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गुरुवार, 20 जुलाई 2023

राजयोग अष्टम अध्याय [हिन्दी में] संक्षिप्त राजयोग | कूर्म पुराण से देवर्षि नारद के वैकुण्ठ जाने की कथा

  राजयोग 

अष्टम अध्याय 

 संक्षिप्त राजयोग 

[CHAPTER VIII/RAJA-YOGA IN BRIEF]

राजयोग का सारांश : कूर्म-पुराण से अनुवादित 

[साभार @@@@https://www.khabardailyupdate.com/2022/06/rajyog-chapter-eighth-in-hindi.html]

>>>Yoga is divided into two parts. योगाग्नि मनुष्य के पापपिंजर को दग्ध कर देती है। तब सत्त्वशुद्धि होती है और साक्षात् निर्वाण की प्राप्ति होती है। योग से ज्ञानलाभ होता है; ज्ञान फिर योगी की मुक्ति के पथ का सहायक है। जिनमें योग और ज्ञान, दोनों ही वर्तमान हैं, ईश्वर उनके प्रति प्रसन्न होता है। जो लोग प्रतिदिन एक बार, दो बार, तीन बार या सारे समय महायोग का अभ्यास करते हैं, उन्हें देवता समझना चाहिए। योग दो प्रकार के हैं; जैसे- अभावयोग और महायोग। 

जब शून्य तथा सब प्रकार के गुण से रहित (निर्गुण-निराकार) रूप से अपना चिन्तन किया जाता है, (meditated upon as zero) तब उसे अभावयोग कहते हैं; और जिस योग के द्वारा आत्मा आनन्दपूर्ण, पवित्र और ब्रह्म के अभिन्न रूप (अवतार वरिष्ठ के नामरूप) से चिन्तन किया जाता है, उसे महायोग कहते हैं। योगी इनमें से प्रत्येक के द्वारा ही आत्मसाक्षात्कार कर लेते हैं। हम दूसरे जिन योगों के बारे में शास्त्रों में पढ़ते या सुनते हैं, वे सब योग इस उत्तम महायोग जिसमें योगी अपने को तथा सारे जगत् को साक्षात् भगवत्स्वरूप देखते हैं के साथ एक श्रेणी में शामिल नहीं हो सकते। यह सारे योगों में श्रेष्ठ है।

यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि, ये राजयोग के विभिन्न अंग या सोपान हैं। यम का अर्थ है- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। इस यम से चित्तशुद्धि होती है। शरीर, मन और वचन के द्वारा कभी किसी प्राणी की हिंसा न करना या उन्हें क्लेश न देना- यह अहिंसा कहलाता है। अहिंसा से बढ़कर और धर्म नहीं। मनुष्य के लिए जीव के प्रति यह अहिंसाभाव रखने से अधिक और कोई उच्चतर सुख नहीं है। सत्य के द्वारा हम कर्मफल के भागी होते हैं; सत्य से सब कुछ मिलता है; सत्य में सब कुछ प्रतिष्ठित है। यथार्थ कथन को ही सत्य कहते हैं। 

चोरी से या बलपूर्वक दूसरे की चीज को न लेने का नाम है अस्तेय तन मन वचन से सर्वदा सब अवस्थाओं में मैथुन का त्याग ही ब्रह्मचर्य है। अत्यन्त कष्ट के समय में भी किसी मनुष्य से कोई उपहार ग्रहण न करने को अपरिग्रह कहते हैं। अपरिग्रह साधना के पीछे यह कारण है कि किसी से कुछ लेने से हृदय अपवित्र हो जाता है, लेनेवाला हीन हो जाता है, वह अपनी स्वतन्त्रता खो बैठता है और बद्ध एवं आसक्त हो जाता है। निम्नलिखित साधन भी योग में सफलता के लिए सहायक हैं और वे हैं नियम अर्थात् नियमित अभ्यास और व्रतपरिपालन तप, स्वाध्याय, सन्तोष, शौच और ईश्वरप्रणिधान- इन्हें नियम कहते हैं। व्रत उपवास या अन्य उपायों से देहसंयम करना शारीरिक तपस्या कहलाता है। 

वेदपाठ या दूसरे किसी मन्त्रोच्चारण को सत्त्वशुद्धिकर स्वाध्याय कहते हैं। मन्त्र जपने के लिए तीन प्रकार के नियम हैं- वाचिक, उपांशु और मानस। वाचिक से उपांशु जप श्रेष्ठ है और उपांशु से मानस जप। जो जप इतने ऊँचे स्वर से किया जाता है कि सभी सुन सकते हैं, उसे वाचिक जप कहते हैं। जिस जप में ओठों का स्पन्दन मात्र होता है, पर पास रहनेवाला कोई मनुष्य सुन नहीं सकता, उसे उपांशु कहते हैं। और जिसमें किसी शब्द का उच्चारण नहीं होता, केवल मन ही मन जप किया जाता है और उसके साथ उस मन्त्र का अर्थ स्मरण किया जाता है , उसे मानसिक जप कहते हैं। यह मानसिक जप ही सब से श्रेष्ठ है।

ऋषियों ने कहा है- शौच दो प्रकार के हैं, बाह्य और आभ्यन्तर। मिट्टी, जल या दूसरी वस्तुओं से शरीर को शुद्ध करना बाह्य शौच कहलाता है, जैसे- स्नानादि। सत्य एवं अन्यान्य धर्मों के पालन के द्वारा मन की शुद्धि को आभ्यन्तर शौच कहते हैं। बाह्य और आभ्यन्तर, दोनों ही शुद्धि आवश्यक हैं। केवल भीतर पवित्र रहकर बाहर अशुचि रहने से शौच पूरा नहीं हुआ। जब कभी दोनों प्रकार के शौच का अनुष्ठान करना सम्भव न हो, तब आभ्यन्तर शौच का वलम्बन ही श्रेयस्कर है। पर ये दोनों शौच हुए बिना कोई भी योगी नहीं बन सकता। ईश्वर की स्तुति, स्मरण और पूजाअर्चनारूप भक्ति का नाम ईश्वरप्रणिधान है। 

यह तो यम और नियम के बारे में हुआ। उसके बाद है आसन। आसन के बारे में इतना ही समझ लेना चाहिए कि वक्षःस्थल, ग्रीवा और सिर को सीधे रखकर शरीर को स्वच्छन्द रीति से रखना होगा। 

अब प्राणायाम के बारे में कहा जाएगा। प्राण का अर्थ है, अपने शरीर के भीतर रहनेवाली जीवनीशक्ति, और आयाम का अर्थ है, उसका संयम प्राणायाम तीन प्रकार के हैं- अधम, मध्यम, और उत्तम। वह तीन भागों में विभक्त हैं, जैसे- पूरक, कुम्भक और रेचक। जिस प्राणायाम बारह सेकण्ड तक वायु का पूरण किया जाता है, उसे अधम प्राणायाम कहते हैं। जिसमें चौबीस सेकण्ड तक वायु का पूरण किया जाता है उसे मध्यम प्राणायाम और जिसमें छत्तीस सेंकण्ड तक वायु का पूरण किया जाता है उसे उत्तम प्राणायाम कहते हैं। 

अधम प्राणायाम से पसीना, मध्यम प्राणायाम से कम्पन और उत्तम प्रणायाम से उच्छ्वास अर्थात् शरीर का हल्कापन एवं चित्त की प्रसन्नता होती है। गायत्री वेद का पवित्रतम मन्त्र है। उसका अर्थ है, 'हम इस जगत् के जन्मदाता परम देवता के तेज का ध्यान करते हैं, वे हमारी बुद्धि में ज्ञान का विकास कर दें।' इस मन्त्र के आदि और अन्त में प्रणव यानी ओंकार लगा हुआ है। एक प्राणायाम में गायत्री का तीन बार मन ही मन उच्चारण करना पड़ता है। प्रत्येक शास्त्र में कहा गया है कि प्राणायाम तीन अंशों में विभक्त है- जैसे, रेचक अर्थात् श्वासत्याग, पूरक अर्थात् श्वासग्रहण और कुम्भक अर्थात् श्वास की स्थिति या श्वासधारण अनुभवशक्तियुक्त इन्द्रियाँ लगातार बहिर्मुखी होकर काम कर रही हैं और बाहर की वस्तुओं के सम्पर्क में आ रही हैं। उनको अपने वश में लाने को प्रत्याहार कहते हैं। अपनी ओर खींचना या आहरण करना यही प्रत्याहार शब्द का प्रकृत अर्थ है।

  >>>Mind fixed for twelve seconds it will be a Dharana :  हृत्कमल में या सिर के ठीक मध्यदेश में या शरीर के अन्य किसी स्थान में मन को धारण करने का नाम है धारणा। मन को एक स्थान में संलग्न करके, फिर उस एकमात्र स्थान को अवलम्बनस्वरूप मानकर एक विशिष्ट प्रकार के वृत्तिप्रवाह उठाये जाते हैं; दूसरे प्रकार के वृत्तिप्रवाहों से उनको बचाने का प्रयत्न करते करते वे प्रथमोक्त वृत्तिप्रवाह क्रमशः प्रबल आकार धारण कर लेते हैं और ये दूसरे वृत्तिप्रवाह कम होते होते अन्त में बिलकुल चले जाते हैं, फिर बाद में उन प्रथमोक्त वृत्तियों का भी नाश हो जाता है और केवल एक वृत्ति वर्तमान रह जाती है। इसे 'ध्यान' कहते हैं। 

और जब इस अवलम्बन की भी कोई आवश्यकता नहीं रह जाती, सम्पूर्ण मन जब एक तरंग के रूप में परिणत हो जाता है, तब मन की इस एकरूपता का नाम है समाधि। तब किसी विशेष प्रदेश या चक्रविशेष का अवलम्बन करके ध्यानप्रवाह उत्थापित नहीं होता, केवल ध्येय वस्तु का भाव (अर्थ-अवतार वरिष्ठ का अर्थ =सच्चिदानन्द !) मात्र अवशिष्ट रहता है। यदि मन को किसी स्थान में बारह सेकण्ड धारण किया जाए, तो उससे एक धारणा होगी; यह धारणा द्वादशगुणित होने पर एक ध्यान, और यह ध्यान द्वादशगुणित होने पर एक समाधि होगी। 

सूखे पत्तों से ढकी हुई जमीन पर, चौराहे पर, अत्यन्त कोलाहलपूर्ण या डरावने स्थान में, दीमक के ढेर के समीप, अथवा जहाँ अग्नि या जल से किसी भय की आशंका हो, जहाँ जंगली जानवर हों, जो स्थान दुष्ट लोगों से भरा हो- ऐसे स्थानों में योग की साधना करना उचित नहीं। यह बात विशेषकर भारत के बारे में लागू होती है। 

जब शरीर अत्यन्त आलसी या बीमार मालूम होता है अथवा जब मन अत्यन्त दुःखपूर्ण रहता हो, तब भी साधना नहीं करनी चाहिए। किसी गुप्त और निर्जन स्थान में जाकर साधना करो, जहाँ लोग तुम्हें बाधा पहुँचाने न आ सकें। अपवित्र जगह में बैठकर साधना मत करना, वरन् सुन्दर दृश्यवाले स्थान में या अपने घर के एक सुन्दर कमरे में बैठकर साधना करना। साधना में प्रवृत्त होने के पहले समस्त प्राचीन योगियों, अपने गुरुदेव तथा भगवान् को प्रणाम करना और फिर साधना में प्रवृत्त होना। 

ध्यान का विषय पहले ही कहा जा चुका है। अब ध्यान की कुछ प्रणालियाँ वर्णित की जाती हैं। सीधे बैठकर अपनी नाक के ऊपरी भाग पर दृष्टि रखो। तुम देखोगे कि उससे मन की स्थिरता में विशेष रूप से सहायता मिलती है। आँख के दो स्नायुओं को वश में लाने (त्राटक ?) से प्रतिक्रिया के केन्द्रस्थल को काफी वश में लाया जा सकता है, अतः उससे इच्छाशक्ति भी बहुत अधीन हो जाती है। अब ध्यान के कुछ प्रकार कहे जाते हैं। सोचो, सिर के कुछ ऊपर एक कमल है- धर्म उसका मध्यभाग है, ज्ञान उसकी नाल है, योगी की अष्टसिद्धियाँ उस कमल के आठ दलों के समान हैं और वैराग्य उसके अन्दर की कर्णिका यानी बीजकोश है। जो योगी अष्टसिद्धियाँ आने पर भी उनको छोड़ सकते हैं, वे ही मुक्ति प्राप्त करते हैं। 

इसीलिए अष्टसिद्धियों का बाहर के आठ दलों के रूप में, तथा अन्दर की कर्णिका का परवैराग्य अर्थात् अष्टसिद्धियाँ आने पर भी उनके प्रति वैराग्य के रूप में वर्णन किया गया है। इस कमल के अन्दर हिरण्मय, सर्वशक्तिमान, अस्पर्श, ओंकारवाच्य, अव्यक्त, किरणों से परिव्याप्त परम ज्योति का चिन्तन करो। पर ध्यान करो।  

और एक प्रकार के ध्यान का विषय बताया जाता है सोचो कि तुम्हारे हृदय में एक आकाश है, और उस आकाश के अन्दर अग्निशिखा के समान एक ज्योति उद्भासित हो रही है उस ज्योतिशिखा का अपनी आत्मा के रूप में चिन्तन करो फिर उस ज्योति के अन्दर और एक ज्योतिर्मय आकाश की भावना करो; वही तुम्हारी आत्मा की आत्मा है- परमात्मास्वरूप ईश्वर है। उसका (अवतार वरिष्ठ का)   ध्यान करो। 

ब्रह्मचर्य, अहिंसा, महाशत्रु को भी क्षमा कर देना, सत्य, आस्तिक्य ये सब विभिन्न व्रत हैं। यदि इन सब में तुम सिद्ध न रहो, तो भी दुःखित या भयभीत मत होना। प्रयत्न करो, धीरे धीरे सब हो जाएगा। विषय की लालसा, भय और क्रोध छोड़कर जो भगवान् का शरणागत हुआ है, उनमें तन्मय हो गया है, जिसका हृदय पवित्र हो गया है वह भगवान् के पास जो कुछ चाहता है, भगवान् उसी समय उसकी पूर्ति कर देते हैं  अतः ज्ञान, भक्ति या वैराग्य के माध्यम से उनकी उपासना करो। 

जो किसी से घृणा नहीं करता, जो सब का मित्र है, जो सब के प्रति करुणासम्पन्न है, जिसका अहंकार चला गया है, जो सदैव सन्तुष्ट है, जो सर्वदा योगयुक्त, यतात्मा और दृढ़ निश्चयवाला है, जिसका मन और बुद्धि मुझमें अर्पित हो गयी है, वही मेरा प्रिय भक्त है। जिससे लोग उद्विग्न नहीं होते, जो लोगों से उद्विग्न नहीं होता, जिसने अतिरिक्त हर्ष, दुःख, भय और उद्वेग त्याग दिया है, ऐसा भक्त ही मेरा प्रिय है। 

जो किसी का भरोसा नहीं करता, जो शुचि और दक्ष है, सुख और दुःख में उदासीन है, जिसका दुःख चला गया है, जो निन्दा और स्तुति में समभावापन्न है, मौनी है, जो कुछ पाता है, उसी में सन्तुष्ट रहता है, जिसके कोई निर्दिष्ट घर बार नहीं, सारा जगत् ही जिसका घर है, जिसकी बुद्धि स्थिर है, ऐसा व्यक्ति ही मेरा प्रिय भक्त है। "ऐसे व्यक्ति ही योगी हो सकते हैं। 

नारद नामक एक महान् देवर्षि थे। जैसे मनुष्यों में ऋषि या बड़े बड़े योगी रहते हैं, वैसे ही देवताओं में भी बड़े बड़े योगी हैं। नारद भी वैसे ही एक अच्छे और अत्यन्त महान् योगी थे। वे सर्वत्र भ्रमण किया करते थे। एक दिन एक वन में से जाते हुए उन्होंने देखा कि एक मनुष्य ध्यान में इतना मग्न है और दिनों से एक ही आसन पर बैठा है कि उसके चारों ओर दीमक का ढेर लग गया है। उसने नारद से पूछा, “प्रभो, आप कहाँ जा रहे हैं? " नारदजी ने उत्तर दिया, “ मैं वैकुण्ठ जा रहा हूँ।" तब उसने कहा, अच्छा आप भगवान् से पूछते आएँ, वे मुझ पर कब कृपा करेंगे, मैं कब मुक्ति प्राप्त करूँगा। फिर कुछ दूर और जाने पर नारदजी ने एक दूसरे मनुष्य को देखा। वह कूदफाँद रहा था, कभी नाचता था, तो कभी गाता था। उसने भी नारदजी से वही प्रश्न किया। 

उस व्यक्ति का कण्ठस्वर, चालढाल आदि सभी उन्मत्त के समान थे। नारदजी ने उसे भी पहले के समान उत्तर दिया। वह बोला, “अच्छा, तो भगवान् से पूछते आएँ, मैं कब मुक्त होऊँगा। ”लौटते समय नारदजी ने दीमक के ढेर के अन्दर रहनेवाले उस ध्यानस्थ योगी को देखा। उस योगी ने पूछा, “देवर्षे, क्या आपने मेरी बात पूछी थी? ”नारदजी बोले, “हाँ, पूछी थी।” योगी ने पूछा, "तो उन्होंने क्या कहा? ”नारदजी ने उत्तर दिया, “भगवान् ने कहा, 'मुझको पाने के लिए उसे और चार जन्म लगेंगे।" तब तो वह योगी घोर विलाप करते हुए कहने लगा, "मैंने इतना ध्यान किया है कि मेरे चारों ओर दीमक का ढेर लग गया, फिर भी मुझे और चार जन्म लेने पड़ेंगे। 

नारदजी तब दूसरे व्यक्ति के पास गये। उसने भी पूछा, "क्या आपने मेरी बात भगवान् से पूछी थी? "नारदजी बोले, "हाँ, भगवान् ने कहा है, उसके सामने जो इमली का पेड़ है, उसके जितने पत्ते हैं, उतनी बार उसको जन्म ग्रहण करना पड़ेगा।" यह बात सुनकर वह व्यक्ति आनन्द से नृत्य करने लगा और बोला, "मैं इतने कम समय में मुक्ति प्राप्त करूँगा! "तब एक देववाणी हुई “मेरे बच्चे, तुम इसी क्षण मुक्ति प्राप्त करोगे। "

वह दूसरा व्यक्ति इतना अध्यवसायसम्पन्न था ! इसीलिए उसे वह पुरस्कार मिला। वह इतने जन्म साधना करने के लिए तैयार था। कुछ भी उसे उद्योगशून्य न कर सका। परन्तु वह प्रथमोक्त व्यक्ति चार जन्मों की ही बात सुनकर घबड़ा गया। जो व्यक्ति मुक्ति के लिए सैकड़ों युग तक बाट जोहने को तैयार था, उसके समान अध्यवसायसम्पन्न होने पर ही उच्चतम फल प्राप्त होता है

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राजयोग [सप्तम अध्याय] ध्यान और समाधि | Swami Vivekanand Rajyog Chapter-7

[RAJA YOGA : CHAPTER VII : DHYANA AND SAMADHI]

 राजयोग

सप्तम अध्याय

ध्यान और समाधि 

[साभार @@@@https://www.khabardailyupdate.com/2022/05/swami-vivekananda-rajyog-adhyay-seventh-dhyaan-aur-samadhi.html]

>>>All our rational knowledge is subject to ego perception.

अब तक हम राजयोग के अन्तरंग साधनों  को छोड़ शेष सभी अंगों के संक्षिप्त विवरण समाप्त कर चुके हैं। इन अन्तरंग साधनों का लक्ष्य पूर्ण एकाग्रता (समाधि या योग) की प्राप्ति है। इस एकाग्रता-शक्ति को घटित करना ही राजयोग का चरम लक्ष्य हैं। हम मानव के नाते, देखते हैं कि हमारा समस्त तर्कसंगत ज्ञान अहंबोध के अधीन है। मुझे इस मेज का बोध हो रहा है, तुम्हारे अस्तित्व का बोध हो रहा है; और इस अहंबोध के कारण ही मैं जान पा रहा हूँ कि मेज यहाँ है और तुम यहाँ हो! यह तो हुई एक ओर की बात। फिर एक दूसरी ओर यह भी देख रहा हूँ कि मेरी सत्ता कहने से जो बोध होता है, उसका अधिकांश में अनुभव नहीं कर सकता। शरीर के भीतर के सारे यन्त्र, मस्तिष्क के विभिन्न अंश- इन सब के प्रति हम सचेत नहीं हैं। 

जब हम भोजन करते हैं, तब वह ज्ञानपूर्वक करते हैं, परन्तु जब हम उसका सारभाग भीतर ग्रहण करते हैं, तब हम वह अज्ञातरीति से करते हैं। जब वह खून के रूप में परिणत होता है, तब भी वह हमारे बिना जाने ही होता है। और जब इस खून से शरीर के भिन्न भिन्न अंश गठित होते हैं, तो वह भी हमारी जानकारी के बिना ही होता है। किन्तु यह सारा काम हमारे द्वारा ही होता है। इस शरीर के भीतर कोई अन्य दस-बीस लोग तो बैठे नहीं हैं, जो यह काम कर देते हों। पर यह किस तरह हमें मालूम हुआ कि हमीं इनको कर रहे हैं, दूसरा कोई नहीं? इस सम्बन्ध में अनायास ही यह कहा जा सकता है कि आहार करना ही हमारा काम है और खाना पचाने और खाद्य से शरीर को पुष्ट करने का काम तो हमारे लिए दूसरा कोई कर दे रहा है। पर यह हो नहीं सकता क्योंकि यह प्रमाणित किया जा सकता है कि अभी जो काम हमारे बिना जाने हो रहे हैं, वे लगभग सभी साधना के बल से हमारे जाने साधित हो सकते हैं। 

>>>If my heart is beating without my control? ऐसा मालूम होता है कि हमारा हृदययन्त्र अपने आप ही चल रहा है, हममें से कोई उसको अपनी इच्छानुसार नहीं चला सकता, वह अपने ख्याल से आप ही चल रहा है। परन्तु इस हृदय के कार्य भी अभ्यास के बल से इस प्रकार इच्छाधीन किये जा सकते हैं कि वे इच्छा मात्र से शीघ्र या धीरे चलने लगेंगे, या लगभग बन्द हो जाएँगे। हमारे शरीर के प्रायः सभी अंश वश में लाये जा सकते हैं। इससे क्या ज्ञात होता है? यही कि इस समय जो काम हमारे बिना जाने हो रहे हैं, उन्हें भी हमीं कर रहे हैं, पर हाँ, हम उन्हें अज्ञातरीति से कर रहे हैं, बस, इतना ही। 

>>> Human mind works on two planes ~ (चेतनभूमि और अचेतन भूमि) :अतएव हम देखते हैं कि मानव मन दो अवस्थाओं में रहकर कार्य करता है। पहली अवस्था को ज्ञान या चेतन भूमि कह सकते हैं। जिन कामों को करते समय साथ साथ, 'मैं कर रहा हूँ' यह ज्ञान (अहं- बोध ~ feeling of egoism) सदा विद्यमान रहता है, वे कार्य ज्ञान (या चेतन भूमि--conscious planeसे साधित हो रहे हैं, ऐसा कहा जा सकता है। दूसरी भूमि को अज्ञान या अचेतन भूमि कह सकते हैं। जो सब कार्य ज्ञान की निम्न भूमि से साधित होते हैं, जिसमें ‘मैं ज्ञान नहीं रहता', (अहंबोध नहीं रहता) उसे अज्ञान या अचेतन भूमि (unconscious plane) कह सकते हैं। 

>>>Conscious work, Unconscious work and Instinct :हमारे कार्य-कलापों में से जिनमें 'अहं' मिला रहता है, उन्हें ज्ञानयुक्त या चेतन क्रिया (conscious work) और जिनमें 'अहं' का लगाव नहीं, उन्हें ज्ञानरहित या अचेतन क्रिया (unconscious work) कहते हैं। निम्न जाति के प्राणियों में यह ज्ञानरहित क्रिया जन्मजात प्रवृत्ति (instinct) कहलाती है। उनकी अपेक्षा उच्चतर जीवों में और सब से उच्च जीव, मनुष्य (Highest of all animals ~  man) में यह दूसरे प्रकार की क्रिया, जिसमें अहंबोध रहता है, अधिक दीख पड़ती है- इसी को ज्ञानयुक्त क्रिया कहते हैं।  

>>>The feeling of egoism is only on the middle plane.जन्मजातप्रवृत्ति की अवस्था के जैसा समाधि (अतिचेतन) अवस्था में भी अहंबोध नहीं रहता :  परन्तु इतने से ही सारी भूमियों का उल्लेख नहीं होता। मन इन दोनों से उच्च भूमि पर विचरण कर सकता है। मन ज्ञान की भी अतीत अवस्था में जा सकता है। जिस प्रकार अज्ञानभूमि से जो कार्य होता है, वह ज्ञान की निम्न भूमि का कार्य है, वैसे ही ज्ञान की उच्च भूमि से भी ज्ञानातीत भूमि से भी कार्य होता है। उसमें भी किसी प्रकार का अहंबोध नहीं रहता। यह अहंबोध केवल बीच की अवस्था में रहता है। जब मन इस रेखा के ऊपर या नीचे विचरण करता है, तब किसी प्रकार का अहंबोध (feeling of egoism) नहीं रहता, किन्तु तब भी मन की क्रिया चलती रहती है। जब मन इस अहं-बोध की रेखा (line of self-consciousness) के परे अर्थात् इन्द्रियातीत प्रदेश (ज्ञानभूमि के अतीत प्रदेश में) गमन करता है, तब उसे अतिचेतनसमाधि  या (superconsciousness)  ज्ञानातीत भूमि  कहते हैं। 

>>>अब हम यह किस तरह समझें कि जो मनुष्य समाधि अवस्था में जाता है, वह ज्ञानभूमि के निम्न स्तर (below consciousness) में नहीं चला जाता, बिलकुल हीनदशापत्र नहीं हो जाता, वरन् ज्ञानातीत भूमि में चला जाता है? इन दोनों ही अवस्थाओं में (समाधि और सुषुप्ति दोनों अवस्थाओं में) तो अहंबोध नहीं रहता! इसका उत्तर यह है कि कौन ज्ञानभूमि के निम्न देश में और कौन ऊर्ध्व देश में गया, इसका निर्णय फल देखने पर ही हो सकता है। जब कोई गहरी नींद में (सुषुप्ति या deep sleep) सोया रहता है, तब वह ज्ञान या चेतन की निम्न भूमि में चला जाता है। तब वह अज्ञात भाव से ही शरीर की सारी क्रियाएँ, श्वास प्रश्वास, यहाँ तक कि शरीरसंचालन-क्रिया भी करता रहता है; उसके इन सब कामों में अहंबोध का कोई लगाव नहीं रहता; तब वह अज्ञान से ढका रहता है। वह जब नींद से उठता है, तब वह सोने के पहले जैसा था, वैसा ही रहता है, उसमें कुछ भी परिवर्तन नहीं होता।  उसके सोने से पहले उसकी जो ज्ञानसमष्टि थी, नींद टूटने के बाद भी ठीक वही रहती है, उसमें कुछ भी वृद्धि नहीं होती। उसे कोई प्रकाश नहीं मिलता। 

किन्तु जब मनुष्य समाधिस्थ होता है, तो समाधि प्राप्त करने के पहले यदि वह महामूर्ख रहा हो, अज्ञानी रहा हो, तो समाधि से वह महाज्ञानी होकर व्युत्थित होता है। इस भिन्नता का कारण क्या है? एक अवस्था से, मनुष्य जैसा गया था, वैसा ही लौट आया, और दूसरी अवस्था से- समाधि से लौटा मनुष्य बुद्धत्व को प्राप्त होगया ? ब्रह्मविद, आत्मज्ञानी, (enlightened from within)  पैगम्बर,मानवजाति का मार्गदर्शक नेता, एक महान् साधु, एक सिद्ध पुरुष के रूप में परिणत हो गया, उसका स्वभाव बिलकुल बदल गया, उसके जीवन ने बिलकुल दूसरा रूप धारण कर लिया दोनों अवस्थाओं के ये दो विभिन्न फल (two effects) हैं। 

>>> Now the effects being different, the causes must be different. अब बात यह है कि फल अलग अलग होने पर कारण भी अवश्य अलग अलग होगा। और चूँकि समाधि-अवस्था से लब्ध यह ज्ञानालोक (illumination-अहंब्रह्मास्मि) , अज्ञानावस्था से लौटने के बाद की अवस्था में जो ज्ञान प्राप्त होता है अथवा साधारण ज्ञानावस्था में युक्ति-विचार द्वारा जो ज्ञान उपलब्ध होता है, उन दोनों से अत्यन्त उच्चतर है, इसीलिए अवश्य वह ज्ञानातीत या अतिचेतन भूमि से आता है। इसीलिए समाधि को मैंने (superconscious state) या ज्ञानातीत भूमि  के नाम से अभिहित किया है। संक्षेप में समाधि का तात्पर्य यही है। हमारे जीवन में इस समाधि की उपयोगिता कहाँ है?

>>>The immortality that humanity holds most dear.  (मनुष्य अपने मन की चहारदिवारी को लाँघकर ब्रह्मविद बन जाता है)  समाधि की विशेष उपयोगिता है। विचार का क्षेत्र या जिस क्षेत्र में हमारा मन ज्ञानपूर्वक कार्य करता है, वह संकीर्ण और सीमित है। मनुष्य का युक्तितर्क एक छोटे से वृत्त में ही भ्रमण कर सकता है, वह कभी उसके में बाहर नहीं जा सकता। हम जितना ही उसके बाहर जाने का प्रयत्न करते हैं, उतना ही वह असम्भव सा जान पड़ता है। ऐसा होते हुए भी, मनुष्य जिसे (आत्मा के अमरत्व को) अत्यन्त कीमती और सब से प्रिय समझता है, वह तो उस युक्ति या तर्क के राज्य के बाहर ही है। अविनाशी आत्मा (immortal soul) है या नहीं, ईश्वर है या नहीं, इस जगत् के नियन्ता, या जगतजननी जगदम्बा 'कोई ज्ञानस्वरूप सत्ता' (supreme intelligence) हैं या नहीं- इन सब तत्त्वों का निर्णय करने में तर्क असमर्थ है। इन सब प्रश्नों का उत्तर तर्क कभी नहीं दे सकता। तर्क क्या कहता है? वह कहता है "मैं अज्ञेयवादी हूँ। मैं किसी विषय में 'हाँ' भी नहीं कह सकता और 'ना' भी नहीं।” What does reason say? It says, "I am agnostic; I do not know either yea or nay."

फिर भी इन सब प्रश्नों का समाधान तो हमारे लिए अत्यन्त आवश्यक है। इन प्रश्नों के ठीक ठीक उत्तर बिना मानवजीवन (human life) उद्देश्यविहीन (purposeless) हो जाएगा।  इस तर्करूप वृत्त के बाहर से प्राप्त हुए समाधान -(अतिचेतन के अनुभव से प्राप्त समाधान) ही हमारे सारे नैतिक सिद्धान्त  (ethical theories) , सारे नैतिक भाव ( moral attitudes) , यही नहीं, बल्कि मानवस्वभाव में जो कुछ सुन्दर तथा महान् है, उस सब की नींव है। अतएव यह सब से आवश्यक है कि हम इन प्रश्नों के यथार्थ उत्तर पा लें। 

>>> Why should there be mercy, justice, or fellow feeling? यदि मनुष्यजीवन केवल पाँच मिनट की चीज हो, और जगत् कुछ परमाणुओं का आकस्मिक मिलन मात्र हो, तो फिर दूसरे का उपकार मैं क्यों करूँ? दया, न्यायपरता या सहानुभूति दुनिया में फिर क्यों रहे? तब तो हम लोगों का यही एकमात्र कर्तव्य हो जाता है कि जिसकी जो इच्छा हो, वही करे, सब अपना अपना देखें। तब तो यही कहावत चरितार्थ होने लगती है - "यावत् जीवेत् सुखं जीवेत्, ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्।"  यदि हम लोगों के भविष्य अस्तित्व की आशा ही न रहे, तो मैं अपने भाई को क्यों प्यार करूँ, मैं उसका गला क्यों न काट दूँ ? यदि जगत् के परे कोई सत्ता (ब्रह्म) न हो, यदि मुक्ति नामक कोई चीज न हो, यदि कुछ कठोर, अभेद्य, जड़ नियम (rigorous dead laws) ही सर्वस्व हों, तब तो हमें इहलोक में ही सुखी होने की प्राणपण से चेष्टा करनी चाहिए। आजकल बहुत से लोगों के मतानुसार उपयोगितावाद (utility) ही नीति की नींव है, अर्थात् जिससे अधिक लोगों को अधिक परिमाण में सुख स्वाच्छन्द्य मिले, वही नीति की नींव है। इन लोगों से मैं पूछता हूँ, हम इस नींव पर खड़े होकर नीति का पालन क्यों करें ? क्यों?यदि अधिक मनुष्यों का अधिक मात्रा में अनिष्ट करने से मेरा मतलब सधता हो, तो मैं वैसा क्यों न करूँ? 

उपयोगितावादी इस प्रश्न का क्या जवाब देंगे? कौन अच्छा है और कौन बुरा, यह तुम कैसे जानोगे? मैं अपनी सुख की वासना से परिचालित होकर उसकी तृप्ति करता हूँ ऐसा करना मेरा स्वभाव है; मैं उससे अधिक कुछ नहीं जानता। मेरी ये वासनाएँ हैं, और मैं उनकी तृप्ति करूँगा ही, तुम्हें उसमें आपत्ति करने का क्या अधिकार है? मानवजीवन के ये सब महान् सत्य, जैसे- नीति, आत्मा का अमरत्व, ईश्वर, प्रेम, सहानुभूति, साधुत्व और सर्वोपरि, सब से महान् सत्य निःस्वार्थता- ये सब भाव (चारित्रिक गुण) हमें कहाँ से मिले हैं? 

>>>why I should not be selfish ? सारा नीतिशास्त्र, मनुष्य के सारे काम, मनुष्य के सारे विचार इस निःस्वार्थता रूप एकमात्र नींव पर आधारित हैं। मानवजीवन के सारे भाव इस निःस्वार्थता रूप एकमात्र भाव के अन्दर डाले जा सकते हैं। मैं क्यों स्वार्थशून्य होऊँ? निःस्वार्थी होने की आवश्यकता क्या? और किस शक्ति के बल से मैं निःस्वार्थी होऊँ? तुम कहते हो, "मैं युक्तिवादी हूँ, मैं उपयोगितावादी हूँ,” लेकिन यदि तुम मुझे इस उपयोगिता की युक्ति न दिखला सको, तो मैं तुम्हें अयौक्तिक कहूँगा। मैं क्यों निःस्वार्थी होऊँ, कारण बताओ; क्यों न मैं बुद्धिहीन पशु के समान आचरण करूँ

निःस्वार्थता कवित्व के हिसाब से अवश्य बहुत सुन्दर हो सकती है, किन्तु कवित्व तो युक्ति नहीं है। मुझे युक्ति दिखलाओ, मैं क्यों निःस्वार्थी होऊँ? क्यों मैं भला बनूँ? यदि कहो, "अमुक यह बात कहते हैं, इसलिए ऐसा करो " -तो यह कोई जवाब नहीं है, मैं ऐसे किसी व्यक्तिविशेष की बात नहीं मानता। मेरे निःस्वार्थी होने से मेरा कल्याण कहाँ? यदि कल्याण 'से अधिक परिमाण में सुख समझा जाए, तो स्वार्थी होने में ही मेरा कल्याण है। उपयोगितावादी इसका क्या उत्तर देंगे? वे इसका कुछ भी उत्तर नहीं दे सकते।

>>> this world is only one drop in an infinite ocean :  इसका यथार्थ उत्तर यह है कि यह परिदृश्यमान जगत् अनन्त समुद्र में एक छोटा सा बुलबुला है- अनन्त शृंखला की एक छोटी सी कड़ी है। जिन्होंने जगत् में निःस्वार्थता का प्रचार किया था और मानवजाति को उसकी शिक्षा दी थी, उन्होंने यह तत्त्व कहाँ से पाया? हम जानते हैं कि यह जन्मजात प्रवृत्तियों द्वारा नहीं प्राप्त हो सकता। जन्मजात प्रवृत्तियों से युक्त पशु तो इसे नहीं जानते। विचार बुद्धि से भी यह नहीं मिल सकता उससे इन सब तत्त्वों का कुछ भी नहीं जाना जाता। तो फिर वे सब तत्त्व उन्होंने कहाँ से पाये? 

इतिहास के अध्ययन से मालूम होता है, संसार के सभी धर्मशिक्षक तथा धर्मप्रचारक कह गये हैं कि हमने ये सब सत्य जगत् के अतीत प्रदेश से पाये हैं। उनमें से बहुतेरे इस सम्बन्ध में अज्ञ थे कि उन्होंने यह सत्य ठीक कहाँ से पाया। किसी ने कहा, “एक देवदूत ने पंखयुक्त मनुष्य के रूप में मेरे पास आकर मुझसे कहा, 'हे मानव, सुनो, मैं स्वर्ग से यह शुभ समाचार लाया हूँ, ग्रहण करो।” दूसरे ने कहा, “तेजपुंजकाय एक देवता ने मेरे सामने आविर्भूत होकर मुझे उपदेश दिया है।” तीसरे ने कहा, “मैंने स्वप्न में अपने एक पूर्वज को देखा, उन्होंने मुझे इन तत्त्वों का उपदेश दिया।” इसके आगे वे और कुछ न कह सके। इस तरह विभिन्न उपायों से तत्त्वलाभ की बात कहने पर भी उन सभी का इस विषय में यही मत है कि उन्होंने यह ज्ञान युक्ति तर्क से नहीं पाया, वरन् उसके अतीत प्रदेश (beyond reasoning) से ही उसे पाया है। 

>>>What does the science of Yoga teach? इसके बारे में योगशास्त्र का मत क्या है? उसका मत यह है कि वे जो कहते हैं कि युक्तितर्क के अतीत प्रदेश से उन्होंने उस ज्ञान को पाया है, यह सही है; किन्तु उनके अपने अन्तर से ही वह ज्ञान उनके पास आया है। योगी कहते हैं, इस मन की ही ऐसी एक उच्च अवस्था है, जो युक्ति तर्क के परे है, जो अतिचेतन (superconscious state) है। उस उच्चावस्था में पहुँचने पर मनुष्य तर्क के अगम्य ज्ञान को प्राप्त कर लेता है, और ऐसे मनुष्य को ही समस्त विषयज्ञान के अतीत पारमार्थिक ज्ञान या अतीन्द्रिय ज्ञान (beyond reasoning) की प्राप्ति होती है। 

साधारण मानवी स्वभाव के परे, समस्त युक्ति तर्क के परे की यह अतीन्द्रिय अवस्था कभी कभी ऐसे व्यक्ति को अचानक प्राप्त हो जाती है, जो उसका विज्ञान नहीं जानता। वह मानो उस ज्ञानातीत राज्य में ढकेल दिया जाता है। और जब इस प्रकार अचानक अतीन्द्रिय ज्ञान (Metaphysical and transcendental knowledge) की प्राप्ति होती है, तो वह साधारणतः सोचता है कि वह ज्ञान कहीं बाहर से आया है। इसी से यह स्पष्ट है कि यह पारमार्थिक ज्ञान सारे देशों में वस्तुतः एक होने पर भी, किसी देश में वह देवदूत से, किसी देश में देवविशेष से, अथवा फिर कहीं साक्षात् भगवान् से प्राप्त हुआ सुना जाता है। इसका तात्पर्य क्या है?  यही कि मन ने अपनी प्रकृति के अनुसार ही अपने भीतर से उस ज्ञान को प्राप्त किया है, किन्तु जिन्होंने उसे पाया है, उन्होंने अपनी अपनी शिक्षा और विश्वास के अनुसार इस बात का वर्णन किया है कि उन्हें वह ज्ञान कैसे मिला। असल बात तो यह है कि ये सभी उस ज्ञानातीत अवस्था में अचानक जा पड़े थे। 

>>>great danger in stumbling upon this state : योगी कहते हैं कि उस ज्ञानातीत अवस्था में अचानक जा पड़ने से एक भारी खतरे की आशंका रहती है। अनेक स्थलों में तो मस्तिष्क के बिलकुल नष्ट हो जाने की सम्भावना रहती है। और भी देखोगे, जिन सब मनुष्यों ने अचानक इस अतीन्द्रिय ज्ञान को पाया है, पर उसके वैज्ञानिक तत्त्व को नहीं समझा, वे कितने भी बड़े क्यों न हों, सच पूछा जाए, तो उन्होंने अँधेरे में टटोला है, और उनके उस ज्ञान के साथ कुछ न कुछ विचित्र अन्धविश्वास मिला हुआ है ही। उन्होंने अपने आपको भ्रान्तियों (hallucinations) के लिए खोल रखा था। मुहम्मद ने घोषणा की कि एक दिन फ़रिश्ता गैब्रिल (Angel Gabriel-जिब्राईल)  पर्वत की गुफा में उनके पास आया और उन्हें स्वर्गीय अश्व हैरक (heavenly horse, Harak) पर बिठा स्वर्गराज्य के दर्शन को ले गया। किन्तु, यह सब होते हुए भी, मुहम्मद ने कई आश्चर्यजनक सत्यों का उद्घाटन किया। [ इसके अलावा जिब्रील ने और भी कई बार, अल्लाह की बात विभिन्न नबियों तक पहुंचाई है। मुस्लिम समुदाय की मान्यता के अनुसार जिब्रील, अल्लाह के द्वारा सृष्टि किया गया एक मलक या फ़रिश्ता है। इस मलक का काम यह था कि अल्लाह के आदेशानुसार  नबी के पास अल्लाह का आदेश या दिव्या वाणी लेकर जाता है।] 

यदि तुम कुरान का अध्ययन करो, तो तुम पाओगे कि उसमें आश्चर्यजनक सत्यों के साथ ही कुछ अन्धविश्वास (wonderful truths mixed with superstitions) भी मिले-जुले हैं। इसकी व्याख्या तुम कैसे करोगे? वे अवश्य ही दिव्य प्रेरणा से प्रेरित थे, किन्तु यह अन्तःप्रेरणा उन्हें अनजान में ही अचानक मिल गयी थी। वे कोई [गुरु-शिष्य परम्परा में प्रशिक्षित योगी (trained Yogi)] न थे। अतः अपने क्रिया-कलापों को न समझ ने सके। मुहम्मद ने संसार का क्या उपकार किया और उनके शिष्यों की धर्मान्धता (fanaticism) ने संसार की कितनी क्षति की जरा इस पर विचार करो। उनकी कुछ शिक्षाओं पर गलत जोर देने के कारण लाखों की हत्याएँ हुईं, लाखों माताओं ने अपनी सन्तानें खोयीं, लाखों मातृपितृविहीन बने और कितने ही देशों का सर्वनाश ही हो गया- इन्हें जरा सोचो तो।

जो हो, हम मुहम्मद तथा अन्य कई महापुरुषों के जीवनचरित्र का अध्ययन करने पर देखते हैं कि अचानक इन्द्रियातीत राज्य में जा पड़ने से उपर्युक्त प्रकार के खतरे की आशंका रहती है। किन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि वे सभी दिव्य प्रेरणा से प्रेरित थे। जब कभी कोई महापुरुष केवल भावुकता के बल से इस अतीन्द्रिय अवस्था में जा पड़े हैं, तो वे उस अवस्था से कुछ सत्य ही नहीं लाये, पर साथ ही अन्धविश्वास, धर्मान्धता, ये सब भी लेते आये। उनकी शिक्षा में जो उत्कृष्ट अंश है, उससे जगत् का जैसा उपकार हुआ है, उन सब धर्मान्धता और अन्धविश्वासों से वैसे ही क्षति भी हुई है। 

>>>We have to transcend our reason scientifically, slowly, by regular practice : मानवजीवन नाना प्रकार के विपरीत भावों से ग्रस्त होने के कारण असामंजस्यपूर्ण है। इस असामंजस्य में कुछ सामंजस्य और सत्य प्राप्त करने के लिए हमें युक्तितर्क के अतीत जाना पड़ेगा। पर वह धीरे धीरे करना होगा, नियमित साधना के द्वारा ठीक वैज्ञानिक उपाय से उसमें पहुँचना होगा, और सारे अन्धविश्वास को भी हमें छोड़ देना होगा। अन्य कोई विज्ञान सीखने के समय जैसा हम लोग करते हैं, इस अतिचेतन अवस्था के अध्ययन के लिए ठीक उसी धारा का अनुसरण करना होगा। युक्ति तर्क को ही अपनी नींव बनाना होगा। युक्तितर्क हमें जितनी दूर ले जा सकता है, हम उतनी दूर जाएँगे और जब युक्ति तर्क नहीं चलेगा, तब वही हमें उस सर्वोच्च अवस्था की प्राप्ति का रास्ता दिखला देगा। 

>>>Waking, dream, deep sleep and superconscious state are the four states of the same mind :  अतः यदि कोई अपने को दिव्य प्रेरणा से प्रेरित कहकर दावा करे, फिर साथ ही युक्ति के विरुद्ध भी अटपट बोलता रहे, तो उसकी बात मत सुनना। क्यों? इसलिए कि जिन तीन भूमियों की बात कही गयी है, जैसे जन्मजात प्रवृत्ति, चेतन या तर्कजात ज्ञान और अतिचेतन या ज्ञानातीत भूमि- ये तीनों एक ही मन की विभिन्न अवस्थाएँ हैं। एक मनुष्य के तीन मन नहीं हैं, वरन् उस एक ही मन की एक अवस्था दूसरी अवस्थाओं में परिवर्तित हो जाती है।  

>>>Real inspiration never contradicts reason, but fulfils it. 

जन्मजात प्रवृत्ति चेतन या तर्कजात ज्ञान में और तर्कजात ज्ञान अतिचेतन या जगदतीत ज्ञान में परिणत होता है।अतः इन अवस्थाओं में से कोई भी अवस्था दूसरी अवस्थाओं की विरोधी नहीं है। यथार्थ दिव्य प्रेरणा, तर्कजात ज्ञान की अपूर्णता को पूर्ण मात्र करती है। पूर्वकालीन महापुरुषों ने जैसा कहा है, " हम विनाश करने नहीं आये, वरन् पूर्ण करने आये हैं," "I come not to destroy but to fulfil," इसी प्रकार दिव्य प्रेरणा भी तर्कजात ज्ञान का पूरक है और उसके साथ उसका पूर्ण समन्वय है। 

ठीक वैज्ञानिक उपाय से उपर्युक्त अतिचेतन या समाधि अवस्था प्राप्तः करने के लिए ही पूर्वकथित सारे योगांग उपदिष्ट हुए हैं। यह भी समझ लेना विशेष आवश्यक है कि इस दिव्य प्रेरणा को प्राप्त करने की शक्ति प्राचीन पैगम्बरों के समान प्रत्येक मनुष्य के स्वभाव में है। वे पैगम्बर कोई अद्वितीय नहीं थे, वे हमारे तुम्हारे समान ही मनुष्य थे। वे अत्यन्त उच्च कोटि के योगी थे।उन्होंने पूर्वोक्त अतिचेतन अवस्था प्राप्त कर ली थी, और प्रयत्न करने पर तुम और हम भी उसकी प्राप्ति कर ले सकते हैं। वे कोई विशेष प्रकार के अद्भुत मनुष्य नहीं हैं। यदि एक मनुष्य ने उस अवस्था की प्राप्ति की है, तो इसी से प्रमाणित होता है कि प्रत्येक मनुष्य के लिए ही इस अवस्था को प्राप्त करना सम्भव है। 

यह केवल सम्भव ही नहीं, वरन् समय आने पर सभी इस अवस्था की प्राप्ति कर लेंगे। इस अवस्था को प्राप्त करना ही धर्म है। केवल प्रत्यक्ष अनुभव के द्वारा यथार्थ शिक्षा प्राप्त होती है। हम लोग भले ही सारे जीवन भर तर्क विचार करते रहें, पर स्वयं प्रत्यक्ष अनुभव किये बिना हम सत्य का कण मात्र भी न समझ सकेंगे। कुछ पुस्तकें पढ़ाकर तुम किसी मनुष्य से शल्यचिकित्सक (surgeon)  बनने की आशा नहीं कर सकते। तुम केवल एक नक्शा दिखाकर देश देखने का मेरा कौतूहल पूरा नहीं कर सकते। स्वयं वहाँ जाकर उस देश को प्रत्यक्ष देखने पर ही मेरा कौतूहल पूरा होगा। नक्शा केवल इतना कर सकता है कि वह देश के बारे में और भी अधिक अच्छी तरह से जानने की इच्छा उत्पन्न कर देगा। बस, इसके अतिरिक्त उसका और कोई मूल्य नहीं। 

सिर्फ पुस्तकों पर निर्भर रहने से मानवमन अवनति की ओर जाता है।यह कहने की अपेक्षा और घोर ईशनिन्दा क्या हो सकती है कि ईश्वरीय ज्ञान केवल इस ग्रन्थ या उस शास्त्र में आबद्ध है? मनुष्य इधर तो भगवान् को अनन्त कहता है, और उधर एक छोटे से ग्रन्थ में उन्हें आबद्ध कर रखना चाहता है। क्या गर्व ग्रन्थ पर विश्वास नहीं किया , इसलिए लाखों आदमी मार डाले गये! एक ही ग्रन्थ में सारा ईश्वरीय ज्ञान निबद्ध है, इस पर विश्वास न करने से सहस्रों लोग मौत के घाट उतार दिये गये। भले ही आज उस हत्या आदि का समय नहीं रहा, पर फिर भी अभी तक जगत् इस ग्रन्थनिष्ठा में प्रबल रूप से आबद्ध है! 

प्रत्याहार और धारणा के बाद ध्यान और समाधि 

ठीक वैज्ञानिक उपाय (scientific manner) से अतिचेतन अवस्था को प्राप्त करने के लिए, मैं तुम्हें राजयोग के जो विविध साधन बतला रहा हूँ, उनके माध्यम से तुम्हें जाना पड़ेगा। प्रत्याहार और धारणा के बाद अब ध्यान के बारे में चर्चा करूँगा। 

जब मन को देह के भीतर या उसके बाहर किसी स्थान में कुछ समय तक स्थिर रखने के निमित्त प्रशिक्षित किया जाता है, तब उसको उस दिशा में अविच्छिन्न गति से प्रवाहित होने की शक्ति प्राप्त होती है। इस अवस्था का नाम है ध्यान। जब ध्यान शक्ति इतनी तीव्र हो जाती है कि मन अनुभूति के बाहरी भाग को छोड़कर केवल उसके अन्तर्भाग या अर्थ की ही ओर एकाग्र हो जाता है, तब उस अवस्था को समाधि कहते हैं।

 >>>The three — Dharana, Dhyana, and Samadhi — together, are called Samyama. 

धारणा, ध्यान और समाधि, इन तीनों को एक साथ मिलाकर संयम कहते हैं । अर्थात् यदि किसी का मन पहले किसी वस्तु में एकाग्र हो सकता है, फिर उस एकाग्रतां की अवस्था में कुछ समय तक रह सकता है, और उसके बाद ऐसी दीर्घ एकाग्रता की अवस्था में वह अनुभूति के केवल आभ्यन्तरिक भाग पर, जिसका, ध्येय वस्तु केवल कार्य है, अपने आपको लगाए रख सकता है, तो सभी कुछ ऐसे शक्तिसम्पन्न मन के वशीभूत हो जाता है। 

जीव की जितने प्रकार की अवस्थाएँ हैं, उनमें यह ध्यानावस्था ही सर्वोच्च है। जब तक वासना रहती है, तब तक यथार्थ सुख नहीं आ सकता। केवल जब कोई व्यक्ति इस ध्यानावस्था से, साक्षिभाव से सारी वस्तुओं का परिशीलन कर सकता है, तभी उसे यथार्थ सुख और आनन्द प्राप्त होता है। अन्य प्राणी इन्द्रियों में सुख पाते हैं, मनुष्य बुद्धि में, और देवमानव आध्यात्मिक ध्यान में जो ऐसी ध्यानावस्था को प्राप्त हो चुके हैं, उनके पास यह जगत् सचमुच अत्यन्त सुन्दर रूप से प्रतीयमान होता है। जिसमें वासना नहीं हैं, जो सर्व विषयों में निर्लिप्त है, उसके पास प्रकृति के ये विभिन्न परिवर्तन एक महान् सौन्दर्य और उदात्त भाव की छबि मात्र हैं। 

>>>This meditative state is the highest state of existence.

 जीव की जितने प्रकार की अवस्थाएँ हैं, उनमें यह ध्यानावस्था ही सर्वोच्च है। जब तक वासना रहती है, तब तक यथार्थ सुख नहीं आ सकता। केवल जब कोई व्यक्ति इस ध्यानावस्था से, साक्षिभाव से सारी वस्तुओं का परिशीलन कर सकता है, तभी उसे यथार्थ सुख और आनन्द प्राप्त होता है। अन्य प्राणी इन्द्रियों में सुख पाते हैं, मनुष्य बुद्धि में, और देवमानव आध्यात्मिक ध्यान में जो ऐसी ध्यानावस्था को प्राप्त हो चुके हैं, उनके पास यह जगत् सचमुच अत्यन्त सुन्दर रूप से प्रतीयमान होता है। जिसमें वासना नहीं हैं, जो सर्व विषयों में निर्लिप्त है, उसके पास प्रकृति के ये विभिन्न परिवर्तन (manifold changes of nature) एक महान् सौन्दर्य और उदात्त भाव की छबि मात्र हैं। 

>>>Every act of perception includes these three : इन तत्त्वों को ध्यान में जान लेना आवश्यक है। मान लो, मैंने एक शब्द सुना। पहले बाहर से एक कम्पन ( external vibration) आया, उसके बाद स्नायविक गति (nerve motion) उस कम्पन को मन के पास ले गयी, फिर मन से एक प्रतिक्रिया हुई ( reaction from the mind) और उसके साथ ही साथ मुझे बाह्य वस्तु का ज्ञान (knowledge) हुआ। यह बाह्य वस्तु ही आकाश कम्पन ( ethereal vibrations) से लेकर मानसिक प्रतिक्रिया (mental reactions) तक सब भिन्न भिन्न परिवर्तनों का कारण है। योगशास्त्र की भाषा में इन तीनों को क्रमशः शब्द (sound), अर्थ (meaning) और ज्ञान (knowledge) कहते हैं। भौतिक विज्ञान (physics) और शरीरशास्त्र (physiology) की भाषा में उन्हें आकाश कम्पन, (ethereal vibration) स्नायु और मस्तिष्क में गति तथा मानसिक प्रतिक्रिया कहते हैं। ये तीनों प्रतिक्रियाएँ सम्पूर्ण अलग होने पर भी इस समय इस तरह मिली हुई हैं कि उनका भेद समझा नहीं जाता। हम यथार्थ में अभी उन तीनों में से किसी का भी अनुभव नहीं कर सकते; अभी तो उनके सम्मिलन के फलस्वरूप केवल बाह्य वस्तु का अनुभव करते हैंप्रत्येक अनुभवक्रिया में ये तीन व्यापार होते हैं। हम भला उन्हें अलग क्यों न कर सकेंगे? 

प्रथमोक्त योगांगों के अभ्यास से मन जब दृढ़ और संयत (strong and controlled) हो जाता है । तथा सूक्ष्मतर अनुभव की शक्ति प्राप्त करता है, तब उसे ध्यान में लगाना चाहिए। पहले पहल स्थूल वस्तु (gross objects)  को लेकर ध्यान करना चाहिए। फिर क्रमशः सूक्ष्म से सूक्ष्मतर ध्यान में हमारा अधिकार होगा, और अन्त में हम विषयशून्य अर्थात् निर्विकल्प (objectless) ध्यान सफल हो जाएँगे। मन को पहले अनुभूति के बाह्य कारण (external causes of sensations) अर्थात् विषय का, फिर स्नायुओं में होनेवाली गति (internal motions) का और उसके बाद उसकी अपनी प्रतिक्रियाओं (own reaction) का अनुभव करने के लिए नियुक्त करना होगा। जब मन अनुभूति के बाह्य उपकरणों अर्थात् विषयों को पृथक् रूप से जान सकेगा, तब उसमें समस्त सूक्ष्म भौतिक पदार्थों, सारे सूक्ष्म शरीरों और सूक्ष्म रूपों को जानने की शक्ति आ जाएगी। 

जब वह भीतर होनेवाली गतियों को दूसरे सभी विषयों से अलग करके, उनके अपने स्वरूप में, जानने में समर्थ होगा, तब वह सारी चित्तवृत्तियों पर उनके भौतिक शक्ति के रूप में परिणत होने से पूर्व ही अधिकार चला सकेगा, फिर वे चित्तवृत्तियाँ चाहे स्वयं अपनी हों, चाहे दूसरों की। और जब योगी केवल मानसिक प्रतिक्रिया का उसके अपने स्वरूप में अनुभव करने में समर्थ होंगे, तब वे सर्व पदार्थों का ज्ञान प्राप्त कर लेंगे, क्योंकि इन्द्रियगोचर प्रत्येक वस्तु, यहाँ तक कि प्रत्येक विचार भी इस मानसिक प्रतिक्रिया का ही फल है। ऐसी अवस्था प्राप्त होने पर योगी अपने मन की मानो नींव तक का अनुभव कर लेते हैं, और तब मन उनके सम्पूर्ण वश में आ जाता है। 

>>> Reject even these miraculous powers : योगियों के पास तब नाना प्रकार की अलौकिक शक्तियाँ (सिद्धियाँ) आने लगती हैं, पर यदि वे इन सब शक्तियों को प्राप्त करने के लिए लालायित हो उठें, तो उनकी भविष्य की उन्नति का रास्ता रुक जाता है। भोग के पीछे दौड़ने से इतना अनर्थ होता है! किन्तु यदि वे इन सब अलौकिक शक्तियों को भी छोड़ सकें, तो वे मनरूप समुद्र में उठनेवाले वृत्तिप्रवाहों को पूर्णतया रोकने में समर्थ हो सकेंगे। और यही योग का चरम लक्ष्य है। तभी, मन के नाना प्रकार के विक्षेप एवं नाना प्रकार की दैहिक गतियों से विचलित न होकर आत्मा की महिमा अपनी पूर्ण ज्योति से प्रकाशित होगी। तब योगी ज्ञानघन, अविनाशी और सर्वव्यापी रूप से अपने स्वरूप की उपलब्धि करेंगे, और जान लेंगे कि वे अनादि काल से ऐसे ही हैं। 

इस समाधि में प्रत्येक मनुष्य का, यही नहीं, प्रत्येक प्राणी का अधिकार है। सब से निम्नतर प्राणी से लेकर अत्यन्त उन्नत देवता तक सभी, कभी न कभी, इस अवस्था को अवश्य प्राप्त करेंगे, और जब किसी को यह अवस्था प्राप्त हो जाएगी, तभी और सिर्फ तभी हम कहेंगे कि उसने यथार्थ धर्म की प्राप्ति की है। इससे पहले हम उसकी ओर जाने के लिए केवल संघर्ष करते हैं। जो धर्म नहीं मानता, उसमें और हममें अभी कोई विशेष अन्तर नहीं, क्योंकि हमें आत्मसाक्षात्कार नहीं हुआ। इस आत्मसाक्षात्कार तक हमें पहुँचाने के बिना एकाग्रता का और क्या शुभ उद्देश्य है?

इस समाधि को प्राप्त करने के प्रत्येक अंग पर गम्भीर रूप से विचार किया गया है, उसे विशेष रूप से नियमित, श्रेणीबद्ध और वैज्ञानिक प्रणाली में सम्बद्ध किया गया है। यदि साधना ठीक ठीक हो और पूर्ण निष्ठा के साथ की जाए, तो वह अवश्य हमें अभीष्ट लक्ष्य पर पहुँचा देगी। और तब सारे दुःख कष्टों का अन्त हो जाएगा, कर्म का बीज दग्ध हो जाएगा और आत्मा चिरकाल के लिए मुक्त हो जाएगी

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बुधवार, 19 जुलाई 2023

राजयोग [छठा अध्याय] 'प्रत्याहार और धारणा' - स्वामी विवेकानन्द

 राजयोग 

Rajyog Chapter-6

 PRATYAHARA AND DHARANA

[छठा अध्याय] 

🔆🙏प्रत्याहार और धारणा🔆🙏

[साभार @@@@@https://www.khabardailyupdate.com/2022/05/rajyog-sixth-chapter-pratyahar-or-dharana-swami-vivekananda.html ] 

>>>प्रत्याहार क्या है ? प्राणायाम के बाद प्रत्याहार की साधना करनी पड़ती है। प्रत्याहार क्या है? तुम सभी को ज्ञात है कि विषयानुभूति (दर्शन-क्रिया) किस तरह होती है। सब से पहले, इन्द्रियों के द्वारस्वरूप ये बाहर के यन्त्र (आँखें) हैं। फिर हैं इन्द्रियाँ, जो मस्तिष्क में स्थित स्नायुकेन्द्रों की सहायता से शरीर पर कार्य करती हैं। इसके बाद है मन। जब ये तीनों जब एकत्र होकर किसी बाहरी वस्तु के साथ संलग्न होते हैं, तभी हम उस वस्तु का अनुभव कर सकते हैं। 

किन्तु मन को एकाग्र करके केवल किसी एक ही इन्द्रिय से संयुक्त कर रखना बहुत कठिन है, क्योंकि मन (विषयों का) दास है। हम संसार में सर्वत्र देखते हैं कि सभी यह शिक्षा दे रहे हैं-अच्छे बनो', 'अच्छे बनो', 'अच्छे बनो।' [मन लगाकर पढ़ो !] संसार में शायद किसी देश में ऐसा बालक नहीं पैदा हुआ, जिसे मिथ्याभाषण न करने, चोरी न करने, (मन लगाकर पढ़ने) आदि की शिक्षा नहीं मिली; परन्तु कोई उसे यह शिक्षा नहीं देता कि वह इन अशुभ कर्मों से किस प्रकार बचे। केवल बात करने से काम नहीं बनता। वह चोर क्यों न बने? हम तो उसको चोरी से निवृत्त होने की शिक्षा/ नहीं देते, उससे बस, इतना ही कह देते हैं, 'चोरी मत करो।' 

यदि उसे मनःसंयम का उपाय सिखाया जाए, तभी वह यथार्थ में शिक्षा प्राप्त कर सकता है, और वही उसकी सच्ची सहायता और उपकार है। जब मन इन्द्रिय नामक भिन्न भिन्न स्नायुकेन्द्रों से संलग्न रहता है, तभी समस्त बाह्य और आभ्यन्तरिक कर्म होते हैं। इच्छापूर्वक अथवा अनिच्छापूर्वक मनुष्य अपने मन को भिन्न भिन्न (इन्द्रिय नामक) स्नायुकेन्द्रों में संलग्न करने को बाध्य होता है। इसीलिए मनुष्य अनेक प्रकार के दुष्कर्म करता है और बाद में कष्ट पाता है।

मन यदि अपने वश में रहता, तो मनुष्य कभी अनुचित कर्म न करता। मन को संयत करने का फल क्या है? यही कि मन संयत हो जाने पर वह फिर विषयों का अनुभव करनेवाली भिन्न भिन्न इन्द्रियों के साथ अपने को संयुक्त न करेगा। और ऐसा होने पर सब प्रकार की भावनाएँ और इच्छाएँ हमारे वश में आ जाएँगी। यहाँ तक तो बहुत स्पष्ट है। अब प्रश्न यह है, क्या यह सम्भव है?

 हाँ, यह सम्पूर्ण रूप से सम्भव है। तुम लोग वर्तमान समय में भी इसका कुछ आभास पा रहे हो, विश्वास के बल से आरोग्यलाभ करानेवाला सम्प्रदाय (faith-healers) दुःख, कष्ट, अशुभ आदि के अस्तित्व को बिलकुल अस्वीकार कर देने की शिक्षा देता है। इसमें सन्देह नहीं कि इनका दर्शन बहुत कुछ पेंचदार है, किन्तु वह भी योग का एक अंश है, किसी तरह उन लोगों ने अचानक उसका ज्ञान प्राप्त कर लिया है। जहाँ वे दुःख कष्ट के अस्तित्व को अस्वीकार करने की शिक्षा देकर लोगों के दुःख दूर करने में सफल होते हैं, तो वहाँ समझना होगा कि उन्होंने वास्तव में प्रत्याहार की ही कुछ शिक्षा दी है, क्योंकि वे उस व्यक्ति के मन को यहाँ तक सबल कर देते हैं कि वह इन्द्रियों की गवाही पर भी विश्वास ही नहीं करता। 

सम्मोहनकारी व्यक्ति (hypnotists) इसी प्रकार, सम्मोहक संकेत (hypnotyic suggestion) द्वारा कुछ देर के लिए अपने सम्मोहित व्यक्तियों को एक प्रकार के अस्वाभाविक (morbid) प्रत्याहार से उद्दीप्त करते हैं। जिसे साधारणतः सम्मोहक संकेत कहते हैं, वह केवल कमजोर मन पर ही अपना प्रभाव फैला सकता है। सम्मोहनकारी जब तक स्थिर दृष्टि अथवा अन्य किसी उपाय द्वारा अपने सम्मोहित व्यक्ति के मन को निष्क्रिय, जड़तुल्य अस्वाभाविक अवस्था में नहीं ले जा सकता, तब तक वह चाहे जो कुछ सोचने, सुनने या देखने का आदेश दे, उसका कोई फल न होगा। 

सम्मोहनकारी या विश्वास के बल से आरोग्य करानेवाले थोड़े समय के लिए जो अपने सम्मोहित व्यक्तियों के शरीरस्थ स्नायुकेन्द्रों (इन्द्रियों) को वशीभूत कर लेते हैं, वह अत्यन्त निंदनीय कर्म है, क्योंकि वह उसको अन्त में सर्वनाश के रास्ते ले जाता है। यह कोई अपनी इच्छाशक्ति के बल से अपने मस्तिष्कस्थित केन्द्रों का संयम तो है नहीं, यह तो दूसरे की इच्छाशक्ति के एकाएक प्रबल आघात से सम्मोहित व्यक्ति के मन को कुछ समय के लिए मानो जड़ कर रखना है। वह लगाम और बाहुबल की सहायता से, गाड़ी खींचनेवाले उच्छृंखल घोड़ों की उन्मत्त गति को संयत करना नहीं है, वरन् वह दूसरों से उन अश्वों पर तीव्र आघात करने को कहकर उनको कुछ समय के लिए चुप कर रखना है उस व्यक्ति पर यह प्रक्रिया जितनी की जाती है, उतना ही वह अपने मन की शक्ति क्रमशः खोने लगता है, और अन्त में, मन को पूर्ण रूप से जीतना तो दूर रहा, उसका मन बिलकुल शक्तिहीन और विचित्र जड़पिण्ड सा हो जाता है तथा पागलखाने में ही उसकी चरम गति आ ठहरती है। अपने मन को स्वयं अपने मन की सहायता से वश में लाने की चेष्टा के बदले इस प्रकार दूसरे की इच्छा से प्रेरित होकर मन का संयम करना अनिष्टकारक ही नहीं है, वरन् जिस उद्देश्य से वह कार्य किया जाता है, वह भी सिद्ध नहीं होता। 

>>>The goal of each soul is freedom, प्रत्येक जीवात्मा का चरम लक्ष्य है मुक्ति या स्वाधीनता जड़वस्तु चित्तवृत्ति के दासत्व से मुक्तिलाभ करके उन पर प्रभुत्व स्थापित करना, बाह्य और अन्तःप्रकृति (देह और मन) पर अधिकार जमाना। किन्तु उस दिशा में सहायता करने की बात तो अलग रही, दूसरे व्यक्ति द्वारा प्रयुक्त इच्छाशक्ति का प्रवाह हम पर लगी हुई पुराने संस्कारों और भ्रान्त धारणाओं की भारी बेड़ी में एक और कड़ी जोड़ देता है- फिर वह इच्छाशक्ति हम पर किसी भी रूप से क्यों न प्रयुक्त हो, चाहे उससे हमारी इन्द्रियाँ प्रत्यक्ष वशीभूत हो जाएँ, चाहे वह एक प्रकार की अस्वाभाविक विकृतावस्था लाकर हमें इन्द्रियों को संयत करने के लिए बाध्य करे। 

>>>Therefore, beware :इसलिए सावधान! दूसरे को अपने ऊपर इच्छाशक्ति का संचालन न करने देना। अथवा दूसरे पर ऐसी इच्छाशक्ति का प्रयोग करके अनजाने उसका सत्यानाश मत कर देना। यह सत्य है कि कोई कोई लोग कुछ व्यक्तियों की प्रवृत्ति का मोड़ फेरकर कुछ दिनों के लिए उनका कुछ कल्याण करने में सफल होते हैं, परन्तु साथ ही वे दूसरों पर इस सम्मोहनशक्ति का प्रयोग करके, बिना जाने, लाखों नर नारियों को एक प्रकार से विकृत जड़ावस्थापन कर डालते हैं, जिसके परिणामस्वरूप उन सम्मोहित व्यक्तियों की आत्मा का अस्तित्व तक मानो लुप्त हो जाता है।इसलिए जो कोई व्यक्ति तुमसे अन्धविश्वास करने को कहता है, अथवा अपनी श्रेष्ठतर इच्छाशक्ति के बल से लोगों को वशीभूत करके अपना अनुसरण करने के लिए बाध्य करता है, वह मनुष्यजाति का भारी अनिष्ट करता है- भले ही वह उसे इच्छापूर्वक न करता हो।

अतएव अपने मन का संयम करने के लिए सदा अपने ही मन की सहायता लो, और यह सदा याद रखो कि तुम यदि रोगग्रस्त नहीं हो, तो कोई भी बाहरी इच्छाशक्ति तुम पर कार्य न कर सकेगी। जो व्यक्ति तुमसे अन्धे के समान विश्वास कर लेने को कहता है, उससे दूर ही रहो, वह चाहे कितना भी बड़ा आदमी या साधु क्यों न हो। संसार के सभी भागों में ऐसे बहुत से सम्प्रदाय हैं, जिनके धर्म के प्रधान अंग नाच-गान, उछल-कूद, चिल्लाना आदि हैं। वे जब संगीत, नृत्य और प्रचार करना आरम्भ करते हैं, तब उनके भाव मानो संक्रामक रोग की तरह लोगों के अन्दर फैल जाते हैं। वे भी एक प्रकार के सम्मोहनकारी हैं। वे थोड़े समय के लिए भावुक व्यक्तियों पर गजब का प्रभाव डाल देते हैं। पर हाय! परिणाम यह होता है कि सारी जाति अधःपतित हो जाती है। 

इस प्रकार की अस्वाभाविक बाहरी शक्ति के बल से किसी व्यक्ति या जाति के लिए ऊपर अच्छी होने की अपेक्षा अच्छी न रहना ही बेहतर है, और वह स्वास्थ्य का लक्षण है। इन धर्मोन्मत्त व्यक्तियों का उद्देश्य अच्छा भले ही हो, परन्तु इनको किसी उत्तरदायित्व का ज्ञान नहीं। इन लोगों द्वारा मनुष्य का जितना अनिष्ट होता है, उसका विचार करते ही हृदय स्तब्ध हो जाता है। वे नहीं जानते कि उनकी सूचना जो व्यक्ति संगीत, स्तव आदि की सहायता से- उनकी शक्ति के प्रभाव से इस तरह एकाएक भगवद्भाव में मत्त हो जाते हैं, वे अपने को केवल जड़, विकृतिग्रस्त और शक्तिहीन बना लेते हैं और सहज ही किसी भी भाव के वश में हो जाते हैं- फिर वह भाव कितना भी बुरा क्यों न हो। 

उसका प्रतिरोध करने की उनमें तनिक भी शक्ति नहीं रह जाती। इन अज्ञ, आत्मवंचित व्यक्तियों के मन में यह स्वप्न में भी नहीं आता कि वे एक ओर जहाँ यह कहकर हर्षोत्फुल्ल हो रहे हैं कि उनमें मनुष्य हृदय को परिवर्तित कर देने की अद्भुत शक्ति है- जिस शक्ति के सम्बन्ध में वे सोचते हैं कि वह बादल के ऊपर अवस्थित किसी पुरुष से उन्हें मिली है- वहाँ साथ ही वे भावी मानसिक अवनति, पाप, उन्मत्तता और मृत्यु के बीज भी बो रहे हैं। अतएव, जिससे तुम्हारी स्वाधीनता नष्ट होती हो, ऐसे सब प्रकार के प्रभावों से सतर्क रहो। ऐरो प्रभावों को भयानक विपत्ति से भरा जानकर प्राणपण से उनसे दूर रहने की चेष्टा करो। 

>>> प्रत्याहार में सिद्ध होने से ही हम यथार्थ चरित्रवान होंगे जो इच्छा मात्र से अपने मन को स्नायु-केन्द्रों में संलग्न करने अथवा उनसे हटा लेने में सफल हो गया है, उसी का प्रत्याहार सिद्ध हुआ है। प्रत्याहार का अर्थ है, एक ओर आहरण करना अर्थात् खींचना मन की बहिर्गति को रोककर इन्द्रियों की अधीनता से मन को मुक्त करके उसे भीतर की ओर खींचना। इसमें सफल होने पर हम यथार्थ में चरित्रवान होंगे; तभी और तभी समझेंगे कि हम मुक्ति के मार्ग में बहुत दूर बढ़ गये हैं। इससे पहले हम तो मशीन मात्र हैं। 

>>>मन का स्वाभाव कैसा है ? मन को संयत करना कितना कठिन है। इसकी एक सुसंगत उपमा उन्मत्त वानर से दी गयी है। कहीं एक वानर था। वह स्वभावतः चंचल था, जैसे कि वानर होते हैं। लेकिन उतने से सन्तुष्ट न हो, एक आदमी ने उसे काफी शराब पिला दी। इससे वह और भी चंचल हो गया। इसके बाद उसे एक बिच्छू ने डंक मार दिया। तुम जानते हो, किसी को बिच्छू डंक मार दे, तो वह दिन भर इधर उधर कितना तड़पता रहता है। सो उस प्रमत्त अवस्था के ऊपर बिच्छू का डंक! इससे वह बन्दर बहुत अस्थिर हो गया। तत्पश्चात् मानो उसके दुःख की मात्रा को पूरी करने के लिए एक भूत उस पर सवार हो गया। यह सब मिलाकर, सोचो, बन्दर कितना चंचल हो गया होगा। यह भाषा द्वारा व्यक्त करना असम्भव है। बस, मनुष्य का मन उस वानर के सदृश है। 

>>>मन का अतिरिक्त चंचल होना खराब है, सिर्फ चंचल होना नहींमन तो स्वभावतः ही सतत् चंचल है, फिर वह वासनारूप मदिरा से मत्त है, इससे उसकी अस्थिरता बढ़ गयी है। जब वासना आकर मन पर अधिकार कर लेती है, तब सुखी लोगों को देखने पर ईर्ष्यारूप बिच्छू उसे डंक मारता रहता है। उसके भी ऊपर जब अहंकाररूप भूत उसके भीतर प्रवेश करता है, तब तो वह अपने आगे किसी को नहीं गिनता। ऐसी तो हमारे मन अवस्था है! सोचो तो, इसका संयम करना कितना कठिन है! 

अतएव मन के संयम का पहला सोपान यह है कि कुछ समय के लिए चुप्पी साधकर बैठे रहो और मन को अपने अनुसार चलने दो। मन सतत चंचल है। वह बन्दर की तरह सदा कूदफाँद रहा है। यह मनमर्कट जितनी इच्छा हो, उछल-कूद मचाए, कोई हानि नहीं, धीरज धरकर प्रतीक्षा करो और मन की गति देखते जाओ। लोग जो कहते हैं कि ज्ञान ही यथार्थ शक्ति है, यह बिलकुल सत्य है। जब तक मन की क्रियाओं पर नजर न रखोगे, उसका संयम न कर सकोगे। मन को इच्छानुसार घूमने दो। सम्भव है, बहुत बुरी बुरी भावनाएँ तुम्हारे मन में आएँ। तुम्हारे मन में इतनी असत् भावनाएँ आ सकती हैं कि तुम सोचकर आश्चर्यचकित हो जाओगे। परन्तु देखोगे, मन के ये सब खेल दिन पर दिन कम होते जा रहे हैं, दिन पर दिन मन कुछ कुछ स्थिर होता जा रहा है। पहले कुछ महीने देखोगे, तुम्हारे मन में हजारों विचार आएँगे, क्रमशः वह संख्या घटकर सैकड़ों तक रह जाएगी। 

फिर कुछ और महीने बाद वह और भी घट जाएगी, और अन्त में मन पूर्ण रूप से अपने वश में आ जाएगा। पर हाँ, हमें प्रतिदिन धैर्य के साथ अभ्यास करना होगा। जब तक इंजन के भीतर भाप रहेगी, तब तक वह चलता ही रहेगा।जब तक विषय हमारे सामने हैं, तब तक हम उन्हें देखेंगे ही। अतएव, मनुष्य को, यह प्रमाणित करने के लिए कि वह इंजन की तरह एक मशीन मात्र नहीं है, यह दिखाना आवश्यक है कि वह किसी के अधीन नहीं। इस प्रकार मन का संयम करना और उसे विभिन्न इन्द्रियों के साथ संयुक्त न होने देना ही प्रत्याहार है। इसके अभ्यास का क्या उपाय है? यह एक दो दिन का काम नहीं, बहुत दिनों तक लगातार इसका अभ्यास करना होगा। धीरज धरकर लगातार बहुत वर्षों तक अभ्यास करने पर तब कहीं इस विषय में सफलता मिल पाती है। 

>>>धारणा : कुछ काल तक प्रत्याहार की साधना करने के बाद, उसके बाद की साधना, अर्थात् धारणा का अभ्यास करने का प्रयत्न करना होगा। धारणा का अर्थ है मन को देह के भीतर या उसके बाहर किसी स्थानविशेष में धारण या स्थापन करना। मन को स्थानविशेष में धारण करने का अर्थ क्या है? इसका अर्थ यह है कि मन को शरीर के अन्य सब स्थानों से अलग करके किसी एक विशेष अंश के अनुभव में बलपूर्वक लगाए रखना। मान लो, मैंने मन को हाथ में धारण किया। तब शरीर के अन्यान्य अवयव विचार के विषय के बाहर हो जाएँगे। 

जब चित्त अर्थात् मनोवृत्ति (मन-वस्तु, mind-stuff, जिससे मन बनता है)  किसी निर्दिष्ट स्थान में आबद्ध होती है, तब उसे धारणा कहते हैं। यह धारणा अनेक प्रकार की है। इस धारणा के अभ्यास के समय किसी कल्पना की सहायता लेने से काम अच्छा सधता है। मान लो, हृदय के एक बिन्दु में मन को धारण करना है। इसे कार्य में परिणत करना बड़ा कठिन है। अतएव सहज उपाय यह है कि हृदय में एक पद्म की भावना करो (अष्टदल रक्तवर्ण कमल की) और कल्पना करो कि वह ज्योति से पूर्ण है–चारों ओर उस ज्योति की आभा बिखर रही है। उसी जगह मन की धारणा करो। अथवा मस्तिष्क में स्थित सहस्रदल कमल को अथवा पूर्वोक्त सुषुम्ना में स्थित विभिन्न चक्रों को ज्योतिर्मय रूप से सोचो। 

योगी के लिए नियमित अभ्यास आवश्यक है। योगी को अकेले रहने का प्रयत्न करना होगा। विभिन्न प्रकार के मनुष्यों के साथ रहने से चित्त विक्षिप्त हो जाता है। उनका अधिक बातचीत करना उचित नहीं; अधिक बातचीत करने से मन चंचल हो जाता है। अधिक काम करना भी अच्छा नहीं, क्योंकि इससे भी मन डाँवाडोल रहता है; सारे दिन की कड़ी मेहनत के बाद मन का संयम नहीं हो सकता। जो उपर्युक्त नियमों के अनुसार चलते हैं, वे ही योगी हो सकते हैं। योग की ऐसी अद्भुत शक्ति है कि बहुत थोड़ी मात्रा में भी उसका अभ्यास करने पर बहुत अधिक फल प्राप्त होता है। इससे किसी का अनिष्ट नहीं होता, वरन् इससे सब का उपकार ही होता है। पहले तो, स्नायविक उत्तेजना शान्त हो जाएगी, मन शान्त भाव धारण करेगा और समस्त विषयों को अत्यन्त स्पष्ट रूप से देखने और समझने की शक्ति आएगी। 

मिजाज अच्छा रहेगा, स्वास्थ्य भी क्रमशः उत्तम हो जाएगा। योगाभ्यास करने पर जो चिह्न योगियों में प्रकट होते हैं, देह की स्वस्थता उनमें प्रथम है । स्वर भी मधुर हो जाएगा, स्वर में जो कुछ दोष है, सब निकल जाएगा। और भी अनेक प्रकार के चिह्न प्रकट होंगे। पर ये ही प्रथम हैं। जो बहुत अधिक साधना करते हैं, उनमें और भी दूसरे लक्षण प्रकट होते हैं। कभी कभी घण्टाध्वनि की तरह की ध्वनि सुन पड़ेगी, मानो दूर बहुत से घण्टे बज रहे हैं और वे सारी ध्वनियाँ मिलकर कानों में लगातार आघात कर रही हैं। कभी कभी देखोगे, आलोक के छोटे छोटे कण हवा में तैर रहे हैं और क्रमशः कुछ कुछ बड़े होते जा रहे हैं। जब ये लक्षण प्रकट होंगे, तब समझना कि तुम द्रुतगति से साधना में उन्नति कर रहे हो। 

>>>आहार-शुद्धि : जो योगी होने की इच्छा करते हैं और कठोर अभ्यास करते हैं, उन्हें पहली अवस्था में आहार के सम्बन्ध में कुछ विशेष सावधानी रखनी होगी। जो शीघ्र उन्नति करने की इच्छा करते हैं, वे यदि कुछ महीने केवल दूध और अन्न आदि निरामिष भोजन पर रह सकें, तो उन्हें साधना में बड़ी सहायता मिलेगी। किन्तु जो लोग दूसरे दैनिक कामों के साथ थोड़ा बहुत अभ्यास करना चाहते हैं, उनके लिए अधिक भोजन न करने से ही काम बन जाएगा। उन्हें खाद्य के सम्बन्ध में उतना विचार करने की आवश्यकता नहीं, वे जो इच्छा हो, वही खा सकते हैं। जो कठोर अभ्यास करके शीघ्र उन्नति करना चाहते हैं, उन्हें आहार के सम्बन्ध में विशेष सावधान रहना चाहिए। देहयन्त्र धीरे धीरे जितना ही सूक्ष्म होता जाता है, उतना ही तुम देखोगे कि एक सामान्य अनियम से भी तुम अपना सन्तुलन खो बैठते हो। जब तक मन पर सम्पूर्ण अधिकार नहीं हो जाता, तब तक आहार में एक ग्रास की अल्पता या अधिकता सम्पूर्ण देहयन्त्र को बिलकुल अप्रकृतिस्थ कर देगी। 

>>>मन का आहार स्वाध्याय : मन के पूर्ण रूप से अपने वश में आने के बाद जो इच्छा हो, खाया जा सकता के मन को एकाग्र करना आरम्भ करने पर देखोगे कि एक सामान्य पिन गिरने से ही ऐसा मालूम होगा कि मानो तुम्हारे मस्तिष्क में से वज्र पार हो गया। इन्द्रिययन्त्र जितने सूक्ष्म होते जाते हैं, अनुभूति भी उतनी ही सूक्ष्म होती जाती है। इन्हीं सब अवस्थाओं में से होते हुए हमें क्रमशः अग्रसर होना होगा। और जो लोग अध्यवसाय के साथ अन्त तक लगे रह सकते हैं, वे ही कृतकार्य होंगे। सब प्रकार के तर्क और चित्त में विक्षेप उत्पन्न करनेवाली बातों को दूर कर देना होगा। शुष्क और निरर्थक तर्कपूर्ण प्रलाप से क्या होगा? वह केवल मन के साम्यभाव को नष्ट करके उसे चंचल भर कर देता है। इन सब तत्त्वों की उपलब्धि की जानी चाहिए । केवल बातों से क्या होगा ? अतएव सब प्रकार की बकवास छोड़ दो । जिन्होंने प्रत्यक्ष अनुभव किया है , केवल उन्हीं के लिखे ग्रन्थ पढ़ो । 

>>>शुक्ति के समान बनो! भारतवर्ष में एक सुन्दर किंवदन्ती प्रचलित है। वह यह कि आकाश में स्वाति नक्षत्र के तुंगस्थ रहते यदि पानी गिरे और उसकी एक बूँद किसी सीपी में चली जाए, तो उसका मोती बन जाता है। सीपियों को यह मालूम है। अतएव जब वह नक्षत्र उदित होता है, तो वे सीपियाँ पानी की ऊपरी सतह पर आ जाती हैं, और उस समय की एक अनमोल बूँद की प्रतीक्षा करती रहती हैं। ज्यों ही एक बूँद पानी उनके पेट में जाता है, त्योंही उस जलकण को लेकर मुँह बन्द करके वे समुद्र के अथाह गर्भ में चली जाती हैं, और वहाँ बड़े धैर्य के साथ उनसे मोती तैयार करने के प्रयत्न में लग जाती हैं। हमें भी उन्हीं सीपियों की तरह होना होगा। 

>>>श्रवण , मनन , निदिध्यासन : पहले सुनना होगा, फिर समझना होगा, अन्त में बाहरी संसार से दृष्टि बिलकुल हटाकर, सब प्रकार की विक्षेपकारी बातों से दूर रहकर हमें अन्तर्निहित सत्यतत्त्व के विकास के लिए प्रयत्न करना होगा। एक भाव को नया कहकर ग्रहण करके, उसकी नवीनता चली जाने पर फिर एक दूसरे नये भाव का आश्रय लेना इस प्रकार बारम्बार करने से तो हमारी सारी शक्ति ही इधर उधर बिखर जाएगी। एक भाव को पकड़ो, उसी को लेकर रहो। उसका अन्त देखे बिना उसे मत छोड़ो। जो एक भाव लेकर उसी में मत्त रह सकते हैं, उन्हीं के हृदय में सत्यतत्त्व का उन्मेष होता है। और जो यहाँ का कुछ, वहाँ का कुछ, इस तरह खटाइयाँ चखने के समान सब विषयों को मानो थोड़ा थोड़ा चखते जाते हैं, वे कभी कोई चीज नहीं पा सकते। कुछ देर के लिए नसों की उत्तेजना से उन्हें एक प्रकार का आनन्द भले ही मिल जाता हो, किन्तु इससे और कुछ फल नहीं होता। वे चिरकाल प्रकृति के दास बने रहेंगे, कभी अतीन्द्रिय राज्य में विचरण न कर सकेंगे। 

जो सचमुच योगी होने की इच्छा करते हैं, उन्हें इस प्रकार के थोड़ा थोड़ा हर विषय को पकड़ने की वृत्ति सदैव के लिए छोड़ देनी होगी। एक विचार लो; उसी विचार को अपना जीवन बनाओ- उसी का चिन्तन करो, उसी का स्वप्न देखो और उसी में जीवन बिताओ। तुम्हारा मस्तिष्क, स्नायु, शरीर के सर्वांग उसी के विचार से पूर्ण रहें। दूसरे सारे विचार छोड़ दो। यही सिद्ध होने का उपाय है; और इसी उपाय से बड़े बड़े धर्मवीरों की उत्पत्ति हुई है। शेष सब तो बातें करनेवाले मशीन मात्र हैं। 

>>> "Be blessed, and make others blessed " `Be and Make' let this be our motto ! ब्रह्मवेत्ता मनुष्य - 'बनो और बनाओ' यदि हम सचमुच स्वयं कृतार्थ होना और दूसरों का उद्धार करना चाहें, तो हमें गहराई तक जाना होगा। [If we really want to be blessed, and make others blessed, we must go deeper. ]  इसे कार्य में परिणत करने का पहला सोपान यह है कि मन किसी तरह चंचल न किया जाए। जिनके साथ बातचीत करने पर मन चंचल हो जाता हो, उनका साथ छोड़ दो। 

तुम सब को मालूम है कि तुममें से प्रत्येक का किसी स्थानविशेष, व्यक्तिविशेष और खाद्यविशेष के प्रति एक रुष्टता का भाव रहता है। उन सब का परित्याग कर देना। और जो सर्वोच्च अवस्था की प्राप्ति के अभिलाषी हैं, उन्हें तो सत् असत् सब प्रकार के संग को त्याग देना होगा। पूरी लगन के साथ, कमर कसकर साधना में लग जाओ फिर मृत्यु भी आए, तो क्या! मन्त्रं वा साधयामि शरीरं वा पातयामि काम सधे या प्राण ही जाएँ। फल की ओर दृष्टि रखे बिना साधना में मग्न हो जाओ। निर्भीक होकर इस प्रकार दिनरात साधना करने पर छह महीने के भीतर ही तुम एक सिद्ध योगी हो सकते हो। 

परन्तु दूसरे, जो थोड़ी थोड़ी साधना करते हैं, सब विषयों को जरा जरा चखते हैं, वे कभी कोई बड़ी उन्नति नहीं कर सकते। केवल उपदेश सुनने से कोई फल नहीं होता। जो लोग तमोगुण से पूर्ण हैं, अज्ञानी और आलसी हैं, जिनका मन कभी किसी वस्तु पर स्थिर नहीं रहता, जो केवल थोड़े से मजे के अन्वेषण में हैं, उनके लिए धर्म और दर्शन केवल मनोरंजन के विषय हैं। जो सिर्फ थोड़े से आमोद प्रमोद के लिए धर्म करने आते हैं, वे साधना में अध्यवसायहीन हैं। वे धर्म की बातें सुनकर सोचते हैं, 'वाह! ये तो अच्छी बातें हैं, पर इसके बाद घर पहुँचते ही सारी बातें भूल जाते हैं। सिद्ध होना हो, तो प्रबल अध्यवसाय चाहिए, मन का अपरिमित बल चाहिए। अध्यवसायशील साधक कहता है, "मैं चुल्लू से समुद्र पी जाऊँगा। मेरी इच्छा मात्र से पर्वत चूर चूर हो जाएँगे।” इस प्रकार का तेज, इस प्रकार का दृढ़ संकल्प लेकर कठोर साधना करो, तो तुम ध्येय को अवश्य प्राप्त करोगे।

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राजयोग (पंचम अध्याय ) - स्वामी विवेकानन्द : `आध्यात्मिक प्राण का संयम ' [🙏Moral Stamina (चरित्रबल) , Chastity (पवित्रता -ब्रह्मचर्य) , mental vigor ( मानसिक तेज या ओजस), Spirituality (आध्यात्मिकता)] 🙏ब्रह्मचर्य अर्थात तन-मन-वचन से पवित्र रहना सबसे बड़ा धर्म है। ]

  राजयोग 

[ पंचम अध्याय ]  

 " आध्यात्मिक प्राण का संयम " 

CHAPTER- V  

THE CONTROL OF PSYCHIC PRANA

[साभार @@@@https://www.khabardailyupdate.com/2022/04/rajyog-chapter-fifth-restraint-of-the-spiritual-life.html]

>>>The first step is to control the motion of the lungs.अब हम प्राणायाम की विभिन्न क्रियाओं के सम्बन्ध में चर्चा करेंगे । हमने पहले ही देखा है कि योगियों के मत में साधना का पहला कदम फेफड़े की गति (motion of the lungs) को अपने अधीन करना है । हमारा उद्देश्य है - शरीर के भीतर जो सूक्ष्म गतियाँ हो रही हैं , उनका अनुभव प्राप्त करना । हमारा मन बिलकुल बहिर्मुखी हो गया है , वह भीतर की सूक्ष्म गतियों को बिलकुल नहीं पकड़ सकता । हम जब उनका अनुभव प्राप्त करने में समर्थ होंगे , तो उन पर विजय पा लेंगे । ये स्नायविक शक्ति-प्रवाह (nerve currents) शरीर में सर्वत्र चल रहे हैं ; वे प्रत्येक पेशी में जाकर उसको जीवनी-शक्ति (life and vitality) दे रहे हैं;  किन्तु हम उनका अनुभव नहीं कर पाते । योगियों का कहना है कि प्रयत्न करने पर हम उनका अनुभव प्राप्त करना सीख जाएँगे । कैसे ? पहले फेफड़े की गति पर विजय पाने की चेष्टा करनी होगी । कुछ काल तक यह कर सकने पर हम सूक्ष्मतर गतियों को भी वश में ला सकेंगे । 

Verily, verily I say unto thee, except a man born be born again, he cannot see the Kingdom of God.

>>>The exercises in Pranayama : अब प्राणायाम की क्रियाओं की चर्चा की जाए। पहले तो , सीधे होकर बैठना होगा । देह को ठीक सीधी रखना होगा । यद्यपि कशेरुक स्तंभ (vertebral column)  मेरुदण्ड (spinal cord) से संलग्न नहीं है , फिर भी वह मेरुदण्ड के भीतर है । [मानव शरीर रचना में 'रीढ़ की हड्डी' (या मेरुदंड ) पीठ की हड्डियों का समूह है जो मस्तिष्क के पिछले भाग से निकलकर गुदा के पास तक जाती है।] इसमें ३३ खण्ड (रीढ़ का जोड़ vertebrae) होते हैं। मेरुदण्ड के भीतर ही मेरूनाल में मेरूरज्जु सुरक्षित रहता है। टेढ़ा होकर बैठने से वह अस्त - व्यस्त हो जाती है । अतएव देखना होगा कि वह स्वच्छन्द रूप से रहे । टेढ़े बैठकर ध्यान करने की चेष्टा करने से अपनी ही हानि होती है । शरीर के तीनों भाग- वक्ष , ग्रीवा और मस्तक - सदा एक रेखा में ठीक सीधे रखने होंगे। देखोगे , बहुत थोड़े अभ्यास से यह श्वास - प्रश्वास की तरह सहज हो जाएगा । 

इसके बाद स्नायुओं को वशीभूत करने का प्रयत्न करना होगा। हमने पहले ही देखा है कि मस्तिष्क में अवस्थित जो स्नायुकेन्द्र मेडुला (medulla oblongata) [नामक एक अण्डाकार पदार्थ  जो मस्तिष्क के साथ संयुक्त नहीं है, वरन् मस्तिष्क में जो एक तरल पदार्थ है, उसमें तैरता रहता है।] वही श्वास- प्रश्वास यन्त्र के कार्य को नियमित करता है, वह दूसरे स्नायुओं पर भी कुछ प्रभाव डालता है। इसीलिए साँस लेना और साँस छोड़ना लययुक्त (नियमित) रूप से करना आवश्यक है। हम साधारणतः  जिस प्रकार साँस लेते और छोड़ते हैं, वह श्वास-प्रश्वास नाम के ही योग्य नहीं। वह बहुत अनियमित है। फिर स्त्री और पुरुष के श्वास- प्रश्वास में कुछ स्वाभाविक भेद भी के है। 

प्राणायाम- साधना [जपध्यान] की पहली क्रिया यह है : भीतर निर्दिष्ट परिमाण में साँस लो और बाहर निर्दिष्ट परिमाण में साँस छोड़ो। इससे देह सन्तुलित होगी। कुछ दिन तक यह अभ्यास करने के बाद, साँस खींचने और छोड़ने के समय ओंकार अथवा अन्य किसी पवित्र शब्द का मन ही मन उच्चारण करने से अच्छा होगा। भारत में, प्राणायाम करते समय हम लोग श्वास के ग्रहण और त्याग की संख्या ठहराने के लिए एक, दो, तीन, चार इस क्रम से न गिनते हुए कुछ सांकेतिक शब्दों का व्यवहार करते हैं। इसीलिए मैं तुम लोगों से प्राणायाम के समय ओंकार अथवा अन्य किसी पवित्र शब्द का व्यवहार करने के लिए कह रहा हूँ। चिन्तन करना कि वह शब्द श्वास के साथ लययुक्त और सन्तुलित रूप से बाहर जा रहा है ओर भीतर आ रहा है। ऐसा करने पर तुम देखोगे की सारा शरीर क्रमशः मानो लययुक्त होता जा रहा है। 

तभी तुम समझोगे, यथार्थ विश्राम क्या है। उसकी तुलना में निद्रा तो विश्राम ही नहीं। एक बार यह विश्राम की अवस्था आने पर अतिशय थके हुए स्नायु भी शान्त हो जाएँगे और तब तुम जानोगे कि पहले तुमने कभी यथार्थ विश्राम का सुख नहीं पाया। इस साधना का पहला फल यह देखोगे कि तुम्हारे मुख की कान्ति बदलती जा रही है। मुख की शुष्कता या कठोरता का भाव प्रदर्शित करने वाली रेखाएँ दूर हो जाएँगी। मन की शान्ति मुख से फूटकर बाहर निकलेगी। दूसरे, तुम्हारा स्वर बहुत मधुर हो जाएगा। मैंने ऐसा एक भी योगी नहीं देखा, जिसके गले का स्वर कर्कश हो। कुछ महीने के अभ्यास के बाद ही ये चिह्न प्रकट होने लगेंगे। 

>>>अनुलोम-विलोम प्राणायाम : इस पहले प्राणायाम का कुछ दिन अभ्यास करने के बाद प्राणायाम की एक दूसरी ऊँची साधना ग्रहण करनी होगी। वह यह है : इड़ा अर्थात् बायें नथुने द्वारा फेफड़े को धीरे धीरे वायु से पूरा करो। उसके साथ स्नायुप्रवाह में मन को एकाग्र करो, सोचो कि तुम मानो स्नायुप्रवाह को मेरुमज्जा के नीचे भेजकर कुण्डलिनी शक्ति के आधारभूत, मूलाधारस्थित त्रिकोणाकृति पद्म पर बड़े जोर से आघात कर रहे हो। इसके बाद इस स्नायुप्रवाह को कुछ क्षण के लिए उसी जगह धारण किये रहो। तत्पश्चात् कल्पना करो कि तुम उस स्नायविक प्रवाह को श्वास के साथ दूसरी ओर से अर्थात् पिंगला द्वारा ऊपर खींच रहे हो। फिर दाहिने नथुने से वायु धीरे धीरे बाहर फेंको। 

इसका अभ्यास तुम्हारे लिए कुछ कठिन प्रतीत होगा। सहज उपाय है– अँगूठे से दाहिना नथुना बन्द करके बायें नथुने से धीरे धीरे वायु भरो। फिर अँगूठे और तर्जनी से दोनों नथुने बन्द कर लो, और सोचो, मानो तुम स्नायुप्रवाह को नीचे भेज रहे हो और सुषुम्ना के मूलदेश में आघात कर रहे हो। इसके बाद अँगूठा हटाकर दाहिने नथुने द्वारा वायु बाहर निकालो। फिर बायाँ नथुना तर्जनी से बन्द करके दाहिने नथुने से धीरे धीरे वायु पूरण करो और फिर पहले की तरह दोनों नासिकाछिद्रों को बन्द कर लो। 

हिन्दुओं के समान प्राणायाम का अभ्यास करना इस देश (अमेरिका) के लिए कठिन होगा, क्योंकि हिन्दू बाल्य काल से ही इसका अभ्यास करते हैं, उनके फेफडे इससे अभ्यस्त हैं। यहाँ चार सेकन्ड से आरम्भ करके धीरे धीरे बढ़ाने पर अच्छा होगा। चार सेकन्ड तक वायु पूरण करो, सोलह सेकन्ड कुम्भक करो और फिर आठ सेकन्ड में वायु का रेचन करो। इससे एक प्राणायाम होगा। उस समय मूलाधारस्थ त्रिकोणाकार पद्म पर मन स्थिर करना भूल न जाना। इस प्रकार की कल्पना से तुमको साधना में बड़ी सहायता मिलेगी।

 एक तीसरे प्रकार का प्राणायाम यह है : धीरे धीरे भीतर श्वास खींचो, फिर तनिक भी देर किये बिना धीरे धीरे वायु रेचन करके बाहर ही श्वास कुछ देर के लिए रुद्ध कर रखो, संख्या पहले की प्राणायाम की तरह है। पूर्वोक्त प्राणायाम और इसमें भेद इतना ही है कि पहले के प्राणायाम में साँस भीतर रोकनी पड़ती है और इसमें बाहर। यह प्राणायाम पहले से सीधा है। जिस प्राणायाम में साँस भीतर रोकनी पड़ती है, उसका अधिक अभ्यास अच्छा नहीं। उसका सबेरे चार बार और शाम को चार बार अभ्यास करो। 

बाद में धीरे धीरे समय और संख्या बढ़ा सकते हो। तुम क्रमशः देखोगे कि तुम बहुत सहज ही यह कर रहे हो और इससे तुम्हें बहुत आनन्द भी मिल रहा है। अतएव जब देखो कि तुम यह बहुत सहज ही कर रहे हो, तब बड़ी सावधानी और सतर्कता के साथ संख्या चार से छह बढ़ा सकते हो। अनियमित रूप से साधना करने पर तुम्हारा अनिष्ट हो सकता है। 

उपर्युक्त तीन प्रक्रियाओं में से पहली और अन्तिम क्रियाएँ कठिन भी नहीं और उनसे किसी प्रकार की विपत्ति की आशंका भी नहीं। पहली क्रिया का जितना अभ्यास करोगे, उतना ही तुम शान्त होते जाओगे।उसके साथ ओंकार जोड़कर अभ्यास करो, देखोगे, जब तुम दूसरे कार्य में लगे हो, तब भी तुम उसका अभ्यास कर सकते हो। इस क्रिया के फल से देखोगे, तुम अपने को सभी बातों में अच्छा ही महसूस कर रहे हो। इस तरह कठोर साधना करते करते एक दिन तुम्हारी कुण्डलिनी जग जाएगी। जो दिन में केवल एक या दो बार अभ्यास करेंगे, उनके शरीर और मन कुछ स्थिर भर हो जाएँगे और उनका स्वर मधुर हो जाएगा। परन्तु जो कमर बाँधकर साधना के लिए आगे बढ़ेंगे, उनकी कुण्डलिनी जागृत हो जाएगी, उनके लिए सारी प्रकृति एक नया रूप धारण कर लेगी, उनके लिए ज्ञान का द्वार खुल जाएगा। तब फिर ग्रन्थों में तुम्हें ज्ञान की खोज न करनी होगी। तुम्हारा मन ही तुम्हारे निकट अनन्त ज्ञानविशिष्ट पुस्तक का काम करेगा। 

मैंने मेरुदण्ड के दोनों ओर से प्रवाहित इड़ा और पिंगला नामक दो शक्ति प्रवाहों का पहले ही उल्लेख किया है, और मेरुमज्जा के बीच से जानेवाली सुषुम्ना की बात भी कही है। यह इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना प्रत्येक प्राणी में विद्यमान है। जिनके मेरुदण्ड है, उन सभी के भीतर ये तीन प्रकार की भिन्न भिन्न क्रियाप्रणालियाँ मौजूद हैं। परन्तु योगी कहते हैं, साधारण जीव में यह सुषुम्ना बन्द रहती है, उसके भीतर किसी तरह की क्रिया का अनुभव नहीं किया जा सकता; किन्तु इड़ा और पिंगला नाड़ियों का कार्य, अर्थात् शरीर के विभिन्न भागों में शक्तिवहन करना, सभी प्राणियों में होता रहता है। केवल योगी में यह सुषुम्ना खुली रहती है। यह सुषुम्नाद्वार खुलने पर उसके भीतर से स्नायविक शक्तिप्रवाह जब ऊपर चढ़ता है, तब चित्त उच्च से उच्चतर भूमि पर उठता जाता है, और अन्त में हम अतीन्द्रिय राज्य में चले जाते हैं। हमारा मन तब अतीन्द्रिय, अतिचेतन अवस्था प्राप्त कर लेता है। तब हम बुद्धि के अतीत प्रदेश में चले जाते हैं; वहाँ तर्क नहीं पहुँच सकता।

इस सुषुम्ना को खोलना ही योगी का एकमात्र उद्देश्य है। ऊपर जिन शक्तिवहन केन्द्रों का उल्लेख किया गया है, योगियों के मत में वे सुषुम्ना में ही अवस्थित हैं। रूपक की भाषा में उन्हीं को पद्म कहते हैं। सब से नीचेवाला पद्म सुषुम्ना के सब से निचले भाग में अवस्थित है। उसका नाम है मूलाधार। इसके बाद दूसरा है स्वाधिष्ठान। तीसरा मणिपूर। फिर चौथा अनाहत, पाँचवाँ विशुद्ध, छठा आजा और सातवाँ है सहस्रार या सहस्रदल पद्म। यह सहस्रार सब से ऊपर, मस्तिष्क में स्थित है। 

अभी इनमें से केवल दो केन्द्रों (चक्रों) की बात हम लेंगे सब से नीचेवाले मूलाधार की और सब से ऊपरवाले सहस्रार की। सब से नीचेवाला चक्र ही समस्त इच्छा-शक्ति का अधिष्ठान है, और उस शक्ति को उस जगह से लेकर मस्तिष्कस्थ सर्वोच्च चक्र (मेडुला medulla oblongata) पर ले जाना होगा। योगी दावा करते हैं कि मनुष्यदेह में जितनी शक्तियाँ हैं, उनमें ओज सब से उत्कृष्ट कोटि की शक्ति है। यह ओज मस्तिष्क में संचित रहता है। जिसके मस्तिष्क में ओज जितने अधिक परिमाण में रहता है, वह उतना ही अधिक बुद्धिमान् और आध्यात्मिक बल से बली होता है। 

>>>[🙏Chastity is the highest virtue.🙏ब्रह्मचर्य अर्थात तन-मन-वचन से पवित्र रहना सबसे बड़ा धर्म है। ] एक व्यक्ति बड़ी सुन्दर भाषा में सुन्दर भाव व्यक्त करता है, परन्तु लोग आकृष्ट नहीं होते। और दूसरा व्यक्ति न सुन्दर भाषा बोल सकता है, न सुन्दर ढंग से भाव व्यक्त कर सकता है, परन्तु फिर भी लोग उसकी बात से मुग्ध हो जाते हैं। वह जो कुछ कार्य करता है, उसी में महाशक्ति का विकास देखा जाता है। ऐसी है ओज की शक्ति! यह ओज, थोड़ी बहुत मात्रा में, सभी मनुष्यों में विद्यमान है। शरीर में इच्छाशक्ति, कामशक्ति आदि जितनी शक्तियाँ क्रियाशील हैं, उनका उच्चतम विकास है - यह ओज की शक्ति। यह हमें सदा याद रखना चाहिए कि सवाल केवल रूपान्तरण का है- एक ही शक्ति दूसरी शक्ति में परिणत हो जाती है। बाहरी संसार में जो शक्ति विद्युत् अथवा चुम्बकीय शक्ति के रूप में प्रकाशित हो रही है, वही क्रमशः आभ्यन्तरिक ओज शक्ति में परिणत हो जाएगी।  आज जो शक्तियाँ पेशियों (muscle) में कार्य कर रही हैं, वे ही कल ओज के रूप में परिणत हो जाएँगी। 

>>>Muladhara guides the willpower for chastity [मूलाधार ही चरित्रबल का (moral stamina का या विवेक-प्रयोग शक्ति का) नियामक है। The Yogis say that that part of the human energy which is expressed as sex energy, in sexual thought, when checked and controlled, easily becomes changed into Ojas, and as the Muladhara guides these, the Yogi pays particular attention to that center. ] : 

योगी कहते हैं कि मनुष्य में जो शक्ति आज  काम-चिन्तन (sexual thought)काम-क्रिया (sex energy) आदि रूपों में प्रकाशित हो रही है, प्रबल इच्छाशक्ति (या विवेक-प्रयोग शक्ति) के द्वारा उसका दमन (check and control) करने पर वह सहज ही ओज शक्ति में रूपांतरित हो जाती है। और चूंकि हमारे शरीर का सबसे नीचेवाला केन्द्र -मूलाधार ही ब्रह्मचर्य (moral stamina ) के लिए दृढ-इच्छाशक्ति का नियामक है, इसलिए योगी इसकी ओर (मस्तक में अवस्थित उसके स्नायुकेन्द्र 'Medulla oblongata' की ओर) विशेष ध्यान देते हैं! वे अपनी सारी काम-शक्ति (sexual energy) को ओज में रूपान्तरित (convert) करने का प्रयत्न करते हैं।  कामजयी स्त्री पुरुष ही इस ओज को मस्तिष्क में संचित कर सकते हैं। इसीलिए ब्रह्मचर्य (chastity) ही सदैव सर्वश्रेष्ठ धर्म माना गया है। मनुष्य यह अनुभव करता है कि अगर वह कामुक (unchaste) हो, तो उसका सारा धर्मभाव (spirituality) चला जाता है, चरित्रबल (moral stamina-नैतिक सहनशक्ति) और मानसिक तेज (या ओजस mental vigor) नष्ट हो जाता है। 

 >>>Giving up marriage. [पूर्ण ब्रह्मचर्य  (मन-वचन-कर्म से पवित्र रहने) के बिना राजयोग का अभ्यास खतरनाक है; इसीकारण विवाह-त्यागी नेता (जीवनमुक्त शिक्षक) की आवश्यकता] :   इसी कारण, देखोगे, संसार में जिन-जिन (religious orders) धार्मिक सम्प्रदायों अथवा महामण्डल जैसे मनुष्य-निर्माण और चरित्रनिर्माणकारी आध्यात्मिक संगठनों ( Spiritual organizations) में बड़े बड़े धर्मवीर पैदा हुए हैं, उन सभी सम्प्रदायों और संगठनों ने ब्रह्मचर्य पर विशेष जोर दिया है। इसीलिए विवाह-त्यागी संन्यासियों की उत्पत्ति हुई है।ब्रह्मचर्य के बिना राजयोग की साधना बड़े खतरे की है; [इस ब्रह्मचर्य का पूर्ण रूप से, तन-मन -वचन से पालन करना नितान्त आवश्यक है।] क्योंकि उससे अन्त में मस्तिष्क में विषम विकार पैदा हो सकता है। यदि कोई राजयोग का अभ्यास करे और साथ ही अपवित्र जीवनयापन करे, तो वह भला किस प्रकार योगी होने की आशा कर सकता है? 

[ अतएव इसीलिए महामण्डल में मनःसंयोग (विवेक-प्रयोग, आत्मश्रद्धा, आत्मविश्वास) का प्रशिक्षण देने में समर्थ विवाह-त्यागी गृहस्थ नेता/शिक्षक/ पैगम्बर वरिष्ठ "C-IN-C नवनीदा", (प्रमोद दा, सोमनाथ बागची, .... तुहीन भट्टाचार्य ?)  जैसे संस्थापक सचिव या General Secretary (महासचिव) का, एवं प्रवृत्ति से होकर निवृत्ति में आने वाले 'Vice President' का आविर्भाव हुआ है !]    

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