मैं कौन हूँ ? मैं ठाकुर-माँ -स्वामीजी का उपासक हूँ !
मैं कौन हूँ ? जीव होना [आदम और हव्वा शरीर M/F देहाभिमान होना ] ये आभास मात्र है। मैं सदा से हूँ - जन्म लेने और मरने वाला शरीर मैं नहीं हूँ। मैं अनन्त हूँ , अनादि हूँ ब्रह्म हूँ। तीन प्रकार के उपासक - 1. ईश्वर के किसी साकार रूप के उपासक। 2. निराकार ईश्वर के भेदोपासक। अर्थात मैं भी निराकार हूँ पर मैं जीव हूँ। वह भी निराकार है , पर वह ईश्वर है। फर्क समझिये देह के बिना मैं भी तो हूँ। देह मैं छोड़ूँगा तो मर थोड़े जाऊंगा ! मैं ईश्वर से एक अलग अस्तित्व रखता हूँ। और मैं सदा जीव ही रहूँगा। तुम सदा ईश्वर रहोगे। मैं तुम्हारा स्मरण करता रहूँगा। इसलिए विशिष्ट अद्वैत, शुद्ध अद्वैत , शंकराचार्य जी केवल -अद्वैतवादी हैं। मैं केवल-अद्वैतवाद का समर्थक , चिन्तक हूँ। परन्तु सभी मतों को अपने तरीके से समझना चाहता हूँ। कुछ लोग साकार उपासक हैं, और कुछ लोग निराकार उपासक हैं।
कुछ लोग अभेद बुद्धि वाले हैं , कुछ लोग भेद बुद्धि वाले हैं। भेद बुद्धि माने मैं अलग ही हूँ और ईश्वर मुझसे भिन्न है। वो सर्वज्ञ है -मैं अल्पज्ञ हूँ। देह में तो हूँ , पर मैं देह नहीं हूँ। मैं जीव हूँ। वो सर्वज्ञ है , सर्वशक्तिमान है, सर्व व्यापक है। मैं अल्पज्ञ हूँ , मेरा ज्ञान अल्प है, और अल्प समय तक रहता है। क्या गहरी नींद में किसीको अपने होने का ज्ञान रहता है ? सुषुप्ति में क्या किसी को जगत का ज्ञान बना रहता है ? (2:15)
मेरे में थोड़ी देर ज्ञान है , थोड़ा ज्ञान है। आप अपने मन के विचारों को जानते हो , पर क्या सबके मन की विचारों को भी जानते हो ? ईश्वर सबके मन की विचारों को जानते हैं , और हम सिर्फ अपने मन की। तुम्हारे शरीर में कहाँ पीड़ा है , तुम जानते हो। और मानलो कोई भगवान (ठाकुर) होगा वो सबके जानगा।
अपने-अपने घरन की, सब काहू को पीर।
तुम्हें पीर सब घरन की, सो धन्य-धन्य रघुवीर॥
तुम्हारे अपने घर में 5 परिवार हैं। अच्छा भगवान के घर में कौन-कौन हैं ? तुम्हारा माड़वाड़ी समाज है , माहेश्वरी समाज है , हमारा अपना-अपना समाज है। ईश्वर का कौन सा समाज होगा ? हमारे पिता अमुक हैं , बेटा ये , बेटी ये , भाई -बहन इतने हैं। भगवान के कौन बेटे हैं ? एक तो ये कि सारे उनके ही हैं। पर एक बार भगवान बड़े दुखी हो गए , जब उन्होंने सोंचा कि पूछूं - कि ये किसके लड़के हैं ? सब अपने अपने बाप के थे। हाथी भी हाथी का लड़का था। राम का कोई नहीं। राम ने पूछना शुरू किया तो - पता लगा मेरा तो एक भी नहीं है। कबीर ने कहा -'संत न होते जगत में तो रहते राम निपूत। ' क्योंकि संत ही ईश्वर के नाम (राम-नाम) का जाप करते हैं, संसार को राह दिखाते हैं, और उनके बिना ईश्वर का नाम लेने वाला कोई न होता, जिससे ईश्वर भी कहीं न कहीं एकाकी महसूस करते। सन्त न होते तो 'राम' का एक भी लड़का न होता। (जैसे स्वामी विवेकानन्द-स्वामी ब्रह्मानन्द आदि न होते तो 'ठाकुर' का एक भी लड़का न होता।) सन्त ही कहते हैं -हम ईश्वर की सन्तान हैं , ईश्वर हमारा पिता है। असल में ईश्वर (ठाकुर) को पिता मानने वाले बहुत कम हैं। माँ सारदा देवी को माँ मानने वाले बहुत कम हैं। जो विवेकानन्द , ब्रह्मानन्द आदि गुरुभाई ठाकुर-माँ को अपने माता-पिता मानते होंगे - उनके फिर हमलोग भी छोटे भाई ही तो हुए ? हमलोग जगतगुरु श्रीरामकृष्ण -जगतजननी माँ -सारदा को अपना इष्टदेव मानने वाले -एक परिवार के हो गए। दुनियावी पिता के नाते हमारा परिवार अलग है , उस पिता (ठाकुर-माँ -स्वामीजी ) के नाते सारा जगत हमारा है। (4:55) मुंबई के संत पांडुरंग शास्त्री अठावले ने कहा था खून के रिश्ते मत रखो जिसने खून को बनाया उन ठाकुर-माँ के साथ पुत्र का रिश्ता रखो। (उन्होंने 1954 में 'स्वाध्याय आंदोलन' शुरू किया था , जिसका अर्थ है भगवद्गीता के माध्यम से 'स्वयं का अध्ययन' है, जो साधारण लोगों को आत्म-सुधार और सामुदायिक सेवा के लिए प्रेरित करता है।) खून के रिश्ते अलग हैं , खून बनाने वाला कौन है ? वो एक है -उसके हम भक्त हैं। तो फिर हम सब एक हैं , भाई-बहन हैं। हमारा परिवार बहुत बड़ा है -140 करोड़ का परिवार है। साकार भगवान ठाकुर -माँ को मानना। कोई शिव का है , भगवान राम का है , कोई कृष्ण भगवान का है , कोई हनुमानजी के भक्त हैं। फिर निराकार ईश्वर के भक्त कितने रूपों में हो गए? इसलिए आर्यसमाजी उसके , मुसलमान उसके , ईसाई उसके , आज नहीं कल हम भी उसके। उस और हमारा ध्यान कम है - पर एक ईश्वर (ॐ) के उपासक भी हमलोग हैं। पर ईश्वर मुझसे भिन्न हैं , और मैं उनसे भिन्न हूँ। मैं ईश्वर नहीं हूँ -इसलिए इसको भेद -उपासना कहते हैं। ईश्वर सर्व-व्यापी है , मैं एक देशी हूँ। ईश्वर चैतन्य है और मैं भी चैतन्य हूँ, किन्तु मैं अवस्था त्रैय -में रहता हूँ। सोता -जगता हूँ। मैं यहाँ हूँ , वो सर्वत्र है। इसलिए ईश्वर हम नहीं हैं। तो अगली उपासना फिर क्या है ? (6:25) ईश्वर और जीव दोनों उपाधि हैं। जो ब्रह्म है वो निरुपाधिक ब्रह्म है। वो निर्गुण-निराकार है। हम अविद्या (अस्मिता -राग-द्वेष- अभिनिवेश) ग्रस्त या मायाधीन हैं , वो मायाधीश है। यदि हम अविद्या हटाकर आत्मज्ञान प्राप्त कर सके , और तुम मायापति की उपाधि हटा दो - जीव ब्रह्मवै न अपरः ! ईश्वर और जीव में कोई भेद नहीं है। उपाधि का भेद है। जैसे स्त्री-पुरुष (आदम और हव्वा) वाले देहाभिमान के कारण जीव स्त्री और पुरुष बन गया। देहाभिमान छोड़ दे तो आदम (M) का जीव और हव्वा (F) का जीव एक है। इस प्रकार देह-की उपाधि छोड़ दें तो हम आत्मा में प्रतिष्ठित हो सकते हैं। (9:01)
अब 5 मिनट मनःसंयोग का अभ्यास करें। ध्यान के पहले शरीर में थकान नहीं होना चाहिए, इसलिए आँख बन्द कर लें। क्योंकि मन को एकाग्र करने की प्रक्रिया शरीर में आसक्ति छोड़ने देहाभिमान छोड़ने की प्रक्रिया है। शरीर से तादात्म्य हटाकर उसका द्रष्टा या साक्षी बनते समय मन तो बड़ा आफत खड़ी करेगा। हाँ देहाभिमान छूट जाने के बाद - फिर चाहे तुम्हारे शरीर को कोई जलावे , दफनावे , चाहे बहावे , कोई फर्क नहीं पड़ेगा। तो जबतक हम निर्विकल्प समाधि में न जायें तब तक देहाभिमान बहुत महत्व रखता है। इसलिए आँख बंद कर दो , शरीर को ढीला छोड़ दो। पेट के भीतर जो श्वाँस है - ध्यान को पूरा वहाँ ले जाओ। और पेट के भीतर श्वाँस कैसे आयी है, उसको जरा धीरे-धीरे लेलो, उसको खींचना नहीं है। आई हुई श्वांस को जरा धीरे -धीरे ले लेना और जाती हुई श्वांस को आराम से छोड़ देना। बहुत अच्छे। धीमे धीमे अंदर श्वांस आये और श्वांस में जैसे भगवान का नाम नहीं तो भावना (रूप-लीला -धाम।) ऐसी भावना जैसे 'हे नाथ!' कृष्ण के भक्त भी बोल सकते हैं , 'हे नाथ ' रामभक्त भी बोल सकते हैं। हे नाथ निराकार वाले , साकार वाले सभी बोल सकते हैं। इसलिए प्रेम पूर्वक श्वांस को धीरे धीरे लो। -है SSSS! ना SSSS थ ! बड़े प्रेम से - है SSSS! ना SSSS थ ! इतना प्रेम करो। इतना प्रेम से हे नाथ कहो , कि भक्ति में डूब जाओ , मस्ती में डूब जाओ। अभी तक प्रेम में कभी नहीं डूबे तो , अभी डूब के देखो। पर आदत नहीं होगी तो मुश्किल लगेगी। पर यदि बन जाये तो एक दिन में बेड़ा पार। यदि तुम प्रभु की नाम की याद में , प्रभु की नाम की पुकार में डूब जाओ ,-है SSSS! ना SSSS थ ! या हे कृष्ण। हे राम। हे शिव। कोई भी इष्टदेव-देवी, -हे माँ SSS! हे माँ SSS! 'हे' में श्वांस लो, कृष्ण से निकालो , राम से निकालो , माँ से निकालो , शिव से निकालो। धीरे -धीरे या सबका एक ही नाम हे नाथ ! हे नाथ ! ख्याल में तुम्हारे अपने जो भी भगवान हों , साकार हों , निराकार भगवान हों , लेकिन भाव में तो एक ही हैं। इतने रूपों में हमारा सबका एक रूप है। सभी भगवान के ही रूप हैं। हमारे रूप बँटे हैं। भगवान -'सच्चिदानन्द' का रूप बँटा नहीं है।
"वही राम हैं , वही कृष्ण हैं , वही जानकी-राधा ,
यह संसार भ्रम में भूलियो तासे लागी बाधा।"
हम भ्रम में भूले हैं , इसलिए पुकार रहे हैं। धीरे धीरे श्वांस लेते जाओ - -है SSSS! राम ! हे -कृष्ण ! हे - ना SSSS थ ! हे -प्रभु ! हे -शिव ! हे- माँSSSS ! हे- माँSSSS ! ऐ मेरी माँ ! अंदर से पुकारो ! पुकारते ,पुकारते ,पुकारते लीन हो जाओ। पुकारते ,पुकारते - पुकार बन जाओ ! पुकारते ,पुकारते -द्रवित हो जाओ- पिघल जाओ ! बहुत अच्छे ! -----शरीर के भीतर ह्रदय में बैठे हुए हो। शरीर बैठा हुआ है - तुम शरीर के भीतर हृदय में बैठे हो। तुम भीतर बैठे श्वांस ले रहे हो। श्वांस लेते हुए प्रभु को पुकार रहे हो ! द्रौपदी की तरह , गज की तरह। मीरा की तरह , कबीरा की तरह। तुम भीतर भीतर प्रभु की मस्ती में। प्रभु के नाम में डूबे हो। मुझे कुछ नहीं चाहिए। मैं चाहत रहित हूँ। सिर्फ मुझे भक्ति चाहिए। मुझे मुक्ति भी नहीं चाहिए। मुझे कोई फल नहीं चाहिए। मुझे स्वर्ग नहीं चाहिए। मुझे मोक्ष भी नहीं चाहिए। जैसे सम्पूर्ण इच्छाओं का वर देने वाली पवित्र तीर्थराज प्रयाग के तट पर भरत जी प्रार्थना करते है – (मनुष्य का प्रत्येक कार्य किसी ना किसी स्वार्थ से निहित होता है । तीर्थ स्थानों की यात्रा, दान दक्षिणा, मंदिरों में जाना – मनुष्य हर काम किसी ना किसी अभिलाषा से ही करता है ।)
अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरबान।
जनम-जनम रति राम पद यह बरदानु न आन॥
“ ना मुझे धर्म लाभ चाहिए, ना ही धन । ना मैं गति और मोक्ष की इच्छा रखता हूँ । मुझे तो इतना ही वर चाहिए की मैं बार बार जन्म लूँ और हर जन्म में मेरी मति सिर्फ़ प्रभु के चरणों में रत रहे अर्थात् मुझे सिर्फ़ प्रभु भक्ति का वर दो “ तात्पर्य, मानुष देह बहुत मुश्किल से मिलती है, जिसके लिए देवता भी तरसते है । और जो आनन्द प्रभु भक्ति में है, वह तो मोक्ष में भी नहीं । मुझे सिर्फ एक वरदान चाहिए - आपकी भक्ति चाहिए। मुझे मुक्ति नहीं चाहिए। स्वर्ग नहीं चाहिए। अर्थ नहीं चाहिए , काम नहीं चाहिए। धर्म भी नहीं चाहिए। 'अरथ न धरम न काम रुचि' - न धर्मात्मा कहलाने में मेरी इच्छा है ! मैं कुछ होना नहीं चाहता। बस एक आपका भक्त होना चाहता हूँ। इसलिए भक्ति से भक्त हूँ मैं , मुझे भक्ति अच्छी लगती है। मुझे और कुछ नहीं चाहिए। मुझे सुख की प्रीति नहीं -प्रीति का सुख चाहिए। मुझे से सुख से भक्ति नहीं है। मैं आनंद का भक्त नहीं हूँ। भक्ति का आनंद मुझे चाहिए। मुझे भक्ति में आनंद मिले ऐसी कृपा मुझपर करो। नाथ ! प्रेम का आनंद मिले। आनंद से प्रेम न हो। आनंद को मैं ठुकरा सकूँ। हाँ प्रेम का आनन्द ले सकूँ। भक्ति का रस ले सकूँ। लोग रस के भक्त हैं। आनंद के पुजारी हैं। धन के भगत हैं। मुझे भक्ति का धन दे दो। भक्ति का धन , प्रेम का धन। सुमिरन का धन। सुमिरन धन है। सुमिरन का धन कमाना है।धन का सुमिरन मत करो। एक मिनट -दो मिनट , देखो जिसमें आपको प्रेम धन मालूम पड़े , सुमिरन धन मालूम पड़े। प्रेमधन मिल जाये। भक्ति धन मिल जाये। हे प्रभु अभी मेरे पास भक्ति धन नहीं है। हे प्रभु ! मैं भक्त नहीं हूँ। भक्ति का नाटक करता हूँ। हे प्रभु मेरे अंदर प्रेम नहीं है। तुम्हीं कृपा करो -प्रेम उमड़ पड़े ! भक्ति का झरना फूट पड़े। मैं अभागा भक्ति का नाटक करता रहता हूँ। भक्ति नहीं है। तुम मेरे अंदर भक्ति जगा दो ! प्रेम जगा दो ! (16:47) सुमिरन का बल दे दो। मुझे दिमाग का बड़ा बल है। फालतू में इधर-उधर लगाता हूँ। प्रभु , मैं जो नहीं जान सकता, उसमें भी दिमाग लगाता रहता हूँ। सुमिरन का बल दे दो। मुझे फालतू में दिमाग का बड़ा बल है। मैं इधर-उधर लगाता रहता हूँ। जो नहीं जान सकता उसमें भी दिमाग लगाता रहता हूँ। प्रभु , सुमिरन का बल दे दो। साधना का बल दे दो। मैं तुम्हारा नाम सुमिरन में समर्थ नहीं हूँ , समर्थ होता तो मैं कर लेता। मैं भक्ति करने में दीन हूँ ,मैं भक्ति करने में असमर्थ हूँ। सुमिरन में मैं बलवान नहीं हूँ। आप कृपा करोगे , तभी सुमिरन कर सकूँगा। आप कृपा करो , तो भक्ति होगी।
लोभ पाँस जेहिं गर न बँधाया। सो नर तुम्ह समान रघुराया॥
यह गुन साधन तें नहिं होई। तुम्हरी कृपा पाव कोइ कोई॥3॥
और जिस मनुष्य ने 3K में लोभ की फाँसी से अपना गला नहीं बँधाया, हे रघुनाथजी! वह मनुष्य आप ही के समान है। ये गुण साधन से नहीं प्राप्त होते। आपकी कृपा से ही कोई-कोई इन्हें पाते हैं॥3॥ तुम जिसे भक्ति दे दोगे , भक्ति केवल उसे मिलेगी। तुम औरों को मुक्ति देदो। मुझे भक्ति दे दो। तुम औरों को सब दे दो , मुझे सुमिरन का बल दे दो। और मैं दीन होके माँगू। गोस्वामी जी का दीनघाट है। कोई ज्ञान घाट , कोई कर्म घाट। कोई उपासना घाट। अलग अलग बुद्धि वाले लोगों के लिए कई घाट हैं। मेरा तो 'दीन घाट' है ! (18:05) मैं दीन हूँ , मैं अक्षम हूँ। मैं निर्बल हूँ।
सुने री मैंने निरबल के बल राम ,
पिछली साख भरूँ संतन की अड़े सँवारे काम।
जब लग गज बल अपनो बरत्यो, नेक सरयो नहीं काम। (1)
निर्बल ह्वै बल राम पुकार्यो,आये आधे नाम।। (2)
द्रुपद सुता निर्बल भईं ता दिन ,तजि आये निज धाम।
दुस्सासन की भुजा थकित भई, बसन रूप भये श्याम।। (3)
अपबल,तपबल और बाहु बल ,चौथा है बल दाम।
'सूर' किसोर कृपा ते सब बल, हारे को हरिनाम।। (4)
अर्थात्—मैंने ऐसा सुना है कि निर्बल के बल भगवान हैं। प्राचीन संत भी साक्षी हैं कि जो अपने को भगवान के भरोसे छोड़ देते हैं उनके सभी बिगड़े काम प्रभु स्वयं संवार देते हैं। (1)
जब तक गजराज मगरमच्छ से अपने बल से लड़ता रहा , तब तक भगवान नहीं आये। अन्त में निर्बल होकर जब उसने भगवान को आरत भाव से पुकारा तो उसके द्वारा आधा नाम उच्चारण करते ही हरि दौड़ कर पहुँच गए। (2)
इसी प्रकार कौरवों की सभा में द्रौपदी के चीरहरण के समय जब द्रौपदी ने अपनी लाज बचाने के लिए निर्बल होकर श्रीकृष्ण को पुकारा तो वे साड़ी के रूप में प्रकट हो गए। दुःशासन साड़ी खींचते -खींचते थक गया , किन्तु द्रौपदी की साड़ी श्याम रूप धारण कर बढ़ती गई। (3)
सूरदासजी कहते हैं , कि लोगों को प्रायः आत्म (निज) बल , अपनी तपस्या का बल, शारीरिक बल तथा अपने धन का बल (अभिमान) रहता है। परन्तु जब मनुष्य समस्त बलों का त्याग कर, केवल भगवान के भरोसे होकर , उनके नाम का बल लेकर , उन्हें आरत भाव से पुकारता है, तभी उसका वास्तविक कल्याण होता है। और उसे भगवान की भक्ति मिल जाती है
दीन और दीनानाथ
दीन का अर्थ है—असमर्थ, अशक्त, जिसमें कुछ करने की शक्ति नहीं, जिसके पास कोई साधन नहीं और जो पूरी तरह से निर्बल है।
दीन को कौन अपनाये?—संसार में दीनों से प्रेम करने वाले, उनका आदर करने वाले और उन्हें अपनाने वाले केवल दो ही होते हैं—१. भगवान, और २. संत। इसलिए उन्हें दीनदयाल, दीनबन्धु, दीनवत्स, दीनप्रिय और दीनानाथ कहते हैं।
भक्तों को देते हैं दु:ख का अमोघ दान
भगवान जिस पर कृपा करते हैं, उसे दु:ख का अमोघ दान दिया करते हैं। उसका धन हर लेते हैं, मान घटा देते हैं, नाते-रिश्तेदार, मित्रों में उसके प्रति घृणा व उपेक्षा पैदा कर देते हैं। इससे वह संसार के बंधन से मुक्त होकर प्रभु की ओर बढ़ता है। अपनी ओर खींचने के लिए ही भगवान उसे दु:ख का दान देते हैं।
पर सचमुच में निर्बल हो जाओ। अपने को सचमुच अक्षम मानो। मैं आज तक सफल कहाँ हुआ ? बड़ा ध्यान किया , बड़ी समाधि लगाने की चेष्टा की , दानपुण्य किया। कुछ बना ? नहीं ! प्रभु तुम बनाओगे तो बनेगा। मेरी बुद्धि को तुम सुधारोगे तो सुधरेगा। मेरे करने से कुछ नहीं होता। तुम कृपा करो। बस एक मिनट अंदर से , प्रभु को प्रेम से पुकारते हुए , स्मरण करते हुए कि - तुम्हारा एक भरोसा -राम ! मैं सिर्फ तुम्हारे भरोसे हूँ भगवन ! और किसी वस्तु पर मेरा भरोसा नहीं। न मेरा तन बल , न धन बल , न बाहुबल , न बुद्धि बल। कोई भी बल तो मेरे हैं ही नहीं। सुने री मैंने निरबल के बल राम। तुम देह के अंदर ह्रदय में बैठे हो। तुम देह नहीं हो , इन्द्रियाँ नहीं , मन नहीं , तुम इनको साथ लेके मत चलो। तुम अंदर सुमिरन में जाओ प्रभु ! कृपा करो। प्रेम की वर्षा कर दो । भक्ति का दान दे दो। नाम की भीख देदो। 'नाम ' की भीख। तुम 'नाम ' जोर से बोलकर नहीं ले सकते ! इसलिए हे प्रभु , नाम की भीख दे दो। जैसे दीन होके ठाकुर जी से और कुछ माँगते हो , वैसे आज दीन होके सुमिरन माँगो। नाम की भीख माँगो। भक्ति की भीख माँगो। सुमिरन की भीख माँगो बस। और सुमिरन का आनन्द लो। भक्ति का आनंद लो। आनंद तो लो , पर सुमिरन का। मुक्ति का नहीं ! आनन्द तो लो , पर नाम का। काम का नहीं नाम का आनंद लो। याद का आनन्द लो - 12 जनवरी , 1985 को क्या हुआ था ? कुछ माँगो मत। अभी काम बन जाये। अब धीरे -धीरे सहज भाव से आँखों को खोल दीजिये।
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