स्वयं से बात करना
साधारण अर्थों में महामण्डल एक धार्मिक संगठन नहीं है। उसी प्रकार सामान्यतौर पर यह एक सामाज-सेवी संगठन भी नहीं है। और साधारण अर्थ में यह कोई शैक्षिक संस्थान भी नहीं है। लेकिन यह एक ऐसा संगठन है जो प्रत्येक युवा तक चाहे उसका जन्मजात धर्म कुछ भी क्यों न हो , या वो स्वयं को किसी भी धर्म का अनुयायी न मानने का दावा करता हो, -इन सब बातों की परवाह किये बिना, वास्तविक धर्म को पहुँचा देना चाहता है ! कोई युवा यह कह सकता है वह किसी भी साम्प्रदायिक धर्म (sectarian religion) से सम्बन्ध नहीं रखता ! किन्तु हमें उससे यह अवश्य कहना चाहिये - " भाई , वास्तव में तुम्हारी आवश्यकता तो एक अलग प्रकार के धर्म की है, वह धर्म जो मनुष्य को 'सच्चा मनुष्य' बना देता है , वह धर्म जो इंसान को 'सच्चा इंसान ' बना देता है।
>>Mahamandal does not believe in charity from a high pedestal, but with ratiocination.
गहरे अर्थों में महामण्डल एक समाज-सेवी संगठन भी है। लेकिन, यह ऊँचा आसन ग्रहण करके दान-पुण्य (charity) करने में विश्वास नहीं रखता बल्कि एक पूर्वनिर्धारित प्रेरणा- वेदान्ती विवेक (वसुधैव कुटुम्बकम, जीव ही शिव है) की सही समझ से अनुप्रेरित होकर पूरी विनम्रता के साथ समाजसेवा का उपयोग अपने हृदय को विस्तृत करने के लिए करता है। वास्तव में धर्म एक ऐसी वस्तु है जो - पशु को मनुष्य में और मनुष्य को देवत्व में उन्नत कर देता है ! और मनुष्य के सर्वांगीण विकास के लिये ऐसा होना अपरिहार्य है। एवं प्रत्येक मनुष्य के तीन प्रमुख अंग हैं- उसका शरीर, उसका मन और उसका हृदय (3H)।
किसी व्यक्ति के लिये व्यायाम और पौष्टिक आहार आदि के माध्यम से अपने शरीर को विकसित कर लेना किंचित सरल कार्य है। उसी प्रकार किसी मनुष्य के लिये अपने मन और बुद्धि को विकसित कर लेना थोड़ा कठिन तो अवश्य है किन्तु असम्भव भी नहीं है। अभ्यास के द्वारा मन पर विजय प्राप्त किया जा सकता है। किन्तु जो व्यक्ति केवल शरीर और मन से शक्तिशाली है तो क्या उसे इतने से ही सन्तुष्ट हो जाना चाहिये ? क्या वह एक 'सच्चा मनुष्य' होगा, जो किसी भी समाज के लिये एक परिसंपत्ति हो ? नहीं ! क्योंकि वह अपने शरीर और मस्तिष्क की शक्तियों का यथोचित उपयोग नहीं कर पायेगा। क्योंकि जब तक किसी मनुष्य के पास सच्ची सहानुभूति और दूसरों के सुख-दुःख को अनुभव करने वाला हृदय नहीं होगा, तो उसकी शारीरिक और मानसिक उर्जायें वैसा सर्वोत्तम परिणाम और उच्चतम लाभ नहीं दे सकेंगी जैसा वे दे सकती थीं।
किन्तु मन एक सूक्ष्म भौतिक पदार्थ (fine Matter) है और शरीर एक स्थूल भौतिक पदार्थ (gross-Matter) है। इसीलिये शरीर को विकसित करना आसान है, किन्तु मन को विकसित करना थोड़ा कठिन है। लेकिन फिर भी ये दोनों चूँकि भौतिक पदार्थ हैं, इसलिये इन्हें सावधानी, जानकारी और प्रयास से विकसित किया जा सकता है, और यथोचित ज्ञान की सहायता से हम उनको सम्भाल भी सकते हैं।
>> We cannot reach the heart easily by any means.
किन्तु 'हृदय' सबसे अधिक सूक्ष्म वस्तु है और किसी भी अर्थ में भौतिक पदार्थ नहीं है। इसीलिए हमलोग किसी भी (द्रुत) साधन का उपयोग करके ह्रदय तक नहीं पहुँच सकते। हम जानते हैं कि मन एक साधन (instrument) है, जिसका उपयोग हम स्वयं मन को ही देखने (या पकड़ने) के लिये कर सकते हैं। किन्तु ह्रदय को देखने या छूने के लिये इस प्रकार कोई दूसरा साधन (यंत्र) हमारे पास नहीं है। एक हृदय दूसरे हृदय को - केवल दूर से ही, प्रत्युत्तर भेज सकता है। यह कुछ- कुछ अनुकम्पन या अनुनाद (resonance) जैसी वस्तु है। जैसे रेडियो तरंगों को एक स्थान से भेजा जाता है, और दूसरे छोर पर एक इलेक्ट्रॉनिक रिसीवर होता है जो तरंगों को डिटेक्ट कर लेता है या पकड़ लेता है, और हमलोग घर बैठे रेडिओ प्रसारण केन्द्र से प्रसारित होने वाले भाषण या विविध संगीत को सुन सकते हैं। हमारा हृदय भी ठीक उसी प्रकार से कार्य करता है।
>>Attune your heart to the heart beats of others.(डकैत और माँ सारदा पद्धति)
हमलोग फिजिक्स में ' प्रतिध्वनि की घटना' (Phenomenon of Resonance) के विषय में पढ़ते हैं। किसी तार वाले वाद्य यंत्र जैसे गिटार के एक तार को एक विशेष आवृत्ति (Frequency) पर ट्यून कर दें -जैसे 240। और गिटार के एक अन्य तार को भी उसी समान आवृत्ति 240 पर सेट कर दो । और बस एक तार को छेड़ दो, pluck कर दो । यदि तुम इस प्रयोग को करते हो, तो तुम देखेंगे कि दूसरा तार भी स्वतः कंपन करना शुरू देता है, और वही स्वर (ध्वनि) उत्पन्न कर रहा है, जो स्वर पहले वाले तार से बहार निकल रहा है। ठीक इसी प्रकार-तुम अपने हृदय को दूसरों के हृदय की धड़कन या फीलींग्स (सुख-दुःख के कम्पन) के साथ अट्यून करके, उस हृदय के सुर के साथ अपने हृदय के सुर को मिला सकते हो ! किसी भी प्राणी के हृदय पर कार्य करने की यही एकमात्र पद्धति है। [That is the only method to work upon one's heart.] और यह कार्य हमलोग सही उद्देश्य के साथ समाज-सेवा करते समय कर सकते हैं। यही कारण है कि महामण्डल के कर्मियों को अपने हृदय का विकास करने के उद्देश्य ही समाज में दूसरों की सहायता और सेवा करने के लिये जाना चाहिये। और भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं,सच्चा योगी वही है (माँ सारदा) जो दूसरों के दुःख-संताप को अपने हृदय में महसूस करता है, और समान रूप से शोकाकुल हो जाता है, और दूसरों के आनन्द को भी ठीक उसी के समान महसूस करके, उसके आनन्द में सहभागी बन सकता है। स्वामी विवेकानन्द भी एक महान और बड़े योगी थे, किन्तु हमलोगों को भी कम से कम छोटा योगी तो अवश्य बनना चाहिये।
हमें भी दूसरे के दुःख-कष्ट को अपने हृदय में थोड़ा बहुत अवश्य महसूस करना चाहिये, और उस परिस्थिति का उपयोग अपने हृदय को विकसित करने में करना चाहिये। ऐसा महसूस करने के बाद भी , क्या हमलोगों को केवल हाथ पर हाथ रखे बैठे रहना चाहिये ? नहीं, बल्कि उसकी सहायता और सेवा के लिये अपने हाथों को आगे बढ़ा देना चाहिये। तुम उनके दुःख को कम (mitigate) करने का प्रयत्न करो, और वैसा करने के बाद तुम्हें जो ज्ञान प्राप्त होगा वह स्थाई बन जायेगा, तुम्हारे हृदय में बस जायेगा, और तुम्हारे साथ सदैव बना रहेगा। (अद्वैत वेदान्त -कोई पराया नहीं सभी अपने हैं -या ईश्वरत्व का बोध तुम्हारे साथ सदैव बना रहेगा।) तो यह है महामण्डल में समाजसेवा का स्थान, तथा आत्मविकास के भिन्न-भिन्न मार्गों एवं कार्यप्रणालियों में समन्वय लाने की युक्ति भी यही है।
>>Four Traditional Great Paths for selfdevelopment.
स्वामी जी जैसे कहते हैं धर्म वह वस्तु है जो पशु को मनुष्य बना देता है, उसी प्रकार वे कहते हैं , तुम अपने शरीर, मन और हृदय को विकसित करने का प्रयास करते रहो, और यदि तुम इन्हें पूर्ण रूप से विकसित कर सके, तो तुम एक पूर्ण मनुष्य बन जाओगे। और उसके बाद वे कहते हैं, " जिस व्यक्ति ने अपनी अन्तःप्रकृति के साथ-साथ बाह्य- प्रकृति पर भी विजय कर लिया है - वही सच्चा धार्मिक मनुष्य है। " किन्तु दोनों -अन्तः प्रकृति और बाह्य प्रकृति पर विजय पाया कैसे जाता है ? स्वामी जी इसकी युक्ति बतलाते हुए कहते हैं, " इस उद्देश्य के लिये तुम एक, एक से अधिक या सभी उपायों का सहारा ले सकते हो, और फिर वे आत्म विकास के लिये चार महान पारम्परिक मार्गों का उल्लेख करते हैं। इन पारम्परिक मार्गों (आत्मविकास के लिए 'गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक -परम्परा' सम्बन्धी चार महान मार्गों- Four Traditional Great Paths for self-development.) का एक सामन्य नाम है - और वह है योग। वे चार मार्ग हैं, 'ज्ञानयोग' -अर्थात ज्ञान का मार्ग; 'राजयोग' - मन पर नियंत्रण करने का मार्ग, फिर 'भक्तियोग'- उपासना का मार्ग, और 'कर्मयोग'-निष्काम कर्म का मार्ग। ये ही वे चार पारम्परिक मार्ग (These are four traditional paths) हैं जिसका अनुसरण करने से हम अपना विकास कर सकते हैं, और सम्पूर्ण मनुष्य बन सकते हैं। वैसा मनुष्य जिसने अपने (भौतिक) शरीर और मन को तो विकसित किया ही है, लेकिन उसके साथ-साथ हृदय को भी विस्तृत करके अपनी दुर्बलताओं पर भी विजय प्राप्त कर लिया है, जो अपनी पाशविक-दुर्बलताओं पर विजय प्राप्त करके दिव्य प्रकाश युक्त (प्रभा-वलय से युक्त) मनुष्य बन गया हो।
ज्ञान के मार्ग का पथिक या ज्ञानयोगी भले और बुरे, शाश्वत और नश्वर के बीच विवेक-प्रयोग करता है, और निरन्तर परिवर्तनशील, क्षणस्थायी, अनित्य वस्तुओं में आसक्ति को त्याग करता जाता है, एवं चिरस्थायी, शास्वत, नित्य या सत्य वस्तु के साथ लगातार जुड़ा रहता है, और धीरे धीरे यथार्थ सत्य (ultimate truth, इन्द्रियातीत सत्य) की अनुभूति प्राप्त कर लेता है। राजयोगी कहता है, इसी जीवन में परिपूर्णता प्राप्त करने के लिये, पूर्णतः विकसित होने के लिये, या अपनी अन्तर्निहित समस्त सम्भावनाओं को साकार करने के लिये,हमें केवल एक काम करना है- और वह है, अपने मन को पूर्णतया अपने वश में कर लेना। तुम इसे अष्टांग योग स्टेप्स यम (शम), नियम (दम), आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि की सहायता से कर सकते हो । अतएव हमलोगों इस साधन-मार्ग से थोड़ा परिचित (कम से कम 5 अंग से परिचित) तो अवश्य होना चाहिये।
महामण्डल इन चारो योग-मार्गों के आवश्यक अंशों का उपयोग करना चाहता है।
और स्वामी जी कहते थे कि समाज का लगभग प्रत्येक मनुष्य, अपने व्यक्तिगत विकास के लिए इनमें से कम से कम एक मार्ग का चयन तो अवश्य करता है। स्वामी जी कहते थे, मेरे लिए आदर्श मनुष्य वही है जिसके चरित्र में सभी सच्चे गुण समान रूप से और पूर्ण मात्रा में उपस्थित हों। मेरी दृष्टि में आदर्श मनुष्य तो वही है, जो अपनी साधना में इन चारो योग-मार्गों का सम्मिश्रण करने में सक्षम हो, अपने दैनन्दिन जीवन में उसका अभ्यास करके स्वयं को पूर्णतः विकसित कर सके। वही वास्तव में एक पूर्ण विकसित मनुष्य है, और हमलोग भी ऐसा ही पूर्ण मनुष्य बनना चाहते हैं।
'भक्तियोगी', जो उपासना के मार्ग को ग्रहण करता है, का कहना है, " मैंने ढूंढ़ निकाला है कि प्रेम मेरे भीतर है, और ऐसा प्रतीत होता कि, यह कोई ऐसी वस्तु है जो विस्तारशील है। मानो यह नित्य विस्तार-शील ब्रह्माण्ड हो। यह प्रतिपल विस्तारित होने का प्रयास करता है। यदि यह एकाकी हो जाय, तो परितृप्त नहीं होता। यह उमड़ता हुआ प्रेम दूसरों का स्पर्श करना चाहता है, उत्तरोत्तर बढ़ता ही जाता है, और सम्पूर्ण विश्व को आत्मसात कर लेना चाहता है। वह 'प्रेम' जिसका अनुभव मैं अपने हृदय में करता हूँ, मुझे बतलाता है कि इस ब्रह्माण्ड में और इस ब्रह्माण्ड से परे कोई वस्तु ऐसी है जिसका स्वभाव ही विशुद्ध प्रेम है; जो प्रेमस्वरूप है। और मेरी तीव्र इच्छा (hankering) है कि मेरा यह बून्द भर प्रेम, उस प्रेम के सागर से संयुक्त हो जाये।" और वह उसी पथ में आगे बढ़ने का प्रयत्न करता है। वह अश्रु बहता है, वह मिलने की तड़प का अनुभव करता है। वह मंदिर जाता है, जब मूर्तियों को चंदन लगाता है,तो उसे उसी प्रेम का अनुभव होता है। कड़े पत्थर या सख्त लकड़ी से बनी मूर्तियों में भी वह प्रेम का ही दर्शन करता है। वह अनुभव करता है कि मूर्तियों की उस कठोर स्तब्धता के पीछे, कोई सबसे कोमल, प्रेम-स्वरूप वस्तु छुपी हुई है ! वह ऐसा अनुभव करता है, और उसी को पाने का प्रयास करता है।
वाह, ये तो बड़ी अच्छी बात है। हर मनुष्य यही तो है। किन्तु वैसा अनुभव करने के लिये सबसे पहले दूसरों के प्रति सहानुभूति की आवश्यकता है। केवल इसी की सहायता से हम अपने ह्रदय को विकसित कर सकते हैं। लेकिन, हम देख सकते हैं कि भले ही हम पूरे तौर से ज्ञान का उपयोग कर सकते हैं, भले ही हम अपने मन पर हमारे नियंत्रण का उपयोग कर सकते हैं, और साथ ही दूसरों के प्रति सहानुभूति का अनुभव भी करते हैं; पर इतना सब रहने से भी होता क्या है ? कुछ भी नहीं !
मुझे पता है कि कि धर्म क्या है, मैं जानता हूँ कि दूसरों के सुख-दुःख का अनुभव अपने हृदय में कैसे किया जाता है, मैं अपने मन को नियंत्रित करना जानता हूँ ; पर दूसरों के लिए मैं करता क्या हूँ -कुछ नहीं। तो मेरे ज्ञानी-ध्यानी होने से समाज को क्या लाभ हुआ ? मुझे तो स्वयं आगे बढ़कर दूसरों के दुःख-कष्ट को कम करने के कार्य में जुट जाना चाहिये। मुझे प्रेम और सहनुभूति से अनुप्रेरित होकर, किसी भी कार्य में सफलता प्राप्त करने के लिये,अपने उस ज्ञान का उपयोग करने की मानसिक क्षमता के साथ, विवेक-शक्ति का प्रयोग करते हुए, दूसरों के दुःख-कष्ट को कम करने के लिये क्या करना होगा; यह जानने के बाद अवश्य आगे बढ़ कर कार्य में जुट जाना चाहिये। यदि तुम ऐसी अभिप्रेरणा लेकर समाज-सेवा के कार्य में अपना योगदान करोगे तो तुम्हें उस समाज सेवा से महान आनन्द की अनुभूति होगी। यही कर्म तुम्हें उस सत्य तक पहुँचा देगा, जहाँ तुम शाश्वत-नश्वर का विवेक-प्रयोग करते हुए पहुँच सकते हो, मन पर नियंत्रण करने के माध्यम से, या भगवान को प्रेम करते हुए पहुँच सकते हो। अतएव, यदि तुम स्वयं को सम्पूर्ण मनुष्य तक विकसित करने की चेष्टा में किसी भी तरह से इन चारों मार्गों का समन्वय कर सको तो तुम आदर्श मनुष्य बन जाओगे।
महामण्डल स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त 'मनुष्य' का यही आदर्श देश के युवाओं के समक्ष प्रस्तुत करता है, एवं इन चारो योग मार्गों में समन्वय प्राप्त करने की एक प्रणाली - भी प्रस्तावित करता है। महामण्डल यह कहता है कि हमलोगों को किसी प्राचीन वेदान्ती की तरह विवेक-प्रयोग नहीं कर सकते हैं, यह अत्यन्त कठिन भी है। यहाँ तक कि तोतापुरी, जिन्होंने भगवान श्रीरामकृष्ण देव को वेदान्त-मत में दीक्षित किया था, क्या वे स्वयं प्रत्येक वस्तु में यह समानता (अभेद) को सर्वदा देखने में समर्थ हो सके थे ? जब किसी व्यक्ति ने उनके धूनी की आग को केवल छू लिया था, तब क्या वे क्रोध से नहीं भर गये थे ? और यह देख कर श्रीरामकृष्ण देव जब हँसना शुरू कर दिये, और लोट-पोट होने लगे; तो तोतापुरी जी गुस्सा हो गए, और उनसे पूछा, ' यह क्या है, इतना हँस क्यों रहे हो ?' श्रीरामकृष्ण देव ने कहा,' मुझे तो आपके अद्वैत-वेदान्त के अभेद-ज्ञान को देखकर हँसी आ गयी ! यह मनुष्य जिसने एक निम्न -जाति में जन्म लिया है, आया और आपकी पवित्र अग्नि को छू दिया, और इतने से आप उत्तेजित होकर आगबबूला हो गए !' इसीलिये हमलोग भी वैसे वेदान्ती तो नहीं बनने जा रहे हैं। हमलोग उस प्रकार का विवेक-प्रयोग नहीं करने जा रहे हैं; बल्कि हम अपनी विवेक-प्रयोग की शक्ति को एक सरल विधि - विवेकानन्द साहित्य का अध्यन करके विकसित करना चाहते हैं। 'अविनाशी और नश्वर' के बीच, अच्छे और बुरे के बीच, सही और गलत के बीच अन्तर करने की क्षमता बढ़ाने के लिये इन्हीं बातों पर परस्पर चर्चा करना ही हमलोगों के लिये 'ज्ञानयोग' का मार्ग है।
>>No longer ignorantly call a man -man , but try to recognize as God.
इसी तरह प्रतिदिन मनःसंयोग का अभ्यास करके हमलोग यह सीख लेंगे कि मन को अपने नियंत्रण में कैसे रखा जाता है। एवं ईश्वर के प्रति भक्ति और प्रेम को विकसित करने का प्रयास हमलोग केवल मंदिरों, मस्जिदों या गिरजाघरों में जाकर नहीं करेंगे। बल्कि हमलोग खेल के मैदान में, सड़क पर गली मुहल्ले में, गरीबों की झोपड़ियों में जायेंगे, और उन सबों में अपने प्रियतम की उपस्थित को अनुभव करने का प्रयास करेंगे। अब हमलोग जनसाधारण को अपनी अज्ञानता में 'मनुष्य' नहीं कहेंगे, बल्कि आगे से उनको (हरिया को) ईश्वर (श्री हरि जी) के रूप में पहचानने की चेष्टा करेंगे। [आशिक है तो माशूक को हर रूप में पहचान]
स्वामी जी ने हमें हर मनुष्य में भगवान को (अपने इष्टदेव को) देखने का निर्देश दिया है। वे कहते हैं, ' मैं ने ईश्वर की खोज में सारा जीवन लगा दिया है, उन्हें ढूँढ़ने की कोशिश मैंने हर जगह की है, किन्तु मैंने भगवान को केवल मनुष्यों में ही पाया है।' हमलोग समाज के लाखों दुःख-कष्ट से पीड़ित 'जनताजनार्दन ' के पास जायेंगे और अपनी सम्पूर्ण भक्ति उनके चरणों में अर्पित कर देंगे। इसी प्रकार हम भक्ति का अभ्यास करेंगे और हमलोग केवल अपने हृदय को विकसित करने के लिये ही समाज-सेवा का कार्य करेंगे।
अपनी अन्तर्निहित सर्वोच्च संभावना को साकार करने के लिये, अपने शरीर, मन और हृदय को विस्तृत करने के लिये हमलोग चारों महान पारम्परिक मार्गों का समन्वय करेंगे। और अभी हममें जितनी भी पाशविक वृत्तियाँ है, अपनी उन समस्त अमानुषिक गुणों पर विजय प्राप्त कर लेंगे, और हमलोग वास्तव में -'धरती पर देवता' (Divinities upon earth !) बन जायेंगे!
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[अमेरिका के मनुष्यों को भी स्वामीजी ने इसी नाम सम्बोधित करते हुए कहा था -"अमृतस्य पुत्राः" , हे अमृत के पुत्रो ! - कैसा मधुर और आशाजनक सम्बोधन है यह ! यदि आप आज्ञा दें तो मैं आपको इसी मधुर नाम - 'अमर आनंद के उत्तराधिकारी " से सम्बोधित करूँगा। निश्चय ही हिन्दू आपको पापी (आतंकवादी) कहना अस्वीकार करता है।- " आप तो इस धरती पर देवता हैं , आप भला पापी ? मनुष्य को पापी कहना ही पाप है , वह मानवस्वरूप पर घोर लांछन (libel-अपमान) है। आप उठें ! हे सिंहों ! आयें और इस मिथ्या भ्रम को झटककर दूर फेंक दें कि आप भेंड़ हैं। आप हैं आत्मा -जो अजर, अमर और अविनाशी हैं , जिसे कोई शस्त्र नहीं काट सकता , अग्नि नहीं जला सकती , वायु नहीं सुखा सकता , पानी नहीं भिगो सकता। आप जड़ पदार्थ (matter) नहीं हैं , आप शरीर नहीं हैं , शरीर तो आपका यंत्र है , जड़ तो आपका दास है , मन भी जड़ है -इसलिए मन भी आपका दास है , न कि आप अपने जड़ शरीर और मन के दास हैं !
" Ye divinities on earth — sinners! It is a sin to call a man so; it is a standing libel on human nature. Come up, O lions, and shake off the delusion that you are sheep; you are souls immortal, spirits free, blest and eternal; ye are not matter, ye are not bodies; matter is your servant, not you the servant of matter."
"
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं , " एक मनुष्य ज्ञानमार्गी, भक्तिमार्गी, योगमार्गी अथवा कर्ममार्गी हो सकता है। विभिन्न धर्मों में इन्हीं भावों में से किसी एक भाव का प्रधान्य देखा जाता है। परन्तु यह भी सम्भव हो सकता है कि इन चारों भावों का समन्वय एक ही व्यक्ति में किया जाय। भावी मानव जाति यही करेगी भी। यही मेरे गुरुदेव की धारणा थी। " ७/२५९
सम्पूर्ण विश्व के साथ एकात्मता का बोध होना - दुर्लभ अवस्था है। ह्रदय का विकास कैसे होता है ? सच्चा योगी दूसरों के दुःख-संताप को अपने हृदय में महसूस करता है ! दूसरे के पैर में काँटा गड़ गया हो, तो उसकी चुभन का अनुभव अपने हृदय में करते हैं। किन्तु श्रीठाकुर देव की तरह सर्वत्र चैतन्य ही हैं - यही विश्व-प्रेम अर्थात आत्मस्वरूप ब्रह्म का सभी प्राणियों में दर्शन को ही- अहं ब्रह्मास्मि कहा जाता है, खुली आँखों से ध्यान करते समय दैनन्दिन जीवन में ऐसी अनुभूति ही योगी को विश्वप्रेमिक बना देती है। ब्रह्म-स्वरुप अहं या 'पक्का मैं' की सीमा उस समय विश्वमय हो जाती है; उस अवस्था में योगी भुवनमंगल रूप होकर विराजमान रहते हैं। उनका प्रेम दिखावे वाला बाहरी विश्व-भ्रातृत्व नहीं बल्कि यह प्रेम योगी को आत्मज्ञान से विश्व-सेवा, जीव-सेवा या समाज-सेवा करने के लिये अभिप्रेरित करता है।काशी के मार्ग में जाते हुए, बैद्यनाथ धाम में आकाल-पीड़ित सैकड़ों नर-नारियों के कंकाल समान चेहरे और प्रायः नग्न शरीर को देखकर श्रीरामकृष्ण रो पड़े थे। रानी रासमणि के बड़े दामाद मथुरानाथ विश्वास से उन्होंने रोते हुए कहा -" इन्हें भरपेट खिलाओ, नये वस्त्र दो, सिर पर तेल दो ।" मथुर बाबु कुछ आपत्ति जताकर बोले -" बाबा, तीर्थ में अनेक खर्चे हैं, ये तो बहुत से आदमी हैं, इन्हें खिलाने-पहनाने में रूपये घट जायेंगे।" श्रीरामकृष्ण देव ने रोते हुए कहा - " तुमलोग जाओ, मैं काशी नहीं जाऊँगा, मैं इन्हीं के पास रहूँगा" -इतना कहकर वे दरिद्रों के साथ जाकर बैठ गये। लाचार होकर मथुर बाबु ने उन सबको भरपेट खिलाया, सिर में तेल दिया और हरेक एक-एक नया वस्त्र दिया। इससे उन दरिद्रों के मुख पर हँसी देखकर ठाकुर वहाँ से उठ आये। यही है विश्व को आत्मवत देखना, तथा दूसरों के दुःख से द्रवित होकर दुःख का अनुभव करना। दक्षिणेश्वर कालीबाड़ी के बाग के नयी दूब के ऊपर से एक व्यक्ति पैदल चला जा रहा था, देखकर श्रीठाकुर असहनीय यन्त्रणा का अनुभव कर एकदम विकल हो पड़े। बाद में उन्होंने कहा था -" छाती पर से कोई मनुष्य चला जाये तो जैसी वेदना का अनुभव होता है, उस समय मैंने वैसी ही वेदना का अनुभव किया था। " वह अनुभूति दो घन्टे तक थी। कालीबाड़ी के गंगा किनारे एक नाव पर दो माँझी झगड़ा कर रहे थे, उनमें से जो बलवान था, उसने दुर्बल मांझी की पीठ पर जोर से थप्पड़ मारा। उसे देखते ही ठाकुर चिल्लाकर रो पड़े। हृदयराम मामाजी की रुलाई सुनकर वहां दौड़ कर आ गये, उनकी पीठ पर बाम उखड़ आया था, उनकी पीठ लाल होकर फूल उठी है देखकर घबड़ाने लगे। मांझी के पीठ के आघात का चिन्ह श्रीठाकुर के पीठ पर देखकर हृदयराम आश्चर्यचकित हुए।श्रीठाकुर एकदिन पूजा के लिये दूब और बेलपत्र चुनने गए थे। बेलपत्र चुनते समय पत्ती के साथ उस वृक्ष की थोड़ी छाल निकल आयी, उसमें वृक्ष को जो वेदना का अनुभव हो रहा था उसे समझकर वे फिर बेलपत्र नहीं चुन सके। दूब चुनते हुए उन्हें अनुभव होने लगा सर्वत्र चैतन्य है, दूर्वादल भी छिन्न होकर कष्ट का अनुभव कर रहे हैं!
[ प्रतिध्वनि क्या है? इसकी व्याख्या में कहा गया कि जैसे पानी या दर्पण में चित्र दिखता है, वह प्रतिबिम्ब है। इसी प्रकार ध्वनि टकराकर पुन: सुनाई देती है, वह प्रतिध्वनि है। [resonance= एक ही आवृत्ति वाले एक समरूप (देखने में हूबहू) कंपनकारी स्रोत से एक ही स्वाभाविक माप के कंपन के उत्प्रेरण को अनुनाद (गूंज) कहते हैं । The inducing of vibrations of a natural rate by a vibrating source having the same frequency. 'हर शय में जलवा तेरा हूबहू है !']
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एक हृदय, दूसरे हृदय को केवल दूर से ही, प्रत्युत्तर भेज सकता है। --यह कुछ कुछ अनुकम्पन (शब्द की गूँज) जैसी वस्तु है। "हार्ट कैन ओनली रेस्पॉन्ड टु हार्ट फ्रॉम अ डिस्टेंस." इट इज समथिंग लाइक रेजोनेंस. जैसे एक निश्चित मेगाहर्ट्ज़ फ्रीक्वेंसीज के रेडियो तरंगों को एक स्थान से भेजा जाता है। किसी दूरस्थ स्थान पर एक इलेक्ट्रॉनिक रिसीवर होता है जो प्रेषित ध्वनि तरंगों को डिटेक्ट कर लेता है या पकड़ लेता है, और उसे ऐम्प्लीफाइ करता है, अर्थात आवाज को बढ़ा देता है। और हमलोग घर बैठे रेडिओ प्रसारण केन्द्र से प्रसारित होने वाले भाषण या विविध संगीत को सुन सकते हैं। (यहाँ मेगाहर्ट्ज़, रेडियो प्रसारण की आवृत्ति, फ्रीक्वेन्सी या बारम्बारता का मापक है) हमारा हृदय भी ठीक उसी प्रकार से कार्य करता है।
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