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शुक्रवार, 19 मई 2017

अधिकांश युवा स्वामी विवेकानन्द के प्रति क्यों आकर्षित हो जाते हैं ?

*१/ नरेन्द्रनाथ को देखते ही श्रीरामकृष्ण उनके साथ चिरपरिचित की तरह सरल भाव से वार्तालाप करने लगे। संगीत और वार्तालाप समाप्त होने पर एकाएक श्रीरामकृष्ण उन्हें बुलाकर एकान्त में ले गये। भाव में विभोर हो उन्होंने नरेन्द्र का हाथ पकड़कर स्नेहपूर्ण गदगद कण्ठ से कहा -"तू इतने दिन तक मुझे भूलकर कैसे रहा ! कब से मैं तेरे आने की बाट जोह रहा हूँ। विषयी लोगों के साथ बात करते करते मेरा मुँह जल गया है। " ... देखते ही देखते श्रीरामकृष्णदेव हाथ जोड़कर सम्मान के साथ उन्हें सम्बोधित कर कहने लगे, " आमी जानी प्रोभू ... मैं जानता हूँ, तुम सप्तऋषि-मण्डल के ऋषि हो-नररूपी नारायण हो; जीवों के कल्याण की कामना से तुमने देह धारण की है। इत्यादि। यह कैसा विचित्र पागलपन है। मैं कहाँ विश्वनाथ दत्त का पुत्र नरेन्द्र, और कहाँ इनकी ये सब बातें !"पेज ५१/ 
श्रीरामकृष्ण पहले ही समझ गए थे कि इस युवक को समय आने पर जगत के सैकड़ों-हजारों धर्मपिपासु नरनारियों की आध्यात्मिक तृष्णा मिटानी होगी, पाश्चत्य सभ्यता के अनुकरण के गर्व से दिग्भ्रान्त स्वदेश-वासियों को लुप्तप्राय सनातन धर्म के पथ पर लौट आने के लिये पुकारना होगा। और सबसे बढ़कर, उन्होंने यह बात अच्छी तरह से समझ ली थी कि उनके जीवन में प्रकाशित "जितने मत उतने ही पथ" -रूपी सर्वधर्म-समन्वय के आदर्श के प्रचार कार्य में नरेन्द्रनाथ ही सबसे योग्य अधिकारी है। भविष्य में मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निमार्णकारी आन्दोलन को सम्पूर्ण विश्व में फैला देने में समर्थ भावी युवा-मण्डली के भावी नेता के रूप में उनका जीवन गठित करने के लिए, श्रीरामकृष्ण उन्हें सर्वमतों के आधारस्वरूप वेदान्त में वर्णित साधनमार्ग में परिचालित करने के लिये प्रयत्नशील हुए। 
पर नरेन्द्रनाथ बचपन में राम-भक्त थे किन्तु पाश्चात्य शिक्षा से प्रभावित होकर सगुण-निराकार के ध्यान में आस्था रखने वाले थे। उन्होंने अद्वैतवाद का ग्रहण काफी समय बाद किया। ब्रह्मसमाज के धर्ममत के अनुसार श्रीरामकृष्ण की शिक्षाओं का प्रतिवाद करते हुए वे कह उठते - 'मैं ही ब्रह्म हूँ ' कहना -यह तो ईश-निन्दा है,इसके सदृश दूसरा पाप नहीं है। बार बार श्री ठाकुर के मुँह से सुनकर भी नरेन्द्रनाथ स्वयं इस बात पर विश्वास नहीं करते थे कि वे अधिकारी पुरुष हैं; और जगदम्बा के विशेष कार्य-सिद्धि के उद्देश्य से अवतीर्ण हुए हैं ! .... नरेन्द्र के मन में एक आँधी सी चलने लगी क्या श्री रामकृष्ण त्यागकुल-शिरोमणि, सरल,उदार, प्रेमिक पुरुष हैं या विकृतमस्तिष्क हैं ? वे क्या हैं ? कौन हैं वे ? क्यों वे मुझ जैसे क्षुद्र व्यक्ति के लिये सदा चिन्तित रहते हैं (तोमार एटा की होयेचे?) श्रीरामकृष्ण के अपूर्व, निष्काम प्रेम का कारण खोजते हुए उन्हें कोई युक्ति नहीं मिल रही थी। .... किसी प्रकार का निश्चय कर पाने में असमर्थ हो अस्थिर हो उठे , सतर्कता के साथ उनका निरीक्षण करने के लिये दक्षिणेश्वर आना-जाना करने लगे, यहाँ तक कि उनकी परीक्षा करने के लिये दक्षिणेश्वर में रात्रिवास भी करने लगे। 
एक दिन नरेन्द्रनाथ श्रीरामकृष्ण के सामने भक्तों के बीच बैठे थे। प्रसंगवश कहने लगे - "भाव में मैंने देखा, केशव ने जिस शक्ति के बल पर प्रतिष्ठा प्राप्त की है, नरेन्द्र में उस प्रकार की अठारह शक्तियाँ हैं। केशव और विजय के मन में ज्ञानदीप जल रहा है, नरेन्द्र में ज्ञानसूर्य विद्यमान है। ... इसके (उनके अपने शरीर के) भीतर जो है, वह शक्ति है। उसके (नरेन्द्र के) भीतर जो है, वह पुरुष है, वह मेरी ससुराल है।" 
इन बातों को सुनकर नरेन्द्र धीरे से हँस पड़े।  मन ही मन सोचा, फिर पागलपन शुरू हुआ ? सब जब चले गए तो श्रीरामकृष्ण एकटक से नरेन्द्रनाथ की ओर देख रहे थे; एकाएक आसन से उठकर उन्होंने अपना दाहिना चरण उनके कन्धे पर रखा। उसी समय नरेद्र का अभूतपूर्व भावान्तर हुआ। उन्होंने अनुभव किया, मानो उनके आसपास की दृश्यमान सभी वस्तुएं एक अनन्त सत्ता में विलीन हो गयीं, केवल वे अकेले रह गए, अंत में उनका 'मैंपन' भी विलीन होने लगा।  वे भय और विस्मय से चीत्कार कर उठे -'अजी, तुमने मेरा यह क्या किया ? मेरे माँबाप जो हैं !" श्रीरामकृष्ण के छाती पर हाथ रखते ही वे फिर से स्वाभाविक स्थित में आ गए। नरेन्द्रनाथ को अपने दृढ़हृदयता पर जो गर्व था, आज वह जड़मूल से चूर चूर हो गया। वे मातापिता की ममता से अंधे होकर, नामरूप की सीमा को तोड़कर योगियों को दुर्लभ चिदानन्द-समुद्र में न कूद सके। ... सोचने लगे जो महापुरुष केवल अपने स्पर्श से (केवल दृष्टि से भी ?) एक साधारण व्यक्ति को अनेक जन्मों की साधना के फलरूपी सर्वश्रेष्ठ आध्यात्मिक सम्पद -समाधि-धन का अधिकारी बना सकते हैं, वे कभी पागल तो नहीं हो सकते ! उन्होंने फिर सोचा कहीं ये हिप्नोटाइज्ड करना तो नहीं जानते हैं ? अतः सावधान रहने लगे कि दुबारा वे इस प्रकार भवान्तर न कर दें ! " वि० चरित-पृ ० ५९-६०/  
 " श्रीरामकृष्ण-लीलाप्रसंग" नामक ग्रन्थ में नरेन्द्र के दक्षिणेश्वर आने से बहुत पहले घटे श्रीरामकृष्ण के एक दिव्यदर्शन की बात का उल्लेख करते हुए स्वामी सारदानन्दजी लिखते हैं - " श्रीरामकृष्णदेव ने कहा था - एक दिन देखता हूँ, मन समाधि-पथ में ज्योतिर्मय मार्ग से ऊपर उठता जा रहा है। चन्द्र, सूर्य, नक्षत्रादि से भरे हुए स्थूल जगत को सरलता से लाँघकर वह पहले पहल सूक्ष्म भावजगत में प्रविष्ट हुआ। उस राज्य के उच्च से उच्चतर स्तरों पर वह जितना ही चढ़ने लगा, उतना ही विभिन्न देवी-देवताओं की भावघन विचत्र मूर्तियों को रास्ते के दोनों ओर देखने लगा। धीरे धीरे उस राज्य की चरम सीमा पर आ पहुँचा। वहाँ मैंने देखा, एक ज्योतिर्मय रेखा ने खण्ड और अखण्ड के राज्य को अलग अलग कर दिया है। 
उस रेखा को लाँघकर मन धीरे धीरे अखण्ड के राज्य में प्रविष्ट हुआ। मैंने देखा, वहाँ पर साकार कुछ भी नहीं है। दिव्य देहधारी देवीदेवतागण भी मानो वहाँ प्रवेश करते भयभीत होकर बहुत दूर नीचे अपना अपना अधिकार चला रहे हैं। परन्तु दूसरे ही क्षण देखा, दिव्य ज्योतिसम्पन्न सात श्रेष्ठ ऋषि वहाँ पर समाधिस्त होकर बैठे हैं। मैं समझ गया कि ज्ञान और पुण्य में, त्याग और प्रेम में इन्होने, मानवों की कौन कहे, देवीदेवताओं को भी दूर छोड़ दिया है। 
मैं विस्मित होकर इन ऋषियों की महानता के बारे में सोच ही रहा था कि एकाएक दीख पड़ा, सम्मुखस्थ अखण्ड के घर के भेद-रहित, समरस ज्योतिर्मण्डल का एक अंश घनीभूत होकर दिव्य शिशु के रूप में परिणत हुआ। उस देवशिशु ने उनमें से एक के पास उतरकर अपनी अपूर्व सुललित बाहुओं से उनके गले को प्रेम के साथ लपेट लिया। इसके बाद वीणाध्वनि से भी सुमधुर अपनी अमृतमयी वाणी में प्रेम के साथ पुकार कर उन्हें समाधि से जगाने के लिये भरसक चेष्टा करने लगा। बालक के कोमल प्रेमपूर्ण स्पर्श से ऋषि समाधि से जागे और अर्धनिमीलित निर्निमेष नेत्रों से उस अपूर्व बालक की तरफ देखने लगे। उनके मुख का प्रसन्नोजज्वल भाव देखकर ऐसा लगा, मानो वह बालक बहु काल से उनका परिचित और हृदयनिधि ही हो। वह अद्भुत देवशिशु उस समय असीम आनन्द के साथ उनसे कहने लगा, 'मैं जा रहा हूँ। तुम्हें आना होगा !' उसके इस अनुरोध पर ऋषि ने कहा तो कुछ नहीं, परन्तु उनके प्रेमपूर्ण नेत्रों ने उनके हृदय की सम्मति व्यक्त कर दी। बाद में उसी प्रकार सप्रेम दृष्टि से बालक को थोड़ी देर देखते देखते वे पुनः समाधिस्थ हो गए। उस समय मैंने विस्मय के साथ देखा, उन्हीं के शरीर-मन का एक अंश उज्ज्वल ज्योति के रूप में परिणत होकर -विलोम मार्ग से धराधाम पर अवतरण कर रहा है। नरेन्द्र को देखते ही मैंने समझ लिया था कि यही वह दैवी पुरुष है। " (विवेकानन्द चरित पृ० ५२) 
*२/ आध्यात्मिक शक्ति (लीडरशिप पॉवर या गुरु शक्ति) का संचार :  - नरेन्द्रनाथ को योग्य लोकशिक्षक के रूप में गढ़ देना ही काशीपुर के इस चरण का एक विशेष उद्देश्य था। श्रीरामकृष्ण ने लीला संवरण करने से पहले ही  महाशक्ति की सहायता से अपने भावों के संवाहक नरेन्द्रनाथ में शक्ति संचारित कर दी थी। उसी शक्ति से शक्तिशाली होकर परवर्तीकाल में नरेन्द्र ने जगतकल्याण के कार्य में एक प्रचण्ड हलचल मचा दिया था। 
महासमाधि के तीन-चार दिन पहले की बात है (जमशेदपुर में ?) -जब ठाकुर और नरेन्द्र एकान्त में बातचीत कर रहे थे, तब एक महत्वपूर्ण घटना घटित हुई। परवर्तीकाल में नरेन्द्र ने स्वयं इस विषय में कहा है  " ठाकुर की देह जाने के तीन-चार दिन पहले उन्होंने मुझे अकेले में पास बुलाया। मुझे अपने सामने बिठाकर मेरी ओर अपनी दृष्टि निबद्ध रखते हुए वे समाधिमग्न हो गए।  मैंने अनुभव किया कि उनके शरीर से एक सूक्ष्म तेज विद्युत् की तरंग की भाँति एक शक्ति निकलकर मेरे शरीर में प्रविष्ट हो रही है। धीरे धीरे मैं अपना बाह्यज्ञान खो बैठा। मैं निश्चल हो गया। मुझे याद नहीं कितनी देर तक मैं इस प्रकार बैठा रहा। जब बाह्यचेतना लौटी तो देखा कि ठाकुर रो रहे हैं। मेरे पूछने पर वे बहुत प्यार से बोले - 'आज तुझे सर्वस्व देकर मैं फकीर हो गया हूँ।  इस शक्ति के द्वारा तू संसार का बहुत कार्य करेगा। कार्य समाप्त होने पर तू लौट जायेगा। 
श्रीरामकृष्णदेव की महासमाधि के दो दिन पूर्व की घटना है। नरेन्द्र सोच रहे थे - 'रामचन्द्र दत्त, गिरीश आदि भक्तगण जो श्रीरामकृष्ण को स्वयं भगवान मानते हैं , क्या यह सत्य है ? इतना कष्ट सहने वाले श्रीरामकृष्ण क्या सचमुच युगधर्म-प्रवर्तक अवतार पुरुष हैं ? तब उसी क्षण - अन्तर्यामी भगवान ने ऑंखें खोलकर पूर्ण दृष्टि से नरेन्द्र की ओर ताकते हुए कहा - " क्या नरेन् , अभी तक तुझे विश्वास नहीं हुआ ? अरे ! जो राम, जो कृष्ण, वही अबकी बार एक ही आधार में रामकृष्ण, तेरे वेदान्त की दृष्टि से नहीं-साक्षात्!"  
इस घटना का उल्लेख करते हुए परवर्तीकाल में स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - " मैं तो यह सुनकर भौचक्का हो गया। प्रभु के श्रीमुख से बारम्बार सुनने पर भी हमें ही अभी तक पूर्ण विश्वास नहीं हुआ-सन्देह और निराशा में मन कभी कभी आन्दोलित हो जाता है-तो औरों की बात ही क्या ? अपने ही समान एक देहधारी एक मनुष्य को ईश्वर कहकर निर्दिष्ट करना और उस पर विश्वास रखना बड़ा ही कठिन है। सिद्धपुरुष या ब्रह्मज्ञ तक अनुमान करना सम्भव है। उनको चाहे जो कुछ कहो, चाहे जो कुछ समझो, महापुरुष मानो या ब्रह्मज्ञ -इसमें क्या धरा है ? परन्तु श्रीगुरुदेव जैसे पुरुषोत्तम ने इससे पहले जगत में और कभी जन्म नहीं लिया है। संसार के घोर अंधकार में यही महापुरुष "प्रकाशस्तम्भ-स्वरूप" मानवजाति के मार्गदर्शक नेता हैं! इनकी ही ज्योति से मनुष्य संसार-समुद्र से पार चले जायेंगे। " ६/४९              
*३/ हुकुमनामा:  ११ फरवरी १८८६ श्रीरामकृष्ण ने एक पेन्सिल और कागज माँग लिया। उन्होंने एकाग्रता पूर्वक कागज के ऊपर लिखा - " जय राधे प्रेममयी नरेन शिक्षा देगा, जब घर और बहार हुँकार देगा। जय राधे। " उन्होंने बंगला भाषा में इस प्रकार लिखा था - " जय राधे प्रेममयी -नरेन शिक्षे दिबे जखन घरे बाहिरे हाँक दिबे, जय राधे।" जगतपति श्रीरामकृष्ण (मानवजाति के मार्गदर्शक नेता) अपने द्वारा निर्वाचित पुरुष श्रेष्ठ (वुड बी लीडर) को लोकशिक्षा के लिये लिखित आदेश (हुकुमनामा या चपरास) देकर ही नहीं रुके। उन्होंने सहज भावावेग में उसी क्षण बयान के नीचे एक महत्वपूर्ण चित्र भी अंकित किया। वह चित्र बयान में छिपी भावनाओं के प्रकटीकरण से परिपूर्ण वह एक मनोहर रेखा चित्र था। श्री ठाकुर ने चित्र में एक 'आवक्ष मुखाकृति' बनायी। जिसके नेत्र विशाल और दृष्टि ठहरी हुई (Pacific या प्रशान्त) थी -मुखाकृति का अनुगमन करता हुआ लम्बी पूँछवाला धावमान एक मयूर पक्षी। मानो नव-निर्वाचित नेता (लोकशिक्षक) के पीछे चपरास (Passport अभयपत्र) प्रदानकर्ता स्वयं जगतपति जा रहे हैं। नरेन्द्रनाथ के पीछे श्रीरामकृष्ण हैं!" मास्टर महाशय ने अपनी डायरी में श्रीरामकृष्ण के लिखित बयान और अंकित चित्र का हूबहू नकल उतार कर रख लिया। इसके साथ ही लिखा - I take without leave as something too valuable to be lost. 
श्री रामकृष्ण महिमा का जो अनन्य उद्देश्य (Absolute purpose) था -वह था नवयुवकों की एक विशाल संख्या को " रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा" (BE AND MAKE)" में प्रशिक्षित कर के उन्हें आध्यात्मिक रूप से जागृत लोकशिक्षक (वैष्णव-जन" *४ / वुड बी वेदान्ती लीडर्स या टीचर्स) के रूप में रूपान्तरित कर देना। 
"वैष्णव जन तो तेने कहिये" गुजरात के संत कवि नरसी मेहता द्वारा रचित भजन है जो महात्मा गाँधी को बहुत प्रिय था। नरसी मेहता गुजरात में जन्मे अपूर्व कृष्ण भक्त हुए है जिन्होंने ना केवल कृष्ण के दर्शन किये थे बल्कि प्रभु ने उनकी पुत्री नानी बाई का भाई बन कर भात भी भरा था। इस भजन की प्रत्येक पंक्ति में मानवजाति के भावी मार्गदर्शक नेताओं के चारित्रिक गुणों का वर्णन किया गया है :- 
वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीर पराई जाणे रे ।
पर दुःखे उपकार करे तोये, मन अभिमान न आणे रे ।।
वैष्णव जन तो तेने कहिये जे....
अर्थात सही मायने में विष्णु-भक्त, लोकशिक्षक या नेता वही है - जो दुसरे व्यक्ति की पीड़ा को जान पाता है,और उसे तह दिल से दूर करने की कोशिश करता है। जानने का अर्थ यह नहीं की उसको पता है कि आपको क्या तकलीफ है, इसका अर्थ है कि जो अपने स्वयं की और किसी अनजाने-मनुष्य की , दोनों की पीड़ा को (हिप्नोटाइज्ड अवस्था में रहने की पीड़ा को ) मन में केवल एक बार महसूस कर सके नहीं, बल्कि जो निरन्तर महसूस करता रहता हो। ऐसे मनुष्य को ही 'वैष्णव जन' अर्थात श्रीरामकृष्ण की सन्तान या मानवजाति का मार्गदर्शक नेता समझना चाहिए |

सकल लोक माँ सहुने वन्दे, निन्दा न करे केनी रे। 
वाच काछ मन निश्चल राखे, धन-धन जननी तेरी रे ।।
वैष्णव जन तो तेने कहिये जे....
वैष्णव -जन बिल्कुल अपने जैसा मनुष्य होने के कारण दूसरों को कभी पराया नहीं मानता, - मानवमात्र को ही अपना मानता है।  वह जब किसी सिंह-शावक को भेंड़ -शिशु होने के भ्रम में भयभीत होते देखता है; " पंचभूतों के फन्दे में फँसे ब्रह्म"  को रोता हुआ देखता है, तो बिल्कुल निःस्वार्थ भाव से उसको भ्रममुक्त करने या डीहिप्नोटाइज्ड  करने के लिये आगे बढ़ता है! उस समय उसे बहुत सतर्क रहना चाहिये। नेतागिरी या गुरुगिरि का भाव नहीं रखकर, स्वयं को उस प्रभु का सेवक मानकर उसकी सेवा करनी चाहिये।  दुःख में वह दुखी व्यक्ति की मदद करें किन्तु मन में स्वयं को उससे श्रेष्ठ समझने का भाव ना लाये, क्योकि 'होलियर देन दाऊ होने के भाव' को अहंकार बनने में समय नहीं लगता है। इसीलिये यदि भगवान श्रीरामकृष्ण की कृपा से किसी की सहायता करने का अवसर मिला हो, तो  उसको याद मत रखो भूल जाओ। क्योंकि 
नेकी कर कुए में डाल, 
किसी का भला करने का सौभाग्य मिले तो मत ठोको ताल  
सन्त तुलसीदास जी ने भी रामचरितमानस में कहा है-आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी॥ सियाराम मय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥ चौरासी लाख योनियों में चार प्रकार के (स्वेदज, अंडज, उद्भिज्ज, जरायुज) जीव जल, पृथ्वी और आकाश में रहते हैं, उन सबसे भरे हुए इस सारे जगत को सीताराममय जानकर मैं दोनों हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ। सारे संसार में अनेको प्रकार के प्राणी हैं, पर वैष्णव जन कभी अपने प्रति, या दुसरो के प्रति बुरे स्वभाव वाले व्यक्ति की बुराई ना करें , क्योंकि अच्छे-बुरे सभी मनुष्य, अपने उसी स्वभाव से प्रेरित होकर कर्म करते हैं, जो उन्हें राम ने दिया है। 'राम ही विपदा ,राम ही दुखी ,राम का सहारा और राम ही सुखी ! ' जिसके लिए सर्व जगत राम-मय हो गया है तो वह किसी की निंदा क्या करेगा। 
वाच काछ मन निश्चळ राखे, धन धन जननी तेनी रे॥ 
जो व्यक्ति अपनी दृष्टि ,कर्म या व्यवहार और वाणी से अपने मन को निश्छल रख सकता हो, ऐसे पुत्र को जन्म देने वाली जननी या माता धन्य है , माँ ! आप धन्य है।  क्योंकि  

समदृष्टि ने तृष्णा त्यागी, पर स्त्री जेने मात रे ।
जिहृवा थकी असत्य न बोले, पर धन नव झाले हाथ रे ।।
वैष्णव जन तो तेने कहिये जे....

समदृष्टि ने तृष्णा त्यागी - अर्थात जब व्यक्ति सम्पूर्ण अस्तित्व के साथ अपने यथार्थ स्वरूप के एकत्व का अनुभव करके नन-डूएलिटी या 'अद्वैत-भाव ' का अनुभव कर लेता है, तब उसे जिस परमानन्द (भूमानन्द) की अनुभूति होती है, वह ब्रह्मानन्द (The Bliss of Brahman) ही मोहग्रस्त मनुष्य (हिप्नोटाइज्ड मनुष्य) को भ्रममुक्त (डीहिप्नोटाइज्ड) कर देता है। उसके सारे संशय नष्ट हो जाते हैं। जो मनुष्य उस भूमानन्द (ब्रह्मानन्द) को अपने अनुभव से जान लेता है, जिस स्थान से मन के साथ वाणी भी लौट आती है; जो मन-वाणी से परे है- वह 'अभीः' हो जाता है -कभी किसी से भय नहीं करता ! और वह साम्य-भाव में स्थित हो जाता है, और समदृष्टि या ज्ञानमयी दृष्टि में अवस्थित होकर जगत को ब्रह्ममय देखता है। और स्वामी विवेकानन्द के स्वर में बोल उठता है, " आओ, हम सब आज से - इसी क्षण से धर्म को सहज बनाने की चेष्टा करें और उस सत्ययुग को धरती पर उतारने में सहायता करें, जब प्रत्येक मनुष्य एक उपासक (वर्शिपर) होगा और प्रत्येक मनुष्य में अन्तर्निहित सत्यता (दी रियलिटी इन एव्री मैन) ही उसकी उपासना का विषय (ऑबजेक्ट ऑफ़ वर्शिप) होगा।" (८/६३)
सभी को समान समझने वाला पुरुष के मन मे 'लस्ट और लूकर' के प्रति आसक्ति नहीं रहती, वासना और धन (कामिनी -कांचन) की प्यास नहीं रखता है; अर्थात जो अपनी कभी ना तृप्त होने वाली तृष्णा को त्याग चूका है, उसके लिये परस्त्री माता के समान हो जाती है। जिह्वा थकी असत्य न बोले-जिह्वा जप करके थकने के पश्चात असत्य नहीं बोलती है,जैसे थकने के बाद वीर भी अपने हथियार डाल देता है।  और  परधन नव झाले हाथ रे- ऐसी अवस्था में मनुष्य के हाथ दुसरे के धन को नहीं प्राप्त करता है यानि मिलने पर भी त्याग देता है। 
मोह माया व्यापे नहि जेने, दृढ वैराग्य जेना तन मा रे ।
राम नामशुं ताली लागी, सकल तीरथ तेना तन मा रे ।।
वैष्णव जन तो तेने कहिये जे....
निरन्तर विवेक-दर्शन का अभ्यास और लालच को कम करते रहने का अभ्यास करने के कारण, जिस मनुष्य के मन में 'मोह–माया' रूपी दृढ़-माया, अर्थात आत्मा को भ्रमित कर देने वाली या हिप्नोटाइज्ड कर देने वाली माया-शक्ति भी जिसके मन में प्रविष्ट नहीं हो पाती; अर्थात जिसके मन में दृढ-वैराग्य का निवास हो गया है और,जिसकी अवतारवरिष्ठ प्रभु श्रीरामकृष्ण से लय/लौ लग गयी है , ऐसा वैष्णव भक्त (ठाकुर-माँ स्वामीजी की सन्तान) समस्त तीर्थ अपने तन में लिए होता है ! अर्थात ऐसे 'वैष्णव-पुरुष' [पूज्य नवनी दा जैसे होली ट्रायो के भक्त) के दर्शन से समस्त तीर्थो की यात्रा के समान पुण्यदायी होता है। 

वण लोभी ने कपट रहित छे, काम क्रोध निवार्या रे ।।
भणे नर सैयों तेनु दरसन करता, कुळ एको तेर तार्या रे ।।
वैष्णव जन तो तेने कहिये जे....
वणलोभी ने कपटरहित छे, काम क्रोध निवार्या रे। परन्तु वह लोभ और कपट से दूर हो और जिसके काम ( स्त्री संसर्ग से सुख की कामना ) और क्रोध दोनों ही निवृत हो चुके है; भणे नरसैयॊ तेनुं दरसन करतां, कुळ एकोतेर तार्या रे॥ ऐसे वैष्णव जन के दर्शन मैंने साक्षात् किये हैं,और अपने कुल की एक नहीं अनेकों पीढीयों को भव से तार दिया है।  
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[ रखतूराम जब अपने चाचा के साथ कलकत्ता आ गये तो उनके गाँव का एक आदमी फूलचन्द जो डॉ० रामचन्द्र दत्त का अर्दली थे, वह रखतूराम को उनके यहाँ गृहसेवक के रूप में रखवा दिए। और उनके चाचा वापस भतीजों के पास चले गए। रामचन्द्र उनको प्रेम से लाटू कहने लगे। डॉ० रामचन्द्र दत्त श्रीरामकृष्ण के पास १८७९ में आये। और उसी वर्ष उनके दीक्षित-भक्त हुए। और उसी वर्ष लाटू महाराज भी उनके दीक्षित शिष्य बने। वे थोड़े हट्ठे-कट्ठे थे और ताकतवर दीखते थे। ]    

(विवेक-जीवन के पुराने पन्नों से: स्वामी बुद्धानन्द द्वारा लिखित): 
 १. स्वामी विवेकानन्द के प्रति नव-युवकों के आकर्षण का रहस्य:  (The secret of Vivekananda's charm:)
स्वामी विवेकानन्द प्रत्येक नवयुवक (young man,टीनेजर) को अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं! शायद ही कोई किशोर ऐसा होगा जो उनके जीवन और शिक्षाओं के ऊपर लिखित कुछ पन्नों को पढ़ लेने के बाद, उन्हें प्रेम करने से स्वयं को रोक सकता हो ! स्वामी जी प्रत्येक नव-युवक के मन पर मानो एक जादू सा कर देते हैं; ऐसा क्या है उनमें ? 
सबसे पहले तो उनका शारीरिक शौष्ठव और चेहरे की सौम्यता-ऐसी है, जो हमारे मन को प्रचण्ड रूप से मोहित कर लेती है ! वे मानो 'क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज' की जीवन्त मूर्ति हैं, प्रचण्ड ऊर्जा और निर्भयता के प्रतीक हैं! जरा उनकी आँखों में झाँकने की चेष्टा करो ! उनके "विशाल नेत्रों की स्थिर दृष्टि" मानो ऐसी भाषा में कुछ कहना चाह रही हैं, -जो अकथनीय (unspeakable ) या अनिर्वचनीय है ! 
हर व्यक्ति यही सोचता रह जाता है कि आखिर इस व्यक्ति की आँखों में ऐसा कौन सा जादू है, जिसकी ओर मेरा मन खिंचा चला जा रहा है ? हमलोग यह सोचने पर विवश हो जाते हैं कि, वह जीवित व्यक्ति कितना आकर्षणीय रहा होगा -जिसकी तस्वीर ऐसी है? 
हमलोग जल्दी ही यह समझ जाते हैं, कि उनकी सम्मोहन शक्ति, उनके शारीरिक आकर्षण में तो बिल्कुल नहीं है ! क्योंकि फिल्म-जगत में शारीरिक रूप से उनसे भी अधिक सुन्दर हीरो हो सकते हैं। किन्तु किसी भी फ़िल्मी हीरो या क्रिकेट प्लेयर के चित्र की तरफ बहुत अधिक देर तक देखते रहना हमलोग पसन्द नहीं करते। किन्तु स्वामी जी की छवि को निहारने से हमलोग कभी नहीं थकते। इसका क्या रहस्य है इसका रहस्य है, मानव-मात्र के प्रति उनका असीम प्रेम (unbounded love)! 
उनके हृदय का वही प्रेम, मानो उनकी आँखों से छलक कर, सीधा हमारे हृदय में प्रविष्ट हो जाता है, और हमलोगों के अन्तर्निहित उस आत्मा को झँकृत कर देता है, जो अत्यन्त महान है और जिसके विषय में हमें  अब तक पता ही नहीं था। उनके इस प्रेम के पीछे किसी प्रकार का स्वार्थ नहीं है, बल्कि इस प्रेम के पीछे है सम्पूर्ण निःस्वार्थपरता और पवित्रता ! तथा उसके भी पीछे है-वह सम्पूर्ण आध्यात्मिक जागृति (Complete Spiritual Illumination) जो 'विवेकज-ज्ञान' से उत्पन्न होती है ! 
तथा इन सबके अतिरिक्त एक वस्तु और है, जो अत्यन्त महत्वपूर्ण है ! हममें से जिस ने "श्रीरामकृष्ण लीलाप्रसंग" (स्वामी सारदानन्द लिखित) को पढ़ लिया है, वे अवश्य जानते होंगे कि, "अपना शरीर त्यागने के पूर्व श्रीरामकृष्ण ने अपनी सम्पूर्ण आध्यात्मिक शक्तियों को 'नरेन्' (स्वामी विवेकानन्द) के भीतर ट्रांसमिट या संचारित कर दिया था !"  
इसके आलावा, उस 'पिक्चर ऑफ़ परफेक्शन' ( शिकागो पोज) को देखने मात्र से ही हमें ऐसा आश्वासन मिलता हुआ प्रतीत होता है कि, " मानव-मात्र में पूर्णत्व अन्तर्निहित है,आवश्यकता केवल उसके प्राकट्य की है।" अर्थात प्रत्येक मनुष्य में 'ब्रह्म' को जानकर, 'ब्रह्मविद' (भ्रममुक्त) मनुष्य बन जाने की सम्भावना छुपी हुई है !
[मनुष्य बनने के लिये सर्वप्रथम स्वामी विवेकानन्द द्वारा कथित उस कहानी के मर्म को समझना आवश्यक है, जिसमें कहा गया है कि इब्लीस को छोड़ कर बाकी सभी फ़रिश्ते मनुष्य के सामने सर को क्यों झुकाते हैं? सभी प्राणियों में केवल मनुष्य को ही सर्वश्रेष्ठ प्राणी क्यों कहा गया है ? (मुण्डक उप० ३.२.९) में कहा गया है -'ब्रह्म वेद ब्रह्मैव भवति' अर्थात ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म ही हो जाता है! ब्रह्मविद मनुष्य बनने का तात्पर्य है- 'Realization of one's true nature as Sat- Chit-Ananda'! अपने सच्चे सच्चिदानन्द स्वरूप की अनुभूति। 
सम्पूर्ण अस्तित्व के साथ नन-डूएलिटी या 'अद्वैत' का अनुभव होने के साथ ही साथ जिस परमानन्द (भूमानन्द) की अनुभूति होती है, वह ब्रह्मानन्द (The Bliss of Brahman) ही मोहग्रस्त मनुष्य (हिप्नोटाइज्ड मनुष्य) को भ्रममुक्त (डीहिप्नोटाइज्ड) कर देता है। उसके सारे संशय नष्ट हो जाते हैं। जो मनुष्य उस भूमानन्द (ब्रह्मानन्द) को अपने अनुभव से जान लेता है, जिस स्थान से मन के साथ वाणी भी लौट आती है; जो मन-वाणी से परे है- वह 'अभीः' हो जाता है -कभी किसी से भय नहीं करता !]
२. भगवान श्री रामकृष्ण का नवयुवकों के प्रति असाधारण प्रेम : ( Bhgvan Sri Ramakrishna's extraordinary love for young people:)
यहाँ तक कि जब नरेन से स्वयं श्री रामकृष्ण देव भी पहली बार  मिले थे, तब वे भी उन्हें देखकर मानो मन्त्रमुग्ध से हो गए थे। उन्होंने अपनी प्रथम दृष्टि में ही नरेन्द्रनाथ की महान सम्भावना (great potential) को  पहचान लिया था; तथा वे यह भी जान गए थे कि उसके जन्म-ग्रहण करने का उद्देश्य क्या था ? *१/ 
उनके पास नरेन्द्रनाथ जब आये, उस समय उनकी आयु अठारह वर्ष थी, और जिस समय श्रीरामकृष्ण ने अपना शरीर छोड़ा उस समय वे मात्र तेईस वर्ष के एक युवा थे! प्रश्न उठ सकता है कि, मानवजाति के प्रथम भावी मार्गदर्शक वेदान्ती-नेता के रूप में उन्होंने एक तेईस वर्षीय नवयुवक नरेन का ही चयन क्यों किया था? जबकि श्री रामकृष्ण के पास तो कई वयोवृद्ध और ज्ञानी (आचार्य केशव सेन, गिरीशचन्द्र घोष, बिजय कृष्ण गोस्वामी, श्री महेन्द्रनाथ गुप्त-आदि), लोग आते रहते थे। 
किन्तु उन्होंने अपनी सम्पूर्ण आध्यात्मिक शक्ति*२/  को (चैतन्य हो -बोलकर स्पर्श करते ही, 'भ्रममुक्त' कर देने की जो स्पिरिचुअल पॉवर उन्हें माँ जगदम्बा, भैरवी ब्राह्मणी, तोतापुरी, सूफ़ी गोविन्द राय आदि से प्राप्त हुई थी) एक नवयुवक में ट्रांसमिट (संचारित) कर दिया। तथा अपनी सम्पूर्ण आध्यात्मिक सम्पदा
को विरासत के तौर पर उन्हें सौंपते हुए कहा - "आज तुझे सर्वस्व देकर मैं फकीर हो गया हूँ। इस शक्ति के द्वारा तू संसार का बहुत कार्य करेगा। कार्य समाप्त होने पर तू लौट जायेगा। " इस घटना का जिक्र करते हुए स्वामीजी परवर्तीकाल में कहते थे -" ठाकुर जिसे 'काली' 'काली' कहते थे, उनके लीलासंवरण से दो दिन पहले, वही इस शरीर में प्रविष्ट हो गयी है। "
ततपश्चात अपने युवा शिष्यों के दल का नेतृत्व -'लीडरशिप' उनके हाथों में सौंपते हुए कहा -" देख नरेन्, इन सब को तेरे हाथ सौंपे जा रहा हूँ क्योंकि इनमें तू ही सबसे अधिक बुद्धिमान और शक्तिशाली है। इनसे खूब स्नेह रखना और ऐसी व्यवस्था करना कि ये घर न लौटकर एक ही स्थान में रहते हुए, साधन-भजन में मन लगायें।" इसका तात्पर्य यह नहीं है कि अपने वयोवृद्ध भक्तों पर उनकी कृपा नहीं थी, या उनलोगों में कोई आध्यात्मिक शक्ति संचारित नहीं की थी। किन्तु रामकृष्ण महिमा का जो अनन्य उद्देश्य (Absolute purpose) था- वह था नवयुवकों की एक विशाल संख्या को " BE AND MAKE" परम्परा (रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग परम्परा) में प्रशिक्षित कर के उन्हें 'वुड बी लीडर्स ' आध्यात्मिक रूप से जागृत भावी लोकशिक्षकों के रूप में रूपान्तरित कर देना। 
और सम्पूर्ण विश्व में 'मनुष्य-निर्माणकारी और चरित्र-निर्माण कारी शिक्षा पद्धति' का प्रचार-प्रसार करने में समर्थ- जिन नवयुवकों के जीवन को, भावी लोक-शिक्षकों (वुड बी वेदान्ती लीडर्स या टीचर्सके रूप में गठित कर देने के उद्देश्य का जो 'Dynamic Part' गतिशील हिस्सा था; उस हिस्से का लीडरशिप प्रदान करने के लिये अपने समस्त भक्तों के बीच उन्होंने नवयुवक नरेन का चयन किया था। और भावी युवा लोकशिक्षकों के दल का नेतृत्व करने के लिये 'श्री रामकृष्ण पताका' (Main Standard-Bearer सैन्य परेडों में यूनिट का मुख्य मानक-ध्वज) को उनके हाथों में सौंप दिया था।  
इसके कारणों को स्पष्ट करते हुए श्री रामकृष्ण ने स्वयं कहा था, "जानते हो मैं इन लड़कों को क्यों पसन्द करता हूँ ? वे ताजा दूहे गये शुद्ध दूध जैसे होते हैं, जिसका उपयोग करने से पहले केवल थोड़ा उबाल लेने की जरूरत पड़ती है। किन्तु पानी मिले दूध को उबालने में समय बहुत अधिक लगता है; तथा उसमें ईंधन की खपत भी अधिक होती है। ठीक उसी प्रकार "श्रवण-मनन-निदिध्यासन वेदान्त परम्परा में लीडरशिप ट्रेनिंग के दौरान किशोरों और नवयुवकों की अंतश्चेतना को (Inner Consciousness ,अन्तर्निहित डिविनिटी या ब्रह्मत्व को) आध्यात्मिक निर्देशों (तत्वमसि आदि) के द्वारा आसानी से जागृत करया जा सकता है। किन्तु बड़ी उम्र में 'लस्ट और लूकर' में अत्यधिक आसक्त हो जाने के कारण वैसा कर पाना कठिन हो जाता है। 
ये तरुण और नव-युवक लोग नये मिट्टी के बर्तनों के समान होते हैं, और नए स्वच्छ मिट्टी की हाँडी में कोई व्यक्ति बिना कोई चिन्ता किये दूध को रख सकता है। इसके अतिरिक्त देवता के ऊपर भी केवल शुद्ध दूध ही चढ़ाया जाता है। जैसे  जिस पात्र का उपयोग एक बार दही ज़माने के लिये कर लिया गया हो, उसमें ताजे दूध रखने से व्यक्ति डरता है कि कहीं वह खट्टा तो नहीं हो जायेगा ?"           
३.महामण्डल की जड़ें कहाँ अवस्थित हैं? (Where are the roots of Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal?)
यदि कोई यह पूछे कि अपने ५० वर्ष पूर्ण कर चुके, सम्पूर्ण भारत में इस मनुष्यनिर्माण और चरित्र-निर्माण कारी शिक्षा को एक आन्दोलन के रूप में प्रसारित करने वाले 'अखिल भारत विवेकानन्द युवा महमामण्डल' की जड़ें कहाँ हैं ? तो मैं यह कहूँगा कि महामण्डल की जड़ें , नवयुवकों के प्रति श्रीरामकृष्ण के उस 'प्रेम' में, उस 'विश्वास' में समाहित हैं, जिसे श्रीरामकृष्ण ने नरेन् के माध्यम से समस्त नवयुवकों पर किया था ! नवयुवकों के प्रति उनका प्रेम और भरोसा 'Love and Trust' कितना आश्चर्यजनक था ! यहाँ मुझे यह भी कहना चाहिये कि श्रीरामकृष्ण का वही प्रेम और विश्वास 'Love and Trust have Devolved upon you' तुम लोगों पर उतरा है !  
यदि कोई सत्यान्वेषी इस युवा-संगठन के आध्यात्मिक जड़ों (spiritual root) की खोज करने की चेष्टा करेगा, तो निश्चित रूप से वह इसी निष्कर्ष पर पहुँचेगा कि इस युवा-संगठन की जड़ें, श्रीरामकृष्ण का नवयुवकों के प्रति उसी प्रेम और भरोसे में (This Trust-' नरेन् जगत को 'BE AND MAKE' की शिक्षा देगा' इसी भरोसे में) समाहित हैं ! नवयुवकों के प्रति उनके (अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण देव के)  इस अनूठे 'प्रेम और विश्वास' के महत्व को हमें सदैव स्मरण रखना चाहिये। 
क्योंकि इस युवा-संगठन के ऊपर ऐसा प्रेम और विश्वास किनका है ? " You know, millions in the world worship Sri Ramakrishna as God incarnate." हमलोग जानते हैं कि दुनिया के लाखों लोग विवेकानन्द के गुरु श्री रामकृष्ण देव की पूजा आधुनिक युग में भगवान विष्णु के एक अवतार के रूप में करते हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि आधुनिक युग में विष्णु  के साक्षात अवतार भगवान श्रीरामकृष्ण  का प्रेम हम लोगों पर उतरा है, उनका वह विश्वास हमें हस्तान्तरित कर दिया गया है! अर्थात स्वयं प्रभु ने भावी लोकशिक्षक के रूप में कार्य करने के लिये हमलोगों का चयन किया है ! प्रभु श्रीरामकृष्ण का ऐसा भरोसा प्राप्त होना-  एक अकथनीय आनन्द का विषय है, ईश्वर की देदीप्यमान महिमा है और अपने भक्तों पर उनकी असीम कृपा है।       
किन्तु हमें भी अपने उस दैवी -उत्तरदायित्व के प्रति सचेत हो जाना चाहिये; कि स्वयं प्रभु श्रीरामकृष्ण ने हम लोगों पर 'मनुष्य' (ब्रह्मवेत्ता) बनने और बनाने' की कितनी बड़ी जिम्मेदारी सौंपी है ! " That does not mean that you should feel that you are getting crushed"  किन्तु, महामण्डल द्वारा निर्देशित ५ अभ्यासों का पालन करते समय हमारे हावभाव से ऐसा भी प्रकट नहीं होना चाहिये कि हमलोग (तो गृहस्थ हैं इसीलिये) मानो इस जिम्मेदारी के बोझ तले  दबे जा रहे हों। बल्कि, भगवान श्रीरामकृष्ण ने अपने काम के लिए 'मेरा' चयन, बिना मेरे जाने ही, कर लिया है, यह सोच कर ही हमलोगों का हृदय आनन्द से गदगद हो जाना चाहिये, हमारा मन उत्साह से भर उठना चाहिये !
४. वसीयत के रूप में प्राप्त स्वामी विवेकानन्द का हुकुमनामा : (Commandment of Swami Vivekananda received as a will! His Bequest)    
जो नवयुवक भारत के राष्ट्रीय युवा-आदर्श स्वामी विवेकानन्द को अपने जीवन का ध्रुवतारा स्वीकार कर लेते हैं, उन्हें भावी लोक-शिक्षक (वुड बी लीडर्स, ब्रह्मविद मनुष्य, या वैष्णव-जन) बनने और बनाने की जिम्मेवारी भी स्वतः प्राप्त हो जाती है। क्योंकि स्वामी विवेकानन्द ने -" इस आशंका से कि शिकागो की भयंकर ठंढ और भूख के कारण, कहीं उनका शरीर गुरुदेव के कार्य को पूरा किये बिना ही न छूट जाय "-अपनी उस आध्यात्मिक शक्ति को, जो उन्हें अपने गुरु श्रीरामकृष्ण से वेदान्त परम्परा में या विरासत (legacy) के रूप में प्राप्त हुई थी; उसे एक वसीयत के रूप में आलासिंगा के माध्यम से सभी नवयुवकों को सौंपते हुए, (Bequeathing his Legacy mainly to the Youth) २० अगस्त १८९३ को  लिखित प्रसिद्द वसीयत पत्र में स्वामी जी कहते हैं :
  • (जो दूसरों के लिए नहीं जीते उन) तथाकथित अमीर लोगों पर भरोसा मत करना - वे तो मृत से भी ज्यादा अधम हैं ! भरोसा तुम लोगों पर है; गरीब, पद-मर्यादा रहित किन्तु विश्वासी (आस्तिक) तुम्हीं लोगों पर। 
  • ईश्वर पर भरोसा रखो ! किसी अन्य चालबाजी (गुटबाजी) की आवश्यकता नहीं; उससे कुछ नहीं होता। दुःखियों का 'दर्द' समझो और ईश्वर के पास सहायता की प्रार्थना करो - सहायता अवश्य मिलेगी !  
  • मैं बारह वर्ष तक हृदय पर बोझ लादे और सर में यह विचार  (भ्रममुक्त मनुष्य, लोक-शिक्षक, नेता बनने और बनाने का स्किम) लिए बहुत से तथाकथित धनिकों और अमीरों के दर दर घूमा। हृदय का रक्त  बहाते हुए मैं आधी पृथ्वी का चक्कर लगाकर इस अजनबी देश में सहायता माँगने आया । परन्तु भगवान (अवतार-वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण) अनन्त शक्तिमान हैं - मैं जानता हूँ, वे मेरी सहायता करेंगे।
  •  I may perish of cold or hunger in this land, but I bequeath to you, young men, this sympathy, this struggle for the poor, the ignorant, the oppressed.
  • मैं इस देश में भूख या जाड़े से भले ही मर जाऊँ, परन्तु मेरे नवयुवको (महामण्डल के भावी नेताओं), मैं गरीब, भूखों और उत्पीड़ितों के लिए इस सहानुभूति और प्राणपण प्रयत्न को थाती के तौर पर तुम्हें अर्पण करता हूँ। जाओ तुम सब इसी क्षण उस पार्थसारथी के मन्दिर में (श्रीकृष्ण आदि दशावतारों के मन्दिर में), जो गोकुल के दीन -हीन ग्वालों के सखा थे, जो अपने रामावतार में गुहक चाण्डाल को भी गले लगाने में, नहीं हिचके। जिन्होंने अपने बुद्धावतार में अमीरों का निमंत्रण अस्वीकार करके एक वरांगना के भोजन का निमंत्रण स्वीकार किया और उसे उबारा।  
  • जाओ उनके पास, जाकर साष्टांग प्रणाम करो और उनके सम्मुख एक महाबली दो, अपने समस्त जीवन की बली दो - उन दीनहीनों और उत्पीड़ितों के लिये, जिनके लिये भगवान युग युग में अवतार लिया करते हैं, और जिन्हें वे सबसे अधिक प्यार करते हैं। 
  • और तब अपना सारा जीवन इन तीस करोड़ (अब सवासौ करोड़) देशवासियों के उद्धार-कार्य में न्योछावर कर देने का व्रत लो, जो दिनोदिन अवनति के गर्त में डूबते जा रहे हैं ! 
  • " भय ही मृत्यु है। भय से पार हो जाना चाहिये। आज से ही भयशून्य (भ्रममुक्त) हो जाओ। अपने मोक्ष तथा परहित  (भ्रममुक्त बनने और भ्रममुक्त बनाने) के निमित्त अपने जीवन को न्यौछावर करने के लिये अग्रसर हो जाओ। थोड़ी सी हड्डी तथा मांस का बोझ लिए फिरने से क्या होगा ? 
" पहले तो हममें वह 'क्षात्र-वीर्य' ही कहाँ है जो हर व्यक्ति को आत्मनियंत्रण, संयम, सेवा और आज्ञापालन सिखलाता है ? क्षात्रभाव  प्रभुत्व और आत्मतुष्टि पाने में नहीं है, वह आत्मत्याग में है। हमें दूसरों के हृदय और जीवन पर अधिकार पाने के पहले, आदेश मिलने पर अग्रसर हो अपने जीवन की बलि देने के लिये तैयार रहना चाहिये, पहले अपनी बलि देनी चाहिये।" (वि०के संग मे)
यही वह हुकुमनामा *३ / (commandment या चपरास) है, जिसे स्वामी विवेकानन्द ने शिकागो धर्म-सम्मेलन में भाग लेने से बहुत पहले, भारत के युवा पीढ़ी के समस्त भावी लोकशिक्षकों (वुड बी लीडर्स) को एक लिखित वसीयत के रूप में सौंप दिया था !
५. युवा प्रशिक्षण का सार - विवेकदर्शन का अभ्यास और लालच को कम करना : (इति उभयाधिनः चित्तवृत्ति निरोधःThe Training: Practicing Prudence and Reducing Greed.) 
'श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त लीडर्स ट्रेनिंग ट्रेडिशन' वास्तव में एक आध्यात्मिक मनुष्य, लोकशिक्षक या वैष्णव-जन बनने और बनाने वाली वह परम्परा है, जो इस युवा महामण्डल को बिलॉन्ग करने वाले (जुड़े हुए) समस्त युवाओं को विरासत में प्राप्त हो जाती है ! अतः इस शिविर में भाग लेने आये सभी प्रशिक्षणार्थी भाइयों को यहाँ किस प्रकार का प्रशिक्षण प्राप्त होना चाहिये? 
निश्चित रूप से यह प्रशिक्षण 'मनुष्य निर्माण' के लिए ही होना चाहिये। 'Man-Making Training' या मनुष्य-निर्माणकारी प्रशिक्षण कहने से तात्पर्य यह नहीं है कि, यहाँ कोई दूसरा व्यक्ति तुमको मनुष्य बनाने जा रहा है; यह 'सेल्फ मैन मेकिंग ट्रेनिंग-ट्रेडिशन' या स्वयं ही स्वयं को यथार्थ मनुष्य के साँचें में ढाल लेने वाली प्रशिक्षण-परम्परा है। 
महामण्डल के वरिष्ठ भैया लोग यहाँ हमें ५ अभ्यास के द्वारा 3'H' -अर्थात शरीर-मन और हृदय को विकसित करके, यथार्थ मनुष्य बनने और बनाने (Be and Make) के विषय में जानकारी, उत्साह, सहायता और मार्गदर्शन प्रदान करेंगे। जहाँ कहीं उन्हें, तुम्हारे द्वारा किये जाने वाले अभ्यासों में त्रुटि दिखाई देगी, तो उसे दूर करने में, वे हमारी सहायता भी करेंगे। किन्तु इस 'सेल्फ-मैन-मेकिंग-स्किम' या 'आत्म-जीवनगठन' के खेल में मुख्य भूमिका- 'नायक' (हीरो) की भूमिका तो स्वयं हमलोगों को ही निभानी होगी। 
और इसके लिये पहले यह समझ लेना जरुरी है, कि तुम यहाँ किस प्रकार का मनुष्य बनने और बनाने का प्रशिक्षण प्राप्त करने आये हो, चरित्रवान-मनुष्य बनने और बनाने की पद्धति क्या है ? फिर उसे सीखने और उसका अभ्यास करने के लिये तुममें पर्याप्त उत्साह भी रहना चाहिये। 
[कुछ मूलभूत प्रश्नों.... के उत्तर, जैसे  इस पंचेन्द्रिय-ग्राह्य जड़ जगत के पीछे ऐसा कोई शक्तिमान पुरुष है या नहीं, जिसके इशारे पर जड़-समष्टि (गोचर भौतिक जगत) परिचालित हो रही है ?  इस मानव जीवन का उद्देश्य क्या है ? क्या धर्म, ईश्वर आदि बातें मानव मन की कल्पना से उत्पन्न आकाशकुसुम की तरह असत्य हैं ? हमें गुरु-शिष्य परम्परा या 'श्रवण-मनन -निदिध्यासन' परम्परा में स्वयं सीख लेना होगा    
अतः सबसे पहले तुम्हें अच्छी तरह से यह समझना होगा कि, इस मनुष्य निर्माण योजना या 'मैन-मेकिंग स्कीम ' के द्वारा- तुमसे किस प्रकार का मनुष्य बन जाने की अपेक्षा की जाती है ? स्वामी जी वास्तव में नवयुवकों को किस प्रकार के 'मनुष्य' के रूप देखना चाहते थे ? स्वामी विवेकानन्द प्रत्येक नवयुवक को एक विवेकी मनुष्य (लोक-शिक्षक) के रूप में विकसित होते हुए देखना चाहते थे।
स्वामी विवेकानन्द कहते हैं --" अपने चरित्र-कमल को विकसित करो, भ्रमर स्वयं आयेंगे। पहले अपने आप पर विश्वास करो, फिर ईश्वर पर। मुट्ठी भर शक्तिशाली मनुष्य विश्व को हिला सकते हैं। हमें (3'H' की) आवश्यकता है हृदय की, अनुभव करने के लिये, मस्तिष्क की, धारणा करने (conceive) के लिये, और मजबूत भुजा की, काम करने के लिये। अपने को कार्य का समर्थ साधन बनाओ। बुद्ध ने अपने को पशुओं के लिये समर्पित कर दिया था। जब हृदय और मस्तिष्क में मतभेद हो, तो हृदय का अनुगमन करो। कल का नियम था प्रतियोगिता। आज का नियम है सहयोग।" वि ० सा० ३ /प्रेम-धर्म / २७८ 
" सर्वप्रथम तुम्हें 'लस्ट ऐंड लूकर' से अर्थात स्पर्श-इन्द्रियों में आसक्ति और धन-लोलुपता से, अपने मन को अवश्य पृथक कर लेना होगा। ततपश्चात निरन्तर सत और असत (रीयल ऐंड अनरियल) के बीच विवेक-प्रयोग करते रहना होगा। अर्थात 'मैं शरीर नहीं हूँ- मैं सर्वव्यापी आत्मा ही हूँ,' ....... ऐसे विदेह भाव (दी मूड ऑफ़ बॉडि-लेसनेस) में विभोर होकर अवस्थान करना होगा।  इसी प्रकार से लगे रहने का नाम ही पुरुषकार (self-exertion — as distinguished from grace) है। इस पुरुषकार की सहायता से ही उन पर निर्भरता आती है, और इसे ही परमपुरुषार्थ  (the goal of human achievement. मोक्ष या भ्रममुक्ति के बाद माँ सारदा की कृपा से वैष्णव- जन बन जाना) कहते हैं। " ६/५१ 
(You must take off your mind from lust and lucre, (वासना और धन) must discriminate always between the real and the unreal-------must settle down into the mood of bodyless-ness  with the brooding thought that you are not this body, and must always have the realisation that you are the all-pervading Atman. Do not talk religion. We need a heart to feel, a brain to conceive, and a strong arm to do the work. Let the heart be opened first, and all else will follow of itself. Preach the highest truths. Everywhere is He. Be true to your mission. Remain pure always. Become a dynamo of spirituality.) 
" पहले हृदय के द्वार तो खुलने दो, शेष सब अपने आप ही आ जायेगा। लेकिन यह बात अच्छी तरह समझ लो कि जब तक कामना-वासना है (लस्ट और लूकर में आसक्ति है), तब तक उस "प्रेम " का आविर्भाव नहीं होगा। पहले अपनी इन्द्रियासक्ति, भोगों की लालसा का ही त्याग क्यों न करो ? तुम कहोगे - 'यह कैसे सम्भव है, मैं तो गृहस्थ हूँ। ' इसीको फालतू बकवास कहते हैं। गृहस्थ होने का अर्थ यह तो नहीं है कि कोई मूर्तमान असंयम बन जाये, या आजन्म वैवाहिक सुख का उपभोग करता रहे?" [२४ जनवरी १८९८- सुरेन्द्रनाथ सेन डायरी/८-२८०/ personification of incontinence, स्वयं से पूछो -'एम आई अ बीष्ट?' मने करबे तुमि एक जन शीक्खक ! पूज्य नवनी दा अपना शरीर छोड़ने से दस दिन पहले जमशेदपुर कैम्प से विदा होते समय क्या ठीक यही आदेश नहीं दे गए हैं? ]
[ ‘जानाति, इच्छति अथ करोति’  यह नियम है- पहले कोई जानता है, जानने के बाद इच्छा करता है, फिर उसे क्रिया रूप में परिणत करता है। यथा- ' ज्ञानजन्या भवेदिच्छा इच्छाजन्या भवेत् कृतिः।' आरम्भ में सृष्टि रचना से पूर्व, एकमात्र आत्मा ही था। उससे अतिरिक्त अन्य कोई स्वतन्त्र वस्तु न थी।  ‘तदैक्षत बहुस्यां प्रजायेयेति ' इस तरह परमात्मा ने विचार किया ‘मैं एक हूँ, अनेक हो जाऊँ।’अतः सृष्टि निर्माण के लिए सर्वज्ञ ईश्वर को भी ज्ञान,(विचार)इच्छा एवम् कर्म का अवलम्बन करना पड़ा।  इच्छा , ज्ञान और शक्ति ये तीन आवश्यक तत्व हैं जो उड़ान भरने के लिए जरूरी होते हैं। जिस कौम की इच्छाशक्ति ही मर जाती है वह अपने आप लुप्त हो जाती है।  
किन्तु यदि बिना प्रयोजन के कोई कर्म  किया जायेगा तो पानी पीटने (संस्कृत में ‘जल-ताड़न’ बोलते हैं) के समान वह कर्म भी निष्फल हो जायेगा, और शक्ति का अपव्यय होगा, सो अलग। इसलिए कोई भी कर्म प्रारम्भ करने के पूर्व यह विचार कर लेना चाहिए कि उससे किस प्रयोजन की सिद्धि होगी, उसमें क्या-क्या विघ्न पड़ेंगे और उन विघ्नों को हम कैसे पार करेंगे? वे लोग अधकचरे होते हैं जो निष्काम-कर्म  का नाम सुनकर ही चौंक जाते हैं। गीता १८/२५ में कहा गया है - 
अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम् ।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते ॥[1]
प्रत्येक क्रिया का एक परिणाम होता है। दूध का मन्थन करने पर क्रीम निकलती है। दही के मन्थन से नवनीत निकलता है। मन्थन एक कर्म है। यदि आपको यह ज्ञात नहीं कि दूध-दही के मन्थन का परिणाम क्या होगा तो मन्थन-क्रिया निष्फल हो जायेगी।
इसलिए कोई कर्म करना (आजन्म विवाह-सुख भोग में संलिप्त रहना)हो तो पहले उसका अनुबन्धन समझना चाहिए। अनुबन्ध में चार बातें विचारणीय हैं। पहली बात यह कि हम कर्म के अधिकारी हैं कि नहीं? हमें अमुक कर्म करना चाहिए कि नहीं? अर्थात् उस कर्म में हमारा अधिकार होना चाहिए। दूसरे, कर्म को स्वरूप से जानना चाहिए। कर्म कैसे करना है यह यदि आपको ठीक-ठीक करना नहीं आता, तो उसमें लगकर आप उसको बिगाड़ देंगे। तीसरे, कर्म के प्रयोजन का विचार करना चाहिए। चौथे यह देखना चाहिए कि उस कर्म के साथ हमारा क्या सम्बन्ध है। इस प्रकार अधिकार, विषय, प्रयोजन और सम्बन्ध इन चारों के ज्ञान का नाम अनुबन्ध है। साभार krishnakosh.org]
इसीलिए हमारे शास्त्रों में कहा गया है - 
" विवेकी सर्वदा मुक्तः संसारभ्रमवर्जितः ॥ 
कुछ भी सोचने -बोलने और करने के पहले सर्वदा विवेक-प्रयोग करने वाला मनुष्य हमेशा भ्रममुक्त मनुष्य की अवस्था में रहता है, जगत्प्रपंच या पंचभूतों के फन्दे में नहीं फंसता। उसे समझ में आ जाता है कि यह सारा जगत-प्रपंच परमात्मा का स्वरूप है। जीव भी परमात्मा का स्वरूप है, इसलिये भक्त प्रह्लाद प्रत्येक मनुष्य की विवेक-प्रयोग शक्ति को जागृत करने की प्रार्थना करते हुए कहते हैं :-
दुर्जनः सज्जनो भूयात् सज्जनः शान्तिमाप्नुयात्। 
शान्तो मुच्यते बन्धेभ्यः मुक्तस्त्वन्यान् विमोचयेत्।।
हे नाथ! दुर्जन प्राणी सज्जन बन जाँय। दुर्जन की दुर्जनता मिट जाय। सज्जन प्राणी शान्ति लाभ करें। शान्त प्राणी बन्धनों से मुक्त हो जायँ, अर्थात पंचभूतों के फन्दों से या भ्रम से मुक्त हो जायें। विमुक्त प्राणी दूसरों की मुक्ति के काम में लग जाँय। 
["May the wicked become good, may the good realize peace, may the peaceful be released from all bondage; and may the released redeem others.  अर्थात महामण्डल के मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी आंदोलन के प्रचार-प्रसार में जुट जायें !   जो सिंह-शावक होकर भी, अपने को भेंड़ मानते हैं, अजर-अमर-अविनाशी  आत्मा होकर भी अपने को नश्वर शरीर (पंचभूत) मानते हों उन्हें, भ्रममुक्त करने के कार्य में लग जायें ! ]
"प्रत्यक्षानुभूति ही यथार्थ ज्ञान या धर्म है। (Perception is our only real knowledge or religion.) हममें से प्रत्येक व्यक्ति को प्रत्यक्षानुभूति करनी होगी। आचार्य हमारे समीप केवल 'खाना ला सकते हैं'--इससे पुष्टि लाभ करने के लिये हमें स्वमेव खाना पड़ेगा। यदि तुम एक आत्मा को (अपनी आत्मा को) जान सके, तो तुम भूत, भविष्यत, वर्तमान सभी आत्माओं को जान सकोगे। " The concentrated mind is a lamp that shows us every corner of the soul." एकाग्र मन मानो एक प्रदीप है, जिसके द्वारा आत्मा का स्वरूप स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है ! जब तुम्हें यह निश्चय हो जायेगा कि तुम्हारी आत्मा को कोई भी नहीं ले जा सकता, जब आत्मा हर कसौटी पर खरी उतरेगी, तब तुम उसे दृढ़भाव से पकड़े रहो, तथा सभी को यह आत्मतत्व सुनाते रहो ! शान्त रहकर संचय करो और आध्यात्मिकता के 'डाइनेमो' बन जाओ। "  देववाणी/७१-७३]         
हम सभी लोगों के पास, हमारी अपनी स्वतंत्र इच्छाशक्ति (free will) या विवेक-प्रयोग करने की स्वतन्त्र इच्छा-शक्ति होती है। हमलोगों ने बहुत जाँच-परख कर और अपने उच्चतम विचारों का प्रयोग करने के बाद ही, अपने जीवन में अनुकरणीय आदर्श (रोल मॉडल) के रूप में स्वामी विवेकानन्द का चयन किया है! इस प्रशिक्षण-शिविर में हमलोगों को किसी अन्य व्यक्ति के द्वारा जबरदस्ती खींच कर नहीं लाया गया है। हमलोगों ने अपनी स्वतंत्र इच्छाशक्ति (विवेकप्रयोग-शक्ति या free willसे प्रेरित होकर, स्वयं को अपने उस पसन्दीदा आदर्श-मनुष्य या रोल-मॉडल के साँचे में ढल जाने की अनुमति दी है, जो हमारी समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने में, या उन्हें कार्यरूप में परिणत करने में समर्थ हैं ! 
पातंजलियोगसूत्र- "अभ्यास-वैराग्याभ्यां तन्-निरोधः ॥ " (१.१२) की व्याख्या करते हुए महर्षि वेदव्यास अपने भाष्य में कहते हैं, चित्त की वृत्तियों को निरुद्ध करने का उपाय क्या है - 'अथासां निरोधे क उपायः ? इति—
कि मन की अतिरिक्त चंचलता को वश में लाने का सबसे अच्छा उपाय है पूर्णत्व-प्राप्त जीवन या 'वैष्णव-जन' के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण या आदर्श स्वामी विवेकानन्द के चित्र पर मन को एकाग्र करने का अभ्यास करना और साथ साथ वैराग्य अर्थात लालच को भी क्रमशः कम करते जाना। 
" चित्तनदी नाम उभयतो वाहिनी, वहति कल्याणाय वहति पापाय च" -अर्थात चित्तरूपी नदी दो दिशाओं में प्रवाहित होती है, कल्याण के लिए बहती है और पाप के लिए भी बहती है। " कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा चित्तनदी कल्याणाय वहति"  -- कैवल्य (भ्रम-मुक्ति) की ओर ले जानेवाली विवेक-युक्त वह चित्तनदी की धारा कल्याण के लिए बहती है। जबकि अविवेक से युक्त संसार की ओर ले जानेवाली इच्छाशक्ति का प्रवाह - " संसारप्राग्भारा अविवेकविषयनिम्ना सा पापाय वहति।"  वह धारा पाप के लिए बहती है (नीचे की ओर, अवनति की ओर ले जाती है)। अतः हमें कुछ भी सोचने, बोलने और करने के पहले विवेक-प्रयोग द्वारा यह जान लेना चाहिये; कि संसार की ओर प्रवाहित होने वाली धारा या 'इच्छामात्र' ही अविद्या (प्रेय)है।
"तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते, विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यते।" - तत्र = 'चित्तनदी' की उन दोनों धाराओं में से जिस धारा का प्रवाह (विषयस्रोतः) इन्द्रिय -विषयों की दिशा में है, या निम्नगामी दिशा में है। उस धारा के प्रवाह और वेग (Flow and velocity) को 'खिलीक्रियते' अर्थात उस धारा पर वैराग्य का फाटक लगाकर, (धारा को राधा बनाकर),उर्ध्वमुखी मोड़ लेना चाहिये। और तब आत्मा के स्वरुप जानने की इच्छा से 'विवेकदर्शनाभ्यासेन' - हृदय में विद्यमान स्वामी विवेकानन्द के चित्र पर मन को एकाग्र करके उनका दर्शन या अवलोकन करने का अभ्यास करना चाहिये। मानो महर्षि व्यासदेव यह जानते थे कि स्वामी विवेकानन्द जैसे आकर्षक युवा-आदर्श एक दिन आएंगे, और मनःसंयोग की कक्षा में उनके चित्र पर प्रत्याहार-धारणा का अभ्यास करने से विवेकस्रोत उद्घाट्यते- उद्घाटित  जायेगा ! इस प्रकार हम देखते हैं कि -इति उभयाधिनः चित्तवृत्ति निरोधः!"  चीत्त नदी की धारा के निम्नगामी प्रवाह को उर्ध्वगामी बनाने की प्रक्रिया (या चरित्र-निर्माण की प्रक्रिया (उभयाधिनः) " वैराग्य और विवेक-दर्शन के अभ्यास"- दोनों साधनों, पर निर्भर करता है।     
हमारे ऋषियों ने कहा है -‘मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः’ अर्थात् मन ही मनुष्यों के बंधन और मोक्ष का कारण है। किन्तु हमारे शरीर की तरह ही मन भी तो एक जड़ वस्तु ही है। तो फिर यह जड़ ‘मन’ हमारे बंधन और ‘मोक्ष’ का कारण कैसे हो सकता है? 
मन आत्मा का दिव्य चक्षु है, अर्थात मन का संचालन तो आत्मा के अधीन है। आत्मा चाहेगा, तो मन से बंधन अथवा मोक्ष दोनों प्राप्त कर सकता है। 'विवेक-प्रयोग' आदि ५ अभ्यास नहीं करने के कारण, हमारी रूचि तो अभी " अविवेकविषयनिम्ना" है, हमारी रूचि तो अभी तक रसगुल्ला खाने में ही बनी हुई है, ईश्वर बनने और बनाने में (अर्थात भ्रममुक्त मनुष्य बनने और बनाने में,'BE AND MAKE' तथा 'चरैवेति चरैवेति' सत्ययुग लाने में ) हमारी रूचि नहीं है, और असली गड़बड़ी भी यही है। 
जैसे यह कह दिया जाता है, कि मेरी तो इच्छा है उठ जाने की, पर यह रजाई मुझे नहीं छोड़ रही। बस, हमें केवल इतना करना है कि ईश्वर (होली ट्रायो) के प्रति इच्छा पैदा करें, ईश्वर के प्रति रूचि बनाओ और उसको स्मरण करने का प्रयत्न करो। तो जैसे किसी घड़ी की बैटरी बदल देने के बाद वह निरन्तर सही दिशा में उर्ध्वमुखी दिशा में चलती है, यह मन रूपी भी घड़ी भी निरंतर सही दिशा में ही चलेगा। फिर अपनी संकल्प शक्ति या दृढ़ इच्छाशक्ति के द्वारा मन में दूसरी बात नहीं उठायेंगे, ईश्वर की बात उठायेंगे। यदि हम बंधना चाहें, तभी यह जड़ मन हमें (मनुष्य को)  बाँध सकता है। पर यदि हम नहीं बंधना चाहें, तो यह हमें नहीं बाँध सकता है। 
इसीलिये स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - " Never say any man is hopeless, because he only represents a character, a bundle of habits, and these can be checked by new and better ones. Character is repeated habits, and repeated habits alone can reform character. " 
" ऐसा कभी मत कहो कि 'अमुक' के उद्धार की कोई आशा नहीं है। क्यों ? इसलिये कि वह व्यक्ति केवल एक विशिष्ट प्रकार के चरित्र का -कुछ (प्रेय) अभ्यासों की समष्टि का द्योतक मात्र है, और ये अभ्यास नये और सत अभ्यास (श्रेय अभ्यास) से दूर किये जा सकते हैं। चरित्र बस, पुनः पुनः अभ्यास की समष्टि मात्र है, और इस प्रकार के दो सत अभ्यास ही चरित्र में सुधार लाने की प्रक्रिया है। ('विवेकदर्शन का अभ्यास और लालच को कम करना' यही (१/१२३)
विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यते: हृदय में विद्यमान स्वामी विवेकानन्द की जीवंत मूर्ति पर एकाग्रता का अभ्यास करना ही विद्या (शिक्षा या श्रेय-मार्ग) है, जिसके द्वारा हमारा विवेकश्रोत- प्रेम उद्घाटित (unlocked) हो जाता है ! अर्थात मिथ्या अहं का ताला खुल जाता है, हमारे मोह का क्षय हो जाता है, और आत्मज्योति के प्रकाशित होते ही हृदय का सारा अँधेरा क्षणभर में दूर होने से हमलोग भ्रममुक्त या डीहिप्नोटाइज्ड हो जाते हैं; और इस प्रकार उस सिंह-शावक के भ्रम का नाश हो जाता है, जो अपने को भेंड़ समझकर भय से काँप रहा था
यहाँ महामण्डल द्वारा प्रकाशित पुस्तक जीवन नदी के हर मोड़ पर (पृष्ठ ४५-४८) से पूज्य नवनी दा के जीवन से जुड़ी एक घटना को उद्धृत किया जा सकता है - " एक बार जादवपुर यूनिवर्सिटी में  सेमिनार के बाद प्रश्नोत्तरी-सत्र में कुछ प्रश्नों के उत्तर महामण्डल के पूर्वाध्यक्ष श्री नीरदवरण चक्रवर्ती और कुछ प्रश्नों के उत्तर पूज्य नवनी दा दे रहे थे। इसी बीच थोड़ा वयोवृद्ध से दिखने वाले व्यक्ति, जिनको देखकर ही मुझे ऐसा लगा कि वे philosophy के कोई रिटायर्ड प्रोफ़ेसर होंगे, ने अपनी ऊँगली से मेरी ओर इंगित करके कहा, ' यह प्रश्न मैं आपसे कर रहा हूँ, आप ही इसका उत्तर दीजियेगा। ' 
मैं बहुत डर गया, ये इस प्रकार बोल रहे हैं, मैं तो कोई philosophy का प्रोफ़ेसर नहीं हूँ, कुछ भी नहीं जानता,बहुत हुआ तो दो-चार पृष्ठ कहीं से पढ़ लिया होऊँगा। पर उतना जानने से क्या होना था। वे बोले, " अच्छा आज सुबह से ही यहाँ स्वामीजी के विषय में जितने व्याख्यान दिये गये हैं, उसको सामग्रिक रूप से लेने पर यही अर्थ निकलता है कि, हमलोग आज सारा दिन वेदान्त-शिक्षा अर्थात आध्यात्मिक जागृति (स्पिरिचुअल अवेकनिंग) के विषय पर चर्चा किये हैं। तो आप यह बताइए कि वेदान्त के सार को अत्यन्त सरल भाषा में कहना हो तो उसे कैसे कहेंगे? " 
मैंने तो जितना थोड़ा-कुछ वेदान्त-दर्शन को समझा है, वह उतना ही है -जितना माँ सारदा ने मुझे बतलाया है; जो उन्होंने नहीं बतलाया, वह सब कुछ भी नहीं जानता हूँ ! 
 इसीलिये मेरे मुख से निकल गया " अच्छा यदि किसी बिल्कुल अनपढ़ ग्रामीण महिला के मुख से अत्यन्त ही सरल भाषा में निकले वेदान्त के सार को मैं उद्धृत करना चाहूँ, तो क्या यहाँ उपस्थित विद्वत-समाज मुझे उसकी अनुमति देंगे ? मेरे इतना कहते ही, कई लोग एक साथ बोल पड़े - " बोलिये, बोलिये। " 
उस समय मुख से निकला, ' मैंने कहा ' -- ऐसा बोल नहीं पा रहा हूँ| मेरे मुख से निकला कि- " उस अशिक्षिता ग्रामीण महिला का नाम है, श्रीश्री सारदा देवी, जिनको हमलोग मात्र श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव कि धर्मपत्नी के रूप में ही जानते हैं !" मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि माँ सारदा देवी द्वारा अत्यन्त सरल भाषा, जिससे अधिक सरल भाषा में कहा ही नहीं जा सकता, में दिये गये एक उपदेश - " जगत तोमार आपनार, केऊ पर नय !" को  अत्यन्त सरल भाषा में वेदान्त का सार (=आध्यात्मिक रूप से जागृत मनुष्य की पहचान)  कहा जा सकता है।
इतना सुनते ही सभी एक ही साथ हर्ष ध्वनी करने लगे- जिन्होंने प्रश्न किया था, वे आगे आकर मुझे बाँहों में भर लिये और जिस प्रकार हौले से कानों में कोई बात कही जाति है, उस प्रकार बोले- " आपनी ठाकुरेर कृपा पेयेछेन !" यह सब उस सेमिनार में हो रहा था, जिसमें श्रोता के रूप में फिलोसफी के छात्र- छात्राएं उपस्थित थे, फिलोसफी के अध्यापक- अध्यापिकाएं उपस्थित थे, और कुछ दूसरे लोग भी होंगे य़ा नहीं कह नहीं सकता।  सभी एक साथ,वाह-वाह अद्भुत कहते हुए महा-आनन्द में झूम उठे! " 
उसके बाद की एक घटना- और भी मजे की है :  लगभग एक-दो वर्ष के बाद अमिय दा के सभी परिचित लोगों ने यह तय किया कि उनके जन्म दिन के उपलक्ष्य में, उनके विवेकानन्द रोड स्थित घर पर एकसाथ जमा होकर- थोड़ी देर तक एक विचार-गोष्ठी जैसा कुछ करेंगे, जिसमे उनकी बातों पर चर्चा करेंगे-सुनेंगे। प्रत्येक ने मुझसे भी आने के लिये कहा।  
वहाँ पहुँचा तो उनलोगों ने मुझसे भी कुछ कहने का अनुरोध किये।  मैं सोंचने लगा, यहाँ बोलने के लायक क्या बोलना ठीक होगा ? तो वहाँ पर भी मैंने ग्राम्यभाषा में 'वेदान्त-दर्शन या आध्यात्मिक जागृति' की परिभाषा से सम्बन्धित इसी घटना को दुबारा कह सुनाया। वहाँ पर उस दिन बहुत थोड़े से ही लोग समवेत हुए थे, और उनमें से अधिकांश लोग फिलोसफी के प्राध्यापक लोग ही थे। उन्हीं लोगों में से किसी व्यक्ति ने मुझसे पूछा- 'आच्छा जिस व्यक्ति ने आपसे वाह प्रश्न किया था, क्या उस व्यक्ति को आप अभी पहचान पायेंगे ? मैंने कहा, 'अभी देख कर उनको पहचान पाउँगा य़ा नहीं, वह मैं अभी ठीक-ठीक कह नहीं पा रहा हूँ। यह सुनकर उन्होंने कहा - " वह व्यक्ति मैं ही हूँ!" यह एक अद्भुत घटना घटी थी। सब कुछ कितना आश्चर्यजनक है! इसीलिये केवल इतना सोंचता हूँ कि, उन लोगों की होली -ट्रायो (त्रिदेवों की) प्रसन्नता प्राप्त हो जाने से - उनकी कृपा से क्या नहीं हो सकता है !! 
मूकं करोति वाचालं पंगुं लंघयते गिरिम् ।
यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्दमाधवम् ॥
भावार्थ:- जिनकी कृपा से गूँगा बहुत सुंदर बोलने वाला हो जाता है और लँगड़ा-लूला दुर्गम पहाड़ पर चढ़ जाता है,  उन परम आनंद स्वरुप श्रीमाधव (जिनकी कृपा से निरक्षर 'रख तू राम ', लाटू महाराज,और फिर स्वामी अद्भुतानन्द बन जाते हैं, उन परमानन्द स्वरूप भगवान श्रीरामकृष्ण परमहंस देव) की मैं वंदना करता हूँ॥
(By whose grace dumbs start talking, lame men climb mountains, I worship that Sri Krishna, the supreme bliss.)
अर्थात श्रीरामकृष्णदेव,माँ श्री सारदा देवी और स्वामी विवेकानन्द - गूँगे को वाक्शक्ति-सम्पन्न और लंगड़े को पर्वत पार कर जाने में समर्थ करते हैं  !" यह बात केवल मुख से कही जाने वाली कोई कहावत मात्र ही नहीं है, यह बात कितनी सत्य है, मैं स्वयं इस बात का अनुभव करता हूँ।  उन लोगों की कृपा होने से,  ऐसा सचमुच होता है, सचमुच होता है ! 
सचमुच ऐसा अनुभव करता हूँ,जीवन में कोई नैराश्य नहीं है, अन्य कोई आशा नहीं है।  कोई चाह बाकी नहीं है ! जीवन में धन्यता का अनुभव होता है,  जन्म लेना सार्थक हुआ मुझे ऐसा प्रतीत होता है ! कोई आभाव नहीं है, कोई आकांक्षा नहीं है! आनन्द से ह्रदय भरा हुआ है, आनन्द से छाती भरी हुई है ! ये त्रिदेव- ठाकुर, माँ, स्वामीजी ही सर्वदा मेरे धेय्य हैं, मन में यथासंभव इन्हीं लोगों का स्मरण सर्वदा बना रहता है, चलता रहता है। मेरा मन उनके स्मरण में न लगा रहता हो, ऐसी अवस्था बहुत कम, एकदम अल्प समय के लिये होती है। बैठने पर- नित्य उनके उपदेशों पर चिन्तन करने की आदत है, घर में रहते समय, ये जो घर के स्थापित देव-देवी हैं- उनकी संक्षेप में नित्य पूजा करने की आदत है। उन्ही के बीच ठाकुर, माँ, स्वामीजी की भी संक्षेप में नित्य पूजा करता हूँ| (पूजा करते समय) उन लोगों का ध्यान-मंत्र भी बोलना पड़ता है। 
किन्तु उनलोगों का ध्यान-मंत्र बोलने से (स्वच्छन्दे मानस चक्षे ) - - उन लोगों को, होली ट्रायो को ठाकुर-माँ-स्वामीजी को " मुक्त मानस नेत्रों से देखा जा सकता है, बिल्कुल स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है! ...इस बात को मैं पुस्तक से पढ़कर नहीं बोल रहा हूँ, किताब में पढ़ कर ' मानस-चक्षू ' की बात नहीं कर रहा हूँ! सचमुच अन्तर में एक आँख है, आन्तरिक जगत नाम की एक " वस्तु " होती है, जिसको अपने भीतर (अन्तर में झांक कर ) में देखा जाता है! इच्छा करने मात्र से ही वह (अन्तः चक्षु) प्राप्त होती है ! (होली ट्रायो के) शरीर में क्या रक्खा है ? उनके बाह्य-रूपाकृति में क्या रखा है ? वह भाव रूप के भीतर छुपा हुआ है ! उनलोगों को देख पाने में सक्षम-समर्थ बनने का अर्थ है- उनलोगों में अन्तर्निहित भाव का निरन्तर स्मरण-मनन। 
जिसका अर्थ होता है- वे जिस दृष्टि से मान-वमात्र को देखते थे, मानवमात्र के प्रति जैसा प्रेम-भाव उनलोगों (होली ट्रायो) में था, अर्थात  ठीक वही दृष्टि (ज्ञानमयी दृष्टि)- अपने भीतर भी उत्पन्न करने में समर्थ होना ! वह भाव क्या है ? उसी भाव-दृष्टि की व्याख्या करते हुए स्वामीजी अपनी प्रसिद्द कविता 'सखा के प्रति ' में कहते हैं - 
'त्याग-भोग' -बुद्धिर बिभ्रम, 'प्रेम' 'प्रेम' --येई मात्र धन !
 जितने भी जीवंत रूपाकृति दिखाई दे रही है -सभी प्रेम द्वारा संचालित मूर्तियाँ हैं ! जिव-ब्रह्म, मानव-ईश्वर, भूत-प्रेत आदि देवगण, पशु-पक्षी, कीट-अणुकीट, येई प्रेम हृदये सबार। 'देव' 'देव'- बलो, आर कारा ? केबा बलो सबारे चालाये ? ' देव', 'देव ' जिसे तुम कहते, बताओ वह और कौन है ? कहो चलाता सबको कौन ? वह प्रेरक-शक्ति एकमात्र प्रेम है, तुम उस ' प्रेम-धन' (श्री रामकृष्ण) को लो पहचान !
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार मानवमात्र के प्रति यह प्रेम ही वेदान्त या आध्यात्मिक जागृति का सार है ! " ब्रह्म हते कीट-परमाणु, सर्वभूते सेई प्रेममय, मन प्राण शरीरअर्पण करो सखे, ये सबार पाए। "बोहुरूपे सोम्मुखे तोमार, छाड़ि कोथा खुंजीछो ईश्वर ? जीबे प्रेम कोरे जेई जन, सेइ जन सेवीछे ईश्वर। " ९/३२४ 
जब विदेशों में स्वामी विवेकानन्द से श्री रामकृष्ण के ऊपर कुछ कहने के लिए बहुत जोर दिया गया था, तब उन्होंने केवल इतना कहा था -'Love', " ईश्वरः प्रेमस्वरुपः !" - ईश्वर प्रेमस्वरूप हैं ! " उनका चिन्तन करना ' का अर्थ है, प्रेम से ह्रदय का भर जाना (परिपूर्ण हो जाना Be) एवं उसी प्रेम LOVE को सबों के भीतर प्रवाहित करा देना (make)! "
 सर्वभूते सेई प्रेममय, "- ( सब कुछ वे ही बने हैं !) " All are HE "- इस बात का बोध उस दिन हुआ था, जब उड़ीसा के किसी सुदूरवर्ती ग्राम (?) में शिविर-स्थल के सामने - " एक छोटी सी नदी है, उसके पीछे पहाड़ है, वहाँ ठाकुर के उपदेश कहते कहते ऐसा प्रतीत हुआ - मानो ये सारे मुखडे- यह पहाड़, यह नदी, हरी-हरी घासें, ये गाँछ-वृक्ष, यह नीला आसमान ! सबकुछ ठाकुर ( -माँ-स्वामीजी के ) के ही मुखड़े हैं! वे ही तो सब कुछ बन गये हैं ! 
(वास्तव में इसी बोध को वेदान्त या आध्यात्मिक जागृति कहते हैं !) यदि यह शरीर, ऐसा मन, ऐसा ह्रदय, ऐसी विद्या सबों के काम न आ सकी, सबों को हम यदि अपना न बना सके, इस आध्यात्मिक ज्ञान को यदि केवल अपने तक ही सीमित करके रखे रहें (निजेर कुक्षिगत करे), तो ऐसे मनुष्य जीवन से क्या लाभ ? न जाने कब शरीर का यह पिंजरा खुल जाये- और प्राण पखेरू उड़ जाएँ। या यह तन जल कर नौ सेर राख में बदल जाये- क्या रखा है ऐसे नश्वर मनुष्य-शरीर में ? अन्त में तो सब छोड़ना ही पड़ेगा। सब कुछ छोड़ना होगा, सब चला जायेगा, कुछ भी नहीं रहेगा। 
इसीलिये स्वामीजी ने कहा था -'आत्मवत सर्वभूतेषु', क्या यह वाक्य केवल मात्र पोथी में निबद्ध रहने के लिये है ?... सब प्रकार का विस्तार ही जीवन है और सब प्रकार की संकीर्णता मृत्यु है। जहाँ प्रेम है, वहीं विस्तार है और जहाँ स्वार्थ है, वहीं संकोच। अतः प्रेम ही जीवन का एक मात्र विधान है। जो प्रेम करता है, जो दूसरों के लिये जीता है, वही तो जीवित है; जो स्वार्थी है, वह मृतक से भी अधम है ! They alone live who live for others. The rest are more dead than alive ." " (४:३१०) } " 
स्वामीजी के ये सन्देश रट करके (कंटस्थ करके) लेक्चर देने की चीज नहीं है। यह तो परमसत्य को जान लेने की अवस्था है, वेदान्त या आध्यात्मिक जागृति में अवस्थित होना या भ्रममुक्त होना है ! प्रबन्ध लिखने के लिये यह कोई अच्छा विषय ही नहीं है, तथापि इसी एक पंक्ति के ऊपर पुस्तक पर पुस्तक निकल रहे हैं, रिसर्च पेपर (शोध-पत्र) के ऊपर, पुनः रिसर्च पेपर निकल रहे हैं। इन सब पर अपना ज्ञान बघारते रहने से कुछ नहीं होगा। 
इसके बाद ( इस बात को अपने अनुभव से जान लेने के बाद) कि, " सबई तिनीई"- " सबकुछ वे ही बने हैं! - " मनुष्य को और क्या चाहिये ? हमें आत्मनिरीक्षण के कार्य में लगे रहना चाहिये, यह देखना चाहिये कि यह विद्या हमारे ह्रदय में बैठ गयी, य़ा नहीं ? जीवन में कार्यों में दैनिक दिनचर्या में, बातचीत करते समय, दूसरों के साथ परस्पर व्यवहार करते समय, अपने आचरण में वह " विद्या " (जो विनय देती है ! जो वस्तु हमें दूसरों को चोट पहुँचाने से अलग रखती है, वह धर्म या ' विद्या ददाति विनयम') दृष्टिगोचर भी हो रही है य़ा नहीं ? यदि व्यवहार करते समय यह विद्या - माँ का अत्यन्त सरल और मधुर ग्राम्य भाषा में दिया वेदान्त का सार उपदेश- " कोई पराया नहीं, बेटी, संसार तुम्हारा है। " हमलोगों के व्यवहार से नहीं झलके तो, वैसे तोता-रटन्त विद्या का कोई फल न होगा! सारी शिक्षा व्यर्थ हो जाएगी। (जी० नदी० हर मोड़ पर -४५,४८)
अभी तुमने जो ऐन्थम (संघमन्त्र) गया है, उसमें तुमने घोषणा की है - " हमलोग एक बात बोलेंगे, हमलोग एक ही मार्ग का अनुसरण करेंगे, हम सभी लोग संगठित होकर रहेंगे। " किन्तु सभी लोगों को संगठित कैसे किया जा सकता है ? हम सभी एक ही बात कैसे बोल सकते हैं ? इस विविधता पूर्ण जगत में इतनी सारी चीजें हैं (रंगरूप-जाति -भाषा-धर्म आदि चीजें हैं), इतने सारे आदर्श हैं !
 अतः एक ही बात बोलना और एक ही आदर्श का अनुसरण करना, केवल तभी सम्भव हो सकता है; जब वह आदर्श ,जीवन की समस्त छोटी छोटी अभिलाषाओं को पूर्ण करने (अभ्युदय-लौकिक उन्नति) के साथ साथ, उन सबसे परे (निःश्रेयस-मोक्ष या भ्रममुक्ति) भी प्रदान करने में समर्थ हो ! इसीलिये हम सभी लोग केवल तभी संगठित हो सकते हैं,और एक बात बोल सकते हैं, जब हमारा आदर्श भी सर्वोच्च हो, सर्वोच्च आदर्श से कमतर या छोटी (Anything lesser than the highest.) कोई अन्य वस्तु  प्रत्येक व्यक्ति की जरूरतों को पूर्ण नहीं कर सकती ! और इस जगत में केवल एक वस्तु ऐसी है, जो प्रत्येक मनुष्य की जरूरतों को परिपूर्ण कर सकता है। और जो 'वस्तु' संसार के प्रत्येक मनुष्य की समस्त जरूरतों - अभ्युदय और निःश्रेयस दोनों को पूर्ण कर सकता हो - उसी को धर्म कहते हैं !  
६. धर्म क्या है ? (What is Dharma): महामण्डल का आदर्श उद्देश्य और कार्यक्रम का प्रचार प्रसार ही धर्म है !  
आजकल बहुत से ऐसे लोगों के द्वारा धर्म का प्रचार किया जा रहा है (जाकिर नाईक जैसे), जो वास्तव में धर्म का प्रचार न करके, विभिन्न प्रकार से धर्म को ही हतोत्साहित (डिस्करेज) करना चाहते हैं। किन्तु हमारे प्राचीन शिक्षकों ने (ऋषियों) हमें सिखलाया है कि - धर्म वह वस्तु है जो प्रत्येक मनुष्य को आगे बढ़ने में सहायता करता है !
[जैसे नाम वाला 'रिलिजन' हमें एक सीमित दायरे में बांध देता है, किन्तु धर्म वह वस्तु है जो हमें एक लक्ष्य की दिशा में,'advancement' में आगे बढ़ने में- अर्थात 'अभ्युदय से निःश्रेयस (मोक्ष/भ्रममुक्ति/माँ सारदा-काली की भक्ति) की दिशा में आगे बढ़ने में' हमारी सहायता करता है। अभ्युदय और निःश्रेयस ये वे दो लक्ष्य हैं जिन्हें प्राप्त करने के लिए, सभी  मनुष्य अपने जीवन में प्रयत्न या पुरुषार्थ करते हैं। अभ्युदय का अर्थ है लौकिक सम्पदा और भौतिक उन्नति, निःश्रेयस का अर्थ है अनात्मबंध से मोक्ष। अभ्युदय में जीवभाव बना रहता है जबकि ज्ञान में आत्मभाव दृढ़ बनता है। ये दोनों लक्ष्य परस्पर विपरीत धर्मों वाले हैं। भोग अनित्य है और मोक्ष नित्य। एक  में संसार का पुनरावर्तन है तो अन्य (निवृत्ति मार्ग) में अपुनरावृत्ति। जो वस्तु अभ्युदय अर्थात लौकिक उन्नति और निःश्रेयस/मोक्ष= भ्रममुक्ति, Beatitude-परमानन्द की अवस्था- दोनों को प्रदान करता है, उसे धर्म कहते हैं।]   
जो वस्तु दूसरों को चोट पहुँचाने से दूर रहने में हमारी मदद करता है, उसी को धर्म कहते हैं । अर्थात जो ५ दैनन्दिन अभ्यास प्रत्येक व्यक्ति के हृदय, मन और शरीर का विकास, आत्म-विकास ( या 3'H'-विकास) करने में तथा उसे  सुरक्षित रखने में सहायता करते हैं, उसी को धर्म कहते हैं। दूसरे शब्दों में जो दैनंदिन अभ्यास प्रत्येक मनुष्य को उसकी अन्तर्निहित पूर्णता को अभिव्यक्त करने, 'सेल्फ -फुलफिलमेन्ट' के लक्ष्य (भ्रममुक्त, निःस्वार्थपर मनुष्य=माँ सारदा देवी का भक्त) की ओर आगे बढ़ने में सहायता करता है, उसी को धर्म कहते हैं ! इसका तात्पर्य यह हुआ कि धर्म वह वस्तु है जो, अनिवार्य रूप से इस जगत के प्रत्येक मनुष्य के सर्वोच्च आत्महित को सिद्ध करने में सहायता करता हो !  
यदि कोई धर्म किसी व्यक्ति-विशेष के, उसके परिवार की, उसके कुटुम्ब-कबीले की, या उसके अपने देश की या राजनितिक दल के स्वार्थों,आकांक्षओं, अभिलाषाओं को ही पूर्ण करने में सक्षम हो,या किसी एक विशेष नाम वाले पंथ-सम्प्रदाय (मजहब) के सर्वोच्च आत्महित (highest self-interest ) को ही पूर्ण करने वाला हो, तो वैसे किसी धर्म से सम्पूर्ण मानवजाति का कल्याण नहीं हो सकता है।  
धर्म (अर्थात शिक्षा या 3H विकास के लिए ५ दैनंदिन अभ्यासों का प्रशिक्षण चाहिये) तो वैसा होना चाहिये , जिसका पालन करने से इस पृथ्वी का प्रत्येक मनुष्य अपनी अन्तर्निहित सम्पूर्ण पूर्णता को ('Whole Self-Fulfillment' क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज- दोनों को) पूर्ण रूप से अभिव्यक्त करने में समर्थ हो जाये! और यही वह सर्वोच्च आदर्श है जिसे प्राप्त करने के लिये हम सभी लोग सम्मिलित हो सकते हैं, संगठित होकर प्रयास कर सकते हैं, एक ही स्वर बोल सकते हैं। और केवल तभी 'संगछ्ध्वं सङ्गवदध्वं' का स्वप्न भी साकार हो सकता है ! क्योंकि उस प्रकार के धर्म द्वारा इस जगत के प्रत्येक मनुष्य की सर्वोच्च आत्महित को परिपूर्ण किया जा सकता है।         
इसीलिये स्वामी विवेकानन्द ने हमारे समक्ष दो उच्चतम आदर्श - " BE AND MAKE" इस सर्वोच्च आदर्श से छोटा कोई भी आदर्श हमारे लिये कारगर साबित नहीं होगा। हमलोग इसी प्रकार मनुष्यों के विचार-जगत में परिवर्तन लाकर स्वामी जी के इस कथन को सत्य प्रमाणित करेंगे कि, 'रामकृष्णवतारेर जन्मदिन होइतेइ सत्ययुगोत्पत्ति होइयाछे'- अर्थात अवतार वरिष्ठ श्रीरामकृष्ण की जन्मतिथि से ही सत्य युग का प्रारम्भ हो गया है ! इन दो जुड़वाँ सर्वोच्च आदर्शों से छोटा कोई भी आदर्श हमारे लिये कारगर साबित नहीं होगा।  
आये दिन हमलोग इस संसार में जितने भी प्रकार के झगड़े देखते हैं (पारिवारिक-झगड़े, सास-बहु, भाई-भाई, पिता-पुत्र के झगड़े, सामाजिक-राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय झगड़े, टेरेरिस्ट अटैक आदि), जिसके फल-स्वरूप कितनी ही प्रकार की समस्याओं का सामना या तो हमें आज करना पड़ रहा है, या भविष्य में करना पड़ेगा ! वे सभी समस्यायें उत्पन्न ही इसलिये होती हैं कि, हमलोग मनुष्य जीवन के सर्वोच्च आदर्श, का पालन हमलोग नहीं कर रहे हैं। (अर्थात धर्म के दोनों पक्षों -'अभ्युदय और निःश्रेयस' का अनुसरण हमलोग नहीं कर रहे हैं। कोई केवल 'अभ्युदय' में लगा है, तो कोई केवल 'निःश्रेयस' में।)
“मेरा विश्वास नवयुवकों पर है। इन्ही में से मेरे कार्यकर्ता निकलेंगे, जो अपने पराक्रम से विश्व को बदल देंगे।"   
७. शिक्षा का उच्चतम आदर्श : फिजिकल फ़िट्नेस के साथ विवेक-दर्शन में प्रशिक्षित मन ! (The Highest Ideal of Education: 'Physical Fitness with Trained mind in Prudence.' )  
अतः अब हमें यह अवश्य जान लेना चाहिये कि जीवन की पूर्णता का  सर्वोच्च आदर्श (नमूना) क्या है, तथा उस आदर्श के साँचे में हमलोग स्वयं को कैसे ढाल सकते हैं ? जीवन के किसी भी क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के लिये, स्वामी विवेकानन्दबसे अधिक जोर फिजिकल फ़िट्नेस पर देते हैं, वे कहते हैं, "कमज़ोर बनना पाप है, शक्ति की उपासना करो, शकितमान बनो- 'नायं आत्मा बलहीनेन लभ्यः।' उन्होंने तो तो यहाँ तक कहा है कि -"गीता पाठ करने की अपेक्षा तुम फुटबाल खेल से स्वर्ग के अधिक समीप पहुँचोगे। " आदर्श-जीवन के ऊपर वैसे प्रवचन जिन्हें तुम समझ नहीं सकते, उन्हें सुनने की अपेक्षा तुम फुटबॉल खेलकर शीघ्र ही आदर्श-जीवन को प्राप्त कर सकोगे। इस लिये शारीरिक शक्ति की क्षमता को विकसित करने के लिये, जो कुछ भी आवश्यक शारीरिक व्यायाम आदि का प्रशिक्षण है-उसकी व्यवस्था यहाँ की गयी है। इसे हमें अपने दैनंदिन-अभ्यास का एक प्रमुख अंग के रूप में ग्रहण करना होगा। 
किन्तु अगर मानलो कि तुम पौष्टिक आहार और नियमित व्यायाम करके किसी जंगली भैंसे या सांढ़ जैसे बलवान बन भी गये, तो इससे किसी को  क्या फर्क पडेगा ? किसी बैल के जैसा दिमाग और साँढ़ जैसी ताकत को लेकर यदि तुम समाज की सेवा (सत्ययुग को पुनर्रस्थापित) करने जाओगे, तो इससे क्या तुन्हें या समाज को कोई लाभ पहुँचेगा ?  
इसीलिये, फिजिकल फ़िट्नेस के साथ साथ एक ट्रेन्ड माइन्ड का होना भी अत्यावश्यक (important) है। स्वस्थ और चुस्त शरीर के साथ तुम्हारे पास एक प्रशिक्षित मन का होना भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उस प्रशिक्षित मन के द्वारा हमें उसमें अन्तर्निहित उसकी समस्त संभावनाओं (all the potentials) को विकसित कर लेना होगा। क्योंकि हमलोगों के मन में  " tremendous potentials " - आश्चर्यजनक सम्भावनायें हैं। 
एक ओर जहाँ उसमें परमाणु को भी विखण्डित (smash) कर देने की क्षमता है, तो दूसरी ओर उसमें आत्म-साक्षात्कार कर लेने ,(ब्रह्म को-अपने बनाने वाले को भी जान लेने) की क्षमता भी है।  आज तक मनुष्य ने जितने भी आविष्कार किये हैं, उसे उसने अपने मन की शक्तियों को एकाग्र करके ही प्राप्त किया है। यदि हमलोगों में मानसिक शक्ति, अर्थात अपने मन को एकाग्र करने की शक्ति नहीं होगी, तो हमलोग अपनी शारीरिक शक्ति का भी सही उपयोग नहीं कर सकेंगे। हमारे मन में अनन्त शक्ति है, जिसको विकसित करने से हमलोग अपनी शारीरिक-शक्ति (physical power) को नियन्त्रित करने की क्षमता भी प्राप्त कर सकते हो।  
किन्तु यह मानसिक शक्ति या एकाग्रता शक्ति भी तुम्हें बहुत दूर तक नहीं ले जा सकेगी। क्योंकि इन्हीं मानसिक शक्तियों का प्रयोग करके लोग ऐसे-ऐसे विनाशकारी परमाणुविक हथियार तैयार रहे हैं, जो सम्पूर्ण मानव-सभ्यता के लिये आत्मघाती (self-destructive ) हैं। अतः, हमलोगों के लिये मानव-मन की एक विशेष उच्चतर शक्ति,(a Higher Faculty of Mind = धर्मो हि तेषाम् अधिको विशेषः।धर्म अर्थात " विवेकप्रयोग- शक्ति" को  पूर्णतः जागृत कर लेना आवश्यक है। जिसकी सहायता से हमलोग श्रेय-प्रेय (शाश्वत-नश्वर विवेक) के अन्तर को ठीक रूप में पहचान पायेंगे या डिस्क्रीमिनेट कर सकेंगे,और सही समय पर सही निर्णय लेकर, अपनी इच्छाशक्ति के प्रवाह और वेग की दिशा को प्रेय (अधोमुखी) दिशा से श्रेय या उर्ध्वमुखी दिशा में मोड़ सकने में समर्थ हो जायेंगे। महोपनिषद ४.११४ के अनुसार अपनी आत्मा के अवलोकन की इच्छा मोह-अंधकार (हिप्नोटाइज्ड अवस्था) का क्षय करने वाली है, जबकि अन्य सांसारिक इच्छायें अविद्या है, जिसका नाश करना ही मोक्ष (भ्रममुक्ति की अवस्था) को प्राप्त होना है। 
इसी विवेक-प्रयोग या विवेक-दर्शन के अभ्यास द्वारा 'प्रेय' या 'प्लिजेन्ट रिपिटेड हैबिट्स' को 'श्रेय' अर्थात 'नियू ऐंड बेटर रिपिटेड हैबिट्स' में परिवर्तित करने के लिये, हमारे पास स्वस्थ शरीर के साथ 'विवेक-प्रयोग ' करने के लिए एक अच्छी तरह से प्रशिक्षित मन का होना भी आवश्यक है।
इसीलिये स्वामी जी कहते हैं - " शिक्षा क्या है ? ( या धर्म क्या है ?) क्या वह पुस्तक-विद्या है ? नहीं ! क्या वह नाना प्रकार का ज्ञान है ? नहीं, यह भी नहीं।  जिस संयम के द्वारा (अर्थात विवेक-प्रयोग के द्वारा) इच्छाशक्ति का विकास और प्रवाह वश में लाया जाता है और वह फलदायक होता है, (पत्थरबाजी रुक जाती है ), वह शिक्षा (या धर्म ) कहलाती है ! "         
जब हमारा मन विवेक-प्रयोग (विवेक-दर्शन) के लिये अच्छी तरह प्रशिक्षित हो जायेगा, तब हमलोग सहज तरीके से (spontaneously) यह अन्तर कर पायेंगे कि कौन सी चीज मेरे लिये (मेजर नितिन गोगोई या भारत के लिये-) अच्छी है, कौन सी चीज मेरे पड़ोसी (कश्मीरी पत्थरबाज या पाकिस्तान के लिये) के लिये अच्छी है, और कौन सी चीज सबों के लिये अच्छी है, और कौन सी चीज किसी के लिये भी अच्छी नहीं है ! 
८. 'रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त नेतृत्व प्रशिक्षण परम्परा' के तहत आध्यात्मिक जागृति का प्रशिक्षण:  (Training for Spiritual Awakening: Under Ramakrishna-Vivekananda Vedanta Leaders Training Tradition!)
इसलिए,अपनी शारीरिक शक्ति (physical strength) को विकसित करने के साथ ही साथ, हमें अपनी  मानसिक शक्ति (mental power) को अर्थात निरन्तर विवेक-दर्शन के अभ्यास द्वारा 'विवेक-प्रयोग-क्षमता' (Power of Discrimination) को भी विकसित कर लेना होगा। तत्पश्चात, इन सब से बढ़कर जो सर्वोच्च शक्ति है, जिसे आध्यात्मिक जागृति (spiritual awakening या भ्रममुक्ति के साथ-साथ भक्ति) कहा जाता है, हमें उस शक्ति को भी विकसित करना होगा।
 यदि हमलोग केवल अपने इस साढ़े तीन हाँथ के पंचभौतिक शरीर या 'बॉडी-माइंड कम्प्लेक्स'- को ही सत्य की चरम सीमा या परम-सत्य (Ultimate Reality) मानकर, इसी के छोटे से दायरे-(आहार-निद्रा-भय-मैथुन) के चारों ओर घूमते रहेंगे, तो यह कभी नहीं जान पायेंगे कि-इस इन्द्रियगोचर साढ़े-तीन हाँथ के शरीर के पीछे कितनी अपार और विस्तीर्ण सत्ता (ब्रह्म vastness) अवस्थित हैं!   
तुम कह सकते हो, कि यदि मैं अपने हृदय के उस अनन्त विस्तार (अन्तर्निहित ब्रह्मत्व) को नहीं जानूँगा, तो इससे मुझे क्या फर्क पड़ेगा ? अभी हमलोग बहुत सी बातों को नहीं जानते हैं -जैसे 'पदार्थ की तीन अवस्थाओं -सॉलिड, लिक्विड, गैस के आलावा चौथी अवस्था -'प्लाज़्मा' भी होता है; किन्तु इस सत्यता से अभी हमलोग परिचित नहीं हैं। परन्तु जब हमलोग हाइयर फिजिक्स या अप्लाइड फिजिक्स पढ़ते हैं तब प्लाज्मा और क्वांटम फिजिक्स आदि विषयों को समझ पाते हैं। 
उसी प्रकार जो लोग ऋषि,पथ-प्रदर्शक, नेता या लोक-शिक्षक होते हैं, वे हृदय की संकीर्णता को हटाकर अनन्त तक विस्तृत करने की पद्धति को हमसे बेहतर तरीके से जानते हैं। मानवजाति के ऐसे ही मार्गदर्शक नेताओं को हमारे देश में-भगवान के अवतार, गुरु या लोकशिक्षक आदि कहा जाता है। अतः हमलोगों को उनके ही मुख से वेदान्त के महावाक्यों का श्रवण करना चाहिये, और उनके निर्देशन में ह्रदय को विकसित करने की पद्धति को भी सीखना चाहिये। और स्वामी विवेकानन्द ने वैसे ही मानवजाति के मार्गदर्शक नेता, अपने गुरु, अवतारवरिष्ठ श्रीरामकृष्ण परमहंस के चरणों में बैठकर, उनके मुख से आध्यात्मिक रूप से जागृत मनुष्य बनने और बनाने की पद्धति का श्रवण किया है उसे सीखा है, तथा  महामण्डल के माध्यम से उसे नवयुवकों तक पहुँचा दिया है।   
जैसा कि हम सभी लोग जानते हैं, स्वयं स्वामी विवेकानन्द भी अपने जीवन के एक पड़ाव पर (१८ वर्ष की अवस्था में, जब उनका नाम नरेन्द्र था) आस्तिक मनुष्य नहीं थे - ईश्वर के अस्तित्व पर, वे पूर्ण रूप से विश्वास नहीं करते थे ! क्योंकि, उनका मन किसी भी वस्तु को वैज्ञानिक ढंग से जाँच-परख कर देख लेने के बाद ही, विश्वास करने के लिए प्रशिक्षित हुआ था।  इसलिये  एक दिन चुनौतीपूर्ण ढंग से अपने गुरु श्री रामकृष्ण से पूछा था - " क्या सचमुच कोई ईश्वर है ? महाशय, क्या आपने ईश्वर के दर्शन किये हैं ? 
श्री रामकृष्ण ने कहा, 'बेटा, मैंने ईश्वर के दर्शन किये हैं, तुम्हें जिस प्रकार प्रत्यक्ष देख रहा हूँ, इससे भी कहीं स्पष्ट रूप से उन्हें देखा है !"
नरेन्द्र के विस्मय को सौगुना बढ़ाते हुए पुनः बोले - "क्या तुम भी देखना चाहते हो ? यदि तुम मेरे कहे अनुसार अभ्यास करो, तो तुम भी उन्हें देख सकते हो !"
और नरेन्द्रनाथ अपने गुरु श्रीरामकृष्ण परमहंस से प्रशिक्षित होकर, जब स्वयं ईश्वर के दर्शन कर लिये, केवल तभी उसने फैक्ट ऑफ़ गॉड'-'प्रत्येक आत्मा अव्यक्त ब्रह्म है' (ईच सोल इज पोटेंशियलि डिवाइन) या 'तत्वमसि' आदि महावाक्य ही जीवन का सर्वोच्च सत्य, या परमसत्य हैं।  तत्वमसिएकं सत विप्राः बहुधा वदन्ति) 'ईश्वर की यथार्थता' को स्वीकार किया था ! 
और 'ईश्वर की इस यथार्थता' (This fact of God) को जाने-समझे बिना, हमलोग इस लौकिक (भौतिक) जीवन में चाहे और जो कुछ भी करने का प्रयत्न कर लें, किन्तु हम मानव-सभ्यता (human civilization) की समस्याओं को कभी हल नहीं कर सकते हैं।  अतः यह अत्यन्त आवश्यक है कि इस प्रशिक्षण शिविर में कुछ जिज्ञासु (सत्यान्वेषी किन्तु भक्त-हृदय) युवाओं को 'श्रवण-मनन-निदिध्यासन वेदान्त परम्परा' या 'रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त लीडर्स ट्रेनिंग ट्रेडिशन' के अन्तर्गत आध्यात्मिक रूप से जागृत लोकशिक्षक या नेता ('लीडर ऑफ़ द मैनकाइंड' Spiritually Awakened Leaders,वैष्णव-जन) बनने और बनाने का प्रशिक्षण भी दिया जाय। 
 यदि तुम उपनिषदों में वर्णित 'गुरु-शिष्य वेदान्त परम्परा' में विश्वास करो, तो हमारे प्राचीन ऋषियों कहते हैं " प्रत्येक मनुष्य में चाहे वह इसे जानता हो या नहीं, उच्चतम आत्म-विकास कर लेने की सम्भावना, मानव-मात्र में अन्तर्निहित है। (highest self-development- पूर्णतया निःस्वार्थी मनुष्य, बन जाने की सम्भावना) 'तत्त्वमसि!' अर्थात 'मेरा यथार्थ स्वरूप और इस ब्रह्माण्ड का अन्तिम सत्य (ईश्वर)' दोनों एक और अद्वितीय वस्तु है ! जब कोई व्यक्ति 'श्रवण-मनन -निदिध्यासन वेदान्त परम्परा' में  जीवन की इस सत्यता को अपने अनुभव से जान लेता है, तो वह व्यक्ति उसी क्षण समस्त संशय या भ्रम से मुक्त हो जाता है,  ब्रह्मविद मनुष्य ब्रह्म ही हो जाता है।   
हो सकता है कि इस अवस्था (ब्रह्मानन्द की अनुभूति) को समझ पाना, अभी हमलोगों के लिये 'far cry' या दूर की कौड़ी' हो ! हो सकता है कि हमलोग आध्यात्मिक रूप से जागृत मनुष्य बन जाने के महत्व को इस समय नहीं समझ पा रहे हों ! (हो सकता है, बाउंसर-बॉल की तरह ये बातें हमारे सर के ऊपर से  निकल रहे हों।) परन्तु हमलोग यदि इस बात को अभी पूरी तरह से नहीं भी समझ पा रहे हो, तो भी उससे कोई अन्तर नहीं पड़ेगा। इस 'सुसमाचार' (The gospel) को जान लेना भी कम नहीं है, कि 'The Whole Human Personality' - सम्पूर्ण मानव व्यक्तित्व का एक 'DIMENSION' या आयाम (विस्तार या पहलू) ऐसा भी है ! 
श्री रामकृष्ण कहते थे -" मान हूँश तो मानुष!" - अर्थात जिस मनुष्य को अपने व्यक्तित्व के इस विशिष्ट आयाम का बोध हो जाता है, उसी को 'मनुष्य' (भ्रममुक्त या ब्रह्मवेत्ता मनुष्य) कहते हैं !" इसलिये इस प्रशिक्षण के दौरान तुम्हें अपने 'horizon of mind ' - मानसिक क्षितिज को या अपनी मानवीय चेतना (human consciousness) के छोटे से दायरे को बदलकर (change करके) इसे अनन्त तक विस्तृत कर लेना होगा।(इन्द्रियातीत सत्य का साक्षात्कार करने के लिए मन की चहार दीवारी को भी फांद जाना होगा!) इसके तुम्हें अपनी बुद्धि की कुशाग्रता में वृद्धि करनी होगी, और इसके अतिरिक्त तुम्हें यह भी सीखना होगा कि 'what is called the control of the mind'. मन को अपने नियंत्रण में रखना या 'साम्यभाव की अवस्था' में रखना किसे कहते हैं। 
[रामचरितमानस में प्रसंग आता है : श्रीसीतारामजी को पृथ्वी पर ही सोये हुए देख कर और अयोध्या के राज महलों के सुखों की याद करते हुऐ निषादराज बड़ा भारी विलाप करने लगे तथा महारानी कैकेयी को कोसने लगे कि उन्होंने श्रीसीतारामजी को सुख के अवसर पर दुःख क्यों दे दिया ? तब श्रीलक्ष्मणजी ने संसार को स्वप्नवत असत्य बताते हुए सत्य-तत्त्व, परमार्थ का वर्णन किया और बताया कि परब्रह्म परमात्मा भगवान श्रीरामचन्द्रजी ही परमार्थ स्वरूप है। ये ही सगुण और ये ही निर्गुण हैं। वे ही (अपनी मर्जी से) मनुष्य बन कर लीला कर रहे हैं। (इनको कैकेयी आदि कोई भी दुख नहीं दे सकता आदि, सुखस्य दुःखस्य न कोपि दाता ... काहु न कोउ सुख दुख कर दाता। निज कृत करम भोग सबु भ्राता।) 
 किसी कमरे में यदि १००० वर्ष से अंधकार है, तो उसके जाने में भी १००० वर्ष नहीं लगते। केवल एक दीपक जलाओ l अंधकार स्वतः मिट जाएगा l अर्थात हृदय में विद्यमान आधुनिक युग में ब्रह्म के अवतार श्री रामकृष्ण पर मन को एकाग्र करने का प्रयास करें तो काम-क्रोध स्वतः भाग जायेगा। इसलिए ब्रह्मचर्य शब्द का ही विचार करो , ब्रह्म में चरना ही ब्रह्मचर्य है l किन्तु बिना किसी मार्गदर्शक नेता (गुरु) के स्वयं अपने बलबूते आधुनिक युग में ब्रह्म के अवतार को पहचान पाना बहुत कठिन है, क्योंकि  :- 
 * ब्रह्म जो ब्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद।
सो कि देह धरि होइ नर, जाहि न जानत बेद॥
भावार्थ:-जो ब्रह्म सर्वव्यापक, मायारहित, अजन्मा, अगोचर, इच्छारहित और भेदरहित है और जिसे वेद भी नहीं जानते, क्या वह (सच्चिदानन्द स्वरुप परमात्मा स्वयं) देह धारण करके मनुष्य हो सकता है?॥ 
अतः हमें सबसे पहले आधुनिक युग के सर्वश्रेष्ठ लोकशिक्षक स्वामी विवेकानन्द के चरणकमलों की वन्दना करनी चाहिये। क्योंकि उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा है कि - " आधुनिक युग में भगवान श्रीरामकृष्ण परमहंस ही ब्रह्म के अवतार हैं ! -जो राम, जो कृष्ण -वही रामकृष्ण। इस बार दोनों एकसाथ, वेदान्त की दृष्टि से नहीं एकदम साक्षात् !"  
* बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर॥
भावार्थ:-मैं उन गुरु महाराज ( श्री रामकृष्ण परमहंस) के चरण कमलों की वन्दना करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में स्वयं हरि (भगवान विष्णु) ही हैं। और जिनके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समान हैं।
* ग्यान पंथ कृपान कै धारा। परत खगेस होइ नहिं बारा॥ 
भावार्थ:- ज्ञान का मार्ग कृपाण (दोधारी तलवार-Saber) की धार के समान है। हे पक्षीराज! इस मार्ग से गिरते देर नहीं लगती। 
*क्रोध कि द्वैतबुद्धि बिनु द्वैत कि बिनु अग्यान।
मायाबस परिछिन्न जड़ जीव कि ईस समान॥
भावार्थ:-बिना द्वैतबुद्धि के क्रोध कैसा और बिना अज्ञान के क्या द्वैतबुद्धि हो सकती है? माया के वश रहने वाला परिच्छिन्न जड़ जीव क्या ईश्वर के समान हो सकता है?
इसीलिये सन्त (नेता) तुलसीदास जी अपनी रचना 'सखा के प्रति' (अर्थात वुड बी लीडर्स के प्रति) कहते हैं -
* होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा। तब रघुनाथ चरन अनुरागा॥
'सखा परम परमारथु एहू।' मन क्रम बचन राम पद नेहू॥
भावार्थ:-विवेक होने पर मोह रूपी भ्रम भाग जाता है, तब (अज्ञान का नाश होने पर) श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रेम होता है। हे सखा! मन, वचन और कर्म से श्री रामजी  के चरणों में प्रेम होना ( अर्थात आधुनिक युग के अवतारवरिष्ठ श्री रामकृष्ण के चरणों में प्रेम होना), यही सर्वश्रेष्ठ परुषार्थ या परमार्थ है ! 
किन्तु माँ जगदम्बा की कृपा प्राप्त किये बिना, अर्थात श्री श्री माँ सारदा से काम-वासना से मुक्त कर देने की प्रार्थना किये बिना भगवान श्रीरामकृष्ण (सगुण ईश्वर श्रीराम) के चरणों में अनुराग नहीं होता। और ब्रह्ममय जगत का अनुभव स्थायी नहीं होता, इसीलिए माँ जगदम्बा के सीता -रूप की वन्दना करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं - 
* उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्‌।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्‌॥
भावार्थ:-उत्पत्ति, स्थिति (पालन) और संहार करने वाली, क्लेशों को हरने वाली तथा सम्पूर्ण कल्याणों को करने वाली श्री रामचन्द्रजी की प्रियतमा श्री सीताजी को मैं नमस्कार करता हूँ॥ 
भगवती सीता जी की पति-परायणता, त्याग सेवा, संयम, सहिष्णुता, लज्जा, विनयशीलता भारतीय संस्कृति में नारी भावना का चरमोत्कृष्ट उदाहरण तथा समस्त नारी जाति के लिए अनुकरणीय है। मां सीता जी ने ही हनुमान जी को उनकी असीम सेवा भक्ति से प्रसन्न होकर अष्ट सिद्धियों तथा नव-निधियों का स्वामी बनाया। 
 ‘‘अष्टसिद्धि नव-निधि के दाता। अस वर दीन जानकी माता॥’’
इससे यह स्पष्ट होता है कि माता जानकी ही जगत की उत्पत्ति, उसके पालन और संहार करने वाली हैं। यह सभी क्लेशों को हरती हैं एवं सभी प्रकार के कल्याणों को प्रदान करती हैं। 
ठीक उसी प्रकार आधुनिक युग में जगतजननी माँ सारदा की कृपा प्राप्त किये बिना श्री रामकृष्ण के चरणों में प्रेम नहीं हो सकता, इसलिये हे सखा- सर्वोच्च पुरुषार्थ मोक्ष का अर्थ केवल भ्रममुक्ति ही नहीं बल्कि माँ सारदा देवी की कृपा प्राप्त करना है! क्योंकि माँ सारदा ने रामेश्वरम के शिवमन्दिर में अपने मुख से स्वीकार किया था कि वे ही पूर्वजन्म में माँ सीता थीं।
माँ सारदा की शरण में जाने के पश्चात् और किसी के आश्रय की आवश्यकता नहीं रह जाती क्योंकि माँ श्रीश्री सारदा देवी को प्रसन्न करने का अर्थ आधुनिक युग में 'अवतार वरिष्ठ' साक्षात् विष्णु-अवतार श्रीरामकृष्ण को प्रसन्न करना है। माता श्री सारदा का ध्यान सब कष्टों से निवृत्ति देने वाला एवं सारी मनोवांक्षाओं को पूर्ण कर सुख-शांति प्रदान करने वाला है।  इसीलिये श्री नवनीहरन मुखोपाध्याय ने उनके प्रणाम मंत्र में लिखा है:- 
   नमस्ते सारदे देवि दुर्गे देवी नमोsस्तुते।    
सा मे वसतु जिह्वायां मुक्तिभक्तिप्रदायिनी ||

 शक्ति का उपासक अन्यान्य साधना-मार्गियों की तरह शक्ति (महाविद्या-माँ सारदा देवी) को 'माया' नहीं मानता बल्कि अपनी 'माँ' समझता है जिसकी गोद में रहकर वह सदैव निर्भय रहता है क्योंकि उसकी माँ तो 'कोटि ब्रह्माण्ड नायिका' है जो प्रतिक्षण उसकी रक्षा तथा पालन करती है। वे स्वयं इतनी प्रकाशमयी हैं कि उनकी सन्तानों के हृदय में छाया मायारूपी अन्धकार (काम-क्रोध-लोभ-मद-मोह-मत्सर) स्वत: ही नष्ट हो जाता है।   
"Where ordinary consciousness discriminates the many, the seer experiences the One" : जहाँ साधारण चेतना (ordinary consciousness-अप्रशिक्षित चेतना) अनेकता को देखती है और अपने-पराये का पक्षपात करती है, वहीँ ऋषि-चेतना ( the Seer -सत्यद्रष्टा की प्रशिक्षित चेतना, पैगम्बर-चेतना) 'अनेकता में एकता' (यूनिटी इन डाइवर्सिटी) का अनुभव करती है। अर्थात निःस्वार्थी नेता या लोकशिक्षक की चेतना 'कोई पराया नहीं सभी अपने हैं' का अनुभव करती है ! और तब हमलोग यह भी समझ जाते हैं कि 'अनेकता में एकता' को देखना ही भारतीय संस्कृति क्यों है ! 
ऐसी अनुभूति के बाद उसका हृदय  'Eternal light' -शाश्वत ज्योति से प्रकाशित हो जाता है, उसके हृदय में जो १००० वर्षों का अँधेरा था, उसको जाने में भी हजार साल नहीं लगते, दीपक जलते ही वह अँधेरा क्षण भर में दूर हो जाता है ! और तब - 'You only dwell within Yourself, and only You know You:' उसके हृदय में 'केवल वह' ही होता है, वहाँ दूसरा कोई नहीं होता, और जिसे केवल 'वह' ही जानता है।  'Self-knowing, Self-known, You love and smile upon Yourself! 'और तब अपने सच्चे स्वरूप (आत्मा-परमात्मा के एकत्व या ब्रह्मत्व) को पहचान कर, ब्रह्मवेत्ता मनुष्य होने या 'आत्मविदानन्द' होने के आनन्द से विभोर होकर वह स्वयं से (अपने सच्चे स्वरूप से प्रेम करने लगता है, और स्वयं को ही देख-देखकर मुस्कुराता रहता है ! उसका हृदय 'All-Encompassing Heart' बन जाता है,अनन्त तक - इतना विस्तृत हो जाता है, कि उसमें सभी समा सकते हैं, उसका हृदय 'all-embracing Beingness' सबों का आलिंगन करने वाला अस्तित्व बन जाता है,  और तब उसके मुख से स्वतः प्रार्थना के स्वर फूट पड़ते हैं  - "वसुधैव कुटुम्बकम्", "सर्वे भवन्तु सुखिनः", ‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम’!! 
" अयं निजो परो वेति गणना लघुचेतसाम्। 
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥" 
(यह मेरा है, यह पराया है, ऐसे विचार तुच्छ या निम्न कोटि के व्यक्ति करते हैं। उच्च चरित्र वाले व्यक्ति समस्त संसार को ही कुटुम्ब मानते हैं। वसुधैव कुटुम्बकम का मन विश्वबंधुत्व की शिक्षा देता है।)
                                   "ॐ सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः ।
 सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद्दुःखभाग्भवेत् । 
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥       
 "सभी सुखी होवें, सभी रोगमुक्त रहें, सभी केवल मङ्गलमय घटनाओं के साक्षी बनें और किसी को भी दुःख का भागी न बनना पड़े।" 
(Om, May All become Happy, May All be Free from Illness. May All See what is Auspicious, May no one Suffer. Om Peace, Peace, Peace.) 
ईश्वर के द्वारा प्राचीन युग से ही  सम्पूर्ण विश्व को आध्यात्मिक रूप से जागृत करने का उत्तरदायित्व भारतवर्ष के ऋषियों, मानवजाति के मार्गदर्शक नेताओं  या लोक शिक्षकों के ऊपर सौंपा गया है-   
‘कृण्वन्तो विश्वमार्यम’ 
सारी दुनिया को आध्यात्मिक रूप से जाग्रत करके प्रत्येक मनुष्य को श्रेष्ठ, सभ्य एवं सुसंस्कृत बनाओ ! प्रत्येक मनुष्य में विद्यमान आत्मा ही परमात्मा है, इन्द्रियातीत सत्य, ब्रह्म या आत्मा सच्चिदानन्द स्वरूप है ! इस सत्य को अपने अनुभव से नहीं जानने के कारण "पंचभूतों में फँसा हुआ ब्रह्म रो रहे हैं !" उन्हें आध्यात्मिक रूप जाग्रत करना ही स्प्रिचुअल लीडर्स या लोकशिक्षकों का उत्तरदायित्व है। 
वुड बी लीडर्स या भावी लोकशिक्षकों को सम्बोधित करते हुए स्वामी जी कहते हैं , " पहले हृदय के द्वार तो खुलने दो, शेष सब अपने आप ही आ जायेगा। लेकिन यह बात अच्छी तरह समझ लो कि जब तक हृदय में कामना-वासना है, तब तक उस "प्रेम " का आविर्भाव नहीं होगा। पहले अपनी इन्द्रियासक्ति, भोगों की लालसा का ही त्याग क्यों न करो ?"८/२८०]
" प्रत्येक लोकशिक्षक को 'मैं शरीर नहीं हूँ, मैं सर्वव्यापी आत्मा हूँ' -ऐसे विदेह भाव की अनुभूति तुम्हें निरन्तर महसूस होनी चाहिये, और इसी भाव में विभोर होकर अवस्थान करना चाहिये। इसी प्रकार से "दी मूड ऑफ़ बॉडि-लेसनेस" विदेह-भाव में लगातार अवस्थित रहने की चेष्टा का नाम ही पुरुषकार (self-exertion — as distinguished from grace) है। इस पुरुषकार की सहायता से ही उन पर (भगवान श्रीरामकृष्ण पर)  निर्भरता आती है, और इसे ही परमपुरुषार्थ (the goal of human achievement. मोक्ष या भ्रममुक्ति) कहते हैं। " ६/५१  
किन्तु क्या गृहस्थ होकर भी क्या लोकशिक्षक बना जा सकता ? स्वामी विवेकानन्द कहते हैं - "गृहस्थ होने का अर्थ यह तो नहीं है कि कोई मूर्तमान असंयम (personification of incontinence) बन जाये, या आजन्म वैवाहिक सुख का उपभोग करता रहे?" (२४ जनवरी १८९८- सुरेन्द्रनाथ सेन डायरी/८-२८०] लोकशिक्षक या आध्यात्मिक रूप से जाग्रत मनुष्य की पहचान बतलाते हुए गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं -

* एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी। परमारथी प्रपंच बियोगी॥
जानिअ तबहिं जीव जग जागा। जब सब बिषय बिलास बिरागा॥
भावार्थ:-इस जगत रूपी रात्रि में योगी लोग जागते हैं, जो परमार्थी हैं और प्रपंच (मायिक जगत) से छूटे हुए हैं। जगत में जीव को जागा हुआ तभी जानना चाहिए, जब सम्पूर्ण भोग-विलासों से वैराग्य हो जाए॥ 
 इसीलिये लीडरशिप ट्रेनिंग का क्लास बड़े सभागार में न होकर किसी ऐसे छोटे हॉल में होना चाहिये जहाँ वक्ता-श्रोता में आइ टू आइ कॉन्टैक्ट सम्भव हो !] 
९. सुसंगत विकास: [ऑडोटोरियम, किचेन, टॉयलेट, फिल्ड ड्यूटी आदि प्रशिक्षण द्वारा 3'H' शारीरिक-मानसिक-आध्यात्मिक त्रिशक्तियों का सुसंगत विकास।] 
(Harmonious Development of 3'H 'Complex : Tri-powers through  Auditorium, Kitchen, Toilet, field duty training.)
हमारा मन ही वह साधन है ('कर्ता' नहीं है), जिसकी सहायता से हमें दुनिया के सारे काम करने पड़ते हैं। इसलिये इस मन में हमें श्रेष्ठतम विचारों को प्रविष्ट होने की अनुमति अवश्य देनी चाहिये। मन को अपने नियंत्रण में रखने का अर्थ यह नहीं है कि उसमें विचारों को प्रविष्ट ही न होने दिया जाय। अतः मन के दरवाजों को कभी बन्द नहीं करना चाहिये। इस बात की चिन्ता मत करो कि वे विचार कहाँ से आ रहे हैं, श्रेष्ठ विचारों को सभी दिशाओं से आने की अनुमति देनी चाहिये।
किन्तु इसके साथ ही साथ निरंतर 'विवेक-प्रयोग' करने के लिए एक प्रशिक्षित मन भी अवश्य होना चाहिए। क्योंकि विवेक-प्रयोग करने के लिए प्रशिक्षित केवल उन्हीं कुछ चयनित शुभ और श्रेष्ठ विचारों का चिन्तन करता है, जो हमें आत्मोन्नति का मार्ग दिखलाती हैं। संकल्पात्मक कार्यों का नैतिक मूल्यांकन करने की दृढ़ इच्छा-शक्ति को ही विवेक-प्रयोग करने की शक्ति (Power of Discrimination- शरीर-शरीरी विवेक) कहते हैं। जिसकी सहायता से हम उन श्रेष्ठतम विचारों को अलग से पहचान सकते हैं, जो हमें आत्मोन्नति के मार्ग पर अग्रसर रहने में सहायक हैं। 
जिन नवयुवकों ने इस शिविर में भाग लेने का निर्णय लिया है, उन्होंने तो पहले ही अपनी " संकल्पात्मक कार्यों का नैतिक मूल्यांकन करने की दृढ़ इच्छा-शक्ति" या विवेक-प्रयोग करने की शक्ति (Power of Discrimination) का परिचय दे दिया है। क्योंकि अनेक प्रकार के "श्रेय-प्रेय" विकल्पों में से स्वामी विवेकानन्द द्वारा निर्धारित शिक्षाओं और आदर्शों का अनुसरण करने का विकल्प चुन लेना, सर्वोत्तम विवेक-प्रयोग है। और जैसे जैसे तुम्हारी उम्र बढ़ेगी तुम्हारे मन का दायरा या क्षितिज भी बढ़ता जायेगा, और तुम यह समझ जाओगे कि तुम्हारा यह चयन गलत नहीं था। फिर एक दिन ऐसा आएगा, जब तुम उस दिन को धन्य मानोगे जिस दिन तुमने विरोधाभासी आदर्शों वाले किसी अन्य संगठन द्वारा दिए गए नाम-यश के प्रलोभनों को ठोकर मारकर (राजनितिक दल,अर्धराज-नीतिक दल या तथाकथित अन्तर्राष्ट्रीय समाज-सेवी क्लब को ठोकर मारकर) 'महामण्डल' से जुड़ने का निर्णय लिया था! 
क्योंकि महामण्डल ने स्वामी विवेकानन्द द्वारा प्रदत्त - 'BE AND MAKE' रूपी जिस जुड़वाँ आदर्श को हमारे समक्ष रखा है, वह प्रत्येक व्यक्ति -चाहे वह किसी भी जाति या धर्म में क्यों न पैदा हुआ हो, के सर्वोच्च लक्ष्य या उच्चतम अभिलाषा को परिपूर्ण कर देता है। "स्वयं मनुष्य बनो और दूसरों को मनुष्य बनने में सहायता करो " -इन जुड़वाँ आदर्शों में इतनी शक्ति है कि, यह हमारे अन्तर्निहित पूर्णत्व ('Self-Fulfillment' या ब्रह्मत्व) को ललकार कर प्रकट कर देता है! [अर्थात इस चरित्रनिर्माण आंदोलन से जुड़ा रहने वाला प्रत्येक युवा क्रमशः एक पूर्णतः निःस्वार्थी मनुष्य, भ्रममुक्त, वैष्णव-जन, लोकशिक्षक या मानवजाति का मार्गदर्शक नेता बन जाता है।]       
यह उच्चतम आत्म-निर्भरता अर्थात  निरन्तर विदेहावस्था-भ्रममुक्त अवस्था में  बने रहने  (Highest Self-Fulfillment) का कौशल हमसे अपनी शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक तीनो आन्तरिक शक्तियों (faculties) को विकसित कर लेने की अपेक्षा रखती है। इसका अर्थ यह हुआ कि हमें अपने शरीर, मन और हृदय तीनों को (3'H' -'Hand-Head-Heart' को) पौष्टिक आहार और व्यायाम (पाँच अभ्यास) के द्वारा हृष्ट-पुष्ट बनाकर उन्हें सुसमन्वित ढंग से विकसित कर लेना होगा। अर्थात बाह्य और आन्तरिक शौच, दोनों का अभ्यास करना होगा , क्योंकि विनय पत्रिका में सन्त तुलसी दास कहते हैं -
 मोहजनित मल लाग बिबिध बिधि कोटिहु जतन न जाई । 
जनम जनम अभ्यास-निरत चित, अधिक अधिक लपटाई ॥
किन्तु हमारे नवयुवक तो अभी यह भी नहीं जानते हैं, कि  3'H' की गन्दगी को स्वच्छ करने के लिये अपने हाथों को गन्दा कैसे किया जाता है।  "Our young boys do not know, how to dirt  their hands ?" यदि कोई नवयुवक ऐसे पिता का पुत्र है, जिसकी आमदनी कुछ हजार रूपये भी हो, तो उसे यह भी पता नहीं होता कि पानी से भरी हुई बाल्टी को कैसे उठाया जाता है ? अपने हाथों से अपने कमरे के फर्श पर झाड़ू कैसे लगाया जाता है ? अपने कपड़ों को स्वयं कैसे धोया और प्रेस किया जाता है? 
यहाँ महामण्डल द्वारा प्रकाशित पुस्तक 'जीवन नदी के हर मोड़ पर ' से पूज्य नवनी दा के जीवन की एक घटना का उल्लेख किया जा सकता है:" एक दिन देखता हूँ, मेरी माता जी घर से बाहर बागान में जो रसोईघर का ड्रेन या नाली निकलता था, उसे बैठकर साफ कर रही हैं। मैंने उन्हें प्रेम पूर्वक फटकारते हुए कहा -'आपको इस आयु में यह सब करने की क्या आवश्यकता थी, मुझे बुला लेतीं। ' इस माताजी ने हँसते हँसते कहा , " देखो बाइरे ड्रेन परिष्कार कोरबी आर भीतरे मोन परिष्कार कोरबी। " अर्थात देखो बेटे, बाहर हमेशा ड्रेन को स्वच्छ रखना तथा भीतर मन को हमेशा स्वच्छ रखना। मैं चुप हो गया, ठीक ही तो कह रही है, बाह्य शौच और आंतरिक शौच दोनों आवश्यक हैं; बाहर को भी गन्दा रखना उचित नहीं कहा जा सकता, और न भीतर को ही ! " (जी० नदी० पृष्ठ ३३)  
इसीलिये इस शिविर में हमें अपनी शारीरिक-मानसिक -आध्यात्मिक तीनों शक्तियों के सुसमन्वित विकास करने का अवसर मिले इसकी व्यवस्था की गयी है। यहाँ किचन (पाक-शाला), डायनिंग हॉल, फ़ूड डिस्ट्रीब्यूशन, टॉयलेट -बाथरूम क्लिंनिंग से लेकर पूरे परिसर की सफाई, ऑडोटोरियम, हॉस्पिटल, फिल्ड ड्यूटी आदि कई विभाग इतने तालमेल और निष्ठा के साथ काम करते हैं कि देख कर दंग हो जाना पड़ता है!इन विभिन्न विभागों में से किसी विभाग से जुड़ कर, हमें भी स्वयं अपने हाथों से कुछ काम करना अवश्य सीखना चाहिये। बल्कि उन कार्यों को भी करना चाहिये जिसे हमलोग 'छोटा काम' (Menial Work) कहते हैं। 
किसी भी काम को छोटा नहीं समझना चाहिये, क्योंकि प्रोबेशनरी पीरियड में ( नवाभ्यास काल में संदीपनि आश्रम में कृष्ण-सुदामा जैसा) स्वयं अपने हाथों से अपना काम करने का प्रशिक्षण प्राप्त करना, भावी लोकशिक्षकों या वुड बी लीडर्स के जीवन का अत्यन्त गौरवशाली अवसर होता है। क्योंकि जो व्यक्ति (वुड बी लीडर्स) अपनी सेवा आप नहीं कर सकता, वह भला (नेता -वैष्णवजन-हरिजन बनने के बाद) दूसरों की सेवा कैसे कर पायेगा ?
१०. 'BE and MAKE' का जुड़वाँ आदर्श :  गृहस्थ हों या सन्यासी प्रत्येक को "Bloom Where You're Planted- 'स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः' लोक-शिक्षक (वैष्णव-जन) बनने और बनाने की प्रेरणा देता है। (Twin Ideals:  BE and MAKE : "Bloom Where You're Planted- स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः" - be a Householder or a Sannyasin !)
स्वामी विवेकानन्द ने कहा है, " तुम इस जुड़वाँ आदर्श 'BE AND MAKE' को अपने सामने रखो, इसे ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लो। " अतः हमें सबसे पहले, अपने अंतर्निहित सर्वोच्च पूर्णता या ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त करने के लिये, पाँच दैनन्दिन अभ्यासों का निष्ठापूर्वक पालन करना होगा। और उसके मार्ग में जो भी बाधाएँ आयें उन्हें धीरे से किनारे करके आत्म-विकास के मार्ग पर आगे बढ़ते रहना होगा। 
परन्तु कल्पना करें कि हम तो अपने आत्मविकास की चोटी (summit,मोक्ष या भ्रममुक्त अवस्था) पर पहुँच गये, किन्तु हमारे शेष दूसरे भाई, हमारे अपने देशवासी अब भी गरीबी-भुखमरी के कारण दुःख से गिड़गिड़ा रहे हैं; "पंच भूतों के फन्दों में फंसकर रो ही रहें हैं !"- तब हमारे ऐसे उपलब्धि से क्या लाभ हुआ? इसीलिये स्वामीजी कहते हैं,"जब तुम आत्मविकास (परमपुरुषार्थ) के पथ पर अग्रसर हो रहे हो, तो अपने आस-पास रहने वाले सभी भाइयों को भी अपने साथ लेकर आगे बढ़ो !" इसलिये "सेवा का भाव " हमलोगों के आदर्श जीवन का एक अपरित्याज्य (indispensable) हिस्सा, अविभाज्य अंग बन जाना चाहिये।
इस प्रकारअपने अन्तर्निहित ब्रह्मत्व को अभिव्यक्त करने के लिये " स्वयं आत्मविकास करना तथा अपने आस-पास रहने वाले पाँच भाइयों को भी अपने साथ लेकर चलना" -यही दो कार्य है, जो स्वामी विवेकानन्द के द्वारा थाती के रूप में प्रत्येक व्यस्क, विचारशील, और आदर्शवादी नवयुवक को  सौंपे गए हैं! जो लोग इस शिविर में भाग लेने आये हैं, वे सभी ऐसे ही आदर्शवादी नवयुवक हैं। हम सभी को ये जुड़वाँ आदर्श -'BE AND MAKE' अत्यन्त प्रिय हैं, इसीलिये हमने इसे ही अपने जीवन-लक्ष्य के रूप में चुन लिया है!    
इसीलिये इस प्रशिक्षण शिविर में हमलोगों के ऊपर जिस विभाग में भी कार्य करने की जिम्मेदारी सौंपी जाय, या कोई कार्य करने को कहा जाय, तो उसे अपना कर्तव्य (पूजा) समझकर सहर्ष स्वीकार करना चाहिये। तथा इस प्रशिक्षण केन्द्र में हमलोग जितने दिनों तक एक साथ हैं, उस दौरान इसके सभी कार्यक्रमों में हमलोगों को पूरे दिल से, ध्यान-पूर्वक और प्रेम के साथ भाग भी लेना चाहिये। 
और इस शिविर से वापस लौट कर जब हमलोग पुनः अपने घर चले जायें, तो उन सभी अभ्यासों को याद रखना चाहिये, जिन्हें हमलोगों ने यहाँ सीखा है। तथा जब तक हमलोग अगले प्रशिक्षण शिविर में न चले आये, तब तक उन अभ्यासों को उसी बताये गए ढंग से विकसित करते रहने की चेष्टा भी करते रहना चाहिये। और जब इस प्रशिक्षण शिविर के आयोजक लोग तुम्हारे और अधिक खिले हुए चेहरों, तुम्हारे और अधिक विकसित व्यक्तित्व, स्वामीजी की शिक्षाओं और आदर्शों के विषय में तुम्हारी और अधिक स्पष्ट अवधारणा के साथ तुम्हें पुनः देखेंगे; तब उनके आनन्द का कोई ठिकाना नहीं रहेगा। 
इसके लिये क्या करना अनिवार्य होगा ? जब हम वापस लौट कर अपने घर चले जायें, तो अपने शैक्षिक विषयों का अध्यन (academic studies) के साथ साथ हमें नियमित रूप से स्वाध्याय करना होगा, अर्थात प्रतिदिन थोड़ा समय निकाल कर स्वामी विवेकानन्द के विचारों का, या महामण्डल पुस्तिकाओं का अध्यन भी करना होगा। किन्तु, अपने शैक्षिक विषयों के अध्यन की अथवा अपनी आजीविका चलाने के लिये तुम जो कुछ नौकरी या व्यापार  करते हो- उसकी, कभी उपेक्षा मत करना। कुछ नवयुवकों में ऐसी प्रवृत्ति भी देखी जाती है कि जब वे जीवन में किसी नये आदर्श को ग्रहण करते हैं, तब पहला काम वे यही करते हैं कि वे अपने शैक्षिक विषयों के अध्ययन की उपेक्षा करने लगते हैं।  
किन्तु हमें यह अवश्य याद रखना चाहिये कि यह कठिन प्रतिस्पर्धा की दुनिया है। और जब तक हमलोग अपने हेड और हैण्ड, विवेक-प्रयोग के लिये प्रशिक्षित मन के साथ साथ, शरीर को भी मजबूत और परिश्रमी नहीं बना लेते; चाहे जीवन के किसी भी कार्यक्षेत्र में क्यों न हों, वहाँ हम अपनी अच्छी छाप नहीं छोड़ सकते। शरीर और मन को लगाये बिना तो हम अपनी रोजी-रोटी भी नहीं कमा सकते। इसलिये हमें किसी वैसे संगठन से प्रशिक्षण नहीं लेना चाहिये जो हमें अपने गृहस्थ-जीवन के कर्तव्य या विद्यार्थी-जीवन के कर्तव्य की उपेक्षा करने की सीख देते हों ! वैसा करने से हमारा भविष्य बिगड़ जायेगा। भगवान श्रीकृष्ण ने भी गीता (३. ३५/१८.४५-४८) में कहा है - 
'स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।' 
 यहाँ स्वधर्म का अर्थ किसी जाति विशेष में जन्म लेने पर प्राप्त होने वाले कर्तव्य से नहीं है। स्वधर्म का सही तात्पर्य है स्वयं की वासनायें। स्वयं की सहज और स्वाभाविक वासनाओं के अनुसार कार्य करने से ही जीवन में शांति और आनन्द सफलता और सन्तोष का अनुभव होता है एवं परधर्म का अर्थ है दूसरे के स्वभाव के अनुसार व्यवहार और कर्म करना जो भयावह होता है इसमें दो मत नहीं हो सकते।
अर्जुन ने अपने विद्यार्थी जीवन में ही साहस और शूरवीरता का प्रदर्शन किया था और धनुर्विद्या में निपुणता भी प्राप्त की थी। अत युद्ध जैसा खतरनाक कर्म उसके स्वभाव के अनुकूल ही था। किन्तु अर्जुन ने संभवत अपने प्रारम्भिक शिक्षणकाल में यह सुना और समझा था कि संन्यास और त्याग का जीवन, किसी गृहस्थ के जीवन से श्रेष्ठतर है। इसीलिये कुरुक्षेत्र (युद्ध-भूमि) से पलायन करके गुफाओं में बैठकर ध्यानाभ्यास करने की उसकी इच्छा हो रही थी। श्रीकृष्ण उसे स्मरण दिलाते हैं कि स्वधर्म पालन में कुछ कमी रहने पर भी उसी का पालन उसके आत्मविकास के लिये श्रेयष्कर है
अपने-अपने नियत कर्मों का पालन करने से मनुष्य कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है अर्थात् उसका कल्याण हो जाता है। अतः दोषयुक्त दीखने पर भी नियत कर्म अर्थात् स्वधर्म का त्याग नहीं करना चाहिये। हे कौन्तेय दोषयुक्त होने पर भी सहज कर्म को नहीं त्यागना चाहिए क्योंकि सभी कर्म दोष से आवृत होते है।  जैसे धुयें से अग्नि। (साभार https://www.gitasupersite.iitk.ac.in)] 
इसीलियेमहामण्डल द्वारा निर्देशित आदर्श ' चरैवेति चरैवेति" अर्थात 'सेवा करो और प्रेरणा भरो' एक ऐसा कर्मयोग है जो समस्त वुड बी लीडर्स या भावी लोकशिक्षकों के लिये आसान है।  क्योंकि इसमें अपने स्वधर्म की उपेक्षा  शामिल नहीं है। हमलोग चाहे जीवन के किसी भी क्षेत्र में क्यों न कार्यरत हों, व्यापारी हों या नौकरी-किसानी आदि कार्य करते हों, या एक विद्यार्थी हों; हमें सदैव अपने कर्तव्य को सर्वोत्कृष्ट निष्ठा और सेवाभाव के साथ सम्पन्न करना चाहिये। अन्यथा, हमें अपने को स्वामी विवेकानन्द का एक अनुयायी कहने का कोई हक नहीं है। 
जो स्वामीजी का सच्चा अनुयायी होगा, वह जीवन के किसी भी क्षेत्र में सर्वोत्कृष्ट सेवायें प्रदान करेगा।वह चाहे एक सफाई कर्मचारी हो, या सेनाध्यक्ष अथवा प्रोफेसर हो, किन्तु उसे अपने अपने कार्य-क्षेत्र में रहते हुए ही सर्वोत्कृष्ट सेवायें अवश्य प्रदान करनी चाहिये। इस समय तुम जहाँ खड़े हो, (अर्थात अभी जीवन के जिस क्षेत्र में भी तुम्हें क्यों न रखा गया हो) वहीं पर यदि तुम अपना सर्वश्रेष्ठ सेवा नहीं दे सके, तो भविष्य में तुम्हें जहाँ खड़ा होना होगा, वहाँ भी अपनी सर्वश्रेष्ठ सेवा नहीं दे पाओगे। 
प्रभु ईसामसीह द्वारा [बाइबिल : * 1 कुरिन्थियों 7/विवाह:20-24:] में कथित इस वचन *" ब्लूम व्हेयर यू आर प्लांटेड " -से भी यही शिक्षा मिलती है। 
[यदि तुम विवाहित हो तो उससे छुटकारा पाने का यत्न मत करो। यदि तुम स्त्री से मुक्त हो तो उसे खोजो मत। किन्तु यदि तुम्हारा जीवन विवाहित है तो तुमने कोई पाप नहीं किया है। हर किसी को उसी स्थिति में रहना चाहिये, जिसमें उसे बुलाया गया है। क्या तुझे दास के रूम में बुलाया गया है? तू इसकी चिंता मत कर। किन्तु यदि तू स्वतन्त्र हो सकता है तो आगे बढ़ और अवसर का लाभ उठा। क्योंकि जिसे प्रभु के दास के रूप में बुलाया गया, वह तो प्रभु का स्वतन्त्र सेवक है। इसी प्रकार जिसे स्वतन्त्र व्यक्ति के रूप में बुलाया गया, वह मसीह का दास है। परमेश्वर ने कीमत चुका कर तुम्हें खरीदा है। इसलिए मनुष्यों के दास मत बनो।  हे भाईयों, तुम्हें जिस भी स्थिति में बुलाया गया है, परमेश्वर के सामने उसी स्थिति में रहो।] स्वामी जी द्वारा कथित निम्न लिखित विचार भी अत्यन्त महत्वपूर्ण विचार है। 
  • अपने में ब्रह्मभाव को अभिव्यक्त करने का यही एकमात्र उपाय है कि इस विषय में दूसरों की सहायता करना।
  • मोहग्रस्त लोगों (हिप्नोटाइज्ड लोगों) की ओर दृष्टिपात करो। हाय ! हृदय-भेदकारी उनके करुणापूर्ण आर्तनाद को सुनो।  हे वीरों ! बद्धों को पाशमुक्त करने, दरिद्रों के कष्ट को कम करने, तथा अज्ञजनों का हृदयान्धकार दूर करने (भ्रममुक्त करने) के लिए आगे बढ़ो, 'डरो नहीं', 'डरो नहीं '- यही वेदान्त-दुन्दुभि का स्पष्ट उद्घोष है।  
  • "जिसमें जितनी निःस्वार्थता है वह उतना ही आध्यात्मिक है, तथा उतना ही श्रीशिवजी के समीप है।  "
  • " मैंने इतनी तपस्या करके यही सार समझा है कि जीव-जीव में वे ही अधिष्ठित हैं, इसके अतिरिक्त ईश्वर और कुछ भी नहीं है।
११. विचारों की देखभाल : (मोबाईल-इंटरनेट जन्य विचार/ विवेकदर्शन जन्य  नितान्त आवश्यक:   क्योंकि " सो अ थॉट एंड यू रिप ऐन ऐक्शन.....हैबिट....कैरेक्टर ......ही  डेस्टिनी है !"  
( Take Care of Thoughts: Careful thinking of mobile-internet-based thoughts and judicious ideas.)
कुछ भी करने से पहले मन में विचार उठते हैं, फिर क्रिया होती है। इस प्रकार देख सकते हैं कि हमारे विचार ही हमारे कर्मों के बीज (germ,अंकुर) हैं। इसीलिये अच्छे बीजों की तरह ही अच्छे विचारों का चयन करना भी जरूरी है ! प्रसिद्द अंग्रेजी कहावत है -“ सो अ थॉट एंड यू रिप ऐन ऐक्शन....." -अर्थात हमलोग अपने मन में जिस प्रकार के विचारों को अंकुरित होने देंगे, या विचारों के जैसे बीज बोयेंगे वैसे ही कर्म काटेंगे।  जैसे कर्मों की बुआई करेंगे वैसी आदत काटोगे। जैसी आदतों को रोपेंगे वैसे ही चरित्र-रूपी फसल को काटेंगे। और जैसा चरित्र बोयेंगे वैसा ही भाग्य-रूपी फसल को काटोगे !
इसलिये इस युवा प्रशिक्षण शिविर (श्रीरामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त लीडरशिप ट्रेनिंग ट्रेडिशन) में श्रेष्ठ विचारों का (वेदान्त के महावाक्यों का) महत्व सबसे अधिक है। वेदान्त के चार महावाक्य ही वे सर्वोत्कृष्ट बीज हैं, जो हमारे मन में श्रेष्ठतम विचारों को उत्पन्न करने में सक्षम हैं। और उन विचारों का 'श्रवण-मनन और निदिध्यासन' करके हमलोग अपने जीवन को सुन्दर रूप में गठित कर सकते हैं। अतः हमें उन महावाक्यों पर पूर्ण श्रद्धा रखनी चाहिये, और उन्हें अक्षरशः स्वीकार करना चाहिये।
किन्तु इसके साथ साथ हमें अपने मन के ऊपर बहुत सतर्क दृष्टि भी रखनी पड़ेगी कि, 'मेरा मन जो मेरा यंत्र या साधन है, कहीं मेरे ही साथ कोई ट्रिक, चालाकी या छल-कपट तो नहीं कर रहा है? हम दूसरों को जैसा उपदेश देते हैं, स्वयं वैसा करते हैं या नहीं ? (मुँह से बोलते हैं -मैं ब्रह्म हूँ, और कुसंग में पड़कर कहीं सिगरेट तो नहीं फूँक रहे हैं ?) केवल हमारे मन-वचन और कर्म में ही नहीं, हमारे सम्पूर्ण जीवन में सत्यनिष्ठा (Honesty-ईमानदारी) अवश्य व्याप्त हो जानी चाहिये।इस मामले में हमें बिल्कुल एक नये प्रकार का मनुष्य बन जाना चाहिये।          
हो सकता है, कि हमारे संगी-साथी हमें मूर्ख कहकर पुकारें, या नाना प्रकार के व्यंग-बाण चलायें; किन्तु हमें अपने सत्यनिष्ठा को कभी नहीं छोड़ना चाहिये। यदि परीक्षा-भवन में सभी लोग नकल कर रहे हों, तो हमें वहाँ भी ईमानदार रहने की चेष्टा करनी चाहिये। परिणामों का सामना करने के लिये हमारे पास वैसा चरित्र और साहस रहना चाहिये कि हमलोग निर्भीक होकर कह सकें - " हाँ, मैं स्वामी विवेकानन्द का अनुयायी हूँ, मैं ऐसा काम नहीं कर सकता। मैं स्वयं अपने प्रति, अपने शिक्षक (गुरु-पथप्रदर्शक स्वामी विवेकानन्द) के प्रति और अपने भाग्य के प्रति हर हाल में ईमानदार रहूँगा। "  
जो लोग अच्छी तरह से मन लगाकर पढ़ाई नहीं करेंगे, वे परीक्षा में भी अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकेंगे। फिर अपने भविष्य के जीवन में आने वाले उच्तर परीक्षा या इम्तहान का सामना कैसे करेंगे ? वे अपने भावी जीवन में सफल कैसे होंगे ?  इस प्रकार हम देख सकते हैं, कि अच्छे विचारों का केवल एक बीज (२४ में से केवल एक चारित्रिक गुण - सत्यनिष्ठा) अंकुरित हो जाने के बाद हमारे भावी जीवन को किस हद तक परिवर्तित कर सकता है ! 
और हमें स्वामी विवेकानन्द के उपदेशों से ऐसे कितने ही प्राथमिक रूप से महत्वपूर्ण (primarily important) विचार प्राप्त होते हैं, जो अंकुरित होने पर सुन्दर फल प्रदान कर के भविष्य में हमारे सुन्दर जीवन का निर्माण कर सकते हैं ! हमें उनके 'शक्तिदायी विचारों' का अध्यन अवश्य  करना चाहिये ।  स्वामीजी कहते हैं, "  केवल पाँच ही अच्छे विचारों को  लेकर, सोते-जागते सब समय उसी में विभोर होकर रहो। तुम्हारा मस्तिष्क, स्नायु, शरीर के सर्वांग उसी के विचार से पूर्ण रहें।  दूसरे सारे विचार छोड़ दो। यही सिद्ध होने का (चरित्रवान मनुष्य बन जाने का) उपाय है।" 
और श्री रामकृष्ण ने कहा है- " मुख से तबले के बोल निकाल लेना बहुत ही आसान है, किन्तु अपने हाथों के माध्यम से उन्हें निकाल पाना कठिन है। 
अतः सबसे महत्वपूर्ण काम है, हमलोग यहाँ चरित्र के २४ गुणों के विषय में जो कुछ सुनें हैं, उनमें से कुछ गुणों का चयन कर लेना चाहिये, और सोते जागते हर समय उसी भाव में विभोर होकर  (मैं शरीर नहीं, सर्वव्यापी आत्मा हूँ,... ऐसे विदेह-भाव में विभोर) रहना चाहिये। अर्थात उन ५ भावों को शरीर के स्नायुों से प्रवाहित करके उन्हें अपने दैनन्दिन जीवन के व्यव्हार में अभिव्यक्त भी करते रहना चाहिये। इस प्रकार 
जिस दिन हमलोग यह समझ जायेंगे कि हमारे जाने बिना, हमें यहाँ क्या मिल गया है ? ('त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि' सुनाते समय केवल आइ कॉन्टैक्ट से ही भ्रममुक्त कर दिया गया है ?) तब हमलोग आज के दिन (९जुलाई २०१७ गुरुपूर्णिमा) को धन्य मानेंगे; और अपने आस-पास रहने वाले दस भाइयों को (जो " पंचभूतेर फांदे ब्रह्म पड़े कांदे" या "हिप्नोटाइज्ड सिंह-शावक" की अवस्था में हैं, जो स्वयं ब्रह्म होते हुए भी पंचभूतों के फन्दे में फंसे, जन्म-जरा-व्याधि-मृत्यु के दुःख और दैन्य से पीड़ित होकर रो रहे हैं को )    
एकत्र कर, थंडरबोल्ट की तरह इरिज़िस्टबल या अप्रतिरोध्य पूर्णतः निःस्वार्थपर मनुष्य-निर्माणकारी आन्दोलन 'BE AND MAKE' का प्रचार-प्रसार करने के कार्य में जुड़ जायेंगे। " calling them to share the glad tidings you are in." 

और भारत के प्राचीन ऋषियों की तरह स्वयं ज्ञानामृत से परितृप्त होकर (भ्रममुक्त होकर-डीहिप्नोटाइज्ड होकर) उस अमृत का पान कराने के लिये, अपने उन भाइयों को आमन्त्रित करते हुए मेघ-गंभीर स्वर से पुकार कर कहेंगे -
" श्रृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्राः आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः । 
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तमादित्यवर्ण तमसः परस्तात् । 
तमेव विदित्वाSति मृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय । 
(श्वेताश्वत्तरोपनिषद्-२/५ , ३/८)  
-' हे विश्व-वासी अमृत-पुरुषों के पुत्रगण, हे दिव्यधाम निवासी देवतागण, सुनो -मैंने आदित्य के समान दैदीप्यमान उस महान पुरुष  (श्रीरामकृष्ण के स्वरुप को या फैक्ट ऑफ़ गॉड ) को जान लिया है, जो समस्त अज्ञान-अन्धकार के परे है। केवल उसे जानकर ही मनुष्य मृत्यु पर विजय प्राप्त कर सकता है। इसके अतिरिक्त मृत्युंजय होने का अन्य कोई मार्ग नहीं।' 
' अमृत के पुत्रो '- "Children of immortal bliss" -- कैसा मधुर और आशाजनक सम्बोधन है यह ! बन्धुओ ! इसी मधुर नाम -अमृत के अधिकारी से आपको सम्बोधित करूँ, आप इसकी आज्ञा मुझे दें. निश्चय ही हिन्दू किसी मनुष्य को भी पापी कहना अस्वीकार करता है.आप तो ईश्वर की सन्तान हैं, अमर आनंद के भागी हैं, पवित्र और पूर्ण आत्मा हैं। " Ye divinities on earth — sinners! It is a sin to call a man so " आप इस मर्त्यभूमि पर देवता हैं। आप भला पापी ? मनुष्य को पापी कहना ही पाप है, वह मानव-स्वरुप पर घोर लांछन है। आप उठें ! हे सिंहो ! आयें, और इस मिथ्या भ्रम को झटककर दूर फेंक दें कि आप भेंड़ हैं। आप हैं आत्मा अमर, आत्मा मुक्त, आनंदमय और नित्य ! आप जड़ नहीं हैं, आप शरीर नहीं हैं; जड़ तो आपका दास है, न कि आप हैं दास जड़ के। 
 "your lives will be transformed." इस  प्रकार मानवजाति के मार्गदर्शक नेता, 'वेदान्त- केसरी स्वामी विवेकानन्द' के लीडरशिप में हमलोगों का जीवन भी रूपान्तरित हो जायेगा।  और जो 'सिंह-शावक' (आत्मा) होकर भी अपने  को भेंड़ (केवल शरीर और मन) समझ रहा था , वह स्वयं भ्रममुक्त होकर दूसरों को भ्रम से मुक्त करने वाला लोक-शिक्षक (वैष्णव-जन, या नेता) बन जायेगा,  उसके जीवन में सत्ययुग चलने लगेगा। और हम सभी  उस सत्ययुग को धरती पर उतारने में सहायता करने के कार्य में जुट जायेंगे , 'जब विश्व का प्रत्येक मनुष्य एक उपासक होगा और प्रत्येक मनुष्य में अन्तर्निहित सत्यता (ब्रह्मत्व) ही उसकी उपासना का विषय होगा।" 
It is a great blessing before us all that this movement is on. And you are really blessed that you have responded to the call of the great Swamiji.
हमलोगों पर श्रीरामकृष्ण-माँ सारदा देवी -स्वामी विवेकानन्द की असीम कृपा है, कि विगत ५० वर्षों से महामण्डल का यह मनुष्य-निर्माण और चरित्र-निर्माणकारी आन्दोलन निरन्तर आगे बढ़ता जा रहा है। और तुमलोग सचमुच धन्य हो कि तुमने मानव-जाति के महान मार्गदर्शक नेता स्वामी विवेकानन्द के आह्वान का प्रति-उत्तर दिया है।      
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१. स्वामी विवेकानन्द के प्रति नव-युवकों के आकर्षण का रहस्य:
(The secret of His (Swami Vivekananda's) charm:)
२. भगवान श्री रामकृष्ण का नवयुवकों के प्रति असाधारण प्रेम :
( Bhgvan Sri Ramakrishna's extraordinary love for young people:)
३.महामण्डल की जड़ें कहाँ अवस्थित हैं? 
( Where are the roots of Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal?)
४. वसीयत के रूप में प्राप्त स्वामी विवेकानन्द का हुकुमनामा : 
(Commandment of Swami Vivekananda received as a will! His Bequest)    
५. युवा प्रशिक्षण का सार - विवेकदर्शन का अभ्यास और लालच को कम करना :
 (The Training: Practicing Prudence and Reducing Greed.) 
६. धर्म क्या है ? 
(What is Dharma? 
७.शिक्षा का उच्चतम आदर्श : फिजिकल फ़िट्नेस के साथ विवेक-दर्शन में प्रशिक्षित मन ! 
(The Highest Ideal of Education: 'Physical Fitness with Trained mind in Prudence.' )  
८.'रामकृष्ण-विवेकानन्द वेदान्त नेतृत्व प्रशिक्षण परम्परा' के तहत आध्यात्मिक जागृति का प्रशिक्षण !
 (Training for Spiritual Awakening: Under Ramkrishna-Vivekananda Vedanta Leaders Training Tradition!)
९.सुसंगत विकास: [ऑडोटोरियम, किचेन, टॉयलेट, फिल्ड ड्यूटी आदि प्रशिक्षण द्वारा 3'H' शारीरिक-मानसिक-आध्यात्मिक त्रिशक्तियों का सुसंगत विकास: ।] 
 (Harmonious Development of 3'H 'Complex : Tri-powers through  Auditorium, Kitchen, Toilet, field duty training.)
१०. 'BE and MAKE' का जुड़वाँ आदर्श :  गृहस्थ हों या सन्यासी प्रत्येक को "Bloom Where You're Planted- 'स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः' लोक-शिक्षक (वैष्णव-जन) बनने और बनाने की प्रेरणा देता है। 
(Twin Ideals: BE and MAKE : "Bloom Where You're Planted- स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः" - be a Householder or a Sannyasin !)

११. विचारों की देखभाल : मोबाईल-इंटरनेट जन्य विचार/ विवेकदर्शन जन्य विचार की देखभाल नितान्त आवश्यक:  क्योंकि - " सो अ थॉट एंड यू रिप ऐन ऐक्शन.....हैबिट....कैरेक्टर ......ही  डेस्टिनी है !" 
 ( Take Care of Thoughts: Careful thinking of mobile-internet-based thoughts and judicious ideas.)



सोमवार, 15 मई 2017

Youth Training and Swami Vivekananda (From old pages : By Swami Budhananda )


1.The secret of His (Swami Vivekananda's) charm: 
Swami Vivekananda fascinates every young man. I have not seen one young man up till now, who having known a little about him, having read a few pages about him, can resist loving him. Swamiji fascinates everybody irresistibly, and why ?  First of all, there is a tremendous physical charm in him. He is a picture of eternal youth, a picture of tremendous strength and fearlessness. Look into his eyes.There is an unspeakable language.
Everybody keeps wondering, what is inside that person ? If the picture is like that, how was the living man ? You may soon discover that his fascination is not in his physical charm. There may be more physically beautiful men in the world. You do not like to look at their pictures for a great length of time. But you never become tired to look at Swamiji’s picture. What is the secret ? 
The secret is his unbounded love. His love which through his eyes reaches your heart and soul and inspires something very noble within you, which you have not known before. And behind this love is his perfect holiness.And behind that again is his complete spiritual illumination. And there is something more. Those of you who have read the life of Sri Ramakrishna would know that before passing away he transmitted into Swami Vivekananda (Naren) all his spiritual powers.
Besides that everybody sees in him a picture of the dream of his own self-fulfillment. There is in him also the picture of the perfection a man can attain.
[The Dream of his own Self-Fulfillment: i.e. the possibility of becoming the 'Knower of Brahman'! ‘knower of Brahman’ involves realization of one's true nature as Sat- Chit-Ananda. The Bliss of Brahman, which is experienced through the non-duality of existence and is the bestower of Freedom. ‘Brahmavid Brahmaiva bhavati' – he who knows Brahman became Brahman’ (Mundak. U. 3.2.9) He who knows the Bliss of Brahman, whence all words together with the mind turn away, unable to reach it—he never fears. ]  
2. Bhgvan Sri Ramakrishna's extraordinary love for young people:
 Even Sri Ramakrishna himself, when he first met Naren, was utterly fascinated by him. At the very first look he knew his great potential and he knew what for he was born.When Naren came to him he was eighteen. He was only twenty-three when Sri Ramakrishna passed away. Many elderly and learned persons used to come to Ramakrishna, but he transmitted his powers to a young man. And he gave all the legacy he had, he gave the leadership of the band of the younger generation as his main standard-bearer among his followers. It is not that to any elderly person he had not given any of his powers or he had not showered his grace upon them. But, where the dynamic part of the mission was concerned he choose Naren as the leader. 
Why did he choose Naren as the leader ? Sri Ramakrishna himself explained why he placed so much trust on young boys. He said: ‘Why am I so fond of the boys? They are like unadulterated milk ; only a little boiling is needed. Moreover it can be offered to the deity. 
But milk adulterated by water needs much boiling. It consumes a large quantity of fuel. The boys are like fresh earthen pots, good vessels in which one can keep milk without any worry. Spiritual Instructions arouse their inner consciousness without delay. But it is not so with the worldly-minded. One is afraid to keep milk in a pot that has been used for curd. The milk turns sour.’
3. Where are the roots of Akhil Bharat Vivekananda Yuva Mahamandal?
If you ask, Where are the roots of this character-building movement, or where is the root of this Vivekananda Yuva Mahamandal ? 
Then I will point out : This love of Sri Ramakrishna for young boys, this trust which Ramakrishna placed on young boys. I should also say that his love and trust have devolved upon you. And this is the root for certain, if you search for a spiritual root of this organization. Remember this. What a tremendous love and trust ! And whose love and trust are these ? You know, millions in the world worship Sri Ramakrishna as God incarnate. And God’s love has devolved upon you. His trust has fallen on you. 
        It is a matter of unspeakable joy, shining glory, and beatific pride to have this trust of the Lord on you. And how much should you be conscious of the responsibility you carry along. That does not mean that you should feel that you are getting crushed. But your heart should be emboldened, you should be enthused to think that so much is given to you by the Lord himself without your knowing even.
4. His Bequest: "Commandment of Swami Vivekananda received as a will !"  
Coming to Swami Vivekananda also we find the same thing. In his famous letter dated 20 August 1893, even before appearing at the Parliament of Religions, he wrote to Alasinga, bequeathing his legacy mainly to the youth :
 ‘The hope lies in you - in the meek, the lowly, but the faithful. Have faith in the Lord [i.e अवतार वरिष्ठ bhagvan Sri Ramakrishna में श्रद्धा अर्थात आस्तिक्य बुद्धि); no policy, it is nothing. Feel for the miserable and look up for help - it shall come.
 I have traveled twelve years with this load in my heart and this idea in my head. I have gone from door to door of the so-called rich and great. With a bleeding heart I have crossed half the world to this strange land, seeking for help. 
The Lord is great. I know He will help me. I may perish of cold or hunger in this land, but I bequeath to you, young men, this sympathy, this struggle for the poor, the ignorant, the oppressed. Go now this minute to the temple of Parthasarathi, and before Him who was friend to the poor and lowly cowherds of Gokula, who never shrank to embrace the Pariah Guhaka, who accepted the invitation of a prostitute in preference to that of the nobles and saved her, in His incarnation as Buddha - yea, down on your faces before Him, and make a great sacrifice, the sacrifice of a whole life for them, for whom He comes from time to time, whom He loves above all, the poor, the lowly, the oppressed. Vow, then to devote your whole lives to the cause of the redemption of these three hundred millions, going down and down every day.’ That is what he commanded the younger generation. 
5.The Training: ['Practicing Prudence and Reducing Greed' विवेकदर्शन का अभ्यास और लालच को कम करना !]       
 This is the tradition which has devolved upon you all who belong to this Yuva Mahamandal. So what type of training should you have ? The training must be for man-making. It is not as if any other person is going to make you. It is self-man-making. Others will provide you information, enthusiasm, help, and guidance. When you are in error they will help you out of it. But the main part in this self-man-making is to be played by you. What is necessary for that is an understanding of what you are about. And enthusiasm for what you have undertaken to do.      
 So first you have to learn well what you are expected to be like through this man-making scheme. What really Swamiji wanted you to be like ? You have your free will ; and after exercising  your best thought you have chosen this ideal for your life. Nobody has forced you, nobody has dragged you here. It is out of your own free will that you are here to allow yourself to be fashioned, out of your own choice, according to an ideal which fulfils all your aspirations. 
" चित्तनदी नाम उभयतो वाहिनी, वहति कल्याणाय वहति पापाय च /
 कैवल्यप्राग्भारा विवेकविषयनिम्ना सा चित्तनदी कल्याणाय वहति/ 
 संसारप्राग्भारा अविवेकविषयनिम्ना सा पापाय वहति।/ 
तत्र वैराग्येण विषयस्रोतः खिलीक्रियते, विवेकदर्शनाभ्यासेन विवेकस्रोत उद्घाट्यते।" 
      In the hymn which you sing, you have said : We  will speak one thing, we will follow one path, we will all be united. But how can all be united ? How can we all speak one thing? There are so many things in the world, so many ideals. It is only possible to speak in one voice, to follow one idea, if it fulfills and at the same time transcends all the smaller things of life. Therefore, in the highest ideal only all can unite, all can have one voice. Anything lesser than the highest will not fulfill the needs of everybody. And there is such a thing in the world which can fulfill the needs of everybody. This is called Dharma. 
6.What is Dharma ?:     
  Dharma is expounded by many persons who want to discourage Dharma in diverse ways.  But our ancient teachers taught Dharma to be helpful for the advancement of everyone. What helps everyone in safeguarding his self-development, what helps one abstain from  hurting others - in other words, what helps everyone in attaining self-fulfillment - that is Dharma.    
   Now, that indeed must fulfill the highest self-interest of every single person in this world. It will not do only to fulfill your aspiration, your interest or your relatives’ interest, or your family’s interest, or your clan’s interest, or your own political party’s interest, or even your country’s interest. No. It must fulfill every single human being’s interest in such a manner that he may attain his whole self-fulfillment in this world; and this is the highest in which all can unite, can meet, all can speak in one voice, because everybody’s highest aspiration will be fulfilled there. 
कलिः शयानो भवति, संजिहानस्तु द्वापरः ।
 उत्तिष्ठँस्त्रेताभवति, कृतं संपद्यते चरन् ।
चरैवेति चरैवेति॥
Swamiji, therefore, placed before us the highest ideal; nothing less than the highest ideal will do for us. And all the quarrels, all the problems in the world, which you face today or you have to face some time when you grow up, arise because we are not following the highest ideal of life.
7.The Highest Ideal of Education: ('Physical Fitness with Trained mind in Prudence.' )    
 Now, therefore, we must know what the highest ideal of life is, and how we can progress towards it. First, Swamiji emphasizes that you must have physical fitness. He went so far as to say that through football you will reach your ideal of life better than by hearing of an ideal which you cannot comprehend. Whatever is necessary for developing the potential of your physical strength has to be part of your training. And it is a part of your programme. 
But suppose you are as strong as a bison or a bull. What does it matter ? With a bull’s brain and a bull’s strength if you go about in society, how does it help you or the society ? Therefore, it is important that along with having your physical fitness you must have a trained  mind. In a trained mind you should develop all the potentials of your mind. The mind has got tremendous potential beginning from the capacity to smash an atom on the one hand, up to realizing the Atman, on the other. Everything man has attained through concentrating the powers of his mind. Unless you have mental power, your physical power will take you nowhere. 
In  your mind you have the powers, by developing which you have the capacity to control your physical power. But even your mental power will not take you very far. By exercising mental powers people are devising weapons which are self-destructive to human civilization. Therefore, you need a higher faculty of your mind by which you can discriminate between what is good for you, what is good for your neighbor, and what is good for all - and what is not good for anybody.
8. Training for Spiritual Awakening: (Under Ramkrishna-Vivekananda Vedanta Leaders Training Tradition!)
So, by the side of your physical strength you have to develop your mental power, power of discrimination, and over and above that something higher, which is called spiritual awakening. If you simply move about in this little world where you suppose that the body-mind complex is the ultimate reality, you have not known what vastness lies behind this apparent entity. 
You may say, I don’t know about it. What does it matter ? You do not know many things. You have to hear and learn from those who know better. And they have said about it and Swamiji has found it for us. As you all know, at one time of his life,Swami Vivekananda himself was not a complete believer in the existence of God. He challengingly asked Ramakrishna, with a mind which was scientifically trained, ‘Is there a God ? Have you seen Him, sir ?’ 
Sri Ramakrishna said, ‘I have seen Him and you can also see Him.’  And under his training when Swamiji himself saw God, then only he accepted the fact of God. 
This fact of God is the ultimate reality or the highest fact of life, without
knowing which whatever you do in life in this world, you can never solve the problems of the human civilization. So, it is also necessary that as a part of the
training we must have something to do with what is called spiritual awakening. Our teachers say, if you believe them, in every human being there is the potential, whether you know it or not, for the highest self-development.
When you know or Realize this -"एकं, सत विप्राः बहुधा वदन्ति" , you know that what 'you' are and the 'ultimate reality' of the universe are the same. (
 This may be a far cry for you. You may say that you do not understand this. But it does not matter if you do not fully understand it. Yet it is good enough to have the information that this is also a dimension of the whole human personality. So in your training you have to develop the horizon of your mind, you have to develop the keenness of your intellect, and besides you have to learn what is called the control of the mind. 
9. Harmonious Development of 3'H 'Complex : (Tri-powers through  Auditorium, Kitchen, Toilet, field duty training.)
 It is the mind with which one has to work in the world. And in this mind you must allow the highest thought to enter. Do not shut your mind. No matter from where they come, thoughts should be allowed to come from all directions. But there should be a power of discrimination by which you will dedicate your loyalty to certain thoughts which show you the way to self-development. 
You have already made a great choice of your life that you will follow the teachings and ideals set forth by Swami Vivekananda. And as you grow older and the horizon of your mind increases, you will know that you have not made a wrong choice. You will bless the day when you made this choice out of contending ideals, which might have been presented to you, because Swamiji has given an ideal which fulfills the highest needs of all, leading to the self-fulfillment which is within you. And this highest self-fulfillment demands that you cultivate all your faculties - physical,mental, and spiritual. 
That is, you have to cultivate your hand, your head, and your heart in a harmonious manner. Our young boys do not know to dirt their hands. If some-one is a son of a father who earns a few thousand rupees, he does not know to lift a bucket of water, or to sweep the floor of his room, or to wash his clothes. You must learn to do some work with your hands, even what you call menial work. It is a very dignified probation of life to serve oneself. For how could those, who do not serve themselves, serve others ?
10.Twin Ideals:  [BE and MAKE : "Bloom Where You're Planted- स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः" - be a Householder or a Sannyasin !]
 Swamiji said: Have these two ideals before you. First, work for the highest
self-development of your own and whatever comes on your way, leave them aside gently and proceed onward. But suppose you reach the summit of your self development and all your brothers, all your countrymen, grovel in dust and poverty! What does it matter then?
 Therefore, Swamiji said: As you move forward, take along all your brothers with you. Service, therefore, must form an indispensable part of your idealism in life. These two things - self development for self-fulfillment and taking others along - are the tasks of any grown-up, thoughtful, and idealistic young man. You are such young men. And you have chosen this twin ideal out of your great love for this. 
You should, therefore, willingly accept whatever is given to you here as a task, as a duty, and also participate in the programme of the training center during the days you are here with all your heart, attention, and love. And after you go home, remember what you have learnt here and try to grow in that way all the days before you come to the next training camp. The organizers will have then no end of their joy, when they find you again with a more blooming face, your more developed personalities, your greater understanding of Swamiji’s words and ideals. What is necessary for that is, when you go back home, along with your academic studies, you should also study a little of Swamiji’s thoughts. Never neglect your academic studies or the work you are supposed to do.Some of the boys, when they take up some ideal, the first thing they do, they neglect their academic studies. But you must remember, it is a world of hard competition. Unless you work with your brain and hand and make a good mark in any sphere you are, you cannot make your living even. Therefore, don’t take that training from anywhere, which teaches you to neglect your duty. It will smoother your future.
What is called Svadharma by Sri Krishna in the Gita (3/35) is very important.

 श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
         स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।3.35।।
[ Commentary : It is indeed better for man to die discharging his own duty though destitute of merit than for him to live doing the duty of another though performed in a perfect manner. For the duty of another has its pitfalls. The duty of a Kshatriya is to fight in a righteous battle. Arjuna must fight. This is his duty. Even if he dies in the discharge of his own duty? it is better for him. He will go to heaven. He should not do the duty of another man. This will bring him peril. He should not stop from fighting and enter the path of renunciation.
Therefore Karma Yoga is better than Jnana Yoga. For, it forms one's own duty, since it is natural to one and easy to perform, and though defective, is free from liability to interruption and fall. Jnana Yoga, on the other hand, though performed well for some time, constitutes the duty of another, as it is difficult to practice for one conjoined with Prakruti. It is therefore liable to interruption. For a person who lives practicing Karma Yoga - which is his duty because he is qualified for it - even death without success in one birth does not matter. For, in the next birth with the help of the experience already gained in the previous birth, it will be possible for him to perform Karma Yoga without any impediments. Jnanan  Yoga is fraught with fear because of the possibility of errors for anyone who is conjoined to Prakrti. It is another's duty, on account of it being not easily adoptable by him.
Similarly in Gita 18/45- स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः।  
Commentary This is the division of labour for which each caste is fitted according to its own nature. The duty prescribed is your sole support? and the highest service you can render to the Supreme is to carry it out wholeheartedly? without expectation of fruits? with the attitutde of dedication to the Lord. This will surely lead you to the Supreme. All the impurities of the mind will be washed away by the performance of ones own duty and you will be fit for Selfknowledge.स्वे स्वे कर्मणि Each devoted to his own duty in accordance with his nature (Guna) or caste. It is impossible to attain Moksha by works alone but works purify the heart and prepare the aspirant for receiving the divine light.The attitude of worshipfulness is prescribed for work.  
Similarly Gita 18/48 says- सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्।
Commentary:  सहजं= Born with, oneself born with the birth of man.सदोषम =  Faculty for everything is constituted of the three Gunas.All undertakings Ones own as well as others duties. 
So, one should not relinquish one's works, understanding that they are natural, are easy to perform and not liable to negligence. Such thoughts coupled with the idea that there are imperfections in them should not lead you to abandon them. The meaning is that though one is fit for Jnana Yoga, one should perform Karma Yoga only. All enterprises, be they of Karma or Jnana, are indeed enveloped by imperfections, by pain, as fire by smoke. But still there is this difference: Karma Yoga is easy and does not involve negligence, but Jnana Yoga is contrary to this. ]
You may be a clerk, you may be a student ; wherever you are, give your best loyalty and service. Otherwise, you are not a follower of Swamiji.  A Swamiji’s follower will give his best in any station of life. He may be a sweeper, he may be a general, he may be a professor, but he must give his very best there itself. Until you give your very best where you stand, you cannot give your best where you will stand. 
 Bloom Where You Are Planted (1 Corinthians 7:20–24) [God has placed you here for a purpose, Whatever it might be; Know He has chosen you for it And labor faithfully. —Anon.You are never in the wrong place to serve that God, whom ignorant people say -Human !This thought is very important.
11.Take Care of Thoughts: (Careful thinking of mobile-internet-based thoughts and judicious ideas.)
Thought is the germ of your action.There is a saying : Sow a thought and reap an action; sow an action and reap a habit; sow a habit and reap a character; sow a character and reap a destiny. 
Therefore, thoughts are very important in training. Highest thoughts,  which are able to produce good ideas and create our beautiful life, must be accepted in toto. And you must see that your mind does not play tricks with you. Honesty must permeate the whole life -mind, words, and action. You must be a new type of people.
[ Under The 'Leadership Training' in Sri Ramakrishna-Vivekananda Vedanta Tradition, we receive 24 Character Qualities as healthy thoughts.] Your friends will perhaps call you fools. Everybody is copying in the examination hall and you are trying to remain honest. You must have that character, that courage to stand. You must face the consequences and say: Yes, I am a follower of Swamiji. I cannot do this. I will be honest to myself, to the teacher, and to my destiny. 
Those who will not study well will not do well in their examinations. How can they face their future and greater examinations in life? How can they prosper there?  Thus you see a seed of thought may bring about so much change in your future. And such thoughts, germinal thoughts, primarily important thoughts, which can build up life, you get in Swamiji’s teachings. So study them. Swamiji says: take a few ideas and make them your life and character. 
And Sri Ramakrishna said: It is very easy to say the notations of the tabla by the mouth, but it is difficult to bring them by the hand. Therefore, it is important you should try to take that the few thoughts you learn here into the stream of your life and grow accordingly. When you understand what you are about here, you will bless this day and try to spread the idea to others, calling them to share the glad tidings you are in; your lives will be transformed. It is a great blessing before us all that this movement is on. And you are really blessed that you have responded to the call of the great Swamiji.