संकल्प- ग्रहण और एकता
>>Many in society are brutes, they behave like beasts.
सर्वप्रथम हमें यह संकल्प लेना होगा कि हमें अपने भीतर मानवीय गुणों को विकसित करना है, क्योंकि हममें से कई लोगों के पास साधारण मानवीय गुण भी नहीं होते। हमलोग अक्सर स्वामी विवेकानन्द के शब्दों को दुहराते हुए प्रार्थना करते हैं - " माँ मुझे मनुष्य बना दो "। किन्तु यह प्रार्थना क्या हम ईमानदारी से करते हैं ? क्या हम सचमुच ईमानदारी से यह चाहते हैं, कि हमें मनुष्य बन जाना चाहिये ? और यदि हम यथार्थ मनुष्य नहीं बनना चाहते तो इस प्रकार से प्रार्थना करने की उपयोगिता क्या है ? ऐसी प्रार्थना का कोई मूल्य नहीं है। वास्तव में हमलोग अभी मानव जैसे दिखने वाले प्राणी मात्र हैं। समाज में कई लोग बिल्कुल पशु के समान हैं, वे बिल्कुल जानवरों की तरह व्यवहार करते हैं। समाज में यथार्थ मनुष्य कितने दिखाई देते हैं ? यही कारण है कि मानव समाज की वर्तमान हालत ऐसी है। हर जगह इतना अन्याय है, सामाजिक जीवन की घटनाओं से इतनी शिकायतें हैं, कभी -कभी तो हम विरोध करते हैं; कभी कभी तो हमारा गुस्सा फूट भी पड़ता है, किन्तु क्या हम इन बुराइयों को समाज से दूर करने के लिये कुछ कार्य भी करते हैं ? हमलोग हर बुराई के लिये दूसरों को जिम्मेदार ठहराते हैं, दूसरों पर आरोप लगाते हैं । किन्तु हम स्वयं कोई उत्तरदायित्व नहीं लेना चाहते। हम दूसरों के ऊपर समाज को बदलने का कार्य सौंपना चाहते हैं।
>>So what is the use of suggesting, ' Let it be done' ? Who will do it ?
हम देखते हैं कि अब सामाजिक परिस्थिति कैसी है, वह बुरी ही नहीं बल्कि असहनीय हो चुकी है। इससे समाज का बहुत ज्यादा नुकसान हो जाता है, फिर भी मैं जानता हूँ कि बहुत से लोग इन घटनाओं को गंभीरता से नहीं लेते। वे ऐसा नहीं सोचते कि सामाजिक स्थिति में बदलाव लाने के लिये उन्हें भी कुछ करना चाहिये।' यदि हम यही कहते रहें कि 'यह तो अच्छा कार्य है, इसे होना भी चाहिए ' -तो इस तरह के सुझावों का क्या फायदा ? इस कार्य को करेगा कौन ? 'इसे होना चाहिये' - यह एक भ्रामक वाक्य है। यदि हम ऐसा बोलें कि ' इसे तुम करो ' या 'इस कार्य को मैं करूँगा ', तो हम इसे समझ सकते हैं। लेकिन हम यदि बड़ी नम्रता से यही कहते रहें कि 'समाज को उन्नत बनाने का कार्य होना चाहिए ' तो हमें यह भी बताना चाहिए कि यह कार्य कौन करने जा रहा है? यदि हम केवल यही कहते रहें कि 'समाज अच्छा होना चाहिए, समाज को उन्नत होना चाहिए, समाज से सभी बुराइयों को समाप्त होना ही चाहिये', तो इस तरह के दिखावटी बातों का कोई अर्थ नहीं है। हमें यह भी पता नहीं है कि इस कार्य को मैं करूँगा या तुम करोगे। मैं समाज को उन्नततर बनाने के कार्य में स्वयं भागीदार नहीं बनना चाहता, किन्तु मैं इच्छा रखता हूँ कि समाज में ऐसा बदलाव आना चाहिये। मैं केवल इच्छा रखता हूँ , किन्तु केवल इच्छा रखने से कोई परिणाम नहीं निकलता यह बिल्कुल अर्थशून्य इच्छा है।
>>Willing is the seed, is the father of the things that come.
सिर्फ इच्छा रखने की जगह अब मैं संकल्प लूँगा। यदि हम केवल इच्छा करते रहे तो यह केवल इच्छाकल्पित चिन्तन होगा, जो कभी मूर्त रूप नहीं ले सकेगा। किन्तु यदि इच्छुक बने रहने के बजाय, हमलोग संकल्प लेना सीख जायें तो यह पूर्ण रूप से अलग बात होगी। दृढ़ इच्छाशक्ति को ही संकल्प कहते हैं। मनुष्य बनने का संकल्प उठा लेना ही सबसे महत्वपूर्ण कार्य है। संकल्प , भविष्य में प्राप्त होने वाली सफलता का मुख्य कारण या बीज स्वरूप है। संकल्प के बिना कुछ भी प्राप्त नहीं होता। यदि कोई व्यक्ति अपने मन में ठान ले, दृढ़ प्रतिज्ञा कर ले, वीर योद्धा (गुरु गोविन्द सिंह) के समान संकल्प कर ले - तो किसी भी लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है, किसी भी ऊँचाई तक पहुँचना सम्भव है, कोई भी वस्तु प्राप्त की जा सकती है ! यह बात बिल्कुल सत्य है, अतः हमलोगों को केवल इच्छुक ही नहीं बने रहना चाहिये , बल्कि दृढ़ संकल्प भी लेना चाहिये।
>> “संगच्छध्वम् संवदध्वम् ” Those who care about the welfare of the people should will together !
इस काम को करने के लिये, हमें दूसरों को आदेश नहीं देना चाहिये, या दूसरों से इसकी अपेक्षा नहीं करनी चाहिये। हमें इस बात को अस्पष्ट नहीं छोड़ना चाहिये, बल्कि निर्भीक होकर इस बात को कहना चाहिये कि इस कार्य को (चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने के कार्य को) करने की जिम्मेवारी किसके ऊपर है; कौन इसकी शुरुआत करने जा रहा है। मैं स्वयं इसका बीड़ा उठाता हूँ। आओ, तुम, मैं और हर कोई इस कार्य में जुट जाएँ । जो कोई भी व्यक्ति अपने देशवासियों के कल्याण की चिन्ता करते हों, उन्हें एक साथ आना चाहिये, उन्हें कन्धे से कन्धा, सिर से सिर मिलाकर, बाँहों से बाहें और कदमों से कदम मिलाते हुए साथ-साथ आगे बढ़ना चाहिये। जब हमलोग अपना संघ-गीत- “संगच्छध्वम् संवदध्वम् ” गाते हैं तो उसमें भी यही प्रार्थना करते हैं। हम सब एक साथ चलें, हम सब एक साथ सोचें , हम सब एक साथ अनुभव करें, हम सब एक साथ संकल्प लें , हम सब एक साथ आनन्द का उपभोग करें। हमें सब कुछ एक साथ करना चाहिये। यह एकता और मिलजुल कर संकल्प लेने की क्षमता ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण वस्तु है।
=====================================卐 मनुष्य बनने का संकल्प और संगठित प्रयास 卐
>>>माँ, मुझे आध्यात्मिक मनुष्य बना दो :आज के भारत में - मनुष्य रूपेण मृगाश्चरन्ति'- लोगों अर्थात मनुष्य के ढाँचे में भीतर से पाशविकता धारण करके विचरण करने वाले लोगों की संख्या में वृद्धि होती दिख रही है । प्राचीन राजा-कवि भृतृहरि ने अपने 'नीतिशतक'
बहुत सुंदर कहा है
येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ।
ते मृत्युलोके भुवि भार भूता मनुष्य रूपेण मृगाश्चरन्ति ॥
जिन्होंने न विद्या प्राप्त की है, न तप किया है, न दान दिया है, न ज्ञान अर्जित किया है, न चरित्र-निर्माण करने की चेष्टा की, न गुण सीखे और न ही धर्मानुसार कर्तव्यों का पालन ही किया है- वे इस संसार में पृथ्वी का बोझ बढ़ाने वाले और मनुष्य की सूरत-शक्ल में पशु ही हैं। इसी बात को वेदान्त आध्यात्मिक अंधापन, अज्ञानता या मायाबद्ध-जीव की अवस्था कहता है।
माया (सेन्ट्रीफ्यूगल-फ़ोर्स) के बन्धन से मुक्त होकर, यदि यथार्थ मनुष्य (ब्रह्मविदः आध्यात्मिक शिक्षक) बनना और बनाना यदि हम सभी भारतवासियों की तीव्र अभिलाषा बन चुकी हो, तो हमें इसके लिये महामण्डल द्वारा प्रस्तावित पाँच दैनन्दिन अभ्यासों को आत्मसात करने के लिये संघबद्ध होकर प्रयास करना चाहिये। हमारी पहली आवश्यकता है, अपने भीतर चरित्र के गुणों को संवर्धित करना, क्योंकि हममें से कई लोगों के पास सामान्य मानवोचित चारित्रिक गुण भी नहीं हैं।
माया (सेन्ट्रीफ्यूगल-फ़ोर्स) के बन्धन से मुक्त होकर, यदि यथार्थ मनुष्य (ब्रह्मविदः आध्यात्मिक शिक्षक) बनना और बनाना यदि हम सभी भारतवासियों की तीव्र अभिलाषा बन चुकी हो, तो हमें इसके लिये महामण्डल द्वारा प्रस्तावित पाँच दैनन्दिन अभ्यासों को आत्मसात करने के लिये संघबद्ध होकर प्रयास करना चाहिये। हमारी पहली आवश्यकता है, अपने भीतर चरित्र के गुणों को संवर्धित करना, क्योंकि हममें से कई लोगों के पास सामान्य मानवोचित चारित्रिक गुण भी नहीं हैं।
समाज में बदलाओ लाने या मनुष्य के हृदय को परिवर्त्तित करने, मनुष्य 'बनने और बनाने BE AND MAKE ' के आन्दोलन का नेतृत्व करने की जिस अत्यन्त महत्वपूर्ण जिम्मेदारी को स्वामी विवेकानन्द ने युवाओं के ऊपर सौंपा था, उस जिम्मेवारी को पूरा कौन करेगा ? केवल लिप सर्विस (दिखावटी-प्रेम) करने से काम नहीं चलेगा - 'इसके लिए कुछ करना चाहिये' या 'लेट इट बी डन' ऐसा गोल-गोल भाषण देना - एक अस्पष्ट और उभयार्थक वाणी है। (स्वामी जी कहते थे - 'वी वान्ट बोल्ड वर्ड्स ऐंड बोल्डर डीड्स !' यदि हम यह घोषित करें - " मैं इस कार्य को करने जा रहा हूँ' , और तुम्हें भी इस कार्य में मेरी सहायता करनी चाहिये" - तो यह स्पष्ट और निर्भीक वाणी है, जिसे हर कोई समझ सकता है। किन्तु हम यदि दिखावटी देश-प्रेम प्रदर्शन करते हुए, केवल यही कहते रहें कि -'मनुष्य बनना और बनाने की चेष्टा करना, तो अच्छा काम है और इसे होना भी चाहिए - ' लेट इट बी डन'!; किन्तु इस अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य की जिम्मेदारी उठाने - कौन जा रहा है ? यदि हम केवल कहते रहें,' कुछ करना चाहिये, समाज को अच्छा होना चाहिये, समाज से सभी बुराइयों को समाप्त होना ही चाहिये';- किन्तु स्वयं इसके लिए कुछ न करें, तो ऐसे दिखावटी बातों या 'लिप सर्विस' का समाज पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। यदि हम इस निर्णय पर नहीं पहुँचे हैं कि इस 'कार्य की शुरुआत मैं करूंगा या तुम करोगे- तो यह चरित्र-निर्माणकारी आन्दोलन आगे कैसे बढ़ेगा ? मैं स्वयं इस कार्य में भागीदार नहीं बनना चाहता, किन्तु मैं इच्छा रखता हूँ, कि समाज में ऐसा बदलाव आना चाहिये, सभी युवाओं का चरित्र अच्छा होना चाहिए । मैं केवल इच्छा रखता हूँ, किन्तु इस प्रकार की इच्छा करने का कोई फल नहीं होता, यह बिल्कुल अर्थ शून्य इच्छा है।
किन्तु यदि इच्छुक बने रहने के बजाय, यदि हमलोग ऑटोसजेशन या मनोवैज्ञानिक पद्धति के अनुसार संकल्प लेना सीख जायें तो हमारे अवचेन मन में गहराई से बैठे संकल्प को मूर्त रूप लेने में ज्यादा समय नहीं लगेगा।किसी लक्ष्य को प्राप्त करने की दृढ़ इच्छा-शक्ति को ही संकल्प कहते हैं , मैं अवश्य करूँगा - आई वील । यह विलिंग अर्थात- संकल्प उठा लेना सबसे महत्वपूर्ण कार्य है। (स्वामी जी को प्रति-उत्तर दूँगा- " स्वामी जी, मैं लक्ष्य प्राप्त होने तक -रुकूँगा नहीं ! थकूँगा नहीं ! ") कहा भी गया है - या मतिः सा गतिर्भवेत ' मन के हारे हार है, मन के जीते जीत !' यह कहावत बिल्कुल सत्य है अतः हमलोगों को चरित्रवान मनुष्य (ब्रह्मवेत्ता मनुष्य) बनने के लिये केवल इच्छुक ही नहीं बने रहना चाहिये -बल्कि दृढ़ संकल्प लेना चाहिये।
"Instead of wishing I Should Will": मात्र इच्छुक रहने या अभिलाषा रखने के बदले, (आत्मसुझाव-पद्धति के अनुसार) मैं संकल्प लूँगा कि, ' मैं एक चरित्रवान मनुष्य बनूँगा !' यदि हम सदैव केवल इच्छुक ही बने रहते हैं, तो इसका अर्थ हुआ कि, चरित्रवान-मनुष्य बनना अभी मेरी 'बर्निग-डिज़ायर' या तीव्र इच्छा नहीं है, इसीलिये यह कभी मूर्त रूप नहीं ले सकेगी।
देह शिवा बरु मोहि इहै सुभ करमन ते कबहूं न टरों।
न डरों अरि सो जब जाइ लरों निसचै करि अपुनी जीत करों ॥
अरु सीख हों आपने ही मन कौ इह लालच हउ गुन तउ उचरों।
जब आव की अउध निदान बनै अति ही रन मै तब जूझ मरों ॥
-- हे शिवा (माँ जगदम्बा)! मुझे यह वर दें कि मैं शुभ कर्मों को करने से कभी भी पीछे न हटूँ। जब मैं युद्ध करने जाऊँ तो शत्रु से न डरूँ और युद्ध में अपनी जीत पक्की करूँ। और मैं अपने मन को यह सिखा सकूं कि वह इस बात का लालच करे कि मैं आपके ही गुणों का बखान करता रहूँ। जब अन्तिम समय आये तब मैं रणक्षेत्र में युद्ध करते हुए मरूँ। " हमें भी इसी प्रकार अपनी बिखरी हुई इच्छाशक्ति को दृढ़ संकल्प में सम्नन्वित करके एक साथ आनन्द का उपभोग करना चाहिये। हमें सारे निर्णय या संकल्प एक मन होकर लेने चाहिये, यह राष्ट्रीय-एकता और मिलजुल कर संकल्प लेने की क्षमता ही सबसे अधिक महत्व की वस्तु है।
" मिलजुल कर एक साथ रहेंगे, और बढ़ेगी एकता !
उद्देश्य हमारा देश की सेवा, विवेकानन्द हमारे नेता ! "
['Autosuggestion'= a system for self-improvement, based on autosuggestion or self-hypnosis developed by Emile Coué (a French psychologist and pharmacist/ 1857-1926) Most of us are familiar with the quote by Émile Coué,"Everyday, in every way, I am getting better and better." फ्रेंच मनो-वैज्ञानिक एमिल कॉओ द्वारा प्रस्तुत (आत्म-सुझाव,स्व-सम्मोहन या) स्वपरामर्श-सूत्र "डे बाइ डे, इन एव्री वे, ई एम गेटिंग बेटर एंड बेटर ";जिसे महामण्डल में 'आत्म-सुधार के लिये संकल्प ग्रहण' करने की मनोवैज्ञानिक पद्धति - -'चमत्कार जो आप कर सकते हैं' के नाम से जाना जाता है। (the hypnotic or subconscious adoption of an idea that one has originated oneself, e.g. through repetition of verbal statements to oneself in order to change behavior.)]
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