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सोमवार, 15 अगस्त 2016

卐卐 18. 'युवाओं से अपेक्षा '- 'Work more than paid for'--Spirituality is the Law of Success' [एक नया युवा आन्दोलन -18.What is Wanted ]

'देश के युवाओं से क्या अपेक्षा की जाती है ? '
       [>>The Mahamandal is a working device to practice  the teachings of Swami Vivekananda. स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं का अभ्यास करने के लिए महामंडल एक कार्यशील उपकरण है।]
         इस बात को उच्च स्वर में और पूरे विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि महामण्डल का उद्देश्य और कार्यक्रम स्वयं स्वामी विवेकानन्द के द्वारा ही निर्धारित किया गया है। महामण्डल किसी एक (चतुर सुजान) व्यक्ति या कुछ बुद्धिमान व्यक्तियों की कल्पना से उपजा हुआ संगठन नहीं है। महामण्डल एक ऐसी कार्य युक्ति (working device) है जो न केवल भारत की पतनोन्मुखी गति को रोकने, बल्कि उसे सम्पूर्ण रूप से पुनरुज्जीवित करने में सक्षम स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं को कार्यरूप देने में लगी हुई है। स्वामी जी की यह तीव्र इच्छा थी,  कि भारत के सभी युवा आलस्य , निराशा , अवसाद और अपमानजनक विचारों को पीछे छोड़कर आगे आयें जो उनके अंग-प्रत्यंग को शक्तिहीन बना देती है, उनके कद को छोटा कर देता है और उनकी आत्मा को उत्साहहीन कर कर देता है।  
>>Waking dream of Swami Vivekananda: (स्वामी विवेकानंद का जाग्रत स्वप्न) 
         स्वामीजी चाहते थे कि भारत के युवा सभी सुस्ती, निराशा, निराशा और हर दूसरे अपमानजनक विचार को छोड़कर आगे आएं जो उनके अंगों को सुन्न कर देता है, उनके कद को छोटा कर देता है और उनकी आत्मा को नम कर देता है। हमारे देश में बहुत लम्बे समय से, विशेषकर विगत लगभग एक हजार वर्षों से ऐसा होता ही चला आ रहा था। स्वामी विवेकानन्द भारत के युवाओं को प्रेरित (आत्मविभोर) करने, उनमें एक नई भावना (प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है) पैदा करने, राष्ट्रीय जीवन को नये जोश से भर देने के लिये आये थे, ताकि हमारी मातृभूमि एक बार फिर श्रेष्ठता की उस ऊँचाई को छू ले, जिसके चकाचौंध कर देने वाली रौशनी के आगे इसके अतीत का गौरवशाली इतिहास भी मंद टिमटिमाते तारे जैसा प्रतीत होगा। ऐसे महिमामण्डित भारत को बनते हुए देखना स्वामी विवेकानन्द का स्वप्न था। लेकिन स्वामी विवेकानन्द के लिये यह जाग्रत स्वप्न था, जागते समय खुली आँखों से स्वप्न देखने जैसा था, उन स्वप्नों की तरह नहीं जो हम सोते समय नींद में देखते हैं। स्वामी विवेकानन्द इस लक्ष्य के प्रति (भारत को विश्वगुरु के आसन पर बैठे देखना के प्रति) हमेशा जागते ही रहते थे। वे कभी सोये नहीं थे। यह सपना बिल्कुल जीवन्त और सुस्पष्ट था और इसलिए वास्तव में यह सपना नहीं था, बल्कि यह एक ऋषि की दृष्टि थी। 
     स्वामी विवेकानन्द अपनी ऋषि-दृष्टि से अतीत के इतिहास को, बनते हुए इतिहास को और उस इतिहास को भी देखने में सक्षम थे, जो अभी भविष्य के गर्भ में है, जिसे बनना अभी बाकी है! उन्होंने ने स्वयं कहा था कि वे 1500 वर्ष बाद घटित होते हुए इतिहास को भी देखने में समर्थ थे।उन्होंने सम्पूर्ण मानवजाति को पूर्णता के पथ पर अग्रसर होते हुए देखा था, और उन्होंने यह भी देखा था कि भारत पुनः उन्नत हो रहा है, भारत माता जाग उठी है ! और ये भारत के युवा ही हैं, जो उसे फिर प्रतिष्ठित करेंगे। [ध्यातव्य - आज 2022 में रूस-यूक्रेन युद्ध और विश्व के दो तिहाई युवा जिनकी संख्या 80 करोड़ और औसत आयु 29 वर्ष है , भारत में ही निवास करती है।]      
>>The Mahamandal came into being to do a little like the squirrels who helped Sri Ramachandra (Sri Ramakrishna) to build the bridge to Lanka from the main land.
       जिस प्रकार, छोटी-छोटी गिलहरीयों ने भी 'मुख्य भूमि' से श्रीलंका तक पहुँचने के लिये पुल का निर्माण करने में श्रीरामचन्द्र जी की सहायता की थी, ठीक उसी प्रकार महामण्डल भी भारत के पुनरुत्थान (स्वर्णयुग की स्थापना) में थोड़ी सी सहायता पहुँचाने के उद्देश्य से अस्तित्व में आया है। जैसा स्वामी विवेकानन्द कहते थे, हम भारत के युवा अत्यन्त विनम्र लोग हैं, हमलोग साधारण मनुष्य हैं, किन्तु ये सामान्य लोग ही विश्व की सबसे शक्तिशाली प्राणियों का समूह हैं।  क्योंकि हम अपनी अन्तर्निहित अनन्त शक्ति में विश्वास करते हैं, और हम यह भी जानते हैं कि सभी प्रकार के भय (मृत्यु-भय) पर विजय कैसे प्राप्त किया जाता है ? महामण्डल यह भी जानता है कि युवा आदर्श स्वामी विवेकानन्द के आह्वान पर पूर्णत्व प्राप्त की दिशा में , अन्तर्निहित दिव्यता (निःस्वार्थपरता) को अभिव्यक्त करने की दिशा में  कैसे आगे बढ़ा जाता है? 
    >>We have a tendency nowadays to trifle with everything : 
          स्वामी विवेकानन्द की यह तीव्र इच्छा थी कि भारत के युवा मनुष्य बन जायें, और हम भारत के युवा 'मनुष्य' बनना चाहते हैं। यदि हमलोग भी भारतवर्ष को पुनरुज्जीवित करना चाहते हैं। तो हमें उन समस्त कारणों को अवश्य दूर करना चाहिये, जो हमारे वर्तमान अधःपतन के लिये उत्तरदायी है। और वे कारण क्या हैं ? कई कारणों में से एक  है, 'गंभीरता का आभाव '। स्वामी जी कहते हैं, "हमलोगों में आजकल यह प्रवृत्ति घर कर गयी है कि हमलोग हर बात को मजाक में उड़ा देना चाहते हैं, और किसी भी बात के महत्व को समझना नहीं चाहते।" हम लोग उस प्रत्येक परामर्श को बड़े हल्के ढंग से लेते हैं, जिसके आधार पर हमारे राष्ट्र का भविष्य निर्मित होने वाला है। हमलोग इस दुर्लभ मनुष्य जीवन के महत्व को समझना नहीं चाहते। हमलोग अपने आचरण, शिक्षा, अपने विचार और अन्य सभी जरुरी बातों को हल्के ढंग से ही लेते हैं। यही पहला कारण है जिसने देश को पतनोन्मुख बना दिया है। इसलिये हमे अब थोड़ी गंभीरता और विवेकशीलता का परिचय देना चाहिये। 
>>You can transcend your body and your mind.
     किन्तु गंभीर होने का अर्थ यह नहीं है कि हमें हर समय अपना मुखड़ा लटकाये रखना होगा। स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -'हर समय तुमलोग अपने चेहरे पर उदासी की परत मत चढ़ाये रहो। क्यों ? क्योंकि निरानन्द रहना तो तुम्हारा स्वभाव में है ही नहीं। तुम तो वीर हो ! असाधारण शक्तिसम्पन्न हो, बलशाली हो ,तुम तो 'भय-मुक्त' हो। दूसरों के कल्याण के लिए तुम अपना सब कुछ त्याग सकते हो ! तब तुम दूसरों की सेवा भी कर सकते हो। तुम इन्द्रिय विषयों को भोगने की लालसा पर विजय प्राप्त कर सकते हो। तुम इस जड़ शरीर और मन के परे जा सकते हो। देह और मन से ऊपर उठ जाना ही तो आध्यात्मिकता है! स्वामी विवेकानन्द भारत के युवाओं को यही आध्यात्मिकता विरासत में सौंप देना चाहते थे! क्योंकि तभी वे भारत का कल्याण करने के योग्य बन सकेंगे। 
  >>Deluge the country with spiritual ideas first of all. 
  इसीलिये तो उन्होंने कहा था, 'सबसे पहले इस देश को आध्यात्मिक विचारों से आप्लावित कर दो !' किन्तु (स्वाधीनता प्राप्ति के बाद) हमलोगों ने सबसे पहले ठीक इसका उल्टा किया है। 
हमलोगों ने आध्यात्मिक सिद्धान्तों (चार महावाक्यों) और आध्यात्मिकता विकसित करने की प्रणाली-(चरित्रनिर्माण की पद्धति या 3H विकास के 5 अभ्यास की पद्धति) को ही अलमारी में बन्द करके उस पर ताला लगा दिया है। भारत का कल्याण करने के लिए स्वामीजी के परामर्श के अनुसार, "भारत को सबसे पहले आध्यात्मिक विचारों से आप्लावित करने "  के बजाए हमने समाज के कल्याण के लिए कई  योजनाएं और कार्यक्रम तैयार किए हैं। हमें उन योजनाओं पर बहुत गर्व भी है कि हमने ऐसा (20 सूत्री, मनरेगा,food security bill, RTI आदि ) कर दिया है।  हम इन योजनाओं पर सैकड़ों और हजारों करोड़ रूपये प्रतिवर्ष खर्च करते हैं, फिर भी हम देखते हैं कि उसका लाभ भारत के करोड़ों निर्धन-गरीबों और दबे-कुचले आबादी तक नहीं पहुँच पाता है। वे भूख से मर जाते हैं,या उन्हें असह्य तकलीफ झेलनी पड़ती है। हमलोग स्वयं को शिक्षित तथा बुद्धिमान समझते हैं, लेकिन उन्हें (पार्थो चटर्जी जैसे राजनीतिज्ञों को) धोखा देने की अनुमति दे रखी है और हम लगातार ठगे जा रहे हैं।   
       >>'Rejuvenate India by infusing it with spirituality' ( 'भारत को आध्यात्मिकता से आप्लावित करके पुनरुज्जीवित कर दो !)
क्योंकि हम देश की समस्याओं को उसके सही कारणों के परिप्रेक्ष्य में रख कर देखना नहीं जानते। हमें तो इसका एहसास भी नहीं होता, कि जिन आपदाओं को, दुःख-कष्टों को हम झेल रहे हैं, वह हमारी ही लापरवाही, हमलोगों की गंभीरता में कमी, जनसामान्य के लिये हमारे प्रेम में कमी, सर्वसाधारण के लिये हमारी त्याग की भावना में कमी, हमारे चरित्र में सेवापरायणता आदि के गुणों का अभाव, एवं हमारी घोर स्वार्थपरता के कारण है । सीधे शब्दों में कहें, तो हम लोग अपने (जड़) शरीर और मन के गुलाम बन गए हैं। हम अपनी इन्द्रियों के माध्यम से केवल शारीरिक सुख और आराम का भोग करना चाहते हैं।  स्वामी विवेकानन्द ने हमलोगों को देह और मन की इन सभी निम्न स्तर की तृष्णाओं से ऊपर उठ जाने का निर्देश दिया है। इनसे ऊपर उठ जाना आध्यात्मिकता (spirituality) है।  वे चाहते थे कि इस आध्यात्मिकता को भारतवर्ष में फिर से पुनरुज्जीवित कर दिया जाय। वे चाहते थे कि हम अपने दैनन्दिन जीवन में इस आध्यात्मिकता का अभ्यास करें। वे गीता-उपनिषद के महान विचारों को हल चलाने वालों, मछुआरों , गृहस्थों, श्रमिकों- समाज के सभी वर्गों तक पहुँचा देना चाहते थे। यही उनका उद्देश्य था और महामण्डल उसी उद्देश्य को कार्यरूप देने के क्षेत्र में कार्य करना चाहता है। 
          यह एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी (Task) है, एक बहुत बड़ा कार्य है, और हमें इस कार्य को अवश्य करना चाहिए। भारत के सभी युवाओं को इस कार्य को पूरा करने के लिये कमर कस कर खड़े हो जाना चाहिये। युवाओं (यविष्ठ) के आलावा और कौन इस जिम्मेवारी  (Task) को पूरा करने में समर्थ हो सकता है ? बुजुर्ग, दुर्बल, कमजोर या 'sleeping minds ' जिनका मन अभी तक सोया हुआ है, वे भी इस कार्य को नहीं कर सकते। भारत के सम्पूर्ण पुनरुत्थान के इस महान कार्य को सिर्फ वैसे भारतीय युवा ही पूर्ण कर सकते हैं, जिनके पास बलवान शरीर, उन्नत मन और एक विशाल हृदय है, जो ऊर्जा से भरपूर हैं, साथ ही जिनमें अनुशासन, गम्भीरता और प्रेम की भावना भी हैं। 'भारत को आध्यात्मिकता से आप्लावित करके पुनरुज्जीवित कर देना ' --युवाओं के करने योग्य यही सबसे महान कार्य है ! 
 >>Two ways of doing something.
        किसी भी कार्य को करने के दो तरीके हैं। एक है,'नाम-यश' पाने की इच्छा से काम को बड़े ताम-झाम के साथ आडम्बर-पूर्ण तरीके से, बड़ी-बड़ी योजनाओं के साथ, एक बहुत बड़ी राशि आदि खर्च करते हुए करना। और दूसरा तरीका है, यशगान सुनने या कुछ पाने की अपेक्षा रखे बिना कार्य को इतने सादगीपूर्ण तरीके से करना कि उस कार्य की तरफ लोगों का ध्यान भी न जाये। किसी बड़े लक्ष्य को प्राप्त करने के कार्य को हमलोग अपने दैनन्दिन जीवन के कार्यों को करते हुए, किसी छोटे संगठन के माध्यम से बहुत सादगी के साथ भी सम्पन्न कर सकते हैं । महामण्डल की कार्य-पद्धति भी यही है। भारत को पुनरुज्जीवित करने में समर्थ स्वामी विवेकानन्द के विचारों को अपने आचरण में रूपान्तरित कर लेना ही महामण्डल का लक्ष्य है। 
         >>Mahamandal  has one merit- 'A fund of will ':   
     महामण्डल अपने लिए नाम या प्रसिद्धि नहीं चाहता, सम्पत्ति अर्जित नहीं करना चाहता, किसी के भी द्वारा अपना यशगान सुनने या प्रशंसा प्राप्त करने की कामना नहीं करता, या बड़ी धनराशि भी नहीं जुटाना चाहता है । महामण्डल की एक खूबी है- 'इच्छाशक्ति का कोष'   हमारे कुछ युवा कर्मियों के 'दृढ़ संकल्पों का संचित कोष'। वे कोई गणमान्य व्यक्ति नहीं हैं, उनके पास बहुत बड़ी- बड़ी डिग्रियाँ भी नहीं हैं, वास्तव में वे बिल्कुल सामान्य लोग हैं। बस उनका केवल यह दृढ़ संकल्प है - " हम स्वामी विवेकानन्द की शिक्षाओं को अपने आचरण में रूपायित करेंगे, हमलोग पूरे देश का सम्पूर्ण रूप से पुनरुत्थान करेंगे! " सबसे पहले हम पवित्र बनेंगे। हमारी साधनायें  पवित्र होंगी, हमारी योजनायें पवित्र होंगी , हमारा उद्देश्य पवित्र होगा, हमारी कार्यपद्धति पवित्र होगी। इसी पवित्रता को सम्बल बना कर हम आगे बढ़ेंगे और स्वामी विवेकानन्द विचारों (महावाक्यों) को आचरण में उतार कर पूरे भारतवर्ष को पुनरुज्जीवित करेंगे। यह महान कार्य हम कैसे करेंगे ? हमें बड़े कार्यक्रमों या विशाल प्रचार-तंत्र की जरूरत नहीं है, जिस पर आजकल लोग अधिक विश्वास करते हैं , और झट से आकर्षित हो जाते हैं। बल्कि यह कार्य देशवासियों के प्रति अटूट प्रेम, आदर्श और उद्देश्य के प्रति अटल विश्वास तथा इन्हें कार्यान्वित करने के दृढ़ संकल्प के द्वारा ही सम्पन्न हो सकता है। महामण्डल यही करने का प्रयास (55 वर्षों से) कर रहा है।         
         >>The nation can be raised only by men of character.[राष्ट्र का उत्थान केवल चरित्रवान मनुष्यों के द्वारा ही हो सकता है।] 
    'हमारा यह महान देश विभिन्न कारणों से पतन की ओर अग्रसर है।' क्या हम इसको सहन कर सकते हैं ? क्या भारत के युवा ऐसा होने दे सकते हैं ? हम इसे रोक सकते हैं और कुछ ऐसा कर सकते हैं जो अधोपतन की प्रक्रिया को उल्टा घुमा दे। ऐसा हमलोग किस प्रकार कर सकते हैं?  हमलोग केवल अपने जीवन को सुन्दर ढंग से गठित करके, केवल अपने चरित्र का निर्माण करके ही इस कार्य को कर सकते हैं ! क्योंकि राष्ट्र का उत्थान केवल चरित्रवान मनुष्यों के द्वारा ही हो सकता है। यदि हमारे भीतर चरित्र की शक्ति है, तो हमारा जो भी संकल्प हो उसे हम अवश्य प्राप्त कर सकते हैं। 
            >>Character is the capacity to overcome all misery.  
              यह चरित्र क्या है ? यह विवेक पूर्वक निर्णय लेने, और उसे अमल में उतारने की  इच्छाशक्ति है। यह केवल अपने क्षुद्र-स्वार्थ को पूरा करने की इच्छाशक्ति नहीं, बल्कि सबों का कल्याण करने की इच्छाशक्ति है। जो हमें 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना से जोड़ती है, और हमें संसार के सभी मनुष्यों की मंगल कामना में विभोर रखती है। इसीको चरित्र कहते हैं। चरित्र वह वस्तु है जो दैहिक सुख-भोग की इच्छा, इन्द्रियों के तुष्टिकरण की इच्छा और कामना-वासना के आवेग पर विजय प्राप्त के लेने की क्षमता प्रदान करती है। यह है चरित्र। दूसरों के कल्याण के लिये स्वयं कष्ट उठाने की क्षमता को चरित्र कहते हैं। सभी प्रकार की दयनीयता (misery या अभाग्य) पर विजय प्राप्त कर लेने की क्षमता का नाम है-चरित्र।  ये कुछ ऐसी चीजें हैं, जिन्हें साथ-साथ मिलाकर चरित्र के नाम से जाना जाता है। चरित्रवान मनुष्य बनने का अर्थ इन सभी गुणों से विभूषित हो जाना है। चरित्रवान मनुष्य बनने का यही अर्थ होता है। 
     जब तक हम स्वयं इस तरह के चरित्रवान-मनुष्य नहीं बन जाते, तब तक क्या हम किसी भी समस्या को हल कर सकते हैं? क्या हम सचमुच दूसरों की मदद कर सकते हैं, क्या हम सचमुच समाज की सेवा कर सकते हैं ? नहीं, हम नहीं कर सकते। इसीलिये यदि हमलोग राष्ट्र के कल्याण के लिए कार्य करना चाहते हों, तो सबसे पहले हमें अपने चरित्र का निर्माण अवश्य करना चाहिये।
यदि हम अपना सुंदर चरित्र गढ़े बिना ही समाज-सेवा करने, गरीबों और अशिक्षितों की मदद करने जायेंगे, तो हमारे सभी प्रयास अन्ततोगत्वा व्यर्थ सिद्ध होंगे। क्योंकि यदि चरित्रहीन मनुष्य लोगों की सेवा करेंगे तो हो सकता है कि जिन अभावग्रस्त लोगों की सेवा करने वे गए हैं, उनका अभाव कुछ समय के लिए दूर हो जाये, या कुछ दिनों के लिये उनकी भूख शांत हो जाये, या हो सकता है कि उस गाँव के लोग समाचार-पत्र और पुस्तक पढ़ने में सक्षम हो जायें, या सामान्य पत्राचार करना भी सीख लें, किन्तु अन्ततः उन्हीं चरित्रहीन समाजसेवकों की भाँति- वे लोग स्वयं भी चरित्रहीन मनुष्य (पार्थो -इरफ़ान) ही बने रहेंगे। वे वहाँ भी उसी प्रकार का हर काम करेंगे जो समाज की भलाई के अनुकूल तो नहीं ही हों, बल्कि अशोभनीय भी हों। वे वहाँ भी ऐसी चीजों को उत्पन्न कर देंगे, जो समाज के लिए हानिकारक होगा।
          जनता का पैसा उड़ाया जा रहा है। रिश्वतखोरी का बोलबाला है। अधिकांश लोग यही चाहते हैं कि उसे कम काम करना पड़े, उसके ऊपर कोई उत्तरदायित्व न हो पर कमाई इतनी अधिक हो कि वह आराम से सुख-भोग करता रहे। जनसंचार माध्यम, साहित्य, शिक्षा - चाहे घर में हो या संस्थानों में, वे भी जिन्हें घर-समाज का अभिभावक समझा जाता है, सभी अपनी निम्नतर  वासनाओं को ही संतुष्ट करने में व्यस्त दिखाई देते हैं। समाज के नामी-गिरामी कहे जाने वाले व्यक्तियों के जीवन में लालच और लोभ को बढ़ता देखकर किशोरों, युवाओं में भी स्वार्थपरता की भावना बढ़ती जा रही है। ऐसी स्थिति केवल हमारे देश में ही नहीं है। हर जगह की स्थिति ऐसी ही है। 
        >>आध्यात्मिक-क्षमता का प्रयोग :We must 'learn to do more than paid for '.
किन्तु, इस संधिबेला में जब हमें एक विकसित राष्ट्र के रूप में अपनी पहचान बनानी है,
(इक्कीसवीं सदी में-जब भारत विश्व का केन्द्र बनने जा रहा है), हम इस सर्वनाशी भोग-विलास को और बर्दाश्त नहीं कर सकते। जनसाधारण के चिरकालीन अज्ञान और दरिद्रता दूर करने के लिये, हमें भारत का पुनर्निर्माण युवाओं के चरित्र निर्माण की चट्टानी बुनियाद पर ही करना होगा। हमारे पास सही ढंग से सोच-विचार करने या विवेक-प्रयोग करने की क्षमता नहीं है। हमने वह क्षमता खो दी है। बस हम भेड़ों के झुण्ड की तरह भाग रहे हैं , जिसका उल्लेख स्वामी विवेकानन्द ने अपनी सिंह -शावक की कथा में बार-बार किया था।  
     बेशर्म लोग कम विशेषाधिकार प्राप्त साधारण जनता की कीमत पर अपने क्षुद्र स्वार्थों, को पूरा करने में लगे हुए हैं। और साधारण जनता जिनके पास सही शिक्षा और समझ की कमी हैं, वे सोचते हैं- ये लोग उनकी मदद करने के लिये काम कर रहे हैं। वे अक्सर उन उन तथाकथित जनसेवकों का अनुसरण करते हैं और धीरे-धीरे अपने चरित्र को खो देते हैं , भ्रष्ट हो जाते हैं, यहाँ तक कि ऐसे युवा अपने काम करने की क्षमता भी खो देते हैं। हमारा देश तो कठोर परिश्रम करना ही भूल गया है। जबकि दूसरे देशों के लोग क्या कर रहे हैं ? यहाँ हमलोग सिर्फ दूसरे देशों के लोगों की प्रशंसा करने नहीं जा रहे हैं, किन्तु लगभग हर जगह के पश्चमी लोग अधिक कर्मशील (hardworking) लोग हैं। यह परिश्रमशीलता या कर्मठता हमें भी सीखनी होगी।अर्थात हमलोगों को भी जीवन के सफल होने के 16  नियमों में से एक नियम -We must 'learn to do more than paid for '-" भुगतान की तुलना में अधिक कार्य करना " सीखना होगा। 
          जैसे मानलो कि मैं किसी  फैक्ट्री में आठ घंटे काम करता हूँ, और प्रति दिन किसी उत्पाद के सात पीस बनाने का काम करता  हूँ, और मुझे एक निश्चित राशि के रूप में वेतन मिलता है। यदि मैं अपनी मिहनत से एक दिन में बारह पीस निकाल देता हूँ, तो मुझे बड़ा सन्तोष मिलता है। यदि मैं बारह पीस की बजाय चौदह पीस निकाल देता हूँ, तो मुझे अलग से प्रोत्साहन भत्ता (incentive bonus) भी मिलता है। किन्तु मुझे स्वयं से यह प्रश्न करना चाहिये कि " क्या मैं पंद्रह या सोलह पीस नहीं निकाल सकता ? और अपने लिए तय की गई मासिक भुगतान के अतिरिक्त राशि बोनस के रूप में पाने के अपने दावे को क्या मैं नहीं छोड़ सकता ? हाँ, मैं यह कर सकता हूँ, और अवश्य करूंगा।
     हाँ , यह ठीक है कि मैं अपने काम से अपनी आजीविका कमाता हूँ। लेकिन मेरा देश भी मेरे सामने है। मैं अपने देश के कल्याण में भी अपना योगदान दे सकता हूँ। यह ठीक है कि मैं इस फैक्ट्री में काम करता हूँ, किन्तु जिन वस्तुओं का उत्पादन मैं करता हूँ, उससे मेरा देश भी तो समृद्ध बनता है। इस काम को करने से मेरी जितनी कमाई हो जाती है, उतना मेरे  परिवार के भरण-पोषण के लिए काफी है। उतना पर्याप्त है। किन्तु, यदि मैं अपनी मिहनत से एक दिन में पंद्रह पीस का उत्पादन करने में सक्षम हूँ, तो मुझे सिर्फ अपनी मजदूरी कमाने के लिए दस पीस बनाने के बाद उत्पादन-कार्य को रोक क्यों देना चाहिये ?  
           >>Spiritual capacity can be used everywhere:
क्या मैं अपने श्रम के माध्यम से, अपने राष्ट्र के लिए कुछ योगदान नहीं कर सकता, भले इस शर्म के एक हिस्से के लिए मुझे अतिरिक्त राशि नहीं मिले ? मेरे देश के कई लोग बेरोजगार हैं, उन्हें भी पैसों की जरुरत है। मेरे द्वारा अतिरिक्त उत्पादन किये जाने से देश आय में कुछ वृद्धि अवश्य होगी, जिसे उनके लिए रोजगार पैदा करने हेतु वापस निवेश किया जा सकता है। क्या मैं अपनी परिस्थिति के साथ उन बेरोजगारों की परिस्थिति की तुलना नहीं कर सकता ? [अपने दिल से जानो दूसरों के दिल का हाल। ] इसी को तो आध्यात्मिक क्षमता कहते हैं ! और आध्यात्मिक क्षमता ( spiritual capacity) का प्रयोग हर जगह किया जा सकता है।  जैसे मान लो कि- मैं एक शिक्षक हूँ, और किसी स्कूल में चार घन्टे पढ़ाता हूँ, तो मुझे वेतन के रूप में एक निश्चित राशि प्राप्त होती है। अब यदि स्कूल में पढ़ाये जाने वाले विषय को सिलेबस के अनुसार चार घन्टे तक पढ़ा देने के बाद, यदि मैं छात्रों के साथ क्लास में एक घन्टा अधिक बैठकर उन्हें कुछ ऐसे उन्नत विचार बतलाने की चेष्टा करूँ जिससे वे अपने जीवन और चरित्र का निर्माण कर सकें, तो ऐसा करके मैं सचमुच अपने देश की सेवा में बहुत बड़ा योगदान दूँगा। 
या मान लो कि मैं किसी अस्पताल में डॉक्टर हूँ।  मैं जब अस्पताल जाता हूँ, तो मेरे काम के निश्चित घन्टे होते हैं। मान लो मैं रोजाना सौ लोगों का इलाज करता हूँ, जिसके लिए मुझे मेरा वेतन मिल रहा है। क्या मैं एक घन्टा और काम नहीं कर सकता और दस गरीब लोगों का इलाज नहीं कर सकता ? किन्तु हम लोग वैसा नहीं करते हैं।स्वामी विवेकानन्द ने कहा था -  " जब तक करोड़ों अशिक्षित रहेंगे और भूखों मरते रहेंगे, तब तक मैं उस प्रत्येक आदमी को देशद्रोही (traitor) समझूंगा, जो उनके खर्च पर शिक्षित हुआ है, किन्तु उन पर तनिक भी ध्यान नहीं देता। "३/३४५  आज हमारे देश के अधिकांश शिक्षित लोग क्या इसी श्रेणी में नहीं आते ? 
         क्या आज का युवा शिक्षित होने के बाद भी एक देशद्रोही (traitor) बनना चाहेगा ?  स्वामी विवेकानन्द ने इस प्रकार की शिक्षा को व्यर्थ कहा था और इसे रोकने का आह्वान किया था।महामण्डल भी ऐसी शिक्षा पर अंकुश लगाना चाहता है। थोड़ा सा किताबी ज्ञान प्राप्त करते ही, हम लोग सोचने लगते हैं, कि 'मैं तो सचमुच में सुशिक्षित मनुष्य बन गया हूँ, मुझे असली शिक्षा प्राप्त हो चुकी है। किन्तु सच्ची शिक्षा की पहचान यह कि वह तुम्हारे ह्रदय को विस्तृत करेगी, तुम्हारे शरीर और मन को शक्तिशाली बना देगी!
        >>The Benediction: Become a serious and hard-working, heart-whole man.
        अपने देश से प्यार करो, अपने देशवासियों को प्यार करो। अपने भाइयों से प्यार करो, देशवासियों की रगों में बह रहे अपने ही खून प्रेम करो। स्पष्ट रूप से विवेक-विचार करो, कठोर परिश्रम करो। मनुष्य बनो और दूसरों को भी मनुष्य बनने में सहायता करो ! अपने मन को नियंत्रित करने की तकनीक  (trick) को सीख लो। राष्ट्र की मूल समस्या पर , और अपने जीवन की छोटी छोटी समस्याओं पर अपने मन को एकाग्र करो। उन समस्याओं के मूल कारण  को ढूंढ़ निकालो, और दृढ़ निश्चय तथा दृढ़ संकल्प के साथ उसका समाधान करो , और एक गंभीर, परिश्रमी तथा किसी प्रकार की आसक्ति से आजाद (दिलबस्तगी से आजाद) एक 'heart-whole man ' पूर्णहृदयवान मनुष्य (100 %निःस्वार्थी) बन जाओ ! देशवासियों के विषय में सोचो और अपने देश को उन्नत करो। स्वामी विवेकानन्द भारत के युवकों से यही चाहते थे, और विवेकानन्द युवा महामण्डल भी यही अपेक्षा रखता है। स्वामी विवेकानन्द का जो आदर्श और उद्देश्य है ,हमलोग उसी आदर्श और उद्देश्य को अपने आचरण में रूपायित करना चाहते हैं।और हमें इस कार्य को अवश्य करना चाहिये। 
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भारत के युवाओं का कर्तव्य 
>>" आज तो समस्त संसार आध्यात्मिक सहायता के लिये भारत-भूमि की ओर ताक रहा है, और भारत को ही यह (विद्या) प्रत्येक राष्ट्र को देना होगा। प्रत्येक व्यक्ति को यह भली भाँति समझ लेना चाहिये कि जब तक हम अपनी वासनाओं पर विजय नहीं प्राप्त कर लेते , तब तक हमारी किसी प्रकार मुक्ति सम्भव नहीं। जो मनुष्य प्रकृति का दास है , वह कभी मुक्त नहीं हो सकता। यह महान सत्य - " निवृत्ति अस्तु महाफला " आज संसार की सब जातियाँ धीरे धीरे समझने लगीं हैं तथा उसका आदर करने लगी हैं। जब शिष्य इस सत्य की धारणा के योग्य बन जाता है, तभी उस पर गुरु की कृपा होती है। आज कितनी ही पाश्चात्य जातियाँ हमारे पास आध्यात्मिक सहायता के लिये आ रही हैं। आज भारत की सन्तान के ऊपर यह महान नैतिक दायित्व है कि वे मानवीय अस्तित्व की समस्या के विषय में संसार के पथ-प्रदर्शन के लिए अपने को पूरी तरह तैयार कर लें।" (पांबन भाषण ५ /३६)  
उच्चतम से निम्नतम तक जनता की विशाल राशि अपनी अनिवार्य जीवनधारा का अनुगमन करने के लिए मुक्त रही है, और राष्ट्रिय जीवनधारा कभी मन्द और अर्धचेतन गति से और कभी प्रबल और प्रबुद्ध गति से प्रवाहित होती रही है। उन बीसों ज्योतिर्मय शताब्दियों की अटूट शृंखला के सम्मुख मैं तो विस्मयाकुल -खड़ा हूँ; जिनके बीच यहाँ- वहां एकाध धूमिल कड़ी है, जो अगली कड़ी को और भी अधिक ज्योतिर्मय बना देती है।  मेरी यह जन्म-भूमि अपने यशोपुरित लक्ष्य- " पशु-मानव को देव-मानव में रूपांतरित करने की सिद्धि" के लिये अपने सहज महिमामय पदक्षेप के साथ निरंतर प्रगतिशील है !
         हाँ, मेरे बन्धुओं , यही गौरवमय भाग्य हमारे देश का है ! क्योंकि हमने उपनिषद-युगीन सुदूर अतीत में , हमने इस संसार को चुनौती दी थी - " न प्रजया न धनेन त्यागेनैके अमृतत्वं आनशुः। " --न तो संतति द्वारा और न सम्पत्ति द्वारा, वरन केवल त्याग द्वारा ही अमृतत्व की उपलब्धि होती है।  एक के बाद दूसरी जाति ने इस चुनौती को स्वीकार किया। ....  संसार की इस पहेली को कामनाओं के स्तर पर सुलझाने का प्रयत्न किया। वे सबकी सब अतीत में तो असफल रही हैं -पुरानी जातियां तो शक्ति और स्वर्ण की लोलुपता से उद्भूत पापाचार और दैन्य के बोझ से दबकर पीस-मिट गयी, और नयी जातियां गर्त में गिरने को डगमगा रही हैं। इस प्रश्न का हल करने के लिए अभी शेष ही है कि शान्ति की जय होगी युद्ध की ? सहिष्णुता (टॉलरेन्स) की विजय होगी या असहिष्णुता (इनटॉलरेन्स)  की ? शुभ की विजय होगी अशुभ की ? शरीर की विजय होगी या बुद्धि की ? सांसारिकता की विजय होगी या आध्यात्मिकता की ? हमने तो युगों पहले इस प्रश्न का अपना हल ढूँढ लिया था, और हमारा समाधान है - असंसारिकता, त्याग ! 
"त्याग और सेवा " ही भारत के राष्ट्रिय आदर्श हैं -भारतीय जीवन-रचना का यही प्रतिपाद्य विषय है, उसके अस्तित्व का यही मेरुदण्ड है, उसके जीवन की यही आधारशिला है,  भारत के अस्तित्व का एकमात्र हेतु है - मानवजाति का आध्यात्मीकरण ! 
      अपने इस लम्बे जीवन -प्रवाह में ( जीवन नदी के हर मोड़ पर ) भारत अपने इस मार्ग से कभी कभी भी विचलित नहीं हुआ , चाहे ततारों का शासन रहा हो चाहे तुर्कों का, चाहे मुगलों ने राज्य किया हो और चाहे अंग्रेजों ने!   (विश्व को भारत का सन्देश - ९/२९९) 
 इसीलिये उन्होंने कहा था -" आर्यों के हे पावन देश ! तू कभी पतित नहीं हुआ।  राजदण्ड टूटते रहे और फेंक दिए जाते रहे हैं, शक्ति का कंदुक एक हाथ से दूसरे हाथ में उछलता रहा है, पर भारत में राजदरबारों और राजाओं का प्रभाव सर्वदा थोड़े से लोगों को (लालबत्ती गाड़ियों की चाटुकारिता करने वाले थोड़े से छुटभइये नेताओं को ) ही छू सका है।  
     
        वे २० अगस्त १८९३ को अलासिंगा को लिखे अपने पत्र में स्वामी विवेकानन्द कहते हैं, " जाड़े का मौसम आ रहा है। मैं इस देश में भूख या जाड़े से भले ही मर जाऊँ, परन्तु, युवकों ! मैं गरीबों, मूर्खों और उत्पीड़ितों के लिये इस सहानुभूति और प्राणपण प्रयत्न को थाती के तौर पर तुम्हें अर्पित करता हूँ! जाओ, इसी क्षण जाओ उस पार्थसारथी के मंदिर में , जो गोकुल के दिन-हीन ग्वालों के सखा थे, जो गुहक चाण्डाल को भी गले लगाने से नहीं हिचके, जिन्होंने अपने बुद्धावतार-काल में अमीरों का निमंत्रण अस्वीकार कर एक वारांगना के भोजन का निमंत्रण स्वीकार किया और उसे उबारा। जाओ उनके पास, जाकर साष्टांग प्रणाम करो और उनके सम्मुख एक महा बलि दो, अपने जीवन की बलि दो -उन दीन-हीनों और उत्पीड़ितों के लिये, जिनके लिये भगवान युग युग में अवतार लिया करते हैं, और जिन्हें वे सबसे अधिक प्यार करते हैं। और तब शपथ लो - कि तुम अपना सारा जीवन इन तीस करोड़ (आज सवा-सौ करोड़) लोगों के उद्धार-कार्य में लगा दोगे, जो दिनोंदिन अवनति के गर्त में गिरते जा रहे हैं। यह एक दिन का काम नहीं, और रास्ता भी अत्यन्त भयंकर कंटकों से आकीर्ण है। परन्तु पार्थसारथी हमारे भी सारथी होने के लिये तैयार हैं - और  हम यह जानते हैं। 
उनका नाम लेकर और उनपर अनन्त विश्वास रख कर (किनका नाम ? जो पहले राम बने थे, फिर कृष्ण बने थे और अभी विवेकानन्द के गुरु श्रीरामकृष्ण बने हैं; किन्तु उनके वेदान्त की दृष्टि से नहीं-साक्षात्!)   भारत के युगों से संचित (विगत हजार वर्षों से संचित) पर्वताकाय अनन्त दुःख राशि में आग लगा दो --वह जलकर राख हो ही जायेगी। तो आओ भाइयों, साहस पूर्वक इसका सामना करो। कार्य गुरुतर है और हमलोग साधनहीन हैं। तो भी हम अमृतपुत्र और ईश्वर की सन्तान हैं। प्रभु की जय हो, हम अवश्य सफल होंगे। इस संग्राम में सैंकड़ों खेत रहेंगे, पर सैंकड़ों पुनः उनकी जगह खड़े हो जायेंगे। सम्भव है कि मैं यहाँ विफल होकर मर जाऊँ, पर कोई और यह काम जारी रखेगा। तुम लोगों ने रोग जान लिया है और दवा भी, अब बस, विश्वास रखो। 
लाखों स्त्री-पुरुष पवित्रता के अग्निमन्त्र (???) से दीक्षित होकर, भगवान के प्रति अटल विश्वास से शक्तिमान बनकर और गरीबों, पतितों तथा पददलितों के प्रति सहानुभूति से सिंह के समान साहसी बनकर इस सम्पूर्ण भारत देश के एक छोर से दूसरे छोर तक सर्वत्र उद्धार के सन्देश, सेवा के सन्देश, सामाजिक उत्थान के सन्देश और समानता के सन्देश का प्रचार करते हुए विचरण करेंगे। "
" भगवान की इच्छा है कि भारत में हमसे बड़े बड़े कार्य सम्पन्न होंगे। विश्वास करो, हमीं बड़े बड़े काम करेंगे। हम गरीब लोग -जिनसे लोग घृणा करते हैं, पर जिन्होंने मनुष्य का दुःख सचमुच दिल से अनुभव किया है। राजे-रजवाड़ों से बड़े बड़े काम बनने की आशा बहुत कम है।" (" वी आर पुअर, मायी ब्रदर्स , वी आर नोबॉडीज, बट सच हैव बीन ऑलवेज दी इंस्ट्रूमेंट्स ऑफ़ दी मोस्ट हाई.")  
स्वामी विवेकानन्द ने भविष्यवाणी करते हुए कहा था- " लाखों स्त्री-पुरुष पवित्रता के अग्निमन्त्र से दीक्षित होकर, भगवान (श्रीरामकृष्ण परमहंस) के प्रति अटल विश्वास से शक्तिमान बनकर और गरीबों, पतितों तथा पददलितों के प्रति सहानुभूति से सिंह के समान साहसी बनकर, इस सम्पूर्ण भारत देश के एक छोर से दूसरे छोर तक सर्वत्र उद्धार के सन्देश, सेवा के सन्देश, सामाजिक उत्थान के सन्देश और समानता के सन्देश का प्रचार करते हुए विचरण करेंगे।"  
[नेपोलियन हिल की पुस्तक प्रसिद्द पुस्तक 'Law of Success' के अनुसार यह 'Work more than paid for'' -- सफलता प्राप्त करने का विज्ञान-सम्मत नियम' है जो वेदान्त के आध्यात्मिक पहलु (चार महावाक्यों) पर आधारित है, तथा यह नियम भी 'Newton's Law of Motion' या 'Law of Gravitation' के जैसा व्यावहारिक जीवन के हर क्षेत्र में कार्य करती  है!]
`स्वामी विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा (या अचिन्त्य-भेदाभेद परम्परा- "ईश्वर एक साथ अपनी रचना के साथ एक और अलग भी है") में आधारित महामण्डल का यह 'नया युवा आन्दोलन' - किसी एक चतुरसुजान व्यक्ति या कुछ बुद्धिमान व्यक्तियों की कल्पना से उपजा हुआ संगठन नहीं है !
कबीर भजन : 'निगुरे नहीं रहना'
सुन लो चतुर सुजान निगुरे नहीं रहना..
निगुरे का नहीं कहीं ठिकाना चौरासी में आना जाना।
पड़े नरक की खान निगुरे नहीं रहना..
गुरु बिन माला क्या सटकावे मनवा चहुँ दिश फिरता जावे।
यम का बने मेहमान निगुरे नहीं रहना..सुन लो..
हीरा जैसी सुंदर काया हरि भजन बिन जनम गँवाया।
कैसे हो कल्याण निगुरे नहीं रहना..सुन लो..
निगुरा होता हिय का अंधा खूब करे संसार का धंधा।
क्यों करता अभिमान निगुरे नहीं रहना। 
सुन लो चतुर सुजान निगुरे नहीं रहना। 
[note: Two more chapters may be included in this book from ' Swami Vivekananda aur hmari sambhavna'  SV-HS  [73] भविष्य का भारत और श्रीरामकृष्ण/' & " प्रलय या गहरी समाधि "/ [ ***22 परिप्रश्नेन] लेख पर आधारित. 
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