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शनिवार, 27 दिसंबर 2025

जागृत, स्वप्न, और सुषुप्ती ये तीनों बुद्धि की अवस्था है। (आत्मा बुद्धि से परे है।मैं कौन हूँ ?)

  जागृत, स्वप्न, और सुषुप्ती ये तीनों बुद्धि की अवस्था है। 

(आत्मा बुद्धि से परे है।मैं कौन हूँ ?)

जब भगवान का नाम जपे , तो पहले भगवान (इष्टदेव) का साकार रूप ध्यान में आया। फिर सोंचा कि मैं किस ठाकुर जी का नाम ले रहा हूँ ? तब ध्यान देने पर ठाकुर देव का ' ब्रह्मरूप' से ध्यान आया। जाप वही , मंत्र वही। उसी मंत्र (गुरु-प्रदत्त नाम) से मुझे स 'दाशरथी राम' दशरथ के घर कौशल्या के पेट से जन्मे राम का ख्याल आया। फिर उस 'राम' (और परमेश शक्ति का भी ख्याल आया - " जिससे  उपजहिं जासु अंस तें नाना॥' 


[जागृत, स्वप्न, और सुषुप्ती ये तीनों बुद्धि की अवस्था है। आत्मा बुद्धि से परे है।] 

नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानंद निरुपाधि अनूपा॥
संभु बिरंचि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना॥ (बालकाण्ड) 

जिन्हें वेद 'नेति-नेति' (यह भी नहीं, यह भी नहीं) कहकर निरूपण करते हैं। जो आनंदस्वरूप, उपाधिरहित और अनुपम हैं। एवं जिनके अंश से अनेक शिव, ब्रह्मा और विष्णु भगवान प्रकट होते हैं
मंत्र के शब्द तो वही थे , जिसे गुरुदेव के मुख से तीन बार सुना था। (1:33) तो मुझे जब 'दशरथपुत्र राम' का ध्यान आया, उस समय मेरी दृष्टि कहाँ थी ? जब मैंने भगवान का नाम (राम , कृष्ण , या श्रीरामकृष्ण) बोला? तो समझ में आया - पहले मेरी दृष्टि राम के शरीर पर थी। फिर वह राम-भगवान जो-'entire creation' के, सम्पूर्ण सृष्टि के आश्रय (आधार ,support, पर्दा) हैं, उन पर ध्यान आ गया। उसी प्रकार आप भी पहले क्या देखते हैं ? फिर क्या देखना है - यह देखते हैं। इसी तरह हमलोग जब 'तुम ' शब्द का प्रयोग करते हैं , तो मेरे 'तुम' कहते ही आपको अपने देह का ख्याल आता है। (2:04) जब मैं 'तुम ' कहता हूँ, तो क्या तुम्हें आत्मा या ब्रह्म ख्याल में आता है ? जब तुम्हें तुम कहता हूँ -तो तुम्हें तो जीव भी ख्याल में नहीं आता है। तुम ' सुनकर पहले दृष्टि देह में जाती है। तो 'तुम ' शब्द सुनकर पहले-पहल जो रूप ख्याल में आये -वो वाच्य है-'literal meaning'। लक्ष्य है तुम शब्द का अर्थ ढूँढ़ो -क्या हो तुम ? (What are you ? Who are you ?) (2:36) इसी तरह से जब आप 'मैं ' शब्द बोलते हो , मैं बैठा हूँ , मैं अमुक जगह में हूँ , उस समय आपका 'मैं ', आपके ख्याल में क्या आया ? देह , या जीव या आत्मा ? (3H ? युगपत आया ?) यही हमारे खोज का विषय है ?  आप अपने वाणी पर -बोलने पर विचार करो। जो शब्द 'मैं' आप रोज बोलते हो। उस 'मैं' पर विचार करो। स्वामीजी कहते थे - "मैं की 'ममता' छोड़कर , 'मैं' की करिये जाँच।"  (अर्थात अपने आदम -हव्वा नाम-रूप में आसक्ति हटाकर , 'मैं' को खोजिये। आधार कार्ड · पासपोर्ट · मतदाता पहचान प्रमाण पत्र (वोटर आईडी) · पैन कार्ड · ड्राइविंग लाइसेंस · राशन कार्ड · जन्म प्रमाणपत्र · मैट्रिक प्रमाणपत्र। में जो नाम लिखा है।) ये जिसको तुम मैं कहते हो वह 'मैं ' -क्या है ? मैं का क्या अर्थ है ? थोड़ा शब्द बदल दूँ - "मैं की 'आदत' छोड़कर , 'मैं' की करिये जाँच।" यह जो 'मैं ' कहते ही अपने को M/F सोंचने की आदत पड़ गयी है , उसके विषय में आप जरा सोचो। आप जो सोच रहे , बोल रहे , मैं मर जाऊँगा , ये मेरा है -तब आप क्या सोचते हो ? देह या आत्मा ? (4:16) जब आपकी बुद्धि में आया कि -मैं एक दिन मर जाऊँगा , मैं नहीं रहूँगा; तो उस समय आपकी बुद्धि में 'मैं ' का क्या अर्थ आया था ? तो 'मैं ' का अर्थ अलग-अलग है। उपनिषदों का भी अर्थ लोग वही नहीं करते , जो उपनिषदों का अर्थ है। अर्थ तो हम अपने स्तर से ही कर लेते हैं।
      शब्द से ज्यादा महत्व अर्थ का है। चाहे 'राम' शब्द का अर्थ , चाहे 'मैं' शब्द का अर्थ ,चाहे 'तुम' शब्द का अर्थ , चाहे 'शिव' शब्द का अर्थ। तुम जो अर्थ निकालते हो ,उसमें अर्थ कम अनर्थ ज्यादा है। अर्थ तो कोई कोई जानता है। इसीलिए वाच्य अर्थ का वाच्य अर्थ को त्याग जरा। जो सहज बोलने से अर्थ निकल आता है , बोलते -बोलते जो अर्थ आ जाता है , उसको जरा छोड़ो। 'वाच्य अर्थ को त्याग जरा , विज्ञान अर्थ में चित जोड़ो। ' शब्दों के सतही (superficial-बाहरी) अर्थ को छोड़ो, उसका गहरा अर्थ देखो क्या है ? (5:40) जबतक ये सोचोगे नहीं , बात नहीं बनेगी। हम लोग प्रतिदिन 'मैं' -'तुम' -'वह' आदि शब्दों को सुनते रहते हैं। 'वह' का अर्थ हुआ -जो हमसे बहुत दूर है। मैं माने उत्तम पुरुष - 'first person', 'तुम' माने जो सामने बैठा है। मैं के सामने जो कोई बैठा है , वो तुम। और जो मैं -से हमसे, तुमसे इतनी दूर है , जो मेरी सुनता नहीं है -जिससे मैं बात नहीं कर रहा। हाँ , जिसके विषय में बात कर रहा हूँ - वह। जिसके विषय में चर्चा हो , पर जो सामने नहीं बैठा हो , उसका नाम वह है। वह (अमुक) ऐसा ढोंगी है , या अच्छा साधु है ? ये वो साक्षात् भगवान है। अभी बात किससे कर रहे हो ? भगवान से ? भगवान के विषय में किसी से बात कर रहे हो। एक व्यक्ति, एक व्यक्ति से बात कर रहा है , एक के विषय में कर रहा है। तो ये शब्द को गहराई से समझने का आशय है। जो मैं, तुम , यह , वह शब्द प्रचलित है , उसको तो हम नहीं बदल सकते। पर उसका अर्थ क्या है ? इस पर विचार कर सकते हैं। ग्रंथों में जो शब्द है , उपनिषदों में जो शब्द है , हमें उसके लिए नए शब्द नहीं देना है। नए शब्द का मतलब हिन्दी 'मैं हूँ' कहते हैं -अंग्रेजी में शब्द बदल गया 'I am' हो गया। अर्थ बदल गया कि शब्द बदल गया ? शब्द बदला लेकिन अर्थ वही है। जो मैं देह हूँ के लिए हम बोलते थे , वही अंग्रेजी में बोलते हैं। वही संस्कृत में कहना हो तो - 'अहं अस्मि।' (8:06)  'अहं अस्मि।' कहने से कोई ज्ञानी हो गया क्या ? यदि हिन्दी या अंग्रेजी के बजाय संस्कृत में बोल दे 'अहं अस्मि' तो ज्ञान हो गया ? [पंजाबी में अस्सी -तुस्सी, बंगाली में आमि -तुमि] व्यावहारिक जगत में भाषा कितनी बदल जाये, अर्थ व्यावहारिक ही है।
  पर जब 'विवेकानन्द युवा पाठ-चक्र' में आओ तो स्वामी विवेकानन्द से (या गुरुओं से) केवल शब्द ही मत सुनो , गुरु जब कहें 'अहं ब्रह्म अस्मि।' 'मेरा' जन्म नहीं हुआ ,मेरी मृत्यु नहीं होती' - कहें तो उसका अर्थ भी समझो। या 'तुम्हारा' जन्म नहीं हुआ, शब्द बदलने से क्या ? अर्थ तो बदलता ही नहीं। अर्थ पर ध्यान जाता ही नहीं। इसलिए कहते हैं --'वाच्य अर्थ को त्याग जरा, विज्ञान अर्थ में चित जोड़ो। ' आपकी बुद्धि (खोपड़ी) में पहले से शब्द का जो भी अर्थ है , पर गुरु शब्द नहीं बदल रहे , उस शब्द का जो तुम अर्थ करते थे - 'मैं देह' (आदम या हव्वा ?) मैं अमुक , 'मैं कर्ता हूँ।' उस 'मैं ' या तुम शब्द का प्रयोग तो वैसे ही करेंगे। पर अब उस 'मैं ' शब्द का अर्थ पारमार्थिक हो गया , व्यावहारिक मैं (Apparent I-काचा आमि, नश्वर शरीर) नहीं रह गया , पारमार्थिक मैं (Real I-पाका आमि , अविनाशी आत्मा) हो गया। ये है शब्दों की गहराई। यदि आप 'विवेकानन्द युवा महामण्डल में परमार्थ पाठचक्र' सुनते समय उसका अर्थ व्यावहारिक 'मैं' ही समझते हो , तो तुम 'पाठ-चक्र' के योग्य पात्र नहीं हो। अहं अस्मि - 'अहं देहो अस्मि ' और 'अहं ब्रह्म अस्मि !'  "मैं देह हूँ , मैं जीव हूँ "(आदम या हव्वा हूँ M/F हूँ) ! मैं जागने-सोने वाला , मैं जन्म-मरण वाला हूँ ? या मैं जन्म मरण से रहित (आत्मा) हूँ ? (अभी हमारे लिए यह खोज का विषय है।) (10:58 )
       'मैं' शब्द वही है। 'मैं' देह (Hand) से जुड़ गया , 'मैं' अन्तःकरण (Head आदि) से जुड़ गया। और यह 'मैं' ही शुद्ध चैतन्य ब्रह्म या आत्मा (Heart) जुड़ गया। अब आप विज्ञान अर्थ में चित जोड़ो। अब आप अपने चित्त को (मन-बुद्धि-चित्त -अहंकार को) व्यावहारिक मैं के साथ मत जोड़ो, पारमार्थिक मैं के साथ जोड़ो। प्रातिभासिक मैं (Apparent I व्यावहारिक मैं -काचा आमि) को छोड़ दो, और पारमार्थिक मैं (Real I-पाका आमि, अविनाशी आत्मा) पर चित्त लगाओ ! वही असली परमार्थ है। थोड़ा चन्दा कहीं दे दिए तो यह परमार्थ हो गया। एक मंदिर बना दिया , तो परमार्थ हो गया ? हाँ क्रम परम्परा से परमार्थ है। क्योंकि कोननगर महामण्डल भवन में आये हो तो विज्ञान का श्रवण करोगे। नवनीदा जैसे ज्ञानी महापुरुष के कैम्प में आये हो ? उनके निकट सानिध्य में वर्षों तक रहने का सौभाग्य मिला है ? तो आज , नहीं कल 'परम अर्थ' का ज्ञान होने लगेगा। 
जब हम भगवान के लिए 'वह' कहते हैं , तो जरा हमसे दूर हैं , इस अर्थ में प्रयोग हुआ। तो बताओ वो भगवान कहाँ रहता है , आसमान में या मंदिर में कहाँ रहता है? सब जगह रहता है ? (यदि मुझमें रहता है ?) तो फिर 'वह' कैसे हो सकता है ? सब जगह रहने वाले को वह कैसे कह सकते हो ? 'वह' तो 'तुम' से दूर होना चाहिए ? और 'तुम' सामने होना चाहिए। और 'मैं' 'मेरा' भी मैं होना चाहिए। वह रहता तो सब जगह है , पर वहाँ (अयोध्या) के कारण उसे 'वह' कहते हो , तो सामने के कारण उसे 'तुम' कहोगे ? और यहाँ के कारण उसी को 'मैं ' कहोगे। एक ही 'सत्य' के 'तीन नाम' होंगे। यदि 10 घड़े यहाँ हैं , कुछ सामने है। कुछ बहुत दूर है। तो वह मिट्टी जो दूर वाले घड़ों में रहती है, उस उपाधि के कारण वो 'वह' है , और सामने वाला 'तुम' मिट्टी हो , तुम सामने वाले में नहीं हो ? और मैं ? यदि वह अविनाशी मिट्टी है , दूर रहने के कारण। दूर रहने वाला कोई मकान - लालकिला , ताजमहल , वह नश्वर है , और 'वह' में जो मिट्टी है , वह नश्वर है कि नहीं ? या वह में अविनाशी है कि नहीं ? अच्छा सामने वाले 'तुम' में अविनाशी और नश्वर है कि नहीं ? अच्छा 'मैं '(3H) में नश्वर और अविनाशी है कि नहीं (14:35) तो एक सत्य (ब्रह्म , आत्मा या ईश्वर) को चाहे 'वह' कह लो , चाहे 'तुम' कह लो , चाहे 'मैं' कहलो !! इसमें कौन सी आपत्ति है ? और भ्रान्ति 'वह ' कहने में भी हो जाएगी , मूर्ख आदमी 'वह' के आश्रय को सत समझता नहीं। 'वह' कहता है - वो राम है , वो भगवान है। या कहेगा -'तुम' भगवान हो ! तो तुम ' से जिसको अविनाशी भगवान कहते हो उसमें नश्वर (देह और मन )  तो नहीं होगा ? अच्छा जिसको तुम अविनाशी कह रहे हो , वो मिलेगा ? क्या वह तुम्हें दीखता है ? जिसको 'वह ' कहते हो , उसमें दीखता है ? यदि अविनाशी दिखेगा तो जहाँ 'मैं ' कहते हो ,वहाँ नश्वर भी दिख जायेगा और वहीं 'नश्वर' का द्रष्टा 'अविनाशी' भी दिख जायेगा। (15:39) अविनाशी आत्मा साक्षात् अपरोक्ष 'वह' में नहीं होगा। 'वह' में परोक्ष ही रहेगा। जिसने अपने अभाव को देखा हो , अपनी गैरहाजरी जिसने स्वयं देखि हो , उसको मैं मिलना चाहूँगा। जिस (देह) को आप 'मैं' मान चुके हो , उसकी अनुपस्थिति तो आप देख सकते हो। जैसे मिट्टी घड़े की अनुपस्थिति देख सकती है। दीखता नहीं मिट्टी जड़ है , उदाहरण के लिए कहा गया। लेकिन मिट्टी अपनी अनुपस्थिति कब देखेगी ? अन्वय और व्यतिरेक का उदाहरण -चतुःश्लोकी भागवत 

एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनात्मन:। 
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा॥ (४)  

भावार्थ: आत्मतत्त्व को जानने की इच्छा रखने वाले के लिए इतना ही जानने योग्य है कि अन्वय (सृष्टि) या व्यतिरेक (प्रलय) क्रम में जो तत्त्व सर्वत्र और सर्वदा रहता है, वही आत्मतत्व है। 
आत्मतत्व के जिज्ञासु के लिए इतना ही जानने लायक है - अन्वय और व्यतिरे का भ्याम, जो जो नहीं रहता, और जो रहता है - दोनों एक जगह। उस अवस्था के न रहने से अपना न रहना। जब स्वप्न देख रहे थे , तब मन सो गया था। आँखे सो गयी थीं। यदि ऑंखे जागी होती तो तुम स्वप्न ही नहीं देख सकते थे। तुम और तुम्हारी बुद्धि नहीं सोई थी। केवट राम जी को कहता है , तुम्हारे बाप की सौगन्ध - तब तक मैं पार नहीं उतारूँगा। शपथ सांची कहो !  तो जब तुम जगत को नहीं देखते हो तब आम व्यावहारिक भाषा में उसे सोया कहा जायेगा। सोये थे इसलिए तुम्हें जगत नहीं दिखा। यदि तुम सचमुच सोये थे , तो स्वप्न अनुभव किसे हुआ ? ज्ञान न रहने के तुम चश्मदीद गवाह हो। अद्वैत वेदान्त की ये सच्चाई है। यदि हमको ग्रंथ , ऋषि , महर्षि , गुरु यदि उपलब्ध न होते। तो ये विद्या हमें कभी प्राप्त नहीं होती। अपना अभाव भ्रम है , अपना अभाव (माया) है। अपनी मृत्यु कल्पना है। और केवल मृत्यु नहीं अपना जन्म भी कल्पना है। अपना जन्म अपना जगना , अपना सोना। यह माया illusion मात्र है। 'वास्तविक मैं ' (Real I-पाका आमि, अविनाशी आत्मा) कभी नहीं जगता, 'वास्तविक मैं' कभी नहीं सोता। और सारे अनुभव जगने के बाद ही तो है। जब जगना ही झूठा है , केवल चित्त की वृत्तियों से मालूम पड़ने लगता है। तो जगने में  जो दिखा वो सब सच है क्या ? जगना ही पारमार्थिक नहीं है। जगना -सोना ये प्रकृति की एक प्रक्रिया है। मेरे गुरुदेव का नाम बालब्रह्मचारी , त्यागमूर्ति , परमहंस और परिव्राजकाचार्य गुरुदेव स्वामी अखण्डानन्द जी ' ऐसे गुरुदेव से सुना है। वो कहते थे -जाग्रत , स्वप्न , सुषुप्ति है बुद्धि की अवस्था। बुद्धि की जाग्रत अवस्था उस अवस्था को कहते हैं , जिसमें बुद्धि - मन और इन्द्रियों सीधा जुडी हुई होती है। जब बुद्धि इस देह-इन्द्रियों से सीधी जुड़ी हो , तो उस अवस्था को जागृत अवस्था कहते हैं। किन्तु जब बुद्धि हो पर मन और इन्द्रियों से जुड़ी न हों , उस समय वो बुद्धि जमा हुए संस्कारों के आधार पर अपनी -देह इन्द्रियों की रचना स्वयं कर लेती है, तब उसको स्वप्ना बोलते हैं। जब बुद्धि खुद सो जाती है , तब स्वप्ना भी नहीं देखती है। न जाग्रत है , उस अवस्था का नाम सुषुप्ति है। और ये तीनों अवस्थाएं -
 " जाग्रत , स्वप्न , सुषुप्ति हैं बुद्धि की अवस्था। 
मैं बुद्धि से परे हूँ , मैं बुद्धि को धरे हूँ। 
बुद्धि मेरे से अलग कहीं नहीं रहती। 

जैसे मिट्टी घड़े से परे है। अर्थात 'घड़े' का जन्म-मरण 'मिट्टी' को छूता नहीं है। घड़े के मर जाने से , मिट्टी भी क्या थोड़ी सी मर जाएगी ? घड़े के जन्मने मिट्टी क्या जन्म लेगी ? तो घड़े से परे है , और धरे कौन है ? घड़े से परे है और घड़े को धरे है। तो मैं बुद्धि से परे हूँ , या घड़े को धरे हूँ , 'याते सदा शिवोहं !' इस आत्मविद्या को सुनो। पढ़ो कम सुनो ज्यादा। सुनने में शब्द के साथ अर्थ आता है। सुनने से शब्द की गहराई स्पष्ट होती है। स्वर से ध्वनि से भी अर्थ निकलते हैं। कुछ इशारों से निकलते हैं , जो किताबों में पढ़ते समय तुम अर्थ अपना निकालते जाओगे। यहाँ तुम्हें तुम्हारा अर्थ नहीं निकालने देंगे। अपना अर्थ तुम्हारी खोपड़ी में डालेंगे। इसलिए आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः । #बृहदारण्यकोपनिषत्
आत्मज्ञान (ज्ञान) का अभाव दुःख और व्याकुलता की ओर ले कर जाता है।यथार्थ की खोज करें, यह समाधान, मन की शांति और आनंद प्रदाता है। इसलिए ज्ञानी से ही सुनना चाहिए - श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्‌ ! तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया। उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।4.34।। जो श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ नहीं है , उससे वेदान्त मत सुनना। वो गुड़ को गोबर कर देगा। और कोई ब्रह्मज्ञानी है वो गोबर को गायब करके गुड़ ही गुड़ दिखा देगा। (30:14) जिस संसार और जन्म-मरण को देखकर आप परेशान हो , ये है कहाँ ? 
झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें॥
जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥ (बालकाण्ड) 
जिसके बिना जाने झूठ भी सत्य मालूम होता है, जैसे बिना पहचाने रस्सी में साँप का भ्रम हो जाता है; और जिसके जान लेने पर जगत् का उसी तरह लोप हो जाता है, जैसे जागने पर स्वप्न का भ्रम जाता रहता है।
इस ब्रह्म विद्या का श्रवण , ब्रह्मविद्या की उपलब्धि गुरुवाक्यों के श्रवण से होगी। उपनिषद वचनों से होगी। गीता वचनों से होगी। श्रीमद्भागवत के उन प्रकरणों से होगी जहाँ , भ्रम निवारण के लिए भागवत में कुछ कहा है। विद्वानों की परीक्षा भागवत से होती है -विद्यावतां भागवते परीक्षा ।।(जो व्यक्ति भागवत के गूढ़ अर्थों को समझता है और उसकी व्याख्या करता है, वही सच्चा विद्वान है)। कोई ग्रन्थ मुक्ति देने वाले हैं , और कोई ग्रन्थ जीते में कैसे रहते हैं, क्या समझ के रहना , समझ देनेवाली , आचरण देने वाली , है वो रामायण है। आपको सुनने के बाद जब पहले वाली बुद्धि - झूठी लगने लगे। जो बुद्धि अभीतक के अनुभवों को झूठा कर दे उसे विद्या (Wisdom-विवेक) कहते हैं। जो बुद्धि अभी तक के अनुभवों को (देहाभिमान के कारण हुए अनुभवों को) खा जाये। उसका नाम 'प्रज्ञा' है -शुद्धबुद्धि है ! और अन्त में जो बुद्धि का भी मोहताज (dependent) न रह जाये। कैसे बुद्धि के आश्रित न रहे ? जागृत अवस्था में बुद्धि ने सोंचा - लेकिन नींद में ये जागृत वाली बुद्धि नहीं रहेगी। जागृत में बुद्धि ने निर्णय किया कि अब हम सो जायेंगे। जगत की कल्पना तक उस समय नहीं रहेगी। पर उस समय 'तुम' न रहोगे - ऐसा मन में आता है ? इसका मतलब जागृत में ही बुद्धि ने निर्णय कर लिया कि सुषुप्ति में भी मेरी मृत्यु नहीं होगी। (33:08) इसीलिए मच्छरदानी लगा के सोते हैं। बुद्धि न रहने से मेरी मृत्यु होती तो हम सोते नहीं , कीर्तन करते रहते। दुःख , बड़पन्न कोई भी तुम्हारे बिना सहारे नहीं रह सकता। 
जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू॥
जासु सत्यता तें जड़ माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥ (बाल काण्ड) 
यह जगत् प्रकाश्य है और राम इसके प्रकाशक हैं। वे माया के स्वामी और ज्ञान तथा गुणों के धाम हैं। जिनकी (आत्मा , भगवान की) सत्ता से, मोह की सहायता पाकर जड़ माया भी सत्य-सी भासित होती है। जो तुम्हें भासता है (Apparent I) , वो तुम्हें सत्य (Real I) लगता है। ज्ञानी को (आत्मज्ञानी को) जो भासता है , वो उसे स्वप्न लगता है। जिससे और जिसके कारण भासता है - राम जी की माया है , तो राम जी (अवतार वरिष्ठ-माँ सारदा) सत्य लगता है। न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्रतारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्निः ...  'तस्य भासा इदं सर्वम् विभाति ॥' (35:52

       जिसके भासने से जगत भासता है। ऐसे बहुत से श्लोक हैं। बस इतना ही तो जानना है। { वहां न सूर्य प्रकाशित होता है और चन्द्र आभाहीन हो जाता है तथा तारे बुझ जाते हैं; वहां ये विद्युत् भी नहीं चमकतीं, तब यह पार्थिव अग्नि भी कैसे जल पायेगी? जो कुछ भी चमकता है, वह उसकी आभा से अनुभासित होता है, यह सम्पूर्ण विश्व उसी के प्रकाश से प्रकाशित एवं भासित हो रहा है।} अन्वय और व्यतिरेक से बस इतना ही जानने लायक है! इसलिए तो चतुःश्लोकी भागवत में कहा 'एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनात्मन:। ' अन्वय से व्यतिरेक से - जो रहता है , जो नहीं रहता। जानने का माध्यम क्या है ? जानने का माध्यम व्यतिरेक है - कुछ का न रहना। जानने का सहयोगी न रहना। एक समान जो नहीं रहता है , उसका न रहना। और इनके परिवर्तन के साक्षी का रहना। पहले 'मैं सत् हूँ' , यह जानो। अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा। ' पहले सदा रहने वाला को जानो , फिर दूसरा 'सर्वत्र यत् स्यात्' जो सर्वत्र है और सदा है।  इस ब्रह्म-आत्मा ऐक्य बोध के बिना शंकराचार्यजी कहते हैं , न मोक्षः सिद्धयति अन्यथा।   
न योगेन न सांख्येन कर्मणा नो न विद्यया।
ब्रह्मात्मैकत्वबोधेन मोक्षः सिध्यति नान्यथा।। 
(वि०चु० 58)   
मोक्ष की सिद्धि योग,सांख्य,कर्म या शास्त्र अध्ययन द्वारा ही नहीं,अपितु केवल ब्रह्म तथा आत्मा के एकत्व-बोध के द्वारा ही सम्पन्न होती है। मोक्ष का उपाय यही है कि आत्मा और ब्रह्म की भिन्नता का भ्रम चला जाये। 
[भास सत्य इव मोह सहाया॥  - सत्य की भांति लग रहा है इसका ये अर्थ नही कि सत्य ही है। तो फिर जब ये माया तीनों काल में असत्य है फिर सत्य क्यों लग रहा है?
इसका कारण वो माया नहीं बल्कि मोह है, हमारी आसक्ति है क्योंकि हमें रजत अर्थात् चांदी से मोह न हो तो सीप में यदि सचमुच में चांदी भी हो तो क्या काम? यदि हमें मार्ग में दो हजार के नोट के आकार के ही सादा कागज, या पाचक वाले नोट दिखाई दे तो कोई आसक्ति होगी क्या? *सचमुच हमारे ये संसार जनित क्रंदन व्यर्थ ही है प्रभु*!!! बस ‌*उपजा ग्यान* में विलम्ब है। अवतार-वरिष्ठ के शरण में गए बिना माया हटेगी नहीं। जिसका कारण है हममें उस व्याकुलता का अभाव जिससे रघुराया शीघ्र दाया कर देते हैं...तारा बिकल देखि रघुराया। *दीन्ह ग्यान* *हर लीन्ही माया*।। रजत सीप महुँ भास जिमि जथा भानु कर बारि। जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि॥ 117॥भावार्थ-जैसे सीप में चाँदी की और सूर्य की किरणों में पानी की (बिना हुए भी) प्रतीति होती है। यद्यपि यह प्रतीति तीनों कालों में झूठ है, तथापि (ठाकुर देव की शरण में गए बिना) इस भ्रम को कोई हटा नहीं सकता॥ 117॥}              

[ अन्वय और व्यतिरेक ये दोनों वेदांत में  हेतुलक्षण (cause-effect relationship) को सिद्ध करने के लिए किया जाता है।  अन्वय - जहाँ-जहाँ कारण होता है, वहाँ-वहाँ कार्य भी होता है।उदाहरण: जहाँ-जहाँ धुआँ होता है, वहाँ-हाँ अग्नि होती है। जब ब्रह्म के साथ किसी लक्षण की सन्निधि देखी जाती है, जैसे – ब्रह्म के साथ चैतन्यता (consciousness) का अन्वय। व्यतिरेक  जहाँ-जहाँ कारण नहीं होता, वहाँ-हाँ कार्य भी नहीं होता।उदाहरण: जहाँ-जहाँ अग्नि नहीं होती, वहाँ-हाँ धुआँ भी नहीं होता। जैसे तालाब। उपनिषदों में ब्रह्म-तत्व को प्रतिपादित करने में अन्वय-व्यतिरेक का उपयोग होता है।  उदाहरण के लिए, “नेति नेति” (यह नहीं, वह नहीं) – यह एक तरह का व्यतिरेक ही है।
अगर आपके पास इतना समय नहीं है कि पूरी भागवत का पाठ कर सकें और आप करना चाहते हैं। परेशान मत होइये ये चार ऐसे श्लोक हैं जिनमें संपूर्ण भागवत-तत्व का उपदेश समाहित है। यही मूल चतु:श्लोकी भागवत है। पुराणों के मुताबिक, ब्रह्माजी द्वारा भगवान नारायण की स्तुति किए जाने पर प्रभु ने उन्हें सम्पूर्ण भागवत-तत्त्व का उपदेश केवल चार श्लोकों में दिया था। वे चार श्लोक, जिनके पाठ से पूरी भागवत पाठ का फल मिलेगा।
श्लोक- १: अहमेवासमेवाग्रे नान्यद यत् सदसत परम।पश्चादहं यदेतच्च योवशिष्येत सोस्म्यहमअर्थ- सृष्टि से पूर्व केवल मैं ही था। सत्, असत या उससे परे मुझसे भिन्न कुछ नहीं था। सृष्टी न रहने पर (प्रलयकाल में) भी मैं ही रहता हूं। यह सब सृष्टीरूप भी मैं ही हूँ और जो कुछ इस सृष्टी, स्थिति तथा प्रलय से बचा रहता है, वह भी मैं ही हूं।
श्लोक-२: ऋतेर्थं यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि।तद्विद्यादात्मनो माया यथाभासो यथा तम:। अर्थ- जो मुझ मूल तत्त्व को छोड़कर प्रतीत होता है और आत्मा में प्रतीत नहीं होता, उसे आत्मा की माया समझो। जैसे (वस्तु का) प्रतिबिम्ब अथवा अंधकार (छाया) होता है।
श्लोक- ३ : ऋतेर्थं यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि।तद्विद्यादात्मनो माया यथाभासो यथा तम:। अर्थ- जो मुझ मूल तत्त्व को छोड़कर प्रतीत होता है और आत्मा में प्रतीत नहीं होता, उसे आत्मा की माया समझो। जैसे (वस्तु का) प्रतिबिम्ब अथवा अंधकार (छाया) होता है।
श्लोक-४: एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनात्मन:। अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा॥अर्थ- आत्मतत्त्व को जानने की इच्छा रखनेवाले के लिए इतना ही जानने योग्य है की अन्वय (सृष्टी) अथवा व्यतिरेक (प्रलय) क्रम में जो तत्त्व सर्वत्र एवं सर्वदा रहता है, वही आत्मतत्व है।श्लोक-4एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनात्मन:। अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा॥अर्थ- आत्मतत्त्व को जानने की इच्छा रखनेवाले के लिए इतना ही जानने योग्य है की अन्वय (सृष्टी) अथवा व्यतिरेक (प्रलय) क्रम में जो तत्त्व सर्वत्र एवं सर्वदा रहता है, वही आत्मतत्व है।              

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अव्यक्तनाम्नी परमेशशक्ति-
रनाद्यविद्या त्रिगुणात्मिका परा।
कार्यानुमेया सुधियैव माया
यया जगत्सर्वमिदं प्रसूयते।। विवेक-चूड़ामणि110।।
Avidya (nescience) or Maya, called also the Undifferentiated, is the power of the Lord. She is without beginning, is made up of the three Gunasand is superior to the effects (as their cause). She is to be inferred by one of clear intellect only from the effects She produces. It is She who brings forth this whole universe.

अनादी अविद्या (nescience : अस्मिता , राग-द्वेष, अभिनिवेश , पंचक्लेश) परमेश्वर कि त्रिगुणात्मक अव्यक्त शक्ति है। सृष्टि - निर्माण कार्य कि वह कारण होनेसे श्रेष्ठ है। बुद्धिमान पुरुष कार्य देखकर उसका अनुमान करते है, ऐसी है यह माया ! जिसके कारण चर-अचर जगत् निर्माण होता है।   
>>“एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म” / Param Vani / "सत्य एक है, दूसरा कोई नहीं"...

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