महामण्डल की कार्य योजना
महामण्डल का मुख्य कार्य है, नवयुवकों के मन को इस प्रकार प्रशिक्षित करना- जिससे उन्हें एक नई जीवन-दृष्टि (life-view) प्राप्त हो, और वे अपने जीवन के चरम लक्ष्य को खोज सकें।साथ ही जीवन क्या है ? मनुष्य-जीवन को देव-दुर्लभ क्यों कहा जाता है इत्यादि की समझ और आत्मविकास करने तथा चरित्र-निर्माण की व्यवहारिक पद्धति प्रदान करना। ताकि हमारे युवा ऐसे विवेकशील नागरिक बन सकें, जो समाज और देश के प्रति अपने कर्तव्य निभाने के लिये सजग और सक्षम हों, और साथ-साथ अपने व्यक्तिगत जीवन में उच्चतर परिपूर्णता को प्राप्त करने में सफल हो सकें! महामण्डल की समस्त कार्य योजनायें इसी उद्देश्य को प्राप्त करने की दिशा में निर्देशित हैं। प्रत्येक मनुष्य के जीवन और चरित्र का निर्माण करके एक उच्चतर समाज का निर्माण करना ही महामण्डल का उद्देश्य है। स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में कहें तो-'man-making and character-building'--'मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माण' ही महामण्डल का उद्देश्य है। 'मनुष्य निर्माण' का अर्थ होता है,उसके तीनों प्रमुख अवयव -'3H' Hand (शरीर), Head (मन) और Heart (ह्रदय) का संतुलित विकास! यहाँ Head से तात्पर्य है विवेक प्रयोग करने की शक्ति का विकास , Hand -शारीरिक शक्ति तथा Heart-दूसरों के सुख-दुःख को अपने हृदय में अनुभव करने की शक्ति का प्रतीक है। जब समाज का प्रत्येक व्यक्ति, सामूहिक रूप से और व्यापक पैमाने पर इसी एकमात्र उद्देश्य के लिये प्रयास करने लगेगा, तो निश्चित रूप समाज के ऊपर इसका प्रभाव पड़ेगा, जिसके फलस्वरूप के समाज की अवस्था में भी धीरे धीरे उन्नति दिखने लगेगी।
किन्तु इस 'मनुष्य-निर्माण योजना' को पंच-वर्षीय, दस-वर्षीय या पच्चीस वर्षीय योजना में सीमाबद्ध नहीं किया जा सकता । क्योंकि एक पीढ़ी के बाद, दूसरी पीढ़ी आती रहती है , इसीलिये हमें इस 'कार्य-योजना' को निरन्तर जारी रखना पड़ेगा। और हमारे जीवन में ऐसा कोई क्षण नहीं आयेगा, जब हम उच्च स्वर से घोषणा करेंगे, " समाप्ति ! हमारा कार्य समाप्त हुआ, हमने अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया है- देखो यह रहा, पूर्ण विकसित मनुष्यों का परिपूर्ण समाज!" ऐसा सोचना एक अवास्तविक कल्पना है, अयथार्थवादी कथन है - और ऐसा समय कभी नहीं आने वाला है। जो लोग इस कार्य-योजना 'Be and Make अपने जीवन का एक मिशन समझकर, इसके साथ जुड़ना चाहते हैं, उन्हें आजीवन परिश्रम करते रहने के लिये अवश्य तत्पर रहना होगा।इस थाती को (विवेकानन्द-कैप्टन सेवियर निवृत्ति अस्तु महाफला वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण पद्धति को) उन भावी आध्यात्मिक शिक्षकों/नेताओं के हाथों में सौंप देना होगा, जो हमारे बाद आकर इस आन्दोलन से जुड़ने वाले हैं !
महामण्डल युवाओं का संगठन है इसलिए, हो सकता है कि इस आंदोलन से जुड़ने वाले सभी युवा समाज में प्रचलित धार्मिक अनुष्ठानों को पसन्द नहीं करते हों, किन्तु वे सभी एक योग्य नागरिक बनने में अवश्य रूचि रख सकते हैं। जो अपने सम्पूर्ण जीवन को देशवासियों और मातृभूमि के कल्याण में समर्पित कर देने की क्षमता रखता हो। वास्तव में यही सर्वोच्च आध्यात्मिकता है। इस प्रकार वे पूर्ण मनुष्यत्व भी अर्जित कर सकेंगे । एक बड़ी संख्या में निष्कपट, ईमानदार, मेहनती, देशभक्त, निःस्वार्थी , विनम्र, त्यागी , उत्साही, और साहसी युवक देश भर में प्रत्येक स्थान पर हैं, जो राष्ट्र के पुनरुत्थान के लिए खुद को समर्पित कर देने को उत्सुक हैं, ऐसे युवाओं को संगठित एवं उत्साहित किया जा सकता है।
इसके लिये अत्यावश्यक कार्य को समझना होगा, उस आवश्यकता को पूर्ण करने की पद्धति को जानना होगा , उस पद्धति का प्रयोग बहुत उचित रीति से करने के बाद उसके परिणाम पर भी दृष्टि रखनी होगी। यदि भारत में एक महान परिवर्तन लाना चाहते हैं - तो उसका यही उपाय है। स्वामी विवेकानन्द ने यह भी कहा है कि - "जब आप मूल और ठोस बुनियादी कार्य करना चाहते हैं तो समस्त वास्तविक प्रगति मन्द ही होगी।" ४/२३३]
कुछ लोग पूछते सकते हैं - " क्या सभी मनुष्यों को उन्नत किया जा सकता है? यदि नहीं तो क्या यथास्थिति को बनाये रखना ही विकल्प है ? क्या ऐसा सोंचने से किसी भी समस्या का हल निकलेगा ? लेकिन यदि इन प्रयासों को निरन्तर जारी रखा जाये तो कम से कम कुछ लोगों के चरित्र में अवश्य सुधार होगा, और क्रमशः इनकी संख्या में वृद्धि होगी और परिस्थितियाँ बदलने को बाध्य हो जायेंगी। स्वामी विवेकानन्द इसी बात की ओर ध्यान दिलाते हुए कहते हैं - " जब हम विश्व-इतिहास का मनन करते हैं, तो पाते हैं कि जब- जब किसी राष्ट्र में ऐसे लोगों की संख्या में वृद्धि हुई है, तब तब उस राष्ट्र का अभ्युदय हुआ है, तथा जब ससीम में असीम और अविनाशी आत्मा की खोज (उसे उपयोगितावादी कितना भी अर्थहीन प्रमाणित करने की चेष्टा क्यों न करें) --समाप्त हो जाती है, तो उस राष्ट्र का पतन होने लगता है। " (२/१९८) हमें इसी योजना को साकार करने के लिये कार्य करना है !
अब कुछ लोग पूछ सकते हैं, और जैसा हमें अक्सर सुनने को मिलता है, ठीक है, आप लोगों का उद्देश्य तो महान है, योजनायें भी प्रशंसनीय हैं, किन्तु इस कार्य-योजना को साकार करने के लिये आपका मार्ग क्या है ? इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि, इस मनुष्य निर्माण एवं चरित्र-निर्माण' की पद्धति का अविष्कार हमारे पूर्वज ऋषियों ने हजारों वर्ष पूर्व ही कर लिया था, स्वामी विवेकानन्द ने उसी पद्धति को वनो के आश्रमों और मठों के चहारदीवारियों से बाहर निकाल कर जन-सामान्य के घरों तक पहुँचा दिया है।
और यह पद्धति (ऑटोसजेशन) आधुनिक मनोविज्ञान की शब्दशः प्रतिध्वनि है,और पूर्णतः विज्ञान सम्मत भी है। यदि बहुत संक्षेप में कहें तो, इस पद्धति में चारित्रिक-गुणों के सिद्धान्तों का पहले श्रवण करना, फिर उसके ऊपर गहराई से चिंतन- मनन करने के बाद उसकी स्पष्ट अवधारणा को विवेक प्रयोग और मनःसंयोग का अभ्यास करते हुए, अपने अवचेतन मन में अंतःस्थापित कर लेना पड़ता है। तत्पश्चात विवेक की पहरेदारी और मार्गदर्शन में उपरोक्त प्रक्रिया का पुनः पुनः अभ्यास इतनि तत्परता के साथ करना है कि वे सिद्धान्त अवचेतन मन में स्थायी रूप से मुद्रित हो जायें। साथ ही इस प्रक्रिया को नियंत्रित और लक्ष्य की दिशा में निर्देशित भावावेग की सहायता से सदैव सरस् बनाये रखना होगा - जो कि ह्रदय की भूमिका है। इस प्रकार यह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि यह पद्धति ,विवेक प्रयोग (ज्ञानयोग ), मानसिक नियंत्रण (राजयोग) हृदय के आवेग का नियंत्रण (भक्तियोग) और चरित्र निर्माण के उद्देश्य से निःस्वार्थ समाज-सेवा के कार्य (कर्मयोग); चारों योगों का एक सामंजस्यपूर्ण संयोजन है।
और यह पद्धति (ऑटोसजेशन) आधुनिक मनोविज्ञान की शब्दशः प्रतिध्वनि है,और पूर्णतः विज्ञान सम्मत भी है। यदि बहुत संक्षेप में कहें तो, इस पद्धति में चारित्रिक-गुणों के सिद्धान्तों का पहले श्रवण करना, फिर उसके ऊपर गहराई से चिंतन- मनन करने के बाद उसकी स्पष्ट अवधारणा को विवेक प्रयोग और मनःसंयोग का अभ्यास करते हुए, अपने अवचेतन मन में अंतःस्थापित कर लेना पड़ता है। तत्पश्चात विवेक की पहरेदारी और मार्गदर्शन में उपरोक्त प्रक्रिया का पुनः पुनः अभ्यास इतनि तत्परता के साथ करना है कि वे सिद्धान्त अवचेतन मन में स्थायी रूप से मुद्रित हो जायें। साथ ही इस प्रक्रिया को नियंत्रित और लक्ष्य की दिशा में निर्देशित भावावेग की सहायता से सदैव सरस् बनाये रखना होगा - जो कि ह्रदय की भूमिका है। इस प्रकार यह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि यह पद्धति ,विवेक प्रयोग (ज्ञानयोग ), मानसिक नियंत्रण (राजयोग) हृदय के आवेग का नियंत्रण (भक्तियोग) और चरित्र निर्माण के उद्देश्य से निःस्वार्थ समाज-सेवा के कार्य (कर्मयोग); चारों योगों का एक सामंजस्यपूर्ण संयोजन है।
महामण्डल के सभी कार्यकलाप इतने सुनियोजित हैं कि इसमें सम्मिलित होने वाले प्रत्येक सदस्य को उपरोक्त चारों योगों के सामंजस्यपूर्ण संयोजन से होकर गुजरना ही पड़ता है। प्रार्थना , मनःसंयोग , पाठचक्र, मनःसंयोग, और समाज सेवा चरित्र-निर्माण प्रक्रिया में चारो योगों को क्रमशः चार धाराओं में निरूपित करती है। समाजसेवा महामण्डल का लक्ष्य नहीं है, बल्कि यह चरित्र-निर्माण का एक उपाय मात्र है, इसकी मात्रा महामण्डल कार्य-योजना की सफलता का पैमाना नहीं है। महामण्डल के कार्यों को करते समय सदस्यों का दृष्टिकोण ,विवेक प्रयोग करने की क्षमता में वृद्धि , ह्रदय को सरस बनाये रखते हुए भावावेग पर नियंत्रण, मन को वश में रखने की क्षमता में वृद्धि इत्यादि बातें ही विचारणीय हैं।
महामण्डल युवाओं के लिये इस प्रकार का एक परिवेश उपस्थित कराता है, जिसमें शामिल होकर वे महामण्डल की कार्य-योजना के अनुरूप अपने चरित्र का निर्माण कर सकते हैं। महामण्डल के केन्द्र (जिनकी संख्या विभिन्न राज्यों में ३१५ से अधिक हैं) शहरों और गाँवों में है - इसे किसी कमरे, बरामदे या वृक्ष की छाया में, या खेल के मैदान अथवा पार्क में -जहाँ नवयुवक इकट्ठा होते हों, वहीं स्थापित किया जा सकता है।
बच्चों के लिये भी इसीके अनुरूप किन्तु अधिक सरल ढंग से अभ्यास करने की व्यवस्था की जाती है। मानव की अन्तस्थ दिव्यता की पूजा के लिये बाह्य सेवा की पद्धति का लाभ उठाने के लिये, तथा इसे जीवन के प्रतिमुहूर्त प्रकट करने के लिए महामण्डल के केन्द्रों द्वारा दातव्य चिकित्सालय, कोचिंग क्लास, प्रौढ़ शिक्षा केन्द्र, बच्चों के लिए स्कूल , छात्रावास, पुस्तकालय इत्यादि चलाये जाते हैं। इसके अलावा प्राकृतिक आपदा से पीड़ित लोगों के लिये राहत कार्य, कृषि-प्रशिक्षण, ग्रामोन्नयन के कार्य, गरीबछात्रों तथा अभावग्रस्त लोगों की सहायता के लिये अन्य गतिविधियाँ भी चलायी जाती है। निर्धन रोगियों के लिये वे अक्सर रक्तदान भी किया करते हैं ।
वे वैसे सभी कार्य करते हैं जिससे उनकी मांस-पेशियाँ पुष्ट हों, मस्तिष्क को तेज और हृदय को विस्तृत या उदार बनाये। इस सम्पूर्ण कार्ययोजना को समझने में सहायता करने के लिए, स्थानीय या जिला-स्तरीय से लेकर अखिल भारतीय स्तर पर अक्सर युवा प्रशिक्षण शिविर आयोजित होते रहते हैं। शिविर में जीवन गठन के विशिष्ट पद्धतियों की विस्तृत जानकारी दी जाती है तथा उन्हें अपनी क्रमागत उन्नति का रिकॉर्ड रखने का परामर्श भी दिया जाता है। इन रिकॉर्ड का अनुवर्ती अध्यन (Follow-up studies) सभी सदस्यों के चारित्रिक-गुणों में क्रमशः सुधार की बहुत उत्साहजनक परिणामों की ओर इशारा करते हैं । देश के विभिन्न राज्यों से आये विभिन्न मतावलम्बी और भाषा-भाषी युवा जब एक जगह पर सम्मिलित होकर साथ-साथ रहते हैं सामूहिक गतिवधियों में भाग लेते हैं, तब उनमें सहिष्णुता, सहयोग की भावना, एकात्म-बोध एवं राष्ट्रीय एकता की भावना जागृत होती है। यह सब कुछ एकसाथ युवाओं को - कर्तव्यपारायण, देशभक्त, निःस्वार्थी एवं मानवतावादी दृष्टिकोण से युक्त त्यागी , सेवा भावना और उदार दृष्टिकोण से सम्पन्न नागरिक बनने के लिये अनुप्रेरित करते हैं ।
अतः युवाओं के लिये यह समझ लेना अत्यन्त आवश्यक है कि जब तक हमारा अपना चरित्र
सुन्दर ढंग से गठित नहीं हो जाता, तब तक हम राष्ट्र की सेवा करने, समाजिक समस्याओं समाधान करने एवं समाज में होने वाले अनिष्ट को रोकने में समर्थ नहीं हो सकते हैं। अतः अन्य लोगों के लिये भी यह स्वाभाविक कर्तव्य हो जाता है कि वे युवाओं को अपना जीवन सही ढंग से गठित करने में गंभीरता पूर्वक सहायता करें। वास्तव में यही वह कार्य-क्षेत्र है, जिसमें महामण्डल ने अपनी समस्त ऊर्जा लगाने का निर्णय ले लिया है।
इसीलिये अत्यावश्यक कार्य है -युवाओं को सही ढंग से प्रशिक्षित करना। (स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा' में पूर्ण मनुष्य बनने और बनाने के लिये 'निवृत्ति अस्तु महाफला' को समझने के लिए सही ढंग से प्रशिक्षित करना।) इस प्रशिक्षण की पूर्ण पद्धति इस प्रकार सुनियोजित होनी चाहिये कि उससे युवाओं का सर्वांगीण विकास सम्भव हो सके। प्रत्येक युवा को एक पूर्ण मनुष्य (निःस्वार्थी) के रूप में निर्मित कर देना ही इस प्रशिक्षण का लक्ष्य होना चाहिये। प्रचलित संस्थागत शिक्षा प्रणाली समग्र-शिक्षा के इस अत्यावश्यक तत्व (अप्रतिरोध्य निःस्वार्थपरता ) को प्रदान नहीं कर पाती , जिसे प्राप्त करना प्रत्येक भारतीय नागरिक के लिये अनिवार्य है। इस दृष्टि से देखें तो महामण्डल का कार्य एक प्रकार से प्रचलित शिक्षा प्रणाली की को दूर करने में सहायता करना है।
इस जीवन गठन की प्रक्रिया के साथ समाज सेवा का कार्य भी घनिष्ट रूप से जुड़ा हुआ है, इसलिये जिन क्षेत्रों में महामण्डल के केन्द्र क्रियाशील हैं, वहाँ का समाज भी इन केन्द्रों द्वारा गयी की सेवा से लाभान्वित होता है। तथा जो लोग महामण्डल के सदस्य बन जाते हैं, उन्हें जो सेवा दी जाती है शायद वही सर्वोत्कृष्ट समाज सेवा है, क्योंकि यही एक मात्र ऐसी सेवा है जो समाज में वास्तविक परिवर्तन ला सकती है।अतएव, महामण्डल जीवन-गठन करने के लिये धीर-गति का एक ऐसा विशिष्ट आन्दोलन है, जिसके साथ यदि देश के युवा पर्याप्त संख्या में जुड़ जायें तो यह आन्दोलन आगे चलकर निश्चित रूप से पूरे समाज को उन्नति के रास्ते पर आगे बढ़ा सकता है।विगत 55 वर्षों से इस कार्य की प्रगति तथा कार्य-पद्धति की सफलता के प्रत्यक्ष प्रमाण को देखकर यह आशा लगातार बढ़ती जा रही है, और जो लोग इस आन्दोलन के कार्यकर्ता हैं, उनके मन की आशा अब दृढ़ विश्वास में परिणत हो चुकी है। महामण्डल पूर्ण रूप से तभी सन्तुष्ट होगा जब चरित्रवान मनुष्यों का निर्माण करने और जीवन के सभी क्षेत्रों में उनकी आपूर्ति करने के इस धन्यवाद विहीन कार्य को सालों -साल तक लगातार सफलतापूर्वक संचालित रखने में भी सक्षम हो जाता है। महामण्डल का उद्देश्य कभी भी युवाओं को अपने नियंत्रण में लेना और राजनीति के माध्यम से सत्ता की कुर्सी प्राप्त करना नहीं है। क्योंकि चरित्रवान मनुष्यों के बिना समाज की मूल समस्याओं का निदान होना सम्भव नहीं है।
स्वामी विवेकानन्द के कथन, 'And therefore, make men first.'- " अतएव पहले मनुष्य का निर्माण करो" - का तात्पर्य भी यही है। हमलोगों ने अभी तक उनके इस परामर्श के ऊपर समुचित ध्यान नहीं दिया है, किन्तु उनके इसी प्रस्ताव के भीतर एक क्रन्तिकारी परिवर्तन के बीज निहित हैं । आधुनिक भारत के सच्चे नेता के महत्व को ख़ारिज करने की कोशिश किये बिना उनके ऊपर 'भारत का हिन्दू संन्यासी' का लेबल चिपका कर हमें सत्ता और सम्पत्ति जमा करने के लोभी स्वप्नों को त्याग देना चाहिये। आइये , हमलोग इस 'रामकृष्ण -विवेकानन्द' स्वर्णयुग स्थापन योजना के ऊपर कार्य करें और इस इस 'मनुष्य-निर्माणकारी आन्दोलन '- को देश के कोने-कोने तक पहुँचा दें ।
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जो लोग मैटर में इनर्जी को खोज लेते हैं, (आइंस्टिन आदि) उन्हें भौतिक विज्ञानी या साइंटिस्ट कहा जाता है; और जो लोग 'स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक -प्रशिक्षण परम्परा' --- " निवृत्ति अस्तु महाफला" में प्रशिक्षित होकर इस नश्वर मानव शरीर में अविनाशी आत्मा को (अपने सच्चे-स्वरूप) जान लेते हैं उन्हें ' ऋषि ' ( नेता, पैगम्बर , जीवनमुक्त शिक्षक-नवनीदा ) कहा जाता है। इसी कार्य में सहायक हैं -महामण्डल द्वारा 'पाठचक्र, मनःसंयोग, प्रार्थना और समाज सेवा'- चारो योगों की चार धारायें'
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जिस 'गुरु-शिष्य वेदान्त शिक्षक- प्रशिक्षण परम्परा' में 'मनुष्य-निर्माण एवं चरित्र-निर्माण' की पद्धति का अविष्कार हमारे पूर्वज ऋषियों ने हजारों वर्ष पूर्व ही कर लिया था, स्वामी विवेकानन्द ने उसी पद्धति को वनो के आश्रमों और मठों के चहारदीवारियों से बाहर निकाल कर जन-सामान्य के घरों तक पहुँचा दिया है।
जवाब देंहटाएं[ अर्थात नवनीदा के नेतृत्व में महामण्डल ने युवा प्रशिक्षण शिविर के माध्यम से 'स्वामी विवेकानन्द कैप्टन सेवियर निवृत्ति अस्तु महाफला वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण पद्धति' को, अद्वैत-आश्रम, मायावती, हिमालय से बाहर निकाल कर, जन-सामान्य के घरों तक पहुँचा दिया है।]