अपनी बुद्धि से क्या आप मनुष्य (मुक्त) हो ?
जैसी मति वैसी गति ! या मति सा गतिर्भवेत !
[मति के अनुसार ही भव चक्र चलता है। @ paramvaniofficial]
बुद्धिनाशात् प्रणश्यति। यदि 'नित्य-अनित्य विवेक सम्पन्न बुद्धि' का नाश हो गया - आपका हो गया। अर्थात आपने इस धोखेबाज बुद्धि के हार को अपनी हार समझ लिया - तो आप फिर नश्वर 'देहो अहं' के भाव को ही सच मानने लगोगे। अर्थात बंधन स्वकल्पित है। अपने नश्वर प्रातिभासिक मैं (Apparent I- आदम या हव्वा) को ही अविनाशी सच (Real I -आत्मा , ब्रह्म, ईश्वर, भगवान) समझने लगोगे।
क्रोधात् भवति संमोहः, संमोहात् स्मृतिविभ्रमः।
स्मृति भ्रंशात् बुद्धिनाशः, बुद्धिनाशात् प्रणश्यति।।2.63।।
[विषयों का चिन्तन करने वाले मनुष्य की उन विषयों में आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्ति से कामना पैदा होती है। कामना से क्रोध पैदा होता है। क्रोध से उत्पन्न होता है मोह और मोह से स्मृति विभ्रम। स्मृति (महावाक्य जनित आत्मज्ञान -आदम और हव्वा देह तो चैतन्य का विवर्त है-देह रहने तक -) के भ्रमित होने पर बुद्धि (विवेक-सम्पन्न बुद्धि) का नाश होता है। और उस अन्तःकरणकी ( विवेक-शक्तिरूप ) बुद्धि का नाश होने से वह व्यक्ति पुरुषार्थ (जीवनमुक्ति या मोक्ष) के अयोग्य हो जाता है। [अपने चेतन आत्मा (अविनाशी) होकर भी अपने को जड़ (नश्वर) देह समझने वाला नित्य-अनित्य विवेक-सम्पन्न बुद्धि नष्ट होने से व्यक्ति (चेतन आत्मा से जड़ आदम हो या हव्वा शरीर हो जाता ) पुरुषार्थ करने के अयोग्य हो जाता है। अतएव गृहस्थ नेता को अपने आचरण को हमेशा पवित्र रखना होगा -चिपकना सख्त मना है। ]
यदि बुद्धि में तुम कर्ता हो गए - तो हो गए ! उसी तरह बुद्धि में तुम अकर्ता हो गए , अकर्ता हो गए ! जो कुछ होना है बुद्धि में होना है। बुद्धि में मुक्त हो गए तो मुक्त हो गए। आत्मा तो कहते हैं सदा मुक्त है , पर क्या तुम्हारी बुद्धि मुक्त है ? तुम्हारी बुद्धि में ऐसा लगता है कि - (प्रारब्ध खत्म हो गया) - हम मुक्त हैं ! इसी तरह से एक और वाक्य है - जिसकी जैसी मति -उसकी ? बोलो ! अब ये बात तो समझ में आ गई। अब मति/बुद्धि कल्पना नहीं है। मति इमेजिनेशन नहीं है। 'अब तुम पैदा हुए हो !' यह कोई 'तुम' कल्पना कर रहे हो क्या ? हो रही है। अभी तक आप अपनी मति / बुद्धि के अनुसार पैदा हुए हो। अपनी मति कर्ता हो , अपनी मति में अधूरे हो ? आदम हो ? हव्वा हो ?
अपनी मति में मुक्त नहीं हो। आप मुक्त नहीं हो। यह आपकी मति है , या मेरी ? और जब मुक्त होंगे -गुरु की मति से ? हमारी मति में तो तुम मुक्त हो। अपनी मति बताओ। मेरी मति में तुम मुक्त हो। भगवान की मति में अर्जुन ब्रह्म ही है। लेकिन अर्जुन अभी ब्रह्म नहीं है। अर्जुन अपनी मति में अर्जुन है , आदमी है, जीव है - आदम है या हव्वा है ? अर्जुन जीव है , कर्ता है ! अर्जुन अपनी मति में मुक्त नहीं है। (2:03)
इतने दिनों तक जब हम आपको लेक्चर सुनायेंगे तो, आपको - 'बद्ध मति' (ससीम M/F लहर) को / मूढ़ मति को अमूढ़ मति , 'बद्ध' मति को 'मुक्त' मति (लहर को पानी होने की बुद्धि ), विवेक-मति , नित्य-अनित्य विवेक-सम्पन्न बुद्धि हम देंगे ? 'देहो हम मति को शिवो हम मति ' हम देंगे ? गुरु के पास और क्या है ? और आप जानते हो केवल मति यदि मिल जाये , तो फिर कुछ पाना बाकी ही नहीं रह जाता। पर अभी तुम गुरु की मति पाने आये हो। गुरु की मति की बातें सुनते हो। आप अपनी मति से गुरु की मति को तौलते हो और जितना अनुकूल लगी उतनी ले लेते हो। बाकी गुरु की मति कहते -अपने पास रखो। (3:05)
मति (बुद्धि) कहो , कि दृष्टि कहो। दृष्टि क्या है ? देह-दृष्टि। देह मति ? दृष्टि माने ये दो चक्षुओं के गोलक नहीं। हमारे यहाँ - भारत में 'किसी' भी प्रकार के बोध का नाम दृष्टि है। खट्टा-मीठा, गर्मी-सर्दी। इसी तरह से देह दृष्टि , माने देह मति। मैं देह (M/F) हूँ -यह दृष्टि। देह हूँ - आदम हूँ या हव्वा हूँ , यह मति ? मैं देह हूँ यहाँ बैठा हूँ। यह मति है न ? अब जब देह बैठा हो उसी समय देखो, (मैं आदम हूँ ? या हव्वा हूँ ? उस मति को देखो) उस मति को गुरु की वाणी के द्वारा, उपनिषदों की वाणी के द्वारा (जीव ब्रह्मैव न अपरः) अपनी मति (विवेकसम्पन्न बुद्धि) से पूछो कि 'तुम' (आदम -हव्वा) बैठे हो- या 'चेतन' हो ? चेतन नहीं हो तो तुम देह हो क्या?-[Without consciousness, what is the body?] चेतन हुए बिना क्या तुम्हारी मति में- 'मैं देह हूँ' ऐसा विचार उठ सकता है ? (4:17)
'एक अर्थ में' जब तुम चेतन थे , [लेकिन अपने सत्य-स्वरूप (Real I) के प्रति प्रबुद्ध नहीं थे, Awakened-जाग्रत अवस्था में भी 'आदम -हव्वा' का स्वप्न देख रहे थे] उस समय यह मति आई - देह हूँ बैठा हूँ ! लेकिन जब सचमुच चेतन थे , तब तुम्हें -देह हूँ ' ये मति आई तो चेतन हूँ ये मति क्यों नहीं आई ? चेतन हुए बिना देह हूँ - ये मति आ नहीं सकती। किसी सोए आदमी को देह की मति देह बुद्धि नहीं हो सकती। इसका मतलब तुम चेतन हो और बुद्धि है। लेकिन दुर्भाग्य से तुम चेतन हो - तुम्हारी बुद्धि ने यह निर्णय नहीं किया। इसलिए तुमने यह नहीं सोचा कि मैं चेतन हूँ। तो यहाँ तुम्हारी 'अविवेकी बुद्धि' ने तुम्हें धोखा दिया। जबकि बुद्धि तुम्हारी है [तुम बुद्धि के स्वामी आत्मा हो या चैतन्य हो, परब्रह्म परमेश्वर हो। क्योंकि आदम ने हव्वा को देखकर -ठाकुर की तरह 'सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके' मंत्र नहीं पढ़ा ?] कई बार अपने ही लोग अपनी खिलाफ पार्टी से मिल जाते हैं। चुनाव में तो अक्सर होता है। तुम्हारी मति /बुद्धि विवेक-सम्पन्न नहीं है ? इसलिए तुम्हारी मति तुम्हारे पक्ष में रहते हुए भी तुम्हारा कल्याण नहीं कर रही। तुम्हारा उद्धार नहीं कर रही। तुम्हें तरने नहीं दे रही है। तुम्हें (आत्मज्ञानी को ?) देह बुद्धि कराकर तुम्हें मृत्यु का दर्शन करा रही है। (5:30)
इसलिए 'देहो अहम इति में बुद्धि पूर्व असि मधुसूदने' (यह पंक्ति भक्त या जिज्ञासु की उस अवस्था को दर्शाती है जहाँ कृष्ण की कृपा से या आत्म-ज्ञान के प्रकाश से, 'मैं शरीर हूँ' वाला पुराना भ्रम (बुद्धि) नष्ट हो गया है और अब वह 'मैं शरीर नहीं, बल्कि आत्मा या ब्रह्म हूँ' के निश्चित ज्ञान (निश्चयात्मिका बुद्धि) को प्राप्त कर चुका है। यह स्थिति भगवद्गीता के दूसरे अध्याय में वर्णित स्थितप्रज्ञ के लक्षणों के समान है, जहाँ व्यक्ति देह और आत्मा के अंतर को समझकर परम शांति प्राप्त करता है। ) 'मैं देह हूँ' मेरी बुद्धि भी श्री कृष्ण से मिलने से पहले ऐसी थी ! मैं देह हूँ, मैं दास हूँ, मैं गोपियाँ हूँ, मैं व्यक्ति (आदम या हव्वा शरीर) हूँ, ये (ठाकुर देव) मेरे भगवान हैं- मैं देह हूँ। ये मेरे स्वामी हैं। ऐसी ही बुद्धि मेरी भी पहले थी। गोपियों ने उद्धव जी से कहा - 'देहो अहम इति में बुद्धि पूर्व असि मधुसूदने' - हमारी भी पहले देहबुद्धि थी। तब क्या सोचती थी ? ये मेरे स्वामी हैं - ऐसा सोचती थी। अद्वैत बुद्धि नहीं थी; तब इन्होंने क्या किया ?
दकारा -दासो अहं, दासो अहं बुद्धि , 'दासो अहं- देहो अहं इति में बुद्धि' पहले थी। शुरू में थी जैसी आपकी। तो भगवान ने क्या किया ? ' दकारा अपहृतेन' उन्होंने 'दा' चुरा लिया। दासो अहं इति मे बुद्धि चुरा लिया। तब 'सो अहं' भावेन पूज्य। अब हम सोहम भाव में स्थित हो गए। देहो अहं -दासो अहं इति मे बुद्धि ' - ऐसी बुद्धि मेरी थी। इस 'देहो अहं' बुद्धि में 'शिवो अहं' बुद्धि कौन देगा ? (7:10)
और क्या तुम अभी के अभी 'देहो अहं' बुद्धि को छोड़कर , 'शिवो अहं' ये बुद्धि लोगे ? ये 'शिवो अहं' वाली बुद्धि लेनी है कि नहीं लेनी है - इसका निर्णय भी आप अपनी ही बुद्धि से करते हो। तो इस समय आपकी बुद्धि तो 'देहो अहं' की है। तो जब तुम्हारे पास पहले से ही 'देहो अहं' [आदम या हव्वा अहं] वाली बुद्धि पहले से है , और आप मानते हो कि आप पैदा हुए हो (दो बहनों के बाद एक लड़का या लड़की पैदा हुए थे), इसलिए आपकी बुद्धि 100 % सही है। लेकिन जब गुरु (या शास्त्र) कहेंगे , तुम देह नहीं हो ; तो गुरु की बुद्धि कैसे लोगे आप ? आपकी बुद्धि (यदि आत्मश्रद्धा या मनो, बुद्धि , हंकार , चित्तानि नाहं में प्रतिष्ठित न हो तो।) आपकी बुद्धि बाधा बनेगी। स्वप्न देखते समय तुम मर रहे हो ; स्वप्न में कोई कहे भी कि ये तो स्वप्न है-तुम मर थोड़े रहे हो ? कोई स्वप्न में मानेगा ? आपकी ही 'देहो अहं बुद्धि' , 'दासो अहं बुद्धि ', 'अहंकर्ता बुद्धि- या कर्ता अहं बुद्धि' , 'जीवो अहं बुद्धि ' [आदम या हव्वा अहं बुद्धि], अब "जीवो अहं बुद्धि और को 'शिवो अहं बुद्धि' में कौन बदलेगा ? देह बदलेगा क्या ? (8:16)
देह नहीं बदलेगा , 'देहो अहं' ये समझ बदलेगी (या दृष्टि बदलेगी)। 'शिवो अहं' यह समझ आएगी। देह को कौन बदलेगा ? वह तो वैसे ही बदलता है। बदलेगा जब बदलेगा। लोग सोचते हैं कि बुद्धि के आलावा कोई और करामात है। [People think there is some other magic at play besides intelligence. All those who tried to miraculously change their bodies have failed.] जितने करामाती देह को बदलना चाह रहे हैं , सब हार गए। इसलिए सन्त (आत्मज्ञानी या ब्रह्मविद) तो पहले कहते हैं , संत , महात्मा , ज्ञानी महात्मा , 'गुरु' क्या करते हैं ? गुरु तुम्हारे देह को नहीं बदलते तुम्हारी सोच को बदलते हैं ! ॐ ! (9:07)
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विष्णु समय के स्वामी नहीं हैं।
विष्णु (नेता, आत्मा, ईश्वर, ब्रह्म, पुरुषोत्तम, परब्रह्म) समय के स्वामी हैं।
यदि आपसे कहा जाए कि भूतकाल, वर्तमान और भविष्य सभी एक दिव्य लय में श्वास लेते हैं तो कैसा रहेगा?
विष्णु (आत्मा-अद्वैत) पुराण इसे सुंदर ढंग से समझाता है:
1️⃣ समय विष्णु के भीतर विद्यमान है। बाहर नहीं। ऊपर नहीं। परे नहीं। काल (समय) विष्णु के भीतर विद्यमान है। वे (आत्मा) समय से बंधे नहीं हैं—समय उनसे (आत्मा से) बंधा है।
2️⃣ उनकी (आत्मा की) श्वास से ब्रह्मांडों की रचना होती है। श्वास छोड़ना → सृष्टि। संपूर्ण जगत सहजता से उत्पन्न होते हैं। अनगिनत ब्रह्मांड प्रकट होते हैं। जैसे किसी ब्रह्मांडीय मन में विचार हों। सृष्टि विष्णु (आत्मा) के लिए कोई कार्य नहीं है—यह एक स्वाभाविक श्वास है।
3️⃣ उनकी श्वास लेने (श्वास खींचना-प्रलय) से सब कुछ विलीन हो जाता है। श्वास लेना → विलीन।
आकाशगंगाएँ ढह जाती हैं। युगों का अंत होता है। नाम-रूप लुप्त हो जाते हैं। विनाश नहीं—मौन में वापसी।
4️⃣ जीवन उनके (आत्मा के) समय में चलता रहता है। (देहो अहं बुद्धि का) जन्म। विकास। क्षय।पुनर्जन्म। इस लय से कोई भी (अहंकर्ता भाव) अछूता नहीं है। न राजा। न देवता। न सभ्यताएँ। सब उनके समय में चलते हैं।
5️⃣ अंत भी अंतिम नहीं होते, जिसे हम “अंत” कहते हैं। वह केवल साँसों के बीच का विराम है।अस्तित्व (आत्मा) मरता नहीं है। वह विश्राम करता है। फिर सृष्टि का पुनर्जन्म होता है।
6️⃣ इसीलिए सारे भय दूर हो जाता है। जब आप यह जान लेते हैं:- • मृत्यु अंत नहीं है। • हानि अंतिम नहीं है। • समय आपका शत्रु नहीं है। आप पहले से ही शाश्वत में समाए हुए हैं।
7️⃣ विष्णु पुराण – खंड 1, अध्याय 5/ प्राचीन भारत समय (काल) से भयभीत नहीं था। वह समय को (काली) समझता था। आधुनिक विज्ञान समय को मापता है। सनातन धर्म इससे परे (काल से परे eternal-नित्य, कालातीत, अनन्त।) है।
8️⃣ अंतिम सत्य- समय रैखिक नहीं है। अस्तित्व चक्रीय है। चेतना शाश्वत है। जब आप उनके (आत्मा के या विष्णु के) समय पर विश्वास करते हैं, तो जीवन में भागदौड़ का एहसास नहीं होता।
🕉 Hari Om Tat Sat 🕉
🕉 हरिओम तत सत 🕉
अद्वैत सिद्धान्त है - "जो दीसै सो सकल विनाशी" - अर्थात जो भी 'नाम' और 'रूप' दीखता है -मिथ्या है ! जो कुछ भी दिखाई देता है, जो कुछ भी इंद्रियों से अनुभव किया जाता है, वह सब नश्वर (विनाशी-जादू ) है, और केवल परमात्मा (जादूगर -ठाकुर) ही अविनाशी है। यह कथन हमें सांसारिक मोह-माया से ऊपर उठकर सत्य (ईश्वर) की ओर उन्मुख होने और मायावी जगत की क्षणभंगुरता को समझने का संदेश देता है। जैसा कि गुरुबाणी में भी बताया गया है कि इंद्रियों से दिखने वाली हर वस्तु (नाम और रूप) क्षणिक है और मनुष्य को उससे बंधना नहीं चाहिए, बल्कि सद्गुरु की कृपा से सत्य का संग करके इस बंधन से मुक्त होना चाहिए। अहं पैदा हुआ है -तो नष्ट होगा ! परिवर्तनशील है -अहंकर्ता भाव पैदा हुआ है तो नष्ट होगा।
लेकिन मैं ,तुम और हम सभी जीव अपने वास्तविक स्वरुप (Real I) में चैतन्य ही हैं ! 'आदम और हव्वा ' (M/F-Apparent I) का रूप जो दीखता है , वो चैतन्य तत्व (आत्मा, ईश्वर, ब्रह्म या भगवान का) विवर्त है -इसलिए आदम और हव्वा ने फल खाकर पाप नहीं भूल किया था। ईसा ने कहा था पहला पत्थर-वो ही मारे जिसने जीवन में कभी भूल न किया हो ? इसलिए स्वामीजी कहते हैं , मनुष्य को पापी कहना ही सबसे बड़ा पाप है। (M/F) के स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर (Gross body, subtle body) में अन्तर दीखता लेकिन कारण शरीर (Causal body) में कोई अन्तर नहीं है ! क्यों ? क्योंकि सभी का कारण-शरीर 'परमेश शक्ति माया' से बनी हुई है। मैंने इस 'आँख' (नाम) से तुमको (रूप) को देखा। या 'कान' से शब्द सुना। तो 'आँख' नाम है , इसलिए माया की बनी हुई है , कमजोर होगी , नष्ट होगी। कान कमजोर होगा नष्ट होगा।
[गुरु ग्रन्थ साहब में सन्त रविदास जी की वाणी है -
" बिनु देखे उपजै नही आसा ॥ जो दीसै सो होइ बिनासा ॥
बरन सहित जो जापै नामु ॥ सो जोगी केवल निहकामु ॥१॥
परचै रामु रवै जउ कोई ॥ पारसु परसै दुबिधा न होई ॥१॥
[आसा = (पारस = प्रभू ठाकुर से छूने की) तमन्ना। बरन = वर्णन, प्रभू के गुणों का वर्णन, सिफत सालाह। सहित = समेत। जापै = जपता है। निहकामु = कामना रहित, वासना रहित।1।]
जो मनुष्य गुरु-शिष्य परम्परा में प्रशिक्षित होकर (आत्मा, ईश्वर, भगवान, ब्रह्म, अवतार वरिष्ठ, पुरुषोत्तम का) नाम जपता है उसका मन प्रभू (परमेश्वर -सच्चिदानन्द के नाम,रूप, लीला , धाम) में परच जाना -विकार हट जाना और गुणों में रच-बस जाता है। उसका मन और देह 'पारस' अर्थात प्रभू परमेश्वर (आत्मा या ठाकुर देव, चैतन्य) को छू के वह, मानो, सोना हो जाता है।
https://www.gurugranthdarpan.net/hindi2/1167.html
[ऊँच -बनारस- सारनाथ-प्रशिक्षण : अद्वैत सिद्धान्त है -ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या , जीव ब्रह्मैव न अपरः ! इस अद्वैत दृष्टि को प्राप्त करने के बाद, ब्रह्मज्ञानी (चित्तवृत्ति निरोध और चैतन्य-आत्मा तत्व में प्रतिष्ठित) की बुद्धि से भेद-दृष्टि चली जाती है। लेकिन इस भेद-दृष्टि चले जाने मतलब क्या हुआ ? क्या ब्रह्मज्ञानी को अपने 'गुरुदेव' और 'इष्टदेव' को पहचानने की बुद्धि और हाथी या गधा को पहचानने की बुद्धि भी नष्ट हो जाती है ? नहीं। अद्वैत दृष्टि जाग्रत होते ही- आत्मश्रद्धा, आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता, आत्मसंयम, अनुशासन, सत्य निष्ठा, नित्य-अनित्य विवेकज स्पष्ट धारणा, दृढ़ -संकल्प, उद्यम , अध्यवसाय, साहस, धैर्य , सहनशीलता , निःस्वार्थपरता, ईमानदारी, सामान्य बुद्धि, शिष्टाचार, स्वच्छता , समयनिष्ठा, अविचलता, उपयोग बुद्धि, सेवापरायणता, सहानुभूति आदि चरित्र के सारे गुण अभिव्यक्त होने लगते हैं !
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June 26, 1895.
" Our best work is done, our greatest influence is exerted, when we are without thought of self. All great geniuses know this. Let us open ourselves to the one Divine Actor, and let Him act, and do nothing ourselves."
" जब हमारा 'अहंकर्ता -भाव ' (Apparent I-काचा आमि, तुच्छ अहं -आदम और हव्वा जैसा तादात्म्य) नहीं रहता, तभी हम अपना सर्वोत्तम कार्य कर सकते हैं, दूसरों को सर्वाधिक प्रभावित कर पाते हैं। सभी महान विवेकी (प्रतिभाशाली -genius) व्यक्ति इस बात को जानते हैं। ह्रदय में पहले से विद्यमान उस 'दिव्य-कर्ता ' (Real I-Divine Actor-पुरुषोत्तम) के प्रति अपना ह्रदय खोल दो, तुम स्वयं कुछ भी करने मत जाओ।"
["O Arjuna! I have no duty in the whole world", says Krishna. Be perfectly resigned, perfectly unconcerned; then alone can you do any true work. No eyes can see the real forces, we can only see the results. Put out self, lose it, forget it; just let God work, it is His business. We have nothing to do but stand aside and let God work. The more we go away, the more God comes in. Get rid of the little "I", and let only the great "I" live. " (Volume 7, Inspired Talks/page-14)
श्री कृष्ण गीता में कहते हैं - 'हे अर्जुन , त्रिलोक में मेरे लिए कर्तव्य नामक कुछ भी नहीं है। ' उनके ऊपर सम्पूर्णतया निर्भर रहो, सम्पूर्ण रूप से अनासक्त होओ, ऐसा होने पर ही तुम्हारे द्वारा कुछ यथार्थ कार्य हो सकता है। जिस शक्ति के द्वारा ये सभी कार्य होते हैं, उसे हम देख नहीं पाते, हम केवल उसका फलमात्र देख पाते हैं। 'अहंकर्ता -भाव' को निकाल डालो, उसे भूल जाओ; अपने द्वारा ईश्वर (आत्मा , भगवान, ब्रह्म) को कार्य करने दो - यह उन्हींका कार्य है, उन्हें करने दो।]
हमें और कुछ नहीं करना होगा -केवल स्वयं हटकर उन्हें काम करने देना होगा। हम जितना दूर हटते जायेंगे , ईश्वर उतना ही हमारे भीतर से अभिव्यक्त होगा। 'व्यावहारिक अहं ' (Apparent I-काचा आमि, तुच्छ अहं) से ऊपर उठ जाओ -केवल 'वास्तविक अहं' (Real I-पाका आमि,आत्मा, प्रबुद्ध -विवेकी विवेकानन्द ,सच्चिदानन्द, प्रबुद्ध-'महत अहं') को रहने दो। हम अभी जो कुछ हैं, वह सब अपने चिंतन का ही फल है। इसलिए तुम क्या चिंतन करते हो , इस विषय में विशेष ध्यान रखो। [('जीव' अपने मित्र -शत्रु को ब्रह्ममैव इदं सर्वं, आत्मवै इदं सर्वं ? अपने और मेरे- बारे -जगत और ईश्वर में अद्वैत -अभेद देखते हो या नहीं इस पर ध्यान रखो !) हम जो कुछ चिंतन करते हैं , उसमें हमारे चरित्र की छाप लग जाती है। [जगत को अद्वैत दृष्टि या ज्ञानमयी दृष्टि से देखकर M/F के प्रति सियाराम मय व्यवहार है या नहीं ,हमारे व्यवहार पर हमारे चरित्र की छाप लग जाती है।
[The begging monks (or A Householder Leader of a social service -organization) who carry religion to every man's door; If they should eat of the tree of knowledge, they would become egoists, and all the good they do would fly away. They are all principle, no personality.
गृहत्यागी संन्यासी हों या किसी वानप्रस्थी सामाजिक सेवा संगठन के गृहस्थ नेता हों जो कोई भी व्यक्ति 'प्रबुद्ध भारत अभियान' के वैसे कर्मी [C-IN-C /शिक्षक] होंगे जो द्वार -द्वार पर धर्म (मनुष्य -निर्माणकारी शिक्षा) का सन्देश लेकर जाते हैं, यदि वे यदि ऐहिक (आदम और हव्वा जैसा) ज्ञानरूपी वृक्ष का फल खायेंगे तो उनमें भी दैहिक 'अहंकर्ता-भाव' चला आएगा, फिर वे जो कुछ भी लोक-कल्याण करेंगे -सब नष्ट हो जायेगा। जब हम 'मैं मैं' कहते हैं, तब हम मूर्ख से बन जाते हैं। पहले अपने को जीत लो (3K से अनासक्त हो जाओ), फिर सम्पूर्ण जगत तुम्हारे पैरों के नीचे आ जायेगा। (देववाणी -26 जून , 1895/ खंड ७/२२-२३)
They never say "me" and "mine"; they are only blessed in being instruments. Such men are the makers of Christs and Buddhas, ever living fully identified with God, ideal existences, asking nothing, and not consciously doing anything. They are the real movers, the Jivanmuktas, (Literally, free even while living.) absolutely selfless, the little personality entirely blown away, ambition non-existent. They are all principle, no personality.
मानवजाति के मार्गदर्शक नेता कभी भी 'मैं , मेरा ' नहीं कहते। वे अपने को ईश्वर का यंत्र समझकर ही अपने को धन्य मानते हैं। ऐसे व्यक्ति ईसा और बुद्ध आदि के निर्माता हैं। वे सदैव ईश्वर (आत्मा) के साथ सम्पूर्ण भाव से तादाम्य लाभ करके एक आदर्श जगत में निवास करते हैं। वे कुछ नहीं चाहते और अहंकर्ता -भाव से कुछ भी नहीं करते। वे ही वस्तुतः प्रेरकस्वरूप हैं - वे जीवनमुक्त एवं बिल्कुल अहंशून्य हैं। उनका क्षुद्र अहंकार पूर्ण रूप से नष्ट हो गया है , उन्हें महत्वाकांक्षा बिल्कुल नहीं है। उनका व्यक्तित्व पूर्ण रूप से लुप्त हो गया है , वे निराकार तत्वस्वरूप हैं। (देववाणी ७/२४)
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(वार्ता एवं संलाप /खंड-६/ ३४/पेज-१७९/ १९०१)
स्वामी जी - " ........ कोई धन की चिन्ता करते करते धनकुबेर बन जाता है, और कोई शास्त्र -चिंतन करते करते विद्वान्। पर दोनों ही बन्धन हैं। पराविद्या प्राप्त करके विद्या और अविद्या दोनों से परे चला जा।
(Some perhaps thinking of money have become millionaires, whereas you have become a Pundit by thinking of scriptures. But both are bondages. Attain the supreme knowledge and go beyond Vidya and Avidya, relative knowledge and ignorance.)
शिष्य -महाराज , आपकी कृपा से मैं सब समझता हूँ ; परन्तु कर्म के चक्कर में पड़कर धारणा नहीं कर सकता।
(Disciple: Sir, through your grace I understand it all, but my past Karma does not allow me to assimilate these teachings.)
स्वामी जी - कर्म-फर्म छोड़ दे। तूने ही पूर्व जन्म में कर्म करके इस देह को (आदम और हव्वा देह को) प्राप्त किया है , यह बात यदि सत्य है तो कर्म के द्वारा कर्म को काटकर, तू फिर इसी देह में जीवन्मुक्त बनने का प्रयत्न क्यों नहीं करता ? निश्चित रूप से समझ लो कि आत्मज्ञान और मुक्ति तुम्हारे अपने ही हाथ में है। ज्ञान में कर्म का लवलेश भी नहीं है। परन्तु जीवन्मुक्त होते हुए भी जो लोग कर्म करते हैं , समझ लेना, वे दूसरों के हित के लिए ही कर्म करते हैं। वे भले-बुरे परिणाम की ओर नहीं देखते। किसी भी वासना का बीज उनके मन में नहीं रहता। गृहस्थाश्रम में रहते हुए इस प्रकार यथार्थ परहित के लिए कर्म करना - लगभग असम्भव जैसा है ! (ईश्वरकोटि छोड़कर)
Throw aside your Karma and all such stuff. If it is a truth that by your own past action you have got this body; then, nullifying the effects of evil works by good works, why should you not be a Jivanmukta in this very body? Know that freedom or Self - knowledge is in your own hands. In real knowledge there is no touch of work. But those who work after being Jivanmuktas do so for the good of others. They do not look to the results of works. No seed of desire finds any room in their mind. And strictly speaking it is almost impossible to work like that for the good of the world from the householder's position.
शिष्य - आप ऐसी कृपा कीजिये जिससे आत्मानुभूति की प्राप्ति इसी शरीर में हो जाये।
(Disciple: Please bless me that I may attain Self - realisation in this very life.)
स्वामीजी - भय क्या है ? मन में अनन्यता रहने पर -इसी जन्म में आत्मनुभूति हो जाएगी। परन्तु पुरुषकार चाहिए। पुरुषकार क्या है , जानता है ? आत्मज्ञान प्राप्त करके ही रहूँगा , इसमें जो बाधा -विपत्ति सामने आएगी , उस पर अवश्य ही विजय प्राप्त करूँगा - इस प्रकार के दृढ़ संकल्प का नाम है पुरुषकार ! माँ , बाप , भाई , मित्र , स्त्री , पुत्र मरते हैं तो मरें। यह देह रहे तो रहे , न रहे तो न सही। मैं किसी भी तरह पीछे नहीं देखूँगा। जब तक आत्मसाक्षात्कार नहीं होता , तब तक इस प्रकार के सभी विषयों की उपेक्षा करके , एक मन-प्राण से अपने उद्देश्य की ओर अग्रसर होने की चेष्टा करने का नाम है -पुरुषकार ; नहीं तो दूसरे पुरुषकार तो पशु-पक्षी भी कर रहे हैं। मनुष्य ने इस शरीर को प्राप्त किया है केवल उसी आत्मज्ञान को प्राप्त करने के लिए। संसार में सब लोग जिस रास्ते से जा रहे हैं , क्या तू भी उसी स्रोत में बहकर चला जायेगा ? तो फिर तेरे पुरुषकार का मूल्य क्या ? सब लोग तो मरने बैठे हैं , पर तू तो मृत्यु को जीतने आया है। महावीर की तरह अग्रसर हो जा। किसी की परवाह न कर। कितने दिनों के लिए है यह शरीर ? कितने दिनों के लिए हैं ये सुख-दुःख ? यदि मानव-शरीर को प्राप्त कर ही लिया है , तो भीतर की आत्मा को जगा और बोल - 'मैंने अभयपद प्राप्त कर लिया है। बोल - मैं वही आत्मा हूँ। जिसमें मेरा क्षुद्र 'अहंकर्ता -भाव ' डूब गया है। इसी तरह सिद्ध बन जा। उसके बाद जितने दिन यह देह रहे , उतने दिन दूसरों को यह महा बलप्रद अभय वाणी सुना - " तत्वमसि! उत्तिष्ठत ! जाग्रत ! प्राप्य वरान्निबोधत ! (तू वही है ', 'उठो , जागो और लक्ष्य प्राप्त करने तक रुको नहीं !) यह होने पर तब जानूँगा कि तू वास्तव में एक सच्चा 'पूर्वी बंगाली' है। "
Swamiji: What fear? If there is sincerity of spirit, I tell you, for a certainty, you will attain it in this very life. But manly endeavour is wanted. Do you know what it is? "I shall certainly attain Self - knowledge. Whatever obstacles may come, I shall certainly overcome them"-- a firm determination like this is Purushakara. "Whether my mother, father, friends, brothers, wife, and children live or die, whether this body remains or goes, I shall never turn back till I attain to the vision of the Atman"-- this resolute endeavour to advance towards one's goal, setting at naught all other considerations, is termed manly endeavour. Otherwise, endeavour for creature comforts even beasts and birds show. Man has got this body simply to realise Self - knowledge. If you follow the common run of people in the world and float with the general current, where then is your manliness? Well, the common people are going to the jaws of death! But you have come to conquer it! Advance like a hero. Don't be thwarted by anything. How many days will this body last, with its happiness and misery? " When you have got the human body, then rouse the Atman within and say — i have reached the state of fearlessness! Say — i am the Atman in which my lower ego has become merged for ever. Be perfect in this idea; and then as long as the body endures, speak unto others this message of fearlessness: “Thou art That”, “Arise, awake, and stop not till the goal is reached!” (The Complete Works of Swami Vivekananda/Volume 7/Conversations And Dialogues/XVII/1901)
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सच्ची प्रतिभा का व्यक्ति चालाक नही होता, जो प्रतिभाहीन है, जिनमे कोई प्रतिभा नही , वही चालाक होगा, चालबाज़ होगा। चालबाजी इस बात का परिचायक है कि इसमे प्रतिभा का अभाव है। प्रतिभा जितनी ज़्यादा होगी, उतना ही वो सरल होगा, साफ सुथरा होगा। प्रतिभाहीन , प्रतिभा की प्रतिपूर्ति चालबाजी से करने की कोशिश करता है।
[जब तक क्रोध है, तब तक आप -चालाक (भौंकने वाले) के प्रति क्षमाशील नहीं हो सकते]
क्रोध एक दृष्टिकोण है
(Anger is an attitude.)
जब तक क्रोध है, तब तक आप क्षमाशील नहीं हो सकते। क्रोध एक दृष्टिकोण है, जो कहता है: जो नहीं होना चाहिए था, वह हुआ है। कुछ और अपेक्षा थी। क्रोध के पीछे अपेक्षा छिपी है। अगर एक कुत्ता आकर भौंक जाए, तो आप नाराज नहीं होते; लेकिन आदमी आकर भौंक जाए, तो आप नाराज हो जाते हैं। आदमी है, तो बड़ी अपेक्षा थी। क्षमा का अर्थ है- आपकी कोई अपेक्षा नहीं; जो दूसरा कर रहा है, वही कर सकता था। जो गाली दे सकता था, गाली दे रहा है; जो गीत गा सकता था, गीत गा रहा है।
क्षमा एक दृष्टिकोण (attitude) है- क्षमा एक सोचने का तरीका है (way of thinking) । यह संसार मेरी अपेक्षा से चले, इस प्रकार का सोच रखने से ही क्रोध पैदा होता है। इसीलिए परिवार में बड़ा तनाव रहता है, क्योंकि अपेक्षाएं बहुत ज्यादा हैं। वे सारी की सारी अपेक्षाएं कभी पूरी नहीं होतीं।
ऐसे में, जिनसे जितनी ज्यादा अपेक्षा होती है, उन पर आपका उतना ही क्रोध होता है, पत्नी पति पर आग-बबूला हो जाती है; पिता पुत्र पर क्रोधित हो उठता है। बड़ी आशाएं बांधी हैं इस बेटे से और यह है कि सब उम्मीदें तोड़े जा रहा है। जिनसे आपका कोई संबंध नहीं, वहां पर कोई क्रोध पैदा नहीं होता।
क्षमा का संबंध दूसरे से नहीं, खुद से है। आप इतने शांत हो गए कि किसी से कोई अपेक्षा नहीं रही। आप स्वयं में संतुष्ट (पूर्ण) हैं, तब क्षमा का भाव पैदा होता है। अपेक्षा-शून्य व्यक्ति जीवन को स्वीकार कर लेता है। उसी स्वीकार में क्षमा है।
(अतएव) क्षमा, यानी कोई अपेक्षा नहीं
पर्युषण में लोग एक-दूसरे से क्षमा मांगते हैं। यह एक सार्वजनिक रस्म है। क्षमा का। हमारे जीवन में अब इतना ही अर्थ बचा है कि दूसरों ने गलती की और हमसे माफी मांग ली या हमने गलती की, तो दूसरों से माफी मांग ली। क्षमा का जो आध्यात्मिक मूल्य है, वह एक शब्द में सिमट गया है- 'सॉरी।' लेकिन क्षमा मांगना 'सॉरी' कहने जितना आसान नहीं है। महावीर स्वामी की क्षमा का अर्थ बिल्कुल अलग है। उनके देखे क्षमा कृत्य नहीं, आपका स्वभाव है। आप इतने शांत हो जाते हैं कि दूसरे पर ध्यान ही नहीं जाता। क्षमा क्रोध के विपरीत प्रतिक्रिया नहीं है, क्षमा क्रोध का अभाव है, इसलिए क्षमा करनी नहीं पड़ती; अपेक्षा के गिरते ही क्षमा जन्म लेती है।(हाथी -महावत विवेक , काटना मत फुँफकारना जरूर /गुरु और इष्टदेव की पहचान और अपने को देह समझने वाले पशु की पहचान का विवेक रखते हुए क्षमा में भी- दुष्ट का दमन करते हुए ही यथासम्भव क्षमा करना चाहिए। )
[ दुष्टों (कौरवों) को दण्ड भी मैं नहीं देता , मेरे (अर्जुन) माध्यम से तुम्हीं (पुरुषोत्तम) दे रहे हो!
सकलि तोमारि इच्छा इच्छामयी तारा तुमि ।
तोमार कर्म तुमि करो माँ, लोके बोले करि आमि।।
पंके बद्ध करो करि, पंगुरे लंघाओ गिरि,
कारे दाओ माँ ब्रह्मपद, कारे करो अधोगामी ।।
आमि यंत्र तुमि यंत्री, आमि घर तुमि घरनी,
आमि रथ तुमि रथी, जेमन चालाओ तेमनि चलि ।।
भावानुवाद
सभी तेरी इच्छा है माँ इच्छामयी तारा तुम्हीं ।
अपना कर्म तुम्हीं करती माँ लोग कहते करते हमहीं ।।
फँसाती कीच में हाथी, लंघाती पंगु को गिरि ।
देती हो किसी को ब्रह्मपद माँ, करती किसी को अधोगामी ।।
मैं हूँ यंत्र तुम हो यंत्री, मैं हूँ घर तुम हो घरनी ।
मैं हूँ रथ तुम हो रथी माँ, चलता जैसा चलाती माँ ।।
Sakali tomaari ichhaa ichhaamayi taaraa tumi |
Tomaar karm tumi karo maa, loke bole kari aami ||
Panke badh karo kari, pangure langhaao giri,
Kaare dao maa brahmapad, kaare karo adhogaami ||
Aami yantr tumi yantree, aami ghar tumi gharanee,
Aami rath yumi rathee, jeman chaalaao temani chali ||
तोमार कर्म तुमि करो माँ लोके बोले कोरी आमि ? अर्थात आपकी 'बुद्धि' ? चिद्रूप बुद्धि -विवेकयुक्त बुद्धि इतनी शांत हो गई कि-गाली जिस नश्वर देह 'Apparent I' (आदम और हव्वा) को जी रही थी, आप वह नहीं हैं, आप अविनाशी चेतन का परिणाम- पैदा होने वाले नश्वर देह (M/F) नहीं हैं, आप अपने वास्तविक स्वरूप (Real I) में अजन्मा , अविनाशी चेतन के विवर्त आत्मा है (ईश्वर, भगवान , ब्रह्म हैं) और अपने- आप स्वयं में संतुष्ट हैं।]
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["युवा समस्या और स्वामी विवेकानन्द का मार्गदर्शन " (যুব সমস্যা ও স্বামী বিবেকানন্দ) 'ओजस ही मनुष्य का सच्चा मनुष्यत्व है !' [ SVHS- 3.4 स्वामी विवेकानन्द और हमारी सम्भावना : खण्ड 3 -स्वामी विवेकानन्द और युवा समाज ]
*https://www.facebook.com/enlightenedmasters1/posts/ashtavakra-gita-11-wisdom-
সকলই তোমারই ইচ্ছা
ইচ্ছাময়ী তারা তুমি
তোমার কর্ম তুমি কর মা
লোকে বলে করি আমি
পঙ্কে বদ্ধ কর করি
পুঙ্গরে লঙ্ঘাও গিরি
পঙ্কে বদ্ধ কর করি
পুঙ্গরে লঙ্ঘাও গিরি
কারে দাও মা ব্রহ্মপদ
কারে কর অধগামী
সকলই তোমার ইচ্ছা
ইচ্ছাময়ী তারা তুমি
তোমার কর্ম তুমি কর মা
লোকে বলে করি আমি
আমি যন্ত্র, তুমি যন্ত্রী
আমি ঘর, তুমি ঘরনী
আমি যন্ত্র, তুমি যন্ত্রী
আমি ঘর, তুমি ঘরনী
আমি রথ, তুমি রথী
যেমন চালাও, তেমনি চলি
আমি রথ, তুমি রথী
যেমন চালাও, তেমনি চলি
সকলই তোমার ইচ্ছা
ইচ্ছাময়ী তারা তুমি
তোমার কর্ম তুমি কর মা
লোকে বলে করি আমি
written by Ramdulal Nandy.The song belongs to the genre of Shyama Sangeet or Bhaktigeeti (Bengali devotional song), dedicated to Goddess Kali/Tara.The central theme is the concept of complete surrender (non-doership) to the Divine Mother, stating that all actions are performed by Her will. গানটির মূল ভাব হল ঈশ্বরের (দেবী মা) কাছে সম্পূর্ণ আত্মসমর্পণ এবং এই বিশ্বাস যে সমস্ত কর্ম তাঁর ইচ্ছাতেই হয়।
"जाग्रत भारत (प्रबुद्ध भारत) अभियान के 'C-IN-C' स्वामी विवेकानन्द, आधुनिक युग के 'पुरुषोत्तम' श्रीरामकृष्ण द्वारा नियुक्त श्रेष्ठतम अद्वैत-शिक्षक तथा मानवजाति के मार्गदर्शक नेता हैं।(Swami Vivekananda, The 'C-IN-C' of " Awakened India (Enlightened India) campaign " is the greatest Advaita teacher and guiding leader of humanity, appointed by Sri Ramakrishna, the 'Purushottama' (Supreme Being) of the modern age.) उन्होंने भारत के युवाओं का आह्वान करते हुए कहा था - सम्पूर्ण विश्व को “उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत” मंत्र सुनाकर तुम स्वयं अपने 'सत्य स्वरुप' (Real I) के प्रति जाग्रत (Awakened) या प्रबुद्ध (enlightened) मनुष्य बनो और दूसरों को भी सत्य स्वरुप के प्रति जाग्रत या प्रबुद्ध (enlightened) मनुष्य बनने में सहायता करो ! - 'Be and Make' let this be our motto ! अर्थात तुम स्वयं 'मनुष्य' बनो और दूसरों को भी 'मनुष्य' बनने में सहायता करो। -बनो और बनाओ " यही हमारा आदर्श वाक्य रहे !
“उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत” Arise, awake, and stop not till the Goal is reached ! उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य की प्राप्ति ना हो जाए !
गुरु यमाचार्य द्वारा कथित इस मंत्र के माध्यम से उन्होंने आह्वान किया कि देश की युवा पीढी का अर्थात हरेक उस व्यक्ति का जिसका हृदय जोशीला है, जजबा है देश के लिए कुछ कर गुजरने का, उस व्यक्ति का जो विध्न बाधाओं के समक्ष चट्टान की तरह अडिग खड़ा रह सकने का हौंसला कर सकता है। जो छोटा सा हो पर हौंसला उस अंकुर सा हो जो धरा की कठोर सतह को तोड़कर अपना अस्तित्व लेकर खड़ा हो जाए और सूर्य की तरफ निर्भय होकर देखता रह जाए ।जो विदेशी सभ्यता का भूत सिर से माथे चढ़ कर बोल रहा है, जिस अज्ञानतावश गहरी नींद में सोये हो, उस नींद का त्याग कर जागृत हो जाओ I पहले उठो (कमर कसो) फिर जागो (अपने सत्य स्वरूप -Real "I' के प्रति जागो ! ) जामवंत ने जब हनुमान को उनके सत्य स्वरूप (आत्मा पुरुषोत्तम रामकृष्ण द्वारा चयनित नेता 'विवेकानन्द ज्ञान मन्दिर' प्रचारक ) के सोइ शक्ति की याद दिलाई तो वे असंभव दिखने वाले कार्य को सहजता से कर गए I उन्होंने एक छलांग में सौ योजन समुद्र पर कर दिया I यह भाव है विवेकानन्द का इन शब्दों के पीछे उठो, जागो; कि हे मेरे देश की युवाशक्ति ! अपने समस्त बंधनो के दायरे को तोड़कर उठो अज्ञानतावश पनपे अंधकार रूपी नींद व् आलस का त्याग कर जागो I जो लक्ष्य उनकी सोच में, उनके के दिल में था I वह था भारत के पुनरुत्थान का लक्ष्य , भारत के प्राचीन गौरव को पुनः पाने का लक्ष्य, भारत के सोने की चिड़िया बन जाने का लक्ष्य, विश्वगुरु के रूप में समस्त वसुधावासियों को- सच्चा ज्ञान, अद्वैत ज्ञान देने का लक्ष्य, समस्त वसुधावासियों को एक परिवार की भांति आपस में जोड़ने का लक्ष्य, मानव का मानव के लिए या प्राणी मात्र के लिए प्रेम भरा हृदय पाने का लक्ष्य।]
differentiation # तुम निर्विकल्प समाधि की अवस्था में आँखों को मूँदकर जिस एकमेवाद्वितीय शाश्वत चैतन्य के साथ (ब्रह्म, आत्मा, भगवान या ईश्वर-सच्चिदानन्द , अस्ति-भाति -प्रिय existence -consciousness- bliss के साथ) एकत्व का अनुभव करते हो, तो वियुत्थान की अवस्था ( awakening- अधिष्ठान- स्थिति और वियुत्थान को सम्यक्तया ठीक से जानना- *बुद्ध* शब्द अवस्था वाचक संज्ञा है। Buddha Enlightened-जैसे विवेकानन्द अवस्था वाचक संज्ञा है -किसी व्यक्ति का नाम नहीं, विवेकज-ज्ञान में पहुँचे व्यक्ति की अवस्था है। तो बन्द आँखों से तुम जिस ब्रह्मात्मैक्य बोध की अनुभूति कर रहे थे, और खुली आँखों से तुम जिस किसी 'नाम-रूप' को देख रहे हो , वह 'अस्ति -भाति -प्रिय' के सिवा अन्य कुछ नहीं है ! ध्यान के समय तुम आँखों को मूँद कर जिस इष्टदेव (the Holy Trinity-पवित्र त्रिमूर्ति) को देख रहे थे -ऑंखें खोलकर भी तुम जिस 'जीव, जगत और ईश्वर ' को देख रहे हो, वह भी ब्रह्म ही है !]}
[अद्वैत #स्वामी विवेकानन्द जर्मिनी की कील शहर के यूनिवर्सिटी के संस्कृत प्रोफेसर पॉल डॉयसन के निमंत्रण पर सेवियर दम्पति के साथ नाश्ते के लिए उनके घर गए थे। प्रोफेसर ने अद्वैत वेदान्त पर स्वरचित एक ग्रन्थ- से कुछ अंश पढ़कर स्वामी जी को सुनाने लगे। प्रोफेसर ने कहा - " अद्वैत वेदान्त की मधुर मोहिनी -शक्ति क्षणभर में ही बाह्य जगत को भुला देती है। उसका अध्यन प्रारम्भ करते ही मन एक उच्चतम आध्यात्मिक भवराज्य में चला जाता है। मनुष्य के मस्तिष्क ने सत्य (परम् सत्य) की खोज में रत होकर जिन सब विषयों का आविष्कार किया है , उसमें अद्वैत दर्शन और शांकरभाष्य सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति है। मेरी राय में अद्वैत (वेदान्त) केवल सूक्ष्म दर्शन ही नहीं है, बल्कि यह पूर्णतः नैतिक जीवन व्यतीत करने का प्रेरणाश्रोत है। " And so the Vedanta in its unfalsified form is the strongest support of pure morality, is the greatest consolation in the suffering of life and death. Indians ! Keep to it ." और इसलिए अद्वैत वेदान्त अपने अविकृत रूप में , उच्चतम नैतिकता (pure morality) की सुदृढ़ नींव है, और जीवन में आने वाली दुःख-कष्टों का (उतार-चढ़ाव का) साहस से सामना करने और मृत्यु-भय से मुक्ति के लिए सबसे बड़ा आश्वासन है ! हे भारतवासियो! इसे कभी न छोड़ना ! " [ (विवेकानन्द चरित:5 /आचार्य विवेकानन्द/174 -175)]
Sri Sarada Devi
(1853 - 1920)
Endearingly known as ‘Holy Mother’, Sri Sarada Devi, the spiritual consort of Sri Ramakrishna, was born on 22 December 1853 in a poor Brahmin family in Jayrambati, a village adjoining Kamarpukur in West Bengal. Her father, Ramachandra Mukhopadhyay, was a pious and kind-hearted person, and her mother, Shyama Sundari Devi, was a loving and hard-working woman.
Marriage
As a child Sarada was devoted to God, and spent most of her time helping her mother in various household chores like caring for younger children, looking after cattle and carrying food to her father and others engaged in work in the field. She had no formal schooling, but managed to learn the Bengali alphabet. When she was about six years old, she was married to Sri Ramakrishna, according to the custom prevalent in India in those days. However, after the event, she continued to live with her parents, while Sri Ramakrishna lived a God-intoxicated life at Dakshineshwar.
Visit to Dakshineshwar
At the age of eighteen she walked all the way to Dakshineshwar to meet her husband. Sri Ramakrishna, who had immersed himself in the intense practice of several spiritual disciplines for more than twelve years, had reached the highest state of realization in which he saw God in all beings. He received Sarada Devi with great affection, and allowed her to stay with him. He taught her how to lead a spiritual life while discharging her household duties. They led absolutely pure lives, and Sarada Devi served Sri Ramakrishna as his devoted wife and disciple, while remaining a virgin nun and following the spiritual path.
Life at Dakshineshwar
Sri Ramakrishna looked upon Sarada Devi as a special manifestation of Divine Mother of the universe. In 1872, on the night of the Phala-harini-Kali-puja, he ritualistically worshipped Sarada Devi as the Divine Mother, thereby awakening universal Motherhood latent in her. When disciples began to gather around Sri Ramakrishna, Sarada Devi learned to look upon them as her own children. The room in which she stayed at Dakshineshwar was too small to live in and had hardly any amenities; and on many days she did not get the opportunity of meeting Sri Ramakrishna. But she bore all difficulties silently and lived in contentment and peace, serving the increasing number of devotees who came to see Sri Ramakrishna.
Worship by Sri Ramakrishna
In 1872, his wife Sarada, now nineteen years old, came from the village to meet him. He received her cordially, and taught her how to attend to household duties and at the same time lead an intensely spiritual life. One night he worshipped her as the Divine Mother in his room at the Dakshineswar temple. Although Sarada continued to stay with him, they lived immaculately pure lives, and their marital relationship was purely spiritual. It should be mentioned here that Sri Ramakrishna had been ordained a Sannyasin (Hindu monk), and he observed the basic vows of a monk to perfection. But outwardly he lived like a lay man, humble, loving and with childlike simplicity. During Sri Ramakrishna’s stay at Dakshineswar, Rani Rasmani first acted as his patron. After her death, her son-in-law Mathur Nath Biswas took care of his needs.
Leading the Sangha after the Master’s Passing
After Sri Ramakrishna’s passing away in 1886, Sarada Devi spent some months in pilgrimage, and then went to Kamarpukur where she lived in great privation. Coming to know of this, the disciples of Sri Ramakrishna brought her to Kolkata. This marked a turning point in her life. She now began to accept spiritual seekers as her disciples, and became the open portal to immortality for hundreds of people. Her great universal mother-heart, endowed with boundless love and compassion, embraced all people without any distinction, including many who had lived sinful lives.
When the Western women disciples of Swami Vivekananda came to Kolkata, the Holy Mother accepted them with open arms as her daughters, ignoring the restrictions of the orthodox society of those days. Although she had grown up in a conservative rural society without any access to modern education, she held progressive views, and whole-heartedly supported Swami Vivekananda in his plans for rejuvenation of India and the uplift of the masses and women. She was closely associated with the school for girls started by Sister Nivedita.
She spent her life partly in Kolkata and partly in her native village Jayrambati. During the early years of her stay in Kolkata, her needs were looked after by Swami Yogananda, a disciple of Sri Ramakrishna. In later years her needs were looked after by another disciple of Sri Ramakrishna, Swami Saradananda, who built a new house for her in Kolkata.
Simplicity and Forbearance
Although she was highly venerated for her spiritual status, and literally worshipped as the Divine Mother, she continued to live like a simple village mother, washing clothes, sweeping the floor, bringing water from the pond, dressing vegetables, cooking and serving food. At Jayrambati she lived with her brothers and their families. They gave her endless troubles but, established as she was in the awareness of God and in Divine Motherhood, she always remained calm and self-possessed, showering love and blessings on all who came into contact with her. As Sister Nivedita stated, “Her life was one long stillness of prayer.”
Mother of All
In the history of humanity there has never been another woman who looked upon herself as the Mother of all beings, including animals and birds, and spent her whole life in serving them as her children, undergoing unending sacrifice and self-denial. About her role in the mission of Sri Ramakrishna on earth, she stated: “My son, you know the Master had a maternal attitude (matri-bhava) towards every one. He has left me behind to manifest that Divine Motherhood in the world.”
Ideal Woman
On account of her immaculate purity, extraordinary forbearance, selfless service, unconditional love, wisdom and spiritual illumination, Swami Vivekananda regarded Sri Sarada Devi as the ideal for women in the modern age. He believed that with the advent of Holy Mother, the spiritual awakening of women in modern times had begun.
Last Days
Under the strain of constant physical work and self-denial and repeated attacks of malaria, her health deteriorated in the closing years of her life, and she left the mortal world on 21 July 1920.
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Ramakrishna Advaita Ashram, Varanasi
श्रीमाँ सारदा और श्रीश्रीकाली
अपने पिता के साथ दक्षिणेश्वर जाते समय (मार्च 1872) रास्ते में सारदा को तीव्र ज्वर ( तेज़ बुखार) हो गया और उन्हें राह की एक धर्मशाला में रुकना पड़ा। शारीरिक और मानसिक रूप से थकी वे लगभग अचेतन अवस्था में जब बिस्तर पर लेटी कि तभी उन्होंने देखा कि दैवी सौंदर्य से युक्त एक स्त्री ने उनके कमरे में प्रवेश किया और उनके निकट बैठ गयी। आगंतुक स्त्री का रंग माँ काली के समान ही गहरा काला था। जैसे ही उस स्त्री ने सारदा को सहलाया मानो सारा दर्द और पीड़ा रोम-कूपों से बहकर बाहर निकल गयी। उन्होंने आगंतुक स्त्री से पूछा कि वो कहाँ से आयी हैं ?
- दक्षिणेश्वर से , उत्तर मिला। तब सारदा ने आश्चर्यपूर्वक कहा - सच में ! मैं भी वहाँ जाना चाहती थी, उन्हें देखने, उनकी सेवा करने। पर लगता है दुर्भाग्यवश ऐसा नही हो सकेगा।
- आगंतुक स्त्री : ऐसा मत कहो। तुम निश्चित ही दक्षिणेश्वर जाओगी। तुम स्वस्थ हो जाओगी और उन्हें देखोगी। तुम्हारे लिए ही तो मैंने उन्हें वहाँ रखा है।
- सारदा : क्या यह सच है ? तुम कौन हो ? क्या हमारा कोई सम्बंध है ?
- आगंतुक स्त्री : मैं तुम्हारी बहन हूँ।
- सारदा : ऐसा है ? शायद इसीलिए तुम आयी हो।
- सारदा ने देखा कि उस अजनबी महिला के पैर मिट्टी से सने थे, जैसा कि वह बहुत चलकर आयी हो। और उन्होंने पूछा भी कि किसी ने उन्हें पैर धोने के लिए पानी नही दिया। अजनबी स्त्री ने कहा कि उसे तुरन्त ही जाना होगा और वो अदृश्य हो गयी।
जय श्रीश्रीकाली माई की जय
दक्षिणेश्वर में श्री सारदा मठ (Sri Sarada Math), रामकृष्ण मठ और मिशन (Ramakrishna Math and Mission) से जुड़ी एक महत्वपूर्ण महिला मठवासी संस्था है, जिसकी स्थापना 2 दिसंबर, 1954 को हुई थी, जिसका उद्देश्य रामकृष्ण दर्शन और श्री शारदा देवी के मातृत्व आदर्शों का प्रचार करना, शिक्षा, संस्कृति और परोपकार के माध्यम से सेवा करना है।
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ॐ ईशावास्यमिदँ सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मा गृधः कस्यस्विद्धनम्॥१॥
प्रथम मन्त्र में ही जीवन और जगत को ईश्वर का आवास कहा गया है। ‘यह किसका धन है?’ प्रश्न द्वारा ऋषि ने मनुष्य को सभी सम्पदाओं के अहंकार का त्याग करने का सूत्र दिया है। इससे आगे लम्बी आयु, बन्धनमुक्त कर्म, अनुशासन और शरीर के नश्वर होने का बोध कराया गया है।
यहाँ जो कुछ है, परमात्मा का है, यहाँ जो कुछ भी है, सब ईश्वर का है। हमारा यहाँ कुछ नहीं है,यहाँ इस जगत में सौ वर्ष तक कर्म करते हुए जीने की इच्छा करनी चाहिए-
कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत्ँ समा:।
एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे॥2॥
अविचल परमात्मा एक ही है। वह मन से भी अधिक वेगवान है। वह दूर भी है और निकट भी है। वह जड़-चेतन सभी में सूक्ष्म रूप में स्थित है। जो ऐसा मानता है, वह कभी भ्रमित नहीं होता। वह शोक-मोह से दूर हो जाता है।
परमात्मा सर्वव्यापी है। वह परमात्मा देह-रहित, स्नायु-रहित और छिद्र-रहित है। वह शुद्ध और निष्पाप है। वह सर्वजयी है और स्वयं ही अपने आपको विविध रूपों में अभिव्यक्त करता है। ज्ञान के द्वारा ही उसे जाना जा सकता है। मृत्यु-भय से मुक्ति पाकर उपयुक्त निर्माण कला से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। उस परमात्मा का मुख सोने के चमकदार पात्र से ढका हुआ है-
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" This Advaita was never allowed to come to the people. At first some monks got hold of it and took it to the forests, and so it came to be called the "Forest Philosophy". By the mercy of the Lord, the Buddha came and preached it to the masses, and the whole nation became Buddhists. Long after that, when atheists and agnostics had destroyed the nation again, it was found out that Advaita was the only way to save India from materialism. Thus has Advaita twice saved India from materialism ! " -Swami Vivekananda : (The Absolute and Manifestation/ Volume-2/Jnana-Yoga/page -138)
"अद्वैतवाद का प्रचार साधारण लोगों में कभी होने नहीं दिया गया। संन्यासी लोग ही अरण्य (जंगलों) में उसकी साधना करते थे , इसी कारण वेदान्त का एक नाम 'आरण्यक' ("Forest Philosophy") भी हो गया। अन्त में भगवान की कृपा से बुद्धदेव ने आकर जब सर्वसाधारण के बीच इसका प्रचार किया , तब सारा देश बौद्ध धर्म में दीक्षित हो गया। फिर बहुत समय बाद नास्तिकों (atheists-ईश्वर को न मानने वाले) और अज्ञेयवादियों (agnostics) ने जब सारे देश को ध्वंश करने की चेष्टा की, तब उस भौतिकवाद से भारत की रक्षा करने में पुनः एक बार अद्वैतवाद ही एकमात्र उपाय सिद्ध हुआ। इस प्रकार अद्वैत ने दो बार भौतिवाद से भारत की रक्षाकी है।" - स्वामी विवेकानन्द ('ब्रह्म एवं जगत' : वि ० सा० /खंड-२./पृष्ठ- ९३)
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अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्। उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥
(महोपनिषद्,अध्याय 4, श्लोक 71)
अर्थ - यह अपना बन्धु है और यह अपना बन्धु नहीं है, इस तरह की गणना छोटे चित्त वाले लोग करते हैं। उदार हृदय वाले लोगों की तो (सम्पूर्ण) धरती ही परिवार है।
श्लोक में समझाया गया है कि जो व्यक्ति यह मेरा अपना है , वह पराया है ऐसा विचार रखता है। यह तेरा है , यह उसका है , ऐसी सोच रखने वाले व्यक्ति की सोच उसे बहुत छोटा बना देती है। जो लोग सबके बारे में सोचते है , सबके हित के बारे में सोचते है , उनकी भलाई के बारे में सोचते है। उनका चरित्र परोपकारी होता है , पूरा संसार ही उसका परिवार होता है।
ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः
सर्वे सन्तु निरामयाः ।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु
मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत् ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
ऐसे श्लोकों विचारों को जिस सनातन संस्कृति के अनुयायियों ने अपने जीवन का मूल आदर्श मानते हुए महान देश भारत में सदियों से आनंद प्रेम शांति का जीवन जीते हुए इस विराट महान संस्कार विचार जीवन शैली अपनाने को निरंतर प्रयत्न कर रहा, क्या ऐसे देश ऐसी संस्कृति को पूरे विश्व के साथ संयुक्त राष्ट्र संघ को अपना आदर्श बनाकर मानवता के प्रसार विस्तार संरक्षण संवर्धन को दिशा और गति नहीं देनी चाहिए??
सभी देशवासियों को इस प्राचीन गौरवशाली देश भारत की सभ्यता और संस्कृति का गौरव बोध जबतक न हो तब तक हम अपने श्रेष्ठ मानवीय विचारों संस्कारों के अग्रदूत नहीं बन सकते......
स्वयं एवं स्वयं के गौरव को अपनाएं, प्राचीन मौलिक विचारों से नव भारत बनाएं
विश्व बंधुत्व मानवता का संदेश फैलाएं....
[मित्रता और शत्रुता -दोनों ही मन के ऐसे बंधन/गुलामी है, जो व्यक्ति को उसके सत्य-स्वरुप से , मूल स्वरूप से दूर ले जाते हैं। मित्रता में मनुष्य स्वयं को किसी दूसरे में खो देता है और शत्रुता में वह दूसरे को अपने भीतर ठूँसकर रख लेता है ! सच्चा आध्यात्मिक व्यक्ति किसी के साथ राग या द्वेष नहीं पालता। उसके मन का एक मात्र संकल्प होता है कि वह किसी भी हृदय में पीड़ा का कारण न बने। यथार्थ करुणा का प्रादुर्भाव तभी होता है , जब मनुष्य किसी से कुछ अपेक्षा रखता है, न किसी से विरोध रखता है। (हाथी नारायण -महावत नारायण दोनों का विवेक रखता है !) जब व्यक्ति सबका कल्याण चाहता है , तब वह वास्तव में अपने भीतर की उस निर्मल धारा को पोषित करता है जो समस्त प्राणियों को एक ही चेतना की अभिव्यक्ति मानती है। सबके कल्याण में ही उसका स्वयं का कल्याण भी छुपा होता है। जब मनुष्य किसी से अत्यधिक स्नेह नहीं जोड़ता , तो अपेक्षाओं का विष भी नहीं जन्म लेता , और जब वह किसी से बैर नहीं पालता , तो मन की शांत झील में क्रोध की लहरें नहीं उठतीं। निर्लिप्तता मानवीय संबंधों को शुद्ध करती है। (ट्विंकल तोमर सिंह)]
"देहो देवालयः प्रोक्तः जीवो देवस्सनातनः।
त्यजेद्ज्ञाननिर्माल्यं सोऽहं भावेन पूजयेत् ॥"
( मैत्रेयी उपनिषद)
शरीर एक मंदिर है, और इसमें निवास करने वाला- जीव (आत्मा) ही सनातन (शाश्वत) देवता है, जिसे ज्ञान के प्रकाश से समझना चाहिए और- त्यजेद्ज्ञाननिर्माल्यं , अज्ञानता रूपी निर्माल्य (पूजा के बाद बची हुई वस्तु-अहंकार) का त्याग करके प्रत्येक जीव में (साँप नारायण , हाथी नारायण, महावत नारायण में भी--चोर-पाखण्डी की भी) 'सोऽहं' (मैं ही वह हूँ-आत्म-साक्षात्कार) भाव से प्रत्येक जीव की (यथायोग्य) पूजा करनी चाहिए।
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(श्रीमद्भगवद्गीता शाङ्करभाष्यम् ॥)
॥ उपोद्घातः ॥
नारायणः परोऽव्यक्तात् अण्डमव्यक्तसम्भवम् ।
अण्डस्यान्तस्त्विमे लोकाः सप्तद्वीपा च मेदिनी ॥
अव्यक्त से अर्थात माया से श्री नारायण या आदिपुरुष सर्वथा अतीत है , (इन्द्रियतीत सत्य-अस्पष्ट) है। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड अव्यक्त प्रकृति से उत्पन्न हुआ है। ये भूः , भुवः , स्वः आदि सभी लोक और सात द्वीपों वाली पृथ्वी ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत ही है।
सः भगवान् सृष्ट्वा-इदं जगत्, तस्य च स्थितिं चिकीर्षुः,
मरीचि-आदीन्-अग्रे सृष्ट्वा प्रजापतीन्, प्रवृत्ति-लक्षणं धर्मं
ग्राहयामास वेद-उक्तम् ।
इस जगत को रचकर इसका पालन करने की इच्छा वाले उस भगवान ने पहले मरीचि आदि प्रजापतियों को रचकर उसको वेदोक्त प्रवृत्ति रूप धर्म (कर्मयोग) ग्रहण करवाया।
ततः अन्याण् च सनक-सनन्दन-आदीन् उत्पाद्य,
निवृत्ति-लक्षणं धर्मं ज्ञान-वैराग्य-लक्षणं ग्राहयामास ।
फिर उनसे अलग सनक , सनन्दन , सनातन आदि ऋषियों को उत्पन्न करके उनको ज्ञान और वैराग्य जिसके लक्षण हैं , ऐसे निवृत्ति रूप धर्म (ज्ञानयोग) ग्रहण करवाए।
द्विविधः हि वेदोक्तः धर्मः, प्रवृत्ति-लक्षणः निवृत्ति-लक्षणः च ।
वेदोक्त धर्म दो प्रकार का है - एक प्रवृत्ति रूप है, दूसरा निवृत्ति रूप है।
जगतः स्थिति-कारणं , प्राणिनां साक्षात्-अभ्युदय-निःश्रेयस-हेतुः
यः सः धर्मः ब्राह्मणाद्यैः वर्णिभिः आश्रमिभिः च श्रेयोर्थिभिः
अनुष्ठीयमानः ।
जो जगत की स्थिति का कारण , तथा प्राणियों की उन्नति का और मोक्ष का साक्षात् हेतु है। एवं कल्याणकामी ब्राह्मण आदि वर्णाश्रम अवलम्बियों द्वारा जिसका अनुष्ठान किया जाता है उसका नाम धर्म है।
[द्विविधः हि वेदोक्तः धर्मः, प्रवृत्ति-लक्षणः निवृत्ति-लक्षणः च । जगतः स्थिति-कारणं , प्राणिनां साक्षात्-अभ्युदय-निःश्रेयस-हेतुः यः सः धर्मः ब्राह्मणाद्यैः वर्णिभिः आश्रमिभिः च श्रेयोर्थिभिः अनुष्ठीयमानः। ॥
https://sanskritdocuments.org/doc_giitaa/gItAshAMkarabhAShya.html)]
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दार्शनिक दृष्टि से यह श्लोक अत्यन्त महत्वपूर्ण है । इसमें अद्वैत दर्शन का प्रतिपादन सूत्र के रूप में किया गया है । तथा जीव और ब्रह्म में परस्पर गूढ़ संबंध है । इस दृश्यमान जगत में सत्य क्या है ? मिथ्या क्या है ? इन सृष्टि में अनुस्यूत है - ब्रह्म । संसार का अधिष्ठापन ही ब्रह्म नाम से श्रुतियों द्वारा प्रतिपादित है । जो था । जो है । और जो सदैव रहेगा । वही तो - ब्रह्म है । " सत्य नाम " से ऋषियों मनीषियों द्वारा वही कहा जाता है । यहां मिथ्या शब्द " असत " से भिन्न है ! मिथ्या शब्द यहां प्रतीति होने वाली वस्तु सत्य सी लगती है । जबकि वह प्रतीति क्षण में नहीं । यही मिथ्यात्व है । इसमें संस्कारों तथा उसके परिणाम स्वरूप स्मृति की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । संसार के अस्तित्व को स्वीकार करने पर ही जीव है । संसार की संसार के रूप में प्रतीति के नष्ट होते ही " जीव " का अस्तित्व समाप्त हो जाता है । यह ऐसे ही है । जैसे जागने पर " स्वप्नकाल के द्रष्टा " और " दृश्य " का को लोप हो जाता है । वस्तुत: यह एकत्व और अद्वैत ही परमार्थ है । सत्य का अर्थ है - जिसका तीनों कालों में बोध नहीं होता । अर्थात जो था । जो है । और जो रहेगा । इस दृष्टि से जगत ब्रह्म-सापेक्ष है । ब्रह्म को जगत के होने या न होने से कोई अंतर नहीं पड़ता । जिस प्रकार आभूषण के न रहने पर भी स्वर्ण की सत्ता निरपेक्ष भाव से रहती है । उसी प्रकार सृष्टि से पूर्व भी सत्य था । दूसरे शब्दों में ब्रह्म का अस्तित्व सदैव रहता है ।
सुख और दुःख - के विषय में विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे निश्चित रूप से जीवन में परवशता और आत्मवशता पर निर्भर करता है।
मनुष्य के कल्याण एवं ईश्वरलाभ , आत्मज्ञान या भगवत्प्राप्ति के साधन हेतु अनुकूल परस्थितियों की अपेक्षा प्रतिकूल परिस्थितियाँ अधिक उत्तम सिद्ध होती हैं । अनुकूल परिस्थितियाँ होने पर मनुष्य भौतिकता में फंस जाता है । लेकिन प्रतिकूल परिस्थिति आने पर ऐसी संभावना लगभग नहीं रहती ।
प्रतिकूल परिस्थितियां आने पर मानव को प्रभु का अनुग्रह मानना चाहिए । क्योंकि यह कृपा केवल उन्हीं पर बरसती है । जिन पर उनका विशेष स्नेह होता है । प्रतिकूल परिस्थितियों से घिरने पर व्यक्ति को विशेष सावधानी रखनी पड़ती है । क्योंकि ऐसे समय में सबसे पहले धैर्य, फिर मित्रादि सभी साथ छोड़ने लगते हैं । यदि ऐसी स्थिति में मनुष्य विचलित होने लगे । तो उसका मनोबल टूटने लगेगा । परन्तु यदि आत्मा, ईश्वर प्रभु श्रीरामकृष्णदेव के एकत्व पर विश्वास रखते हुए इनका सामना किया जाए । तो मनुष्य का आत्मिक विकास होगा । आत्मा, ईश्वर, भगवान, ब्रह्म में एकत्वबोध के चिंतन में वृद्धि होगी ।
[Kali is none other than Brahman. That which is called Brahman is really Kali. she is the primal energy .Whem that energy remains inactive , I call it brahman , and when it creates, preserves or destroys , I call it shakti or Kali . What you call Brahman I call Kali ." Sri Ramkrishna ~ जम्मू RKM 7.12.2025/
ठाकुर देव का अद्वैत सिद्धान्त - "काली (ब्रह्म) सत्यं जगत मिथ्या !"
[ (19 अक्टूबर, 1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत-9 ]
श्रीरामकृष्ण - जो ब्रह्म है, वही काली भी हैं । जब निष्क्रिय हैं, तब उन्हें ब्रह्म कहते हैं । जब सृष्टि, स्थिति, प्रलय, यह सब काम करते हैं, तब उन्हें शक्ति कहते हैं। स्थिर (निश्चल-Still) जल से ब्रह्म की उपमा हो सकती है । वही पानी जब हिलता-डुलता है (The same water, moving in waves),तब वह शक्ति की - काली की उपमा है।
MASTER: "That which is Brahman is also Kali, the Mother, the Primal Energy. When inactive It is called Brahman. Again, when creating, preserving, and destroying, It is called Sakti. Still water is an illustration of Brahman. The same water, moving in waves, may be compared to Sakti, Kali.
[শ্রীরামকৃষ্ণ — যিনি ব্রহ্ম, তিনি কালী (মা আদ্যাশক্তি)। যখন নিষ্ক্রিয়, তাঁকে ব্রহ্ম বলে কই। যখন সৃষ্টি, স্থিতি, প্রলয় — এই সব কাজ করেন, তাঁকে শক্তি বলে কই। স্থির জল ব্রহ্মের উপমা। জল হেলচে দুলচে, শক্তি বা কালীর উপমা।
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[ঈশ্বরই বস্তু আর সব অবস্তু। তাঁকে লাভ হলে আবার বোধ হয়, তিনিই কর্তা আমরা অকর্তা। (15 जून ,1884) श्रीरामकृष्ण वचनामृत](6) ⚜️️🔱जीवन का उद्देश्य - कर्म अथवा ईश्वरलाभ ? ⚜️️🔱 " ঈশ্বরই বস্তু আর সব অবস্তু। "एकमात्र ईश्वर वस्तु है, और सब अवस्तु ।God alone is real and all else unreal.
P.M. Modi Wonderful Interview with Rajat Sharma - Sunday 7-12-2025 / Work of Swami Vivekananda and Maharshi Arvind till 2047
[जो 'मैं' न था, तो खुदा था ! डुबोया मुझको होने ने ,
जो 'मैं' (मिथ्या अहंकार-Apparent I) न होता, तो खुदा होता।]
न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता,
डुबोया मुझको होने ने न मैं होता तो क्या होता !
हुआ जब गम से यूँ बेहिश तो गम क्या सर के कटने का,
ना होता गर जुदा तन से तो जहानु पर धरा होता!
हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया, पर याद आता है,
वो हर इक बात पर कहना कि, यूँ होता तो क्या होता !
"मैं दीया हूँ,मेरी दुश्मनी अंधेरे से है।
हवा तो बेवजह ही मेरे ख़िलाफ़ है !
हवा से कह दो- कि खुद को आज़मा के दिखाए;
बहुत चिराग बुझाती है, एक जला के दिखाए ! "
আমার চেতনা চৈতন্য করে দে মা চৈতন্যময়ী /Amar Chetana Chaitanya Kore | Devotional Songs | Pannalal Bhattacharya | Audio
श्रीरामकृष्णवचनामृत : 27 अक्टूबर, 1882 :
प्रसंग - केशव और विजय का मतभेद।
(जटिला -कुटिला को बिना अहं रखे हराये बिना लीला पुष्ट नहीं होती।)
भाटा शुरू हो गया । जहाज कलकत्ते की ओर द्रुतगति से बढ़ रहा है । इसलिए पुल (Howrah Bridge) पार कर कम्पनी के बगीचे (Botanical Garden) की ओर और थोड़ी दूर तक ले जाने के लिए कप्तान को आदेश दिया गया । जहाज कितनी दूर आ पहुँचा है, इसकी अधिकांश लोगों को सुध नहीं है । वे मग्न होकर श्रीरामकृष्ण की बातें सुन रहे हैं । समय कैसे चला जा रहा है, इसका होश नहीं है ।
अब मुरमुरे और नारियल के टुकड़े बाँटे गए । सब ने थोड़ा थोड़ा लेकर खाना शुरू किया । आनन्द की हाट लगी है । केशव ने मुरमुरे आदि लाने की व्यवस्था की थी । ऐसे समय श्रीरामकृष्ण के ध्यान में आया कि विजय और केशव दोनों ही संकुचित होकर बैठे हुए हैं । तब जिस प्रकार दो नादान बच्चों में झगड़ा हो जाने पर कोई बड़ा व्यक्ति समझौता करा देता है, उसी प्रकार श्रीरामकृष्ण उन दोनों के बीच समझौता कराने लगे । ‘सर्वभूतहिते रताः।’
श्रीरामकृष्ण (केशव के प्रति)-अजी ! ये विजय आए हैं । तुम लोगों का झगड़ा-विवाद मानो शिव और राम की लड़ाई है । राम के गुरु शिव हैं । दोनों में युद्ध भी हुआ, फिर सन्धि भी हो गयी । पर शिव के भूतप्रेत और राम के बन्दर ऐसे थे कि उनका झगड़ना किचकिचाना रुकता ही न था । (सब जोर से हँस पड़े ।)
“अपने ही लोग हैं । ऐसा होता ही है । लव-कुश ने भी राम के साथ युद्ध किया था । फिर जानते हो न माँ और बेटी अलग से मंगलवार का व्रत रखती हैं, मानो माँ का मंगल और बेटी का मंगल अलग अलग है । परन्तु वास्तव में तो माँ के मंगल से बेटी का मंगल होता है और बेटी के मंगल से माँ का । इसी तरह तुममें से एक के एक समाज (TMC) है, अब दूसरे को भी एक (CPM) चाहिए । (सब हँसते हैं ।) पर यह सब (M/Fअहं को हटाने-'मनुष्य' बनने के लिए) जरुरी है । तुम कहोगे कि जहाँ भगवान् ने स्वयं लीला की, वहाँ जटिला-कुटिला की क्या जरूरत थी? पर जटिला-कुटिला के सिवा लीला पुष्ट नहीं हो पाती । बिना उनके रंग नहीं चढ़ता । (सब जोर से हँसते हैं ।)
‘रामानुज विशिष्टाद्वैतवादी थे ।’ उनके गुरु थे अद्वैतवादी । आखिर दोनों में अनबन होने लगी । गुरु-शिष्य आपस में एक दूसरे के मत का खण्डन करने लगे । ऐसा हुआ करता है । चाहे जो कुछ हो, फिर भी हैं तो अपने ही ।” सब लोग आनन्दित हैं ।
श्रीरामकृष्ण केशव से कहते हैं, “तुम स्वभाव परख कर शिष्य नहीं बनाते, इसीलिए आपस में इस तरह की फूट हुआ करती है ।”
“सभी मनुष्य दीखने में एक सरीखे हैं, पर हर एक का स्वभाव भिन्न है । किसी के भीतर सत्त्वगुण अधिक है, किसी के भीतर रजोगुण तो किसी के भीतर तमोगुण । गुझियाँ बाहर से एक–सी दिखायी देती हैं पर किसी के भीतर खोया, किसी के भीतर नारियल तो किसी के भीतर उड़द की डाल होती है । (सब हँसते हैं ।)
“मेरा भाव क्या है, जानते हो? मैं खाता, पीता और मजे में रहता हूँ, बाकी की सब माँ ही जाने । तीन बातों से मेरी देह में मानो काँटा चुभ जाता है- गुरु, कर्ता और बाबा ।”
“गुरु एकमात्र सच्चिदानन्द ही है । वे ही सब को शिक्षा देंगे । मेरा सन्तानभाव है । वैसे मनुष्य-गुरु तो लाखों मिलते हैं । सभी गुरु बनना चाहता है । शिष्य कौन बनना चाहता है ?”
“लोकशिक्षा देना बड़ा कठिन है । यदि ईश्वर का साक्षात्कार हो और वे आदेश दें, तो यह सम्भव हो सकता है । नारद, शुकदेव आदि को आदेश हुआ था, शंकराचार्य को आदेश हुआ था । आदेश न मिलने से तुम्हारी बात कौन सुनेगा?
कलकत्ते के लोगों की हुल्लड़बाजी तो जानते ही हो ! जब तक नीचे लकड़ी जलती है तब दूध उफनकर ऊपर आता है । लकड़ी को खींच लेते ही सब कुछ शान्त हो जाता है । कलकत्ते के लोग हुल्लड़बाज (TMC-CPM) हैं ।
अभी एक जगह कुआँ खोद रहे हैं- पानी चाहिए । वहाँ पत्थर निकलने लगे कि खोदना छोड़ दिया ! और एक जगह खोदना शुरू किया । वहाँ रेती निकलने लगी कि वह जगह भी छोड़ दी । फिर दूसरी जगह खोदने ही लगे । यही तो उनका हाल है ।”
‘परन्तु आदेश मिला है यह केवल मन में सोच लेने से नहीं चलता । ईश्वर सचमुच ही दर्शन देते हैं और बातचीत करते हैं । इसी अवस्था में आदेश [चपरास] प्राप्त हो सकता है । इस प्रकार आदेशप्राप्त व्यक्ति की बातों में कितना जोर होता है ! पर्वत भी टल जाता है । सिर्फ लेक्चर से क्या होगा? लोक कुछ दिन सुनेंगे, फिर भूल जाएँगे; उसके अनुसार नहीं चलेंगे ।’
“उस ओर हालदारपुकुर नाम का एक तालाब है । कुछ लोग उसके किनारे रोज सबेरे पाखाना फिरा करते थे । जो लोग सबेरे स्नानादि के लिए आते थे यह देखकर उनके नाम से खूब चिल्लाते, खूब कोसते । पर दूसरे दिन फिर वही हाल ! पाखाना फिरना बन्द नहीं होता था । तब लोगों ने कम्पनी को यह बात जतायी । कम्पनीवालों ने एक चपरासी को भेजा । जब उस चपरासी ने आकर एक कागज चिपका दिया- ‘यहाँ पाखाना न फिरे’- तब सब बन्द हो गया । (सब हँसते हैं)”
“लोकशिक्षा देना हो तो चपरास चाहिए । नहीं तो वह हास्यापद बात हो जाती है । खुद को ही नहीं मिली, दूसरों को देने चला है । एक अन्धा दूसरे अन्धे को राह बताते हुए ले चला है । (हास्य) इससे हित होने के बजाय विपरीत ही होता है । ईश्वरलाभ होने पर अन्तर्दृष्टि प्राप्त होती है, उसी समय किसे कौनसा रोग है यह समझ में आता है, योग्य उपदेश दिया जा सकता है ।”
“आदेश (चपरास) न मिलने पर ‘मैं लोगों को शिक्षा दे रहा हूँ’ इस प्रकार का अहंकार होता है । अहंकार होता है अज्ञान के कारण । अज्ञान से ऐसा लगता है कि मैं कर्ता हूँ । ईश्वर ही कर्ता हैं, ईश्वर सब कुछ कर रहे हैं, मैं कुछ नहीं कर रहा हूँ-यह बोध हो जाने पर तो मनुष्य जीवन्मुक्त हो गया । ‘मैं कर्ता हूँ’ इस बोध के कारण ही इतना दुःख, इतनी अशान्ति पैदा होती है ।
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अद्वैत तत्व श्रीरामकृष्ण देव की प्रार्थना -
ॐ सर्वमंगल मांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके |
शरण्ये त्रयम्बके गौरी नारायणी नमोस्तुते ||
(ॐ सर्व मंगल मांगल्ये= सभी मंगलों में मंगलमयी/ शिवे= कल्याणकारी/ सर्व अर्थ साधिके= सभी मनोरथों को सिद्ध करने वाली/ शरण्ये = शरणागत वत्सला , शरण ग्रहण करने योग्य/ त्रयम्बके= तीन नेत्रों वाली/ गौरी= शिव पत्नी/ नारायणी= विष्णु की पत्नी/ नमः अस्तु ते = तुम्हे नमस्कार हैं। )
सब प्रकार का मंगल प्रदान करने वाली मंगलमयी, कल्याण करने वाली, सब के मनोरथ को पूरा करने वाली, तुम्हीं शरण ग्रहण करने योग्य हो, तीन नेत्रों वाली यानी भूत भविष्य वर्तमान को प्रत्यक्ष देखने वाली हो, तुम्ही शिव पत्नी, तुम्ही नारायण पत्नी अर्थात भगवान के सभी स्वरूपों के साथ तुम्हीं जुडी हो, आप को नमस्कार है।
[साभार ૐ~Sri Lalita Tripura Sundari~ૐ's post]
[This 'world' is not the result of Brahma (the Absolute) but a manifestation ! दूध का दही बन जाने जैसा - जगत ब्रह्म का परिणाम नहीं है, जगत ब्रह्म का विवर्त है ; अर्थात वह सब निरंतर परिवर्तनशील होने के कारण एक भ्रम है या माया है।अर्थात यह 'जगत' ब्रह्म ('परमात्मा') का परिणाम नहीं विवर्त है ! जीवनमुक्त होने के लिए -इस 'ब्रह्म एवं जगत' के इस समीकरण (E=Mc2) को वर्तमान युग के सर्वश्रेष्ठ हिन्दी भाषी अद्वैताचार्य, अद्वैत आश्रम , मायावती के अध्यक्ष, स्वामी शुद्धिदानन्द महाराज जैसे 'ब्रह्मविद गुरु' के मार्गदर्शन में समझना अत्यंत आवश्यक है !
स्वामी विवेकानन्द के सभी अनुयायियों के लिए -इस 'ब्रह्म एवं जगत' के समीकरण को समझना अत्यंत आवश्यक है ! आदिगुरु शंकराचार्य जी का यह कथन कि 'जगत' ब्रह्म (पूर्ण) का परिणाम नहीं विवर्त (भ्रम या आभास) है - अद्वैत वेदांत दर्शन का एक केंद्रीय विचार है। जिसका अर्थ है कि ब्रह्म ही एकमात्र परम सत्य है, जबकि यह दिखने वाला जगत (सृष्टि) उस ब्रह्म की माया या भ्रम है।
- विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्धाटयत " इसे पढने से ऐसा प्रतीत होता है, मानो व्यासदेव हजारों साल पहले जान चुके थे, कि 'नित्य-अनित्य विवेक' ही सभी के ह्रदय में विद्यमान अन्तर्यामी गुरु है ! तथा एक दिन (१२ जनवरी १८६३) को वे स्वयं ही स्वामी विवेकानन्द के रूप में आविर्भूत होंगे; तब उनके मूर्त रूप पर मन को धारण करने से ही ' विवेक-स्रोत ' उदघाटित हो जायेगा ! (विवेक-जीवन ब्लॉग : Monday, January 17, 2011/ विवेकानन्द का दर्शन करने के अभ्यास से - ' विवेक स्रोत ' उदघाटित होता है !)
{ तो निष्कर्ष रूप से ' ब्रह्म और जगत' [सत्यम और मिथ्या या "Equation between The Absolute and Manifestation "(अभिव्यक्ति) 'परमसत्ता और स्वरुप- प्रकाश' या ब्रह्म और शक्ति के बीच समीकरण क्या निकला ? इस 'ब्रह्म और जगत' के बीच समीकरण के बारे में हमारे ऋषि या उपनिषद क्या कहते हैं, यह उन्हीं की वाणी में समझना अत्यंत आवश्यक है।
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
(-वृहदारण्यक उपनिषद/ ईशावास्योपनिषद)
अर्थ : अर्थात वह सच्चिदानंदघन परब्रह्म पुरुषोत्तम परमात्मा सभी प्रकार से सदा सर्वदा परिपूर्ण है। यह जगत भी उस परब्रह्म से पूर्ण ही है, क्योंकि यह पूर्ण उस पूर्ण पुरुषोत्तम (अवतार वरिष्ठ) से ही उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार परब्रह्म की पूर्णता से जगत पूर्ण होने पर भी वह परब्रह्म परिपूर्ण है। उस पूर्ण में से पूर्ण को निकाल देने पर भी वह पूर्ण ही शेष रहता है। [अनंत -अनंत = अनंत / coordinate geometry/अर्थात जगत ब्रह्म का परिणाम नहीं विवर्त है।
यह जगत सत्य जैसा विद्यमान या प्रतीत होते हुए भी ब्रह्म के समान शाश्वत और पूर्ण (The Absolute-परम सत्य) नहीं है। यह जगत-ब्रह्माण्ड एक मिथ्या वस्तु का वास्तविक जैसा अनुभव है, पर अंतिम सत्य नहीं, जैसे रस्सी को साँप समझना। या मृगमरीचिका में जल का एक बून्द भी न होना। अथवा सिनेमा के पर्दे पर चल रहे महाभारत फिल्म के श्रीकृष्ण और अर्जुन को हाथ से पकड़ने की कोशिश !
इस कथन के मुख्य बिन्दु : Key points of this statement:
1. ब्रह्म सत्यं: ब्रह्म ही एकमात्र परम, शाश्वत और अपरिवर्तनीय सत्य है। जगत मिथ्या/विवर्त: जगत सत्य (पूर्ण) नहीं है, बल्कि एक आभास (मिथ्या या विवर्त) है। यह ब्रह्म से उत्पन्न होता है, लेकिन ब्रह्म जैसा पूर्ण और नित्य नहीं है।
2.माया का सिद्धांत: जगत माया के कारण ब्रह्म पर आरोपित होता है। यह दिखता है, महसूस होता है, पर इसकी अपनी स्वतंत्र सत्ता नहीं है; यह ब्रह्म के अधीन है।
3. विवर्त का अर्थ: 'विवर्त' का मतलब होता है जहाँ कोई वस्तु किसी और वस्तु के रूप में दिखाई दे, जबकि वह वास्तव में वह न हो (जैसे सोने के गहने सोने के ही होते हैं, पर दिखते अलग-अलग हैं, वैसे ही जगत ब्रह्म का ही प्रकटीकरण है, पर पूर्ण ब्रह्म नहीं)।
4. निष्कर्ष: यह कथन हमें यह समझने में मदद करता है कि हमारा यह संसार, जिसमें हम रहते हैं, वह अंतिम सत्य नहीं है। यह जगत ईश्वर (आत्मा, ब्रह्म) की ही एक अभिव्यक्ति है, जिसे हम अपनी अज्ञानता (अविद्या-अस्मिता M/F देहाध्यास -राग-द्वेष -अभिनिवेश) के कारण अलग-अलग और 'मिथ्या' (अस्थायी या मायावी) समझते हैं, लेकिन ज्ञान (आत्मज्ञान) होने पर यह बोध होता है कि सब कुछ एक ही परम तत्व (आत्मा, ब्रह्म या ईश्वर) का प्रकटीकरण है ]
[(यह ऐसे ही है । जैसे जागने पर " स्वप्नकाल के द्रष्टा " और " दृश्य " का लोप हो जाता है । इसीलिए इसको मिथ्या कहा जाता है। यह रस्सी को सांप समझने जैसी भ्रांति के समान है, मृगमरीचिका के समान है, जहाँ सत्य से परे कुछ और दिखाई देता है। इसीलिए सन्त तुलसी दास जी कहते हैं -* गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई॥ तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ। बिद्या अपर अबिद्या दोऊ॥2॥ भावार्थ : इंद्रियों के विषयों को और जहाँ तक मन जाता है, हे भाई! उन सबको माया जानना। उसके भी एक विद्या और दूसरी अविद्या, इन दोनों भेदों को तुम सुनो-॥2॥ (अरण्यकाण्ड)]
(जैसे पर्दे पर गंगा नदी बह रही है , किन्तु हम उससे एक ग्लास पानी भी नहीं ले सकते !) (जो स्त्री-पुरुष की भेद-दृष्टि से परे 'मनुष्य (माँ) बनना और बनाना ' चाहते हों, उनके लिए)
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[सम्यक संबुद्ध~बोधिसत्व~भावार्थ विवेचन]
बुद्ध' शब्द का अर्थ~~
*बुद्ध*=बु+अ्द्ध= बु माने बूझ, अ्द्ध माने धारक=बोधियुक्त=बुद्ध।अर्थात गुण-धर्म-सामर्थ्य सूचक बुद्ध शब्द का नाम प्रयोग बोधिसत्व पुदगल के सम्यक संबोधि प्राप्ति के बाद उस सम्बोधि प्राप्त करने वाले पुद्गल के लिए उपयोग किया जाता है।
केंद्र से परिधि तक..परिधि से केंद्र तक..आड़ा तिरछा बारह कोणों से चेतना व महाभूतों के नैसर्गिक व्योहार का बोध..अनुभव.. स्व चित्त मे दर्शन की स्थिति मे प्रतिष्ठित हुए के अर्थ मे *बुद्ध* शब्द है।
सभी कालों परिस्थितियों मेंं यह बोध एक समान है..सम है...विषम नहीं है के अर्थ मे *संबुद्ध* शब्द है।उलट-पुलट कर, खूब गहराई से जान समझ लेने के अर्थ मेंं *सम्यक* शब्द है, अर्थात सम्यक्तया संबोधि ज्ञान के अर्थ मे सम्यक संबुद्ध योग शब्द जुड़ गया, याने *बुद्ध* शब्द अवस्था वाचक संज्ञा है, और सम्यक संबुद्ध शब्द विशेषण युक्त संज्ञा है।
अर्थात मनुष्य के चेतना के उच्चतम विज्ञान व अणु से विभु...भव से विभव..लोक से लोकोत्तर ज्ञान तथा विश्व ब्रह्मांड मेंं वर्तित समस्त मानवी,दैवीय व नैसर्गिक ज्ञानों-विद्माओं का दृष्टा..परिज्ञान मेंं प्रतिष्ठित महा विभूति..।
बुद्ध लोक मेंं अपनी नाना सामर्थ्य..विद्माओं व आचरण के तदनुरूप नाना संज्ञाओं से संबोधित किये जाते हैं। जैसे तथ्यों पर आधारित ज्ञानी के अर्थ मे *तथागत*, लोक दृष्टा होने के अर्थ मेंं *लोकचक्षु*, सब के उद्धारक के अर्थ मे *लोकगुरू*,सभी भव प्रत्ययों को भंग किये हुए के अर्थ मेंं *भगवान*, सर्वग्य के अर्थ मे *लोकविनायक*, परम ज्योतिर्मय के अर्थ मेंं *आदित्यनाथ* आदि-आदि..।
पाली वचनों के अनुसार~~
न मातरा कतम,
न पितरा कतम
विमोक्खन्ति।
एतं बुद्धानं भगवन्तान बोधिया मूले.... पञ्ञत्ति।"
अर्थात~~
न माता ने, न पिता ने यह नाम उनको दिया बल्कि विमोक्ष जो भगवान ने बोधि वृक्ष मूल में ज्ञान प्राप्त पुरुष- होने के कारण कहा गया।
भग्ग रागो भग्ग दोसो, भग्ग मोहो अनासवो।
भग्गास पापका धम्मा,एस भगवा उच्चति।।
अर्थात~~
जिसने राग-द्वैष-मोह की कड़ियाँ भँग कर दी हैं याने जिसका चित्त राग-द्वैष-मोह मल से पूर्ण परिशुद्ध हो गया। जो भवाश्रवों से रहित है।एवं जिसने सभी पाप मय धर्मो को भंग-विनष्ट कर दिया है वह *भगवान* है। इस तरह *बुद्ध भगवान* का निहितार्थ सम्यक्तया निरूपित होता है।
बुद्ध असामान्य मानवी होते है। जैसे मानव इस धरती पर चलते-फिरते साधारण काम-काज करते है और अपने बाल बच्चों को पालते पोसते दिखाई देते है, वैसे बुद्ध नहीं होते है।
हम उन्हें देवता भी नहीं कह सकते, ब्रम्ह अपर ब्रम्ह भी नहीं कह सकते, क्योंकि देवताओं में राग-द्वेष, सुख- विलास होता है। बुद्ध राग-द्वेष और विलासिता से विमुक्त होते है। सम्पूर्ण मानवीय दुर्बलताओं और असंगतियों को समूच्छेद करने और सर्वोत्तम ज्ञान प्राप्ति के कारण बुद्ध को "बुद्ध" ही कह सकते है।
बुद्ध बनने वाली व्यक्ति प्रथम बोधिसत्व के रूप में १० पारमीता पूर्ण करते हैं। पारमिता मतलब पार लगाने वाले मित-ताकत याने भव से पार लगाने व बुद्ध बनने के लिए अतिआवश्यक सभी प्रकार कीत्रमहान सद सामर्थ्य।
कौन सी दस पारमीता?
१) दान
२) शील
३) नैष्क्रम्य
४) प्रज्ञा
५) वीर्य
६) शांती
७) सत्य
८) अधिष्ठान
९) मैत्री
१०) उपेक्षा
बोधिसत्व सिद्धार्थ गौतम सम्यक सम्बोधि प्राप्त करने के बाद बुद्ध हुए, सम्यक सम्बुद्ध हो गये। ज्ञान-प्राप्ति के पूर्व सिद्धार्थ गौतम केवल एक बोधिसत्व थे।
बोधिसत्व का मतलब~~
जो विपुल पुण्यवंत मनुष्य किसी सम्यक संबुद्ध के शरणागत, भविष्य मे स्वयं बुद्ध बनने के लिए अति दृढ़ अधिष्ठान या संकल्प कर लेता है तो वह मनुष्य बुद्ध बनने के पूर्व सुदीर्घ काल तक नाना योनियों मेंं जन्म लेते हुए सभी पारमिताओं को विपुल.. सुदृढ़ बनाने मे ही लगा रहता है, तदनुसार वह मनुष्य अर्हिनिश प्रयत्नशील रहता है। बुद्ध बनने के पूर्व तक उसे 'बोधिसत्व' कहते हैं।
वह बोधिसत्व दसों पारमिताओं की दसों भूमियों व उप पारमिताओं की विपुल सामर्थ्य को अपने कठोरतम सद पुरुषार्थों से प्राप्त करता है।
१) एक जन्म में वह 'मुदिता' प्राप्त करता है। जैसे सुनार सोने-चांदी के मैल को दूर करता है। उसी प्रकार एक 'बोधिसत्त्व' अपने चित्त के मैल को दूर करके इस बात को स्पष्ट रूप से देखता है कि जो आदमी चाहे पहले प्रमादी रहा हो, लेकिन यदि वह प्रमाद का त्याग कर देता है,तो वह बादल-मुक्त चन्द्रमा की तरह इस लोक को प्रकाशित करता है। जब उसे इस बात का बोध होता है तो उस के मन में मुदिता उत्पन्न होती है और उसके मन में सभी प्राणियों का कल्याण करने की उत्कट उत्पन्न होती है।
२) अपने दूसरे जन्म में वह 'विमला-भूमि' को प्राप्त होता है। इस समय बोधिसत्त्व काम-चेतना से सर्वथा मुक्त हुआ रहता है। वह कारुणिक होता है, सब के प्रति कारुणिक। न वह किसी के अवगुण को बढ़ावा देता है और न किसी के गुण को घटाता है।
३) अपने तीसरे जीवन में वह प्रभकारी-भूमि प्राप्त करता है। इस समय बोधिसत्त्व की प्रज्ञा दर्पण के समान स्वच्छ हो जाती है। वह अनात्म और अनित्यता के सिद्धांत को पूरी तरह से समझ लेता है और हॄदयंगम कर लेता है। उसकी एक मात्र आकांक्षा ऊँची से ऊँची प्रज्ञा प्राप्त करने की होती है और इसके लिये वह बड़े से बड़े त्याग करने के लिये तैयार रहता।
४) अपने चौथे जीवन में वह अर्चिष्मती-भूमि को प्राप्त करता है। इस जन्म में बोधिसत्त्व अपना सारा ध्यान अष्टांगिक मार्ग पर केन्द्रित करता है तथा चार सम्यक व्यायामों पर केन्द्रित करता है, चार प्रयत्नों पर केन्द्रित करता है तथा चार प्रकार के ऋद्धि-बल पर केन्द्रित करता है और पांच प्रकार के शील पर केन्द्रित करता है।
५) पांचवें जीवन में वह सुदुर्जया भूमि को प्राप्त करता है। वह सापेक्ष तथा निरपेक्ष के बीच के सम्बन्ध को अच्छी तरह हॄदयंगम कर लेता है।
६) अपने छठे जीवन में वह अभीमुखी-भूमि प्राप्त होता है। अब इस अवस्था में चीजों के विकास, उनके कारण बारह निदानों को हॄदयंगम करने की बोधिसत्त्व की पूरी पूरी तैयारी हो चुकी है, और वह 'अभिमुखी' नामक विद्या उसके मन में सभी अविद्या-ग्रस्त प्राणियों के लिये असीम करुणा का संचार कर देती है।
७) अपने सातवे जीवन में बोधिसत्त्व दुरंगमा-भूमि प्राप्त करता है। अब बोधिसत्त्व देश, काल के बन्धनों से परे है, वह अनन्त के साथ एक हो गया है, किन्तु अभी भी वह सभी प्राणियों के प्रति करुणा का भाव रखने के कारण देह-धारी है। वह दूसरों से इसी बात में पृथक है कि अब उसे भव-तृष्णा उसी प्रकार स्पर्श नही करती जैसे पानी किसी कमल को। वह तृष्णा-मुक्त होता है, वह दान-शील होता है, वह क्षमा-शील होता है, वह कुशल होता है, वह वीर्यवान होता है, वह शान्त होता है, वह बुद्धिमान होता है तथा वह प्रज्ञावान होता है।
अपने इस जीवन में वह धर्म का जानकार होता है लेकिन लोगों के सामने वह उसे इस ढंग से रखता है कि उनकी समझ में आ जाय। वह जानता है कि उसे कुशल तथा क्षमाशील होना चाहिए। दूसरे आदमी उसके साथ कुछ भी व्यवहार करें वह उद्विग्नता-रहित होकर उसे सह लेता है क्योंकि वह जानता है कि अज्ञान के कारण ही वह उसके मंशा को ठीक-ठीक नहीं समझ पा रहे हैं। इसके साथ-साथ वह दूसरों का भला करने के अपने प्रयास में तनिक भी शिथिलता नहीं आने देता, और न वह अपने चित्त को प्रज्ञा से इधर-उधर भटकने देता है; इसलिये इस पर कितनी भी विपत्तियां आयें वे उसे सुपथ से कभी नहीं हटा सकती।
८) अपने आठवें जीवन में वह 'अचल' हो जाता है। 'अचल' अवस्था में बोधिसत्त्व कोई प्रयास नहीं करता। वह कृत-कृत्य हो जाता है। उससे जो भी कुशल -कर्म होते हैं वे सब अनायास होते हैं। जो कुछ भी वह करता है उसमें सफल होता है।
९) अपने नौवें जीवन में वह साधुमती-भूमि प्राप्त होता जाता है। जिसने तमाम धर्मों को या पद्धतियों को जीत लिया है अथवा उनके भीतर प्रवेश पा लिया है, सब दिशाओं को जीत लिया है, समय की सीमाओं को लांघ गया है, वही 'साधु मति' अवस्था प्राप्त कहलाता है।
१०) अपने दसवें जीवन में बोधिसत्त्व 'धर्म-मेधा' बन जाता है। उसे 'बुद्ध' की दिव्य-दृष्टि प्राप्त हो जाती है।
बुद्ध होने की अवस्था के लिए आवश्यक इन दस बलों (भूमियों) को बोधिसत्त्व प्राप्त करता है।
एक अवस्था से दूसरी अवस्था को प्राप्त होने पर बोधिसत्त्व को न केवल इन दस भूमियों को प्राप्त करना होता है बल्कि उसे दस पारमिताओं को भी पूर्णता को पहुंचाना होता है।
एक जन्म में एक परमिता की पूर्ति करनी होती है। पारमिताओं की पूर्ति क्रमशः करनी होती है। एक जीवन में एक पारमिता कि पूर्ति करनी होती है, ऐसा नहीं कि थोड़ी एक, थोड़ी दूसरी।
जब दोनों तरह से वह समर्थ सिद्ध होता है तभी एक बोधिसत्त्व बुद्ध बनता है। बोधिसत्त्व के जीवन की पराकाष्ठा ही 'बुद्ध' बनना है।
जातकों का सिद्धांत अथवा बोधिसत्त्व के अनेक जन्मों का सिद्धांत ब्राह्मणों के अवतारवाद के सिद्धांत से सर्वथा प्रतिकूल है अर्थात ईश्वर के अवतार धारण करने के सिद्धांत से। ब्राह्मण वाद शास्वत वाद यानी आत्मा का नित्य होना पर आधारित है। लेकिन बुद्ध ने प्रतिपादित किया कि जगत में कुछ भी शास्वत नहीं। सभी पदार्थ या वस्तु् विचार आदि अनित्य है, परिवर्तनशील है। बुद्ध ने संतति वाद का सिद्धांत प्रतिपादित किया। यहां संसरण मन का, चित्त का होता है। च्युत चित्त जब प्रतिसंधि में पडता है यानी नया विज्ञान उत्पन्न होता है। नया विज्ञान उस च्युत चित्त से उत्पन्न हुआ है इस लिए उसको वहीं माना जाता है क्योंकि च्युति के समय जो गुणधर्म होते है वहीं गुणधर्म लेकर नया चित्त उत्पन्न होता है। अर्थात "वही" नहीं है लेकिन "वही" में से उत्पन्न हुआ इस लिए "वही" है। इसे सिलसिला कहते है, संसरण कहते है। इस मायने में बोधिसत्व बुद्ध बनने के लिए पारमीता पूर्ण करने के लिए जन्म के बाद जन्म ग्रहण करते है।
जातक कथाओं का आधार है कि बुद्ध के व्यक्तित्व में गुणों की पराकाष्ठा का समावेश हुआ है।
अवतार वाद के अनुसार भगवान को अपने अस्तित्व में निर्मल होने की आवश्यकता नहीं। ब्राह्मणी अवतारवाद का ब्राह्मणी-सिद्धांत यही कहता है कि ईश्वरावतार चाहे अपने आचरण में अपवित्र और अनैतिक ही क्यों न हो, किन्तु वह अपने अनुयायियों की-अपने-भक्तों की-रक्षा करता है।
बुद्ध का आविर्भाव मनुष्य से क्रमशः भगवान बनने का नैसर्गिक तथ्य है, यह अन्य धर्मों के अवतार वाद के सिद्धांत से परे है। अर्थात बुद्ध कोई अवतारी भगवान नहीं हैं। गौतमबुद्ध बनने से पूर्व बोधिसत्त्व के लिए दस जन्मों तक श्रेष्ठतम जीवन की शर्त और किसी धर्म में भी नहीं है। यह अनुपम है। कोई भी दूसरा धर्म अपने संस्थापक के लिए इस प्रकार की परीक्षा में उत्तीर्ण होना आवश्यक नहीं ठहरता।
जो व्यक्ति बुद्ध होता है उस में दस गुण होते हैं। इसलिए, बुद्ध को दसबल भी कहा जाता है।
तथागत बुद्ध को अनेक नाम से संबोधित किया गया है। इन में एक नाम है दसबल।
गुजरात की धरती भी बुद्ध की वाणी से पल्लवित है। देवकी मोरी में बुद्ध विहार की खुदाई में मिले पुरातत्व साक्ष्य में बुद्ध के धातु के साथ दसबल का उल्लेख है।
जैसे~
"दशबलशरीरनिलयशशुभशैलमय: स्वयं वराहेण।
कुट्टिमकतो कृतोये समुदगकस्सेन पूत्रेण ।।"
अर्थात~
दसबल के शरीर का यह शुभपाषाण का निवास स्थान स्वयं सेन पुत्र वराहे कुट्टिमठ में रखा ।
सम्यक सम्बुद्ध के दस अति विशेष बल है~
१) उचित को उचित और अनुचित को अनुचित के तौर पर तथ्यों सहित सम्यक्तया ठीक से जानना।
२) भूत, भविष्य, वर्तमान के किए हुए कर्मों के विपाक को स्थान, हेतुओं और कारणों के साथ सम्यक्तया ठीक से जानना।
३) सर्वग्य गामिनी-भवभय दुःख विमोचिनी प्रतिपदा को सम्यक्तया ठीक से जानना।
४) अनेकों देव लोकों व ब्रह्मांडों तथा. नाना धातु वाले लोको को सम्यक्तया ठीक से जानना।
५) नाना कर्माधीन नाना योनियों वाले प्राणीयों को सम्यक्तया ठीक से जानना।
६) दूसरे प्राणियों की इन्द्रियों की प्रबलता और दुर्बलता व चित्त दशा को सम्यक्तया ठीक से जानना।
७) ध्यान,विमोक्ष, समाधि,समापत्ति के मल,निर्मलीकरण, अधिष्ठान-स्थिति और वियुत्थान को सम्यक्तया ठीक से जानना।
८) स्वयं व अन्य सभी प्राँणियों के पूर्व नाना जन्मों की बातों को हेतु-प्रत्ययों सहित सम्यक्तया ठीक से जानना।
९) अलौकिक विशुद्ध, दिव्यचक्षु से प्राणियों को उत्पन्न होते,मरते, स्वर्ग/नाना देव लोकों में जन्मते मरते हुए सम्यक्तया देखना।
१०) आश्रव रहित चित्त की विमुक्ति और प्रज्ञा की विमुक्ति का साक्षात्कार।
'बुद्ध' कोई व्यक्ति का नाम नहीं है। (जैसे स्वामी विवेकानन्द कोई व्यक्ति का नाम नहीं है !)कोई भी व्यक्ति बुद्ध गुणों की प्राप्ति करता है वह बुद्ध होता है। बौद्ध साहित्य में मुख्यत: जहां 'बुद्ध' शब्द को प्रयोग हुआ है, वह गौतमबुद्ध के संदर्भ में उपयोग किया है। इसलिए, सामान्यतः बुद्ध का अर्थ गौतमबुद्ध करते हैं। वास्तव में बुद्ध शब्द अद्वितीय महा विशेषण है।
- आचार्य
साभार /https://www.facebook.com/groups/419085929393280/posts/1226373031997895/
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" हरि ॐ तत्सत् ,हरि ॐ तत्सत्, हरि ॐ तत्सत् !"
महामंत्र है तू जपा कर इसी को, महामंत्र है तू जपा कर इसी को॥
हरि ॐ तत्सत् हरि ॐ तत्सत्, हरि ॐ तत्सत् हरि ॐ तत्सत्।
दुष्टों ने लोहे का खम्भा रचा था, तो निर्दोष प्रह्लाद क्यों बचा था।
विनय एक स्वर से करी थी उसी ने॥
हरि ॐ तत्सत् हरि ॐ तत्सत्, हरि ॐ तत्सत् हरि ॐ तत्सत्।
महामंत्र है तू जपा कर इसी को, महामंत्र है तू जपा कर इसी को॥
सभा में खड़ी द्रौपदी रो रही थी, लज्जा के आँसुओं से मुख धो रही थी।
बढ़ा चीर उसमें यही रंग रंगा था॥
हरि ॐ तत्सत् हरि ॐ तत्सत्, हरि ॐ तत्सत् हरि ॐ तत्सत्।
महामंत्र है तू जपा कर इसी को, महामंत्र है तू जपा कर इसी को॥
लगी आग लंका में हलचल मचा था, तो घर फिर विभीषण का कैसे बचा था।
लिखा था यही मंत्र कुटिया में उसके॥
हरि ॐ तत्सत् हरि ॐ तत्सत्, हरि ॐ तत्सत् हरि ॐ तत्सत्।
महामंत्र है तू जपा कर इसी को, महामंत्र है तू जपा कर इसी को॥
हलाहल का मीरा ने प्याला पिया था, तो विष से वो अमृत कैसे हुआ था।
दीवानी भी मीरा इसी नाम की थी॥
हरि ॐ तत्सत् हरि ॐ तत्सत्, हरि ॐ तत्सत् हरि ॐ तत्सत्।
महामंत्र है तू जपा कर इसी को, महामंत्र है तू जपा कर इसी को॥
कहो नाथ शबरी के घर कैसे आये, आये तो फिर बेर जूठे क्यों खाये।
जबाँ में यही था हृदय में यही था॥
हरि ॐ तत्सत् हरि ॐ तत्सत्, हरि ॐ तत्सत् हरि ॐ तत्सत्।
महामंत्र है तू जपा कर इसी को, महामंत्र है तू जपा कर इसी को॥
हरि ॐ की एक माला बनाकर, जपो रात दिन अपने चित्त को लगाकर।
करो साधना हर समय तुम इसी की॥
हरि ॐ तत्सत् हरि ॐ तत्सत्, हरि ॐ तत्सत् हरि ॐ तत्सत्।
महामंत्र है तू जपा कर इसी को, महामंत्र है तू जपा कर इसी को॥
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अपने तीनों पुत्रों को मदालसा ने यही सिखाया। उन्हें नश्वर शरीर व भौतिक सुखों से मोह नहीं करने की शिक्षा दी। उन्होंने बताया कि विद्वान वही है जो सुखों को भी दुख समझकर जीवनयापन करें। उनके तीन पुत्र हुए। बड़े का नाम विक्रांत, दूसरे का नाम सुबाहु और तीसरे का नाम शत्रुमर्दन था। मदालसा ने उन्हें ब्रह्मज्ञान की शिक्षा दी। अपने लड़के को पालने में रख कर, झुलाते झुलाते यह लोरी गा कर सुनाती थीं-
पंचात्मकम देहमिदं न तेsस्ति,
रानी मदालसा ने अपने चौथे पुत्र नाम अलर्क (पगला कुत्ता ) रखा। मदालसा की शिक्षा से वह बहुत ही शूरवीर, पराक्रमी राजा हुआ। कुछ समय बाद राजा ऋतुध्वज अपनी पत्नी मदालसा के साथ अलर्क को राज्य सौंपकर जंगल में तपस्या करने चले गए। हालांकि राजा के कहने पर चौथे पुत्र को धर्म, अर्थ और काम शास्त्रों की भी शिक्षा दी। लेकिन तपस्या के लिए वन में जाते समय उसे भी यही उपदेश दिया कि आत्मा निराकार है। अंतत: मां की दी हुई यही शिक्षा पाकर चौथे पुत्र को भी आत्मज्ञान की प्राप्ति हुई कि तू शुद्ध आत्मा है, तेरा कोई नाम नहीं है। इस प्रकार यह रानी मदालसा की ही शिक्षा थी कि जिससे सुबाहु, विक्रांत और शत्रुमर्दन जैसे ब्रह्मज्ञानी और अलर्क जैसे प्रतापी राजा हुए। मदालसा भारत की एक गौरवमयी माँ थीं।
२३ दिसंबर १९०० को श्रीमती मृणालिनी बसु को लिखित एक पत्र में कहते हैं -" विशालकाय रेल के इंजन को दूर से आते देखकर, नन्हा सा कीड़ा अपने जीवन की रक्षा के लिये रेल की पटरी से हट गया- क्योंकि वह बुद्धिमान है ? मशीन में इच्छाशक्ति का कोई प्रकाश नहीं है। यन्त्र कभी नियम को उल्लंघन करने की कोई इच्छा नहीं रखता। कीड़ा नियम का विरोध करना चाहता (स्वयं को डी -हिप्नोटाइज्ड करना चाहता है), और नियम के विरुद्ध जाता है, चाहे उस प्रयत्न में वह सिद्धि लाभ करे या असिद्धि; इसलिए वह बुद्धिमान है। जिस परिमाण में इच्छाशक्ति के प्रकट होने में सफलता होती है, उसी अंश में सुख अधिक होता है और जीव उतना ही ऊँचा होता है। परमात्मा की इच्छाशक्ति पूर्ण रूप से सफल होती है इसलिए वह उच्चतम है। जिस संयम के द्वारा इच्छाशक्ति का प्रवाह और विकास वश में लाया जाता है और वह फलदायक होता है, वह शिक्षा कहलाती है। " २९ अक्टूबर १८९६ को लन्दन में अपरोक्षानुभूति (कठोपनिषद) पर व्याख्यान देते हुए कहते हैं -यदि मुझे फिर से अपनी शिक्षा आरम्भ करनी हो और इसमें मेरा वश चले, तो मैं तथ्यों का अध्ययन कदापि न करूँ। मैं मन की एकाग्रता और अनासक्ति का सामर्थ्य बढ़ाता और उपकरण के तैयार होने पर इच्छानुसार तथ्यों का संकलन करता। " (4.108)
देव सभ्यता के प्रलय के बाद नए जीवन की उधेड़-बुन में लगे मनु के जीवन में श्रद्धा और इड़ा नामक दो स्त्रियाँ आती हैं। मनु अर्थात् मन के दोनों पक्ष हृदय और मस्तिष्क का संबंध क्रमश: श्रद्धा और इड़ा (मस्तिष्क में अवस्थित इन्द्रिय-केन्द्र) से भी सरलता से लगाया जाता है। इड़ा के संबंध में शतपथ में कहा गया है कि उसकी उत्पत्ति या पुष्टि पाक यज्ञ से हुई और उस पूर्णयोषिता को देखकर मनु ने पूछा कि ‘‘तुम कौन हो ?’’ इड़ा ने कहा, ‘तुम्हारी दुहिता हूं।’ मनु ने पूछा कि ‘मेरी दुहिता कैसे ?’ उसने कहा, ‘तुम्हारे दही, घी इत्यादि के हवियों से ही मेरा पोषण हुआ है।’ ‘तां ह’ मनुरुवाच-‘का असि’ इति, ‘तव दुहिता’ इति। ‘कथं भगवति ? मम दुहिता’ इति। (शतपथ 6 प्र.3 ब्रा.) श्रद्धा मनु को अहिंसक तथा प्रकृति प्रेमी बनाती है, जबकि इड़ा उसे घोर भौतिकतावाद में उलझा देती है और एतमाम लिप्साओं को ही मनु जीवन का उद्देश्य समझने लग जाता है। फिर एक दिन ऐसा आता है, जब उसे अपनी तमाम गलतियों का अहसास होता है और उसके बुरे समय में श्रद्धा उसकी रक्षा करती है। श्रद्धा जो कि अहिंसा, सात्विकता और प्रकृति प्रेम की परिचायक है। इड़ा को मेघसवाहिनी नाड़ी भी कहा गया है। ऋग्वेद में इड़ा को धी, बुद्धि का साधन करने वाली; मनुष्य को चेतना प्रदान करने वाली कहा है। इड़ा के लिए मनु को अत्यधिक आकर्षण हुआ और श्रद्धा से वे कुछ खिंचे।
यह इड़ा और श्रद्धा का एक तरह का बहनापे का भाव है। तभी अपनी संतान को इड़ा के भरोसे छोड़ कर वह (श्रद्धा) मनु की खोज में चल देती है। वह उसे चिर चढी कहती अवश्य है पर इड़ा के प्रति किसी विश्वास के कारण ही अपने पुत्र को उसके हवाले भी कर पाती है। यहाँ इस बात पर ग़ौर करना चाहिए कि अंत में जब इड़ा उस स्थान पर जाती है जहां श्रद्धा और मनु है , तब भी मनु के प्रति किए गए व्यवहार के लिए वह शर्मिन्दा नहीं है पर जहाँ मानव श्रद्धा के अंक में समाता है वहीं इड़ा श्रद्धा के चरणों में यह कहकर गिरती है कि उससे मिल कर वह कितनी कृतार्थ हुई है। श्रद्धा के प्रति कृतार्थता का बोध और अपने बचपने के प्रति सजगता तथा उसका श्रेय श्रद्धा को देना – एक अद्भुत बहनापे का बोध प्रकट करता है। अकेलेपन की चिंता और देव-सृष्टि के विलास की स्मृतियां मनु की बेचैनी का मुख्य कारण है। 'श्रद्धा' के द्वारा किया गया निम्नोक्त प्रश्न, 'मनु' की भीरुता के कारण ही व्याख्या चाहता है-
' यदि वह केवल थोथी बात हो, तब तो उसका कुछ भी मूल्य नहीं। हम जानते हैं कि यह अवस्था ऋषि-मुनियों को उपलब्ध हुई थी, और उसी पद्धति से अनुसरण करने वाले सत्यार्थी को आज भी होती है। उस इन्द्रियातीत सत्य कि उपलब्धी करने के लिये वेदों में तीन उपाय बतलाये गये है- श्रवण, मनन और निदिध्यासन. इस आत्म-तत्व के विषय में पहले श्रवण करना होगा। श्रवण करने के बाद इस विषय पर विचार करना होगा- आँखें मूंदकर विश्वास न कर, अच्छी तरह तर्क की कसौटी पर कस कर, समझ-बूझकर उस पर विश्वास करना होगा। इस प्रकार आपने सत्य-स्वरुप पर विचार करके उसके निरन्तर ध्यान में नियुक्त होना होगा, तब ( मृत्यु का सामना करते ही ) उसका साक्षात्कार होगा। यह प्रत्यक्षानुभूति ही यथार्थ धर्म है। केवल किसी मतवाद को स्वीकार कर लेना धर्म नहीं है। हम तो कहते हैं यह समाधी या ज्ञानातीत अवस्था ही धर्म है ! ' (10 /387)
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