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रविवार, 21 दिसंबर 2025

⚜️️🔱चिद्रूप बुद्धि बनाम सामान्य बुद्धि⚜️️🔱🌹अष्टावक्र गीता‎🌹 अध्याय-11 / बुद्धि (चिद्रूप) ⚜️️🔱

 "जैसी मति वैसी गति" -या मति सा गतिर्भवेत !

   खुद से प्रश्न करे ! अपनी बुद्धि से क्या तुम मनुष्य हो ? जैसी मति वैसी गति ! या मति सा गतिर्भवेत ! अपनी बुद्धि से क्या हम, तुम, हम सभी 'मनुष्य' हैं ? तो स्वदेश मंत्र में स्वामी विवेकानन्द यह प्रार्थना क्यों करते हैं - "माँ मुझे मनुष्य बना दो !" पशु बँधा हुआ है -क्योंकि वह अपने को केवल देह समझता है !     

अपनी बुद्धि से क्या तुम मुक्त हो ? जैसी मति वैसी गति ! या मति सा गतिर्भवेत ! मति (बुद्धि) के अनुसार ही भव चक्र चलता है। 'बुद्धिनाशात् प्रणश्यति' अर्थात यदि आपकी 'नित्य-अनित्य विवेक सम्पन्न बुद्धि' का नाश हो गया - आप जीवनमुक्ति का आनन्द नहीं ले सकोगे। जो कुछ होना है -'Be and Make' वो बुद्धि में होना है। बुद्धि में मुक्त हो गए तो मुक्त हो गए। आत्मा तो कहते  हैं सदा मुक्त है , पर क्या तुम्हारी बुद्धि मुक्त है ? तुम्हारी बुद्धि में ऐसा लगता है कि - हम मुक्त हैं ! अब मति/बुद्धि  कल्पना नहीं है। मति इमेजिनेशन नहीं है। लेकिन, स्वामी विवेकानन्द (या सद्गुरु) की कृपा से जिस व्यक्ति की 'बुद्धि' में नित्य-अनित्य विवेक जाग्रत हो जाता है , वह क्रमशः अपने सत्यस्वरूप में प्रतिष्ठित रहकर जीवन्मुक्त हो जाता है।  

   'अब तुम पैदा हुए हो !' यह कोई 'तुम' कल्पना कर रहे हो क्या ? हो रही है। अभी तक आप अपनी मति / बुद्धि के अनुसार पैदा हुए हो। अपनी मति में कर्ता हो , अपनी मति में अधूरे हो? आदम हो ? हव्वा हो ? अपनी मति में मुक्त नहीं हो। आप मुक्त नहीं हो। यह आपकी मति है , या मेरी ? और जब मुक्त होंगे -गुरु की मति से ? हमारी मति में तो तुम मुक्त हो। अपनी मति बताओ। मेरी मति में तुम मुक्त होभगवान की मति में अर्जुन ब्रह्म ही है। लेकिन अर्जुन अभी ब्रह्म नहीं है। अर्जुन अपनी मति में अर्जुन है , आदमी है, जीव है - आदम है या हव्वा है ? अर्जुन जीव है , कर्ता है ! अर्जुन अपनी मति में मुक्त नहीं है। 'मनुष्य' (नित्यानित्य-विवेक सम्पन्न मनुष्य बनना और बनाना चाहते हो तो पहले अपनी बुद्धि को चिद्रूप बनाना होगा (पारस से छुआ कर सोना बना लेना होगा ! 

नाहं देहो न मे देहो

बोधोऽहमिति निश्चयी।

कैवल्यं इव संप्राप्तो

न स्मरत्यकृतं कृतम्॥११- ६॥

अष्टावक्र कहते हैं कि

न मैं यह शरीर हूँ और न यह शरीर मेरा है, मैं ज्ञानस्वरुप हूँ (I am Awareness itself) ! [आदम -हव्वा का देह शाश्वत चैतन्य का परिणाम नहीं -विवर्त है, 'मैं' यानि मेरा 'Apparent I' M/F में अहंकर्ता भाव रखकर स्वयं को 'लड़का/लड़की शरीर में पैदा होने वाला' समझना चेतन का परिणाम नहीं -विवर्त है।], ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला जीवन मुक्ति को प्राप्त करता है। वह किये हुए (भूतकाल) और न किये हुए (भविष्य के) कर्मों का स्मरण नहीं करता है॥६॥

Neither I am this body  , nor this body is mine. I am pure knowledge. One who knows it with definiteness gets liberated in this life. He neither remembers (acts done in) past nor (worries of) future.॥6॥

( I am not the body, nor is the body my possession—I am Awareness itself. One who realizes this for certain has no memory of things done or left undone. There is only the Absolute. 

[जीव, जगत और ईश्वर का अद्वैत है ! without manifestation? जीव (अर्जुन) -जगत (कौरव-पाण्डव) के बिना ब्रह्म किसको बतायेगा कि वही भगवान श्रीकृष्ण पुरुषोत्तम है?] 

🌹अष्टावक्र गीता‎🌹

अध्याय-11 / बुद्धि (चिद्रूप)

साभार [https://www.facebook.com/enlightenedmasters1] 

'चिद्रूप बुद्धि' (Chidroop Buddhi ठाकुरदेव की बुद्धि ?) का अर्थ है चेतना-स्वरूप, दिव्य और शुद्ध बुद्धि, जो आत्म-ज्ञान और परम सत्य को जानने वाली बुद्धि है।  जो सांसारिक इच्छाओं और दुखों से परे होती है, और अष्टावक्र गीता  में इसका वर्णन मिलता है। जहाँ यह मन-बुद्धि के निम्न स्तरों से ऊपर उठकर परमात्मा के स्वरूप (सत्, चित्, आनंद) को समझने की अवस्था है। यह वह बुद्धि है जो 'मैं जड़ शरीर नहीं, बल्कि चैतन्य बोध हूँ' का निश्चय करती है और सुख-दुःख में सम रहती है। 

चिद्रूप बुद्धि की विशेषताएँ:

>>आत्म-ज्ञान: यह जानने वाली बुद्धि कि आत्मा ही परम सत्य है और शरीर-मन उसका माध्यम मात्र हैं (बोधोऽहमिति)।

>>अनासक्ति: यह सुख-दुःख, जन्म-मृत्यु को भाग्य का खेल मानकर उनसे लिप्त नहीं होती, क्योंकि वह फल की इच्छा नहीं करती (साध्यादर्शी निरायासः)।

>>शांति और संतुष्टि: चिंता और अपेक्षाओं से मुक्त होकर शांत और संतुष्ट रहती है (चिन्तया जायते दुःखं नान्यथेहेति निश्चयी)।

>>स्वभाव: यह कोई कृत्य नहीं, बल्कि एक स्वभाव है, जो अपेक्षाएँ न होने पर स्वतः प्रकट होता है (क्षमा का भाव)।

>>सच्चिदानन्द परमात्मा का स्वरूप: यह सद्रूप (सत्), चिद्रूप (चेतना) और सुखरूप (आनंद) आत्मा के स्वरूप को अनुभव करती है। 

>>चिद्रूप बुद्धि बनाम सामान्य बुद्धि:

सामान्य बुद्धि (जो मन) इंद्रियों और मन के अधीन होती है और बाह्य जगत की इन्द्रिय विषयों (3K-भोगों) की ओर दौड़ती रहती है। जबकि चिद्रूप बुद्धि वह बुद्धि है जो देह और इन्द्रिय प्रेरित मन-बुद्धि से ऊपर उठकर या इन्द्रिय-विषयों में बिल्कुल अनासक्त होकर (जैसे अनाधिकृत निवृत्ति मार्गी बकरी-घास से बिल्कुल अनासक्त हो गयी थी ?) अथवा प्रवृतिमार्गाधिकारी का चारो योगमार्ग या किसी एक मार्ग (पाश्चात्य शिक्षित जगत के लिए राजयोग मार्ग) से "M/F आदम -हव्वा देह-बुद्धि" का अतिक्रमण कर, नित्य-अनित्य विवेक सम्पन्न मनुष्यत्व में (Real 'I' >आत्मा, ईश्वर, भगवान, ब्रह्म,सच्चिदानन्द) से स्वतः प्रेरित शुद्धबुद्धि है जो(निवृत्ति-मार्गी बकरी जैसी जबरन अनासक्त बनाई हुई बकरी न) होकर, निरंतर जीव, जगत और ईश्वर के अद्वैत में  ही प्रतिष्ठित रहती है। 

(इंद्रियों से मन श्रेष्ठ है, मन से बुद्धि श्रेष्ठ है, बुद्धि से ज्ञान श्रेष्ठतर है, और ज्ञान से परमात्मा श्रेष्ठ है - वेदव्यास)। 

यह कथन, " श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय 3, श्लोक 42) से लिया गया है, जो स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ने की यात्रा # और आत्म-ज्ञान के महत्व को बताता है, जहाँ इंद्रियाँ शरीर से श्रेष्ठ, मन इंद्रियों से, बुद्धि मन से, और अंततः आत्मा (परमात्मा) बुद्धि से भी परे और सबसे श्रेष्ठ है, जिसे जानकर मनुष्य काम (वासना) पर विजय पा सकता है। 
[ यात्रा #: ॐ असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतं गमय।।हे प्रभु! मुझे (मेरी चिद्रूप बुद्धि 'conscious intellect' को) असत्य से सत्य की ओर,अंधकार से प्रकाश की ओर, और मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो।]
इन्द्रियाणि पराणि आहुः, इन्द्रियेभ्यः परम् मनः।
 मनसः  तु परा बुद्धिः, यः बुद्धेः परतः तु 'सः' ।
(गीता /3.42)
।।3.42।। (शरीर से) परे (श्रेष्ठ) इन्द्रियाँ कही जाती हैं;  इन्द्रियों से परे मन है और मन से परे बुद्धि है, और जो बुद्धि से भी परे है, वह है आत्मा ! (शुद्धबुद्धि, ईश्वर, भगवान, ब्रह्म,सच्चिदानन्द। और उस आत्मा में प्रतिष्ठित नित्य-अनित्य विवेक-सम्पन्न बुद्धि है Real 'I')   
भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को पहले श्लोक (गीता 3.41) में इन्द्रियों को वश में करके ज्ञान और विज्ञान के नाशक काम-रूप शत्रु का त्याग कर (3K में आसक्ति को नष्ट करो) ऐसा कहा था । चिकित्सक को किसी रोगी के लिए औषधि लिख देना सरल है परन्तु यदि वह औषधि आकाशपुष्प से बनायी जाती हो तो रोगी कभी स्वस्थ नहीं हो सकता।  इसी प्रकार गुरु का शिष्य को इन्द्रिय संयम का उपदेश देना तो सरल है।  परन्तु जब तक वे उसका कोई साधन नहीं बताते तब तक उनका उपदेश आकाश पुष्प से बनी औषधि के समान ही असम्भव समझा जायेगा। हम किस वस्तु का आश्रय लेकर इस इच्छा का त्याग करें ?
इस प्रश्न का उत्तर अब भगवान यह बता रहे हैं कि किसका आश्रय लेकर इन तीनों ऐषणाओं में आसक्ति का त्याग करना चाहिए ? भगवान कहते हैं पण्डितजन बाह्य ससीम स्थूल देह की अपेक्षा सूक्ष्म  पञ्च ज्ञानेन्द्रियों को पर अर्थात् श्रेष्ठ कहते हैं। तथा इन्द्रियों की अपेक्षा संकल्प-विकल्पात्मक मन को श्रेष्ठ कहते हैं।  और मन की अपेक्षा निश्चयात्मिका बुद्धि को श्रेष्ठ बताते हैं। एवं जो बुद्धिपर्यन्त समस्त दृश्य पदार्थों के अन्तरव्यापी है जिसके विषय में कहा है कि उस आत्मा को 'इन्द्रियादि आश्रयों से युक्त काम ज्ञानावरणद्वारा मोहित किया करता है वह बुद्धि का ('conscious intellect' चिद्रूप बुद्धि का भी) द्रष्टा परमात्मा (मेरे लिए पुरुषोत्तम अवतार वरिष्ठ -का नाम बताने वाला सद्गुरु विवेकानन्द) सबसे श्रेष्ठ है।
तृतीय अध्याय के अन्तिम दो श्लोकों में व्यास जी ने उस परिपूर्ण साधना की ओर संकेत किया है जिसके अभ्यास से कोई भी साधक सफलतापूर्वक अपने सबसे बड़े शत्रु काम (3K में आसक्ति) को खोजकर उसका नाश कर सकता है। स्थूल देह (आदम और हव्वा शरीर) की अपेक्षा पंच ज्ञानेन्द्रियाँ अधिक सूक्ष्म यानि अधिक बलवान हैं।  मन ही इन्द्रियों को नियन्त्रित करता है, अत यहाँ मन को इन्द्रियों से सूक्ष्म और परे कहा गया है। विजय के इस अभियान में बुद्धि की व्यापकता और भी अधिक विस्तृत है, इसलिए बुद्धि को मन से श्रेष्ठतर कहा गया है
 जो बुद्धि के भी परे तत्त्व है उसे ही आत्मा कहते हैं। बुद्धिवृत्तियों को प्रकाशित करने वाला चैतन्य बुद्धि से भी सूक्ष्म होना ही चाहिये। उपनिषदों में कहा गया है कि इस चैतन्यस्वरूप आत्मा (ईश्वर, भगवान, सच्चिदानन्द,ब्रह्म-Real 'I') के परे और कुछ नहीं है।

चिद्रूप बुद्धि - " चित्त-वृत्ति निरोध के बाद अपने को देह नहीं चेतना समझने वाली, आत्मा, ईश्वर , भगवान या ब्रह्म से प्रेरित होकर नित्य-अनित्य विवेक सम्पन्न , जीव -जगत और  शुद्ध बुद्धि ! केवल सोचने-समझने वाली बुद्धि (प्रमस्तिष्क) नहीं, बल्कि चेतना का वह स्तर है जो मनुष्य (चैतन्य नित्य-अनित्य विवेकी) और पशु (अविवेकी मनुष्य जो स्वयं को केवल देह समझता है) जीवन के मूल सत्य को जानता है। और 'मैं'  (M/F आदम -हव्वा) के वास्तविक स्वरूप (Real 'I' सच्चिदानन्द) को अपने अनुभव से जानता है।  इसलिए 'चिद्रूप बुद्धि' से अपने को अकर्ता समझता है , और माँ का यंत्र होकर 'मनुष्य' जीवन जीता है। और माँ काली से प्रार्थना करता रहता है - माँ मुझे मनुष्य बना दो ! (अर्थात विवेकानन्द अवस्था में प्रतिष्ठित बुद्धि)  

संक्षेप में, चिद्रूप बुद्धि वह दिव्य समझ है जो व्यक्ति को संसार की सीमाओं से मुक्त कर परम सत्य, आनंद और शांति की ओर ले जाती है, जैसा कि अष्टावक्र गीता जैसे शास्त्रों में वर्णित है।

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