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शुक्रवार, 12 अगस्त 2016

卐卐 17. "हमारा व्यक्तिगत और सामूहिक कर्तव्य " - "Our Duties- 'First be men' ! 卐卐 महामण्डल ने स्वामी विवेकानन्द के सबसे महत्वपूर्ण शिक्षण -'Be and Make' को अभ्यास में लाने का बीड़ा उठा लिया है।' [एक नया युवा आन्दोलन -17.Our Duties]

"हमारा व्यक्तिगत और सामूहिक कर्तव्य : Our Duties- 'First be men' !
       >>What do we want ? and what is wanted from us ? 
       हम क्या चाहते हैं ? हम खुश रहना चाहते हैं। ख़ुशी क्या है ? सामान्य रूप से हम यह नहीं जानते। हम खुशियों की तलाश में इधर-उधर, हर चीज के पीछे भागते हैं। और इस भाग-दौड़ में हम यह भूल जाते हैं कि कुछ चीजें हमसे भी अपेक्षित हैं। हमसे क्या अपेक्षित है ? हमसे यह अपेक्षा की जाती है कि हमलोग कर्तव्यपरायण बनें। किसके प्रति कर्तव्यपरायण बनें ? हमलोगों को स्वय के प्रति , अपने परिवार के प्रति, समाज के प्रति , देश के प्रति और क्रमशः सम्पूर्ण मानवता के प्रति कर्तव्यपराण बनना चाहिये। 
     >>What could be our duty to ourselves, society or the country?
        हम जानते हैं कि परिवार के प्रति कर्तव्य कहने से आपका तात्पर्य क्या है। आपका तात्पर्य है यह है कि हमें कम से कम आराम और अधिक से अधिक परिश्रम करके जितना सम्भव उतना कमाना चाहिये और अपने ऊपर कम से कम खर्च करना चाहिये और सबकुछ परिवार को सौंप देना चाहिये। लेकिन स्वयं के प्रति हमारा कर्तव्य क्या हो सकता है ? समाज के प्रति कर्तव्य तो सामाजिक कार्यकर्ताओं का है , एवं देश के प्रति कर्तव्य राजनेताओं तथा उन जनप्रतिनिधियों का है जो इसी कार्य के लिये चुने गये हैं। फिर, समाज या देश के प्रति हमारा कर्तव्य क्या हो सकता है ? 
      आम जनता की सोच ऐसी ही होती है। लेकिन यह गलत है। जब तक कि कर्तव्य को उसकी समग्रता में नहीं समझा जाता, तब तक कोई भी कर्तव्य  ठीक से नहीं किया जा सकता है। परिवार के प्रति कर्तव्य को वही बेहतर ढंग से निभा सकता है, जो अपने प्रति, समाज के प्रति और देश के प्रति अपने कर्तव्य को समझता है। क्योंकि परिवार भी तो समाज की ही एक इकाई है , और व्यक्ति परिवार का सदस्य है। और व्यक्ति, परिवार , समाज और देश ये सभी मिलकर मानवता को आकार देते हैं। इस दृष्टि से देखने पर यह समझा जा सकता है कि स्वयं के प्रति या परिवार के प्रति कर्तव्य भी मानवता के प्रति कर्तव्य का ही एक अंग है। हमें अपने सभी कर्तव्यों को इसी आलोक में समझना होगा। स्वामी विवेकानन्द के अनुसार इस  विश्व-रंगमंच पर केवल मनुष्य बनने का एक नाटक (drama) चल रहा है, और हमलोग इस नाटक के केवल दर्शक भर ही नहीं हैं; बल्कि इस विश्व-रंगमंच के अभिनेता भी हैं [हमारे युग के प्रसिद्द वैज्ञानिक नील्स बोहोर (Niels Bohr, 1885 –1962) के अनुसार]; जो मानवता की भलाई के लिये अपने-अपने अंश का योगदान कर रहे हैं। 
>>Our duty to ourselves is to bring out the best in ourselves .
    अपने भीतर निहित सर्वोत्तम गुणों को आचरण में अभिव्यक्त करने के लिए स्वयं के प्रति हमारा कर्तव्य क्या हैं ?   स्वयं के प्रति हमारा कर्तव्य केवल अपने भीतर अन्तर्निहित में सर्वश्रेष्ठ (दिव्यता) को प्रकट करने के लिए प्रयास करना है। हमारे भीतर चरित्र के सभी अच्छे गुण , और उन्हें उपयोग में लाने की क्षमता हममें पहले से ही है, किन्तु सुषुप्त (dormant) हैं। उन्हें जाग्रत करना है , बाहर लाना है और आत्मप्रयास के द्वारा अपने आचरण में अभिव्यक्त करना है। हमलोगों का स्वयं के प्रति सबसे पवित्र कर्तव्य यही है जिसका पालन करना हमारा दायित्व है। अपने कर्तव्य के प्रति ऐसी भावना अपने 'मनुष्य जीवन ' को देवदुर्लभ कहे जाने के महत्व को समझ लेने के बाद प्राप्त होती है। यदि हम इस कर्तव्य की अनदेखी कर देते हैं तो हम न केवल अपना नुकसान करते हैं, बल्कि मानव जाति के कल्याण में भी बाधा डालते हैं। और जो व्यक्ति अपने अन्तर्निहित सर्वोत्तम गुणों को आचरण में अभिव्यक्त करने का प्रयास करता है , वह अपने परिवार, समाज और देश के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में अधिक दक्षता प्राप्त कर लेता है। 
        समाज और देश के प्रति कर्तव्यों का पालन विभिन्न तरीकों से किया जा सकता है। इस तरह के कार्य को ही कोई व्यक्ति अपने जीवन का एकमात्र  व्यवसाय के रूप में अपनाकर अपनी अतिरिक्त ऊर्जा, समय और धन का निवेश कर सकता है। ऐसे कई क्षेत्र हैं जिनमें कोई इनके लिये कार्य कर सकता है। इसके विभिन्न क्षेत्र के रूप में लोकहितैषी कार्य, समाज सेवा, शिक्षा , सामाजिक सुधर , (वंशगत?) राजनीति , धर्म आदि हो सकते हैं। सभी देशों में इन क्षेत्रों में ऐसे कार्यों का एक लम्बा इतिहास रहा है। अतीत में ऐसे कार्य अधिकतर व्यक्तिगत रूप से किये जाते थे। बाद इन लोकहितैषी कार्यों को गैर सरकारी संगठन (NGO) बनाकर संगठनात्मक तरीके से किया जाने लगा है। आगे चलकर राजनितिक संरक्षण में सरकारों ने धीरे-धीरे इन क्षेत्रों में प्रवेश करना शुरू कर दिया, जिसमें गैर-सरकारी संस्थाओं के लिए कुछ क्षेत्र के कार्यों को तो छोड़ दिया गया , किन्तु व्यक्तिगत प्रयासों के लिये थोड़ा ही कार्य शेष रहा।  सभी समाजों में तेजी से बदलती हुई आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों में  ऐसा होना आम तौर पर बिल्कुल स्वाभाविक है।
      >>>onerous duty of serving others : (दूसरों की सेवा करने का कठिन कर्तव्य:)
        प्रश्न उठ सकता है कि क्या ये बदलती हुई परिस्थितियाँ किसी व्यक्ति को समाज और देश के प्रति उसके कर्तव्यों से मुक्त कर देती हैं ? तो उत्तर होगा- नहीं। इसके विपरीत, बदली हुई  परिस्थितियों ने किसी व्यक्ति को उसके कुछ पुराने सामाजिक दायित्वों के बोझ से तो मुक्त कर दिया है, लेकिन उसके बदले एक अधिक कठिन कर्तव्य को सौंप दिया है, - दूसरों की सेवा हमें इस तरह से करनी होगी कि वे 'स्वयं के प्रति किये जाने वाले उन कर्तव्यों के विषय में  जागरूक हो सकें जो अंततः उन्हें समाज और देश के प्रति उनके कर्तव्यों का पालन करने के योग्य बना देते हैं। इस कार्य को भी व्यक्तिगत रूप से या फिर संगठित तरीके से भी किया जा सकता है। 
     >>The duty to oneself : (स्वयं के प्रति हमारे कर्तव्य)  
     स्वयं के प्रति हमारा कर्त्तव्य है पहले से विद्यमान अपनी शक्तियों और गुणों में से सर्वश्रेष्ठ को अपने आचरण में अभिव्यक्त करने का प्रयास करना है। इस कार्य को  'होना' (Being) और 'बनना' (Becoming) कहा जा सकता है। इससे हम स्वामी विवेकानन्द के नीति-वाक्य (motto) -'Be and Make' में कहे गए 'Be' के अभिप्राय को समझ सकते हैं। तथा दूसरों को समाज और देश के प्रति उनके कर्तव्य के विषय में , और उनकी अपनी मनुष्योचित गरिमा , उसकी संभाव्यता और उन्हें प्रकट करने के कर्तव्य के प्रति जागरूक होने में सहायता करना है।  ताकि वे भी उनके भीतर जो सर्वोत्कृष्ट गुण हैं उन्हें अपने आचरण में अभिव्यक्त करके वे वह 'बन सकें' (Become-ब्रह्मविद) जो वे वास्तव में हैं। इससे स्वामी जी के उपरोक्त आदर्श वाक्य में कहे गए 'Make' का तात्पर्य समझा जा सकता है। 
      >>Mahamandal has chosen to translate this central teaching of Swami Vivekananda, 'Be and Make'  into practice         
       स्वामी विवेकानंद ने धर्म, समाजशास्त्र, राजनीति, इतिहास, शिक्षा, भौतिक वस्तुओं में छिपे सौन्दर्य को देखने की विद्या -एस्थेटिक्स (aesthetics-सौंदर्यशास्त्र)  इत्यादि जैसे कई विषयों पर बहुत कुछ बोला है। लेकिन बार-बार वे उसी एक सरल कर्त्तव्यनिर्देश प्रस्ताव (proposition) पर लौट आए हैं ,जिसका नाम है 'पहले मनुष्य बनो', पहले हमें ईश्वर (100 % निःस्वार्थी मनुष्य) बन लेने दो। तत्पश्चात दूसरों को ईश्वर बनने में देंगे।  'बनो और बनाओ ' -यही तुम्हारा मूलमंत्र हो।"  उन्होंने बार बार यह आश्वासन दिया है कि, यदि ऐसा किया जा सके ; अर्थात यदि भारत के राष्ट्रीय आदर्श 'त्याग और सेवा ' की भावना में तीव्रता लायी जा सके, तो बाकी सब कुछ अपने आप ठीक हो जाएगा ! 
       यही वह कार्य है जिसे महामंडल ने चुन लिया है। समाज के प्रति दूसरे अन्य कर्तव्यों और दायित्वों का पालन करने के लिए तो बहुत सारी संस्थायें हैं। ऐसे सभी कार्यों में विशेष धन व्यय करने की आवश्यकता रहती है। जबकि महामंडल के पास निवेश करने के लिए पूँजी के रूप में केवल ऊर्जा, (त्याग और सेवा की) भावना और कार्य करने का दृढ़ संकल्प है ! और महामण्डल ने इसी पूँजी का उपयोग करके स्वामी विवेकानन्द की इस मनुष्य निर्माणकारी मुख्य शिक्षा को अभ्यास में लाने के लिए, भारत के गाँव -गाँव , शहरों -शहरों में इसका प्रचार-प्रसार व्यक्तिगत रूप से और संगठित तरीके से करने का बीड़ा उठा लिया है ! 
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पूर्ण-हृदयवान मनुष्य बना कैसे जाता है ? विश्व-रंगमंच पर केवल 'हृदयवान मनुष्य ' बनने का नाटक चल रहा है !' विश्व-रंगमंच पर केवल एक ही नाटक चल रहा है, और वह है 'सम्पूर्ण हृदय वाला' मनुष्य बनना!










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