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शनिवार, 6 अगस्त 2016

卐卐 12. अत्यावश्यक समाज-सेवा क्या है ? [एक नया आन्दोलन -12.'What is Essential ']

अत्यावश्यक समाज सेवा क्या है ? 

            
कोई अकेला व्यक्ति दूसरों के कल्याण के लिये कुछ कार्य कर सकता है। या कोई संगठन भी जनसाधारण की भलाई के लिये, कुछ अच्छे कार्यों को करने का जिम्मा ले सकता है। वे सभी कार्य बहुत लाभदायक भी हो सकते हैं। इस तरह के कार्यों से बहुत सारे लोगों को कुछ न कुछ लाभ अवश्य उठा सकते हैं। किन्तु कुछ कार्य ऐसे भी होते हैं जो उतने स्पष्ट रूप से दिखाई नहीं देते, इस तरह के कार्यों से मिलने वाले लाभ पर भी सबों की दृष्टि नहीं जाती। तथापि उसका प्रभाव बहुत दूरगामी हो सकता है, और यह भी सम्भव है कि इस प्रकार के कार्यों को सम्पन्न किये बिना, दूसरे हितकारी कार्य भी अन्ततोगत्वा कोई स्थायी परिणाम न दे सकें। बहुत से लोग तो यह 
जानने की चेष्टा भी नहीं करते कि क्या ऐसा कोई निःशब्द कार्य हो सकता है ? यदि जानते भी हों, तो बहुत से लोग उसके लिये परिश्रम नहीं करना चाहेंगे, क्योंकि उनका परिणाम तत्काल दिखाई नहीं पड़ता, इसीलिए तभी का तभी उन्हें सभी के द्वारा मान्यता नहीं मिलती और गुणगान नहीं होता।   
          किन्तु महामण्डल ने अपने नाम-यश की कोई परवाह किये बिना अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा को कुछ ऐसे ही बुनियादी कार्यों में उत्सर्ग कर देने का निर्णय लिया है, जो अन्ततोगत्वा अन्य समस्त अच्छे सामाजिक प्रयासों की सफलता को सुनिश्चित बना देगी।  
     >>Man is the basic thing and man-making is the basic work. 
       'मनुष्य' ही समाज का मूलतत्व है और मनुष्य निर्माण करना ही बुनियादी कार्य है ! समाज सेवा का कोई भी कार्य चाहे वह सरकार के द्वारा हो या स्वैच्छिक संगठनों के माध्यम से हो - वास्तव में उन सभी कार्यों का प्रतिपादन तो मनुष्यों के स्तर से ही होता है। किन्तु इन मनुष्यों में सही समझ, उचित मनोभाव, प्रेरणा, निःस्वार्थपरता का भाव न हो, तो कोई भी सेवा-कार्य यथार्थ फलदायी नहीं हो सकेगी। इसीलिये, इन गुणों को विकसित करना ही बुनियादी काम है। क्योंकि ये सभी गुण वास्तव में मनुष्य के चरित्र में ही सन्निहित रहती हैं; इसलिए चरित्र-निर्माण ही मनुष्य-निर्माण का दूसरा नाम है। 
     >>character-building is another name for man-making.
        कोई व्यक्ति निस्सन्देह स्वयं या दूसरों के साथ मनुष्य -निर्माण का प्रयास कर सकता है। किन्तु इस कार्य को यदि राष्ट्रव्यापी स्तर पर करना हो, और इसे चन्द लोगों द्वारा किये जाने वाले आकस्मिक प्रयास (soda water effect) जैसा बीच में ही छोड़ देने के लिए न करना हो, और देश के सभी प्रान्तों में इसका प्रचार-प्रसार करना चाहते हों, तो एक संगठित प्रयास अनिवार्य हो जाता है। और यही महामंडल का कार्य है।
        >>>the duty of raising the masses of India;भारत को समृद्ध और खुशहाल बनाने के लिये क्या-क्या करना जरुरी है, इस विषय पर चर्चा करते हुए स्वामी विवेकानन्द अत्यावश्यक बिन्दु पर आते हैं, और कहते हैं --" इसलिए पहले 'मनुष्य' का निर्माण करो। जब देश में ऐसे मनुष्य तैयार हो जायेंगे, जो अपना सबकुछ देश के लिये न्योछावर कर देने को तैयार हों, जिनकी अस्थियाँ तक निष्ठा के द्वारा गठित हों, जब ऐसे मनुष्य जाग उठेंगे तो भारत प्रत्येक अर्थ में महान हो जायेगा। भारत तभी जागेगा जब विशाल हृदयवाले सैकड़ों स्त्री-पुरुष भोग-विलास और सुख की सभी इच्छाओं को विसर्जित कर मन-वचन और कर्म से उन करोड़ों भारतवासियों के कल्याण के लिये प्राणपण से प्रयास करेंगे, जो भूख, गरीबी और शिक्षा के अभाव में निरन्तर नीचे डूबते जा रहे हैं।" इसीलिये उन्होंने आह्वान किया था - " ऐसे युवकों के साथ कार्य करते रहो जो भारत के जनसाधारण के कल्याण का व्रत ले सकें और इस व्रत ही अपना एकमात्र कर्तव्य समझते हुए उसमें अपने 'ह्रदय और आत्मा ' (heart and soul -3H) समर्पित कर सकें, भारतीय युवकों पर ही यह कार्य सम्पूर्ण रूप से निर्भर है। "
               >> the most essential social service. रुपया-पैसा या कुछ दान- सामग्री इकट्ठा कर अभावग्रस्त लोगों के बीच उनका वितरण करना, या जन-साधारण की आर्थिक उन्नति के लिए विशेष कार्यक्रम आदि चलाना,ये सभी अच्छे कार्य हैं। बहुत सारे सरकारी , गैर सरकारी संगठन इस के कार्य कर सकते हैं,तथा करने में लगे हुए भी हैं। किन्तु  इन सब समाज-सेवा के कार्यों से श्रेष्ठतर तथा अधिक महत्वपूर्ण हैं ऐसे देशवासियों के चरित्र का निर्माण करना, जो अपने देशवासियों के कल्याण के लिये निःस्वार्थ भाव से अपना सबकुछ न्योछावर करने को तत्पर रहेंगे। ऐसे मनुष्य - जीवन के सभी व्यवसायों में, समाज में और घरों में होने चाहिये। यही है अत्यावश्यक समाज सेवा, जो समाज-कल्याण की निरन्तरता (sustained social well-being) को सुनिश्चित बनाये रखने के लिए आश्वस्त करती है। गारंटी देती है। ऐसे निःस्वार्थी मनुष्यों का निर्माण करना ही 'अत्यावश्यक समाज सेवा' है ! अतएव, इस अत्यावश्यक समाजसेवा के बारे में हमारी धारणा बिल्कुल स्पष्ट होनी चाहिये। हमारे समस्त कार्यकलापों को इसी एक लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में संचालित करना चाहिये।             
       >>Come and see how individuals are improving.
(विगत 55 वर्षों से) महामण्डल के माध्यम से इसी कार्य को करने का प्रयास  किया जा रहा है। और हमलोग यह देखकर आश्वस्त हैं कि प्रयास परिणाम भी दे रहा है। इसके पास (निःस्वार्थी मनुष्य निर्माण के लिए) पूर्णतः सक्षम पद्धति है। सभी लोगों को इस अत्यावश्यक समाज सेवा को समझ लेना चाहिये, इसकी पद्धति (3H विकास के 5 अभ्यास) को जान लेना चाहिये, तत्पश्चात इस सुविचारित पद्धति का प्रयोग करके अपने जीवन में उसके परिणाम को देखते रहना चाहिए। केवल कुछ लेखों को पढ़ लेने या भाषणों को सुनने भर से ही काम नहीं चलेगा। आइये, हमारे छह दिवसीय वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में भाग लीजिये, और स्वयं अनुभव कीजिये कि कैसे हजारों युवा क्रमशः उन्नततर मनुष्य में रूपान्तरित होते जा रहे हैं। अगर हम भारत में बेहतर बदलाव चाहते हैं , तो यही उपाय है।  
>>>Character -qualities should be imbibed :    
  हमें चरित्र के गुणों को आत्मसात करना चाहिये, उसमें निहित उच्च आध्यात्मिक विचारों का आत्मसातीकरण करना चाहिये। इसीको सच्ची शिक्षा (तैत्तरीय उपनिषद वाली 'शीक्षा') कहते हैं। अत्यावश्यक समाज सेवा  यदि कुछ है तो वह मूलतः यह मनुष्य-निर्माणकारी (निःस्वार्थी मनुष्य - जीवनमुक्त शिक्षक/नेता/पैगम्बर) बनाने वाली शिक्षा ही है। और यह स्वाभाविक है कि इस शिक्षा को ग्रहण करने में समय लगेगा। किसी भी महान लक्ष्य को रातों-रात या बिना निरंतर कठोर परिश्रम किये प्राप्त नहीं किया जा सकता है।
>> the alternative is status quo.
       कुछ लोग प्रश्न उठा सकते हैं कि क्या भारत के सभी मनुष्यों को चरित्रवान (निःस्वार्थपर) बनाया जा सकता है ? यदि नहीं बना सकते, उसका विकल्प क्या यथस्थिति-में पड़े रहना है ? क्या ऐसा करने से 'यथा पूर्वं तथा परं' किसी एक समस्या को भी हल किया जा सकता है ? किन्तु यदि इस प्रयास (3H निर्माण के 5 अभ्यास का प्रशिक्षण ) को निरन्तर जारी रखा जाय,  तो कुछ युवाओं के चरित्र में निश्चित रूप से सुधार आएगा और क्रमशः उनकी संख्या में वृद्धि  होती रहेगी,  भले ही 25 वर्ष के बदले 55  वर्ष लग जायें, लेकिन परिस्थितियाँ अवश्य बदलेंगी ! जो लोग आलसी और घोर निराशावादी हैं, उनको सोये रहने दो। कि न्तु जो युवा आशावादी और परिश्रमी हैं, जिन्हें अपने आप पर और मानवमात्र पर अटूट श्रद्धा है; उन्हें आगे आना चाहिए और इस  अभियान-चक्र के पहिये पर अपने कंधों को भिड़ा देना चाहिये । 
           >> work hard to educate people and to be educated properly. स्वामी विवेकानन्द बिल्कुल सही निष्कर्ष पर पहुँचकर कहते हैं - " इसलिये हमें उस समय तक 'ठहरना' होगा, जब तक कि सामान्य मनुष्य (आध्यात्मिक दृष्टि से भी) शिक्षित न हो जायें,  जब तक वे अपनी आवश्यकताओं को सही ढंग से समझने न लगें, तथा अपनी समस्याओं को स्वयं सुलझा लेने के योग्य और सक्षम नहीं हो जायें।"  यहाँ 'ठहरना' होगा कहने का अर्थ यह नहीं है कि, जब तक भगवान की कृपा से सभी सामान्य मनुष्य सही रूप में शिक्षित नहीं हो जायें, तब तक हमें आलसी जैसा बैठे रहना चाहिये। उनका यह कथन सामान्य मनुष्यों को सही रूप में शिक्षित (केवल साक्षर नहीं-ब्रह्मविद) बनाने के लिये स्वयं भी सही रूप में शिक्षित (ब्रह्मविद) होने के लिये कठोर परिश्रम करते रहने पर जोर देता है। स्वामी जी का निर्देश है,' Take man where he stands and from thence give him a lift.'-अर्थात मनुष्य अभी जिस सोपान पर खड़ा है (यानि निःस्वार्थपरता के पैमाने से अपने को जो भी कुछ मान रहा है);उसे वहीं से उठाकर उन्नततर सोपान पर ले जाने के लिए हमें अपना हाथ बढ़ाना है ! स्वामीजी कहते थे - " जो शिक्षा साधारण व्यक्ति को जीवन-संग्राम में समर्थ नहीं बना सकती, जो मनुष्य में चरित्र-बल, परहित भावना तथा सिंह के समान साहस नहीं ला सकती, वह भी कोई शिक्षा है? वास्तव में जिस प्रशिक्षण (मनःसंयोग सहित 5 अभ्यासों का प्रशिक्षण) के द्वारा  इच्छाशक्ति के प्रवाह और भावाभिव्यक्ति को वश में लाया जाता है, और वह फलदायक बन जाती है, उसे ही शिक्षा कहा जाता है ! " 
           किन्तु तरह की शिक्षा (विद्या-जो मुक्त करे) किसी शिक्षा परिषद (boards) अन्तर्गत कोई नया स्कूल स्थापित करके अथवा किसी विश्वविद्यालय की निगरानी में कोई नया कॉलेज निर्मित करके आयातित नहीं की जा सकती है। जैसा विवेकानन्द कहते थे , " हमारे देश में तो उस प्रकार के असंख्य शिक्षण-संस्थान पहले से खुले हुए हैं, और प्रतिदिन नये नये शिक्षण-संस्थान खुलते भी जा रहे हैं। किन्तु " जनसाधारण की भलाई के लिये, त्याग और सेवा की भावना का विकास हमारे राष्ट्र में अभी तक नहीं हुआ है।" और जैसा स्वामी जी चाहते थे इस मनुष्य बनने और बनाने वाली विद्या को देश के हर युवक के दरवाजे तक पहुँचा देना है। यही महामण्डल का वास्तिक कार्य है। और इस कार्य को तुम तभी कर सकते हो, जब तुम यह विश्वास करो कि हाँ तुम इसे अवश्य कर सकते हो ! 

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ब्रह्मविद किन्तु 'भावमुख' (अर्थात भावुक हुए बिना खुली आँखों से ध्यान और सेवा - करने में सक्षम  नेता श्रीरामकृष्ण' जैसे मनुष्य को ही सही रूप में शिक्षित मनुष्य कहा जा सकता  है! 
" स्वामी विवेकानन्द- कैप्टन सेवियर 'निवृत्ति अस्तु महाफला'  वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा ' में प्रशिक्षित जीवनमुक्त शिक्षक,  पैगम्बर या नेता 'बनना और बनाना '  ही सबसे आवश्यक समाज-सेवा है ! 
स्वामीजी कहते थे," वेदान्त सब धर्मों का बौद्धिक सार है, वेदान्त के बिना सब धर्म अन्धविश्वास है। इसके साथ मिलकर प्रत्येक वस्तु धर्म बन जाती है! धर्म का रहस्य सिद्धान्त में नहीं, व्यवहार में है। मैं यहां मनुष्य-जाति में एक ऐसा वर्ग उत्पन्न करूंगा, जो ईश्वर में (इस व्यक्त ईश्वर- या 'इंसान' रूपी अल्ला में ) अन्तःकरण से विश्वास करेगा, और संसार की परवाह नहीं करेगा। यह कार्य मन्द, अति मन्द, गति से होगा। " [८/३४ ] 
एक शब्द में  वेदान्त का आदर्श है-'मनुष्य को उसके सच्चे स्वरूप में जानना !' (जीवो ब्रह्नैव नापर:)अतः महामण्डल के नेता का पहला कार्य है - अपने सच्चे स्वरूप को पहचान लेना या 'डिटेक्ट' कर लेना। "इन वन वर्ड, दी आइडियल ऑफ़ वेदान्त इज टू नो मैन ऐज ही रियली इज ! ' 

" यदि हम भारत को पुनर्जीवित करना चाहते हैं, तो हमें उनके लिये काम करना होगा। तुम्हारे सामने है जनसमुदाय को उसका अधिकार (आत्मश्रद्धा) लौटा देने की समस्या। इसके लिये तुम्हारे पास संसार का महानतम धर्म -वेदान्त है, और तुम जनसमुदाय को गंदी नाली का पानी (आरक्षण और साम्प्रदायिकता का जहर ) पिलाते हो ? मैंने अपना आदर्श- (त्याग और सेवा ) निर्धारित कर लिया है और उसके लिये अपना समस्त जीवन दे दिया है। यदि मुझे सफलता नहीं मिलती, तो मेरे बाद कोई अधिक उपयुक्त व्यक्ति आयेगा और इस काम को सँभाल लेगा, और मैं आमरण प्रयत्न करते जाने में ही अपना संतोष मानूँगा। मैं पहले थोड़े से युवकों को 'नेता ' (आध्यात्मिक शिक्षक) के रूप में प्रशिक्षित करना चाहता हूँ, फिर उन्हीं के माध्यम से इन विचारों को देश के हर युवक के दरवाजे तक पहुँचा देना चाहता हूँ। मेरा विश्वास युवा पीढ़ी में ,नयी पीढ़ी में है; मेरे कार्यकर्ता उनमें से आएंगे। सिंहों की भाँति वे समस्त समस्या का हल निकालेंगे।"  
 किन्तु महामण्डल छात्रों का संगठन है, इसीलिये महामण्डल में मनुष्य के सच्चे स्वरूप को डिटेक्ट करने लिये, यहाँ केवल मन को एकाग्र करने की पद्धति -प्रत्याहार और धारणा तक ही सिखाया जाता है, ध्यान-समाधी नहीं सिखाई जाती है। किन्तु महामण्डल युवाओं के लिये यदि किसी विशेष प्रकार के ध्यान की अनुशंसा करना चाहता है, तो वह है - "ओपेन-आइड मैडिटेशन"  अर्थात " खुली आँखों से किया जाने वाला ध्यान "। और वह है- 'मनुष्य' का ध्यान, स्वामीजी की भाषा में कहें तो ' मनुष्यरूपी- ताजमहल' का ध्यान ' ८/ २९] इस युवा महामंडल का वास्तविक कार्य भी यही है।  
[ऐसी शिक्षा कोई ऐसा (ब्रह्मवेत्ता-नेता ) युवा  ही दे सकता है-जिसका अपना चरित्र 'विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक प्रशिक्षण परम्परा में आधारित नेतृत्व-प्रशिक्षण के माध्यम से गठित हो चुका हो। 
मानवजाति के मार्गदर्शक नेता श्रीरामकृष्ण ने नरेन्द्र को इसी वेदान्त परम्परा में नेतृत्व का प्रशिक्षण देकर, (जगतजननी माँ काली की इच्छा के साथ- 'विश्व का कल्याण'  के उद्देश्य से अपनी इच्छाशक्ति को समन्वित का प्रशिक्षण देकर) उन्हें तुच्छ सांसारिक भोगों के त्याग की तो बात ही क्या, निर्विकल्प समाधि के भूमा-आनन्द तक का त्याग करने में समर्थ जन-नेता स्वामी विवेकानन्द में रूपान्तरित कर दिया था!     

केवल पूर्ण तः निःस्वार्थी आध्यात्मिक शिक्षकों (बुद्ध जैसे नेताओं) की प्रशिक्षण परम्परा, या  यथार्थ मनुष्य बनने और बनाने की परम्परा 'BE AND MAKE ' ही 'चिरस्थाई सामाज कल्याण' (Sustainable Social Well-Being) की निरन्तरता को सुनिश्चित बनाये रखने के लिए आश्वस्त करती है। अतः ' विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर निवृत्ति अस्तु महाफला वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन' में युवाओं को नेतृत्व प्रशिक्षण देने का कार्य ही  सर्वाधिक आवश्यक समाज सेवा ही 'मोस्ट एसेंशियल' कार्य है! 
           लिहाजा कुछ ऐसे ही 'मनुष्य' (आध्यात्मिक शिक्षकों/ नेताओं/ ) का निर्माण करना सर्वाधिक आवश्यक समाज-सेवा या 'मोस्ट एसेंशियल सोशल सर्विस ' है। [माँ जगदम्बा -ठाकुर/ स्वामीजी- कैप्टन सेवियर निवृत्ति अस्तु महाफला वेदान्त नेतृत्व प्रशिक्षण परम्परा / नवनीदा- महामण्डल युवा प्रशिक्षण शिविर परम्परा/ में प्राप्त होने वाली लीडरशिप ट्रेनिंग द्वारा यथार्थ मनुष्यों का निर्माण करना (आध्यात्मिक शिक्षकों  या मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं के निर्माण करना)  ही सर्वाधिक आवश्यक समाज-सेवा है।] 
         अतः 'सर्वाधिक आवश्यक समाज-सेवा' के विषय में हमारी धारणा बिल्कुल स्पष्ट रहनी चाहिये। और हमारे समस्त कार्यकलापों को इसी 'एक लक्ष्य' को प्राप्त करने की दिशा में संचालित करना चाहिये। और महामण्डल विगत ४९ वर्षों से यही करने का प्रयास करता आ रहा है। और हमलोग यह देखकर आश्वस्त हैं कि ऐसे निःस्वार्थपर मनुष्य (आध्यात्मिक शिक्षक /नेता/ लोक-शिक्षक) निर्मित भी हो रहे हैं। 
अतः महामण्डल द्वारा आयोजित युवा प्रशिक्षण शिविर ऐसे मनुष्यों (आध्यात्मिक शिक्षकों/नेताओ) का निर्माण करने में पूर्णतः सक्षम प्रशिक्षण-पद्धति है।  अतः महामण्डल के सभी सदस्यों को 'मोस्ट एसेंशियल' समाज-सेवा क्या है-इसे ठीक से समझ लेना चाहिये, इसकी प्रणाली को जान लेना चाहिये, तत्पश्चात  'विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर निवृत्ति अस्तु महाफला वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन' में नेतृत्व-प्रशिक्षण पद्धति' का प्रयोग, उसके परिणाम को देखने के लिए करना चाहिये। 
          केवल कुछ निबन्धों को पढ़ लेने, या भाषणों को सुनने भर से ही काम नहीं चलेगा। महामण्डल के रजिस्टर्ड ऑफिस से संपर्क करे और प्रतिवर्ष २५-३० दिसम्बर तक आयोजित होने वाले इसके वार्षिक युवा प्रशिक्षण शिविर में भाग लेकर स्वयं अनुभव कीजिये कि, हजारों युवा कैसे क्रमशः उन्नततर मनुष्य में रूपान्तरित होते जा रहे हैं ! यदि हम भारत को पुनः महान (विश्वगुरु) भारतवर्ष में परिवर्तित करना चाहते हैं, तो उसका यही एकमात्र उपाय है। हमें यथार्थ मनुष्य (मार्गदर्शक नेता के) चरित्र के गुणों को अपने भीतर आत्मसात कर लेना चाहिये, उनमें निहित भावों को 'चियू और डाइजेस्ट' करके अपनी नसों में के भीतर दौड़ने वाले खून में मिश्रित कर लेना चाहिये। इसीको सच्ची शिक्षा कहते हैं।     
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2 टिप्‍पणियां:

  1. " यदि हम भारत को पुनर्जीवित करना चाहते हैं, तो हमें उनके लिये काम करना होगा। तुम्हारे सामने है जनसमुदाय को उसका अधिकार (आत्मश्रद्धा) लौटा देने की समस्या। इसके लिये तुम्हारे पास संसार का महानतम धर्म -वेदान्त है, और तुम जनसमुदाय को गंदी नाली का पानी (आरक्षण और साम्प्रदायिकता का जहर ) पिलाते हो ? मैंने अपना आदर्श- (त्याग और सेवा ) निर्धारित कर लिया है और उसके लिये अपना समस्त जीवन दे दिया है। यदि मुझे सफलता नहीं मिलती, तो मेरे बाद कोई अधिक उपयुक्त व्यक्ति आयेगा और इस काम को सँभाल लेगा, और मैं आमरण प्रयत्न करते जाने में ही अपना संतोष मानूँगा। मैं पहले थोड़े से युवकों को 'नेता ' (आध्यात्मिक शिक्षक) के रूप में प्रशिक्षित करना चाहता हूँ, फिर उन्हीं के माध्यम से इन विचारों को देश के हर युवक के दरवाजे तक पहुँचा देना चाहता हूँ। मेरा विश्वास युवा पीढ़ी में ,नयी पीढ़ी में है; मेरे कार्यकर्ता उनमें से आएंगे। सिंहों की भाँति वे समस्त समस्या का हल निकालेंगे।"

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  2. स्वामीजी कहते थे," वेदान्त सब धर्मों का बौद्धिक सार है, वेदान्त के बिना सब धर्म अन्धविश्वास है। इसके साथ मिलकर प्रत्येक वस्तु धर्म बन जाती है! धर्म का रहस्य सिद्धान्त में नहीं, व्यवहार में है। मैं यहां मनुष्य-जाति में एक ऐसा वर्ग उत्पन्न करूंगा, जो ईश्वर में (इस व्यक्त ईश्वर- या 'इंसान' रूपी अल्ला में ) अन्तःकरण से विश्वास करेगा, और संसार की परवाह नहीं करेगा। यह कार्य मन्द, अति मन्द, गति से होगा। " [८/३४ ]

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