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मंगलवार, 2 अगस्त 2016

卐🙏卐🙏 7. " सम्पूर्ण विकास की ओर " 卐🙏 `मानवजीवन की सार्थकता का सूत्र : मेरा और दूसरों के शरीर और मन अलग नहीं हैं !'卐🙏 [ एक नया युवा आंदोलन-7' For Total Development ']

7.

सम्पूर्ण विकास की ओर 

   >>A man means a body, a mind, and his soul. Take care of three H's. 
       यदि हम मनुष्यों का निर्माण करना चाहते हों, या स्वयं 'मनुष्य' बनना चाहते हों, तो हमें यह अवश्य समझना होगा कि 'मनुष्य' कहते किसे हैं ? 'मनुष्य' का अर्थ है शरीर , मन और उसकी आत्मा। स्वामी विवेकानन्द इसी बात को आसानी से समझाने के लिए एक सूत्र देते हुए कहते हैं - मनुष्य तीन 'H' से बना हुआ है-Man is three H's ! उन्होंने कहा कि शरीर, मन और आत्मा 
इन तीनों के सम्मिलित आकृति को मनुष्य कहते हैं। इसलिये यदि हम मनुष्यों का निर्माण करना चाहते हों, और स्वयं मनुष्य बनना चाहते हों, तो हमें मनुष्य के तीनों अवयवों का सुसमन्वित विकास करना होगा।  इनमें से हाथ 'Hand' हमारे शरीर (बाहुबल) का प्रतिनिधित्व करता है , सिर 'Head' हमारे मन (बुद्धिबल) का प्रतिनिधित्व करता है , और ह्रदय 'Heart' के माध्यम से हमारी आत्मा की सहानुभूति -शक्ति और प्रेम की अभिव्यक्त होती है। 
>>If we understand a man as  trinity of three H's, body, mind and the soul, then only we can think of a goal for our life.
       उन्नत मनुष्य बनने के लिए हमें इन तीनों  को उन्नत करना होगा। हमें नियमित व्यायाम और पौष्टिक आहार के माध्यम से अपने शरीर को स्वस्थ और बलशाली बनाना होगा।  मनःसंयोग के अभ्यास द्वारा हम अपने मन को नियंत्रण में रखने का प्रयास कर सकते हैं, ताकि उसे उचित ढंग से विकसित किया जा सके। स्वामी विवेकानन्द के द्वारा दिये गये आदर्शों का अध्यन और परिचर्चा के माध्यम से हम अपने हृदय की सहानुभूति- शक्ति (प्रेम) को जागृत करने का प्रयास कर सकते हैं, जो कि ह्रदय का कार्य है। हमलोग अपने जीवन के लक्ष्य के विषय में तभी विचार कर सकते हैं, जब हम मनुष्य को " Hand, Head and Heart " अथवा `शरीर, मन एवं आत्मा ' रूपी त्रिमूर्ति समझ सकें।
       >>Our body and mind are nothing but a little expression of our real essence which is the Soul, and religion/education is the manifestation of the divinity/perfection already in man .
यदि हमलोग यह सोचें कि हम तो केवल शरीर मात्र हैं, तो हमारी स्वाभाविक वृत्ति यही होगी कि इसका भरण-पोषण किया जाय, इसे मौज-मस्ती मिले, इससे केवल आमोद-प्रमोद किया जाय, या लुत्फ़ उठाया जाय; और मात्र इतना ही से सब कुछ समाप्त हो जायेगा। अगर हमलोग स्वयं को केवल 'शरीर एवं मन ' सोंचे, तो उस स्थिति में भी हमलोग अपनी इन्द्रियों का तुष्टिकरण करने एवं विभिन्न प्रकार के लालचों  और कामनाओं को पूर्ण करने में संलिप्त हो जायेंगे, या अगर बहुत हुआ तो थोड़ी बौद्धिक कसरत भी कर लेंगे, और बस यहीं पर सब कुछ खत्म हो जायेगा। किन्तु यदि हम यह जान लें कि, प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है - अर्थात हमारा सच्चा स्वरूप तो अजर-अमर-अविनाशी आत्मा है, और यह नश्वर शरीर और मन तो केवल उसकी ही एक अभिव्यक्ति है, तब उस अवस्था में हमारे जीवन का लक्ष्य बिल्कुल अलग प्रकार का होगा। इसीलिये स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - 'प्रत्येक मनुष्य पहले से विद्यमान ईश्वरत्व (दिव्यत्व-पूर्णता-निःस्वार्थपरता ) को अभिव्यक्त करना ही धर्म/शिक्षा है। ' हमें उस ईश्वरत्व को अभिव्यक्त करने का प्रयत्न करना चाहिये, और वही हमें अपने जीवन का एक सच्चा और सही लक्ष्य प्रदान करता है।
      >>Mine and the other bodies or minds are not different , but different expressions of the Same Essence -The Soul !
    यदि हमलोग यह जान लें कि हमारे भीतर एक आत्मा, या ब्रह्म निवास करते हैं, तब हम स्पष्ट रूप से देख पायेंगे कि वे सिर्फ मेरे हृदय में ही नहीं बैठे हैं। वे प्रत्येक व्यक्ति में हैं, हर वस्तु में हैं, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं। तथा इसके परे भी हैं ; वे इस व्यक्त या दृष्टिगोचर जगत से परे भी हैं। केवल ऐसा विश्वास ही जगत को एकता के सूत्र में बाँध सकता है। यह ज्ञानमयी दृष्टि ही हमें जगत को ब्रह्ममय देखने की बुद्धिमत्ता प्रदान करती है, और केवल यह ज्ञान ही प्रत्येक व्यक्ति को परस्पर जोड़ सकती है। यह दिखलाता है कि मेरा और दूसरों के शरीर और मन अलग नहीं हैं , बल्कि एक ही मूलवस्तु (ब्रह्म-आत्मा) की विभिन्न अभिव्यक्तियाँ हैं।  यह समझ ही हमें प्रत्येक व्यक्ति से प्रेम करने और किसी भी व्यक्ति से घृणा नहीं करने का साहस और उत्साह प्रदान करती है। यही हमें दूसरों के प्रति सहानुभूति रखने की क्षमता प्रदान करती है। यही (हृदयवत्ता) हमें दूसरों के कल्याण के लिये अपना सुख, अपनी ख़ुशी, अपना सब कुछ न्योछावर कर देने के लिये अनुप्रेरित करती है। 
   >> "Mine and the other bodies or minds are not different" - This Understanding gives us the spirit (भावना) and the courage (साहस) to love everybody and not to hate anybody. 
       यही समझ दूसरों के सुख-दुःख को भी अपने ही जैसा समझने की क्षमता प्रदान करती है। दूसरों के प्रति इसी  सहानुभूति के बल पर, इसी ज्ञान के साथ हमलोग दूसरों के दुःख-कष्टों को दूर हटाने का प्रयास करना चाहिये।  इसी बात को स्वामीजी संक्षेप में इस प्रकार कहते हैं कि "त्याग और सेवा " ही भारत के जुड़वा राष्ट्रीय आदर्श हैं। वे आगे इसमें जोड़ते हैं कि, आप इन दो धाराओं में तीव्रता उत्पन्न कीजिये, शेष सब कुछ अपने आप ठीक हो जायेगा। उनके ये विचार ही हमारे समक्ष जीवन का एक 'आदर्श और लक्ष्य ' प्रस्थापित कर देते हैं। यह विचार हमें अपने जीवन के लिये एक दर्शन देते हैं। उनके ऐसे विचार ही हमें अपने जीवन को सही ढंग से निर्मित करने के लिये प्रेरित करते हैं। 
       >>"Mine and the other bodies or minds are not different" - This Understanding This gives us a philosophy for our life.
     इसीलिये, हमलोगों को इसी जीवन-दृष्टि या जीवन-दर्शन के आलोक में अपने जीवन को सही ढंग से गठित करने का संकल्प लेना चाहिये। यदि हमलोग अन्य लोगों से अलग नहीं हैं, तो उन्हें जब दुःख होता हो, वे रोते और विलाप करते हों, तब उनके दुःख-कष्टों को दूर करने के लिये हमें अवश्य आगे आना चाहिये, और इसकी खातिर हमें किसी भी तरह के त्याग या कष्ट को स्वीकार करने के लिए तैयार रहना चाहिए।
>>Beautiful verse uttered by Sri Krishna in Bhagvata, gives us the purpose of this life, the goal of this life, the meaning of this life, the fulfilment of this human life:  
 श्रीमद्भागवत में एक बहुत सुन्दर उपदेश-वाक्य है, जिसे भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा है। यह श्लोक हमें मनुष्य जीवन का लक्ष्य, इसका सही उद्देश्य, इस जीवन का सही अर्थ प्रदान करता है, और इस जीवन सार्थक बनाने का उपाय भी प्रदान करता है।

एतावत् जन्मसाफल्यं देहिनामिह देहिषु । 
प्राणैरर्थैर्धिया वाचा श्रेयं आचरणं सदा ॥ 
---यही 'साफल्य ' है , मानवजीवन की सार्थकता , या उद्देश्य यही है। वह क्या है ? वह सार्थकता कैसे प्राप्त होती है ? ' श्रेयं आचरणं सदा'। सदैव श्रेय कार्य करो।  किस तरह से ? तो - 'प्राणैः अर्थैः धिया वाचा' ! अपने शब्दों के माध्यम से, अपनी धी या बुद्धि से, या अपने मन के द्वारा, और यदि आवश्यक हो तो अपने जीवन का बलिदान या अर्थ का त्याग करके भी केवल सद्कर्म ही करना चाहिये। यदि तुम्हारे पास धन है, तो अपने धन का व्यवहार करके, अपनी बुद्धि का, अपनी वाणी का,यदि जरुरी हो तो अपने सम्पूर्ण जीवन के द्वारा भी दूसरों का कल्याण करो। यही मानव जीवन की सार्थकता है।  
    स्वामी जी भी हमें ठीक ऐसी ही सलाह देते हैं । वे कहते हैं- "यह जीवन क्षणस्थायी है, संसार के भोग-विलास की सामग्रियाँ भी क्षणभंगुर हैं। वे ही यथार्थ में जीवित हैं, जो दूसरों के लिये जीवन धारण करते हैं। बाकि लोगों का जीना तो मुर्दों की तरह जीने जैसा है। "  इन्हीं विचारों के आलोक में हमें जीवन को सही ढंग से निर्मित करने का दृढ़ संकल्प लेना चाहिये। 
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'मनुष्य जीवन की सार्थकता : त्याग और सेवा  पर निर्भर है ! क्योंकि -" This life is short, the vanities of the world are transient, they alone live who live for others; the rest are more dead than alive. So with these ideas we should resolve to build ourselves properly."
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