आर्य जाति की महान सभ्यता का रहस्य: वर्णाश्रम धर्म और सतीत्व है!
"आर्य और तमिल इन दोनों के बीच विभाजक रेखा प्राचीनतम काल से भाषा रही है, रक्त नहीं। यह आर्य जाति जो स्वयं संस्कृत-भाषी और तमिल भाषी दो महान जातियों का सम्मिश्रण है, समस्त हिन्दुओं को समान रूप से अपने वृत्त में ले लेती है। इस बात का कोई अर्थ नहीं कि कुछ स्मृतियों में शूद्रों को इस उपाधि - 'आर्य '- से वंचित रखा गया है, क्योंकि उस समय वे सम्भाव्य आर्य थे और आज भी भावी आर्य हैं।" शुद्राज वेयर ऐंड आर ओनली दी वोटिंग आर्या'ज- आर्या'ज इन नोविशीइट", (मनःसंयोग का प्रशिक्षणार्थी या शिक्षार्थी या नौसिखुआ ट्रेनीज़- वुड बी आर्य -वुड बी लीडर्स ?), "९/२८६
भारत की जाति-प्रथा पुत्र द्वारा सदा ही पिता के व्यवसाय को अपनाने से बढ़ी। १०/ ११२"किस वेद में तुमने यह देखा कि आर्य किसी दूसरे देश से भारत में आये ? इस बात का तुम्हें प्रमाण कहाँ से मिला कि आर्य जाति ने जंगली जातियों को मारकाट कर यहाँ निवास किया ? यूरोपीय लोगों को जिस देश में अवसर मिलता वे वहाँ के आदिवासियों को मारकर स्वयं मौज से रहने लगते थे, इसीलिए वे हमारे बच्चों को पढ़ाने लगे कि आर्य लोगों ने भी वैसा ही किया होगा।(जेएनयू में आज भी पढ़ाया जाता है कि) 'रामायण' -आर्यों के द्वारा दक्षिणी जंगली जातियों पर विजय की दास्तान है? लंका का राजा रावण शूद्र नहीं था -रावण का राज्य सभ्यता में राम के देश से बढ़ा-चढ़ा था कम नहीं !" (प्राच्य और पाश्चात्य १०/११०)
[" जब आर्य भारत पहुँचे" १/ २८६ -कहाँ से पहुँचे? पहले कहाँ रहते थे ? लंकावासी भी द्राविड़ नहीं हैं, बल्कि विशुद्ध आर्य हैं ।५/४०५ श्रीलंका का अनुराधापुर प्राचीन आर्यों का लन्दन था, बंगाल के लोग वहाँ जाकर बस गए। ]
[" जब आर्य भारत पहुँचे" १/ २८६ -कहाँ से पहुँचे? पहले कहाँ रहते थे ? लंकावासी भी द्राविड़ नहीं हैं, बल्कि विशुद्ध आर्य हैं ।५/४०५ श्रीलंका का अनुराधापुर प्राचीन आर्यों का लन्दन था, बंगाल के लोग वहाँ जाकर बस गए। ]
"रामायण और महाभारत प्राचीन आर्य-जीवन और ज्ञान के दो ऐसे विश्वकोष हैं, जिनमें एक ऐसी उन्नत सभ्यता का चित्र खींचा गया है, जो मानवजाति को अब भी प्राप्त करनी है। "७/१६८
" यूरोप में जाति से राष्ट्र बनता है, किन्तु एशिया में विभिन्न मूल और विभिन्न भाषाओँ के लोग, यदि उनका धर्म एक हो तो राष्ट्र बन जाते हैं। उत्तरी भारत के लोग उसी महान आर्य जाति के हैं, जितने फिनलैण्ड-वालों को छोड़कर बाकी सब यूरोप वाले माने जाते हैं। " यूरोप का उद्देश्य है -दूसरों का नाश करके स्वयं अपने को बचाये रखना। आर्यों का उद्देश्य है -सबको अपने समान करना अथवा अपने से भी बड़ा करना। यूरोपीय सभ्यता का साधन है तलवार, और आर्यों की सभ्यता का उपाय है -'वर्णाश्रम धर्म'! शिक्षा और अधिकार (योग्यता) के तारतम्य के अनुसार सभ्यता सीखने की सीढ़ी का नाम है -वर्णविभाग ! " प्रत्येक देश में सर्वोच्च-सम्मान जिसके हाथ में तलवार हो, उन क्षत्रियों को दिया गया है, किन्तु आर्यों की सर्वोच्च जाति ब्राह्मण है। जब किसी भी जाति में जन्मे मनुष्य के पास शस्त्र-बल आता है, वह क्षत्रिय हो जाती है। जब किसी में ज्ञान-बल आता है, वह ब्राह्मण हो जाती है; और जिस जाति में धन-बल आता है, वह वैश्य हो जाती है। "९/२८३
"आर्य जाति के सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद संहिता में 'पितर-पूजा' का कोई उल्लेख नहीं है। २/१९२"
भारत की आर्य अर्थात हिन्दू जनता का यह दृढ़ विश्वास है कि " आत्मा का अस्तित्व पूर्व से ही रहता है और वह अनेक जन्म धारण करती है। प्रत्येक नवजात प्राणी नए जीवन में ताजा और प्रफुल्लित होकर आता है और समझता है यह जीवन उसे मुफ्त में मिल गया है, इसका चाहे जैसा उपभोग मैं कर सकता हूँ। किन्तु
इस ताजे जीवन का मूल्य उसे बुढ़ापा और जीर्ण जीवन की मृत्यु के द्वारा देना पड़ता है। जिस जीवन का नाश तो हो गया, परन्तु उसके भीतर वह अविनाशी बीज था, जिसमें पुनः नया जीवन अंकुरित हुआ है। वे दोनों जीवन एक ही हैं। ९/२४२ " "हमारे कर्म यद्यपि देखने में लुप्त से हो जाते हैं, तथापि 'अदृष्ट' (भाग्य) बन जाते हैं, और अपने परिणाम में 'प्रव्रत्ति' का रूप धारण करके पुनः प्रकट होते हैं। छोटे छोटे बच्चे भी कुछ प्रवृत्तियों को -उदाहरणार्थ, मृत्यु का भय -अपने साथ लेकर आते हैं। सभी अनुभव प्रवृत्तियों के रूप में अनुभव करने वाली जीवात्मा (अहं) में संगृहीत रहते है और उस अविनाशी जीवात्मा के पुनर्जन्म द्वारा संक्रमित किये जाते हैं। प्रत्येक आत्मा अपने साथ इस जन्म में अपने भूतकालिक अनुभवों को लेकर आती है -यह सिद्धान्त पूर्णतः सत्य है।" ९/२४६
"आर्यों ने योगाभ्यास पद्धति का आविष्कार करके (मन को वश में लाने उसे एकाग्र करने)- यह सीखा कि इसी ढाँचें के भीतर, जिसे हम मनुष्य कहते हैं, कोई अनन्त शक्ति भी कुण्डलीकृत है, जो स्वयं को अभिव्यक्त करने खोज में है। इसका विकास करना उसका परम् लक्ष्य हो गया। आर्यों की दूसरी शाखा यूनान गयी, उनका कार्य बहिर्मुखी हो उठा, अतः उन्होंने बाह्यकला और राजनितिक स्वतन्त्रता का विकास किया। यूनानी राजनितिक स्वतंत्रता की खोज में था, आर्य (हिन्दू) ने सदैव आध्यात्मिक स्वतन्त्रता की खोज की। दोनों एक पक्षीय हैं। १/२८६ "
किसी भी नेता (गुरु) को वैद्य होना चाहिये। उसे अपने शिष्य के स्वभाव (यूरोपीय या भारतीय मानसिकता
के अंतर) को समझना और उसे वही मार्ग बतलाना चाहिये, जो उसके सर्वथा अनुकूल हो। हिन्दू राष्ट्र की रक्षा या देश-भक्ति की अधिक चिंता नहीं करता, वह केवल अपने धर्म की रक्षा करेगा, जबकि यूनानी सभ्यता में पहले देश आता है। केवल आध्यात्मिक स्वतंत्रता (Heart) की रक्षा करना और सामाजिक-न्याय या राजनितिक स्वतंत्रता (Head and Head ) की चिंता न करना, बहुत बड़ी भूल है। किन्तु इसका उल्टा होना तो और भी बड़ा दोष है। आत्मा, मन और शरीर - '3H' तीनों की स्वतन्त्रता या विकास के लिए प्रयत्न किया जाना चाहिये! " ८/९४
जर्मन दार्शनिक शॉपेनहॉवर अपनी पुस्तक 'दी वर्ल्ड ऐज वील ऐंड रेप्रज़ेन्टैशन' (The World as Will and Representation (German: Die Welt als Wille und Vorstellung) " इच्छाशक्ति और उसके प्रतिनिधित्व के जैसा विश्व" में पुनर्जन्म के विषय में कहते हैं - " किसी व्यक्ति के लिये जैसी नींद है, उसी तरह 'इच्छा-शक्ति' के लिये मृत्यु है।
यदि स्मृति और व्यक्तित्व कायम रहें (अपना सच्चिदानन्दत्व कभी न भूले),तो उन्हीं कर्मों को करना और उन्हीं दुःखों को भोगना, वह भी सदा अनन्त काल तक, बिना लाभ के करते रहना (एक्जिमा की खुजलाते रहना) उसे कभी सहन नहीं हो सकता।
वह उन्हें दूर फेंक देती है और यही 'लेथी' [वैतरणी का यूनानी प्रतिरूप लेथी नदी] है, जिसमें मृत्यु
(समाधि के बाद भी) के बाद स्नान करने पर आत्मा अपनी स्मृति खो देती है। और इस मृत्युरूपी नींद से नया प्राणी बनकर दूसरी बुद्धि-इन्द्रिय के साथ पुनः प्रकट होता है; नया दिवस उसे नये तटों की ओर ललचाता है।
जन्मान्तर की प्राप्ति उस अविनाशी इच्छाशक्ति के जीवन-स्वप्न की लगातार श्रृंखला हैं। यह तब तक चलेगा, जबतक कि बारम्बार के नये शरीरों में अधिकाधिक और भिन्न भिन्न प्रकार के ज्ञान द्वारा शिक्षित और उन्नत होकर वह स्वयं को (मिथ्या अहं को) निर्मूल और विलुप्त न कर दे। " ९/२४१-४२
" आर्यों में ही पुनर्जन्म, अमरत्व और आत्मा के स्वतंत्र व्यक्तित्व का सिद्धान्त सर्वप्रथम प्रकट हुआ। ईसाई धर्म में आत्मा की देहान्तर-प्राप्ति (metempsychosis- मेटम्सचोसिस) का सिद्धान्त भारत से ही प्राप्त हुआ, ईसा मसीह जोर देकर कहते थे-कि पैगम्बर इलियास ही जॉन बैप्टिस्ट बनकर पुनः आये थे। 'यदि आप इसे मानें, तो यह इलियास ही है, जो आने वाला था'-मैथ्यू ११/१४"
पाइथागोरस भारत आये थे वहाँ के ब्राह्मणों से शिक्षा करके यूनान देशवासियों को पुनर्जन्म का सिद्धान्त सिखाया। आर्य-प्रथा में मृत शरीर को जला देने का विधान इसीलिए है कि आत्मा शरीर से एक स्वतन्त्र वस्तु है, और शव के नष्ट कर दिए जाने पर भी उसे कोई क्षति नहीं पहुँचती।
जिन राष्ट्रों ने आत्मा के स्वतंत्र व्यक्तित्व को माना, उन्होंने मृतक शरीर को जलाकर अपने उस विश्वास को बाह्यरूप से सदैव प्रकट भी किया। आर्यकुल के ईरानी (पारसी ?) लोग मृत शरीर को एक टॉवर पर रख देते हैं जिसका नाम दख्म या दह (जलाना) धातु से बना है।" ९/२३९-४०
" ऊँची जातियों को नीची करने, मनचाहा आहार-विहार करने के उद्देश्य से अन्तर्जातीय विवाह करने और क्षणिक सुख-भोग लिये अपने अपने वर्णाश्रम-धर्म की मर्यादा तोड़ने से इस जातिभेद की समस्या हल नहीं होगी। जब जातिभेद का होना अनिवार्य है, तब उसे धन पर खड़ा करने की अपेक्षा पवित्रता और आत्मत्याग के ऊपर खड़ा करना कहीं अच्छा है।" जातिभेद समस्या की वास्तविक मीमांसा तभी होगी जब हर कोई सच्चा धार्मिक होने (जब प्रत्येक व्यक्ति चरित्रवान मनुष्य बनने और बनाने) की चेष्टा करेगा और प्रत्येक व्यक्ति आदर्श मनुष्य बन जायेगा। मनःसंयोग को सीखकर पशुमानव- मनुष्य में और मनुष्य; देवमानव में रूपान्तरित हो जायेगा। भविष्य में जो सत्ययुग आने वाला है उसमें ब्राह्मणेत्तर सभी जातियाँ ब्राह्मण ही हो जायेंगे। हमारे जातिभेद का लक्ष्य यही है, कि धीरे धीरे सारी मनुष्यजाति आध्यात्मिक मनुष्य बनने के लिये, महान आदर्श (श्रीठाकुर) के साँचे में स्वयं को ढाल लेने के लिए अग्रसर हो। नीची से नीची जाति के पैरिया(दलितों) लोगों को भी ब्राह्मण बनने की चेष्टा करनी होगी। (व्यावहारिक) वेदान्त का यह आदर्श केवल भारतवर्ष के लिये ही नहीं, वरन सारे संसार के लिये उपयुक्त है। "
इस उद्देश्य को कार्यरूप में परिणत करने का उपाय क्या है ? .... तुम लोगों में से प्रत्येक को यह सोचना होगा कि सारा भार तुम्हारे ही ऊपर है। व्यावहारिक वेदान्त के आलोक (ऋषित्व प्राप्त करने की पद्धति) को घर घर ले जाओ, प्रत्येक जीवात्मा में जो ईश्वरत्व अन्तर्निहित है, उसे जगाओ। तब तुम्हारी सफलता का परिमाण जो भी हो, तुम्हें इस बात का सन्तोष होगा कि तुमने एक महान उद्देश्य की सिद्धि में ही अपना जीवन बिताया है, कर्म किया है और भारत माता की सेवा में अपने प्राणों को उत्सर्ग किया है। " ५/९४-९५
" और मैं चुनौती देता हूँ कि कोई व्यक्ति भारत के राष्ट्रीय जीवन में कोई भी ऐसा समय दिखला दे, जब यहाँ समस्त संसार को हिला देने की क्षमता रखने वाले आध्यात्मिक नेताओं का अभाव रहा हो ? पर भारत का कार्य आध्यात्मिक है, और यह कार्य युद्धोन्माद के शोर और फाइटर जेट के बम्बार्डमेन्ट से पूरा नहीं किया जा सकता। भारत का प्रभाव धरती पर सर्वदा मृदुल ओस-कणों की भाँति बरसा है, बेआवाज और अव्यक्त, पर सर्वदा धरती के सुन्दरतम पुष्पों को विकसित करने वाला। केवल वेदान्त (के चार महावाक्य) ही अपने सर्वोच्च रूप में सम्पूर्ण विश्व को आध्यात्मिकता प्रदान कर सकता है। प्रत्येक सभ्य देश में लाखों व्यक्ति उस सन्देश (रामकृष्ण-विवेकानन्द व्यावहारिक वेदान्त परम्परा में पाँच अभ्यास का प्रशिक्षण प्राप्त करने की ) की प्रतीक्षा कर रहे हैं, जो उन्हें भौतिकता के घृणित गर्त में गिरने से गिरने से बचा लेगी! जिसकी और आधुनिक धन-पाशविकता उन्हें आँख मूंद कर अग्रसर होने पर बाध्य कर रही है। " ९/३००
" मैं यहाँ (अमेरिका में) एक भारतीय दर्शन, जिसे वेदान्त कहते हैं, का प्रतिनिधित्व करने आया था। यह दर्शन उस विशाल पुरातन आर्य साहित्य से उद्गत हुआ है जिसे वेदों के नाम से पुकारते हैं। इसकी उत्पत्ति किसी व्यक्तिविशेष या धर्मगुरु से नहीं हुई है। इस वेदान्त दर्शन का एक सिद्धान्त -जो विश्व के सभी धर्मों में पाया जाता है वह यह कि 'प्रत्येक मनुष्य दिव्य' है। यह दिव्यता बहुतों में अव्यक्त रह जाती है, किन्तु मूलतः मनुष्य मनुष्य में कोई भेद नहीं है, सभी समान रूप से दिव्य हैं। इसीलिये किसी धर्मशिक्षक या मानवजाति के मार्गदर्शक नेता को किसी भी मनुष्य की जाति-धर्म के नाम पर भर्त्सना नहीं करनी चाहिये बल्कि उसमें अन्तर्निहित दिव्यता को अभिव्यक्त करने में उसकी सहायता करनी चाहिये। " ९/११८
अतएव हे आर्य-सन्तान, आलसी होकर बैठे मत रहो -जागो, उठो और जब तक इस चरम लक्ष्य तक न पहुँच जाओ तबतक मत रुको। अब अद्वैतवाद को व्यावहारिक क्षेत्र में प्रयोग करने का समय आ गया है। उसे अब स्वर्ग से पृथ्वी पर ले आना होगा। ताकि वेदान्त के उपदेश समाज के प्रत्येक मनुष्य की वह साधारण सम्पत्ति हो जाय, हमारी नस नस में, रक्त के प्रत्येक कण में उसका प्रवाह हो जाय। इस समय विधाता का यही विधान है। " ५/३१८
" हमारा ईश्वर सगुण और निर्गुण दोनों है ; निर्गुण रूप में ब्रह्म पुरुष है, और सगुण रूप में नारी है!
भारत में माँ परिवार का केन्द्र है और हमारा उच्चतम आदर्श है। वह हमारे लिये ईश्वर की प्रतिनिधि है, क्योंकि ईश्वर ब्रह्माण्ड की माँ है। ईश्वर की प्रथम अभिव्यक्ति वह हाथ है-जो पालना झुलाता है। जो प्रार्थना के द्वारा जन्म पाता है, वह आर्य है; और जिसका जन्म कामुकता से होता है, वह अनार्य है। जन्मगत प्रभाव के इस सिद्धान्त को संसार के सभी धर्म और विज्ञान भी धीरे धीरे स्वीकार करने लगे हैं। मेरा और प्रत्येक अच्छे हिन्दू का यह विश्वास है कि मेरी माँ शुद्ध और पवित्र थी, और इसीलिये आज मैं जो कुछ हूँ -उस सबके लिए उसका ही ऋणी हूँ ! यही है आर्य जाति का रहस्य -सतीत्व ! " १०/३०२
"भारतीय नारियों से हमारी राष्ट्रीय देवी सीता के चरण-चिन्हों का अनुसरण कराकर अपने राष्ट्र के उन्नति की चेष्टा करनी होगी, यही एकमात्र पथ है। " ५/१५० यदि हर एक स्त्री-पुरुष को जिस किसी पुरुष या स्त्री को पति अथवा पत्नी के रूप में ग्रहण करने की स्वाधीनता दी जाय, यदि केवल इन्द्रिय-भोगों और पाशविक प्रवृत्तियों की परितृप्ति को समाज में बढ़ावा दिया जाय-तो उसका फल अवश्य अशुभ होगा। उससे दुष्ट प्रकृति और आसुरी स्वभाव की सन्तान उत्पन्न होगी। आज एक ओर मनुष्य इस तरह की पशु प्रकृति की सन्तान उत्पन्न कर रहे हैं, दूसरी ओर इनके दमन के लिये पुलिस की संख्या बढ़ा रहे हैं। अतएव तुम्हें किस प्रकार का विवाह करना चाहिये किस प्रकार नहीं, इस पर तुम्हें आदेश देने का अधिकार समाज को है। जन्मपत्री में वर-कन्या की जैसी जाति, गण आदि लिखे रहते हैं, आज भी हिन्दू समाज में उन्हीं के अनुसार विवाह होते हैं।" ५/२९९
" जहाँ तक शिक्षा की बात है, ईसाई धर्म-प्रचारकों द्वारा स्थापित स्कूल कॉलेज हैं, वे सब ठीक चल रहे हैं। किन्तु धर्म के मामले में बात दूसरी है। जो धर्म-परिवर्तित ईसाई भारत में अंग्रेज सरकार की नौकरी में नहीं लिये जाते, वे परिवर्तित धर्म में नहीं रहते। हिन्दू चतुर होता है, वह चारा तो लील जाता है, पर काँटा वैसे ही छोड़ देता है। ईसाई को अपने धर्म की आवश्यकता है, हिन्दू को अपने धर्म की। सभी धर्म अच्छे हैं, क्योंकि सारभूत बातें समान हैं।"
अतएव हे आर्य-सन्तान, आलसी होकर बैठे मत रहो -जागो, उठो और जब तक इस चरम लक्ष्य तक न पहुँच जाओ तबतक मत रुको। अब अद्वैतवाद को व्यावहारिक क्षेत्र में प्रयोग करने का समय आ गया है। उसे अब स्वर्ग से पृथ्वी पर ले आना होगा। ताकि वेदान्त के उपदेश समाज के प्रत्येक मनुष्य की वह साधारण सम्पत्ति हो जाय, हमारी नस नस में, रक्त के प्रत्येक कण में उसका प्रवाह हो जाय। इस समय विधाता का यही विधान है। " ५/३१८
" आजकल प्रत्येक व्यक्ति 'नेता' (गुरु) बनना चाहता है। स्वयं कंगाल होकर भी लाख रूपये का दान करना चाहता है। किन्तु नेता केवल वही व्यक्ति हो सकता है, नाम-यश के लिए अथवा किसी स्वार्थ-सिद्धि के लिये मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निमार्ण का प्रशिक्षण नहीं बतलाता हो। जो परम-सत्य या ब्रह्म को भली भाँति जान चुका हो, अर्थात जिसने ब्रह्म-साक्षात्कार कर लिया हो। नेता से नेतृत्व का प्रशिक्षण लेने के बाद किसी भावी नेता या सत्यार्थी साधक के लिये आवश्यकता पड़ती है अभ्यास की। ५/३४२
" मानव-जाति के आचार्य अथवा नेता के रूप में विवाहित और ब्रह्मचारी दोनों ही पथप्रदर्शक उतने प्राचीन हैं, जितने वेद! ब्रह्मचारी मार्गदर्शक नेता, विवाहित नेताओं से एक सर्वथा पृथक धरातल पर थे, और यह पार्थक्य था पूर्ण पवित्रता का ब्रह्मचर्य का। यदि वेदों के कर्मकाण्ड का मूलाधार बलिप्रथा का यज्ञ है, तो उनके ज्ञानकाण्ड की आधारशिला ब्रह्मचर्य है। उपनिषदों की व्याख्या (द्वासुपर्णा की व्याख्या करने वाले नेता के लिये) करने वाले मार्गदर्शक नेता को पवित्र बनना अनिवार्य है। ब्रह्मचर्य ही आध्यात्मिकता की अनिवार्य शर्त है। पथभ्रष्ट संन्यासी भी देश के किसी गृहस्थ से कहीं अधिक उच्चतर भूमि पर हैं। उस कायर की तुलना में जिसने कभी प्रयत्न ही नहीं किया-(पूर्णपवित्रता के लिए), वह शूरवीर है। क्योंकि वह भगवान का सैनिक है -उसने धर्म को पुनर्संस्थापित करने को ही अपने जीवन का एकमात्र उद्देश्य बना लिया है ! कौन सा धर्म मर सकता है, जब तक उसमें (गृहस्थ होकर भी त्यागियों के बादशाह श्रीठाकुर देव और परमपूज्य नवनी दा जैसे) श्रद्धालु संन्यासियों का समुदाय बना रहता है ? " ९/२९१ " हमारा ईश्वर सगुण और निर्गुण दोनों है ; निर्गुण रूप में ब्रह्म पुरुष है, और सगुण रूप में नारी है!
भारत में माँ परिवार का केन्द्र है और हमारा उच्चतम आदर्श है। वह हमारे लिये ईश्वर की प्रतिनिधि है, क्योंकि ईश्वर ब्रह्माण्ड की माँ है। ईश्वर की प्रथम अभिव्यक्ति वह हाथ है-जो पालना झुलाता है। जो प्रार्थना के द्वारा जन्म पाता है, वह आर्य है; और जिसका जन्म कामुकता से होता है, वह अनार्य है। जन्मगत प्रभाव के इस सिद्धान्त को संसार के सभी धर्म और विज्ञान भी धीरे धीरे स्वीकार करने लगे हैं। मेरा और प्रत्येक अच्छे हिन्दू का यह विश्वास है कि मेरी माँ शुद्ध और पवित्र थी, और इसीलिये आज मैं जो कुछ हूँ -उस सबके लिए उसका ही ऋणी हूँ ! यही है आर्य जाति का रहस्य -सतीत्व ! " १०/३०२
"भारतीय नारियों से हमारी राष्ट्रीय देवी सीता के चरण-चिन्हों का अनुसरण कराकर अपने राष्ट्र के उन्नति की चेष्टा करनी होगी, यही एकमात्र पथ है। " ५/१५० यदि हर एक स्त्री-पुरुष को जिस किसी पुरुष या स्त्री को पति अथवा पत्नी के रूप में ग्रहण करने की स्वाधीनता दी जाय, यदि केवल इन्द्रिय-भोगों और पाशविक प्रवृत्तियों की परितृप्ति को समाज में बढ़ावा दिया जाय-तो उसका फल अवश्य अशुभ होगा। उससे दुष्ट प्रकृति और आसुरी स्वभाव की सन्तान उत्पन्न होगी। आज एक ओर मनुष्य इस तरह की पशु प्रकृति की सन्तान उत्पन्न कर रहे हैं, दूसरी ओर इनके दमन के लिये पुलिस की संख्या बढ़ा रहे हैं। अतएव तुम्हें किस प्रकार का विवाह करना चाहिये किस प्रकार नहीं, इस पर तुम्हें आदेश देने का अधिकार समाज को है। जन्मपत्री में वर-कन्या की जैसी जाति, गण आदि लिखे रहते हैं, आज भी हिन्दू समाज में उन्हीं के अनुसार विवाह होते हैं।" ५/२९९
" जहाँ तक शिक्षा की बात है, ईसाई धर्म-प्रचारकों द्वारा स्थापित स्कूल कॉलेज हैं, वे सब ठीक चल रहे हैं। किन्तु धर्म के मामले में बात दूसरी है। जो धर्म-परिवर्तित ईसाई भारत में अंग्रेज सरकार की नौकरी में नहीं लिये जाते, वे परिवर्तित धर्म में नहीं रहते। हिन्दू चतुर होता है, वह चारा तो लील जाता है, पर काँटा वैसे ही छोड़ देता है। ईसाई को अपने धर्म की आवश्यकता है, हिन्दू को अपने धर्म की। सभी धर्म अच्छे हैं, क्योंकि सारभूत बातें समान हैं।"
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