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सोमवार, 1 अगस्त 2016

卐卐 6. "Be and Make" - बनो और बनाओ का निहितार्थ " [एक नया युवा आंदोलन- 6 .The implication of ' Be and Make' ] 卐 हिन्दुधर्म एक में लगे दो विपरीतगामी चक्रों (वैष्णव और जैन धर्म) से निर्मित धुरी जैसा है 卐 भारत में आध्यात्मिक व्यक्तिवाद पर ही सामाजिक साम्यवाद स्थापित है 卐]


 "बनो और बनाओ - का निहितार्थ "

 [卐`युगपत अन्तरवृद्धि का सूत्र - Be and Make !' 卐]  

         >>Our greatest victory is to conquer ourselves : 
चाहे हम वाह्य प्रकृति को गहराई से जानने की चेष्टा करें अथवा स्वयं को - दोनों ही स्थिति में हमें उसी असीम अनन्त का आह्वान सुनाई देता है। वाह्यजगत और अन्तर्जगत दोनों असीम अनन्त है। इसीलिये हम उस प्रत्येक बाधा को तोड़ देना चाहते हैं जो हमें सीमाबद्ध करना चाहती है। जैसे-जैसे हम बड़े होने लगते हैं, क्रमशः हमें ऐसा अनुभव होने लगता है कि स्वयं को (समाज के सुख-दुःख  से काटकर ) अलग-थलग रखना ही पाप है और स्वयं को प्रसारित करने के प्रयास में हम स्वयं को अपने सगे सम्बन्धियों में (अपने और अपने ससुराल के --सगे सम्बन्धियों में) विलीन कर देना चाहते हैं। और इस प्रयास में हमें 'पता चलता है' - कि हमारी सबसे बड़ी विजय तो स्वयं को (व्यष्टि अहं को) जीत लेने में है, जिसके फलस्वरूप हम कामिनी-कांचन में आसक्ति या अपने परिवेश के आकर्षण के गुलाम न बनकर स्वयं के (मन या अन्तःप्रकृति के) स्वामी बन जाते हैं !   
       >>Freedom -(sympathy or love for others) is our nature, our kinship goads us to see them all free. Here individual effort transformed into social effort, conveyed in short - BE AND MAKE.
      समाज की वर्तमान संकटपूर्ण अवस्था का मूल कारण यही है कि हमने स्वयं के ऊपर अपनी महानता (ब्रह्मत्व) पर, अन्तर्निहित अनन्त शक्ति एवं साधुता (पवित्रता) की शक्ति पर विश्वास खो दिया है। इस खोये हुए आत्मविश्वास और श्रद्धा को सशक्त (fortify-सुदृढ़ ) कर ही हम इस विकट समस्या पर विजय प्राप्त कर सकते हैं; और ठीक यहीं पर व्यक्तिगत प्रयास करने की आवश्यकता होती है। मुक्ति ही हमारा स्वभाव है, अर्थात दूसरों के प्रति सहानुभूति या प्रेम ही हमारा स्वभाव है, इसीलिये हम (प्रेमवश) अपने सभी सगे -सम्बन्धियों को भी मुक्त देखने की इच्छा करते हैं। निकट के सगे -सम्बधियों में अपनापन की भावना रहने के कारण, दूसरों के प्रति हमारा स्वाभाविक प्रेम - उन सबों को (सभी प्रकार के दुःख -कष्टों से) मुक्त देखना चाहता है। यहीं पर व्यक्तिगत प्रयास एक सामाजिक प्रयास में रूपान्तरित हो जाता है। इसी युगपत प्रयत्न (simultaneous effort ) की आवश्यकता को स्वामी विवेकानन्द ने अपने संक्षिप्त किन्तु सारगर्भित वाणी (या महावाक्य)- 'Be and Make' के माध्यम से अभिव्यक्त किया है।
       >> Statue of Equality -' In India we have social communism, that is spiritual individualism with the light of Advaita (non-dualism)
 उनके इसी विचार के साथ थोड़ा और आगे बढ़ने पर हम पाते हैं कि वे इसी बात की ओर इशारा करते हैं - " In India we have social communism, with the light of Advaita -- that is, spiritual individualism." (-Sayings and Utterances, Volume 8)]  अर्थात भारत में अद्वैत वेदान्त की भावना से अनुप्रेरित सामाजिक साम्यवाद (Social communism ) आध्यात्मिक व्यक्तिवाद  (spiritual individualism-प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है की भित्ति ) की भित्ति पर स्थापित है।  इसीलिये  स्वामी विवेकानन्द ने इस आध्यात्मिक संक्रान्ति 'बनो और बनाओ '  की शुरुआत करने के लिये, भारत की आम जनता, जो झोपड़ियों में निवास करती है के बीच, भारत की प्राचीन 'विद्या एवं संस्कृति' का प्रचार-प्रसार  सामाजिक प्रयास के रूप में करने का सुझाव  दिया था।  क्योंकि वे यह जानते थे कि जन साधारण से परे हमारे सामूहिक अस्तित्व (राष्ट्रीय अस्तित्व) का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता।
     >>As the masses awaken-and if they have acquired the required culture meanwhile,  they will engulf everything like surging flood .
      उन्होंने पूरे विश्वास के साथ भविष्यवाणी करते हुए कहा था - " भारतवर्ष की आम जनता प्राचीन भारतीय विद्या और संस्कृति को प्राप्त करके ज्यों-ज्यों जागृत होती जायेगी, और उन्हें एक दिन अवश्य जागना होगा, इस दौरान वह यदि अपेक्षित शिक्षा और संस्कृति भी अर्जित कर लेती है, तो उस नवजागरण रूपी बाढ़ का जल उतर जाने के बाद , यथार्थ उन्नत आध्यात्मिक मनुष्य रूपी जलोढ़-जमाव ^*(alluvial deposit) द्वारा यह भारत भूमि अत्यन्त उपजाऊ बन जायेगी। और यह उर्वरता ऐसे हजारों ऐसे सुन्दर फूलों (चरित्र-कमल) को खिला देगी, जो स्वयं मुरझा जाने से पहले सर्वाधिक पुष्टिकर फलों (भावी आध्यात्मिक शिक्षकों) को जन्म देते जायेंगे।   
[जलोढ़क-जमाव (alluvial deposit) ^*  कहते हैं - बाढ़ के पानी के बहाव से लायी हुई  मिट्टी, गाद जो प्रवाह के उतर जाने के बाद उस भूमि पर जमा होकर उसे उर्वरा बना देती है। 

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पुराणों में वर्णित ' भारतीय विद्या और संस्कृति के उदात्त भावों को 

ग्रामीण भारत के द्वार -द्वार तक पहुँचा देने की आवश्यकता   

         " स्वामी जी मानते थे कि हमारे '18 पुराण ' भारतीय विद्या और संस्कृति के उदात्त भावों ('वसुधैव कुटुंबकम' जैसे उदात्त) को जनसाधारण के द्वारा-द्वार तक पहुँचा देने के उद्देश्य से किया गया हिन्दू धर्म का प्रयास है।  भारत में केवल एक ही व्यक्ति, कृष्ण की बुद्धि ऐसी थी , जिसने  इस आवश्यकता को सबसे पहले समझा था। सम्भवतः वे मनुष्यों में सर्वश्रेठ थे !
      स्वामी जी ने कहा, " इस प्रकार एक धर्म [वैष्णव धर्म] की सृष्टि हुई , जिसका लक्ष्य जीवन की स्थिति और आनन्द के प्रतिक विष्णु की उपासना है, जो ईश्वरानुभूति की प्राप्ति का साधन है। हमारा अन्तिम आन्दोलन - 'चैतन्यवाद ' तुम्हें याद होगा आनन्द [का उपभोग मिलबाँट कर करने] के लिए ही था। साथ ही , जैन धर्म दूसरी चरम सीमा है , आत्म -यातना के द्वारा शरीर को धीरे धीरे नष्ट कर देना। .... इस प्रकार हिन्दू धर्म सदैव ही एक में लगे दो विपरीतगामी चक्र (प्रवृत्ति और निवृत्ति) से निर्मित धुरी जैसा रहा है। " हाँ ! वैष्णव धर्म कहता है , ' यह बिल्कुल ठीक है ! माता, पिता , भाई , पति अथवा सन्तान (सास-ससुर , साला-साली , बहन -बहनोई अथवा सभी सगे -सम्बन्धियों) के प्रति अपार प्रेम अवश्य रहना चाहिए। यह बिल्कुल ठीक होगा ,यदि केवल यह सोच सको कि कृष्ण ही तुम्हारे बालक के रूप में आया है , और जब तुम उसे खिलाते हो तब कृष्ण को ही खिलाते हो ! वेदान्त की इस घोषणा के विरुद्ध कि 'इन्द्रिय-निग्रह करो ', चैतन्य देव ने उद्घोषित किया , 'इन्द्रियों के द्वारा ईश्वर की पूजा करो। ' [केवल इतना याद रखना - 'निवृत्ति अस्तु महाफला !!'] " 
           " इस भारतीय प्रयोग का जैसा भी रूप है, हमें उसको सहारा देना चाहिये। जो सामाजिक आन्दोलन वस्तुओं को , जैसी वे सवरूपतः हैं , उस रूप में सुधारने का प्रयास नहीं करते , व्यर्थ हैं। उदाहरणार्थ यूरोप में मैं विवाह को उतना ही अधिक आदर देता हूँ , जितना अ -विवाह को। यह कभी न भूलो कि व्यक्ति जितना अपने गुणों से महान एवं पूर्ण बनता है, उतना ही अपने दोषों से। इसलिये हमें किसी राष्ट्र के चरित्र के वैशिष्ट्य को मिटाने का प्रयास कदापि नहीं करना चाहिए , भले ही कोई यह सिद्ध कर दे कि उसके चरित्र में दोष ही दोष हैं। " (---सूक्तियाँ एवं सुभाषित -24. खंड ८ पेज १३४)
         24. The Puranas, the Swami considered, to be the effort of Hinduism to bring lofty ideas to the door of the masses. There had been only one mind in India that had foreseen this need, that of Krishna, probably the greatest man who ever lived.
         The Swami said, "Thus is created a religion that ends in the worship of Vishnu, as the preservation and enjoyment of life, leading to the realisation of God. Our last movement, Chaitanyaism, you remember, was for enjoyment. At the same time Jainism represents the other extreme, the slow destruction of the body by self - torture.
        Thus Hinduism always consists, as it were, of two counter - spirals, completing each other, round a single axis. "'Yes!' Vaishnavism says, 'it is all right -- this tremendous love for father, for mother, for brother, husband, or child! It is all right, if only you will think that Krishna is the child, and when you give him food, that you are feeding Krishna!' This was the cry of Chaitanya, 'Worship God through the senses', as against the Vedantic cry, 'Control the senses! suppress the senses!' " 
      "Now we must help the Indian experiment as it is. Movements which do not attempt to help things as they are, are, from that point of view, no good. In Europe, for instance, I respect marriage as highly as non - marriage. Never forget that a man is made great and perfect as much by his faults as by his virtues. So we must not seek to rob a nation of its character, even if it could be proved that the character was all faults."
(-Sayings and Utterances, Volume 8)

卐 हिन्दु धर्म एक में लगे दो विपरीतगामी चक्रों 
       (वैष्णव और जैन धर्म) से निर्मित धुरी जैसा है !卐 

卐'बनो और बनाओ'

('Swami Vivekananda A Study' Pages 104-106, का अनुवाद)
 
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -"Be and make" - Let this be our motto! ' बनो और बनाओ'-- यही हमारा मूल-मन्त्र रहे !  और महामण्डल ने इसी को अपने आदर्श-वाक्य के रूप में ग्रहण किया है। इस अति संक्षिप्त उक्ति (महावाक्य) का अर्थ क्या है ? इस सूत्र का अर्थ बहुत व्यापक है। यह उक्ति महान विचारों को जन्म देती है। इसीमें गीता -उपनिषदों का सार छिपा हुआ है। यदि कोई व्यक्ति केवल इसी एक विचार को संकल्प के रूप में ग्रहण कर ले, और उसे इसी जीवन में पूर्ण कर सके -तो कहा जा सकता है कि उसका मनुष्य-जीवन सार्थक हुआ है।         
    कुछ लोगों के मन में यह शंका उठती है : क्या हमें पहले 'मनुष्य' शब्द का जो सही अर्थ है, वैसा-  यथार्थ मनुष्य बन जाना चाहिये, और केवल तभी दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करने की बात सोंचनी चाहिये ? यह बात कई बार दोहराई जा चुकी है कि यद्यपि दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करने से पहले स्वयं एक 'यथार्थ मनुष्य' बन जाना एक आदर्श बात होगी, किन्तु हमलोग स्वयं ' मनुष्य बनने' और दूसरों को महान मनुष्य बनाने की दोनों  पद्धतियों को साथ-साथ कार्यान्वित कर सकते हैं ।
     'मनुष्य बनने'  का प्रयास करना ( अर्थात अपने जीवन और चरित्र को गठित करने के लिए उद्यम करना ); स्वयं ही दूसरों के लिए एक उदाहरण और प्रेरणा का एक स्रोत बन जाता है। और यदि हम अपने स्वरूप के प्रति जागृत होकर, इसी विषय में दूसरों की थोड़ी सी सहायता भी करते हैं, तो यह निःस्वार्थ-सेवा हमारे अपने आत्म-विकास के प्रयास को प्रोत्साहित (बूस्ट) करती है। इसलिए  'बनने' के साथ ही साथ यदि हम 'बनाने'  (Make =लोक-कल्याण) का भी थोड़ा प्रयास करते हैं, अपने  'बनने' (Being =आत्मकल्याण) के मामले हमें कुछ खोना नहीं पड़ता है। केवल एक सावधानी यहाँ आवश्यक हो जाती है।
       यदि हम मनुष्य बनने की दिशा में स्वयं कोई प्रयास नहीं करते, और इस विषय में केवल दूसरों को ही परामर्श देते रहते हैं, तो इससे किसी को  कोई लाभ न होगा। यह दूसरों के लिए अधिक सहायक तो नहीं ही होगा, मैं भी निश्चित रूप से उसका कोई लाभ नहीं उठा पाउँगा। मैं जहाँ था वहीँ रुका रहूंगा, या हो सकता है कि एक या दो सोपान नीचे भी उतर जाऊँ। क्योंकि, उस अवस्था में मुझे अपने विषय में यह 'खुशफहमी' हो सकती है कि मैं ऊँचे स्तर में पहुँच गया हूँ, जिससे मेरा अहंकार बढ़ जायेगा , (और गुरुगिरि करने के चक्कर में) और मैं अपने स्वभाव से नीचे गिर जाऊँगा। 
     >>'मनुष्य बनने की प्रक्रिया' - एक अत्यन्त धीमी गति की प्रक्रिया है, इसमें अग्रगमन धीरे धीरे होता है।  यह किसी  निश्चित समयावधि में निश्चित सिलेबस (तीन साल का डिग्री-कोर्स) को पढ़कर एक दिन ग्रेजुएट बन जाने जैसी प्रक्रिया नहीं है। या जैसे कोई कली सुबह में अचानक खिल कर फूल बन जाती है, और जिसे देखने से बड़ा आनन्द होता है, चरित्र-कमल का खिल जाना भी उतनी सहज प्रक्रिया नहीं है। इस प्रक्रिया को आत्मसात करने में बहुत अधिक सावधान या सतर्क रहने, दृढ़ संकल्प , अविचलता, धैर्य और अध्यवसाय के साथ आजीवन प्रयासरत रहने की आवश्यकता होती है। ऐसा नहीं है कि किसी दिन मैं सुबह सुबह उठकर यह घोषणा कर दूँ -कि मैं तो मनुष्य कहा जाने योग्य 'मनुष्य' बन गया हूँ ! क्योंकि मानव-मन का स्वभाव किसी भी समय ठीक उसी प्रकार नीचे गिरने का होता है, जैसे पानी को नीचे गिरने के लिये जहाँ भी मार्ग मिल जाता है, वहीं से नीचे गिरने लगता है। 
     इसी विषय में एक उपाख्यान को सुनना हमारे लिये लाभप्रद हो सकता है। वाराणसी के एक मठ में एक सन्यासी (महंत जी ) रहा करते थे। वे प्रतिदिन गंगा-स्नान करने के लिए जाया करते थे। वहाँ से वापस लौटते समय एक स्त्री प्रतिदिन उनके मार्ग में खड़ी होकर पूछती थी -'बाबा, मैं आपसे कुछ प्रश्न पूछना चाहती हूँ !' महंत जी कभी उसका कोई उत्तर नहीं देते थे, और बिना रुके अपने मार्ग पर आगे बढ़ जाते थे। इसी प्रकार अनेक वर्ष बीत गये और महंत जी के मृत्यु का समय आ गया। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा कि उस स्त्री को बुला कर मेरे पास ले आओ। उन्होंने वैसा ही किया और सन्यासी ने उसके आध्यात्मिक जिज्ञासा का उचित देकर उसे संतुष्ट कर दिया। आश्चर्यचकित होकर शिष्यों ने पूछा - 'महाराज, आपने इतने दिनों तक उस स्त्री की आध्यात्मिक प्रश्नों का समाधान क्यों नहीं किया ? 
         >>>>तब सन्यासी ने उत्तर दिया, ' अभी तक मेरे मन के नीचे उतरने का खतरा सदैव बना हुआ था। इसीलिये मैं आजीवन सतर्क रहता था, 'मैं अब यह जानता हूँ कि मैं जीवित नहीं रहूँगा'। हममें से बहुत से लोगों को ऐसी सावधानी अत्यधिक (टू मच या बेहद ज्यादा) प्रतीत हो सकती है। 'बट वी कैन लर्न अ लॉट फ्रॉम दिस' : किन्तु इस उपाख्यान से हमलोग आत्म-विकास के विषय में बहुत कुछ सीख सकते हैं - 'कॉशन ऐंड केयर मस्ट बी कॉन्सटेंट-अनरिलेटिंग'अर्थात 'मनुष्य बनने' के लिये विवेक-प्रयोग करने के प्रति सदैव कठोर सतर्कता और सावधानी बरतते रहनी चाहिये।       
        उसी प्रकार ' मनुष्य बनाने' (मेकिंग) अवधारणा भी बहुत स्पष्ट होनी चाहिये। महामण्डल का पूरा कार्य ही मनुष्य-निर्माण करना है। किन्तु यह 'मनुष्य-बनाने' का कार्य 'Make' किसी भी अवस्था में 'मनुष्य बनने' के कार्य 'Be' से बिल्कुल भी पृथक नहीं है। महामण्डल के आदर्श वाक्य -"Be and Make" में हमें इसी धुन को इसका 'सॉस्टेनूटो' समझना चाहिये! (sostenuto=  a passage of music to be played in a sustained or prolonged manner.)संगीत का  'वादी-स्वर' एक धुन जिसे निरंतर या एक लंबे समय तक बजाया जाता है; स्वामी विवेकानन्द ऐसा विश्वास करते थे कि श्रीरामकृष्ण परमहंस देव मात्र अपने कृपाकटाक्ष से  मिट्टी के ढेले से भी हजारों विवेकानन्द का निर्माण कर सकते थे! 
स्वामी विवेकानन्द का यह मानना था कि सम्पूर्ण विश्व की गतिशीलता 'मनुष्य निर्माण' की एक योजना है। उन्होंने ने कहा था -' और हमलोग केवल मनुष्यों को निर्मित होता हुआ देख रहे थे।' किन्तु हमारे लिये 'मनुष्य निर्माण' करने का तात्पर्य केवल दर्शक बनकर मनुष्य बनते हुए देखते रहना ही नहीं है, किन्तु हमें मनुष्यों का निर्माण करने वाले  इस विश्व-रंगमंच पर सतत चलते रहने वाले जीवन्त नाटक में एक छोटे से कलाकार की भूमिका भी निभानी है। महामण्डल पुस्तिका 'विवेकानन्द दर्शनम्' में कहा गया है - 
 नान्यदेका चित्रमाला जगदेतच्चराचरम् |  
 मानुषाः पूर्णतां यन्ति नान्या वार्त्ता तु वर्तते |   
' आफ्टर ऑल, दिस वर्ल्ड इज अ सीरीज ऑफ़ पिक्चर्स. ' दिस कलरफुल कांग्लोमेरैशन एक्सप्रेसेज वन   आईडिया ओनली. मैन इज मार्चिंग टुवर्ड्स परफेक्शन -दी ग्रेट इन्टरेस्ट रनिंग थ्रू। वी वेयर ऑल वाचिंग दी मेकिंग ऑफ़ मेन, ऐंड दैट अलोन। ' 
" सत्य-सा प्रतीत होते हुए भी, आखिरकार- यह चराचर जगत् सतत परिवर्तनशील छाया-चित्रों की एक श्रृंखला मात्र ही तो है। और जगत रूपी चलचित्रों के इस सतरंगी छटा-समुच्चय के माध्यम से केवल एक ही उद्देश्य अभिव्यक्त होता है।
 " अपने भ्रमों-भूलों को त्यागता हुआ - मनुष्य क्रमशः पूर्णत्व प्राप्ति (आदर्श) की ओर अग्रसर हो रहा है ! ' इस  संसार-चलचित्र रूपी धारावाहिक के माध्यम से हम सभी लोग अभी तक केवल मनुष्य को ' मानहूश ' अर्थात आप्त-पुरुष या ब्रह्मविद् ' मनुष्य ' बनते हुए देख रहे थे !
" यथार्थ नेता (ईश्वर के अवतार) अनुयायी नहीं बनाते , नेता बना देते हैं। 'गुरु और पारस में इतना अन्तर जान, वह लोहा सोना करे यह करे आप समान !'  
" हाँ मेरा अपना जीवन किसी एक महान व्यक्ति के उत्साह के द्वारा प्रेरित है, पर इससे क्या ? कभी भी एक व्यक्ति के द्वारा संसार भर को प्रेरणा नहीं मिली। मैं इस बात में विश्वास करता हूँ कि श्री रामकृष्ण परमहंस सचमुच ईश्वर-प्रेरित थे। परन्तु मैं भी प्रेरित किया गया हूँ और तुम भी प्रेरित किये गए हो! तुम्हारे शिष्य भी ऐसे ही होंगे, और उनके बाद उनके शिष्य भी । यही क्रम कालान्त तक चलता रहेगा। ८/१३६ 
" मुझे विश्वास हो चला है कि नेता का निर्माण एक जीवन में नहीं होता। उसे इसके लिये कई जन्म लेने पड़ते हैं ! कारण यह है कि संगठन और योजनाएं बनाने में कठिनाई नहीं होती; नेता की परीक्षा, वास्तविक परीक्षा विभिन्न प्रकार के लोगों को [विभिन्न अभिरुचि रिलीफ वर्क, और ज्ञान दान की अभिरुचि] वाले लोगों को उनकी सर्व- सामान्य सम्वेदनाओं की दिशा में एकत्र रखने में है। यह केवल अनजान में किया जाना सम्भव है, प्रयत्न द्वारा कदापि नहीं। " (सूक्तियाँ एवं सुभाषित -8. खंड ८ पेज १२८)
[I am persuaded that a leader is not made in one life. He has to be born for it. For the difficulty is not in organisation and making plans; the test, the real test of the leader, lies in holding widely different people together along the line of their common sympathies. And this can only be done unconsciously, never by trying.
        "ओह ! कितना शान्तिपूर्ण हो जाता है उस व्यक्ति का कर्म जो मनुष्य की ईश्वरता से सचमुच अवगत हो जाता है ! ऐसे व्यक्ति को कुछ भी करना शेष नहीं रह जाता, सिवाय इसके कि वह लोगों की आँखें खोलता रहे। शेष सब अपने आप हो जाता है । " ८/१२५ 
              जगतगुरु श्री रामकृष्ण ने नरेन्द्रनाथ को जगतजननी माँ काली के विषय में बतलाया था कि " वे ही निरपेक्ष ज्ञान हैं, ब्रह्म की दिव्य (अगम्य) शक्ति हैं, और मात्र अपनी इच्छा से ही उन्होंने इस जगत को जन्म दिया है। किसी को कोई भी वस्तु प्रदान करने की शक्ति उनमें हैं। नरेन्द्र को तब अपने गुरु के शब्दों में विश्वास हो गया और अपने आर्थिक कष्ट को दूर करने के लिये उन्होंने माँ काली से प्रार्थना करने का निश्चय किया।
 'काली' को इष्टरूप में स्वीकार करने में अपने संशय के दिनों को स्मरण करते हुए उन्होंने कहा, " मैं 'काली' से कितनी घृणा करता था ! और उसके सभी हावभाव से ! वह मेरे छह वर्षों के संघर्ष की भूमि थी - कि मैं उसे स्वीकार नहीं करूँगा। पर मुझे अन्त में उसे स्वीकार करना पड़ा। रामकृष्ण परमहंस ने मुझे उसे अर्पित कर दिया था। 
और अब मुझे विश्वास है कि जो कुछ भी मैं करता हूँ, उस सब में वह मुझे पथ दिखलाती है और जो उसकी इच्छा होती है, वैसा मेरे साथ करती है। ... फिर भी मैं इतने दीर्घकाल तक लड़ा। मैं भगवान रामकृष्ण को प्यार करता था और बस इसी बात ने मुझे अविचल रखा। मैंने उनकी अद्भुत पवित्रता देखी। ...मैंने उनके अद्भुत प्रेम का अनुभव किया। तब तक उनकी महानता का भान मुझे नहीं हुआ था। वह सब बाद में हुआ, जब मैंने समर्पण कर दिया। उस समय मैं उन्हें दिव्य-दृश्य आदि देखने वाला एक विकृत-चित्त शिशु समझता था। मुझे इससे घृणा थी। 
 ..... और फिर तो मुझे उसे (काली को) स्वीकार करना पड़ा। नहीं, जिस बात ने मुझे ऐसा करने के लिए बाध्य किया , वह एक रहस्य है जो मेरी मृत्यु के साथ चला जायेगा। उन दिनों मेरे ऊपर अनेक विपत्तियाँ आ पड़ी थीं। .... यह एक अवसर था ...उसने मुझे दास बना लिया। ये ही शब्द थे -'तुमको दास' ('a slave of you')! तब रामकृष्ण परमहंस ने मुझे उसको सौंप दिया ... आश्चर्यजनक ! 
ऐसा करने के बाद वे केवल दो वर्ष जीवित रहे और उनका अधिकांश समय कष्ट में बीता। वे छह महीने भी अपने स्वास्थ्य और ओज (health and brightness?) को सुरक्षित न रख सके। " जानते ही होंगे, गुरु नानक भी ऐसे ही थे, केवल इस बात की प्रतीक्षा में थे कि कोई शिष्य ऐसा मिले, जिसे वे अपनी शक्ति दे सकते। उन्होंने अपने परिवार वालों की उपेक्षा की -उनके बच्चे उनकी दृष्टि में बेकार थे -तब उन्हें एक बालक मिला, जिसे उन्होंने दिया। तब वे शान्ति से मर सके। "
" तुम कहते हो कि भविष्य रामकृष्ण को काली का अवतार कहेगा ? हाँ मैं समझता हूँ कि निस्सन्देह उसने अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ही रामकृष्ण के शरीर का निर्माण किया था। "८/१३०] 
बाद में जगतजननी माँ काली के विषय में बोलते हुए स्वामी विवेकानन्द ने कहा था-'She Can Make Heroes Out of Stone!' अर्थात "माँ काली पत्थर को भी नायक (मानवजाति का मार्गदर्शक नेता) के रूप गढ़ सकती है !" किन्तु हमलोगों को जब अपने विषय में 'मेकिंग' या 'मनुष्य बनाने' का अर्थ समझना हो, तो 'बनाने' का अर्थ इस संदर्भ में नहीं समझना चाहिये। (वी शुड नॉट री ड दिस मीनिंग ऑफ 'मेकिंग', व्हेन वी आर कन्सर्न्ड।) 
हमारे लिये 'मनुष्य बनाने' 'Make' का अर्थ मनुष्य बनने 'Be'  की प्रक्रिया में स्वयं लाभ उठाते हुए अपने चारों ओर रहने वाले लोगो के साथ एकात्मता का अनुभव करने के प्रयास में एक अत्यन्त अदना सा सहायक (रामसेतु बन्धन में गिलहरी जैसा सहायक) बनने का सौभाग्य प्राप्त करना है ! 
(For us 'making' means to have the fortune of being infinitesimally instrumental in the process of being of every one around us, profiting in the way in the matter of our own striving to be men.) 

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