卐 महामण्डल की भूमिका 卐
एक पुरानी कहावत है,आप एक ही नदी में दो बार डुबकी नहीं लगा सकते। यह कहावत एक अन्य प्रचलित लोकोक्ति (adage)- `इतिहास स्वयं को दोहराता है' का सीधा खण्डन करता है। इस जगत को सतत प्रवाहमान कहा गया है, यह किसी नदी की तरह ही समय के साथ बहता रहता है। और जिस प्रकार कोई नदी अपने मार्ग में पुनः नहीं लौट सकती उसी प्रकार एक ही नदी में कोई दो बार डुबकी भी नहीं लगा सकता, क्योंकि उसी बीच वह समय के साथ पहले ही एक लम्बा रास्ता तय कर चुकी होती है। फिर इतिहास स्वयं को कैसे दोहराता है ? यह प्रश्न बहुत प्रासांगिक है।
>>law of history : किन्तु हम यदि पीछे मुड़कर गुजरे हुए समय, जिसे हम सही या गलत 'इतिहास' कहते हैं, में जाँच -पड़ताल करें (look into), तो पाते हैं कि समय के प्रवाह में हम एक ही प्रकार की घटनाओं को बारम्बार घटित होते हुए देख रहे हैं। हालाँकि सामाजिक वातावरण और परिवेश बिल्कुल भिन्न होता है। और तब हमें ऐसा लगता है मानो हमने इतिहास के एक नियम को आविष्कृत कर लिया है , और हम घोषणा कर देते हैं कि -`इतिहास स्वयं को दोहराता है। ' किन्तु वैसा ही दूसरे सही तथ्य की अनदेखी कर देते हैं 'समय के प्रवाह में घटनाओं की पुनरावृत्ति भले ही एक जैसी दिखती हों, पर उनकी न्यायसंगत पुनरावृत्ति नहीं हो सकती।
इन दोनों विरोधाभासी कहावतों का समाधान इस तथ्य में निहित है कि दोनों में से कोई भी उक्ति न तो पूरी तरह से गलत है, और न पूरी तरह से सही है। जब कोई घटना स्वयं को दोहराती हुई सी प्रतीत होती हैं, तब तक सम्पूर्ण परिस्थितियाँ पूरी तरह से बदल चुकी होती हैं, और वास्तव में एक ही नदी में दो बार डुबकी नहीं लगाई जा सकती। किन्तु यदि हम बहती हुई नदी के वास्तविक कणों (अणु -परमाणु) पर हमारा ध्यान न हो तो हम पाते हैं कि अपने तल और दोनों किनारों तथा अन्य वस्तुओं सहित नदी बिल्कुल वैसी ही है। उसी प्रकार जिन घटनाओं को हम अभी घटित होते हुए देख रहे हैं उसमें बहुत सी बातें ऐसी हैं जो पहले घटित किसी घटना में में भी समान रूप से मौजूद थीं। [जैसे ज्वार भाटे के उतराव में किसी खास बिन्दु पर एक शिखर भी प्रतीत होता है, इसकी प्रकृति भी बिल्कुल उसी घटना की तरह होती है, जिसका हमने पहले किसी स्थान और समय में अवलोकन किया था।]
हमलोग भी इस समय एक ऐसे दौर से गुजर रहे हैं जब हमारे देशवासियों ने अपनी आत्मश्रद्धा को लगभग सम्पूर्ण रूप से खो दिया है। विचारधारा और कर्म में कौशल का सम्पूर्ण सत्यानाश हो चुका है। हजार वर्षों की गुलामी ने हमें एक ऐसे राष्ट्र में परिणत कर दिया है, जिसकी रीढ़ की हड्डी ही नहीं बची है। आज जबकि पराधीनता के जुए को हमारे कन्धों से उठा दिया गया है, तब भी क्यों हमलोग अपना सिर उठाकर नहीं चल सकते। झुककर रहना ही हमारी आदत बन चुकी और गुलामों की भाँति किसी दूसरे जुए आदेश की प्रतीक्षा करते रहते हैं; किन्तु अपने भविष्य का निर्माता स्वयं बनने की बात तो सोच भी नहीं सकते। प्रश्न है ऐसा क्यों ? क्योंकि हमने अन्य कोई शिक्षा ग्रहण करने से पहले स्वयं पर विश्वास करना सीखा ही नहीं है।
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " विश्वास - विश्वास! अपने आप पर विश्वास, परमात्मा के ऊपर विश्वास -यही उन्नति करने का एकमात्र उपाय है। यदि पुराणों में कहे गये तैंतीस करोड़ देवताओं के ऊपर, और विदेशियों ने बीच बीच में जिन देवताओं को तुम्हारे बीच घुसा दिया है, उन सब पर भी तुम्हारा विश्वास हो, और अपने आप पर विश्वास न हो तो तुम कदापि मोक्ष के अधिकारी नहीं हो सकते। अपने आप पर श्रद्धा करना सीखो! और इसी आत्मश्रद्धा के बल से अपने पैरों पर खड़े हो जाओ !"
यदि हम एक सार्वभौम राष्ट्र के रूप जीना चाहते हों, यदि हम अपने खोये हुए आत्मविश्वास को पुनः प्राप्त करके राष्ट्र की मृत्यु को रोकना चाहते हों, तो ये ही वे सरल बातें हैं , जिन्हें हमें सिखाना पड़ेगा। समाज सेवा के साधारण एवं छोटे-छोटे कार्य करते समय इसके वास्तविक उद्देश्य पर अपनी दृष्टि को स्थिर रखते हुए, हम यह सीख सकते हैं कि बदले में कुछ भी पाने की आशा किये बिना ही दाता की भूमिका को कैसे ग्रहण किया जाता है और साथ ही साथ भरपूर आत्मविश्वास भी कैसे अर्जित होता है। इसी प्रयत्न में जुट जाने के लिये अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल, अपने सभी युवा मित्रों को प्रेरित करता है। इसका कोई बहुत विस्तृत मैनिफेस्टो या घोषणा पत्र नहीं है। वास्तव में महामण्डल यह नहीं जानता कि आगे चलकर व्यापक सन्दर्भ में इसे कौन सी भूमिका निभानी होगी। यह बहुत ही छोटे रूप में गठित होकर छोटे से बड़ा होता जा रहा है। धीरे धीरे यह युवाओं के मन को जीत रहा है, ग्रामीण क्षेत्र के युवाओं को तो विशेष रूप से अपनी ओर आकर्षित कर रहा है। ये युवा स्वयं को एक दुर्भेद्य-दुर्ग के रूप में गठित कर रहे हैं, जहाँ स्वार्थपरता को प्रवेश करने की अनुमति नहीं है, जहाँ सेवापरायणता कभी आत्म-प्रशंसा के बोझ तले दब नहीं जाती।
यही वह सबक है , जिसे हमलोगों को व्यक्तिगत तौर पर और साथ ही राष्ट्रीय तौर पर
सीखना है। जब तक हम मदद के लिये दूसरों के पास हाथ पसारते रहेंगे, हर समय भीख माँगते रहेंगे, तब तक हमलोगों को न तो व्यक्तिगत तौर पर न ही राष्ट्र के स्तर पर मोक्ष के अधिकारी हो सकेंगे। हम लोग जीवन के हर क्षेत्र में व्यक्तिगत एवं राष्ट्र के स्तर पर दाता की भूमिका ग्रहण करना भूल चुके हैं। हमलोगों को इस बात की कभी शिक्षा ही नहीं मिली कि हममें से प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी क्षेत्र में दाता की भूमिका ग्रहण कर सकता है। उसी प्रकार एक राष्ट्र के रूप में भी अन्य राष्ट्रों को देने के लिये हमारे पास बहुत कुछ है। स्वामीजी कहते हैं - " संसार में सर्वदा दाता की भूमिका ग्रहण करो। सर्वस्व दे दो, पर बदले में कुछ न चाहो।"
स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - मैं कभी योजना नहीं बनाता,योजनायें स्वतः उदित होती हैं और वे निज बल से ही पुष्ट होती हैं , मैं केवल कहता हूँ -जागो, जागो !" (७ जून १८९६ को लिखित एक पत्र) अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल सभी युवाओं से केवल यही अनुरोध करता है कि वे स्वामी विवेकानन्द के इस आह्वान को ध्यान देकर सुनने और समझने का प्रयास करें। और उस संकट की स्थितियों के प्रति जाग उठें।
जब हमारी चिर गौरवमयी भारत माता विषम परिस्थितियों में घिरी हुई है। जब हमलोग किसी के ऊपर भरोसा नहीं रख पते हैं , यहाँ तक कि स्वयं के ऊपर भी विश्वास नहीं कर पा रहे हैं, हमें यह बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिये कि हमारी प्रतिभा के अनुरूप भविष्य के भारत का निर्माण ही हमारा एकमात्र धर्ममत या सिद्धान्त होना चाहिए , और राष्ट्र-निर्माण भीख माँगने से नहीं केवल दाता की भूमिका ग्रहण करने से ही सम्भव होता है ! सन्देह या अविश्वास कभी राष्ट्र-निर्माण के लिए प्रेरक बल नहीं बन सकता , केवल स्वयं के ऊपर विश्वास से ही ऐसा हो सकता है। यदि अखिल भारत विवेकानन्द युवा महामण्डल को भविष्य का नया -भारत गढ़ने में कोई भूमिका अदा करनी है , तो वह है देश के नवयुवकों में इस खोये हुए आत्मविश्वास को वापस लौटा देने में सहायता करना ।
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स्वामी विवेकानन्द कहते हैं -" इस संसार में ईश्वर से साक्षात्कार का प्रयास करते रहना ही जीवन है ! यदि एक क्षण के लिये भी तुमने यह सोचा कि तुम स्वयं ईश्वर नहीं हो , तो तुम्हें महाभय ग्रास कर लेगा। और जैसे ही तुम सोचोगे, 'सोSहम --मैं वही हूँ,' वैसे ही तुम्हें महान आनन्द और शान्ति की उपलब्धि होगी। " ( ज्ञान और कर्म ९/१९२ )
" मनुष्य को नैतिक और पवित्र क्यों होना चाहिये ? क्योंकि इससे उसकी इच्छाशक्ति बलवती होती है। वह सब जो मनुष्य की अन्तर्निहित दिव्यता को उद्भासित करते हुए उसकी इच्छाशक्ति को सबल बनाये, नैतिक है। और वह सब, जो इसके विपरीत करे, इम्मोरल या अनैतिक है।"
इस कार्य में हमारी सहायता वे ही कर सकते हैं जो अपने ईश्वरत्व को कभी नहीं भूलते। ये सभी अवतार (श्रीरामचन्द्र, श्रीकृष्ण,श्रीरामकृष्ण, बुद्ध,ईसा,विवेकानन्द, कैप्टन सेवियर, नवनीदा) उन अभिनेताओं के समान हैं, जिनका अपना अभिनय समाप्त हो चुका है, जिनका निजी अन्य कोई प्रयोजन नहीं है तो भी दूसरों आनन्द देने के लिये रंगमंच पर बारम्बार लौट आते हैं। वे हमें कुछ काल तक शिक्षा देने भर के लिये हमारा रूप और सीमायें धारण करके आते हैं, वे ऐसा अभिनय करते हैं, मानो वे हमारे ही समान बद्ध हैं, किन्तु वे वास्तव में सीमित नहीं होते, वे सर्वदा मुक्तस्वभाव ही रहते हैं ।"(देववाणी- बुधवार,१९ जून, १८९५)]
" समग्र संसार हमसे इस धर्मसहिष्णुता की शिक्षा ग्रहण करने के इन्तजार में बैठा हुआ है। हाँ, तुमलोग शायद नहीं जानते कि विदेशों में कितना परधर्म-विद्वेष है। धर्म के लिए किसी मनुष्य की हत्या कर डालना पाश्चात्य देशवासियों के लिये इतनी मामूली बात है कि आज नहीं तो कल गर्वित पाश्चात्य सभ्यता के केन्द्रस्थल (अमेरिका) में ऐसी घटना (9/11) हो सकती है!" (वेदान्त का उद्देश्य ५/८३ -८६) ]
[प्रत्येक युग का अवतार-ग्रहण, प्रत्येक युग में एक के बाद दूसरे आध्यात्मिक शिक्षकों/नेताओं का अवतरित होते रहना, एक दूसरे की कार्बन-कॉपी बिल्कुल नहीं होती है ! अभी अवतारों में अलग अलग विशेषता दृष्टिगोचर होती है। फिर भी, सभी ईश्वर के प्रति और अपने प्रति श्रद्धावान होते हैं ,'आध्यात्मिक शिक्षक अपने ईश्वरत्व को कभी नहीं भूलते ! ' इस तथ्य की अनदेखी करते हुए हमलोग अपने मन से सोच लेते हैं कि -" हिस्ट्री रिपीट्स इटसेल्फ" - इतिहास खुद को दोहराता है!
[महामण्डल को सर्वदा दाता (आध्यात्मिक शिक्षा दाता - शिक्षक) की भूमिका में रहना है !
समग्र संसार को धर्मसहिष्णुता की शिक्षा देना ही भारत का भाग्य है !
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केवल आत्मविश्वास (अपने ईश्वरत्व का विश्वास) ही व्यक्ति को दाता की भूमिका ग्रहण करने के लिये अनुप्रेरित कर सकता है ! हमें यह बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिये कि हमारा एकमात्र धर्म-मत या सिद्धान्त (creed) है, राष्ट्र-निर्माण ! और उस भविष्य के भारत का निर्माण हमें अपनी महान राष्ट्रिय-प्रतिभा के अनुरूप ही करना चाहिये, जो यह शिक्षा देती है कि राष्ट्र-निर्माण भीख माँगने से नहीं , केवल दाता की भूमिका ग्रहण करने से ही सम्भव होता है !
जवाब देंहटाएं" समग्र संसार हमसे इस धर्मसहिष्णुता की शिक्षा ग्रहण करने के इन्तजार में बैठा हुआ है। हाँ, तुमलोग शायद नहीं जानते कि विदेशों में कितना परधर्म-विद्वेष है। धर्म के लिए किसी मनुष्य की हत्या कर डालना पाश्चात्य देशवासियों के लिये इतनी मामूली बात है कि आज नहीं तो कल गर्वित पाश्चात्य सभ्यता के केन्द्रस्थल (अमेरिका) में ऐसी घटना (9/11) हो सकती है!" (वेदान्त का उद्देश्य ५/८३ -८६) ]
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