं कि, एक बार ऋषियों ने कलियुग योग्य धर्मों को समझाने की व्यास से प्रार्थना की। व्यासजी ने अपने पिता पराशर से इसके संबंध में पूछना उचित समझा। अतः वे मुनियों को लेकर बदरिकाश्रम में पराशर के पास गये। पराशर ने समझाया कि कलियुग में लोगों की शारीरिक शक्ति कम होती है, इसलिए तपस्या, ज्ञान-सम्पादन, यज्ञ आदि सहज साध्य नहीं हैं। इसलिए कलिकाल में दान रूप धर्म की महत्ता है। (Devotionalism = भक्तिवाद अर्थात युगावतार श्रीरामकृष्ण देव के नाम-रूप की भक्ति की महत्ता है। }
यदि कोई व्यक्ति यह कहे कि, " मैं तो सीधा इस मनुष्य निर्माणकारी आंदोलन का नेता (गुरु) ही बनना चाहता हूँ " -- तो क्या केवल कहने मात्र से ही वह अपनी नेतृत्व-क्षमता को तुरंत सिद्ध कर सकता है? इसीलिये स्वामी विवेकानन्द आगे चेतावनी देते हैं - " यदि तुम ( 'आर्य' और 'द्रविड़',
'ब्राह्मण ' और 'अ-ब्राह्मण ' जैसे) तुच्छ विषयों को लेकर 'तू-तू, मैं-
मैं' करोगे, झगड़े और पारस्परिक विरोध भाव को बढ़ाओगे, तो समझ लो कि तुम इच्छाशक्ति के उस
शक्ति-संग्रह से दूर हटते जाओगे, जिसके द्वारा भारत का भविष्य बनने जा रहा
है। "
{ स्वस्तिक शब्द में दो शब्द निहित हैं – ‘सु’ + ‘अस्ति’। इस प्रकार स्वस्तिक का अर्थ होता है – ‘शुभ होना’। जिस प्रकार कलश को मंगल सूचक माना जाता है उसी प्रकार स्वस्तिक को मंगल प्रतीक माना जाता है। स्वस्तिक चिन्ह श्री गणेश जी के साकार विग्रह का स्वरुप है। स्वस्तिक की चार भुजाएँ श्री विष्णु जी के चार हाथ हैं। स्वस्तिक चारों दिशाओं की ओर शुभ संकेत देता है। स्वस्तिक ‘श्री’ (लक्ष्मी) का भी प्रतीक है। भगवान विष्णु और धन संपत्ति की अधिष्ठात्री देवी का प्रतीक स्वस्तिक है। पूजा – पाठ या अन्य शुभ कर्मों के अवसर पर ब्राह्मण लोग शुभत्व की प्राप्ति के लिए ‘स्वस्तिवाचन’ करते हैं। स्वस्तिक को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाये तो ‘धन आवेश’ के रूप में समझ सकते हैं। धन आवेश अर्थात Positive Point. दो ऋणात्मक शक्ति प्रवाहों के मिलने से धनात्मक आवेश Plus (+) बना। स्वस्तिक में धनात्मक अर्थात सकारात्मक ऊर्जा निहित होती है। इसे लाल रंग (सिंदूर, कुमकुम या रोली) से बनाया जाता है। }
God is eternally creating — is never at rest. ईश्वर नित्य सृजनशील है - वह कभी विश्राम नहीं करता। गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं - 'यदि मैं क्षण भर के लिए विश्राम लूँ , तो यह जगत नष्ट हो जाये। यदि वह सृजन-शक्ति (माँ जगदम्बा) जो दिन-रात हमारे चारों ओर क्रियाशील है , क्षण भर के लिए रुक जाये तो यह संसार मिट जाय। ऐसा समय कभी नहीं था जब वह शक्ति विश्व भर में क्रियाशील न थी ; पर हाँ - कल्प का नियम है और कल्पान्त में प्रलय का सिद्धान्त भी है। भारतीय संस्कृति के 'सृष्टि ' शब्द का अंग्रेजी में ठीक से अनुवाद किया जाय तो वह -'projection' अर्थात प्रक्षेपण होना चाहिए , 'creation ' या जगत सृष्टि नहीं। ... यह सारी प्रकृति (दृष्टिगोचर बिश्व-ब्रह्माण्ड) सदा विद्यमान रहती है , केवल प्रलय के समय वह क्रमशः सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होती जाती है , और अन्त में एकदम अव्यक्त हो जाती है। फिर कुछ काल के विश्राम के बाद -मानो 'कोई ' उसे पुनः प्रक्षेपित करता है। तब पहले ही की तरह यह गो -गोचर जगत (समवाय) , वैसा ही विकास , वैसे ही रूपों की अभिव्यक्ति का क्रीड़ाक्रम चलता रहता है। कुछ काल तक यह क्रीड़ा चलती रहती है, फिर वह नष्ट हो जाता है, सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होता हुआ , अन्त में सुषुप्ति में लीन हो जाता है। और पुनः निकल आता है। अनंतकाल से वह लहरों की तरह दृष्टिगोचर होकर एक बार सामने आ जाता है , और फिर पीछे हट जाता है। देश, काल , निमित्त तथा अन्यान्य सब कुछ इसी प्रकृति के अन्तर्गत हैं। इसलिए यह कहना कि सृष्टि का आदि है बिल्कुल निरर्थक है।५/२३ ]
" यह हमारा स्थूल शरीर है , इसके पीछे मन है। किन्तु यह मन आत्मा नहीं है। यह सूक्ष्म शरीर है -सूक्ष्म तन्मात्राओं का बना हुआ है। यही जन्म और मृत्यु के चक्र में फंसा हुआ है। स्थूल शरीर और मन- दोनों से आत्मा पृथक है ; लेकिन यही आत्मा मन या सूक्ष्म शरीर के साथ , जन्म और मृत्यु के चक्र में घूम रहा है। (The body is here, beyond that is the mind, yet the mind is not the Atman; it is the fine body, the Sukshma Sharira, made of fine particles, which goes from birth to death, and so on .)
और जब समय आता है - [नेता की कृपा प्राप्त होती है !] उसे सर्वज्ञता और पूर्णत्व प्राप्त होता है , तब यह जन्म-मृत्यु का चक्र समाप्त हो जाता है। फिर वह स्वतंत्र (भ्रम मुक्त) होकर चाहे तो मन या सूक्ष्म शरीर को रख सकता है , अथवा उसका परित्याग कर चिरकाल के लिये स्वाधीन और मुक्त रह सकता है। जीवात्मा का लक्ष्य मुक्ति ही है। हमारे धर्म की यही विशेषता है। ५/२६
" मुझे अपने धर्म के विषय में जो कुछ कहना था , वह मैं कह चुका। अब मैं तुम्हें उस बात की याद दिलाना चाहता हूँ, जिसकी इस समय विशेष आवश्यकता है। महाभारत के प्रणेता व्यासदेव जी की जय हो ! जिन्होंने ने कहा है -
तपः परं कृत-युगे, त्रेतायां ज्ञानम् उच्यते ।
द्वापरे यज्ञम् इति ऊचुः, दानम् एकं कलौ युगे ॥
-(महाभारत, शांतिपर्व; पराशरस्मृति १/२३)
अर्थात् सत्ययुग का परम श्रेष्ठ धर्म तप या तपस्या माना गया है जिससे मानव अपने सभी श्रेय एवं प्रेय प्राप्त कर सकता था। त्रेता में ज्ञान प्राप्त करना, द्वापर में यज्ञ करना परम धर्म मान्य है। और " कलियुग में दान ही एकमात्र धर्म है। " तप और कठिन योगों की साधना इस युग में नहीं होती। इस युग में दान देने तथा दूसरों की सहायता करने की विशेष जरूरत है।
लेकिन दान शब्द का अर्थ क्या है ? सब दानों में श्रेष्ठ है -अध्यात्म दान , फिर है विद्या दान , फिर प्राण-दान , भोजन -कपड़े का दान सबसे निकृष्ट दान है। जो अध्यात्म ज्ञान का दान करते हैं , वे अनंत जन्म और मृत्यु के चक्र से आत्मा की रक्षा करते हैं। जो विद्यादान करते हैं, वे मनुष्य की ऑंखें खोलकर अध्यात्म-ज्ञान का पथ दिखा देते हैं। (ब्रह्मविद मनुष्य बनने और बनाने का पथ दिखा देते है !) दूसरे दान , यहाँ तक कि प्राणदान भी, उनके निकट तुच्छ है। अतएव तुम्हें यह समझ लेना चाहिए की अन्यान्य सभी कर्म आध्यात्मिक दान से निकृष्ट हैं। अतः तुम्हारे लिए यह समझना और स्मरण रखना आवश्यक है की अध्यात्म-ज्ञान के प्रचार से अन्य सभी कम मूल्यवान हैं। आध्यात्मिक ज्ञान के विस्तार से ही मनुष्य जाती की सबसे अधिक सेवा (सहायता) की जा सकती है।
[What is meant by Dana? The highest of gifts is the giving of spiritual knowledge, the next is the giving of secular knowledge, and the next is the saving of life, the last is giving food and drink. He who gives spiritual knowledge, saves the soul from many end many a birth. He who gives secular knowledge opens the eyes of human beings to wards spiritual knowledge, and far below these rank all other gifts, even the saving of life. Therefore it is necessary that you learn this and note that all other kinds of work are of much less value than that of imparting spiritual knowledge. The highest and greatest help/ (or Service ?) is that given in the dissemination of spiritual knowledge. ]
>>The practical man of religion : ऐसे मनुष्य जिन्होंने धर्म को अपने जीवन में परिणत किया है-केवल यहीं हैं। (धर्म को व्यवहार में जीने वाले मनुष्य, अर्थात चपरास प्राप्त आध्यात्मिक नेता/शिक्षक--केवल महामण्डल में हैं, लेकिन अभी बहुत कम संख्या में , अंगुलियों पर गिनने योग्य ही हैं।) धर्म बातों में नहीं रहता। तोता भी राम-राम बोलता है , आजकल मशीनें भी बोल सकती हैं। परन्तु ऐसा जीवन मुझे दिखाओ जिसमें त्याग हो , आध्यात्मिकता हो , तितिक्षा हो , अनंत प्रेम हो। इस प्रकार का जीवन आध्यात्मिक नेता [नवनीदा जैसे 'C-IN-C'] को इंगित करता है। [महामण्डल शिविर में उसी क्रम में नेतृत्व का अधिचिन्ह (Leadership Insignia-चपरास ,बिल्ला) प्रदान किया जाता है। ]
[The practical man of religion, who has carried it into his life, is here and here alone. Talking is not religion; parrots may talk, machines may talk nowadays. But show me the life of renunciation, of spirituality, of all-suffering, of love infinite. This kind of life indicates a spiritual man.]
हमारे देश में (हमारे महामण्डल संगठन में ) ऐसे कई महान जीवन्त उदाहरण विद्यमान हैं, तब तो वह बड़े दुःख का विषय होगा यदि हमारे उन श्रेष्ठ आध्यात्मिक नेताओं (Yogis) के मस्तिष्क और हृदय से निकली हुई यह विचार-राशि [ ब्रह्मविद आध्यात्मिक शिक्षक बनो और बनाओ ] , प्रत्येक व्यक्ति की - धनियों और दरिद्रों की , ऊँच या नीच , यहाँ तक कि हर एक की --साधारण सम्पत्ति न हो सके। केवल भारत ही में नहीं , विश्व भर में इसे फैलना चाहिए।
[With such ideas and such noble practical examples in our country (Mahamandal Organization), it would be a great pity if the treasures in the brains and hearts of all these great Yogis were not brought out to become the common property of every one, rich and poor, high and low; not only in India, but they must be thrown broadcast all over the world.]
महामण्डल का यह आध्यात्मिक मनुष्य (शिक्षक) बनो और बनाओ आंदोलन को केवल भारत में ही नहीं , विश्व भर में फैलाना चाहिये। ] यह हमारे प्रधान कर्तव्य में से एक है। और तुम देखोगे की जितना अधिक तुम दूसरों की सहायता करने के लिए कर्म करते हो, उतना ही अधिक तुम अपना कल्याण करते हो। यदि तुम सचमुच अपने धर्म पर प्रीति रखते हो , यदि सचमुच तुम अपने देश को प्यार करते हो, तो दुर्बोध शास्त्रों में से रत्नराशि को निकालकर उसके सच्चे उत्तराधिकारियों में वितरण करने के के लिए , जीजान से इस महान -व्रत की साधना में लग जाओ।"
[ This is one of our greatest duties, and you will find that the more you work to help others, the more you help yourselves. The one vital duty incumbent on you, if you really love your religion, if you really love your country, is that you must struggle hard to be up and doing, with this one great idea of bringing out the treasures from your closed books and delivering them over to their rightful heirs.]
-
और उसके साथ साथ निम्नलिखित बातों पर भी ध्यान
देना चाहिये :
1. इस नये युवा आंदोलन के 'नेता' में किसी प्रकार का अहं, नाम-यश पाने की कामना या अन्य कोई निजी लाभ पाने की कामना नहीं रहनी चाहिये। शान्त मन से विवेकपूर्ण निर्णय लेने की क्षमता रहनी चाहिये, महामण्डल के आदर्श और उद्देश्य को कभी नजरों से ओझल नहीं होने देना चाहिये । 'जब तक जीना तब तक सीखना ही मेरा धर्म है !' पर अटल रहते हुए - प्रत्येक अनुभव से कुछ न कुछ अवश्य सीखना चाहिये।
गीता 7/11 में हम श्रीकृष्ण का एक अद्भुत उद्धरण देखते हैं, वे कहते हैं, " धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोस्मि भरतर्षभ । " ... भैया अर्जुन, मैं जीवमात्र में धर्म के अविरुद्ध रहने वाला 'काम' हूँ ! अर्थात ईश्वर ही मनुष्यों के भीतर कामरूप में अर्थात कामना रूप में अवस्थित हैं। वे कहते हैं - " यदि मैं न रहूँ, तो मनुष्य कोई कामना भी नहीं कर सकता, इसीलिये सभी मनुष्यों के हृदय में मैं ही कामरूप में अवस्थित हूँ। "
2. उस परब्रह्म परमेश्वर के तत्त्व को सुनकर और बुद्धि द्वारा विचार करके भी मनुष्य उसे क्यों नहीं जान पाता ? न चिकेता की इस जिज्ञासापर,आत्मतत्त्व की दुर्लभता को बतलाने के लिये कठोपनिषद (1.2.24) में यमराज कहते हैं - नचिकेता, आत्म-तत्त्व (ब्रह्म) की उपलब्धि कर लेना कोई साधारण बात नहीं है ।
नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः।
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात् ॥
( न अविरतः दुश्चरितां न अशान्तः न असमाहितः न अशान्तमानसः वा अपि प्रज्ञानेन एनम् आप्नुयात् ॥)
''जो दुष्कर्मों से , अर्थात शास्त्र-निषिद्ध कर्मों से विरत नहीं हुआ है, जो शान्त नहीं है, जिसका चित्त अपनी सत्ता (समाहित-who is not concentrated in his being) याने यथार्थ स्वरूप में एकाग्र नहीं है, अथवा जिसका मन शान्त नहीं है, ऐसे किसी भी व्यक्ति को, (संन्यास ले के भी) यह 'आत्मा' प्रज्ञा द्वारा प्राप्त नहीं हो सकता। (None who has not ceased from doing evil (Anti शास्त्र-विरुद्ध कर्म), or who is not calm, or not concentrated in his being, or whose mind has not been tranquilized, can by wisdom attain to Him.)
अतएव महामण्डल के कर्मी को सदैव मन, वाणी और कर्म से अवश्य पवित्र रहना चाहिये। शास्त्रनिषिद्ध या (नीतिविरुद्ध) कर्मों का त्याग स्वयं कर के, पहले अपने जीवन और आचरण से उदाहरण प्रस्तुत करना होगा, तभी दूसरों से भावी नेता या शिक्षक से अनुकरण की अपेक्षा करनी चाहिये। दूसरों को कार्य करने का आदेश देने से पहले, स्वयं करना चाहिये।
3.किसी आध्यात्मिक संगठन के नेता को (जीवनमुक्त या आध्यात्मिक शिक्षक को), अमेरिकन नेताओं (डोनॉल्ड ट्रम्प ) जैसा अपनी श्रेष्ठता का दम्भ या साहबी (Yankees bossism) दिखाते हुए, अपने सहकर्मियों पर हुक्म चलाने या उनका पथ-प्रदर्शक बनने की चेष्टा नहीं करनी चाहिये। बल्कि स्वयं को सभी का सेवक समझकर उनकी उनकी सेवा - शिवज्ञान से करनी चाहिए। ( Never Attempt to guide or rule others, as the Yankees, "Boss" Others. Be the servant of all. )
4. महामण्डल के प्रत्येक सदस्य के मन में यह विश्वास रहना चाहिये कि, वह एक (ब्रह्मविद) आध्यात्मिक शिक्षक, नेता या जीवनमुक्त शिक्षक बन सकता है, तथा उसे एक नेता के (आध्यात्मिक शिक्षक के) गुणों को भी अवश्य आत्मसात करते रहना चाहिये। लेकिन जब
तक दूसरे लोग तुम्हें अपना नेता न स्वीकार करें, तुम्हें एक अनुयायी या शिष्य की
तरह ही कार्य करते रहना चाहिये। लेकिन जब कभी ऐसी परिस्थिति उत्पन्न हो जाये, ऐसा लगे कि मौजूदा नेतृत्व अपने मार्ग (Be and Make ) से भटक रहा है, और संन्यासियों के agent जैसा कार्य कर रहा है ?- 2019 कैम्प में गुजरात के सेक्रेटरी से 10 संन्यासी सप्लाई करने का ऑर्डर स्वीकार कर रहा है। परिस्थितियों
का तकाजा हो, उस अवस्था में अपनी सेवा अर्पित करने के लिये, तुम्हें अवश्य
आगे आना चाहिये। किन्तु नेतृत्व करने में जल्दीबाजी नहीं दिखानी चाहिये।
किन्तु तुम्हें इस आधार पर बैठे भी नहीं रहना चाहिये, कि 'मुझसे तो किसी ने
कहा ही नहीं? ' या पहले ही तुम्हें जिम्मेदारी का कार्य या पद (Post) क्यों नहीं सौंपा
गया? अपने हृदय को सदैव आनंद में रखो, क्योंकि तुम्हें " स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर (Be and Make ) लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन " में प्रशिक्षित और स्वयं स्वामीजी से 'C-IN-C' का चपरास प्राप्त अपने नेता (नवनीदा) पर पूरा विश्वास है, कि वे अपने पूर्वजन्म में स्वयं कैप्टन सेवियर ही थे ! और तुम जो कुछ भी कर रहे हो, वह इसीलिये कर रहे हो वह इस " मनुष्य बनो और बनाओ आंदोलन " को आगे बढ़ाने के लिये ही कर रहे हो, किसी निजी उद्देश्य, या नाम-यश पाने की कामना से नहीं।
5. 'Kneel Down and Give' : अपने को विशिष्ट व्यक्ति (Boss) नहीं , बल्कि स्वामीजी के उन सैनिकों में से एक समझें, जिनका आप नेतृत्व कर रहे हैं। (Become one of those you are to lead.): यदि इस युवा आंदोलन के जिन भावी
नेताओं के उचित मार्गदर्शन करने की जिम्मेवारी तुम पर सौंपी गयी
है, तो क्लास लेते
समय तुम्हें उन्हीं में से एक बन जाना चाहिये। तुम्हारे बिना यह 'मनुष्य निर्माण आंदोलन' आगे बढ़ ही नहीं सकता, ऐसी शेखी मत बघारो ! किन्तु जिस कार्य को करने की जिम्मेदारी तुम्हें सौंपी गयी है, उस कार्य में उपयुक्त हिस्सा अवश्य दो। याद रखो शिक्षा देने वाला (आध्यात्मिक शिक्षक) बड़ा नहीं है, जो तुमसे शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं वे 'स्वयं शिवजी ' हैं, तुम्हारे
हृदय को विकसित करने का अवसर देकर वे तुम पर ही उपकार कर रहे हैं। इसीलिये अपने
को आध्यात्मिक शिक्षक (जीवनमुक्त शिक्षक) की ऊँचाई पर रखकर, और उन्हें (पिंजड़ा बद्ध भेंड़ सिंह के रूप में) मत देखो -''Kneel Down and Give "! जो असत्य है, और
नैतिक नहीं- शास्त्रनिषिद्ध कर्म है, उसके साथ समझौता मत करो । कभी झूठ न बोलो।
6. आपके विवेकपूर्ण विचारों को ही आपके कार्यों का मार्गदर्शन करना चाहिए (Mind and mouth should be one! Your Thoughts Should Guide Your Actions.): यदि तुम्हारी कोई योजना या कार्य महामण्डल के ध्येय-वाक्य 'Be and Make' के अनुकूल नहीं हैं, जिसे तुमने पूर्वनिर्धारित कर रखा है, तो वे बिल्कुल तुच्छ हैं, बल्कि अपमान जनक भी हो सकते हैं । सदा याद रखो तुम जैसा आचरण करोगे, दूसरे भी उसी का अनुकरण करेंगे। अतः तुम्हारे मन, वचन और कर्म में एकरूपता दिखनी चाहिये। मन-मुख एक होना चाहिये !
7. अपने विचार और भाव-भंगिमा से से विनम्र बनो। (Be polite with your thoughts and gestures) : वार्तालाप के समय अपनी बोली को नियंत्रण में रखो, अपने जीवन को दूसरों के लिए एक उदाहरण स्वरुप गठित करो। नेता में अति श्रद्धा (Enthusiasm), याने उमंग और उत्साह होना अच्छी बात है, लेकिन इसका दिखावा नहीं करना चाहिये। किसी भी अनुष्ठान को करने के पूर्व विवेक-प्रयोग तथा दूरदर्शिता रखते हुए उसकी एक योजना और चेकलिस्ट बना लो।
विरोधिनोपि श्रोतव्यम् आत्मनीनतया मतम्।
तत्कालं न विरोद्धव्यं यथाकालं तु खण्डयेत्।।
विरोधी के मत को भी आत्मीयता दिखाते हुए सुनना चाहिए, तत्काल विरोध नहीं करना चाहिए। समय देखकर कालान्तर में उसकी अनुचित बात का खण्डन करना चाहिए।
8. "चरित्र और कौशल" (Character and Efficiency-ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य) - दोनों अर्जित करो : संगठन के आमद-खर्च के मामले में बिल्कुल साफ-सुथरा रहो। तुम्हें चरित्र और उचित मार्गदर्शन करने का कौशल दोनों अर्जित करनी चाहिये। यदि किसी व्यक्ति में 'क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज ' में से कोई एक ही गुण हो तो वह व्यक्ति नेता नहीं बन सकता। सभी प्रकार के पूर्वाग्रह से पीछा छुड़ा लो। यन्त्रवत कार्य करने वाले मशीनी मानव (robot) न बनो, परन्तु नैतिक (ethical) बनो । Speak adequately but don't be talkative : यथेष्ट रूप से बोलो पर बकवादी मत बनो।
9. नेता (आध्यात्मिक शिक्षक) बनने में जल्दीबाजी मत करो (Don't rush Don't rush to be a Leader) : यदि नेतृत्व के सभी गुण तुममें अनुपस्थित हों, तो इसी समय नेता बनने के लिए हड़बड़ी मत करो । पहले इन विचारों को (ब्रह्मविद मनुष्य बनने और बनाने की प्रक्रिया को) समझो, इन पर चिंतन -मनन करो, और इन आदर्शों को अर्जित करो । समय आने पर तुम्हें भी (आध्यात्मिक शिक्षक के रूप में) कई लोगों का मार्गदर्शन करना होगा। पहले इस काम के लिए अपने आप को योग्य तो बना लो (ब्रह्मविद तो बन जाओ) । स्वामीजी ने (ब्रह्मविद मनुष्य बनने और बनाने का) जो महान उत्तरदायित्व युवाओ पर सौंपा है, उसका स्मरण करो (Remember the great responsibility that Swamiji has entrusted to the youth.) - " जो सच्चे हृदय से भारत के कल्याण का व्रत ले सकें तथा जो उसे ही अपना एकमात्र कर्तव्य समझें -ऐसे युवकों के साथ कार्य करते रहो। उन्हें जाग्रत करो, संगठित करो तथा उनमें त्याग का मंत्र (?) फूँक दो । भारतीय युवकों पर ही यह कार्य सम्पूर्ण रूप से निर्भर है।" ४/२८० / काम करो, भावनाओं को, योजनाओं को कार्यान्वित करो, मेरे बालकों, मेरे वीरों, सर्वोत्तम साधुस्वभाव मेरे प्रिय जनों, पहिये पर जा लगो, उस पर अपने कन्धे लगा दो। नाम, यश अथवा अन्य तुच्छ विषयों के लिये पीछे मत देखो। "
10. अब तुम्हें स्वयं ऋषि (sage-ब्रह्मविद) बनना होगा। तुम भी ठीक उसी प्रकार एक मनुष्य हो, जैसे कोई बड़ा से बड़ा व्यक्ति कभी पैदा हुए थे , यहाँ तक कि तुम बिल्कुल किसी अवतार (पैगम्बर आदि) के सदृश हो। ऋषि के क्या अर्थ हैं ? ऋषि का अर्थ है पवित्र आत्मा। पहले पवित्र बनो, तभी तुम शक्ति पाओगे। ' मैं ऋषि हूँ ' कहने मात्र से ही न होगा, किन्तु जब तुम यथार्थ ऋषित्व लाभ करोगे, तो देखोगे दूसरे आप ही आप तुम्हारी आज्ञा मानते हैं ! तुम्हारे भीतर से कुछ रहस्यमय वस्तु निःसृत होती है, जो दूसरों को तुम्हारा अनुसरण करने को बाध्य करती है, जिससे कि वे तुम्हारी आज्ञा का पालन करते हैं। यहाँ तक कि अपनी इच्छा के विरुद्ध अज्ञात भाव से वे तुम्हारी योजनाओं की कार्यसिद्धि में सहायक होते हैं । ऐसा ऋषित्व- जो अपने संगियों पर जादू जैसा कर दे - प्राप्त कर लेना ही यथार्थ लीडरशिप है !
11. हिन्दू जातियों में समता लाने का एकमात्र उपाय है, उस चरित्र और शिक्षा को अर्जित करना जो उच्च वर्णों का बल और गौरव है। यदि तुम यह कर सको तो जो कुछ तुम चाहते हो, वह तुम्हें मिल जायेगा। भविष्य में जो सत्ययुग आ रहा है, उसमें ब्राह्मणेतर सभी जातियाँ फिर से ब्राह्मण रूप में (ब्रह्मविद मनुष्य-या आध्यात्मिक शिक्षक के रूप में) परिणत हो सकेंगी !
12. अंतिम बात, किन्तु कम महत्वपूर्ण नहीं, वह यह कि इस " स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर 'Be and Make Vedanta Leadership Training Tradition' में प्रशिक्षण का मुख्य विषय (theme) -पूर्व जन्म में नवनीदा ही कैप्टन सेवियर थे - उनके मुख से कथित इस बात पर दृढ़ विश्वास रखो !तथा इस प्रकार चपरास-परम्परा में ब्रह्मवेत्ता मनुष्य, दक्षिणामूर्ति जैसा, आध्यात्मिक शिक्षक या नेता (C-IN-C) बनने और बनाने के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये 'श्रीरामकृष्ण- विवेकानन्द वेदान्त साहित्य' (आत्मानुभूति के सोपान, व्यावहारिक जीवन में वेदान्त आदि) का अध्यन ध्यानपूर्वक और नियमित रूप से करते रहो। ऐसा न करने पर तुम अपने लक्ष्य - 'यथार्थ मनुष्य' (ब्रह्मवेत्ता मनुष्य) बनने के लक्ष्य से - पथभ्रष्ट भी हो सकते हो।
स्वामी विवेकानन्द द्वारा भावी नेताओं को दिये गये परामर्शों को पुनः पुनः पढ़ो।अपनी डायरी में नेतृत्व के उन गुणों को
दर्ज करो जो तुम्हारे भीतर हैं, तथा यह भी लिखो कि कितने अंश में हैं। और
गुणों को भी ध्यान से नोट करो, जो तुम्हारे भीतर न हों, किन्तु निराश न
होना। जो तुममें नहीं हैं, उन गुणों को अर्जित करने की चेष्टा करो , और जो
हैं उन्हें और अधिक बढ़ाने की चेष्टा करो। छह महीने के बाद नए सिरे से
आत्ममूल्यांकन तालिका बनाओ और श्रेणी के आधार पर अपनी प्रगति पर निशान
लगाओ। तुम्हें सभी प्रेम करने लगेंगे, और उनसे सम्मान मिलेगा, और कार्य
करने में आनन्द निरंतर बना रहेगा।
और इसका परिणाम यह होगा कि तुम 'चरित्र और कौशल ' (Character and Efficiency) दोनों
को अर्जित करने में सफल हो जाओगे। जब तुम भी 'Lion of Vedanta' बन कर यह घोषित करोगे कि - "पहले हमें ईश्वर बन लेने दो , फिर दूसरों को ईश्वर बनने में सहायता करो - 'Be and Make ' यही हमारा मूल मंत्र रहे !
केवल
तभी यह युवा महामण्डल अपने लक्ष्य - " युवाओं को संगठित कर उनके हृदय में मातृभूमि और उसके संतानों के लिए प्रेम, शक्ति, बल, सत्यनिष्ठा, ईमानदारी, त्याग और सेवा की भावना, साहस आदि के प्रति अति श्रद्धा (Enthusiasm) उमंग और उत्साह की उस अग्नि को प्रज्ज्वलित करने" में सफल हो जायेगा जिससे वे एक नए महान भारत का निर्माण कर सकें।
यदि 1967 में महामण्डल की स्थापना नहीं हुई होती तो, भारत के हिन्दी भाषी राज्यों के अधिकांश युवा स्वामी विवेकानन्द जैसे युवा -आदर्श के अभाव में मनुष्य-निर्माणकारी धर्म निःस्वार्थपरता को ही छोड़ देते, और पशु मानव - 'मनुष्य रूपेण मृगाश्चरन्ति ' बने रहते !
बहुत संक्षेप में कहा जाय तो,
१. महामण्डल का उद्देश्य है -भारत का कल्याण
२.उपाय है -चरित्र निर्माण
३.आदर्श हैं- स्वामी विवेकाननन्द
४.आदर्श-वाक्य है - ' Be and Make ' मनुष्य बनो और बनाओ !
५. श्रीरामकृष्ण पताका के वाहक महामण्डल कर्मियों का अभियान गीत या समर नीति है - 'चरैवेति चरैवेति' -आगे बढ़ो ! आगे बढ़ो ! इस समय भारत के विभिन्न राज्यों में इसके 350 से अधिक केन्द्र क्रियाशील हैं, और हिन्दी भाषी प्रदेशों में भी निरन्तर इसकी शाखायें खुलती जा रही हैं।
सारदा नारी संगठन का प्रतीक चिन्ह : ' सारदा नारी संगठन ' के प्रतीक चिन्ह में , श्री माँ की ध्यानस्थ मूर्ति है, जिसके ऊपर " चरैवेति, चरैवेति " लिखा है और नीचे स्वामी विवेकानन्द का आदर्श-वाक्य " Be and Make " लिखा है। अर्थात समस्त नारियों (मात्री-मूर्तियों) के ह्रदय में वही " ज्ञानदायनी " माँ सारदा-सरस्वती विराजित हो जाएँ, जो मेरे ह्रदय में विराजित हैं! इसी अदम्य इच्छा को लेकर भारत की नारियाँ भी -'चरैवेति चरैवेति ' आगे बढ़ें ! अर्थात जो नारी इस दिशा में उन्नत होने के मार्ग पर अग्रसर हो चुकी हैं, जिनका ह्रदय दीप " माँ" के भाव में प्रज्वलित हो उठा है वे स्वामी विवेकानन्द के आदर्श-वाक्य " Be and Make " का अनुसरण करते हुए और अपने जैसी और एक 'मार्गदर्शक दीप' को प्रज्वलित करें!
जिस प्रकार निवृत्ति मार्ग की अधिकारी नारियों को महिला परिव्राजक सन्यासिनियों को प्रशिक्षित करने के लिये दक्षिणेश्वर में सारदा मठ है; उसी प्रकार प्रवृत्ति मार्ग की अधिकारी नारियों को भी जीवनमुक्त शिक्षिका याने महिला नेताओं के रूप प्रशिक्षित करने के लिए महामण्डल की सहयोगी संस्था (Sister Organization ) ' सारदा नारी संगठन ' भी १९९५ से कार्यरत है। इसका मुख्यालय बालीभारा, पश्चिम बंगाल में है। 'सारदा नारी संगठन ' के वर्तमान कार्यकारणी समिति की कई बहनें भी " ब्रह्मविद विदुषी नारी बनने और बनाने" की प्रशिक्षण पद्धति और पाठ्यक्रम के विषय में यथेष्ट उन्नत तथा जीवन्मुक्त शिक्षिका (महिला आध्यात्मिक नेता) के रूप में परिणत हो चुकी हैं। किन्तु प्रशासनिक एवं लेखा सम्बन्धी कार्यों (Administrative and clerical work) में लगभग बच्चों जैसी हैं। अतएव इस विषय में इन्हें मार्गदर्शन की आवश्यकता है।
' सारदा नारी संगठन ' की स्थापना तिथि से ही महामण्डल के प्रतिष्ठाता नवनीदा इस विषय में स्वयं इनका मार्गदर्शन नहीं करते थे। महामण्डल के तीन वरिष्ठ सदस्य- तनु दा, बासुदेव दा और धीरेन दा को यह जिम्मेवारी सौंपी गयी थी। अन्य क्षेत्रों में परामर्श देने के लिए बासुदेव दा एवं रनेन दा को जिम्मेदारी सौंपी गयी थी। उसके बाद रनेन दा और धीरेन दा मिलकर इस कार्य में सहयोग देते थे। वर्तमान में इस ओर ध्यान देने वाला कोई नहीं है। इस शून्यता को अविलम्ब पूर्ण करने की आवश्यकता है। रनेन दा , अमित कुमार दत्त और प्रबाल कान्ति महंती (हिसाब-किताब),आधिकारिक कार्यों (Official Work) की जिम्मेदारी श्री विकास देवनाथ को सौंपी जा सकती है।
निदेशक मण्डल का अधिवेषण (পরিচালন সমিতির অধিবেশন :Session of the Board of Directors) : नवनीदा के समय में निदेशक मण्डल के अधिवेषण में केवल समिति के सदसयगण ही भाग लिया करते थे। विशेष क्षेत्र में नवनीदा किसी-किसी को बुला लिया करते थे। किन्तु Zone Incharge को नहीं बुलाया जाता था। इन दिनों Zone বা sub zone प्रभारी में से कई लोग स्थायी रूप से उपस्थित रहते हैं। व्यक्तिगत कई सदस्य भी उपस्थित रहते हैं। मैं जिस परिपाटी को जानता हूँ , उसके अनुसार इसके कई स्तर हैं -१. निदेशक मण्डल के सदस्य 2. स्थायी आमन्त्रित सदस्य 3. विशेष आमन्त्रित सदस्यों को तभी बुलाया जाता है , जब कोई ऐसा विशेष एजेण्डा रहता है, जिसमें वे विशेषज्ञ माने जाते हैं। जैसे स्वास्थ्य के लिए डॉ कल्याणी , संगीत में उत्पल सिंह , व्यायाम और योगासन में स्वप्न दास आदि। भविष्य में कार्यकारिणी समिति के बैठकों में कार्यकारणी समिति के सदस्यों को छोड़कर अन्य किन लोगों को आमंत्रित किया जायेगा , इस विषय पर एक स्पष्ट नीति बनाने की आवश्यकता है। तथापि प्रत्येक बैठक में Zone या sub zone के प्रभारी को आमंत्रित करना व्यावहारिक नहीं होगा। यदि Zone Incharge को नियमित रूप से बुलाना ही है , तो उत्तर बंगाल से दक्षिण बंगाल तक एवं दूसरे राज्यों के सभी जोनल प्रभारियों को आमंत्रित करना उचित होगा।
[ 'No great work can be done without this centralization of individual forces. महामण्डल के सभी 315 केन्द्रों के " स्वामी विवेकानन्द- कैप्टन सेवियर 'Be and Make' आध्यात्मिक शिक्षक निर्माण श्रृंखला" (निवृत्ति अस्तु महाफला) में प्रशिक्षित " प्रत्येक सदस्य की बिखरी हुई इच्छा-शक्ति को संगठन के उद्देश्य और कार्यक्रम में केन्द्रीभूत किये बिना इस युवा संगठन के महान लक्ष्य को प्राप्त नहीं किया जा सकता। 'Registered Mahamandal City Office, 1/6 Manomath Mukherjee Road Sealdah, West Bengal' - महामण्डल के इस मनुष्य निर्माणकारी आन्दोलन का प्रमुख केन्द्र है। सभी दूसरी शाखाओं के सदस्यों को चाहिये कि केन्द्र की नियमावली के अनुसार एक साथ मिलकर दत्तचित्त होकर कार्य करें। ईर्ष्या तथा अहंभाव को दूर कर दो -संगठित होकर दूसरों के लिये कार्य करना सीखें। हमारे देश में इसकी बहुत बड़ी आवश्यकता है । आज भारत में प्रत्येक व्यक्ति नेता बनना चाहता है, लेकिन आज्ञा-पालन करने वाला कोई भी नहीं है। आज्ञा देने की क्षमता प्राप्त करने के पहले प्रत्येक व्यक्ति को आज्ञा-पालन करना सीखना चाहिये। हमें आज्ञा-पालन के गुण को तो अवश्य अर्जित करना है, लेकिन अपने " मम -धर्म " (प्रवृत्ति से होकर , 'निवृत्ति अस्तु महाफला' को समझने के मार्ग) में विश्वास को भी नहीं खोना होगा।
किसी नेता (जीवनमुक्त शिक्षक) के व्यक्तिगत जीवन में संचित कुछ महान गुणों के संकलन-फल को आदर्श (model-प्रतिमान या नमूना) कहते हैं। जिस प्रकार किसी शिल्पकार को मूर्ति को गढ़ने के लिये एक साँचे की आवश्यकता होती है,उसी प्रकार युवाओं को भी अपना जीवन-गठन करने के लिये किसी जीवन्त और ज्वलन्त आदर्श को एक साँचे (Role Model) के रूप में अपने सामने रखना आवश्यक है। जिस व्यक्ति के अपने आचरण में वैसे महान गुण परिलक्षित नहीं होते हों, उनके मुख से केवल कुछ रटे-रटाये बेजान शब्दों के संयोजन का श्रवण करने से उन महान सत्यों (अहम् ब्रह्मास्मि जैसे महावाक्यों) की वास्तविक अवधारणा नहीं हो सकती है।
जब किसी महापुरुष/ नेता के व्यक्तिगत जीवन और आचरण में चरित्र के समस्त गुण पूर्ण मात्रा में विकसित हो जाते हैं, तभी उस जीवन से आदर्श का जीवन्त-ज्वलन्त प्रतिफलन प्राप्त किया जा सकता है। किसी वैसे ही आदर्श स्वरूप व्यक्ति को देखकर सीखा जा सकता है, उनसे प्रेरणा प्राप्त की जा सकती है, उनके हृदय के जोश और उत्साह से प्रेरणा लेकर अपने ह्रदय को भी जोश और उत्साह से भर लेना संभव हो जाता है। युवा पीढ़ी के सामने ऐसा ही एक जीवन्त आदर्श रहना बहुत आवश्यक है।
अतः महामण्डल के आविर्भूत हो जाने बाद, सोंच-विचार कर के सर्वप्रथम इसका एक " प्रतीक-चिन्ह " निर्धारित किया गया। उसमे जो गोलाई है, वह पृथ्वी है। और सुदूर दक्षिणी भाग में स्थित कन्याकुमारी के ऊपर से शुरू होता हुआ भारतवर्ष का मानचित्र है, जिसके भीतर दण्डधारी स्वामी विवेकानन्द को एक परिव्राजक संन्यासी (Itinerant monk) युवा नेता/ गुरु के रूप में दर्शाया गया है।
' अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल का प्रतीक-चिन्ह '
(Emblem of Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal)
महामण्डल के संस्थापक सचिव श्री नवनीहरण मुखोपाध्याय (नवनी दा) उनको - " ड्रॉपआउट समूह के अग्रदूत " कहते थे। (The forerunner of the dropout group, छन्नछाड़ा गोष्ठिर पुरोधा, ছন্নছাড়া গোষ্ঠীর পুরোধা) '- लीक छोड़कर अलग राह बनाने वाले समूह का नेता कहते थे।) आधुनिक युग के युवा पीढ़ी के लिये स्वामी विवेकानन्द ही वह श्रेष्ठ आदर्श (Role Model) हैं ! इसीलिये युवा महामण्डल ने 1967 में ही अपने आदर्श के रूप में स्वामी विवेकानन्द का चयन किया है। (यहाँ ध्यान देने की बात है कि 1985 में भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने भी उनके जन्म दिवस 12 जनवरी को राष्ट्रीय युवा-दिवस घोषित किया था।)
उस गोलाई के नीचे, स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त " भारत कल्याण सूत्र - Be and Make " लिखा है। इसका सरल अर्थ है -" स्वयं मनुष्य बनो दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करो ! " किन्तु इसका लक्ष्यार्थ उपनिषदों में कहे गये चार " महावाक्यों " के जैसा अत्यन्त सारगर्भित है। कैसा मनुष्य बनो और बनाओ? युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द की 'चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माणकारी शिक्षा ' के अनुरूप 'ब्रह्मविद' मनुष्य स्वयं बनो और दूसरों को भी ब्रह्मविद मनुष्य बनने में सहायता करो। क्योंकि 'ईश्वर (ब्रह्म) को जानना ही ईश्वर हो जाना है ' - ब्रह्मविद ब्रह्मैव भवति। " जानत तुम्हीं तुम्हीं ह्वै जाई " (तुलसी रामायण) एवं दादू-पंथी सम्प्रदाय के त्यागी संत निश्चलदास ने अपने 'विचार-सागर ' में स्पष्टता पूर्वक कहा है -
जो ब्रह्मविद वही ब्रह्म है, ताको वाणी वेद।
संस्कृत या भाषा में , करत भरम का छेद।।
'जिसने ब्रह्म को जान लिया , वह ब्रह्म बन गया, उसकी वाणी वेद है। और उसके श्रवण-मनन -निदिध्यासन से अज्ञान (अविद्या) का अन्धकार दूर हट जायेगा, चाहे वह वाणी संस्कृत में हो या किसी लोक-भाषा में हो।' स्वामी जी कहते हैं - " पहले हमें आत्मनिर्भर (God) बन लेने दो। तत्पश्चात दूसरों को आत्मनिर्भर बनाने में सहायता देंगे। " बनो और बनाओ" --यही हमारा मूलमंत्र रहे। इसलिए महामण्डल का आदर्श-वाक्य (motto) है -" Be and Make " !
अति उग्र पाश्चात्य भौतिकवादी सभ्यता की देन स्वरूप 'इन्द्रिय-भोग' की सर्वग्रासी लालसा, 'नारी साहचर्य और धन (बैंक -बैलेन्स) " में तीव्र आकर्षण युवा-समुदाय को निगल जाने पर आतुर है। तथा इन सबसे बचा लेने का जो एकमात्र सर्वश्रेष्ठ भारतसेवा-पथ 'BE AND MAKE' है, उस पथ पर आगे बढ़ने का जो पाठ्यक्रम (syllabus) है, उस सिलेबस को प्रत्येक युवा तक पहुंचाएगा कौन ? [ अर्थात " Be and Make Leadership Training Tradition" में प्रशिक्षित और अनुशासित, " मनुष्य-निर्माण और चरित्र - निर्माणकारी शिक्षा " देने में समर्थ जीवनमुक्त शिक्षक /मानवजाति के मार्गदर्शक नेता, 'C-IN-C' बनने और बनाने की परम्परा को प्रत्येक युवा (would be leader) तक पहुंचाएगा कौन ?]
हो सकता है, सभी युवा धर्म को नहीं मानते हों, पूजा-पाठ से दूर रहते हों। किन्तु जो लोग यह दावा करते हैं, हम बड़े धार्मिक हैं -नित्य मन्दिर जाते हैं, क्या इनमें से सभी लोग पूजा तथा धर्म का सार - ' देवो भूत्वा देवं यजेत ' के मर्म को भी समझते हैं ? वर्तमान समय में तो ईश्वर तथा धर्म विद्वेषी वामपंथी लोग भी चन्दा मांग कर पूजा करते देखे जा रहे हैं, क्या हमलोग इसे पूजा कह सकते हैं ? लेकिन जो युवा स्वामी जी को अपना आदर्श मानता हो, वह स्वामीजी की शिक्षाओं को किसी एक ही धर्म या सम्प्रदाय -विशेष की सामग्री बना कर कैसे रख सकता है?
क्या वैसे युवा जो ब्रह्मतेज और क्षात्रवीर्य के मूर्त रूप स्वामी विवेकानन्द को अपना आदर्श मानते हैं, वे केवल पंचांग देखकर कुछ तिथि-विशेष के अवसर पर -- 'एक दिन की जन्माष्टमी', या '6 दिन व्यापी' दुर्गोत्स्व या गणेश-उत्सव, या " 6 महीनों तक विस्तारित कोविड -19 महामारी महोत्सव " (6 month Extended Covid-19 pandemic Festival) के अवसर पर, मृत्यु-भय से पीड़ित होकर पवित्र-भावों पर चिंतन-मनन तो कर लेगा, किन्तु जीवन के शेष वर्षों में संसार के भोगों --' नारी साहचर्य और बैंक बैलेंस बढ़ाने की स्पर्धा' में ही दौड़ता रहेगा ? जो युवा ऐसी मान्यताओं में विश्वास नहीं करते, वे निश्चित रूप से महामण्डल के कार्यक्रमों में (मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माण आंदोलन) में सहयोग देने के लिए आगे आएंगे।
भारत माता से प्यार करने के लिए , इसकी खोई हुई महिमा को पुनः प्राप्त करने के लिए, उसकी सन्तानों को - याने अपनी बहनो और भाइयो को मोहनिद्रा से जाग्रत करना होगा। किन्तु स्वामी जी यह जागरण मंत्र - " Be and Make" युवाओं को कोसते हुए नहीं सुनना होगा, बल्कि मृत्यु-भय को सदा के लिए नष्ट कर देने वाले वेदान्त (चार महावाक्य) की प्राणप्रद, जीवनप्रद, आशाप्रद, शक्तिप्रद, कर्मदक्षता-प्रद वाणी को सुना-सुना कर जाग्रत करना होगा। उन्हें केवल उन 4 महावाक्यों का श्रवण, मनन तथा निदिध्यासन ही नहीं बल्कि समाधि के लिये भी अनुप्रेरित करना होगा। अपने कल्याण के लिए, सबके कल्याण में लग जाने के उद्देश्य से, विशेष रूप से युवाओं को इसी एकमात्र कर्म- ब्रह्मविद मनुष्य बनने और बनाने के कर्म में लग जाने के लिए उद्द्बुद्ध करने के लिए ही महामण्डल को अविर्भूत होना पड़ा है।
अतः महामण्डल का आदर्श वाक्य है - 'BE AND MAKE', और स्वामी द्वारा सभी युवाओं पर सौंपे गए इसी 'ब्रह्मविद मनुष्य बनने और बनाने ' के दायित्व को देशव्यापी बना देना ही महामण्डल आन्दोलन का लक्ष्य है। क्योंकि जबतक देश में सच्चे और निःस्वार्थी मनुष्यों का अभाव रहेगा, तबतक राष्ट्र-निर्माण की कोई भी परिकल्पना सफल नहीं होगी। अतः भारत के गांव गांव तक चरित्र-निर्माणकारी और मनुष्य-निर्माणकारी आंदोलन का प्रचार -प्रसार करना ही महामण्डल का कार्य है। और चूँकि स्वामी जी के जीवन और सन्देशों में वे भाव-समूह पर्याप्त मात्रा में हैं, जो इस आंदोलन को प्रचण्ड वेग से देश के कोने कोने तक फैला देने में सक्षम है; इसीलिये स्वामी विवेकानन्द को ही अपना आदर्श मानकर हमलोग इस आंदोलन को देशव्यापी बनायेंगे।
स्वामी जी ने कहा था - "जो सच्चे हृदय से भारत के कल्याण का व्रत ले सकें, तथा उसे ही अपना एकमात्र कर्तव्य समझें--ऐसे युवकों के साथ कार्य करते रहो। उन्हें जाग्रत करो, संगठित करो तथा उनमे त्याग और सेवा का मन्त्र फूँक दो। (अर्थात ब्रह्मविद मनुष्य बनने और बनाने का मंत्र फूँक दो !) भारतीय युवकों पर ही यह कार्य सम्पूर्ण रूप से निर्भर है। कलकत्ते का मठ ही प्रमुख केंद्र है (महामण्डल का City Office ही प्रमुख केंद्र है); सभी दूसरी शाखाओं के सदस्यों को चाहिए कि केन्द्र की नियमावली के अनुसार एक साथ मिलकर दत्तचित्त होकर कार्य करें।" ४/ २८०
किसी विशाल जहाज जैसे 'International organization' (अंतराष्ट्रीय संगठन) के द्वारा इस कार्य को देशव्यापी स्तर पर सर्वत्र, छोटे-छोटे ग्रामों, कस्बों और शहरों तक पहुँचा देना सम्भव नहीं है। इसीलिए महामण्डल छोटे-छोटे केन्द्र स्थापित करते हुए सर्वत्र फ़ैल जाना चाहता है। इस महान कार्य को करने में हमारी भूमिका -श्रीरामचन्द्र के द्वारा 'रामसेतु' बाँधने के समय उस छोटी सी गिलहरी के सदृश है , जो अपनी छोटी सी अंजलि में बालू भरभर कर बाँध पर डालती जा रही थी! या उस छोटी सी नौका के सदृश है , जो छोटी-छोटी नदियों में भी लोगों को वहन करके अपने साथ ले जा सकती है।
अन्य सामान भाव रखने वाली बहुत सी संस्थाओं (क्लबों) के सदस्यों के बीच भावनात्मक बन्धन का अभाव होता है, परन्तु महामण्डल के केंद्रों में चाहे वे भारत के किसी भी कोने में क्यों न हों, एक ऐसा भावनात्मक बन्धन होता है,नवनीदा जैसे आध्यात्मिक शिक्षक जन्य भ्रातृत्व बोध रहता है) जिसके कारण सिद्धान्त और व्यव्हार के बीच समन्वय बनाये रखने का विशेष अवसर प्राप्त होता है।
जहाँ अन्य कोई भी संस्था विशुद्ध रूप से से केवल युवाओं के चरित्र-निर्माण और जीवन -गठन के लक्ष्य को ध्यान में रखकर स्थापित नहीं हुई हैं ; वहीं अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल केवल युवाओं का, युवाओं के लिए और युवाओं के द्वारा स्थापित संस्था है। तथा जिन युवाओं के लिए महामण्डल स्थापित हुआ है, वह उनके साथ उन्हीं की भाषा में स्वामीजी की शिक्षाओं को प्रस्तुत करता है। यहाँ भी वही आध्यात्मिकता है, वही वेदान्त है, वही सेवा है, वही श्रीरामकृष्ण देव, वही माँ सारदा देवी, वही विवेकानन्द हैं; किन्तु महामण्डल उनकी शिक्षाओं को युवाओं के पास उनके योग्य बोधगम्य भाषा में प्रस्तुत करता है। महामण्डल में त्रिदेवों की शिक्षाओं को युवाओं के सम्मुख उसी प्रकार की सरल भाषा में रख दिया जाता है। स्वामीजी की शिक्षाएं उन्हें इस पद्धति से बतलायी जाती है, ताकि उसे सुनकर समझ लेने में कोई कठिनाई तो नहीं ही, बल्कि स्वामी जी के समस्त उपदेश उन्हें जीवनोपयोगी तथा अत्यंत ग्रहणीय लगें।
[अतः बहुत बड़ी संख्या में ब्रह्मविद मनुष्य बनने और बनाने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, हमलोगों को
विशेषकर महामण्डल के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष,जेनरल सेक्रेटरी तथा कार्यकारिणी समिति के अन्य सभी पदाधिकारियों को चाहिये कि 'महामण्डल की केन्द्रीय कार्यकारिणी समिति' द्वारा वार्षिक बैठक में अनुमोदित-'शिवो भूत्वा शिवं यजेत' - शिव बन कर शिव की सेवा पूजा करने याने ब्रह्मविद मनुष्य बनने और बनाने की कार्य-प्रणाली के अनुसार एक मन -प्राण होकर कार्य में जुट जाएँ। ]
स्वामी जी की 'समर -नीति': चरैवेति चरैवेति हुंकारों स्माकं : इस प्रतीक चिन्ह के ऊपर लिखा है- " चरैवेति- चरैवेति !" अर्थात " चलते रहो, आगे बढ़ते रहो। " इस अभियान मंत्र को ऐतरेय ब्राह्मण (७.१५) से लिया गया है। इस वैदिक संचरण - गीत में मनुष्य एवं समाज के उन्नति के केन्द्र में मनुष्य के भाग्य की अपेक्षा , उसके उद्यम या पुरुषार्थ के महत्व को उजागर किया गया है। ऋषि कहते हैं -
कलिः शयानो भवति, संजिहानस्तु द्वापरः ।
उत्तिष्ठँस्त्रेताभवति, कृतं संपद्यते चरन् । चरैवेति चरैवेति॥
-- अपने आत्मस्वरूप के प्रति (मोहनिद्रा-Hypnotized अवस्था ,भेंड़त्व अवस्था में ) सोते रहना ही कलियुग है, जो मनुष्य सोया रहता है और ब्रह्मविद मनुष्य बन जाने के लिए पुरुषार्थ नहीं करता उस मनुष्य का भाग्य भी सोया रहता है। जगकर सचेत होना द्वापरयुग के समान है, महावाक्यों को सुनकर जो व्यक्ति 'मनुष्य' बनने के लिए सचेष्ट हो जाता है, उसका भाग्य भी जाग्रत हो जाता है। और उठ खड़ा होना त्रेतायुग सदृश है -जो पुरुषार्थ करने के लिये उठ खड़ा होता है, उसका भाग्य भी खड़ा हो जाता है। और उद्यम (पुरुषार्थ) में संलग्न एवं चलनशील होना कृतयुग (सत्ययुग) के समान है । अर्थात भारत के राष्ट्रीय आदर्श- " त्याग और सेवा " इन दो धाराओं में तीव्रता लाने के लिये, जो व्यक्ति आगे-आगे चलना (नेतृत्व करना) शुरू कर देता है , उसका भाग्य भी आगे आगे चलने लगता है। इसीलिये- " हे मनुष्यों- चरैवेति चरैवेति ! " चलते रहो , आगे बढते रहो । (चर एव इति )
दादा कहते थे- इस मन्त्र में इतनी शक्ति है, कि जो भी इस चरित्र-निर्माण आंदोलन को भारत के गाँव-गाँव तक पहुँचा देने के कार्य में निष्ठा पूर्वक जुड़ा रहेगा वह स्वयं 'मनुष्य' (ब्रह्मविद मनुष्य) बन जायेगा ! उसे मोक्ष (मुक्ति-भक्ति) तक की प्राप्ति स्वतः हो जायेगी, उसके लिये अलग से अन्य कोई साधना नहीं करनी पड़ेगी। अतः महामण्डल के " चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माणकारी आंदोलन" को भारत के गॉंव-गाँव तक प्रचारित कर देने की 'Campaign Policy समर-नीति ' या अभियान जयघोष है - 'चरैवेति चरैवेति, हुंकारों स्माकं! विवेकानन्दः नेता नः विभिः मा कस्माद् भयं !! "
" भाइयो, हम यही कहें - ' हम हैं ', 'ईश्वर हैं ' और हम ईश्वर हैं ! " "नित्योहम","शुद्धोहम","बुद्धोहम", "ब्रह्मोहम","सद्चिदानंदोहम", 'ॐ शिवोहम ॐ शिवोहम ' कहते हुए आगे बढ़ते चलो। जड़ नहीं , वरन चैतन्य हमारा लक्ष्य है। नाम और रूप (देह और मन) , नामरूप हीन सत्ता (आत्मा) के अधीन हैं। इसी सनातन सत्य की शिक्षा शिक्षा श्रुति दे रही है। प्रकाश को ले आओ अन्धकार आप ही आप नष्ट हो जायेगा।
वेदान्त -केसरी गर्जना करे, सियार अपने अपने बिलों में छिप जायेंगे। देह और मन की शक्ति के साथ -साथ आत्मा की शक्ति का भी विकास करो , और भारत के गाँव -गाँव में इसका (3'H'विकास सूत्र का) प्रचार-प्रसार कर दो -बस, जिस स्थिति की आवश्यकता है , वह आप ही आप प्राप्त हो जाएगी। ' चरैवेति चरैवेति '-चलते रहना ही जीवन है, और थम जाना ही मृत्यु है।' फिर कहते हैं- ' उठो, जागो ! अब और स्वप्न मत देखो ! ' यही है स्वामीजी का जीवन-प्रद मन्त्र, जो जड़-पिण्डों (मुर्दों) में भी जान डाल सकता है। अपने आभ्यन्तरिक ब्रह्मभाव को प्रकट करो, और उसके चारों ओर सब कुछ समन्वित होकर विन्यस्त हो जायेगा। ९/३८० ]
भगिनी निवेदिता लिखती हैं - " वज्र निःस्वार्थता (selflessness-अहं शून्यता) का प्रतीक है। इन्द्र ने वज्र के द्वारा राक्षस वृत्रासुर का वध किया था। देवता लोग किसी सर्वोत्कृष्ट दिव्य-अस्त्र की खोज कर रहे थे। देवताओं को यह उपाय बताया गया कि यदि कोई व्यक्ति स्वेच्छा से अपनी अस्थियों का दान करे , और उन अस्थियों (backbone-रीढ़ की हड्डी) से एक वज्र बनाया जाय, तब उस वज्र रूपी अप्रतिरोध्य दिव्यास्त्र (Invincible Sword) से वृत्रासुर मारा जा सकता है।
तब सभी देवता दल बनाकर (संघबद्ध होकर ) महर्षि दधीचि के आश्रम में गये ; तथा अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए उनकी अस्थियों का दान -माँगा। उनका वह निवेदन उपहास (mockery-हँसी -ठट्ठा) की तरह लग रहा था। कोई व्यक्ति किसी महान उद्देश्य को प्राप्त करने के लिये, अपने प्राणों को छोड़कर अपना सर्वस्व तो दान कर सकता है। लेकिन ऐसा कौन होगा जो इन्द्र के लिये अस्त्र तैयार करने के उद्देश्य से अपने शरीर को ही निर्माण-सामग्री के रूप में अर्पित कर दे ?
लेकिन महर्षि दधीचि के लिये ऐसा आत्म-बलिदान भी, त्याग का कोई असंभाव्य -अलंघ्य शिखर प्रतीत नहीं हुआ। उन्होंने मुस्कुराते हुए देवताओं के निवेदन को सुना , मुस्कुराते हुए उत्तर दिया और मानवता के परम् कल्याण के लिए बिना किसी हिचकिचाहट, उसी क्षण अपनी अस्थियों का दान देना स्वीकार कर लिया। उन्होंने समाधी लगाई और अपनी देह त्याग दी। इन्द्र ऋषि दधीचि की अस्थियों को लेकर विश्वकर्मा के पास गये। विश्वकर्मा ने उन अस्थियों से (backbone-रीढ़ की हड्डी से) वज्र का निर्माण किया और इन्द्र को दे दिया।
अहंशून्य व्यक्ति वज्र के समान अप्रतिरोध्य बन जाता है!
[ The thunderbolt is the symbol of renunciation and service. According to legend, Vajra was created from the bones of Rishi Dadhichi. It is a symbol of supreme sacrifice.]
यहाँ हमें वज्र की यह महत्ता प्राप्त होती है कि- " अहंशून्य व्यक्ति (जीवनमुक्त शिक्षक या आध्यात्मिक नेता) वज्र के समान अप्रतिरोध्य शक्ति बन जाता है!" आओ हम केवल पूर्णतया निःस्वार्थी (अहं-शून्य) मनुष्य बनने और बनाने का प्रयास करें,और हम पायेंगे कि हम तो ईश्वर के (माँ जगदम्बा के) के हाथों का दिव्यास्त्र (weapon, साधन) बन चुके हैं। हम यह नहीं पूछ सकते उन्होंने हमें ही अपना अस्त्र कैसे बनाया। और न हमें (नेतृत्व करने की) पद्धतियाँ या उपाय ढूँढ़ने की आवश्यकता है। हमें केवल मातृभूमि के बलिवेदी पर स्वयं को न्योछावर कर देने के लिये प्रस्तुत रहना है। बाकी के काम तो माँ जगदम्बा स्वयं करती हैं। ईश्वरीय शक्ति (माँ काली) ही एक दिव्यास्त्र के रूप में हमें अपने हाथों में उठाये (carry) रखती हैं। हम कभी यह न समझें कि वज्र अपने आप में कोई अचूक हथियार (Irresistible weapon) है, बल्कि अप्रतिरोध्य शक्ति तो वह हाथ है जो इसे पूरे वेग से उछाल देती है ! माँ ! माँ ! मेरे इस तुच्छ अहं को दूर कर दो ! नाम-यश, धन या भोग की कोई भी ऐषणा (अविद्या माया) मुझ पर कभी अपना प्रभुत्व न जमा पावे ! आओ भाइयो, हम सुबह की उन ओस की बूँदों के समान बनें, जो गुलाब के सुन्दर फूलों को खिलने में सहायता तो करती हैं , किन्तु परमात्मा रूपी सूर्य के प्रकाश में स्वयं घुल जाती है। "
[Vajra or Thunderbolt is a symbol of selflessness. Indra killed the demon Vritrasura with the Vajra. The gods were looking for a divine weapon, par excellence — and they were told that only if they could find a man willing to give his own bones for the substance of it, could the Invincible Sword be forged.
Whereupon they trooped up to the ashram of Rishi Dadhichi and asked for his bones for the purpose. The request sounded like mockery. A man would give all but his own life-breath, assuredly, for a great end, but who, even to furnish forth a weapon for Indra, would hand over his body itself?
To Rishi Dadhichi, however, this was no insuperable height of sacrifice. Smilingly he listened, smilingly he answered, and in that very moment laid himself down to die yielding at a word the very utmost demanded of humanity.
Let us strive only for selflessness, and we become the weapon in the hands of the gods. Not for us to ask how. Not for us to plan methods. For us, it is only to lay ourselves down at the altar-foot. The gods do the rest. The Divine carries us. It is not the thunderbolt that is invincible, but the hand that hurls it. Mother! Mother! Take away from us this self! Let not fame or gain or pleasure have dominion over us! Be Thou the sunlight, we the dew dissolving in its heat.’ ‘Here, then we have the significance of the Vajra-- 'THE SELFLESS MAN IS THE THUNDERBOLT.'
( 'Why was Buddha called the Thunderbolt-flash, The Complete Works of Sister Nivedita - Volume 5) ]
" रुमाल की गाँठ (अहं की गांठ) लुप्त हो जाये तो वह रुमाल ही है ! कैवल्यपाद ४.३३ पुरुषार्थशून्यानां गुणानां प्रतिप्रसवः कैवल्यं स्वरूपप्रतिष्ठा वा चितिशक्तिरिति ।।34 ।।
[पुरुषार्थशून्यानां – जिनका पुरुष के लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं रहा, ऐसे, गुणानाम् – गुणों का, प्रतिप्रसवः – अपने कारण में विलीन हो जाना, कैवल्यम् – कैवल्य है, वा - अथवा, इति – यों, चितिशक्तेः – द्रष्टा का, स्वरूपप्रतिष्ठा – अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाना (कैवल्य) है।]
गुणों से जब पुरुष का कोई प्रयोजन नहीं रहता, तब 'प्रतिप्रसवः' अर्थात प्रतिलोम क्रम से अपने कारण में गुणों के लय को (विलीन हो जाने को ) कैवल्य कहते हैं, अथवा यों कहिये कि द्रष्टा (चित शक्ति) का अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाना ही कैवल्य है।
प्रकृति का काम समाप्त हो गया। हमारी परम कल्याणमयी धात्री प्रकृति ने इच्छापूर्वक जिस निःस्वार्थ कार्य का भार अपने कन्धों पर लिया था, वह समाप्त हो गया। उसने मानो आत्मविस्मृत जीवात्मा का हाथ पकड़ कर उसे धीरे धीरे संसार के समस्त भोगों का अनुभव कराया, अपनी समस्त अभिव्यक्ति दिखायी, सारे विकार दिखाये, और इस प्रकार वह उसे विभिन्न शरीरों में से ले जाते हुए क्रमशः उच्च से उच्चतर अवस्था में उठाती गयी!!! अन्त में आत्मा ने अपनी खोयी हुई महिमा फिर से प्राप्त कर ली, उसका अपना स्वरुप फिर से उसके मानस में उदित हो गया।
तब वह करुणामयी जननी जिस रास्ते से आयी थी, उसी रास्ते से वापस चली गयी और उन लोगों को रास्ता दिखाने में प्रवृत्त हो गयी, जो इस जीवन के पदचिन्ह-विहीन मरुभूमि में अपना पथ खो बैठे हैं। वह अनादि, अनन्त काल से इसी प्रकार काम करती चली आ रही है। बस, इसी प्रकार सुख और दुःख, भले और बुरे के माध्यम से होते हुए जीवात्मा की अनन्त नदी सिद्धि और आत्मसाक्षात्काररूप समुद्र की ओर प्रवाहित हो रही है। जिन्होंने अपने स्वरुप का अनुभव कर लिया है, उनकी जय हो। वे हम सबको आशीर्वाद दें ! १/२१८
नवनी दा कहते थे-" हमारे वैदिक ऋषिओं ने 'ब्रह्मतेज' और 'क्षात्रवीर्य' का बहुत गुणगान किया है। ' तुम्हें भी अपने जीवन में ' क्षात्र-वीर्य और ब्रह-तेज ' इन दो आपात परस्पर विरोधी भावों का समावेश करके, संसार में - नये युग की शुरुआत करनी होगी। ( याने महावाक्यों के प्रचार-प्रसार द्वारा ब्रह्मविद नेता बनने और बनाने की शुरुआत करनी होगी ! ) यही सन्देश यजुर्वेद में भी दिया गया है-" जहाँ ब्रह्मतेज और क्षात्र-वीर्य एक साथ रहते हैं, केवल वहीँ पर पुण्याग्नि के साथ समस्त देवता निवास करते हैं।
इस विषय के महत्व पर गीता के अन्तिम श्लोक (१८. ७८) में भी कहा गया है-
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।
[यत्र योगेश्वरः कृष्णः यत्र पार्थः धनुर्धरः/ तत्र श्रीः विजयः भूतिः ध्रुवा नीतिः, मतिः मम/ ]
शूरवीरता आदि का एक नाम विजय है, और अर्जुन का भी है एक नाम विजय है। जहाँ विजय-रूप अर्जुन होंगे, वहाँ शूरवीरता, उत्साह आदि क्षात्र- ऐश्वर्य रहेंगे ही। जहाँ धर्मात्मा अर्जुन जैसा महामण्डल के नेता होंगे, वहाँ ध्रुवा नीति-अटल नीति, न्याय, धर्म या चरित्र आदि रहेंगे ही।
गीता का उपदेश योग है और उस उपदेश को देने वाला योगेश्वर है। जब मानव-आत्मा प्रबुद्ध और डीहिप्नोटाइज्ड अर्थात ब्रह्म के साथ एक हो जाती है, तब सौभाग्य और विजय, कल्याण और नैतिकता सुनिश्चित हो जाती हैं। श्रीकृष्ण योग के मूर्त रूप हैं।
जो कर्म (अपने-पराये का भेद छोड़ कर ) समग्र-कल्याण की दृष्टि से किया जाता है, उसी को योग की अवस्था में समदृष्टि के साथ कर्म करना कहते हैं। योगेश्वर श्रीकृष्ण और धनुर्धारी अर्जुन के इस चित्र से आदर्श जीवन पद्धति का रूपक पूर्ण हो जाता है।
"ब्रह्मतेज" का अर्थ है, विवेकज-ज्ञान या मुक्ति, वह तेज जो ब्रह्मविद मनुष्य में एकत्व -दृष्टि से उत्पन्न होती है। अर्थात कोई पराया नहीं है सभी अपने हैं; की भावना से प्रेरित -सन्तसुलभ सर्व प्रेमी बुद्धि = All loving intelligence of saintliness. अर्थात आत्मा ही परमात्मा है, इस साम्य दृष्टि से जो तेज या शक्ति उत्पन्न होती है, उसे ब्रह्मतेज कहते हैं। वह मनुष्य जो मन (अहं) के बन्धन से मुक्त - या डीहिप्नोटाइज्ड हो कर ,साम्यभाव में स्थित हो जाता है समदर्शी हो जाता है, तब अपने -पराये का भेद मिट जाता है, वह किसी को पराया नहीं मानता, सभी को अपना मानता है। जिस किसी व्यक्ति को समदर्शन की उपलब्धि हो जाती है, जो मनुष्य समदर्शी (even-minded) बन जाता है, या साम्यभाव में स्थित हो जाता है, उसका भय सम्पूर्ण रूप से समाप्त हो जाता है।
एवं "क्षात्रवीर्य" का अर्थ है - ' Dynamic goodness of manliness' - अर्थात यौवन का वह जोश, वैसा स्वतः स्फूर्त पौरुष, या वह लौकिक सार्मथ्य जो 'बनो और बनाओ आंदोलन' को भारत के प्रत्येक राज्य में प्रसारित करने में सक्षम हो। जो अधोपतित समाज के भीतर भी सदाचार को स्थापित कर देने में समर्थ हो !
भविष्य के गौरवशाली भारत के निर्माण का प्रारम्भ तभी होगा, जब हमारे देश के युवाओं के जीवन में ' क्षात्रवीर्य ' और' ब्रह्मतेज ' (जोश और होश) साथा-साथ एवं एक सामान आभा बिखेरेंगे। महामण्डल के प्रयास से एवम होली ट्रायो के आशीर्वाद से भविष्य के गौरवशाली भारत में ऐसे ही समाज की स्थापना होगी जहाँ 'क्षात्रवीर्य' और 'ब्रह्मतेज' साथासाथ एवं एक सामान आभा बिखेरेंगे। इसी महान स्वप्न को अपने ह्रदय में संजोये हुए हमारे अनेको वीर शहीदों ने भारत-माता की बली वेदी पर अपने प्राणों को न्योछावर कर दिया था। आज का युवा समुदाय अपनी चारित्रिक-शक्ति की संप्रभुता का दुन्दुभीनिनाद कर उनके स्वप्नों को साकार कर सकते हैं।
इस महा-जागरण की वाणी- ' Be and Make ' को भारत के खेतों-खलिहानों, कल-कारखानों, स्कुल-कालेजों, ऑफ़िस-अदालतों, व्यापारियों की गद्दीयों, राष्ट्र-चालकों के मसनदों (सत्ता की कुर्सी पर बैठे नेताओं ) तक, सर्वत्र फैला देना होगा। स्वामीजी ने कहा था- ' भारत झोपड़ियों में वास करता है। ' उसके जनसाधारण की उन्नति से ही भारत की उन्नति होगी। भारत को महान बनाने के लिये यहाँ की साधारण जनता को महान भावों से अनुप्राणित करना होगा। भारत के युवाओं के समक्ष यही सबसे बड़ी चुनौती भी है। और यह चुनौती सबसे ज्यादा कठिन भी है। क्योंकि चुनौती को स्वीकार करने तथा इसमें 'जय या पराजय' पर ही भविष्य के भारत का स्वरूप निश्चित होगा। इसका सारा उत्तरदायित्व युवाओं के कन्धों पर ही है। और यदि वे चाहें तो, अपनी तथा अपनी प्यारी मातृभूमि को संकट में डालने का जोखिम उठा कर ही वे इस चुनौती को अनदेखा कर सकते हैं।
और जो मनुष्य, किसी रमता योगी (Dropout, छन्नछाड़ा गोष्ठीर पुरोधा) याने यायावर समूह के नेता / जीवनमुक्त शिक्षक की तरह एक स्थान से दूसरे स्थान तक घूम घूम कर मनुष्य बनने और बनाने BE AND MAKE के लिए महामण्डल द्वारा निर्देशित 5 अभ्यासों के प्रचार-प्रसार में लगा रहता है, एक दिन अवश्य उसके हृदय के बन्द कपाट को फोड़ कर प्रेम-मन्दाकिनी प्रवाहित होने लगती है! और तब वह मनुष्य जो मन (अहं) के बन्धन से मुक्त - या डीहिप्नोटाइज्ड हो कर ,साम्यभाव में स्थित हो जाता है समदर्शी हो जाता है, तब अपने -पराये का भेद मिट जाता है, वह किसी को पराया नहीं मानता, सभी को अपना मानता है।
मनुष्य की इसी अवस्था का वर्णन रवीन्द्रनाथ ठाकुर अपनी कविता ' निर्झ्रेर स्वप्नभंग' में करते हुए कहते हैं-- 'हेशे खल- खलो गेये कल- कलो, ताले- ताले दिबो ताली' (হেসে খলখল গেয়ে কলকল/তালে তালে দিব তালি।) अर्थात जब उस उन्मुक्त झरने का स्वप्न भंग हो जाता है, -वह अपने छोटे छोटे स्वार्थ और लालच को त्याग करते हुए, सम्पूर्ण रूप से निःस्वार्थ- जीवन समुद्र के साथ एक हो जाता है।
अपने इस व्यष्टि अहं ( स्वार्थी काचा आमी) का त्याग कर देने को हमें क्यों भयप्रद मानना चाहिए ? ( अर्थात होने क्षुद्र व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के सर्वव्यापी विराट अहं बोध में रूपांतरित करने को हमें भयप्रद क्यों मानना चाहिए ?) अथवा बून्द को सागर बन जाने , ससीम से असीम (100 % unselfish) बन जाने में भय क्यों होना चाहिए ?
यह भय केवल अपनी जड़ावस्था (Hypnotized अवस्था या भेंड़त्व) को अचल रखने के दुराग्रहवश उत्पन्न होता है। इसीलिये स्वामीजी युवाओं से आह्वान करते हैं- 'चरैवेति चरैवेति', अर्थात उन्नततर मनुष्य (ब्रह्मविद या 100% निःस्वार्थ मनुष्य) बनने और बनाने " Be and Make ! के लिये निरन्तर प्रयत्नशील रहो ! स्वामी विवेकानन्द द्वारा उद्धरित इन्हीं दोनों आह्वानों या महावाक्यों को महामण्डल के प्रतीक-चिन्ह में उकेरा गया है !
>>>बुद्ध के हाथों में वज्र >>[प्रज्ञता और करुणा (Wisdom and Compassion) का प्रतीक](Thunderbolt : Tibetan the Dorje or VAJRA : in the hands of Buddha is Symbol of en-Lightening Bolt of power ]' बुद्ध को वज्र का तेज क्यों कहा जाता है? '- वज्रयान या वज्रमार्ग = ‘वज्र’ शब्द का प्रयोग मनुष्य द्वारा स्वयं अपने व अपनी प्रकृति के बारे में की गई कल्पनाओं के विपरीत मनुष्य में निहित वास्तविक एवं अविनाशी स्वरूप (ब्रह्म) के लिये किया जाता है। ‘यान’ = वास्तव में अंतिम मोक्ष और अविनाशी तत्त्व को प्राप्त करने की आध्यात्मिक यात्रा है। भगिनी निवेदिता की रचनायें -खण्ड 5]
आध्यात्मिक ज्ञान (ब्रह्मतेज) और चारित्रिक शक्ति (क्षात्रवीर्य) से सम्पन्न कोई भी पुरुष जब अपने कार्यक्षेत्र में प्रयत्नशील हो जाता है, तो कोई भी शक्ति उसे सफलता से वंचित नहीं रख सकती। - महाभारत में कहा गया है -' क्षताद्र् यो वै त्रायतीति स तस्मात्क्षत्रियः स्मृतः। ’’- जो विनाश से रक्षा करता है, वह क्षत्रिय है।’’ क्षत्रिय के लिए धर्मयुद्ध से बढ़कर और कोई कर्तव्य नहीं है। उसका स्वधर्म अर्थात् कर्म का नियम उससे युद्ध में लड़ने में मांग करता है। यदि आवश्यकता हो, तो सत्य की रक्षा के लिए युद्ध करना क्षत्रिय का सामाजिक कर्तव्य है। संन्यास उसका कर्तव्य नहीं है। प्रवृत्ति मार्ग के राजर्षियों का कर्तव्य शक्ति के प्रयोग द्वारा व्यवस्था बनाए रखना है, ’सिर घुटाकर’ साधु बन जाना नहीं!
(प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग के ब्रह्मविद सप्तऋषियों जिन्हें गोल घेरे में दोनों 7 -7 वज्रों से दर्शाया गया है)
भगवान भाष्यकार आदि शंकराचार्य स्वयं निवृत्ति मार्ग के एक त्यागी संन्यासी थे ; किन्तु उन्होंने गीता भाष्य के आरंभ में ही वैदिक धर्म के दो भेद – 'प्रवृत्ति' और 'निवृत्ति' बतलाए हैं।
“द्विविधो हि वेदोक्तो धर्मः, प्रवृत्ति लक्षणो निवृत्ति लक्षणश्च,
जगतः स्थितिकारणम्, प्राणिनां साक्षादभ्युदयनिश्रेयशहेतुः।”
जैसे याता-यात करने के लिये 'डाउन-लाइन और अप-लाइन' दोनों रहते हैं, दोनों टर्मिनल (अंतिम-स्टेशन) पर मिलते हैं। उसी प्रकार जीवन के ये दो प्रकार हैं, जो दोनों ही वेदों द्वारा समर्थित हैं- एक है प्रवृत्तिमूलक मार्ग और दूसरा निवृत्तिमूलक मार्ग। श्रुति भगवती बहुत दयालु है, ऐसा करके आचार्य और शास्त्र हमें असत कर्म करने लिये प्रोत्साहित नहीं करते, बल्कि इस प्रकार वे सामान्य मनुष्यों के भोग-प्रवण मन को क्रमशः शास्त्रोमुखी बनाने की ही चेष्टा करते हैं.जीवन की इन दोनों पद्धतियों का मूल्य समान है। गृहस्थाश्रम में रहकर भी मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है!' यदि सभी मनुष्यों के उपर एक ही मार्ग को -केवल निवृत्ति मार्ग को अपनाने बाध्यता थोप दी जाये तो वैसा करना ठीक नहीं होगा।
इसीलिये श्रुति या शास्त्र प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति तक आने में बाधा नहीं देते। मनु महाराज तो कहते हैं- विवाह करो, थोड़ा खा पहन लो; किन्तु यह सदा स्मरण रहे कि -निवृत्तिअस्तु महाफला ! चारे में जब मछली फंसती है, तो वह डोर को खींचने लगती है, उस समय डोर को ढील देनी पड़ती है; डोर को ढील देते हुए मछली को थोड़ी देर तक खाने देना पड़ता है, बाद में मछली को खींच लिया जाता है। पहले ही खींचने से डोरी टूट जाएगी। इसीलिये श्रीरामकृष्ण जिस व्यक्ति में कामिनी -कांचन के प्रति अधिक आसक्ति देखते थे, उन्हें थोड़ा भोग कर लेने के लिये कहते थे, किन्तु अन्त में यह भी जोड़ देते थे -" लेकिन यह जान लेना कि इसमें कुछ रखा नहीं है ! " महाभारत (षड्जगीता- ३८) में कहा गया है-
धर्मार्थकामाः सममेव सेव्या,यस्त्वेकसेवी स नरो जघन्यः ।
द्वयोस्तु दक्षं प्रवदन्ति मध्यं, स उत्तमो यो निरतिस्त्रिवर्गे ॥
यह जो 'धर्म-अर्थ-काम ' का त्रिवर्ग है, उसकी तुलना चतुर्थ वर्ग -मोक्ष के साथ नहीं हो सकती है। इसलिये इन तीनों में -किसी एक के प्रति आसक्त नहीं होना चाहिये, या किसी एक में ही अटके नहीं रहना चाहिये। जो किसी एक में ही आसक्त हो जाता है, उसको घृणित या निन्दनीय माना जाता है।
अतएव धर्म, अर्थ और काम के त्रिवर्ग में परस्पर संतुलन बने रहना मानसिक स्वास्थय एवं सुखी जीवन के लिए परमावश्यक है। इन तीनों में संतुलन बनाए रखने के लिए ही वैदिक ऋषियों ने गृहस्थाश्रम का महत्व प्रतिपादित किया है। इन तीनों में सुसामन्जस्य या तालमेल बनाये रखना ही मानसिक और शारीरिक स्वास्थय का मूल रहस्य है। हमारे पूर्वजों ने यह भी कभी नहीं कहा है, कि काम की कोई आवश्यकता नहीं है। उन्होंने केवल इतना कहा है कि काम (कामना) को नियंत्रित रखना या परिमित (restrained) रखना आवश्यक है।
स्वामी विवेकानन्द भी हमलोगों को ठीक यही सन्देश देते हैं, वे हमलोगों को पूर्ण उद्यम के साथ अर्थ-उपार्जन के लिये उत्साहित करते हुए कहते हैं- " धन कमाना चाहता है ? तो अमेरिका चला जा। मैं तुमको व्यापार करने की बुद्धि दूंगा। ....यहाँ बैठे रहने से क्या होगा ? यदि जाने का भाड़ा नहीं हो, तो जहाज का खलासी बनकर विदेश चला जा। देशी कपड़ा, गमझा, चद्दर को गट्ठर बना कर सिर पर लेकर अमेरिका-यूरोप की गलियों में फेरी लगा। कुछ छोटी छोटी वस्तुओं को वहां बेचो। देखोगे यही करते करते थोड़े दिनों में बुद्धि खुल जाएगी। तब देखोगे कि वे लोग भी तुम्हें सहायता देने लगेंगे। "
भारत के स्त्री-पुरुष दोनों को कह रहे हैं, तू सभी लोग मिल-जुल अर्थोपार्जन करो। कहते हैं- क्या तुमलोग जेली,चटनी, आचार, या मसाला बनाने में भी आत्मनिर्भर नहीं हो सकते ? इसको तो तुम विदेशों में निर्यात भी कर सकते हो। ये सब 'Business tips ' (व्यापार करने के नुस्खे) निवृत्ति मार्ग के संन्यासी स्वामी विवेकानन्द दे रहे हैं। कहते हैं, तुम्हारे पास कल-कारखाने कहाँ हैं ? " आज उनके जाने के १५० वर्ष बाद हमलोग रक्षा क्षेत्र में बड़े बड़े कल-कारखाने लगाने, और आत्मनिर्भर भारत की चर्चा करते हैं। लेकिन स्वामीजी ने ये बातें कितने दिनों पहले कही थीं।
एक बार जहाज से जापान जाते समय स्वामीजी की मुलाकात जमशेदजी टाटा के साथ हुई थी। रास्ते में बातचीत होने लगी। स्वामीजी के पूछने पर जमशेदजी ने बतलाया कि वे दियासलाई का आयात करने के लिये जापान जा रहे हैं। स्वामीजी ने आश्चर्य प्रकट करते हुए पूछा " आप दियासलाई आयात करने जापान क्यों जा रहे हैं? उसमें रहता ही क्या है ? पतली सी लकड़ी का बना बॉक्स होता है, भीतर कुछ पतली पतली लकड़ी की कील (सलाई) रहती है, जिसके माथे पर थोड़ा बारूद लगा रहता है। ऐसी साधारण सी चीज का आयात करने जापान जा रहे हैं ? आप इसे भारत में निर्मित क्यों नहीं कर सकते ? भारतवर्ष में ही इसका निर्माण कीजिये न। जो भी उद्योग -धंधा लगाना हो, उसे भारत में ही लगाइये।"
वे कहते हैं, " तुमलोग जो कुछ भी उद्योग-धंधा लगाओ अपने देश में ही (स्थापित ) करना। तुमलोग विदेश जाओ और वहाँ से तकनिकी ज्ञान सीख कर अपने देश में कल-कारखाने स्थापित करो। तुमलोग जापान जाओ, वहां से मशीन निर्माण की कला सीखो, और देश की धरती पर नयी नयी वस्तुओं का उत्पादन करो।"
" भारत में तो खनिज पदार्थों की तो भरमार है। विदेशी लोग उसी कच्चे-माल का उपयोग करके, नये रूप में ढाल कर, पुनः उसे भारत में बेचकर सोना उगा रहे हैं। और तुमलोग देश में इतनी खनिज-सम्पदा रहने पर भी कुछ नहीं कर पा रहे हो ? वे तो यहाँ तक कहते हैं, कि " तुमलोग 'luxury goods' या विलासिता की वस्तुओं का उत्पादन भी प्रारम्भ करो। कहते हैं, बहुत अधिक भोग में डूबे रहना अवश्य अच्छा नहीं है; किन्तु अधिक परिमाण में 'consumer goods' का उत्पादन करने से क्या होगा -जानते हो ? इससे देश में नये नये रोजगार के अवसर पैदा होंगे।(3/334) "
इसी मुलाकात के बाद से जमशेदजी के मन में उद्योग स्थापित करने का धुन सवार हो गया। इसीके बाद जमशेदजी टाटा ने जमशेदपुर, झारखण्ड में एक बहुत बड़ा उद्योग स्थापित किया। उनकी प्रेरणा के श्रोत स्वामीजी ही थे। आगे चलकर स्वामीजी के परामर्श से ही उन्होंने विज्ञान के उपर एक शोध-संस्थान भी स्थापित किया था। भारत का प्रथम कृषि शोध-संस्थान भी स्वामीजी की ही प्रेरणा से अल्मोड़ा में स्थापित हुआ था, यह शोध-संसथान भारत के लिये अद्भुत वरदान सिद्ध हुआ है। उस समय स्वामीजी शरीर में ही थे। शोध-संस्थान खोलने के बाद जमशेदजी ने स्वामीजी से अनुरोध किया कि आप ही इसके डाइरेक्टर (directer) बन जाइये। वे समझ गये थे कि स्वामीजी के पास कॉमन सेन्स का भण्डार है, उनके शांत और परिष्कृत मन में इन सब के उपर नये नये विचार उठते ही रहते हैं। स्वामीजी के प्रति उनके मन में अपार श्रद्धा थी। किन्तु स्वामीजी ने बहुत विनय के साथ उनके डाइरेक्टर होने के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था। क्योंकि स्वामीजी का यह कार्य था ही नहीं। आज तो भारत में कई शोध-संसथान खुल चुके हैं, किन्तु भारत का प्रथम शोध-संस्थान स्वामी विवेकानन्द की प्रेरणा से, बंगाल के वशीसेन के द्वारा ही स्थापित हुआ था।
स्वामीजी ने , न कभी अर्थ की निन्दा की है, और न काम की ही निन्दा की हैं। उन्होंने अर्थ की उत्पत्ति करने को कहा है, भोग भी करने को कहा है, कहते हैं- सब कुछ करो, किन्तु धर्म के द्वारा उसको नियंत्रण में रखो। स्मरण रहे कि अर्थ और काम का भोग करने में अन्धे होकर धर्म का त्याग नहीं करना है। यदि धर्म को त्याग कर यह सब करोगे तो सब कुछ नष्ट हो जायेगा।
अल्बर्ट आईन्स्टाईन एक विश्व-विख्यात वैज्ञानिक हैं, विज्ञान की प्रगति के विषय में विवेचना करते समय एक स्थान पर वे कहते हैं, अच्छा आज विज्ञान में इतनी प्रगति आप देख रहे हैं, उसकी प्रेरणा का श्रोत कहाँ है ? सुनकर आश्चर्य होता है, वे कहते हैं- नूतन वैज्ञानिक अविष्कारों की प्रेरणा का श्रोत है धर्म। यदि धर्म नहीं होता तो विज्ञान में ऐसी प्रगति भी नहीं हो सकती थी। इधर स्वामी जी भी कहते है, यदि धर्म को आधार मान कर लोक-व्यवहार करोगे, तो तुम्हारी बुद्धि स्फुरित होने लगेगी, तुमलोगों की कार्यक्षमता (efficiency) बढ़ जाएगी, जीवन का भोग दक्षता के साथ कर पाओगे। सरकार से रोजगार माँगने के बजाय , बेरोजगार लोगों को तुम स्वयं रोजगार देने में समर्थ हो जाओगे।
वे एक स्थान पर अत्यंत आश्चर्य जनक बात कहते हैं, कहते हैं-धर्म का अर्थ है भोग ! इसको समझाते हुए कहते हैं, तुम्हारे वेदों में क्या है ? देखो समस्त वेद में है, केवल भोग, भोग और भोग। वेदों के संहिता भाग में केवल यही कहा गया है कि किस प्रकार मनुष्य को इहलोक और परलोक में अधिक से अधिक भोग और सुख प्राप्त हो सकता हैं? स्वामीजी कहते हैं कि भोग पूरा हुए बिना त्याग नहीं हो सकता है। मोक्ष, त्याग या वैराग्य तो सबसे अन्तिम बात है। सामान्य मनुष्यों के लिये पहले भोग को पूरा करना आवश्यक होता है। और इसके लिये अर्थ उपार्जन करना भी आवश्यक होता है। किन्तु इन दोनों को नियंत्रित रखने के लिये धर्म की आवश्यकता होती है।
व्यवहारिक जीवन में धर्म का अर्थ है, हमलोग बहुत बड़े कर्मवीर बनेंगे, सबकुछ करेंगे, किन्तु धर्म को भी बनाये रखना होगा। स्वामीजीने भारतीय लोगों की तीखे शब्दों में निन्दा भी की है। वे कहते हैं, तुमलोग पूरी तरह से तमोगुण द्वारा भर गये हो। तुमलोग मिट्टी के पुतलों के सदृश्य हो। तुमलोगों के इस जड़ शरीर को हिलाडुला कर जगाने के लिये ही मैं धरती पर आया हूँ। मैं तुमलोगों के भीतर रजोगुण का संचार करना चाहता हूँ। कहते हैं, तुमलोग रजोगुण के बल पर आत्मनिर्भर हो जाओ। हम सभीलोग रजोगुण के लक्षण के विषय में जानते हैं, रजोगुण से प्रेरित मनुष्य निरंतर कर्म करने में लगा रहता है। इसीलिये कहते हैं, तुमलोगों में रजोगुण का संचार हो। तुमलोग कर्मठ या कर्मतत्पर मनुष्य बनो। नई नई वस्तुओं का निर्माण करो, जीवन में भोग करो, किन्तु यह सब धर्म के द्वारा संचालित होकर करो; किन्तु यह भी याद रखना कि समस्त भोग करके भी यथार्थ शान्ति नहीं मिलेगी।
हमारे शास्त्रों में कहा गया है - "निवृत्त रागस्य गृहम् तपोवनम्"--जिस सद गृहस्थ के हृदय से ' सांसारिक भोगों की लालसा, राग, आसक्ति समाप्त हो जाती है, उनका घर ही तपोवन बन जाता है। और वे घर-गृहस्थी में रहते हुए भी जीवनमुक्त शिक्षक / नेता बन सकते हैं। और अपने शिष्य (भावी नेताओं) को 'विवेक-दर्शन' के अभ्यास का प्रशिक्षण देता है जिससे वह शिष्य पहले तो विरक्त हो जाता है । फिर उसको वह सत्पुरुष समझाता है – " नासि त्वं संसारि अमुष्य पुत्रत्वादि धर्मवान्। सद् यत् , तत् त्वम् असि । " -अरे तू संसारी नहीं है और न किसीके पुत्रत्वादि धर्म वाला है, जो सत् है वही तू है । (सद् यत तत्त्वमसि-"वह तुम ही हो") इस प्रकार के उपदेश से, आदेश से अविद्यामय मोह - पट जो उसकी बुद्धि पर पड़ा हुआ था वह हट जाता है और वह क्रम - क्रमसे ज्ञान की भूमिकाओं को पार करता हुआ अपने सद् - रूप (गांधार देश) इन्द्रियातीत अवस्था पहुँचकर अपने सदात्मा को प्राप्त होकर अपने नेता /शिक्षक (नेता C-IN-C) के समान सुखी और शान्त हो जाता है। अर्थात दूसरों को मनःसंयोग का प्रशिक्षण देने में समर्थ शिक्षक बन जाता है। अतः श्रुति-भगवती ने ठीक ही कहा है कि " आचार्यवान् पुरुषो वेद "- आचार्यवान पुरुष ही सत्य को जान पाता है।
>>>" तत्त्वमसि " को महावाक्य कहा जाता है ! तत्त्वमसि का अर्थ है, 'वह' (परम् सत्य या ब्रह्म) तू ही है। वह दूर नहीं है, बहुत पास है, पास से भी ज्यादा पास है। तेरा होना ही वही है।
यह महावाक्य है। महावाक्य का अर्थ होता है कि अगर इस एक वाक्य को भी पकड़ कर कोई पूरा अनुसंधान कर ले, तो जीवन की परम स्थिति को उपलब्ध हो जाए। इसलिए इसको महावाक्य कहते हैं।फिर किसी शास्त्र की कोई भी जरूरत नहीं है, और किसी वेद और किसी कुरान और बाइबिल की कोई जरूरत नहीं है। तत्त्वमसि पर्याप्त वेद है।इस एक वाक्य का कोई ठीक से श्रवण कर ले, मनन कर ले, निदिध्यासन कर ले, समाधि कर ले, तो किसी और शास्त्र की कोई जरूरत नहीं है। महावाक्य का अर्थ है: पुंजीभूत, जिसमें सब आ गया हो। यह महावाक्य आध्यात्मिक केमिस्ट्री का फार्मूला है।इसमें तीन बातें कही हैं तत्, वह, त्वम्, तू; दोनों एक हैं — तीन बातें हैं। वह और तू एक हैं, बस इतना ही यह सूत्र है। लेकिन सारा वेदांत, ऋषियों का सारा अनुभव , इन तीन में आ जाता है।यह जो गणित जैसा सूत्र है वह – अस्तित्व (witness consciousness- शुद्ध चेतना ), परमात्मा और तू वह जो भीतर छिपी चेतना (reflected consciousness , प्रतिबिम्बित चेतना) है वह, ये दो नहीं हैं, ये एक हैं। समस्त वेदों का इतना ही सार है , फिर बाकी सब फैलाव है।इसलिए इस तरह के वाक्य को उपनिषदों में महावाक्य कहा गया है। इस तरह के वाक्य पूर्ण मौन में सुने जाने चाहिए।इसलिए हजारों साल तक भारत में ऋषियों का आग्रह रहा कि जो परम ज्ञान है, वह लिखा न जाए। उनका आग्रह बड़ा कीमती था। लेकिन उसे पूरा करना असंभव था। लिखना पड़ा।हजारों साल तक यह आग्रह रहा कि जो परम ज्ञान है, वह लिखा न जाए।बहुत लोग, विशेषकर Linguist ( भाषाशास्त्री या भाषाविद) सोचते हैं कि चूंकि लिपि नहीं थी, लिखने का उपाय नहीं था, इसलिए बहुत दिन तक वेद और उपनिषद नहीं लिखे गए।वे गलत सोचते हैं। क्योंकि जो तत्त्वमसि जैसा अनुभव उपलब्ध कर सकते थे, जो इस महावाक्य को अनुभव में ला सकते थे, वे लिखने की कला न खोज लेते, यह असंभव मालूम पड़ता है।लिखने की कला तो थी, लेकिन वे (हमारे पूर्वज ऋषि-मुनि) लिखने को राजी नहीं थे। क्यों? क्योंकि ऐसे महावाक्य लिख दिए जाएं, तो हर कोई हर किसी हालत में (चाहे वो इसका अधिकारी हो अथवा नहीं) पढ़ लेता है। और पढ़ कर कर इस भ्रांति में पड़ जाता है कि समझ गए।ये वाक्य किसी विशेष गुण, किसी विशेष अवस्था, चित्त की कोई विशेष परिस्थिति में ही सुनने योग्य हैं। तभी ये प्राणों में प्रवेश करते हैं।हर कभी सुन लेने पर खतरा है। खतरे दो हैं एक तो यह याद हो जाएगा, और लगेगा मैंने जान लिया, और दूसरा खतरा यह है कि इस जानकारी के कारण आप शायद ही कभी उस मनःस्थिति को बनाने की तैयारी करें, जिसमें इसे सुना जाना चाहिए था। बीज डालने का वक्त होता है, समय होता है, मौसम होता है, घड़ी होती है, मुहूर्त होता है। और ये बीज तो महाबीज हैं। इसलिए गुरु इन्हें शिष्य के कान में बोलता है। [अर्थात महामण्डल का नेता C-IN-C इन्हें 6 दिनों के निर्जनवास या वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर/ या साप्ताहिक युवा पाठचक्र में बोलता है। ]
उसी प्रकार श्री रामकृष्ण के दो प्रसिद्द महावाक्य हैं - 'सर्वधर्म समन्वय' और 'शिवज्ञान से जीव सेवा'। निर्विकल्प समाधि के बाद, चैतन्य को सांसारिक भूमि पर लाने के बारे में उनका अपना मौलिक सिद्धान्त था। अद्वैत वेदांत के सर्वोच्च सिद्धान्त को उपलब्ध करने के बाद उन्होंने घोषणा की थी -1."जैसे नित्य सत्य है , वैसे ही लीला भी सत्य है।" इस सिद्धान्त को वे 'ज्ञान' के बाद 'विज्ञान' कहते थे। नित्य (परम् सत्य) के बिना लीला (सापेक्षिक सत्य या जगत), और लीला के बिना नित्य (परम् सत्य) की कल्पना नहीं की जा सकती।
2. 'ईश्वरलाभ ही मनुष्य जीवन का अंतिम लक्ष्य है।'
3. 'सभी धर्म एक ही ईश्वर की ओर ले जाते हैं। ' 'अलग-अलग धर्म भगवान को पाने के अलग-अलग मार्ग हैं।' 'एक राम, उनके हजार नाम'- जैसे जल , वाटर , पानी, एकुआ। एक ही ‘ब्रह्म’ को कोई- 'अल्लाह' कह रहा है; ‘कोई भगवान’; कोई कह रहा है माँ जगदम्बा काली ; कोई कह रहा है राम, हरि, यीशु, दुर्गा। इसको ही वे " सर्वधर्म समन्वय (Interfaith Acceptance) कहते थे। (Monotheism and the realization and integration of the truth of all religions.)
4. भक्तों की मान्यता के अनुसार, निर्विकल्प समाधि प्राप्त करने के बाद श्री रामकृष्ण देव ने माया के दो पक्षों- विद्या और अविद्या को आविष्कृत किया था। और कहा था - " विद्या माया संसार-चक्र से मुक्त करती है, अविद्या माया भवबंधन में बांध देती है। मायातीत अवस्था में आत्मज्ञान होता है। (अर्थात माया की दो शक्तियों - आवरण और विक्षेप शक्ति से परे हो जाने पर में आत्मज्ञान होता है। "
5. "कामिनी-कांचन (महिलाओं का साहचर्य और Bank Balance) में आसक्ति का त्याग ही त्याग है।" तथा 'कामिनी-कांचन' में इस सर्वव्यापी आसक्ति (या व्यष्टि अहं) का त्याग (रूपांतरण) अभ्यास योग के द्वारा किया जा सकता है। गीता में भी ऐसा कहा गया है।
[ जिस प्रकार वे अपने पुरुष भक्तों को अभ्यास योग (महामण्डल द्वारा निर्देशित 5 अभ्यास) के द्वारा महिलाओं का साहचर्य और Bank Balance बढ़ाते रहने की ललक, प्रवृत्ति या लत का त्याग करने की शिक्षा देते थे , उसी प्रकार महिला भक्तों को भी वे 'पुरुष-कांचन' (पुरुष यौन इच्छा और धन) के बारे में सतर्क रहने की शिक्षा देते थे।]
6. “ यत्र जीव तत्र शिव ” जहाँ कहीं भी प्राणन-क्रिया हो रही है, वहाँ शिव-काली की लीला है ! "जीवों पर दया नहीं, शिव ज्ञान से जीव सेवा"।
" एक दिन श्री रामकृष्ण स्नेहपूर्ण दृष्टि से नरेन्द्र की ओर तकते हुए पूछा - " नरेन्द्र तू क्या चाहता है ? " उपयुक्त अवसर समझकर नरेन्द्रनाथ ने उत्तर दिया , " शुकदेव की तरह निर्विकल्प समाधि के द्वारा सदैव सच्चिदानन्द सागर में डूबे रहना चाहता हूँ। " यह सुनकर रामकृष्ण ने थोड़ा झिड़कते हुए कहा- " बार बार यही बात कहते तुझे लज्जा नहीं आती ? मैंने तो सोचा था कि समय आने पर तू बटवृक्ष की तरह बढ़कर सैकड़ों लोगों को शांति की छाया देगा ; और कहाँ आज अपनी ही मुक्ति के व्यस्त हो उठा ! इतना क्षुद्र आदर्श है तेरा ? वत्स, हमारे आसपास के क्षेत्र के लोग भूख से तड़प रहे हैं। चारों ओर अज्ञान का अंधेरा छाया है। यहां लोग रोते-चिल्लाते रहें और तुम समाधि के आनन्द में निमग्न रहो ? क्या तुम्हारी आत्मा इसे स्वीकार करेगी ? "
नरेन्द्र की विशाल आँखों में आँसू भर आये। वे अभिमान के साथ कहने लगे , " निर्विकल्प समाधि न होने तक , (उस परम् सत्य का दर्शन न कर लेने तक , जिसे देखकर एथेंस का सत्यार्थी देवकुलीश अँधा हो गया था ?) मेरा अनुसन्धानि मन किसी भी तरह शांत नहीं होने का। और यदि वह न हुआ (मैं उस सत्य को प्राप्त न हुआ) तो मैं वह सब कुछ भी न कर सकूँगा। "
' तू क्या अपनी इच्छा से करेगा ? जगदम्बा तेरी गर्दन पकड़ कर करा लेगी। तू न करे - तेरी हड्डियाँ करेंगी। "
नरेन्द्र के (देश-कालातीत) सत्य-दर्शन की कातर प्रार्थना की उपेक्षा करने में असमर्थ होकर श्री रामकृष्ण ने अन्त में कहा - "अच्छा जा , निर्विकल्प समाधि होगी। "
रामकृष्ण के परमप्रिय शिष्य नरेन्द्रनाथ एक दिन सायं काल ध्यान करते करते अप्रत्याशित रूप से निर्विकल्प समाधि में डूब गए। इन्द्रियगोचर द्वैतप्रपंच - सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड मानो एक झटके से महाशून्य में विलीन हो गया। देश-काल-निमित्त से परे अवस्थित निज-बोध-स्वरुप आत्मा अपनी महिमा में स्थित हुई। वह कैसी अवस्था है -यह मानवी भाषा में प्रकट नहीं हुई है - हो ही नहीं सकती। काफी देर बाद उनकी समाधि भंग हुई। उन्होंने अनुभव किया कि उस शाश्वत -चैतन्य सत्ता (परम् सत्य) के साथ एकत्व के परमानन्द में अहंशून्य होने पर भी कोई अलौकिक शक्ति उन्हें उनकी इच्छा के विरुद्ध, जबरदस्ती पंचेन्द्रियग्राह्य बाह्य जगत में उतारकर ला रही है। अनुभव किया कि जगत के दुःख और दैन्य से पीड़ित मोह-भ्रान्त (Hypnotized) जीवों को, स्वयं ज्ञानामृत से परितृप्त होकर याने- स्वयं भ्रम -मुक्त (d-Hypnotized) होकर , उस (ठाकुर नाम) अमृत का पान दूसरों को कराने के लिए भारत के अतीत युग के मन्त्रद्रष्टा ऋषियों की तरह उन्हें भी मेघ-गंभीर स्वर में युवाओं का आह्वान करना होगा -
" शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः॥ २।५॥
[ सर्वे अमृतस्य पुत्राः शृण्वन्तु ये दिव्यानि धामानि आतस्थुः॥- अमृत आनन्द के पुत्र मेरी बात सुनें, और वे भी जो दिव्य धाम में निवास करते हैं।]
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्णं तमसः परस्तात्।
तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय॥
[ तमसः परस्तात् आदित्यवर्णम् एतत् महान्तं पुरुषम् अहं वेद। तमेव विदित्वा अतिमृत्युम् एति अयनाय अन्यः पन्थाः न विद्यते॥]
मैं उस परम पुरुष को जान गया हूँ जो सूर्य के समान देदीप्यमान है और समस्त अन्धकार से परे है। जो उसे अपने अनुभव के द्वारा जान जाता है वह मृत्यु से मुक्त हो जाता है। जन्म-मरण के चक्कर से छुटकारा का कोई अन्य मार्ग नहीं है। " (श्वेताश्वतर उपनिषद- 2.5/ 3.8, वि० चरित ० 74 )
विवेकानन्द के गुरु श्री रामकृष्ण देव 'सेवा पथ' को ईश्वर- प्राप्ति का प्रशस्त पथ मानकर अनेकता में एकता का दर्शन करते थे। भारत की प्राचीन संस्कृति - 'देवो भूत्वा देवं यजेत', गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक- प्रशिक्षण परम्परा' में प्रशिक्षित एवं अनुशासित सेवा-परायण आध्यात्मिक शिक्षकों के निर्माण द्वारा सम्पूर्ण मानव -समाज को सुरक्षा प्रदान करना चाहते थे।
श्रीरामकृष्ण (जो नवनीदा जैसे गृहस्थ और त्यागी एक ही आधार में थे) ने निवृत्ति मार्ग के सप्त ऋषियों में से एक स्वामी विवेकानन्द को सम्पूर्ण जगत को (प्रवृत्ति-निवृत्ति) सभी प्रकार के मनुष्यों को शिक्षा देने का चपरास दिया था। इसीलिये स्वामीजी कहते हैं -' जब तक सम्पूर्ण जगत यह नहीं जान लेता कि वह और ईश्वर एक है, तब तक मैं हर जगह के मनुष्यों को अनुप्रेरित करता ही रहूँगा।" इसीलिये महामण्डल के वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में वेदान्त केसरी बनने और बनाने - 'BE AND MAKE का प्रशिक्षण चुने हुए, और नेता बनने के इक्षुक युवाओं को दी जाती है !
जब हमलोग महामण्डल के संस्थापक और मानवजाति के मार्गदर्शक नेता नवनीदा के जीवन और संदेशों को देखते हैं को देखते हैं तो पाते हैं कि उनका जीवन प्रत्येक युवा के लिए एक पथप्रदर्शक ज्योति या लाईटहॉउस की तरह था। वे भी अवतार-वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव की तरह एक ही आधार में गृहस्थ और त्यागी दोनों थे ! वे एक ओर जहाँ साधारण गृहस्थों जैसा अपने संयुक्त-परिवार का पालनपोषण करने के लिये १७ वर्ष की आयु से लेकर रिटायरमेन्ट लेने तक कार्यरत रहे थे। वहीँ दूसरी ओर एक 'यायावर (dropout) समूह के नेता' बनकर सम्पूर्ण भारत में -हमलोग जैसे हजारों साधारण मनुष्यों को 'ब्राह्मण धर्म में प्रतिष्ठित' अर्थात साम्यभाव में प्रतिष्ठित मनुष्य' बनने और बनाने (लीडरशिप ट्रेनिंग) का प्रचार-प्रसार करने के लिए जीवन के अंतिम क्षणों तक भ्रमण करते ही रहे थे !
" देवो भूत्वा देवं यजेत " ....अर्थात आसुरी वृत्तियों से दूर व दैवी गुणों से युक्त होकर ही अपने इष्टदेव की पूजा करें। देवों की आराधना करने के लिए हमें देवता बनने की आवश्यकता होती है। प्रायः सभी को ज्ञात है कि मनुष्यों में ही देव और दानव का पता चलता है उनकी धारणा और प्रवृत्ति को देखकर । 'शिवो भूत्वा शिवं यजेत' अर्थात शिव बनकर ही शिव की पूजा करें। अर्थात भक्त स्वयं भगवद-रूप होकर भगवान का यजन करे। भगवान शिव का तीसरा नेत्र विवेक का प्रतीक है। इसके खुलते ही कामदेव नष्ट हुआ था अर्थात विवेकज -ज्ञान से कामनाओं को विनष्ट करके ही शांति प्राप्त की जा सकती है।
आदिगुरु शंकराचार्य ने अपने अनुभव से यह ज्ञान प्राप्त किया, कि ज्ञान की अद्वैत भूमि पर जो परमात्मा निर्गुण निराकार ब्रह्म (निरपेक्ष -सत्य) है, वही द्वैत की भूमि पर सगुण साकार है। “सत्य अद्वैत है; परन्तु द्वैत पूजा के लिए है; और इस प्रकार यह पूजा मुक्ति की अपेक्षा सौगुनी महान् है।” उन्होंने निर्गुण और सगुण दोनों का समर्थन करके निर्गुण तक पहुँचने के लिए सगुण की उपासना को अपरिहार्य सीढ़ी माना। उन्होंने ‘ब्रह्मं सत्यं जगन्मिथ्या’ का उद्घोष भी किया और शिव, पार्वती, गणेश, विष्णु आदि के भक्ति-रसपूर्ण स्तोत्र भी रचे। उन्होंने आसेतु हिमालय संपूर्ण भारत की यात्रा की और चार मठों की स्थापना करके पूरे देश को सांस्कृतिक, धार्मिक, दार्शनिक, आध्यात्मिक तथा भौगोलिक एकता के अविच्छिन्न सूत्र में बाँध दिया। उन्होंने समस्त मानव जाति को जीवन्मुक्ति का एक सूत्र दिया-
दुर्जन: सज्जनो भूयात,
सज्जन: शांतिमाप्नुयात्।
शान्तो मुच्येत बंधेम्यो,
मुक्त: चान्यान् विमोच्येत्॥
दुष्ट मनुष्य सज्जन बन जाए; सज्जन को शान्ति प्राप्त हो; शान्त मनुष्य बन्धन से छूट जाए और मुक्त मनुष्य दूसरों को मुक्त कराए। ऐसा नेता (जीवनमुक्त शिक्षक) अपने अनुयायियों को दुर्जन को सज्जन बनने का प्रशिक्षण कैसे देता है ?
इसकी तुलना कीजिए- " असंस्कृतास्तु संस्कार्याः भ्रातृभिः पूर्वसंस्कृतैः। " की उक्ति से। जो लोग पहले दीक्षित हो चुके हैं, उनका यह कर्तव्य हो जाता है कि वे अपने अदीक्षित भाइयों को भी दीक्षित करें। जो महापुरुष प्रचार-कार्य के लिए अपना जीवन समर्पित कर देते हैं, वे उन महापुरुषों की तुलना में अपेक्षाकृत अपूर्ण हैं, जो मौन रहकर पवित्र जीवनयापन करते हैं और श्रेष्ठ विचारों का चिन्तन करते हुए जगत् की सहायता करते हैं। इन सभी महापुरुषों में एक के बाद दूसरे का आविर्भाव होता है–अंत में उनकी शक्ति का चरम फलस्वरूप ऐसा कोई शक्तिसम्पन्न पुरुष आविर्भूत होता है, जो जगत् को शिक्षा प्रदान करता है।
स्वामी विवेकानन्द द्वारा कथित यह महावाक्य 'Be and Make' अर्थात अगर कोई 'ब्रह्म-जिज्ञासु-सत्यार्थी' केवल इस एक महावाक्य - " तत्त्वमसि " का (" Swami Vivekananda - Captain Sevier 'Be and Make' Leadership Training Tradition " में प्रशिक्षित और अनुशासित जीवन में प्रतिष्ठित) प्रकाश-स्तम्भ 'Lighthouse ' जैसे (नवनीदा जैसे प्रज्ञा और करुणा (Wisdom and Compassion) से परिपूर्ण ब्रह्मविद अध्यापक,गुरु, जीवनमुक्त शिक्षक, आध्यात्मिक नेता, Spiritual Teacher-C-IN-C) के मुख से श्रवण -मनन -निदिध्यासन द्वारा मन में धारण कर (पकड़ कर) इस " तत्त्वमसि " महावाक्य का पूरा अनुसंधान कर ले, तो उसके हृदय का अन्धकार आप ही आप नष्ट हो जायेगा। वह जीवन की परम स्थिति को उपलब्ध हो जायेगा। इसलिए इसको महावाक्य कहते हैं।]
Work for work's sake : कार्य के निमित्त ही कार्य। प्रत्येक देश में कुछ नर-रत्न ऐसे होते हैं, जो केवल कर्म के लिए ही कर्म करते हैं। वे नाम-यश अथवा स्वर्ग की भी परवाह नहीं करते। यदि कोई मनुष्य निःस्वार्थ भाव से कार्य करे, तो क्या उसे कोई फलप्राप्ति नहीं होती ? असल में तभी तो उसे सर्वोच्च फल की प्राप्ति होती है। और सच पूछा जाय , तो निःस्वार्थता अधिक फलदायी होती है, केवल लोगों में इसका अभ्यास करने का धैर्य नहीं होता। स्वास्थ्य की दृष्टि से भी यह अधिक लाभदायक है। ' प्रेम , सत्य तथा निःस्वार्थता ' -- ये नैतिकता सम्बन्धी कोई भाषण की वस्तु नहीं है , वरन शक्ति की महान अभिव्यक्ति-श्रोत होने के कारण वे हमारे सर्वोच्च आदर्श हैं। पहली बात यह कि यदि कोई मनुष्य सिर्फ 5 दिन, उतना भी क्यों केवल 5 मिनट के लिए भी बिना भविष्य का चिन्तन किये , बिना स्वर्ग , नरक या अन्य किसी कामना के वशीभूत हुए बिना , निःस्वार्थता से काम कर सकता है , तो उसमें एक महान आत्मा (नेता / आध्यात्मिक अध्यापक) बन सकने की क्षमता है। यद्यपि इसे कार्यरूप में परिणत करना उतना आसान नहीं है, फिर भी अपने हृदय के अन्तस्तल से हम इसका महत्व समझते हैं, और जानते हैं कि इससे कितना मंगल होने वाला है ! अन्य सभी प्रकार के बहिर्मुखी कर्मों की अपेक्षा यह आत्म-संयम (self-restraint) अन्तर्निहित शक्ति की श्रेष्ठतम अभिव्यक्ति है। कोई चार घोड़ों वाली बग्गी पहाड़ी के ढलान पर बड़ी आसानी से बेरोक उतर सकती है, अथवा साईस जब चाहे घोड़ों को रोक सकता है। किन्तु शक्ति की अधिक अभिव्यक्ति घोड़ों को छोड़ देने में है , अथवा उन्हें रोकने में ? इसी प्रकार मन की सारी बहिर्मुखी गति किसी स्वार्थपूर्ण- उद्देश्य की ओर दौड़ती रहने से छिन्न-भिन्न होकर बिखर जाती है। वह फिर तुम्हारे पास मानसिक ऊर्जा को लौटाकर नहीं लाती। परन्तु यदि मन की शक्ति का संयम किया जाय , तो उसकी भेदक-क्षमता (Penetrating Force-कुशाग्र क्षमता) में वृद्धि होती है।
इसी आत्म-संयम के द्वारा महान इच्छा-शक्ति का प्रादुर्भाव होता है ; और वह प्रबल इच्छा-शक्ति ही किसी बुद्ध या ईसा जैसे मानवजाति के मार्गदर्शक नेता / शिक्षक के चरित्र का निर्माण करता है। मूर्खों को इस रहस्य का पता नहीं रहता , परन्तु फिर भी वे मानवजाति पर शासन करने (महामण्डल का नेता बनने) के इच्छुक रहते हैं। कोई मूर्ख भी यदि निःस्वार्थभाव से कर्म करे , और फल पाने की दौड़ में शामिल न होकर प्रतीक्षा करे , तो समस्त संसार पर शासन कर सकता है। यदि वह कुछ वर्षों तक धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करे , तथा अपने इस मूर्खता-जन्य जगत-शासन के भाव को संयत कर ले , तो इस भाव ( नाम-यश या झटपट गुरु बन जाने के भाव) के समूल नष्ट होते ही वह संसार में शक्ति का एक Dynamo (बिजली पैदा करने का यंत्र) बन जायेगा। "
( " Work for work's sake. There are some who are really the salt of the earth in every country and who work for work's sake, who do not care for name, or fame, or even to go to heaven. If a man works without any selfish motive in view, does he not gain anything? Yes, he gains the highest. Unselfishness is more paying, only people have not the patience to practice it. It is more paying from the point of view of health also. Love, truth, and unselfishness are not merely moral figures of speech, but they form our highest ideal, because in them lies such a manifestation of power. In the first place, a man who can work for five days, or even for five minutes, without any selfish motive whatever, without thinking of future, of heaven, of punishment, or anything of the kind, has in him the capacity to become a powerful moral giant (The Leader!) . It is hard to do it, but in the heart of our hearts we know its value, and the good it brings. self-restraint is a manifestation of greater power than all outgoing action. A carriage with four horses may rush down a hill unrestrained, or the coachman may curb the horses. Which is the greater manifestation of power, to let them go or to hold them? All outgoing energy following a selfish motive is frittered away; it will not cause power to return to you; but if restrained, it will result in development of power. This self-control will tend to produce a mighty will, a character which makes a Christ or a Buddha. Foolish men do not know this secret; they nevertheless want to rule mankind. Even a fool may rule the whole world if he works and waits. Let him wait a few years, restrain that foolish idea of governing; and when that idea is wholly gone, he will be a power (Dynamo) in the world. " )
" यदि किसी एकान्तवासी व्यक्ति को संसार के चक्र में घसीट लाया जाय , तो वह उससे उसी प्रकार ध्वस्त हो जायेगा , जिस प्रकार समुद्र की गहराई में रहने वाली एक विशेष प्रकार की मछली पानी की सतह पर लाये जाते ही टुकड़े-टुकड़े हो जाती है। क्योंकि सतह पर पानी का वह दबाव नहीं है, जिसके कारण वह जीवित रहती थी। इसी प्रकार एक ऐसा मनुष्य , जो सांसारिक तथा सामाजिक जीवन के कोलाहल का अभ्यस्त रहा है, यदि किसी निर्जन -स्थान में (छह दिवसीय वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में) ले आया जाय , तो क्या वह आराम से रह सकेगा ? कदापि नहीं। उसे क्लेश होना स्वाभाविक है। और सम्भव है कि उसका मस्तिष्क ही फिर जाए। आदर्श पुरुष तो वे हैं , जो परम् शांति एवं निस्तब्धता के बीच भी तीव्र कर्म का तथा प्रबल कर्मशीलता के बीच भी मरुस्थल की शांति और निस्तब्धता का अनुभव करते हैं। उन्होंने संयम का रहस्य जान लिया है --अपने ऊपर विजय प्राप्त कर चुके हैं। [अर्थात उन जीवनमुक्त शिक्षकों/ नेताओं ने ' निःस्वार्थपरता पर मनःसंयोग का रहस्य' जान लिया है , और अपने व्यष्टि अहं को माँ जगदम्बा के मातृहृदय के सर्वव्यापी विराट अहं-बोध में रूपांतरित कर लिया है।] किसी बड़े शहर की भरी हुई सड़कों के बीच से जाने पर भी, यद्यपि उनका मन उसी प्रकार शांत (निश्चल) रहता है, मानो वे किसी निःशब्द गुफा में हों, तथापि उनका मन सारे समय कर्म में ( 'Be and Make ' के काम में) तीव्र रूप से लगा रहता है। यही कर्मयोग का आदर्श है। और यदि तुमने यह प्राप्त कर लिया है , तो तुम्हें वास्तव में कर्म का रहस्य ज्ञात हो गया।"
(A man used to solitude, if brought in contact with the surging whirlpool of the world, will be crushed by it; just as the fish that lives in the deep sea water, as soon as it is brought to the surface, breaks into pieces, deprived of the weight of water on it that had kept it together. Can a man who has been used to the turmoil and the rush of life live at ease if he comes to a quiet place? He suffers and perchance may lose his mind. The ideal man is he who, in the midst of the greatest silence and solitude, finds the intensest activity, and in the midst of the intensest activity finds the silence and solitude of the desert. He has learnt the secret of restraint, he has controlled himself. He goes through the streets of a big city with all its traffic, and his mind is as calm as if he were in a cave, where not a sound could reach him; and he is intensely working all the time. That is the ideal of Karma-Yoga, and if you have attained to that you have really learnt the Secret of Work.)
" परन्तु हमारे जैसे सामान्य व्यक्ति को तो प्रारम्भ से ही आरम्भ करना होगा। " न टालो न ढूँढो " --जो कार्य हमारे सामने चला आये (जिन्हें किये बिना हम रह न सकें) उन्हें हम हाथ में लें और क्रमशः हम अपने को प्रतिदिन निःस्वार्थी बनाने का प्रयत्न करें। हमें कर्म करते रहना चाहिये तथा आत्मनिरीक्षण पद्धति (विवेक-प्रयोग) द्वारा यह पता लगाना चाहिए कि उस कार्य के पीछे हमारी प्रेरक शक्ति क्या है ? ऐसा करने पर (आत्म-मूल्यांकन तालिका भरने पर) हम देखेंगे कि यद्यपि आरम्भिक वर्षों में हमारे सभी कार्यों का हेतु स्वार्थपूर्ण रहता है। किन्तु धीरे -धीरे यह स्वार्थपरायणता -अध्यवसाय से नष्ट हो जायेगी। और अन्त में वह समय आ जायेगा , जब हम वास्तव में स्वार्थ से रहित होकर (तीनों ऐषणाओं से रहित होकर) कार्य करने के योग्य हो सकेंगे। (अर्थात भारत के राष्ट्रीय आदर्श - " त्याग और सेवा " के अध्यवसाय से नष्ट हो जायेगी, और स्वार्थपरायणता सेवापरायणता में रूपान्तरित हो जाएगी।) हम सभी यह आशा कर सकते हैं कि जीवन-पथ में संघर्ष करते करते किसी न किसी दिन वह समय अवश्य ही आएगा , जब हम पूर्ण रूप से निःस्वार्थी [Hundred Percent Unselfish-सौ प्रतिशत निःस्वार्थ- 'मनुष्य'] बन जायेंगे। और ज्यों ही हम उस अवस्था को प्राप्त कर लेंगे , हमारी समस्त शक्तियाँ केन्द्रीभूत हो जाएँगी तथा हमारा आभ्यन्तरिक ज्ञान (दिव्यता या ब्रह्मत्व) हमारे चरित्र और व्यवहार से प्रकट होने लगेगा। " (कर्म का चरित्र पर प्रभाव -३/१०)
(But we have to begin from the beginning, to take up the works as they come to us and slowly make ourselves more unselfish every day. We must do the work and find out the motive power that prompts us; and, almost without exception, in the first years, we shall find that our motives are always selfish; but gradually this selfishness will melt by persistence, till at last will come the time when we shall be able to do really unselfish work. We may all hope that some day or other, as we struggle through the paths of life, there will come a time when we shall become perfectly unselfish; and the moment we attain to that, all our powers will be concentrated, and the knowledge which is ours will be manifest.)
राजर्षि जनक का उदाहरण दिया जाता है। शंकराचार्य ने भी कहा है कि जनक आदि ने इसलिए कर्म किए कि जिससे साधारण लोग मार्ग से न भटक जाएं। वे लोग यह समझ कर काम करते थे कि उनकी इन्द्रिया-भर कार्यों में लगी हुई हैं, गुणा गुणेषु वर्तन्ते। राजा जनक क्षत्रीय होकर भी ब्राह्मणों के आचार्य बने क्योंकि वे प्रवृत्ति मार्गी (सद्गृहस्थ) होकर भी निवृत्ति मार्गी (संन्यासी) के जैसा मृत्यु से भी प्रेम करने के अधिकारी थे । राजर्षि जनक के दिखलाए हुए मार्ग का नाम 'योग' है। योग का अर्थ प्रवृत्ति–मार्ग और ज्ञान का अर्थ सन्यास या निवृत्ति–मार्ग है। इन्हीं दो मार्गों को गीता में संन्यास और कर्मयोग कहा है। हमारे जैसे जिन लोगों ने सत्य को नहीं जाना है, उन्हें आत्मशुद्धि के लिए 'BE AND MAKE' का कर्म अनवरत करते रहना चाहिये, दादा कहते थे जो इस चरित्र-निर्माण आंदोलन से जुड़ जायेगा, उसे 'मुक्ति-भक्ति' सब कुछ प्राप्त हो जायेगा, अलग से कोई साधना नहीं करनी पड़ेगी ! अब हम यह समझ सकते हैं कि - 'वज्र' का निशान भारत के राष्ट्रीय आदर्श 'त्याग और सेवा ' का प्रतीक है। पौराणिक कथा के अनुसार, वज्र ऋषि दधीचि की हड्डियों से बनाया गया था। यह सर्वोच्च बलिदान का प्रतीक है।
5. महामण्डल ध्वज :
बंगाल में आविर्भूत हुए इस निःस्वार्थी-मनुष्य (ब्रह्मविद मनुष्य) निर्माणकारी या चरित्र निर्माणकारी आंदोलन को, भारतवर्ष के सभी राज्यों तक फैला देने के लिये एक ऐसे ध्वज की आवश्यकता महसूस हुई। जो समस्त भारत-वासियों को भारत के राष्ट्रिय आदर्श -'त्याग और सेवा' के लिए अनुप्रेरित करने में समर्थ हो। ऐसे पताका के बारे में विचार करते करते महामण्डल-आंदोलन के संस्थापक पूज्य नवनी दा के मन में विचार आया कि (भगिनी) निवेदिता ने तो स्वाधीन भारत के लिये एक पताका का निर्माण किया था।
दादा ने 'जीवन नदी के हर मोड़ पर ' पुस्तक में लिखा है, " इस ध्वज के निर्मित होने के पीछे भी स्वामीजी की एक उक्ति का स्मरण हो उठता है! एक बार स्वामीजी से किसी ने प्रश्न किया था- स्वामीजी, आपने इतना कुछ किया है, किन्तु भारत की स्वाधीनता के लिये आपने क्या किया है ? स्वामीजी कहते हैं- " मैं तिन दिनों के भीतर ही भारतवर्ष को स्वाधीनता दिला सकता हूँ। किन्तु चरित्रवान मनुष्य भारत में कहाँ हैं रे ? उस स्वाधीनता को अक्षुण कौन रखेगा ? पहले (निःस्वार्थी) मनुष्य तैयार करो !" (भारतवर्षेर स्वाधीनता आमी तीन दिनेर मध्येई एने फेलते पारि| किन्तु भारते मानुष कोथाय रे ? से स्वाधीनता राखबे के?) मैं निश्चयपूर्वक यह नहीं कह सकता कि, स्वामी जी की उसी उक्ति से प्रेरणा प्राप्त करके निवेदिता ने स्वाधीन भारत के लिए, भारत के राष्ट्रीय-आदर्श 'त्याग और सेवा' के अनुरूप पताका की रुपरेखा तैयार की थी य़ा नहीं ? लेकिन गेरुआ कपड़े के बीच दधीचि के हड्डी से बने वज्र के निशान वाले पताका को हमलोगों ने महामण्डल ध्वज के रूप में ग्रहण कर लिया! इसीलिये महामण्डल का जय-घोष बना : " निवेदिता वज्र हो अक्षय !
हमारी दृष्टि में श्रीरामकृष्ण परमहंस प्रथम युवा नेता हैं, जन-नेता हैं, जो मानवमात्र को, सम्पूर्ण विश्व के मनुष्यों को अपने हृदय के अन्तस्तल से प्रेम करते हैं। उनके जीवन में सम्पूर्ण साम्य प्रतिष्ठित हुआ है, इसी लिये वे समस्त मानव-जाति, समस्त जीवों, यहाँ तक की जड़ वस्तुओं के साथ भी अभिन्नता का साक्षात्कार करते हैं । उनके जीवन में प्रतिष्ठित पूर्ण साम्य -पोलिटिकल पार्टीज के द्वारा मंच पर खड़े होकर, भाषण में कहने वाला साम्य नहीं है, अपितु उन्होंने इसे अपने आचरण में उतार कर दिखा दिया है। उन्होंने जन-साधारण के, दीन-दुःखीयों के दारुण दुःख से द्रवित होकर -जनसाधारण की मुक्ति के लिए प्रयास किया है, उन्हें संगठित करने की चेष्टा की है।
इस बात को समझने के लिए हमें स्वामी विवेकानन्द के द्वारा उनके गुरुदेव के सम्बन्ध में व्यक्त किये गए उद्गारों का, विशेष रूप से अध्यन करना पड़ेगा। स्वामी जी ने कहा था, कि श्रीरामकृष्ण देव अब भी युवाओं को संगठित करने की चेष्टा कर रहे हैं, सभी लोगों को अनुप्रेरित कर रहे हैं, किन्तु युवाओं को अधिक संख्या में आकर्षित कर रहे हैं। इस तथ्य को, महामण्डल द्वारा आयोजित ' स्वामी विवेकानन्द - कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' में आधारित चरित्र-निर्माणकारी युवा प्रशिक्षण शिविरों में प्रतिवर्ष युवाओं की बढ़ती हुई संख्या को देखकर, हमलोग भी समझ सकते हैं।
श्रीरामकृष्ण का लक्ष्य विशेष रूप से युवाओं को ही आकर्षित करना था, इसीलिये वे दक्षिणेश्वर काली-मंदिर में छत पर चढ़ कर युवाओं के पुकारते थे; स्वामी विवेकानंद स्वयं इस बात के प्रमाण हैं। श्रीरामकृष्ण देव ने स्पष्ट रूप से यह अनुभव कर लिया था, कि मेरे अति अल्प जीवन काल में मैं जितना कर सकता था उतना कर दिया। किन्तु उसके बाद (स्वयं माँ काली से चपरास प्राप्त जीवनमुक्त शिक्षक/ नेता बनने के बाद) जो वास्तविक कार्य है - वह यही है कि बहुत अल्प समय के भीतर कुछ युवाओं के जीवन को इस प्रकार गठित कर देना होगा कि वे इस भाव -आंदोलन को ( ब्रह्मविद मनुष्य बनने और बनाने के आंदोलन को या अफीम के नशे से मुक्त धर्म को) थोड़े समय में ही दावानल की तरह सारे जगत में फैला देने में समर्थ हो जाएँ। और वैसा करने के बाद, [नरेन्द्रनाथ को अपने हाथ से लिखित चपरास - " जय राधे प्रेममयी , नरेन् शिक्खा देबे जखन घरे बाइरे डाक देबे , जय राधे " देने के बाद। जैसे जमशेदपुर कैम्प में " मोने कोरबे तुमि एक जन शिक्खक" का चपरास देने के बाद, दादा ने ? ] उन्होंने अपने नश्वर शरीर का त्याग कर दिया था । उसके बाद स्वामी जी ने भी उनके द्वारा सौंपे गए कार्य को पूरा कर दिखाया।
स्वामी विवेकानन्द ने अपने जीवन के लक्ष्य को उन्होंने कई बार कई प्रकार से परिभाषित किया है। एक स्थान पर वे कहते हैं, 'युवाओं को संगठित करना ही मेरे जीवन का उद्देश्य है'। किन्तु आजीवन प्रयत्न करके भी वे केवल मुट्ठी भर युवाओं को ही श्रीरामकृष्ण देव की पताका के नीचे एकत्रित कर सके थे।
स्वामी जी ने (३० नवम्बर १८९४ को अपने गृहस्थ शिष्य डॉ नंजून्दा राव को लिखित एक पत्र में) महामण्डल के आविर्भूत होने की भविष्यवाणी करते हुए कहा था -" क्या तुम संसार के कल्याण के लिए अपनी अपनी मुक्ति की तक छोड़ने को तैयार हो ? तुम स्वयं ब्रह्मस्वरूप हो, इस पर विचार करो। मेरी राय में तुम्हें कुछ दिनों के लिए ब्रह्मचारी बनकर रहना चाहिये। अर्थात कुछ काल के लिये स्त्री-संग छोड़कर अपने पिता के घर में ही रहो; यही 'कुटीचक' अवस्था है। संसार की हित-कामना के लिए अपने महान स्वार्थ-त्याग के सम्बन्ध में अपनी पत्नी को सहमत करने की चेष्टा करो। (स्वामी सत्यरूपानन्द जी द्वारा सारदापीठ से ८ जुलाई १९८८ को लिखित एक पत्र ?)"
" 'A few young men have jumped in the breach, have sacrificed themselves. They are a few; we want a few thousands of such as they, and they will come.' -
" कुछ इने-गिने युवकों ने इसमें अपने को झोंक दिया है, (अर्थात कुछ इने-गिने युवकों ने भारत के राष्ट्रीय आदर्श -'त्याग और सेवा ' की दो धाराओं में तीव्रता लाने के लिए अपने आप को झोंक दिया है.) परन्तु इनकी संख्या अभी थोड़ी है। हम चाहते हैं कि ऐसे ही कई हजार मनुष्य आयें, और मैं जानता हूँ कि वे आयेंगे !"
--यही जो " they will come" की भविष्यवाणी है - वैसे 'त्यागी और सेवापारायण कई हजार युवा' कहाँ से आयेंगे ? वैसे युवाओं का दल रामकृष्ण मिशन के माध्यम से भी संगठित हो सकता है; किन्तु जो " निवृत्ति मार्ग के अधिकारी युवा' रामकृष्ण मिशन में अपना योगदान करेंगे, उनके जीवन का व्रत होगा -'आत्मनो मोक्षार्थं जगद्हिताय च ।' किन्तु, कितने युवा अभी ऐसे हैं, जो मोक्ष प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर होने के अधिकारी हैं ? और इसी कारण वैसे अधिकांश युवा जिन्हें स्वामी विवेकानन्द श्रीरामकृष्ण की पताका के तले एकत्रित करना चाहते थे, वे इस ' स्वामी विवेकानन्द- कैप्टन सेवियर Be and Make वेदान्त नेतृत्व -प्रशिक्षण परम्परा ' में प्रशिक्षित और अनुशासित भावी नेता (शिक्षक) निर्माण, याने मनुष्य -निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी " आन्दोलन से बाहर ही छूट जायेंगे।
जबकि केवल भारत में ही- चार पुरुषार्थ में से धर्म, अर्थ और काम के सानुपातिक व्यवहार करने की व्यवस्था थी। बल्कि मोक्ष को तो सभी मनुष्यों के लिये अनिवार्य भी नहीं माना गया है । हमारे ऋषियों ने वर्णाश्रम धर्म (गुण -वैशिष्ट्य, मानसिक विशेषता के अनुसार अध्यन-अध्यापन, बाहुबल के अनुसार राष्ट्र रक्षा , व्यवसाय -कृषि आदि कार्य , और सेवापरायणता ) के अनुसार अपने -अपने स्वधर्म-पालन अर्थात कर्तव्य-कर्मों का निष्काम भाव से सम्पादन करके क्रमविकसित होते हुए (शुद्र को भी) एक 'ब्राह्मण' /आध्यात्मिक शिक्षक तक उन्नत होने का समान अवसर प्रदान किया गया था।
स्वामी विवेकानन्द भी किसी प्रकार की संकीर्णता या मतान्धता-- अर्थात मुझे केवल अमुक विशेष नाम (ब्रांड) वाले धर्म को चुनना पड़ेगा, दूसरे नाम वाले को नहीं;-- में विश्वास नहीं करते थे। स्वामी विवेकानन्द ने स्वयं कहा था कि -' मुझे ही देख लो, मैं मुसलमानों के प्रति कोई घृणा नहीं रखता, क्रिश्चियन लोगों से भी कोई घृणा नहीं करता, मैं तो सबों को ग्रहण करता हूँ ! कहो तो क्यों ? क्योंकि मैंने श्रीरामकृष्ण देव के चरणों में बैठकर शिक्षा प्राप्त की है। '
और ठीक उसी वेदान्त धर्म की शिक्षा के अनुसार वे कहते हैं -'मेरे पास जो कोई भी आयेगा, मैं उसके धर्म को लेकर कोई भेद-भाव नहीं रखूँगा। चाहे वह हिन्दू, हो मुसलमान हो, या पारसी हो, क्रिश्चियन हो, जैन हो, बौद्ध हो या सिक्ख हो - मैं किसी भी धर्म के प्रति विद्वेष का भाव नहीं रखता।' स्वामी जी इतना ही कह कर नहीं रुकते, वे आगे कहते हैं, " यदि तुम ईश्वर में विश्वास नहीं भी रखते हो, तब भी तुम मेरे सन्देशों को सुन सकते हो ! तुम बौद्ध हो, क्रिश्चियन हो कि मुसलमान हो -जो भी हो वही रहो, वही होने के बाद भी मैं तुम सबों को ग्रहण करूँगा। केवल इतना ही नहीं यदि तुम किसी भी धर्म में विश्वास नहीं रखते हो, तब भी मेरे हृदय में तुम्हारे लिए स्थान है !'" स्वामी जी कहते थे - 'मैं उस प्रभु का सेवक हूँ -जिसे अज्ञानी लोग 'मनुष्य' कहते हैं ! ' और यहाँ पहुँचकर स्वामी जी, 'स्वामी जी' हो जाते हैं !
स्वामी जी ने श्री ई. टी. स्टर्डी ( एडवर्ड टोरंटो स्टर्डी) को २४ अप्रैल १८९५ को लिखित एक पत्र में कहा था, " केवल वेदान्त का अद्वैत दर्शन ही मानवजाति को सभी प्रकार के कुसंस्कारों (भ्रमों) से मुक्त (या डीहिप्नोटाइज्ड) कर सकता है। और वही मनुष्य को उसके यथार्थ स्वरूप या महिमा में प्रतिष्ठित कर उसे शक्तिमान बना सकता है। भारत में इसको प्रचारित करने की आवश्यकता शायद पश्चिम से भी अधिक है। परन्तु यह काम कठिन और दुःसाध्य है। पहले इसमें रूचि उत्पन्न करनी पड़ेगी, फिर ५ अभ्यास का प्रशिक्षण देना होगा, और अन्त में एक मजबूत युवा संगठन को खड़ा करना होगा।"
स्वामीजी ने कहा था- ' भारत झोपड़ियों में वास करता है। ' उसके जनसाधारण की उन्नति से ही भारत की उन्नति होगी। भारत को महान बनाने के लिये, पहले यहाँ की साधारण जनता को महान भावों से (महावाक्यों से) अनुप्राणित करना होगा। "
मानव-मात्र के भीतर अनन्त शक्ति अन्तर्निहित है। उस शक्ति के जाग्रत होते ही, वह किसी के भी दबाने से दबेगा नहीं, अप्रतिरोध्य बन जायेगा। तब वह अपने अधिकार को जानने के साथ साथ अपने उत्तरदायित्व को भी जान लेगा। प्रत्येक मनुष्य जब इस बोध को प्राप्त करके अपने पैरों पर खड़ा हो जायेगा, सिर उठाकर चलने लगेगा, अपने निजी सुख-भोग को तुच्छ समझ कर दूसरों के लिये अपने जीवन को भी न्योछावर कर देने में नहीं हिचकेगा, तभी भारत जाग जायेगा। क्योंकि विवेकानन्द द्वारा प्रतिपादित कर्म-योग (BE AND MAKE) - का रहस्य है, मनुष्य मात्र में अन्तर्निहित ब्रह्मत्व (महत प्रवृत्ति) को उद्घाटित करा देना। इसीलिये, स्वामी जी की दृष्टि में भी गुण-दोष के आधार पर वहिष्कार (एक्सक्लूजन) कर देने योग्य कोई भी मनुष्य है ही नहीं। इसीलिये सभी तरह के लोगों को अंगीकार करना होगा।
स्वामी जी कहते थे -" एक शब्द में वेदान्त का आदर्श है- मनुष्य को उसके वास्तविक स्वरुप में जानना, और उनका सन्देश है कि यदि तुम अपने भाई मनुष्य की, उपासना नहीं कर सकते तो उस ईश्वर की कल्पना कैसे कर सकोगे, जो अव्यक्त है ? " ( ८/३४) " कई हजार ब्रह्मा एवं इन्द्रादि देवता भी ' बुद्धत्व-प्राप्त ' नर-देवता के चरणों में शीस झुकाते हैं, एवं इस बुद्धत्व-प्राप्ति पर मानव-मात्र का अधिकार है। "
किन्तु यही जो प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों धर्म के अधिकारी युवाओं को प्रेमपूर्वक ग्रहण करके, स्वामीजी की जीवन-दायी शिक्षा है, उसे सुनाने का काम करेगा कौन ? दावानल की तरह सम्पूर्ण भारतवर्ष के कोने-कोने में, छोटे-छोटे ग्रामों, कस्बों और शहरों में जाकर, शिक्षितों-अशिक्षितों, छात्रों, नौकरीपेशा में लगे या बेरोजगार युवाओं के पास स्वामी जी के उपदेश को लेकर जायगा कौन ? जिसको, धर्म, मन्दिर, मठ तथा संन्यासियों की छाया भी देखने को नहीं मिलती -उन्हें सुनायेगा कौन ? केवल सुनायेगा ही नहीं, अपने जीवन को ही उदाहरण बनाकर, स्वामी जी की शिक्षाओं से प्रभावित करके, इस महान आंदोलन का सैनिक बनने के लिए खींचेगा कौन ? इसी प्राथमिक कार्य को करने की जिम्मेदारी को आगे बढ़कर महामण्डल ने स्वयं उठा लिया है। क्योंकि स्वामी जी ने कहा था - " माना कि तूँ उन सबों को उपर नहीं उठा सकता, किन्तु तुम उनके कानों तक इस महा-जीवन की वाणी को पहुंचा तो अवश्य सकता है।"
अतः महामण्डल मनुष्य निर्माण की एक प्राथमिक पाठशाला है। जो लोग चरित्र-निर्माण की पद्धति को सीखकर, आध्यात्मिक जीवन में और अधिक उन्नत होना चाहेंगे, उनके लिए उच्च विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय आदि तो हैं ही। स्वामी जी की कल्पना के अनुसार 'रामकृष्ण मिशन'-इसी प्रकार का एक विश्वविद्यालय है।
किन्तु इस विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने से पहले Matriculation या Entrance की जो परीक्षा होती है; जिसे उस उच्च-शिक्षा प्राप्ति का 'Admit Card ' प्रवेश-पत्रक कहा जाता है, उसे पाना भी तो अनिवार्य है। परंतु प्रवेश-पत्रक को पाने की योग्यता भी तो अर्जित करनी होगी। और उसके लिए पहले वर्णमाला (Alphabet) से परिचय प्राप्त करना आवश्यक हो जाता है। और युवाओं को उसी वर्णमाला से परिचय करवा देना ही महामण्डल का कार्य है!
अतः हम कह सकते हैं कि महामण्डल वह प्राथमिक पाठशाला है, जहाँ 'मनुष्य-जीवन' को प्राप्त करने के लिये, अ-आ, क-ख सीखा जाता है। अ-आ, क-ख समाप्त कर लेने के बाद महामण्डल की जिम्मेवारी समाप्त हो जाती है। उसके बाद शाश्वत जीवन प्राप्त करने के अनेक मार्ग हैं, जो जिस मार्ग से होकर शाश्वत जीवन पाने के इच्छुक हों, वे उसी मार्ग से अग्रसर हो सकते हैं !
इसलिए महामण्डल के प्रतीक-चिन्ह में बाकी बचे हिस्से को गोलाई के दोनों तरफ ' 7- 7 ' छोटे छोटे 'वज्र' की श्रृंखला के द्वारा उन्नततर मनुष्य बनने और बनाने के लिये निरन्तर प्रयत्नशील (सौ प्रतिशत निःस्वार्थ- 100 % Unselfish वज्र तुल्य अप्रतिरोध्य 'मनुष्य' " Be and Make" ) प्रवृत्ति और निवृत्ति मार्ग के सप्त ऋषियों की सांझी -संकल्पना (Common concept) अथवा सामरिक भागीदारी (strategic partnership) को भी सम्पुटित (encapsulate) किया गया। और तत्पशचात 'Be and Make Leadership training tradition' में पूर्णतः निःस्वार्थी नेतृत्व का निर्माण करने वाले संगठन युवा महामण्डल ने सिस्टर निवेदिता के द्वारा भारत के राष्ट्रीय ध्वज के रूप में निर्मित -" गेरुआ ऊपर वज्र निशान " को महामण्डल के " संघ-ध्वज " के रूप स्वीकार किया है ! इसीलिये महामण्डल का जय-घोष बना :
" निवेदिता वज्र हो अक्षय !!!
[ " The Vajra, the Dorje : en-Lightening Bolt of power )
https://www.swamivivekananda.guru/2017/12/26/sister-nivedita/]
>>>संघ (Organization) और गिरोह (Gang) का फर्क : अपने -पराये समूह के आधार पर व्यक्तिगत स्वार्थों को चालाकी या अन्यायपूर्वक ढंग से पूर्ण करने के उद्देश्य से बना कोई संगठन चाहे कितना भी नामी -गिरामी लोगों द्वारा क्यों न संगठित किया गया, हो उसे " संघ " (Organization) नहीं " गिरोह " (Gang) कहा जाता है। वैसे घोर स्वार्थी, देशद्रोही लोगों का संगठन {जेएनयू मकतब (Terrorist Seminary) का 'टुकड़े-टुकड़े गैंग', 'अवार्डवापसी गैंग' अथवा ' शहरी नक्सल गैंग ( Urban Naxal Gang) } तो असफल ही होगा, वैसा लोगों का गिरोह कभी सफल नहीं हो सकता।
' संघे शक्ति ' अंततः तभी सफल होता है, जब उसका नेतृत्व निःस्वार्थपर, सत्, न्याय व सबके कल्याण (भारत कल्याण) के लिए समर्पित होता है। ऐसा नेतृत्व ही आदर्श नेतृत्व (Ideal leadership) माना जाता है। अन्यथा कुरूक्षेत्र में दुर्योधन जैसे पदलोलुपु, अन्यायी, अवसरवादी, दिशाहीन व घोर स्वार्थी नेतृत्व (Selfish leadership) के कारण भीष्म, द्रोण, कर्ण जैसे महान अजेय योद्धाओं की विशाल सेना भी शस्त्र विहिन श्रीकृष्ण व पांच पांडवों की छोटी सी सेना के सामने परास्त हो गयी थी।
>>>महामण्डल का 'संघ-मन्त्र' ( Anthem)
( इच्छाशक्ति का समन्वय : Co-ordination of Will )
स्वामी विवेकानन्द तो संघबद्ध होकर कार्य करने की अवधारणा पर ही मोहित थे। उन्होंने पाश्चत्य देशों की संगठन-शक्ति के गुणवत्ता की बहुत प्रशंसा की है। यद्यपि वे हमारे देश के प्राचीन समय के संघ-शक्ति के उत्थान और पतन के कारणों को भी अच्छी तरह से समझते थे। तथापि वे जन साधारण के केवल दुःख-कष्टों को दूर करने के लिये ही नहीं, बल्कि उनको सही मार्ग पर शिक्षित करने (आध्यात्मिक नेता /शिक्षक के रूप में प्रशिक्षित करने) के लिये भी संघबद्ध प्रयास करने के समर्थक थे। स्वामी विवेकानन्द ने यह पाया था कि हमारे देश की साधारण जनता के चरित्र में वह जोश (spirit- उत्साहाग्नि,अति श्रद्धा) ही अनुपस्थित है , जो किसी संघबद्ध प्रयास को सफल बना सकती है।
स्वामी विवेकानन्द ने एक पत्र में कहा था - ' मेरे बच्चे , संघबद्ध तरीके से कार्य किस तरह किया जाता है, इस बात की शिक्षा ग्रहण करो ! अभी हमें बड़े बड़े काम करने हैं। .. एकमात्र 'इच्छा-शक्ति ' को समन्वित करने से सब कुछ हो जायेगा। एक समिति को संगठित करो , जिसके अधिवेशन (साप्ताहिक पाठचक्र , वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर , वार्षिक आम बैठक : Annual General Meeting आदि) नियमित रूप से होते रहें। और जहाँ तक हो सके , उसके बारे में मुझे लिखते रहो। संगठन की शक्ति का हमारी प्रकृति में (हमारे राष्ट्रीय चरित्र में ) पूर्णतया अभाव है, उसका विकास करना होगा। " (11 जुलाई 1894 को आलासिंगा पेरुमल को लिखित)
और इसके उपाय की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित करने के लिये सूत्रात्मक ढंग से (aphoristically) जोड़ देते हैं - " इसका सबसे बड़ा रहस्य है --सदस्यों में परस्पर ईर्ष्या का अभाव होना। अपने भाइयों के उचित विचारों को मान लेने के लिये सदैव प्रस्तुत रहो (और 'मम धर्म ' - प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में आने की सम्भावना में किसी को आपत्ति नहीं हो, इसके लिए) सभी को मना लेने की कोशिश करते रहो। यही सारा रहस्य है। ' (आध्यात्मिक) शिक्षक बनो, संगठित रहो और बहादुरी से लड़ते रहो' --जीवन क्षणस्थायी है। इसे एक महान उद्देश्य - 'भारत कल्याण' के लिये न्योछावर कर दो !" २/३८३
{ Learn business, my boy. We will do great things yet ! Let Kidi go his own way. He will come out all right in time. I have taken his responsibility. Start the journal and I will send you articles from time to time.Go to work, my boys, the fire will come to you! The sheer power of the will will do everything. . . . You must organise a society which should regularly meet, and write to me about it as often as you can. The faculty of organisation is entirely absent in our nature, but this has to be infused. The great secret is — absence of jealousy. Be always ready to concede to the opinions of your brethren, and try always to conciliate. That is the whole secret. Fight on bravely! Life is short! Give it up to a great cause." Letter to Alasinga,11th July, 1894.}
विवेकानन्द जी खेद प्रकट करते हुए कहते हैं -" वह कौन सी वस्तु है , जिसके द्वारा कुल 4 करोड़ अंग्रेज पूरे 30 करोड़ भारत -वासियों पर शासन करते हैं ? कारण यही है कि वे चार करोड़ मनुष्य अपनी इच्छाशक्ति को समवेत कर लेते हैं, अर्थात संगठित शक्ति का अनन्त भण्डार बना लेते हैं , और तुम 30 करोड़ मनुष्य अपनी अपनी इच्छाओं को (ईर्ष्या के कारण) एक दूसरे से पृथक किये रहते हो। "
अथर्ववेद संहिता की एक विलक्षण ऋचा याद आ रही है, उस वैदिक प्रार्थना में - सामूहिक उत्थान और संगठन के लिए आवाहन किया गया है । " सं गच्छध्वं सं वदध्वं, सं वो मनांसि जानताम् । देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते ।। (ऋग्. १०.१९१.२)
{ मनुष्य की सारी चेष्टा दुःख-निवृत्ति और सुख प्राप्ति के निम्मित होती है अतः अंत में सुखवर्षक भगवान् की शरण में जाकर उसी से वह कामना करता है! क्योंकि वही सब की उन्नति करता है, और वही सब का स्वामी है! उसे ही साधक ने अपने हृदय में प्रकाशमान और विराजमान अनुभव किया है, अतः उसी से अपने दुखों के नाशक और सुखों के साधक धनों की प्राप्ति के लिए प्रार्थना की है! ऋग्वेद के 10वें मंडल का यह 191वां सूक्त ऋग्वेद का अंतिम सूक्त है । इस सूक्त में सब की अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाले अग्निदेव की प्रार्थना, आपसी मतभेदों को भुलाकर सुसंगठित होने के लिए की गयी है ।
संसमिद्युवसे वृषन्नग्ने विश्वान्यर्य आ ।
इळस्पदे समिध्यसे स नो वसून्या भर ॥1॥
॥1॥ समस्त सुखोंको प्रदान करने वाले हे अग्नि ! आप सबमें व्यापक अंतर्यामी ईश्वर हैं । आप यज्ञ-वेदी पर प्रदीप्त किये जाते हैं । प्रभो ! हमें विभिन्न प्रकार के ऐश्वर्यों को प्रदान करें । इस प्रार्थना का भगवान् ने अगले तीन मन्त्रों में उत्तर दिया है---
सं गच्छध्वं सं वदध्वं,
सं वो मनांसि जानताम् ।
देवा भागं यथा पूर्वे,
संजानाना उपासते ॥2॥
॥2॥ [हे धर्मनिरत विद्वानों !] आप परस्पर एक होकर रहें, परस्पर मिलकर प्रेम से वार्तालाप करें । समान मन होकर ज्ञान प्राप्त करें । जिस प्रकार श्रेष्ठजन एकमत होकर ज्ञानार्जन करते हुए ईश्वर की उपासना करते हैं, उसी प्रकार आप भी एकमत होकर व् विरोध त्याग करके अपना काम करें ।
समानो मन्त्रः समितिः समानी,
समानं मनः सह चित्तमेषाम् l
समानं मन्त्रमभि मन्त्रये वः,
समानेन वो हविषा जुहोमि ॥3॥
॥3॥ हम सबकी प्रार्थना एक समान हो, भेद-भाव से रहित परस्पर मिलकर रहें, अंतःकरण मन-चित्त-विचार समान हों । मैं सबके हित के लिए समान मन्त्रों को अभिमंत्रित करके हवि प्रदान करता हूँ ।
समानी व आकूतिः ,
समाना हृदयानि वः ।
समानमस्तु वो मनो,
यथा वः सुसहासति ॥4॥
॥4॥ तुम सबके संकल्प एक समान हों, तुम्हारे ह्रदय एक समान हों और मन एक समान हों, जिससे तुम्हारा कार्य परस्पर पूर्णरूप से संगठित हों । (ऋग्वेद 10/191/1-4)
अथर्ववेद [६/६४/१] में भी इसी प्रकार का मन्त्र है :
सं जानीध्वं सं पृच्यध्वं सं वो मनांसि जानताम् ।
देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते ॥१॥
अर्थात –हे सौमनस्य के आकांक्षी –तुम सामान ज्ञान वाले बनो और सामान कार्य में संलग्न हो जाओ। ज्ञान के उत्पत्ति के निमित्त तुम्हारे अन्तःकरण सामान हो। जिस प्रकार देवगण एक ही कार्य को जानते हुए यजमान द्वारा दिए गए हवि को ग्रहण कर लेते हैं –उसी प्रकार तुम भी विरोध त्यागकर इच्छित फल प्राप्त करो।
समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं व्रतं सह चित्तमेषाम् ।
समानेन वो हविषा जुहोमि समानं चेतो अभिसंविशध्वम् ॥२॥
–अर्थात, हमारे गुप्त भाषण एक रूप हों –हमारे कार्यों की प्रवृत्ति समान हो। हमारा कर्म भी एकरूप हो –हमारा अंतःकरण भी इसी प्रकार का हो। फल पाने के लिए हे देवो –हम एकता उत्पन्न करने वाले आज्य आदि से आपके निमित्त हवन करे। इससे हममे एक चित्तता हो सके।
समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः ।
समानमस्तु वो मनः यथा वः सुसहासति ॥३॥
अर्थात –हे सौमनस्य चाहने वालों –तुम्हारे संकल्प समान हों। —तुम्हारे संकल्पों को उत्पन्न करने वाले ह्रदय समान हो। –तुम्हारा मन एकरूप हो जिससे तुम सब सभी कार्य ठीक से कर सको ।
उसके पूर्वार्द्ध में थोड़ा-सा भेद है। उसे यहां उद्धृत करते हैं- 'सं जानीध्वं सं पृच्यध्वं सं वो मनांसि जानताम्'- एक-सा चलो, एक-साथ मिलो। तुम सब ज्ञानियों के मन एक-समान हों। ऋग्वेद में 'संवदध्वम्' है, अथर्ववेद में 'संपृच्यध्वम्' है। इस एक शब्द के भेद ने बहुत ही चमत्कार किया है।
ज्ञानीजन यह कहते हैं कि अपने ज्ञान द्वारा विचार में समानता उत्पन्न करके उच्चारों, आचारों में समानता ला दें, किन्तु अज्ञानियों के विचारों में एकता नहीं हो सकती। अथर्ववेद के मन्त्र में उसी का साधन बताया है- तुम सब इकठ्ठे चलो, और एक-दूसरे के साथ मिल जाओ, तब ज्ञानियों के समान तुम्हारे विचार भी एक-से हो जाएंगे। ऋग्वेद में साध्य से पहले कहा है। अथर्ववेद में उन्हीं शब्दों द्वारा, केवल एक शब्द का भेद करके, साधन-सिद्धि का उपाय बतला दिया है। (स्वाध्याय संदोह से साभार) }
कैसा अनोखा मन्त्र है.' संजयान ' हो उठना का तात्पर्य है, 'साम्य-भाव' में जाग उठना, और एकमत (अविरोध में स्थित) हो जाना ! तुम सब लोग एक मन हो जाओ, सब लोग एक ही विचार के बन जाओ, एक मन हो जाना ही समाज गठन का रहस्य है! जिस प्रकार प्राचीन देवगण (विद्वान् लोग) एकमत होकर अपना-अपना भाग ग्रहण करते थे, उसी प्रकार तुम भी एकमत होकर अपना भाग (उत्तरदायित्व) ग्रहण करो।
यहाँ स्मरणीय है कि (अस्तित्व में आने के समय 1967 से ही) महामण्डल अपने " उद्देश्य और कार्यक्रम" पुस्तिका में स्वामी विवेकानन्द के इस सन्देश को सुनाता चला आ रहा है कि " यदि भारत को महान बनाना है, उसका भविष्य उज्ज्वल बनाना है, तो इसके लिये आवश्यकता है संगठन की, शक्ति-संग्रह की और बिखरी हुई इच्छाशक्ति को एकत्र कर उसमें समन्वय लाने (जनप्रयास) की। इसीलिए महामण्डल के संघगीत (Anthem) में हमलोग स्वामी विवेकानन्द द्वारा उद्धरित वेदों के सौमनस्यसूक्त (संगठन सूक्त) में – परस्पर एकता और प्रेम का सन्देश के इन्हीं शब्दों को भाव से गाते हैं।
कुशल नेतृत्व का प्रशिक्षण (*Efficient Leadership Training) : बिखरी हुई इच्छाशक्ति में समन्वय लाने - के इस रहस्य को जान लेने के बाद, किसी भी संगठन को सफल होने या फलने-फूलने (flourish) के लिये जो वस्तु सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, वह है - कुशल नेतृत्व का प्रशिक्षण (Efficient leadership) ! लेकिन आमतौर से ऐसा माना जाता है कि - "Leaders are born and not made." अर्थात 'नेता जन्मजात रूप से पैदा होता है, बनाया नहीं जाता !' यह लोकोक्ति किस बात की ओर इशारा करती है ? यह कथन इस बात पर जोर देती है कि -'Right type of leadership is difficult to acquire '- अर्थात कुशल नेतृत्व-क्षमता प्राप्त करना बहुत कठिन कार्य है।
लेकिन हमें एक बात ध्यान रखनी चाहिए कि ‘संघे शक्तिः कलौ युगे’ वाला सफलता का यह मूल मंत्र किसी संगठन के लिए तभी सफल होता है- जब उस संगठन का उद्देश्य गीता (5.25, 12.4 ) में कथित - 'सर्वभूतहिते रताः' (Doing good to all beings) में समर्पित हो। स्वामीजी की महिला मित्र और शिष्या मिस मैकलॉड ('जो -जो') ने एक बार स्वामीजी से पूछा "स्वामीजी, मैं आपकी सबसे ज्यादा मदद कैसे कर सकती हूं?" स्वामी विवेकानन्द ने उत्तर में कहा था - " भारत माता से प्यार करो ! "(Miss Mcleod once asked swamiji " Swamiji, how can I help you the most?" Swamiji told in reply- "Love Mother India.") और भारत माता से प्यार करने का तात्पर्य है, उसके सन्तानों से प्रेम करना। अर्थात मानवजाति के मार्गदर्शक नेता स्वामी विवेकानन्द द्वारा आविष्कृत 'चरित्र-निर्माण और मनुष्य-निर्माण ' की प्रशिक्षण -परम्परा याने " Be and Make Leadership Training Tradition " में प्रशिक्षित और अनुशासित आध्यात्मिक नेता/ब्रह्मविद शिक्षक (Spiritual Teacher) बनना और बनाना । इसलिये महामण्डल का उद्देश्य है - 'भारत का कल्याण।'
>>>आध्यात्मिक नेतृत्व को दिशा निर्देश देने में समर्थ सूक्तियॉं
योगक्षेमाय धर्मस्य सभ्यतायाः सुसंस्कृतेः।
नैवान्यो विद्यते पन्थाः लोकसंघटनं विना।।
1. धर्म, सभ्यता और संस्कृति के योगक्षेम हेतु समाज के संगठन के बिना दूसरा कोई मार्ग नहीं है।
समानसुखदुःखानां समानोद्दिष्टकांक्षिणाम्।
तथा समानश्रद्धानां संघः स्वाभाविको यतः।।
2. सुख-दुःख में समान और समान उद्देश्य को चाहने वाले तथा समान श्रद्धा वालों का ‘संगठन’ स्वाभाविक है।
न संघरूपिणी ज्ञेया सेना बाह्यानुशासना।
समितिर्वा सदस्यानाम् अगृहीतानुशासना।।
3.केवल सेना के समान बाहर का अनुशासन ही दिखना पर्याप्त नहीं, समिति में आन्तरिक अनुशासन भी होना चाहिए।
वाचा मित्रत्वमायान्ति वाचैवायान्ति शत्रुताम्।
इति विज्ञाय संघार्थी सदावाचंयमो भवेत्।।
4.वाणी से ही मित्रता होती है और वाणी से ही शत्रुता होती है, यह ध्यान में रखकर संगठन चाहने वाला व्यक्ति सदा वाणी के संयम वाला रहे।
विदुषां शास्त्रतः शक्तिः वीराणां सा च शस्त्रतः।
धनश्रमादितोन्येषां शक्तिः सर्वस्य संघतः।।
5. विद्वान जिस शक्ति को शास्त्रों से, वीर शस्त्रों से एवम् अन्य धन एवम् श्रम से प्राप्त करते हैं। वह शक्ति संगठन से सभी को सहज ही प्राप्त हो जाती है।
वाचा मित्रत्वमायान्ति वाचैवायान्ति शत्रुताम्।
इति विज्ञाय संघार्थी सदावाचंयमो भवेत्।।
6.वाणी से ही मित्रता होती है और वाणी से ही शत्रुता होती है, यह ध्यान में रखकर संगठन चाहने वाला व्यक्ति सदा वाणी के संयम वाला रहे।
एकाकी नैव भुंजीत नैवैकाकी रमेय यः।
न चैकाकी नयेत् कालं संघकार्य परायणः।।
7.संगठन के कार्य में लगा व्यक्ति -आध्यात्मिक नेता अकेला न खाये, न अकेला खेले, न अकेला रह कर समय बिताए।
एहि ब्रूहि समाधेहि समाश्वसिहि मा स्म यैः।
आपन्नमिति यो ब्रूयात् तस्य लोको वशंवदः।।
8.आपत्ति में फंसा कोई व्यक्ति आवे तो उसे आओ! बोलो! ऐसा कहे। उसका समाधान करे, उसे अच्छी प्रकार आश्वासन दे, मत डरो- यह कहे तो उस व्यक्ति के (आध्यात्मिक नेता के) सभी लोग अनुयायी हो जाते हैं।
वाक्ताडनं प्रमत्तस्य परीवादं रिपोरपि।
प्रतिवादं विमूढ़स्य वर्जयेल्लोकसंग्रही।।
9. प्रमत्त को डाँटना, शत्रु की भी निन्दा करना, मूर्ख का प्रतिवाद करना लोकसंग्रही/लोकप्रियता के इच्छुक नेता को त्याग देना चाहिए।
10 . हृदयवान मनुष्य बनने और बनाने के लिये "ऋग्वेद में मंत्र है -'संवदध्वम्' और अथर्ववेद में 'संपृच्यध्वम्'
=================================