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बुधवार, 3 अगस्त 2016

卐🙏卐🙏 [ 8 & 9] 8. " India's Mission-Make men first ! " सौंपा हुआ कार्य: चरित्रनिर्माण और उसका मार्ग ' ['एक नया युवा आंदोलन' -8. The Task and the Way] 卐🙏 " भारत का ध्येय - व्यावहारिक वेदान्त से विश्व का कल्याण "卐🙏// 9. " हमारी सीमा" [एक नया युवा आंदोलन-9'Our Limitation]

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' सौंपा हुआ कार्य: चरित्रनिर्माण और उसका मार्ग ' 

[ India's Mission- The Task and the Way]

     >> India (Vedanta) alone can contribute meaningfully to the progress of the whole of mankind.संपूर्ण मानव जाति की प्रगति में केवल भारत (का वेदान्त) ही सार्थक योगदान दे सकता है। 

        हमारे समक्ष जो सौंपा हुआ लक्ष्य है वह है भारत का कल्याण। [जो कार्य हमें 'स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा ' में "महामण्डल चपरास " के साथ सौंपा गया है, वह है भारत का कल्याण।] अगर हम उसके लिए काम करना चाहें तो हमें चीजों को स्पष्ट रूप से देखना होगा। हम सभी जानते हैं कि स्वामी विवेकानन्द का आविर्भाव पूरे विश्व विशेषकर भारतवर्ष के कल्याण के लिये हुआ था, क्योंकि वे जानते थे कि सिर्फ भारत ही विश्व- मानवता की प्रगति में अपना अर्थपूर्ण योगदान दे सकता है। स्वामीजी ने यह दृष्टि अपने आध्यात्मिक अनुभूति से पाई थी। स्वामीजी की यह आत्म-अभिव्यक्ति और अनुभूति उन्हीं पुरातन शास्त्रों में प्रतिष्ठित सत्य से प्राप्त हुई थी जिसे हम वेदान्त कहते हैं।    

        >>'Practical Vedanta' has to be applied for the purpose of life-building of individuals for the good of the whole society .

अतीत में हमारे देश में ऋषि-मुनियों के द्वारा वेदान्त का अध्यन विशेषतः जंगलों (अरण्यों) में किया जाता था। स्वामी विवेकानन्द ही प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने पुरातन शास्त्रों में प्रतिष्ठित इस महान सत्य को वनों से निकाल कर हाट-बाजार तक, समाज के आम लोगों और उनके घरों तक लाने का कार्य किया था। इसे ही 'Practical Vedanta' या 'व्यावहारिक वेदान्त ' कहते हैं। पूरे समाज का कल्याण करने के लिए, इसके आम जनों का जीवन गठन करने के उद्देश्य से उनके दैनन्दिन जीवन में- इसी 'व्यावहारिक वेदान्त' [4 -महा वाक्य] को प्रयोग में लाना होगा। स्वामी जी ने बड़ी गंभीरता से कहा था -" No nation is great or good because Parliament enacts this or that, but because its men are great and good. "  कोई भी राष्ट्र इसलिये महान और अच्छा नहीं होता कि वहाँ के पार्लियामेन्ट ने यह या वह बिल (Like RTI and Lokpal Bill etc) पास कर दिया है, वरन इसलिए होता है कि उसके निवासी महान और अच्छे होते हैं। " (भारत का ध्येय -४. २३४/India's Mission- Sunday Times, London, 1896) ] 

>> A man is good if he has a good character and  India's Mission is -'Make men first !' 

 किसी व्यक्ति को हम अच्छा मनुष्य तभी कहते हैं, जब उसका चरित्र अच्छा होता है।  इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने कहा था- " पहले मनुष्य निर्माण करो--Make men first ! " उन्होंने कहा था , " शिक्षा को  जीवनगठन , मनुष्य निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी विचारों (महकाक्यों) को आत्मसात करने की पद्धति अवश्य उपलब्ध करानी   चाहिए। "Education must provide 'life-building, man-making, character-making assimilation of ideas ." इसीलिये अगर हमें अपने देश , अपने जनसाधारण की भलाई और कल्याण के लिये कार्य करना है तो हमें अपना ध्यान व्यक्ति-चरित्र के निर्माण पर केन्द्रित करना होगा। अतएव,  'व्यक्ति-चरित्र का निर्माण' - करना ही हमारा प्रमुख कार्य होना चाहिये। स्वामी विवेकानन्द को यह अनुभव भी हुआ था कि यदि हम सम्पूर्ण भारतवर्ष के कल्याण के इस कार्य को वृहत तौर पर करना चाहें , तो हमें संगठित होकर प्रयास करना होगा और इसके लिये संगठन की आवश्यकता होगी। तथा हमें इस  ' व्यक्ति-चरित्र निर्माण तथा आत्मविकास ' के कार्य को संगठित होकर और संगठन के माध्यम से ही  करना होगा। 

       >>We have never heard that any tiger became a saint. But in human history many sinners have become saints. Even gods aspire to be born as human beings. ]

अब हमलोग यह देखने का प्रयास करेंगे कि क्या चरित्र निर्माण  के लिए कोई वैज्ञानिक दृष्टिकोण और पद्धति हो सकती है ? कई लोगों का मानना है कि चरित्र तो जन्मजात रूप से व्यक्ति में निहित कोई चीज है। हमलोग प्रायः ऐसा कहते हैं कि जल की अपनी कुछ विशेषतायें हैं, अग्नि के कुछ अलग गुण (धर्म) हैं। बाघ एक क्रूर पशु है, किन्तु क्या हम ऐसा कुछ मनुष्य के बारे में भी कह सकते हैं ? स्वामी जी कहते हैं कि देवता भी मानव रूप में जन्म लेने के लिये लालायित रहते हैं। क्योंकि, देवताओं का (या पशुओं का ?) जीवन चाहे कितना ही महान, गौरवशाली और भव्य क्यों न हो, वे जैसे हैं वैसे ही बने रहते हैं। हमलोगों ने ऐसा कभी नहीं सुना कि एक  बाघ था जो बाद में संत  बना गया । लेकिन मानव इतिहास में ऐसे अनगिनत उदाहरण अभिलिखित हैं, जहां कोई पापी था जो बाद में संत बन गया।

  >>The character of a person is known through one's behavior :  

आइए, अब विचार करें कि किसी व्यक्ति के चरित्र के बारे में जाना कैसे जाता है? किसी  व्यक्ति के चरित्र की धारणा उसके आचरण ,व्यवहार एवं समाज के दूसरे लोगों के साथ उसके सम्बन्धों के देखकर बनाई जाती है। मानलो , मैं किसी से मिलता हूं और उसके चले जाने के बाद  मेरे मन में उस व्यक्ति के बारे में एक बहुत ही सुखद छवि रह जाती है। या इसके विपरीत, मैं किसी अन्य व्यक्ति के संपर्क में आता हूं और मुझे खेद का अनुभव होता है। ऐसा विचार आता है कि कितना अच्छा होता अगर मैं उस व्यक्ति से कभी मिला ही नहीं होता। ऐसा क्यों होता है? क्योंकि, पहले व्यक्ति का व्यक्तित्व दूसरे व्यक्ति के व्यक्तित्व से भिन्न प्रकृति का है। एक का व्यक्तित्व मनोहर है (winsome,हर्षवर्धन करने वाला),जबकि दूसरे का  ऐसा नहीं है। 

   >>>Personalty means what we appear to be and Character is what we really are. 

       आइये, अब हम व्यक्तित्व और चरित्र के बीच के अन्तर को समझने का प्रयास करते हैं। कोई व्यक्ति दूसरों को ऊपर जैसा प्रभाव छोड़ जाता है, समग्रता में वही उसका व्यक्तित्व समझा जाता है। यहाँ तक ​​कि उस व्यक्ति की वाणी , शारीरिक बनावट, इत्यादि भी इस मामले में काफी महत्व रखते हैं। उसका पहनावा ,केश-विन्यास (hair cut) और उसकी दूसरी अन्य चीजें भी उसके व्यक्तित्व को गढ़ने में अपना योगदान देती हैं। जबकि चरित्र किसी व्यक्ति-विशेष के व्यक्तित्व का केवल एक अंग है। लेकिन यह बात हमलोगों को स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए कि व्यक्तित्व का यह अंग (चरित्र)  ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण वस्तु है।

 >>I will be liked and loved, because of my behavior, because of the expression of my feelings.

  हो सकता है कि मेरी पोशाक पुरानी हो। यह भी हो सकता है कि मैं देखने में प्रभावशाली और आकर्षक न लगूँ, मेरी शिक्षा भी वैसी न हो, किन्तु यदि मेरे व्यवहार में चरित्र के कुछ उत्कृष्ट गुण (sterling qualities) हों तो अन्ततोगत्वा मेरे सुन्दर व्यवहार और मेरी भावनाओं की मनोहर अभिव्यक्ति के कारण मुझे ही अधिक पसन्द किया जायेगा और प्रेमपूर्ण दृष्टि से देखा जायेगा। हमलोग सत्य के बहुत निकट होंगे  जब हम कहें कि, " हमारे व्यक्तित्व का अर्थ है - जैसा हम दिखते हैं, जबकि चरित्र वह है, जो हम वास्तव में हैं ! " हो सकता है कि अपनी वाकपटुता और अन्य दूसरी चीजों से शायद हम दूसरों को आकर्षित कर लेते हों, लेकिन जब परिस्थितियाँ अनुकूल नहीं रहती उस समय हम भिन्न प्रकार से (अपने व्यक्तित्व से अलग हटकर) व्यवहार या कार्य करने लगते हैं।  इसलिए, सबसे पहले हमें अपने चरित्र को सही ढंग से निर्मित करने पर अधिक ध्यान देना  चाहिए ताकि हमारे व्यक्तित्व का वास्तविक स्वरुप एक मजबूत नींव पर तैयार हो सके। चाणक्यनीति में कहा गया है -

दूरतः शोभते मूर्खो लम्बशाटापटावृतः ।

तावच्च शोभते मूर्खो यावत्किञ्चिन्न भाषते ॥ 

- लंबी शाल तथा खेस इत्यादि चमकीले वस्त्रों से सुसज्जित एक मूर्ख व्यक्ति दूर से सुशोभित होता है। लेकिन वह तब तक ही सुशोभित होता है (विद्वान सा प्रतीत होता है ) जब तक वह  कुछ कहता नहीं है। मुख खोलते ही उसकी मूर्खता जगजाहिर हो जाती है।  [A foolish person dressed nicely in a bright flowing robe  looks beautiful and impressive (like a scholar) from a distance only so long he does not speak even a little. (As soon as he speaks something his foolishness gets exposed]

     >>  The character of Sri Ramakrishna was wonderful, not a mere outward personality;  as he looks up, you are caught in the net of his love.  

     श्री रामकृष्णदेव के बारे में विचार करो। उनके पास तो बहुत से पढ़े-लिखे ज्ञानी लोग आया करते थे। उनके सामने वे किस तरह के व्यक्ति के रूप में दिखा करते होंगे ? गाँव से आया एक बिल्कुल साधारण निरक्षर देहाती , शिष्टाचार से अपरिचित जो हमेशा भदेस ग्रामीण भाषा का प्रयोग करता हो।  श्री रामकृष्णदेव के व्यक्तित्व में प्रथम-दृष्ट्या मन को आकर्षित करने योग्य तो कुछ भी नहीं था। किन्तु, पास जाकर कुछ बोलने के पहले, जैसे ही तुम उनके निकट आते हो, उनकी कृपाकटाक्ष तुम पर पड़ती है और तुम मोहित (fascinated, मन्त्रमुग्ध) हो जाते हो, तुम उनके प्रेम-जाल में फँस जाते हो ! ऐसा जादू कैसे हो जाता है ? क्योंकि श्रीरामकृष्ण का चरित्र ही अद्भुत था केवल बाहरी व्यक्तित्व नहीं।
     >>Sri Ramakrishna searched for Truth and discovered the TRUTH (Love, unselfishness-चरित्र के 24 गुण ) in himself !  
  उन्होंने इस प्रकार के अद्भुत चरित्र का निर्माण कैसे किया होगा ? उन्होंने भी 'सत्य ' की (एथेंस के सत्यार्थी की तरह परम् सत्य की) खोज की थी, और उस सत्य को - जो पवित्रता है, प्रेम है, करुणा है, सहानुभूति है, जो निःस्वार्थता है, त्याग है, जो सभी के लिए सेवा भावना है; उसे अपने अन्दर ही पाया था। ये सभी वास्तव में चरित्र के कुछ उत्कृष्ट गुण हैं जो यथार्थ मनुष्य के चरित्र में हो सकते हैं। यदि हम भी इन गुणों को किसी तरह अपने अन्दर विकसित कर सकें, तभी हम कह सकते हैं कि हमने एक मनोहर चरित्र का निर्माण कर लिया है। चरित्र है क्या चीज ? चरित्र हमारी आदतों या प्रवृत्तियों का समूह मात्र है। सत्य के प्रति अटूट प्रेम, करुणा, सहानुभूति, निःस्वार्थपरता,  निर्भयता, त्याग और सेवा भावना  - ये सभी चरित्र के उत्कृष्ट गुण हैं। तो क्या हम यह मान सकते हैं कि ये सभी गुण भी उन्हीं आदत से ही निर्मित होते होंगे जिससे हमारा चरित्र बनता है? हाँ, हमलोग देखेंगे कि ये सभी अच्छे गुण जिनका उल्लेख ऊपर किया गया है , वे हमारी सत्ता में पहले से ही विद्यमान हैं। 
      >>Character building  education  is -"तत: क्षेत्रिकवत् ।" As a farmer removes the obstacles from the channel of flowing water in the field:
यदि उपरोक्त सारे गुण हमारी आत्मा में पहले से अन्तर्निहित हैं, तो फिर चरित्र निर्माण में आदतों की भूमिका क्या है ? अच्छी तरह से अवलोकन करने पर हम पायेंगे कि असत कार्य और अपने अविवेकपूर्ण निर्णयों के द्वारा हमने ही अपने मन पर कुछ ऐसे गलत छाप या संस्कार डाल दी हैं, जो हमारी सत्ता में निहित उन सुन्दर गुणों के प्रवाह को विकसित होने में रोड़े अटका रही हैं, या बाधा डाल रही हैं। स्वामी जी ने स्वयं कहा है, इसलिए हमें इस बात को अच्छी तरह से समझना होगा कि चरित्र-निर्माणकारी शिक्षा एक निषेधात्मक प्रक्रिया (negative process) है, जिसमें हमें चित्त पर पड़े गहरे संस्कारों (अहं वृत्ति) को दूर करने के लिए कठिन परिश्रम करना होगा, ताकि अच्छे गुण स्वतः प्रकट होने लगें। जैसा पतंजलि योग सूत्र में कहा गया है - "तत: क्षेत्रिकवत् ।"  (कैवल्य पाद- ४.३) जिस प्रकार खेत में काम करने वाला किसान खेत पटाते समय पानी व खेत के बीच आने वाली मेड़ रूपी बाधाओं को रस्ते से हटाता है। वैसे हमें भी इन गुणों के स्वतः प्रकट होने के मार्ग में आने वाली बाधाओं को हटाना होगा।

       >>The first step to character formation is, brahmacharya (आत्मसंयम) to desist from bad thoughts, bad words, bad actions. 

अतएव असत कर्म,असत वचन और असत विचारों से विरत हो जाना- ही चरित्र निर्माण का प्रथम सोपान है। इसी आत्मसंयम को ब्रह्मचर्य कहते हैं। इसके वाद अच्छे कर्मों को बार-बार करते हुए अच्छी आदतों का निर्माण करना होगा । सद्कर्म क्या है, हम स्वाभाविक रूप से पूछेंगे। हम एक स्वर में कहेंगे कि नैतिक कार्य करना ही सद्कर्म है । लेकिन नैतिकता क्या है? स्वामी विवेकानन्द ने नैतिकता की बड़ी ही आसान परिभाषा दी है, जो देश या काल के अनुसार नहीं बदलता है। 

 >>Which is unselfish is moral, and that which is selfish is immoral.

      स्वामीजी कहते हैं, जो निःस्वार्थ कार्य है वह नैतिक है और जो भी कार्य स्वार्थपूर्ण है वह अनैतिक है। उन्होंने नैतिकता की यह परिभाषा कहाँ से प्राप्त की है? हम आसानी से देख सकते हैं कि यह वेदान्त द्वारा प्रतिस्थापित सत्य - (कोई पराया नहीं सभी अपने हैं) को स्वीकार करने का एक परिणाम है। जब तक मैं केवल  'मैं' और 'मेरा' के बारे में सोचता हूं, मैं स्वयं को सीमित कर लेता हूँ । और जब अपनी अन्तर्निहित पूर्णता को विस्तृत करते हुए मैं अपने पृथक अस्तित्व (मिथ्या अहं) को समष्टि अहं में खो देता हूँ या लीन कर देता हूँ,तभी मैं निःस्वार्थी हूँ और नैतिक हूं। इसका अर्थ यह हुआ है कि मैं सत्य की पूर्णता (निःस्वार्थपरता और प्रेम) को स्वीकार करता हूं। नैतिकता के इसी समझ की सहायता से अब हमलोग आसानी से उचित और अनुचित कर्म में अन्तर (श्रेय-प्रेय, बाबू और बगीचा में विवेक-प्रयोग) कर सकते हैं। 

>>Repetition of moral actions over and over again is the method of character building.

और इस प्रकार विवेक-प्रयोग करने के बाद जब हम केवल उचित कर्म ही करेंगे तथा उसे बार -बार दुहराते रहेंगे, तो केवल सद्कर्म करने की हमारी आदत पड़ जाएगी। और अच्छे कार्यों से उत्पन्न अच्छी आदतें जब पुरानी होकर जब अच्छी प्रवृत्तियों में परिणत हो जायेंगी; तो उन्हीं सद्प्रवृत्तियों का समाहार या संग्रह (collection or agglomeration) हमें एक सुन्दर चरित्र का अधिकारी बना देगा। इसलिए, नैतिक कार्यों की बार-बार पुनरावृत्ति ही चरित्र निर्माण की पद्धति है। स्वामी विवेकानंद ने हमलोगों को - 'शिव ज्ञान से जीव सेवा करने ' या मनुष्य को ईश्वर समझकर सेवा करने के लिए कहा था ।

 >> Renunciation and service to others -this is the way to formation of one's character.

श्रीरामकृष्ण देव दक्षिणेश्वर के काली मंदिर में स्थापित माँ भवतारिणी की मूर्ति की पूजा किया करते थे। लेकिन उन्होंने स्वयं से पूछा , क्या मैं केवल एक मूर्ति में ईश्वर की पूजा कर सकता हूँ ? उन्हें उत्तर मिला , यदि तुम एक पत्थर की मूर्ति में ईश्वर की पूजा कर सकते हो , तो रक्त -मांस के बने जीवन्त मनुष्यों में ईश्वर की पूजा क्यों नहीं कर सकते ? उन्होंने स्वयं से  प्रश्न किया कि ' क्या केवल बंद-आंखों से ही ध्यान होना संभव है? उन्हें उत्तर प्राप्त हुआ था कि, नहीं तुम खुली आँखों से भी ध्यान कर सकते हो !  इसलिए, श्री रामकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द (अपने गुरुदेव से सीखकर) दोनों ने  इस महान सत्य की शिक्षा दी है कि " मानव-सेवा ही ईश्वर की वास्तविक पूजा है" ना कि आत्म-सुख का लालच या घोर स्वार्थपरता। 'त्याग और दूसरों की सेवा ' - यही चरित्र निर्माण का मार्ग है। स्वामी जी के शब्दों में, 'अपने चरित्र -कमल को पूर्णरूपेण खिला लेना ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य है। ' और हमें वैसा ही करने का प्रयास करना चाहिए। 

          >>Discrimination between good and bad action is a function of mind, so training of mind is primary work for  character building. 

         व्यावहारिक तौर पर हम देखते हैं कि हमारे कर्मों से ही हमारे चरित्र का निर्माण होता है। यदि हमारे कर्मों के ऊपर विवेक-विचार का नियंत्रण हो तब हमारे द्वारा अच्छे कर्म होते हैं, जो अच्छे चरित्र के निर्माण में सहायक बन जाते हैं। उचित और अनुचित कर्म के बीच विवेक-विचार करना हमारे मन का कार्य है। अत: अपने मन पर नियंत्रण रखने के लिए , उसको एकाग्र करने या मनःसंयोग का अभ्यास ही चरित्र निर्माण का प्राथमिक कार्य है। क्योकि किसी भी कार्य को करने का संकल्प हम मन में ही लेते हैं और सद -असद कर्मों के बीच अन्तर भी मन की सहायता से ही करते हैं। इसलिए मन के ऊपर नियंत्रण और विवेक -प्रयोग की सहायता से अच्छे कर्मों को लगातार दोहराते हुए हम अच्छी आदतें, अच्छी प्रवृत्तियों का निर्माण कर सकते हैं।  और अच्छी प्रवृत्तियों का  समुदाय ही अच्छा चरित्र है, अतएव हम कह सकते हैं चरित्रवान मनुष्य बन जाना ही हम सभी की उदात्त नियति है। 

    >>You are the maker of your own destiny- for everything depends on manliness ! 

इसलिए, स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि 'तुम स्वयं  अपने भाग्य के निर्माता हो। 'हमारा भविष्य किसी अज्ञात जगह से नियंत्रित होने वाले किसी भाग्य नामक असाधारण वस्तु पर निर्भर नहीं करता; यह हमारे पौरुष तथा आत्मविश्वास पर निर्भर करता है। इसलिए स्वामी जी ने कहा था - " जितनी अधिक मेरी आयु होती जाती है , उतना ही अधिक मुझे लगता है कि 'पौरुष' में ही सभी बातें शामिल हैं। यह मेरा नया सुसमाचार है। " ( सूक्तियाँ एवं सुभाषित : ८.१३१ ) ["The older I grow, the more everything seems to me to lie in manliness. This is my new gospel." (Sayings and Utterances-8.16)]   उन्होंने प्रत्येक युवा को अपने- आप पर विश्वास करने, अपने पौरुष पर और अपने प्रयत्न क्षमता पर विश्वास रखने का सन्देश दिया था। स्वामीजी सभी युवाओं का आह्वान करते हुए कहते है - अपनी अन्तर्निहित संभावनाओं को प्रकट करो , अपने भाग्य का निर्माण स्वयं करो और उस भाग्य के द्वारा सम्पूर्ण राष्ट्र को उन्नततर, महानतम गौरवशाली भविष्य की ओर ले चलो ! 

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" मेरी आशा, मेरा विश्वास नवीन पीढ़ी के नवयुवकों पर है। उन्हीं में से मैं अपने कार्यकर्ताओं का संग्रह करूँगा। वे सिंहविक्रम से देश की यथार्थ उन्नति सम्बन्धी सारी समस्या का समाधान करेंगे। आत्मविश्वास रखो।  तुम्हीं लोग तो पूर्वकाल में वैदिक ऋषि थे। अब केवल शरीर बदल कर आये हो। मैं दिव्य चक्षु से देख रहा हूँ , तुम लोगों में अनन्त शक्ति है। उस शक्ति को जगा दे ; उठ उठ, काम में लग जा , कमर कस। क्या होगा दो दिन का धन-मान लेकर ? मेरा भाव जानता है? - मैं मुक्ति आदि नहीं चाहता हूँ। मेरा काम है तुम लोगों में इन्हीं भावों को जगा देना। एक मनुष्य का निर्माण करने में लाख जन्म लेने पड़े तो मैं उसके लिए भी तैयार हूँ। " -स्वामी विवेकानन्द

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 [एक नया युवा आंदोलन]

9.

हमारी सीमा 

[Our Limitation]

         >>Man is limited only outwardly; But when he knows this and tries to outgrow to his unlimited stature becomes great !  

     हम अपनी सीमाओं को जानते हैं , किन्तु इससे हमारे उत्साह में कोई कमी नहीं होगी। बल्कि ये सीमायें ही हमें इनके अतिक्रमण का उपाय ढूँढ़ने में सहायता करती हैं। मनुष्य केवल वाह्य रूप से सीमाबद्ध है। किन्तु जब वह यह जान लेता है कि वह वृहत है (जिससे सब निकला है, जिसमें सब स्थित है, और जिसमें सब लीन हो जाता है !), तब वह अपने असीम स्वरूप को विकसित करने में लग जाता है।
        कोई कार्य केवल इसलिये महान नहीं हो जाता कि उसका बड़ी धूमधाम से प्रचार हुआ है। हमारी बातों पर बहुत कम लोग ही ध्यान देंगे। किन्तु कुछ लोग ऐसे भी हैं जो विगत पचास वर्षों से यह सब सुनते आ रहे हैं। इसीलिये हमें अपने ऊपर पूरा भरोसा है। यदि किसी जुलुस में थोड़े से विदेशी स्त्री-पुरुषों को शामिल कर लिया जाय तो उस खबर को एक फोटो के साथ अख़बार के मुख्य पृष्ठ पर जगह मिलती है, किन्तु जब हजारों युवा ' हम मनुष्य बनेंगे' का नारा लगाते हुए शहर के राजमार्ग पर शोभा-यात्रा निकालते हैं तो इस पर किसी का ध्यान क्यों नहीं जाता ? 
क्योंकि जो संकीर्ण दृष्टिकोण, स्वार्थी उद्देश्य रखने वाले लोग हैं, जिनमें मनुष्य में अन्तर्निहित महान सम्भावनाओं और उच्च मूल्यों की कोई जानकारी नहीं वैसे दुनियावी लोग तो ऐसा ही करते हैं। अतः ऐसी बातों में समय नष्ट न कर बल्कि कृत संकल्पित होकर हमें अपना कार्य करते रहना चाहिए।
       हमारे देश के लोगों की दशा और उनकी समस्याओं के विषय में आम जनता अच्छी तरह से अवगत है। इनसे निपटने के लिए सरकारी मशीनरी (ED, CBI आदि), लोकतंत्र और कई मत व सिद्धांत हैं। तथा इनका परिणाम भी लोगों को ज्ञात हैं। वस्तुस्थिति पर गंभीरता से विचार करने पर यह अनुभव होता है कि एक ऐसा कार्य पीछे छूट गया है , जिसकी ओर किसी का ध्यान नहीं है , जो किसी अन्य संस्था के कार्यसूची में शामिल नहीं है। उस पीछे छूटे हुए कार्य को पूरा करने का बीड़ा महामण्डल ने स्वयं आगे बढ़कर उठा लिया है। वह कार्य है , स्वयं को 'मनुष्य ' बनाने का प्रयास। क्योंकि देशवासियों के दुःख -कष्टों को दूर कर उन्हें खुशहाल बनाने , एक महान राष्ट्र  जिस पर हमें गर्व हो - का निर्माण करने के लिए बनाने वाली सभी परियोजनायें केवल इसी एक कमी के कारण अंततोगत्वा असफल हो जाती हैं।
        अतः यह कार्य हमसे किसी तत्क्षण वाहवाही या पुरस्कार की अपेक्षा किये बिना दूरदृष्टि और दृढ़ संकल्प के साथ निरन्तर कठिन परिश्रमशील होने और किसी तरह के बलिदान देने के लिए सदैव तत्पर रहने की अपेक्षा करता है। सामान्य लोगों की राय की परवाह किए बिना दीर्घ काल तक इसी कार्य में लगे रहना ही नैतिकता की दृष्टि से सबसे उत्कृष्ट कार्य है। इसीलिए यह स्वाभाविक है कि इस प्रकार के विचारों को प्रश्रय देने वालों की संख्या हमेशा कम ही रहेगी। 
         >>Open-Eyed meditation- the meditation of man. worship of man, the manifested God ! The Mhamandal wants to treat the core of man and not his outer shells.
        अत्यन्त बारीकी से से देखने पर यह कार्य भौतिक से अधिक आध्यात्मिक लगेगा , क्योंकि यह मनुष्य के अन्तःस्थल या मूल का उपचार करना चाहता है , न कि उसके बाहरी आवरणों का। जैसे ही इस कार्य के आध्यात्मिक पहलु से लोगों का परिचय होगा, तब कई लोग तो इस कार्य से  पलायन कर जायेंगे, और अन्य सामान्य लोग इसके उन आध्यात्मि पहलुओं को समझना चाहेंगे जो उनके व्यक्तिगत उन्नति के लिए उपयुक्त हो सकते हैं। क्योंकि महामण्डल कोई साधारण धार्मिक संगठन नहीं है।  यह अपने सदस्यों को मंदिर, मस्जिद या गिरजाघर में जाने के लिए बाध्य नहीं करता। किन्तु यह कहीं से अधार्मिक संगठन भी नहीं है। यह संगठन स्वामी विवेकानंद के शब्दों में अपने युवा मित्रों से  कहता है - " धर्म का रहस्य आचरण से जाना जा सकता है , व्यर्थ के मतवादों से नहीं। भला बनना तथा भलाई करना - इसमें ही समग्र धर्म निहित है।  ['The secret of religion lies not in theories but in practice. To be good and do good -that is the whole of religion! धर्म का मूल उद्देश्य है - मनुष्य को सुखी करना। किन्तु परजन्म में सुखी होने के लिए इस जन्म में दुःख-भोग करना कोई बुद्धिमानी काम नहीं है। इस जन्म में ही, इसी मुहूर्त में सुखी होना होगा। जिस धर्म के द्वारा यह सम्पन्न होगा , वही मनुष्य के लिए उपयुक्त धर्म है।  इसीलिये महामंडल साधारण तौर पर प्रचलित धार्मिक परिपाटी की जगह वेदान्त प्रतिपादित सिद्धांतों को महत्व देता है। और  'एक शब्द में, वेदान्त का आदर्श है - मनुष्य के सच्चे स्वरूप को जानना।' ['In one word, the ideal of Vedanta is to know man as he really is'] किन्तु,  इसके लिये महामण्डल में ध्यान नहीं सिखाया जाता है, यहाँ केवल 'मनःसंयोग ' का अभ्यास करना सिखाया जाता है। महामण्डल यदि किसी प्रकार के ध्यान का निर्देश देता भी है, तो वह है-" खुली आँखों से किया जाने वाला ध्यान- और वह है 'मनुष्य ' का ध्यान ! " क्योकि वेदान्त का यही सन्देश है कि " यदि तुम व्यक्त ईश्वररूप अपने भाई (स्वामी विवेकानन्द, नवनीदा) की उपासना नहीं कर सकते , तो तुम उस ईश्वर की कैसे उपासना करोगे जो अव्यक्त है ? " (८/३४)  अतएव , महामण्डल प्रसन्नता पूर्वक इस तरह की सीमाओं को स्वीकार करता है क्योंकि यह संगठन युवाओं का संगठन है और युवा लोग अक्सर प्रचलित धार्मिक रीति-रिवाज में रूचि नहीं भी रख सकते हैं। लेकिन सभी युवा एक वैसा प्रबुद्ध नागरिक बनने में अवश्य रूचि रख सकते हैं जो अपने सम्पूर्ण जीवन मातृभूमि और अपने देशवासियों के कल्याण के लिये समर्पित भी कर दे। दूसरों के कल्याण में अपने जीवन को न्योछावर कर देने की भावना एक उच्चतर आध्यात्मिकता है।
         >>What does a seeker of Truth find when he discover what a man really is ?' 
     खुली आँखों से देशवासियों का ध्यान और सेवा में निष्ठापूर्वक, अपने प्राणों की परवाह किये बिना लगे रहने से जब वे पूर्ण मनुष्यत्व (fuller manhood) का साक्षात्कार करता है, तब वह क्या देखता है ?   (अर्थात जब कोई व्यक्ति जगतगुरु, अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्णदेव के सच्चे स्वरुप को जान लेता है, तब वह क्या देखता है?) 'यही कि  ' Man is an infinite circle whose circumference is nowhere but the center is located in one spot.' --" वास्तव में मनुष्य एक अनन्त वृत्त है जिसकी परिधि कहीं नहीं है, किन्तु केन्द्र एक स्थान पर स्थित है।" केन्द्र वह स्वयं है, लेकिन परिधि उसके चारों ओर फैली हुई है। मनुष्य इसी प्रकार विकसित होता है, अपने प्रभामण्डल (sphere) को फैलाता जाता है,और बृहत होता हुआ एक वास्तविक मनुष्य (ब्रह्म) बन जाता है। ['ब्रह्मविद ब्रह्मैव भवति' That is how he grows , widens his sphere, and becomes big and becomes a true man.] यथार्थ मनुष्य बनने का कार्य वास्तव में ब्रह्मत्व तक पहुँचने की एक यात्रा है ! किन्तु ऐसा ब्रह्मत्व , स्वार्थ, ईर्ष्या, लालच, अनुशासनहीनता, अहंकार आदि पाशविक संस्कारों में लिप्त रहते हुए साक्षात् (direct) प्राप्त नहीं किया जा सकता ! जिस 'पौरुष' से (विवेकदर्शन के अभ्यास से) इन्हें वशीभूत किया जाता है, उसे प्राप्त करना ही हमारा प्रथम सोपान है। अभी हमने केवल प्रथम सोपान पर कदम रखा है, और यही हमारे लिये सीमा हो सकती है। 
        देश की वर्तमान परिस्थितियों को बदलने के लिए- सरकार,लोकतन्त्र के स्वरूप को, या मौजूदा संविधान को बदलना आवश्यक हो सकता है। किन्तु इस कार्य को करने का बीड़ा केवल पूर्ण रूप से पवित्र और निःस्वार्थी  लोग ही  उठा सकते हैं। पर वैसे मनुष्य हैं कहाँ, और वैसे मनुष्य हमें प्राप्त कहाँ से होंगे ? जो लोग लोकतांत्रिक और क्रान्तिकारी बदलाव लाने की बात करते हैं [जे.पी ,अन्नाहजारे, केजरी आदि], उन सभी ने इस मूलभूत कार्य को ही छोड़ रखा है। और महामण्डल इसी छूटे हुए कार्य को पूरा करने प्रयास कर रहा है, और जब तक यह कार्य बहुत हद तक सम्पूर्ण नहीं हो जाता, तब तक वह भी इन परिस्थितियों को बदल पाने में सक्षम नहीं हो सकता। इस सीमा को महामण्डल  विनम्रतापूर्वक स्वीकार भी करता है।  इसलिए महामण्डल का राजनीति से कुछ भी लेना-देना नहीं है, क्योंकि -politics always puts the cart before the horse.' अर्थात राजनीति हमेशा गाड़ी को घोड़े के आगे रखती है।
         महामण्डल के पास न तो ज्यादा धन-बल है, और न ही अधिक जन-बल है। किन्तु  इन बातों को लेकर वह तब तक चिन्तित भी नहीं है, जब तक उसके समक्ष एक बिल्कुल स्पष्ट -आदर्श, उद्देश्य और उपाय है ! जब तक उसके पास थोड़ी संख्या में ही सही, लेकिन कुछ ऐसे युवा हैं जिन्होंने यह जान लिया है कि भारत के वास्तविक कल्याण के लिए सर्वप्रथम क्या करना आवश्यक है। क्योंकि विगत 55 वर्षों में हमने देखा है कि देश भर में सर्वत्र निष्ठावान , मेहनती ,देशभक्त , निःस्वार्थी , विनम्र , त्यागी , उत्साही और साहसी युवकों की  एक ऐसी  बड़ी संख्या मौजूद है, जो इस महान राष्ट्र को पुनरुज्जीवित करने में अपने जीवन को समर्पित करने के लिये उत्सुक हैं ।
          लेकिन महामण्डल उन चुनिन्दा (जीवनदानी)  लोगों का संगठन भी नहीं है जो केवल संगठन के कार्यों को ऑंखें मूँदकर निबटाने के आलावा और किसी पारिवारिक दायित्व का ध्यान नहीं रखते।  वरन यह संगठन उन समस्त युवाओं के लिये है, जो अपने देश एवं देशवासियों और   स्वयं से भी प्यार करते हैं, तथा एक गौरवशाली और महिमान्वित राष्ट्रीय जीवन के निर्माण में अपना भरपूर योगदान देने के साथ-साथ स्वयं भी एक उदात्त और कर्मठ जीवन जीने के इच्छुक हैं। यह संगठन जो युवा अभी 'जहाँ हैं, और जैसे है' - उन सभी युवाओं के लिये है। उन्हें न तो अपना घर छोड़ना है, न पढाई छोड़नी है, और न ही रोजगार - व्यवसाय छोड़ना है, अपितु उन्हें अपना अध्यन आदि समस्त कार्यों को करते हुए केवल अपना चरित्र सुन्दर ढंग से गठित करना है। और अपनी अतिरिक्त ऊर्जा ,समय और यदि सम्भव हो सके तो कुछ धन देना होता है। 
     महामंडल जीवन की पूर्णता प्राप्त करने के समस्त सम्भव उपायों का प्रचार नहीं करता, बल्कि साधन के रूप में केवल कर्म करते रहने का प्रचार करता है। इसलिए यह संगठन  उपरोक्त स्वभाव वाले अधिकांश युवा - जो जाति , धर्म या सम्प्रदाय के आधार पर कोई भेद नहीं रखते, के लिए उपयुक्त है। यदि यह हमारे लिए एक सीमा भी हो तो भी इसके लिये हमें कोई शिकायत या असंतोष नहीं है। इस कार्य में अपना सर्वश्रेष्ठ समर्पित कर देने की क्षमता व्यक्तिगत आध्यात्मिक-उपलब्धि पर निर्भर करती है। यह कार्य देश और इसके लाखों-करोड़ों देशवासियों के कल्याण का कार्य है। और इस उद्देश्य से कार्य करने की क्षमता केवल वैसे ही कार्यों से अर्जित की जा सकती है जो बिना किसी निजी स्वार्थ की इच्छा से किया जाता है। समाज सेवा का कार्य भी इसी तरह का एक कार्य है। इसीलिये महामण्डल समाज सेवा को साध्य के रूप में नहीं बल्कि साधन के रूप में लेने का पक्षधर है। अब यह युवाओं ही तय करना है कि क्या वे इस महान उद्देश्य को पूरा करने के लिये आगे आयेंगे या केवल निजी स्वार्थों की पूर्ति करते रहने में ही अपना जीवन बिता देंगे ? जिसके फलस्वरूप अन्ततोगत्वा उनका व्यक्तिगत रूपसे अमानवीकरण तो होगा ही राष्ट्र भी रसातल में जाने के लिए बाध्य हो जायेगा । 
          उपर गिनाये गए और संभवतः उससे भी अधिक सीमाओं के होते हुए भी, अपनी भलाई और देश की भलाई के लिए  युवा शक्ति को रचनात्मक कार्यों के लिये प्रेरित करने में महामण्डल के सफल होने की असीम सम्भावनायें  हैं।  
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[अर्थात' श्रीरामकृष्ण जैसा मनुष्य का ध्यान, जो सभी मनुष्यों   में 'ताजमहल ' जैसा है उसका ध्यान ' क्योंकि " श्रद्धा से भक्ति मिले , भक्ति से भगवान " , श्रीरामकृष्ण हैं भक्ति ,भक्ति है विश्वास ! ८/ २९ क्योंकि `स्वामी विवेकानन्द -कैप्टन सेवियर वेदान्त शिक्षक-प्रशिक्षण परम्परा-Be and Make',  में दी जाने वाली ज्ञानदान रूपी निःस्वार्थ समाज सेवा, प्रशिक्षित नेता (जीवनमुक्त शिक्षक) बनने और बनाने का अद्भुत साधन है !
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