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गुरुवार, 11 अगस्त 2016

卐卐卐15. महामण्डल का स्वरुप एवं कार्य ' [एक नया युवा आन्दोलन -15'The Idea and the Method ]

 महामण्डल का स्वरूप एवं कार्य  

         महामण्डल किस प्रकार की संस्था है, इसका स्वरूप क्या है ? क्या यह एक धार्मिक संगठन है ? या फिर यह सांस्कृतिक, समाजसेवी या कोई शैक्षणिक संस्थान है ? क्योंकि इस संस्था के साथ स्वामी विवेकानन्द का नाम जुड़ा हुआ है, वे एक संन्यासी थे और उन्होंने धर्म का प्रचार किया था,अतः लोग आसानी से यह धारणा बना लेते हैं, कि शायद यह भी एक प्रकार का धार्मिक संगठन हो होगा। किन्तु ऐसे आकलन के आधार पर पूछे कि -
क्या महामण्डल कोई धार्मिक संगठन है ? तो उत्तर होगा - नहीं।  किन्तु धर्म का जो सार तत्व है, आध्यात्म का जो वास्तविक अर्थ होता है [नश्वर मानव शरीर में अविनाशी आत्मा को खोज लेना !!], उसकी ओर यदि किसी का संकेत हो - तो कहना पड़ेगा, निस्सन्देह महामण्डल एक धार्मिक संस्था है। किन्तु, यहाँ 'धर्म' का अर्थ कोई संकीर्ण दायरे वाला 'मतवाद' नहीं हो सकता। महामण्डल की आस्था जिस धर्म में है, वह हिन्दुओं का धर्म तो बिल्कुल नहीं है, हिन्दुओं में भी न तो यह वैष्णव है,न शाक्त है, और न शैव-पन्थ को ही मानने वाला है। 
 >> Sri Ramakrishna or Vivekananda  does not belong to any 
narrow boundary of particular religion . 
       क्योंकि हमलोग श्रीरामकृष्ण देव या स्वामी विवेकानन्द को किसी एक धर्म-विशेष से जुड़े हुए व्यक्ति नहीं थे। वे दोनों तो 'सर्वधर्म समन्वय' या सभी धर्मों में परस्पर सद्भाव (Harmony of all religions ) के संस्थापक रहे हैं। इन दोनों के आविर्भूत होने से पहले तक,- धर्म के क्षेत्र में सहिष्णुता पूर्णतया अनुपस्थित थी और आज भी ऐसा है या नहीं यह अभी भी सन्देहास्पद है। 
 धर्मों में परस्पर असहिष्णुता 'intolerance' की बुराई के विरुद्ध  विश्व की आँखों को खोलने वाले प्रथम व्यक्ति श्रीरामकृष्ण -विवेकानन्द ही हैं। मनुष्य समाज में विभिन्न स्थानों पर भिन्न भिन्न समय में देश-काल की विविधता के आधार पर पृथक पृथक नाम वाले मत या सम्प्रदायों का प्रादुर्भाव होता रहा है। इसीलिये परमत सहिष्णु होना बहुत महत्वपूर्ण है। 
>>>way to the fulfillment of these aspirations, yearnings is the way of religion.
       मनुष्यों के जीवन में एक धर्म, कर्तव्य, कोई न कोई ज्वलन्त आकांक्षा और अभिलाषा 
(परमसत्य को जानने की इच्छा ?) होती हैं। और इन आकांक्षाओं या अभिलाषाओं को  पूर्ण करने का जो पथ है, उसी को 'धर्म का मार्ग' कहा जाता है। जिन लोगों को इस सच्चे धर्म (मिथ्या शरीर में सत्य सनातन आत्मा का साक्षात्कार रूपी धर्म) की उपलब्धि हो जाती है, उनके लिये हिन्दू, मुस्लिम या ईसाईयों के बीच (या शाक्त और वैष्णव के बीच) कोई अन्तर नहीं रह जाता।
        स्वामी विवेकानन्द ने इस तथ्य को बहुत गहराई से और विस्तारपूर्वक समझाया है। उनकी दृष्टि में जब कोई व्यक्ति बाह्य-प्रकृति और अन्तःप्रकृति दोनों के ऊपर विजय प्राप्त कर लेता है, केवल तभी उसे धर्म की प्राप्ति होती है। इसी के द्वारा मनुष्य को यथार्थ शक्ति प्राप्त होती है, इसीलिये वास्तव में यही सच्चा धर्म है। इसीलिये स्वामी जी धर्म की परिभाषा देते हुए कहते है, " धर्म वह वस्तु है, जिससे पशु मनुष्य तक और मनुष्य परमात्मा तक उठ सकता है। " इस कसौटी से देखने पर विभिन्न धर्मों के बीच भेदभाव करने के लिये कोई स्थान ही नहीं रह जाता। हर धर्म के लिये यह पैमाना एक समान है, और जो कुछ इसके प्रतिकूल होगा उसे धर्म नहीं कहा जा सकता। प्रत्येक धर्म यह बताता है कि मनुष्य को अपनी पाशविकता (स्वार्थपरता) पर अंकुश लगाना चाहिये और अपने मानवीय गुणों को विकसित करके यथार्थ मनुष्य [ शैतान से इन्सान] बन जाना चाहिए। कोई भी मनुष्य जब (यम-नियम का अनवरत पालन करके ) अपनी पशुता पर विजय प्राप्त कर लेगा, वह  सच्चा धार्मिक मनुष्य बन जायेगा तब उसे देखने और मिलने से ऐसा प्रतीत होगा मानो वह भी भगवान का ही प्रकट रूप है! (उसके चारों ओर भी किसी काल्पनिक भगवान के जैसा प्रभावलय प्रतीत होगा।) मनुष्य जब अपनी कल्पना के अनुसार भगवान का चित्र या मूर्ति गढ़ता है,तो वह उनके मुखड़े को पवित्रता, तेजस्विता, आदि नायकोचित उत्कृष्ट चारित्रिक गुणों से विभूषित करते हुए ही गढ़ता है, क्योंकि दिन-प्रतिदिन की व्यावहारिक दुनिया में ऐसा मुखमण्डल ढूँढ पाना लगभग मुश्किल है।सामान्यतः हम समाज में मनुष्यों का जैसा सौन्दर्य, शारीरक-शौष्ठव और स्वभाव आदि देखते हैं, उससे हमारी कल्पना को तृप्ति नहीं मिलती। इसीलिये जब हम भगवान के बारे में विचार करते हैं, तो हम उसमें समस्त मानवीय गुणों को अनन्त गुना विकसित रूप में देखने का प्रयास करते हैं।' इसीलिये हमलोग मनुष्य को भगवान या किसी अवतार के साँचे में डाल कर गढ़ना चाहते चाहते हैं। विश्व के प्रत्येक धर्म में यह बात एक समान पायी जाती है। 
इस दृष्टिकोण से विचार किया जाय महामण्डल भी निस्सन्देह धर्म (3H विकास के 5 अभ्यासों ) का पालन कर रहा है। किन्तु महामण्डल अपने किसी सदस्य को मन्दिर,मस्जिद,चर्च या गुरुद्वारा जाने, कर्मकाण्डीय अनुष्ठान करने या पूजा-पाठ करने का निर्देश नहीं देता, इस दृष्टि से देखने पर महामण्डल धार्मिक संस्था नहीं है।  
           >>>If a man is really cultured , he does not look at the world the way animals do.
      आजकल बहुत से लोग 'संस्कृति'  का अर्थ नृत्य-संगीत, नाटक,कहानियाँ, उपन्यास, कुछ दुर्बोध चित्र या अर्थहीन कवितायें समझते हैं। किन्तु महामण्डल 'संस्कृति' की ऐसी व्याख्या को व्यर्थ और बौद्धिक शक्ति की बर्बादी समझकर इस पर कोई ध्यान नहीं देता। इस दृष्टि से देखने पर महामण्डल कोई सांस्कृतिक संस्था भी नहीं है। यदि कोई मनुष्य सही अर्थों में सुसंस्कृत बन जाता है, तो वह बाह्य जगत को उस दृष्टि से नहीं देखता जिस दृष्टि कोई पशु (M/F) देखता है। 
'मनुष्यत्व' का विकास होने के साथ-साथ उसके भीतर सौन्दर्य की प्रशंसा करने के लिये एक कोमल आंतरिक शक्ति (सिया-राम मैं सब जग जानी वाली दृष्टि) भी पुष्पित हो जाती है। और अब उसे किसी वस्तु की व्यावहारिक उपयोगिता क्या है, उस दृष्टि से देखने पर सन्तुष्टि प्राप्त नहीं होती। जगत को 'सिया-राम मय' दृष्टि से देखने का अभ्यास करते करते उसका मन-दर्पण स्वच्छ हो जाता है (अब वहाँ ब्रह्म-रूपी जगत का कोई विकृत चित्र नहीं बनता ), जिसके फलस्वरूप वह चिंतन में, शब्दों में, प्रकृति में, जगत के समस्त सजीव प्राणियों में भी सौन्दर्य देखने की क्षमता या 'सौन्दर्यबोध ' अर्जित कर लेता है। यह निश्चित रूप से एक आध्यात्मिक गुण है। इस दृष्टि से देखने पर महामण्डल अवश्य एक सांस्कृतिक संगठन है; किन्तु  उपरोक्तत बताये हुए संस्कृति के तथाकथित परिभाषा के अनुरूप यह कोई सांस्कृतिक संगठन भी नहीं है। 
      >>Place for social service in the Mahamandal .
        इसी प्रकार से विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट हो जायेगा कि प्रचलित अर्थों में महामण्डल एक समाजसेवी संगठन भी नहीं है। क्यों ? आमतौर से कोई भी समाज-सेवी संस्था समाज के लिए कुछ न कुछ कल्याण कार्यों का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेता है, वह विभिन्न समाजोपयोगी कार्यों के द्वारा लोगों को सहायता प्रदान करता है। आजकल 'rural development'  अर्थात ग्रामीणविकास समाजसेवा के लिये एक महत्वपूर्ण विषय बन गया है। इसके अन्तर्गत सामान्यतः अन्नहीन को अन्न और वस्त्र-हीन को वस्त्र, रोगियों के लिये दवाइयाँ -इत्यादि  का वितरण करके निःसहायों की सहायता की जाती है। ये सभी अच्छे कार्य हैं। तथापि महामण्डल का गठन केवल इसी प्रकार की समाजसेवी कार्यों के लिये नहीं हुआ है।  इस तरह की सेवायें प्रदान करने के लिये तो पहले से ही स्थानीय, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर  देश-दुनिया में असंख्य संस्थायें कार्यरत हैं। राष्ट्रीय सरकार, विभिन्न अन्तर्राष्ट्रीय संगठन एवं आम धनाड्य लोगों का संरक्षण भी उन्हें प्राप्त है। फिर उसी तरह के एक और संगठन का क्या औचित्य हो सकता है ? 
      >>'Service to the Ignorant and the Poor' 
      इसके बावजूद भी महामण्डल  में समाज-सेवा के लिए एक स्थान है। यह एक विशेष प्रकार की समाज-सेवा है,और यदि इसे हम 'उत्कृष्ट समाज सेवा ' का नाम भी दें, तो वह गलत नहीं होगा।  क्योंकि इस प्रकार के समाजसेवा की परिकल्पना स्वयं स्वामी विवेकानन्द जी के द्वारा ही की गयी थी। अज्ञानियों (अविद्याग्रस्त) और दरिद्रों (वैचारिक पूअर)' को साक्षात नारायण मानकर उनकी सेवा करने का उपदेश- स्वामी जी ने दिया था। निस्सन्देह भूखों को भोजन कराना, वस्त्रहीनों को वस्त्र देना, बीमारों के लिये चिकत्सा की व्यवस्था करना, आदि कार्य भी  स्वामी विवेकानन्द  द्वारा निर्देशित समाज-सेवा का ही हिस्सा है। किन्तु जिस प्रकार उन्होंने विशेष बल दिया था, वह है लोगों उत्तम विचार प्रदान करना , ऐसे महावाक्यों से परिचित करा देना जो किसी व्यक्ति  को उन्नततर मनुष्य बनने में सहायता करें । हमारे अपने ही परिवार और समाज में बहुत से ऐसे लोग हैं जो जीवन को उन्नततर बना देने वाले विचारों से वंचित रह गए हैं ! वास्तव में गरीब - तो वैसे ही लोग हैं। 
>>The work on which Swami ji  emphasis is providing good ideas to the people :
           गरीब केवल वे ही नहीं हैं जिनके पास पैसा नहीं है और जो अपने लिये दो वक्त की रोटी का भी प्रबंध नहीं कर सकते। बल्कि असली गरीब तो वह है जो धन होने के बावजूद, 
उन्नततर मनुष्य में परिणत कर देने वाले उच्च विचारों (महावाक्यों का श्रवण-मनन -निदिध्यासन) को समझने की अभिलाषा या अभाव से ग्रस्त है । स्वामी जी के अनुसार इस प्रकार के गरीब लोगों (माया द्वारा शोषित -वंचित लोगों) की सेवा करना  सर्वश्रेष्ठ समाज-सेवा का कार्य है। महामण्डल भी विशेष रूप से इसी उकृष्ट श्रेणी की समाज सेवा करने का पक्षधर है।  
         महामण्डल का उद्देश्य किसी की व्यक्तिगत इच्छा संकीर्ण सामूहिक इच्छा की पूर्ति करना भी नहीं है , जहाँ दानशील व्यक्ति या महान समाज कहलाने के पीछे मुख्य कारण बहुधा अहंकार की तृप्ति ही होती है। आजकल ऐसी मानसिकता से ही अक्सर समाजसेवा का कार्य किया जाता है। मेरे पास काफी धन-सम्पति और जमीन जायदाद आदि है चलो थोड़ा बहुत गरीबों को दान कर देता हूँ , इस मानसिकता के साथ की जाने वाली समाज सेवा व्यक्ति के ह्रदय को विशाल बनाने के बजाए उसके अहंकार को ही और पुष्ट कर देती है। इसीलिए तो इन दिनों समाचार पत्र , टेलीविजन या फेसबुक आदि में सभी प्रकार की तथाकथित समाज सेवा को , यहाँ तक कि जिसमें कम्बल -चादर बाँटना भी शामिल है , फोटो खिंचवाने की मुद्रा में दिखाया जाता है। स्वामीजी ने इस प्रकार से समाज सेवा करना कभी नहीं सिखाया है।       
        अगर उन्होंने भी इसी प्रकार की दिखावटी समाजसेवा का उपदेश दिया होता तो लोगों ने उन्हें अपनी स्मृति में इतना तरो-ताजा नहीं रखा होता, और भी  उनको इतनी श्रद्धा, सम्मान और प्रेम के साथ स्मरण नहीं किया जाता। कई लोग इस धरती पर पैदा हुए हैं, जिन्होंने उपरोक्त विवरण के अनुसार ही समाज सेवा करने के लिये योजनायें बनाई हैं , और उन्हें इस कार्य में सफलता भी प्राप्त हुई है ! किन्तु मानव स्मृति में इतने दीर्घकाल तक बने रहने का सौभाग्य उन्हें प्राप्त नहीं हो सका है। 
      >>Pioneers among men, leaders of races,
 इस जगत में अबतक जितने भी अग्रणी मार्गदर्शक नेता, पूजनीय विभूतियाँ - जैसे राम, कृष्ण ,बुद्ध, ईसा,मोहम्मद, श्चैतन्य, रामकृष्ण, स्वामी विवेकानन्द आदि हुए हैं; उन्हें सम्पूर्ण मानवता आज भी इसीलिये याद करती है कि उनमें से प्रत्येक ने समाज को ऐसे अमूल्य विचार दिये हैं जो मानवजाति के लिये सर्वाधिक उपयोगी सिद्ध हुई हैं, तथा युग-युगान्तर से मनुष्य उसका सच्चा लाभ उठाता आ रहा है। हालाँकि उनमें से कइयों ने स्वयं अपने नाम से कोई नया सम्प्रदाय या धर्म खड़ा नहीं किया है।  
>>complete elimination of all wants through positive ideas,
      जो मनुष्य जीवनदायी विचारों की गरीबी से त्रस्त हैं, वे उन महान विभूतियों के जीवन और सन्देशों से आज भी प्रेरणा प्राप्त करके उनके सकारात्मक विचारों द्वारा अपने समस्त अभाव को सदा के लिये समाप्त कर देने का उत्साह प्राप्त करते हैं। जीवन में पूर्णत्व प्राप्त करने की दिशा में अग्रसर हो सकते हैं। 
         महामण्डल ऐसा कोई दावा नहीं करता कि वह समाज की समस्त आवश्यकताओं पूर्ण कर देगा। किन्तु आज के युवाओं के पास उन विचारों का अभाव है जो उनके जीवन को सुन्दर रूप से गठित करने के लिये आवश्यक है। अक्सर देश के युवाओं को वर्तमान में प्रचलित शिक्षा पद्धति से वैसे बहुमूल्य विचार प्राप्त नहीं होते, जो जीवन-गठन के लिये या मनुष्य बनने के लिये अत्यन्त आवश्यक हैं। बेशक (देश के सौभाग्य से ), आज भी कुछ ऐसे शिक्षक हैं जो पाठ्यपुस्तकों के घेरे से बाहर जाकर अपने स्वयं के जीवन की उपलब्धियों और अनुभवों से प्राप्त कुछ अनुकरणीय शिक्षाओं को अपने जीवन द्वारा छात्रों के समक्ष प्रस्तुत  करते हैं। वे ऐसा इसीलिये करते हैं, ताकि छात्र भी वैसे जीवन-मूल्यों से उत्प्रेरित होकर अपने जीवन को सुन्दर ढंग से गठित करने के आग्रही बन सकें। वर्तमान समय में भी ऐसे कुछ शिक्षकों का अस्तित्व बचा हुआ है जिनका अपना जीवन त्याग और सेवा के द्वारा गठित है, जिसके कारण आज भी कुछ युवा देश की वास्तविक संपत्ति के रूप में विकसित हो पा रहे हैं। किन्तु, जब राजनितिक यूनियनबाजी के भँवर में फंस कर, ये थोड़े से आदर्श शिक्षक भी अपने घुटने टेक देंगे, और आदर्शों के साथ समझौता करना  शुरू करने पर मजबूर कर दिये जायेंगे, वही दिन अपने देश के लिये सचमुच अत्यन्त दुर्भाग्य का दिन होगा। इन दिनों जागरूक अभिभावकों की संख्या में भी तेजी से गिरावट आ रही है। वस्तुस्थिति की गंभीरता को देखते हुए महामण्डल ने इसी जरूरत को पूरा करने का दृढ़ निश्चय कर लिया है।  इसीलिये महामण्डल के नाम के साथ यदि कोई विशेषण जोड़ना ही हो तो इसे धार्मिक,सांस्कृतिक अथवा समाज-सेवी संगठन न कहकर इसे एक शैक्षणिक संसथान  कहना चाहिये।
         अब यदि कोई यह प्रश्न पूछे कि आदर्श शिक्षा के प्रचार- प्रसार के लिये क्या महामण्डल भी किसी विशेष मॉडल पर आधारित कुछ विद्यालयों और महाविद्यालयों की स्थापना करना चाहता है ? तो पुनः इस प्रश्न का उत्तर होगा - 'नहीं !' बहुत से ऐसे संगठन हैं जो बड़े बड़े भवनों में विद्यालयों और महाविद्यालयों की स्थापना करके नैतिक शिक्षा प्रदान करने की योजना को भी लागु करने की कोशिश कर रहे हैं, किन्तु वे भी विफल मनोरथ ही सिद्ध हो रहे हैं। भले ही प्रचलित शिक्षा के साथ नैतिक शिक्षा प्रदान करने के लिए विषयवस्तु और पद्धति का चयन बहुत सोच-विचार कर किया जाय, यदि वैसा कर लेना भी सम्भव हुआ-तो भी इस तरह की आदर्श शिक्षा प्रदान करने के लिए कोई बनाई गयी कोई भी योजना, विफल होने को बाध्य होगी। क्यों ? क्योंकि उस आदर्श शिक्षा को देने वाले शिक्षकों भी तो 'employment exchange '  से या किसी राजनितिक दल द्वारा की गयी (शिक्षा विभाग के मंत्री पार्थो चटर्जी वाले बेलघड़िया , टॉलीगंज स्थित अर्पिता नुख्रजी के रोजगार दफ्तर के 50 करोड़ी अनुशंसाओं के बल पर ही हुई होगी। और इस प्रकार यह - राष्टीय शिक्षा निति में नैतिकता बोध जोड़ने वाली आदर्श शिक्षा योजना भी कागजों पर ही सिमटकर रह जाएगी। 
       >> If the boy does not come to education, education must go to the boy.' 
        इसीलिये,आज  की जो अवस्था है उसमें सरकार द्वारा अनुदान प्राप्त शैक्षणिक संस्थाओं , या विद्यालयों और महाविद्यालयों की संख्या बढ़ाते रहने से कोई लाभ नहीं होगा , उलटे इस परियोजना में लगा हुआ समस्त श्रम और धन कोई वांछित लाभ पहुँचाये बिना व्यर्थ में ही नष्ट हो जायेगा। इसीलिये महामण्डल सही ढंग की शिक्षा प्रदान करने का वैसा ही कार्य करना तो चाहता है, किन्तु जनता के टैक्स के पैसों से  ऐसे शिक्षण शिक्षण संस्थानों की संख्या बढ़ा करके नहीं;  बल्कि इस नीति के अनुसार कार्य करना चाहता है कि-"यदि बालक शिक्षा के पास नहीं आ सकता तो शिक्षा को ही बालक के पास ले जाना होगा।" इसीलिये महामण्डल का कार्य गाँवों में शहरों में, हर जगह अपने केन्द्रों को प्रसारित करते जाना है। यदि कहीं कोई लड़का है जो उनमें से किसी केन्द्र तक भी नहीं पहुँच सकता, तो महामण्डल उनके घरों में उन विचारों की आपूर्ति करने के लिये जायेगा; जिसकी उन्हें बड़ी आवश्यकता है, जिसके बिना वह सही ढंग से विकसित नहीं हो सकता, जिसके अभाव में वह शारीरिक और नैतिक दृष्टि से जीर्ण और दुर्बल हो गया है। जब इस प्रकार के मनुष्य निर्माणकारी विचार उसे उपलब्ध करवा दिये जायेंगे, तो वह भी हर दृष्टि से विकसित हो जायेगा; और ये शक्तिदायी विचार उसको स्वस्थ और सबल बना देंगे।
      >>Man has three elements, which are his sources of power-body, mind and heart.  
इन्हीं विचारों को स्पष्ट करते हुए स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " मनुष्य के तीन प्रमुख अवयव हैं , जो शक्ति के स्रोत हैं - शरीर, मन और ह्रदय। जब इन तीनों तत्वों का समुचित और सुसमन्वित विकास हो जाता है , तब कोई भी व्यक्ति यथार्थ मनुष्य बन जाता है। "  यही वह कार्य है जिसे पूरा करने का बीड़ा महामण्डल ने उठाया है। शरीर को स्वस्थ और सबल बनाने के लिये शारीरिक व्यायाम, मन पर नियंत्रण प्राप्त कर उसे एकाग्र और सतेज बनाने के लिये मनःसंयोग का नियमित अभ्यास करना महामंडल युवाओं के दैनिक दिनचर्या में शामिल हैं। किन्तु यदि हम अपने बाहुबल और बुद्धिबल को ही अपना एकमात्र सम्बल मान लें, तो हमारे लिए यह सम्भव नहीं होगा कि हम मानव समाज के कल्याण की दिशा में हम विशेष प्रगति कर सकें। उसके लिये अन्य शक्तियों (2H)  के साथ 'हृदय की शक्ति' को भी जोड़ना अनिवार्य होगा। हृदय की जो सहनुभूतिशीलता है, उसका विस्तार (अनन्त तक) करना होगा। पर कैसे ? ह्रदय को विस्तृत करने की पद्धति क्या है ? 
       >>Every man is a temple in the true sense.
        उसी पद्धति का एक अंग है, समाज-सेवा। किन्तु यदि हृदय को विकसित करने का एक उपाय मानकर समाज-सेवा करनी हो, तो वह कभी दानी होने के अहंकार के साथ अपनी दान- शीलता का प्रदर्शन करने के मनोभाव को रखते हुए नहीं की जा सकती। अतः हमें अपनी समाज-सेवा मानव-मात्र के प्रति श्रद्धा और सम्मान का भाव रखते हुए नहीं की जानी चाहिए। बल्कि हमें शिविर में आने वाले अपने युवा मित्रों के प्रति श्रद्धा और सम्मान का भाव रखते हुए, देवता बुद्धि से आह्वान करते हुए कहना चाहिए - " इहागच्छ , इहतिष्ठ ! " [ॐ भूर्भुवः श्वः श्री भगवन विष्णो: इहागच्छ इह तिष्ठ।] ऐसा सोचना होगा, मानो प्रत्येक प्राणी, प्रत्येक मनुष्य का शरीर सच्चे अर्थों में एक मंदिर (प्रभु-निवास) है। उस देह-मंदिर में विराजित देवता बड़े कष्ट में हैं, दुःख भोग रहे हैं- "ब्रह्म पंचभूतों के फंदे में पड़ कर रो रहे हैं !" और उनकी वास्तविक दिव्यता (निःस्वार्थपरता) अभिव्यक्त नहीं हो पा रही है। इसीलिए, हम एक शिवालय को जैसे धो-पोंछ कर स्वच्छ और पवित्र बनाते हैं, चन्दन घिसकर लेप तैयार करते हैं, फूल तोड़ते हैं, एवं साक्षात शिवजी की दिव्य उपस्थिति का अनुभव करने के लिये, उनके विग्रह और मंदिर को सुगन्धित पुष्प और धुप-चन्दन आदि से सजा कर मनोहारी बना देते हैं।
       विद्यादान रूपी समाज-सेवा भी ठीक उसी तरह की एक प्रकार का भयमिश्रित सम्मान और पवित्रता की अनुभूति करते हुए करनी होगी, कि सेवा में कहीं कोई त्रुटि तो नहीं हो गयी? जैसे हमलोग मन्दिर में आमतौर से देवताओं के प्रति रखते हैं। इसीलिये महामण्डल के विभिन्न केन्द्रों में जो सेवा कार्य चलाये जा रहे हैं, उनका मूल्यांकन केवल सेवा कार्य की मात्रा, आर्थिक व्यय एवं बाहरी तड़क-भड़क या दिखावा के आधार पर करना उचित नहीं होगा। इस प्रकार के कार्यों का उचित मूल्यांकन तो केवल महामण्डल के कार्य-कर्ताओं के उद्देश्य, अनुभूति की गहराई- जो उन्हें क्रमशः आध्यात्मिक रूप उन्नत बना देगी, उस कार्य में संलग्न ऐसे कर्मियों की संख्या से ही निर्धारित की जा सकती है।
    >>Essence of true education : All-round development and unfoldment of the being. (शिक्षा का सार है - बहुमखी विकास और अस्तित्व का प्रकटीकरण)   
          जब कोई व्यक्ति अपने शरीर, मन और हृदय को महामण्डल द्वारा निर्धारित- " 3H विकास के 5 दैनन्दिन अभ्यास" का निरंतर अनुशीलन करते हुए अपने बहुमुखी विकास को 'सर्वोच्च उत्कृष्टता' (highest excellence) तक विकसित कर अपने वास्तविक अस्तित्व का अनावरण कर लेता है, उसी को 'सच्ची शिक्षा का सार' कहते हैं। और उसी को सच्चा धर्म या आध्यात्मिकता भी कहते हैं। इस आध्यात्मिकता का सम्बन्ध हमारी दुनिया से भिन्न कोई दूसरी दुनिया, या केवल मृत्यु के बाद की दुनिया से नहीं होता। प्रत्येक युग में कुछ सत्यान्वेषी मनुष्यों ने परम् सत्य तक पहुँचने के कुछ सुस्पष्ट मार्गों को खोजा है, और आगे चलकर ये सुस्पष्ट मार्ग ही  `वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' का रूप धारण कर लेते हैं, उन्हें ही धर्म मार्ग (paths of religion) कहते हैं। इन्हीं मार्गों को योग की संज्ञा भी दी गयी है। 
     >> Religion means conquering our inner nature as also the the nature outside . हमारे शास्त्रों में चार प्रमुख योगों का उल्लेख किया गया है, ये हैं- ज्ञानयोग, राजयोग, भक्तियोग और कर्मयोग। स्वामी विवेकानन्द ने ध्यान से देखा कि "धर्म का अर्थ है-  इन चारों में से कोई एक या एकाधिक अथवा सभी योग मार्गों का अवलम्बन करके अपनी अन्तःप्रकृति और बाह्य प्रकृति पर विजय प्राप्त कर लेना।" विवेकानन्द ने यह भी कहा है कि जब हमारी आन्तरिक शक्ति (मानसिक शक्ति) पूर्णतया हमारे नियंत्रण में आ जाती हैं, तो बाह्य प्रकृति (जगत-व्यवहार) के ऊपर नियंत्रण पाना सहज हो जाता है। उनके मतानुसार सबसे प्रभावी और उत्तम मार्ग, इन चारो योगों को सुसमन्वित कर उन्हें संघटित कर लेने से प्राप्त होता है। जो व्यक्ति आत्मविकास के इस चारो योगों की सम्मिलित प्रणाली को अपनाता है, उसे चारों योगों के अलग-अलग फल एक साथ प्राप्त हो जाते हैं,और सभी दिशाओं उसका विकास एक साथ साधित हो जाता है।
       संक्षेप में कहा जाय तो 'ज्ञानयोग' विवेक-विचार करने का मार्ग है। यह पथ मनुष्य को निरंतर विवेक-प्रयोग करते हुए बुराई से अच्छाई को, अनित्य से नित्य वस्तु को, नश्वर से शाश्वत को पृथक करते रहने का आदेश देता है। और इस प्रकार विवेक प्रयोग करते हुए निर्णय लेने से मनुष्य जो शाश्वत और वास्तविक है उस परम सत्य प्राप्त कर सकता है।  
         एक 'राजयोगी' मानसिक शक्ति के ऊपर सर्वाधिक जोर देता है। उसके लिये मन ही सब कुछ है उसका दावा है कि मन की अतिरिक्त चंचलता को शांत कर मन की शक्ति को पूर्णतया आत्म-नियंत्रण में रखने से सत्य स्वयं को उद्घाटित कर देता है। सत्य का साक्षात्कार करने के लिये यही उसकी साधना का पथ है।
       एक भक्त को यही ठीक लगता है कि शरीर, मन या बुद्धि के लिये किसी विशेष व्यायाम की आवश्यकता नहीं है। नाक दबाकर प्राणायाम आदि का अभ्यास करने या किसी तरह के कठोर वैराग्य को अपनाने की जरूरत नहीं है। वह कहता है यदि कोई व्यायाम करना ही हो तो मैं ह्रदय का व्यायाम करना अधिक पसंद करूँगा। मैं अपने प्रभु या इष्टदेव के लिये अपने ह्रदय का द्वार खोल दूँगा। उसके मन में यह दृढ़ विश्वास या आस्था होती है कि चाहे जिस भाव से या जिस नाम से उन्हें क्यों न पुकारूँ हमारे ह्रदय में ही एक परम सत्य, प्रेमस्वरूप कोई रहता अवश्य है।    
      यदि हृदय में कोई प्रेमस्वरूप भगवान नहीं रह रहे होते, तो मेरे हृदय में प्रेम की एक छोटी सी कली भी कैसे अंकुरित हो सकती थी ? यदि वहाँ, ह्रदय में कोई ऐसी सत्ता विद्यमान नहीं है - जो प्रेम से भरी हुई हो और जिसका स्वभाव ही प्रेम है तो मेरे भीतर प्रेम का वह सागर कैसे उमड़ने लगता है जो किसी भी प्रकार के बंधन द्वारा अवरुद्ध होने से इन्कार कर देता है ? जो 'मैं' और 'मेरा' तक सीमित रहने की अवज्ञा करता है, जो उन्मुक्त होकर सर्वत्र-सबको अपने-पराये सभी को अपने आलिंगन में बाँध लेना चाहता है! वही परम प्रेमस्वरूप परमात्मा (माँ जगदम्बा) है जिसे कोई अल्ला, कोई भगवान, कोई शिव या कोई काली कहता है। तो कुछ लोग अपनी कल्पना में उन्हीं को भगवान मानकर स्वर्ग में सिंहासन पर आसीन देखते हैं। जो व्यक्ति भक्तियोग का अभ्यास करता है वह कहता है- विवेक प्रयोग, मन का नियन्त्रण या कठोर तपस्या के द्वारा सत्य का साक्षात्कार करने के बजाय मैं प्रेम के माध्यम से सत्य की खोज करूँगा, मैं अपने सीमित प्रेम को पूर्णतया उनमें ही लीन कर दूँगा-जो प्रेमस्वरूप हैं ! और इस प्रकार मैं सम्पूर्ण विश्व के साथ एकात्मता की अनुभूति कर लूँगा। सम्पूर्ण जगत को अपना प्रेम समर्पित कर मैं स्वयं ही जगत स्वरूप बन जाऊँगा !  
        'कर्म-योगी' को उपरोक्त कोई भी मार्ग पसंद नहीं है। उसके अनुसार निरन्तर विवेक-प्रयोग करते रहने या भावुकता के आवेग से अभिभूत होकर हृदय को खोल कर भगवान के आगमन की प्रतीक्षा करते रहना बिल्कुल आवश्यक नहीं है। उसके मतानुसार अकर्मण्य होकर बैठे रहना सर्वथा अनुचित है। यह तथ्य है कि हमारे पास कर्म करने की शक्ति है स्वतः संचालित होने (self-start) की क्षमता है, लेकिन उसका एक अलग तात्पर्य है। इस कर्मशक्ति का उपयोग करके हम अपने जीवन को सार्थक और परिपूर्ण बना सकते हैं। कर्मयोगी जब पूर्णता प्राप्त करने के लिये अपनी पद्धति के अनुसार प्रयास करता रहता है तब उसे यह उपलब्धि होती है कि सच्चा आनन्द तो केवल तभी प्राप्त होता है जब वह किसी कार्य को वह अपने आमोद-प्रमोद या अपने भोग-विलास की इच्छा से प्रेरित होकर नहीं कर रहा होता है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कर्म-योग (निष्काम कर्म) के फल का स्मरण कराते हुए कहा है - "दूसरों के कल्याण की इच्छा से किया गया निःस्वार्थ कर्म किसी सतर्क कर्मयोगी को ज्ञान के राज्य में प्रतिष्ठित करा देता है।
 कर्मयोगी जब अपने क्षुद्र स्वार्थ को त्याग कर दूसरों के कल्याण के लिये अपना सब कुछ न्योछावर कर देने को तत्पर हो जाता है तब उसे भी उसी सत्य की अनुभूति होती है, जिसको ज्ञानी ज्ञानयोग के द्वारा अनुभव करता है। क्योंकि, वह भी यही अनुभव करता है कि 'वह' और 'दूसरे लोग' भिन्न-भिन्न नहीं हैं। इस 'नूतन पहचान' की अनुभूति पूर्णतया उसी 'सत्य' के अनुरूप होती है,  जिस सत्य की उपलब्धि किसी प्रेमी को भगवान के प्रति प्रेम रखने से प्राप्त होती है, या किसी राज-योगी को मन पर नियंत्रण कर लेने से प्राप्त होती है। 
          परम सत्य की खोज और उसकी उपलब्धि करने के यही चार प्रमुख मार्ग हैं, जो व्यक्ति इन चारो मार्गों का अपने जीवन में समान रूप से और सही तरीके से प्रयोग करने में समर्थ होता है, और हर सम्भव तरीके से परम सत्य का आस्वादन कर लेता है - स्वामी विवेकानन्द के अनुसार वही आदर्श मनुष्य है। श्रीरामकृष्ण देव भी यही कहते थे कि- किसी खाद्य पदार्थ का स्वाद मुझे केवल एक ही तरीके से क्यों लेना चाहिये ? एक ही मछली (या सब्जी) को तो कितने ही प्रकार से तैयार किया जा सकता है। 
      अपनी सीमित क्षमता के साथ हमलोग 'रामकृष्ण-विवेकानन्द' के विचारों और निर्देशों के अनुसार विवेक प्रयोग, मन पर नियंत्रण, अपने-पराय के बीच भेदरहित प्रेम, और निष्काम कर्म के बीच समन्वय स्थापित करने के लिये सदा प्रयत्नशील रहेंगे। केवल तभी हमारा बहुमुखी और पूर्ण विकास साधित होगा। यह हो सकता है कि हमारे ह्रदय (Heart) में सभी देशवासियों के लिये प्रेम अंकुरित हो जाये,सहानुभूति भी जाग्रत हो जाये, किन्तु यदि हमारा शरीर (Hand)सबल और स्वस्थ नहीं है तो हम सेवा में सक्षम कर्मी नहीं बन पायेंगे। और हम उनके दुःख-कष्टों दूर करने के लिये 'परिश्रम को पराकाष्ठा तक भी नहीं पहुँचा सकेंगे! उसी प्रकार हम मन की एकाग्रता शक्ति अर्जित किये बिना लोगों के दुःख -कष्ट दूर करने जायें तो हम पूरे मनोयोग से सेवा भी नहीं कर पायेंगे और वह सेवा फलदायी भी नहीं होगी। उसी प्रकार सोचने, बोलने और कुछ भी करने के पहले विवेक-प्रयोग करके अवश्य देख लेना चाहिये कि वह अच्छा है या बुरा, श्रेय है या प्रेय - सही निर्णय लेने की इस शक्ति को जाग्रत करने के लिये विवेकज ज्ञान का संवर्धन करते रहना  आवश्यक है। किन्तु हमारी  ज्ञान-चर्चा इतनी विशद या दुरूह भी नहीं हो जानी चाहिये, कि तर्क द्वारा यह सिद्ध करने की चेष्टा करने लगें कि सच्चे वेदान्तवादी के लिए तो 'गंगाजल और नाले के जल' में भी कोई अंतर नहीं है! 
>>> Expansion of our heart , to stir up sympathy to feel for others'
       हम ज्ञान -विचार के साथ-साथ ह्रदय की क्षमता को भी सरल तरीके से विकसित करने का प्रयास कर सकते हैं। श्रीरामकृष्णदेव , स्वामी विवेकानन्द और माँ श्री श्री सारदा देवी के जीवन और शिक्षाओं  का अध्यन और उन पर चिंतन-मनन करना चाहिये।  उनके जीवन और सन्देश पर निरंतर चर्चा करते रहने से विवेक-प्रयोग करने की शक्ति तथा सही और गलत, सत्य और मिथ्या, अच्छा और बुरा के बीच निर्णय करने की क्षमता (विवेकज-ज्ञान) स्वतः जाग्रत हो जाती है। सर्वमंगल की प्रार्थना और मनःसंयोग के नियमित अभ्यास के द्वारा ही मन की शान्ति और सन्तुलन (poise) प्राप्त की जा सकती है; जिसके अभाव में हमलोग अक्सर गलत निर्णय कर बैठते हैं और वह प्रेम जो हमारे ह्रदय में उमड़ता है कभी कार्यान्वित नहीं हो पाता।  और अपने हृदय को विकसित करने के लिए दूसरों के दुःख-कष्ट को अपने हृदय में अनुभव करने की क्षमता को बढ़ाना चाहिये, अर्थात हृदय की सहानुभूति शक्ति को प्रदीप्त करना आवश्यक है। इसके लिये अपने हृदय की भक्ति-भावना का संवर्धन  करना जरुरी है- जो कि अपने प्रेम के सीमित दायरे- 'मैं' और 'मेरा' को सर्वत्र, सब दिशाओं में, सम्पूर्ण मानवता के लिये प्रसारित कर लेने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। हृदय के प्रसार के इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये लगातार प्रयत्न करते रहना आवश्यक है। ठाकुर, माँ और स्वामी जी के जीवन और शिक्षाओं पर चिंतन-मनन करने से विवेक-प्रयोग करने की क्षमता में वृद्धि होने के साथ -साथ, हृदय को विकसित करने में भी सहायता प्राप्त होती है। ठाकुर, माँ और स्वामीजी का अनुसरण करने का अर्थ है, जो "ब्रह्म पंचभूतों के फन्दे में पड़कर रो रहे हैं"  उनके वास्तविक दुःख के कारण (अविद्या) को खोज कर उसे दूर हटाने के लिये उनकी सच्ची सेवा करना।
        जब कोई व्यक्ति विस्तृत ह्रदय (भक्तियोग) , जग्रत विवेक (ज्ञानयोग) और वशीभूत मन (राजयोग) और व्यावहारिक दक्षता (कर्मयोग) के साथ स्वयं को सुसज्जित करके, लोगों के वास्तविक कल्याण के लिये अपने जीवन तक को न्योछावर कर देने की ज्वलन्त इच्छा के साथ   जब सामाज-सेवा करने को उठ खड़ा होता है, तो उसके द्वारा की गयी समाज-सेवा साधारण समाजसेवियों द्वारा की गयी समाज-सेवा से थोड़ी अलग हटकर तो होती ही है! 
[क्योंकि --'साहसी, जो चाहता है दुःख  -
 मिल जाना मरण से ,नाश की नाचता है,
 माँ उसीके पास आयी !'
-स्वामी विवेकानन्द की कविता 'काली माता '।  ] 
       >>Transcend animality in man and to stride for full manhood. 
        महामण्डल की अपने विभिन्न केन्द्रों (३१५ से अधिक) के द्वारा इसी प्रकार के सुयोग्य, स्वस्थ, बलवान, अन्तर्विचारशील और सहानुभूति सम्पन्न मनुष्यों का निर्माण करने के कार्य में लगा हुआ है। भारत के विभिन्न गाँवों और शहरों में ऐसे युवा व्यक्तिगत रूप से और परस्पर मिल-जुल कर, स्वामी विवेकानन्द के जीवनप्रद और शक्तिदायी विचारों को व्यवहारिक रूप देते हैं। 
        महामण्डल की दृष्टि में,चारों योगों को समन्वित करके- मानव को उसकी पशु-प्रकृति का अतिक्रमण करने (transcend करने), तथा पूर्ण मनुष्यत्व (पूर्ण निःस्वार्थपरता) की ओर प्रगति करने का यही उपाय है। यही वह मार्ग है जिस पर चलते हुए महामण्डल  प्रचलित अर्थों में धार्मिक, सांस्कृतिक, समाजसेवी या शैक्षणिक संस्थान बने बिना, उन्नततर मनुष्यों का उन्नततर समाज बनाने का दृढ़ संकल्प लेकर, सच्चा धर्म, सच्ची संस्कृति, सच्चा समाज-कल्याण और सच्ची शिक्षा के प्रचार-प्रसार के कार्य में, विगत 55 वर्षों से लगा हुआ है। वास्तव में महामण्डल का उद्देश्य और कार्य योजना भी यही है। 
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[*इलिप्सिस (ellipsis) = पद-न्यूनता : An ellipsis of "If the mountain won't come to Muhammad then Muhammad must go to the mountain." --' If one cannot get one's own way, one must bow to the inevitable.' coined by Francis Bacon, perhaps from a Turkish proverb. Mahomet made the people believe that he would call a hill to him, and from the top of it offer up his prayers, for the observers of his law. The people assembled; Mahomet called the hill to come to him, again and again; and when the hill stood still, he was never a whit abashed, but said, If the hill will not come to Mahomet, Mahomet will go to the hill.]
'रामकृष्ण-विवेकानन्द अचिन्त्य-भेदाभेद वेदान्त परम्परा' में आधारित यही सच्ची शिक्षा और सच्चा धर्म है जिसे 'एक नया युवा आन्दोलन' का रूप देकर सम्पूर्ण भारत में फैला देना अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल का कार्य है! स्वामी विवेकानन्द कहते हैं,
"हम मनुष्यजाति को उस स्थान पर पहुँचाना चाहते हैं जहाँ न वेद है,न बाइबिल है,न कुरान है; परन्तु वेद, बाइबिल और कुरान के समन्वय से ही ऐसा हो सकता है। मनुष्यजाति को यह शिक्षा देनी चाहिये कि सब धर्म उस एकमेवाद्वितीय धर्म के भिन्न भिन्न रूप हैं, इसलिये प्रत्येक व्यक्ति उन धर्मों में से अपना मनोनुकूल मार्ग चुन सकता है। " 
[***'राजयोग -शिक्षा' में स्वामी विवेकानन्द कहते हैं," ओजस- प्रभामंडल ही मानव-जाति के किसी सच्चे मार्गदर्शक “नेता” (आध्यात्मिक शिक्षक) की पवित्र पहचान होती है। ओजस उन पवित्र व्यक्तित्व-सम्पन्न महापुरुषों का असंदिग्ध संकेत-चिन्ह (signpost) है जिनकी मिठास हमें बरबस ही अपनी ओर बिना किसी स्पष्ट कारण के ही आकर्षित कर लेती है। 
 " ओजस् उसे कहते हैं, जो एक मनुष्य को दूसरे से भिन्न बनाता है। जिस मनुष्य में विपुल ओजस् होता है, वह जननेता होता है। ओजस् प्रबल आकर्षण-शक्ति प्रदान करता है। ओजस् का निर्माण नाड़ीय प्रवाहों से होता है। इसकी विचित्रता यह है कि उसका निर्माण उस शक्ति द्वारा बड़ी सरलता से होता है, जिसकी अभिव्यक्ति यौन शक्ति में होती है। यदि यौन केन्द्रों की शक्तियों का व्यर्थ में क्षय और अपव्यय न हो, (भाव की स्थूलतर अवस्था ही क्रिया है) तो उनको ओज में परिणत किया जा सकता है।"]
स्वामी विवेकानन्द द्वारा निर्देशित इसी सर्वश्रेष्ठ समाजसेवा को भारत के गाँव-गाँव तक पहुँचा देने के लिये प्रयत्नशील है। आमतौर से प्रचलित समाज-सेवा जो किसी व्यक्ति,वर्ग, जाति,दल अथवा धर्म-विशेष के 'अमुक युवामंच' या क्लब के नाम पर की जाती है, उसके पीछे बहुधा अपने अहंकार को तुष्ट करने, नाम-यश पाने या दानशील कहे जाने, अथवा अपने निजी जीवन के गोरखधन्धों को छिपाने की कामना होती है। 
किन्तु उसी प्रकार का  एक दूसरा  समाज -सेवी संगठन बनाने के उद्देश्य से महामण्डल का आविर्भाव नहीं हुआ है। वर्तमान काल में, बहुधा विविध प्रकार के सामाज-सेवी संगठन या युवा-क्लब इसी तरह की मानसिकता के कारण एक ही झटके में खुल जाते हैं। "मेरे पास कितिनी धन-सम्पत्ति या जमीन- जायदाद है' उसमें से थोड़ा-बहुत  मैं गरीबों  या बिरहोर आदिवासियों को कुछ दान कर सकता हूँ", वे लोग भी क्या याद करेंगे कि कोई इतना दानी व्यक्ति भी है !"-यही वह मानसिकता है जो 'आत्मतुष्टी-करण एवं अहंकार का पोषण' करती है। 
इसीलिये तो इन दिनों सभी प्रकार की समाज-सेवा के कार्यों का, जिसमें 'डिस्ट्रीब्यूशन ऑफ़ रग्स' (कम्बल-वितरण) आदि शामिल हैं का -  इतना अधिक प्रचार -समाचारपत्र, रेडियो,टेलीविजन आदि में दिखाई देता है!  विविध क्लबों या संगठनों द्वारा कंबल-वितरण, या सड़क पर झाड़ू लगाने  जैसे सेवा कार्यों का प्रारम्भ किया जाता है तो टी. वी. पेपर में अपना नाम- फोटो छपवाने के लिये - पहले से ही प्रिन्ट मिडिया एवं एल्क्ट्रॉनिक मिडिया को बुलवा लिया जाता है । किन्तु स्वामी विवेकानन्द ने कभी इस प्रकार की समाज-सेवा करना नहीं सिखाया है। 

 [और प्रतिवर्ष इनकी संख्या में धीमी लेकिन स्थिर गति से बढ़ोत्तरी भी होती जा रही है। और सबसे बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि महामण्डल के केन्द्रीय मुख्यालय ने स्वयं किसी गाँव या कस्बे में जाकर इन केन्द्रों की  बुनियाद नहीं डाली है, बल्कि जो युवा महामण्डल द्वारा आयोजित  छह दिवसीय वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में, या राज्य-स्तरीय शिविरों में भाग लेते हैं, वे लौटने के बाद स्वतः प्रेरित होकर अपने अपने गांवों या शहरों में महामण्डल की शाखा स्थापित करते हैं। और इस कार्य में महामण्डल का केन्द्रीय मुख्यालय उन्हें हर सम्भव  की सहायता प्रदान करता है, तथा उचित मार्गदर्शन भी करता है। ] 
 [दूसरे शब्दों में लगातार प्रयास (पाँच कार्यों का अभ्यास) के द्वारा जिस इच्छाशक्ति का विकास और प्रकाश वश में लाया जाता है, और वह फलदायक होती है -अर्थात अब वह आध्यात्मिक शिक्षक /नेता  अपना " ईश्वरत्व कभी विस्मृत ही नहीं कर पाता  है"-- और इसी को शिक्षा कहते हैं।]
 "जिस प्रकार एक ही जल को कोई 'वारि' कहता है और कोई 'पानी', कोई 'वाटर' कहता है तो कोई 'एक्वा', उसी प्रकार एक ही सच्चिदानन्द को देश-भेद के अनुसार कोई 'हरि' कहता है तो कोई 'अल्लाह', कोई 'गॉड' कहता है तो कोई 'ब्रह्म'। "

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